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श्रेणिक पुराणम्
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कुचचूचकयोस्तस्तयाः कृष्णत्वं तत्प्रभावतः । जातशत्रुमुख कर्तुं सूचनायैव सूचकम् ।। ३१ ।।
गर्भवती स्त्रियों को दोहले हुआ करते हैं। और दोहलों से सन्तान के अच्छे-बुरे का पता लग जाता है क्योंकि यदि सन्तान उत्तम होगी तो उसकी माता को दोहले भी उत्तम होंगे। और सन्तान खराब होगी तो दोहले भी खराब होंगे। रानी चेलना को भी दोहले होने लगे। चेलना के गर्भ में महाराज श्रेणिक का परम वैरी अनेक प्रकार कष्ट देने वाला पुत्र उत्पन्न होने वाला था इसलिए रानी को जितने भर दोहले हुए सब खराब ही हुए जिससे उसका शरीर दिनों-दिन क्षीण होने लगा।प्राणपति पर आगामी कष्ट आने से उसका सारा शरीर फीका पड़ गया प्रातःकाल में तारागण जैसे विच्छाय जान पड़ते हैं रानी चेलना भी उसी प्रकार विच्छाय हो गई।
किसी समय महाराज श्रेणिक की दृष्टि महारानी चेलना पर पड़ी। उसे इस प्रकार क्षीण और विच्छाय देख उन्हें अति दुःख हुआ। रानी के पास आकर वे स्नेह परिपूर्ण वचनों में इस प्रकार कहने लगे।
प्राण बल्लभे ! मेरे नेत्रों को अतिशय आनन्द देने वाली प्रिये ! तुम्हारे चित्त में ऐसी कौन-सी प्रबल चिंता विद्यमान है जिससे तुम्हारा शरीर रात-दिन क्षीण और क्रांति-रहित होता चला जाता है। कृपा कर उस चिंता का तारण मुझसे कहो बराबर उसको दूर करने के लिए प्रयत्न किया जायेगा। महाराज के ऐसे शुभ वचन सुन पहले तो लज्जावश रानी चेलना ने कुछ भी उत्तर न दिया किंतु जब उसने महाराज का आग्रह विशेष देखा तो वह दुःखाश्रुओं को पोंछती हुई इस प्रकार विनय से कहने लगी
प्राणनाथ ! मुझ सरीखी अभागिनी डाकिनी स्त्री का संसार में जीना सर्वथा निस्सार है यह जो मैंने गर्भ धारण किया है सो गर्भ नहीं आपकी अभिलाषाओं को मूल से उखाड़ने वाला अंकुर बोया है। इस दुष्ट गर्भ की कृपा से मैं प्राण लेने वाली डाकिनी पैदा हुई हूँ। प्रभो! यद्यपि मैं अपने मुख से कुछ कहना नहीं चाहती तथापि आपके आग्रहवश कुछ कहती हूँ। मुझे यह खराब दोहला हुआ है कि आपके वक्षस्थल को विदार-रक्त देखू। इस दोहले की पूर्ति होना कठिन है इसलिए मैं इस प्रकार अति चिंतित हैं।
रानी चेलना के ऐसे वचन सुन महाराज श्रेणिक ने उसी समय अपने वक्षस्थल को चीरा और उससे निकलते रक्त को रानी चेलना को दिखाकर उसकी इच्छा की पूर्ति की। नवम मास के पूर्ण होने पर रानी चेलना के पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्रोत्पत्ति का समाचार महाराज के पास भी पहुँचा । उन्होंने दीन अनाथ याचकों को इच्छा भर दान दिया और पुत्र को देखने के लिए गर्भगृह में गये। ज्यों ही महाराज अपने पुत्र के पास गये। महाराज को देखते ही उसे पूर्व भव का स्मरण हो आया। महाराज को पूर्वभव का अपना प्रबल वैरी जान मारे क्रोध के उसकी मुट्ठी बंध गई। मुख भयंकर और कुटिल हो गया। नेत्र आरक्त हो गये। मारे क्रोध के भौंहें चढ़ गई।
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