Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 02
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020650/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कृित वाङ्मय कोश संस्कृत वाहमले कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृित वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृर स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृतवाङ्मय कोश संस्कृतवाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृित वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कर स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृतवाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत संस्कृत वाङ्मय कोश स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोशसंस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कत वादमय कोश संस्कृत बादमय कोश संस्कृत वाहमा कोहाकोश संस्कृत वाहमय कोश संस्कत वाहमय कोश संस्कत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमदतायखण्ड कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय वामय कोशवाय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत महाकोशरस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कावयशस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कर स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कूर स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कीश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय 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-------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत वाङ्मय कोश द्वितीय खण्ड (ग्रंथ) संपादक डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर डि.लिट्. अवकाश प्राप्त संस्कृत विभागाध्यक्ष, नागपुर विश्वविद्यालय भाषा भारतीय वरिषद कोलकता For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतज्ञता-ज्ञापन भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की आंशिक आर्थिक सहायता से प्रकाशित For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादक डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर प्रकाशक भारतीय भाषा परिषद 36-ए, शेक्सपीयर सरणी कलकत्ता-700017 दूरभाष : 449962 प्रथम आवृत्ति 1100 प्रतियां 1988 मुखपृष्ठ जयंत गावली मुद्रक अरविंद मार्डीकर भाग्यश्री फोटोटाइपसेटर्स एण्ड ऑफसेट प्रिन्टर्स 262-सी, उत्कर्ष-अभिजित, लक्ष्मीनगर, नागपुर-440 022 मुद्रण कार्य सहयोगी पपायस् प्रिंटींग एण्ड पॅकेजिंग प्राडक्टस् (ऑल इंडिया रिपोर्टर लि. अंगीकृत) व्यंकटेश ऑफसेट एस्केज स्कॅनर मॉडर्न बुक बाईडिंग वर्क्स प्रकाश बेलूरकर हरिचंद मूरे दिलीप गाठे मूल्य - 500 रुपये (दोनो खण्डों का एकत्रित मूल्य) For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय "संस्कृत वाङ्मय कोश" भारतीय भाषा परिषद का सबसे महत्त्वपूर्ण और गरिमामय प्रकाशन है। परिषद ने अब तक के अपने सारे प्रकाशनों में एक समन्वयात्मक व सांस्कृतिक दृष्टि को सामने रखा। परिषद का पहला प्रकाशन 'शतदल' भारत की विभिन्न भाषाओं से संग्रहीत सौ कविताओं का संकलन है जिनको हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। इसके पश्चात् भारतीय उपन्यास कथासार और भारतीय श्रेष्ठ कहानियां इसी दृष्टि को आगे बढ़ाने वाली प्रशस्त रचनाएं सिद्ध हुई। कन्नड और तेलुगु से अनूदित “वचनोद्यान" और "विश्वम्भरा" इसी परम्परा के अंतर्गत हैं। प्रस्तुत प्रकाशन "संस्कृत वाङ्मय कोश" सुरभारती संस्कृत में प्रतिबिंबित भारतीय साहित्य, संस्कृति, दर्शन और मौलिक चिंतन को राष्ट्र वाणी हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करनेवाली विशिष्ट कृति है। संस्कृत वाङ्मय की सर्जना में भारत के सभी प्रान्तों का स्मरणीय तथा स्पृहणीय अवदान रहा है। इसलिए सच्चे अर्थों में संस्कृत सर्वभारतीय भाषा है। संस्कृत वाङ्मय जितना प्राचीन है, उतना ही विराट है। इस विशालकाय वाङ्मय का साधारण जिज्ञासुओं के लिए एक विवरणात्मक ग्रंथ प्रकाशित करने का विचार सन् 1979 में परिषद के सामने आया। फिर योजना बनी। पर योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे विद्वान की आवश्यकता थी जो संस्कृत साहित्य की प्रायः सभी विधाओं के मर्मज्ञ हों, सम्पादन कार्य में कुशल हों, संकलन की प्रक्रिया में कर्मठ हों और साथ ही निष्ठावान् भी हों। जब ऐसे सुयोग्य व्यक्ति की खोज हुई तो विभिन्न सूत्रों से एक ही मनीषी का नाम परिषद के समक्ष आया और वह है - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। परिषद पर वाग्देवी की जितनी कृपा है, उतना ही स्नेह उस देवी के वरद पुत्र डॉ. वर्णेकर का रहा। पिछले सात वर्षों से वे इस कार्य में निरंतर लगे रहे और ऋषितुल्य दीक्षा से उन्होंने इस कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न किया। उन्होंने यह सारा कार्य आत्म साधना के रूप में किया है और इसके लिए आर्थिक अर्घ्य के रूप में परिषद से कुछ भी नहीं लिया। यह परिषद का सौभाग्य है कि इतनी प्रशस्त कृति के लिए डॉ. वर्णेकर जैसे योग्य कृतिकार की निष्काम सेवा उपलब्ध हो सकी। इस गौरवपूर्ण प्रकाशन को सुरुचिपूर्ण समाज के सामने प्रस्तुत करते हुए भारतीय भाषा परिषद अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है। परमानन्द चूडीवाल For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वाङ्मुख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संसार का समस्त वाङ्मय परम शिव का वाचिक अभिनय है। मानव मन को उन्मुख बनाकर संग्रहणीय ज्ञान को संप्रसारित करनेवाला सारस्वत साधन ही वाक् है जो व्यक्ति को व्यक्त करने की शक्ति प्रदान करती है। वाक् कभी निरर्थक नहीं होती, सदा सार्थक और सशक्त रहती है। वाक् और अर्थ की प्राकृतिक प्रतिपत्ति का प्रापंचिक परिणाम ही वाङ्मय है इसलिए प्रकृति जितनी पुरानी है, वाङ्मय भी उतना ही पुराना है पर नित्य जीवन में नैसर्गिक रूप से निगदित इस वाङ्मय को निगमित, नियमित और नियंत्रित रूप में निबद्ध करने का पहला प्रयास निरुक्तकार और निघंटु-रचना के उन्नायक यास्क की 'समाम्नाय' भावना में पाया जाता है। इस प्रकार वाङ्मय कोश की सबसे प्राचीन और परिनिष्ठित परिकल्पना यास्क कृत “निघंटु" में परिलक्षित होती है। यास्क से पूर्व भी निघंटु-रचना का प्रमाण मिलता है। शाकपूणि की रचना में शब्दों का संकलन और उनका प्रयोजन विवक्षा का विषय रहा। पर यास्क ने पहली बार निघंटु के साथ "निरुक्त" की परिकल्पना कर, शब्द को अर्थ का विस्तार दिया और अर्थ को शब्द का आश्रय दिलाया। आकार में लघु होने पर भी इस ग्रंथ का ऐतिहासिक महत्त्व है क्यों कि विश्व में उपलब्ध वाङ्मय में सबसे प्राचीन कोश होने का गौरव इसी ग्रंथ को प्राप्त है । यास्क से पूर्व "निघण्टु" शब्द का प्रयोग प्रायः बहुवचन में हुआ करता था -- जैसे "निघण्टवः " कस्मात् ? "निगमा इमे भवंति - छांदोभ्यः समाहृत्य समाम्नातास्ते निगतव एव संतो निगमनान्निघण्टव उच्यंते ।" विशाल वैदिक साहित्य से निगमित पद-पदार्थ का वाङ्मय - भण्डार होने के कारण इनको निघण्टु कहा गया और यास्क के पश्चात् यह शब्द कोश के अर्थ में एकवचन में रूढ हो गया। आज भी कुछ भारतीय भाषाओं में शब्दकोश के अर्थ में “निघण्टु" शब्द का प्रयोग बहुधा प्रचलित है । यास्क का "निरुक्त" कोश रचना की प्रक्रिया को एक नया आयाम प्रदान करता है। "निघण्टु" की शब्द-कोशीयता “निरुक्त" में ज्ञान कोशीयता का रूप धारण करती है। शब्द का सही और पूरा ज्ञान प्राप्त करने से (केवल अर्थ ग्रहण करने से नहीं) उसके प्रयोग में अपने आप प्रवीणता प्राप्त होती है। शब्द को आधार बनाकर समस्त संग्रहणीय ज्ञान को उच्चरित करने की इसी प्रवृत्ति ने संस्कृत वाङ्मय में विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश की रचनात्मक प्रक्रिया का बीज बोया । यास्क का "निरुक्त" संभवतः इस दिशा में पहला कदम था। आदि शंकराचार्य छांदोग्य उपनिषद् के भाष्य में नारद और सनत्कुमार के संवाद के प्रसंग में नारद द्वारा उल्लिखित अनेक विद्याओं में से एक 'देव-विद्या' की व्याख्या करते हुए उसको निरुक्त की संज्ञा देते हैं। इससे पता चलता है कि "निरुक्त” भावना के प्रति शंकर जैसे ब्रह्मवेत्ता के मन में कितना आदर था । वास्तव में छांदोग्य उपनिषद् के इस प्रकरण को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विश्व-कोश या ज्ञान कोश की भावना के प्रथम प्रवर्तक नारद ही थे जो कि वेद, पुराण, कल्प, शास्त्र, विद्या आदि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अपने को पारंगत मानते थे। फिर भी उनको भीतर से शांति नहीं थी क्यों कि उन्होंने सब कुछ पाया, पर आत्मा को नहीं पहचान पाया। इसी अभाव की ओर संकेत करते हुए सनत्कुमार कहते हैं: "तुम जो कुछ जानते हो, वह केवल नाम है” (यद्वै किंचिदध्यगीष्ठा नामैवैतत् ) । तब नारद को पता चलता है कि "हम जिसको ज्ञान मान कर उसका समुपार्जन करते हैं और उस पर गर्व करते हैं, वह केवल नाम है।" नाम शब्द में समस्त लौकिक ज्ञान समाहित है। इसलिए संस्कृत वाङ्मय के प्राचीन कोशकारों ने नाम का आश्रय लेकर ज्ञान का प्रसार करने का स्पृहणीय कार्य किया है। अमरसिंह का "नाम- लिंगानुशासन", जो "अमरकोश" के नाम से संसार भर में प्रसिद्ध है, इसी परंपरा की अगली कड़ी है और बहुत मजबूत कड़ी है। "अमरकोश" पर लिखी गई पचास से अधिक टीकाएं इसकी लोकप्रियता, उपादेयता और प्रत्युत्पन्नता को प्रमाणित करती हैं। चौथी या पांचवी शती (ई.) में प्रणीत यह पद्यबद्ध रचना मूलतः पर्यायवाची शब्द कोश है, पर विश्व-कोश के प्रणयन की प्रेरणा बाद में इसी से मिली है। शाश्वत का "अनेकार्थ- समुच्चय", हलायुध - कोश के नाम से प्रसिद्ध "अभिधान-रत्नमाला” (दसवीं शती) यादवप्रकाश की “वैजयंती”, हेमचन्द्र का “अभिधान- चिन्तामणि", महेश्वर (सन् 1111 ई.) के दो कोश “विश्वप्रकाश" और "शब्दभेद - प्रकाश", मंखक कवि का "अनेकार्थ" (बारहवीं शती) अजयपाल का "नानार्थ संग्रह" (तेरहवीं शती), धनंजय की "नाममाला", केशव स्वामी का "शब्दकल्पद्रुम (तेरहवीं शती), मेदिनिकर का "नानार्थ शब्द कोश" For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (मेदिनि कोश के नाम से प्रसिद्ध) (चौदहवीं शती) आदि अनेक कोश "अमर कोश" से प्रेरणा प्राप्त कर प्रणीत हुए। इनमें से अधिकांश पद्य बद्ध हैं। पर इनकी दृष्टि ज्ञान की अपेक्षा शब्द पर ही अधिक थी। कोशकारों का ध्यान सामान्य ज्ञान की ओर आकृष्ट करनेवाला प्रथम प्रयास तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य के “वाचस्पत्यम्" (1823) ने किया है। राजा राधाकांत देव का "शब्द-कल्पद्रुम" (1828-58) भी इसी दृष्टि से प्रस्तुत था, पर वाचस्पत्यम् का प्रमुख स्वर "वाक्' रहा जब कि शब्द कल्पद्रुम का विवेचन शब्द की परिधि से बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। इतना तो स्पष्ट है कि "शब्द-कल्पद्रुम" के "शब्द" को "वाचस्पत्यम्" ने “वाक्" की विशाल परिधि में प्रसारित किया है। वास्तव में ये दोनों कोश अपनी-अपनी दृष्टि में शब्द-कोश और विश्व-कोश दोनों तत्त्वों को साथ लेकर रूपायित हुए हैं। साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, तंत्र, दर्शन, संगीत, काव्य-शास्त्र, इतिहास, चिकित्सा आदि अनेक विषयों का विवेचन न्यूनाधिक मात्रा में इन दोनों कोशों में समाविष्ट है। इस प्रकार शब्द कोश को वाङ्मय कोश बनाने का पहला भारतीय प्रयास इन दोनों कोशों में संपन्न हुआ है। यह प्रसन्नता की बात है कि मोनियर विलियम्स, विल्सन आदि पाश्चात्य तथा वामन शिवराम आपटे जैसे प्राच्य विद्वानों ने इस वाङ्मय शब्द-साधना को काफी आगे बढ़ाया। आपटे का "व्यावहारिक संस्कृत अंग्रेजी शब्द कोश" केवल शब्द-कोश नहीं है, बल्कि एक प्रकार से संस्कृत वाङ्मय कोश का ही प्रकारांतर है। इसमें शब्दों की व्याख्या करते समय कोशकार ने रामायण, महाभारत आदि प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त काव्य-साहित्य, स्मृति-ग्रंथ, शास्त्र-ग्रंथ, दर्शन-शास्त्र आदि संस्कृत वाङ्मय से संबंधित ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जो सोदाहरण परिचय दिया है, उससे स्पष्ट होता है कि यह केवल शब्द कोश नहीं है, बल्कि प्राच्य विद्या की पद-निधि है। जर्मन विद्वान डॉ. राथ एवं बोथलिंक द्वारा प्रणीत जर्मन कोश "वार्टर बच" (1858-75) में भी लगभग इसी प्रकार का प्रयास परिलक्षित होता है। वास्तव में वामन शिवराम आपटे को वाङ्मयनिष्ठ शब्द-कोश का प्रणयन करने की प्रेरणा “वाचस्पत्यम्" और "वार्टर बच" दोनों से मिली है जैसा कि उन्होंने अपने कोश की भूमिका में बड़ी विनम्रता के साथ स्वीकार किया है। फिर भी संस्कृत में "वाङ्मय कोश" की आवश्यकता बनी रही। अंग्रेजी में "इनसाइक्लोपेडिया अमरीकाना (1829-33) आदि विश्व कोशों के स्वरूप के अनुरूप भारतीय भाषाओं में भी साहित्यिक तथा साहित्येतर विश्व-कोश धीरे धीरे बनने लगे हैं। इस शताब्दी के पूर्वार्ध में इस दिशा में जो कार्य हुआ, उसमें विश्वबन्धु शास्त्री का 'वैदिक शब्दार्थ पारिजात' (1929) प्रथमतः उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त शास्त्री जी ने "वैदिक पदानुक्रम कोश" (सात खण्डों में) 'ब्राह्मणोद्धार कोश', 'उपनिषदुद्धार कोश' आदि की भी रचना की जो शब्द-कोश और विश्व-कोश के लक्षणों से युगपत् अभिलक्षित हैं। इस संदर्भ में चमूपति का 'वेदार्थ शब्द कोश', मधुसूदन शर्मा का 'वैदिक कोश', केवलानन्द सरस्वती का 'ऐतरेय ब्राह्मण आरण्यक कोश' और लक्ष्मण शास्त्री का 'धर्म शास्त्र कोश' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। म.म.प. रामावतार शर्मा का "वाङ्मयार्णव" वर्तमान शताब्दी का महान कोश है जो सन् 1967 में प्रकाशित हुआ। भारत की स्वाधीनता के पश्चात् लगभग सभी भारतीय भाषाओं में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से संबंधित संदर्भ-ग्रंथों का प्रणयन बड़ी प्रचुरता के साथ होने लगा और इसी प्रसंग में प्रायः प्रत्येक भारतीय भाषा में विश्व-कोशों की रचना हुई। तेलुगु भाषा समिति ने 1967 और 1975 के बीच में सोलह खंडों में 'विज्ञान सर्वस्वम्' के नाम से भाषा, साहित्य, दर्शन, इतिहास, भूगोल, भौतिकी, रसायन, विधि, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि अनेक विषयों में विश्व-कोश का प्रकाशन किया। इसी प्रकार मलयालम में 1970 के आसपास 'विश्व विज्ञान कोशम्' का प्रकाशन हुआ। साहित्य प्रवर्तक सहकार समिति (कोट्टायम, केरल) ने यह कार्य सम्पन्न कराया। मराठी में पहले से ही कोश कला के क्षेत्र में स्पृहणीय कार्य हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् यह कार्य और अधिक निष्ठा के साथ सम्पन्न हुआ। पं. महादेव शास्त्री जोशी द्वारा संपादित “भारतीय संस्कृति कोश" विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी में नागरी प्रचारिणी सभा ने बारह खण्डों में 'हिन्दी विश्व कोश' का प्रकाशन किया। बंगीय साहित्य परिषद द्वारा 1973 के आसपास पांच खण्डों में प्रकाशित “भारत कोश" भी भारतीय साहित्य के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय है। साहित्य अकादेमी ने हाल ही में "इनसाइक्लोपेडिया आफ इंडियन लिटरेचर" के नाम से बृहत् प्रकाशन आरंभ किया है। अंग्रेजी के माध्यम से प्रकाशित साहित्य कोशों में इसका विशेष महत्त्व वहेगा। यह सारा कार्य विगत पच्चीस वर्षों में लगभग सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से सम्पन्न हुआ। पर विश्वकोश की इस अखिल भारतीय चिंतन धारा में संस्कृत तनिक उपेक्षित रही। संस्कृत साहित्य अथवा वाङ्मय को लेकर कोई विशेष और उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ। फिर भी डा. राजवंश सहाय “हीरा" जैसे मनीषियों ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है। डा. हीरा के दो कोश "संस्कृत साहित्य कोश" और "भारतीय शास्त्र कोश" 1973 में प्रकाशित हुए। हिन्दी साहित्य For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्मेलन द्वारा दो खण्डों में प्रकाशित “हिन्दी साहित्य कोश" की भांति ये दोनों कोश संस्कृत वाङ्मय के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध हुए। किन्तु समग्र संस्कृत वाङ्मय का विवेचन प्रस्तुत करनेवाले सर्वांगीण कोश का अब तक एक प्रकार से अभाव ही रहा। संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान और समर्पित कार्यकर्ता डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर द्वारा सम्पादित इस महत्वपूर्ण ग्रंथ "संस्कृत वाङ्मय कोश" के माध्यम से इस अभाव को दूर करने का विनम्र प्रयास भारतीय भाषा परिषद कर रही है। यह परिषद का अहोभाग्य है कि इस अमोघ कार्य को सम्पन्न करने के लिए डॉ. वर्णेकर जैसे वाङ्मय तपस्वी की अनर्घ सेवाएं मिली हैं। विश्वविद्यालय की सेवा से निवृत्त होते ही परिषद के अनुरोध पर केवल वाङ्मय सेवा की भावना से प्रेरित होकर वे इस बृहद् योजना में प्रवृत्त हुए और पांच छह वर्षों में उन्होंने यह महान कार्य सम्पन्न किया। संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति के प्रकांड विद्वान, समालोचक, कवि और चिंतक होने के कारण डॉ. वर्णेकर इस दुष्कर कार्य को सुकर बना सके, अन्यथा संस्कृत वाङ्मय, संस्कृत के प्रसिद्ध कोशकार वामन शिवराम आपटे के शब्दों में, इतना विशालकाय है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी मनीषी और मेधावी क्यों न हो, जीवन भर सश्रम अध्ययन करने पर भी समग्र रूप से इसमें निष्णात नहीं बन सकता। वैदिक वाङ्मय से लेकर अधुनातन सृजनात्मक रचना तक हजारों वर्षों से चली आ रही इस विराट् परंपरा को कोश की कौस्तुभ काया में समाविष्ट करना साधारण कार्य नहीं है और यही कार्य डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने किया है। इस कोश के दो खण्ड हैं - ग्रंथकार खण्ड और ग्रंथ खण्ड। प्रथम खण्ड (ग्रंथकार खण्ड) की पूर्व पीठिका के रूप में "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" के नाम से समस्त संस्कृत वाङ्मय के अंतरंग का दिग्दर्शन बारह प्रकरणों में किया गया है। प्रथम खण्ड में लगभग 2700 प्रविष्टियां हैं और द्वितीय खण्ड में 9000 से अधिक हैं। ग्रंथकार खण्ड के अंतर्गत ग्रंथों का भी संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक होता है जब कि ग्रंथ खण्ड में उन्हीं ग्रंथों का विस्तार से विवेचन किया जाता है। इससे कहीं कहीं पुनरूक्ति का आभास हो सकता है। पर जहां तक संभव है, इससे कोश को मुक्त रखने का ही प्रयास किया गया है। इस कोश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें केवल संस्कृत साहित्य से संबंधित प्रविष्टियां ही नहीं, बल्कि धर्म, दर्शन, ज्योतिष, शिल्प, संगीत आदि अनेक विषयों पर संस्कृत में रचित विशाल तथा वैविध्यपूर्ण वाङ्मय का संक्षिप्त परिचय समाविष्ट है। इसलिए यह केवल संस्कृत 'साहित्य' कोश न होकर सच्चे अर्थों में संस्कृत 'वाङ्मय' कोश है। इस दृष्टि से हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में यह अपने ढंग का पहला प्रयास है। __ यह सारा कार्य निष्काम कर्मयोगी डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने अर्थ-निरपेक्ष दृष्टि से सम्पन्न कर परिषद को मान-सम्मान प्रदान किया है, इसलिए वे सच्चे अर्थो में मानद और मान्य हैं। यह बात डॉ. वर्णेकर भी स्वीकार करते हैं और हम भी बड़ी विनम्रता के साथ निवेदित करना चाहते हैं कि इस कोश में संस्कृत वाङ्मय के संबंध में “बहुत कुछ" होने पर भी "सब कुछ" नहीं है। यह एक महान कार्य का शुभारंभ है जो कि न समग्र होने का दावा कर सकता है और न मौलिक कहा जा सकता है। यह ध्येयनिष्ठ और अध्ययन साध्य संकलन है जिसमें विवेक विनय का आश्रय लेकर विकास के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है। इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशन को यथोचित महत्त्व देकर स्तवनीय मनोदय से मुद्रण कार्य को सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न कराने के लिए भाग्यश्री फोटोटाईपसेटर्स एण्ड ऑफसेट प्रिंटर्स, नागपुर के प्रति आभार प्रकट करना परिषद अपना कर्तव्य समझती है। आशा है, संस्कृत के विद्वान, अध्येता, प्रेमी और आराधक इस साधना का स्वागत करेंगे और परिषद के इस प्रयास को अपने "परितोष"पूर्वक साधुवाद से सप्रत्यय बनाएंगे। पांडुरंग राव निदेशक भारतीय भाषा परिषद 36-ए, शेक्सपीयर सरणी, कलकत्ता-700017 For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय उपोद्घात प्रस्तावना :- सन् १९७९ जुलाई में नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद, पारिवारिक सुविधा के निमित्त, मेरा निवास बंगलोर में था। सेवानिवृत्ति के कारण मिले हुए अवकाश में अपने निजी लेखों के पुनर्मुद्रण की दृष्टि से संपादन अथवा पुनर्लेखन करना, संगीत का अपूर्ण अध्ययन पूरा करना, अथवा कुछ संकल्पित ग्रंथों का लिखना प्रारंभ करना आदि विचार मेरे मन में चल रहे थे। इसी अवधि में एक दिन मेरे परम मित्र डॉ. प्रभाकर माचवे जी का कलकत्ता की भारतीय भाषा परिषद की ओर से एक पत्र मिला जिसमें परिषद द्वारा संकल्पित संस्कृत वाङ्मय कोश का निर्माण करने की कुछ योजना उन्होंने निवेदन की थी और इस निमित्त कुछ संस्कृतज्ञ विद्वानों की एक अनौपचारिक बैठक भी परिषद के कार्यालय में आयोजित करने का विचार निवेदित किया था। इसी संबंध में हमारे बीच कुछ पत्रव्यवहार हुआ जिसमें मैने यह भारी दायित्व स्वीकारने में अपनी असमर्थता उन्हें निवेदित की थी। फिर भी संस्कृत सेवा के मेरे अपने व्रत के अनुकूल यह प्रकल्प होने के कारण कलकत्ते में आयोजित बैठक में मै उपस्थित रहा। भारतीय भाषा परिषद के संबंध में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। कलकत्ते में परिषद का सुंदर और सुव्यवस्थित भवन इस बैठक के निमित्त पहली बार देखा । सर्वश्री परमानंद चूड़ीवाल, हलवासिया, डॉ. प्रतिभा अग्रवाल इत्यादि विद्याप्रेमी कार्यकर्ताओं से चर्चा के निमित्त परिचय हुआ। सभी सज्जनों ने संकल्पित "संस्कृत वाङ्मय कोश" के संपादक का संपूर्ण दायित्व मुझ पर सौंपने का निर्णय लिया। इस बैठक में आने के पूर्व मेरे अपने जो संकल्प चल रहे थे, उन्हें कुण्ठित करने वाला यह नया भारी दायित्व, जिसका मुझे कुछ भी अनुभव नहीं था, स्वीकारने ' में मैने अपनी ओर से कुछ अनुत्सुकता बताई। मेरी सूचना के अनुसार संपादन में सहाय्यक का काम, वाराणसी के मेरे मित्र पं. नरहर गोविन्द बैजापुरकर जो उस बैठक में आमंत्रणानुसार उपस्थित थे, पर सौंपने का तथा संस्कृत वाङ्मय कोश का कार्यालय वाराणसी में रखने का विचार मान्य हुआ। वाराणसी में इस प्रकार के कार्य के लिए आवश्यक मनुष्यबल तथा अन्य सभी प्रकार का सहाय मिलने की संभावना अधिक मात्रा में हो सकती है, यह सोचकर मैंने यह सुझाव परिषद के प्रमुख कार्यकर्ताओं को प्रस्तुत किया था। इस कार्य में यथावश्यक मार्गदर्शन तथा सहयोग देने के लिए, यथावसर वाराणसी में निवास करने का मेरा विचार भी सभा में मंजूर हुआ। मेरी दृष्टि • से कोशकार्य का मेरा वैयक्तिक भार, इस योजना की स्वीकृति से कुछ हलका सा हो गया था। हमारी यह योजना काशी में सफल नहीं हो पाई। 8-10 महीनों का अवसर बीत चुका। परिषद की ओर से दूसरी बैठक हुई जिसमें काशी का कार्यालय बंद करने का और मेरा स्थायी निवास नागपुर में होने के कारण, नागपुर में इस कार्य का "पुनश्च हरिःओम्" करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। दिनांक 1 अप्रैल 1982 को नागपुर में कोश का कार्यालय शुरू हुआ। इस अभावित दायित्व को निभाने के लिए “मित्रसंप्राप्ति" से प्रारंभ हुआ। वाराणसी और नागपुर में सभी दृष्टि से बहुत अंतर है। काशी की संस्कृत परंपरा अनादिसिद्ध है। नागपुर की कुल आयु मात्र दो-ढाइसौ वर्षों की है। कोश हिन्दी भाषा में करना था। नागपुर की प्रमुख भाषा मराठी है। पुराने द्वैभाषिक मध्यप्रदेश की राजधानी जब तक नागपुर में रही, तब तक हिन्दी का प्रचार और प्रभाव कुछ मात्रा में दिखाई देता था। अतः हिन्दी भाषा के विशेषज्ञ सहकारी नागपुर में मिलना सुलभ नहीं था। नागपुर की अपनी सीमित सी संस्कृत परंपरा भी है परंतु हिन्दी भाषी अथवा हिन्दी ज्ञानी संस्कृतज्ञ उनमें नहीं के बराबर हैं। स्वयं मैं हिन्दी में लेखन भाषण आदि व्यवहार कई वर्षों से करता हूँ, परंतु हिन्दी भाषा या साहित्य का विधिवत् अध्ययन मैने कभी नहीं किया। कहने का तात्पर्य, नागपुर में संस्कृत वाङ्मय कोश का संपादन और वह भी हिन्दी माध्यम में करना, मेरे लिए जमीन पर नाव चलाने जैसा दुर्घट कार्य था। नागपुर में इस कार्य में जिनका सहकार्य मुझे मिल सका वे हैं - प्र.मु.सकदेव, ना.ग.वझे, डॉ.लीना रस्तोगी, डॉ. कुसुम पटोरिया, डॉ. गु.वा.पिंपळापुरे, डॉ. भागचंद्र जैन, सत्यपाल पटाईत, पद्माकर भाटे, ना.गो.दीक्षित, श्रीमती उषा महांकाल, श्रीमती शोभा For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देशपांडे इन सभी सहायकों का मैं हृदय से आभारी हूं। लेखकों के हस्तलिखित सामग्री का टंकन करने का कार्य मेरे मित्र श्री. नत्थूप्रसाद तिवारी तथा श्री. रोटकर ने नित्य नियमितता से किया। इस संपादन कार्य के लिए विविध प्रकार के ग्रंथों की आवश्यकता थी। सभी ग्रंथ खरीदना असंभव और अनुचित भी था। परिषद की ओर से कुछ ग्रंथ खरीदे गए। बाकी ग्रंथों का सहाय नागपुर के सुप्रसिद्ध हिन्दु धर्म संस्कृति मंडल तथा भोसला वेदशास्त्र महाविद्यालय, तथा अन्य व्यक्तियों एवं ग्रंथालयों से यथावसर मिलता रहा। कोश का सामान्य स्वरूप कोश संपादन एक ऐसा कार्य है कि जिसमें स्वयंप्रज्ञा का कोई महत्त्व नहीं होता। संपादक को अपनी जो भी प्रविष्टियां लेनी हो अथवा उन प्रविष्टियों में जो भी जानकारी संगृहीत करनी हो, वह सारी पूर्व प्रकाशित ग्रंथों के माध्यम से संचित करनी पड़ती है। इस दृष्टि से प्रस्तुत कोश के संपादन के लिए अनेक पूर्वप्रकाशित मान्यताप्राप्त विद्वानों के कोश तथा वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथों का आलोचन किया गया। उन सभी ग्रंथों का निर्देश संदर्भ ग्रंथों की सूची में किया है। पूर्व सूरियों के अनेकविध ग्रंथों से उधार माल मसाला लेकर ही कोश ग्रंथों का निर्माण होता है। तदनुसार ही इस संस्कृत वाङ्मय कोश की रचना हुई है। इसमें हमारी कोई मौलिकता नहीं। संकलन, संक्षेप, संशोधन एवं संपादन यही हमारा इसमें योगदान है। ___ संस्कृत वाङ्मय की शाखाएं विविध प्रकार की हैं। उनमें से अन्यान्य शाखाओं में अन्तभूर्त ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का पृथक्करण न करते हुए, एकत्रित तथा सविस्तर परिचय देनेवाले विविध कोश तथा ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टिकोन से विवेचन करने वाले तथा परिचय देने वाले वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथ, पाश्चात्य संस्कृति का संपर्क आने के पश्चात्, पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने निर्माण किए हैं। उन ग्रंथों में उन वाङ्मय शाखाओं के अन्तर्गत ग्रंथ तथा ग्रंथकारों का सविस्तर परिचय मिलता है। प्रस्तुत कोश के परिशिष्ट में ऐसे अनेक कोशात्मक तथा इतिहासात्मक ग्रंथों के नाम मिलेंगे। प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश की यह विशेषता है कि इसमें संस्कृत वाङ्मय की प्रायः सभी शाखाओं में योगदान करने वाले ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का एकत्र संकलन हुआ है। इस प्रकार का “सर्वकष" संस्कृत वाङ्मय कोश करने का प्रयास अभी तक अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। इस वाङ्मय कोश में विविध प्रकार की त्रुटियां विशेषज्ञों को अवश्य मिलेगी। हमारी अपनी असमर्थता के कारण हम स्वयं उन त्रुटियों को जानते हुए भी दूर नहीं कर सके। फिर भी उन त्रुटियों के साथ इस ग्रंथ की यही एक अपूर्वता हम कह सकते हैं कि यह संस्कृत के केवल ललित अथवा दार्शनिक शास्त्रीय या वैदिक साहित्य का कोश नहीं अपि तु उन सभी प्रकार के ग्रंथों तथा उनके विद्वान लेखकों का एकत्रित परिचय देने वाला हिन्दी भाषा में निर्मित प्रथम कोश है। इसके पहले इस प्रकार का प्रयास न होने के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें पहला कारण यह है कि भारतीय भाषा परिषद जैसी दूसरी कोई संस्था इस प्रकार का कार्य करने के लिए उद्युक्त नहीं हुई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि आज 20 वीं शती के अंतिम चरण में जितने विविध प्रकार के कोश, इतिहास, शोधप्रबंध इत्यादि उपकारक ग्रंथ उपलब्ध हो सकते हैं, उतने 1960 के पहले नहीं थे। अब इस दिशा से संस्कृत वाङ्मय के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त कार्य नए विद्वान कर रहे हैं। हो सकता है कि इसी कोश के संशोधित और सुधारित आगामी संस्करण का कार्य करनेवाले भावी संपादक, यहां की सभी प्रविष्टियों के अन्तर्गत अधिक जानकारी (और वह भी दोषरहित) देकर, संस्कृत वाङ्मय कोश की इस नई दिशा में अधिक प्रगति अवश्य करेंगे। संस्कृत वाङ्मय की विविध शाखाओं एवं उपशाखाओं के अन्तर्गत अधिक से अधिक ग्रंथकारों तथा ग्रंथों का आवश्यकमात्र परिचय संक्षेपतः संकलित करने का प्रयास, इस कोश के संपादन में अवश्य हुआ है। अति प्राचीन काल से लेकर 1985 तक के प्रदीर्घ कालखंड में हुए प्रमुख ग्रंथों और ग्रंथकारों को कोश की सीमित व्याप्ति में समाने का प्रयास करते हुए इसमें अपेक्षित सर्वंकषता नहीं आ सकी, तथापि सभी वाङ्मय शाखाओं का अन्तर्भाव इसमें हुआ है। वैसे देखा जाए तो प्रविष्टियों में दिया हुआ परिचय भी संक्षिप्ततम ही है। संस्कृत वाङ्मय में ऐसे अनेक ग्रंथ और ग्रंथकार हैं कि जिनका परिचय सैकड़ों पृष्ठों में पृथक् ग्रंथों द्वारा विद्वान लेखकों ने दिया है। आधुनिक लेखकों में भी ऐसे अनेक ग्रंथकार और ग्रंथ हैं कि जिनका परिचय सैकड़ों पृष्ठों के ग्रंथों में देने योग्य है। कई ग्रंथों और ग्रंथकारों पर बृहत्काय शोधप्रबंध अभी तक लिखे गए हैं और आगे चलकर लिखे जावेंगे। इस अवस्था में इस कोश की प्रविष्टियों में परिचय देते हुए किया हुआ गागर में सागर भरने का प्रयास देखकर "महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति" यह तथ्य हमारी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है। परन्तु For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिक से अधिक ग्रंथों एवं ग्रंथकारों का आवश्यकतम परिचय मर्यादित पृष्ठसंख्या में देना यही उद्देश्य रख कर हमने यह संपादन किया है। इसी संक्षेप की दृष्टि से यथासंभव लेखकों के नामनिर्देश में श्री, पूज्यपाद इत्यादि आदरार्थक उपाधिवाचक विशेषणों का प्रयोग कहीं भी नहीं किया। परंतु नामनिर्देश सर्वत्र आदरार्थी बहुवचन में ही किया है। पाश्चात्य लेखकों के अनुकरण के कारण हमारे ग्रंथकार प्राचीन ऋषि, मुनि, आचार्य तथा सन्तों का नाम निर्देश एकवचनी शब्दों में करते हैं। प्रस्तुत कोश में उस प्रथा को तोड़ने का प्रयत्न किया है। ग्रंथकारों के माता, पिता, गुरु, समय, निवासस्थान इत्यादि का निर्देश "इनके पिता का नाम --- था और माता का नाम --- या' इस प्रकार की वाक्यों की पुनरुक्ति टालने के लिए, वाक्यों में न करने का प्रयत्न सर्वत्र हुआ है। इसमें अपवाद भी मिल सकेंगे। यह संस्कृत वाङ्मय का ही कोश होने के कारण प्रायः प्रत्येक प्रविष्टि में संस्कृत वचनों के कई अवतरण देना संभव था। कुछ प्रविष्टियों में, संस्कृत अवतरण दिए गए हैं। परंतु प्रायः सभी अवतरणों के साथ हिन्दी अनुवाद दिया गया है। अपवाद कृपया क्षन्तव्य है। हिन्दी भाषा की, अन्यान्य प्रकार की शैलियां है। यह संस्कृत वाङ्मय का कोश होने के कारण भाषा का स्वरूप संस्कृतनिष्ठ ही रखा गया है। साथ ही इस कोश के अनेक पाठक हिन्दी के विशेषज्ञ न होने की संभावना ध्यान में लेते हुए, सुगम एवं सुबोध शब्दप्रयोग करने का यथाशक्ति प्रयास हुआ है। प्राचीन विख्यात संस्कृत लेखकों के जीवन चरित्र प्रायः अज्ञात ही रहे हैं। तथापि कुछ महानुभावों के संबंध में उद्बोधक एवं मार्मिक दन्तकथाएँ आज तक सर्वविदित हुई हैं। इनमें से कुछ कथाओं में ऐतिहासिक तथ्यांश तथा उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के कुछ वैशिष्ट्य व्यक्त होने की संभावना मान कर, हमने इस कोश में उन किंवदन्तियों का संक्षेपतः अन्तर्भाव किया है। विशेष कर महाकवि कालिदास और भोज के संबंध में बल्लालकवि कृत भोजप्रबन्ध के कारण, इस प्रकार की किंवदन्तियों की संख्या काफी बड़ी है। अतः कुछ स्थानों में किंवदन्तियों की संख्या अधिक दिखाई देगी। जिन पाठकों को वहाँ अनौचित्य का आभास होगा उनसे हम क्षमा चाहते हैं। कई ग्रंथकारों के विषय में उल्लेखनीय जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। ऐसे स्थानों में केवल उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का नामनिर्देश मात्र किया है। जिनके समय का पूर्णतया (जन्म से मृत्यु तक) पता नहीं चला, उनका समय निर्देश प्रायः ईसवी शती में किया है। क्वचित् विक्रम संवत् तथा शालिवाहन शक का भी निर्देश मिल सकेगा। वैदिक सूक्तों के द्रष्टा माने गए ऋषियों को ग्रंथकार ही मान कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। ऐसी ऋषिविषयक सभी प्रविष्टियों की सामग्री पं. महादेवशास्त्री जोशी कृत भारतीय संस्कृतिकोश (10 खंड-मराठी भाषा .में) से ली गई है। वेदों का निरपवाद अपौरुषेयत्व मानने वाले भावुक विद्वान उन प्रविष्टियों को सहिष्णुतापूर्वक पढ़े। संस्कृत वाङ्मय का प्राचीन कालखंड बहुत बड़ा होने के कारण, तथा उस कालखंड के विषय में अल्पमात्र ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होने कारण सैकड़ों ग्रंथ और ग्रंथकारों के स्थल-काल के संबंध में तीव्र मतभेद हैं। गत शताब्दी में अनेकों विदेशी और देशी विद्वानों ने उन विषयों में अखण्ड वाद-विवाद करते हुए एक-दूसरे का मत खण्डन किया है। अतः उनमें से एक भी मत शत-प्रतिशत ग्राह्य नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत कोश में उन विवादों द्वारा जो प्रधान मतभेद व्यक्त हुए हैं उनका संक्षेप में निर्देश किया है। किसी भी मत का खण्डन या समर्थन यहां हमने नहीं किया और उन विवादों के विषय में हमारा अपना कोई भी अभिप्राय व्यक्त नहीं किया। ग्रंथकारों की भाषा और शैली का वर्णन, “प्रासादिक, अलंकारप्रचुर, रसाई, पाण्डित्यपूर्ण" इस प्रकार के रूढ विशेषणों को टालकर किया है। सर्वत्र पुनरुक्ति और विस्तार टालना यही इसमें हमारा हेतु है। भाषा तथा शैली की विशेषता दिखानेवाले उदाहरण और उनके हिन्दी अनुवाद देने से ग्रंथ का कलेवर दस गुना बढ़ जाता। कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, माघ, हर्ष, भारवि, इत्यादि श्रेष्ठ ग्रंथकार तथा उनका अनुसरण करने वाले सैकड़ों उत्तरकालीन ग्रंथकारों के काव्य, नाटक, चम्पू, कथा, आख्यायिका इत्यादि प्रबंधों से उनके साहित्य गुणों का परिचय हो सकता है । तात्पर्य इस कोश में ग्रंथों का परिचय मात्र है पर्यालोचन नहीं। पर्यालोचन प्रबंधों का कार्य है कोश का नहीं। ग्रंथकारों के जन्म और मृत्यु की तिथि के संबंध में जहाँ मिल सके वहाँ उनका उल्लेख हुआ है। परंतु जहाँ निश्चित उल्लेख संदर्भ ग्रंथों में नही मिले वहाँ केवल ई. शताब्दी में उनका समय निर्दिष्ट किया है। ग्रंथकार के जन्म मृत्यु की तिथि न मिलने पर भी ग्रंथलेखन का समय जहाँ मिल सका वहाँ उसका निर्देश हुआ है। जिन प्रविष्टियों में माता, पिता, समय, स्थल इत्यादि विषय में कुछ भी जानकारी नहीं मिल सकी ऐसे लेखकों के संबंध For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में, "इनके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती"- इस प्रकार का वाक्य न लिखते हुए मौन स्वीकार किया है। अन्यथा उसी वाक्य की पुनरुक्ति अनेक स्थानों पर करनी पड़ती, जिससे कोश की मात्र अक्षरसंख्या बढ़ जाती। कुछ प्रविष्टियों में, निवेदन के अन्तर्गत वाक्यों से ही स्थल, काल का अनुमान सहजता से हो जाता है। ऐसी प्रविष्टियों में स्थल-काल आदि निर्देश पृथक्ता से हमने नहीं किया। ग्रंथकार के विशिष्ट निवासस्थान की जानकारी जहाँ नहीं मिली ऐसे स्थानों में उसके प्रदेश का निर्देश किया है। गुरु परंपरा को हमारी संस्कृति में विशेष महत्त्व होने के कारण प्रायः सर्वत्र गुरु का निर्देश किया है। वेदशाखा और गोत्र तथा आश्रयदाता का भी यथासंभव निर्देश करने का सर्वत्र प्रयास हुआ है। ग्रंथकार खंड की प्रविष्टियों में ग्रंथकारों के जितने ग्रंथों का उल्लेख किया है उन सभी ग्रंथों का परिचय कोश के ग्रंथ खंड में नहीं मिलेगा। परंतु ग्रंथ खंड में जिन ग्रंथों के संक्षेपतः परिचय दिए हैं उनके लेखकों का ग्रंथकार खंड में संभवतः परिचय मिलेगा। इस नियम में भी अपवाद भरपूर हैं और इन अपवादों का कारण है हमारी सीमित शक्ति एवं जानकारी की अनुपलब्धि। आधुनिक महाराष्ट्र में कुलनामों का प्रचार अधिक होने के कारण प्रायः सभी महाराष्ट्रीय ग्रंथकारों का निर्देश कुलनाम, व्यक्तिनाम और पितृनाम इस क्रम से किया है। (जैसे केतकर, व्यंकटेश बापूजी)। परंतु प्राचीन ग्रंथकारों की प्रविष्टियों में इस नियम के अपवाद मिलेंगे। ___ इस कोश में हस्तलिखित एवं उल्लिखित ग्रंथों तथा ग्रंथकारों का परचिय प्रायः नहीं दिया है। इस नियम के भी कुछ अपवाद मिलेंगे। आधुनिक दाक्षिणात्य समाज में नामों का निर्देश, ए.बी.सी. इत्यादि अंग्रेजी वर्णों का प्रयोग कुलनाम या मूल निवासस्थान के आद्याक्षर की सूचना के हेतु उपयोग में लाया जाता है। अतः आधुनिक दाक्षिणात्य ग्रंथकारों के नामों की प्रविष्टी उन अंग्रेजी आद्याक्षरों के अनुसार की है। जैसे बी. श्रीनिवास भट्ट यह प्रविष्टि ब के अनुक्रम में मिलेगी। इस कोश के ग्रंथकार खंड में केवल संस्कृत भाषा को ही जिन्होंने अपनी वाङ्मय सेवा का माध्यम रखा ऐसे ही ग्रंथकारों का उल्लेख अभिप्रेत है। फिर भी हिन्दी, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगु इत्यादि प्रादेशिक भाषाओं के जिन ख्यातनाम लेखकों ने संस्कृत में भी कुछ वाङ्मय सेवा की है, उनका भी उल्लेख यथावसर ग्रंथकार खंड में हुआ है। 19 वीं शताब्दी से जिन पाश्चात्य पंडितों ने संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान शोधकार्य के द्वारा किया है, उनमें से कुछ विशिष्ट महानुभावों के परिचय ग्रंथकार खंड में मिलेंगे। पाश्चात्य पद्धति से प्रभावित कुछ आधुनिक भारतीय लेखकों का भी इसी प्रकार निर्देश हुआ है। ऐसी प्रविष्टियां अपवाद स्वरूप समझनी चाहिए। कोश की प्रत्येक प्रविष्टि के साथ संदर्भ ग्रंथों का निर्देश इस लिए नहीं किया कि उस निमित्त विशिष्ट ग्रंथों का निर्देश बारंबार होता और उस पुनरुक्ति से अकारण अक्षरसंख्या में वृद्धि होती। प्रविष्टियों में अन्तर्भूत जानकारी अन्यान्य ग्रंथों से संकलित की है और उसका अनावश्यक भाग छांट कर संक्षेप में लिखी गई है। अनेक प्रविष्टियों में आधारभूत ग्रंथों के वाक्य यथावत् मिलेंगे। उनके लेखकों को हम अभिवादन करते है। अनवधान तथा अनुपलब्धि के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण प्रविष्टियों के अनुल्लेख के लिए तथा कुछ उपेक्षणीय प्रविष्टियों के अन्तर्भाव के लिए सुज्ञ पाठक क्षमा करेंगे। भ्रम और प्रमाद मानवी बुद्धि के स्वाभाविक दोष हैं। हम अपने को उन दोषों से मुक्त नहीं समझते। फिर भी प्रविष्टियों के अन्तर्गत जानकारी में जो भी त्रुटियां अथवा सदोषता विशेषज्ञों को दिखेगी, उसका कारण जिन ग्रंथों के आधार पर उस जानकारी का संकलन हुआ वे हमारे आधार ग्रंथ हैं। प्रविष्टियों में प्रायः अपूर्ण सी वाक्यरचना दिखेगी। अनावश्यक शब्दविस्तार का संकोच करने के लिए यह टेलिग्राफिक (तारवत्) वाक्यपद्धति हमने अपनाई है। संस्कृत ग्रंथों के नाम मूलतः विभक्त्यन्त होते हैं। परंतु इस कोश में ग्रंथनामों का निर्देश विभक्ति प्रत्यय विरहित किया है। जैसे अभिज्ञान- शाकुंतल, किरातार्जुनीय, ब्रह्मसूत्र, इत्यादि। संस्कृत वाङ्मय दर्शन - सामान्य रूपरेखा प्रस्तुत कोश का संपादन तथा संकलन दो विभागों में करने का संकल्प प्रारंभ से ही था, तदनुसार दोनों खण्ड एक साथ प्रकाशित हो रहे हैं- प्रथम खण्ड में ग्रंथकारों का और द्वितीय खण्ड में ग्रन्थों का परिचय वर्णानुक्रम से ग्रथित हुआ है। किन्तु इस सामग्री के साथ और भी कुछ अत्यावश्यक सामग्री का चयन दोनों खडों में किया है। प्रथम खण्ड के प्रारंभिक विभाग के अंतर्गत "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का समावेश हुआ है। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत, सैकड़ों लेखकों ने जो मौलिक विचारधन विद्यारसिकों को समर्पण किया, उसका समेकित परिचय विषयानुक्रम से देना यही इस वाङ्मयदर्शनात्मक विभाग का उद्देश्य है। संस्कृत वाङ्मय का वैशिष्ट्यपूर्ण विचारधन ही भारतीय संस्कृति For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का परम निधान है। सदियों से लेकर इसी विचारधन के कारण संस्कृत भाषा की और भारत भूमि की प्रतिष्ठा सारे संसार में सर्वमान्य हुई है। भारतीय संस्कृति का उत्स यही विचारधन होने के कारण, इस संस्कृति का आत्मस्वरूप तत्त्वतः जानने की इच्छा रखनेवाले संसार के सभी मनीषी और मेधावी सज्जन, संस्कृत भाषा तथा संस्कृत वाङ्मय के प्रति नितान्त आस्था रखते आए हैं। संस्कृत वाङ्मय के इस विचारधन का परिचय मूल संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से करने की पात्रता रखने वालों की संख्या, संस्कृत भाषा का अध्ययन करने वालों की संख्या के हास के साथ, तीव्र गति से घटती गई। इस महती क्षति की पूर्ति करने का कार्य गत सौ वर्षों में, संस्कृत वाङ्मय के विशिष्ट अंगों एवं उपांगों का विस्तारपूर्वक या संक्षेपात्मक पर्यालोचन करनेवाले उत्तमोत्तम ग्रंथ निर्माण कर, अनेक मनीषियों ने किया है। संसार की सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में इस प्रकार के सुप्रसिद्ध ग्रंथ पर्याप्त मात्रा में अभी तक निर्माण हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनमें से कुछ अल्पमात्र ग्रंथों पर यह "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का विभाग आधारित है। इसमें हमारे अभिनिवेश का आभास यत्र-तत्र होना अनिवार्य है, किन्तु हमारा आग्रहयुक्त निजी अभिमत या अभिप्राय प्रायः कहीं भी नहीं दिया गया। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत विविध शाखा- उपशाखाओं के ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का संक्षेपित और समेकित परिचय एकत्रित उपलब्ध करने के लिए "संस्कृत वाङमय दर्शन" का विभाग इस कोश के प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में जोड़ा गया है, जिसमें प्रकरणशः -(1) संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्य, (2) मंत्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् स्वरूप समग्र वेदवाङ्मय का परिचय तथा वेदकाल, आर्यो का कपोलकल्पित आक्रमण, परंपरावादी भारतीय वैदिक विद्वानों की वेदविषयक धारणा इत्यादि अवांतर विषयों का भी दर्शन कराया है। (3) वेदांग वाङ्मय का परिचय देते हुए कल्प अर्थात् कर्मकाण्डात्मक वेदांग के साथ ही स्मृतिप्रकरणात्मक उत्तरकालीन धर्मशास्त्र का परिचय जोड़ा है। वास्तव में स्मृति-प्रकरणकारों का धर्मशास्त्र, कल्प-वेदांगान्तर्गत धर्मसूत्रों का ही उपबृंहित स्वरूप है, अतः कल्प के साथ वह विषय हमने संयोजित किया है। इसी प्रकरण में व्याकरण वेदांग का परिचय देते हुए निरुक्त, प्रातिशाख्य, पाणिनीय व्याकरण, अपाणिनीय व्याकरण, वैयाकरण परिभाषा और दार्शनिक व्याकरण इत्यादि भाषाशास्त्र से संबंधित अवांतर विषय भी समेकित किए हैं। छदःशास्त्र के समकक्ष होने के कारण उत्तरकालीन गण-मात्रा छंद एवं संगीत-शास्त्र का परिचय वहीं जोड़ कर उस वेदांग की व्याप्ति हमने बढ़ाई है। उसी प्रकार ज्योतिर्विज्ञान के साथ आयुर्विज्ञान (या आयुर्वेद) और शिल्प-शास्त्र को एकत्रित करते हुए, संस्कृत के वैज्ञानिक वाङ्मय का परिचय दिया है। यह हेरफेर विषय-गठन की सुविधा के लिए ही किया है। हमारी इस संयोजना के विषय में किसी का मतभेद हो सकता है। (4) पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण में अठारह पुराणों के साथ रामायण और महाभारत इन इतिहास ग्रंथों के अंतरंग का एवं तद्विषयक कुछ विवादों का स्वरूप कथन किया है। महाभारत की संपूर्ण कथा पर्वानुक्रम के अनुसार दी है। प्रत्येक पर्व के अंतर्गत विविध उपाख्यानों का सारांश उस पर्व के सारांश के अंत में पृथक् दिया है। महाभारत का यह सारा निवेदन अतीव संक्षेप में “महाभारतसार" ग्रंथ (3 खंड- प्रकाशक श्री. शंकरराव सरनाईक, पुसद- महाराष्ट्र) के आधार पर किया हुआ है। प्रस्तुत "महाभारतसार" आज दुष्प्राप्य है। उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य में विविध ऐतिहासिक आख्यायिकाओं, घटनाओं एवं चरित्रों पर आधारित अनेक काव्य, नाटक चम्पू तथा उपन्यास लिखे गये। इस प्रकार के ऐतिहासिक साहित्य का परिचय भी प्रस्तुत पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण के साथ संयोजित किया है। (5-8) दार्शनिक वाङ्मय के विचारों का परिचय (अ) न्याय-वैशेषिक, (आ) सांख्य-योग, (इ) तंत्र और (ई) मीमांसा- वेदान्त इन विभागों के अनुसार, प्रकरण 5 से 8 में दिया है। इसमें न्याय के अन्तर्गत बौद्ध और जैन न्याय का विहंगावलोकन किया है। योग विषय के अंतर्गत पातंजल योगसूत्रोक्त विचारों के साथ हठयोग, बौद्धयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का भी परिचय दिया है। 9 वें प्रकरण में वेदान्त परिचय के अन्तर्गत शंकर, रामानुज, वल्लभ, मध्व और चैतन्य जैसे महान तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के निष्कर्षभूत द्वैत-अद्वैत इत्यादि सिद्धान्तों का विवेचन किया है। साथ ही इन सिद्धान्तों पर आधारित वैष्णव और शैव संप्रदायों का भी परिचय दिया है। इन सभी दर्शनों के विचारों का परिचय उन दर्शनों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के विवरण के माध्यम से देने का प्रयास किया है। दर्शन-शास्त्रों के व्यापक विचार पारिभाषिक शब्दों में ही संपिण्डित होते हैं। एक छोटी सी दीपिका के समान वे विस्तीर्ण अर्थ को आलोकित करते हैं। पारिभाषिक शब्दों का यह अनोखा महत्त्व मानते हुए दर्शन शास्त्रों के विचारों का स्वरूप पाठकों को अवगत कराने के हेतु हमने यह पद्धति अपनायी है। (9) जैन-बौद्ध वाङ्मय विषयक प्रकरण में उन धर्ममतों की दार्शनिक विचारधारा एवं तत्संबंधित काव्य-कथा स्तोत्र आदि ललित संस्कृत साहित्य का भी परिचय दिया है। For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (10) काव्य शास्त्र के अन्तर्गत साहित्याचार्यों द्वारा प्रतिपादित वक्रोक्ति, रीति तथा रस विषयक संप्रदायों एवं काव्यदोषों का परामर्श किया है। (11) नाट्य-शास्त्र एवं नाट्य-साहित्य विषयक प्रकरणों में दशरूपक इत्यादि शास्त्रीय ग्रंथों में प्रतिपादित विविध नाटकीय विषयों के साथ सम्पूर्ण संस्कृत नाट्य वाङ्मय का विषयानुसार तथा रूपक प्रकारानुसार वर्गीकरण दिया है। इसमें अर्वाचीन संस्कृत नाटकों का भी परामर्श किया गया है।। (12) अंत में ललित साहित्य के अन्तर्गत महाकाव्यादि सारे काव्य प्रकारों का परामर्श करते हुए संस्कृत सुभाषित संग्रहों और विविध प्रकार के कोशग्रथों का परिचय दिया है। 17 वीं शती के पश्चात् निर्मित संस्कृत साहित्य, पुराने पर्यालोचनात्मक वाङ्मयेतिहास के ग्रंथों में उपेक्षित रहा। स्वराज्यप्राप्ति के बाद इस कालखंड में लिखित संस्कृत साहित्य का समालोचन "अर्वाचीन संस्कृत साहित्य" "आधुनिक नाट्यवाङ्मय" इत्यादि विविध प्रबन्धों द्वारा हुआ। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य को अब विद्वत्समाज में मान्यता प्राप्त हुई है। प्रस्तुत प्रकरण में सभी प्रकार के अर्वाचीन ग्रंथों का तथा पत्र-पत्रिकाओं एवं उपन्यासों का परामर्श किया है। ___ "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" के विभाग में इस पद्धति के अनुसार समग्र संस्कृत वाङमय के अतरंग का दर्शन कराते हुए विविध सिद्धान्तों, विचार प्रवाहों एवं उललेखनीय श्रेष्ठ ग्रंथों का संक्षेपतः परिचय देना आवश्यक था। कोश के ग्रंथकार खंड और ग्रंथ खंड में संस्कृत वाङ्मय का जो भी परिचय होगा वह विशकलित रहेगा। एक व्यक्ति के प्रत्येक अवयव के पृथक्-पृथक् चित्र देखने पर उस व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व का आकलन नहीं होता, एक सहस्रदल कमल की बिखरी हुई पंखुड़ियों को देखने से समग्र कमल पुष्प का स्वरूप सौंदर्य समझ में नहीं आता। उसी प्रकार वर्णानुक्रम के अनुसार ग्रंथों एवं ग्रंथकारों का संक्षिप्त परिचय जानने पर समग्र वाङ्मय तथा उसके विविध प्रकारों का आकलन होना असंभव मान कर हमने यह "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का विभाग कोश के प्रारंभ में संयोजित किया है। द्वितीय खंड के अन्तर्गत 9000 से अधिक ग्रंथविषयक प्रविष्टियां । तदनन्तर विविध परिशिष्ट । परिशिष्टों के विषय : अज्ञातकर्तृक ग्रंथ - (तंत्रशास्त्र और धर्मशास्त्र के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रंथों की सूची)। 270 से अधिक प्रविष्टियां । स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य - (प्रदेशानुसार चयन) असम, आन्ध्र, उडीसा, उत्तरप्रदेश-दिल्ली, कर्नाटक, केरल, पंजाब, पश्चिमबंगाल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान। (कुल ग्रंथ-700 से अधिक)। प्रदेशानुसार ग्रंथकार-ग्रंथनाम-सूची - (1) असम (2) आन्ध्र (3) उडीसा (4) उत्तरप्रदेश (5) कर्नाटक (6) काश्मीर (7) केरल (8) गुजरात (9) तमिलनाडु (तमिलनाडु का शैव वाङ्मय। तमिलनाडु का श्रीवैष्णव वाङ्मय।) तंजौर राज्य में निर्मित ग्रंथ संपदा। तंजौर राज्य के ग्रंथकार। (10) नेपाल (11) पंजाब-दिल्ली (12) बंगाल (वंगीय टीकात्मक वाङ्मय) (13) बिहार (14) मध्यप्रदेश (15) महाराष्ट्र (16) राजस्थान (जयपुर के ग्रंथकार)। परिशिष्ट 17 - देशभक्तिनिष्ठ साहित्य । परिशिष्ट 18 - संस्कृत विद्या के आश्रयदाता और उनके आश्रित ग्रंथकार । परिशिष्ट 19 - आत्माराम विरचित वाङ्मय कोश, (पद्यात्मक श्लोकसंख्या- 215)। परिशिष्ट (ढ) - साहित्यशास्त्र । (ण)- ललित वाङ्य (काव्य, स्तोत्र) (त)- नाट्य वाङ्मय। (थ)- सुभाषितग्रंथ । (द)- कोश ग्रंथ। परिशिष्ट (ध) - संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी 1200 से अधिक संस्कृत वाङ्मय विषयक प्रश्न-उत्तरों का संग्रह। 81, अभ्यंकर नगर श्रीधर भास्कर वर्णेकर नागपुर- 440010 संपादक श्रीरामनवमी संस्कृत वाङ्मय कोश 7 अप्रैल 1988 For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथ खण्ड अंकगणितम् - ले. - नृसिंह (बापूदेव) । ई. 19 वीं शती। मान्यता देने पर स्वामीजी की पगडी प्रसन्नता से गिरती है, अंकयंत्रम् तथा अंकयंत्रालोकः (व्याख्यासहित) - ले.-हर्ष । तब राजा को दीखता है कि स्वामी स्वयं पक्के गंजे हैं। राजा (श्लोक-120)। उन्हें अपमानित कर भगा देता है। अंकोलकल्प - यह उन तांत्रिक मंत्रों का संग्रह है, जो अम्बरनदीशस्तोत्र - ले. रामपाणिवाद (ई. 18 वीं शती) औषधियों के उपयोग के समय काम में लाये जाते है। मंत्र केरल निवासी। संस्कृत में है और उनकी प्रयोगविधि हिन्दी में है। अंबाशतक - ले. सदाक्षर (कविकुंजर) ई. 17 वीं शती। अंकयंत्रविधि - लेखक- श्रीसूर्यराम वाजपेयी के पुत्र एवं अम्बिकाकल्प - ले. शुभचन्द्र। (जैनाचार्य) ई. 16-17 वीं शती। विषय-तंत्रशास्त्र श्रीरामचन्द्र के शिष्य श्रीहर्ष । श्लोक-300। विषय- अंकों से बननेवाले 9 और 16 कोष्ठों के विविध मंत्रों का प्रतिपादन। अंबुजवल्लीशतकम् - ले. वरदादेशिक । पिता- श्रीनिवास । इस पर ग्रंथकार की स्वरचित टीका है। अंबुवाह - शेली कवि कृत 'दी क्लाउड' नामक अंग्रेजी अंगिराकल्प - (1) अंगिरा-पिप्पलाद संवादरूप। श्लोक-828 । काव्य का अनुवाद । ले. वाय. महालिंगशास्त्री। इसमें आसुरी देवी की पूजाविधि विस्तारपूर्वक वर्णित है। विषय- अंशुमत्-आगम - (नामान्तर-अंशुमद्भेद और अंशुमत्तंत्र) 28 आसुरी महामंत्र के अर्थ, उक्त मंत्र के प्रयोग की विधि, शैवागमों में अन्यतम । इसमें मन्दिर निर्माण, प्रतिमाविज्ञान आदि आत्मपूजा-विधि, आसुरी महामंत्र का माहात्म्य, अपशकुन होने वास्तुशास्त्र के विविध विषय वर्णित हैं। काश्यपमत, काश्यपशिल्प पर भी उक्त मंत्र के माहात्म्य से इष्टसिद्धि, होमविधि, छ: अथवा अंशुमत्काश्यपीय इसी के भाग हैं। किरणागम के भावनाओं का निरूपण, शत्रु को वश करने की तथा मारण अनुसार इसके प्रथम श्रोता अंशु, उनसे द्वितीय और तृतीय आदि की विधि। श्रोता रवि हैं। उन्हीं के द्वारा इसका प्रचार हुआ। ऊपर 28 अंगिरास्मृति - रचयिता- अंगिरा ऋषि । “याज्ञवल्क्य स्मृति' शैवागमों का जो उल्लेख हुआ है उसमें 10 शिवागमों एवं में इन्हें धर्मशास्त्रकार माना गया है। अपरार्क, मेधातिथि, हरदत्त 18 भैरवागमों का समावेश है। प्रभृति धर्मशास्त्रियों ने इनके धर्मविषयक अनेक तथ्यों का अंशुमभेद - ले. काश्यप। विषय-वास्तुशास्त्र । उल्लेख किया है। "स्मृतिचंद्रिका" में अंगिरा के गद्यांश अकबरनामा - फारसी भाषा में लिखे इस ग्रंथ का संस्कृत उपस्मृतियों के रूप में प्राप्त होते है। "जीवानंद-संग्रह" में अनुवाद किसी अज्ञात कवि ने किया है। इसी फारसी ग्रंथ इस ग्रंथ के केवल 72 श्लोक प्राप्त होते है। इसमें वर्णित का अनुवाद महेश ठक्कुर ने 'सर्वदेशवृतान्त संग्रहः' इस नाम विषय है- अंत्यजों से भोज्य तथा पेय ग्रहण करना, गौ के से किया है। पीटने व चोट पहुंचाने का प्रायश्चित्त तथा स्त्रियों द्वारा नीलवस्त्र अकलंकशब्दानुशासनम् - रचयिता-भट्ट अकलंक। इस पर धारण करने की विधि। मंजरीमकरन्द नामक व्याख्या स्वयं अकलंक ने लिखी है। अंजनापवनंजयम् - नाटक (सात अंक) ले. हस्तिमल्ल । विषय-व्याकरण। पिता- गोविंदभट्ट जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। अन्तर्विज्ञानसंहिता - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । अमरावती अकलंकस्तोत्र - एक जैनधर्मीय स्तोत्र । कवि- अकलंक देव। (महाराष्ट्र) के निवासी । विषय-मनोविज्ञान एवं अध्यात्मविद्या । अकुताभया - लेखक- बुद्धपालित । यह नागार्जुन के माध्यमिक अंत्येष्टि-पद्धति - ले. नारायणभट्ट (ई. 16 वीं शती)। कारिका पर लिखी हुई टीका है। मूल संस्कृत ग्रंथ अनुपलब्ध । पिता-रामेश्वर भट्ट, विषय-धर्मशास्त्र । तिब्बती अनुवाद से यह ग्रंथ ज्ञात हुआ है। अन्धबालक - दी ब्लाइंड बॉय नामक मिल्टन कृत कारुण्यपूर्ण अकुलवीर तंत्र - ले. मत्स्येन्द्रनाथ । विषय-तांत्रिक कौलमत । अंग्रेजी काव्य का अनुवाद । ले. ए.