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अष्टमः सर्गः
बुद्धिबोधित बोधांतमुपाध्यायं यतीश्वरं । ध्यायामि ध्यान सिद्धयर्थमंगोपांगाप्तये पुनः ।। १ ॥ अयोध्याया मथो कश्चिद्भरतश्चित्रकर्मकृत् । पद्मावतीं शुभां देवीं साधयामास मंत्रतः ।। २ ॥ पद्मादेवी प्रसन्ना तमगदीद्वचनं परम् । याचयस्व वरं शीघ्र तदा सोप्यगदीद्वचः ॥ ३ ॥ मातर्देवि प्रसन्ना चेत्त्वं मे देहि मनोगतं । लेखयामि च यद्रूपं लेखनीयं च पट्टके ॥ ४ ॥
अपने पवित्र ज्ञान से समस्त जीवों का अज्ञानांधकार मिटानेवाले, निर्मल ज्ञान के दाता, मुनियों में उत्तम मुनिश्री उपाध्याय परमेष्टी को अंगोपांग सहित समस्त ध्यान की सिद्धि के लिए मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
उस समय अयोध्यापुरी में कोई भरत नाम का पुरुष निवास करता था। भरत चित्रकला में अति निपुण था। कदाचित् उसके मन में यह अभिलाषा हुई कि यद्यपि मैं अच्छी तरह चित्रकला जानता हूँ किन्तु कोई ऐसा उपाय होना चाहिए कि लेखनी हाथ में लेते ही आप-से-आप पट पर चित्र खिच जावे। मुझे विशेष परिश्रम न करना पड़े। उस समय उसे और तो कोई तरकीब न सूझी। अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए उसने पद्मावती देवी की आराधना करनी शुरू कर दी। दैवयोग से कुछ दिन बाद देवी भरत पर प्रसन्न हो गई। और उसने प्रत्यक्ष हो भरत से कहा
भक्त भरत ! मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ। जिस वर की तुझे इच्छा हो माँग, मैं देने के लिए तैयार हैं। देवी के ऐसे वचन सुन भरत अति प्रसन्न हुआ। और विनय-भाव से उसने इस प्रकार देवी से निवेदन किया
__ माता ! यदि तू मुझ पर प्रसन्न है और मुझे वर देना चाहती है तो मुझे यही वर दे जिस समय मैं लेखनी हाथ में लेकर बैलूं, उस समय आप-से-आप मनोहर चित्र पट पर अंकित हो जाएँ मुझे किसी प्रकार का परिश्रम न उठाना पड़े।
देवी ने भरत का निवेदन स्वीकार किया। तथा भरत को इस प्रकार अभिलाषित वर दे देवी तो अंतर्लीन हो गई। और भरत अपने परीक्षार्थ किसी एकांत स्थान में बैठ गया ।।१-४॥
तथेति प्रतिपन्ना सा भरतेन तदा पुनः । लेखनी ध्रियते पट्टे धृत्वायद्रूपमुत्तमं ॥ ५ ॥
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