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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
तदा बटकवं दैश्च सेव्यमानोऽभयो महान् । क्रीड़ायै तद्वनं धीमानाजगाम मनोहरम् ॥१४॥ नानाशालसमाकीर्ण किलकोकिलनिस्वनम् । जंबूनारिंगजं बीर कंकेल्लिकदलीभरम् ॥१४६।। लांगलीबीजपूराढ्यं घोटादाडिम लिंबुकं । केतकीरक्तषट्पादध्वनवानं सचूतकम् ।।१४७।। तत्र रम्ये फलाकीर्णे जंबूशाखिनि चोन्नते । फलाशनकृते धीमानारुरोह सह द्विजैः ।।१४८।। नृप वीक्ष्य कौमार आटतसत्प्रभप्रभून् । अमीभिर्न च वक्तव्यं भो बटुका इत्यवारयत् ॥१४॥ ततस्ते तत्र राजीया आगत्य क्षुत्कुलाकुलाः । वृक्षाधः कलवं दानि बटुकांस्तान् ययाचिरे ॥१५०॥
वह वन अति मनोहर था। उसमें जगह-जगह पर अनार, नारंगी, संतरा, जमनी, कंकेली, केला, लौंग आदि उत्तमोत्तम फल वृक्षों पर फलते थे। नींबू आदि सुगंधित फलों की सुगंधि से सदा यह वन व्याप्त रहता था। उसके ऊँचे-ऊंचे वृक्षों पर कोयल आदि पक्षीगण अपने मनोहर शब्दों से पथिकों के मन हरण करते थे। और केतकी वृक्षों पर भ्रमर गुंजार करते थे। इसलिए हमेशा नन्दिग्राम के बालक उस वन में क्रीड़ार्थ जाया करते थे।
रोज की तरह उस दिन भी बालक क्रीड़ार्थ वन में आये। दैवयोग से उस दिन विप्रों के बालकों के साथ अभयकुमार भी थे ये सब-के-सब हँसते-खेलते किसी जामुन के वृक्ष पर चढ़ गये। और आनंद से जामुन फलों को खाने लगे। बालकों को इस प्रकार जामुन के पेड़ पर चढ़े राजसेवकों ने देखा। तथा वे सब यह समझ कि हम इन बालकों से कुछ फल लेकर अपनी भूख शान्त करेंगे शीघ्र ही उस वृक्ष की ओर झुक पड़े।
इधर अभयकुमार ने जब राजसेवकों को अपनी ओर आते हुए देखा। तो वे तो अन्य बालकों से यह कहने लगे-देखो भाई, ये राजसेवक अपनी ओर आ रहे हैं।
तुममें कोई भी इनके साथ बातचीत न करें। जो कुछ जवाब-सवाल करूँगा सो मैं ही इनके साथ करूँगा। और उधर राजसेवक जामुन के वृक्ष के नीचे चट आ कूदे। और बालकों से कुछ फलों के लिए उन्होंने प्रार्थना भी की॥१४५-१५०॥
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