व्ही. नारायण, मैसूरनिवासी। अकुलागममहातन्त्र - (1) (नामान्तर- योगसारसमुच्चय) अन्धैरन्धस्य यष्टिः प्रदीयते - ले. डॉ. क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय कुछ लोगों ने योगसारसमुच्चय को अकुलागममहातन्त्र के (1896-1961) "मंजूषा" के जनवरी 1955 अंक में प्रकाशित। अन्तर्गत 10 या 9 पटलों का पृथक् तंत्रग्रंथ माना है। कुछ विदेशी शैली पर विकसित लघु एकांकी। कथासार-राजा के का मत है कि योगसारसमुच्चय अकुलागम का एक पटल गंजे होने पर अमात्य वाराणसी के मुकुन्दानन्द स्वामी को है। यह "योगशास्त्रे योगसारसमुच्चयो नाम नवमः पटलः'' इस चिकित्सा हेतु बुलाता है। राजा उन्हें कभी मोदकानन्द, कभी अकुलागम के 9 वें पटल की पुष्पिका से स्पष्ट है। किन्तु मोदक-मुकुन्द, कभी मदनानन्द कहकर पुकारता है, जिससे अकुलागम और योगसार-समुच्चय के पटलों में प्रतिपादित स्वामी क्षुब्ध होते हैं। अन्त में स्वामी उपाय बताते हैं कि विषयों की तुलना करने से यही निश्चित होता है कि ये दो होम, दक्षिणा तथा भोजनदान से बाल लम्बे होंगे। राजा के ग्रंथ नहीं अपि तु एक के ही दो नाम हैं। योगसारसमुच्चय 'रणा संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/1 For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के आरंभ में दिये श्लोकों से भी इसी निश्चय की पुष्टि होती है। (2) ईश्वर-पार्वती संवाद रूप योग की चर्चा के अनुसार इस तंत्र का सब वर्ण और आश्रमों द्वारा अनुष्ठान किया जा सकता है। 10 पटलों में पूर्ण (3) नारद-शिव संवादरूप - (श्लोक 1000) विषययोग, ज्ञान, कर्म, अकर्म आदि का निरूपण, बिन्दुनिर्धारण, वह्निमार्ग, धूममार्ग आदि का स्वरूप, तीन गुणों के विभाग स्थूल, सूक्ष्म आदि का निरूपण, षट्चक्र दीक्षा शब्द की व्युत्पत्ति और दीक्षा-माहात्य। अक्षरमालिका - विषय-तंत्रशास्त्र के अनुसार अकारादि वर्गों के आध्यात्मिक स्वरूप का रहस्य । अक्षमालिकोपनिषद् - 108 उपनिषदों में से 67 वां उपनिषद। विषय- संस्कृत भाषा के 50 वर्गों का विचार, अक्षमाला के अनुसार किया है। इसमें प्रजापति तथा गुह के संवादरूप में अक्षमाला की जानकारी दी गई है। अक्षयपत्र (व्यायोग) - ले.- दामोदरन् नम्बुद्री । ई. 19 वीं शती। अक्षरकोश - ले.- पुरुषोत्तम देव। ई. 12 वीं शती। अक्षरगुम्फ - ले.- सामराज दीक्षित। मथुरा के निवासी। ई. 17 वीं शती। अक्षयनिधिकथा - ले.- श्रुतसागरसूरि (जैनाचार्य) ई. 16 वीं शती। अगस्त्यरामायणम् - परंपरा के अनुसार इसकी रचना अगस्त्य द्वारा स्वारोचिष मन्वन्तर के द्वितीय कृतयुग में हुई। श्लोक संख्या सोलह हजार । विभिन्न प्रकार की कथाएं इस ग्रंथ में है। अगस्त्यसंहिता - अगस्त्य के नाम पर 33 अध्यायों की इस संहिता में श्लोक संख्या है 7953। अगस्त्य-सुतीक्ष्ण संवाद से ग्रन्थ-विस्तार हुआ है। इसमें राममंत्र की उपासना का रहस्य एवं विधि और ब्रह्मविद्या का निरूपण है। सीताराम की आलिंगित युगलमूर्ति का ध्यान एवं वर्णन है। रामभक्ति शाखा के वैष्णवों का यह परम आदरणीय ग्रन्थ है। अग्निजा - स्वातंत्र्यवीर सावरकर के चुने हुए 12 मराठी काव्यों का अनुवाद। अनुवादक- डा. गजानन बालकृष्ण पळसुले। पुणेनिवासी। अग्निपुराण - 18 पुराणों के पारंपरिक क्रमानुसार 8 वां पुराण। यह पुराण भारतीय विद्या का महाकोश है। शताब्दियों से प्रवाहित भारतीय वाङ्मय में व्याप्त व्याकरण, तत्त्वज्ञान सुश्रुत का औषध-ज्ञान, शब्दकोश, काव्यशास्त्र एवं ज्योतिष आदि अनेक विषयों का समावेश इस पुराण में किया गया है। अधिकांश विद्वान इसे 7 वीं से 9 वीं शती के बीच की रचना मानते हैं। डा. हाजरा और पार्जिटर के अनुसार इसका समय 9 वीं शती का है। इस पुराण में 383 अध्याय और 11,457 श्लोक हैं। इसमें अग्निरुवाच, ईश्वर उवाच पुष्कर उवाच आदि वक्ताओं के नाम हैं जिनसे प्रतीत होता है कि तीन-चार वक्ताओं ने मिलकर यह बनाया है। इस पुराण का विस्तार परा एवं अपरा विद्या के आधार पर है। वेद, उसके षडंग, मीमांसादि दर्शन आदि का निर्देश अपरा विद्या के रूप में है। ब्रह्मज्ञान जिससे होता है, उस अध्यात्मविद्या का गौरव परा विद्या में किया है। अवतार, चरित्र, राजवंश, विश्व की उत्पत्ति, तत्त्वज्ञान, व्यवहार, नीति आदि विविध ग्रंथों का इसमें विवेचन है। अध्यात्म का विवेचन अल्प होने से, इसे तामसकोटी का माना गया है। शैव धर्म की ओर इस पुराण का झुकाव है। अवतारमालिका में कूर्मावतार का उल्लेख नहीं है। वाल्मीकि रामायण की रामकथा संक्षिप्तरूप में दी है। "रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिव' यह सुप्रसिद्ध वचन अग्निपुराण में ही मिलता है। प्राचीन काल में दैत्य वैदिक कर्मों का आचरण करते थे। परिणामतः वे बलवान थे। देव-दैत्य संग्राम में उनकी विजय के पश्चात् सारे देव विष्णु के पास पहुंचे। दैत्यों को धर्मभ्रष्ट कर उनका नाश करने हेतु विष्णु ने बुद्धावतार लिया। ___ अवतारवर्णन के पश्चात् सर्ग-प्रतिसर्ग का वर्णन है। अव्यक्त ब्रह्म से क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति, देवोपासना, मंत्र वास्तुशास्त्र, देवालय, देवताओं की मूर्तियां, देव-प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार की भी चर्चा है। देवप्रतिष्ठा के लिये मध्यदेश का ब्राह्मण ही पात्र माना है। कच्छ, कावेरी, कोंकण, कलिंग के ब्राह्मण अपात्र बताये गये हैं। सप्तद्वीप एवं सागर के नाम अगले अध्याय में है। आदर्श राजा का लक्षण, “राजा स्यात् जनरंजनात्" यह बताया है। राजा, प्रजा का प्रेम संपादन करे- "अरक्षिताः प्रजा यस्य नरकस्तस्य मन्दिरम्” (जिसकी प्रजा अरक्षित है, उस राजा का भवन नरकतुल्य है। जनानुरागप्रभवा राज्ञो राज्यमहीश्रिय = राजा का राज्य, पृथ्वी और सम्पमत्ति प्रजा के अनुराग से ही निर्माण होते हैं। इस पुराण में विशेष उल्लेखनीय भाग गीतसार का है। एक श्लोक में या श्लोकार्थ में उस अध्याय का तात्पर्य आ जाता है। दान के बारे में अग्निपुराण में कहा गया है, "देशे काले च पात्रे च दानं कोटिगुणं भवेत्” देश, काल और पात्र का विचार कर किया गया दान कोटिगुणयुत होता है। गाय की महत्ता इस श्लोक में बताई है : "गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं परम्। अन्नमेव परं गावो देवानां हविरुत्तमम्।।" ___अर्थात् गाय इस प्राणिमात्र का आधार है। गाय परम मंगल है। गोरसपदार्थ परम अन्न एवं देवताओं का उत्तम हविर्द्रव्य है। इस पुराण को समस्त भारतीय विद्या का विश्वकोश कहना 2 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिशयोक्ति नहीं है। राजनीति, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र, अलंकारशास्त्र, व्याकरण, छंदःशास्त्र, कल्पविद्या, मंत्रविद्या, मोहिनीविद्या, वृक्षवैद्यक, अश्ववैद्यक औषधि आदि विषयों की भी चर्चा है। इसी कारण कहते है, "आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन् सर्वा विद्याः प्रदर्शिताः" | अग्निपुराण में सभी विद्याओं का प्रतिपादन हुआ है। अग्निमंत्रमाला - पांडिचेरी के महर्षि अरविंद ने "हिम्स टु दि मिस्टिक फायर" नामक अपने अंग्रेजी प्रबन्ध में वेदोक्त अग्निदेवता का स्वरूप आध्यात्मिक दृष्टि से प्रतिपादन किया है। अरविंदाश्रम के पंडित जगन्नाथ वेदालंकार ने संस्कृतज्ञ लोगों के लिए इस प्रबंध का संस्कृत अनुवाद प्रस्तुत ग्रंथ के रूप में किया है। अपने अनुवाद के साथ पं. जगन्नाथजी ने वेदान्तर्गत अग्निविषयक मंत्रों का संहितापाठ,पदपाठ, श्रीअरविंदकृत अंग्रेजी शब्दार्थ, फिर उसका संस्कृत अनुवाद, भावार्थ, प्रतीकार्थ निरूपक टिप्पणियां और श्री अरविंदकृत अर्थ का समर्थन करने वाली व्याकरणविवृत्ति देकर श्री अरविंद का सिद्धान्त दृढमूल किया है। वैदिक वाङ्मय के जिज्ञासुओं के लिए यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी है। पृष्ठ संख्या 600। प्रकाशक- अरविंद सोसायटी पाण्डिचेरी। प्रकाशन वर्ष- 1976 । अग्निवीणा - लेखिका- डा. रमा चौधुरी (20 वीं शती) "अग्निवीणा' नामक बंगाली काव्य के सुप्रसिद्ध कवि नजरुल • इस्लाम का चरित्र इस पुस्तक का विषय है। अग्निहोत्रप्रयोग - ले.- अनंतदेव। पिता-आपदेव (ई. 17 वीं शती)। विषय-धर्मशास्त्र। अघविवेक - ले. नीलकण्ठ दीक्षित (ई. 17 वीं शती) विषय- धर्मशास्त्र। अधोरशिवपद्धति - ले.- अधोरशिवाचार्य। शैवभूषण के अनुसार शैवाचार्यों की विविध पद्धतियों में यह अन्यतम पद्धति है। अचिन्त्यस्तवः - लेखक- नागार्जुन । विषय- भगवान बुद्ध का स्तोत्र। अच्युतम् - वाराणसी से 1933 में चण्डीप्रसाद शुक्ल के संपादकत्व में इस दार्शनिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में संस्कृत के साथ हिन्दी के लेख भी प्रकाशित होते थे। यह पत्रिका अल्पकाल में बंद हुई। अच्युतचरितम् - कवि- गंगादास (पिता-गोपालदास)। 16 का सर्गों का महाकाव्य। विविध छंदों के उदाहरण प्रस्तुत करना इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य है। अच्युतेन्द्राभ्युदयम् - रचयिता- तंजौर के नायकवंशीय राजा रघुनाथ। अजडप्रमातृसिद्धिः - ले. उत्पलदेव । विषय- काश्मीरीय शैवमत का प्रतिपादन। अजपा - अजपाकल्प, अजपागायत्री, अजपागायत्रीकल्प, अजपागायत्री-पद्धति, अजपागायत्रीमंत्र, अजपागायत्रीविधान, अजपागायत्रीविधि, अजपागायत्रीस्तोत्र, अजपाजप, अजपाजपमंत्र, अजपामंत्र, अजपाविधि, अजपास्तोत्र, अजपासाधन, अजपास्तोत्रविधि। ये सब जिस एक ही विषय का प्रतिपादन करते हैं, वह है "अजपामंत्र"। (हंसमंत्र = अहं सः) का अव्यक्त जप जो कि अद्वैत उपासना का उन्नत स्तर न्यूनाधिक है। पूर्वोक्त सभी ग्रंथ उसी मन्त्र के प्रतिपादक हैं। अजपागायत्री - (1) इसमें अजपास्तुति, आवश्यक पूर्वांगविधि के साथ, प्रतिपादित है। (2) इसमें अजपागायत्री महामन्त्र के ऋषि छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा हंस का हृदयकमल रूपी नीड से श्वासप्रश्वासरूप से निरन्तर चल रहा जप प्रतिपादित है। हंसगायत्री का निरूपण कर सलोम-विलोम अंगन्यास आदि भी बताए गये हैं। अजामिलोपाख्यान - (1) ले. त्रिवांकुर (केरल) के नरेश राजवर्मा कुलशेखर। (19 वीं शती) (2) ले. जयकान्त । अजित आगम - दश शैवागमों में अन्यतम। इस में पटल 62 और श्लोक दस हजार हैं। किरणागम के अनुसार इसके प्रथम श्रौता यथाक्रम सुशिव, उमेश एवं अच्युत हैं। अजीर्णामृतमंजरी - ले. धन्वन्तरि । विषय- वैद्यकशास्त्र । अज्ञानध्वान्तदीपिका - 10 प्रकाशों में पूर्ण। रचयिता म.म. महेशनाथ के पुत्र सोमनाथ। इसमें गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी तथा विष्णु और शिव के मंत्र प्रतिपादित हैं। अणीयसी - ले. भगीरथ। यह माघ के शिशुपाल वध काव्य की अन्यतम टीका है। अणुन्यास - ले. इन्द्रमित्र। समय- 9 से 12 वीं शती के बीच। पाणिनीय व्याकरण के न्यास पर टीका। अणुभाष्य - (1) ले. मध्वाचार्य (ई. 12-13 वीं शती) द्वैतसिद्धान्त प्रतिपादक ब्रह्मसूत्र का भाष्य। इसमें केवल 34 अनुष्टुभ् श्लोकों में ब्रह्मसूत्रों के अधिकरणों का सार द्वैत सिद्धांत के अनुसार प्रतिपादन किया है। (2) "पुष्टि-मार्ग" नामक एक भक्तिसंप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ के इस ब्रह्मसूत्र भाष्य के प्रणेता हैं। यह भाष्य केवल अढाई अध्यायों पर ही है। आचार्य वल्लभ के सुपुत्र गोसाई विठ्ठलनाथ ने अंतिम डेढ अध्यायों पर भाष्य लिखकर इस ग्रंथ की पूर्ति की है। विट्ठलनाथजी से लगभग सौ वर्ष के उपरांत पुरुषोत्तमजी ने अणुभाष्य पर भाष्यक्रम नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्यान लिखा। यह वल्लभसंप्रदायी अणुभाष्य की सर्वप्रथम तथा सर्वोत्तम व्याख्या मानी जाती है। अणुभाष्य के व्याख्याकारों में मथुरानाथ और मुरलीधरजी यह पंडितद्वय उल्लेखनीय हैं जिन्होंने क्रमशः "प्रकाश" तथा "सिद्धांत-प्रदीप" नामक व्याख्यायें लिखी हैं। प्रतीत होता है कि मूलतः यह ग्रंथ पूर्ण ही था किन्तु संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /3 For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ के पश्चात् परिवार में उत्पन्न विवाद और अव्यवस्था के कारण वह छिन्न-भिन्न हो गया । www.kobatirth.org संस्कृत में पुष्टिमार्ग पर प्रकाश डालने वाले जिन चार ग्रंथों को प्रमाण माना गया है उस विषय में एक श्लोक इस प्रकार है : वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि व्याससूत्राणि चैव हि । समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाणं तच्चतुष्टम् ।। अर्थात् वेद, श्रीकृष्ण के उपदेश वचन ( अर्थात् गीता ) और व्यास की समाधि भाषा याने (जिसकी प्रेरणा ब्रह्मसूत्र उन्हें समाधि की अवस्था में हुई) । भागवतपुराण ये चार ग्रंथ पुष्टि मार्ग के प्रमाण ग्रंथ हैं। इनमें ब्रह्मसूत्र तथा भागवतपुराण- इन दो ग्रंथों पर वल्लभाचार्य के अणुभाष्य को पुष्टिमार्ग का सर्वस्व माना जाता है। गोपेश्वर ने पुरुषोत्तमाचार्य के भाष्यप्रकाश पर “रश्मि " नामक टीका लिखी। उनके शिष्य गिरिधर ने आगे चलकर "अणुभाष्य" पर पृथक् टीका लिखी। "शुद्धाद्वैतमार्तण्ड" नामक ग्रंथ में उन्होंने संप्रदाय के सिद्धान्तों को अधिक सुस्पष्ट और सुबोध बनाया । कृष्णचन्द्र महाराज ने ब्रह्मसूत्र पर "भावप्रकाशिकावृत्ति" लिखी । आचार्यपुत्र विठ्ठल ने उर्वरित अणुभाष्य, तत्त्वदीपनिबंध, भागवतसूक्ष्मटीका पूर्वमीमांसा - भाष्य, निबंधप्रकाश, विद्वन्मंडन, शृंगाररसमंडन, और सुबोधिनीटिप्पण आदि ग्रंथों की रचना कर सम्प्रदाय विषयक साहित्य में मौलिक योगदान दिया । - अतन्द्रचन्द्र-प्रकरण ले. जगन्नाथ । सत्रहवीं शती का अंतिम चरण । इसका प्रथम अभिनय फतेहशाह की राजसभा में हुआ। अंकसंख्या - सात । पुरुष पात्र पांच, स्त्री पात्र तेरह । शृङ्गार के साथ अद्भुत रस का भी प्रयोग । प्रणय प्रसङ्गों में वैदर्भी रीति तथा माधुर्य गुण छठें सातवें अड़कों में माया और युद्ध के प्रसंगों में आरभटी वृत्ति तथा ओजगुण, शार्दूलविक्रीडित वृत्त का प्रचुर प्रयोग। यह सत्रहवीं शती का एकमात्र प्रकरण उपलब्ध है। कथासार दो नायक, चन्द्र तथा सागर । नायिकाएं चन्द्रिका तथा चन्द्रकला । चन्द्र का प्रतिनायक विमूढ ( तमिस्रा का पुत्र) कादम्बिनी नामक सिद्ध योगिनी विमूढ की सहायिका है, परन्तु सानुमती नामक योगिनी छलप्रपंच द्वारा चन्द्रिका वंशधारिणी कलावती के साथ विमूढ का विवाह कराती है। कलावती विमूढ की बहन चन्द्रकला का सागर के साथ मिलन कराने में प्रयत्नशील है । सागर तथा चन्द्र पर विमूढ आक्रमण करता है, परन्तु हार जाता है। तब कादम्बिनी चन्द्रिका का अपहरण कराती है परन्तु चन्द्रिका की सखी शारदा उसे बचा कर चन्द्र से मिलाती है । चन्द्र का चन्द्रिका से और सागर का चन्द्रकला से मिलन होता है। 4 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड अत्रिकामकल्पवल्ली - ले. वेंकटवरद (श्रीमुष्णग्राम - मद्रास) के निवासी। ई. 18 वीं शती । अत्रिस्मृति इस स्मृति में नौ अध्याय हैं। विषय- चारों वर्णों के कर्म, उनकी उपजीविका, प्रायश्चित्त, स्त्री एवं शूद्रों को पतित करनेवाले कर्म, श्राद्ध, सूतक निर्णय इत्यादि । अथ किम् ले. - डा. सिद्धेश्वर चट्टोपाध्याय । रचना-सन 1970 अप्रैल 1972 संस्कृत साहित्य परिषद के 55 वें वार्षिक उत्सव में परिषद के सदस्यों द्वारा इस रूपक का अभिनय हुआ । उसी परिषद् द्वारा 1974 में इसका प्रकाशन हुआ । विषय आधुनिक परिवेश की असंगतियों पर परिहासात्मक व्यंग । कुल पात्रसंख्या- आठ। इसकी शैली आधुनिक है। अथर्व-ज्योतिष इसमें 162 श्लोक और 14 प्रकरण हैं। यह वेदांग विषयक ग्रंथ ऋक्-यजुस् ज्योतिष के समान प्राचीन नहीं है। अथर्वतत्त्वनिरूपण श्लोक शैली उपनिषत् की सी है इसके प्रारम्भ में अथान्योपनिषत् कहा गया है। इसमें प्रधान रूप में कुमारीपूजन का प्रतिपादन है। कुमारीपूजन से साधक सब सिद्धियों का अधिपति होता है एवं अणिमा आदि विभूतियों का स्वामी होता है यह फलश्रुति बताई है। I - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथर्ववेद प्रातिशाख्य सूत्र यह अथर्ववेद का (द्वितीय) प्रातिशाख्य है इस वेद के मूल पाठ को समझने के लिये इसमें अत्यंत उपयोगी सामग्री का संकलन है। इसका एक संस्करण आचार्य विश्वबंधु शास्त्री के संपादकत्व में पंजाब विश्वविद्यालय की ग्रंथमाला से 1923 ई. में प्रकाशित हुआ है जो अत्यंत छोटा है। इसमें अथर्ववेद-विषयक कुछ ही तथ्यों का विवेचन है। इसका दूसरा संस्करण डा. सूर्यकांत शास्त्री द्वारा हुआ है जो लाहौर से 1940 ई. में प्रकाशित हुआ है। यह संस्करण प्रथम संस्करण का ही बृहद् रूप है। - 4 अथर्ववेद अंगिरावंशीय अथर्व ऋषि द्वारा दृष्ट होने से इस वेद को "अथर्ववेद" कहते हैं इसे भवंगिरा वेद और क्यों कि यज्ञ में ब्रह्मगण के इसके देवता सोम और प्रमुख "ब्रह्मवेद" भी कहा जाता है, ऋत्विग् इसका प्रयोग करते है आचार्य सुमन्तु हैं। | For Private and Personal Use Only आकार की दृष्टि से ऋग्वेद के पश्चात् द्वितीय स्थान अथर्ववेद का ही है। इसमें 20 कांड हैं, जिनमें 731 सूक्त तथा 5987 मंत्रों का संग्रह है। इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं । पतंजलि कृत "महाभाष्य" के पस्पशाह्निक में इस वेद की 9 शाखाओं का निर्देश है। इन शाखाओं के नाम हैं- पिप्पलाद, स्तोद, मोद, शौनकीय, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श तथा चारणवैद्य । इस समय इस वेद की केवल दो ही शाखाएं मिलती हैं। (1) पिप्पलाद तथा (2) शौनकीय। पिप्पलाद शाखा के रचयिता पिप्पलाद मुनि हैं। इसकी एकमात्र प्रति Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारदा लिपि में काश्मीर में प्राप्त हुई थी जिसे जर्मन विद्वान रॉथ ने संपादित किया है। अथर्ववेद की उत्पत्ति के संबंध में एक कथा है। सृष्टि निर्माण हेतु ब्रह्मा जब तपश्चर्या कर रहे थे, भूमि पर बह रहे उनके पसीने में उन्होंने अपना प्रतिबिंब देखा। उसी जल के दो भाग हुए। एक से भृगु और दूसरे से अंगिरा ऋषि का निर्माण हुआ। इन दोनों के दस दस पुत्र हुए। ये बीसों अथर्वागिरस कहलाये। इन्होंने शौनिक संहिता के एक-एक कांड की रचना की। अथर्वा ऋषि के मंत्र का आथर्वणवेद बना और अंगिरा के मंत्र का आंगिरसवेद। तात्पर्य ये दोनों स्वतंत्र वेद संयुक्त होकर अथर्ववेद नाम पडा। बृहदारण्यकोपनिषद् में आंगिरस शब्द की व्युत्पत्ति इस भांति है : अङ्गेषु गात्रेषु यो रसः सप्तधातुमयस्तमधिकृत्य या चिकित्सा सांगिरसानां चिकित्सा । शरीर में जो सप्तधातुमय रस है, उसकी चिकित्सा जिसमें है, वह आंगिरसवेद है। प्रारम्भ में यज्ञकर्म में वेदत्रयी को ही स्थान था। होता, अध्वर्यु व उद्गाता ये तीन ऋत्विज क्रमशः ऋक्-यजुःसाम मंत्र से अपना- अपना कर्म पूरा करते थे। चौथे ऋत्विज् ब्रह्मा का अलग से वेद नहीं था। आगे चलकर "अथर्वाङ्गिरोभिर्ब्रह्मत्वम्" यह नियम बना और ब्रह्मा का काम अथर्ववेदी ब्राह्मण को सौंपा गया। यज्ञोपयुक्त अंश कम होने से वेदत्रयी से इसे महत्त्व कम दिया गया। यह अधिकतर अभिचारात्मक ही है। श्रौत कर्मों में स्थान न होने के कारण इन मंत्रों का वेदत्व मान्य नहीं होता। अतः बिखरे हुये सारे मंत्र एकत्र कर ब्रह्मवेद के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा दी गई । शांतिक और पौष्टिक कर्म का संपादन, पुरोहित को अथर्ववेद के आधार से ही करना पडता है। इस पुरोहित का अधिकार राजनीति तथा युद्ध में भी महत्त्वपूर्ण रहा करता था। "पुरोहित" (= आगे रहने वाला) जिस राज्य में अथर्ववेत्ता है, उस राष्ट्र में सारे उपद्रव शांत होकर वह समृद्ध होता है यह धारणा थी। इसे क्षात्रवेद भी कहा जाता है। "राजकर्माणि" नामक सूक्तसंग्रह इस में है। ये सारे कर्म राजपुरोहित को ही करने पडते थे। व्हिटने ने सम्पूर्ण अथर्ववेद का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। डा. रघुवीर ने पैप्पलाद शाखा का संशोधित संस्करण प्रकाशित किया है। पं. सातवलेकर ने शौनक संहिता प्रकाशित की है। इसका एकमात्र गोपथ ब्राह्मण, मुण्डक, माण्डूक्य प्रश्न आदि उपनिषद, तंत्र ग्रंथ, मंत्रकल्प, संहिताविधि, शिक्षा आदि अंगभूत साहित्य मिलता है। अथर्ववेद के उपवेद के संबंध में अनेक मत हैं, तदनुसार- अर्थशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, सर्पवेद, पिशाचवेद, इतिहास, पुराणवेद, भैषज्यवेद, अथर्ववेद के उपवेद माने जाते हैं। इसके उपजीव्य कुछ तांत्रिक पद्धतियां तथा स्तोत्र भी हैं। इसकी शौनक संहिता पर एकमात्र सायण का भाष्य मिलता है जो बीच में खण्डित है। ___ अथर्ववेद की रचना, ऋग्वेद के बाद मानी गई। इसका प्रमुख कारण भाषा है जो अपेक्षाकृत अर्वाचीन प्रतीत होती है। इसमें शब्द बहुधा बोलचाल की भाषा के हैं। इसमें चित्रित समाज का रूप भी, "ऋग्वेद" की अपेक्षा विकास का सूचक सिद्ध होता है। अथर्ववेद में ऐहिक विषयों की प्रधानता पर बल दिया गया है जब कि अन्य वेदों में देवताओं की स्तुति एवं पारलौकिक विषयों का प्राधान्य है। अथर्वशिखाविलास - ले. कौशिक रामानुजाचार्य। विषयवैष्णव मत का प्रतिपादन।। अद्भुततरंग-प्रहसनम् - रचयिता- हरिजीवन मिश्र। 17 वीं शती। कथासार- राजा मदनांकविक्रम, गूढरसमिश्र नामक वैष्णव से रुष्ट होता है। उसे वह 'विधवाविध्वंसक' नामक आचार्य से दण्ड दिलवाता है कि आत्मशुद्धि के लिए कामाग्निकुण्ड में तप्त हो जाये। 'यमानुज' नामक राजवैद्य को भी यही दण्ड मिलता है। कुंडदहन के लिए वेश्या के साथ विध्वंसक की पत्नी भी बुलायी जाती है। अन्त में स्पष्ट होता है कि विध्वंसक की पत्नी याने विदूषक ही सो वेश में है। अदभतदर्पण - रचयिता- महादेव। स्थान- पालमारनेरी । रचनाकाल- 16601 यज्ञसम्पादन के अवसर पर अध्वर-शोभा के लिए अभिनीत, नो अङ्कों का नाटक। प्रधान रस अद्भुत । सरल, नाट्योचित शैली! मानव, राक्षस, भल्लूक, वानर आदि के साथ ही नगर को अधिष्ठात्री देवी लंका और राजोद्यान की अधिदेवी निकुम्भिला भी पात्र के रूप में प्रस्तुत। कथावस्तु- लंका पहुंचने पर राम अंगद के द्वारा रावण के __अथर्ववेद के 731 (कुछ विद्वानों के अनुसार 730) सूक्तों • के विषय- विवेचन की दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किये जाते है। आयुर्वेद- विषयक 144 सूक्त, राजधर्म व राष्ट्रधर्मसंबंधी 215 सूक्त, समाजव्यवस्था-विषयक 75 सूक्त, अध्यात्म-विषयक 83 सूक्त तथा विविध विषयों से संबंधित शेष 214 सूक्त। अथर्ववेद के विषय, अन्य वेदों की अपेक्षा नितांत भिन्न तथा विलक्षण हैं। इन्हें अध्यात्म, अधिभूत एवं अधिदैवत के रूप में विभक्त किया जा सकता है। अध्यात्म के अंतर्गत ब्रह्म परमात्मा तथा चारों आश्रमों के विविध निर्देश आते हैं। अधिभूत के अन्तर्गत राजा, राज्यशासन, संग्राम, शत्रु, वाहन आदि विषयों का वर्णन है। अग्निदैवतप्रकरण में देवता, यज्ञ एवं काल संबंधी विविध विषयों का वर्णन है। तात्पर्य "अथर्ववेद" मंत्र-तंत्रों का प्रकीर्ण संग्रह है तथा इसमें संगृहीत सूक्तों का विषय अधिकांशतः गृह्य संस्कारों का है। अथर्ववेद पुरोहितों का वेद माना जाता है। इसमें शांत, पौष्टिक, धीर, अभिचार, आदि कर्मों का समावेश होने से, 'संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/5 For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास सन्धि का प्रस्ताव भेजते हैं। रावण लंका में अनेक मायावियों को राम के साथ युद्ध करने हेतु बुला लेता है। मायावी शम्बर वानरवेष धारण कर राम की सेना में घुसता है, जिसे जाम्बवान् सन्देहवश पकड लेता है परन्तु मायावी , शम्बर तत्काल अदृश्य होता है। जाम्बवान् दधिमुख वानर को शम्बर समझ कर दण्ड देना चाहता है। इस बीच शम्बर प्रण करता है कि वह दधिमुख को मरवा डालेगा। फिर दधिमुख के वेष में वह राम को बताता है कि अंगद तो रावण से मिल चुका है। राम-लक्ष्मण वहां चल देते हैं तो अंगद के वेष में शम्बर, सुग्रीव के कृत्रिम सिर को उनके आगे पटक देता है परन्तु लक्ष्मण को सन्देह होता है कि यह वास्तव में अंगद नहीं होगा। इतने में सुग्रीव वहां पहुंचता है तो राम आश्वस्त हो जाते हैं। परन्तु रावण का सेनापति शम्बर को वास्तविक अंगद मान बन्दी बनाता है। शम्बर अपनी वास्तविकता उसे बतलाता है। जाम्बवान् यह सुनकर उसे पुनरपि पकड लेता है। फिर युद्ध में सेनापति के मारे जाने पर रावण स्वयं युद्धभूमि की ओर चलता है। बिभीषण राम को रावण का वह अद्भुत दर्पण प्रदान करता है जिसे रावण ने श्वशुर से उपहार रूप में पाया था। इस दर्पण में तीन योजन के घेरे में घटने वाली सभी घटनायें प्रतिबिम्बित होती थीं। कुम्भकर्ण तथा इन्द्रजित् मारे जाते हैं और हनुमान लंका को उद्ध्वस्त करते हैं। फिर मायायुद्ध चलता है और अन्त में रावण मारा जाता है। राम का रूप धारण कर मयासुर सीता पर परगृहवास का कलंक लगा कर उसे त्यागने की घोषणा करता है। अभिभूत सीता अग्निप्रवेश करती है, परन्तु आकाशवाणी द्वारा सीता की शुद्धता प्रमाणित होती है और देवताओं के साथ दशरथ राम-सीता को आशीर्वचन देते है। अद्भुतपंजर - रचयिता- नारायण दीक्षित। समय- 18 वीं शती। सन 1705 ई. के महामखोत्सव में अभिनीत नाटक समसामयिक राजनीतिक घटनाओं की पृष्ठभूमि, परन्तु एक भी घटना इतिहास से मेल नहीं खाती। प्रमुख रस- शृंगार और वीर। कथासार- तंजौर के राजा शाहजी सारसिका नामक युवती पर मोहित हो गये जिसे महारानी उमादेवी राजा की दृष्टि से बचाती आयी थी। सारसिका और राजा परस्पर आकृष्ट हुए। रानी को यह बात विदित होने पर उसने सारसिका को लकडी के पिंजरे में बन्दी बना दिया। बाद में पता चला कि सारसिका वास्तव में महारानी की मौसेरी बहन लीलावती है। रानी को लीलावती के जन्म के समय से ही ज्ञात था कि ज्योतिषियों के अनुसार लीलावती का पति सार्वभौम राजा होगा और ज्येष्ठ सपत्नी के पुत्र के युवराज बनने पर उसका अनुवर्तन करेगा। इसलिए वह लीलावती को सपत्नी बनाने के लिए मानसिक रूप से उद्यत थी ही। जब पता चलता है कि सारसिका ही लीलावती है तब सभी की सम्मति से उसका विवाह राजा के साथ सम्पन्न होता है। अद्भुतसागर - ज्योतिष-शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ। (प्रणयन-काल 1168 ई.) प्रणेता- मिथिला-नरेश लक्ष्मणसेन जिन्होंने अपने राज्याभिषेक के 8 वर्ष पश्चात् इस ग्रंथ की रचना की थी। यह अपने विषय का एक विशालकाय ग्रंथ है जिसमें लगभग 8 सहस्र श्लोक हैं। इस ग्रंथ में ग्रहों के संबंध में जितनी बातें लिखी गई हैं, ग्रंथकार ने स्वयं उनकी परीक्षा करके उनका विवरण दिया है। बीच-बीच में गद्य का भी प्रयोग किया है। प्रस्तुत ग्रंथ के नामकरण की सार्थकता उसके वर्ण्यविषयों के आधार पर सिद्ध होती है। इसमें विवेचित विषयों की सूची इस प्रकार है- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, भृगु, शनि, केतु, राहु, धृव, ग्रहयुद्ध, संवत्सर, ऋक्ष, परिवेश, इंद्रधनुष, गंधर्व-नगर, निर्घात, दिगदाह, छाया, तमोधूमनीहार, उल्का, विद्युत, वायु, मेघ, प्रवर्षण, अतिवृष्टि, कबंध, भूकंप, जलाशय, देव-प्रतिमा, वृक्ष, गृह, गज, अश्व, बिडाल, आदि । इस ग्रंथ का प्रकाशन प्रभाकरी यंत्रालय काशी से हो चुका है। अद्भुतांशुकम् - ले- जग्गू श्रीबकुलभूषण। रचनाकाल सन 1931। बंगलोर से 1932 में प्रकाशित नाटक। संस्कृत वि.वि. वाराणसी में प्राप्य। यदुगिरि के भगवान् संपतकुमार के हीरकिरीटोत्सव के अवसर पर प्रथम अभिनीत। अंकसंख्याछः । इस कपट-नाटक में छायातत्त्व का विनिवेश है। एकोक्तियों तथा सूक्तियों की प्रचुरता। किरतनिया अथवा अंकिया नाटककोटि की रचना। प्राकृत का समावेश। वेणीसंहार नाटक के पूर्व की महाभारतीय कथावस्तु । विशेषताएं- मंच पर रथयात्रा और द्रौपदी चीरहरण के दृष्य, श्रीकृष्ण का मृग बनना, भीम का स्त्रीवेष, पात्रों का एकसाथ मंच पर रहना आदि। अदिति-कुण्डलाहरणम् (नाटक) - ले.- रामकृष्ण कादम्ब (ई. 19 वीं शती) सिंधिया ओरियण्टल इन्स्टिट्यूट, उज्जैन में हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है। दाशरथिरथोत्सव में अभिनीत। अन्धविश्वास की तुच्छता, सत्यपरायणता की महिमा, वर्णाश्रम-धर्म का पालन आदि का प्रतिपादन इसमें है। अंकसंख्या- सात । राष्ट्रीय एकात्मता का सन्देश दिया है। कथासार- देवताओं की माता अदिति के कुण्डल का नरकासुर अपहरण करता है। इन्द्र का सन्देश पाकर श्रीकृष्ण भारत के विविध प्रदेशों के राजाओं को एकत्र कर नरकासुर को परास्त करते हैं। इस संघर्ष के समय सत्यभामा श्रीकृष्ण के साथ थी। अद्वयतारकोपनिषद - 108 उपनिषदों में से 53 वां उपनिषद् । इसका शुक्ल यजुर्वेद में समावेश है। ब्रह्मप्राप्ति के तीन लक्षण दिये हैं। 1) अंतर्लक्ष्यलक्षण, 2) बहिर्लक्ष्यलक्षण। 3) मध्यलक्ष्यलक्ष्मण। अद्वैतचंद्रिका - (टीका ग्रंथ) ले- ब्रह्मानंद सरस्वती। वंगनिवासी। 6/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई. 17 वीं शती। अद्वैतदीपिका - (1) ले.- नृसिंहाश्रम (ई. 16 वीं शती) (२) लेखिका- कामाक्षी। अद्वैतब्रह्मसिद्धि - ले- काश्मीरक सदानंद यति (ई. 17 वीं शती) विषय- वेदान्त के एकजीवत्व-सिद्धान्त का प्रतिपादन । अद्वैतमंजरी - (निबंध) ले.- नल्ला दीक्षित । ई. 17 वीं शती। अद्वैतविजयः - ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय। आन्ध्रनिवासी। 19 वीं शती। अद्वैतवेदान्तकोश - ले.- केवलानन्द सरस्वती (ई. 19-20 वीं शती) वाई (महाराष्ट्र) के निवासी। अद्वैतसिद्धांतविद्योतन - ले. ब्रह्मानंद सरस्वती। वंगनिवासी। ई. 17 वीं शती। अद्वैतसिद्धान्तवैजयन्ती - ले.- त्र्यंबक शास्त्री। अद्वैतसिद्धि - ले.- मधुसूदन सरस्वती। काटोलपाडा (बंगाल) तथा वाराणसी के निवासी। ई. 16 वीं शती। अद्वैतामृतसारः - ले.- प्रा. द्विजेन्द्रलाल पुरकायस्थ । जयपुर-निवासी। अधरशतकम् - ले.- नीलकण्ठ, 1956 में प्रकाशित। रॉयल एशियाटिक सोसायटी के गोरे की प्रस्तुति। 118, श्लोक। शृंगार रस। अधर्म-विपाक - (नाटक) ले. अप्पाशास्त्री राशिवडेकर (सन 1873-1913) केवल दो अंक उपलब्ध। योजना सम्भवतः पांच अंकों की थी। विषय- धार्मिक विप्लव से बचने हेतु जागरण का सन्देश। कथासार- धर्म के शत्रु कलि और अधर्म का नौकर पंकपूर तापस-वेष में रहकर लोगों का चारित्र्य भ्रष्ट करते हैं। धर्म की कन्याओं (श्रद्धा और भक्ति) को अधर्म बन्दी बनाता है। धर्म की पत्नी श्रुतिशीलता व्याकुल होती है। शान्तिकर्म का अनुष्ठान होनेवाला है। आगे का कथांश अप्राप्य। अध्यर्धशतकम् (सार्धशतकम्) - लेखक- मातृचेट, 13 भाग। अनुष्टुप् के 153 छन्दों में निबद्ध। बुद्धस्तोत्र के रूप में श्रेष्ठ कृति। मूल संस्कृत प्रति महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने 1926 में, सास्कया नामक तिब्बती विहार में प्राप्त की। राहुलजी तथा के.पी. जायसवाल ने बिहार एण्ड उडीसा रिसर्च पत्रिका में प्रकाशित की। तिब्बती, चीनी, लोखारियन (मध्य एशिया) आदि अनुवाद उपलब्ध । यह स्तोत्र भारत की अपेक्षा बाहर विशेष रूप से ज्ञात है। इस स्तोत्र में भगवान बुद्ध का आध्यात्मिक जीवन प्रारम्भ से अंत तक सरल भाषा में प्रस्तुत है। अध्यात्म-कमलमार्तण्ड - ले.- राजमल पांडे। ई. 16 वीं शती।। अध्यात्मतरंगिणी - ले- शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती। अध्यात्मतरंगिणी - ले.- गणधरकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। अध्यात्म-रामायण - आध्यात्मिक रामसंहिता भी कहते हैं। उमा-महेश्वर के संवाद से ग्रंथ बना है। मूलाधार वाल्मीकि रामायण है परंतु मूल कथा में किचित् परिवर्तन है। वाल्मीकि रामायण में अग्निदत्त पायस दशरथ द्वारा वितरित है। सुमित्रा को दो बार दिया गया यह कथन है। इसमें कौसल्या एवं कैकेयी ने अपने हिस्से का आधा-आधा सुमित्रा को दिया। ___ इसमें 7 कांड एवं 65 सर्ग हैं। रचनाकाल-संभवतः 15 वीं शताब्दी। किसी शिवोपासक रामशर्मा द्वारा इसकी रचना मानी जाती है। वेदान्त एवं भक्ति का मेल लाने की दृष्टि से गीता एवं श्रीमद्भागवत के आधार पर रचना की गई है। ग्रंथ में सर्वत्र अद्वैतमत का प्रभाव है। भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को गीता द्वारा उपदेश दिया। इसमें रामचंद्रजी ने लक्ष्मण को उपदेश दिया है। प्रस्तुत ग्रंथ के नाम से ही इसकी विशेषता स्पष्ट होती है। इसके श्रीराम रावणारि अयोध्यापति नहीं, न ही सीताजी जनक-नंदिनी हैं। इस रामायणकार का समग्र ध्यान, राम-सीता .. के आध्यात्मिक रूप को चित्रित करने में लगा है। तदनुसार राम पुरुष हैं और सीताजी प्रकृति हैं, राम परब्रह्म हैं, और सीता उनकी अनिर्वचनीया माया हैं। इस प्रकार इस रामायण में मानव-समाज के हितार्थ, इसी ब्रह्म-माया की अनोखी चरित्रावलि का चित्रण ग्रंथारंभ के मंगल श्लोक से ही मिल जाता है - यःपृथ्वीभरवारणाय दिविजैः संप्रार्थिश्चिन्मयः संजातः पृथिवीतले रविकुले मायामनुष्योऽव्ययः । निश्चक्रं हतराक्षसः पुनरगाद् ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां कीर्ति पापहरां विधाय जगतां तं जानकीशं भजे।। आगे चल कर उत्तरकांड के अंतर्गत सुप्रसिद्ध 'राम-गीता' में तो अद्वैत-वेदांत की प्रख्यात पद्धति से 'तत्' और 'त्व' पदार्थों के परिशोधन और ज्ञान का वर्णन बडी विशुद्धता तथा विशदता के साथ किया गया है। इस प्रकार ज्ञान को मूल भित्ति मान कर प्रस्तुत रामायण में श्रीराम के चरित्र का चित्रण किया गया है। तुलसीदासजी के रामचरित मानस पर इस ग्रंथ का प्रभाव दिखाई देता है। अध्यात्मशिवायन - ले.- श्रीधर भास्कर वर्णेकर। विषयस्वामी विवेकानंद और लोकमान्य तिलक के संवाद द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज का संक्षिप्त पद्यात्मक चरित्र। भारती प्रकाशनजयपुर द्वारा हिंदी अनुवादसहित प्रकाशित । अध्वरमीमांसाकुतूहलवृत्तिः - ले- वासुदेव दीक्षित (बालमनोरमा टीकाकार)। विषय- धर्मशास्त्र । अधिकरणचन्द्रिका - ले.- रुद्रराम । अधिकरणकौमुदी - ले.- देवनाथ ठाकुर । ई. 16 वीं शती। अधिमासनिर्णयः - सन 1901 में त्रिचनापल्ली से इस मासिक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /7 For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोमनाता पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। इसके सम्पादक चन्द्रशेखर थे। इस पत्रिका का प्रकाशन केवल एक वर्ष तक हुआ। अनंगदीपिका - ले.- कौतुकदेव। विषय- कामशास्त्र । अनंगरंग - ले.- कल्याणमल्ल। अवधनरेश (आश्रयदाता) को प्रसन्न करने के हेतु रचना हुई। 10 अध्याय। नायिकाभेद तथा उनकी विशेषताएं, इत्यादि कामशास्त्रीय विषयों की जानकारी के लिए यह लघुकोश सा है। अनुभवरस - ले.- हरिसखी। अनुरागरस - ले. नारायणस्वामी । अनूपसंगीतरत्नाकरः - ले. भवभट्ट। अनूपसंगीतविलास - ले. भवभट्ट । अनूपसंगीताकुंश - ले.- भवभट्ट । अनर्घराघव - 7 अंकों का नाटक। ले. मुरारि कवि। इसमें संपूर्ण रामायण की कथा नाटकीय प्रविधि के रूप में प्रस्तुत की गई है। कवि ने विश्वामित्र के आगमन से लेकर रावण-वध, अयोध्यापरावर्तन तथा रामराज्याभिषेक तक संपूर्ण कथा को नाटक का रूप दिया है। किंतु रामायण की कथा को अपने नाटक में निबद्ध करने में, मूल कथानक बिखर गया है। फिर भी रोचकता तथा काव्यात्मकता का इस नाटक में अभाव नहीं। संक्षिप्त कथा :- इस नाटक के प्रथम अंक में महर्षि विश्वामित्र दशरथ के पास से राम लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा करने के लिए अपने आश्रम में ले जाते हैं। द्वितीय अंक में राम विश्वामित्र की आज्ञा से ताडका का संहार करते हैं। तृतीय अंक में विश्वामित्र राम लक्ष्मण को मिथिला ले जाते हैं जहां जनक के प्रण के अनुसार शिवधनुष पर शरसंधान कर राम सीता प्राप्ति के अधिकारी हो जाते है। तभी रावण का पुरोहित शोष्कल सीता की मंगनी रावण के लिए करता है, किन्तु रामकृत धनुर्भग को देख निराश हो चला जाता है। चतुर्थ अंक में हरचापभंग सुन परशुराम क्रुद्ध होकर मिथिला आते हैं। तब सीता के विवाह का उत्सव होता है। इसी बीच कैकयी अपनी दासी के हाथ पत्र भेजकर दशरथ से दो वर(राम को वनवास और भरत को राज्य प्राप्ति) मांगती है। पिता का आदेश स्वीकार कर सीता और लक्ष्मण सहित राम बन जाते है। पंचम अंक में रावण सीता का अपहरण करता है। जटायु प्रतिकार करते हुए मारा जाता है। राम की सुग्रीव से भेंट होती है। सप्तम अंक में अग्निपरीक्षा से परिशुद्ध सीता सहित राम पुष्पक विमान से अयोध्या लौटते हैं। वहां उनका राज्याभिषेक होता है। अनर्घराघव में अर्थोपक्षेकों की संख्या 29 है। इनमें 5 विष्कम्भक और 24 चूलिकाएं हैं। मुरारि कवि ने भवभूति को परास्त करने की कामना से 'अनर्घराघव' की रचना की थी, किन्तु उन्हें नाटक लिखने की कला का सम्यक् ज्ञान नहीं था। उनका ध्यान पद-लालित्य एवं पद-विन्यास पर अधिक था, पर वे भवभूति की कला को स्पर्श भी न कर सके। 'अनर्घराघव' में 5 प्रकार के दोष परिलक्षित होते है- 1) नाटक का कथानक निर्जीव है, 2) वर्णनों एवं संवादों का अत्यधिक विस्तार है, 3) असंगठित तथा अतिदीर्घ अंक रचना का समावेश है, 4) सरस भावात्मकता का अभाव है और 5) इसमें कलात्मकता का प्रदर्शन है, फिर भी मुरारि को 'बालवाल्मीकि' उपाधि दी है। अनर्घराघव नाटक के टीकाकार : (1) पूर्णसरस्वती, (2) हरिहर, (3) मानविक्रम, (4) रुचिपतिदत्त, (5) वरदपुत्र कृष्ण, (6) लक्ष्मीधर, (रामानन्दाश्रम) (7) विष्णुपण्डित, (8) विष्णु भट्ट (मुक्तिनाथ का पुत्र), (9) लक्ष्मण सूरि, (10) जिनहर्षगणि, (11) श्रीनिधि, (12) पुरुषोत्तम, (13) त्रिपुरारि, (14) नवचन्द्र, (15) अभिराम, (16) भवनाथ मिश्र, (17) धनेश्वर और (18) उदय । अनंग-जीवन (भाण) - ले- कोच्चुण्णि भूपालक (जन्म 1858)। त्रिचूर के मंगलोदयम् से तथा 1960 में केरल वि.वि.की संस्कृत सीरीज से प्रकाशित । मुकुन्द महोत्सव में अभिनीत। अनंगदा-प्रहसनम् - ले- जग्गू श्रीबकुलभूषण। रचना- सन 1958 में। जयपुर की 'भारती' पत्रिका में प्रकाशित । कथासारवारांगना अनंगदा बिना अंग दिये ही अभीष्ट प्राप्ति करने में चतुर है। दो धनिक भाई उस पर लुब्ध हैं। छोटा भाई उसको एकावली देकर प्रणयालाप करता है। इतने में बड़ा भाई द्वार खटखटाता है। अनंगदा उसका मुंह काला कर भीतर छिपाती है और कहती है कि में पुरुषवेष में आकर मिलूंगी। फिर बडे भाई को भी वैसा ही बताती है। भीतर दोनों भाई परस्पर को ही नायिका समझकर प्रेमालाप करने लगते हैं। अन्त में दोनों अपनी मूर्खता पर पछताते हैं। अनंगब्रह्मविद्याविलास - कवि- वरदाचार्य। अनंग-रंग - ले- कल्याणमल्ल। विषय- कामशास्त्र । अनंगविजय (भाण) - ले. जगन्नाथ। अठारहवीं शती। प्रथम अभिनय तंजौर में प्रसन्न वेडकट नायक के वसन्त-महोत्सव पर। अनंगविजय - कवि- शिवराय कृष्ण और जगन्नाथ । अनन्तचरित - कवि- श्रीवासुदेव आत्माराम लाटकर, काव्यतीर्थ। विषय- बम्बई के प्रसिद्ध व्यापारी अनन्त शिवाजी देसाई टोपीवाले का चरित्र। अनंतनाथस्तोत्रम् - ले- छत्रसेन । समन्तभद्र के शिष्य। ई. 18 शती। अनन्तव्रतकथा - ले- श्रुतसागर सूरि। (जैनाचार्य) ई. 16 वीं शती। 8/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्तव्रतकथा - ले.- पद्मनन्दी । जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती। अनरव्रतपूजा - ले.- ब्रह्मजिनदास, जैनाचार्य, ई. 15-16 वीं शती। अनाकुला - ले. हरदत्त । ई. 15-16 वीं शती। आपस्तंब गृह्यसूत्र की व्याख्या। अनारकली (नाट्य प्रकरण) - ले. डा. वेंकटराम, राघवन्। रचना 1931 में। प्रकाशन लगभग 40 वर्ष पश्चात्। 1971 में मद्रास में दो बार तथा विश्व संस्कृत सम्मेलन के अवसर पर दिल्ली में 1972 में अभिनीत । कुल पात्रसंख्या 50 से अधिक। लम्बी एकोक्तियां। षष्ठ अंक में सलीम की एकोक्ति 65 पंक्तियों की है। पूरे पंचम अंक में अनारकली तथा इस्मत बेग की केवल एकोक्तियां हैं। लम्बे, अप्रासंगिक संवाद तथा दृश्य इसमें हैं। सलीम तथा अनारकली की कथा के अन्त में परिवर्तन- अकबर की हिन्दू बहू, अनारकली को मृत्युदण्ड से बचाती है। अनाविला - ले.- हरदत्त। ई. 15-16 वीं शती। आश्वलायन गृह्यसूत्र की व्याख्या । अनिट्कारिका - ले.- व्याघ्रभूति। समय- एक मत के अनुसार ई. पू. 28 श.। 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' के लेखक पं. गुरुपद हालदार, व्याघ्रभूति को पणिनि का साक्षात् शिष्य मानते हैं। इस ग्रंथ में सेट और अनिट् धातुओं का परिगणन किया गया है। अनिरुद्धचरित-चम्पू - (1) कवि- देवराज, रघुपतिसुत । (2) कवि- साम्बशिव। अनिलदूतम् - ले.- रामदयाल तर्करत्न । अनेकान्तजयपताका - ले.- हरिभद्रसूरि । ई. 8 वीं शती। विषय- जैन दर्शन। अनेकान्तवादप्रवेश - ले.- हरिभद्रसूरि । ई. 8 वीं शती। विषय- जैनदर्शन। अनेकार्थसार • (अपरनाम-धरणीकोश) ले. धरणीदास। ई. 11 वीं शती। अनुकूलगलहस्तकम् (रूपक) - ले- विष्णुपद भट्टाचार्य (ई. 20 वीं शती) "मंजूषा" में सन् 1959 में प्रकाशित । अंकसंख्या- दो। प्रधान रस हास्य । दीर्घ रंगनिर्देश, एकोक्तियों की प्रचुरता। उत्कृष्ट संविधान। कथासार- नायक दिव्येन्दु रांची जाने के पूर्व अपने मित्र यामिनीकान्त (पुकारते समय यामिनी)। को फोन लगाता है, जो संयोगवश नायिका यामिनी के फोन से सम्बध्द होता है। दिव्येन्दु को यामिनी बताती है कि रांची में रंजनकुटीर में यामिनी (यामिनीकान्त) से मिलना। दिव्येन्दु रंजनकुटीर जाता है, तब यामिनी जलप्रपात देखने गयी है। लौटने पर यामिनी परिहास पर क्षमा मांगती है, तो दिव्येन्दु दण्डस्वरूप उसको आजीवन बन्दिनी बनने को कहता है। यामिनी की सखी शाश्वती दोनों के हाथ मिला देती है। अनुग्रहमीमांसा - ले- पी.एस. वारियर तथा व्ही.एन. नायर । विषय- जन्तुसिद्धान्तविषयक चिकित्सा। अनुत्तरप्रकाशपंचाशिका - ले. विद्यानाथ। विषय- काश्मीर के शैव मत का प्रतिपादन । अनुत्तरभटारकम् - (अथवा अनुत्तरस्तोत्रम्) ले. विद्याधिपति। अनुत्तरसंविदर्चनाचर्चा - विषय- परम शिव की यथार्थता का प्रतिपादन। श्लोक- 40। अनुन्यास - ले- इन्दुमित्र। आंफेक्ट की बहत् सूची में उल्लेखित । इस अनुन्यास पर श्रीमान् शर्मा ने अनुन्याससार नामक टीका लिखी है। अनुपलब्धिरहस्य - ले- ज्ञानश्री बौद्धाचार्य। ई. 14 वीं शती। विषय- बौद्धदर्शन। अनुब्राह्मण - ब्राह्मणसदृश ग्रंथ अनुब्राह्मण कहलाये गये। भट्टभास्कर ने तैत्तिरीय ब्राह्मण के विशिष्ट अंशों को अनुब्राह्मण कहा है। शांखायन श्रौतसूत्र के 14 एवं 15 अध्याय, ब्रह्मदत्त नामक टीकाकार के मत से अनुब्राह्मण हैं। आश्वलायन एवं वैताल श्रौत सूत्र में भी इसका उल्लेख है। अनुभवाद्वैत -ले- अप्पय्याचार्य । इसमें सांख्य-योग समुच्चयात्मक सिद्धान्त प्रतिपादित है। अनुभवामृतम् - ले- अप्पय्याचार्य। (मृत्यु- ई. 1901) विषय- सांख्य, योग और वेदान्त का समन्वय। अनुभूतिचिन्तामणिः (नाटिका) - ले.- घनश्याम आर्यक । ई. 18 वीं शती। अनुमानचिन्तामणि (दीधितिटीका) - ले.- गदाधर भट्टाचार्य । अनुमानदीधितिविवेकः - ले.- गुणानन्द विद्यावागीश । अनुमानालोकप्रसारिणी - ले-कृष्णदास सार्वभौम भट्टाचार्य । अनुमितिपरिणयम् (नाटक) - लेखक- नरसिंह । कैरविणी पुरी (तामिळनाडु) के निवासी। 18 वीं शती। परामर्शकन्या अनुमिति का न्यायरसिक से विवाह होता है। न्यायशास्त्रीय अनुमिति खण्ड को सुबोध करने हेतु इस लाक्षणिक नाटक की रचना हुई है। कथावस्तु प्रतीकात्मक है। अनुव्याख्यान - ब्रह्मसूत्र के अर्थ का विशद प्रतिपादन करने वाला तथा अद्वैत का खंडन कर द्वैत की स्थापना करने वाला यह मध्वाचार्य का सर्वश्रेष्ठ, प्रमेय-बहल, ग्रंथ है। यह आचार्य के ही अणुभाष्य का पूरक ग्रंथ है। आचार्य स्वयं कहते हैं'स्वयं कृतापि तद्व्याख्या क्रियते स्पष्टतार्थतः।' मध्वाचार्य का समय ई. 12-13 वीं शती।। अनुष्ठानसमुच्चय- ले- नारायण। माता- पार्वती। श्लोक7800। विषय- चल बिम्ब और स्थिर बिम्ब की प्रतिष्ठा आदि की सिद्धि के लिये गुरु-वरण आदि कृत्यों का प्रतिपादन। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/9 For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुष्ठानपद्धति - श्लोक- 3200। इसमें विष्णु, शिव, नारायण, अन्वय-बोधिनी - भागवत की केवल "वेदस्तुति' पर रचित दुर्गा, सुब्रह्मण्य, गणपति और शास्ता की मन्त्रबिम्ब में पूजाविधि, एक उत्तम तथा विस्तृत टीका । टीकाकार कविचूडामणि चक्रवर्ती मन्दिरशुद्धि, कलशप्रकार, मन्दिर उत्सवविधि, अभिषेक, भूतबलि वृंदावननिकुंज में निवास करते थे। प्रस्तुत टीका तथा टीकाकार आदि का विवरण है। के समय का ठीक पता नहीं चलता किन्तु यह कृति बहुत अनूपविवेक - राजा अनूपसिंग के आदेश पर रामभट्ट हौशिंग पुरानी मानी जाती है। प्रथम संस्करण लक्ष्मी वेंकटेश्वर प्रेस, द्वारा लिखित। श्लोक 25561 विषय- शालग्रामप्रशंसा। मुंबई से तथा द्वितीय संस्करण पंडित पुस्तकालय, काशी से अन्नदाकल्प - श्लोक- 700। पटल 17। विषय- अन्नदा प्रकाशित । इसमें श्रुतिस्तुति एवं मूलश्रुति दोनों की व्याख्या है। की प्रशंसा, उनके मन्त्रग्रहण की विधि, मन्त्रोद्धार, मन्त्र का व्याख्या के मूल आधार, श्रीधर स्वामी की प्रख्यात श्रीधरी पुरश्चरण, साधक के स्नानादि की विधि, आचमन से लेकर टीका में है। यह बात टीकाकार ने स्पष्ट शब्दों में प्रकट की पीठन्यास तक का विवरण। मानसपूजा, पूजा की समाप्ति तक .. है। मूल भागवत के श्लोकों की अन्वयमुखेन व्याख्या होने रहने वाले विशेष अर्घ्य का संस्कार, अन्नदा की पीठपूजा, के साथ ही यह टीका भागवत के आधार-स्थानीय श्रुतिवचनों विशेष मंत्रों से प्रक्षालित कलश का तीर्थजल से पूरण। अठारह का भी विस्तुत अर्थ-निरूपण है। इस कार्य में शंकराचार्यजी वर्ष की स्वीया अथवा परकीया नारी का विशेष मंत्र से के भाष्य से पर्याप्त सहायता ली गई है। (श्रीशंकरपूज्यपादकत अभिषेक कर, उसके साथ पात्र स्थापन। स्थापित पात्र आदि भाष्यानुमतेन श्रुतीनां व्याख्या क्रियते')। फलतः टीका-क्षेत्र पर्याप्त के जल से बटुक आदि तथा अन्नदा का तर्पण कर पर्वादि विस्तृत है। इसके अनुशीलन से द्विविध लाभ संपन्न होता है, भागों में बटुक सिद्धि के लिये बलि प्रदान। आवाहन से भागवत के साथ ही साथ श्रुतियों के भी गंभीरार्थ की प्रतीति लेकर बलिदान तक का विवरण। देवता, गुरु और मंत्रों का होती है। अभेद से जप। नारियल, केले, पके आम आदि द्रव्यों से अन्वितार्थप्रकाशिका - भागवत की आधुनिक टीकाओं में किये गये होमादि से साधना का उपाय। नायिकासाधन रूप इस टीका का माहात्म्य सर्वमान्य है। टीकाकार है पाटण नामक काम्यविधि का प्रतिपादन एवं अन्नदाकवच । स्थान के निवासी गंगासाहाय। इस टीका के उपोद्घात में अन्नपूर्णाकल्पवल्लभ - ले. शिवरामेन्द्र सरस्वती। उन्होंने अपना पूरा परिचय निबद्ध किया है। इसका प्रणयन टीकाकार ने अपनी 60 वर्ष की आयु हो जाने के पश्चात् अन्नपूर्णाकल्पलता - ले.- ब्रजराज।। 1955 विक्रमी (- 1898 ई.) में किया। यह एक यथार्थ अन्यापदेशशतकम् (सुभाषित संग्रह) - (1) ले. पं. टीका है। अन्वयमुखेन सरलार्थ की विवृति, टीका को महत्त्वपूर्ण जगन्नाथ। (2) ले. गीर्वाणेन्द्र। (3) ले. गणपति शास्त्री। बनाती है। सरल सुबोध टीका के सभी गुण इसमें विद्यमान (4) ले. मधुसूदन। (5) ले. नीलकण्ठ। (6) ले. एकनाथ । हैं। गूढ अर्थों को विशद करने के लिये श्रीधरी का सहारा (7) ले. काश्यप। (8) ले. घनश्याम। (9) ले. नीलकण्ठ लिया गया है। भागवत में प्रयुक्त प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी प्रकार दीक्षित। ई. 17 वीं शती। (10) ले. नीलकण्ठ (अय्या) के छंदों का लक्षणपूर्वक निर्देश संभवतः सर्वप्रथम इसी टीका दीक्षित। (11) ले. गीर्वाणेन्द्र दीक्षित। ई. 17 वीं शती। में किया गया है। अन्यापोहविचारकारिका- ले. कल्याणरक्षित । ई. 9 वीं शती। विषय- बौद्धन्याय दर्शन। अपराजितपृच्छा - विषय- शिल्पशास्त्र । गुजरात में प्रकाशित । अन्यायराज्यप्रध्वंसनम् (अंक नामक रूपक)- ले. अपराजितवास्तुशास्त्र - संपादक पी.ए. मनकड। गायकवाड रामानुजाचार्य। ओरिएंटल सिरीज, बडोदा द्वारा प्रकाशित । अन्योक्तिमुक्तावली - कवि- योगी नरहरिनाथ शास्त्री विद्यालंकार । अपराधमार्जनम् (स्तोत्र) - लेखक- गंगाधर शास्त्री मंगरूलकर, शार्दूलविक्रीडित छंद में 225 अन्योक्तियों का संग्रह। अन्योक्ति नागपुर निवासी। के अनेक विषय प्राचीन अन्योक्तियों की अपेक्षा अभिनव हैं। अपशब्दखण्डनम् - लेखक- कणाद तर्कवागीश। दिल्ली के आर्षविद्या शोध केन्द्र द्वारा सन् 1972 में प्रकाशित । अपूर्वालंकार - लेखक- कुन्तकार्य (10-11 शती)। विषययोगी नरहिरनाथ नेपाल के निवासी एवं महान सांस्कृतिक अलंकारशास्त्र। काव्य-विषयक विशिष्ट भूमिका का प्रतिपादन कार्यकर्ता हैं। इस ग्रंथ में किया गया है। अन्योक्तिशतकम् - (1) ले. वीरश्वर भट्ट। (2) ले. अपोहप्रकरणम् - लेखक-धर्मोत्तराचार्य। ई. 9 वीं शती। दर्शनविजयगणी। (3) ले. सोमनाथ। (4) ले. मोहन शर्मा। विषय- बौद्धदर्शन। अन्वयबोधिका - ले- प्रेमचन्द्र तर्कवागीश। नैषधीय काव्य अपोहप्रकरणम् - लेखक- ज्ञानश्री (बौद्धाचार्य) ई. 14 वीं शती। की व्याख्या। अप्रतिम-प्रतिमम् (रूपक) - जग्गु श्री बकुलभूषण (श, 10/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20) विषय- धृतराष्ट्र द्वारा भीम की लोहमूर्ति को विचूर्णित करने की कथा। अकसंख्या दो। अबदुल्लाचरितम् - लेखक- लक्ष्मीपति। अबोधाकर - कवि तंजौर नृपति तुकोजी भोसले का मंत्री, घनश्याम (ई. 18 वीं शती)। तीन अर्थयुक्त इस काव्य में नल, कृष्ण तथा हरिश्चंद्र का चरित्र वर्णित है। स्वयं कवि ने इस पर टीका लिखी है। अब्दुल्ल-मर्दन - लेखक- सहस्त्रबुद्धे, रचना सन 1933 के लगभग । विषय- छत्रपति शिवाजी द्वारा अफजलखान का वध । अब्धियान-मीमांसा - लेखक-काशी शेष वेङ्कटाचलशास्त्री। अब्धियानविमर्शः - लेखक- एन.एस. वेङ्कटकृष्णशास्त्री। अभंगरसवाहिनी - महादेव पांडुरंग ओक । मूल संत तुकाराम कृत अभंगों में से चुने हुये 63 अभंगों का अनुवाद। 1930 में प्रकाशित। 8) अभिज्ञानशाकुन्तलम् - महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक। ___ संक्षिप्त कथा - इस नाटक के प्रथम अंक में राजा दुष्यन्त मृग का पीछा करते हुए कण्वऋषि के आश्रम की सीव में आ जाता है और कण्वऋषि की अनुपस्थिति में आश्रम में प्रवेश कर, सखियों के साथ आश्रम के पौधे को सींचती हुई शंकुतला से मिलता है। द्वितीय अंक में तपस्वियों की प्रार्थना स्वीकार कर दुष्यन्त राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के हेतु आश्रम में ही रहने का निश्चय करता है तथा राजमाता के आवश्यक कार्य के निर्वाह के लिए माधव्य (विदूषक) को हस्तिनापुर भेज देता है। तृतीय अंक में कामपीडिता शकुंतला के द्वारा दुष्यन्त को पत्र लिखने तथा राजा के उसके सामने प्रेमदर्शन की घटना है। चतुर्थ अंक में दुष्यन्त के राजधानी लौट जाने, एवं दुर्वासा द्वारा शकुन्तला को शाप देने की घटना के बाद, कण्वऋषि शकुन्तला के विवाह तथा गर्भवती होने का समाचार जानकर, शंकुन्तला को पतिगृह भेजते हैं। उसके साथ दो ऋषि तथा गौतमी जाती है। पंचम अंक में दुष्यन्त शकुंतला को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करता। मुनिजनों द्वारा धिक्कारने पर रोती हुई शंकुतला को दिव्य ज्योति (मेनका) ले जाती है। षष्ठ अंक में अंगूठी रूपी अभिज्ञान को देखकर राजा शकुन्तला की याद कर व्याकुल होते हैं। बाद में राजा स्वर्ग में इन्द्रसारथि मातलि के साथ देवसहाय के लिए जाते हैं। सप्तम अंक में स्वर्ग से लौटते हुए मरीचि के आश्रम में तपस्विनियों के माध्यम से राजा को अपने पुत्र एवं पत्नी शकुन्तला की प्राप्ति होती है। इस पुनर्मिलन से सभी प्रसन्न होते हैं। अभिज्ञानशाकुन्तल में अर्थोपक्षोंकों की संख्या 12 है। इनमें 2 विष्कम्भक प्रवेशक और १ चूलिकाएं हैं। यह महाकवि कालिदास का सर्वोत्तम नाटक है। इसमें कालिदास ने 7 अंकों में राजा दुष्यंत व शकुंतला के प्रणय, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा का मनोरम चित्रण किया है। 'शंकुतला' की मूल कथा महाभारत और पद्मपुराण में मिलती है। इनमें महाभारत की कथा अधिक प्राचीन है। महाभारत की नीरस कथा को कालिदास ने अपनी प्रतिभा एवं कल्पनाशक्ति से सरस तथा गरिमापूर्ण बना दिया है। कालिदास ने दुर्वासा ऋषि का शाप तथा अंगूठी की बात की कल्पना करते हुऐ दो महत्त्वपूर्ण नवीनताएं जोडी हैं। इससे दुष्यंत कामी, लोलुप, भीरु व स्वार्थी न रहकर शुद्ध उदात्त चरित्र वाला व्यक्ति सिद्ध होता है। इस नाटक का वस्तु-विन्यास मनोरम एवं सुगठित है। कालिदास ने विभिन्न प्रसंगों की योजना इस ढंग से की है, कि अंत तक उनमें सामंजस्य बना रहा है। प्रस्तुत नाटक की विविध घटनाएं मूल कथा के साथ संबद्ध हैं और उनमें स्वाभाविकता बनी हुई है। इसमें एक भी ऐसा प्रसंग या दृश्य नहीं जो अकारण या निष्प्रयोजन हो। नाटक के आरंभिक दृश्य का काव्यात्मक महत्त्व अधिक है। चरित्र-चित्रण की दृष्टि से 'अभिज्ञान शंकुतल' उच्च कोटी का नाटक है। कालिदास ने महाभारत के नीरस व अस्वाभाविक चरित्रों को अपनी प्रतिभा तथा कल्पना से उदात्त एवं स्वाभाविक बनाया है। इनके चरित्र आदर्श एवं उदात्तता से यक्त है. किंत उनमें मानवोचित दुर्बलताएं भी दिखाई गई हैं। इससे वे काल्पनिक लोक के प्राणी न होकर इसी भूतल के जीव बने रहते हैं। राजा दुष्यंत इस नाटक का धीरोदात्त नायक है। इसके चरित्रचित्रण में कालिदास ने अत्यंत सावधानी व सतर्कता से काम लिया है। शंकुतला इस नाटक की नायिका है। महाकवि ने उसके शील-निरूपण में अपनी समस्त प्रतिभा एवं शक्ति को लगा दिया है, यदि शंकुतला के व्यक्तित्व का प्रणय ही यथार्थ बनकर रह गया होता, तो कालिदास भारतीयता के प्रतीक न बन पाते। शंकुतला का व्यक्तिमत्व इस नाटक में आदर्श भारतीय रमणी का है। अन्य पात्र भी सजीव एवं निजी वैशिष्ट्य से पूर्ण चित्रित हुए हैं। रस-व्यंजना की दृष्टि से भी इस नाटक का महत्त्व अधिक है। इसका अंगी रस श्रृंगार है जिसमें उसके दोनों रूपों-संयोग व वियोग-का सुंदर परिपाक हुआ है। हास्य, अद्भुत, करुण, भयानक एवं वात्सल्य रस की भी मोहक उर्मियां इस नाटक में कहीं-कहीं सजी हैं। अभिज्ञान शाकुंतल की भाषा प्रवाहमयी,प्रसादपूर्ण, परिष्कृत, परिमार्जित एवं सरस है। इसमें मुख्यतः वैदर्भी रीति का प्रयोग किया गया है। शैली में दीर्घसमस्त पदों का अधिक्य नहीं है। कालिदास ने अनेक स्थानों पर अल्प शब्दों में गंभीर भावों को भरने का सफल प्रयास किया है और पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत नाटक को व्यावहारिक बना दिया है। इसमें संस्कृत के अतिरिक्त सर्वत्र शौरसेनी प्राकृत संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/11 For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रयुक्त हुई है। छंद विधान में भी शब्दावली की सुकुमारता एवं मृदुलता दिखाई पड़ती है। कालिदास ने प्रकृति की मनोरम रंगभूमि में इस नाटक के कथानक का चित्रण किया है। यह नाटक अपनी रोचकता, अभिनेयता, काव्यकौशल, रचना-चातुर्य एवं सर्वप्रियता के कारण, संस्कृत के सभी नाटकों में उत्तम माना जाता है। अभिज्ञानशाकुंतल के टीकाकार :(1) राघव, (2) काटययवेम, (3) श्रीनिवास, (4) घनश्याम, (5) अभिराम, (6) कृष्णनाथ पंचानन, (7) चन्द्रशेखर, (8) डमरुवल्लभ, (9) प्राकृताचार्य, (10) नारायण, (11) रामभद्र (12) शंकर, (13) प्रेमचंद्र, (14) डी.