________________
श्रेणिक पुराणम्
जो उत्तम पुरुष वर्षाकाल में, जहाँ किसी प्रकार के जल का संचार नहीं ऐसे उत्तमोत्तम महलों में रहते थे उन्हें अब जल व्याप्त वृक्षों के नीचे रहना पड़ता है । पतले किंतु उत्तम चीनी वस्त्रों से सदा जिनके शरीर ढके रहते थे वे ही अब चोहटों में वस्त्र रहित हो सानन्द रहते हैं । जो चित्र विचित्र रत्नों से जड़ित सुवर्णपात्रों में भोजन करते थे उन्हें अब सछिद्र पाणिपत्रों में आहार करना पड़ता है। जो भाँति-भाँति के पके अन्न और खीर आदि पदार्थों का भोजन करते थे उन्हें अब पारणा नीरस आहारों का आहार करना पड़ता है । जो हाथी-घोड़े आदि सवारियों पर सवार हो जहाँ-तहाँ घूमते थे वे ही अब कंटकाकीर्ण जमीन पर चलते हैं । जो सातसात ड्योढीयुक्त मणिजड़ित महलों में सोते थे वे ही अब अनेक सर्पों से व्याप्त पहाड़ों की गुफा में सोते हैं । राज्यावस्था में जिनकी प्रशंसा पराक्रमी और महामानी बड़े-बड़े राजा करते थे उनकी प्रशंसा अब चारित्र से पवित्र निरभिमानी बड़े-बड़े मुनिराज करते हैं। राज्य अवस्था में जो तिजन्य सुख का आस्वादन करते थे वे ही अब विषयातीत नित्य ध्यानजन्य सुख का आस्वादन करते हैं । जो राजमंदिर में कामिनियों के मुख से उत्तमोत्तम गायन सुनते थे उन्हें अब श्मशान भूमि में मृग और शृगालों के भयंकर शब्द सुनने पड़ते हैं । राजमंदिर में जो पुत्र नातियों के साथ खेल खेलते थे अब वे निर्भय किंतु विश्वस्त मृगों के साथ खेल खेलते रहते हैं । इस प्रकार चिरकाल तक घोर तप कर परीषह जीतकर और घातिया कर्मों का विध्वंस कर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मुनिवर अभय कुमार ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया एवं केवलज्ञान की कृपा से संसार के समस्त पदार्थ जानकर भूमण्डल पर बहुत काल तक विहारकर अचित्य अव्या बाध मोक्ष सुख पाया। इनसे अन्य और जितने योगी थे वे भी अपने-अपने कर्मविपाक के अनुसार स्वर्ग आदि उत्तमोत्तम गतियों में गये ।। २१- ४६ ।।
Jain Education International
अथ स श्रेणिकः प्रीतः कुर्वन् धर्मं जिनेश्वरं । पालयन् वसुधां भाति कीर्तिव्याप्तजगत्त्रयः ।। ५० ।। अथ यो वारिषेणाख्यस्तनुजस्तस्य सुन्दरः । जिनधर्मेरतो धीमान् व्रताभरणभूषितः ॥ ५१ ॥
उपविश्यैकदा धीमांश्चतुर्दश्यां वने घने । कायोत्सर्गविधानेन स्थितस्तावत्पुरे वरे ।। ५२ ।। विलोकितो विलासिन्या श्रीकीत्तिश्रेष्ठिनी हृदि । स्थितश्च मुग्धसुंदर्याहारो दीप्रो मयूखवान् ।। ५३॥ विना दिव्येन हारेणाऽनेन मे जीवितंभुवि । निः फलं चेति संकल्पतिताशायनोदरे ॥ ५४ ॥
तदासक्तेनचौरेण
विद्युन्नाम्नानिशिगृहं ।
गतेन वादितानैव वक्तिसाच कथा कथं ॥ ५५ ॥
For Private & Personal Use Only
३३३
www.jainelibrary.org