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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
पूज्य पिताजी ! मैं पाणिपात्र में आहार करूँगा, दिगम्बर दीक्षा धारण करूंगा। यह व्रत मैंने ले लिया है अब मैं राजमन्दिर में नहीं जा सकता। महाराज आदि ने दीक्षा से कुमार को बहुत रोका किंतु उन्होंने एक न मानी। सीधे सूर्योदय के पश्चात मुनिराज के पास चले गये। और केशलुंचन कर दीक्षा धारण कर ली।
एवं अष्ट अंग सहित सम्यग्दर्शन के धारक बड़े-बड़े देवों द्वारा पूजित वारिषेण मुनि तेरह प्रकार चारित्र का पालन करने लगे। वारिषेण मुनिराज के व्रत-रहित पुष्पड़ाल आदि अनेक शिष्य थे उन्हें उपदेश शुभाचार और चातुर्य से सन्मार्ग में प्रतिष्ठित किया। बहुत काल पर्यन्त भूमण्डल पर विहार किया। अनेक जीवों को संबोधा। आयु के अन्त में रत्नत्रययुक्त हो संन्यास धारण किया। भली प्रकार आराधना आराधी। एवं समाधिपूर्वक अपना प्राण त्यागकर मुनि वारिषेण का जीव अनेक देवियों से व्याप्त महान् ऋद्धि का धारक देव हो गया ॥५०-७०॥
अथैकदानृपो धर्मकृते चिता विहानये। सुखेन स्थातुमिच्छायै पूर्वजन्मविमोहतः ।। ७१ ॥ समक्षं सर्वभूपानां महोत्सवविधानतः । ददौकुणिकपुत्राय राज्यं प्राप्यनेश्वरम् ।। ७२ ।। कुणिक: पूर्वपुण्येन राज्यमासाद्य संबभौ । रक्षयन्वसुधां सारां कुवंश्चोरादिवजितां ।। ७३ ।। अथ स पूर्ववैरेण श्रेणिकं काष्टपंजरे । कुनिकंठे विनिक्षिप्तनागोद्भ तविपापतः ।। ७४ ॥ सुधर्मतः क्षयं नीतः किंचिदुच्छिष्टतः खलु । क्षिप्तवांस्तनुज पापी हिंसको मदमोहितः ॥ ७५ ।। मात्रानिवार्यमाणोऽपि गालिदानंददाति सः । दुर्वाक्यानि किरन् क्रोधात् मर्मभेदानिमूढधीः ।। ७६ ।। कोद्रवान्नंसतैलं च निर्लावणमव्यंजनम् । भोज्यं तस्मै प्रदत्ते स किरन् दुर्वाक्यसंतति ।। ७७ ॥ कर्मभावं विजानानस्तथा तस्थै नपाधिपः । चितयन्नेव सः पाकं सकीले काष्टपंजरे ।। ७८ ।। कुणिको दुष्टचेतस्कोऽन्यदा पुत्रेण पापधीः । लोकपालाभिधेनैव स्वर्णामत्रेभुनक्ति वै ।। ७६ ॥
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