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प्रस्तावना
यों तो यह संसार है विविध प्रकार के संसारी प्राणी उपस्थित होकर इसमें जन्म ग्रहण करते हैं। और यथायोग्य अपने जीवन का निर्वाह कर चले जाते हैं परन्तु जन्म उन्हीं मनुष्यों का सार्थक एवं प्रशंसा पात्र गिना जाता है जो कि स्वार्थ व परहितार्थ हो। मनुष्यों की निस्वार्थता एवं परहितार्थता उन्हें अजर-अमर बना देती है। प्राचीन काल में जिन-जिन पुरुषों की प्रवृत्ति निस्वार्थ और परहितार्थ रही है यद्यपि वे पुरुष इस समय नहीं हैं तथापि उनका नाम अब भी बड़े आदर से लिया जाता है और जब तक संसार में अंश मात्र भी गुणग्राहिता रहेगी बराबर उन महापुरुषों का नाम स्थिर रहेगा।
यह जो मनोज्ञ ग्रन्थ आपके हाथ में विराजमान है इसका नाम श्री श्रेणिक पुराण है। इस पुराण के स्वामी प्रातः स्मरणीय महाराज श्रेणिक हैं। जैन क्षत्रिय जाति में महाराज श्रेणिक का परम आदर है। जैनियों का बच्चा-बच्चा महाराज श्रेणिक के गुणों से परिचित है। और उनके गुणों के स्मरण से अपनी आत्मा को मानता है यहाँ तक कि जैनियों के बड़े-बड़े आचार्यों का भी यह मत है कि यदि महाराज श्रेणिक इस भारतवर्ष में जन्म न लेते तो इस कलिकाल पंचम काल में जैन धर्म का नामोनिशान भी सुनना दुर्लभ हो जाता; क्योंकि वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में कोई सर्वज्ञ रहा नहीं। जितने-भर जैन सिद्धान्त हैं उनके जानने का उपाय केवल आगम रह गये हैं और उनका प्रकाश भगवान महावीर अथवा गणधर गौतम से अनेक विषयों में गूढ-गूढ़ प्रश्न कर महाराज श्रेणिक की कृपा से हुआ है।
महाराज श्रेणिक कब हुए इस विषय में सिवाय इनके पुराण को छोड़कर कोई पुष्ट प्रमाण दष्टिगोचर नहीं होता। जैन सिद्धान्त के आधार से भगवान् महावीर को निर्वाण गये २४६१ वर्ष हए हैं और भगवान् महावीर के समय में महाराज श्रेणिक थे। इसलिए इस रीति से भगवान् महावीर और महाराज श्रेणिक समकालीन सिद्ध होते हैं। कहीं-कहीं पर यह किंवदंती सुनने में आती है कि राजा श्रेणिक चन्द्रगुप्त के दादे व परदादे थे।
श्रेणिक पुराण यह संस्कृत ग्रन्थ भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने बनाया है।
श्रेणिक पुराण की अन्तिम प्रशस्ति में भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने मूल संघ की प्रशंसा की है इसलिए यह विदित होता है कि शुभचन्द्राचार्य मूल संघ के भट्टारक थे एवं इसी प्रशस्ति में इन्होंने प्रथम ही भगवत्कुन्द कुन्दाचार्य को नमस्कार किया है पीछे उन्हीं के वंश में पद्मनंदी, सकलकीर्ति, भुवनकीति, भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीति भट्टारकों का उल्लेख किया है और निम्नलिखित श्लोकों से अपने को विजयकीति भट्टारक का शिष्य बतलाया है।
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