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श्रेणिक पुराणम्
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अवलोकयितुं रात्रौ व्यंतरं पितृसद्वने । जगाम भयनिर्मुक्तोऽभयो बुद्धिमतां मतः ॥ ३८ ॥ अटन्वटतलेऽटव्यां ध्वांतसंलुप्तसत्पथि । ददर्ष दीपिका पंक्तिमभयो भयवर्जितः ॥ ३६॥ घूकफूत्कार भीताढ्यं शृगालनिनदावहं । महाफणि फटाटोपं गजमदितपादपम् ॥ ४० ॥ संदग्धार्द्धशवं भीमं मृतकोपांतमोदकम् । भग्नकुंभकपालाढ्यं मंदाग्निमदमोदितं ॥ ४१ ।। संदग्धाद्धतधामिल्य पताकं कुर्कुरस्वनं । भस्मसंभग्नसन्मार्ग नरदंतसुरत्नकम् ॥ ४२ ॥ पश्यन् श्मशानमापन्नो वटं दीपप्रकाशितम् । धूपधूमसमाकृष्ट व्यंतरं राजपुत्रकः ॥ ४३ ॥ सुगंधकुसुमै/रं जपंतं स्थिरमानसम् । उद्विग्नं चिरकालेन सोऽद्राक्षीन्नरपुंगवम् ॥ ४४ ॥ तदेति स जगौ धीरः कत्स्वं कस्मात्समागतः । किं स्थानं तव किं नाम किं जपयसि स्फुटं ॥ ४५ ॥ इति पृष्टस्तदावादीद्वटस्थो राजदारकम् । शृणु धीर समाख्यानं मज्जं सुस्मयदायकं ।। ४६ ।।
किसी समय रानी के मन में यह दोहला हुआ कि ग्रीष्मकाल में हाथी पर चढ़कर बरसते मेघ में इधर-उधर घूमूं किन्तु इस इच्छा की पूर्ति उसे अति कठिन जान पड़ी। इसलिए उस चिंता से उसका शरीर दिनों-दिन अधिक क्षीण होने लगा । जब महाराज ने रानी को अति चिन्ता-ग्रस्त देखा तो उन्हें परम दुःख हुआ। चिन्ता का कारण जानने के लिए वे रानी से इस प्रकार कहने लगे।
प्रिये ! मैं तुम्हारा शरीर दिनों-दिन क्षीण देखता चला जाता हूँ मुझे शरीर की क्षीणता का कारण नहीं जान पड़ता तुम शीघ्र कहो तुम्हें कौन-सी चिन्ता ऐसी भयंकरता से सता रही है। महाराज के ऐसे वचन सुन रानी ने कहा
कृपानाथ ! मुझे यह दोहला हुआ है कि मैं ग्रीष्मकाल में बरसते हुए मेघ में हाथी पर चढ़
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