व्ही. पन्त (15) विद्यासागर, (16) वेंकटाचार्य (17) श्रीकृष्णनाथ, (18) बालगोविन्द, (19) दक्षिणावर्तनाथ, (20) रामवर्मा, (21) रामपिशरोती, (22) म.म. नारायणशास्त्री खिस्ते इत्यादि । अभिज्ञान शाकुंतल के अनुवाद संसार की सभी प्रमुख भाषाओं अभिधर्म-कोश - बौद्ध-दर्शन के अंतर्गत वैभाषिक मत के मूर्धन्य आचार्य वसुबंधु इस ग्रंथ के प्रणेता हैं। वसुबंधु की यह प्रसिद्ध कृति, वैभाषिक मत का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है। इसमें सात सौ कारिकाएं हैं। यह ग्रंथ 8 परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें विवेचित विषय हैं- (1) धातुनिर्देश, (2) इंद्रियनिर्देश, (3) लोकधातु निर्देश, (4) कर्मनिर्देश, (5) अनुशय निर्देश, (6) आर्यपुद्गल (7) ज्ञाननिर्देश और (8) ध्याननिर्देश। यह विभाजन अध्यायानुसार है। डॉ. पुर्से ने मूल ग्रंथ के साथ इसका चीनी अनुवाद, फ्रेंच भाषा की टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है। हिंदी अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हिंदुस्तानी अकादमी से हो चुका है। अनुवाद व संपादन आचार्य नरेंद्रदेव ने किया है। इस प्रसिद्ध ग्रंथ पर अनेक टीकाएं लिखी गईं। जैसे- स्थिरमति कृत भाष्य टीका (तत्त्वार्थ) दिङ्नागकृत मर्मप्रदीपवृत्ति, यशोमित्रकृत स्फुटार्थी, पुण्यवर्मन् कृत लक्षणानुसारिणी, शान्तस्थविरदेवकृत औपायिकी तथा वसुमित्र और गुणमति की दो टीकाएं। स्वयं लेखक ने अभिधर्मकोशभाष्य की रचना की है जिसकी हस्तलिखित प्रति राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत से प्राप्त की थी। यह ग्रंथ अभिधर्म के सर्वतत्त्वों का संक्षेप में समीक्षण है। वैभाषिकों का सर्वस्व और सर्वास्तिवादियों का आधारभूत है। समस्त बौद्ध सम्प्रदायों के लिये भी प्रमाणभूत ग्रंथ है। चीन, जपान में यह विशेष आदृत था। परमार्थकृत चीनी अनुवाद ई. 563-567, में तथा व्हेनसांग का ई. 651-653 में हुआ, इससे खण्डनमण्डन परम्परा प्रचलित हुई। सुस्पष्ट व्याख्या के अभाव में यह रचना जटिल तथा रहस्यपूर्ण ही रह जाती। अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति - स्थिरमति । वसुबन्धुकृत अभिधर्मकोश पर टीका। इसका तिब्बती अनुवाद सुरक्षित है। अभिधर्मन्यायानुसार - (अन्य नाम कोशकरका) लेखक- संघभद्र। सवा लाख श्लोकों का बृहत् ग्रंथ। 8 प्रकरण । अभिधर्मकोश का पूर्ण खण्डन, मूल कारिकाओं से सहमत किन्तु लेखक स्वयं सौत्रान्तिक मत के होने के कारण, उसे गद्य वृत्ति अमान्य। वैभाषिक मत की कटु आलोचना की है। व्हेनसांग ने इस का चीनी अनुवाद किया था। अभिधर्मसमयदीपिका - ले. संधभद्र। पृष्ठसंख्या 749, १ प्रकरण। चीनी अनुवादकर्ता व्हेनसांग। यह ग्रंथ दुरूह तथा खण्डनात्मक है। अभिधान-तंत्र - ले. जटाधर (ई. 15 वीं शती) अमरकोश की कारिकाओं का पुनर्लेखन मात्र । अभिधानरत्नमाला - ले. हलायुध। ई. 8 वीं शती। यह एक शब्दकोश है। अभिधावृत्तिमातृका - काव्यशास्त्र का लघु किंतु प्रौढ ग्रंथ । प्रणेता- मुकुल भट्ट। समय- ई. 9 वीं शती। इस ग्रंथ में अभिधा को ही एकमात्र शक्ति मान कर उसमें लक्षणा व व्यंजना का अंतर्भाव किया गया है। इसमें केवल 15 कारिकायें हैं जिन पर लेखक ने स्वयं वृत्ति लिखी है। मुकुल भट्ट व्यंजना-विरोधी आचार्य हैं। अभिधा के 10 प्रकारों की कल्पना करते हुए उसमें लक्षणा के 6 भेदों का समावेश किया है। अभिधा के जात्यादि 4 प्रकार के अर्थबोधक 4 भेद किये हैं और लक्षणा के 6 भेदों को अभिधा में ही गतार्थ कर, उसकें 10 भेद माने हैं। व्यंजना-शक्ति की इन्होंने स्वतंत्र सत्ता स्वीकार न कर, उसके सभी भेदों का अंतर्भाव लक्षणा में ही किया है। इस प्रकार मुकुल भट्ट ने एकमात्र अभिधा का ही शब्द-शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य मम्मट ने "अभिधावृत्तिमातृका"के आधार पर "शब्दव्यापारविचार" नामक ग्रंथ का प्रणयन किया था। अभिनवकथानिकुंज - संस्कृत साहित्य में नवीन कथाओं का संकलन करने के उद्देश्य से हिंदू विश्वविद्यालय के प्रवक्ता पं. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ने यह संपादन कार्य किया है। इस संग्रह में संस्कृत के मूर्धन्य विद्वानों से प्राप्त 27 कथाओं का संकलन किया है। संस्कृत साहित्य में यह अभिनव प्रयास है। कथाओं के विषय एवं शैली आधुनिक हैं। भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित। अभिनव-कादम्बरी - (त्रिमूर्तिकल्याणम्) (1) लेखकअहोबिल नरसिंह। विषय- मैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र। बाणभट्ट को नीचा दिखाने की प्रतिज्ञा से लिखित ग्रंथ। लेखक का प्रयास सर्वथा असफल रहा है। (2) ढुंढिराज व्यास। ई. 18 वीं शती। अभिनव-तालमंजरी - (1) जीवरामोपाध्याय। विषयसंगीतशास्त्र । (2) अप्पातुलसी या काशीनाथ । समय- ई. 1914 । अभिनय-दर्पण - नृत्यकला विषयक एक उत्कृष्ट ग्रंथ । प्रणेतानंदिकेश्वर । 'अभिनयदर्पण' में 324 श्लोक हैं। इसमें नाट्यशास्त्र 12 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की परंपरा व अभिनय-विधि का वर्णन तथा अभिनय के 3 भेद बताये गए है- नाट्य, नृत्त व नृत्य, और तीनों के प्रयोग-काल का भी इसमें निर्देश है। इसमें नाट्य के 6 तत्त्व कहे गए हैं- नृत्य, गीत अभिनय, भाव, रस व ताल। इसमें अभिनय के 4 प्रकार बताये गये हैं- आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्त्विक। इसमें मुख्य रूप से 16 प्रकार के अभिनय व उनके भेदों का वर्णन है और अभिनय-काल व 13 हस्त-मुद्राओं का उल्लेख है। हस्त-गति की भांति इसमें पाद-गति का भी वर्णन है और उसके भी 13 प्रकार बताये गये हैं। शास्त्र एवं लोक दोनों के ही विचार से प्रस्तुत ग्रंथ एक उत्कृष्ट कृति है। भरतनाट्य शास्त्र के पूर्व लिखित यह एक उत्तम ग्रंथ है। इसका अंग्रेजी अनुवाद डॉ. मनमोहन घोष ने। तथा हिंदी अनुवाद श्रीवाचस्पति गेरौला ने किया है। अभिनवभारतम्ः - नरसय्या मंत्री। अभिनव-रागमंजरी - 1) ले. जीवरामोपाध्याय। (2) ले.विष्णु नारायणभातखंडे। अभिनव-राघवम् (नाटक) - ले. सुन्दरवीर रघूद्वह। ई. 19 वीं शती का प्रथम चरण। हस्तलिखित प्रति सागर वि.वि. के पुस्तकालय में प्राप्य। इसका प्रथम अभिनय रंगनगरी में रंगनाथ देवालय के प्रांगण में चैत्रयात्रा महोत्सव के अवसर पर हुआ। अंकसंख्या आठ। प्रमुख रस शृंगार। हास्य रस गौण। माया-पात्रों की बहुलता। सारण, दारण, चण्डोदरी, कुण्डोदरी, लवणासुर, शूर्पणखा, अयोमुखी, पद्मावती इत्यादि अनेक पात्र वेष बदलकर प्रस्तुत होते हैं। नायक को तिरोहित रखकर अन्य पात्रों के संवाद का प्रमाण अधिक है। नाटक पठनीय है किन्तु प्रयोगक्षम नहीं। रामायण के मूल कथानक में अधिक परिवर्तन हआ है। काल्पनिक प्रसंगों की भरमार है। मायापात्रों की प्रचुरता के कारण कथानक में जटिलता प्रतीत होती है। अभिनव-राघवम् - ले. क्षीरस्वामी। अमरकोश-टीका क्षीरतरंगिणी के लेखक क्षीरस्वामी ही इसके लेखक हैं या नहीं यह विवाद्य विषय है। अभिनव-रामायण-चम्पू - ले. लक्ष्मणदान्त । अभिनव-लक्ष्मी-सहस्रनाम (स्तोत्रम्)- ले. व्ही. रामानुजाचार्य। अभिनव-शारीरस् - पं. दामोदर शर्मा गौड । वाराणसीनिवासी। बैद्यनाथ आयुर्वेद प्रतिष्ठान का प्रकाशन। (ई. 1975)। अभिप्राय-प्रकाशिका- चित्सुखाचार्य। ई. 13 वीं शती। अभिराममणि - ले. सुन्दर मिश्र। रचनाकाल 1599 ई.। सात अंकों के इस नाटक में राम की कथा वर्णित है। प्रथम अभिनय जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम विष्णु के महोत्सव के अवसर पर हुआ था। अभिलषितार्थचिंतामणि - 12 वीं शताब्दी में निर्माण हुआ यह एक ज्ञानकोश है। इसका दूसरा नाम है मानसोल्लास । विश्व का यह प्रथम ज्ञानकोश है। वस्त्राभोग, पुत्रोपभोग, अन्नभोग, आलेख्यकर्म, नृपगेह, आस्थाभोग, राष्ट्रपालन आदि विषय इसमें हैं। विक्रमांक देव के पुत्र सोमेश्वर ने 1126 में सिंहासनाधिष्ठित होने के पश्चात् विद्वानों के सहयोग से इसकी रचना की। अभिषेकनाटकम् - ले. महाकवि भास। :- रामकथा पर आधारित इस नाटक के प्रथम अंक में सुग्रीव और बालि का युद्ध है। राम छिप कर बालि को मारते हैं। सुग्रीव के राज्याभिषेक की सिद्धता होती है। द्वितीय अंक में अशोक वाटिका में सीता और हनुमान का संवाद है। हनुमान सीता को आश्वस्त कर त्रिकूट वन में जाता है। तृतीय अंक में अक्षकुमार का वध करने पर हनुमान की पूंछ को रावण की आज्ञा से आग लगा दी जाती है। बिभीषण भी रावण से अपमानित होने पर राम की शरण में जाता है। चतुर्थ अंक में शरणागत बिभीषण को राम आश्रय देते हैं। राम समुद्र पार कर सुवेल पर्वत पर शिबिर बनाकर रावण के पास युद्ध का संदेश भेज देते हैं। पंचम अंक में युद्ध में कुम्भकर्ण का वध होता है। रावण, राम और लक्ष्मण के शिरों की मायावी प्रतिकृतियों से सीता को आत्मसमर्पण करने का बाध्य करता है, इंद्रजित् के मारे जाने के समाचार से कुद्ध होकर रावण युद्ध भूमि पर जाता है। षष्ठ अंक में रावण वध के उपरान्त बिभीषण का राज्याभिषेक और सीता की अग्निदेव द्वारा शुद्धता सिद्ध करने पर राम का राज्याभिषेक। इस नाटक में अर्थोपक्षेपकों की कुल संख्या 12 है जिनमें 4 विष्कम्भक 7 चूलिकाएं तथा 6 अंकास्य हैं। इस नाटक में सुग्रीव, बिभीषण और श्रीराम के अभिषेकों का वर्णन है। अंतिम अभिषेक श्रीराम का है और वही नाटक का फल भी है। रामायण की कथा को सजाने एवं संवारने में कवि ने अपनी मौलिकता व कौशल्य का परिचय दिया है। बालि-वध को न्याय्यरूप देने तथा समद्र द्वारा मार्ग देने के वर्णन में नवीनता है। इसी प्रकार जटायु से समाचार जानकर हनुमान द्वारा समुद्रमंतरण करने तथा राम-रावण के युद्ध वर्णन में भी नवीनता प्रदर्शित की गई है। पात्रों के कथोपकथन छोटे एवं सरल वाक्यों में हैं जो प्रभावशाली हैं। इस नाटक में वीररस की प्रधानता है पर यत्र-तत्र करुण रस भी अनुस्यूत है। अभिषेकपद्धति - श्लोक 1701 विषयः मालासंस्कार, कवचसंस्कार, शाक्ताभिषेक और पूर्णाभिषेक की विधि इत्यादि । अभिसमयालंकार-कारिका - अन्य नाम अभिसमयालंकार और प्रज्ञापारमितोपदेश शास्त्र है। लेखक- मैत्रेयनाथ । विषयप्रज्ञापारिमिता का वर्णन, अर्थात् तथागत को जिस मार्ग से निर्वाण की प्राप्ति हुई, उसका विवेचन। सात परिच्छेद तथा संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/13 For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 70 विषयों का विशद वर्णन इस ग्रंथ में है। इस पर संस्कृत तथा तिब्बती भाषाओं में 21 टीकाएं उपलब्ध हैं। इसकी कारिकाएं अत्यंत संक्षिप्त होने से ग्रंथ अधिक दुरूह तथा जटिल हुआ है। अभेदकारिका (अभेदार्थकारिका) - ले. सिद्धनाथ। विषयकाश्मीरी शैव मत। अभेदानन्द - ले. डॉ. रमा चौधुरी, कलकत्ता निवासिनी। विषय- रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य स्वामी अभेदानन्द का चरित्र । यह चरित्र प्रस्तुत रूपक में 12 दृश्यों में वर्णित किया है। अमनस्क-योगशास्त्र - ईश्वर-वामदेव संवाद रूप। इसकी एक प्रति स्वयंबोध के नाम से अभिहित है, जो शिवरहस्य का एक भाग कहा गया है। इसके कुल दो अध्यायों में लययोग और तत्त्वज्ञान का निरूपण है। अमर-कामधेनु - ले. सुभूतिचन्द्र (ई. 12 वीं शती) अमरसिंह के नामलिंगानुशासन पर टीका। सतीशचन्द्र विद्याभूषण द्वारा इसका तिब्बती अनुवाद अंशतः प्रकाशित हुआ है। अमरकोश - अमरसिंह द्वारा ई. 11 वीं शती में रचित । अत्यंत लोकप्रिय संस्कृत शब्दकोश। रचना मूलतः अनुष्टुभ् छंद में तीन कांडों में है शब्दसंख्या दस हजार। इसे त्रिकांड कोश एवं नाम-लिंगानुशासन भी कहते हैं। प्रत्येक कांड का विभाजन विषयानुसार वर्गों में किया है। कुल वर्गसंख्या 24 है। भारत के अर्थमंत्री चिंतामणराव देशमुख द्वारा लिखित इसका अंग्रेजी भाष्य सन् 1981 में प्रकाशित हुआ। अमरकोशपरिशिष्टमः - ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। अमरकोशोद्घाटनम् - ले. क्षीरस्वाती। ई. 12 वीं शती। पिता- ईश्वरस्वामी। यह अमरकोश की व्याख्या है। अमर-टीका - ले. गोपाल चक्रवर्ती। (ई. 17 वीं शती)। अमरटीका - ले. भट्टोजी दीक्षित । पाण्डुलिपि मद्रास से सुरक्षित। अमरनाथपटलम् - भृङगीशसंहिता के अन्तर्गत । इसमें अमरनाथ की तीर्थयात्रा का माहात्म्य वर्णित है। पटल संख्या- 111 अमरभारती - सन् 1910 में त्रिवेन्द्रम से कुट्टयोटि आर्य शर्मा के सम्पादकत्व में इस पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ । हुआ। अर्थाभाव के कारण यह अधिक समय तक प्रकाशित नहीं हो सकी। अमरभारती - सन 1934 में शासकीय संस्कृत कॉलेज बनारस की मुख्य पत्रिका के रूप में महामहोपाध्याय नारायणशास्त्री के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। यह पत्रिका तीन वर्षों तक ही निकल पायी। ‘पद्यवाणी' पत्रिका के अनुसार इसमें संस्कृत साहित्य, दर्शन आदि विषयों पर गंभीर निबंधों का प्रकाशन हुआ करता था। अमरभारती - सन् 1944 में संस्कृत विद्यामंदिर,बासफाटक काशी से पं. कालीप्रसाद शास्त्री के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ जो लगभग एक वर्ष बाद बंद हो गया। संस्कत को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का प्रबल समर्थन इस पत्रिका ने किया। इसमें प्रख्यात विद्वानों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। अमरमंगलम् - तर्कपंचानन भट्टाचार्य (जन्म- 1866) वाराणसी से सन् 1937 में प्रकाशित इस नाटक का प्रथम अभिनय भट्टपल्ली (भाटपाडा) में महासारस्वत उत्सव के अवसर पर हुआ। अंकसंख्या आठ। कर्नल टॉड लिखित "एनल्स ऑफ राजस्थान" पर आधारित। लोकोक्तियों का सुचारुप्रयोग, भाषा नाट्योचित, एवं रसप्रवण गीतों का समावेश और लम्बे संवाद तथा एकोक्तियां इस नाटक की विशेषताएं हैं। कथासार :राजसिंह राठौर अपनी पुत्री वीरा का विवाह यवनराज से कराना चाहता है, परन्तु महारानी रक्षकों के साथ उसे मेवाड भेजती है। मेवाड के युवराज अमरसिंह उस पर लुब्ध है। मानसिंह अमर के विनाश हेतु षड्यन्त्र रचता है। झालापति का पुत्र पानी में डूब मरा था। परन्तु ज्योतिषी ने बताया की वह जीवित है। इसका लाभ उठा कर मानसिंह अपने गुप्तचर दुर्जनसिंह को झालापति का खोया पुत्र समरसिंह बतला कर, अमरसिंह से उसकी मित्रता करता है। वह एक वेश्या को क्षत्रिय कन्या के रूप में अमरसिंह के पास भेजता है, और उसे चित्तोड की रक्षा सौंप कर अमरसिंह का अन्त कराना चाहता है। यदि वह मरता नहीं तो विलासप्रवण बने, यही उसकी चाल है। परन्तु अमरसिंह के सम्पर्क में उस वेश्या का ही हृदय-परिवर्तन होता है। अमर की प्रतिज्ञा है कि चित्तोड जीते बिना वह विवाह नहीं करेगा परन्तु अन्य सामन्त सहमत नहीं होते। मानसिंह की प्रतिज्ञा है कि अमरसिंह को मुगलराज के कदमों में झुकाकर ही दम लेगा। अमरसिंह भीलों की सेना इकठ्ठा करता है, समरसिंह की पोल खुलती है। तब सामन्त भी उसका साथ देते हैं और मेवाड की विजय होती है। अमरसिंह का राज्याभिषेक होता है और वीरा के साथ विवाह भी। अमरमार्कण्डेयम् - ले. शंकरलाल । रचनाकाल लगभग 1915 ई। प्रथम अभिनय राजराजेश्वर मन्दिर में, शिवरात्रि महोत्सव में। अंकसंख्या- पांच। सन 1933 में लेखक के पुत्र द्वारा प्रकाशित। काशी के विश्वनाथ पुस्तकालय में प्राप्य। प्राकृत का प्रयोग नहीं। गद्योचित स्थलों पर भी पद्यों का प्रयोग। अनुप्रास की प्रचुरता। छाया तत्त्व की अतिशयता। करुणा, भय मनस्ताप आदि भावनाएं तथा राजयक्ष्मा, ज्वर आदि रोग पात्रों के रूप में। पात्रों में देवता, देवर्षि महिषारूढ यम आदि इस नाटक की विशेषएं हैं। कथासार :- मुनि मृकण्ड तथा उनकी पत्नी विशालाक्षी संतानहीनता के कारण दुखी है। वे 14 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड : For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra . www.kobatirth.org पुत्रप्राप्ति हेतु तप करते हैं। उनके भाग्य में पुत्रसुख नहीं है, परन्तु पार्वती के अनुरोध पर शिव उन्हें अल्पायु सर्वज्ञ पुत्र पाने का वर देते हैं। मुनि उपमन्यु, मार्कण्डेय को मृत्युंजय मन्त्र जपने का उपदेश देते हैं। माता-पिता भी पुत्र की दीर्घायु हेतु आराधना करते हैं। एक दिन विशालाक्षी देखती है यमदूत मार्कण्डेय की और जा रहे हैं परन्तु वे परास्त होते हैं। फिर साक्षात् यमराज महिषारूढ होकर हमला करते हैं परंतु जप में लीन मार्कण्डेय को बचाने साक्षात् शिव उससे लडते हैं और यम मूर्च्छित होते हैं। अन्त में मार्कण्डेय की प्रार्थना से ही यम सचेत होते हैं और मार्कण्डेय अमर बनते हैं। अमरमाला ले. अमरदत्त (दसवीं शती के पूर्व) क्षीर, हलायुध सर्वानन्द आदि के उद्धरणों द्वारा ही यह ग्रंथ ज्ञात है। अमरमीरम् (नाटक) ले यतीन्द्रविमल चौधुरी प्राच्यवाणी । मंदिर, कलकत्ता से प्रकाशित अंक संख्या बारह । संत मीराबाई के विवाहोत्तर जीवन का कथानक इसमें वर्णित है। अमरशुक्तिसुधाकर मूल फारसी काव्य उमरखय्याम की रूबाइयां के फिट्जेराल्डकृत अंग्रेजी अनुवाद से प्रथम संस्कृत रूपान्तर । कर्ता झालवाड संस्थान के राजगुरु पं. गिरिधर शर्मा । वृत्त पृथ्वी । ई. 1929 में प्रकाशित । 1 - अमर्ष महिमा (रूपक) ले. के. तिरुवेंकटाचार्य 'अमरवाणी' (मैसूर) से सन् 1951 में प्रकाशित। दृश्यसंख्या- पांच । कथासार - भोजन स्वादहीन बनने से रामचंद्र बिना खाये पत्नी से कूद्ध होकर कार्यालय जाता है वहां सहायक चन्द्रशेखर पर क्रोध करता है। चन्द्रशेखर घर आकर पत्नी पर क्रोध उतारता है और वह नौकरानी पर आग बरसती है। अमरुशतकम् ले. राजा अमरुक । श्लोकसंख्या- 1001 शृंगाररस प्रधान मुक्तक काव्य । किंवदन्ती है कि राजा अमरु का देहान्त हुआ। उसी समय विधिवश शंकराचार्य अपने शिष्यों सहित वहां पहुंचे। उन्हें शारदाम्बा के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना था। इसलिये आचार्य परकाया प्रवेश की सिद्धि से अमरु राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर गए। राजा अमरु के जीवित हो उठने पर प्रधान तथा सारी प्रजा बडी प्रसन्न हो उठी। सीमित काल तक अमरु राजा के देह में कामशास्त्र के भिन्न भिन्न अनुभव प्राप्त करते हुए शंकराचार्य ने प्रस्तुत "अमरुशतक" नामक शृंगारिक खण्ड काव्य की रचना की । इस प्रकार शृंगार का अनुभवज्ञान प्राप्त कर आचार्य ने अपने निजी शरीर में प्रवेश किया और मंडनमिश्र की पत्नी शारदाम्बा को विवाद में हराया। यह शतक, हस्तलेखों में, विभिन्न दशाओं में प्राप्त हुआ जिनमें श्लोकों की संख्या 100 से 115 तक मिलती थी। इसके 51 श्लोक ऐसे हैं जो समान रूप से सभी प्रतियों में प्राप्त होते हैं, किंतु उनके क्रम में अंतर दिखाई पड़ता है । कतिपय विद्वानों ने केवल शार्दूलविक्रीडित छंद वाले श्लोकों को अमरुक की मूल रचना मानने का विचार व्यक्त किया है, किंतु तदनुसार केवल 61 ही पद्य रहते है, और शतक पूरा नहीं हो पाता। कुछ विद्वान "अमरुक शतक" के प्राचीनतम टीकाकार अर्जुनवर्मदेव (ई. 13 श.) के स्वीकृत श्लोकों को ही प्रामाणिक मानने के पक्ष में हैं। ध्वन्यालोकाकार आनंदवर्धन (ई. 10 श.) ने अत्यंत आदर के साथ "अमरुकशतक" के मुक्तकों की प्रशंसा कर उन्हें अपने ग्रंथ में स्थान दिया है। इनसे पूर्व वामन (ई. 10 श.) ने भी अमरूक के 3 श्लोकों को बिना नाम दिये ही उदधृत किया है। अर्जुनवर्मदेव ने अपनी टीका "रसिकसंजीवनी” में इस "शतक" के पद्यों का पर्याप्त सौंदर्योद्घाटन किया है। इसके अतिरिक्त वेमभूपाल रचित "शृंगारदीपिका" नामक टीका भी अच्छी है। "अमरुकशतक" की भाषा अभ्यासजन्य श्रम के कारण अधिक परिष्कृत एवं कलाकारिता और नकाशी से पूर्ण है। पद-पद सांगीतिक सौंदर्य एवं भाषा की प्रौढी के दर्शन इस " शतक" के श्लोकों में होते हैं, जिनमें ध्वनि एवं नाद का समन्वय परिदर्शित होता है। अमरुशतक के टीकाकार (1) अर्जुनवर्मदेव (2) कोकसम्भव, (3) शेष रामकृष्ण, (4) चतुर्भुज मिश्र, (5) नन्दलाल, (6) रूद्रदेव, (7) रविचन्द्र, ( 8 ) रामरूद्र, ( 9 ) वेमभूपाल, (10) सूर्यदास, (11) शंकराचार्य, (12) वेंकटवरद, (13) हरिहरभट्ट (14) देवशंकरभट्ट (15) गोष्ठीपुरेन्द्र, (16) ज्ञानानन्य कलाधर सेन और गंगाधर कविराज (15 वीं शती) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - अमूल्यमाल्यम् ले. जग्गू श्रीबकुल भूषण । सन 1948 में प्रकाशित। अंकसंख्या- दो। चटपटे संवाद, मधुर गीत, नृत्य का समावेश । कृष्ण की बाललीलाओं की झांकी इत्यादि इसकी विशेषता है। कथासार वनमाला नामक गोपी का नवनीत कृष्ण चुराता है । वह कृष्ण को ढूंढने निकलती है, तो दधिभाण्ड गोप छुपा लेता है। बाद में किसी जामुनवाली को किसी कन्या से स्वर्णकंकण दिलवा कर जामुन बिकवाता है। घर जाने पर वे जामुन स्वर्ण के हो जाते हैं। दधिभाण्ड को चतुर्भुज कृष्ण का दर्शन मिलता है और वह मोक्ष पाता है । द्वितीय अंक में कृष्ण मथुरा जाते हैं। वहां कुब्जा से प्रसाधन ग्रहण कर उसे सुंदरी बनाते हैं। एक कृष्णभक्त मालाकार से कृष्ण वेष बदलकर पुष्पमाला खरीदने जाते हैं, परंतु वह नकारता है कि यह माला भगवान् के लिए है । उसे भी कृष्ण चतुर्भुज रूप दिखा कर मुक्त करते हैं। अमोघराघवयंपू ले. दिवाकर। पिता-विश्वेश्वर । रचनाकाल 1299 ई. । इस चंपू का विवरण त्रिवेंद्रम केटलाग में प्राप्त होता है। इसकी रचना "वाल्मीकि रामायण" के आधार पर हुई है। - - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 15 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघा - पाल्यकीर्तिकृत शाकटायन-व्याकरण की वृत्ति ।। पाल्यकीर्ति का अपर नाम था शाकटायन । अमृततरंग - ले. क्षेमेन्द्र । ई. 11 वीं शती। पिता प्रकाशेन्द्र। अमृततरंगिणी (अथवा कर्मयोगामृत-तरंगिणी) - ले.. क्षीरस्वामी। ई. 11-12 वीं शती। पिता-ईश्वरस्वामी। विषय - व्याकरण शास्त्र। अमृततरंगिणी - ले. पुरुषोत्तमजी। भगवद्गीता की पुष्टिमार्गीय टीका। अमृतभारती - कोचीन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका । प्रकाशन बंद है। अमृतमन्थनम् (नाटक) - ले. वेंकटाचार्य। ई. 12 वीं शती का उत्तरार्थ। अंकसंख्या- पांच। विषय-अमृत मन्थन की पौराणिक कथा। अमृतलहरी - ले. पण्डितराज जगन्नाथ। ई. 16-17 वीं शती। यमुना नदी का स्तोत्र। अमृतवाणी - (1) सन 1942 में बंगलोर से एम्.रामकृष्ण भट्ट के सम्पादकत्व में सेंट जोसेफ कॉलेज की संस्कृत सभा की ओर से इस वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह साहित्यिक पत्रिका लगभग 13 वर्षों तक प्रकाशित हुई, जिसमें अर्वाचीन संस्कृत साहित्य प्रकाशित हुआ। 100 पृष्ठों वाली यह वार्षिक पत्रिका दक्षिण भारत में विशेष लोकप्रिय रही। इसमें अनेकविध महत्त्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हुई। (2) कोचीन से 1913 से प्रकाशित पत्रिका । अमृतशर्मिष्ठम् - ले. विश्वनाथ सत्यनारायण। ई. 20 वीं शती। अंकसंख्या- नौ। चटुल संवाद । एकोक्तियों की प्रचुरता। शर्मिष्ठा के महाभारतोक्त कथानक में पर्याप्त परिवर्तन लेखक ने किया है। कथासार - ययाति के प्रेम में शर्मिष्ठा मरणासन्न है। मंत्री वैशम्पायन रोगपरीक्षा करने आता है। उसे शर्मिष्ठा पूर्वजन्म का वृत्तान्त बताती है और आगामी पूर्णिमा को चन्द्रमा में मिल जाने की बात कहती है। वैशम्पायन चन्द्रवंशी राजा ययाति से उसे मिलाता है। अमृतसन्देश - सन 1938 से विजयवाडा से तिरुमलै श्रीनिवासी त्रिलिंग महाविद्यालय पीठ की ओर से सी.बी.रेड्डी के सम्पादन में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका में संस्कृत और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में लेख प्रकाशित होते थे। अमृतसिद्धि - प्रक्रियाकौमुदी की टीका। लेखक वारणवनेश। तंजौर में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है। अमृतेशतन्त्रम् - नामान्तर-मृत्युजिदमृतेशविधान। विषय- इसमें तन्त्रावताराधिकार, मन्त्रोद्धारविधि, यजनाधिकार, दीक्षाधिकार, अभिषेक-साधनधिकार, स्थूलाधिकार, सूक्ष्माधिकार, कालवंचन, सदाशिवाधिकार, दक्षिणचक्राधिकार, उत्तरतन्त्राधिकार, कुलाम्नायाधिकार, सर्वविद्याधिकार, सर्वाधिकार, व्याप्त्याधिकार, पंचाधिकार, वश्याकर्षणाधिकार, राजरक्षाधिकार जीवाकर्षणाद्यधिकार, मन्त्रविचार, मन्त्रमाहात्य आदि विषय 24 पटलों में वर्णित हैं। यह अमृतेश और भैरव मृत्युजित् को एक ही देव के पर और अपर स्वरूप के रूप में प्रतिपादन करता है। समय-ई. 9 वीं शती।। अमृतोदय - यह पत्रिका बंगलोर में अल्पकाल तक प्रकाशित हुई। अमृतोदयम् - रचयिता- गोकुलनाथ मैथिल (17 वीं शती) प्रतीक नाटक। प्रधान रस- शान्त । कथासार - श्रुति की कन्या प्रमिति को सुगतागम के अनृत आदि सैनिक आहूत करते हैं। आन्वीक्षिकी तर्क के साथ श्रुति की रक्षा में कटिबद्ध है। प्रमिति की रक्षा के लिए उसे पुरुष के पास पहुंचाया जाता है। यहां परामर्श और पक्षता का विवाह होता है। उन दोनों की रक्षा के लिए उदयन चार्वाक के साथ युद्धरत है। चार्वाक और सोमसिद्धान्त मारे जाते हैं। पुरुषोत्तम के वियोग में व्याकुल पुरुष का विलाप सुनकर पतंजलि उसे सिद्धि देते हैं। तब वह स्वयं को पुरुषोत्तम में विलीन करना चाहता है। जीवन्मुक्त की स्थिति में कर्म-मोह नष्ट होने पर अपवर्ग क्षेत्रज्ञ नगर का अधिपति बनता है। बुद्धमत, जैनमत, पाशुपत, वैष्णवमत आदि सब विवाद में आन्वीक्षिकी से परास्त होते हैं और अपवर्ग का अभिनन्दन ब्रह्मविद्या, सांख्ययोग, मीमांसा आदि के द्वारा होता है। दार्शनिक विषय पर यह उत्तम ललित रचना है। अयननिर्णय - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता-रामेश्वरभट्ट। विषय- ज्योतिषशास्त्र । अयनसुन्दर - ले. पद्मसुन्दर। विषय- ज्योतिषशास्त्र । अयोध्याकाण्डम् - (एकांकिका) ले.- महालिंग शास्त्री (जन्म 1897)। पारिवारिक विषमता का प्रहसनात्मक चित्रण। नायक-चारुचन्द्र। नायिका- चारुमती। सास शतदा। ननंद-संदीपनी। ससुर- शर्वरीश। सास-ननद द्वारा सतायी गयी चारुमती फांसी लगाना चाहती है, परंतु पति तथा ससुर द्वारा बचायी जाती है। ससुर निर्णय देते हैं कि बहू अपने पति के साथ अलग गृहस्थी बसाये। अयोध्यामाहात्म्यम् - रुद्रायामलान्तर्गत हर-गौरी संवादरूप तांत्रिक ग्रंथ। इसमें 10 अध्यायों में अयोध्या नगरी का माहात्म्य प्रतिपादित है और मुख्य-मुख्य अनेक तीर्थों का अयोध्या में अन्तर्भाव बतलाया गया है। श्लोक-5001 अर्चनसंग्रह - ले.- प्राणपति उपाध्याय। श्लोक-1200। इसमें तांत्रिक पूजा के विभिन्न अंगों के प्रमाण और पद्धति निर्दिष्ट हैं। प्रारंभिक 4 विवेकों में से प्रथम में गुरु आदि पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय में दीक्षा के विविध विषय, तृतीय में पुरश्चरण और पुरश्चरणसम्बन्धी विधि वर्णित हैं एवं चतुर्थ विवेक में स्नान, संध्या आदि के साथ सांगोपांग पूजाविधि प्रतिपादित है। 16/ संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्चनातिलक - पंचरात्र आगम के आधार पर नृसिंह वाजपेयी द्वारा विरचित। श्लोक 570। इसमें 13 अध्यायों में विष्णु की षट्काल पूजा वर्णित है। यह वैखानस आगमसम्बन्धी ग्रंथ है। अर्जिता - ले. परितोष मिश्र। ई. 13 वीं शती। अर्जुनचरितम् - ले. आनंदवर्धन (ध्वन्यालोककार)। ई. १ वीं शती (उत्तरार्ध)। पिता- नोण। अर्जुनभारतम् - इस नाम की कई रचनाएं हैं। ले.- अर्जुन यह नागार्जुन है। ग्रंथ अंशमात्र उपलब्ध है। विषय-संगीत। अर्जुनराज - ले. हस्तिमल्ल। पिता- गोविंदभट्ट। जैनाचार्य । अर्जुनादिमतसारम् - ले. मदभूषी वेंकटाचार्य । पिता-अनन्ताचार्य । नैध्रुव काश्यप गोत्री। ई. 19 वीं शती। अर्जुना पारिजात - (नामान्तर- अर्जुनार्चनकल्पलता) श्लोक300, ले.- रामचंद्र कवि। इसमें कार्तवीर्यार्जुन की पूजा प्रतिपादित है। इस पर पद्माकर ने 2000 श्लोकों की व्याख्या लिखी है। अर्थरत्नावली - पटल-5। यह चतुःशती नामक शाक्ततन्त्र पर विद्यानन्दनाथ विरचित टिप्पणी है। अर्थकाण्डम् - ले. हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती । पिता- कामदेव। अर्थचित्रमणिमाला - ई. 20 वीं शती (पूर्वार्ध)। कविम.म.टी. ' गणपतिशास्त्री, (भासनाटकों के प्रकाशक) विषय-त्रावणकोर-नरेश विशाखराम वर्मा का स्तवन, विविध अलंकारों के प्रयोग से। अर्थरत्नावली - श्लोक- 6501 ले. विमलस्वात्मशम्भु। विषयवामकेश्वर तंत्र की व्याख्या। अर्थशतकम् - रचयिता पं.जयराम पाण्डे, मुम्बई के प्रसिद्ध व्यापारी। विषय- आधुनिक अर्थव्यवस्था। धनवितरण का औचित्य श्लोक 21 से 40, वस्तुमूल्य विचार 41 से 50, धनवृद्धि विचार 52 से 69, जनता का दुख दूर करने का उपाय 70 से 81, पूंजीवाद की निंदा, साम्यवाद का औचित्य 82 से 961 अधर्मखरार्भकम् - कवि- वा.आ. लाटकर, काव्यतीर्थ। अरघट्टघटम् - ले. स्कंद शंकर खोत । (नागपूर निवासी)। ई. 20 वीं शती। एक अल्पसा प्रहसन । अरविन्दचरितम् - योगी अरविन्दजी का पं. यज्ञेश्वरशास्त्री कृत। चरित्र । शारदा प्रकाशन, पुणे-301 अरुणाचलपंचरत्नदर्पण - ले. कपाली शास्त्री। वासिष्ठ गणपतिमुनि के ग्रंथ का भाष्य। कपाली शास्त्री गणपतिमुनि के शिष्य थे। अरुणामोदिनी - आनन्दलहरी (सौन्दर्यलहरी का प्रथमांश) पर कामेश्वरकृत टीका। पिता- गंगाधर, माता-नागमाम्बा और पितामह-मल्लेश्वर । प्रकाशन गणेश एण्ड को. मद्रास । सन 1957 । अलंकारकलानिधि - ले. भट्टट श्रीमथुरानाथ शास्त्री । जयपुरनिवासी। ई. 20 वीं शती। अलंकारकुलप्रदीप - ले.- विश्वेश्वर पाण्डे । अलंकारकौस्तुभ - ले. विश्वेश्वर पाण्डे। पाटिया (अलमोडा ज़िला) के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। प्रस्तुत ग्रंथ में नव्यन्याय की शैली का अनुसरण करते हुए 61 अलंकारों का तर्कपूर्ण व प्रामाणिक विवेचन किया गया है। इसमें विभिन्न आचार्यों द्वारा बताये गए अलंकारों की परीक्षा कर, उन्हें मम्मट द्वारा वर्णित 61 अलंकारों में ही गर्तार्थ कर दिया गया है और रुय्यक, शोभाकार मित्र, विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित एवं पंडितराज जगन्नाथ के मतों का युक्तिपूर्वक खंडन किया गया है। ग्रंथ के उपसंहार में विश्वेश्वर ने ग्रंथ-प्रणयन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला है। अपने प्रस्तुत ग्रंथ पर विश्वेश्वर ने स्वयं ही टीका लिखी है, जो रूपकालंकार तक ही प्राप्त है। एक अच्छे कवि होने के कारण इन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक स्वरचित सरस उदाहरण दिये हैं। अलंकारकौस्तुभ - ले. कर्णपूर। कांचनपाडा (बंगाल के निवासी) ई. 16 वीं शती। मम्मट प्रणीत काव्य प्रकाश की परम्परा का ग्रंथ। इस पर निम्न लिखित टीकाएं उपलब्ध हैं: (1) विश्वनाथ चक्रवर्ती कृत सारबोधिनी, (2) लोकनाथ चक्रवर्ती कृत टीका (3) वृन्दावन-चंद्र तर्कालंकार कृत अलंकार-कौस्तुभेदीधिति प्रकाशिका, (4) सार्वभौमकृत टिप्पणी इत्यादि। अलंकारचन्द्रोदय - ले. वेणीदत्त तर्कवागीश । ई. 18 वीं शती। अलंकारचिंतामणि - ले. अजितसेनाचार्य । अलंकारदर्पण - ले. म.म. शितिकण्ठ वाचस्पति। ई. 20 वीं शती। अलंकारदीपिका - 17 वीं शती के अंतिम चरण में आशाधर भट्ट (द्वितीय), द्वारा प्रणीत अलंकारशास्त्र विषयक ३ ग्रंथों में से एक । प्रस्तुत ग्रंथ अप्पय दीक्षित द्वारा रचित "कुवलयानंद" के आधार पर निर्मित है। इसमें 3 प्रकरण हैं। प्रथम प्रकरण में "कुवलयानंद" की कारिकाओं की सरल व्याख्या प्रस्तुत की गई है। द्वितीय प्रकरण में "कुवलयानंद" के अंत में वर्णित रसवत् आदि अलंकारों की तदनुरूप कारिकाएं निर्मित की गई हैं। तृतीय प्रकरण में संसृष्टि एवं संकर अलंकार के पांचों भेद वर्णित हैं और ग्रंथकार ने इन पर अपनी कारिकाएं प्रस्तुत की हैं। अलंकार-परिष्कार - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । ई. 17 वीं शती। अलंकार मंजूषा - ले. देवशंकर पुरोहित राठोड। गुजरात निवासी। ई. 18 वीं शती। विषय- बड़े माधवराव और रघुनाथराव (राघोबा) इन दो पेशवाओं का अलंकारों के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/17 For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उदाहरणों में गुणवर्णन। अलंकारमकरन्द - ले. राजशेखर । अलंकारमणिदर्पण - ले. प्रधान वेंकप्प । श्रीरामपुर के निवासी। अलंकारमणिहार - ले. श्रीकृष्ण ब्रह्मतंत्र परकालस्वामी। मैसूर में परकाल मठ के अधिपति। ई. 18-19 वीं शताब्दी। काव्यविषय- वेङ्कटेश्वर स्तुति द्वारा अलंकारों का निदर्शन। इस कवि की 67 ग्रंथ रचनाएं मानी जाती हैं।। अलंकारमाला - ले. मुड्बी नरसिंहाचार्य। अलंकारमीमांसा - ले. शातलूरी कृष्णसूरि । अलंकारमुक्तावली - (1) ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पाटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध), (2) नृसिंहपुत्र राम। अलंकाररत्नाकर - ले. यज्ञनारायण दीक्षित । ई. 17 वीं शती। अलंकारशेखर - ले.- केशव मिश्र। ई. 16 वीं शती । अलंकारसंग्रह - (1) ले.- रंगनाथाचार्य । पिता- कृष्णम्माचार्य । (2) ले.- अमृतानंद योगी। अलंकारसर्वस्वम् - ले. राजानक रुय्यक। इस ग्रंथ में 6 शब्दालंकार (पुनरुक्तवदाभास, छेकानुप्रास वृत्त्यनुप्रास, यमक, लाटानुप्रास एवं चित्र) तथा 75 अर्थालंकारों एवं मिश्रालंकारों का वर्णन है। इसमें 4 नवीन अलंकार हैं। उल्लेख, परिणाम, विकल्प एवं विचित्र। इस ग्रंथ के 3 विभाग है- सूत्र, वृत्ति व उदाहरण। सूत्र एवं वृत्ति की रचना रुय्यक ने की है और उदाहरण विभिन्न ग्रंथों से लिये हैं। इस ग्रंथ में सर्वप्रथम अलंकारों के मुख्य 5 भेद किये गए हैं और इनके भी कई अवांतर भेद कर, सभी अर्थालंकारों को पांच मुख्य वर्गों में रखा गया है। 5 मुख्य वर्ग हैंसादृश्यवर्ग, विरोधवर्ग, शृंखलावर्ग, न्यायमूलवर्ग (तर्कन्यायमूल) वाक्यन्यायमूल एवं (लोकन्यायमूल) तथा गूढार्थप्रतीतिवर्ग। इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएं हुई हैं जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका जयरथकृत विमर्शिनी है। टीकाओं का विवरण इस प्रकार है। (1) राजानक अलक - इनकी टीका सर्वाधिक प्राचीन है। इसका उल्लेख कई स्थानों पर प्राप्त होता है, पर यह टीका मिलती नहीं। (2) जयरथ - इनकी टीका "विमर्शिनी" काव्यमाला में मूल ग्रंथ के साथ प्रकाशित है। इनका समय 13 वीं शताब्दी का प्रारंभ है। इनकी टीका आलोचनात्मक व्याख्या है, जिसमें अनेक स्थानों पर रुय्यक के मत का खंडन एवं मंडन है। (3) समुद्रबंध - ये केरल नरेश रविवर्मा के समय में (ई. 13 श.) थे। इन्होंने अपनी टीका में रुय्यक के भावों की सरल व्याख्या की है जो अनंतशयन ग्रंथ माला (संख्या 40) से प्रकाशित हो चुकी है। (4) विद्याधर चक्रवर्ती - 14 वीं शताब्दी का अंतिम चरण (इनकी टीका का नाम “संजीवनी" है। इन्होंने “अलंकारसर्वस्व" की श्लोकबद्ध "निकृष्टार्थकारिका' नामक अन्य टीका भी लिखी है। दोनों टीकाओं का संपादन डॉ. रामचंद्र द्विवेदी ने किया है। (प्रकाशक मोतीलाल बनारसीदास)। “अलंकारसर्वस्व" का हिन्दी अनुवाद डॉ. रामचंद्र द्विवेदी ने किया है जो संजीवन-टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है, और दूसरा हिन्दी अनुवाद डॉ रेवाप्रसाद द्विवेदी द्वारा चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित है। अलंकारसार - ले.- सुधीन्द्र योगी। अलंकार-सुधानिधि - ले. सायणाचार्य। 13 वीं शती। विषयसाहित्यशास्त्र के विविध अलंकारों का सोदाहरण स्पष्टीकरण । दक्षिण भारत में यह ग्रंथ विशेष प्रचलित है। अलंकारसूत्रम् - ले.- चंद्रकान्त तर्कालंकार (ई. 20 वीं शती)। अलकामिलनम् - ले.-प्रा. द्विजेन्द्रलाल पुरकायस्थ। जयपुर निवासी। मेघदूत का पूरक खण्डकाव्य। वृत्त पृथ्वी। प्रथम सर्ग में यक्षपत्नी की विरहावस्था का 41 श्लोकों में वर्णन है और द्वितीय सर्ग में यक्ष दम्पति का विलास, 72 श्लोकों में वर्णित हैं। इस काव्य में छन्दोदोष यत्र तत्र मिलते हैं। अलब्धकर्मीयम् (प्रहसन) - ले.-के.आर. नैयर अलवाये, (केरल)। श्रीचित्रा, त्रिवेन्द्रम से 1942 में प्रकाशित । सागर वि.वि. में प्राप्य। नायक- यशोद्युम्न नामक बेकार युवक। नायिका- (पत्नी) भावना। अन्य पात्र- गैर्वाणी तथा काव्यकुमार । सुबोध शैली में एकोक्तियों तथा गीतों का समावेश है। अलिविलाससंलाप (काव्य) - रचयिता-गंगाधर शास्त्री। वाराणसी-निवासी। ई. 19 वीं शती। अवचूरी व्याख्या - हैम धातुपाठ पर जयवीरगणी द्वारा लिखित व्याख्या । यह व्याख्या भुवनगिरि पर ई. 1580 में लिखी गई। अवच्छेदकत्वनिरुक्ति - ले. रघुनाथ शिरोमणि। विषयन्यायशाचा अवन्तिसुन्दरी - ले. डॉ. वेंकटराम राघवन् (श. 20)। महाकवि राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी द्वारा लिखित कतिपय श्लोकों पर आधारित प्रेक्षणक। पति-पत्नी में काव्य की उपजीव्यता पर हुई चर्चा इस नाटिका का विषय है। अवतारभेद-प्रकाशिका - ले.- काशीनाथ । विषय- वैष्णव और शैवों के भेद तथा उनके लक्षण, महाविद्या आदि देवी-देवताओं की उत्पत्ति, विष्णु के अवतार और उनकी पूजा आदि (श्लोक 300)। अवदानकल्पलता - ले.- क्षेमेन्द्र। रचनाकाल 1052 ई.। अवदानमाला में यह प्रायः अन्तिम रचना है। भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों का छन्दोबद्ध आख्यान तथा महायान पंथ की षट्पारमिताओं का निरूपण इसका विषय है। इसमें 108 पल्लव (परिच्छेद) हैं। 107 पल्लवों की रचना के अनंतर, क्षेमेन्द्र की मृत्यु के उपरान्त सोमेन्द्र (पुत्र) ने अन्तिम पल्लव 18 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (जीमूतवाहनावदान) जोडकर भूमिका लिखी। तिब्बती अनुवाद सहित इसका संपादन शरच्चन्द्रदास तथा हरिमोहन विद्याभूषण ने किया है। नवीनतम संस्करण डॉ.पी.एल. वैद्य द्वारा प्रकाशित रचना का प्रारम्भ कवि के प्रिय बन्धु रामयश तथा काश्मीरी बौद्ध मिक्षु के आग्रह पर हुआ। यह कृति तिब्बत में विशेष लोकप्रिय हुई। इसकी अत्यन्त सरस कथाएं अन्यत्र भी प्राप्त हैं एवं बहुतांश कथाएं चरित्र प्रधान हैं न कि घटनाप्रधान। लेखक प्रभावी हास्यकथा में प्रवीण है। ग्रंथ शुद्ध सरल संस्कृत भाषा में है। रचनाहेतु-बौद्धधर्म की प्रतिष्ठापना और लोगों में सत्कर्म का प्रचार है। अवदानशतकम् - आचार्य नन्दीश्वर द्वारा संकलित अवदान साहित्य का यह सर्वप्राचीन संग्रह है। इन कथाओं में बुद्धत्व' प्राप्ति के हेतु सम्बद्ध शुभ गुण तथा दुष्कर्म के कारण प्राप्त होने वाली यातनाओं का वर्णन है। इसकी 100 कथाएं दस वर्गों में विभक्त हैं। प्रत्येक वर्ग स्वतंत्र तथा वैशिष्ट्यपूर्ण हैप्रथम तथा तृतीय वर्ग में प्रत्येक बुद्ध का भविष्य कथन, दूसरे और चौथे वर्ग में बुद्ध का अतीत जीवन, पंचम वर्ग में व्रतकथाएं हैं। छठे में सत्कर्म का पण्य फल, सात से दस तक के वर्गों में कथानायकों के अर्हत्व की प्राप्ति का निवेदन है। अंतिम कथा अशोक एवं उपगुप्त के काल से संबद्ध है। इस ग्रंथ का प्रथम अनुवाद चीनी भाषा में ई. 223-253 में हुआ। यह ग्रंथ हीनयान तथा थेरवादी सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने से महायान सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का इसमें सर्वथा अभाव है। इन कथाओं में कर्मसिद्धान्त, दानमहिमा तथा बुद्धभक्ति का प्रतिपादन प्रमुखता से है। ___ अवदानसाहित्य में बौद्धों के कथा-साहित्य का समावेश होता है। अवदान का अर्थ है संकेत से कथा । अवदानशतक, दिव्यावदान, कल्पद्रुमावदानमाला, अशोकावदानमाला, द्वाविशत्यवदानमाला, भद्रकल्पावदान, विचित्रकर्णिकावदान, अवदानकल्पलता आदि ग्रंथों का अवदानसाहित्य में समावेश है। अवदानशतक हीनयानों का प्राचीन कथासंग्रह है। अवधूतगीता - ले.- गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती। नाथ सम्प्रदाय में प्रमाणभूत ग्रंथ । अवधूतोपनिषद् - एक संन्यासप्रतिपादक उपनिषद् । इसमें 36 मंत्र हैं। सांकृति और दत्तात्रेय के संवादों में यह निर्माण हुआ है। विषय- अवधूत का लक्षण एवं अवधूतचर्या का वर्णन । अवसरसार - ले.-क्षेमेन्द्र । पिता-प्रकाशेन्द्र । पुत्र-सोमेन्द्र । काश्मीर के राजा अनंत की स्तुति में लिखा हुआ यह एक लघुकाव्य है। 3-अविमारक-भासकृत नाटक। संक्षिप्त कथा - नाटक के प्रथम अंक में पुत्री के विवाह के कारण चिंतित राजा कुन्तिभोज, काशिराज द्वारा अपनी कन्या की मंगनी के प्रस्ताव के बारे में निश्चय नहीं कर पाते। तभी उन्हें अंजनगिरि के उद्यान भ्रमण के लिए गई राजकुमारी को उन्मत्त हाथी से बलशाली और स्वयं को अत्यंज कहने वाले किसी युवक द्वारा बचाए जाने का समाचार प्राप्त होता है। द्वितीय अंक में कुरंगी की दासी नलिनिका और धात्री, अत्यंज युवक अविमारक के पास जाकर उसका कुरंगी के साथ मिलन का प्रयत्न करती है। अविमारक रात में राजकल में जाने का निश्चय करता है। तृतीय अंक में चोर वेष में प्रविष्ट अविमारक और कुरंगी का समागम होता है। चतुर्थ अंक में राजा को उक्त प्रणय का भेद खुल जाने के कारण, अविमारक लज्जित होकर पर्वत शिखर से कूद कर आत्महत्या करना चाहता है, किंतु विद्याधर मिथुन उसे रोक कर अपनी अंगूठी देते हैं, जिसे पहन कर अविमारक अदृश्य हो सकता है। पंचम अंक में अदृश्य रूप में अविमारक वियोगी व्याकुला प्राणत्याग के लिए तत्पर कुरंगी की रक्षा करता है। षष्ठ अंक में सौवीरराज का पता लगा कर कुन्तीभोज उन्हें अपने दरबार में बुलाते हैं। सौवीरराज चंडभार्गव के शाप से एक वर्ष तक अत्यंज बन कर रहने की कथा बताते हैं। तभी देवर्षि नारद उपस्थित होकर सौवीर राजकुमार जयवर्मा के साथ करेंगी की बहन का विवाह कराते हैं। इनमें 3 प्रवेशक, 4 चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। "अविमारक" में कुल 8 अर्थोपक्षकों का प्रयोग हुआ है। इस नाटक में विष्कम्भक नहा है। अशेषांक रामायणम् - ले.- सुब्रह्मण्य सूरि। इसमें 199 आर्याएं हैं। प्रत्येक आर्या के तीन चरणों मे राम कथा का अंश बताकर अंतिम चरण में तात्पर्य रूप में नीति सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। अशोक-कानने-जानकी - ले.-सुरेन्द्रमोहन। 20 वीं शती। "मंजूषा" पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित यह बालोचित लघुनाटक है। सुबोध भाषा में सीता, मन्दोदरी, त्रिजटा, विकटा और संकटा का संवाद इसमें मिलता है। अशोकावदानमाला - इसका प्रथम कथाभाग अशोक की कथा से युक्त है तथा शेष में उपगुप्त द्वारा अशोक को धार्मिक कथाओं के माध्यम से महायान संप्रदाय की शिक्षा दी है। समय- ई. 6 वीं शती। अशोकारोहिणी कथा - ले. श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। अशौचदीपिका - ले. गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती। पिता-दिनकरभट्ट। विषय-धर्मशास्त्र । अशौचनिर्णय - ले. नागोजी भट्ट। ई. 18 वीं शती। पिताशिवभट्ट। माता- सती। विषय- धर्मशास्त्र। अशौचसागर - ले- कुल्लूकभट्ट। ई. 12 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/19 For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्रुबिंदु - कवि- यादवेश्वर तर्करत्न, लेखनसमय- 1901 । रानी व्हिक्टोरिया के निधन पर शोककाव्य । अश्रुविसर्जनम् - ले. यादवेश्वर तर्करत्न महामहोपाध्याय । खण्डकाव्य। विषय- वाराणसी के पूर्ववैभव का स्मरण कर विषाद कथन। सन् 1900 में प्रकाशित । अश्वारूढामन्त्रप्रयोग - विषय- बगलामखी देवी के यंत्र और मंत्र का प्रयोग। श्लोकसंख्या 32। अश्वमेध (अथवा जैमिनि-अश्वमेध) - कहते हैं कि महाभारत का अश्वमेधपर्व जैमिनि के अश्वमेध का अनुवाद है। एक कथा के अनुसार जैमिनि मुनि ने व्यास के समान संपूर्ण भारत की रचना की थी परंतु व्यास ने उसे शाप दिया। उसमें अश्वमेध प्रकरण जो अपूर्व था, उसका समावेश महाभारत में किया गया। महाभारत और जैमिनि-अश्वमेध का विषय एक ही है पर दोनों में पूर्णतः एकवाक्यता नहीं है। यह ग्रंथ ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से अनमोल है। पांडवों के अश्वमेध का श्यामकर्ण घोडा जहां-जहां गया, वहां का वर्णन इसमें मिलता है। कुल 68 अध्याय एवं 5169 श्लोक हैं। इस ग्रंथ में अनेक स्थानों पर भोजन समारंभ का वर्णन है जिससे तत्कालीन खाद्य-पदार्थों की कल्पना की जा सकती है। अश्वारूढामन्त्रप्रयोग - विषय- बगलामुखी देवी के यंत्र और मंत्र का प्रयोग। श्लोकसंख्या-22 । अष्टप्रास- (1) ले. रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं के निवासी। ई. 17 वीं शती। (2) ले. सुंदरदास । पिता- रामानुजाचार्य। अष्टबन्धनग्रन्थ - ले. सदाशिवाचार्य, श्लोक- 44001 शैवागम से गृहीत ग्रंथ। अष्टमंगला - ले. रामकिशोर चक्रवर्ती। दुर्ग की कातन्त्रवृत्ति के आठवें भाग की व्याख्या। अष्टमहाश्रीचैत्यस्तोत्रम् - रचयिता- सम्राट. हर्षवर्धन। विषयशोभन छन्दों में ग्रथित आठ महनीय तीर्थस्थानों की संस्तुति । तिब्बती प्रतिलेख के आधार पर सिल्वा लेवी द्वारा अनूदित । अष्टमी-चम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । अष्टशती (अपर नाम- देवागमविवृति) - ले.-दिगंबरपंथी जैन मुनि अकलंकदेव। ई. 8 वीं शती। समंतभद्र के आत्ममीमांसा ग्रंथ पर लिखा गया टीकाग्रंथ । जैन तर्कशास्त्र के ग्रंथों में यह उच्च कोटि का माना जाता है। अष्टसहस्त्री - ले. विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। टीका ग्रंथ। अष्टांगहृदय - आयुर्वेद विषयक विख्यात ग्रंथ। प्रणेता बौद्ध पंडित वाग्भट (5 वीं शती)। वस्तुतः वाग्भट का सुप्रसिद्ध ग्रंथ "अष्टांगसंग्रह" गद्य-पद्यमय है, और प्रस्तुत ग्रंथ'अष्टांगहृदय' कोई स्वतंत्र रचना न होकर 'अष्टांगसंग्रह' का पद्यपय संक्षिप्त रूप है। यह चरक और सुश्रुत पर आधारित है। इसमें 120 अध्याय हैं जिनके 6 विभाग किये गए हैंसूत्रस्थान, शारीरस्थान, निदानस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान और उत्तरतंत्र । इनमें आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध 8 अंगों का विवेचन है। ___ इस पर 'चरक' व 'सुश्रुत' के टीकाकार जेजट ने भी टीका लिखी। इस पर 34 टीकाओं के विवरण प्राप्त होते हैं जिनमें आशाधार की उद्योत टीका, चंद्रचंदन की पदार्थचंद्रिका, दामोदर की संकेतमंजरी व अरुणदत्त की सर्वागसुंदरी टीकाएं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसका हिंदी अनुवाद हो चुका है! इसके हिंदी टीकाकार अग्निदेव विद्यालंकार हैं। प्रकाशनस्थान चौखंबा विद्याभवन । पं. गोवर्धन शर्मा छांगाणी (नागपुर-महाराष्ट्र) ने इस पर हिंदी में टीका लिखी है। टीका का नाम है 'अर्थप्रकाशिका'। अष्टादश पीठ - इसमें देवी के अठारह विभिन्न नाम प्रतिपादित है, जिन नामों से विभिन्न पवित्र स्थानों (पीठों) पर शक्ति देवी की पूजा की जाती है। अष्टादश-लीला छन्द - ले. रूप गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। विषय- श्रीकृष्णविषयक भक्तिकाव्य। अष्टादशविचित्रप्रश्नसंग्रह (उत्तरसहित) - ले. नृसिंह उपाख्य बापूदेव शास्त्री। विषय- ज्योतिषशास्त्र । ई. 19 वीं शती। अष्टाध्यायी - व्याकरण शास्त्र पर पाणिनिविरचित सूत्ररूप आठ अध्यायों का प्रख्यात ग्रंथ। वेद के 6 अंगों में इसकी गणना है। इसमें 1981 सूत्र है। प्रारम्भ में वर्णसमानाय के 14 प्रत्याहारसूत्र हैं जो जनश्रुति के अनुसार शिव के डमरू की ध्वनि से निकले। इसे 'सर्ववेदपरिषद्शास्त्र' कहा गया है। इसमें शाकटायन, शाकल्य, आपिशलि, गार्ग्य, गालव, शौनक, स्फोटायन, भारद्वाज, काश्यप, चाक्रवर्मण इन वैयाकरण पूर्वाचार्यो का उल्लेख है। अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों के प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रत्येक अध्याय एवं पाद में सूत्रों की संख्या प्रायः समान है। प्रथम व दूसरे अध्याय में संज्ञा एवं परिभाषा संबंधी सूत्र हैं। तीसरे से पांचवें अध्यायों में कृदन्त, तद्धित का निरूपण, छठे में द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम लोप, दीर्घ पर सूत्र हैं। सातवे में 'अंगाधिकार' प्रकरण है। आठवें में द्वित्व, प्लुत, णत्व, षत्व, के नियम हैं। पूर्वोपलब्ध व्याकरण शास्त्र का यत्र तत्र आधार लेकर पणिनि ने संक्षेप रूप में अपनी अष्टाध्यायी की रचना की है। अष्टाध्यायी में वैदिक संस्कृत तथा तत्कालीन शिष्ट भाषा संस्कृत का सर्वांगपूर्ण विचार किया गया है। इसके 4 नाम उपलब्ध होते हैं- (1) अष्टक (2) अष्टाध्यायी (3) शब्दानुशासन एवं (4) वृत्तिसूत्र । शब्दानुशासन नाम का उल्लेख पुरुषोत्तम देव, सृष्टिधराचार्य मेधातिथि, न्यासकार तथा जयादित्य ने किया है। महाभाष्यकार पंतजलि भी इसी ग्रंथनाम का उपयोग करते हैं। महाभाष्य के दो स्थानों पर 'वृत्तिसूत्र' नाम आया है। जयंत भट्ट की 20 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'न्यायमंजरी' में भी 'वृत्तिसूत्र' नाम का उल्लेख है। 'अष्टाध्यायी' में अनेक सूत्र प्राचीन वैयाकरणों से भी लिये गए हैं और उनमें कहीं कहीं किंचित् परिवर्तन भी कर दिया है। इसमें यत्र-तत्र प्राचीनों के श्लोकांशों का आभास भी मिलता है। पाणिनि ने अनेक आपिशालि के सूत्र भी ग्रहण किये हैं तथा 'पाणिनीय- शिक्षासूत्र' भी आपिशलि के शिक्षासूत्रों से साम्य रखते हैं। पाणिनि के पूर्व का कोई भी व्याकरण ग्रंथ आज प्राप्त नहीं। अतः यह कहना कठिन है कि पाणिनि ने किन किन ग्रंथों से सूत्र ग्रहण किये हैं। प्रातिशाख्यों तथा श्रौतसूत्र के अनेक सूत्रों की समता पाणिनीय सूत्रों के साथ दिखाई देती है। अष्टाध्यायी के तीन पाठभेद हैं। संस्कृत वाङ्मय में ऐसे अनेक ग्रंथ हैं जिनके देशभेदानुसार विविध पाठ उपलब्ध होते हैं। पाणिनीय अष्टाध्यायी के तीन पाठ- प्राच्य, औदीच्य (पश्चिमोत्तर) और दाक्षिणात्य उपलब्ध होते हैं। काशी में लिखी गई काशिका-वृत्ति, अष्टाध्यायी के जिस पाठ का आश्रय करती है वह प्राच्य पाठ है। दाक्षिणात्य कात्यायन ने जिस सूत्रपाठ पर वार्तिक लिखे हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ है। क्षीरस्वामी अपनी क्षीरतरंगिणी में जिस पाठ को उद्धृत करते हैं, वह उदीच्य पाठ है। तीनों में स्वल्प ही भेद है। ___'अष्टाध्यायी' की पूर्ति के लिये पाणिनि ने धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र तथा लिंगानुशासन की रचना की है जो उनके शब्दानुशासन के परिशिष्ट- रूप में मान्य है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इन्हें 'खिल' कहा है- 'उपदेशः शास्त्रवाक्यानि सूत्रपाठःखिलपाठश्च' (काशिका 1.3.2)। पाश्चात्य विद्वानों ने 'अष्टाध्यायी' का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए उसके महत्त्व का स्वीकार किया है। वेबर ने अपने इतिहास में 'अष्टाध्यायी' को संसार का सर्वश्रेष्ठ व्याकरण माना है, क्यों कि इसमें अत्यंत सूक्ष्मता के साथ धातुओं तथा शब्दों का विवेचन किया गया है। गोल्डस्ट्रकर के अनुसार 'अष्टाध्यायी' में संस्कृत भाषा का स्वाभाविक विकास उपस्थित किया गया है। बर्नेल के अनुसार ढाई हजार वर्षों के बाद भी अष्टाध्यायी का पाठ जितना शुद्ध और प्रमाणित है, उतना अन्य किसी संस्कृत ग्रंथ का नहीं है। कात्यायन ने इसकी बहुमुखी समीक्षा करने वाली चार हजार वार्तिकों की रचना की। पतंजलि ने उसके आधार पर अपना व्याकरण महाभाष्य रचा है। आचार्य पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अनेक वैयाकरणों ने वत्तियां लिखी हैं। स्वयं पाणिनि ने उसका व्याख्यान अपने शिष्यों के लिये किया होगा। उनके पश्चात् अनेक जानकार पण्डितों ने वृत्तियां लिखीं, परंतु वे आज अनुपलब्ध हैं। उनका भूतकालीन अस्तित्व, यत्र-तत्र प्राप्त उद्धरणों से ही अनुमित होता है। उन के वृत्तिकारों के नाम इस प्रकार हैं :- (1) पाणिनि, (2) श्वोभूति (3) व्याडि (4) कृषि (5) वररुचि, (यह वार्तिककार वररुचि से भिन्न हैं) (6) देवनन्दी का शब्दावतारन्यास (7) दुर्विनीत, (8) चुल्लिभट्टि, (9) निज़र (10) चूर्णि, (11) भर्तीश्वर, (12) न्यायमंजरी तथा न्यायकलिकाकार जयन्त भट्ट, (13) केशव (14) इन्दुमित्र (15) दुर्घटवृत्तिकार मैत्रेयरक्षित (16) भाषावृत्तिकार पुरुषोत्तम देव (17) पाणिनीयदीपिकाकार नीलकण्ठ वाजपेयी (18) शाब्दिकचिन्तामणिकार गोपालकृष्ण शास्त्री (19) मित्रवृत्यर्थसंग्रहकार उदयङ्कर भट्ट। (20) रामचन्द्र आदि। पाणिनि-व्याकरण की विशेषता, धातुओं से शब्द के निर्वचन की पद्धति के कारण है। उन्होंने लोक-प्रचलित धातुओं का बहुत बड़ा संग्रह धातुपाठ में किया है और 'अष्टाध्यायी' को, पूर्ण, सर्वमान्य एवं सर्वमत- समन्वित बनाने के लिये, अपने पूर्ववर्ती साहित्य का अनुशीलन करते हुए उनके मत का उपयोग किया तथा गांधार, अंग, मगध, कलिंग आदि समस्त जनपदों का परिभ्रमण कर, वहां की सांस्कृतिक निधि का भी समावेश किया है। अतः तत्कालीन भारतीय चाल-ढाल, आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, वेश-भूषा, उद्योगधंधों, वाणिज्य-उद्योग, भाषा, तत्कालीन प्रचलित वैदिक शाखाओं तथा सामग्रियों की जानकारी के लिये 'अष्टाध्यायी' एक सांस्कृतिक कोश का कार्य करती है। यह व्याकरण इतना वैज्ञानिक, व्यवस्थित, लाघवपूर्ण एवं सर्वांगपूर्ण है कि अन्य सभी व्याकरण इसके सम्मुख निस्तेज हो गए, और उनका प्रचलन बंद हो गया। अष्टाध्यायी-प्रदीप (शब्दभूषण) . ले. नारायणसुधी। पांडुलिपि, मद्रास, तंजौर, अड्यार में विद्यमान। पाणिनीय सूत्रों की यह विस्तृत व्याख्या है। उपयुक्त वार्तिकों, उणादिसूत्रों और फिट्सूत्रों का भी व्याख्यान इसमें है। अष्टाध्यायी-भाष्यम् - ले. स्वामी दयानन्द सरस्वती। सन 1878 में लेखन का प्रारम्भ हुआ और मृत्यु के बाद प्रकाशन हुआ। प्रथम भाग डॉ. रघुवीर द्वारा सम्पादित। दूसरा भाग (तीसरा और चौथा अध्याय) पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु द्वारा संपादित । लेखक द्वारा पुनरवलोकन के अभाव में यत्र-तत्र त्रुटियां विद्यमान हैं। अष्टाध्यायी (मिताक्षरावृत्ति) - ले. अनभट्ट। अष्टाध्यायी-वृत्ति - ले- मैथिल पण्डित रुद्र। पाण्डुलिपि सरस्वती भवन काशी में विद्यमान । अष्टाध्यायी-संक्षिप्तवृत्ति - ले- गोकुलचन्द्र । ई. 19 वीं शती। अष्टाह्निकथा - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 शती। अष्टादशोत्तर-शतश्लोकी - श्लोक- 2600 । कृष्णनगर (नवद्वीप के निवासी शिवचन्द्र कृत देवीस्तुति । ये शिवचन्द्र कृष्णनगर के भूतपूर्व महाराज सतीशचन्द्र राय के प्रपितामह थे। असफविलास - बादशाह शहजहाँ की राजसभा का एक अधिकारी आसफखान, पण्डितराज जगन्नाथ का परममित्र था। उसकी स्तुति प्रस्तुत खण्डकाव्य में जगन्नाथ ने की है। इस 3 संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड / 21 For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिकारी की मृत्यु ई. 1646 में हुई। असूयिनी - ले- लीला राव-दयाल । निवास- मुंबई में। चार दृश्यों में विभाजित सामाजिक नाटिका। कथासार - रेविका धीवरी के बच्चे पैदा होते ही मर जाते हैं। पडोसिन के बालक की बलि देने का वह उपक्रम करती है, परंतु शीघ्र ही उसे प्रतीत होता है कि यह घोर पाप है और उस से परावृत्त होती है। अहल्याचरितम् (महाकाव्य) - ले. सखाराम शास्त्री भागवत । विषय- इन्दौर की महारानी अहल्यादेवी होलकर का चरित्र।। अहल्यामोक्षचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । अहिर्बुध्यसंहिता - पांचरात्र- साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से प्रमुखतम संहिता। इसके कर्ता हैं अहिर्बुध्य जिन्होंने दीर्घ तपस्या करते हुए संकर्षण से सत्य ज्ञान प्राप्त किया। उसी ज्ञान से प्रस्तुत संहिता प्रकट हुई। इस संहिता में जीव व ब्रह्म का संबंध वेदों के समान 'सयुजा व सखा' के स्वरूप का है। इसमें बताया गया है कि सत्य अनादि, अनंत, शाश्वत, नाम-रूपरहित अविकारी, वाङ्मनसातीत है। इसे ही परमात्मा, भगवान् वासुदेव, अव्यक्त आदि से संबंधित किया जाता है। इस संहिता के मतानुसार पुरुष-प्रकृति-भेद प्रद्युम्न से प्रारंभ होता है न कि संकर्षण से। इस संहिता की निर्मिति काश्मीर में हुई। अहिमहिहननम् - कवि- वा.