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श्रेणिक पुराणम्
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एवं आँख बचाकर उस पद्मराग मणि को लेकर तत्काल उड़ गया तथा मुनिराज आहार ले वन की ओर चल दिये।
मुनिराज को आहार देकर जब गारदेव को फुर्सत मिली तो उसे मणि के साफ करने की याद आई । वह चट आँगन में आया। उसे वहाँ मणि मिली नहीं इसलिए परम दुःखी हो वह इस प्रकार विचारने लगा
___ मेरे घर में सिवाय मुनिराज के दूसरा कोई नहीं आया यदि मणि यहां नहीं है तो गई कहाँ ? मुनिराज ने ही मेरी मणि ली होगी और लेने वाला कोई नहीं। तथा कुछ समय ऐसा संकल्प विकल्प कर वह सीधा वन को चल दिया और मुनिराज के पास आकर मणि का तकादा करता हुआ अनेक दुर्वचन कहने लगा।
जब मुनिराज ने उसके ऐसे कटुक वचन सुने तो अपने ऊपर घोर उपसर्ग समझ वे ध्यानारूढ़ हो गये गारदेव के प्रश्नों का उन्होंने जवाब तक न दिया। किंतु मुनिराज से जवाब न पाकर मारे क्रोध के उसका शरीर भभक उठा उस दुष्ट को उस समय और कुछ न सूझी मुनिराज को ही चोर समझ वह मुक्के-धूंसे, डंडों से मारने लगा और कष्टप्रद अनेक कुवचन भी कहने लगा। इस प्रकार मार-धाड़ करने पर भी जब उसने मुनिराज से कुछ भी जवाब न पाया तो वह हताश हो अपने नगर को चल दिया। वह कुछ ही दूर गया कि उसे फिर मणि की याद आई वह फिर मदान्ध हो गया इसलिए उसने वहीं से फिर एक डंडा मुनिराज पर फेंका। दैवयोग से वह नीलकंठ भी उसी वन में मुनिराज के समीप किसी वृक्ष पर बैठा था। इसलिए जिस समय वह डंडा मुनि की ओर आया तो उसका स्पर्श नीलकंठ से भी हो गया। डंडे के लगते ही नीलकंठ भगा और जल्दी में पद्मराग मणि उसके मुंह से गिर गई।
पद्मराग मणि को इस प्रकार देख गारदेव अचंभे में पड़ गया। अब वह अपने अविचारित काम पर बार-बार घृणा करने लगा। मणि को उठा वह नगर चला गया। साफ कर उसे राजमंदिर में पहुँचा दी और संसार से सर्वथा उदासीन हो उसी वन में आया। मुनिराज के चरणकमलों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपने पापों की क्षमा मांगी। एवं उन्हीं के चरणों में दीक्षा धारण कर दुर्धर तप करने लगा। सेठ जिनदत्त ! कहो। क्या उस गारदेव का बिना विचारे किया वह काम योग्य था? निश्चय समझो बिना विचारे जो काम कर डालते हैं उन्हें निस्सीम दुःख भोगने पड़ते हैं । मेरी यह कथा सुन जिनदत्त ने कहा
कृपासिंधो! गारदेव का वह काम सर्वथा निंदनीय था। अविचारित काम करने वालों की दशा ऐसी ही हुआ करती है। नाथ ! मैं आपकी कथा सुन चुका कृपाकर आप भी मेरी कथा सुनें ॥३१२-३२३॥
पलासकूटसद्ग्रामे सुनामनरसंकीर्णे
धामधामविभूषिते । रौद्रदत्तोऽस्ति वाडवः ॥३२४॥
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