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श्रेणिक पुराणम्
ततोऽभयकुमारेण लक्षितावपि यत्नतः । शक्यौ यथा कथंचिच्च ज्ञातुं तौ न समायतौ ।। ७४ ।। ततोऽपवरकांतस्तौ प्रवेश्यद्वारमुन्नतम् । दापयित्त्वा वोsवादी भयो भयवर्जितः ।। ७५ ।। हलिना वुभयोर्मध्ये कुंचिका विवरे च यः ।
निः सरत्येव स स्वामी भद्राया नात्र संशयः ॥ ७६॥ ततो मूलहली चित्ते चिंतयन्निति क्षिप्रधीः । निःसारः क्वाहमेवात्र क्व भद्रा क्व मम गृहम् ।। ७७ ।। तदाकारधरस्तावत्कथ्यमाने स्वहर्षतः । विवरे निर्गतो वेगाज्जग्राहासौ च तत्करं ॥ ७८ ॥ असत्योयमसत्योयं सत्यः सत्यो गृहे स्थितः । असत्यं तं प्रपीड्याशु ज्ञात्वा वृत्तांतमंजसा ॥ ७९ ॥ निर्द्धाटितो निजाद्देशाद्बलभद्राय ददौ ।
भद्रां गृहं शुभं वित्तमभयो निजबुद्धितः ॥ ८० ॥ इत्यादि न्यायवारेण प्रसिद्धोऽभूज्जगत्रये । अभयो बुद्धिनाथत्वं तवा नो वृषधारकः ॥ ८१ ॥
जब पुरवासी मनुष्यों से असली बलभद्र का फैसला न हो सका तो वे दोनों बलभद्रों को लेकर राजगृह अभयकुमार की शरण में आये । और उनके सामने सब समाचार निवेदन कर दोनों बलभद्रों को खड़ा कर दिया ।
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दोनों बलभद्रों की शक्ल, रूप-रंग एक-सा देख अभयकुमार भी चकराने लगे। असली बलभद्र को जानने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किये। किन्तु जरा भी उन्हें असली बलभद्र का पता न लगा । अन्त में सोचते-सोचते उनके ध्यान में एक विचार आया। दोनों बलभद्रों को बुला उन्हें शीघ्र ही एक कोठे में बंद कर दिया । और भद्रा को सभा में बुलाकर एवं एक तुंबी अपने सामने रखकर दोनों बलभद्रों से कहा
सुनो भाई दोनों बलभद्रो ! तुम दोनों में से कोठे के छिद्र से न निकलकर जो इस तुंबी के छिद्र से निकलेगा, वही असली बलभद्र समझा जायेगा । और उसे ही भद्रा मिलेगी ।
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कुमार की यह बात सुन असली बलभद्र को तो बड़ा दुःख हुआ, उसे विश्वास हो गया कि भद्रा अब मुझे नहीं मिल सकती क्योंकि मैं तुंबी के छेद से निकल नहीं सकता । किन्तु जो नकली
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