________________
૬૬
यद्दीप्रनखनक्षत्र नानाचिताप्रविस्तीर्णं
Jain Education International
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
मनोव्योम विकासितम् । कामिनां
मदगामिनां ।। ५५ ।।
तयेदं प्रेषितं तैलमभ्यंगाय सुगंधाकृष्टषट्पादं नखपूरं स्नात्वा सुखं त्वया राजन्नागंतव्यं गृहे वरे । इंद्रदत्तस्य चाढ्यस्य नानाशोभापरायणे ॥ ५७ ॥
शुभावहम् । सुखाप्तये ।। ५६ ।।
नखपूरं ततः प्रेक्ष्य तैलं चित्ते व्यचितयत् । किमिदं किमिदं तैलं स्वल्पं स्नानानियोगकं ॥ ५८ ॥
कुमार के इस प्रकार आनन्दप्रद एवं मनोहर वचन सुन निपुणमती ने उत्तर दिया है कुमार! जिस सेठी इन्द्रदत्त के साथ आप आये हैं उसी सेठी की अपने रूप से रति को भी तिरस्कार करनेवाली सर्वोत्तम नन्दश्री नाम की पुत्री है । उस पुत्री का कटिभाग, दोनों स्तनों के भार से अत्यंत कृश है | अतिशय कृश कटिभाग की रक्षार्थ उसके दो स्थूल नितम्ब हैं, जो कि अत्यंत मनोहर हैं । भाँति-भाँति के कौशलों से अनेक स्त्रियों का विधाता ब्रह्मा भी इस नन्दश्री की रूप आदि सम्पदा देखकर इसके समान दूसरी किसी भी स्त्री को उत्तम नहीं मानता है । उसका मुख कामी जनों के चित्तरूपी रात्रि विकासी कमलों को विकार करनेवाला एवं समस्त अन्धकार के नाश करनेवाला पूर्ण चन्द्रमा है । और वह अतिशय देदीप्यमान नखों से शोभित है। हे कुमार ! उसी समस्त कामी जनों के चित्त को हरण करनेवाली कुमारी नन्दश्री ने, अपनी सुगंधि से भ्रमरों को लुभानेवाला सर्वोत्तम एवं आनन्द का देनेवाला यह नखभर तेल मेरे द्वारा आपके लगाने के लिए भेजा है। हे महाभाग ! जितनी जल्दी हो सके इसको लगाकर आप सुखपूर्वक स्नान करें तथा मेरे साथ अनेक प्रकार की शोभाओं से व्याप्त सेठी इन्द्रदत्त के घर शीघ्र चलें ॥। ५२-५८ ॥
लक्ष्येतेदं सुदाक्षिण्यकृतेन निश्चितं मया । प्रेक्ष्यतं तैलमाशक्तं षट्पदैः स्वल्पमास्वनैः ।। ५६॥ पदांगुष्टेन जंबाले चकार विवरं शुभम् । सलिलैः पूरयामास विज्ञानांबुधिपारगः ॥ ६० ॥ ततो दीर्घनखीं प्राह सीमंतिनि ! जले शुभम् । तैलं निक्षिप शीघ्रण कठिनोन्नतचूचके ॥ ६१॥ तया तदाज्ञया तत्र क्षिप्तं तत्स्नानसिद्धये । हसंत्या मानसे चित्रं पश्यंता स्नेहसंभवं ॥ ६२ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org