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श्रेणिक पुराणम्
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श्रृंखला बद्ध सर्वांगा निगडा पादबंधिताः । निर्बधास्तव सन्नामनिस्त्रिश कर वालतः ॥११२।। वविनायका षेऽत्र दूरं यांति तवेक्षणात् । स्थावरं जंगमं क्ष्वेडं सुधापूरसमं भवेत् ।।११३॥ यद्यत्समीहितं लोके नणां करतले गतम । भवेज्जिन महामंत्र
वशीकरविधानतः ॥११४॥ आजवंजवमग्नानां देहिनां कृतेगेहिनां । त्वमेवालंबनं नाथ ! नान्यः कोऽपि जगत्त्रये ॥११५।। गणानां गणनातीत गणानां गणनां प्रभां । प्रभो ! वक्ष्ये कथंचित्ते यथार्थां बुद्धिभावतः ॥११६॥ गंभीरा गणनातीताः प्रसन्नाः परमाः पराः । बहवस्ते गुणा: संति नातो नाथाधिकास्त्वयि ॥११७॥ अतो नमो जिनेंद्राय नमस्तुभ्यं परात्मने । नमस्तुभ्यं शिवाधीश नमस्ते परमात्मने ॥११८॥ नमः कल्याणरूढा नमस्तुभ्यं महामते । नमो योगाधिनाथाय नमस्ते वीरसन्मते ।।११६॥
हे समस्त देवों के स्वामी ! बड़े-बड़े इन्द्र और चक्रवतियों से पूजित आप में इतने अधिक गुण हैं कि प्रखर ज्ञान के धारक गणधर भी आपके गुणों का पता नहीं लगा सकते। आपके गुण स्तवन करने में विशाल शक्ति के धारक इन्द्र भी असमर्थ हैं। मुझे जान पड़ता है काम को सर्वथा आपने ही जलाया है। क्योंकि महादेव तो उसके भय से अपने अंग में उसकी विभूति लपेटे फिरते हैं। विष्णु रात-दिन स्त्री समुदाय में घुसे रहते हैं। ब्राह्मण भी चतुर्मुख हो चारों दिशा की ओर कामदेव को देखते रहते हैं । और सदा भय से कंपते रहते हैं। प्रभो ! ऊँचा पना जैसा मेरु पर्वत में है अन्य किसी में नहीं। दीनबन्धो ! जो मनुष्य आपके चरणाश्रित हो चुका है यदि वह मत्त और सुगंधि से आये भौंरों की झंकार से अतिशय क्रुद्ध महाबली गज के चक्र में भी आ जाय तो भी गज उसका कुछ नहीं कर सकता। जिस मनुष्य के पास आपका ध्यानरूपी अष्टापद मौजूद है मत्त हाथियों के गंडस्थल विदारण करने में भी चतुर सिंह उसे कष्ट नहीं पहुँचा सकता। आपके चरण सेवी मनुष्य का कल्पांत कालीन और अपने फुलिंगों से जाज्वल्यमान अग्नि भी कुछ नहीं कर सकती। महाप्रभो! जिस मनुष्य के हृदय में आपकी नामरूपी नागदमनी विराजमान है। चाहे सर्प कैसा भी भयंकर हो उस मनुष्य के देखते ही शीघ्र निर्विष हो जाता है।
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