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________________ ३२० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् इति सर्वे स्ववृत्तांतं श्रुत्वा पूर्वभवोद्भवं । तुष्टाः श्रेणिकसंमुख्याः प्रणेमुर्मुनिपुंगवं ।। ८३ ॥ दृढसम्यक्त्वपूर्णांगा स्मरंतो जिनशासनं । विविशुः स्वपुरं प्रीतास्तद्गुणग्रामरंजिताः ॥ ८४ ॥ आसाद्य भूपतिर्भूत्या महामंडलनाथतां । संसाध्याऽन्यमहीनाथान्बु भुजे शर्मसंतति ।। ८५॥ कदाचित् श्रावक व्रतों से युक्त सम्यक्त्व के धारी आपस में परम स्नेही वे दोनों तत्व चर्चा करते हुए मार्ग में जा रहे थे पूर्व पाप के उदय से उन्हें दिशाभूल हो गई। वह वन निर्जन वन था वहाँ कोई मनुष्य रास्ता बतलाने वाला न था इसलिए जब उन दोनों का संग छूट गया तो ब्राह्मण रुद्रदत्त ने शीघ्र ही संन्यास लेकर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और प्रथम स्वर्ग में जाकर देव हो गया। वहाँ पर बहुत काल तक उसने देवियों के साथ उत्तमोत्तम स्वर्ग सुख भोगे। आयु के अन्त में मर कर अव तू अभय कुमार नाम का धारी राजा श्रेणिक का पुत्र उत्पन्न हुआ और अब जैन शास्त्रानुसार तप कर तू नियम से सिद्धपद को प्राप्त होगा। इस प्रकार जब गौतम गणधर अभय कुमार के पूर्व भव वत्तांत कह चके तो दंति कुमार ने भी विनय से कहा प्रभो ! मैं पूर्वभव में कौन था ? कैसा था ? कृपाकर कहें । दंति कुमार के ऐसे वचन सुन गौतम भगवान ने कहा___यदि तुम्हें अपने पूर्व भव के सुनने की इच्छा है तो मैं कहता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनोइसी पृथ्वी तल में एक अनेक प्रकार के वृक्षों से मंडित भयंकर दारुण नाम का वन है। किसी समय उस वन में अतिशय ध्यानी सुधर्म नाम का योगी तप करता था। और अतिशय निर्मल अपने शुद्धात्मा में लीन था। उस वन का रखवाला दारुणमिल नाम का देव था। कार्यवश मुनिराज को बिना देखे ही उसने वन में अग्नि लगाई। कल्पांत काल के समान अग्नि की ज्वाला धधकने लगी। अग्नि ज्वाला से मुनिराज का शरीर भस्म होने लगा। उनके प्राण-पखेरू उड़ भगे और मरकर मुनिराज अच्युत स्वर्ग में जाकर देव हो गये। जब वन रक्षकदेव ने मुनिराज का अस्थिपंजर देखा तो उसे परम दुःख हुआ। अपनी बारबार निन्दा करता वह इस प्रकार विचारने लगा कि हाय !!! चरित्र से, पवित्र तप से शोभित बिना कारण मैंने मुनिराज के शरीर को जला दिया। हाय ! मुझसे अधिक संसार में पापी कोई न होगा तथा इस प्रकार विचार करते उसकी आयु समाप्त हो गई और वह मरकर उसी जगह शुभ विशाल शरीर का धारक उन्नत दंतों से शोभित एवं अंजन पर्वत के समान ऊँचा हाथी हो गया। __ कदाचित् अष्टाह्नि का पर्व में अच्युत स्वर्ग का निवासी वह मुनि का जीव देव नन्दिश्वर पर्वत को वन्दनार्थ निकला और उसी वन में उसे वह हाथी दीख पड़ा। अपने अवधि ज्ञानबल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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