आ. लाटकर, काव्यतीर्थ । कोल्हापुर-निवासी। आंग्ललघुकाव्यानुवाद - ले- श्री.ल.ज. खरे। कतिपय अंग्रेजी कविताओं के संस्कृत अनुवाद का संग्रह । शारदा प्रकाशन पुणे-30। आंग्लगानम् - रचयिता- एस. नारायण। विषय अंग्रेजी राज्य की स्तुति । मद्रास-निवासी। आंग्लजर्मनीयुद्धविवरणम् . कवि- तिरुमल बुक्कपट्टणम् श्रीनिवासाचार्य । विषय- यूरोप का प्रथम (1914-18) महायुद्ध । आङ्ग्लसाम्राज्यमहाकाव्यम् - कवि- ए.आर. राजवर्मा, त्रिवांकुर (त्रावणकोर) के संस्कृत विभागाधिकारी । 19-20 वीं शताब्दी। आङ्ग्लाधिराज्य-स्वागतम् - (1) लघुकाव्य। कवि म.म. वेंकटनाथाचार्य। विशाखापट्टण के निवासी। (2) कवि-परवस्तु रंगाचार्य। विषय- अंग्रेजी साम्राज्य के इतिहास का वर्णन।। आंग्रेजचन्द्रिका - कवि- विनायक भट्ट। अंग्रेजी साम्राज्य की बहुत सी घटनाओं का वर्णन। सन्- 18011 आंगिरसस्मृति - श्लोकसंख्या 72। डॉ. काणे के अनुसार यह संक्षिप्त ग्रंथ होना चाहिये। विषय- अत्यंज का अन्नोदक लेने पर प्रायश्चित की आवश्यकता। आंजनेयमतम् - विषय- संगीत शास्त्र का आंजनेय द्वारा याष्टिक को प्रतिपादन। आंजनेयविजय-चम्पू - कवि-नृसिंह । आंजनेयशतकम् - ले- प्रधान वेंकप्प । श्रीरामपुर के निवासी। आन्ध्र-महाभारतम् - सन् 1959 से 'टेम्पल स्ट्रीट काकिनाडा' से टी. बुच्छी राजू के सम्पादकत्व में इस साहित्य व संस्कृति विषयक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। आकाशपंचमी-व्रतकथा - ले- श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। आकाशभैरवकल्प - (1) उमामहेश्वर-संवादरूप। श्लोक 2000। इसके 78 अध्यायों के मुख्य विषय हैं, उत्साहप्रक्रम, यजनविधि, उत्साहाभिषेक मन्त्र-यन्त्र-प्रक्रम, चित्रमाला मन्त्र, आकषर्ण, मोहन, द्रावण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, निग्रह, प्रयोग, भोगप्रदविधि, आशुतायविधि, आशु-गारुड प्रयोग, शिष्याचारविधि, राजकल्प, शरभेशाष्टक स्तोत्र आदि । रक्षाभिषेक, बलिविधान, मायाप्रयोग, मातृकावर्णन, भद्रकालीविधि, औषधविधि, शूलिनी-दुर्गा-कल्प, वीरभद्रकल्प, जगत्क्षोभणमहामन्त्र, भैरव, दिक्पाल, मन्मथ, चामुण्डा मोहिनी, द्राविणी, आदि के विधि । शब्दाकर्षिणी भाषासरस्वती, महासरस्वती, महालक्ष्मी आदि के प्रयोग। महाशान्तिविधि, संक्षोभिणीविधि, धूमावतीविधि, धूमावतीप्रयोग, चित्र-विद्याविधि, देशिकस्तोत्र, दुःस्वप्रनाशमन्त्रविधि, पाशविमोचनविधि, औषधमन्त्रविधि, कालमन्त्रविधि, षण्मुखमंत्रविधि, त्वरिताविधि वडवानलभैरवविधि, ब्राह्मी-प्रभृति- सप्तमातृविधि, नारसिंहीविधि एवं शरभहृदय आदि। आकाशभैरव-तन्त्रम् - शिव-पावर्ती संवादरूप। श्लोकसंख्या 39001136 पटल। इस ग्रंथ में मुख्य रूप से सामाज्यलक्ष्मी की पूजा का वर्णन है। तदनन्तर राजप्रासाद की वास्तु का निर्माण, भिन्न-भिन्न प्रकार के गज और शस्त्रास्त्र रखने की पद्धति का वर्णन है। 99 पटलों में पुरलक्षण, उसके मार्ग, बाजार और गृहों की रचना का वर्णन है। प्राचीर के बीच में राजा का महल हो। प्राचीन की चारों और जामाताओं, पुत्रों, बन्धु-बान्धवों और सम्बन्धियों के गृहों का निर्माण किया जाये। उसकी चारों ओर रथ के संचारयोग्य मार्ग बनाये जायें। प्राचीर के ऊंचे फाटक के निर्माण के साथ-साथ राजमार्ग के चारों और पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में विभिन्न बाजारों का निर्माण किया जाय। इसके दूसरे भाग में छोटे छोटे 72 अध्यायों में विभिन्न देवताओं की पूजा प्रतिपादित है। आख्यातचन्द्रिका - ले. भट्टमल्ल। ई. 13 वीं शती से प्राचीन। विषय- धातुपाठ की व्याख्या। मल्लिनाथ ने अपनी नैषधव्याख्या में इसके उदाहरण दिये हैं। अमरकोश की सर्वानन्दविरचित सर्वस्वव्याख्या में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। वेंकटरंगनाथ स्वामी ने इसका संपादन किया है। आख्यातनिघण्टु - पाणिनीय धातुपाठ से संबंधित ग्रंथ । लीलाशुक मुनि ने अपने दैवव्याख्यान पुरुषकार में इसके उदाहरण दिये हैं। ई. 13 वीं शती के पूर्व रचित । 22 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगमकल्पद्रुम- ले- यदुनाथ शमा का विवरण । गरसिद्धान्त, शाद्याओं की प्रजाल- 25। श्लोक नाचन्द्रिका, रश्चरणचन्द्रिका, सारसमुच्चय, दीपिण आख्यातप्रक्रिया - ले- अनुभूतिस्वरूपाचार्य। आख्यातवाद - (1) ले- रघुनाथ शिरोमणि। (2) ले. गदाधर भट्टाचार्य। आगमकल्पद्रुम - ले, जगन्नाथ पुत्र- गोविंद । ई. 16 वीं शती। आगमकल्पवल्ली - ले- यदुनाथ शर्मा । पटल- 25। श्लोक संख्या 350। विषय- महाविद्याओं की पूजा का विवरण। ग्रंथकार ने प्रपंचसारसिद्धान्त, शारदातिलक, सारसमुच्चय, दीपिका, लघुदीपिका, पूजाप्रदीप, पुरश्चरणचन्द्रिका, मन्त्रदर्पणसिद्धान्त, मन्त्रनेत्र, श्रीरामार्चनाचन्द्रिका, मन्त्रमुक्तावली, रत्नावली, ज्ञानार्णव, सनत्कुमारमंत्र, नारदीयचतुःशती, सोमशंभुमत, अगस्त्य संहिता आदि तांत्रिक ग्रंथों का उल्लेख किया है। आगमकौमुदी - ले. महामहोपाध्याय रामकृष्ण। ई. 17 वीं शती। श्लोकसंख्या- 1848। यह ग्रेथ तन्त्र की साधारण विधियों का प्रतिपादन करता है। इसमें शीघ्र आरोग्य लाभ कराने वाली धनसम्पत्तिप्रद तथा शत्रु का शीघ्र विनाश करने वाली विद्याओं तथा शाक्त देवियों के पूजा के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य मन्त्र दिये गये हैं। इसके प्रधान विषय हैंनक्षत्रचक्र, राशिचक्र, भूतचक्र, नाडीचक्र, अकडमचक्र, जातिचक्र तथा ऋषिधनिचक्र, अदीक्षित पुरुषरूप पशु और गुरुक्रम लक्षण, पंचदेवपूजा, स्त्री और शूद्र को प्रणवरहित मन्त्रदान, शूद्र को मन्त्रदान का निषेध, दीक्षा में चान्द्र और सौर का विचार, हरचक्र, चक्रशुद्धि का प्रकरण, मन्त्रों के दस संस्कार, दीक्षाप्रकरण, षट्चक्रनिरूपण, आधारशक्ति-ध्यान, आवाहनमुद्रा, शिवपूजाप्रकरण स्वाहा-स्वधाविचार, माला-लक्षण, जप-लक्षण, माला-संस्कार, प्रणाम- लक्षण, मंत्रग्रहणविधि, उपदेश प्रकरण, राम और कृष्ण की उपासना के मन्त्र, राम और कृष्ण की गायत्री, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा काली सुन्दरी, तारा, श्यामा, अनिरुद्ध, प्रचण्डाचण्डिका, गणेश उपविद्याएं, योगिनी, मृत्युंजय, कर्णपिशाची, हनुमान तथा गरुड के मन्त, यन्त्रों के संस्कार, मन्त्रगायत्री, भूमि पर माला गिरने से हुए दोष, प्रकीर्ण विषय कथन, । प्रत्यङ्गिरा-कथन आदि। आगमचन्द्रिका - ले- रघुनाथ तर्कवागीश के पुत्र रामकृष्ण। श्लोकसंख्या- 1525। इस तांत्रिक संग्रह ग्रंथ में दीक्षा-विधि, विविध देवियों की पूजा तथा विविध चक्रों का निरुपण है। इसके आरंभ में स्वयं ग्रन्थकार ने लिखा है- 'श्रीरामकृष्णः संक्षिप्य तनोत्यागमचन्द्रिगकाम्।' अर्थात् यह रघुनाथ तर्कवागीश कृत आगमतत्त्वविलास का संक्षेप है। आगमचन्द्रिका - ले- कायस्थ कृष्णमोहन। श्लोकसंख्या 1950। दीक्षाप्रकार नियम नामक प्रथम उल्लास की पुष्पिका दी गयी है। फिर आगे उल्लासों की पुष्पिकाएं नहीं दिखायी देती। बहुत सी अवान्तर पुष्पिकाएं दी गयी हैं जैसी इति कालीप्रकरणम्, इति ताराप्रकरणम् इत्यादि। इसमें दीक्षा के नियमों का प्रतिपादन तथा काली, तारा, श्रीविद्या, भुवनेश्वर, भैरवी, छिन्नमस्ता, और लक्ष्मी की पूजा का विस्तृत विवरण दिया गया है। आगमतत्त्वविलास - ले. नापादि ग्राम के निवासी रघुनाथ तर्कवागीश। ई. 17 वीं शती। श्लोकसंख्या- 14400। 5 परिच्छेद। ग्रंथकार ने ग्रंथ के अंत में अपनी वंशावली का इस प्रकार उल्लेख किया है : सर्वानन्द बलभद्र- काशीनाथचंद्रवंद्य-शिवराम चक्रवर्ती और रघुनाथ तर्कवागीश। यह एक विशाल तांत्रिक सारभूत ग्रंथ है। इसमें दीक्षा, योग आदि जैसे साधारण विषयों के साथ ही विभिन्न देवताओं की पूजा आदि विषय वर्णित हैं। ग्रंथकार के पुत्र रामकृष्ण ने इसका सार 'आगमचन्द्रिका' के नाम से लिखा। रघुनाथ ने सांख्यकारिका पर सांख्यतत्त्वविलास नाम की टीका लिखी है। इसमें सर्वप्रथम प्रमाणरूप से उद्धृत तन्त्र-ग्रन्थों के नाम दिये गये हैं। उनकी संख्या 156 है। तदनन्तर गुरुपदेश- विधि, मन्त्रविचार-विधि, दीक्षा-विधि, चक्रभेद, मन्त्रों के दस संस्कार, अक्षरनिर्णय मन्त्राभिधान, लक्ष्मीबीजाभिधान, स्त्रीबीजाभिधान वर्णाभिधान, वर्गाभिधान, बीजनिर्णय की व्यवस्था, बीज के अर्थ का अभियान, दीक्षा-पद का अर्थ, स्त्री और शूद्र की दीक्षा में मन्त्र की व्यवस्था, पंचांगशुद्ध दीक्षा, महाविद्या-निर्णय, मन्त्र की उपासना, रुद्राक्षमाला की विधि, कपालपात्र की शुद्धि, त्रिलोही मुद्रा का क्रम, बलिदान का क्रम, बलिदान में अपने शरीर का रुधिर - प्रदान करने की व्यवस्था, देवता के भेद से वाम और दक्षिण आचार की व्यवस्था, जल में आधान के नियम, पूजा आदि में षोडशोपचार, दशोपचार, पंचोपचार, अष्टादशोपचार के नियम, यन्त्रधारण की विधि, यन्त्र-लिखने के पदार्थों का नियम, मवरण, आकर्षण, वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, स्तंभन, अभिचार आदि की विधियां, षट्कर्मलक्षण, भूतोदय-विधि, योनिमुद्रा आदि के मन्त्रार्थ का निरूपण, भूतलिपि विधि, युग के भेद, जपादि का नियम, कर्मचक्र का निरूपण, रहस्यपुरश्चरण, वीरसाधन, चितादिसाधन, शवसाधन, मनोहरा, कनकावती, कामेश्वरी, रतिसुन्दरी, पद्मिनी आदि योगिनियों के आकर्षण की मुद्रा का क्रम, शंकराकिन्नरी, यक्षकन्या पिशाचादि के साधन की विधि, दृष्टिसिद्धि, मन्त्रसिद्धि के लक्षण, मन्त्र के दोष की शान्ति-विधि, बालक मन्त्र, पीठ-स्थान विभिन्न कुसुमों का रक्षण, यन्त्रों के नियमादि का वर्णन, भावरहस्य, अन्तर्याग, कुमारीपूजा, दूतीयाग, कुजपूजाक्रम, मदिरादिशोधन, शक्ति-शोधन, वीरपुरश्चरण, मद्यमांस की व्यवस्था, वामाचार के अनुकल्प, कुण्डनिरूपण, स्थण्डिलविधि, होमविधि, अग्निस्थापनादि, अग्नि का नामकरण, गणेश सूर्य, इन्द्र, विष्णु, आदि की पूजा की विधि। अर्धनारीश्वर, महालक्ष्मी, वागीश्वरी, महिषमर्दिनी, महाकाली, प्रचण्डचण्डिका, छिन्नमस्ता, उच्छिष्टचाण्डालिनी, हरिद्रागणेश आदि दैवतों की पूजासाधना । यह ग्रंथ दो खण्डों में विभिक्त है। श्लोकसंख्या- 7377 । यह विशाल तंत्र-ग्रंथ सम्पूर्ण तंत्र और आगम ग्रन्थों का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 23 For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारभूत है। ग्रन्थकार ने इसकी रचना में लगभग 160 तंत्र गुह्यषोढा, व्यापकादि न्यासों की विधि, वैधहिंसा-विचार, रुधिरदान, और आगम ग्रन्थों का अवलोकन कर उनसे सहायता ली है। लेपधारणादि, त्रिविध रात्रिपूजा महानिशादिनिरूपण, ब्राह्मण के ग्रन्थारंभ में सब ग्रन्थों की, तदनन्तर विषयों की सूची भी, मद्यपान आदि विधिपर विचार, प्रायश्चित्तादि चितासाधन, चिता ग्रन्थकार ने सत्रिविष्ट कर दी है। बीजवर्ण निर्णय, सृष्टि का के लक्षण, शवसाधन, पंचमुद्रा, मंत्रसिद्धि के उपाय, शक्तिकवच, क्रम, दीक्षाप्रकरण, नित्य और काम्य, दीक्षापद की निरुक्ति, लतासाधन, शक्ति के गमनागमन का विवेक, महाशंख, गुरुलक्षण, गुरुदोष, पिता, पितामह तथा अपने से न्यून अवस्था यंत्रादिविधि, वज्रपुष्पादिशोधनविधि, उग्रतारा, नीलसरस्वत्यादि के वाले से दीक्षाग्रहण का निषेध, स्वपलब्ध मंत्र की विधि, दीक्षा कवच, कौलप्रायश्चित्त, पूर्णाभिषेकादि विधि इत्यादि। में मांस आदि का नियम, समय की अशुद्धि का निरूपण, आगमसार - ले.-श्रीराम भट्टाचार्य के छठे पुत्र श्री रघुमणि । देवपर्वकथन, षट्चक्र, अष्टवर्गचक्र, नक्षत्रचक्र, तारामैत्रीविचार, श्लोकसंख्या- 3052। यह तंत्रशास्त्र में वर्णित विविध प्रकरणों अकथहादिचक्र, ऋणिधनिचक्र का दूसरा प्रकार हरचक्र, का संग्रह है। ग्रंथकार कहते हैं कि साधक धर्म, अर्थ काम उपासना-निर्णय आदि सैकडों विषय वर्णित हैं। और मोक्ष की प्राप्ति के लिये जगन्मय जगन्नाथ को इस स्तुति आगम-प्रामाण्यम् - इस पांडित्यपूर्ण ग्रंथ में श्री वैष्णवों के से प्रसन्न करें। आधारभूत पांचरात्रसिद्धान्त की प्रामाणिकता का विवेचन किया आगम-सारसंग्रह - (नामान्तर तत्त्वतरंगिणी) ले.- श्री.योगेन्द्र । गया है। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में पांचरात्र सिद्धांत वैदिक श्लोकसंख्या- 167। इसमें केवल दो उल्लास हैं। प्रमाण रूप मत का विरोधी माना जा चुका था। यामुनाचार्य (आलवंदार) से 20 के लगभग तंत्र ग्रंथों का उल्लेख है। विषय- सदाशिव ने अपने इस ग्रंथ में विपुल युक्तियों एवं तर्कों के दृढ आधार की निर्गुणता, सत्त्वादि गुणों के संपर्क तक ब्रह्म का सगुणत्व, पर उस मान्यता का प्रबल खंडन किया है। जीवध्यान प्रकार, शक्तिस्वरूप, श्रीकृष्ण आदि का प्रकृतिमयत्व, कुलज्ञान की महिमा, कौलिकों की प्रशंसा आदि । आगमतत्त्वसंग्रह - श्लोकसंख्या- 100। यह ग्रंथ दो परिच्छेदों में पूर्ण है। प्रथम परिच्छेद में आगमों का प्रामाण्य सिद्ध आगमोत्पत्यादि वैदिकतांत्रिक-निर्णय - रचयिता-भडोपनामक किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में आगम-प्रमेय का संक्षेपतः जयरामभट्टपुत्र वाराणसीगर्भज, दक्षिणाचारमत प्रवर्तक काशीनाथ । विवेचन किया गया है। ले.- तुंगभद्रा तीर निवासी मराठी श्लोकसंख्या- 3301 ग्रंथारम्भ के श्लोकों में इसका नाम पंडित विश्वरूप केशवशर्मा। गुरु-क्षेमानन्द कल्पलतिका के "आगमोत्पत्ति-निर्णय" कहा गया है। यह ग्रंथ केवल तंत्रों रचयिता थे। सौकायकल्पतरु के लेखक माधवानंद, क्षेमानन्द की संख्या का ही प्रतिपादन नहीं करता, अपि तु तांत्रिक के गुरु थे। निर्माणकाल - आश्विन शुक्ल 5 कलिसंवत्सर क्रियाओं के आवश्यक कर्त्तव्यनियमों का भी प्रतिपादन करता -4933 है। इसमें आगम तत्त्वों का विशद और उपयोगी संग्रह है। वैदिक और तांत्रिक विभेद कैसे हुआ इत्यादि विषय विस्तार है। इसमें प्रमाण रूप से उद्धृत आगम और तंत्र के ग्रंथों से इसमें वर्णित हैं। इस लिये इसका नाम "आगमोत्पत्यादि, की संख्या 60 के लगभग है। और तंत्र संबधित सैकड़ों वैदिकतांत्रिक-निर्णय पड़ा। इसके प्रारम्भ में संपूर्ण आगम ग्रंथों विषय वर्णित हैं। की संख्या बतलाते हुए, उनमें से कितने भूलोक में, कितने स्वर्ग में और कितने पाताल में हैं यह प्रतिपादन किया है। आगमदीपिका - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। तंत्र ग्रंथ और संहिताग्रंथों की लम्बी लम्बी सूची भी दी गयी विदर्भनिवासी। 20 वीं शती। है। आगमों की उत्पत्ति, युगधर्म, कौलिक और वैदिक आगमसंग्रह - (नामान्तर-एकजटाकल्प) श्लोकसंख्या- 4961 । कर्म-विचार, षोडश संस्कार, स्वप्न में उक्त द्विविध पूर्णाभिषेकविधि 16 पटलों में पूर्ण। लेखक के पिता का नाम श्रीरामकान्त । का प्रकार, महाविद्या के छह आनायों के प्रकार, श्रीविद्यायंत्र माता-कात्यायनी। इन्होंने बहुत तन्त्रों का अवलोकन कर तारा के धारण की महिमा, वाममार्गियों की अंत्येष्टि क्रिया आदि के विषय में होने वाले संशयों का निवारक यह एकजटाकल्प विषयों का विवेचन है। रचा है। विषय-तारा, उग्रतारा, एकजटा आदि के एकरूप होने पर भी नामभेद से भेद। उनके मन्त्रों में भेद । एकजटा के अग्निवेश - कृष्ण यजुर्वेदनीय सौत्र शाखा। प्रस्तुत अग्निवेश अधिकार में प्रातःकृत्य, सहस्रार, कुण्डलिनी के अवस्थान, सूत्र के उद्धृत वचन अनेक ग्रंथों में मिलते हैं। आदि। प्रातःकृत्य किये बिना पूजा करने में दोष, पशु और आचमनोपनिषद - एक गौण उपनिषद्। विषय- आचमन वीर के प्रातःकृत्य में विशेष, पतित की सन्ध्याव्यवस्था, संक्रान्ति विधि का वर्णन। आदि में वैदिक सन्ध्या का निषेध होने पर भी तांत्रिक संध्या आचारनवनीतम् - ले.- अय्या दीक्षित। ई. 17 वीं शती । की आवश्यकता, अशौच आदि में भी तांत्रिक संध्या पूजा . आचारनिर्णय - यह हर गौरी संवाद रूप ग्रंथ 35 पटलों आदि की कर्त्तव्यता, तांत्रिक तर्पणविधि, कामनाओं के भेद से में पूर्ण है। इसमें कायस्थों की उत्पत्ति, ब्राह्मणों के कर्त्तव्य, वस्त्र के परिमाण, पीठचिन्तन पुष्पादि-शोधन, जीवन्यास-षोढा, सुयज्ञ राजा के प्रति सुतपा नामक ब्राह्मण का उपदेश, कलियुग 24 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में शूद्र का क्षत्रिय कर्म करना, चित्रांगद के प्रति ब्राह्मणों का शाप तथा बगलामंत्र जप की महिमा बगलामंत्र के ग्रहण मात्र से कायस्थों का ब्राह्मण होता है, आदि बातों का वर्णन है। केवल इसके 35 वें पटल को पढने और सुनने से मनुष्य सफल-मनोरथ हो जाता है और बगला देवी की स्तुति कर कालीविग्रह बन जाता है इत्यादि विषय वर्णित है। आचारसारतंत्र-(1) यह मौलिक तंत्रग्रंथ 8 पटलों में पूर्ण है। इसमें कौलाचार प्रतिपादित है। अन्य तंत्रों के समान इसमें भी श्रीपार्वतीजी के महाचीनाचार पर शिवजी से प्रश्न करने पर उन्होंने वसिष्ठजी का वृतान्त कहा। वसिष्ठजी ने श्रीतारादेवी को प्रसन्न करने के निमित्त कामाख्या योनिमण्डल में 10 वर्ष तक उनकी आराधना की, किन्तु ताराजी का अनुग्रह उन्हें प्राप्त नहीं हुआ। पिता ब्रह्माजी के सदुपदेश से वे जनार्दन रूपी बुद्ध से चीनाचार की शिक्षा लेने चीन गये। उन्होंने कौलाचार का उन्हें उपदेश दिया। उससे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई इत्यादि। (2) श्लोकसंख्या 202 | विषय- कौलिकों के आधार जिसमें "संविदा" स्वीकार कर विधि, उसके शोधन के मंत्र, दूध आदि में मिला कर संविदा पीने का विशेष फल, त्रिकटु आदि के चूर्ण के साथ घी में भूजी विजया के प्रहण का फल और माहात्म्य, सुरा के ध्यान, स्वयंभू कुसुम के शोधन, एवं पूजाविधि वर्णित हैं। आचारप्रदीप - ले.- नीलकण्ठ चतुर्धर । आचाररत्नम् - ले.- दिनकरभट्ट (ई. 17 वीं शती)। आचारसार - ले.-वीरनन्दी। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। आचारादर्श - ले.- दत्त उपाध्याय। ई. 13-14 वीं शती। आचारामृतचन्द्रिका - ले.- सदाशिव दशपुत्र । आचारार्क-ले. दिवाकर । पिता- शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती। आचारेन्दुशेखर - ले.- नागोजी भट्ट। ई. 18 वीं शती। पिता-शिवभट्ट। माता-सती। विषय- धर्मशास्त्र। आचार्यदिग्विजय-चंपू - रचयिता- वल्लीसहाय। ई. 16 वीं शती। इसमें कवि ने आचार्य शंकर की दिग्विजय को वर्ण्य विषय बनाया है। आनंदगिरि कृत "शांकर-दिग्विजय" काव्य इस अप्रकाशित चंपू का आधार ग्रंथ है। इसकी प्रति खंडित सी है जो सप्तम कल्लोल तक ही है। यह सप्तम कल्लोल भी प्राप्त प्रति में अपूर्ण है। इस चंपू के पद्य सरल तथा प्रसादगुणयुक्त हैं। गद्य भाग में अनुप्रास एवं यमक का प्रयोग किया गया है। इस काव्य ग्रंथ का विवरण मद्रास के डिस्क्रिप्टिव कैटलाग में प्राप्त होता है। आचार्यपंचाशत् - ले.- वेंकटाध्वरि। यह वेदान्तदेशिक का स्तोत्र है। आचार्यमतरहस्यविचार - ले.- हरिराम तर्कवागीश। आचार्यविजयचंपू - रचयिता-कवि-तार्किकसिंह वेदांतचार्य। यह खंडितरूप में ही प्राप्त है जिसमें 6 स्तबक हैं। इस चंपू काव्य में प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य वेदान्तदेशिक का जीवनवृत्त वर्णित है तथा अद्वैत वेदांती कृष्णमिश्र प्रभृति के साथ उनके शास्त्रार्थ का उल्लेख किया गया है। वेदांतदेशिक 14 वीं शताब्दी के मध्य भाग में हुए थे। कवि ने प्रारंभ में वेदांताचार्यों की वंदना की है। इस काव्य में दर्शन एवं कविता का सम्यक् स्फुरण परिलक्षित होता है। इसकी भाषा-शैली बाणभट्ट एवं दंडी से प्रभावित है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है और उसका विवरण मद्रास के डिस्क्रिप्टिव कैटलाग में प्राप्त होता है। उसमें वेदांतदेशिक की कथा को प्राचीनोक्ति कहा गया है। आतुरसंन्यासविधि - (1) ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता- रामेश्वरभट्ट (2) ले. कात्यायन । आत्मतत्त्वविवेक - ले.-उदयनाचार्य। ई. 10 वीं शती। (उत्तरार्ध) कल्याणरक्षित के अन्यापोहविचारकारिका और श्रुतिपरीक्षा तथा धर्मोतराचार्य के अपोहनामप्रकरणम् और क्षणाभंगसिद्धि इन दोनों बौद्ध ग्रंथों का खंडन इस ग्रंथ में किया है। आत्मतत्त्वविवेक-दीधिति-टीका - ले.- गुणानन्द विद्यावागीश। आत्मतर्कचिंतामणि - ले.- निजगुणशिवयोगी। समय ई. 12 वीं से 16 वीं शती तक माना जाता है। आत्मनाथार्चनविधि - इस का विषय प्रज्ञानदीपिका से लिया है। ग्रंथ 18 स्कन्धों में पूर्ण हुआ है। यह तांत्रिक ग्रंथ सूत्र शैली में लिखा है। आत्मनिवेदन-शतकम् - ले.- बटुकनाथ शर्मा। आत्मपूजा - ले.- श्रीनाथ । श्लोकसंख्या 2000। 19 उल्लास । इसके आरंभिक दो उल्लासों में तांत्रिक विषयों का वर्णन किया है। इसके बाद तृतीय उल्लास से गुरु-शिष्य-संवाद के रूप में दार्शनिक विषय ही प्रचुरमात्रा में वर्णित हैं। युगानुसार शास्त्राचरण, पश्वाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार आदि आचारभेद, शाक्ताचार, पंचतत्त्वप्रमाण, शक्तिप्रमाण, दक्षिणाचार, पंचतत्त्वकथन चक्र में जाति-भेद का अभाव, वामाचार सिद्धान्ताचार और कौलाचार। आत्मरहस्य के अधिकारी का निरूपण, ब्रह्मचैतन्य कथन, स्वात्मचैतन्य कथन, जीव और परमेश्वर का ऐक्य कथन, ब्रह्म की सर्वस्वरूपता, मायाशक्ति कथन, कारण शरीर और सूक्ष्म स्वरूप कथन। 24 तत्त्वों की उत्पत्ति, षट्चक्र निरूपण, काशीमाहात्म्य आदि विषयों का प्रतिपादन है। आत्ममीमांसा - ले.- समंतभद्र। इसमें जैन मत के स्याद्वाद का विवेचन तथा अन्य दर्शनों की विचारपरिप्लुत समीक्षा है। आत्मरहस्यम् - ले. श्रीनाथ। अध्यायसंख्या 19। आत्मविक्रम (नाटक) - ले.- रमानाथ मिश्र । रचना सन 1953 में। राजा हरिश्चन्द्र का कथानक। अंकसंख्या पांच । सम्भवतः सन 1961 में प्रकाशित । आत्मनात्मविवेक - ले.- पद्मपादाचार्य। ई. 8 वीं शती। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 25 For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मानुशासनम् - ले.- गुणभद्र। जैनाचार्य। ई. 9 वीं शती (उत्तरार्ध)। आत्मानुशासनटीका - ले.- प्रभाचन्द्र। जैनाचार्य। समय- दो मान्यताएं (1) ई. 8 वीं शती। (2) ई. 11 वीं शती। आत्मार्थपूजापद्धति - श्लोकसंख्या 5000। यह शैव तंत्र का ग्रंथ है। आत्मार्पणस्तुति - ले. अप्पय दीक्षित। आत्मावलीपरिणय - प्रकरण। ले. रामानुजाचार्य । आत्मोपदेश - ले. महालिंगशास्त्री। अंग्रेजी काव्यों का अनुवाद । आत्रेय शाखा - (कृष्ण यजुर्वेद) आत्रेय एक गोत्र का नाम है। इस गोत्र वाले अनेक आचार्य हुए जिनमें दश आत्रेय गोत्र वाले, दश शुक्ल आत्रेय गोत्र वाले, तथा पांच कृष्णात्रेय वाले हुए। संभव है कि आत्रेय शाखा वाले ही कृष्ण आत्रेय कहलाते होंगे। तैत्तिरीय संहिता और आत्रेय संहिता में समानता .. अवश्य है, किन्तु कुछ भेद भी हैं। तैत्तिरिय संहिता के पदपाठकार आत्रेय ऋषि माने जाते हैं। आथर्वणतंत्रसार - ले. कटकाचार्य। आथर्वणप्रोक्त देवीरहस्यस्वरूप क्रमोपासनाप्रयोग - ले. जगन्नाथ सूरि । गुरु- भास्करराय । भावनोपनिषत् तथा भास्कररायकृत भावनोपनिषद्भाष्य के आधार पर लिखित । आदर्श - (अपरनाम भावार्थचिन्तामणि) ले.- महेश्वर न्यायालंकोर । विषय-काव्यप्रकाश पर टीका । ई. 17 वीं शती। आदर्शगीतावली - ले. जीवरामोपाध्याय। आदिकवि - ले. बुद्धदेव पाण्डेय (श. 20)। भारती 6-1 में प्रकाशित। विषय आदिकवि वाल्मीकि की कथा।। आदिकाव्योदय (प्रकरण) - ले- महालिंग शास्त्री। तामिलनाडु-निवासी। प्रथम रचना 1932 में। परिवर्धित संस्करण 1942 में। नायक के रूप में आदिकाव्य रामायण। वाल्मीकि द्वारा लवकुश के पालन से लेकर लवकुश द्वारा रामायणगान तक की कथा है। अन्त में राम के अश्वमेध के समय लव तथा कुश प्रभंजन और जलप्लावन को शान्त करते हैं और राम का पत्नी-पुत्रों से मिलन होता है। आदिक्रियाविवेक - ले, मथुरानाथ तर्कवागीश। आदित्यस्तोत्ररत्नम् - ले- अप्पय दीक्षित । आदिपुराणम् - (1) ले. सकलकीर्ति। जैनाचार्य। पिता- . कर्णसिंह। माता-शोभा। ई. 14 वीं शती। बीस सर्ग। (2) ले- हस्तिमल्ल। जैनाचार्य ई. 13 वीं शती।। आदिपुराणम् - चौबीस जैन पुराणों में सर्वाधिक प्रसिद्ध पुराण। रचयिता- जिनसेन जो शंकराचार्य के परवर्ती थे। इस पुराण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की कथाएं 47 पर्वो में वर्णित हैं। श्लोकसंख्या 12 हजार। इसमें जंबुद्वीप एवं उसके अंतर्गत सभी पर्वतों का वर्णन किया गया है। आनन्दकन्दचम्पू - (1) ले.- समरपुंगव दीक्षित। इसमें कतिपय शैव साधुओं का चरित्र वर्णन किया है। (2) ले.. पं. मित्र मिश्र । ओरछा नरेश वीरसिंह देव का आश्रित । विषयबालकृष्ण की लीलाओं का वर्णन । आनन्दकल्पलतिका - ले.- महेश्वर तेजानन्दनाथ। विषयतंत्रशास्त्र। आनंदगायनम् - ले. राधाकृष्णजी। आनन्द-चन्द्रिका - (अपरनाम 'उज्ज्वल-नीलमणि-किरण) लेविश्वनाथ चक्रवर्ती। ई. 17 वीं शती। रूप गोस्वामी लिखित 'उज्ज्वलनीलमणि' पर टीका। आनन्दचन्द्रिका - सन् 1923 में बंगलोर से कारूपल्लि शिवराम के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह पत्रिका अधिक काल तक नहीं चल पायी। आनन्दतन्त्रम् - श्लोक-संख्या 1913। यह देवी और कामेश्वर संवादरूप ग्रन्थ 20 पटलों में पूर्ण है। विषय- लिंगरहस्य और शक्ति की अर्चा। शक्ति-पूजा का विस्तृत विवरण 15 पटलों तक है। अन्तिम पांच पटलों मे जातिभेद का निषेध एवं विविध दर्शन शास्त्रों तथा तान्त्रिक दर्शनों का विवेचन किया गया है। दक्षिण भारत में इसका अधिक प्रचार है। प्रथम पटल की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि यह नित्याषोडशिकार्णवतन्त्र के अन्तर्गत भगमालिनी संहिता का एक अंश है। नित्याषोडशिकार्णव तन्त्र की श्लोकसंख्या परंपरा के अनुसार बत्तीस करोड मानी (?) है और तदन्तर्गत भगमालिनी संहिता की श्लोकसंख्या एक लाख। आनन्द-तरंगिणी - ले- बेचाराम न्यायालंकार। ई. 19 वीं शती । विषय- चन्द्रनगर से वाराणसी तक की यात्रा का वर्णन । आनन्द-दामोदर चम्पू - ले. भुवनेश्वर । आनन्ददीपिनी टीका - श्लोकसंख्या 800। यह 20 श्लोकी कर्पूरस्तोत्र की ब्रह्मानन्द सरस्वती कृत व्याख्या है। इसमें कालिका का मन्त्रोद्धार भी है। आनन्दबोधलहरी - श्रीशंकराचार्य विरचित। श्लोक - 30। यह जीवन्मुक्तानन्द-तरंगिणी के नाम से प्रसिद्ध है। आनंदमंगलम् - ले- भारतचन्द्र राय। ई. 18 वीं शती। आनन्द-मन्दाकिनी- ले. मधुसूदन सरस्वती। ई. 16 वीं शती। स्तोत्र-संग्रह। आनन्दमयी पूजा - विषय- आनन्दमयी की कौलाचारसंमत गुप्त तांत्रिक पूजा जिस को जानकर उत्तम साधक शिवसायुज्य को प्राप्त होता है। इसमें रुद्रयामल, लिंगागम, कुलार्णव, कुलसार आदि तंत्र-ग्रन्थ उल्लिखित हैं। आनन्दमहोदधि - ले.- रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण विषयक काव्य। आनन्द-संजीवनम् - ले.- मदनपाल । 26/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्दरंगचम्पू - ले.- श्रीनिवास । विषय- आनन्द रंगराजा का चरित्र और विजयनगर राजवंश का इतिहास । आनंदरंगविजयचंपू- ले- श्रीनिवास कवि। प्रस्तुत चंपू-काव्य की रचना 8 स्तबको में हुई है। इसमें कवि ने प्रसिद्ध फ्रेंच शासक डुप्ले के प्रमुख सेवक तथा पांडिचेरीनिवासी आनंदरंग के जीवन-वृत्त का वर्णन किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस काव्य का महत्त्व है। विजयनगर तथा चंद्रगिरि के राजवंशों का वर्णन इसकी एक बहुत बड़ी विशेषता है। निर्माण काल 18 वीं शताब्दी। इस ग्रंथ का प्रकाशन मद्रास से हो चुका है संपादक है डॉ. व्ही. राघवन् । आनन्द-रघुनन्दन-नाटकम् - उन्नीसवीं शती के मध्य में बघेलखंड के निवासी विश्वनाथसिंह द्वारा लिखा गया वीर रसात्मक नाटक । हिंदी साहित्य के इतिहासों और हिन्दी रूपकों के समीक्षा ग्रंथों में सर्वत्र इसका उल्लेख प्रथम हिन्दी नाटक के रूप में हुआ है। ऐसा लगता है कि 1830 से पूर्व हिन्दी नाटक पूर्ण होने पर उसी को संस्कृत रूप देने का विचार हुआ। उसमें हिन्दी के समानार्थक शब्द रचे। कथावस्तु रामकथा है। अंकसंख्या- 7। प्रथम अंक में रामजन्म से विवाह तक, द्वितीय में राम निर्वासन की कथा, तीसरे में सीताहरण, शबरी द्वारा राम को सुग्रीव का पता दिया जाना चौथे में हनुमान और सुग्रीव से मैत्री, सीता की खोज, पांचवे में हनुमान का लंका पहुंचना, सेतुबंधन, छठे में युद्ध और बिभीषण का तिलक, सीता की अग्निपरीक्षा और सातवे में भरत द्वारा श्रीराम को राज्य सौंपना। संवाद एवं अभिनय की दृष्टि से नाटक प्रभावी है। रोचक पत्रव्यवहार भी नाटककार ने प्रस्तुत किये है। आनन्दराघवम् - ले- राजचूडामणि यज्ञनारायण दीक्षित। ई. 16 वीं शती। पांच अंकों का नाटक। विषय- सीतास्वयंवर से भरत के यौवराज्याभिषेक तक कथाभाग। नानाविध रसों का उपयोग, परन्तु प्रमुख रस शृंगार। इसमें गद्यांश नाममात्र के लिए है। अनेक स्थलों पर पद्यात्मक संवाद हैं। शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, स्रग्धरा तथा शिखरिणी का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में है। छेक, वृत्ति, श्रुति तथा अंत्य इन चारों प्रकार के अनुप्रासों का तथा श्रवणानुसारी शब्दों का यथायोग्य प्रयोग है। प्राकृत बोलने वाले पात्रों के भाषणों से भी प्रसंग विशेष में संस्कृत संवाद आते हैं। प्रतिनायक रावण रंगमंच पर आता ही नहीं। विष्कम्भकों में भी पद्यों की भरमार है। सन 1971 ई. में सरस्वती महल लाईब्रेरी, तंजौर से प्रकाशित। आनन्दराघवम् - ले- यतीन्द्रविमल चौधुरी। ई. 20 वीं शती। राधा-कृष्ण की लीलाओं पर रचित महानाटक। प्रचुर मात्रा में छायातत्त्व । रंगमच पर कंस द्वारा कृष्ण पर तीर चलाना, मुष्टिक तथा चाणूर के साथ बलदेव कृष्ण का मुष्टियुद्ध, कृष्ण द्वारा कंसवध आदि दृश्यों का विधान इसमें है। नृत्य गीतों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया है। आनन्दरामायण - रामभक्ति सम्प्रदाय के रसिकोपासकों का एक मान्य ग्रंथ । रचना काल ई. 15 वीं शती। इसमें 'अध्यात्म रामायण' के कई उद्धरण प्राप्त होते हैं। इस रामायण में कुल 9 काण्ड एवं 12,952 श्लोक हैं। प्रथम 'सारकाण्ड' में 13 सर्ग हैं तथा रामजन्म से लेकर सीताहरण तक की कथा वर्णित है। द्वितीय 'यात्राकाण्ड' में 9 सर्ग हैं जिनमें श्रीराम की तीर्थयात्रा का वर्णन है। तृतीय 'यागकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं और रामाश्वमेध का वर्णन किया गया है ।चतुर्थ 'विलासकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं जिनमें सीता का नख-शिख-वर्णन, राम सीता की जल-क्रीडा, उनके नानाविध श्रृंगारों एवं अलंकारों का वर्णन व नाना प्रकार के विहारों का वर्णन है। पंचम 'जन्मकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं तथा सीता-निष्कासन एवं लवकुश के जन्म का प्रसंग है। षष्ठ 'विवाह-काण्ड' में चारों भाइयों के 8 पुत्रों के विवाह वर्णित हैं। इसमें भी 9 सर्ग हैं। सप्तम 'राज्य-काण्ड' में 24 सर्ग हैं तथा श्रीराम की अनेक विजय यात्राएं वर्णित हैं। इस कांड में इस प्रकार की एक कथा है कि राम को देखकर स्त्रियां कामातुर हो जाती हैं तथा राम अगले अवतार में उनकी लालसापूर्ति करने के लिये आश्वासन देते हैं। राम का तांबूल-रस पीने के कारण एक दासी को कृष्णावतार में राधा बनने का वरदान प्राप्त होता है। अष्टम कांड 'मनोहरकांड' में 18 सर्ग हैं व रामोपासना-विधि, राम-नाम माहात्म्य, चैत्र-माहात्म्य एवं राम-कवच आदि का वर्णन है। नवम 'पूर्णकाण्ड' में भी 9 सर्ग हैं तथा इसमें कुश के राज्याभिषेक एवं रामादि के वैकुंठारोहण की कथा है। इस रामायण का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। विषय की दृष्टि से यह विलक्षण ग्रंथ है। कांडों का विभाजन भी अपने ही निराले ढंग का है। प्रस्तुत रामायण का चतुर्थ कांड 'विलास-कांड' के नाम से अभिहित है। इसका पूरा विषय ही माधुर्य-रस सर्वलित है। इसमें सीता-राम की ललित लीलाओं का मधुर विन्यास है। श्रृंगार या मधुर रस से स्निग्ध रामायण की परंपरा में आनंद रामायण की गणना होती है। आनन्दलतिका - ले- कृष्णनाथ सार्वभौम भट्टाचार्य। ई. 18 वीं शती। कन्याविवाह के बाद उसके वियोग में अन्यमनस्क सामन्त चिंतामणि के मनोविनोदनार्थ अभिनीत नाटक । अंकसंख्या 5। 'अक' के स्थानपर 'कुसुम' शब्द का प्रयोग किया है। कथासार- नारद श्रीकृष्ण के पास जाकर बताते हैं कि तुम्हारा पुत्र सांब, राजा दमन की कन्या रिवा' पर अनुरक्त है। दमन ने स्वयंवर रचा जिसमें समस्यापूर्ति का प्रण था। उसमें सांब विजयी होते हैं। पुत्री को बिदा करते समय राजा दमन रो देता है। मन्त्री उसे धीरज बंधाते हैं और दम्पती द्वारका जाते हैं। आनन्दलतिका-चम्पू- ले- कृष्णनाथ तथा उनकी पत्नी वैजयन्ती । ई. 17 वीं शती। प्रकरणों के स्थान पर 'कुसुम' शब्द का प्रयोग। कुसुमसंख्या पांच । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 27 For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्दलहरी - ले- श्रीशंकराचार्य। श्लोकसंख्या 107। श्रीगौडपादाचार्य कृत समयाचारकुलक सुभगोदया के आधार पर श्री शंकराचार्य ने 107 श्लोकों की रचना की। आरंभ के 41 श्लोक आनन्दलहरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। आनन्दलहरी के श्लोकों की संख्या कोई 41 तो कोई 35 तो कोई 30 बताते हैं। आनन्दलहरी की व्याख्या सुधाविद्योतिनी आदि के मत से निम्निलिखित श्लोक आनन्दलहरी के हैं :- 1, 2, 8, 9, 10, 11, 14 से 21 तक, 26, 27 तथा 31 से 41 तक श्लोक सौन्दर्यलहरी के हैं। आनन्दलहरी एक विद्वमान्य स्तोत्र होने के कारण उसपर विविध टीकाएं लिखी गई : (1) रहस्यप्रकाश- जगदीशतर्कालंकार-विरचित। (2) तत्त्वबोधिनी- सुबुद्धिमिश्र-प्रपौत्र, विद्यासागर पौत्र, यादवचक्रवर्ती के पुत्र महादेव विद्यावागीश भट्टाचार्य कृत। निर्माण काल 1527 शकसंवत्सर। (3) सौभाग्यवर्द्धिनी- कैवल्याश्रमकृत । (4) आनन्दलहरी-व्याख्या ले.- कविराज शर्मा । (5) सुबोधिनीनिरंजनकृत। (6) विस्तारचन्द्रिका - गोविन्द तर्कवागीश भट्टाचार्यकृत। श्लोक- 5881 (7) तत्त्वदीपिका- गंगाहरिकृत। श्लोक 1216। (8) मंजुभाषिणी- वल्लभाचार्य - पुत्र तर्कालंकार भट्टाचार्य श्रीकृष्णाचार्यकृत। श्लोक- 1674। (9) हरिभक्ति सुधोदय- विश्वामित्रगोत्रोद्भव हरिनारायण-कृत। यह व्याख्या शक्तिपक्ष और विष्णुपक्ष में की गयी है। श्लोक- 1400 । (10) आनन्दलहरीदीपिका- श्रीचन्द्रमौलि पुत्र रघुनन्दन-कृत । (11) मनोरमा-श्रीविश्वनाथ-पुत्र रामभद्रकृत । श्लोक- 1100। (12) नरसिंहकृत । भवानीपक्ष में और विष्णुपक्ष में आनन्दलहरी की व्याख्या। श्लोक- 1463 । (13) गोपीरमण तर्कपंचानन भट्टाचार्यकृत। मन्त्रादिपक्षीय। श्लोक 6611 (14) सामन्तसारनिलय- जगन्नाथ चक्रवर्ती कृत। श्लोकसंख्या 11311 (15) आनन्दलहरीरहस्यप्रकाश- जगदीश पंचानन भट्टाचार्यकृत। श्लोक- 1845। (16) आनन्दलहरीभाष्यालोचन- अतिरात्रयाजी महापात्रकृत। श्लोक 24001 (17) आनन्दलहरी- गौरीकान्त सार्वभौमकृत। (18) भावार्थदीपिका- ब्रह्मानन्दकृत। (19) सुधाविद्योतिनी - (सुधानिस्यन्दिनी) प्रवरसेनपुत्र कृत। (20) सुधाविद्योतिनी विद्वन्मनोरमा) सहजानन्दनाथ कृत । (21) गंगाधर शास्त्री मंगरूळकर (नागपूरनिवासी) कृत। (22) आनन्दलहरी-हरीवटी- ले- गौरीकान्त सार्वभौम। आनंदवृंदावन चम्पू - (1) संस्कृत के उपलब्ध सभी चंपू-काव्यों में यह बडा है। रचयिता परमानंददास सेन जिन्हें 'कवि कर्णपूर' भी कहा जाता है। कर्णपूर का समय ई. 16 वीं शती। वे कांचनपाडा (बंगाल) के निवासी हैं। डॉ. बांकेबिहारी कृत हिंदी अनुवाद के साथ इसका प्रकाशन वाराणसी से हो चुका है। इस चंपू में 22 स्तबक हैं और भगवान् श्रीकृष्ण की कथा प्रारंभ से किशोरावस्था तक वर्णित है। इसका आधार भागवत का दशम स्कंध है। प्रस्तुत काव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं व नायिका है राधिका। प्रधान रस-श्रृंगार । कृष्ण के मित्र 'कुसुमासव' की कल्पना कर, उसके माध्यम से हास्य रस की भी सृष्टि की गई है। (2) ले- केशव। (3) ले- माधवानन्द। आनन्दसंजीवनम् - ले- मदनपाल। कन्नौज के नृपति। ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध। विषय- संगीतशास्त्र। आनन्दसागर-स्तव - ले- नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती। आनन्दसुन्दरी- (सट्टक) ले- धनश्याम आर्यक । ई. 18 वीं शती। आनन्दार्णवतन्त्र (नामान्तर- चतुःशतीसंहिता) - पटल101 श्लोकसंख्या- 480। यह आनन्दतन्त्र से सर्वथा भित्र है। सर्वमंगला और सर्वज्ञ के संवाद में विषय का प्रतिपादन किया है। विषय- श्रीविद्या का स्वरूप, जन्मचक्रक्रम, दीक्षाकरण, त्रिपीठचक्र, विविध विद्याएं, विभूतियां आदि नवयोन्यकित अस्त्रचक्र, दीक्षित द्वारा गुरुपादुका-पूजन श्रीविद्याका साधन,वाक्सिद्धि आदि निखिल सिद्धियों की प्राप्ति के उपाय मालामंत्र आदि। आनन्दोद्दीपिनी - श्लोकसंख्या 300 । रचनाकाल- ई. 1833 । यह फेत्कारिणी तन्त्र के स्वरूपाख्यस्तोत्र की ब्रह्मानन्द सरस्वती कृत व्याख्या है। आपस्तंब-कल्पसूत्रम् - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के इस कल्पसूत्र के 30 भाग हैं। उन्हें "प्रश्न" संज्ञा दी गई है। प्रथम 24 प्रश्न श्रौतसूत्र है। उनमें वैतानिक यज्ञ की जानकारी है। 24 वां प्रश्न श्रौतसूत्र की परिभाषा है। 25 एवं 26 में मंत्रपाठ है। 27 गृह्यसूत्र एवं 28-29 में धर्मसूत्र हैं। इनमें चातुर्वर्णिकों के कर्त्तव्य दिए गये है। 30 वें प्रश्न को शुल्बसूत्र कहते हैं। आपस्तंब-धर्मसूत्र- 'आपस्तंब-कल्पसूत्र' के दो प्रश्न (क्रमांक 28 व 29) ही 'आपस्तंब-धर्मसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस पर हरिदत्त ने 'उज्ज्वला' नामक टीका लिखी है। इसकी भाषा बोधायन की अपेक्षा अधिक प्राचीन है, और इसमें अप्रचलित एवं विरल शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसमें अनेक अपाणिनीय प्रयोग प्राप्त होते है। इसमें सहिता के साथ ही साथ ब्राह्मणों के भी उद्धरण मिलते हैं तथा प्राचीन 10 सूत्रकारों का उल्लेख है- काण्व, कुणिक, कुत्सकौत्स, पुष्करसादि, वाष्ययिपि, श्वेतकेतु, हारीत आदि। इसके अनेक निर्णय जैमिनि से साम्य रखते हैं तथा मीमांसा शास्त्र के अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी इसमें प्रयोग किया गया है। इसका समय ई. पू. छटी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक माना जाता है। इसके प्रणेता (आपस्तंब) के निवासस्थान के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डॉ. बूलर के अनुसार वे दाक्षिणात्य थे किंतु एक मंत्र में यमुनातीरवर्ती साल्वदेशीय यह उल्लेख होने के कारण इनका निवास स्थान मध्यदेश माना जाता है। 28 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तत धर्मसत्र में वर्णित विषय इस प्रकार हैं- चारों वर्ण व उनकी प्राथमिकता, आचार्य की महत्ता व परिभाषा, उपनयन, उपनयन के उचित समय का अतिक्रमण करने पर प्रायश्चित्त का विधान, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, आचरण, उसके दण्ड, मेखला, परिधान, भोजन एवं भिक्षा के नियम, वर्णों के अनुसार गुरुओं के प्रणिपात की विधि, उचित तथा निषिद्ध भोजन एवं पेय का वर्णन, ब्रह्महत्या, नारी-हत्या, गुरु या क्षत्रिय की हत्या के लिये प्रायश्चित्त, सुरा-पान तथा सुवर्ण की चोरी के लिये प्रायश्चित्त, पर- नारी के साथ संभोग करने पर प्रायश्चित्त, गुरु-शय्या अपवित्र करने पर प्रायश्चित्त और विवाहादि के नियम आदि। यह ग्रंथ हरदत्त की टीका के साथ कुंभकोणम् से प्रकाशित हो चुका है। आपस्तंबपद्धति - ले- गागाभट्ट काशीकर । ई. 17 वीं शती। पिता- दिनकर भट्ट। आप्तपरीक्षा (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) - ले. विद्यानन्द । जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। आप्तमीमांसा - ले. समन्तभद्र। जैनाचार्य। ई. प्रथमशती (अन्तिम भाग) पिता- शान्तिवर्मा। आप्पाशास्त्रि-चरितम् - ले- पं.वा.ना. ओदंबरकर। विषयसंस्कृत के प्रख्यात पत्रकार पं. आपाशास्त्री राशीवडेकर का विस्तृत एवं अधिकृत चरित्र । शारदा प्रकाशन, पुणे-30 । आप्पाशास्त्रि-साहित्य-समीक्षा- ले. डॉ. अशोक अकलूजकर, कॅनडा में व्हँकूवर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष। इनका अध्ययन पुणे में हुआ। संस्कृत पत्रकरिता के इतिहास में आप्याशास्त्री राशीवडेकर का नाम अग्रगण्य माना जाता है। उनकी विविध प्रकार की रचनाएं, उनके द्वारा संपादित पत्रिका चन्द्रिका में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। डॉ. अशोक अकलूजकर ने उन सभी लुप्तप्राय पत्रिका के अंकों का अन्वेषण कर आप्पाशास्त्री के साहित्य की सराहनीय समीक्षा इस निबंध ग्रंथ में की है। शारदा प्रकाशन, पुणे- 30। आमोद - ले- शंकरमिश्र। ई. 15 वीं शती। आम्नाय - श्लोकसंख्या 2601 विषय- तंत्रशास्त्र के अन्तर्गत पूर्वाम्नाय, दक्षिणाम्नाय, पाश्चिमानाय, उत्तराम्नाय, उर्ध्वाम्नाय, मानवौघ, उद्वौघ, परौघ, कामराजौघ, लोपामुद्रौघ, कामराज-विद्याचरणवासना, लोपामुद्रा-विद्याचरणवासना, स्रोतश्चरणवासना, शाम्भवचरणविद्या, शाम्भवचरणवासना,परापादुकाक्रम, लोपामुद्रापादुकाक्रम महापादुका, सत्ताईस रहस्य, पांच अम्बाएं, नौ नाथ, आधार विद्याएं, छह आधारविद्याएं, छह अध्वरविद्याएं, छह दर्शन, आठ वाग्देवता, छह योगिनियों की विद्याएं, नित्या के मन्त्र, पांच पंचिकाएं, अनेक देवी-देवताओं के मन्त्र आदि। आम्नायपद्धति - ले. भास्करराज । विषय- धर्मशास्त्र।। आम्नायमंजरी - यह संकटतन्त्रराज पर अभयगुप्त की टीका है। आयर्वेद-चन्द्रिका - ले- हरलाल गप्त। ई. 10 विषय- आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की जानकारी। आयुर्वेद-दीपिका - ले- चक्रपाणि दत्त। ई. 11 वीं शती। चरक संहिता पर भाष्य। आयुर्वेद-परिभाषा - ले- गंगाधर कविराज। 1798-1885 ई.। (अप्रकाशित)। आयुर्वेदभावना - ले- मथुरानाथ तर्कवागीश। पिता- रघुनाथ । आयुर्वेद-महासम्मेलनम् - सन् 1913 में दिल्ली में चेतनानन्द चित्काशि के संपादकत्व में अ.भा. आयर्वेद संघ की इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। आयुर्वेदरसायनम् - ले- हेमाद्रि। ई. 13 वीं शती। पिताकामदेव। आयुर्वेद-संग्रह - ले- गंगाधर कविराज। 1789-1885 ई। अप्रकाशित। आयुर्वेदसुधानिधि - ले- सायणाचार्य। ई. 13 वीं शती । विषय- धर्माचरण के लिये आयुर्वेद विषयक आवश्यक रहस्यों का संग्रह। आयुर्वेदीय पदार्थविज्ञानम् - ले- डॉ. चिं. ग. काशिकर, पुणे-निवासी । विषय- आयुर्वेद की संकल्पना का विस्तृत विवेचन. आयुर्वेदोद्धारक - सन् 1887 मे मथुरादत्त राम चौबे के संपादकत्व में संस्कृत-हिन्दी भाषा में यह मासिक पत्रिका मथुरा से प्रकाशित की गयी। आरम्भसिद्धि (व्यवहारचर्या) - इसकी रचना ज्योतिष-शास्त्र के आचार्य उदयप्रभदेव की है जिनका समय 1220 के आसपास है। इस ग्रंथ में लेखक ने प्रत्येक कार्य के लिये शुभाशुभ मूहूतों का विवेचन किया है। इस पर रत्नेश्वर सूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने वि.सं. 1514 में टीका लिखी थी। इस ग्रंथ में कुल 11 अध्याय हैं जिनमें सभी प्रकार के मुहूर्तो का वर्णन है। व्यावहारिक दृष्टि से यह ग्रंथ 'मुहूर्तचिंतामणि' के समान उपयोगी है। आरण्यक-विलास - श्री यादवेन्द्र राय कृत खण्डकाव्य । आरब्यामिनी - मूल 'अरेबियन नाईटस्' का अनुवाद अनुवादकजगबन्धु। आराधना - ले. अमितगति (द्वितीय) जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती। आराधना - सन् 1956 से हैदराबाद में प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिक। संपादक जी. नागेश्वरराव । आराधनासार - ले- देवसेन । जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती। आराधनासार-समुच्चय - ले- रविचन्द्र। जैनाचार्य ई. 13 वीं शती। आरामोत्सर्गपद्धति - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता- गमेश्वर भट्ट। विषय- धर्मशास्त्र । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /29 For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरुणि - इस नाम की शाखा का उल्लेख ऋग्वेद की शाखाओं के वर्णन में मिलता है। इसी नाम की कृष्ण यजुर्वेद की भी शाखा हो सकती है। यह भी हो सकता है कि इस नाम की केवल ऋग्वेदीय या केवल याजुष शाखा हो। आरुण्युपनिषद - संन्यास विषयक एक गौण उपनिषद् । इसमें 9 मंत्र हैं। संन्यास लेने के इच्छुक पुरुष के कर्तव्य दिये गये हैं। आरोग्यदर्पण - सन 1888 में प्रयाग से पंडित जगन्नाथ के सम्पादकत्व में यह पत्र प्रकाशित किया जाता था। संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में प्रकाशित यह पत्र आयुर्वेद तथा चरक संहिता से सम्बन्धित था। आर्चाभिन - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा। संहिताब्राह्मण के संबंध में कुछ ज्ञात नहीं। आर्य - 1882 में लाहौर से इस मासिक पत्रिका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादक आर.सी. बेरी थे। इसमें दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान धर्म और पाश्चात्य दर्शन से सम्बन्धित विषयों का प्रकाशन होता था। आर्यतारान्तर बलिविधि - ले. चन्द्रगोमी। आर्यतारा देवता विषयक भक्तिपूर्ण स्तोत्रकाव्य। आर्यतारानामस्तोत्र - ले.- अज्ञात। देवी तारा के 108 अभिधानों की संगीत स्तुति एवं विशेषणों तथा नामों का धार्मिक स्तवन। यह साहित्य कलाकृति नहीं मानी जाती। इस स्तोत्र, स्रग्धरास्तोत्र तथा एकविंशतिस्तोत्र तीनों में तारादेवी की स्तुति की है। जे.डी. ब्लोने द्वारा यह अनूदित तथा प्रकाशित हुआ है। आर्यप्रभा - सन 1909 में कलकत्ता से इस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। (गोवर्धन मुद्रणालय 80 मुत्तलरामबन्धू स्ट्रीट कलकत्ता)। संपादक थे श्रीकुंजबिहारी तर्कसिद्धान्त । यह एक साहित्यिक पत्रिका थी। इसमें आर्य संस्कृति और धर्मविषयक विवेचनात्मक निबंध प्रकाशित होते थे। इसका वार्षिक मूल्य सवा रु. था। यह पत्रिका दस वर्षों तक प्रकाशित होती रही। आर्यभटीयम् (अथवा आर्यसिद्धान्त) - एक विश्वविख्यात ग्रंथ। ले.- ज्योतिष शास्त्र के एक महान् आचार्य आर्यभट्ट (प्रथम)। समय ई.5 वीं शती। "आर्यभटीय" की रचना पटना में हुई थी। इसके श्लोकों की संख्या 121 है और यह ग्रंथ 4 भागों में विभक्त है :- गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद व गोलपाद । इस ग्रंथ में चन्द्रग्रहण व सूर्यग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का विवेचन किया गया है। आर्यभट्ट ने सूर्य व तारों को स्थिर मानते हुए, पृथ्वी के घूमने से रात व दिन होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इनके अनुसार पृथ्वी की परिधि 4967 योजन है। आर्यभट्टीय का अंग्रेजी अनुवाद डॉ. केर्न ने 1847 ई. में लाईडेन (हालैण्ड) में प्रकाशित किया था। संस्कृत में "आर्यभट्टीय" की 4 टीकाएं प्राप्त होती हैं टीकाकार है : भास्कर, सूर्यदेव यज्वा, परमेश्वर और नीलकंठ। इनमें सूर्यदेव यज्वा की "आर्यभट्ट-प्रकाश" टीका सर्वोत्तम मानी जाती है। आर्यभाषाचरितम् - ले.- द्विजेन्द्रनाथ गुहचौधरी। आर्यविधानम् (अर्थात् विश्वेश्वरस्मृतिः) - ले.- म.म. विश्वेश्वरनाथ रेवू, जोधपूर-निवासी। आर्यसद्भाव - ई. 11 वीं शती। विषय - ज्योतिषशास्त्र आचार्य मल्लिसेन। ई. 11 वीं शती। इस ग्रंथ की रचना 195. आर्याछंदों में हुई है। इसमें आठ आर्याओं में ध्वज, सिंह, मंडल, वृष, स्वर, गज, तथा वायस के फलाफल तथा स्वरूप का वर्णन किया गया है। ग्रंथ के अंत में लेखक ने बताया है कि ज्योतिषशास्त्र के द्वारा भूत, भविष्य तथा वर्तमान का ज्ञान होता है और यह विद्या किसी और को न दी जाए। आर्यसाधनशतकम् - ले.-चन्द्रगोमिन। 100 श्लोकों की काव्यकृति। आर्यसिद्धान्त - सन 1896 में आर्य समाज प्रयाग द्वारा इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिष्य भीमसेन शर्मा इसके संपादक थे। आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार ही इसका प्रमुख उद्देश्य था। धार्मिक वाद-विवादों को इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। आर्याकौतुकम् - ले.- नागेशभट्ट। ई. 12 वीं शती। पिता-वेंकटेशभट्ट। आर्यातंत्रम् - नागेशभट्ट ई. 12 वीं शती। पिता- वेंकटेशभट्ट । आयांत्रिशती - (1) ले. सामराज दीक्षित। मुंबई में मुद्रित । (2) ले.- व्रजराज। ग्रंथ का अपरनाम- रसिकरंजनम्। आर्यासप्तशती - ले.- विश्वेश्वर। पिता- लक्ष्मीधर । आर्याद्विशती - ले.- दुर्गादास। आयनिषधम् - ले.- मद्रास के पण्डित नरसिंहाचार्य। ई. 20 वीं शती । यह आर्यावृत्त में श्रीहर्षकृत "नैषध" काव्य का संक्षेप है। आर्यालंकार-शतकम - ले.- पं. कृष्णराम, आयुर्वेदाध्यापक, जयपुर। आर्यावर्त-तत्त्ववारिधि - सन् 1895 में गोविन्दचन्द्र मित्र के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से होता था। यह मासिक पत्रिका संस्कृत- हिन्दी में थी। आयशतकम् - (1) ले.- कर्णपूर । कांचनपाडा। (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती। (2) ले.- विश्वेश्वर। (3) ले.- नीलकण्ठ। (4) ले.- अप्पय दीक्षित। आर्यासप्तशती - 700 आर्या छंदों में रचित एक शृंगाररस प्रधान मुक्तक काव्य। रचयिता गोवर्धनाचार्य। बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के आश्रित कवि। समय ई. 12 वीं शती। कवि ने स्वयं अपने इस ग्रंथ में अपने आश्रयदाता का उल्लेख किया है। 30/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गोवर्धनाचार्य ने अपनी इस "सप्तशती" की रचना, प्राकृत भाषा के कवि हालकृत "गाथा सत्तसई' के आधार पर की है इसकी रचना अकारादि वर्णानुक्रम से हुई है जिसके अक्षर क्रम को "व्रज्या" नामक 35 भागों में विभक्त किया गया है। कवि ने नागरिक स्त्रियों की श्रृंगारिक चेष्टाओं का जितना रंगीन चित्र उपस्थित किया है, ग्रामीण स्त्रियों की स्वाभाविक भाव-भंगिमाओं की भी मार्मिक अभिव्यक्ति में उतनी ही दक्षता प्रदर्शित की है। स्वयं कवि अपनी कविता की प्रशंसा करता है। N "मसृणपदरीतिगतयः सज्जन- हृदयाभिसारिकाः सुरसाः । मदनाद्वयोपनिषदो विशदा गोवर्धनस्यार्याः । 151 || प्रस्तुत काव्य में कहीं कहीं श्रृंगार एवं चौर्यरत का चित्रण पराकाष्टा पर पहुंच गया है जिसकी आलोचकों ने निंदा की है। "आर्यासप्तशती" का अपना एक वैशिष्ट्य है । अन्योक्ति का शृंगार परक प्रयोग। इनके पूर्व की किसी भी रचना में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। अन्योक्तियों का प्रयोग, प्रायः नीति विषयक कथनों में ही किया जाता रहा है पर गोवर्धनाचार्य ने शृंगाराता संदर्भों में भी इसका प्रयोग किया है। इसकी चार टीकाएं उपलब्ध हैं। www.kobatirth.org 2) ले- विश्वेश्वर पाण्डेय। पिता- लक्ष्मीधर । पटिया (अलमोडा जिला ) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध) (3) ले राम वारियर। (4) ले अनन्त शर्मा । आर्योदय- महाकाव्यम् - रचयिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय । ई. 19-20 वीं शती । यह गद्यकाव्य भारतीय संस्कृति का काव्यात्मक इतिहास है। इसमें 21 सर्ग एवं 1166 श्लोक हैं। इसके दो विभाग है। पूर्वार्ध व उत्तरार्ध पूर्वार्ध का उद्देश्य है भारत को सांस्कृतिक चेतना प्रदान करना । उत्तरार्ध में स्वामी दयानन्द का जीवनवृत्त है। इसका प्रारंभ सृष्टि के वर्णन से होता है और स्वामीजी की जोधपुर दुर्घटना तथा आर्यसंस्कृत्युदय में इस काव्य की समाप्ति होती है : "जीवनं मरणं तात प्राप्यते सर्वजन्तुभिः । स्वार्थं त्यक्त्वा परार्थाय यो जीवति स जीवति ।। आर्षगीता ले- हंसयोगी रचना ई. 6 वीं शती । आर्षविद्यासुधानिधि - इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन 1878 में कलकत्ता से प्रारंभ हुआ। संपादक थे व्रजनाथ विद्यारत्न । अपने एक वर्ष के प्रकाशन काल में इस पत्रिका में अनेक ग्रंथों तथा उनकी टीकाओं का प्रकाशन हुआ। आलोचनाएं बंगला भाषा में प्रकाशित की जाती थीं। यह पत्रिका अधिक समय तक नहीं चल पायी। आर्षेयब्राह्मणम् यह "सामवेद" का ब्राह्मण है। इसमें 3 प्रपाठक व 82 खंड हैं और साम-गायन के प्रथम प्रचारक ऋषियों का वर्णन है। यही इसकी ऐतिहासिक महत्ता का कारण - , है। साम-गायन के उद्भावक ऋषियों का वर्णन होने के कारण, यह ब्राह्मण "सामवेद" के लिये आर्षानुक्रमणी का कार्य करता है। यह ब्राह्मण बर्नेल द्वारा रोमन अक्षरों में बंगलोर से 1876 ई. में तथा जीवानंद विद्यासागर द्वारा ( सायण - भाष्य सहित) नागराक्षरों में कलकत्ता से प्रकाशित आर्षेयोपनिषद यह नवीन प्राप्त उपनिषद् है इसकी एकमात्र पांडुलिपि अड्यार लाइब्रेरी में है, और इसका प्रकाशन उसी पांडुलिपि के आधार पर हुआ है। यह अल्पाकार उपनिषद् है। इसके 10 अनुच्छेद हैं और विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम व वसिष्ठ प्रभूति ऋषियों के विचार विमर्श के रूप में ब्रह्मविद्या का इसमें वर्णन है ऋषियों द्वारा विचार विमर्श किया जाने के कारण, इसका नामकरण आर्षेय या ऋषिसंबद्ध है। इसमें मुझे कुलुभ तदर एवं बर्बर लोगों का उल्लेख है। आलम्बनपरीक्षा - ले दिइनाग ई. 5 वीं शती केवल तिब्बती अनुवाद से ज्ञात । - | आलम्बनप्रत्यवधानशास्त्र व्याख्या - ले. धर्मपाल (संभवतः दिङ्नाग की रचना पर व्याख्या) । आलम्बि कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । आलम्बि आचार्य पूर्वदेशीय थे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 आलयनित्याचंनपद्धति (व्याख्यासहित) पंचरात्र - पाद्म संहिता के आधार पर रंगस्वामी भट्टाचार्य ने इसकी रचना की है। आळवंदारस्तोत्रम् - आळंवदाररचित 70 श्लोकों का उत्कृष्ट स्तोत्र | "न धर्मानिष्ठोऽस्मि न चात्मवेदी न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे । अकिंचनोऽनन्यगतिः शरण्यं त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये ।। इस प्रकार आत्मसमर्पण के सिद्धान्त का इसमें मनोरम वर्णन है। प्रपत्तिवादी रामानुज संप्रदाय में इस स्तोत्र का विशेष महत्त्व है। I ले. म.