________________
श्रेणिक पुराणम्
अनंतरं स्वजनकादेशात्सापि तथाकरोत् । भेषज जनैः पानैः शरीरस्वास्थ्यहेतवे ॥ ५७ ॥ ततो बभूव सत्स्वास्थ्यं तस्य पुण्यानुभागिनः ।
दिनैः कतिपयैस्तस्याः करभेदाद्विशेषतः ।। ५८ ।। जिस समय राजा यमदंड ने महाराज उपश्रेणिक के इस प्रकार के वचनों को सुना तो उसने तत्क्षण इस भाँति विनयपूर्वक कहा कि हे प्रभो यदि आप ऐसे गृहस्थाचार संयुक्त मेरे घर में भोजन करना नहीं चाहते हैं तो आप घबरायें नहीं गृहस्थाचारपूर्वक भोजन के लिए मेरे यहाँ दूसरा उपाय भी मौजूद है। वह उपाय यही है कि मेरे अत्यंत शुभ लक्षणों को धारण करनेवाली, भली प्रकार गृहस्थाचार में प्रवीण, एक तिलकवती नाम की कन्या है वह कन्या शुद्ध क्रियापूर्वक भोजन पानी आदि से आपकी सेवा करेगी ।।५४-५५।। भिल्लों के स्वामी यमदंड के इस प्रकार के विनम्र वचनों को सुनकर मगधदेशाधिप महाराज उपश्रेणिक अत्यंत प्रसन्न हुए॥५६॥ और उसी दिन से अपने पिता की आज्ञा से कन्या तिलकवती ने भी महाराज उपश्रेणिक की सेवा करनी प्रारम्भ कर दी ।।५७।। कभी वह कन्या एक प्रकार का और कभी दूसरे प्रकार का मिष्ट भोजन बनाकर महाराज को प्रसन्न करने लगी॥५॥
स्वास्थ्ये जातेऽथ सद्राज्ञो महास्नेहविवर्द्धनात् ।
तस्या उपरि स राजा मोहं प्राप्तो महामतिः । ५६ ।। कभी महाराज के रोग को भलीभाँति पहचान वह उत्तम औषधियुक्त उनको भोजन कराती और कभी-कभी अतिशय मधुर शीतल जल से महाराज के मन को सन्तुष्ट करती इस प्रकार कुछ दिनों के बाद औषधि संयुक्त भोजनों से विशेषतया उस कन्या के हाथ से भोजन करने से महाराज उपश्रेणिक का स्वास्थ्य ठीक हो गया तथा महाराज उपश्रेणिक पूर्व की तरह ज्यों-केत्यों निरोग हो गये ॥५६॥
अहोरूपमहोध्वानश्चाहोयानं शुभामतिः । हरिणी नेत्र सादृश्यं यस्यानेत्रयुगं परं ॥ ६० ॥ ललाटं खंडचंद्राभं वक्त्रं चन्द्रसमप्रभम् । दधाति कोकिलध्वानं या सौभाग्यखनिः परा ।। ६१ ॥ निधिकुंभाविवोत्तगौ मार सर्पकलंकितौ। पीनौ पयोधरौ यस्या राजेते प्राणिदुर्लभौ । ६२ ।। ययोर्मध्ये सदा याति कामज्वरसुशातये । नदीभोगिमगाकीर्णास्तनोपांतविराजिता ॥६३ ॥ ईदृशी भुवने नारी न दृष्टा नापि दृश्यते । सुन्दराकार सर्वांगा कटाक्षक्षेपविभ्रमा ।। ६४ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org