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________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् और पर्वत से गिरकर मर जाना भी अच्छा। एवं समुद्र में डूबकर मर जाने में भी कोई दोष नहीं। किंतु जिन धर्म रहित जीवन अच्छा नहीं। पति चाहे अन्य उत्तमोत्तम गुणों का भंडार हो। यदि वह जिनधर्मी न हो तो किसी काम का नहीं। क्योंकि कुमार्गगामी पति के सहवास से, उसके साथ भोग भोगने से दोनों जन्म में अनेक प्रकार के दुःख ही भोगने पड़ते हैं। हाय बड़ा कष्ट है। मैंने पूर्वभव में कौन घोर पाप किया था। जिससे इस भव में मुझे जैन धर्म से विमुख होना पड़ा। हाय अब मेरा एक प्रकार से जैन धर्म से सम्बन्ध छूट-सा ही गया। हे दुर्दैव! तू मुझसे कब-कब के किये गये पापों का बदला ले रहा है। पुत्र अभयकुमार! क्या मुझे भोली बातों में फंसाकर ऐसे घोर संकट में डालना आपको योग्य था? अथवा कवियों ने जो स्त्रियों को अबला कहकर पुकारा है सो सर्वथा ठीक है। ये बेचारी वास्तव में अबला ही है। बिना समझे-बूझे ही दूसरों की बात पर चट विश्वास कर बैठती है। और पीछे पछताती है। हे दीनबन्धु ! जो मनुष्य प्रिय वचन बोल दूसरे भोले जीवों को ठग लेते हैं। संसार में कैसे उनका भला होता होगा? फुसलाकर दूसरों को ठगनेवाले संसार में महापातकी गिने जाते हैं। तथा ऐसा चिरकालपर्यंत विचार कर रानी चेलना ने मौन धारण कर लिया। एवं एकांत स्थान में बैठ करुणाजनक रुदन करने लगी। रानी चेलना की ऐसी दशा देख समस्त सखियाँ घबरा गईं। चेलना की चिंता दूर करने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किये किन्तु कोई भी उपाय सफल नहीं हुआ। यहाँ तक कि रानी चेलना ने सखियों के साथ बोलना भी बन्द कर दिया। वह बारबार अपने जीवन की निन्दा करने लगी। जिनेन्द्र भगवान की मानसिक पूजा और उनके स्तवन में उसने अपना मन लगाया। एवं इस दुःख से बार-बार उसे अपने माता-पिता को याद आई तो वह रोने भी लगी ॥२-१७।। कुतश्चित्तादृशां श्रुत्वा तां तन्वंगी मृदुस्तनीं । आजगाम नृपो वेगात् तत्सद्मव्याकुलाशयः ॥ १८ ॥ आहूय तां नृपोऽवादीत् प्रिये त्वं केन हेतुना । दुखस्थामीदृशां प्राप्ता मच्चित्तोत्क्षेपकारिणीम् ।। १६ ।। अतः पूर्वं प्रिये बाले त्वद्वचो नाकृतं मया । अद्यप्रभृति कुर्वेऽहं वचस्ते नियमेन वै ॥ २० ॥ मद्गृहे येन केनापि कया वा मर्मकृद्वचः । जल्पितं यदि ते ब्रूहितस्य दंडं करोम्यहं ।। २१ ॥ त्वयीशि प्रिये नूनं मृतिर्मे नियमाच्छुभे । मत्प्राणार्द्धसमां वेमि त्वां मज्जीवगृहोपमां ॥२२॥ दुःखिन्यां त्वयि मे दुःखं दुःस्थितायां च दुःस्थिता। दुःखिन्यां त्वयि मे धाम्नि किंचिन्न स्थितं मम ॥ २३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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