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श्रेणिक पुराणम् समाचार सुनाकर मुझे अनुगृहीत करें। आपकी इस प्रकार दुःखमय अवस्था को देखकर मुझे अत्यन्त दुःख है।
जिस समय महाराज उपश्रेणिक ने भीलों के स्वामी यमदंड का इस प्रकार भक्तिभरा वचन सुना तो उनका चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उन्होंने प्रिय वचनों में राजा यमदंड के प्रश्न का इस प्रकार उत्तर दिया और कहा-मित्र, यदि तुमको अत्यन्त आश्चर्य करनेवाले मेरे वृत्तान्त के सुनने की अभिलाषा है तो ध्यानपूर्वक सुनो मैं कहता हूं॥४१-४५॥
प्रत्यंतवासिना तेन वैरिणा सोमशर्मणा । विद्यामयः खलोवीतः प्रेषितः प्रीतिदायकः ॥ ४६॥ विद्यामयं तुरंगं तं समारुह्यागमं वनम् । दुष्टेन तेन नीतोऽहमत्र क्वापि गतः सहि ॥ ४७ ।। इति वृत्तान्त सर्वस्वं प्रजल्प्य पुनरादिशत् ।
कस्त्वं किमर्थमायातः को जानाति स्तवकथ्यतां ।। ४८ ।। मेरे देश के समीप देश में रहनेवाला सोम शर्मा नाम का एक चन्द्रपुर का स्वामी है। बह अपने पराक्रम के सामने किसी को भी पराक्रमी नहीं समझता था और बड़े अभिमान से राज्य करता था। जिस समय मुझे उसके इस प्रकार के अभिमान का पता लगा तो मैंने अपने पराक्रम से बात-की-बात में उसका अभिमान ध्वंस कर दिया और उसे अपना सेवक बनाकर पुनः मैंने ज्यों-का-त्यों उसे चन्द्रपुर का स्वामी बना दिया। यद्यपि उसने मेरी अधीनता स्वीकार तो कर ली पर उसने अपने कुटिल भावों को नहीं छोड़ा इसलिए एक दिन उस दुष्ट ने नाना प्रकार के आभूषण, उत्तम वस्त्र एवं धनधान्य, सुवर्ण आदिक पदार्थ मेरी भेंट के लिए भेजे, और इन पदार्थों के साथ एक घोड़ा भी भेजा। यद्यपि वह घोड़ा ऊपर से मनोहर था पर अशिक्षित एवं अतिशय दुष्ट था। जिस समय उसकी भेजी हुई भेंट मैंने देखी तो मैं उसके कुटिल भाव को तो समझ नहीं सका किन्तु बिना विचारे ही मैं उसके इस प्रकार के व्यवहार को उत्तम व्यवहार समझकर प्रसन्न हो गया। भेंट में भेजे हुए उन समस्त पदार्थों में मुझे घोड़ा बहुत ही उत्तम मालूम पड़ा, इसलिए विना विचारे ही उस घोड़े की परीक्षा करने के लिए मैं उस पर सवार होकर वन की ओर चल पड़ा। जिस समय मैं वन में आया तो मैंने आनन्द में आकर उसके कोड़ा मारा किन्तु वह घोड़ा कोड़े के इशारे को न समझकर एकदम ऊपर उछला और मुझे इस भयंकर गड्ढे में पटककर न जाने कहाँ चला गया। इसी कारण मैं इस गड्ढ़े में पड़ा हुआ इस प्रकार के कष्टों को भोग रहा हूँ ॥४६-४८॥
स ब्रूतेशृणु राजेन्द्र क्षत्रियोऽहं यमाह्वयः । भ्रष्ट राज्यत्वतः पल्यां तिष्ठामि नरनायक ॥ ४६॥ कृपां कुरु महाभागागच्छ मे मंदिरं द्रुतम् । पवित्रय स्वपादेन सफलीकुरुमज्जनिं ॥ ५० ॥
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