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________________ श्रेणिक पुराणम् ३२१ देव ने अपनी पूर्व मुनिमुद्रा जान ली और पुष्कर विमान से उतरकर उस वन में उसी प्रकार ध्यान में लीन हो गया। हाथी ने जब उसे देखा तो उसे शीघ्र ही जाति स्मरण हो गया। जाति स्मरण होते ही उसकी आँखों से अश्रुपात होने लगा। अपने पूर्वभव की बार-बार निन्दा करते हुए शीघ्र ही उस देव को नमस्कार किया। देव के उपदेश से हाथी ने सम्यग्दर्शन के साथ शीघ्र ही श्रावकव्रत धारण किये। देव वहाँ से चला गया। हाथी भी प्रासुक जल और पक्व फलाहारों से श्रावक व्रत पालन करने लगा। अपने आयु के अन्त में संन्यास धारण कर हाथी ने समाधिपूर्वक अपना चोला छोड़ा। और अनेक देवों से सेवित सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हो गया। जैसे क्षणभर में आकाश में मेघ समूह प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार उत्पादशिला पर उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में उसे पूर्ण शरीर की प्राप्ति हो गई। उसके कानों में कुण्डल और केयूर झलकने लगे। वक्षस्थल में मनोहर विशाल हार और सिर पर मनोहर रत्नजड़ित मुकुट झिलमिलाने लगे। चारों ओर दिशा सुगंधि से व्याप्त हो गई। निर्मल ऋद्धियों की प्राप्ति हो गई। शरीर दिव्य वस्त्र और आभूषणों से शोभित हो गया। तथा नेत्र विशाल और निनिमेष हो गये। जिस समय देव ने अपनी ऐसी सुन्दर दशा देखी तो वह विचारने लगा मैं कौन हैं ? यहाँ कहाँ से आया हूँ ? मेरा क्या स्थान और क्या गति है ? मनोहर शब्द करने वाली ये देवांगना क्यों इस प्रकार मुझे चाहती हुई नृत्य कर रही हैं ? इस प्रकार विचार करते-करते अपनी अवधि ज्ञानबल से शीघ्र ही उसने, मैं व्रतों की कृपा से हाथी की योनि से यहाँ आया हूँ इत्यादि, वृत्तांत जान लिया। तथा वृत्तांत जानकर और अपने को स्वर्गस्थ देव समझकर जिनेन्द्रआदि को पूजते हुए उसने धर्म में मति की। दिव्यांगनाओं के साथ वह आनन्द सुख भोगने लगा नन्दीश्वर पर्वत पर जिन मन्दिरों को पूजने लगा। इस रीति से वचन अगोचर स्वर्ग सुख भोगकर और वहाँ से च्युत होकर अब तू रानी चेलना के गर्भ में आकर उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार गौतमगणधर द्वारा अभय कुमार व दंति कुमार का पूर्वभव वृत्तांत सुन श्रेणिक आदि प्रधान-प्रधान पुरुषों को अतिशय आनन्द हुआ। सभी ने शीघ्र ही मुनिनाथ को नमस्कार किया। दृढ़सम्यक्त्वकथा से पूर्ण जिन शासन को स्मरण करते हुए भगवान के गुणों में दत्तचित्त वे सब प्रीतिपूर्वक नगर में आ गये। और बड़े-बड़े महाराजों को वश में कर महाराज श्रेणिक ने महामंडलेश्वर पद प्राप्त कर लिया॥५३-८५॥ एकदा त्रिदशाधीशः सभायां नाकिभिः स तः । सम्यक्त्वमहिमानं चावर्णयत् स्ववचोंशुभिः ॥ ८६ ।। शुद्धदृग्भूषण ति भूपतिर्भरते वरे । श्रेणिकस्तत्समो नास्ति क्षायिकालंकृतो नरः ॥ ८७ ॥ यस्य दर्शनसच्छाखी कुदृष्टांतगजैः कदा । न क्षुभ्यते महाशास्त्रदृढस्कंधः स्थिरांहिकः ॥ ८८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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