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________________ २६२ Jain Education International श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् निरूपय । विभ्रमम् ।। ५६ ।। अभयोऽपि वचोऽवादीत्तन्मंत्रं मे ततो मंत्रं जगौ खगः कुमारं मार सबीजं लघु संलभ्य जजाप वृषपाकतः । सिषेध निखिला विद्याः सर्वं पुण्यफलं हि वै ॥ ६० ॥ तत्प्रभावात्खगस्यापि विद्याः सिद्धाः शुभोदयात् । ततस्तौ स्नेहवृद्धयर्थमन्योन्यं मर्मुदा ॥ ६१ ॥ स चोद्वसितं लब्ध्वा रुष्टः संकल्पदंतिनम् । विकुर्व्य मेघसंघातं रोहयित्वा च चेलनां ।। ६२ ।। बभ्राम नगरं राज्ञी मासं पूर्णमनोरथा । समासेदे गृहं तूर्णं त्रिवली भंगभेदिता ॥ ६३ ॥ संपूर्णाद्दोहदाद्राशी पूर्वावस्थां समत्यजत् । शुभं सुसातकुंभाभा वृक्षे वल्लीव नूतना ॥ ६४ ॥ सहासा सरसा सिद्ध सुसंगास्मरसायका । सा प्रसूत सुतं सारं गजादिसुकुमारकं ।। ६५ ।। ततो मेघकुमारं च तनुजं समजीजनत् । सप्तपुत्रैश्च सा रेजे तारका सप्तयोगिभिः ॥ ६६ ॥ अभिन्नसुखसंतानौ चेलना श्रेणिकौ परौ । रेमाते रतिसंपन्नावखिन्नौ रतिलीलया ।। ६७ ॥ विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर दिशा में एक गमन प्रिय नामक नगर है। गमन प्रिय नगर का स्वामी अनेक विद्याधर और मनुष्यों से सेवित मैं राजा वायुवेग था । कदाचित् मुझे विजयार्द्ध पर्वत पर जिनेन्द्र चैत्यालयों के वन्दनार्थं अभिलाषा हुई । मैं अनेक राजाओं के साथ आकाश मार्ग से अनेक नगरों को निहारता हुआ विजयार्द्ध पर्वत पर आ गया। उसी समय राजकुमारी सुभद्रा जो कि बालकपुर के महाराजा की पुत्री थी। अपनी सखियों के साथ विजयार्द्ध पर्वत पर आई । राजकुमारी सुभद्रा अतिशय मनोहर थी । यौवन की अद्वितीय शोभा से मंडित थी, मृगनयनी थी । उसके स्थूल किन्तु मनोहर नितम्ब उसकी विचित्र शोभा बना रहे थे एवं रति के समान अनेक विलास संयुत होने से वह साक्षात् रति ही जान पड़ती थी । ज्यों ही कमल नेत्रा सुभद्रा पर मेरी दृष्टि पड़ी मैं बेहोश हो गया कामबाण मुझे बेहद रीति से बेधने लगे। मेरा तेजस्वी शरीर भी उस समय सर्वथा शिथिल हो गया विशेष कहाँ तक कहूँ तन्मय होकर मैं उसी का ध्यान करने लगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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