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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
जब महाराज उपश्रेणिक ने अपना समस्त वृत्तान्त सुना दिया तो उन्होंने राजा यमदंड से भी पूछा कि हे भाई तुम कौन हो? और कैसे आपका यहाँ आना हुआ ! और आपकी क्या जाति है ? महाराज उपश्रेणिक के समस्त वृत्तान्त को जानकर और भले प्रकार उनके प्रश्नों को भी सुनकर राजा यमदंड ने विनय भाव से उत्तर दिया कि हे प्रभो समस्त भीलों का स्वामी मैं राजा यमदंड हैं और क्रीड़ा करता-करता मैं इस स्थान पर आ पहुँचा हूँ। मेरी जाति क्षत्रिय है और अपने राज्य से भ्रष्ट होकर मैं इस पल्ली में रहता हूँ, इसलिए हे महाभाग कृपा कर आप मेरे घर पधारिए और अपने चरण-कमलों से मेरे घर को पवित्र कर मुझे अनुगृहीत कीजिए ।।४६-५०।।
इति वाक्यात्समाकृष्टोभपो मगधनायकः । अयात्तन्मंदिरं रम्यं शरीराशर्महायने ।। ५१ ॥ दृष्टवा स तद्ग्रहाचारमगदीद्वचनं परम् ।
भिल्लसादृश्यतां प्राप्तं चित्तक्षोभनकारकम् ।। ५२ ।। महाराज उपश्रेणिक तो अपने दुःख को दूर करने के लिए ऐसा अवसर देख ही रहे थे इसलिए जिस समय राजा यमदंड ने महाराज उपश्रेणिक से अपने घर चलने के लिए प्रार्थना की तो महाराज उपश्रेणिक ने उसे विनीत समझकर शीघ्र ही उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उसके साथ-साथ उसकी ओर चल दिया॥५१॥ यद्यपि राजा यमदंड क्षत्रिय वंशी राजा था और उसका आचार-विचार उत्तम गृहस्थों के समान होना चाहिए था किन्तु उसका सम्बन्ध अधिक दिनों से भीलों के साथ हो गया था इसलिए उसकी क्रिया गृहस्थों की क्रियाओं के समान नहीं रही थीं, भीलों की क्रियाओं के समान हो गई थीं ॥५२॥
भो दंड मे कथं पथ्यं पवित्रोऽहं विशद्ध धीः ।
अत्र भोक्तुं न योग्यं मे शुभाचारविजिते ।। ५३ ।। महाराज उपश्रेणिक ने जब उसके घर जाकर उसके गृहस्थाचार को देखा तो वे एकदम दंग रह गये और राजा यमदंड से कहा कि हे यमदंड यद्यपि तुम क्षत्रिय राजा हो तथापि अब तुम्हारा गृहस्थाचार क्षत्रियों के समान नहीं रहा है ? और मैं शुद्ध गृहस्थाचारपूर्वक बने हुए ही भोजन को कर सकता हूँ, पवित्र एवं विशुद्ध ज्ञानी होकर मैं आपके घर में भोजन नहीं कर सकता ॥५३॥
आकर्ण्य . यमदंडोप्यगदीद्वचनमुत्तमं । राजन्न रोचते तुल्यमुपायं-चेत्करोम्यहं ।। ५४ ।। तिलकादिवती पुत्री ममास्ति शुभलक्षणा । जानाति सत्कुलाचारं कुलाचारपरायणा ॥ ५५ ॥ सा करिष्यति ते सेबां पथ्यपानादिजां परा । श्रुत्वेति वचनं राजा तुतोष मगधाधिपः ॥ ५६ ।।
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