म.कालीपद आलस्यकर्मीयम् - ले. के. के. आर. नायर । हास्यप्रधान नाटक । आलापपद्धतिले. देवसेन जैनाचार्य ई. 10 वीं शती । आलोकले. पक्षधर मिश्र ई. 13 वीं शती (उत्तरार्ध) | आलोकतिमिर-वैभवम् (काव्य) तर्काचार्य (1888-1972)। आलोकरहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश । आवटिक यजुर्वेद की एक अप्रसिद्ध शाखा । आवरणभंग ले. वल्लभ संप्रदायी पंडित पुरुषोत्तमजी। इसमें वेदांत के शीर्षस्थ आचार्यों के मतों का खंडन तथा शुद्धाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है। आशुतोषावदानकाव्य ले. म.म. कालीपद तर्काचार्य । 1888 -1972 । बंगाल के सुप्रसिद्ध नेता (श्यामाप्रसाद मुखर्जी For Private and Personal Use Only - · संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 31 - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई के पिता) श्री आशुतोष मुखर्जी का चरित्र इसमें वर्णित है। कलकत्ता के पद्यवाणी में प्रकाशित । आशुबोध - ले.- रामकिंकर । आशुबोध व्याकरणम् - ले.- तारानाथ तर्कवाचस्पति । पाणिनीय पद्धति पर आधारित लघु व्याकरण। 1822-1825 ई.। आश्चर्य-चूडामणि - ले.- शक्तिभद्र। संक्षिप्त कथा :- इस नाटक के प्रथम अंक में लक्ष्मण पंचवटी में राम और सीता के लिए पर्णकुटी बनाते हैं। शूर्पणखा वहां आकर उनसे प्रणय निवेदन करती है। लक्ष्मण उसे राम के पास भेजते हैं। द्वितीय अंक में राम द्वारा अस्वीकृत शूर्पणखा के नाक, कान लक्ष्मण काट देते हैं। कृद्ध शूर्पणखा अपने अपमान के बारे में अपने भाई खर और दूषण को बताने जाती है। तृतीय अंक में लक्ष्मण ऋषियों को राक्षसों के भय से निश्चिन्त करके ऋषियों द्वारा प्रदत्त वस्तुएं लाते हैं जिनमें लक्ष्मण के लिए कवच, राम और सीता के लिए अंगूठी और चूडामणि हैं। इन रत्नों को धारण करने वाले का स्पर्श होने पर राक्षसों की माया दूर हो जाती है। रावण स्वर्णमृग के माध्यम से राम को वन भेजकर स्वयं राम का और उसका सारथि लक्ष्मण का रूप धारण कर सीता का अपहरण करता है। उधर शूर्पणखा सीता का रूप धारण करती है। किन्तु राम का स्पर्श होते ही वह अपने राक्षसी रूप को प्राप्त करती है। चतुर्थ अंक में रावण द्वारा सीता का स्पर्श करने पर रावण अपने स्वरूप को प्राप्त करता है। तब जटायु सीतामुक्ति के लिए रावण से युद्ध करता है किन्तु वीरगति पाता है। पंचम अंक में रावण के प्रणय निवेदन को सीता अस्वीकार कर राम की प्रशंसा करती है, तब रावण उसे तलवार से मारना चाहता है पर मन्दोदरी आकर उसे रोकती है। षष्ठ अंक में हनुमान और सीता का संवाद है, सप्तम अंक में राक्षसकुल का संहार और बिभीषण का राज्याभिषेक होने पर अग्निपरीक्षा से विशुद्ध सीता सहित राम पुष्पक विमान से अयोध्या लौटते है। ___ आश्चर्यचूडामणि में कुल 14 अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 2 विष्कम्भक 1 प्रवेशक और 10 चूलिकाएं हैं। आश्चर्ययोगमाला - (1) ले.- नागार्जुन । श्लोकसंख्या- ४५० । नामान्तर योगरत्नावली या योगरत्नमाला। इस पर श्वेताम्बर जैन मुनि गुणाकर कृत विवृति है। रचनाकाल 1240 ई.। यह आश्चर्ययोगमाला अनुभवसिद्ध तथा सब लोगों के हृदय को प्रिय लगने वाली तथा सूत्रों से समर्थित है इसमें वशीकरण, स्तम्भन, शत्रुमारण, स्त्रियों के आकर्षण की विविध विधियां सिद्ध करने के अनेक उपाय बतलाए गये हैं। आश्मरथ्य - काशिकावृत्ति (4-3-105) भारद्वाज श्रौतसूत्र (1-16-7) वेदान्तसूत्र (1-4-20) तथा चरकसूत्र स्थान (1-10) इन ग्रंथों में आश्मरश्य का निर्देश है। यह किस वेद की शाखा है यह कहना असंभव है। आश्लेषाशतकम् - ले.- नारायण पंडित । विषय-निसर्गवर्णन। आश्वलायन-गुह्यसूत्र-वृत्ति - ले.- आनन्दराय मखी। ई. 17 वीं शती (उत्तरार्ध) आश्वलायन-श्रौतसूत्रम् - ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा की संहिता यद्यपि उपलब्ध नहीं तथापि उसके गृह्य एवं श्रौत सूत्र उपलब्ध हैं। ऐतरेय ब्राह्मण से आश्वलायन का निकट का संबंध है। अश्वल ऋषि विदेहराज जनक के यहां थे। वे ही इन सूत्रों के प्रवर्तक हैं। ऐतरेय आरण्यक के चौथे कांड के प्रवर्तक आश्वलायन, शौनक ऋषि के शिष्य थे। ऐतरेय ब्राह्मण तथा ऐतरेय आरण्यक में जो श्रौतयज्ञ विस्तृत रूप में बताये गये हैं, उन्हें संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है। इसमें 12 अध्याय हैं। आषाढस्य प्रथमदिवसे - ले.- डॉ. वेंकटराम राघवन्। मद्रास की आकाशवाणी से प्रसारित प्रेक्षणक (ओपेरा)। विषयकालिदास के यक्ष के रामगिरि पर मिलने की कल्पित कथा। आषाढस्य प्रथमदिवसे - ले.- श्रीराम वेलणकर। 20 वीं शती। सुरभारती, भोपाल से सन 1972 में प्रकाशित । मेघदूत की पूर्ववर्ती कथा । पूर्वमेघ का अनुसरण । मेघदूत पर आधारित 17 गीतों का यह आकाशवाणी-नाटक है। आसुरीकल्प - (1) श्लोक संख्या 80। रचनाकाल ई. 1827। इसमें आसुरी देवी के मंत्रों से मारण, मोहन, स्तम्भन आदि तांत्रिक षट्कर्मों की सिद्धि का प्रतिपादन है। (2) श्लोकसंख्या 2201 इसमें तांत्रिक षट्कर्मों की सिद्धि आसुरी मंत्रों से प्रतिरपादित है। विभिन्न ग्रंथों से संग्रहीत चार आसुरी कल्प हैं। आसुरी विधान, राजवशीकरण, वन्ध्या का पुत्रजनन, देहन्यास आदि के साथ आसुरी मंत्र का प्रतिपादन । इसमें चतुर्थ कल्प शिव-कार्तिकेय संवाद रूप है। आसुरीकल्पविधि - आसुरीकल्पसमुच्चय में प्रतिपादित वशीकरण आदि षट्कर्मों की पद्धति इसमें प्रतिपादित है। आसुरीतंत्रसमुच्चय - श्लोकसंख्या 100। शिव- कार्तिकेय संवाद रूप। विषय- ऋतु, वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र, बेला आदि तथा ध्यान आदि आसुरीकल्प की विधि इसमें प्रतिपादित है। आसुरी तंत्र के मुख्य विषय मारण, मोहन आदि हैं। आहिक श्लोकसंख्या 601 प्रातःकाल से सायंकाल पर्यन्त के और सायंकाल से प्रातःकाल पर्यन्त के धार्मिक कृत्यों का इसमें वर्णन है। आस्तिकस्मृति - ले.- पं. शिवदत्त त्रिपाठी। आहिताग्निदाहादिपद्धति - ले. नारायण भट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता- रामेश्वरभट्ट।। आह्निकचन्द्रिका - केशवपुत्र धनराज द्वारा विरचित । श्लोकसंख्या 700। तांत्रिक पूजा में अधिकार प्राप्ति के लिए प्रातःकाल के कृत्य तथा न्यास आदि इसमें वर्णित हैं। शिवपूजा की विधि 32 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तार से और दुर्गा, बगलामुखी की पूजा संक्षेपतः वर्णित है। आह्निकस्तव - रचयिता ब्रह्मश्री कपाली शास्त्री। इसमें श्रीमदरविन्द त्रिपदा-स्तवत्रयम् (आध्यात्मिक काव्य) तथा सूक्तस्तवः नामक काव्य समाविष्ट । दूसरे काव्य में ऋग्वेद प्रथम मण्डल, द्वादश अनुवाद में पराशर के अग्निसूक्तों का भाव, अरविन्दतत्त्व के अनुसार प्रदर्शित हैं। इसके तीसरे काव्य कुमारस्तव में हृदय में स्थित दिव्य अग्नि ही कुमारगुह है यह भाव प्रदर्शित किया है। आह्वरक शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - आह्वरक के संहिता और ब्राह्मण दोनों ही विद्यमान थे। आज वे लुप्त हैं। आह्वरक शाखा का एक मंत्र पिंगल सूत्र की अपनी टीका में यादवप्रकाश ने उद्धृत किया है। इन्दिराभ्युदय - ले.- राघवाचार्य (2) रघुनाथ इन्दिराभ्युदयचम्पू - ले.- रघुनाथ। इंदूतम - रचयिताविनय-विजय-गणि। समय- 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। इस काष्य में कवि ने अपने गुरु विजयप्रभ सूरीश्वर महाराज के पास चंद्रमा से संदेश भेजा है। सूरीश्वरजी सूर्यपुर (सूरत) में चातुर्मास पिता रहे हैं और कवि जोधपुर में है। इस क्रम में कवि ने जोधपुर से सूरत तक के मार्ग का उल्लेख किया है। "इंदुदूत" में 131 श्लोक हैं और संपूर्ण रचना मंदाक्रांता वृत्त में की गई है। इसकी रचना "मेघदूत' के अनुकरण पर हुई है किन्तु इसमें नैतिक या धार्मिक तत्त्वों की प्रधानता होने के कारण, सर्वथा नवीन विषय का प्रतिपादन किया गया है। गुरु की महिमा के अनेक पद्य हैं। स्थान-स्थान पर नदियों व नगरों का अत्यंत मोहक चित्रण है। इसका प्रकाशन श्री जैन साहित्य वर्धक सभा, शिवपुर (पश्चिम खानदेश) से हुआ है। इन्दुमती - ले.- इन्दुमित्र। समय- ई. 9 से 12 वीं शती। पाणिनीय अष्टाध्यायी पर टीका। इन्दुमती-परिणय - ले.- तंजौर के नरेश शिवाजी महाराज । (ई. 1833-1855) यह यक्षगानात्मक नाटक है। इसका प्रथम अभिनय तंजौर में बृहदीश्वर की चैत्रोत्सव यात्रा में हुआ। इसकी प्रस्तावना सूत्रधार ने लिखी है। रंगमंच पर सूत्रधार प्रारंभ से अंत तक उपस्थित रहता है। सभी संवाद संस्कृत में हैं। जयगान, शरणगान, मंगलगान, तत्पश्चात गणेश, सरस्वती, परमेश्वर तथा विष्णु की स्तुति के बाद कथानक प्रारम्भ होता है। व्याकरणात्मक अशुद्धियों भरपूर है। इसमें रघुवंश में वर्णित अज-इन्दुमती के विवाह की कथा वर्णित है। इन्द्रजालम् - ले.- नित्यनाथ। विषय- तंत्रशास्त्र । इन्द्रजाल-उड्डीशम् - ले.- रावण। विषय- तंत्रशास्त्र। इन्द्रजालविधानम् - ले.- नागोजी। विषय- तंत्रशास्त्र। इन्द्रजालकौतुकम् - ले.- पार्वती-पुत्र नित्यनाथ सिद्ध या सिद्धनाथ। विषय- तंत्रशास्त्र । इन्द्रद्युम्नाभ्युदयम् • ले.- व्यंकटेश वामन सोवनी। विषयआध्यात्मिक काव्य। इन्द्राक्षीपंचांगम् - प्रथम खण्ड में रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप इन्द्राक्षीपद्धति एवं 10 से 12 तक रुद्रयामलान्तर्गत ईश्वर-पार्वती संवादरूप इन्द्राक्षीकवच का वर्णन है। द्वितीय खण्ड में रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप इन्द्राक्षीसहस्त्र नाम स्तोत्र है तथा तृतीय खण्ड में रुद्रयामलान्तर्गत उमा महेश्वर संवादरूप इन्द्राक्षीस्तोत्र है। अन्त में देवी इन्द्राक्षी का ध्यान दिया गया है। इन्द्राणी-सप्तशती - ले.- वासिष्ठ गणपति मुनि। ई. 19-20 शती। पिता- नरसिंह शास्त्री। माता-नरसांबा । विषय- स्तोत्रकाव्य । इलेश्वरविजयम् - ले.- ईश्वरोपाध्याय। ई. 8 वीं शती। इष्टार्थद्योतिनी - श्लोक 52301 32 पटलों में पूर्ण। विषयविविध औषधियां तथा वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण, मोहन, मारण आदि तांत्रिक षट्कर्म। इष्टिपद्धति - ले.- कात्यायन। विषय-कर्मकाण्ड। इष्टोपदेश - ले.- देवनन्दी पूज्यपाद। (जैनाचार्य) ई. 5-6 शती। माता-श्रीदेवी। पिता-माधवभट्ट । ईशलहरी - ले.- व्यङ्कटेश वामन सोवनी। स्तोत्र काव्य । ईशान-शिवगुरुदेव-पद्धति -(1) श्लोक संख्या 215। यह कुलार्णव तन्त्रान्तर्गत शिव-पार्वती संवाद रूप, फिर नारद-गौतम संवादरूप वैष्णव तंत्र है। शिवजी के छठे मुख से (जो गुप्त और ईशान कहलाता है) निकलने के कारण, "ईशान" कहलाता है। तन्त्र के छह आम्नाय जो विविध देवी-देवताओं की पूजाविधि का प्रतिपादन करते हैं, शिवजी के छह मुखों से निकले हैं। जैसे इसी तंत्र के प्रारंभ में कहा है- भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, महालक्ष्मी और सरस्वती ये देवियां चतुर्वग देने वाली हैं। इनके मंत्र वांछित फल देने वाले हैं और वे सब मन्त्र तथा साधन शिव के पूर्व मुख से कहे गये हैं। दक्षिणामूर्ति, गोपाल और विष्णु ये भी चतुर्वर्ग देने वाले हैं। इनके मन्त्र साधनों सहित दक्षिण मुख से कहे गये हैं। काली, तारा, महिषमर्दिनी, · त्वरिता, बगला, जयदुर्गा तथा मातंगिनी आदि प्रत्येक युग में पूर्ण कला हैं। कलियुग में तो उनकी पूर्ण कला विशेष रूप से व्यक्त है। उनके मन्त्र और साधन उत्तर मुख से कहे गये हैं। त्रिपुरेश्वरी चण्डी, त्रिपुरभैरवी, त्रिपुरा, नित्या तथा अन्यान्य देवता चतुर्वर्गप्रद हैं। साधनों सहित उनके मन्त्र मनुष्यों के भोग और मोक्ष के लिये अर्ध्व मुख से कहे । गये हैं। सूर्य, चन्द्रमा, हनुमान्, गौरांगी, अपराजिता, प्रत्यंगिरा तथा अन्यान्य देवता चतुर्वर्गफलप्रद हैं। इनके मंत्र और साधन गुप्त मुख से कहे गये हैं। (2) श्लोक- 181। यह नारद-गौतम संवादरूप गुप्तानाय संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/33 For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलार्णव का एक अंश हैं। इसमें वैष्णवों के आधार धर्म निरूपित है। ईशान शिवगुरुदेवपद्धति - विषय- शिल्प शास्त्र । तीन भागों में प्रकाशित । डा.कु. रूटेला क्रेमरिश ने इसका अनुवाद किया जो कलकत्ता ओरिएंटल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। ईशानसंहिता - (1) ले.- यदुनाथ। आगमकल्पलता का आधारभूत ग्रंथ । विषय- तंत्रशास्त्र। (2) ईश्वर अगस्त्य संवादरूप तंत्रशास्त्रीय ग्रंथ। ज्ञानरत्नाकर तथा अमरीकल्प आदि इसी से गृहीत हैं। ईशावास्य (या ईश) उपनिषद् -यह "शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता का अंतिम (40 वां) अध्याय है। इसमें 18 मंत्र हैं तथा प्रथम मंत्र के आधार पर इसका नामकरण किया गया है। ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।। इसमें जगत् का संचालन एक सर्वव्यापी अंतर्यामी द्वारा होने का वर्णन है। द्वितीय मंत्र में कर्म सिद्धांत का वर्णन करते हुए निष्काम भाव से कर्म करने का विधान है तथा सर्व भूतों में आत्मदर्शन एवं विद्या व अविद्या के भेद का वर्णन है। तृतीय मंत्र में अज्ञान के कारण मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होने वाले दुःख का वर्णन तथा चौथे से सातवें मंत्र में ब्रह्मविद्या विषयक मुख्य सिद्धांतों का वर्णन है। नवें से ग्यारहवें श्लोक में विद्या व अविद्या के उपासना के तत्त्व का निरूपण तथा कर्मकांड और ज्ञानकांड के पारस्परिक विरोध व समुच्चय का विवेचन है। तद्नुसार ज्ञान व विवेक से रहित कोरे कर्मकांड की आराधना करने वाली व्यक्ति घोर अंधकार में प्रवेश कर जाते हैं। अतः ज्ञान व कर्म के साथ चलने वाला व्यक्ति शाश्वत जीवन तथा परमपद प्राप्त करता है। 12 से 14 वें श्लोक में संभूति व असंभूति की उपासना के तत्त्व का निरूपण है। 15 व 16 वें श्लोक में भक्त के लिये अंतकाल में परमेश्वर की प्रार्थना पर बल दिया गया है और अंतिम दो श्लोकों में शरीर त्याग के समय प्रार्थना तथा परम धाम जाते समय अग्नि की प्रार्थना का वर्णन किया है। इसमें एक परम तत्त्व की सर्वव्यापकता, ज्ञान-कर्म समुच्चयवाद का निदर्शन, निष्काम कर्मवाद की ग्राह्यता, भोगवाद की क्षणभंगुरता, अंतरात्मा के विरुद्ध कार्य : न करने का आदेश तथा आत्मा के सर्वव्यापक रूप का ज्ञान प्राप्त करने का उपदेश है। इस उपनिषद् पर सभी' आचार्यों के भाष्य हैं, अनेक आधुनिक विद्वानों ने भी इस पर भाष्य लिखे हैं। ईशोपनिषद्भाष्य - ले. गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंह शास्त्री। माता- नरसांबा। ईश्वरदर्शनम् - ले, प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। यह सूत्रबद्ध आधुनिक ग्रंथ है। ईश्वरदर्शनम् (तपोवनदर्शनम्) - ले.-' तपोवनस्वामी। 1950 ई. में लिखित । मलबार (त्रिचूर) में प्रकाशित आत्मचरित्र पर उल्लेखनीय काव्य है। ईश्वरदूषणम् - ले.- ज्ञानश्री। ई. 14 वीं शती के बौद्धाचार्य । ईश्वरास्तित्ववादी मत का खंडन।। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा - ले.- उत्पलाचार्य । श्लोकसंख्या- 200। यह काश्मीरी शैव सम्प्रदाय का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ईश्वरभंगकारिका - ले.- कल्याणरक्षित। ई. 9 वीं शती। विषय- बौद्धमतानुसार ईश्वरास्तित्ववाद का खंडन।। ईश्वरविलसितम् - ले.- श्री भट्टमथुरानाथ शास्त्री। जयपुरनिवासी। ईश्वरसंहिता -सन् 1923 में कांजीवरम् में यह पांचरात्र मत की संहिता प्रकाशित हुई। इसमें कुल 24 अध्याय हैं। 16 अध्यायों में पूजाविधान का वर्णन है। इस संहिता के अनुसार समस्त वेदों का उगमस्थान एकायनवेद है जो वासुदेवप्रणीत है। इसी वेद के आधार पर पांचरात्र संहिता और मन्वादि धर्मशास्त्र निर्माण हुए। ईश्वरस्तुति -ले.- शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती : ईश्वरस्वरूपम् - ले.- एस.ए. उपाध्याय। वडोदरा निवासी। म. गान्धी के सिद्धान्तानुसार नवीन तत्त्वज्ञान के प्रतिपादन का प्रयास। इसमें जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता, पुनर्जन्म आदि के विरोध में मत व्यक्त किए हैं। 'मुद्रित। . ईश्वरीयस्तवार्थक गीतसंहिता- बैटिस्ट मिशन, कलकत्ता, द्वारा 1877 में प्रकाशित । ईश्वरोक्तशास्त्रधारा - मूल- दि कोर्स ऑफ डिव्हाइन रिवेलेशन । अनुवादकर्ता-जान मूर। बैटीस्ट मिशन प्रेस कलकत्ता द्वारा सन् 1846 में प्रकाशित। उग्रतारापंचांग - श्लोक- 4201 देवी- भैरव संवादरूप इस ग्रंथ में उग्रतारा की पूजा-विधि तथा स्तव प्रतिपादित हैं। इसमें 3 भाग रुद्रयामल से तथा 2 भाग कुलसर्वस्व से लिए गये है। रूद्रयामलतन्त्रान्तर्गत- (i) उग्रतारापटल (2) उग्रतारानित्यपूजापद्धति । (3) उग्रताराकवच कुलसर्वस्वान्तर्गत :- 1 (4) उग्रतारासहस्रनामस्तव। (5) उग्रतारास्तव उग्ररथशान्ति-कल्पप्रयोग - श्लोक- 650। यह शैवागमान्तर्गत शिव-षण्मुख संवाद रूप है। प्राणियों, पुत्र-पौत्रों, धनधान्यों का नाश करने वाला तथा राजाओं को राज्यच्युत कराने वाला यह 'ऊपरथ' कौन है, इससे जीवों को त्राण कैसे मिल सकेगा। इसी प्रश्न का शिवजी ने इसमें उत्तर दिया है। इसमें प्रतिपादित विषय है जब पुरुष 60 वर्ष का हो जाये तब उसे कल्याण प्राप्ति तथा धनधान्य और पुत्र पौत्रादि की रक्षा के लिए शैवागमोक्त उग्ररथ शान्ति की विधि । 34 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ट For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्छिष्टगणेशपंचांगम् -श्लोक- 290। उमा-महेश्वर संवादरूप, तांत्रिक ग्रंथ। रुद्रयामलान्तर्गत 1 उच्छिष्टगणेशपटल 2 उच्छिष्ट गणेशपूजन गणेशकवच रुद्रयामलान्तर्गत 4 उच्छिष्टगणेश सहस्रनाम और 5 उच्छिष्टगणेशस्तोत्र इसमें वर्णित हैं। उच्छिष्टचाण्डलीकल्प - (1) श्लोक- 106। इसमें उच्छिष्टचाण्डाली देवता की पूजा का विवरण है। विशेष रूप से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि तांत्रिक षट्कर्मों की पूर्वपीठिका के रूप में रुद्रयामल तन्त्र से प्रदीर्घ अंश उद्धृत किया गया है। इसमें दक्षिणकाली की पूजाविधि भी रुद्रयामल से ही गृहीत है। पुष्पिका में इस ग्रंथ का अपर नाम "सुमुखीकल्प" भी दिया गया है। उच्छिष्टपुष्टिलेश - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भवासी। उच्छंखलम् - सन 1940 में वाराणसी से इस पाक्षिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस पत्र के सम्पादक कल्पित नामधारी श्री सिद्धिसिंग तैलंग थे, किन्तु उनका वास्तविक नाम माधवप्रसाद मिश्र गौड था। यह पत्र पूर्णिमा और अमावस्या को प्रकाशित होता था। इसका वार्षिक मूल्य दो रुपये तथा प्रति अंक का मूल्य दो आने था। हास्यरस प्रधान इस पत्र 'में अश्लील हास्यों का प्रकाशन भी होता था। अजन ना, जडी-बटीना , भूत ब्रह्म भधारण का अडामरतंत्रम् - 1. श्लोक - 550 । पटल- 15। इस के तृतीय पटल में अंजनाधिकार, छठवें में पुरुषवश्याधिकार, 13 वें में भूतभैरव, 14 और 15 वें में मन्त्रकोष इत्यादि तांत्रिक विषय वर्णित हैं। 2. विषय - कार्तवीर्यपध्दति, कार्तवीर्यमन्त्र, कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रविधान कार्तवीर्यार्जुन सहस्त्रनाम, कार्तवीर्यस्तवराज, चण्डिका- पूजाविधि, दत्तात्र्येयकल्प, दत्तात्रेयकवच, दत्तात्रेयविषयक मन्त्रादि, पंजर-विधान, परादेवीसूक्त, प्रत्यंगिराकल्प, भैरवसहस्रनामस्तोत्र आदि। उड्डामरेश्वरतन्त्रम् - श्लोक - 760। पटल 16। यह महातन्त्र रुद्रयामल से उध्दत महादेव-पार्वती संवादरूप है। इसमें उच्चाटन, विद्वेषण, मारण आदि की सिध्दि करा देना, फोडे, फुसियां पैदा करा देना, जल रोक देना, खेत की खडी फसल उजाड देना, पागल और अन्धा बना देना, विष उतार देना, अंजन सिध्द कर देना, मन उच्चाटन कर देना, भूत ब्रह्मराक्षस आदि को पीछे लगा देना, जडी-बुटी उखाडने की विधि, नारी के गर्भधारण का उपाय, नानाप्रकार की औषधियों का प्रयोग, वश में करने वाले तिलक अंजन आदि का निर्माण, डाकिनीदमन, यक्षिणियों का साधन, चेटक-साधन, नाना सिध्दियों के उत्पादक मन्त्र, विविध प्रकार के लेप, मन्त्रों के अभिषेक का फल और विधि, महावृष्टि, रोगशान्ति, वशीकरण, आकर्षण आदि सिध्दियों का साधन , विद्याधर बन जाना, खडाऊ और वेताल की सिध्दि कर लेना, अदृश्य हो जाना आदि विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। उड्डीशतन्त्रम् - श्लोक सं-496 । यह गौरी-शंकर संवादरूप ग्रन्थ 11 पटलों में पूर्ण है। इसमें प्रतिपादित मन्त्रों का एकान्त में जप करना चाहिये एवं इसमें उक्त देवी देवताओं और मन्त्रों का श्रध्दायुक्त मन से ध्यान करना चाहिए। यह कौल तन्त्र विविध प्रकार के टोने, टुटके, झाड-फूकं, आदि का प्रतिपादन करता है। प्रांरभिक वाक्य द्वारा यह मन्त्रचिन्तामणि कहा गया है। इस ग्रंथ की प्रतियों के विभिन्न पटलों की पुष्टिकाएं इसका विभिन्न नामों से निर्देश करती हैं जैसे उड्डामरेश्वरतन्त्र , उड्डीश वीरभद्रतन्त्र, वीरभद्रोड्डीश, रावणोड्डीश आदि । उड्डीश-उत्तरखण्ड - पटल- 6। कुछ गद्यांश । श्लोक350। शिव-कालिका संवादरूप। यद्यपि यह 'उड्डीश है पर इसका वशीकरण आदि तांत्रिक षट्कमों से कोई सम्बन्ध नहीं। यह एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक विचारों का प्रतिपादक ग्रंथ है। उड्डीशवीरभद्रम् - श्लोक- 320। पांच पटल। उणादिकोश - ले. रामचंद्र तर्कवागीश। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण। उणादि-मणिदीपिका - ले.- रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण । उज्वलनीलमणि - एक काव्यशास्त्रीय मान्यताप्राप्त ग्रंथ। प्रणेता रूप गोस्वामी (ई. 16 वीं शती) प्रस्तुत ग्रंथ में "मधुरश्रृंगार" का निरूपण है और नायक-नायिका भेद का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें श्रृंगार का स्थायी भाव प्रेमरति को माना गया है और उसके 6 विभाग किये गये हैं। स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग व भाव। इस ग्रंथ में नायक के 4 प्रकार के दो विभाग किये गये हैं। पति व उपपति एवं उनके भी दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल व शठ के नाम से 96 प्रकारों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार नायिका के 2 विभाग किये गये हैं, स्वकीया व परकीया और पुनः उनके अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। ___ ग्रंथ प्रणेता रूपगोस्वामी के भतीजे जीवगोस्वामी ने इस ग्रंथ पर "लोचनरोचनी" नामक टीका लिखी है। इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। उज्ज्वला - ले.- गोपीनाथ मौनी। यह तर्कभाषा की एक टीका है। उज्ज्व ला - ले.- हरदत्त। ई. 15-16 वीं शती। आपस्तम्ब धर्मसूत्र की उत्तम व्याख्या। उज्ज्वलानन्दचम्पू - ले.- •मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 35 For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उणादिवृत्ति - ले- उज्ज्वलदत्त (ई. 13 वीं शती) (2) श्लोक- 210। 10 पटल। विषय- साधकों के उणादिवृत्ति - ले. पुरुषोत्तम देव । ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। कर्त्तव्य, उनकी विधि-दीक्षा के लिये गुरु-शिष्यों की पात्रता, उत्कलिकावल्लरी - ले.- रूप-गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। कौल शक्ति, कुलसाधकों के लक्षण, कला-प्रशंसा, शक्तिप्रशंसा, विषय- कृष्णभक्ति। स्वयंभू-कुसुम-माहात्म्य आसनविधि, बलिप्रशंसा आदि । उत्तम-जॉर्ज-ज्यायसी रत्नमालिका - ले. एस्. श्रीनिवासाचार्य.। उत्तरनैषधम् - ले. वन्दारुभट्ट। कोचीन-नरेश का आश्रित । ई. कुम्भकोणम् के निवासी। विषय- आंग्लसम्राट् पंचम जॉर्ज की 19 वीं शती (पूर्वार्थ)। माता-श्रीदेवी। पिता- नीलकण्ठ । प्रशंसा। श्रीहर्षकृत 'नैषधचरितम्' का क्लिष्टत्वरहित अनुकरण इस काव्य उत्तरकाण्डचम्पू - ले. राघव । का वैशिष्ट्य है। उत्तर-कामाख्यातन्त्रम् - श्लोक 315। पार्वती- ईश्वरसंवादरूप। उत्तरपुराण - 1. इसकी रचना जिनसेन के शिष्य गुणभद्र (ई. पूर्वखण्ड और उत्तरखण्ड नामक दो खंडो में विभक्त। उत्तर 9 वीं शती) द्वारा गुरु के निर्वाण के पश्चात् हुई थी। इसे खण्ड में 13 पटल हैं। विषय- चार युगों के धर्म। भिन्न जैनियों के आदि पुराण का उत्तरार्ध माना जाता है। कहते हैं भिन्न महीनों में भिन्न भिन्न देवताओं की पूजा का फल। - कि 'आदिपुराण' के 44 सर्ग लिखने के बाद ही जिनसेनजी अन्तर्याग। विष्णुचक्र से कटे हुये सती के अंग प्रत्यंगों से का निर्वाण हो गया था। तदनंतर उनके शिष्य गुणभद्र ने उत्पन्न पीठों में शक्ति और भैरवों के नाम। 'आदि पुराण' के उत्तर अंश को समाप्त किया। अतः इसे उत्तरकुरुक्षेत्रम् - ले.- विश्वेश्वर विद्याभूषण। 'संस्कृत साहित्य उत्तर पुराण कहते हैं। पत्रिका' वर्ष 50-51 में प्रकाशित नाटक। मधु-पूर्णिमा के ___ इस पुराण में 23 तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र वर्णित हैं जो अवसर पर अभिनीत। अंकसंख्या 5। इसमें महाभारत युद्ध दूसरे तीर्थकर अजितसेन से लेकर 24 वें तीर्थकर महावीर के पश्चात् की कौरव, पाण्डव तथा श्रीकृष्ण की दुःस्थिति का. तक समाप्त हो जाता है। इसे जैनियों के 24 पुराणों का चित्रण है। प्रत्येक अंक में भिन्न-भिन्न कथाएं अनुस्यूत हैं। 'ज्ञान-कोश" माना जाता है क्यों कि इसमें सभी जैन पुराणों इसमें नाटकीयता तथा कार्य (एक्शन) को स्थान नहीं है। का सार संकलित है। इसमें 32 उत्तरवर्ती पुराणों की भी 'अनुक्रमणिका प्रस्तुत की गई है। 'आदिपुराण' व 'उत्तरपुराण' ___ कुन्ती का वानप्रस्थ, कृष्ण का प्रभास-प्रस्थान, द्वारका के में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन-चरित्र का वर्णन करने से पूर्व यादवों का विनाश, कृष्ण-बलराम का देहत्याग, यादव महिलाओं । चक्रवर्ती राजाओं की कथाएं वर्णित हैं। इनके विचार से प्रत्येक का दस्युओं द्वारा अपहरण परीक्षित्' का राज्याभिषेक, शमीक तीर्थकर पूर्व जन्म में राजा थे। इसमें कुल मिला कर 63 ऋषि के गले में मृत सर्प डालने से परीक्षित् का शापग्रस्त व्यक्तियों का चरित्र वर्णित है, जिनमें 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती होना, जनमेजय का सर्पसत्र, आस्तिक द्वारा सर्पो का रक्षण राजा, 9 वासुदेव, 9 शुक्लबल तथा १ विष्णुद्विप आते हैं। आदि घटनाओं का वर्णन है। इसमें सर्वत्र जैन धर्म की शिक्षा का प्रतिपादन है तथा श्रीकृष्ण उत्तरचंपू - 1. ले. भगवंत कवि। एकोजी भोसले के मुख्य को त्रिखंडाधिपति एवं तीर्थंकर नेमिनाथ का शिष्य माना गया है। . अमात्य गंगाधर का पुत्र। ई. 17 वीं शती। रामायण के ____ 2. ले.- सकलकीर्ति । जैनाचार्य । पिता- कर्णसिंह । माता-शोभा उत्तरकांड पर आधारित। इसमें मुख्यतः राम-राज्याभिषेक का ई. 14 वीं शती। इसमें 15 अधिकार (अध्याय) हैं। वर्णभ किया गया है, इसकी रचना-शैली साधारण कोटि की उत्पत्तितन्त्रम् - 1. श्लोक 642। पटल संख्या 380 से है और यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण अधिक। उमा द्वारा कलिसम्मत साधन के विषय में पूछे जाने तंजौर केटलाग में प्राप्त होता है। 2. ले.- ब्रह्म पंडित। 3. पर भगवान् ने उस पर निम्ननिर्दिष्ट विषयों का प्रतिपादन किया राघवभट्ट। - दिव्य भाव की प्रशंसा, बलियोग्य पशु और पक्षी, असंस्कृत उत्तरचम्पूरामायणम् - कवि- वेंकटकृष्ण। चिदम्बरम् निवासी। मद्यपान, यवनी-योनियों में गमन करने पर भी लौकिक की ई. 19 वीं शती। निर्दोषता, भाव-लक्षण, कलियुग में सुरापान से भारतवर्ष में उत्तरचरितम् - (रूपक) ले.- रामकृष्ण। ई. 18 वीं शती। वर्णभ्रंश, म्लेछों के राज में कलिस्वभाव, कलियुग में पशुभाव श्रीरामचंद्र के उत्तरकालीन जीवन वृत्तान्त का वर्णन है। का विधान, मद्यपान आदि का निषेध, उसके अनुकल्प का उत्तरतन्त्रम् - (1) श्लोक 500। यह देवी-ईश्वर संवादरूप निषेध, करमाला की शक्ति साधना का वृत्तान्त, कालधर्म, तांत्रिकग्रंथ 16 पटलों में पूर्ण है। देवी ने साधकों की आत्मसमर्पण का प्रकार, बाणलिंग में आवाहन, शिवनिर्माल्य प्रयोगविधि, शाक्तनिन्दा में दोष, महाविद्या पूजन, भगलिंग के जलपान आदि की फलश्रुति, प्रातःकृत्य-निरूपण, शिव-निन्दा माहात्म्य, गृहस्थों के आचार, कर्म-काल, पुरश्चरण, बलिदान में दोष, दुर्गापूजा का माहात्म्य, अर्घ्यदानविधि, गंगाजल में आदि का निरूपण विस्तार से किया है। देवता के आवाहन की आवश्यकता, विष्णुतत्त्व, दशावतारवर्णन, 36/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म्लेच्छ राज्य का काल, गौड देश गर्गपुर में कल्कि अवतार, उनके विवाह, बाह्यशुद्धिनिरूपण, जगन्नाथ के प्रसाद का माहात्म्य, गंगामाहात्म्य, ब्रह्मादि देवों के जन्म-विवाह, पांच प्रकार की मुक्ति, गोलोक, शिवलोक, सत्यलोकादि का वर्णन, कालिका निर्वाणदायिनी है यह कथन, बाणलिंग का प्रमाण आदि।। उत्तररंगमाहात्म्य - ले. श्रीकृष्णब्रह्मतन्त्र परकालस्वामी। (ई. 19 वीं शती)। उत्तररामचरितचंपू - ले. वेंकटाध्वरी । रचना-काल'1627 ई. । उत्तर-रामचरित-टीका - ले. घनश्याम। ई. 18 वीं शती। भवभूतिकृत नाटक की टीका। उत्तररामचरितम् - ले. महाकवि भवभूति। इस नाटक की गणना संस्कृत के श्रेष्ठ नाट्य ग्रंथों में होती है। इस नाटक में भवभूति ने राम के राज्याभिषेक के पश्चात् का अवशिष्ट जीवन वृत्तांत 7 अंकों में चित्रित किया है। __इस नाटक के कथानक का उपजीव्य वाल्मीकि रामायण पर आधारित है परंतु कवि ने मूल कथा मे अनेक परिवर्तन किये है। वाल्मीकि रामायण में यह कथा दुःखांत है और सीता अपने चरित्र के प्रति उठाए गए संदेह को अपना अपमान मान कर, पृथ्वी में प्रवेश कर जाती है। पर प्रस्तुत 'उत्तररामचरित' - नाटक में कवि ने राम-सीता का पुनर्मिलाप दिखा कर, अपने नाटक को यथासंभव सुखांत बना दिया है। संक्षिप्त कथा - रामायण के उत्तरकाण्ड पर आधारित इस नाटक के प्रथम अंक में राम, दुर्मुख नामक दूत से सीताविषयक लोकनिंदा की सूचना प्राप्त करते हैं। तब सीता के परित्याग का निश्चय कर, राम लक्ष्मण के साथ सीता को भागीरथी दर्शन के बहाने भेज देते हैं। द्वितीय अंक में राम दण्डकारण्य में जाकर शंबूक का वध करते हैं और जनस्थान के पूर्वपरिचित स्थानों को देखकर दुःखी होते हैं तथा अगस्त्याश्रम में जाते हैं। तृतीय अंक में पंचवटी में राम और वनदेवता वासंती का संवाद है। पूर्वानुभूत स्थानों को देखकर राम मूर्च्छित हो जाते हैं। वहीं अदृश्य रूप में उपस्थित सीता स्पर्श करके उन्हें सचेत करती है। चतुर्थ अंक में वाल्मीकि आश्रम में जनक कौशल्या और वसिष्ठ का लव के साथ वार्तालाप है। राजपुरुष से अश्वमेधीय अश्व के बारे में जानकर चन्द्रकेतु के साथ युद्ध करने लव चला जाता है। पंचम अंक में अश्वरक्षक चन्द्रकेतु और लव का वादविवाद है। षष्ठ अंक में उन दोनों के युद्ध को रामचन्द्र आकर बंद करवाते हैं। युद्ध का समाचार पाकर आये हुए कुश तथा लव को देखकर उनके प्रति राम का प्रेम उमडता है। सप्तम अंक में राम को सीता परित्याग के बाद कठोरगर्भा सीता को पुत्रप्राप्ति होना, पृथ्वी द्वारा उसे ले जाना आदि घटनाएं गर्भीक द्वारा बतायी गयी है। बाद में भागीरथी और गंगा प्रकट होकर राम और सीता का मिलन कराती हैं। उत्तररामचरित में अर्थोपक्षेपकों की संख्या 20 है। इनमें 4 विष्कम्भक और 16 चूलिकाएं हैं। प्रथम अंक में चित्रशाला की योजना, भवभूति की मौलिक कल्पना है। इसके द्वारा नाटककार की सहृदयता, भावुकता एवं कलात्मक नैपुण्य का परिचय प्राप्त होता है। इस दृष्य के द्वारा सीता के विरह को तीव्र बनाने के लिये सुंदर पीठिका प्रस्तुत की गई है और इसमें भावी घटनाओं के बीजांकुरों का आभास भी दिखाया गया है। द्वितीय अंक में शबूंक वध की घटना के द्वारा जनस्थान (दंडकारण्य) का मनोरम चित्र उपस्थित किया है। तृतीय अंक में छाया-सीता की उपस्थिति, इस नाटक की अपूर्व कल्पना है। राम की करुण दशा को देखकर सीता का अनुताप मिट जाता है और राम के प्रति उनका प्रेम और भी दृढ हो जाता है। 7 वें अंक के ग क के अंतर्गत एक अन्य नाटक की योजना कवि की सर्वथा मौलिक कृति है। इसके द्वारा वाल्मीकि रामायण की दुःखांत कथा को सुखांत बनाया गया है। प्रस्तुत नाटक में पात्रों के शील-निरूपण में अत्यंत कौशल्य प्रदर्शित हुआ है। इस नाटक के नायक श्रीरामचंद्र हैं। सद्यः राज्याभिषेक महोत्सव होते हुए भी उन्हें प्रजा-पालन एवं लोकानुरंजन का ही अत्यधिक ध्यान है। वे राजा के कर्तव्य के प्रति पूर्ण सचेष्ट हैं। अष्टावक्र द्वारा वसिष्ठ का संदेश प्राप्त कर वे कहते हैं : "स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि । आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति में व्यथा" ।। लोकानुरंजन के लिये वे प्रेम, दया, सुख और यहां तक कि जानकी को भी त्याग सकते हैं। प्रकृति-रंजन को वे राजा का प्रधान कर्तव्य मानते हैं। सीता के प्रति प्राणोपम स्नेह होने पर तथा उसके गर्भवती होने पर भी वे लोकानुरंजन के लिये उसका परित्याग कर देते हैं। राम की सहधर्मचारिणी सीता इस नाटक की नायिका है। रामचंद्र द्वारा परित्याग करने पर भी (अश्वमेध) में अपनी स्वर्ण-प्रतिमा की पत्नी स्थान पर स्थापना की बात सुन कर उनकी सारी वेदना नष्ट हो जाती है और वह संतोषपूर्वक कहती हैं- 'अहमेवैतस्य हृदयं जानामि, ममैष :- मैं उनका (राम का) हृदय जानती हूं और वे भी मेरा हृदय जानते हैं। प्रस्तुत नाटक में लगभग 24 पात्रों का चित्रण किया गया है किंतु उनमें महत्त्वपूर्ण व्यक्तितत्व राम और सीता का ही है। अन्य चरित्रों में लव, चंद्रकेतु (लक्ष्मण-पुत्र), जनक, कौसल्या, वासंती महर्षि वाल्मीकि भी कथावस्तु के विकास में महत्त्वपूर्ण श्रृंखला उपस्थित करते हैं। ___'उत्तर रामचरित' का अंगी रस करुण हैं। कवि ने करुणरस को प्रधान मानते हुए, इसे निमित्त-भेद से अन्य रसों में परिवर्तित होते हुए दिखाया है। (उ.रा, 3-47)। प्रधान रस संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 37 For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करुण के श्रृंगार, वीर, हास्य एवं अद्भुत रस सहायक के रूप में उपस्थित किये गये। इस नाटक में गृहस्थ जीवन व प्रेम का परिपाक जितना प्रदर्शित हुआ है, संभवतः उतना अन्य किसी भी संस्कृत नाटक में न हो सका है। इसमें जीवन की नाना परिस्थितियों, भाव-दशाओं व प्राकृतिक दृष्यों का अत्यंत कुशलता एवं तन्मयता के साथ चित्रण किया गया है। राम व सीता के प्रणय का इतना उदात्त एवं पवित्र चित्र अन्यत्र दुर्लभ है। परिस्थितियों के कठोर नियंत्रण में प्रस्फुटित राम की कर्तव्य-निष्ठा तथा सीता का अनन्य प्रेम इस नाटक की महनीय देन है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से महनीय होते हुए भी इस नाटक का दोषान्वेषण करते हुए पंडितों द्वारा जो विचार व्यक्त हुए हैं, उनका सारांश इस प्रकार है : प्रस्तुत नाटक में शास्त्र दृष्ट्या आवश्यक मानी हुई 3 अन्वितियों की उपेक्षा की गई है। वे हैं- 1) समय की अन्विति, 2) स्थान की अन्विति एवं 3) कार्य की अन्विति । प्रस्तुत नाटक में काल की अन्विति पर ध्यान नहीं दिया गया है। प्रथम तथा द्वितीय अंक की घटनाओं के मध्य 12 वर्षों का अंतर दिखाई पड़ता है तथा शेष अंकों की घटनाएं अत्यंत त्वरा के साथ घटती हैं। स्थान की अन्विति का भी इस नाटक में उचित निर्वाह नहीं किया गया है। स्थान की अन्विति का भी इस नाटक में उचित निर्वाह नहीं किया गया है। प्रथम, द्वितीय व तृतीय अंक की घटनाएं क्रमशः अयोध्या. पंचवटी व जनस्थान में घटित होती हैं तथा चतुर्थ अंक की घटनाएं वाल्मीकि-आश्रम में घटती हैं। कार्यान्विति के विचार से भी इस नाटक को शिथिल माना गया है। समीक्षकों ने यहां तक विचार व्यक्त किया है कि यदि उपर्युक्त अंशों को नाटक से निकाल भी दिया जाय तो भी कथावस्तु के विकास एवं फल में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं आता। __ प्रस्तुत नाटक में एक ही प्रकृति के पात्रों का चित्रण किया गया है। राम, सीता, लक्ष्मण, शंबूक, जनक, वाल्मीकि प्रभृति सभी पात्र गंभीर प्रकृति के हैं। कवि ने इंद्रमय पात्रों के चित्रण में अभिरुचि नहीं दिखलाई है। नाटक के अन्य दोषों में विदूषक का अभाव, भाषा का काठिन्य व विलापप्रलापों का आधिक्य है। इसके अधिकांश पात्र फूट-फूट कर रोते हैं। प्रधान पात्रों में भी यह दोष दिखाई देता है, जो चरित्रगत उदात्तता का बहुत बडा दोष है। इन प्रलापों से धीरोदात्त चरित्र के विकास एवं परिपुष्टि में सहायता नहीं प्राप्त होती। पंचम अंक में राम के चरित्र पर लव द्वारा किये गये आक्षेप को क्षेमेन्द्र प्रभृति कतिपय आचार्यों ने अनौचित्यपूर्ण माना है। उत्तर रामचरित पर लिखी हुई महत्त्वपूर्ण टीकाओं के लेखक - 1) वीरराघव, 2) आत्माराम, 3) लक्ष्मणसूरि, 4) ए. बरुआ, 5) जे. विद्यासागर, 6) अभिराम, 7) प्रेमचन्द तर्कवागीश, 8) भटज़ी शास्त्री घाटे (नागपुर), 9) तारकुमार चक्रवर्ती, 10) रामचन्द्र, 11) घनश्याम, 12) ल मीकुमार ताताचार्य (इन्होंने अपनी टीका में नाटक का प्रधान रस विप्रलम्भ शृंगार बताया है।) 13) राघवाचार्य, 14) पूर्ण सरस्वती और 15) नारायण भट्ट। उत्तराखण्ड-यात्रा - ले.- शिवप्रसाद भट्टाचार्य (ई. 1890-1965) विषय- उत्तराखण्ड यात्रा का वर्णन। उत्सववर्णनम् - ले. त्रिवांकुर (त्रावणकोर) नरेश राजवर्म कुलदेव। ई. 19 वीं शती। उदयनचरितम् - ले. प्रा. व्ही. अनन्ताचार्य कोडंबकम्। 15 अध्याय, बाललोपयोगी पुस्तक । उदयनराज - ले. हस्तिमल्ल। पिता- गोविंद भट्ट। जैनाचार्य । विषय- कथा। उदयसुन्दरीकथा - ले. सोड्ढल। ई. 11 वीं शती। उदारराघवम् (रूपक) - (1) ले. राधामंगल नारायण (ई. 19 वीं शती।) (2) ले. चण्डीसूर्य । उद्गातृदशाननम् (नाटक) - ले. य, महालिंग शास्त्री। रचनाप्रारंभ 1927, समाप्ति 1952 | अंकसंख्या सात। दस मुंहवाला रावण, षण्मुखी स्कन्द, अश्वमुखी शृंगिरिटि, गजमुखी गणेश आदि विचित्र पात्र इस नाटक में है। सन्ध्या. रात्रि. नन्दी इ. छायात्मक पात्र भी मिलते है। कथासार- पार्वती शिव से रूठ कर शरवण में आती है। इस बीच रावण कुबेर पर आक्रमण करता है। नारद रावण को उकसाता है कि शिवजी ने कुबेर को शरण दी। रावण कैलास पर धावा .बोलता है। वहां नन्दी के होने पर रावण कैलास को उखाडने को उद्युक्त होता है, परंतु शिवजी पादांगुष्ठ से कैलास को दबाते हैं, जिससे वह उसके नीचे दबाया जाता हैं, कैलास को उत्पाटित होता देख कर पार्वती अपना मान छोड कर शिवजी को आलिंगन देती है। इधर रावण शिवजी की स्तुति करता है। रावण की प्रार्थना से संतुष्ट होकर शिवजी उसे चन्द्रहास खड्ग तथा पुष्पक विमान देते हैं। उद्धवचरितम् - ले. रघुनन्दन गोस्वामी। (ई. 18 वीं शती ।) उद्धव-दूतम् - इस संदेश काव्य के रचयिता हैं माधव कवीन्द्र। 17 वीं शताब्दी। इस काव्य की रचना मंदाक्रांता वृत्त में है। इसमें कुल 141 श्लोक हैं। इस काव्य में कृष्ण द्वारा उद्धव को अपना दूत बनाया जाकर, उनके द्वारा अपना संदेश गोपियों के पास भेजने का वर्णन है। कृष्ण का दूत जानकर राधा, उद्धव से अपनी एवं गोपियों की विरहव्यथा का वर्णन करती है। कृष्ण व कुब्जा के प्रेम को लेकर राधा विविध प्रकार का आक्षेप करती है और अक्रूर को भी फटकारती है। राधा अपने संदेश में कहती है कि कृष्ण के अतिरिक्त उनका दूसरा प्रेमी नहीं है। यदि उनके वियोग में मेरे प्राण निकल जाएं 38 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो कृष्ण ही उन्हें जल-दान दें। वे अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते करते मूर्च्छित हो जाती हैं। शीतलोपचार से स्वस्थ होने पर उद्धव उन्हें कृष्ण का संदेश सुनाते हैं और शीघ्र ही कृष्ण मिलन की आशा बंधाते हैं। राधा की प्रेमविह्वलता देखकर उद्धव उनके चरणों पर अपना मस्तक रख देते हैं और कृष्ण का उत्तरीय उन्हें भेट में समर्पित करते है। श्रीकृष्ण के प्रेम का ध्यान कर राधा आनंदित हो जाती है और यहीं पर काव्य समाप्त हो जाता है। उद्धवसंदेश (अथवा उद्धवदूतम्) - इस संदेश काव्य के रचयिता प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रूप गोस्वामी (ई. 16 वीं शती) है। यह काव्य "भागवत पुराण" के दशम स्कंध की एतद्विषयक कथा ,पर आधारित है। इसमें श्रीकृष्ण अपना संदेश उद्धव द्वारा गोपियों के पास भेजते हैं। इस काव्य की रचना "मेघदूत" के अनुकरण पर की गई है। इसमें कुल 131 श्लोक हैं। कृष्ण की विरहावस्था का वर्णन, दूतत्व करने के लिये उनकी उद्धव से प्रार्थना, मथुरा से गोकुल तक के मार्ग का वर्णन, यमुना-सरस्वती-संगम, अंबिका-कानन, अंकुर-तीर्थ, कोटिकाख्य प्रदेश, कालियहद आदि का वर्णन तथा राधा की विरह-विवशता एवं कृष्ण के पुनर्मिलन का आश्वासन आदि विषय इस काव्य में विशेष रूप से वर्णित हैं। संपूर्ण मंदाक्रान्ता वृत्त में रचित है और कहीं-कहीं "मेघदूत" के श्लोकों की छाप दिखाई पड़ती है। विप्रलंभ-श्रृंगार के अनुरूप "मधुर कोमल कांत पदावली" का सनिवेश इस काव्य की अपनी विशेषता है। उद्धारकोश - ले. दक्षिणामूर्ति। विषय- तंत्रशास्त्र। 7 कल्पों में पूर्ण। उक्त कल्पों के विषय हैं : दशविद्या मन्त्रोद्धारकोशगुणाख्यान, षट्देवी- मन्त्रोद्धारकोश, सप्तविद्या और सप्तकुमारी के कोशों का आख्यान, नवग्रह मन्त्रोद्धारकोशाख्यान, सब वर्गों के कोशाख्यान, सर्वागम मन्त्र सागर में सप्तम कल्प की समाप्ति । उद्धारचन्द्रिका - ले.- काशीचन्द्र । विषय-समुद्रपर्यटन के कारण परधर्म में प्रवेशित हिन्दुओं को स्वधर्म में वापिस लेना योग्य है यह प्रतिपादन। उद्भटालंकार - ले.- उद्भट। ई. 9 वीं शती। विषयअलंकारशास्त्र। उद्यानपत्रिका - सन 1926 में आंध्र प्रदेश के तिरुपति से मीमांसा शिरोमणि डी.टी. ताताचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका प्रकाशन स्थल तिरुपति था। इस पत्रिका की "साधारण संचिका" में लघु काव्य, नाटक, कथा, पुस्तक-समालोचना, हास-परिहास आदि विषयों से संबंधित जानकारी प्रकाशित होती थी और "शास्त्रानुबन्ध-संचिका" में कुल दस-बारह पृष्ठ होते थे जिनमें एक शास्त्रीय ग्रंथ का अंश प्रकाशित किया जाता था। ज्योत - लाहौर से सन 1928 में पंजाब संस्कृत साहित्य परिषद् के तत्त्वावधान में एवं नृसिंहदेव शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके प्रकाशक पं.जगदीश शास्त्री थे। हर माह की संक्रान्ति को इसका प्रकाशन होता था। इसका वार्षिक मूल्य डेढ रु. था। इसमें राजनीति छोडकर शेष सभी विषयों के निबन्ध प्रकाशित किये जाते थे। । उन्मत्तकविकलश - ले.- वेङ्कटेश्वर। ई. 18 वीं शती। इस प्रहसन की कथावस्तु उत्पाद्य है। कलश नामक नायक की एक दिन की चर्या का अङ्कन हास्य रस और नग्न शृंगार रस में किया है। कथासार - ऋण लेकर उपजीविका चलाने वाले कलश से ऋण वसूल करने के लिए कई व्यक्ति उसकी टोह में हैं। वह छुपकर भागता रहा है। कलश अपने शिष्यों के साथ चलते समय पौराणिक, माध्वसंन्यासी तथा मठाधीशों की लम्पटता के विषय में बोलते रहता है जिससे उनके शिष्य कलश से झगड पडते हैं। आगे चलकर कोई भागवत मिलता है जो देवालय के प्राङ्गण में किसी विधवा के साथ रत होता है। आगे प्रौढ तथा बाल कवि मिलते हैं जो कलश की निन्दागर्भ स्तुति करते है। फिर एक व्यभिचारी ब्राह्मण और एक रोता हुआ ब्राह्मण, जिसकी कुलटा पत्नी किसी विदेशी के साथ भाग गयी थी, कलश से बातें करते है। __ अन्त में कलश उस प्रापणिक के पास पहुंचती है, जिससे ऋण लेना है। कलश से बचने हेतु वह उन पठानों को सूचना देता है जिनका ऋण उसने लौटाया नहीं है। पठान कलश की दुर्गति करते हैं। उन्मत्त-भैरव-पंचांगम् - श्लोक 480। यह परमेश्वर तंत्रार्गत वाराणसीपटल में गुरु-रूद्र संवादरूप है। इसमें पद्धति और पटल दोनों अंश नहीं हैं। विषय - (1) उन्मत्तभैरव द्वादशनाम स्तोत्र, (2) उन्मत्तभैरवहृदय, (3) उन्मत्तभैरवकवच, (4) उन्मत्तभैरवस्तवराज, (5) उन्मत्तभैरवाष्टकस्तोत्र, (6) उन्मत्तभैरवसहस्रनाम स्तोत्र, उन्मत्तभैरवमन्त्रोद्धार, उन्मत्त-भैरवकीलक, उन्मत्त भैरव के सात्विक, राजस और तामस ध्यान इत्यादि। उम्पत्तराघवम् - इस एकांकी उपरूपक में सीतापहरण से शोकव्याकुल एवं उन्मत्त अवस्था वाले राम की अवस्था का वर्णन है और लक्ष्मण, सुग्रीव की सहायता से लंका पहुंचकर रावणादि का वध कर सीता को लेकर पुनः राम के पास पंचवटी मे आते हैं। उन्मत्ताख्याक्रमपद्धतिः - ले.- कमलाकान्त भट्टाचार्य। श्लोक 3001 विषय- तंत्रशास्त्र उपदेशदीक्षाविधिः - (नामान्तर-पूर्णाभिषेक-पद्धतिः)। ले.परमहंस परिव्राजकाचार्य चैतन्यगिरि अवधूत । तान्त्रिक दीक्षाविधि का प्रतिपादक ग्रंथ । इसमें दीक्षामाहात्म्य, बीजमन्त्रप्रदान, पूजाविधि, वास्तुपूजाविधि, पात्रस्थापनाविधि, आदि विषय वर्णित हैं। ' संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रेथ खण्ड / 39 For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपदेश-शतकम् - ले.- चन्द्रमाणिक्य (ई. 17 वीं शती) नीतिपर श्लोकों का संग्रह। उपनिषद्-दीपिका - ले.- पुरुषोत्तमजी। पुष्टिमार्गी साम्प्रदायिकों में इस ग्रंथ को विशेष मान्यता है। उपनिषन्मधु - प्रसिद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता पद्मश्री मनोहर दिवाण ने (जो महात्मा गांधी के आदेशानुसार वर्धा में कुष्ठधाम चलाते थे), ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्ड, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, छांदोग्य, ऐतरेय, बृहदारण्यक इन सुप्रसिद्ध दशोपनिषदों के अतिरिक्त आर्षेय, कौषीतकी, छागलेय, जैमिनि, बाष्कलमन्त्र, मैत्रायणि, शौनक और श्वेताश्वतर इन आठ उपनिषदों से सारभूत सिद्धान्तवचनों का संकलन कर, उनकी 'साधना' और 'ज्ञेय' नाम दो खण्डों में वर्गीकरण किया है। उपनिषदों का रहस्य समझने के लिए यह पुस्तक उपयोगी है । शारदा प्रकाशन पुणे-30।। उपमानचिन्तामणिटीका - ले.- कृष्णकान्त विद्यावागीश। उपसर्ग-वृत्तिः - ले.- भरत मल्लिक (ई. 17 वीं शती)। उपस्कार - ले.- शंकर मिश्र। (ई. 15 वीं शती)। उपहारप्रकाशिका - श्लोक-1350 । विषय- देवताओं की पूजा के सम्बन्ध में विशेष विवरण। इस पर दो टीकायें हैं, (1) उपहारप्रकाशिकाप्रकाश और (2) उपहारप्रकाशिका -विमर्शिनी। उपहार-वर्म-चरितम् (नाटक) - ले.- श्रीनिवास शास्त्री (जन्म ई. 1850) मद्रास के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर (1886-1890) को समर्पित। 1888 ई. में मद्रास से तेलगु लिपि में प्रकाशित । कथासार - पुष्पपुर के राजा राजहंस के निमंत्रण पर मिथिला नरेश प्रहारवर्मा अपनी गर्भवती पत्नी प्रियंवदा के साथ पुष्पपुर के लिए प्रस्थान करते हैं। मार्ग में प्रियंवदा प्रसूत होती है। प्रहारवर्मा का भतीजा विकटवर्मा उनकी अनुपस्थिति में मिथिला पर अधिकार कर लौटते हुए प्रहारवर्मा को बन्दी बनाता है। प्रियंवदा नवजात शिशु को दासी पर सौंपती है, परन्तु वह चीते के डर से शिशु छोड भाग जाती है। मृगया हेतु वहां आये हुए राजहंस, शिशु को उठाकर उसके पालन का भार ग्रहण करते हैं और उपहारवर्मा नाम रखते हैं। युवा उपहारवर्मा मिथिला पर आक्रमण करता है। वहां उसका कल्पसुन्दरी से प्रेम होता है। विकटवर्मा इसमें बाधा डालता है क्यों कि वह स्वयं उससे विवाह करने की इच्छा रखता है। अन्त में नायक उपहारवर्मा विकटवर्मा का वध कर, मातापिता को मुक्त कर, स्वयं युवराज बनता है और कल्पसुन्दरी के साथ विवाह करता है। कथावस्तु उत्पाद्य है। उपांग-ललितापूजनम् - श्लोक 300। आश्विन शुक्ल पंचमी को ललिता देवी की प्रसन्नता के लिए दाक्षिणात्यों द्वारा जो व्रत किया जाता है उसीकी पूजाविधि इसमें वर्णित है। उक्त व्रत विस्तार के साथ शंकरभट के व्रतार्क तथा विश्वनाथ दैवज्ञ के व्रतराज में वर्णित है। व्रत की कथा (स्कन्दपुराण में कथित) भी उपर्युक्त पुस्तकों में दी गयी है। यह पूजा विवरण उपांग-ललिताकल्प के आधार पर है। उपाधि-खंडनम् - ले.- मध्वाचार्य (ई. 12 वीं शती) प्रस्तुत निबंध में शंकरवेदांत में स्वीकृत "उपाधि" का द्वैतवाद के अनुसार खंडन किया है। उपाध्याय-सर्वस्वम् - ले.- दामोदर सेन (सन 1000-1050) विषय- व्याकरणशास्त्र । उपायकौशल्यम् - ले.- नागार्जुन । विषय- विवाद में प्रतिवादी पर विजय प्राप्त करना। जाति, निग्रहस्थान आदि की दृष्टि से आवश्यक तर्कशास्त्र के अंगों का विवेचन । उपासकाचारः - ले.- अमितगति (द्वितीय) जैनाचार्य ई. 10 वीं शती। उभयरूपकम् - ले.- महालिंग शास्त्री। रचना 1928-1938 तक। 1962 में "उद्यानपत्रिका' में प्रकाशित। कथासार - कुकुट स्वामी का बडा पुत्र छन्दोवृत्ति, भारतीयता का अभिमानी है तथा छोटा पुत्र छागल, विलायत में पढा, ग्रामविद्वेषी है। पिता को छागल पर गौरव है। वह गांव की कन्या वंदना से छागल का विवाह कराना चाहता है परंतु छागल को ग्रामकन्या स्वीकार्य नहीं। छागल को पत्र मिलता है कि विद्यालय में होने वाले नाटक हेम्लेट में उसे अभिनय करना है। वह शीघ्रता से दाढी बना, दाढी के बाल वहीं लिफाफे में छोड वृद्धशालकर (सेवक) के साथ स्टेशन चल देता है। हेम्लेट की भूमिका वाला कागज पढकर सभी समझते हैं कि छागल ने आत्मघात कर लिया। लिफाफे में रखे बालों को विष समझा जाता है। इतने में स्टेशन से वृद्धशालकर छागल की चिठ्ठी लेकर पहुंचता है । कुक्कुटस्वामी अन्त में पछताते रहते हैं। उमादर्श - कृष्णस्वामी कृत "उमाज् मिरर" नामक अंग्रेजी काव्य का अनुवाद । अनु.-वेङ्कटरमणाचार्य, (1939 में मुद्रित) दो सर्ग। श्लोक संख्या- 135 श्लोक। 35 से भारतीय तथा योरोपीय जीवन में भेद वर्णन किया है। उमा-परिणयम् (काव्य) - ले.- म.म. विधुशेखर शास्त्री (जन्म 1878) उमापरिणयम् (नाटक) - ले.- इ.सु. सुन्दरार्य। लेखक की प्रथम रचना। सन् 1952 में प्रकाशित। तिरुचिरापल्ली के संस्कृत साहित्य परिषद के वार्षिक उत्सव में दो बार अभिनीत । अंकसंख्या दस। प्राकृत भाषा को स्थान नहीं। नृत्य गीतों का समावेश। उमा के विवाह से संदर्भ में हिमालय और नारद के वार्तालाप से लेकर शिव-पार्वती विवाह तक की कथावस्तु प्रस्तुत नाटक में निबद्ध है। उमामहेश्वरपूजा - श्लोक- 155। इसमें उमामहेश्वर की पूजा, होम आदि वर्णित हैं। उमायामलम् - विषय - परमशिवसहस्रनाम स्तोत्र। यह 40/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यामलाष्टक में अन्यतम है। उमासहस्रम् - ले.- वसिष्ठ गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता-नरसिंहशास्त्री। माता-नरसीबा। लेखक के शिष्य ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री की उमासहस्रप्रभा नामक मार्मिक टीका इस स्तोत्र पर है। उमास्वाती-भाष्यम् - ले.- सिद्धसेनगणी: विषय- मैत्रेयरक्षित कृत धातुप्रदीप का भाष्य। ऊरुभंगम् - ले.- भास। इस रूपक में कौरव-पाण्डवों के युद्ध में कौरव पक्ष के सभी वीरों के मारे जाने के बाद भीम-दुर्योधन के गदायुद्ध के वध का वर्णन है। नाटक की विशेषता इसके दुःखांत होने के कारण है। इसमें एक ही अंक है और उसमें समय व स्थान की अन्विति का पूर्ण रूप से पालन किया गया है। कुरुराज दुर्योधन व भीमसेन के गदायुद्ध के वर्णन में वीर व गांधारी, धृतराष्ट्र आदि के विलापों में करुण रस की व्याप्ति है। इस नाटक में दोधन के चरित्र को अधिक प्रखर व उज्ज्वल चित्रित किया गया है। उसके चरित्र में वीरता के साथ विनयशीलता भी दिखाई पड़ती है। यह नाटककार भास की नवीन कल्पना है। दुर्योधन व भीम के गदा-युद्ध पर ही इस नाटक की कथावस्तु केंद्रित होने से इसका नाम भी सार्थक है। इस नाटक का नायक दुर्योधन है। रंगमंच पर नायक की मृत्यु दिखलाई गई है। पारंपारिक शास्त्रीय दृष्टि से यह घटना । अनौचित्यपूर्ण मानी जाती है। ऊर्ध्वपुंडउपनिषद् - यह वैष्णव उपनिषदों में से एक है। वराहरूपी विष्णु द्वारा सनत्कुमार को दिये गये इस उपदेश में ऊर्ध्वपुंड्धारण की विधि समझायी गयी है। प्रथम श्वेतमृत्तिका की प्रार्थना, उस मृत्तिका से कपाल पर तीन खडी रेखाएं आंकना, इस प्रकार की यह विधि है। ये तीन रेखाएं तीन विष्णुपदों की निदर्शक हैं। ऊर्ध्वपुंड्र धारण करने से विष्णु के परमपद की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वाम्नायसंहिता - (1) श्लोकसंख्या 300। नारद-व्यास संवादरूप यह अर्वाचीन तन्त्र-ग्रन्थ 12 अध्यायों में पूर्ण है। इसमें बंगाल के महावैष्णव गौरांग चैतन्य का (बुद्धदेव के स्थान पर) अवतार के रूप में उल्लेख है और इसमें उनकी पूजा के मन्त्र भी प्रतिपादित हैं। विषय है- गुरुभक्ति, अवतारवर्णन, गौरमन्त्र का उद्धार, तुलसीमाहात्म्य, गंगामाहात्म्य, गुरु की पूजा, नारायणस्तुति, गयामाहात्म्य, कार्तिकमास का माहात्म्य, वैष्णव सन्तों की पूजा तथा अपराध कथन इत्यादि। ऊर्वशी-सार्वभौमम् (ईहामृग) - ले.- प्रधान वेङ्कप्प। 18 वीं शती। श्रीरामपुरवासी। श्रीरामपुर के श्रीनिवास राम के महोत्सव में अभिनीत । अंकसंख्या चार। संविधान में प्रख्यात के साथ कल्पित कथा भी है। प्रधान रस शृंगार, वीर रस से संवलित है। कथासार - इन्द्र उर्वशी पर लुब्ध है। नायक पुरुरवा भी ऊर्वशी को चाहता है। अपने दो सखाओं में स्पर्धा देखकर ऊर्वशी अन्तर्धान कर सुमेरु पर्वत पर चली जाती है। एक दिन जब वह मन्दार वन में बैठी पुरुरवा का ध्यान कर रही है, तब इन्द्र पुरुरवा के वेष में उसके पास पहुंचता है। उसी समय वास्तविक पुरुरवा भी वहीं आता है। ऊर्वशी किंकर्तव्यमूढ होती है, क्यों कि दोनों स्वयं को वास्तव पुरुरवा और दुसरे को छद्मवेशी बताते हैं। दोनों वागयुद्ध के पश्चात् शस्त्रयुद्ध पर उतरते हैं। दोनों में घनघोर युद्ध होता है। तब इन्द्र अपने वास्तविक रूप में प्रकट होते हैं। उसी समय नारद उपस्थित होकर कहते हैं कि युद्ध बन्द करे। ऊर्वशी का अधिकारी वही होगा जिसे वह चाहेगी। ऊर्वशी पुरुरवा को वरती है। उषा - 1889 में कलकत्ता के 16-1 घोष लेन, सत्यप्रेस से.. प्रियव्रत भट्टाचार्य द्वारा इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। संपादक सत्यव्रत सामश्रमी भट्टाचार्य थे। बंगाल में वेदों का प्रचार करना इसका उद्देश्य था। इस पत्रिका मेंप्रत्नकालस्य धर्मः, प्रत्नकालस्य सामाजिकी रीतिः, प्रत्नकालस्य नीत्युपदेशः, प्रनकालस्य विज्ञानोदयः, लुप्तकल्पवेदाङ्गानि, लुप्तकल्पवेदाः, लुप्तकल्पदर्शनादयः पुराणतत्त्वम् तथा पारमार्थिकम् आदि प्रकार के विषयों का प्रकाशन होता था। 