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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
पूर्वं संताषितोऽनेनेदानीं संतापयिष्यति । निर्दयेन कृतं दुःखमहं सोढुं न च क्षमः ।।१०३॥ वितयेत्यसिधारायां पपातात्तितमानसः । मृतिमाप क्षणार्द्धन श्रेणिको नरयं गतः ।।१०४।। असिधारास्थितं तातं प्राणत्यक्तं विलोक्य सः । विललापेति चेलिन्या सत्रमंत पुरेणच ॥१०॥
राजन् ! जिसने तुझे राज्य दिया, जन्म दिया और विशेषतया पढ़ा-लिखाकर तैयार किया, क्या उस पूज्यपाद के साथ तेरा यह क्रू र बर्ताव प्रशंसनीय हो सकता है ? अरे ! जो मनुष्य उत्तम हैं वे अपने पिता को पूज्य समझ भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं। पिता से भी अधिक राज्य देने वाले को और उससे भी अधिक विद्या प्रदान करने वाले को पूजते हैं। तू यह निकृष्ट काम क्या कर रहा है ? जो उपकार का आदर करनेवाला है सज्जन लोग जब उसका भी उपकार करते हैं तो उपकार करने वाले का तो वे अवश्य ही उपकार करते हैं। जो मनुष्य पर उपकार को नहीं मानते हैं । वे नराधम कहलाते हैं और वे नियम से नरक जाते हैं। राजन् ! जो किये उपकार का लोप करने वाले हैं वे संसार में कृतघ्न कहलाते हैं। किंतु जो कृत उपकार को मानने वाले हैं वे कृतज्ञ कहे जाते हैं। और सब लोग उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। प्यारे पुत्र ! पिता आदि का बन्धन पुत्र के लिए सर्वथा अनुचित है महापाप का करने वाला है। इसलिये तू अभी जा और अपने पिता को बन्धन रहित कर । माता द्वारा इस प्रकार संबोध पा राजा कुणक मन में अति खिन्न हुआ। अपने दुष्कर्म की बार-बार निंदा कर वे ऐसा विचारने लगे
हाय ! मुझ पापात्मा ने बड़ा निंद्य काम कर डाला। हाय ! अब मैं इस महापाप से कैसे छुटकारा पाऊँगा? अनेक हित करने वाले पूज्य पिता को मैं अभी जाकर छुड़ाता हूँ। इस प्रकार क्षण एक अपने मन में विचारकर राजा कुणक महाराज को बंधनमुक्त करने चल दिये । ज्यों ही राजा कुणक कठेरे के पास पहुँचे और ज्यों ही क्रूर मुख राजा कुणक को देखा देखते ही उनके मन में यह विचार उठ खड़ा हुआ
यह दुष्ट अभी पीड़ा देकर गया है अब यह क्या करना चाहता है जिससे मेरी ओर आ रहा है। पहले यह मुझे बहुत संताप दे चुका है अब भी यह मुझे अधिक संताप देगा। हाय ! इस निर्दयी द्वारा दिया दुःख अब मैं सहन नहीं कर सकता। बस, इस प्रकार अपने मन में अतिशय दुःखी हो शीघ्र ही तलवार की धार पर सिर मारा। तत्काल उनके प्राणपखेरू धर उडे और प्रथम नरक में पहुँच गये। पिता को असिधारा पर प्राणरहित देख राजा कुणक के होश उड़ गये। उस समय उन्हें और कुछ न मूझा। वे घेलना और अंतःपुर के साथ बेहोश हो करुणाजनक इस प्रकार रोदन करने लगे ॥६६-१०५।।
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