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________________ २७४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् तदातदालययोगी ज्ञानसागरनामभाक् । चर्यार्थमाजगामाशु वणिग्वर प्रतिगृहेक्षणः ॥३१४॥ प्रतिगृह्य प्रणम्याशु स्थापयामास तं गुरुम् । सत्कर्ममपश्यंस्तदा रुक्मकारो व्याकुलमानसः ॥३१५॥ मुनि बिहाय चान्येषामभावान्मणिमुत्तमं । मुनि ययाचे क्रूरात्मा किरन्मर्मवचस्तदा ॥३१६॥ वैपरीत्यं परिज्ञाय मुनिर्योगं दधौ हृदि। एकत्वं भावयन्योगी शुद्धचिद्रूपभावुकः ॥३१७॥ यष्टिमुष्टयादिघातेन बबंधे रुक्मकारकः । मुनि दुर्वाक्यबाक्येन पीडयन् विधिवंचितः ॥३१८॥ रुषा मुमोच तस्यैव काष्ठं निष्ठुरमानसः । दूरतः सखि कंठे तदस्पृशन्मणिमंडिते ॥३१६॥ उच्चचाल मुखाद्रत्नं पतितं च महीतले । विलोक्य स चकाराशु स्वनिंदां तापपीडितः ॥३२०॥ दत्वा मणिं स भूपाय निंदागर्दासमुन्मुखः । दिदीक्षे सविधौ तस्य भूमिस्पृक् पापभीतधीः ॥६२१॥ इत्थं वणिग्भवेद्युक्तं नो वा तस्याविचारितम् । अदभ्रश्वभ्रसंदायि तत्कर्माऽशर्मशायि च ॥३२२॥ स्वामिस्तन्नोचितं तस्य प्रशस्य विधिवजितः । कथां सुकथ्यमानां तां वक्ष्यामीति वचो जगौ ॥३२३॥ धन-धान्य उत्तमोत्तम पदार्थों से व्याप्त इसी पृथ्वीतल में एक कौशांबी नगरी है। किसी समय उस नगरी का स्वामी राजा गंधर्वानीक था। राजा गंधर्वानीक के मणि आदि रत्नों का साफ करने वाला कोई गारदेव नाम का मनुष्य भी उसी नगरी में निवास करता था। कदाचित् वह राजमंदिर से एक पद्मराग मणि साफ करने के लिए लाया और उसे आँगन में रख वह साफ ही करना चाहता था उसी समय कोई ज्ञानसागर नाम के मुनिराज उसके यहाँ आहारार्थ आ गये। मुनिराज को देख गारदेव ने अपना काम छोड़ दिया मुनिराज को विनयपूर्वक नमस्कार किया। प्रासुक जल से उनका चरण-प्रक्षालन किया। एवं किसी उत्तम काष्ठासन पर बैठने की प्रार्थना की। प्रार्थनानुसार इधर मुनिराज तो काष्ठासन पर बैठे और उधर एक नीलकंठ आया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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