19 वीं शती की यही एकमात्र पत्रिका ऐसी थी जिसे ब्रिटेन, जर्मनी आदि देशों में भी लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने इसमें प्रकाशित सामग्री तथा उसके स्तर की सराहना की है। इसे संस्कृत के जागरण युग की "उषा'' कहा जाता है। उषा - सन 1913 में गुरुकुल कांगडी (हरिद्वार) से पं.हरिश्चन्द्र विद्यालंकार के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। तीन वर्षों बाद प्रकाशन स्थगित हो गया, किन्तु 1918 में पुनः पं.शशिभूषण विद्यालंकार के सम्पादकत्व में यह पत्रिका 1920 तक छपती रही। ___ इस पत्रिका में काव्य, गीत, समीक्षा, शास्त्र चर्चा ऐतिहासिक, धार्मिक व सांस्कृतिक निबंध और "समाचार-पूर्तियां' आदि प्रकाशित होती थीं उषानिरुद्धम् (काव्य) - ले.- राम पाणिवाद । ई. 18 वीं शती। उषापरिणयम् (रूपक) - ले.- कृष्णदेवराय। उषापरिणयचम्पू - ले.- शेषकृष्ण। ई. 16 वीं शती। उषाहरणम् (नाटक) - ले.- देवनाथ उपाध्याय ई. 18 वीं शती। अंकसंख्या 6। गीतों का बाहुल्य । उषा-अनिरुद्ध परिणय की कथा किरतनिया पद्धति से चित्रित है।। उषाहरणम् - ले.- त्रिविक्रम पंडित। ई. 13 वीं शती। पिता-सुब्रह्मण्यभट्ट। उलूककल्प (नामान्तर उलूकतन्त्रम्) - श्लोक 72। भैरव संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/43 For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वारा पार्वती के प्रति उक्त इस तन्त्र में उल्लू के विभिन्न अंगों के साथ विभिन्न वस्तुओं के संमिश्रण द्वारा निर्मित अंजन आदि का वशीकरण, मोहन, उच्चाटन, मारण आदि तान्त्रिक क्रियाओं में उपयोग वर्णित है। www.kobatirth.org उल्कादिस्वरूपम् इसमें उल्का और उसके स्वरूप का वर्णन करते हुये, विविध शान्तियां विविध अद्भुत सूर्यमण्डल के चारों ओर घेरा लग जाना, छायाद्भुत, सन्ध्याद्भुत, दिन में तारों का दर्शन, रूप दृष्टि अदभुत, मेषादभूत बिजलियां और दिशाओं का जलना दिखाई देना, चन्द्रोत्पात, इन्द्रधनुष, बिजली का कडकना, मूसलाधार वृष्टि होना, आकाश में उडन, तश्तरी, परियां दीख पड़ना आदि उत्पातों का निरूपण किया गया है। ऋगर्थदीपिका ले- वेंकटमाधव ई. 12 वी शती । यह संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत ऋग्वेद का अच्छा भाष्य है। इसमें केवल मंत्रों के पदों की व्याख्या ही की गयी है। इसके अनुसार वेदों का गूढ अर्थ समझने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों का उपयोग होता है। ऋग्वेद का अर्थ किसे कितना समझ में आता है, इस पर एक श्लोक प्रसिध्द हैं T - संहितायास्तुरीयांशं विजानन्न्यधुनातनाः । निरुक्तव्याकरणयोरासीत् येषां परिश्रमः ।। अथ ये ब्राह्मणार्थानी विकारः कृतश्रमाः । शब्दरीतिं विजानन्ति ते सर्वे कथयन्त्यपि ।। अर्थ- केवल निरुक्त एवं व्याकरण का अध्ययन करने वाले आधुनिक लोगों को ऋक्संहिता का एक चौथाई अर्थ समझता है । परंतु जिन्होने ब्राह्मण ग्रंथों का विवेचन परिश्रमपूर्वक किया है, वे शब्दरीति जानने वाले विद्वान ही इसे पूरी तरह समझ सकते हैं 1 ऋकृतंत्रम् "सामवेद" की कौथुम शाखा का प्रतिशाख्य । प्रस्तुत ग्रंथ की पुष्पिका में इसे "सक्तंव्याकरण" कहा गया है। संपूर्ण ग्रंथ 5 प्रपाठकों में विभाजित है जिनके सूत्रों की संख्या 280 है। इस ग्रंथ के प्रणेता शाकटायन हैं। यास्क व पाणिनि के ग्रंथों मे भी शाकटायन को ही इसका कर्ता माना गया है। इसमें पहले अक्षर के उदय व प्रकार का वर्णन कर व्याकरण के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिये गये हैं। अक्षरों के उच्चारण, स्थान विवरण व संधि का विस्तृत विवरण इसमें है "गोभिलसूत्र" के व्याख्याता भट्ट यण के अनुसार, इसका संबंध राणायनीय शाखा से है। डॉ. सूर्यकांत शास्त्री द्वारा टीका के साथ यह ग्रंथ 1934 ई. में लाहौर से प्रकाशित हो चुका है। ऋग्भाष्य:- द्वैत मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य ( ई.12-13 वीं शती) इसके प्रणेता है। आचार्य की दृष्टि ऋग्वेद की ओर द्वैत सिद्धांत के आधार के निमित्त आकृष्ट हुई। वे श्रीमद्भागवत के वाक्य - "वासुदेवपराः वेदाः वासुदेवपरा मखाः " ( 1-2-28) तथा नारायणपरा वेदाः नारायणपरा मखाः ( 2-5-15) को 42 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षरशः मानते हैं। अत एव उनकी दृष्टि में वेद का यही तात्पर्य होना चाहिये। वेद में तीनों प्रकार के अर्थ होते हैंअधिभौतिक आधिदैविक एवं आध्यात्मिक इन में अंतिम ही श्रुति का मुख्य तात्पर्य है इसी दृष्टि को रखकर प्रस्तुत भाष्य, (ऋग्वेद के केवल प्रथम 3 अध्यायों पर मंडलसूक्त -46 सूक्त) ही लिखा गया इसमें विष्णु की सर्वोच्चता स्वीकृत की गयी है । ( गत शताब्दी में स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी इसी आध्यात्मिक तात्पर्य को ग्रहण कर वेद के अर्थ का निरूपण किया था) उपनिषद् के भाष्य में भी यह तत्त्व प्रदर्शित किया गया है। ऋरभाष्यभूमिका ले कपालीशास्त्री । यह ऋग्वेद के सिद्धांजन भाष्य" की प्रस्तावना है । कपाली शास्त्री का सिद्धांजनभाष्य, सन 1952 में अरविन्दाश्रम पाँडिचेरी से प्रकाशित हुआ । ऋविधानम् ऋग्वेद के मंत्रों के विनियोग की जानकारी कराने वाला ग्रंथ । ऋग्वेद में अनेक प्रकार के कर्म बताये गये हैं। यज्ञकर्म में उनका विनियोग होता है। शांत एवं घोर, पौष्टिक तथा आभिचारिक विविध प्रकार के कर्मों के लिये उपयुक्त मंत्र होते हैं। इन मंत्रों का विनियोग यज्ञकर्म में कर, फलप्राप्ति करना यह एक उपयोग एवं यज्ञ के बगैर मंत्रजप के द्वारा फल प्राप्त करना दूसरा इसी दृष्टिकोण से ऋविधान की रचना भी हुई है। कहा जाता है कि इसके रचियता शौनक हैं किन्तु रचना को देखते हुये, किसी एक व्यक्ति की यह कृति है, यह नहीं माना गया। प्रत्येक अध्याय के अंत में "नमः शौनकाय" कहा गया है। शौनक स्वयं के लिये ऐसा प्रयोग नहीं करते। ऋग्विधान में पांच अध्याय और 750 श्लोक अनुष्टुभ् छंद में हैं। इसमें अनेक कामनाओं के मंत्र तथा उनकी अनुष्ठान विधि दी गयी है। सामान्य फलश्रुति के साथ एक सामान्य सिध्दान्त भी दिया गया है "येन येनार्थपणा यदर्थ देवताः सुताः । स स कामः समृद्धिश्च तेषां तेषां तथा तथा अर्थ- मंत्रदृष्टा ऋषि ने जो कामना रखकर देवता की स्तुति की होगी, वह कामना उस मंत्र का जप अथवा अनुष्ठान से फलप्रद होती है। मंत्र का मानस जप सब से श्रेष्ठ बताया गया है। ऋग्वेद- चार वेदों में प्रथम और विश्व में सबसे प्राचीन ग्रंथ । ऋक् याने छंदोबध्द रचना । 1) ॠच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक्, जिसके द्वारा देवताओं की स्तुति की जाती है, वह ऋक् है I 2) "पादेनार्थेन चोपेता वृत्तबद्धा मन्त्राः - चरण एवं अर्थो से युक्त वृत्तबध्द मंत्र याने ऋचा (जै. न्या. 2.1.-12) 3) तेषामृक् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था जिस वाक्य में अर्थ के आधार पर चरणव्यवस्था की जाती है, वह ऋक् है (जै. न्या. 2.-1-10) 1 For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनेक ऋचा मिलकर सूक्त बनता है। ऋग्वेद के सूक्तों में मुख्यतः इंद्र, अग्नि, वरुण, मरुत्, आदि देवताओं की स्तुति या वर्णन है। समाज, संस्कार सृष्टिरचना, तत्त्वज्ञान आदि पर भी सूक्त हैं। ___ मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् - मंत्र विभाग तथा ब्राह्मण विभाग मिलकर बने साहित्य को वेद कहते हैं। संहिता मंत्रविभाग है। संहिता की व्यवस्था दो प्रकार से है। अष्टकव्यवस्था - ऋग्वेद के कुल 64 अध्याय हैं। आठ अध्यायों का समूह एक अष्टक है। ऐसे 8 अष्टक हैं। प्रत्येक अध्याय के विभाग को वर्ग कहा गया है। वर्ग की ऋक्संख्या 5 होती हैं परंतु कई वर्ग 9 ऋचाओं तक के हैं। ऋक्संहिता में कुल 2006 वर्ग हैं। 2) मंडल व्यवस्था के अनुसार कुल ऋक्संहिता 10 मंडलों में विभक्त है। प्रत्येक मंडल में अनेक सूक्त और प्रत्येक सूक्त में अनेक ऋचाएं हैं। यह रचना ऐतिहासिक स्वरूप की रहने से अधिक महत्त्व की है। दो से आठ तक मंडल गोत्रऋषि एवं उनके वंशजों पर होने से "गोत्रमंडल' कहलाये गये हैं। गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वसिष्ठ और आठवें के कण्व तथा अंगिरस इस क्रम से आठ गोत्रऋषि हैं। दो से सात मंडल तक तो ऋग्वेद का मूल ही है। इन मंत्रों की रचना, सर्वाधिक प्राचीन है। नौवें मंडल के सारे सूक्तों की रचना सोम नामक एक ही देवताकी स्तुति में है। दसवें मंडल की रचना आधुनिक विद्वानों को अर्वाचीन सी प्रतीत होती है। कात्यायन ने दसों मंडलों की रचना के अक्षरों तक की गणना कर जो विभाजन किया है, वह इस प्रकार है - मण्डल - 10 सूक्त - 1017 ऋचा - 10580 - 1-4 शब्द- 1,53,826 अक्षर- 4,32,000 इसके अतिरिक्त "वालखिल्य" नामक 11 सूक्त 8 वें मण्डल के 49 से 59 तक हैं। इनके मंत्रों की संख्या 80 है। कुछ "खिल" सूक्त भी है। खिल का अर्थ बाद में जोडे गये मंत्र । ऋग्वेद की रचना इतनी व्यवस्थित रहने के कारण ही, उसमें कोई परिवर्तन हुए बगैर वह हमें उपलब्ध है। दस मण्डलों के ऋषियों के बारे में कात्यायन ने कहा है : शतर्चिन आद्यमण्डले ऽन्ते क्षुद्रसूक्तमहासूक्ताः मध्यमेषु माध्यमाः । अर्थ :- ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के ऋषियों को सौ ऋचा रचनेवाले, अंतिम मण्डल के ऋषियों को क्षुद्र सूक्त एवं । महासूक्त रचने वाले तथा मध्यम मण्डल के ऋषियों को माध्यम, यह संज्ञा है। प्रारंभ में वेद राशिरूप था। व्यासजी ने उसके चार विभाग किये और अपने चार शिष्यों को पृथक्-पृथक् सिखाये। इसी कारण उन्हें (वेदान् विव्यास यस्मात्-वेदों का विभाजन किया अतः) वेदव्यास "कहा जाने लगा। पातंजल महाभाष्य और चरणव्यूह के अनुसार ऋग्वेद की 21 शाखाएं हैं। उनमें शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन एवं मांडूकायन प्रसिद्ध हैं। शाकल के पांच और बाष्कल के चार प्रकार हैं। ऋग्वेद में मुख्यतः यज्ञ की देवताओं की स्तुति, मानवी जीवन के लिये उपकारक प्रार्थना में और तत्त्वज्ञान विषयक विचार हैं। क्वचित् प्रकृति का सुन्दर वर्णन भी है। मोटे तौर पर सूक्तों का वर्गीकरण इस भांति है : 1) देवतासूक्त, 2) ध्रुवपद, 3) कथा, 4) संवाद, 5) दानस्तुति, 6) तत्त्वज्ञान, 7) संस्कार, 8) मांत्रिक, 9) लौकिक एवं 10) आप्री। इसके 2 ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद हैं। इसका उपवेद है आयुर्वेद। आधुनिकों के मतानुसार इसकी भाषा भारोपीय और आधार वैज्ञानिक है। प्रस्तुत वेद के अर्थज्ञान के लिए पर्याप्त ग्रंथों की रचना हो चुकी है। इसका उपोबलक साहित्य अतिविपुल है। प्राचीन ग्रंथों ने इसकी महत्ता मुक्त कंठ से प्रतिपादित की है। "तैत्तरीय संहिता' में कहा गया है कि "साम" व "यजु" के द्वारा विहित अनुष्ठान दृढ होता है। ___ "यजुस्' एवं “सामवेद" "ऋग्वेद" की विचारधारा से पूर्णतः प्रभावित हैं। सामवेद की ऋचाएं ऋग्वेद पर पूर्णत: आश्रित हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। अन्यान्य संहिताएं भी ऋग्वेद के आधार पर पल्लवित हैं। यही नहीं, ब्राह्मणों में जितने विचार आएं हैं, उनका मूल रूप ऋग्वेद संहिता में ही मिलता है। आरण्यकों व उपनिषदों में आध्यात्मिक विचार हैं, उन सबका आधार यही ग्रंथ है। उनका निर्माण ऋग्वेद के उन अंशों से हुआ है जो पूर्णतः चिंतन-प्रधान हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में नवीन मत की स्थापना नहीं है, और न स्वतंत्र चिंतन का प्रयास है। उनमें ऋग्वेद के ही मंत्रों की विधि तथा भाषा की छानबीन की गई है और ईश्वर संबंधी विचारों को पल्लवित किया गया है। ऋग्वेद में नाना प्रकार की प्राकृतिक शक्तियों व देवताओं के स्तोत्रों का विशाल संग्रह हैं। विभिन्न सुंदर भावों से ओत प्रोत उद्गारों में, अपनी इष्ट-सिद्धि के हेतु देवताओं से प्रार्थना की गई है। देवताओं में अग्नि, इन्द्र और देवियों में उषा की स्तुति में सूक्त कहे गये हैं। उषा की स्तुति में काव्य की सुंदर छटा प्रस्फुटित हुई हैं। ऋग्वेद की देवता -'यस्य वाक्य स ऋषिः या तेनोच्यते सा देवता" - जिसका वाक्य वा ऋषि तथा जिसे ऋषि ने बताया वह देवता, यह नियम है। ऐसे ऋषिप्रोक्त देवता ऋग्वेद में बहत हैं। उनकी संख्या 33 तथा 3339 बताई गयी है पर इतने नाम ऋग्वेद में नहीं मिलते। वैदिक देवताओं के तीन प्रकार माने गये हैं। 1) पृथिवीस्थ, 2) मध्यमस्थ तथा 3) धुस्थ। देवता के द्विविध रूप का वर्णन ऋग्वेद मे हैं। प्रथम संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड/43 For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप दृश्य एवं स्थूल है, तो दूसरा सूक्ष्म एवं गूढ । नेत्रगोचर होने वाला रूप स्थूल अत एवं आधिदैविक है। जो ज्ञानेंद्रिय के लिये अगम्य, वह आधिदैविक रूप माना गया है। तीसरे आध्यात्मिक स्वरूप का भी उल्लेख है। उदाहरणार्थ विष्णु यह सूर्यरूप मे प्रत्यक्ष होता है, सूक्ष्म रूप में विश्व का मापन करता है। अंतरिक्ष को स्थिर करता है। पर इन दोनों से भिन्न उसका आध्यात्मिक परमपद है, उसके भक्त उसका आंनदानुभव लेते हैं। इस स्थान में जो मधुचक्र है जो अमृतकूप है, उसके साथ वह परमपद, जागरणशील ज्ञानी लोगों को ज्ञात होता है। (ऋ. 1. 154 - 1-2) : 1:22,21) इस वेद के कतिपय संवाद-सूक्तों में नाटक व काव्य के तत्त्व उपलब्ध होते हैं। कथोपकथन की प्रधानता के कारण इन्हें "संवादसूक्त" कहा जाता है। इन संवादों में भारतीय नाटक प्रबंध काव्यों के तत्त्व मिलते हैं। ऐसे संवाद सूक्तों की संख्या 20 के लगभग है। इनमे 3 अत्यंत प्रसिध्द हैं : 1) पूरुरवाउर्वशी-संवाद [10-85] 2) यम-यमी संवाद [10-10] और 3) सरमा-पणि संवाद [10-130] | पूरुरवा उर्वशी संवाद में रोमांचक प्रेम का निदर्शन है, तो यमी-यमी संवाद में यमी द्वारा अनेक प्रकार के प्रलोभन देने पर भी यह यम का उससे अनैसर्गिक संबंध स्थपित न करने का वर्णन है। दोनों ही संवादों का साहित्यिक महत्त्व अत्यधिक माना जाता है तथा ये हृदयावर्जक व कलात्मक हैं। तृतीय संवाद में पणि लोगों द्वारा आर्यों की गाय चुराकर अंधेरी गुफा में डाल देने पर, इंद्र को अपनी शुनी सरमा को उनके पास भेजने का वर्णन है, इसमें तत्कालीन समाज की एक झलक दिखाई देती है। इस वेद में अनेक लौकिक सूक्त हैं जिनमें ऐहिक विषयों एवं यंत्र-मंत्र की चर्चा है। ऐसे सूक्त, दशम मण्डल में हैं और उनकी संख्या 30 से अधिक नहीं है दो छोटे-छोटे ऐसे भी सूक्त हैं जिनमें शकुन-शास्त्र का वर्णन है। एक सूक्त राजयक्ष्मा रोग से विमुक्त होने के लिये उपदिष्ट है। लगभग 20 ऐसे सूक्त हैं जिनका संबंध सामाजिक रीतियों, दाताओं की उदारता,नैतिक प्रश्न तथा जीवन की कतिपय समस्याओं से है। दशम मंडल का 85 सूक्त विवाह-सूक्त है, जिसमें विवाह-विषयक कुछ विषयों का वर्णन है तथा पांच सूक्त ऐसे हैं जो अत्त्येष्टि-संस्कार से संबद्ध हैं। ऐहिक सूक्तों में ही 4 सक्त नीतिपरक हैं जिन्हें हितोपदेश-सूक्त कहा जाता है। इस वेद के दार्शनिक सूक्तों के अंतर्गत नासदीय-सूक्त (10-129) पुरुष-सूक्त (10-90) हिरण्यगर्भसूक्त (10-121) तथा वाक्सूक्त (10-145) आते हैं। इनका संबंध उपनिषदों के दार्शनिक विवेचन से है। नासदीय सूक्त में भारतीय रहस्यवाद का प्रथम आभास प्राप्त होता है तथा दार्शनिक चिंतन का अलौकिक रूप दृष्टिगत होता है। इसमें पुरुष अर्थात् परमात्मा के विश्व-व्यापी रूप का वर्णन है। ऋग्वेद की कुल शाखाएं -चरणव्यूह और पुराणगत वृत्तान्त के आधार पर ऋग्वेद की कुल शाखाएं निम्न प्रकारसे गिनी जाती हैं : 1) मुद्गल, 2) गालव 3) शालीय 4) वात्स्य 5) शैशिरि, ये पांचशाकल शाखाएं हैं। 6) बौध्य 7) अग्नि माठर 8) पराशर 9) जातूकर्ण्य ये चार बाष्कल शाखाएं हैं। 10) आश्वलायन 11) शांखायन 12) कौषीतकि 13) महाकौषीतकि 14) शाम्बव्य 15) माण्डकेय, ये शाखायन शाखाएं हैं। अन्य शाखाओं के नाम हैं : 16) बहवच 17) पैङ्ग्य 18) उद्दालक 19) गौतम 20) आरुण 21) शतबला 22) गज-हास्तिक 23) बाष्कलि 24) भारद्वाज 25) ऐतरेय 26) वासिष्ठ 27) सुलभ और 28) शैनक शाखा। - वेदव्यास से ऋग्वेद पढ़ने वाले शिष्य का नाम था पैल। महाभारत के आधार पर (महा.सभा. 36-35) पैल था वसु का पुत्र । पैल ने आगे चलकर ऋग्वेद की दो शाखाएं बाष्कल और इन्द्रप्रमति द्वारा विभाजिज की। इन्द्रप्रमति से आगे शाखा-परंपरा के विषय में कुछ अन्यान्य वर्णन मिलते हैं। ऋग्वेद टिप्पणी -ले- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। ऋग्वेद-ज्योतिष -रचयिता-लगध ऋषि । इसमें 36 श्लोक हैं। इस ग्रंथ पर सोमाकर नाम पंडित ने भाष्य लिखा है। इस वेदांग का उपक्रम "कालविधान शास्त्र के रूप में हुआ है। वैदिक आर्यों को यज्ञयाग के लिये दिक्, देश तथा काल का ज्ञान इस शास्त्र से प्राप्त होने में सुविधा हुई। ऋग्वेद-सिद्धांजनभाष्य -ले. ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री। अरविन्दाश्रम के विद्वान शिष्य। यह भाष्य योगी अरविन्द के तत्त्वज्ञान पर आधारित हुआ है। ऋग्वेद पर 1000 पृष्ठों का यह भाष्य आश्रम द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसकी प्रस्तावना ऋग्भाष्य भूमिका नाम से स्वतन्त्रतया प्रकाशित तथा आश्रम के साधक माधव पण्डित द्वारा अंग्रेजी में अनूदित हुई है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका -ले- स्वामी दयानन्द सरस्वती। ऋजुलध्वी -ले. पूर्णसरस्वती। ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध) । ऋजुविमर्शिनी -ले. शिवानन्दमुनि। चतुःशती की टीका । ऋतम्भरम् -अहमदाबाद से बृहद्-गुजरात संस्कृत परिषद् द्वारा इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ। ऋतुचरितम् -ले- अत्रदाचरण तर्कचूडामणि। (जन्म- सन् 1862)। खण्डकाव्य। विषय- षड्ऋतुवर्णन । ऋतुवर्णना -ले. भारतचंद्र राय। ई. 18 वीं शती। ऋतुविलासितम् - ले. लक्ष्मीनारायण द्विवेदी। ऋतुसंहार -महाकवि कालिदास की यह प्रथम कलाकृति मानी जाती है। इसके प्रत्येक सर्ग में एक ऋतु का मनोरम वर्णन शृंगार उद्दीपन के रूप में किया गया है। कवि ने अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए इस काव्य में ऋतुओं का वर्णन 44/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किया है। इस काव्य का प्रारंभ ग्रीष्म की प्रचंडता के वर्णन से हुआ है और समाप्ति हुई है वसंत ऋतु की मादकता से इसके प्रत्येक सर्ग में 16 से 28 तक की श्लोकसंख्या प्राप्त होती है। इस काव्य की भाषा अत्यंत सरल और सुबोध है। वत्सभट्टि के ग्रंथ में ऋतुसंहार के 2 श्लोक उद्धृत हैं तथा उन्होंने इसकी उपमाएं भी ग्रहण की हैं। इससे इस काव्य की प्राचीनता सिद्ध होती है। षड्ऋतुओं के वर्णन में कालिदास ने केवल निसर्ग के बाह्य रूप का सूक्ष्म निरीक्षण के साथ चित्रण किया है। ऋषभपंचाशिका -ले- धनपाल। ई. 10 वीं शती। एकदिनप्रबन्ध -ले.- अलूरि कुलोत्पन्न सूर्यनारायण।। माता-ज्ञानाम्बा। पिता-यज्ञेश्वर । यह चार सों का प्रबन्ध एक ही दिन में लिखा गया, यह इसकी विशेषता मान कर ग्रंथ को नाम दिया गया है। एकवर्णार्थ संग्रह - ले. भरत मल्लिक । ई. 17 वीं शती। एकवीरोपाख्यान -ले- चारुचन्द्र रायचौधुरी। ई. 19-20 वीं शती। यह उपन्यास सदृश उपाख्यान है। एकालोकशास्त्रम् - ले- नागार्जुन। चीनी भाषा में उपलब्ध । एच.आर.रंगस्वामी का चीनी से अनुवाद मैसूर से 1927 में प्रकाशित हुआ। इस में यथार्थ सत्ता (स्वभाव) तथा अयथार्थ सत्ता (अभाव) के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व नहीं यह सिद्ध करने का प्रयास है। एकाक्षरकोश - पुरुषोत्तम । ई. 12 वीं शती। एकाक्षर-गणपति-कल्प - श्लोक 300। इसमें चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि के लिए गणेश के मन्त्रों से होम और जल, दुग्ध, इक्षुरस और धी से चतुर्विध तर्पणों का प्रतिपादन है तथा यन्त्र लिखने की विधि भी वर्णित है। एकाक्षरोपनिषद् - एकाक्षर ब्रह्म का वर्णन करने वाला एक गौण उपनिषद। इस उपनिषद् में एकाक्षर तत्त्व का उल्लेख पुल्लिंग में है। एकाक्षर याने ओंकार। यद्यापि इसका उल्लेख इसमें नहीं, फिर भी हृदय की गहराई में वास्तव्य करने वाला इस विशेषण से उसका ज्ञान होता है। एकादशीनिर्णय - ले- शंकरभट्ट, ई. 17 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। एकान्तवासी योगी - ले- अनन्ताचार्य । प्रतिवादि भयंकर मंठ के अधिपति। गोल्डस्मिथ के 'हरमिट्' काव्य का अनुवाद। एकावली - ले. विद्याधर। इस में काव्यशास्त्र के दंशागों * का वर्णन है। इस ग्रंथ के समस्त उदाहरण स्वयं विद्याधर द्वारा रचित हैं जो उत्कल-नरेश नरसिंह की प्रशस्ति में लिखे गए हैं। 'एकावली' में 8 उन्मेष हैं और ग्रंथ 3 भागों मे रचित हैं- कारिका, वृत्ति व उदाहरण। तीनों ही भागों के रचयिता विद्याधर है। इसके प्रथम उन्मेष में काव्य के स्वरूप, द्वितीय में वृत्ति-विचार, तृतीय में ध्वनि एवं चतुर्थ में गुणीभूतव्यंग का वर्णन है। पंचम उन्मेष में गुण व रीति, षष्ठ में दोष, सप्तम में शब्दालंकार एवं अष्टम में अर्थालंकार वर्णित हैं। प्रस्तुत ग्रंथ पर 'ध्वन्यालोक', 'काव्यप्रकाश' व 'अलंकारसर्वस्व' का पूर्ण प्रभाव है। अलंकार-विवेचन पर रुय्यक का ऋण अधिक है और परिणाम उल्लेख, विचित्र एवं विकल्प-अलंकारों के लक्षण 'अलंकार-सर्वस्व' से ही उद्धृत कर दिये गए हैं। इस ग्रंथ में अलंकारों का वर्गीकरण रुय्यक से प्रभावित है। ग्रंथरचना का उद्देश्य भी विद्याधर ने प्रकट किया है। (1/46) इसका, श्रीत्रिवेदी रचित भूमिका व टिप्पणी के साथ, प्रकाशन मुंबई संस्कृत सीरीज से हुआ है। इस पर मल्लिनाथ ने 'सरला' नामक टीका लिखी है। एकीभावस्तोत्रम् - ले- वादिराज। जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध। एडवर्ड-राज्याभिषेक-दरबारम् - ले- शिवराम पाण्डे । प्रयागवासी। रचना- 1903 में। एडवर्डवंश - ई. 1905 उर्वीदत्त शास्त्री। लखनऊ निवासी। एडवर्डशोक-प्रकाशः - ले- शिवराम पाण्डे। प्रयागवासी। ई. 19101 एनल्स ऑफ दि भाण्डाकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट - सन 1918 में पुणे से यह पाण्मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई। पत्रिका में अंग्रेजी और संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। ऐकेय शाखा - कृष्ण यजुर्वेद की एक नामशेष शाखा। ऐतरेय आरण्यक - यह ऋग्वेद का आरण्यक है। इसके भाग पांच और अध्यायों की संख्या अठारह हैं। पहिले में पांच, दूसरे में सात, तीसरे में दो, चौथे में एक एवं पाचवें में तीन अध्याय हैं। अध्यायों का विभाजन खंडों में है। __ यह आरण्यक ऐ. ब्राह्मण का अवशिष्ट भाग है। इसमें तत्त्वज्ञान की अपेक्षा यज्ञविषयक विवेचन अधिक है। 'महाव्रत' नामक श्रौत विधि के हौत्र के सम्बन्ध में आध्यात्मिक विचारों का समावेश है। प्रथम तीन में पुरुष-विचार किया है। तीसरे में (इसी अध्याय को संहितोपनिषद कहते हैं) ऋग्वेद की संहिता पदपाठ एवं क्रमपाठ के गूढ अर्थ पर विवेचन है। चौथे में महानाम्नी ऋचाओं का संकलन है। पांचवें में महाव्रत के माध्यंदिन सवन में जिसका उल्लेख है, उस निष्कैवल्य शास्त्र का वर्णन है। इसके पहले तीन आरण्यकों के संकलन कर्ता महिदास थे। चौथे आरण्यक के संकलक आश्वलायन और पांचवे आरण्यक के संकलक थे शौनक । ऐतरेय आरण्यक और ऐतरेय ब्राह्मण की भाषा शब्दप्रयोगों में भरपूर सादृश्य है। डॉ. ए.बी. कीथ के अनुसार इसका काल ई.पू.षष्ठ शतक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/45 For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। (क) इसका प्रकाशन सायण भाष्य के साथ आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथावली संख्या 38, पुणे से 1898 ई. में हुआ था। (ख) डॉ. कीथ द्वरा आंग्लानुवाद ऑसफोर्ड से प्रकाशित । (ग) राजेन्द्रलाल मित्र द्वारा संपादित एवं बिब्लोयिका इण्डिका, कलकत्ता से 1876 ई. में प्रकाशित। ऐतरेय उपनिषद् - यह, ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक का चौथा, पांचवा और, छटा अध्याय है। इसमें 3 अध्याय हैं और संपूर्ण ग्रंथ गद्यात्मक है। एकमात्र आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन ही इसका प्रतिपाद्य है। प्रथम अध्याय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि आत्मा से ही संपूर्ण जडचेतनात्मक सृष्टि की रचना हुई है। प्रारंभ में केवल आत्मा ही था और उसी ने सर्व प्रथम सृष्टि-रचना का संकल्प किया (1-1-2)। द्वितीय अध्याय में जन्म, जीवन व मृत्यु (मनुष्य की 3 अवस्थाओं) का वर्णन है। अंतिम अध्याय में "प्रज्ञान" की महिमा का आख्यान करते हुए, आत्मा को उसका (प्रज्ञान का) रूप माना गया है। यह प्रज्ञान ब्रह्म है। 'प्रज्ञाननेत्रो लोकः"। प्रज्ञानं प्रतिष्ठा । प्रज्ञानं ब्रह्म । मानव शरीर में आत्मा के प्रवेश का सुंदर वर्णन इसमें है। परमात्मा ने मनुष्य के शरीर की सीमा (शिर) को विदीर्ण कर उसके शरीर में प्रवेश किग। उस द्वार को “विदृति" कहते हैं। यही आनंद या ब्रह्म-प्राप्ति का स्थान है। इस उपनिषद् में पुनर्जन्म की कल्पना का प्रतिपादन, निश्चयात्मक रूप से है। "प्रज्ञानं ब्रह्म" इसी उपनिषद् का महावाक्य है। ऐतरेय ब्राह्मण - ऋग्वेद के उपलब्ध दो ब्राह्मणों में 'ऐतरेय ब्राह्मण' अत्यधिक प्रसिद्ध है। शाकल शाखा को मान्य इस ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं। 5 अध्यायों की 'पंचिका' कहलाती हैं। अर्थात् कुल 8 पंचिकाएँ बनती हैं। प्रत्येक पंचिका में आठ अध्याय और कुछ कंडिकाएं होती हैं। यथा पंचिका 1 में 30, 2 में 41, 3 में 50, 4 में 32, 5 में 34, 6 में 36, 7 में 34 और 8 में 28 कण्डिकाएं हैं। कुल 285 कण्डिकाएं हैं। इस ब्राह्मण में अधिकतर सोमयाग का विवरण है। 1-16 अध्यायों में एक दिन में सम्पन्न होने वाले 'अग्निष्टोम" नामक सोमयाग का विवरण है। 17-18 अध्यायों में 360 दिनों के 'गवाममयन' का, 19-24 अध्यायों में "द्वादशाह" का, 25-32 अध्यायों में अग्निहोत्रदि का और 33 से 40 राज्याभिषेक महोत्सव में राजपुरोहितों के अधिकार का वर्णन है। 30-40 अध्याय उपाख्यान और इतिहास दृष्टि से महत्त्व पूर्ण है। इसी भाग में 33 वें अध्याय में हरिश्चोद्रोपाख्यान है, जिसमें हरिश्चंद्र की प्रकृति, परिवार, उसके द्वारा सम्पन्न यज्ञ से सम्बध देवता, पुरोहित ऋत्विज आदि का परिचय है। अन्तिम तीन अध्यायों में भारत की चतुर्दिक् भौगोलिक सीमाएं, वहां के निवासी और शासकों का परिचय है। ब्राह्मण की पंचिका 1 खंड (या कंडिका) 27 में सोमाहरण की कथा, 2.28 में मुख्यतः 33 देवताओं का प्रतिपादन, (3.44 में आकाश की सूर्य से उपमा), 3.23 में संतानोत्पत्ति के लिए अनेक विवाह। 4.27 (5/6) में प्रेम विवाह पर बल। 5.33 में ऋगादि तीन वेदों को तथा अथर्व वेद को मन कहा गया है। इसी स्थल पर अथर्व वेद को 'ब्रह्मदेव' कहकर उसका महत्त्व प्रतिपादित है। इसको सर्वश्रेष्ठ देवता माना गया है। ऋग्वेद के ऐतरेय तथा कौषीतकी इन दोनों ब्राह्मण ग्रंथों का ज्ञान यास्क को था। यास्कपूर्व शाकल्य भी इनसे परिचित थे। इस आधार पर इसका काल ईसापूर्व 600 वर्ष का होगा ऐसा अनुमान है। ऐ. ब्रह्मण में जनमेजय राजा के राज्याभिषेक का वर्णन है। जनमेजय राजा का काल, संहिताकरण के प्राचीन काल का अंतिम काल है। अतः कुरुयुद्ध के तुंरत बाद ही इसका रचना मानी जाती है। इस ब्राह्मण की गद्यभाषा बोझिल है।. उपमा-उत्प्रेक्षा नजर नहीं आती। पर कुछ स्थान ऐसे हैं जहां भाषा सरल, सीधी प्रतीत होती है। शुनःशेप की कथा इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। गद्य की अपेक्षा गाथा, भाषा की दृष्टि से उच्च श्रेणी की है। इस के प्रारंभ में कहा है कि :___"अग्नि सभी देवताओं में समीप एवं विष्णु सर्वश्रेष्ठ है। अन्य देवतागण बीच में है। इस ग्रंथ के काल में इन दोनों देवताओं को महत्त्व प्राप्त था, यह दिखाई देता है। सभी देवताओं को अग्नि का रूप माना गया है। देवासुर युद्ध का उल्लेख आठ बार है। यज्ञ की उत्क्रांति का दिग्दर्शन इस ग्रंथ से होता है। इस ब्राह्मण के प्रवक्ता हैं महिदास ऐतरेय । चरणव्यूह कण्डिका 2 के अनुसार इस ब्राह्मण के पढने वाले तुंगभद्रा, कृष्णा और गोदावरी वा सह्याद्रि से लेकर आन्ध्र देश पर्यन्त रहते थे। इसके अंतिम 10 अध्याय प्रक्षिप्त माने जाते हैं। इस पर 3 भाष्य लिखे गये है। [1] सायणकृत भाष्य । यह आनंदाश्रम संस्कृत सीरीज, पुणे से 1896 में दोनों भागों में प्रकाशित हुआ है। [2] षड्गुरुशिष्य-रचित "सुखप्रदा' नामक लघु व्याख्या [इसका प्रकाशन अनंतशयन ग्रंथमाला सं. 149 त्रिवेंद्रम से 1942 ई. में हुआ है। [3] और गोविन्द स्वामी की व्याख्या [अप्रकाशित] । ऐतरेय ब्राम्हणम् मार्टिन हाग द्वारा सम्पादित - मुंबई गव्हर्नमेंट द्वारा प्रकाशित सन 1863 [भाग 1] [4] ऐतरेय ब्राह्मण- सायणभाष्यसमेतम् सत्यव्रत सामश्रमी द्वारा सम्पादित एशियाटिक सोसायटी बंगाल कलकत्ता सम्वत् 1952-1963। भाग 9-4। [5] ऐतरेयब्राहण-सायणभाष्य समेतम् [सम्पादक - काशिनाथ शास्त्री] आनंदाश्रम, पुणे - 1896 भाग- 1-21 ऐतरेय ब्राह्मण-आरण्यक कोश- संपादक -केवलानन्द 46/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरस्वती। [वाई (महाराष्ट्र) के निवासी] ई. 19-20 वी शती। जागतिक साहित्य का आश्चर्य है। ऐसे तीन रामायण आधुनिक ऐतरेय विषयसूची - संपादक - केवलानन्द सरस्वती। ई. काल में प्रसिद्ध हैं। रचना अर्थात् ही असाधारण क्लिष्ट है। 19-20 वीं शती। कङ्कणबन्धरामायणम् -कवि- चारलु भाष्यकार शास्त्री। 20 ऐंद्रव्याकरणम् - ब्रह्मदेव तथा शक्र ने पाणिनि के पूर्व वीं शती पूर्वार्ध । आंध्र में कृष्णा जिले के काकरपारती ग्राम व्याकरण विषयक कुछ नियम प्रस्थापित किये थे। तैत्तिरीय के निवासी। इस कवि के एक ही कङ्कणबद्ध श्लोक से संहिता में ऐसा उल्लेख है कि देवताओं ने इन्द्र से “वाचं 128 अर्थ उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के काव्य से कवि व्याकुरु" (वाणी का व्याकरण कर) यह प्रार्थना की थी। का भाषापाण्डित्य तथा संस्कृत भाषा की नानार्थ शक्ति सिध्द सामवेद के ऋक्तंत्र नामक प्रातिशाख्य में लिखा गया है कि होती है। ब्रह्मा ने इंद्र को एवं इंद्र ने भारद्वाज को व्याकरण सिखाया।। कंकालमालिनीतन्त्रम् -श्लोक 676। यह शिव-पार्वती संवादरूप भारद्वाज से वह अन्य ऋषियों को प्राप्त हुआ। डेढ लक्ष श्लोकात्मक दक्षिणाम्नाय के अन्तर्गत 50000 श्लोकों ऐन्दवानन्दम् - ले- रामचन्द्र । ई. 18 वीं शती। ययाति राजा का मौलिक तन्त्र ग्रंथ है। इसके पांच पटल उपलब्ध हैं। के चरित्र पर नाटक। अंकसंख्या आठ। विषय- अकरादि वर्गों की शिवशक्तिरूपता, योनिमुद्रा, गुरुपूजा ऐश्वर्यकादम्बिनी - ले. विद्याभूषण कृष्णचरित्रविषयक काव्य । और गुरुकवच, महाकाली के मन्त्रों का प्रतिपादन तथा ओरियन्टल थॉट- सन 1954 से नासिक से डॉ. जी.व्ही.देवस्थली पुरश्चरणविधि इत्यादि। के सम्पादकत्व में इस संस्कृत वाङ्मय विषयक पत्रिका का कंठाभरणम् -ले. शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। प्रकाशन प्रारंभ हुआ। कन्दर्पदर्पविलास (भाण)-ले. बेल्लमकोण्ड रामराय औरतेय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय - चरणव्यूह के अनुसार आन्ध्रनिवासी। तैत्तिरीय शाखा दे. दो भेद हैं। (1)-गौखेय और (2) कंदर्पसंभवम् -इस ग्रंथ के कर्तृत्व के विषय में दो मत हैं। खाण्डिकीय। औखेय का नामांतर औखीय और खाण्डिकीय शंगभूपाल और विश्वेश्वर इन दो लेखकों ने अपने अपने ग्रंथ का नामान्तर खाण्डिकेय है। औखेयों के सत्र का प्रणयन में "यथा कंदर्पसंभवे भमैव" ऐसा कहते हा श्लोकों के विखनस ऋषि ने किया ऐसा वैखानस सूत्र के प्रारंभ में बताया उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। गया है। औखेयों का कुछ संस्कार विशेष वैखानसों में किया कंदुक-स्तुति -द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य ने छोटे-बडे जाता है। किन्तु चरणव्यूह में वैखानसों का कोई उल्लेख नहीं है। मिलाकर 37 ग्रंथों की रचना की। जिन्हें समवेत रूप से औदार्यचिन्तामणि - प्राकृत व्याकरण ले.- श्रुतसागरसूरि “सर्व-मूल" कहा जाता है। प्रस्तुत "कंदुक-स्तुति '' आचार्य जैनाचार्य। ई.16 वीं शती। , की 38 वीं एवं लघुत्तम कृति है। इसे "सर्व-मूल" में समाविष्ट औदंबर-संहिता- ले. आचार्य निंबार्क के शिष्य औदंबराचार्य नहीं किया जाता। इसके अंतर्गत श्रीकृष्ण की स्तुति में केवल निबार्क तत्त्वज्ञान विषयक ग्रंथ। दो अनुप्रासमय पद्य हैं। इनकी रचना आचार्य ने अपने औपमन्यव - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा। बाल्य-काल में की थी। ये पद्य निम्नांकित हैंऔमापतम् - शिव-पार्वती संवाद। संगीत शास्त्र की अपूर्ण अम्बरगंगा-चुंबितपदः पदतल-विदलित-गुरुतरशकटः । रचना। प्राचीन संगीत, ताल, नृत्य तथा साहित्य का विवेचन कालियनागवेल-निहंता सरसिज-दल-विकसित-नयनः ।। 38 भागों में किया है। भरत, मतंग तथा कोहल के मतों कालघनाली-कर्बुरकायः शरशत-शकलित-रिपुशत-निकरः। से भिन्न विचार इस में हैं। नंदीश्वर संहिता का यह संक्षेप है संततमस्मान् पातु मुरारिः सततग-समजव खगपतिनिरतः।। ऐसा रघुनाथ अपनी संगीतसुधा में कहते हैं। सांप्रत उपलब्ध कंसनिधनम् -कवि-राम। संक्षेपीकरण चिदम्बरम् के उमापति शिवार्य ने किया, जिनका कंसवधम् -इस नाम के अनेक ग्रंथ हैं जैसेसमय ई.12 वीं शती के पूर्व का माना जाता है। - 1. पातंजल महाभाष्य में उल्लिखित नाटक। औशनस-धनुर्वेद - संपादक- पं.राजाराम। पंजाब ओरिएंटल 2. ले.- राजचूडामणि। सर्गसंख्या- 101 सीरीज द्वारा प्रकाशित । 3. ले.- धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती कङ्कणबन्धरामायणम् -कवि कृष्णमूर्ति । ई.19 वीं शती। 4. ले.- शेषकृष्ण। (रूपक.) ई. 16 वीं शती। इस विचित्र ग्रंथ में अक्षरयुक्त दो पंक्तियों के एक ही श्लोक 5. ले.- महाकवि शेषकृष्ण। ई. 16 वीं शती। में संपूर्ण रामकथा समाविष्ट है। यह श्लोक कङ्कणाकार यह साल अंको का नाटक है। श्रीकृष्ण के जन्म से कंस के लिखकर, किसी भी अक्षर से दाहिने और बाएं पढने से 64 वध तक का कथानक । प्रमुख रस वीर । बीचबीच में विप्रलम्भ श्लोक बनते हैं। इनसे रामकथा पूर्ण होती है। यह प्रकार । शृंगार तथा रौद्र रस का भी पुट। प्राकृत का प्रचुर प्रयोग। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/47 For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकृष्ण के मुख से भी प्राकृत गान। अन्यत्र कही अधम त्रुटित रूप में उपलब्ध है। कठोपनिषद् तो प्रसिद्ध ही है। पात्रों द्वारा भी संस्कृत संवाद। संगीतमयी शैली। अनुप्रास कठश्रुत्युपनिषद् नाम का ग्रंथ भी उपलब्ध है। काठक गृह्य यमक की मात्रा अधिक। कभी-कभी रंगमंच पर साक्षात् युध्द का ही लौगाक्षिगृह्यसूत्र ऐसा नामान्तर कहीं कहीं किया गया दर्शन, जो भारतीय नाट्यशास्त्र में निषिद्ध है। है। कठ और लौगाक्षि भिन्न व्यक्ति थे या एक यह विवाद्य विषय है। (6) ले. हरिदास सिद्धान्तवागीश । रचनाकाल सन 1888 । कठरुद्र-उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की गद्य-पद्यात्मक शाखा। यह नाटक लेखक ने 15 वर्ष की अवस्था में लिखा। प्रजापति द्वारा देवताओं को ब्रह्मविद्या का जो उपदेश किया उसी वर्ष कोटलिपाडा में इस का अभिनय हुआ। गया उसमें, ब्रह्मज्ञान से ही ब्रह्मप्राप्ति के तत्त्व का निरूपण किया है। कक्षपुटम् -(नामान्तर - नागार्जुनीय, सिद्धचामुण्डा, सिद्धनार्जुनीय न कर्मणा न प्रजया न चान्येनापि केनचित् । कच्छपुट, कक्षपुटी, कक्षपुटमंत्रशास्त्र, कक्षपुटतंत्र आदि) ले. ब्रह्म-वेदनमात्रेण ब्रह्माप्नोत्येव मानवः ।। सिद्ध नागार्जुन। पटलसंख्या - 20। इसमें वशीकरण, आकर्षण, अर्थात् - मानव को कर्म से, प्रजा से अथवा अन्य किसी स्तंभन, मोहन, उच्चाटन, मरण, विद्वष करा देना, व्याधि पैदा उपाय से नहीं बल्कि केवल ब्रह्मज्ञान से ही ब्रह्म-प्राप्ति होती कर देना, पशु फसल और धन का नाश कर देना, जादूटोना, है। इस उपनिषद् में पंचीकरण पद्धति से सृष्टि की उत्पत्ति यक्षिणीमंत्र, चेटक, दिव्य अंजन से अदृश्य कर देना, खडाउओं का क्रम तथा आत्मा के पंचकोशों का विवेचन है। को चला देना, आकाशगमन, गडा धन निकाल देना, सेना कठोपनिषद् -कृष्ण यजुर्वेद की काठक शाखा का एक भाग। को स्तब्ध कर देना, बहते जल को रोक देना आदि तान्त्रिक इसमें यम द्वारा नचिकेत को ब्रह्मविद्या का निरूपण किया गया विधियां शाम्भव, यामल, शाक्त, कौल, डामर आदि विविध है। इसके कुल दो अध्याय हैं। इनमें आत्मा की अमरता का तन्त्रों का अवलोकन कर आगमीकृत तथा अन्यान्य लोगों के सिद्धान्त और आत्मज्ञान की प्राप्ति के मार्ग का विवेचन है। मुख से सुनकर सार रूप में निवेदन किए हैं। यम ने आत्मा को ज्ञानस्वरूप, अविनाशी और परमात्मा से कक्षपुटीविद्या -ले. 'नित्यनाथ। माता-पार्वती। श्लोक- 3271 . अभिन्न बताया है। इसलिये वह सर्व प्रकाशक है। यह मन्त्रसार के सिध्दखण्ड से गृहीत ग्रंथ है। न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं कचशतकम् -ले. वरदकृष्णम्माचार्य। वालजूर (तंजौर) के नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमाग्निः । निवासी। ई.. 19 वीं शती। तमेव भान्तमनुभति सर्वं कच्छवंशम् -ले. कृष्णराम । जयपुर के निवासी। आयुर्वेदाचार्य तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।। विषय- जयपुर के पांच नरेशों का चरित्र वर्णन । अर्थात्- वहां सूर्य, चन्द्र और तारकों का प्रकाश नहीं कटाक्षशतकम् -ले. म.म.गणपति शास्त्री, वेदान्तकेसरी । भक्तिनिष्ठ पहुंच सकता, यह विद्युत प्रकाश भी नहीं पहुचता तब वहां काव्य। ई. 19-20 वीं शती। अग्नि कैसे पहुंचेगा। उस (परमात्मा) के प्रकाशित होते ही कटुविपाक -ले. लीला राव -दयाल । पंडिता- क्षमादेवी राव सभी प्रकाशमान होते हैं। उसके प्रकाश से ही यह सब लिखित "ग्रामज्योति" नामक कथा पर आधारित. एकांकिका । दिखाई देता है। विषय- शासकीय अधिकारी पिता की युवा पुत्री रेखा सत्याग्रह आत्मज्ञान प्राप्ति का मार्ग यम ने इस प्रकार बताया हैआन्दोलन में प्राणोत्सर्ग करती है, यह कटु विपाक देखते हुए श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतः पश्चातापदग्ध पिता की अवस्था । तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः कठ (अथवा काठक) शाखा -[कृष्ण यजुर्वेदीय] | जिस श्रेयो हि धीरोऽभिःप्रेयसो वृणीते प्रकार वैशंपायन चरक के सब शिष्य चरक कहलाते हैं, वैसे प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ।। ही कठ के भी समस्त शिष्य कठ ही कहलाते हैं। अनेक अर्थात्- श्रेय और प्रेय दोनों मिश्ररूप में जीव के समक्ष कठों में जो प्रधान कठ था उसे ही आद्य कठ कहा गया उपस्थित होते हैं। जो बुद्धिमान् है वह श्रेय का और मंद है। कठ एक चरण है। इस की अवान्तर शाखाएं अनेक बुद्धिवाला योगक्षेम चलाने के लिये प्रेय का चुनाव करता है। होंगी। पुराणों में निर्दिष्ट प्रमाणों के अनुसार उत्तर दिशा में यम के अनुसार श्रेय विद्या और प्रेय अविद्या है। श्रेय अल्मोडा, गढवाल, कुमाऊं, काश्मीर पंजाब, अफगानिस्तान को स्वीकार करने से ही आत्मज्ञान और परमानंद की प्राप्ति संभव है। आदि देशों में से कोई एक देश कठ नामक होगा। ____ इस उपनिषद् में “रथरूपक" द्वारा आत्मा, बुद्धि, मन, काठकसंहिता, कठब्राह्मण (कुछ अंश) और काठकगृह्य इन्द्रियां और विषय इनका अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। सूत्र उपलब्ध हैं। कठ-ब्राह्मण का नाम शताध्ययन ब्राह्मण भी कणः लुप्तः गृहं दहति -टालस्टाय की कथा "ए स्पार्क था। इसके अतिरिक्त कठ आरण्यक या कठ-प्रवर्दी ब्राह्मण निगलेक्टेड बर्न्स दी हाऊस" का अनुवाद। अनुवादक है 48 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृष्णसामयाजी। कणादरहस्यम् -ले. शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। कण्णकीकोवलम् -6 सर्ग का काव्य। मूल शीलपट्टिकारम् नामक मलयालम् काव्य का अनुवाद । अनुवादक- सी.नारायण नायर। कण्वकंठाभरणम् -ले. अनंताचार्य। ई. 18 वीं शती। कथाकल्पद्रुमः -संस्कृत चंद्रिका में दी गयी जानकारी के अनुसार कथाकल्पद्रुमः नामक 8 पृष्ठों वाली पत्रिका 1899 में आप्पाशास्त्री के सम्पादकत्व में प्रारंभ हुई। प्रकाशन स्थल महाराष्ट्र में कोल्हापुर क्षेत्र था। इस पत्रिका में "अरेबियन नाइटस्" का संस्कृत अनुवाद प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ था। कथाकोष -ले. ब्रह्मदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। कथाकौतुकम् - "युसुफ-जुलेखा" नामक पर्शियन कथा का अनुवाद। ले. श्रीधर, ई. 15 वीं शती । कथापंचकम् -ले. क्षमादेवी राव। आधुनिक विषयों पर पांच पद्यात्मक कथाएं कथामंजरी -1. ले. जगन्नाथ। अरविन्दाश्रम की श्री. माताजी द्वारा फ्रान्सीसी भाषा में लिखित नीतिकथाओं (बेल्जिस्तवार) का संस्कृत अनुवाद (सटीक)। 2. ले. व्ही. अनन्ताचार्य कोडंबकम्। यह कथासंग्रह गद्य-पद्यात्मक है। कथालक्षणम् -ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 श. कथाविचार -ले. भावसेन त्रैविद्य । जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती । कथाशतकम् -अन्यान्य प्रादेशिक भाषाओं की रोचक 100 कथाओं का संकलित अनुवाद। अनुवादक- एस. वेङ्कटराम शास्त्री। कथासरित्सागर -कवि सोमदेव ने ई.स. 11 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में काश्मीर के राजा अनंतदेव की विदुषी पत्नी सूर्यवती के प्रोत्साहन पर "कथासरित्सागर" की रचना की। इसमें कुल 18 लंबक, 124 तरंग और 24 हजार श्लोक हैं। लंबकों के नाम हैं- कथापीठ, कथामुख, लावाणक, नरवाहन-दत्तजनन, चतुर्दारिका, मदनमंचुका, रत्नप्रभा, अलंकारवती, शक्तियश, वेला, शशांकवती, मदिरावती, पंचमहाभिषेक, सुरतमंजरी, पद्मावती व विषमशाल। इन कथाओं के माध्यम से तत्कालीन भारतीय रीति-रिवाज, कला-विलास, नारीचरित्र, धार्मिक विश्वास और संकेतों का परिचय होता है। रचना में अनुष्टुभ् छंद का प्रयोग इसकी विशेषता है। कथासूक्तम् -ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में बीजरूप में कुछ कथाएं हैं जिनका आगे चलकर ब्राह्मणग्रंथों में विस्तार हुआ है। जैसे ऋ. 1.24. में उल्लेखित शुनः शेपकथा, ऐ. ब्राह्मण में (5.14.) विस्तारित है। ऋ.1-454 के विष्णुसूक्त से शतपथब्राह्मण में वामनावतार कथा ली गयी है। ऋग्वेद की अन्य कथाएं हैं :- गौतमकथा (1/85), वामदेवकथा (1-28), श्यावाश्वकथा (75.61), सप्तवधिकथा (5-78), दाशराज्ञयुद्धकथा (7-18,33), नमुचिवधकथा (8-14), नाभानेदिष्टकथा (10.61) इन कथाओं से संबंधित सूक्त कथासूक्त कहे जाते हैं। कनकजानकी (नाटक)-ले. क्षमेन्द्र। ई.11 वीं शती। पिता प्रकाशेन्द्र। विषय- प्रभु राम का वनवासोत्तर चरित्र कनकलता -काव्यम् -ले. ताराचन्द्र (ई.17-18) वीं शती। कनकलता -मूल शेक्सपियर के काव्य 'ल्यूक्रेस' का अनुवाद । अनुवादक- पी. के. कल्याणराम शास्त्री। मद्रासनिवासी। कन्यादानम् -लेखिका- डॉ. माणिक पाटील । अमरावती (विदर्भ) निवासी। एकांकी नाटिका। विषय- राजपूत महिला कृष्णाकुमारी का चरित्र। कपाट-विपाटिनी ले. प्रेमचन्द्र तर्कवागीश। कविराजकृत "राघव-पाण्डवीय' नामक द्वयर्थी काव्य की व्याख्या । कपालकुण्डला -बंकिमचन्द्र के बंगाली उपन्यास पर आधारित नाटक। ले. हरिचरण। (प्रसिध्द लेखक विष्णुपद भट्टाचार्य के पिता । संस्कृत साहित्य परिषद् के 37 वें वार्षिकोत्सव में अभिनीत । अंकसंख्या सात । कथावस्तु- नवकुमार की प्रथम पत्नी मति ब्राह्मण वेष में कपालकुण्डला से मिलती है, यह देख नायक उसके चरित्र पर शंका करता है। अपमानित नायिका प्राणोत्सर्ग करती है। पश्चात्तापदग्ध नायक भी आत्महत्या करता है। कपिलगीता -श्रीमद्भागवत में कर्दमपुत्र कपिल (भगवान् विष्णु का पांचवा अवतार) ने अपनी माता देवहूति को दिया हुआ उपदेश, “कपिलगीता" नाम से प्रसिद्ध है। कपिलस्मृति -ले. कपिल । सांख्यसूत्राकार कपिल मुनि से भिन्न व्यक्तित्व। कपिष्ठल-कठ संहिता (कृष्ण यजुर्वेद)-कृष्ण यजुर्वेद की कपिष्ठल-कठ संहिता अपनी मूलशाखा परिवार से बहुत मिलती-जुलती है। पतंजलि के समय इस शाखा का प्रचार था, ऐसा प्रमाणों से दीखता है। सम्प्रति इसका नाम ही रह गया है। इसके पदपाठ का भी उल्लेख पाया जाता है। कपिष्ठल-कठशाखा की संहिता, आठ अष्टकों और 64 अध्याओं में विभक्त थी। सम्प्रति प्रथमाष्टक, चतुर्थाष्टक, पंचमाष्टक और षष्ठाष्टक ही मिलते हैं। कपोतालय - ले. श्रीमती लीला-राव दयाल। जगदीशचंद्र माथुर द्वारा लिखित कथा का प्रहसनात्मक रूपान्तर । कमला - स्वातंत्र्यवीर सावरकर के प्रसिद्ध 'कमला' नामक मराठी महाकाव्य का संस्कृत अनुवाद। अनुवादक डॉ. ग.बा. पळसुले। पुणे-निवासी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 49 For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलापद्धति - ले. प्रेमनिधि पन्त। श्लोक 2001 विषयतांत्रिक उपासना। कमलिनी-कलहंसम् (नाटिका) . ले. राजचूडामणि यज्ञनारायण दीक्षित। ई. 16 वीं शती का अन्तिम चरण। सभी पात्र प्रकृतिपरक परंतु उनकी वृत्ति-प्रवृत्तियां मानवोचित है। चोल शासक महाराज रघुनाथ के शासन-काल में इसका प्रथम अभिनव अनन्तासनपुर में विष्णु की यात्रा के अवसर पर हुआ (1614 ई. के पश्चात्) । प्रमुख रस शृंगार। इसका कथानक कल्पित । कुल पात्रसंख्या चौदह । सुबोध एवं संगीतमयी रचना । कथा - नायक कलहंस के मामा कमलाकर को परास्त करने पर बकोट उनकी कन्या कमलिनी एवं धात्रेयी को उठा ले जाता है। कलहंस कमलजा से प्रेम करने लगता है। कमलजा को सारसिका भरतनाट्य सिखाती है। बाद में पता चलता है कि कमलिनी ही कमलजा का रूप धारण कर आयी है। नायक कलहंस तथा नायिका कमलिनी कामसन्तप्त होते हैं और मदनोद्यान में वे मिलते भी हैं, परंतु उनका मिलन नहीं हो पाता। प्रतिनायिका के रूप में कलहंस की रानी उसमें बाधा डालती है, परंतु बाद में रानी को पता चलता है कि कमलजा वास्तव में उसी की बहन है, तब वह कलहंस-कमलिनी का विवाहसम्बन्ध स्वीकार करती है। कमलिनी-राजहंसम् (नाटक) - ले. केरल के एक कवि व नाटककार श्री. पूर्णसरस्वती। ई. 14 वीं श, का पूर्वार्ध । पूर्णसरस्वती संन्यासी थे और त्रिचूरस्थित मठ में रहते थे। टीका, काव्य, नाटक आदि विविध प्रकार के 7 से भी अधिक ग्रंथों की रचना द्वारा संस्कृत साहित्य की श्री-वृद्धि करने वाले केरल के पंडितों में पूर्णसरस्वती का अपना एक विशेष स्थान है। अंक- पांच। राजहंस एवं पंपा-सरोवर की कमलिनी के विवाह का प्रसंग इसमें वर्णित है। कमलाविजयम् (नाटक) - मूल- आल्फ्रेड टेनीसन कृत दो अंक का प्रेक्षणक। अनुवादक- वेंकटरमणाचार्य। 1909 में लिखित। 1938 में प्रकाशित । रूपान्तर में मूल शोकान्त कथानक में बदल कर सुखान्त किया है। नाटक रचना में गेय पद्धति का अवलंब किया है। करणकंठीरव - ले. केशव। ई. 15 वीं शती। विषयज्योतिषशास्त्र। करणकुतूहलम् - ले. भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। विषय- ज्योतिर्गणित। करणकौस्तुभ - ले.- कृष्ण (सुप्रसिद्ध ज्योतिःशास्त्रज्ञ)। शिवाजी महाराज ने अपने स्वराज्य में भाषाशुद्धि के उपरान्त, पंचांगशुद्धि का प्रयास किया। प्रस्तुत ग्रंथ उसी प्रयास में लिखवाया गया। ज्योतिःशास्त्रज्ञों में इस ग्रंथ का आदर से उल्लेख होता है। करुणरसतंरगिणी (स्तोत्रकाव्य) - ले. जगु श्री बकुलभूषण। वेंगलुरु निवासी। करुणालहरी (विष्णुलहरी) - ले. जगन्नाथ पण्डिराज। ई. 16-17 वीं शती। श्लोकसंख्या 60। स्तोत्रकाव्य । कर्णधारः (काव्य) -ले. हरिचरण भट्टाचार्य। कलकत्ता निवासी। जन्म ई. 1878। कर्णभारः (नाटक) - ले.- महाकवि भास। इसमें महाभारत की कथा के आधार पर कर्ण का चरित्र वर्णित है। महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात् कर्ण को सेनापति बनाया जाता है। अतः इसे 'कर्णभार' कहा गया है। सर्वप्रथम सूत्रधार रंगमंच आता है। सेनापति बनने पर कर्ण अपने सारथी शल्य को अर्जुन के रथ के पास उसे ले जाने को कहता है। मार्ग में वह अपनी अस्त्र-प्राप्ति का वृत्तांत व परशुराम के साथ घटी घटना का कथन करता है। उसी समय नेपथ्य से एक ब्राह्मण की आवाज सुनाई पडती है कि 'मैं बहुत बडी भिक्षा मांग रहा हूं'। ब्राह्मण और कोई नहीं इन्द्र है। वे कर्ण से उसके कवच-कुंडल मांगने आए थे। पहले तो कर्ण देने से हिचकिचाता है और ब्राह्मण को सुवर्ण व धन मांगने के लिये कहता है पर ब्राह्मण अपनी हठ पर अडा रहता है, और अभेद्य कवच की मांग करता है। अंत में कर्ण अपने कवच-कुंडल दे देता है और उसे इंद्र से 'विमला' शक्ति प्राप्त होती है। पश्चात् कर्ण व शल्य अर्जुन के रथ की और जाते हैं तथा भरतवाक्य के बाद नाटक समाप्त होता है। ___ महाकवि भास ने नाटक में घटनाओं की सूचना कथोपकथन के रूप में देकर इसकी नाटकीयता की रक्षा की है। यद्यपि इसका वर्ण्य-विषय युद्ध व युद्ध-भूमि है, तथापि इस नाटक में करुणरस का ही प्राधान्य है। नाटक में 2 चूलिकाएं हैं। 5- कर्पूरचरितम् (भाण)- इस भाण में एक चूलिका है जिसका प्रयोगस्थान प्रस्तावना में है। स्वरूप के अनुसार यह अंकबाह्य एककृत अखण्ड है। कर्पूरक के प्रवेश की सूचना चूलिका का विषय है। कर्पूरक (विट) मध्यम श्रेणी का श्रृंगार सहायक पात्र है। भाषा संस्कृत है। पात्रप्रवेश की सूचना देने के कारण चूलिका उपयुक्त है। कर्पूरस्तव -(नामान्तर - कर्पूरादिस्तोत्रं या कर्पूरस्तवराजः, कालिकास्वरूपाख्य स्तोत्रं) श्लोक- 64। इस स्तोत्र काव्य पर श्रीशंकराचार्य, वेणुधर, काशीरामभट्ट, दुर्गाराम तर्कवागीश, कालीचरण, कृष्णचन्द्र-पुत्र नन्दराम, ब्रह्मानन्द, सरस्वती, व्रजनाथपुत्र रंगनाथ, कुलमणि शुक्ल, परमानन्द पाठक, अनन्तराम, रामकिशोर शर्मा आदि विद्वानों की टीकाएं उपलब्ध हैं जिनसे इसकी महत्ता सूचित होती है। कर्णसन्तोष -ले. मुद्गल। कर्मतत्त्वम् -ले. नरहर नारायण भिडे। नागपुर निवासी मैसुर वि.वि. द्वारा संचालित संस्कृत निबंध स्पर्धा में प्रथम पुरस्कृत 50/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra " निबंध । सन 1944 तथा मैसूर वि. वि. द्वारा सन 1950 में प्रकाशित । कर्मदहनपूजा - ले. शुभचन्द्र (जैनाचार्य) ई. 16-17 वीं शती । कर्मनिर्णय -ले. मध्वाचार्य ई. 12-13 वीं शती । द्वैत मत विषयक ग्रंथ । www.kobatirth.org कर्मप्रकृति - ले. अभयचन्द्र जैनाचार्य ई. 13 वीं शती । कर्मप्रदीप धर्मशास्त्रविषयक गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्ययन द्वारा लिखा गया परिशिष्ट । कर्मप्राभृतटीका - ले. समन्तभद्र जैनाचार्य। ई. प्रथम अंतिम भाग। पिता शांतिवर्मा । कर्मफलम् (प्रहसन ) - ले. रमानाथ मिश्र । रचना सन 1955 में, सम्भवतः सन 1961 में प्रकाशित। विषय भारतीय समाज की विषमताओं का चित्रण । कर्मविपाक ले कलकीर्ति जैनाचार्य ई. 14 वीं शती पिता कर्णसिंह । माता शोभा । कर्मविपाकार्कः ले. शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । कर्मसारमहातन्त्रम् शलेक 9500 कुल 28 उल्लासों में विभक्त है। ग्रंथकार श्रीकण्ठपुत्र मुक्तक (मुज्जका मुख्यक) ने अपने गुरु श्रीकण्ठ के अनुग्रह से शिवात्मक तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर सब तन्त्रों का सार इस में प्रतिपादित किया है। इस में कहा गया है कि वेदान्त से शैव शास्त्र, शैव से दक्षिणाप्राय और दक्षिणाप्राय से पक्षिमाप्राय श्रेष्ठतम है। कर्णानन्दम् ले कृष्णदास विषय छन्दःशास्त्र । - कर्णानन्दचम्पू-ले. कृष्णदास कर्नाटकशब्दानुशासनम् ले भट्ट अंकलदेव ई. 17 वीं । शती। कर्नाटकवासी जैन विजयनगर के राजा का आश्रय प्राप्त । प्रस्तुत ग्रंथ कन्नड भाषा का संस्कृत भाषीय व्याकरण ग्रंथ है। इसमें उदाहरण कन्नड साहित्य से दिये गये है। यह कन्नड साहित्य में सम्मानित ग्रंथ हैं। । कर्णामृतम् ले गोविन्द व्यास (ई. 16 वीं शती) । कर्णार्जुनीयम् ले. कवीन्द्र परमानन्द ऋषिकुल (लक्ष्मणगढ) निवासी, ई. 20 वीं शती । 1 कलंकमोचनम् -से. पंचानन तर्करल भट्टाचार्य (जन्म 1866 ) सूर्योदय पत्रिका में प्रकाशित। विषय- राधाकृष्ण का आध्यात्मिक स्वरूप विशद कर राधा पर लगा कलंक मिटाना। कलश ले मुनि अमृतचंद्रसूरि ई. 9 वीं शती जैन मुनि कुंदकुंदाचार्य के प्राकृत में लिखे गये अध्यात्म विषयक जैनपंथी ग्रंथ पर संस्कृत पद्य में लिखी गई यह टीका है। कलशचन्द्रिका - श्लोक 4200। इसमें हरि, हर, दुर्गा, स्कन्द, गणेश, प्रजापति, काली आदि की कलश विधि, अंकुशरोपण तथा हवन आदि के साथ कहीं गयी है । कलांकुरनिबन्ध ( रागमालिका) ले. पुरुषोत्तम कविरत्न । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेखक की अन्य रचनाएं रामचन्द्रोदय, रामाभ्युदय और बालरामायणम् कलाकौमुदीचम्पू -ले. चक्रपाणि । कलादीक्षा -ले. मनोदत्त । यह ग्रंथ शिवस्वामी द्वारा परिवर्द्धित कलादीक्षा रहस्यचर्चा - श्लोक 6889 यह गद्य और पद्य में लिखित ग्रंथ तान्त्रिक मंत्रों में दीक्षित कराने की विधि का प्रतिपादक है। विषय- विशेष दीक्षाविधि, दीक्षासम्बन्धी प्रयोग, तथा तांत्रिक दीक्षा की आवश्यकता। षोडश उपचारों के मन्त्र, होमविधि, कलादीक्षाविधि, शान्त्यतीत कला की शुद्धि, आत्मविद्या तथा शिवतत्त्व के विभागादि का प्रतिपादन । कलानन्दकम् (नाटक) - ले. रामचन्द्र शेखर 18 वीं शती । कथासार नायक नन्दक भद्राचल पर तप करने वाले राजदम्पति का पुत्र है। नायिका कलावती दिल्लीश्वर की कन्या है। दोनों परस्परों की गुणचर्चा सुन अनुरक्त होते हैं नन्दक गुप्त वेश में नायिका से मिलने जाता है। वह गौरीपूजा के बहाने उसका साहचर्य पाती है। त्रिकालवेदी नामक योगी की तपस्या में विघ्न आता है जिसे नन्दक दूर करता है। अत एव योगी कृतज्ञता से नंदक की सहायता करता है। कलावती का पिता नन्दक को कन्या देना नहीं चाहता, परन्तु त्रिकालवेदी की सहायता से उनका मिलन होता है । कलाप-तत्त्वार्णव - ले. रघुनन्दन आचार्य शिरोमणि । कलाप - दीपिका - ले. रामचरण तर्कवागीश (ई. 17 वीं शती) अमरकोश पर भाष्य । कलापव्याकरणम् (उत्पत्ति की कथा) - शिवशर्मा ने सातवाहन को छह माह में विद्वान् बनाने की प्रतिज्ञा की और वह कार्तिक स्वामी की उपासना करने जंगल को प्रस्थित हुआ। कडी तपस्या से उसने स्वामी को प्रसन्न किया। उन्होने "सिद्धो वर्णसमाम्नायः " इस सूत्र का उच्चार किया तब शिवशर्मा ने अपनी बुद्धि से आगे का सूत्र पढा । स्वामी ने कहा की शिवशर्मा ने बीच में ही स्वतः सूत्रोच्चार किया, इस लिये इस शास्त्र की महत्ता घट गई है और उन्होंने नया सुलभ व्याकरण शिवशर्मा को दिया। यह पाणिनि के व्याकरण के कम महत्त्व का तथा अल्पतन्त्र का होने से "कातन्त्र" तथा "कालाप" इन नामों से प्रसिद्ध हुआ। कलापसार - ले. रामकुमार न्यायभूषण । कलापिका ले.डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य पाक्षात्य पद्धति के सॉनेट (सुनीत) छंद में रचे हुए काव्यों का संकलन । कलावती- -कामरूपम् (रूपक) ले नवकृष्णदास (ई. 18 वीं शती) कथासार नायिका कलावती का अपहरण होता है और काशी के राजकुमार कामरूप उसे छुड़ाते हैं । अन्ततः दोनों प्रणय सूत्रों में बंधते हैं। For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 51 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलाविलास -ले.क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिता प्रकाशेन्द्र। उपहास प्रधान व्यंगात्मक काव्य। कलिकाकोलाहलम् (नाटक) - ले.- व्ही. रामानाचार्य । कलिदूषणम् -कवि. घनश्याम। तंजावरम् के नृपति तुकोजी का मंत्री। (ई. 18 वीं शती) संस्कृत और प्राकृत भाषा का "श्लेष" इस काव्य की विशेषता है। कलिपलायनम् (नाटक)- ले.- विद्याधर शास्त्री। ई. 20 वीं शती। कलि और राजा परीक्षित् की भागवतोक्त कथावस्तु पर आधारित। अंक संख्या चार। कलिप्रादुर्भाव (नाटक) - ले.य. महालिंग शास्त्री। मद्रासनिवासी। रचना सन 1939 में। प्रकाशन सन 1956 में। अंकसंख्या सात। लम्बी एकोक्तियां और कलि एवं द्वापर के छायात्मक पात्र इसकी विशेषता है। कथासार- द्वापर युग के अन्तिम दिन कात्यायन मिश्र अपना खेत वैश्य को बेचता है। उसमे गडा मुद्राकलश मिलने पर वैश्य उसे मिश्र को वापस करने आता है परंतु खेत का सभी माल खरीददार का है यह सोच कर मिश्रजी वह स्वीकार नहीं करते। बात पंचों तक आती है। इस बीच द्वापर युग' बीत कर कलियुग शुरु होता है और दोनों की मति भ्रष्ट होती। अन्त में आपसी कलह के कारण वह धन राजकोश में जमा होता है। कलिविडम्बनम् (खण्डकाव्य) - ले. नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। कलिविधूननम् ( नाटक) - ले. नारायण शास्त्री (ई. 1860-1911) कुम्भकोणम् से देवनागरी लिपी में 1891 में प्रकाशित । कुम्भेश्वर के मखोत्सव में प्रथम अभिनीत । अंकसंख्या दस। यह प्रस्तुत लेखक की 37 वीं रचना है।। नल-दमयन्ती स्वयंवर से लेकर, उनके द्यूत, वनवास व फिर से राजा बनने तक की कथा निबद्ध है। सशक्त चरित्र चित्रण, अनुप्रासों का रुचिर प्रयोग और छायातत्त्व का सरस प्रयोग नाटक में दिखाई देता है। प्रतिनायक कलि की विष्कम्भक में भूमिका, नल का सर्प के पेट में जाना और वहां से कुरूप बन निकलना, चार लोकपालों का नल के रूप में स्वयंवर में उपस्थित होना आदि दृश्य इस नाटक की विशेषताएं हैं। कलिविलासमतिदर्पण - ले. पारथीयूर कृष्ण । ई. 19 वीं शती। कल्पद्रुमकलिका - ले. लक्ष्मीवल्लभ। श्लोक 5500। कल्पना-कल्पकम् (नाटक) - ले. शेषगिरि । कर्नाटकवासी।। (ई. 18 वीं शती) श्रीरंगपत्तन के चैत्र यात्रा उत्सव में अभिनीत । कल्पनामण्डतिका (कल्पनालंकृतिका) - ले. कुमारलात । संपूर्ण नाम है "कल्पनामण्डतिका-दृष्टान्तपंक्ति"। इसमें बौद्ध उपदेश परक 80 आख्यान तथा 10 दृष्टान्त गद्य-पद्य में हैं। कुछ विद्वान इस रचना को अश्वघोष की "सूत्रालंकार" से अभिन्न मानते हैं। इस ग्रंथ के अंश का अत्यन्त श्रमसाध्य संपादन डा. लूडर्स द्वारा सम्पन्न हुआ। कल्पलता • ले. शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। कल्पलता - 1. रचयिता सोमदैवज्ञ। पंचागों में दिया जाने वाला संवत्सरफल इसी ग्रंथ से उद्धृत किया जाता है। 2. ले. रामदेव। कल्पवल्लिका - ले. पंडित नृसिंह शास्त्री। काकीनाडानिवासी। रामायण की घटनाओं पर आधारित काव्य । कल्पसूत्रम् - इस नाम से तीन तांत्रिक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। (1) महामहोपाध्याय परशुराम विरचित। इसमें तान्त्रिक दीक्षा तीन प्रकार की बतलायी गयी है। शाक्तिकी, शांभवी और मान्त्री । शाक्ति का शिष्य में प्रवेश करने से दीक्षा शाक्तिकी कहलाती है। चरणविन्यास से शांभवी और मन्त्रोपदेश से मान्त्री। उपदेष्टा ये तीनों दीक्षाएं या उनमें से कोई एक दे सकता है। इसमें वर्णित विषय हैं - यागविधि, होमविधी, सब मंत्रों की सामान्य पद्धति, त्रिंशद्वर्णा गायत्री, स्वस्तिदा गायत्री, ऐंद्री गायत्री, दूरदृष्टि सिद्धिप्रदायक चक्षुष्मती विद्या, महाव्याधिनाशिनी विद्या आदि । इनमें 10 कांड हैं। (2) श्लोक 5501 10 खण्डों में पूर्ण इस ग्रंथ में मुख्यतया श्रीविद्या का प्रतिपादन सूत्ररूप में किया है। (3) इसमें शक्ति के उपासकों की दीक्षा, अन्यान्य तान्त्रिक विधियां और विविध उत्सवों का वर्णन है। इसके दस खण्ड हैं और आठ खण्ड परिशिष्ट रूप में हैं। जो कोई 18 खण्डों वाले इस महोपनिषत् का (त्रैपुरसिद्धान्तसर्वस्व भी कहलाता है), अनुशीलन करता है वह सब यज्ञों का यष्टा होता है। जिस जिस क्रतु (यज्ञ) का पाठ करता है उससे उसकी इष्टसिद्धि होती है। कल्पसूत्र की टीकाएं - 1. सूत्रतत्त्वविमर्शिनी - लक्ष्मण रानडे कृत। रचनाकाल ई. 1888 1 2. कल्पसूत्रवृत्ति - रामेश्वरकृत । रचनाकाल ई. 1825 । टीकाकार ने भास्कर राय को अपना परम गुरु कहा है। कल्याणकल्पद्रुम - ले.- राधाकृष्णजी। विषय- संगीतशास्त्र । कल्याणकारकम् - 1. ले.- उग्रादित्य। जैनाचार्य। ई. 9 वीं श.। इसमें 25 परिच्छेद हैं। 2. ले.- देवनंदी। ई. 5-6 वीं शती। कल्याणचम्यू - ले. पापय्याराध्य । कल्याणमंदिरपूजा - ले. देवेन्द्रकीर्ति । कारंजा के बलात्कारगण के आचार्य। कल्याणमन्दिरस्तोत्र - 1. ले.- कुमुदचंद्र या सिद्धसेन । जैनाचार्य। माता - देवश्री। इनके समय के विषय में दो मत हैं। 1. ई.प्रथम शती। 2. ई. 4-5 वीं शती। विषय- 44 पद्यों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति। 2. ले.- हर्षकीर्ति। ई. 17 वीं शती। कल्याणपुरंजनम् ( नाटक) - ले.- तिरुमलाचार्य। ई. 17 52 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीं शती। आन्ध्र में गडवल के निवासी। अंकसंख्या 2। कल्याणपीयूषम्- ले.- लिंगन् सोमयाजी। गुरु- कल्याणानंद भारती। विद्यारण्यकृत पंचदशी नामक वेदान्तविषयक प्रकरण ग्रंथ की व्याख्या। कल्याणरामायणम् - ले.- शेष कवि । कल्याणवल्लीकल्याण-चम्पू - ले.रामानुज देशिक। ये "रामानुजचंपू" नामक ग्रंथ के रचियता रामानुजाचार्य के पितृव्य थे। अतः इनका समय 16 वीं शताब्दी का उत्तर चरण है। "लिंगपुराण" के गौरी कल्याण के आधार पर इस चंपू काव्य की रचना हुई है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। कवि - सन 1895 पुणे से इस मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें अर्वाचीन विषय प्रकाशित किये जाते थे। कविकंठाभरण - ले. क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिताप्रकाशेन्द्र। विषय - शिष्योपदेश। लेखक के कविकण्ठाभरण नामक ग्रंथ का ही एक भाग कविकरणिका नाम से प्रसिद्ध है। कविकर्णरसायनम् - ले. सदाक्षर, (कवि कुंजर)। ई. 17 वीं शती। 24 सर्गों का महाकाव्य । कविकल्पद्रुम - (1) ले. हर्षकुल गणी। ई. 16 श. हैम धातुपाठ का पद्य रूपान्तर। प्रथम पल्लव में धातुस्थ अनुबन्धों के फल का निदेश है। 2 से 10 तक 9 पल्लवों में धातुपाठ के 9 गणों का संग्रह है। अंतिम 11 वें पल्लव में सौत्र धातुओं का निर्देश है। (2) ले. - बोपदेव । पद्यबद्ध धातुपाठ। कविकल्पलता - ले. - देवेश्वर या देवेन्द्र । वाग्भट के पुत्र। देवेश्वर मालवा नरेश का महामात्य था। यह रचना अमरसिंह की काव्यकल्पलता के अनुसार है। अमरसिंह की काव्यकल्पलता के अन्य टीकाकार - (1) वेचाराम सार्वभौम, (2) रामगोपाल कविरत्न, (3) शरच्चन्द्र शास्त्री और (4) सूर्य कवि। कल्लोलिनी - कवि - दि.द. बहुलीकर। पुणे-निवासी। अभिनव संस्कृत काव्यों का संग्रह। प्रा. अरविंद मंगरूळकर कृत अंग्रेजी एवं मराठी अनुवाद सहित सन् 1985 में प्रकाशित । कविकामधेनु - ले. . बोपदेव ने स्वकृत कविकल्पद्रुम पर स्वयं लिखी हुई व्याख्या । कविकार्यविचार - ले. - राजगोपाल चक्रवर्ती। कविकुलकमलम् (नाटक) - ले. - डा. रमा चौधुरी। ई. 20 वीं शती। विषय - कालिदास का उत्तरकालीन चरित्र । दृश्यसंख्या-आठ। कविकुलकोकिल - ले. - डा. रमा चौधुरी। (ई. 20 वीं शती)। "प्राच्यवाणी" के आदेश पर सन 1967 में उज्जयिनी में कालिदास समारोह में अभिनीत एवं स्वर्णकलश से पुरस्कृत । दृश्यसंख्या दस । विषय- कवि कुलगुरु कालिदास की जीवनगाथा । एकोक्तियां, संगीत का प्राचुर्य एवं रोचक संवाद भरपूर हैं। कविकौतूहलम् - ले. - कान्तिचन्द्र मुखोपाध्याय । कविचिन्तामणि - ले. - गोपीनाथ कविभूषण । साहित्य शास्त्रीय रचना । अध्याय संख्या 24 । अन्तिम अध्याय संगीत विषयक है। कविचिन्तामणि - ले. वासुदेव पात्र। 24 किरण (अध्याय) विषय - समस्यापूर्ति तथा कविसंकेत का अधिकतर विवेचन । अन्तिम भाग में संगीत विषयक चर्चा है। कवितांजलि - ले. ब्रह्मश्री कपाली शास्त्री। श्री. अरविन्द की तीन अंग्रजी कविताओं का संस्कृत अनुवाद। कवितावली - ले. - (1) पं. हृषीकेश भट्टाचार्य। (2) ले.- भारतचंद्र राय। ई. 18 वीं शती। (3) ले.- म.म. राखालदास न्यायरत्न । मृत्यु 1921 में। कविता विनोद कोश - ले, मंडपाक पार्वतीश्वर । ई. 19 वीं शती। कवितासंग्रह - ले.- म.म.केशव गोपाल ताम्हण, नागपुर महाविद्यालय के भूतपूर्व प्राचार्य। 24 काव्यों का संग्रह । विषय - देवतास्तोत्र तथा स्थानीय प्रसिद्ध व्यक्तियों की स्तुति । कविमनोरंजकचंपू - ले.सीताराम सूरि । रचनाकाल सन 1870। इस ग्रंथ के चार उल्लासों में सीताराम नामक किसी परमभागवत ब्राह्मण की कथा वर्णित है। इसमें मुख्यतः तीर्थयात्रा का वर्णन है जिसमें नगरों के वर्णन में कवि ने अधिक रुचि दिखलाई है। द्वितीय उल्लास में अयोध्या का वर्णन करते हुए संक्षेप में रामायण की संपूर्ण कथा का उल्लेख किया है। इसके गद्य व पद्य दोनों ही प्रौढ तथा शब्दालंकार प्रचुर हैं। इस चंपूकाव्य का प्रकाशन 1950 ई. में दि युनिवर्सिटी मैन्यूस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, त्रिवेंद्रम से हो चुका है। कविरहस्यम् - ले. हलायुध । ई. 13 वीं श.। कविशिक्षा - 1. ले. जयमंगलाचार्य। समय 11-12 वीं शती । विषय - छन्दःशास्त्र । 2. ले. गंगादास । ई. 16 वीं शती। कवींद्रकर्णाभरणम् - ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वी. शती (पूर्वार्ध) कवीन्द्र-चन्द्रोदय- संकलक - श्रीकृष्ण उपाध्याय। शाहजहान बादशाह के समय प्रयाग में हिन्दू यात्रियों पर लगा अन्याय्य कर, कवीन्द्राचार्य के प्रयास से रद्द हुआ था। सब विद्वान प्रसन्न हो। इस उपलक्ष में 69 पण्डितों द्वारा कवीन्द्राचार्य की गद्य-पद्यमय स्तुति की गई। उसी का संकलन इस ग्रंथ में है। 17 वीं शती के इन पण्डितों के नाम, तत्कालीन समाजव्यवस्था, पाण्डित्य की सीमा आदि पठनीय सामग्री है। हिन्दू कॉलेज दिल्ली के प्राध्यापक डा. हरदत्त शर्मा तथा भांडारकर प्राच्यविद्या शोध प्रतिष्ठान के श्री. एम.एम. पाटकर द्वारा इसका संपादन एवं प्रकाशन हुआ है। कवीन्द्र-वचन-समुच्चय - ले.विद्याकर। ई. 12 वीं शती (पूर्वार्ध) सुभाषितों का कोश। श्रीहर्षपालदेव,बुधाकर गुप्त, आदि अनेक प्रसिद्ध कवियों की रचनाएं इस कोश में समाविष्ट संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रेथ खण्ड /53 For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( नामान्तर हैं। नेपाल में प्राप्त इस कोश का संपादन, एफ. डब्ल्यू टॉमस द्वारा हुआ है। काकचण्डेश्वरकल्प काकचण्डेश्वरीतन्त्र, महारसायनविधिः काकचण्डेश्वरी और काकचामुण्डा) । 1) श्लोक 700 / यह ग्रंथ भैरव उमा संवाद रूप है। भगवान् भैरव ने नये ढंगसे इस में सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त महाज्ञान की युक्ति के लिए निरूपण किया है। इसके अन्त में औषधियों के बहुत से कल्प दिये गये हैं जिनमें पारद का अंश और प्रभाव विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है महारसायन का विधान भी इसमें है। 2) इसमें यैलोक्य सुन्दरीगुटिका, जारणपटल, शाल्मलीकल्प, ब्रह्मदंडीकल्प, काकचण्डेश्वरीकल्प, हरीतकीकल्प, जलूकापटल, तालकेश्वर इत्यादि अनेक रसायन विधि दिये गये हैं । काकली - ले. यतीन्द्रनाथ भट्टाचार्य। लघु गीतों का संग्रह । काकुत्स्थविजय - चंपू ले. वल्लीसहाय गुरुनारायण। इस चंपू काव्य में "वाल्मीकी रामायण" के आधार पर श्रीराम कथा का वर्णन है । यह काव्य 8 उल्लासों में समाप्त हुआ है, और अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण इंडिया ऑफिस के कंटलाग में है इस चंपू-काव्य की शैली अत्यंत साधारण है। I कांचनकुंचिकम् (नाटक) ले विष्णुपद भट्टाचार्य रचना । सन 1956 में। "मंजूषा " पत्रिका में सन 1959 में प्रकाशित । वसन्तोत्सव में अभिनीत अंकसंख्या नौ लम्बे रंगसंकेत, सरल भाषा, बंगाली लोकोक्तियों का संस्कृतीकरण, अंग्रेजी शब्दों के संस्कृतपर्यायों में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग, गीतों का बाहुल्य हास्योत्पादक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इत्यादि इस की विशेषताएं हैं। कथासार सुकुमार नामक सुशिक्षित बेकार युवक को उसका डॉक्टर मित्र प्रशान्त नौकरी दिलाता है। मालिक अपनी पुत्री को निःशुल्क पढाने की शर्त रखता है पढ़ाते समय सुकुमार और विद्युत्प्रतिमा में प्रीति होती है। विद्युत्प्रतिमा की सखी कुन्दकलिका प्रशांत पर मोहित होकर बीमारी का बहाना बनाकर धीरे धीरे उसका हृदय जीत लेती है। अन्त में दोनों मित्रों का दोनो सखियों के साथ विवाह होता है। कांचनमाला ले. सुरेन्द्रमोहन । बालोचित लघु नाटक । कथावस्तु मिडास राजा की यूरोपीय पौराणिक कथा पर आध है । नायिका किसी परी से स्पर्श से स्वर्ण बनाने की शक्ति पाती है, परंतु खाद्यवस्तुएं उसके ही स्पर्श से स्वर्ण में परिवर्तित हो जाती हैं। इससे अन्त में उसे भूखा रहना पडता है । उसी परी से प्रार्थना कर उस शक्ति से मुक्ति पाती है। "मंजूषा " में प्रकाशित । . काठकगृह्यसूत्रम् - इसे लौगाक्षी गृहसूत्र भी कहा जाता है । काश्मीर में परम्यरागत मान्यता है कि इसके रचयिता लौगाक्षी आचार्य ही हैं। इसके 5 अध्याय हैं। इनसे यह जानकारी 54 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड मिलती है कि गृह्य विधियों के समय काठक संहिता के मन्त्रों का विनियोग होता था । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काठकसंहिता कृष्ण यजुर्वेद के कठ शाखा की संहिता । मंत्रों की कुल संख्या 18000 हैं। संहिता का विभाजन- 40 स्थानक, 13 अनुवचन, 843 अनुवाक अथवा 5 ग्रंथ । पतंजलि के काल में काठक व कालाप इन दो संहिताओं का अधिक प्रचार था । काठक शाखा केवल काश्मीर में ही अस्तित्व में है । प सातवलेकर ने 1943 में काठक संहिता प्रकाशित की। इसके पूर्व श्री श्रोडर नामक जर्मन विद्वान ने 1910 में इसे प्रकाशित किया था । तुलना की दृष्टि से इसका मैत्रायणी संहिता से बहुत साम्य है। दोनों के अनुवाद (मंत्रसमूह) प्रायः समान है और दोनों में अश्वमेध का वर्णन है। काश्मीर में अधिकांशतः इस शाखा के ब्राह्मण पाये जाते है। इस शाखा में शैव सम्प्रदाय का विशेष महत्त्व है जो "प्रत्यभिज्ञा दर्शन" से तुलना करने पर स्पष्ट होता है। काण्व शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा । काण्व शाखा की संहिता और ब्राह्मण (शतपथ) उपलब्ध हैं । काण्व संहिता में 40 अध्याय 328 अनुवाक और 2086 मन्त्र हैं । कण्व के शिष्य काण्व कहलाते हैं। कण्व एक गोत्र भी है, अतः कण्व नाम के अनेक ऋषि समय समय पर हुए होंगे। "एष वः कुरवो राजैष पंचालानां राजा" इस काण्वसंहिता के पाठ के आधार पर प्रतीत होता है कि काण्वों का स्थान कुरुपंचालों के समीप ही था। पांचरात्रागम का काण्व शाखा से कोई विशेष संबंध प्रतीत होता है। - काण्ववेदमंत्रभाष्य-संग्रह ले. आनंदबोध पिता जातवेद । भट्टोपाध्याय । प्रस्तुत ग्रंथ काण्वसंहिता का भाष्य है। काण्वसंहिता (शुक्ल यजुर्वेदीय) शुक्ल यजुर्वेद की काण्व संहिता, प्रतिपाद्य विषय और रचना की दृष्टि से माध्यन्दिन संहिता के समान ही है। गद्यांश में कहीं कही पाठभेद अवश्य है भौगोलिक कारणों से दोनों में कहीं कहीं उच्चारण की भिन्नता भी पायी जाती है। इसमें भी 40 अध्याय और 2086 मन्त्र हैं जिनमें "खिल्य" और "शक्रीय" मन्त्र भी सम्मिलित हैं। इसका विशेष प्रसार आज महाराष्ट्र के मराठवाडा विभाग में है । पदपाठ और घनपाठ एवं विकृतियां भी प्रचलित हैं वाजसेनयी माध्यंदिन संहिता की तरह इसमें "ष" को "ख" नहीं पढा जाता। 1 For Private and Personal Use Only व्याकरण कातन्त्र ( नामान्तर - कालापक तथा कौमार ) वाङ्मय में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसके दो भाग हैं। 1) आख्यातान्त और 2) कृदन्त । दोनों भिन्न व्यक्ति द्वारा रचित हैं। "कातन्त्र" का अर्थ है लघुतन्त्र | आचार्य हेमचन्द्र के मत से पूर्व बृहत्तन्त्र से कलाओं का ग्रहण करने से "कलापक" नाम है। कुमारोपयोगी सरल रचना होने से "कौमार" नाम है। काशकृत्स्र धातुपाठ, कन्नड टीका सहित - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाश में आने से यह निश्चित हुआ कि कातन्त्र व्याकरण काशकृत्स्र का संक्षेप है। यह व्याकरण महाभाष्य से प्राचीन है (समय - वि.पू.2000)। वर्तमान कातन्त्र व्याकरण शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त हुआ है। (वि.पू. 400-500) शर्ववर्मा ने आख्यातान्त भाग की रचना की। कृदन्त भाग का लेखक कात्यायन है। यह कात्यायन कौन हैं इसका स्पष्ट ज्ञान नहीं है। कातन्त्र परिशिष्ट का कर्ता श्रीपतिदत्त था जिसने अपने भाग पर वृत्ति भी लिखी है। "कातन्त्रोत्तर" नामक ग्रंथ का लेखक विजयानन्द है। इसका प्रसार मध्य-रशिया तक हुआ था। कातन्त्रच्छन्दःप्रक्रिया - ले.- म.म. चन्द्रकान्त तर्कालंकार। ई. 19-20 वीं शती। वह वैदिक भाग का परिशिष्ट है जो प्राचीन व्याकरणों द्वारा कातन्त्र-प्रक्रिया के प्रतिपादन में छूट गया था। कातन्त्रधातुपाठ - कातन्त्र व्याकरण कालाप, कौमार आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। इस व्याकरण का एक स्वतंत्र धातुपाठ है जिस पर दुर्गासिंह, शर्ववर्मा, आत्रेय, रमानाथ आदि वैयाकरणों ने वृत्तियां लिखी हैं। कातन्त्र पंजिका- ले. त्रिलोचनदास। यह दुर्गवृत्ति की बृहत् टीका बंगला अक्षरों में मुद्रित है। इसके अतिरिक्त एक शिष्यहित-न्यास नामक उग्रभूति द्वारा रचित टीका अप्राप्य है। अल्बेरूनी द्वारा इसका उल्लेख हुआ है। कातन्त्र- परिशिष्टम्- ले.- श्रीपतिदत्त । ई. 11 वीं शती। कातन्त्ररहस्यम् - ले.- रामदास चक्रवर्ती । कातन्त्ररूपमाला - ले.- भावसेन विद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। कातन्त्रविस्तर - ले. वर्धमान । पृथ्वीधर ने इस पर एक टीका लिखी है। दुर्गवृत्ति पर काशिराज कृत लधुवृत्ति, हरिराम कृत चतुष्टयप्रदीप ये टीकाएं भी उल्लिखित हैं। कातन्त्र व्याकरण पर उमापति , जिनप्रभसूरि (कातन्त्रविभ्रम), जगद्धरभट्ट (बालबोधिनी) तथा पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर की टीकाएं उल्लिखित हैं। कातन्त्रविभ्रम पर चरित्रसिंह ने अवचूर्णी नामक टीका लिखी । बालबोधिनी पर राजानक शितिकण्ठ ने टीका लिखी है। में काफी शास्त्रार्थ हुआ करते थे। गुप्तकाल में बौद्धों के बीच कातंत्र व्याकरण का ही अधिक प्रचार था। विंटरनिट्झ के मतानुसार कांतत्र व्याकरण की रचना ई.स.के तीसरे शतक में हुई तथा बंगाल व काश्मीर में उसका व्यापक प्रचार हुआ। कात्यायन - (यजुर्वेद की लुप्त शाखा) - इस शाखा के कात्यायन श्रौतसूत्र और कातीय गृह्यसूत्र प्रसिद्ध हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र से कातीय सूत्र कतिपय अंशों से विभिन्न हैं। कात्यायनकारिका - ले. कात्यायन । कात्यायन-गृह्यकारिका - ले. कात्यायन । विषय - धर्मशास्त्र । कात्यायन-गृह्यसूत्रम् - ले. कात्यायन । कात्यायन-प्रयोग - ले. कात्यायन । कात्यायन-वेदप्राप्ति- ले. कात्यायन । कात्यायन-शाखाभाष्यम् - ले. कात्यायन । कात्यायन-श्रौतसूत्रम् - शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र। इसके 26 अध्याय है, जिनमें शतपथ ब्राह्मण की क्रियाओं, सौत्रामणि, अश्वमेघ, पितृमेघ,सर्वमेघ, एकाह, अहीन, प्रायश्चित, प्रवर्दी आदि की चर्चा की गई है। कात्यायन-स्मृति - इस के रचयिता कात्यायन हैं जो वार्तिककार कात्यायन से भिन्न सिद्ध होते हैं। डॉ. पी.वी. काणे के अनुसार इनका समय ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी है। कात्यायन का धर्मशास्त्र विषयक अभी तक कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका परंतु विविध धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में इनके लगभग 900 श्लोक उद्धृत हैं। ___जीवानंदसंग्रह मे कात्यायनकृत 500 श्लोकों का ग्रंथ प्राप्त होता है जो 3 प्रपाठकों व 29 खंडों में विभक्त है। इसके श्लोक अनुष्टप् में है किन्तु कहीं कहीं उपेंद्रवज्रा का भी प्रयोग है। यही ग्रंथ "कर्मप्रदीप " या "कात्यायन-स्मृति" के नाम से विख्यात है। इसमें वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है :यज्ञोपवीत धारण करने की विधि, जल का छिडकना तथा जल से विविध अंगों का स्पर्श करना, प्रत्येक कार्य में गणेश व 14 मातृपूजा, कुश, श्राद्ध-विवरण, पूताग्नि-प्रतिष्ठा, अरणियों, नुव का विवरण प्राणायाम, वेदमंत्रपाठ, देवता तथा पितरों का श्राद्ध, दंतधावन एवं स्नान की विधि, संध्या, माध्याह्निक यज्ञ, श्राध्दकर्ता का विवरण, मरण के समय का अशौच-काल, पत्नी -कर्तव्य एवं नाना प्रकार के श्राद्ध। इस ग्रंथ के अनेक उदाहरण मिताक्षरा व अपरार्क ने भी दिये हैं। इस स्मृति के स्त्रीधन विषयक सिद्धान्त कानून के क्षेत्र में मान्यताप्राप्त हैं। कात्यायनी तन्त्रम् - शिव-गौरी संवाद रूप यह ग्रंथ 78 पटलों में है। श्लोकसंख्या- 588। इसमें कात्यायनी, महादुर्गा जगद्धात्री आदि देवताओं की उत्पत्ति, पूजा आदि विस्तार से वर्णित हैं। कात्यायनी शांति- ले. कात्यायन। विषय - धर्मशास्त्र । कातन्त्रवृत्ति (नामान्तर- दुर्ग, दुर्गम तथा दुर्गाक्रमा)- ले. दुर्गसिंह। यह कातन्त्र व्याकरण की सबसे प्राचीन उपलब्ध वृत्ति है। दुर्गसिंह ने निरुक्तवृत्ति भी लिखी है। समय ई. 7 वीं शती। इसके अतिरिक्त वररुचिविरचित कातन्त्रवत्ति तथा रविवर्मा विरचित बृहद्वृत्ति का भी उल्लेख है। कातन्त्रव्याकरण - एक व्याकरण ग्रंथ है। कातन्त्र का अर्थ है संक्षिप्त। इसे कालाप अथवा कौमार कहा जाता है। परंपरा के अनुसार कुमार कार्तिकेय ने शर्ववर्मा को इसके सूत्र बताये इसलिये इसका नाम कौमारव्याकरण पडा । कालाप संज्ञा कार्तिकेय के मोर से आयी, क्यों कि उस सूत्रोपदेश में मोर का भी अंग था। प्राचीन केरल में पाणिनीय व कातंत्रिक वैयाकरणों संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 55 For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कात्यायनीय (वाररुच) वार्तिकपाठ - स्वतंत्र रूप से ग्रंथ अप्राप्य। पातंजल महाभाष्य में उल्लिखित वार्तिकों से इसके विषय में पता चला है। महाभाष्यकार ने पाणिनि तथा कात्यायन के लिये ही आचार्य शब्द का प्रयोग किया है। इससे वार्तिक पाठ का विशेष महत्त्व प्रतीत होता है। इसके अभाव में पाणिनि का व्याकरण अधूरा रह जाता है। समूचे वार्तिकों की निश्चित संख्या ज्ञात नहीं हो सकती क्यों कि कतिपय वार्तिक अनाम हैं, उनका कर्तृत्व निश्चित करना महान कठिन कर्म है। व्याकरण के मुनित्रय में पाणिनि के बाद कात्यायन का ही स्थान है। तीसरे मुनि पतंजलि हैं। कात्यायन की अन्य रचनाएं भी अप्राप्य हैं। कात्यायनोपनिषद् - एक गौण उपनिषद। इसमें ऊर्ध्वपुंड धारण की महत्ता बताई गयी है। इसके वक्ता हैं ब्रह्मा एवं श्रोता कात्यायन। कादंबरी - यह महाकवि बाणभट्ट की अमर साहित्यकृति है। यह गद्य काव्य चन्द्रापीड व पुंडरीक इन दो प्रमुख पात्रों के तीन जन्मों से संबंधित कहानी है। विदिशा का राजा शूद्रक एक बार अपनी राजसभा में बैठा था तब एक चांडालकन्या ने वहां आकर “वैशम्पायन " नामक एक तोता राजा को भेंट दिया। तोता मनुष्य वाणी में बोलने लगता है और कादंबरी की कथा सुनाता है। यह तोता भी कहानी का एक पात्र है। ___ कादंबरी के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। पूर्वार्ध लिखने के बाद बाणभट्ट की मृत्यु हो गई। अतः उत्तरार्ध उनके पुत्र पुलिंद भट्ट या भूषण भट्ट ने उसी शैली में लिख कर पूर्ण किया। बाणभट्ट ने कादंबरी के सभी पात्रों का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है तथा प्रकृति- वर्णन में उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास व परिसंख्या आदि अलंकारों का समुचित प्रयोग किया है। कादंबरी की तुलना एक सुगठित देवप्रासाद से हो सकती है। संस्कृत गद्य की ओजस्विता और भावाभिव्यंजकता की अनुभूति कराने वाली यह अप्रतिम गद्य काव्य कृति है। "कादंबरी' की कथा का मूलस्रोत "बृहत्कथा" के राजा सुमनस् की कहानी में दिखाई पूडता है। क्यों कि इसमें भी "बृहत्कथा" की भांति शाप व पुनर्जन्म की कथानक- रूढियां प्रयुक्त हुई हैं। इसमें एक कथा के भीतर दूसरी कथा की योजना करने में "बृहत्कथा" की शैली ग्रहण की गई है। इसमें कवि ने लोककथा की अनेक रूढियों का प्रयोग किया है, जैसे मनुष्य की भांति बोलने वाला पंडित तोता, त्रिकालदर्शी महात्मा जाबालि, किन्नर, गंधर्व व अप्सराएं, शाप से आकृति-परिवर्तन, पुनर्जन्म की मान्यता तथा पुनर्जन्म के स्मरण की कथा इसमें निवेदन की है। “कादंबरी" की कथा के पात्र दंडी आदि की भांति जगत् के यथार्थवादी धरातल के पात्र न होकर चंद्रलोक, गंधर्वलोक व मर्त्यलोक में स्वच्छंदतापूर्वक विचरण करने वाले आदर्शवादी पात्र हैं। कवि ने पात्रों के चारित्रिक पार्थक्य की अपेक्षा, कथा कहने की शैली के प्रति अधिक रुचि प्रदर्शित की है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इसमें चारित्रिक सूक्ष्मताओं का विश्लेषण कम है। "कादंबरी' के चरित्र भले ही आदर्शवादी बाणभट्ट के हाथ की कठपुतली हैं, पर बाण ने उसका संचालन इतनी कुशलता से किया है कि उनमें चेतनता आ गई है। शुकनास का बुद्धिमान् तथा स्वामिभक्त चरित्र, वैशंपायन की सच्ची मित्रता और महाश्वेता के आदर्श प्रणयी चरित्र की रेखाओं को बाण की तूलिका ने स्पष्टतः अंकित किया है पर बाण का मन तो नायक-नायिका की प्रणय-दशाओं, प्रकृति के विविध चित्रों और काव्यमय वातावरण की सृष्टि करने में विशेष रमता है। डॉ. कीथ का कहना है कि, “वास्तव में यह एक विचित्र कहानी है और उन लोगों के प्रति जिनको पुनर्जन्म अथवा इस मर्त्यजीवन के अनंतर पुनर्मिलन में भी विश्वास नहीं है, इसकी प्ररोचना गंभीर रूप से अवश्य ही कम हो जानी चाहिये। " परंतु भारतीय विश्वास की दृष्टि से वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है। कादम्बरी के प्रसिद्ध टीकाकार - 1) भानुचंद्र और सिद्धचन्द्र, 2) हरिदास 3) शिवराम 4) बैद्यनाथ (रामभट्ट का पुत्र) 5) बालकृष्ण 6) सुरचन्द्र 7) सुखाकर 8) महादेव 9) अर्जुन (चक्रदासपुत्र) 10) घनश्याम और कुछ अज्ञात लेखकों की टीकाएं भी विद्यमान हैं। कादम्बरी पर आधारित अन्य रचनाएं- 1) अभिनवकादम्बरी - ले.दुढिराज व्यासयज्वा 2) कादम्बरीकथासार - 8 सर्ग का काव्य - ले. अभिनन्द। 3) कादम्बरीकथासार - 13 सर्ग का काव्य, ले. विक्रमदेव (त्रिविक्रम) 4) कल्पितकादम्बरी- ले. अज्ञात 5) कादम्बरी कथासार - ले. त्र्यंबक 6) कादम्बरीचम्पू: - ले. श्रीकण्ठाभिनव 7) कादम्बरीकल्याणम् (नाटक) ले. नरसिंह 8) पद्यकादम्बरीले.क्षेमेन्द्र। संक्षिप्त कादम्बरी कथा - 1) कादम्बयर्थसार- ले. मणिराम 2) संक्षिप्तकादम्बरी - ले. काशीनाथ 3) कादम्बरीसंग्रहसार - ले. व्ही.कृष्णंमाचारियर । बाण कृत अन्य रचनाएं- चण्डीशतकम्, शिवशतकम्, मुकुटताडितकम् (अप्राप्य) तथा शारदचन्द्रिका । कादिमतम् (कादितन्त्रम्) - (नामान्तर - कादिमततन्त्र या षोडशनित्यातन्त्रम्) 36 पटल, श्लोकसंख्या- 3600। यह तन्त्रोक्त सोलह शक्तियों के मन्त्र, मन्त्रोद्धार पूजा, स्वरूप आदि का प्रतिपादक ग्रंथ है। इसमें तन्त्रावतार प्रकाशन, नौ नाथों का वैभव, पूजा, षोडशीनित्या विद्या का स्वरूप, 9 ललिता नित्या का सपर्याक्रम, ललिता नित्यार्चन, षोडश नित्याओं की नैमित्तिक तथा काम्य पूजा । कामेश्वरी, भगमालिनी, नित्यक्लिन्ना, भेरुण्डा, वह्निवासिनी, महावज्रेश्वरी, शिवदूती, त्वरिता, कुलसुन्दरी, नित्या, नीलपताका, विजया, सर्वमंगला,ज्वालामालिनी तथा चित्रा इन 16 नित्या विद्याओं का लोककाल-तादात्म्य । षोडश नित्याओं 56 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra के होमार्थ मण्डप, कुण्ड आदि का निर्माण, वास्तुदेवतापूजा, षोडश नित्या विद्या, भक्तिनिष्ठा, अरिमर्दनविधान, सौम्यसोम विधान, ललिता विद्या का स्वरूपभेद विधान आदि विषयों का प्रतिपादन है। (कादिमत पर टीका) मनोरमा इसकी रचना सुभगानन्द ( नामान्तर प्रपंचसार सिंहराज प्रकाश) ने की थी। इनका वास्तविक नाम श्रीकण्ठेश था। ये काश्मीर के राजा के गुरु थे। इन्होंने यह टीका दक्षिण देश में लिखी थी जब की ये रामेश्वर तीर्थ की यात्रा के लिये दक्षिण गये थे और राजा नृसिंहराज के आश्रय में रहे थे। इन्होने 22 पटल तक ही यह टीका लिखी थी। शेष 14 पटलों की टीका इनके शिष्य प्रकाशानन्द देशिक ने पूर्ण की। टीका की समाप्ति का समय 1660 वि. लिखा है । www.kobatirth.org - 1 कादिसहखनामकला ले. रामानन्दतीर्थ स्वामी । 1 ) श्लोकसंख्या 57 महाकालसंहिता में ककारादि वर्णक्रम से कालीसहस्रनाम का स्तोत्र आता है। शक्तिपात, सर्ववीरादिसिद्धि आदि गूढार्थ के पदों का यह व्याख्यान है । कान्तिमतीपरिणय ले. चोक्कनाथ । तंजौर के शाहजी राजा के आश्रित । माता- नरसम्बा। पिता तिप्पाध्वरी। राजा और कान्तिमती के विवाह का वर्णन इस काव्य का विषय है कान्तिमती- शाहराजीयम् (नाटक) ले चोकनाथ ई. 17 । वीं शती प्रथम अभिनय तन्जौर में मध्यार्जुनेश के चैत्रोत्सव के अवसर पर हुआ। गीतिप्रवण रचना। प्रधान रस शृंगार । बीच में हास्य का पुट भाषा नियमानुसार संस्कृत तथा प्राकृत, परन्तु गम्भीर आशय व्यक्त करते समय स्त्रीपात्र भी संस्कृत का आश्रय लेते हैं । चतुर्थ अंक के संवाद आद्योपान्त प्राकृत भाषा में विषय- नायक शाहजी के कान्तिमती के साथ प्रणय की कथा । प्रतिनायक के रूप में शाहजी की महारानी । कठिनाई से उसकी अनुमति मिलने के पश्चात् दोनों का विवाह । - - कापेय सामवेद की एक शाखा । इस नाम का निर्देश काशिकावृत्ति (4-11-107) बृहदारण्य उपनिषद् (3-3-1) जैमिनि उपनिषद्ब्राह्मण (0-1-21) में मिलता है। इस शाखा का ब्राह्मण उपलब्ध है। 1 कापोत यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । कामकन्दलम् (रूपक) - ले. कृष्णपन्त । ई. 19-20 वीं शती । चौखम्भा संस्कृत ग्रंथमाला में प्रकाशित । गुरुकुल कांगडी पुस्तकालय में प्राप्य । अंकसंख्या तीन विरल रंगनिर्देश । नायक ब्राह्मण । नायिका चार नर्तकियाँ । कथासार - विलासी ब्राह्मण श्रीपति शर्मा राजा कामसेन की नर्तकी कामकन्दला पर मोहित होता है। राजा उसे निष्कासित करता है। तब वह राजा विक्रमादित्य से सहायता मांगता है। विक्रमादित्य के बल पर ब्राह्मण कामसेन पर आक्रमण कर उसे पराजित करता है। अन्त में कामसेन श्रीपति को कामकन्दला देता है । कामकला ( नामान्तर या कामकलाविलास कामकलांगनाविलास) ले पुण्यानन्दनाथ इनके गुरु संभवतः श्रीनाथ थे। कामकला पर तीन टीकाएं उपलब्ध हैं। कामकलाकाली स्तोत्रम् यह गद्यप्राय स्तोत्र आदिनाथ विरचित महाकालसंहिता के अन्तर्गत है। इसे यद्यापि स्तोत्र कहा गया है तथापि इसकी शैली महामन्त्र के समान है । कामकलाविलास (भाण) ले प्रधान वैकाय श्रीरामपुर के निवासी । ले. शंकर। पिता कमलाकर । कामकलाविलासभाष्य श्लोकसंख्या 300 1 कामकलाव्याख्या ले. नटनानन्द । कामकल्पलता ले. सदाशिव संभोगशृंगार के विविध आसनों का श्लोकमय वर्णन इस ग्रंथ में किया है। कामकुमारहरणम् (रूपक) ले. कविचन्द्र द्विज । अठारहवी; शती का पूर्वार्ध । असम के महाराज शिवसिंह के आदेश से अभिनीत । असम साहित्य सभा, जोरहट से सन 1962 में, “रूपकत्रयम्" में प्रकाशित। इसके संवाद संस्कृत में और संस्कृतप्रचुर असमी भाषा में हैं। यह "आंकिया नाट" नामक असमी नाटक परम्परा की रचना है। इसका विषय हैं- उषा - अनिरुद्ध की पौराणिक प्रणयकथा । इस रूपक में विवस्त्र पात्र का रंगमंच पर प्रवेश दिखाया है। कामचाण्डालीकल्प ले. मल्लिषेण जैनाचार्य ई. 11 वीं । । · - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - 1 शती । कामंदकीय नीतिसार कौटिल्य के राजनीतिशास्त्र का कामंदक द्वारा किया गया संक्षिप्त अनुवाद सा है। कुछ लोग चन्द्रगुप्त के अमात्य शिखरस्वामी को ही इसका रचयिता मानते हैं। काल के सम्बन्ध में दो मत हैं। डॉ. याकोबी इसका समय चौथी शताब्दी मानते हैं जब कि कुछ विद्वान छठवीं या सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानते हैं। कामदंक स्वयं कौटिल्य को अपना गुरु मानते थे । प्रस्तुत ग्रंथ में कुल 19 अध्यायों में राज्य के अंगों व राजा के कर्तव्यों आदि का विवरण है। उपाध्याय निरपेक्ष, जयराम, आत्माराम, वरदराज व शंकर आचार्य ने इस ग्रंथ का समालोचन किया है। कामदंक ने राजधर्म का विवेचन इस प्रकार किया है। I दण्डं दण्डीयभूतेषु धारयन् धरणीसमः । प्रजाः समनुगृहणीयात् प्रजापतिरिव स्वयम् ।। वाक् सुनृता दया, दानं दीनोपगतरक्षणम् । इति सङ्गः सतां साधुहितं सत्पुरुषव्रतम्।। आविष्ट इव दुःखेन तद्गतेन गरीयसा । समन्वितः करुणया परया दीनमुद्धरेत् । । अर्थात् राजा को धर्मराज की भांति मानव मात्र को समान मानकर, स्वयं प्रजापति की भाँति प्रजा पर अनुग्रह संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 57 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करना चाहिये। प्रिय व सत्यवाणी, दया, दान, दीन दुर्बलों की सुरक्षा व सज्जनों की संग्रह यही सत्पुरुष व्रत है। प्रजा के कष्ट, क्षुधा, दुःख आदि अपने ही दुःख मानकर करुणा से युक्त होकर दीनों का उद्धार करना चाहिये। __केवल भारत ही नहीं तो बालिद्वप में रहने वाले भी हिन्दू इसे अपना प्रमुख राजनीतिक ग्रंथ मानते हैं। कामधेनु - ले. सुमतिचन्द्र । ई. 11-12 वीं शती। अमरकोश की टीका। तिब्बती भाषा में अनूदित ।। कामधेनुतंत्रम् - शिव-पार्वती संवाद रूप यह तन्त्रग्रंथ 24 पटलों में पूर्ण है। श्लोकसंख्या 9801 22-23 और 24 वें पटल के विषय क्रम से ये दिये गये हैं। चन्द्र या सूर्य पर्व में यदि पूर्ण आकाश मेघाच्छन्न रहे तो जप, होम आदि करने की विधि, पार्थिव शिवलिंग की पूजा और उसका फल तथा मालारहस्य इत्यादि। कामप्रबोध - ले. अनूपसिंह । कामप्राभृतकम् - ले.केशव। काममीमांसा - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय। ई. 19 वीं शती। आन्ध्रप्रदेश के निवासी। कामलिन (या कामलायिन) - (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) कामलिन और कामलायिन एक थे या दो, यह निश्चित रूप से नही बताया जा सकता। तीसरा और भी एक नाम कामलायन मिलता है। इस संहिता या ब्राह्मण ग्रंथ के संबंध में नाम मात्र के अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात नहीं। कामतन्त्रम् - ले.-श्रीनाथ। इसके 16 उपदेश नामक अध्यायों में वर्णित विषय हैं :- वशीकरण, आकर्षण, युद्धजय, व्याघ्र निवारण, स्तंभन, मोहन, केशादिरंजन, बीजवर्धन, गाढीकरण, कलहादिकरण, अरिष्टनाशन, गो-महिषी आदि का दुग्धवर्धन, नाना कौतक कामसिद्धि, अनावष्टिकरण, गप्तधन कोश. अंजनादि. मृतसंजीवन, विषनिवारण, यक्षिणीसाधन, तथा रसादियोधन आदि । प्रयोग कर्म कब करने चाहिए इस विषय पर भी इसमें प्रकाश डाला गया है। जैसे आकर्षण आदि बसन्त में, विद्वेषण ग्रीष्म में, स्तंभन वर्षा में, मारण शिशिर में. शान्तिक शरद में और पौष्टिक कर्म हेमन्त में करने चाहिये। जडी-बूटी, उखाडने के मन्त्र वार, तिथि नक्षत्र आदि भी बतलाये गये हैं। कामरुतन्त्रम् - शिव-काली संवादरूप। श्लोकसंख्या 442 | इसमें तान्त्रिक औषधियों के निर्माणार्थ विधियाँ और मन्त्रोच्चारण बतलाये गये है। इसमें मन्त्रावली, कामरत्नावली, विषसाधन आदि चार अध्याय हैं। कामरूपयात्रापद्धति - ले. हलिराम शर्मा । श्लोकसंख्या 1780 । 10 पटल। कामरूप (कामाख्या) के यात्रियों की सुविधा के लिये यह ग्रंथ लिखा है। विषय - कामरूप शब्द की व्युत्पत्ति, कामाख्या की पांच देवी मूर्तियों की पूजा का माहात्म्य, यात्रियों के कर्तव्य, कामाख्या पूजा का समय, मणिकूट तीर्थयात्रा का माहात्य, कामरूपक्षेत्र का माहात्म्य, अश्वक्रान्ततीर्थ, कामाख्या यात्रा, पूजन, हयग्रीव विष्णुयात्रा, दिक्पालादि यात्रा, संक्षेपतः यात्रा वर्णन तथा कामाख्या आदि पंच देवी मूर्तियों की पूजा का वर्णन है। कामविलास (भाण) - ले. प्रधान वेङ्कप्प। ई. 18 वीं शती। स्त्रियों के चरित्रविनाश की गाथा। नायक पल्लवशेखर की अनेकों प्रेमिकाओं के साथ मिलने की कथा। कामवैभवम् - ले.अक्षयकुमार शास्त्री। कामशुद्धि (एकांकिका) - ले. डॉ. वेंकटराम राघवन् । प्रथम अभिनय कालिदास समारोह में। आकाशवाणी पर प्रसारित। नाट्योचित लघुमात्रिक संवाद। भारतीय परंपरा का योरपीय नाट्य पद्धति से मिश्रण इसमें है। कथावस्तु उत्पाद्य । कथासार - काम तथा मधु (वसंत) से रति कहती हैं कि उन दोनों के क्रियाकलाप दोषपूर्ण है। उन्हें सत्पथ पर लाने हेतु वह तपस्या करती है। शिव उसे दर्शन देकर आश्वस्त करते हैं कि मैं मदन को भस्म करके तुम्हारे अनुकूल अनंग बनाऊंगा। तब वह पुरुषार्थों में से एक महत्त्वपूर्ण स्थान पाएगा। रति प्रसन्न होती है और शिव अन्तर्धान होते हैं। कामसमूह - ले.अनन्त। ऋतुवर्णन से प्रारम्भ कर नायिका भेद, शंगार की प्रत्येक सीढी में प्रगति आदि विषयों का विवरण है। समय ई.स. 1457 | इसके कुछ श्लोक सुभाषितावली में दूसरे कवियों के नाम पर उद्धृत होने से यह रचना संग्रहरूप मानी जाती है। कामसार - ले.कर्णदेव। कामसूत्रम् - ले.वात्स्यायन। यह कामशास्त्रीय सूत्र तथा वृत्तिरूप, रचना समाजशास्त्र तथा सुप्रजनन शास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें तत्कालीन भारतीय घर का अन्तर्भाग तथा परिवेष का पूर्ण ज्ञान होता है। इस में भारतीय नारी पतिपरायण, गृहस्वामिनी तथा पति के खर्च पर बन्धन रखने वाली स्त्री के रूप दृष्टिगोचर होती है। सर्व साधारण नागर तरुणों की दिनचर्या, उनका विलासी जीवन आदि तत्कालीन सामाजिक विभिन्न अंगों पर इससे प्रकाश पडता है। इसमें स्त्री-पुरुष यौवन संबंध का सब दृष्टि से गहन विवेचन है। कामसूत्र के प्रमुख टीकाकार हैं - 1) यशोधर (जयमंगला टीका) कई विद्वानों का मत है कि यह टीका शंकरार्य या शंकराचार्य की रचना है और यशोधर केवल लेखनिक हैं। 2) भास्कर नृसिंह 3) वीरभद्रदेव (बघेलवंशीय नृपति) रामचन्द्र-पुत्र-टीका-कन्दर्पचूडामणि, काव्यमय रचनाकाल- ई. सन 1577 4) मल्लदेव। कुछ अज्ञात लेखकों की टीकाएं भी उपलब्ध हैं। कामाक्षीविलास - ले. मलय कवि। पिता- रामनाथ । कामाख्यागुह्यसिद्धि - ले. मत्स्येन्द्रनाथ । 58 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामाख्यातन्त्रम् - 1) पार्वती -ईश्वर संवादरूप। 7 पटल। भगवान् शिव कहते हैं कि यह तन्त्र सर्वथा गोपनीय है। शान्त शुद्ध कौलिक तथा काली-भक्त शैव को ही इसका उपदेश देना चाहिये। 2) श्लोकसंख्या 450। 9 पटल । 3) श्लोकसंख्या 401 । पटल 8। पार्वती-ईश्वर संवादरूप। इसमें योनिरूपा वरदायिनी कामाख्या महाविद्या की कौलाचार के अनुरूप पूजा वर्णित है। विषय - कामाख्या महादेवी तथा उनके इस तन्त्र की उत्कृष्टता। कामाख्या मन्त्रोद्धार, कामाख्या पूजा प्रकार, योनिपूजा। अन्त में रहस्य तन्त्र के गोपन की विधि तथा अधिकारी के निरूपण के बहाने उपदेश्य और अनुपदेश्यों का कथन। कामानन्दम् - ले. वरदराज। पिता - ईश्वराध्वरी। कामायनी - मूल हिन्दी लेखक जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य का अनुवाद। अनुवादक - भगवद्दत्त (राकेश)। सन 1960 में प्रकाशित। कामिकागम - 1) इस आगम ग्रंथ में कुल 60 पटलों में भूपरीक्षा, भू-परिग्रह, पाद-विन्यास, वास्तुदेव काल, ग्रामदिलक्षण, ग्रामग्रहविन्यास, वास्तुशास्त्रविधि, पादमानविाधि, प्रासादभूषण विधि, देवतास्थापनाविधि, मंडपस्थापन आदि विषयों का विवेचन (कर्णागम, रूपभेदागम, वैखानसागम, वास्तुरत्नावली, वास्तुप्रदीप आदि ग्रंथों में भी वास्तुविद्या का व्यापक विवेचन है।) 2) श्लोक संख्या 6000 । विषय - पूजा, महोत्सव आदि । कामिनी-काम-कौतुकम् - ले.म.म. कृष्णकान्त विद्यावागीश (सन 1810) में रचित काव्य। कामेशार्चन-चन्द्रिका - 1) श्लोक 600। भडोपनामक जयरामभट्ट के पुत्र काशीनाथ द्वारा रचित। तीन प्रकारों में विभक्त । इसमें कामेश्वर शिवजी की पूजापद्धति वर्णित है। इस पद्धति के समर्थन में बहुत से आकर ग्रन्थों के वचन प्रमाण रूप से इसमें उद्धृत किये गये हैं। काम्यदीपदानपद्धति - ले.प्रेमनिधि पन्त। पिता- उमापति । कार्तवीर्यार्जुन का साक्षात् या परम्परा द्वारा अनुष्ठेय काम्य दीपदान कर्म इसमें प्रतिपादित है। काम्ययन्त्रोद्धार - श्लोकसंख्या 500। ले. महामहोपाध्याय सत्पण्डित परिव्राजकाचार्य। मातृकायन्त्र आदि सब यंत्रों को लिखने की विधि इसमें वर्णित है। आचार्य ने कहा है कि इन यन्त्रों को केशर, गोरोचन, कस्तूरी गजमद और चन्दन से सुवर्ण की लेखनी द्वारा लिखें। मन्त्रसाधक को सूचना है कि वह मन्त्र को भूमिष्ठ, विवरस्थ, दग्ध, निर्माल्यमिश्रित, लंधित और खण्डित कभी न करे। कारककारिका - ले. पुरुषोत्तम देव । ई. 12-13 वीं शती। कारक-कौमुदी - ले.पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर । ई. 15 वीं शती । कारकचक्रम् - ले.- पुरुषोत्तम। कारकनिर्णयटीका - ले.- रामचन्द्र तर्कवागीश । कारक-रहस्यम् - ले.-रामनाथ विद्यावाचस्पति । ई. 17 वीं शती । कारकवाद - ले.-गदाधर भट्टाचार्य । कारकविवेचनम् - ले.-भवानन्द सिद्धान्तवागीश। ई. 17 वीं शती। कारकाद्यर्थनिर्णय - ले.भवानन्द सिद्धान्तवागीश। ई. 16-17 वीं शती। कारकोल्लास - ले. भरत मल्लिक। ई. 17 वीं शती। कायस्थधर्मप्रदीप - ले. गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती। पिता- दिनकरभट्ट। छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रेरणा से यह ग्रंथ लिखा गया। कारणागम - श्लोक - 6000। पटल 84। यह प्रतिष्ठातन्त्र का क्रियापाद है और किरणागम के मतानुसार दश शिवागमों मे अन्यतम है। मतान्तर में इसके स्थान पर 10 शिवागमों में कुक्कुटागम माना जाता है। विषय - रामेश्वरपूजा, शिवविवाह प्रयोग, रत्नलिंग-स्थापनाविधि और उत्सव इत्यादि। कारिकावली - ले.नारायण भट्टाचार्य। व्याकरण विषयक प्राथमिक ग्रंथ। कार्तवीर्यकल्प - (सहस्रार्जुनकल्प, अथवा कार्तवीर्यार्जुनकल्प) इसी नाम के 300 से 25 हजार श्लोक वाले दस से अधिक ग्रन्थ हैं। कार्तवीर्यदीपदानपद्धति - ले. कमलाकरभट्ट। श्लोकसंख्या 250। इसमें कार्तवीर्य भगवान् की प्रकाशता के लिये किये जाने वाले दीपदान का विवरण दिया गया है। वसन्त, शिशिर, हेमन्त, वर्षा, और शरद् में वैशाख श्रावण, आश्विन कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मासों में दीपदान श्रेयस्कर माना है। कार्तवीर्यदीपदानविधि - उमा-महेश्वर संवादरूप कार्तवीर्य भगवान् को प्रज्वलित दीप-प्रदान करने की विधि इसमें वर्णत है। यह दीपदान वैशाख, श्रावण, आश्विन कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माध और फाल्गुन इन आठ मासों में माना गया है। कार्तवीर्यपूजापद्धति - ले.पुरुषोत्तम। श्लोकसंख्या- 9501 इसमें कार्तवीर्य के मालामन्त्र, अस्त्रोपसंहरण मंत्र तथा महामन्त्र से पूजाविधि निर्दिष्ट है। कार्तवीर्यप्रबंध (चम्पू) - ले. त्रावणकोर के युवराज अश्विन श्रीराम वर्मा। रचना काल ई. 18 वीं शती। इस काव्य ने रावण व कार्तवीर्य के युद्ध एवं कार्तवीर्य की विजय का वर्णन किया है। प्रकाशन वर्ष - 19471 कार्तवीर्यप्रयोग - ले.चन्द्रचूड। श्लोकसंख्या 1745 । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /59 For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कार्तवीर्यविधिरत्नम् - ले. शिवानन्द भट्ट । श्लोकसंख्या- 13801 कार्तवीर्यार्जुनदीपचिन्तामणि - ले.महेश्वरभट्ट। श्लोकसंख्या2201 कार्तिकेयविजयम् - ले. गीर्वाणेन्द्रयज्वा । कार्मन्द और काश्वि - काशिकावृत्ति (4-3-111) में इन नामों का उल्लेख है । ये दोनों किसी वेद की शाखाएं मानी जाती हैं। कार्यकारणभावसिद्धि - ले. ज्ञानश्री। ई. 14 वीं शती। बौद्धाचार्य। कालचक्रतन्त्रम् - श्लोक 3000। आदिबुद्ध द्वारा उद्धृत। 5 पटलों के विषय हैं : 1) लोकधातुविन्यास, अध्यात्मनिर्णय, अभिषेक, साधन, ज्ञान इत्यादि । कालज्ञानम् - (कालोत्तरम्) - 18 पटलों में पूर्ण। इसमें शिव-कार्तिकेय संवाद द्वारा सकल और निष्कल के स्वरूप, परमात्मा की सर्वव्यापकता, सर्वव्यापक परमात्मा की पुरुष के शरीर में बाह्याभ्यन्तर स्थिति बतायी गयी है। त्रिमात्र, द्विमात्र, एकमात्र, अर्धमात्र, परासूक्ष्म है। उससे परे परात्पर हैं। ब्रह्मा हृदय में, विष्णु कण्ठ में,रुद्र ताल के मध्य में, महेश्वर ललाट में स्थित में तथा नादरम्ध को शिव जानना चाहिये। कालनिर्णय - ले.-तोटकाचार्य। ई. 8 वीं शती। कालनिर्णयकारिकाव्याख्या - ले. नारायण भट्ट। ई. 16 वीं शती। कालनिर्णयकौतुकम् - ले. नंदपंडित । ई. 16-17 वीं शती। कालनिर्णयसंक्षेप - ले. हेमाद्रि। ई. 13 वीं शती। पिताकामदेव। कालबंवी शाखा (सामवेदीय) - कालवी शाखा के ब्राह्मण ग्रंथ के प्रमाण अनेक ग्रंथों में मिलते है। परंतु कालबवियों की कल्पना, निदान और संहिता दर्शन आदि विषयों में कुछ भी ज्ञात नहीं है। कालरात्रिकल्प - पार्वती-ईश्वर संवादरूप। श्लोक 550। यह ग्रंथ 13 पटलों में पूर्ण है। इसमें देवी कालरात्रि की पूजा, देवी के मन्त्रों द्वारा मारण, मोहन, स्तंभन आदि षट्कमों की सिद्धि कहीं गयी है। चार पुष्पिकाओं के अनुसार यह ग्रन्थ रुद्रयामलान्तर्गत और एक पुष्पिका के अनुसार आगमसार से सम्बद्ध कहा गया है। मन्त्रमहिमा, मन्त्रस्वरूप, मन्त्रोद्धार आदि विषय इसमें वर्णित हैं। कालरात्रिपद्धति - ले.अद्वयानन्दनाथ । कालरुद्रतन्त्रम् - शिव-कार्तिकेय संवादरूप। श्लोक 8801 पटल 21। इस ग्रंथ में धूमावती, आर्द्रवती, काली, कालरात्रि इन नामों से अभिहित कालरुद्र की शक्तियों के मंत्रों से मारण, मोहन आदि तान्त्रिक षट्कमों की सिद्धि वर्णित है। यह कालिकागम से गृहीत तथा आथर्वणास्त्रविद्या के नाम से प्रत्येक पुष्पिका में अभिहित है। धूमावती आदि की विद्या, मन्त्रोद्धार, मन्लविधि, पूजा इत्यादि साधन क्रियाएं इसमें सांगोपांग वर्णित हैं। कालविवेक - ले.जीमूनवाहन। बंगाल के निवासी। प्रस्तुत ग्रंथ में विषय हैं- ऋतु, मास, धार्मिकक्रिया-संस्कार से काल, मलमास, सौर व चांद्र मास में होने वाले उत्सव, वेदाध्ययन के उत्सर्जन अगस्त्योदय, चतुर्मास, कोजागरी, दुर्गोत्सव, ग्रहण आदि का विवेचन। कलिसंतरण-उपनिषद्- द्वापर युग के अंत में ब्रह्मदेव ने यह उपनिषद् नारदजी को बताया। इसे हरिनामोपनिषद् भी कहते हैं। परंपरा के अनुसार यह कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित माना जाता है। इसका सार यही है कि केवल नारायण के नामजप से ही कलिदोष नष्ट हो जाते हैं । यह नाम सोलह शब्दों का है हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। कालाग्निरूद्रोपनिषद् - श्लोक 100 । नन्दिकेश्वर प्रोक्त। कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित लघु गद्य उपनिषद्। इसमें कालाग्निरुद्र को प्रसन्न करने के लिये भस्मत्रिपुंड धारण करने की विधि बताई गई है। त्रिपुंड्र की तीन रेखाओं को भूलोक, अंतरिक्ष व द्युलोक तथा क्रियाशक्ति, इच्छाशक्ति व ज्ञानशक्ति का प्रतीक बताया गया है। कालानलतन्त्रम् - नारद- नीललोहित (शिव) संवाद रूप। 25 पटल। श्लोक 1600। अन्तिम पटल का विषय हैसिद्धिलक्ष्मी का सहस्रनामस्तोत्र । लिपिकाल- संवत् 857 । कालापशाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - वैशंपायन का तीसरा उत्तरदेशीय शिष्य कलापी था। कलापी की संहिता और उसके शिष्य को ही कालाप कहते हैं। कलापी के चार शिष्य थे1) हरिद्रु 2) छगली 3) तुम्बुरु और 4) उतप। कालाप संहिता का नामान्तर मैत्रायणीय संहिता माना जाता है। काठक संहिता से भी कालाप संहिता विशेष भिन्न नहीं थी। यदि मैत्रायणीय संहिता से कालाप संहिता भिन्न हो तो उस संहिता के उस ब्राह्मण (कालाप ब्राह्मण) का अभी तक ज्ञान नहीं है। कालार्करुद्रपूजा-पद्धति - श्लोक 100 । कालार्क रूद्र (शिवजी) का एक रूप माना गया है। कालिकापुराणम् - समय- ई. 10 वीं शताब्दी । इसमें 13 अध्याय हैं जिनमें कुल 1000 श्लोक हैं। शिवपति अम्बिका की उपासना ही प्रमुखतया प्रतिपाद्य है। इसके दो खंड हैं। प्रथम खण्ड में शिव-पार्वती विवाह, कामदेव का जन्म, दक्षयज्ञ, क्षिप्रानदी का उगम, वराह-शरभ युद्ध आदि की कथाएं हैं। दूसरे खण्ड में विविध देवताओं की उपासना, उनके पीठ स्थानों की उत्पत्ति, कामरूप के पर्वत, नदियाँ, कामाक्षी के स्थान तथा शाक्त सम्प्रदाय आदि की जानकारी दी गई है। देवियों की उपासना में मंत्र, तंत्र और मुद्राओं की महत्ता तथा 53 मुद्राओं का विवरण भी इसमें है। 60/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालिकारहस्यम् - ले. पूर्णानन्द ।। कालिका_मुकुर - ले. कालीचरण, जो कामख्या देवी के परम उपासक थे। कालिकाशतकम् - ले. बटुकनाथ शर्मा । कालिका-सपर्याविधि। - ले. काशीनाथ तर्कालंकार । कालिकोपनिषद् - आथर्वण के सौभाग्यकांडांतर्गत उपनिषद् । विषय- श्रीचक्र की पूजाविधि, कुंडलिनी व कालिका की एकरूपता, तथा कालिकामंत्र के जप से पांडित्य कवित्व व चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति इत्यादि। श्लोकसंख्या 50 । कालिदासचरित्रम् (नाटक) - ले. श्रीराम भिकाजी वेलणकर। मुंबई निवासी। रचना सन 1961 में। संस्कृत नाट्यमहोत्सव में उसी वर्ष अभिनीत । अंकसंख्या- पांच। प्रत्येक अंक तीन दृश्यों में विभाजित। संवाद प्रायः संगीतमय। एकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग। मध्यम और अधम कोटि के पात्रों द्वारा हास्योत्पादकता, छायातत्त्व का प्रयोग। संस्कृत छन्दों के साथ मराठी की दिण्डी, ओवी तथा साकी का भी प्रयोग, प्राकृत का अभाव इत्यादि इस नाटक की विशेषताएं हैं। कथासारविक्रमादित्य के शासन में परराष्ट्र कार्यालय के उपसचिव कालिदास, अपनी प्रतिभा के कारण पण्डितसभा में प्रवेश पाते हैं। रानी वसुधा उनके विरोध में है। विदर्भ के राजा कोशलेश्वर से मिलकर उज्जयिनी पर आक्रमण करने वाले हैं यह सुनकर, वसुधा की सूचना पर विक्रमादित्य कालिदास को विदर्भ भेजते हैं। वसुधा और पंडितराज (पंडितसभा के अध्यक्ष) गोपाल को उकसाते हैं कि कालिदास के घर जाकर उसके द्वारा विरचित ग्रंथ चुराने पर अभीष्ट धन मिलेगा। विदर्भराज कालिदास को बंदी बनाता है। सरस्वती नामक दासी को विदर्भराज नियुक्त करते हैं कि वह कालिदास के मन की बातें ज्ञात करे। गोविंद उसका शीलभंग करना चाहता है, उस समय कालिदास का भाई रघुनाथ उसको बचाता है। सरस्वती कालिदास से मिलती है। वह वस्तुतः विदिशा की निवासी होने से कालिदास के साथ योजना बनाती है कि कालिदास के स्थान पर उसका भाई रघुनाथ बंदीगृह में रहे, और कालिदास को अपनी राजसी मुद्रा देकर उज्जयिनी भेजती है। बंदीगृह मे रघुनाथ और सरस्वती में प्रेम होता है। यहां गोपाल कालिदास के ग्रंथ तथा माला चुराने पहुचता है, इतने में सैनिक वेष में कालिदास आता है और क्षमा मांगने पर उसे छोड देता है। वसुधा और पंडितराज, कालिदास पर राजद्रोह का आरोप लगाते हैं परंतु रघुनाथ और सरस्वती वहां जाकर सत्य कथन करके कालिदास को बचाते हैं। कालिदास को "कविकुलगुरु" की उपाधि मिलती है परंतु नवरत्नपरिषद् से त्यागपत्र देकर कालिदास बन्धनविमुक्त होकर रघुवंश लिखने में व्यग्र होते हैं। यह कथावस्तु सर्वथा उत्पाद्य है। कालिदासचरित्रम् (नाटक) - ले. डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । रचना - सन 1967 में। लेखक की यह पहली संस्कृत रचना है। निखिल भारत प्राच्य विद्या सम्मेलन के रजतजयन्ती महोत्सव पर अभिनीत। अंकसंख्या- सात। गीतों का प्रचुर प्रयोग। महत्त्वपूर्ण पात्र के प्रवेश के पूर्व उसका परिचय गीतों द्वारा होना, कतिपय नये छन्दों में रचना। मेघदूत के श्लोकों का समावेश। एकोक्तियों से भरपूर । नायक कालिदास का चित्रण आधुनिक प्रणयी नायक के आदर्श पर हुआ है। प्राकृत भाषाओं का प्रयोग नहीं है। कथासार - प्रतिभाशाली किन्तु दरिद्री कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा में जाकर नवरत्न परिषद के मध्यमणि बनते हैं। वहा मंजुभाषिणी को काव्यशिक्षा देते समय उसके प्रणय में लिप्त होते हैं। यह विदित होने पर विक्रमादित्य मंजुभाषिणी को बन्दी कर कालिदास को एक वर्ष तक निष्कासित करते हैं। इसी मनःस्थिति में मेघदूत की रचना होती है। निष्कासन की अवधि बीत जाने पर विक्रमादित्य स्वयं कालिदास से मिलकर मंजुभाषिणी के साथ विवाह कराते हैं। विक्रमादित्य के दिग्विजय का वर्णन कालिदास कृत रघुवंश में रघुविजय द्वारा करते हैं। अन्त में विक्रम कहते हैं कि कालिदास के कारण ही विक्रम अमर बना है। कालिदासप्रतिभा - मद्रास की संस्कृत अकादमी द्वारा, कालिदास दिन के निमित्त 25-10-1955 को प्रकाशित । कालिदास की प्रतिभा को लक्ष्य कर 28 कवियों के काव्यों का संग्रह इस ग्रंथ में हुआ है। कालिदासमहोत्सवम् (नाटक) - ले. डॉ. हरि रामचन्द्र दिवेकर। ग्वालियर निवासी। कालिदास महोत्सव के अवसर पर उज्जयिनी में अभिनीत । कथावस्तु काल्पनिक। यह रूपक नायक तथा नायिका संबंध से विरहित है। प्रधान रस हास्य और भाषा सुबोध है। सन 1965 में साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित। कथासार- बहुत दिन स्वर्ग में बिता कर नारद के साथ कालिदास मातृभूमि पर आते हैं। हस्तपत्रक पढने पर ज्ञात होता है कि कालिदास के जन्मदिन पर कालिदास स्मारक बनाने हेतु विशाल सभा का आयोजन होने वाला है। इतने में एक घोषणा होती है कि आयोजन नहीं होगा। चकित और खिन्न कालिदास विश्वविद्यालय जाते हैं परंतु मैट्रिक पास न होने के कारण उन्हें प्रवेश निषिद्ध होता है। प्राध्यापक भी विषय के ज्ञाता नहीं दीखते। सडक पर जहां तहां "अखिल भारतीय" विशेषण दीखता है। प्रवेशपत्र के अभाव में कालिदास समारोह में कालिदास को ही प्रवेश नहीं मिलता। वे द्वार रक्षक बनकर समारोह देखते हैं। समारोह का उद्घाटक संस्कृत नहीं जानता। उर्दू का जानकार है। कालिदास उसका विरोध करता है। इससे छात्र उससे प्रभावित होकर उसका व्याख्यान रखते हैं। भरतवाक्य है कि युवा तथा वृद्ध पीढी में सामंजस्य बना रहे। