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श्रेणिक पुराणम्
उपायै वणिजा स्वास्थ्यं विधाय प्रतिबोधितुम् । चक्रे द्विजस्य चोपायो नानाबोधनवाक्यतः ॥ २६ ॥ पिप्पले पादपे विप्रं! न देवत्वं कदाचन । एकेंद्रियत्व सामान्यात्सादृशत्वं च पादपैः ॥ २७ ॥ न ज्ञानं पिप्पले मित्र ! न सामर्थ्य न देवता। एकेंद्रियत्मस्त्येव केवलं पक्षिभिः श्रितं ॥ २८ ॥ काकभुक्तोज्झिताबीजादुत्पत्तिर्बोधिभूरुहः । मान्यते कथमित्थं च त्वया वृक्षो वनस्पतिः ॥ २६ ॥ एकं हि प्राक्तनं कर्म विहाय च शुभाशुभम् । कर्तुं नान्यः समर्थोऽत्र निग्रहानिग्रहं पुनः ।। ३० ।। धर्मिणां देहिनां देवा जायते किंकराः सदा। पराङ मुखा नृणां नूनं स्वजना अपि पापिनां ॥ ३१॥ इति वाक्यप्रबंधेन देव मौढ्यं निकारोत् । तस्य श्रावकसन्मुख्य आगमाज्जिनवाक्यजात् ॥ ३२ ।।
गण के स्वामी मुनियों में उत्तम श्री गौतम गणधर को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर बड़ी विनय से अभय कुमार ने अपने भवों को पूछा-कुमार को इस प्रकार अपने पूर्वभव श्रवण की अभिलाषा देख गौतम गणधर कहने लगे-अभय कुमार ! यदि तुम्हें अपने पूर्ववृत्तांत सुनने की अभिलाषा है तो मैं कहता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो
इसी लोक में एक वेणातड़ाग नाम की पुरी है। वेणातड़ाग में कोई रुद्रदत्त नाम का ब्राह्मण निवास करता था वह रुद्रदत्त बड़ा पाखंडी था इसलिए किसी समय तीर्थाटन के लिए निकल पड़ा और घूमता-घूमता उज्जयनी में जा निकला। उस समय उज्जयनी में कोई अर्हदास नाम का सेठ रहता था उसकी प्रिय भार्या जिनमती थी वे दोनों ही दम्पती जैन धर्म के पवित्र सेवक थे। अनेक जगह नगर में फिरता-फिरता रुद्रदत्त सेठी अहंदास के घर आया और कुछ भोजन माँगने लगा। वह समय रात्रि का था इसलिए ब्राह्मण की भोजनार्थ प्रार्थना सुन जिनमती ने कहा
यह समय रात्रि का है, विप्र? मैं रात्रि में भोजन न दूंगी। सेठानी जिनमती के ऐसे वचन सुन रुद्रदत्त ने कहा बहन ! रात्रि में भोजन देने में और करने में क्या दोष है। जिससे तू मुझे भोजन नहीं देती ? जिनमती ने कहा
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