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________________ जगति विजयकीर्तिर्भव्यमूर्तिः सुकीतिजयतुच यतिराजो भूमिपः स्पृष्टपादः । नयनलिन हिमांशु नभूपस्य पट्टे विविध परविवादे क्षमाधरे वज्रपातः ॥ १ ॥ तच्छिष्येण शुभेन्दुना शुभमनः श्रीज्ञानभावेन वै पूत पुण्य पुराणामानुष्यभवं संसारविध्वंसकं । नो कीाव्यरचि प्रमोहवशतो जैने मते केवलं नाहंकारवशात् कवित्वमदत: श्रीपद्मनाभेरिदम् ॥ २ ॥ अर्थ-नय (प्रमाणांश) रूपी कमलिनियों को प्रकाशित करने में चन्द्र के समान महाराज ज्ञानभूषण के पट्ट पर अनेक पर विवादरूपी पर्वतों पर वज्रपात, अनेक राजाओं से पूजित, उत्तम कीति के धारक भव्य मूर्ति यति राज श्री विजयकीति संसार में जयवंत रहे ।। १ ।। भट्टारक विजयकीति के शिष्य शुभचन्द्र ने शुभ मन और ज्ञान की भावना से पुराण से उद्धत पवित्र एवं संसार का नाश करने वाला यह श्री महापद्मनाथ तीर्थंकर का पुराण रचा है। मेरा जैन मत पर अटूट स्नेह है इसीलिए यह रचना की गई है किन्तु कीर्ति अहंकार और व वित्व के मद से नहीं की गई है। भट्टारक शुभचन्द्र के विषय में जो पट्टावली मिली है उसमें भी यह पाया गया है कि भट्टारक शुभचन्द्र भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य, पद्मनन्दी, सकलकीर्ति आदि के शुद्धाम्नाय में हुए हैं। उसी प्रकार नीचे लिखी पाण्डव पुराण की प्रशस्ति के श्लोकों से भी यह बात जानी गई है कि भट्टारक शुभचन्द्र भट्टारक विजयकीति के ही शिष्य और कुन्दकुन्दादि आचार्यों की ही आम्नाय में थे। श्री मलसंघे जनि पदमा नन्दी तत्पट्टधारी सकलादिकीतिः । कीर्तिः कृतायेन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थ कत्री सकला पवित्रा. ।। ६७ ।। भुवनकीतिरभूद्भुवनाद्भुतैर्भुवन भासन चारुमतिः स्तुतः । वरतपश्चरणोद्यत मानसो भवभयाहिखगेट क्षितिवत्क्षमी ।। ६८ ।। चिद्रूपवेत्ता चतुरश्चिरंतनश्चिद्भूषणश्चचित पादपद्भकः । सूरिश्च चन्द्रादिश्चयश्चिनोतु वैचारित्रशुद्धि खलु नः प्रसिद्धिदां।। ६६ ।। विजयकीति यतिर्मुदितात्मकोजितनतान्यमनः सुगतैः स्तुतः । अवतु जैनमतं सुमतोमतोनृपतिभिर्भवतो भवतो विभुः ।। ७० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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