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________________ ११८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् कर सकें । तथा क्षणेक ऐसा विचार, महाराज ने शीघ्र ही एक दूत बुलाया। और उसे यह आज्ञा दीकि तुम -अभी नन्दिग्राम जाओ। और वहाँ के वित्रों को कहो कि महाराज ने यह आज्ञा दी है। किनन्दिग्राम के वि एक कूष्मांड (पेठा) मेरे पास लावें । वह कूष्मांड़ घड़े में भीतर हो । और घड़े की बराबर हो । कमती-बढ़ती न हो। यदि वे इस आज्ञा का पालन न करें तो नन्दिग्राम को छोड़ दें । इधर महाराज की आज्ञा पाकर दूत तो नन्दिग्राम की ओर रवाना हुआ। उधर जब विप्रों को बालू की रस्सी महाराज के यहाँ से न मिली। तो अपना विघ्न टल जाने से वे खूब आनंद से नन्दिग्राम में रहने लगे । और बार-बार अभयकुमार की बुद्धि की तारीफ करने लगे। किंतु जिस समय दूत फिर से नन्दिग्राम पहुँचा । और ज्योंही उसने विप्रों के सामने महाराज की आज्ञा कहनी प्रारम्भ की। सुनते ही विप्र घबरा गये । महाराज की आज्ञा के भय से उनका शरीर थर-थर काँपने लगा । वे अपने मन में विचारने लगे । हे ईश्वर ! यह विपत्ति फिर कहाँ से आ टूटी ! हम तो अभी महाराज से अपना अपराध क्षमा कराकर आये हैं। क्या हमारे इतने विनय-भाव से भी महाराज का हृदय दया से न पसीजा ? अब हम अपने बचने का क्या और कैसा उपाय करें ? तथा क्षणेक ऐसा विचार कर वे कुमार के सामने इस प्रकार रुदनपूर्वक चिल्लाने लगे । हे वीरों के सिरताज कुमार ! अबकी महाराज ने हमारे ऊपर अति कठिन आज्ञा भेजी है । हे कृपानाथ ! इस भयंकर विघ्न से हमारी शीघ्र रक्षा करो। हम विप्रों के इस भयंकर दुःख का जल्दी निवारण करो। हे दीनबंधु ! इस भयंकर कष्ट से आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं । आप ही हमारे दुःख पर्वत के नाश करने में अखंड वज्र हैं । महनीय कुमार ! लोक में जिस प्रकार समुद्र की गम्भीरता, मेरु पर्वत का अचलपना देवजीत की विद्वत्ता, सूर्य का प्रतापीपना, इन्द्र का स्वामीपना, चन्द्रमा की मनोहरता, राजा रामचन्द्र की न्यायपरायणता, कामदेव की सुन्दरता आदि बातें प्रसिद्ध हैं । उसी प्रकार आपकी सुजनता और विद्वत्ता प्रसिद्ध है । इस समय हम घोर चिंता से व्यथित हो रहे हैं। हे जीवननाथ ! हम सब लोगों का जीवन आपके ही आधार हैं। त्रिलोक में आपके समान हमारा कोई बन्धु नहीं है ।। १२७- १३६ ॥ Jain Education International श्रुत्वेति तत्प्रशंसां स जगाद वचनं घनम् । न भेतव्यं करोम्यत्रोपायं शर्माकरं परम् ॥१३७॥ वल्लीस्थितं घटे सूक्ष्मं स्थापयित्वा च तत्फलं । तत्प्रमाणं विवुध्याशु प्रेषयामास भूपतिम् ॥ १३८ ॥ कौतुकान्वितमानसः । संदृश्य भूपतिः सर्वं व्यतर्कयन्निजे चित्ते विकसत्पद्म सन्निभे ।। १३६ ।। कोऽप्यस्ति बुद्धिसंदाता किंवा विप्राश्च धीधनाः । न विद्मश्चरितं सारं सार्वबुद्धिभरक्षमं ॥ १४०॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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