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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
ग्रहार्थं नंदिपुर्याश्च विप्र तदाशुश्राव तन्मंत्री
अभ्येत्य नृपनाथं तं प्रणम्येति वचो जगौ । विधीयते च किं राजन्नित्याकर्ण्य नृपो जगौ ॥ ३७ ॥
नंदिनामा च वाडवैः । चित्तशल्यविधायिना ॥ ३८ ॥
निष्काशनाय च । सर्वं भटविसर्जनम् ।। ३६ ॥
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विनाश्येत मया ग्रामो रक्षितः पूर्ववैरेण इत्यमात्यो वचः श्रुत्वा बभाष धरणीपतिम् । राजन्न्याये प्रवर्त्तव्यं मार्गे दैवाधितिष्ठति ॥ ३६ ॥ न्याये मार्गे प्रवर्त्तन्ते भूभृतो भुवने सदा । ते वर्द्धते धनैः साकं देशैश्च नगरादिभिः ॥ ४० ॥ अन्यायेन धनी लोके तदा चौरः सुखी भवेत् । अन्यायाद्देशनाशश्च लोकानां प्रभयस्तथा ।। ४१ ॥ यथा सस्यानि पाल्यानि वृत्त्यादिभिः कृषीवलैः । तथा नृपैः प्रजाः सर्वां भयात्पाल्याः प्रयत्नतः ॥ ४२ ॥ न्यायवान् भूपतिर्लोके तदा लोकाश्चन्यायिनः । अन्यायवर्ति भूपाले न्यायत्यक्ता जनाः स्मृताः ॥ ४३ ॥
इधर महाराज ने तो नन्दिग्राम के वित्रों को निकालने के लिए आज्ञा दी। उधर मंत्रियों के कान तक भी यह समाचार जा पहुँचा । वे दौड़ते-दौड़ते तत्काल ही महाराज के पास आये । और विनय से कहने लगे ।
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राजन् आप यह क्या अनुचित काम करना चाहते हैं? इससे बड़ी भारी हानि होगी । पीछे आपको पछताना पड़ेगा। आप भली प्रकार सोच-विचार कर काम करें। मंत्रियों के ऐसे वचन सुन महाराज के नेत्र और भी लाल हो गये । मारे क्रोध के उनके नेत्रों से रक्त की धारा-सी बहने लगी । और गुस्से में भरकर वे यह कहने लगे ।
हे राजमंत्रियो, सुनो ! नन्दिग्राम के विप्रों ने मेरा बड़ा पराभव किया है। जिस समय मैं राजगृह से निकल गया था उस समय मैं नन्दिग्राम में जा पहुँचा था । नन्दिग्राम में पहुँचते ही भूख ने मुझे बुरी तरह सताया। मुझे और तो वहाँ भूख को निवृत्ति का कोई उपाय नहीं सूझा । मैं सीधा नन्दिनाथ के पास गया । और मैंने विनय से भोजन के लिए उससे कुछ सामान माँगा । किंतु दुष्ट नन्दिनाथ ने मेरी कभी प्रार्थना न सुनी वह एकदम मुझ पर नाराज हो गया । दो-चार
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