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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्यण विरचितम्
जिह्वारथः पादसुरक्षणं च छत्रं तथा ग्रामविनिश्चयश्च । नारीशवंशालिवनं च डालं कांटक्यवार्तेति च कल्पते स्म ॥१७८॥
इति सुकृतविपाकाद्बुद्धिसारं वचो वै वदति विशदचेताः श्रेणिक: श्रेष्ठिनं तं । वचननिहित वाच्या गर्भसारानभिज्ञं प्रणयजनकवाक्यं प्रीणितं श्रोत्रपद्मम् ॥१७६।। नानाशास्त्रकथा प्रवीण हृदयश्चंद्रांगसंगिद्युतिः सश्री मागधसंभवो वरकराकोर्णः प्रमालिगितः । तेनामा पुरमुन्नतं वर सरो वेणादि पद्म शुभम् प्रापत् पुण्यवशोदयाद्वशिवशं कुर्वन्महामेदुरः ॥१८०॥ क्व पत्तनं राजगृहं क्व मागधः,
नंदिवासः क्व च बौद्धसेवनम् । क्व चंद्रदत्तेन
सहांगमित्रता, न लक्ष्य मेवात्र हि कर्मपाचनम् ॥१८॥ धर्मतो ह्यशुभकर्मनाशनं धर्मतो हिशुभकर्मसंगमः । धर्मतः प्रियसमागमो मतो धर्ममेव कुरुतां भवान् जनः ॥१८२॥
क्व
इस प्रकार कुमार श्रेणिक तथा सेठी इन्द्रदत्त दोनों जनों की जिह्वा रथ, जूता, छत्री, ग्राम का निश्चय, स्त्री, मुर्दा, शालिक्षेत्र, हल, काँटे के विषय में बातचीत हुई। पुण्य के फल से अत्यंत विशद बुद्धि के धारक कुमार श्रेणिक ने अपने स्नेहयुक्त वचनों से शब्दों के अर्थ को भलीभांति नहीं समझनेवाले भी सेठी इन्द्रदत्त के कानों को तृप्त कर दिया। और उत्तम बुद्धि को प्रकट करने वाले वचन कहे। तथा नाना प्रकार की शास्त्रकथाओं में प्रवीण, चंद्रमा के समान शोभा को धारण करनेवाला, तेजस्वी, लक्ष्मीवान, अपने पुण्य से जितेन्द्रिय पुरुषों को भी अपने अधीन करनेवाला, पृथ्वी पर सुन्दर, कुमार श्रेणिक ने सेठी इन्द्रदत्त के साथ उत्तमोत्तम तालाबों से शोभित वेण पद्मनगर में प्रवेश किया। देखो, कर्म का फल कहाँ तो मगधदेश ? कहाँ राजगृह नगर? और नंदिग्राम कहाँ ? तथा कहाँ बौद्धमत का सेवन ? और कहाँ सेठी इन्द्रदत्त के साथ
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