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________________ श्रेणिक पुराणम् अहो कष्ट महो कष्टमहोपापं मया कृतम् । अहो अशर्मसंतापोsहो अहो क्व च धर्मता ।। १२ ।। अहो अभयपुत्रेण वंचिता मुग्धमानसा । अबला यत्प्रोच्यते सद्भिस्तत्सत्यं सत्यमेव च ।। १३ ।। पर वंचनसंशक्ता नराः प्रायेण पापिनः । धूर्त्ताश्च कथिता शास्त्रे प्रतीत्यासत्यमेव तत् ।। १४ ।। इति चित्ते विमृश्याशु तूष्णीत्वं समुपागता । भुनक्ति सा न जल्पादि विदधाति न केनचित् ।। १५ ।। कुर्वती स्वतिरस्कारं पठती जिनशासनम् । पूजयंती जिनेंद्र च स्मरंति जनकादिकं ।। १६ ।। न पश्यामि न पश्यामि गुरुं निर्ग्रन्थनायकं । पश्यामि जठराग्नि च चिंतयंतीति सा स्थिता ।। १७ ।। अनंतर इसके रानी चेलना आनंदपूर्वक महाराज श्रेणिक के साथ भोग भोग रही थी । अचानक ही जब उसने यह देखा कि महाराज श्रेणिक का घर परम पवित्र जैन धर्म से रहित है । महाराज घर में हिंसा को पुष्ट करनेवाले तीन मूढ़ता सहित, ज्ञान-पूजा आदि आठ अभिमानयुक्त, एवं उभयलोक में दुःख देनेवाले बौद्ध धर्म का अधिकतर प्रचार है । तो उसे अति दुःख हुआ । वह सोचने लगी- हाय, पुत्र अभयकुमार ने बुरा किया ! मेरे नगर में छल से जैन धर्म का वैभव दिखा मुझ भोली-भाली को ठग लिया। क्योंकि जिस घर में श्री जिन धर्म की भली प्रकार प्रवृत्ति है । उनके गुणों का पूर्णतया सत्कार है । वास्तव में वही घर उत्तम घर है। किंतु जहाँ जिन धर्म की प्रवृत्ति नहीं है वह घर कदापि उत्तम नहीं हो सकता। वह मानिंद पक्षियों के घोंसले के हैं । Jain Education International १६३ यदि मैं महाराज श्रेणिक के इस अलौकिक वैभव को देख अपने मन को शांत करूँ सो भी ठीक नहीं क्योंकि पराभव में मुझे इससे घोरतर दुःखों की ही आशा है । अथवा मैं अपने मन को इस रीति से कहलाऊँ कि महाराज श्रेणिक के घर में मुझे अनन्य लभ्य भोग भोगने में आ रहे हैं, यह भी अनुचित है । क्योंकि ये भोग मानिंद भयंकर भुजंग के मुझे परिणाम में दुःख ही देंगे । भोगों का फल नरक तिर्यंच आदि गतियों की प्राप्ति है। उनमें मुझे जरूर ही जाना पड़ेगा । एवं वहाँ पर घोरतर वेदनाओं का सामना करना पड़ेगा । संसार में धर्म होवे धन न होवे तो धर्म के सामने धन का न होना तो अच्छा किंतु बिना धर्म के अतिशय मनोहर, सांसारिक सुख का केन्द्र चक्रवर्तीपना भी अच्छा नहीं । संसार में मनुष्य विधवापन को बुरा कहते हैं । किंतु यह उनकी बड़ी भारी भूल है । विधवापना सर्वथा बुरा नहीं । क्योंकि पति यदि सन्मार्गगामी हो और वह मर जाय तब तो विधवापना बुरा है। किंतुपति जीता हो और वह मिथ्यामार्गी हो तो उस हालत में विधवापना सर्वथा बुरा नहीं है । संसार में बाँझ रहना अच्छा । भयंकर वन का निवास भी उत्तम । अग्नि में जलकर और विष खाकर मर जाना भी अच्छा । तथा अजगर के मुख में प्रवेश I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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