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/61 For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कालिदासरहस्यम्- ले. डॉ. श्रीधर भास्कर वर्गीकर नागपुरनिवासी हिन्दी अनुवाद सहित राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की अध्यक्षता में राजधानी में उज्जयिनी में विमोचन संपन्न । प्रथम कालिदास महोत्सव के प्रसंग पर केवल 5 दिन में रचित। इस खण्ड काव्य में प्रायः प्रत्येक श्लोक के अंत में कालिदास के काव्यों के उपमानों का प्रयोग करते हुए कवि ने कालिदास का माहात्म्य वर्णन किया है। टिपण्णी में उपमानों के संदर्भ दिए हैं। कालिदास विश्वमहाकविले. व.सं. पै. गुरुस्वामी शास्त्री, जो आत्मविद्याविभूषणम् तथा साहित्य वेदान्त शिरोमणि उपाधियों से विभूषित हैं। निवासस्थान मद्रास । प्रस्तुत ग्रंथ 8 भागों में विभाजित है । कालिदास के विषय में अन्यान्य विद्वानों ने जो कुछ आक्षेप उठाए हैं उनका सप्रमाण निराकरण, पद्यात्मक निबंधों में प्रस्तुत ग्रंथ में किया है। कालिदास विश्व के एक श्रेष्ठ महाकवि थे यह सिद्ध करने का लेखक का प्रयास सराहनीय है। प्रस्तुत ग्रंथ अभिनव विद्यातीर्थ महास्वामिगल एज्युकेशन ट्रस्ट द्वारा 1981 में मद्रास में प्रकाशित हुआ । कालिदासीयम् से. डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी विषयकालिदासविषयक विविध निबंधों का संग्रह । कालिन्दी सन 1036 में आगरा से हरिदत्त शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ, किन्तु अर्थाभाव के कारण केवल एक वर्ष तक ही प्रकाशन हो सका। यह आर्य-समाज संस्कृत विद्यालय आगरा की पत्रिका थी। इसमें धर्म, दर्शन, विज्ञान तथा आर्यसमाजसंबंधी निबन्धों का प्रकाशन होता था । - - www.kobatirth.org - कालिन्दी (नाटक) - ले. श्रीराम भिकाजी वेलणकर । अंकसंख्या तीन । अनेक छन्दों का प्रयोग प्राकृत भाषा नहीं । कथावस्तु उत्पाद्य और सोद्देश्य । हिंसा-अहिंसा का विवेक जगाने हेतु लिखित । कथासार- अयोध्या नरेश चण्डप्रताप के बड़े दामाद मगधराज सुधांशु अहिंसावादी हैं। छोटी कन्या कालिन्दी का विवाह दुर्गेश्वर के साथ निश्चित हुआ है, परंतु उसके युद्धप्रिय होने से सुधांशु विवाह के विरोध में है। दुर्गेश्वर सुधांशु पर आक्रमण करता है । सुधांशु के युद्धविरत होने के कारण उसकी पत्नी मंदाकिनी युद्धभूमि पर उतरती है। वह बंदिनी बनती है यह देख सुधांशु अहिंसावत छोड़ कर पत्नी की रक्षा हेतु उद्यत होता है, तो दुर्गेश्वर कहता है। अब मेरा मन्तव्य पूरा हो चुका" और युद्ध समाप्त होता है। हिंसा-अहिंसा में विवेक करने के बाद दुर्गेश्वर और कालिन्दी का विवाह होता है। कालीकल्पलता ले. विमर्शानन्दनाथ । श्लोकसंख्या 1062 कालीकुलक्रमार्चनम् ले. परमहंस विमलबोधपाद लेखनकाल सन 1710 | श्लोकसंख्या - 700 ग्रन्थारम्भ में ग्रन्थकार ने अपने गुरुजी को नाम निर्देशपूर्वक नमस्कार किया है। वे हैंविश्वामित्र, वशिष्ठ, श्रीकण्ठ, कुण्डलीश्वर, मीनांक और तालांक। 62 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - • Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय- कुलक्रमानुसार कालीपूजा तथा अन्तर्यागविधि, आसनविधि, न्याससहित ध्यानविधि, नित्यार्धनविधि आदि । कालीकुलामृततन्त्रम् - श्लोक 1150 15 पटल । ग्रन्थ में मुख्यतया कालीपूजा और तारापूजा का प्रतिपादन है। अनेक मन्त्रों के उद्धार, ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति कीलक, विनियोग, ध्यान, पूजा स्तोत्र और कवच का वर्णन है। इसका साधनक्रम भी वर्णित है। लेखनकाल 18 वीं शताब्दी । कालीकुलार्णवतन्त्रम् देवी भैरव संवाद रूप। श्लोक 1176 इसमें भैरव को वीरनाथ कहा है। वीर का अर्थ है जो वामाचारीपूजा से सिद्धि प्राप्त कर चुका है। वीरनाथ उन वीरों के सर्वोच्च अधिपति है। कालितत्त्व ( नामान्तर- आचारप्रतिपादन-तत्त्वम्) ले. राघवभट्ट | विषय - साधकों के प्रातः कृत्य, स्नान, सन्ध्या, तर्पण, पूजा, द्रव्यशुद्धि, कुलसम्पत्ति, पुरश्चरण, नैमित्तिक कर्म, काम्य कर्म, कौलाचार, स्थानपुष्प प्रायश्चित, कुमारीपूजा विधि, मालास्तुति, शान्तिमन्त्र तथा रहस्य आदि । इस ग्रंथ में सप्रमाण रूप से अनेक तन्त्र उद्धृत हैं। राघवभट्ट बहुत बडे तान्त्रिक ग्रन्थ लेखक और टीकाकार थे। शारदातिलक पर लिखी गयी पदार्थादर्श नाम की उनकी टीका तन्त्रनिबन्धों में प्रायः उध्दृत है। ग्रंथकार ने अपनी टीका शारदातिलक का सत्सम्प्रदायकृत व्याख्या के नाम से उल्लेख किया है। 1 कालीतत्त्वसुधा सिन्धु (नामान्तर कालीतत्त्वसुथार्णव ले. कालीप्रसाद काव्यचुंचु । श्लोक 13972। 32 तरंगों में पूर्ण । यह विशाल ग्रंथ काली की पूजा पर विभिन्न तन्त्रों से संगृहीत है। इसकी समाप्ति 1774 संवत् में हुई । विषय दीक्षा शब्द की व्युत्पति । गुरु के बिना पुस्तक से मन्त्र ग्रहण में दोष, दीक्षा न लेने में दोष, श्वशुर आदि से मन्त्र - ग्रहण करने पर मंत्रत्याग और प्रायश्चित्त करने का विधान । स्वप्न में पाये मन्त्र के संस्कार । निषिद्ध और सिद्ध लक्षणों से युक्त गुरु का निरूपण, स्त्री और शूद्रों को प्रणव, स्वाहा आदि से युक्त दीक्षा की आवश्यकता । तन्त्रादि शास्त्रों में संदेह, निंदा आदि करने में दोष, मन्त्र और मन्त्रवक्ता की प्रशंसा । तन्त्र और आगम पदों की व्युत्पत्ति 32 अक्षरों के नाम और अर्थकथन, दक्षिणापद की व्युत्पति । काली के तन्त्र की प्रशंसा, दक्षिणकाली, सिद्धकाली आदि के मन्त्र । वीरभाव, दिव्यभाव का निरूपण । सात प्रकार के आचारों का निरूपण । कलियुग में पशुभाव की प्रशस्तता । प्रतिनिधि द्रव्यों का निरूपण । पशुभाव आदि में पूजाकाल की व्यवस्था । पूजा के अधिकारी का निरूपण । पुरोहित के प्रतिनिधि होने का निषेध बलिदान की प्रशंसा, अवैध हिंसा में दोष । पूजा की आधारभूत प्रतिमा । विशेष कुलदीक्षा, स्वकुल- दीक्षा, मन्त्र के छह साधन प्रकार और दस संस्कार, मातृका - मन्त्र, वर्णमाला की उत्पत्ति, वैदिक के जप में माला का विधान, वीरों के पुरश्चरण की विधि, ग्रहण में For Private and Personal Use Only - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरश्चरण की विधि, कुमारीपूजा में स्थान, क्रम, उपचार, दान, आदि का निरूपण विविध पुरश्चरण, मन्त्र का अमृतीकरण, मन्त्रसिद्धि के उपाय, योनिमण्डल-ध्यान, प्रफुल्लबीज-ध्यान, कालीबीजध्यान, श्यामा के 32 अक्षरों के मन्त्र का ध्यान, कुल-वृक्ष, कामकला, लेलिहान मुद्रादि कथन, अठारह उपचार और उनके मन्त्र । नवदीपविधि। प्रणामविधि। संहार-मुद्रा। प्रार्थना-मुद्रा। शिर का प्रदान, रुधिर का दान, वर्जनीय शक्तियां, विजयापन में कालनियम, वीरों के स्नान, सन्ध्योपासना, तर्पण आदि। द्रव्य-शोधन, शाप-विमोचन हंस-मन्त्र, पानपात्र का परिमाण, लतासाधन, शक्ति शुद्धि, पंचतत्त्व, कुण्डगोल-ग्रहण आदि की विधि। दूतीयजन। कुलनायिकाएं। चितासाधन एवं शवसाधन में स्थान, आसन आदि के नियम इत्यादि तांत्रिक विधि।। कालीतत्त्वामृतम् - ले. बलभद्र पण्डित । श्लोकसंख्या- 1680 । विषय- "पशु" के सम्मुख इस तन्त्रशास्त्र की चर्चा की निषेध, प्रतिमा आदि में शिलाबुद्धि करने में दोष, अदीक्षित का तन्त्रशास्त्र में अनधिकार, विवाहित और अविवाहित गुरु। दिव्य, वीर, पशु आदि का भेद, कौलिकों का पशु के मन्त्र ग्रहण में प्रायश्चित्त । कलि में काली-उपासना की कर्तव्यता, आगमोक्तदीक्षा ग्रहण करने के बाद पुराणविधि से कर्मानुष्ठान करने में कलाभाव, गुरु और शिष्य के लक्षण, मन्त्र के दस संस्कार । यन्त्रसंस्कार, मालासंस्कार । पुरश्चरण की आवश्यकता, पुरश्चरणक्रम, मन्त्र के सूतकादि दोषों का निरूपण, स्वतन्त्र तन्त्रादि मतसाधन। वास्तुयाग-विचार सिद्धिप्रकार आदि। कालीतन्त्रम् - 1) श्लोक 600। 11 पटल। उमा-महेश्वर संवाद रूप। 2) श्लोक 415 | विषय- शिवात्मिका मूल शक्ति काली की समन्त्र पूजा, प्रतिष्ठा, निष्क्रमण, अभिषेक, स्नान आदि। संभवतः यह उमामहेश्वर- संवादरूप कालीतन्त्र से भिन्न है। इसमें केवल 4 पटल हैं। कालीपुराणम् - अध्याय- 60। श्लोक- 5400। यह रुद्रयामलान्तर्गत महाकालसंहिता से गृहीत उमामहेश्वर-संवाद रूप है। पुष्पिका में यह ग्रंथ रुद्रयामलान्तर्गत कहा गया किन्तु यह कालिकापुराण के संस्कारण से हूबहू मिलता है, जो वंगवासी इलेक्ट्रिक मशीन प्रेस कलकत्ता से, सन 1909 में प्रकाशित हुआ था। कालीपूजा - 1) श्लोक- 220। राघवानन्दनाथकृत । 2) श्लोक 300। स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वतीकृत । कालीपूजापद्धति- रुद्रमलान्तर्गत। श्लोक - 798। कालीपूजाविधि - इसमें काली के ध्यान, मन्त्र आदि के साथ पूजाविधि प्रतिपादित है। कालीभक्तिरसायनम् - ले. दक्षिणाचारप्रवर्तक काशीनाथ भट्ट । श्लोक - 5501 पिता- भडोपनामक जयराम भट्ट। मातावाराणसी। वाराणसी के निवासी। ग्रंथ 8 प्रकाशों में पूर्ण है। विषय- आचारनिर्णय। 22 अक्षरों के मन्त्र का उद्धार । प्रातःकृत्य । तान्त्रिक सन्ध्याविधि । द्वारपूजा से न्यासविधान तक यन्त्रोद्धारविधि । देवता-पूजाविधि। आवरणपूजाविधि। विद्यामाहात्म्य तथा उपासकधर्म विधि और पुरश्चरण विधि। इसमें प्रमाण रूप से अनेक तन्त्रग्रन्थों का उल्लेख है। कालीमेधादीक्षितोपनिषद् - आर्थवण के सौभाग्य - कांडातर्गत उपनिषद् । इसमें मेधादीक्षिता के स्वरूप में काली की उपासनाविधि को सर्वश्रेष्ठ दीक्षा माना गया है। इसमें षट्चक्रभेदन शक्ति और अनेक सिद्धियां प्राप्त होने की बात कही गयी है। कालीविलास-तन्त्रम्- 1) श्लोक 11001 35 पटलों में पूर्ण। 2) श्लोकसंख्या 925। देवी-सद्योजात (शिव) संवादरूप यह तन्त्र शिवप्रोक्त है। इसमें 30 पटल हैं। विषय- प्रस्तावना, तन्त्रनाम का निर्वचन, शूद्र के लिए प्रणव, स्वाहा आदि के उच्चारण का निषेध। शूद्र जाति के लिए प्रशस्त मन्त्र । स्वाहा तथा प्रणव युक्त स्तोत्रपाठ आदि में शूद्र का भी अधिकार। कलियुग में पशुभाव की कर्तव्यता और दिव्य वीर भाव आदि का निषेध। दीक्षाकाल, दिव्यादि भावों के लक्षण। कलियुग में संविदापान का नियम, शिव और विष्णु में अभेद । कलियुग के योग्य वशीकरण, मोहन। विविध देवता के स्तोत्र, पूजा, मन्त्र, ध्यान आदि । महिषमर्दिनी के गुणों का निरूपण। कृष्णजी की माता कालिका के कामबीज तथा ध्यान। पंचबीजों का निणय। मात्राबाज का साधन। रमा-बीज आदि का निरूपण, कामबीज के और स्त्री-बीज के लिखने का क्रम। अनुलोभ -विलोम से आकारादि से लेकर क्षकार तक जप-प्रकार। कृष्ण के मुरलीधारण का विवरण। कलियुग में पुरश्चरण, होम आदि करने का निषेध । गुरुपूजा से ही सब सिद्धि होती है यह प्रतिपादन। कालशाबरम् - श्लोक 931 तीन पटलों में पूर्ण । शिवपार्वती-संवादरूप इस ग्रंथ में शाबरों के सिद्ध, कुमारी, विजया, कालिका, काल, दिव्य, श्रीनाथ, योगिनी, तारिणी तथा शंभू नामक 12 प्रकार बताये गये हैं। इसी प्रकार 12 अघोर और 10 गारुड भी हैं। इसके परिभाषा, कालीसंक्षेप और कालीशाबर नामक 3 पटलों के बाद हिन्दी में एक विभाग और है जो “शाबर सकल साधन" के नाम से अभिहित है। कालीसर्वस्वसंपुटम् - श्लोक 4256। लेखक न्यायवागीश भट्टाचार्य के पुत्र श्रीकृष्ण विद्यालंकार। जिन महातन्त्र ग्रंथों के आधार पर इसकी रचना की गयी है उनकी सूची ग्रंथारम्भ में दी गयी है। दीक्षाप्रसंग, काली के आठ भेद, काली शब्द की व्युत्पत्ति, साधकों के प्रातःकृत्य, विविध न्यास, महाकालपूजा, आवरणपूजा, काली के विविध स्तोत्र, मालाभेद, मालाशोधन और मालासंस्कारविधि, शरत्कालीन विविध पुरश्चरण, कुमारीपूजा, दूतीयाग, योनिपूजा, पंच मकार विधि,विजयाकल्प, मांस, मत्स्य, मुद्रा आदि की शोधन-विधि, वीरसाधन विधि, शवलक्षण आदि कथन, तीन प्रकारों के शवधानविधि, योगियों के नित्य कृत्य, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 63 For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षट्कर्म, उच्चाटन विधि, विद्वेषण, स्तंभन आदि की विधियां, काव्यकल्पद्रुम - सन् 1897 में कोमाण्टूर श्रीनिवास अयंगार अदर्शनक्रम, . आकर्षणविधि, वशीकरणविधि, गुरुचरण, के संपादकत्व में बंगलोर से संस्कृत और कन्नड में प्रकाशित । चिन्तनप्रकार इत्यादि। इस मासिक पत्रिका में कुमारसंभव, मेघदूत आदि संस्कृत ग्रंथों कालीस्तवराज - श्लोकसंख्या 36। यह कालीहृदयान्तर्गत की टीकाएं प्रकाशित होती रहीं। कालभैरव-परशुराम' संवादरूप महाकाली की स्तुति है। काव्यकल्पलता - इसका आरंभिक अंश अरिसिंह ने लिखा कालीहृदयम् - इसमे माँ काली का प्रदीर्घ मन्त्र है जो 'हृदय' । था और उसकी पूर्ति अमरचंद्र ने की थी। रचनाकाल -13 कहलाता है। यह देवीयामल के अन्तर्गत है। वीं शताब्दी का मध्य। अमरचंद्र ने इस पर वृत्ति की भी कालोत्तरतन्त्रम् - (नामान्तर- बृहत्कालोत्तर-शिवशास्त्रम्) रचना की है। इन दोनों ग्रंथों की रचना 4 प्रतानों में हुई है यह शिव-कार्तिकेय-संवादरूप महातंत्र है। अभिनवगुप्त ने अपने तथा प्रत्येक प्रतान अनेक अध्यायों में विभक्त है। चारों प्रतानों त्रिंशिकातत्त्वविवरण में इसका उद्धरण दिया है। यह 40 पटलों के वर्णित विषय हैं :- छंदःसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि एवं में पूर्ण है। पटलों के नामों से ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण अर्थसिद्धि। इस ग्रंथ में काव्य की व्यावहारिक शिक्षा प्रदान तान्त्रिक क्षेत्र पर यह प्रकाश डालता है। कहीं पर इसके 32 करने वाले तथ्यों द्वारा कविशिक्षा का वर्णन है। ही पटलों का उल्लेख है। काव्यकादम्बिनी - 1896 में लश्कर (ग्वालियर) से इस कौलोपनिषद् - सूत्र रूप में लिखा एक तांत्रिक उपनिषद् । मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसे राजकीय अनुदान विषय-कौलमार्गी साधन का विवेचन। कौलसाधक अपना रहस्य प्राप्त था। यह पत्रिका केवल दो वर्षों तक प्रकाशित हुई। सदा गुप्त ही रखे। सभी के प्रति समत्त्वबुद्धि रखे यह इसका इसके संपादक जानूलाल सोमाणी तथा निरीक्षक रघुपति शास्त्री संदेश है। थे। इस पत्रिका की यह विशेषता रही कि इसमें केवल काल्यूवा॑म्नायतन्त्रम् - (ऊर्ध्वाम्नाय) देवी-ईश्वर संवादरूप समस्या-पूर्तियों का ही प्रकाशन होता था। प्रत्येक अंक में महातंत्र। श्लोक - 4881 5 पटलों में पूर्ण । विषय- उर्धाम्नाय पचास से अधिक विद्वानों की समस्या पूर्तियां प्रकाशित होती थी। की प्रस्तावना। देवता, गुरु और मन्त्रों में ऐक्यभावना । काव्यकुसुमांजलि - ले.विश्वेश्वर विद्याभूषण । ई. 20 वीं शती। शरीर-निरूपण। पशुरूप विश्व, निर्गुण और निर्विकार परमात्मा काव्यकौतुकम् - इस काव्यशास्त्र विषयक प्रसिद्ध ग्रंथ के से जगत् की सृष्टि, प्रकृति से महत्त्व आदि की उत्पत्ति । परा लेखक थे अभिनवगुप्ताचार्य के गुरु भट्ट तौत। इस ग्रंथ में पश्यंती, मध्यमा, वैखरी के भेद से विविध शक्ति का निरूपण। शांतरस को सर्वश्रेष्ठ रस सिद्ध किया गया है। इस ग्रंथ पर कर्मेंद्रियों के अधिष्ठाताओं का निरूपण। क्रियाशक्ति ज्ञानशक्ति अभिनवगुप्त ने 'विवरण' नामक टीका लिखी थी जिसका आदि, पंचीकरण की प्रक्रिया । शरीर की प्रणवाकारता, स्थूल ' निर्देश उनके "अभिनवभारती' में है। "काव्य-कौतुक" सांप्रत सूक्ष्म आदि शरीरों की ब्रह्मा विष्णु आदि रूपता। दक्षिण उपलब्ध नहीं' है किन्तु इसके मत "अभिनवभारती" क्षेमेंद्र नेत्रगत काल की राम, कृष्ण नारायण आदि रूपता। अजपा कृत "औचित्य-विचारचर्चा'' हेमचंद्र कृत "काव्यानुशासन" व की द्विविधता। शरीरोत्पत्ति, नाडी, सन्धि आदि की संख्या । माणिक्यचंद्रकृत काव्यप्रकाश की "संकेत" टीका इत्यादि ग्रंथों शरीर के विशेष अवयवों में 27 नक्षत्रों की अवस्थिति, इसी में बिखरे हुए दिखाई देते हैं। "अभिनवभारती' के अनेक तरह 15 तिथियों की अवस्थिति, शरीरस्थ राशिचक्र, षट्चक्र स्थलों में भट्ट तौत के मत को उपाध्यायाः या “गुरवः" के तथा देह में 14 लोकों की स्थिति, शरीर में जीव का स्थान । नाम पर उद्धृत किया गया है। “काव्यकौतुक" का रचना-काल काली का नन्द-गृह में कृष्णरूप में तथा सुन्दरी का राधा के ई. 950 से 980 ई. के बीच माना गया है। इस ग्रंथ के रूप में अवतार। पक्ष्मों का वृन्दावनत्व और उसमें कृष्ण के अनुसार शांतरस मोक्षप्रद होने के कारण, सभी रसों में श्रेष्ठ अवस्थान, तत्त्वज्ञान और उसके साधन की प्रक्रिया। छायासिद्धि है। मोक्षफलत्वेन चायं (शांतरसः) परमपुरुषार्थ-निष्ठत्वात् तथा योगसाधन के प्रकार। बीजोद्धार, दैहिकस्थान के भेद से सर्वरसेभ्यः प्रधानतमः। स चायमस्मददुपाध्याय- भट्टतौतेन जल के गंगाजल, अमृत, देहरक्षक आदि नामभेद। काली काव्यकौतुके अस्माभिश्च तद्विवरणे बहुतरकृतनिर्णयः पूर्वपक्षसिद्धांत नाम का निर्वचन, योगियों की मानसीपूजा, वीरों के अन्तर्याग . इत्यलं बहुना। (लोचन,कारिका 3-26) हेमचंद्र ने अपने की शैली। ज्ञानरूप चक्र के स्थान। सगुण और निर्गुण भेद "काव्यानुशासन" में प्रस्तुत "काव्य-कौतुक" ग्रंथ के 3 श्लोक से विविध शांभव चक्र इत्यादि । उद्धृत किये हैं। काव्यकौमुदी [1] - ले. देवनाथ तर्कपंचानन। ई. 17 वीं कावेरीगद्यम् - ले. श्रीशैल दीक्षित। विषय- प्रवास वर्णन। शती। काव्यप्रकाश पर टीका। मम्मट पर विश्वनाथ द्वारा किये काव्यकलानिधि - ले. कृष्णसुधी गये आक्षेपों का खण्डन इस टीका में है। काव्यकल्पचम्पू - ले. महानन्द धीर । [2] ले. म.म. हरिदास सिद्धान्तवागीश। ई. 20 वीं शती। 64/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काव्यशास्त्रीय ग्रंथ। [3] ले. रत्नभूषण। ई. 20 वीं शती। काव्यशास्त्रीय ग्रंथ । परिच्छेद संख्या 10। काव्यकौस्तुभ - ले. बलदेव विद्याभूषण। ई. 18 वीं शती। प्रकारणों के स्थान पर "प्रभा" शब्द प्रयुक्त। प्रभासंख्या नौ। विषय- काव्यशास्त्र। काव्यचन्द्रिका [१] - (अपरनाम अलंकार-चन्द्रिका) ले. रामचंद्र न्यायवागीश। काव्यशास्त्रीय ग्रंथ। रामचंद्र शर्मा तथा जगबन्धु तर्कवागीश द्वारा इस पर लिखी हुई टीका उपलब्ध है। [2] ले. कविचन्द्र। ई. 17 वीं शती। काव्य तथा नाट्यशास्त्र विषयक ग्रंथ। [3] ले. अन्नदाचरण तर्कचूडामणि। ई. 20 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र। काव्यचिन्ता - ले. म.म. कालीपद तर्काचार्य। विषय- काव्य शास्त्र। काव्यचूडामणि - ले. शाङ्गधर पुसदेकर । ई. 16 वीं शती। काव्यजीवनम् - ले.प्रीतिकर । विषय- काव्यशास्त्र । काव्यतत्त्वसमीक्षा - ले.नरेन्द्रनाथ चौधरी । ई. 20 वीं शती । काव्यतत्त्वावली- ले. महेशचन्द्र तर्कचूडामणि । ई. 20 वीं शती। काव्यदीपिका - ले. कान्तचन्द्र मुखोपाध्याय। ई. 20 वीं शती। काव्यशास्त्रीय ग्रंथ।। काव्यनाटकादर्श - संस्कृत और मराठी में इस मासिक पत्र का प्रकाशन धारवाड से सन 1882 में किया गया। इसमें संस्कृत के काव्य एवं नाटक ग्रंथों का सटीक प्रकाशन हुआ है। काव्यपरीक्षा - ले. श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य। ई. 16 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र। उल्लाससंख्या पांच । काव्यपेटिका - ले. महेशचन्द्र तर्कचूडामणि। गीतों का संग्रह । लेखकद्वारा प्रकाशित । ई. 20 वीं शती । काव्यप्रकाश - काव्यशास्त्र का एक सर्वमान्य ग्रंथ। ले. आचार्य मम्मट । काश्मीर निवासी। पिता- राजानक जैय्यट । यह ग्रंथ 10 उल्लासों में विभक्त है और इसके 3 विभाग हैं। कारिका, वृत्ति व उदाहरण। कारिका व वृत्ति के रचयिता के संबंध में मतभेद हैं और उदाहरण विविध ग्रंथों से लिये गए हैं। इसके प्रथम उल्लास में काव्य के हेतु, प्रयोजन, लक्षण भेद (उत्तम, मध्यम व अवरकाव्य) का वर्णन है। द्वितीय उल्लास में शब्दशक्तियों का एवं तृतीय उल्लास में व्यंजना का वर्णन है। चतुर्थ उल्लास में उत्तम काव्य (ध्वनि) के भेद व रस का चर्चात्मक निरूपण है। पंचम उल्लास में गुणीभूतव्यंग (मध्यम काव्य) का स्वरूप, भेद व व्यंजना के विरोधी तों का निरास एवं इसकी स्थापना है। षष्ठ उल्लास में अधम या चित्रकाव्य के दो भेदों (शब्दचित्र व अर्थवाक्य चित्र) का वर्णन है। सप्तम उल्लास में 70 प्रकार के काव्य दोष वर्णित हैं। इस विवेचन में प्रख्यात महाकवियों के भी दोष दिखाए हैं। अष्टम उल्लास में गुणविवेचन व नवम उल्लास में शब्दालंकारों (वक्रोत्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष, चित्र व पुनरुक्तवदाभास इत्यादि) का विवरण है। दशम उल्लास में 60 अर्थालंकारों, 2 मिश्रालंकारों (संकर व संसुष्टि) एवं अलंकार दोषों का विवेचन है। मम्मट द्वारा वर्णित अर्थालंकार हैं : उपमा, अनन्वय,उपमेयोपमा, उत्प्रेक्षा, संसदेह, रूपक, अपहृति, श्लेष, समासोक्ति, निदर्शना, अप्रस्तुतप्रशंसा, अतिशयोक्ति, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टांत, दीपक, मालादीपक, तुल्ययोगिता, व्यतिरेक, आक्षेप, विभावना, विशेषोक्ति, यथासंख्य, अर्थातरन्यास, विरोध, स्वभावोक्ति, व्याजस्तुति, सहोक्ति, विनोक्ति, परिवृत्ति, भाविक, काव्यलिंग, पर्यायोक्त, उदात्त, समुच्चय, पर्याय, अनुमान परिकर (यह मत अब सर्वमान्य हुआ है कि मम्मट की रचना परिकर अलंकार तक ही है। अल्लट ने यह प्रबंध परिकर के आगे पूर्ण किया) व्याजोक्ति, परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य, उत्तर, सूक्ष्म, सार,समाधि, असंगति , सम, विषम, अधिक, प्रत्यनीक, मीलित, एकावली, स्मरण, भ्रांतिमान्, प्रतीप, सामान्य, विशेष तद्गुण, अतद्गुण व व्याघात। इन 60 अलंकारों के विविध भेद भी यथास्थान बताए हैं। प्रस्तुत ग्रंथ (काव्यप्रकाश) में शताब्दियों से प्रवाहित काव्यशास्त्रीय विचारधारा का सार-संग्रह किया गया है और अपनी गंभीर शैली के कारण यह ग्रंथ शांकरभाष्य एवं पातजंल महाभाष्य की भांति साहित्य-शास्त्र के क्षेत्र में महनीय बन गया है। इसी महत्ता के कारण इस ग्रंथ पर लगभग 75 टीकाएं लिखी गई है। इसकी सर्वाधिक प्राचीन टीका माणिक्यचन्द्र कृत "संकेत" है जिसका समय 1160 ई. है। आधुनिक युग के प्रसिद्ध टीकाकार वामनशास्त्री झलकीकर ने अपनी बालबोधिनी नामक प्रसिद्ध टीका में (ई. 1847) 47 टीकाकारों के संदर्भ सर्वत्र दिए हैं। काव्यप्रकाश की प्रमुख टीका तथा टीकाकार- (1) माणिक्यचन्द्र (ई. 1159)- संकेत 2) सरस्वतीतीर्थ (नरहरिआश्रमपूर्वनाम) टीका इ.स. 1242 में काशी में लिखी, 3) जयन्तभट्ट (जयन्ती) इ.स. 1264 4) श्रीवत्सलांछन (श्रीवत्स) 16 वीं शती "सारबोधिनी" 5) सोमेश्वर 14 वीं शती 6) विश्वनाथ 14 वीं शती, साहित्यदर्पणकार, 7) चण्डीदास (विश्वनाथ के पितामह का भाई, इसकी ध्वनिसिद्धान्तग्रंथ नामक रचना भी है) 8) परमानन्द तार्किकचक्रवर्ती, 15 वीं शती "साहित्यदीपिका" 9) महेश्वर न्यायालंकार 16 वीं शती। "सुबुद्धि" उत्तरार्ध टीका आदर्श 10) आनन्द राजानक- टीका निदर्शन, ई. 1765। (इसके अनुसार काव्यप्रकाश का गूढार्भ शिवस्तुति है)। 11) कमलाकर, काशीनिवासी महाराष्ट्र ब्राह्मण। काव्यप्रकाश टीका के व्यतिरिक्त इसकी अन्य रचनाएं संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /65 For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवादताण्डव, निर्णयसिन्धु (ई. 1612 में लिखित) बृहत्काव्य के निवासी। सन 1797 में रचित। इसका प्रकाशन काव्यमाला रामकौतुक तथा गीतगोविन्द टीका। 12) नरसिंह ठाकुर, गोविन्द ___ में हुआ है। का वंशज, कमलाकर का समकालीन तर्कशास्त्रज्ञ, 13) बैद्यनाथ काव्यमंजरी - न्यायवागीश भट्टाचार्य। अप्पय दीक्षित के "उदाहरणचन्द्रिका (उदाहरणों की टीका ई. 1684)। अन्य "कुवलयानन्द" पर टीका। ई. 18 वीं शती। टीकाएं- काव्यप्रदीपप्रभा, 14) भीमसेन, शिवानन्द पुत्र, शाण्डिल्य काव्यमीमांसा - ले. राजशेखर । आज उपलब्ध काव्यमीमांसा गोत्रीय कान्यकुब्ज, वैयाकरण) टीका "सुधासागर" (इ.स. 18 अध्यायों में है, जो केवल एक अधिकरण के भाग हैं। 1723) इसके अनुसार मम्मट, कैय्यट, और उव्वट भाई थे। इस अधिकरण की संज्ञा "कविरहस्य है। ऐसे अन्य अधिकरण इसी के "अलंकारसारोद्धार" में कुवलयानन्द का खण्डन करते हैं किन्तु वे उपलब्ध नहीं हैं। यदि वे भी उपलब्ध होते हैं हुए मम्मट पर किए आरोपों का खण्डन तथा मतमण्डन किया तो राजशेखर की असाधारण प्रतिभा का महत्त्व अवश्य ही है। 15) नागोजी भट्ट (महाराष्ट्र ब्राह्मण, शिवदत्त पुत्र, भट्टोजी प्रकट हो सकता है। अधिकरण अध्याय आदि के रूप में दीक्षित का पोता, शृंगवेरपुर के राजारामसिंह की सभा का ग्रंथपद्धति शास्त्रीय है। वेदान्त मीमांसा आदि सूत्रग्रंथों की सदस्य, 18 वीं शती।) 16) राजानक रत्नकण्ठ, टीका- रचना इसी प्रकार से हुई है किन्तु वहा पर अधिकरणों का "सारसमुच्चय" जयन्ती आदि पूर्व की टीकाओं का परामर्श एक एक स्वतंत्र ढांचा है, जिसका स्वरूप, विषय, सन्देह, इस टीका में है। 17 वीं शती (उत्तरार्थ) यह काश्मीर-निवासी पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, तथा संगति रूप से पंचांग वाला होकर, और हस्ताक्षरप्रवीण थे। 17) गोपीनाथ। 18) चण्डीदास 19) प्रत्येक अध्याय के पादों के अन्तर्गत उनकी रचना की गई जनार्दन व्यास 20) देवनाथ तर्कपंचानन 21) जगन्नाथ, 22) है। किन्तु काव्यमीमांसा के अधिकरण अनेक अध्यायों में बटे नारायण बलदेव 23) रत्नपाणिपुत्र रवि, 27) रामकृष्ण, 28) हैं तथा अधिकरण के विषय की चर्चा भी उपरोक्त पूर्वोत्तरपक्षात्मक रामनाथ विद्यावाचस्पति 29) लौहित्यगोपाल भट्ट 30) निश्चित पद्धति से नहीं की गई है। विद्याचक्रवर्ती 31) वेदान्ताचलसूरि 32) वैद्यनाथ 33) शिवराम प्रथम अध्याय "शास्त्र संग्रह में काव्यमीमांसा का आरंभ 34) श्रीधर सांधिविग्राहिक 35) शिवनारायण 36) जयराम शिष्य परम्परा, विषयविभाग आदि. का वर्णन तथा प्रस्तुत ग्रंथ पंचानन 37) वेदान्ताचार्य 38) यज्ञेश्वर 39) जयद्रथ 40) की रूपरेखा का प्रदर्शन किया गया है। इस शास्त्र का प्रमुख साहित्यचक्रवर्ती 41) रुचिनाथ 42) शिवदत्त 43) भानुचन्द्र विषय शब्द एवं अर्थ की मीमांसा ही रहा है। अध्याय 2 44) गदाधर चक्रवर्ती 45) गोकुलनाथ, 46) गोपीनाथ 47) "शास्त्रनिर्देश" में वाङ्मय का शास्त्र और काव्य में विभाग गुणरथगणि 48) कलाधर 49) कल्याणउपाध्याय 50) कृष्ण करके कवि के लिए शास्त्राध्ययन की आवश्यकता बतलाई द्विवेदी 51) कृष्णशर्मा 52) कृष्णमित्राचार्य 53) जगदीश गयी है। वेद वेदाङ्ग तथा अन्य शास्त्रों का विस्तार से तर्कालंकार 54) नागराज केशव 55) नरसिंह देव 60) रत्नेश्वर निरूपण करते समय वैदिक मन्त्रों के अर्थज्ञान में शिक्षादि 61) रामानन्द 62) रामचन्द्र 63) रामकृष्ण 64) रामनाथ प्रसिद्ध वेदाङ्गों के समान अलंकार शास्त्र का ज्ञान भी 65) विद्यावाचस्पति 66) शिवनारायण 67) विद्यासागर 68) आवश्यक होता है यह बात राजशेखर की सूक्ष्मदर्शिता का वेंकटाचलसूरी 69) विद्यानन्द 70) यज्ञेश्वर 71) संजीवनी पता देती है। आगामी साहित्य शास्त्रियों ने अलंकारशास्त्र की टीका, 72) नागेश्वरी टीका 73) राघव की वृत्ति (अपूर्ण, इस विशेषता की ओर ध्यान नहीं दिया। आगे चलकर इसी सातवें उल्लास के मध्य तक) नाम अवचूरि 74) महेशचन्द्र प्रकरण में 4 वेद 6 अंग तथा 4 शास्त्रों को विद्यास्थान मान टीकाकार, कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के प्राध्यापक ई. 1882 । कर आन्वीक्षिकी, त्रयी वार्ता एवं दण्डनीति के साथ साथ 75) नरसिंह की “ऋजुवृत्ति" केवल कारिकाओं की है, 76) साहित्य विद्या को "पंचमी विद्या" राजशेखर ने माना है। इस काव्यामृततरंगिणी, मम्मट मत के खण्डनार्थ टीका- ले.-अज्ञात सम्पूर्ण शास्त्रीय वाङ्मय की पृष्ठभूमि में राजशेखर का "कवि" इत्यादि। प्रस्तुत "काव्यप्रकाश" के अंग्रेजी में तथा अन्य एक महान् व्यक्तित्व धारण करते हुए प्रकट होता है। वह भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी में इसकी प्राचीन ऋषि महर्षियों से कुछ मात्रा में अधिक ही है। 3 व्याख्याएं व अनुवाद हैं। "रीतिकाल" में इसके अनेक ___ 3 रे अध्याय "काव्यपुरुषोत्तम" में सारस्वत काव्यपुरुष के हिन्दी पद्यानुवाद हुए हैं और इसके आधार पर कई आचार्यों ने "रीतिग्रंथों' की रचना की है। इस ग्रंथ के प्रति पंडितों जन्म आदि की कथा दी गई है। बाण के हर्षचरित में वर्णित "सारस्वत" की जन्मकथा का इस पर प्रभाव दिखलाई देता का प्रेम अभी भी बना हुआ है। है। (अथवा इन दोनों पर किसी अन्य कथा का प्रभाव पडा काव्यप्रकाशतिलक - ले. जयराम न्यायपंचानन । होगा)। इस काव्यपुरुष की अवयव-कल्पना में पद्य, शब्द, काव्यप्रयोगविधि - ले. मुडुम्बी नरसिंहाचार्य । अर्थ, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाच, मिश्र, औदार्य, माधुर्य, काव्यभूषणशतकम् - ले.श्रीकृष्णवल्लभ चक्रवर्ती। ग्वालियर ओज, छन्द अनुप्रास, उपमा आदि के साथ साथ "रस आत्मा" 66 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ट For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org का जो उल्लेख है वह महत्त्व का है। काव्यपुरुष की कथा में भारतीय देशभाषा वेशविहार आदि का तथा मानवी स्वभाव की विशेषताओं का सूक्ष्म परिचय प्राप्त होता है । इस प्रकरण के अन्त में राजशेखर ने प्रवृत्ति, वृत्ति और रीति का स्वरूप बतलाया है। प्रवृत्ति को "वेषविन्यासक्रम ", वृत्ति को "विलासविन्यासक्रम तथा रीति को वचनविन्यास क्रम" कहा है। भविष्य के आलंकारिकों ने प्रवृत्ति के इस सूक्ष्म भेद की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया है। इन दोनों का अन्तर्भाव कैशिक्यादि नाट्य वृत्तियों में ही कर दिया है। चतुर्थ अध्याय शिष्यप्रतिभा में राजशेखरने मनोवैज्ञानिक पद्धति से आहार्य बुद्धि का तथा स्मृति, मति, प्रज्ञा, बुद्धियों का विवेचन किया है। इनमें से काव्य हेतु कौन सी बुद्धि होती है इसकी चर्चा मतान्तरों के उल्लेख के साथ चलायी है। श्यामदेव के अनुसार मानसिक एकाग्रतारूप समाधि और मंगल के अनुसार सतत परिशीलनात्मक अभ्यास, कवित्व का कारण है। किन्तु राजशेखर अपनी पैनी दृष्टि से समाधि को आन्तर तथ्य और अभ्यास को बाह्य प्रयत्न स्वरूप कारण बतला कर उन्हें शक्ति का उद्भासन मानते है। यह शक्ति ही केवल काव्य के हेतु में है, तथा वह व्युत्पत्ति तथा प्रतिभा से स्वतंत्र है। यह प्रतिभा - कारयित्री एवं भावयित्री - दो प्रकार की है। प्रथम कवि पर उपकार करती है, और दूसरी भावक (रसिक) पर उपकार करने वाली है। कारयित्री प्रतिभा के सहजा, आहार्या, औपदेशी आदि तीन भेद होते हैं । इस प्रकार की विभिन्न प्रतिभाओं से सम्पन्न व्यक्ति कम अधिक परिश्रम से कवि बन जाता है। इनके नाम सारस्वत, आभ्यासिक और औपदेशिक होते हैं । एक मत के अनुसार इनमें से प्रथम दोनों को तंत्रसेवन की आवश्यकता नहीं है। स्वाभाविक मधुरता वाली द्राक्षा को पकाने का आवश्यकता नहीं होती। किन्तु राजशेखर "उत्कर्षः श्रेयान्" कह कर सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं । कवि के पास यदि भावयित्री प्रतिभा हो तो वह सफल कवि होता है किन्तु राजशेखर कवित्व और भावकत्व में भेद मान कर भावकों के (आलोचकों के) अरोचकी, सतॄणाभ्यवहारी, मत्सरी और तत्त्वभिनिवेशी नामक चार भेद मानते हैं। वामन ने केवल प्रथम दो भेद माने हैं। इस प्रकार कवित्व और भावकत्व के विभिन्न वर्ग राजशेखर की साहित्यशास्त्र को निश्चित ही एक बडी देन है । कवि के साथ साथ भावकत्व का भी विचार करने वाले सर्वप्रथम आलंकारिक राजशेखर ही हैं। पंचम अध्याय - " व्युत्पत्तिविपाक " है। इस अध्याय में व्युत्पत्ति का अर्थ बहुशता न मानते हुए राजशेखर ने "उचितानुचितविवेक" माना है तथा प्रतिभा और व्युत्पत्ति में तरतमभाव करने वाले आनन्दवर्धन एवं मंगल के मत का स्वीकार न करते हुए उन्होंने समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । उनका अभिप्राय है कि यद्यपि अव्युत्पत्ति का दोष प्रतिभा से तथा अशक्ति का दोष व्युत्पत्ति से दबाया जा सकता है तथापि कवि के लिये "प्रतिभाव्युत्पत्ती मिथः समवेते श्रवस्या" इनके अनुसार महान् सौंदर्य की प्राप्ति लावण्य और रूपसम्पात्ति दोनों से होती है। केवल एक से नहीं। यही समन्वयात्मक दृष्टि राजशेखर 1) शास्त्रकवि 2) काव्यकवि और 3) उभयकवि की भिन्नता में प्रकट करते हैं। इसी अध्याय में "पाक" शब्द की चर्चा में मतमतान्तरों उल्लेख आया है। अध्याय छठा पवाक्यविवेक है जिसमें व्याकरण की दृष्टि से विशद विवेचन आया है। कवि को इस विषय की जानकारी रखना आवश्यक है। राजशेखर ने इस काव्यलक्षण की चर्चा न करते हुए कवि ने "वाग्योगविद्" होना चाहिये यह बात विशेष रूप से स्पष्ट की है। अध्याय सप्तम में देवता, ऋषि, पिशाचादि किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं यह उदाहरणों के साथ बतलाया है। काव्यकर्ता को इस ज्ञान का बहुत उपयोग हो सकता है, यह तथ्य राजशेखर ने स्पष्ट कर दिया है। वैदर्भी आदि तीन प्रकार की रीतियों से कहा जाने वाला वाक्य "काकु" के कारण अनेक प्रकार का होता है। राजशेखर काकु को शब्दालंकार न मान कर अभिप्रायवान् पाठधर्म मानते हैं। आगे राजशेखर काकु के विविध भेद उदाहरणों के साथ दर्शाते हैं । इस काकु का प्रसार काव्य में सर्वत्र है । काव्य करना कदाचित् सरल है किन्तु "काव्यपाठ किस प्रकार चाहिये तथा विभिन्न देशवासी किस पद्धति से पाठ करते हैं आदि का विवेचन भी किया है। पाठ का महत्त्व जिस प्रकार राजशेखर ने इस अध्याय में प्रतिपादन किया है वैसा अन्य किसी अलंकारशास्त्री ने नहीं किया है । अध्याय अष्टम, "काव्यार्थयोनी" नामक है। काव्य के आधारभूत श्रुति स्मृति आदि सोलह स्थान राजशेखर ने माने हैं । श्रुत्यादि का उदाहरण लेकर उस पर बने काव्य का भी उदाहरण दिया है। इस प्रकरण के लिये राजशेखर को अनेक शास्त्रों का अवगाहन करना पड़ा है। विभिन्न कवियों के काव्य भी देखने पड़े हैं। नवम अध्याय " अर्थानुशासन" में कवि के द्वारा निरूपित किये जाने वाले अर्थ राजशेखर के अनुसार सात प्रकार के बतलाए गये है । तथापि काव्य में आने वाला विषय "अविचारित रमणीय" होकर भी वह सरस ही हो, ऐसा अपराजिति का मत व्यक्त करते हुए राजशेखर ने अपना मत पाल्य और अवन्तिसुन्दरी के मत के साथ दिया है, जिसका भाव यह है कि अर्थ तो रस के अनुगुण भी होता है, किन्तु कवि के वाचन से वह सरस भी होता है और नीरस भी। वह वक्ता की सरस, नीरस और उदासीन प्रकृत्ति पर निर्भर रहता है। चतुर कवि की शैली पर वह अवलम्बित रहता है। काव्य में संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 67 For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसवत्ता स्वीकार करने पर भी राजशेखर का यह अर्थविषयक तथा कविविषयक दृष्टिकोण अवश्य ही स्वतंत्र है। इतना सूक्ष्म विचार अन्यत्र नहीं दिखाई देता। दशम अध्याय "कविचर्या एवं राजचर्या' में कौन से विषय काव्य के लिये आवश्यक हैं जिनका उनसे श्रद्धापूर्वक परिशीलन करना चाहिये यह कहा है। उसका आचरण तथा दैनिक चर्या किस प्रकार हो, उसका निवास कैसा हो, आदि विचार किया गया है। कवि के निवास तथा व्यवहार आदि का यह चित्र बडा ही आकर्षक एवं प्रभावशाली है। उसकी लेखनसामग्री में दिवालों तक का अन्तर्भाव है। कवि के काव्य के विषय में समाज में किस प्रकार की अनेक प्रतिक्रियाए होती है, तथा कवि को अपनी मनोवृत्ती किस प्रकार रखनी चाहिये इसका भी बडा ही रोचक वर्णन किया है। स्त्रियां भी कवि हो सकती है। कवित्व आत्मा का संस्कार है। सिद्ध काव्यग्रंथ की रक्षा के उपाय तथा उसकी 5 महापदाएं भी बतलाई है। कवि तया काव्य की सुस्थिती के लिये राजा का क्या कर्तव्य है, इसका भी विचार किया गया है। राजसभा में अन्य कलाविदों के साथ कवि का स्थान भी निश्चित किया है। काव्यपाठ का आयोजन करके कवियों का सत्कार करने को कहा है। अध्याय एकादश से त्रयोदश तक शब्दार्थाहरणोपायों की चर्चा की गई है। इस विषय पर राजशेखर के पूर्ववर्ती भामह उक्तानुवादी का उल्लेख करके तथा प्रायः समकालीन आनंदवर्धन ने काव्यसाम्य का बिम्बचित्र देहवत् मानकर, अपने विचार प्रदर्शित किये है। किन्तु वे संक्षिप्त है। राजशेखर ने शब्दाहरण का तथा अर्धाहरण का विस्तार से निरुपण करने उनके युक्तायुक्तत्व का विवेचन किया है। इससे कवियों को उत्तम मार्गदर्शन हुआ है। चतुदर्श से सोलह अध्यायों तक कवि-समयों का विवेचन आता है। इस विषय की ओर पूर्ववर्ती अलंकार शास्त्रियों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। राजशेखर इनका स्वतंत्र रूप से विचार करते हैं। इन कविसमयों के जातिद्रव्यक्रिया-समय गुणसमय तथा स्वर्गपातालीय कविसमय नामक तीन प्रकार करके उनका सविस्तर परिचय देते हैं। सतरहवें तथा अठारहवें अध्यायों में देशकाल-विभाग का विवेचन आता है। कवि को देश तथा काल का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। अविशेषरूप से देश और संसार एक ही हैं और विशेष विवक्षा से दो, तीन, सात, चौदह, अथवा इकीस संख्या में भी विभक्त हैं, यह मत राजशेखर ने व्यक्त किया है। पश्चात् समस्त भुवनों का उनकी विशेषताओं के साथ वर्णन किया है जिस पर पौराणिकता का प्रभाव पड़ा दिखाई देता है। इन भौगोलिक तत्त्वों की विविध प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रकरण ज्ञानकोष सा बन गया है। राजशेखर अन्त में कहते हैं "इत्थं देशविभागो मुद्रामात्रेण सूचितः सुधियाम्। यस्तु जिगमिषत्यधिकं पश्यतु मद्भुवनकोषमसौ।।" किन्तु यह "भुवनकोष" अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। देशविभाग के पश्चात् काष्ठा, निमेष, मुहूर्त आदि के रूप मे कालविभाग भी किया है। ऋतुओं के वर्णन के साथ ही उस समय बहने वाली वायुओं का वर्णन किया है। विभिन्न ऋतुओं में फलने फुलने वाली वनस्पतियों का तथा पशुपक्षियों की अवस्था का वर्णन किया है। उपलब्ध काव्यमीमांसा ग्रंथ इसी अध्याय में समाप्त होता है। काव्यमीमांसा पर पं. मधुसूदन शास्त्री ने मधुसूदनी नामक विवृति लिखी है जो चौखम्बा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त नारायण शास्त्री खिस्ते (वाराणसी) कृत टीका और दो हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हैं। काव्यरत्नम् - ले. विश्वेश्वर पाण्डे । काव्यरत्नाकर - ले. वेचाराम न्यायालंकार। ई. 18 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र। काव्यरत्नावली - ले. रामनाथ विद्यावाचस्पति । ई. 17 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र । काव्यरसायनम् - ले.समसन्दर्भ। काव्यलीला - ले. विश्वेश्वर पाण्डे । काव्यवाटिका - ले. विद्याधर शास्त्री। काव्यविलास - (1) ले. चिरंजीव शर्मा। (श. 18) भानुदत्त द्वारा प्रतिपादित "भाषा" रस का तथा वैष्णव कवियों द्वारा प्रणीत रसों का खण्डन । “चमत्कृति" तत्त्व को प्राधान्य दिया है। [2] (अपरनाम वृत्तरत्नावली) ले. रामदेव चिरंजीव। काव्यसंग्रह - ले. जीवानन्द विद्यासागर (शती 18) लेखक की संस्कृत पद्य रचनाएं सन 1847 में कलकत्ता से प्रकाशित हुईं। काव्यसत्यालोक - ले. डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के निदेशक। अजमेर के निवासी। यह ग्रंथ पाच उद्योतों में विभक्त हैं। उनके नाम हैं : सत्यनिरूपण, धर्मसूक्ष्मताधान, व्यापारयोग, भावयोग तथा काव्यलक्षणादिविवेचन। कुल कारिकाओंकी संख्या है- 701 संस्कृत के साहित्यशास्त्र को युगचेतना के स्तर तक लाकर पाश्यात्य साहित्यशास्त्र की आधुनिक धारा का उसमें विलय करने के उद्देश्य से डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा ने यह रचना की है। काव्यसत्यालोक हिंदी अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ है। वाराणसी के डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने काव्यालंकारकारिका नामक ग्रंथ में साहित्य विषयक नवीन भावानाएं प्रकट करने का प्रयास किया है। काव्यसूत्रवृत्ति - ले. मुडुंबी नरसिंहाचार्य। काव्यसूत्रसंहिता - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। वाराणसी के प्रा. लेले के मराठी भाष्य सहित प्रकाशित। प्रकाशक - विश्वसंत साहित्य प्रतिष्ठान, नागपुर-१। काव्यात्मसंशोधनम् - ले. म.म.मानवल्ली गंगाधरशास्त्री। 68 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाराणसी निवासी । विषय-अर्वाचीन पद्धति से काव्यतत्त्व की चर्चा। काव्यादर्श - ले. आचार्य दंडी। ई. 7 वीं शती। अलंकारसंप्रदाय व रीति संप्रदाय का यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें कुल मिला कर 660 श्लोक हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्यलक्षण, काव्यभेद गद्य पद्य मिश्र, आख्यायिका व कथा, वैदर्भी व गौडी मार्ग, दस गुणों का विवेचन, अनुप्रास- वर्णन तथा कवि के 3 गुण- प्रतिभा, श्रुति व अभियोग का निरूपण है। द्वितीय परिच्छेद में अलंकारों के लक्षण उदाहरणसहित प्रस्तुत किये गये हैं। वर्णित अलंकार हैं : स्वभावोक्ति, उपमा, रूपक, दीपक आवृत्ति, आक्षेप, अर्थातरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, । उत्प्रेक्षा, हेतु, सूक्ष्म, लेश, यथासंख्य, प्रेयान्, रसवत्, ऊर्जस्वि, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, अपहृति, श्लेष, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजोक्ति, निदर्शना, सहोक्ति, परिवृत्ति आशीः संकीर्ण व भाविक। तृतीय परिच्छेद में यमक व उसके 315 प्रकारों का निर्देश, चित्रबंध गोमूत्रिका, सर्वतोभद्र व वर्ण-नियम, 16 प्रकार की प्रहेलिका व 10 प्रकार के दोषों का विवेचन है। ___काव्यादर्श पर दो प्रसिद्ध प्राचीन टीकाएं हैं। प्रथम टीका के लेखक हैं तरुण वाचस्पति, तथा द्वितीय टीका का नाम "हृदयंगमा' है जो किसी अज्ञात लेखक की कृति है। मद्रास से प्रकाशित प्रो. रंगाचार्य के (1910 ई.) संस्करण में काव्यादर्श के 4 परिच्छेद मिलते हैं। इसमें तृतीय परिच्छेद के ही दो विभाग कर दिये गये हैं। इसके चतुर्थ परिच्छेद में दोष विवेचन है। काव्यादर्श के 3 हिन्दी अनुवाद हुए हैं। ब्रजरत्नदासकृत हिन्दी अनुवाद, रामचंद्र मिश्र कृत हिन्दी व संस्कृत टीका और श्री रणवीरसिंह का हिन्दी अनुवाद। इस पर रचित अन्य अनेक टीकाओं के भी विवरण प्राप्त होते हैं : 1) मार्जन टीकाटीकाकार म.म. हरिनाथ। 2) काव्यतत्त्वविवेककौमुदी ले.कृष्णकिंकर तर्कवागीश। 3) "श्रुतानुपालिनी" टीका, लेखकवादिघंघालदेव। 4) "वैमल्यविधायिनी' टीका- प्रणेता जगन्नाथ - पुत्र मल्लिनाथ। 5) विजयानंदकृत व्याख्या 6) यामुनकृत व्याख्या 7) रत्नश्री संज्ञक टीका, इसके लेखक रत्नज्ञान नामक एक लंकानिवासी विद्वान थे। यह टीका मिथिला रिसर्च इन्स्टीट्यूट, दरभंगा से अनंतलाल ठाकुर द्वारा 1957 ई. में संपादित व प्रकाशित हो चुकी है। 8) बोथलिंक द्वारा जर्मन अनुवाद, 1890 ई. में प्रकाशित। 9) एस.के. बेलवलकर और एन.बी. रेड्डी 10) प्रेमचंद्र 11) जीवानन्द 12) विश्वेश्वर पुत्र हरिनाथ, 13) नरसिंह भागीरथ-विजयानन्द 18) विश्वनाथ 14) त्रिभुवनचंद्र 15) त्रिसरनत भीम, 16) कृष्णकिंकर तर्कवागीश कृत काव्यादर्शविवृति । 17) जगन्नाथपुत्र मल्लिनाथ । काव्यानुशासनम् - ले. वाग्भट (द्वितीय) है। अपने इस सूत्रमय ग्रंथ पर स्वयं वाग्भट ने ही "अलंकार-तिल वृत्ति लिखी है। प्रस्तुत ग्रंथ 5 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में काव्य के प्रयोजन, हेतु, कविसमय एवं काव्यभेदों का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में 16 प्रकार के पददोष, 14 प्रकार के काव्य एवं अर्थ दोष वर्णित हैं। तृतीय अध्याय में 63 अर्थालंकार तथा चतुर्थ में 6 शब्दालंकारों का विवेचन है। पंचम अध्याय में 9 रस, नायक-नायिका-भेद और उनके प्रेम की 10 अवस्थाओं तथा दोषों का वर्णन है। काव्याम्बुधि - सन 1793 में पद्मराज पंडित के सम्पादकत्व में वेंगूल नगर से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। काव्यालंकार - ले. भामह । काव्यशास्त्र का स्वतंत्र रूप से विचार करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। यह ग्रंथ 6 परिच्छेदों में विभक्त है। श्लोकों की संख्या 400 के लगभग है। इसमें काव्य-शरीर, अलंकार, दोष, न्याय-निर्णय और शब्द-शुद्धि इन 5 विषयों का वर्णन है। प्रथम परिच्छेद में काव्यप्रयोजन, कवित्व-प्रशंसा, प्रतिभा का स्वरूप, कवि ने ज्ञातव्य विषय, काव्य का स्वरूप तथा भेद, काव्य-दोष एवं दोष-परिहार का वर्णन है। इसमें 59 श्लोक हैं। द्वितीय परिच्छेद में गुण शब्दालंकार व अर्थालंकार का विवेचन है। तृतीय परिच्छेद में भी अर्थालंकार निरूपित हैं और चतुर्थ परिच्छेद में व्याकरण विषयक अशुद्धियों का वर्णन है। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद आ.देवेन्द्रनाथ शर्मा ने किया है जो राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना के द्वारा प्रकाशित है। काव्यालंकार - ले. रुद्रट। काश्मीरवासी। यह ग्रंथ 16 अध्यायों में विभक्त है। इनमें 495 कारिकाएं व 253 उदाहरण हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु व कवि-महिमा का वर्णन है। द्वितीय अध्याय के विषय हैं : काव्यलक्षण, शब्द-प्रकार (5 प्रकार के शब्द) वृत्ति के आधारपर त्रिविध रीतियां, वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष व चित्रालंकार का निरूपण, वैदर्भी, पांचाली, लाटी व गौडी रीतियों का वर्णन, काव्य में प्रयुक्त 6 भाषाएं, प्राकृत, संस्कृत, मागध, पैशाची, शौरसेनी व अपभ्रंश। अनुप्रास की 5 वृत्तियांमधुरा, ललिता, प्रौढ, पुरुषा व भद्रा का विवेचन। तृतीय अध्याय में यमक का विवेचन 58 श्लोकों में किया गया है। चतुर्थ व पंचम अध्याय में क्रमशः श्लेष और चित्रालंकार का वर्णन है। षष्ठ अध्याय में दोषनिरूपण है। सप्तम अध्याय में अर्थ का लक्षण, वाचक शब्द के भेद व 23 अर्थालंकारों का विवेचन है। विवेचित अलंकारों के नाम इस प्रकार हैं: सहोक्ति, समुच्चय, जाति, यथासंख्य, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, दीपक, परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु कारणमाला, व्यतिरेक, अन्योन्य, उत्तर, सार, सूक्ष्म, लेश, अवसर, 'मीलित व एकावली। अष्टम अध्याय में औपम्यमूलक उपमा, उत्प्रेक्षा, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खात 169 For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूपक, अपहृति, समासोक्ति, संशय, सम, उत्तर, अन्योक्ति, प्रतीप, अर्थातरन्यास, उभयन्यास, भ्रांतिमान्, आक्षेप, प्रत्यनीक, दृष्टान्त, पूर्व, सहोक्ति, समुच्चय, साम्य व स्मरण इन 21 अलंकारों का विवेचन है। नवम अध्याय में अतिशयगत 12 अलंकारों का वर्णन है। अलंकारों के नाम हैं- पूर्व, विशेष, उत्प्रेक्षा, विभाव, तद्गुण, अधिक, विशेष, विषम, असंगति, पिहित, व्याघात व अहेतु। दशम अध्याय में अर्थश्लेष का विस्तृत वर्णन है तथा उसके 10 भेद वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं : अविशेषश्लेष, विरोधश्लेष, अधिकश्लेष, वक्रश्लेष, व्याजश्लेष, उक्तिश्लेष, असंभवश्लेष, अवयवश्लेष, तत्त्वश्लेष, । व विरोधाभासश्लेष। एकादश अध्याय में अर्थदोष वर्णित हैं। अपहेतु, अप्रतीत, निरागम, असंबद्ध, ग्राम्य इत्यादि। द्वादश अध्याय में काव्य-प्रयोजन, रस, नायक-नायिका -भेद, नायक के 4 प्रकार तथा अगम्य नारियों का विवेचन है। त्रयोदश अध्याय में संयोग श्रृंगार, देशकालानुसार नायिका की विभिन्न चेष्टाएं, नवोढा का स्वरूप व नायक की शिक्षा वर्णित है। चतुर्दश अध्याय में विप्रलंभ श्रृंगार के प्रकार, मदन की 10 दशाएं, अनुराग, मान, प्रवास करुण, श्रृंगाराभास व रीतिप्रयोग के नियम वर्णित हैं। पंचदश अध्याय में वीर, करुण, बीभत्स, भयानक, अद्भुत, हास्य, रौद्र, शांत व प्रेयान तथा रीतिनियम वर्णित हैं। षोडश अध्याय में वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है- चतुवर्गफलदायक काव्य की उपयोगिता, प्रबंधकाव्य के भेद, महाकाव्य, महाकथा, आख्यायिका, लघुकाव्य तथा कतिपय निषिद्ध प्रसंग प्रस्तुत ग्रंथ की एकमात्र टीका नमिसाधु की प्राप्त होती है। वल्लभदेव और आशाधर की टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं। संप्रति इसकी दो हिन्दी व्याख्याएं उपलब्ध हैं 1) डॉ. सत्यदेव चौधरी कृत 2) रामदेव शुक्ल कृत। काव्यालंकार-सारसंग्रह- ले. उद्भट , जो काश्मीरनरेश जयापीड के सभापंडित थे। समय ई. 8-9 शती। अलंकार विषयक इस ग्रंथ में 6 वर्ग, 79 कारिकाएं एवं 41 अलंकारों का विवेचन है। इसमें उद्भट ने अपने “कुमारसंभव" नामक काव्य ग्रंथ के 100 श्लोक उदाहरण स्वरूप उपस्थित किये हैं। उद्भट के अलंकार निरूपण पर भामह का अत्यधिक प्रभाव है। उन्होंने अनेक अलंकारों के लक्षण भामह से ही ग्रहण किये हैं। उद्भट, भामह की भांति अलंकारवादी आचार्य हैं। इन्होंने भामह द्वारा विवेचित 39 अलंकारों में से यमक, उत्प्रेक्षावयव एवं उपमारूपक को स्वीकार नहीं किया। इन्होंने पुनरुक्तवदाभास, संकर, काव्यलिंग व दृष्टांत इन 4 नवीन अलंकारों की उद्भावना की है। प्रस्तुत ग्रंथ में रूपक के तीन प्रकार तथा अनुप्रास के 4 भेद बताये गये हैं, जब कि भामह ने रूपक व अनुप्रास के 2-2 भेद किये थे। इसी प्रकार ग्रंथ में परुषा, ग्राम्या एवं उपनागरिका वृत्तियों का वर्णन किया गया। भामह ने इनका उल्लेख नहीं किया। प्रस्तुत ग्रंथ में विवेचित 41 अलंकारों के 6 वर्ग किये गये हैं। श्लेषालंकार के संबंध में इसमें नवीन व्यवस्था यह दी है कि जहां श्लेष अन्य अलंकारों के साथ होगा, वहां उसकी ही प्रधानता होगी। इस ग्रंथ पर दो टीकाएं हैं- 1) प्रतिहारेंदुराज कृत लघुविवृत्ति या लघुवृत्ति 2) राजानक तिलक कृत उद्भटविवेक। काव्यालङ्कारसंग्रह - ले. मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य। काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति - ले. आचार्य वामन। इस ग्रंथ का विभाजन 5 अधिकरणों के अंतर्गत 12 अध्यायों में हुआ है जिनके नाम हैं- शरीर, दोषदर्शन, गुणविवेचन, आलंकारिक व प्रायोगिक। संपूर्ण ग्रंथ में सूत्रसंख्या 319 है। इस पर ग्रंथकार वामन ने स्वयं वृत्ति की भी रचना की है। साहित्य शास्त्र का यह सूत्रबद्ध प्रथम ग्रंथ है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अधिकरण के विषय : काव्य-लक्षण, काव्य व अलंकार, काव्य के प्रयोजन (प्रथम अध्याय में) काव्य के अधिकारी, कवियों के दो प्रकार, कवि व भावक का संबंध। (रीति को काव्य की आत्मा कहा गया है।) रीतिसंप्रदाय का यह प्रवर्तक ग्रंथ है। रीति के तीन प्रकार - वैदर्भी, गौडी व पांचाली। रीति -विवेचन (द्वितीय अध्याय) काव्य के अंग, काव्य के भेद- गद्य व पद्य। गद्य काव्य के तीन प्रकार । पद्य काव्य के भेद प्रबंध व मुक्तक। आख्यायिका के तीन प्रकार। तृतीय अध्याय । द्वितीय अधिकरण में दो अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में दोष की परिभाषा, 5 प्रकार के पद दोष, 5 प्रकार के पदार्थदोष, 3 प्रकार के वाक्यदोष, विसंधि-दोष के 3 प्रकार व 7 प्रकार के वाक्यार्थदोषों का विवेचन है। द्वितीय अध्याय में गुण व अलंकार का पार्थक्य तथा 10 प्रकार के शब्दगुण वर्णित हैं। चतुर्थ अधिकरण में मुख्यतः अलंकारों का वर्णन है। इसमें 3 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में शब्दालंकार - यमक व अनुप्रास का निरूपण एवं द्वितीय अध्याय में उपमा विचार है। तृतीय अध्याय में प्रतिवस्तूपमा, समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, अपहृति, श्लेष, वक्रोक्ति, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, संदेह, विरोध, विभावना, अनन्वय, उपमेयोपमा, परिवृत्ति, व्यर्थ, दीपक, निदर्शना, तुल्ययोगिता, आक्षेप, सहोक्ति, समाहित, संसृष्टि, उपमारूपक एवं उत्प्रेक्षावयव नामक अलंकारों का शब्दशुद्धि व वैयाकरणिक प्रयोग पर विचार किया गया है। इस प्रकरण का संबंध काव्यशास्त्र से न होकर व्याकरण से है। इस ग्रंथ पर गोपेन्द्र तिम्म भूपाल (त्रिपुरहर) की कामधेनु टीका के अतिरिक्त सहदेव और महेश्वर कृत टीकाएं भी उपलब्ध हैं। हिन्दी में आचार्य विश्वेश्वर ने भाष्य लिखा है। काव्यालोक - सन 1960 में कायमगंज (उत्तरप्रदेश) से डॉ. हरिदत्त पालीवाल के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाश हुआ। काव्येतिहाससंग्रह - जर्नादन बालाजी मोडक के सम्पादकत्व 70/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में सन 1878 से पुणे में संस्कृत-मराठी में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन होता था। काव्येन्दुप्रकाश - ले. सामराज दीक्षित। मथुरा के निवासी। ई. 17 वीं शती। काव्योपोद्घात - ले. मुडुम्बी नरसिंहाचार्य । विषय- काव्यशास्त्र । काशकृत्स्न धातुपाठ -(शब्दकलाप) पुणे के डेक्कन कॉलेज द्वारा यह ग्रंथ चन्नवीर कृत कनड टीका सहित कत्रड लिपि में प्रकाशित हुआ। इसका रोमन लिपि में भी एक संस्करण प्रकाशित हुआ है। इस धातुपाठ और कन्नड टीका में लगभग 137 काशकृत्स्न सूत्र उपलब्ध हो जाने से व्याकरण शास्त्र के पूर्व इतिहास पर नया प्रकाश पडा है। काशकृत्स्न धातुपाठ के मुखपृष्ठ पर "काशकृत्स्न शब्दकलाप धातुपाठ" नाम निर्दिष्ट होने से "शब्दकलाप" यह काशकृत्स्रीय धातुपाठ का नामांतर माना जाता है। इस धातुपाठ में 9 ही गण हैं। जुहोत्यादि (तृतीय) गण का अदादि (द्वितीय) गण में अन्तर्भाव किया है। प्रायः इस कारण "नवगणी धातुपाठ" यह वाक्प्रचार रूढ हुआ होगा। इस धातुपाठ के प्रत्येक गण में परस्मैपदी, आत्मनेपदी और उभयपदी इस क्रम से धातुओं का संकलन है। पाणिनीय धातुपाठ में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस धातुपाठ के भ्वादि (प्रथम) गण में पाणिनीय धातुपाठ से 450 धातुएं अधिक हैं। इस की लगभग 800 धातुएं पाणिनीय धातुपाठ से उपलब्ध नहीं होती और पाणिनीय धातुपाठ की भी बहुत सी धातुएं काशकृत्स्न धातुपाठ में उपलब्ध नहीं होती। पाणिनि । द्वारा अपठित परंतु लौकिक एवं वैदिक भाषा में उपलब्ध ऐसी बहुत सी धातुएं इस में उपलब्ध होती हैं। काशकृत्स्रधातुव्याख्यानम् - चन्नवीर ने कन्नड भाषा में धातुपाठ की टीका लिखी थी। इस टीका का युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा अनुवाद प्रस्तुत नाम से प्रकाशित हुआ है। काशिकावृत्ति - ले. जयादित्य और वामन । व्याकरण विषयक एक प्राचीन कृति। पाणिनीय अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में प्रथम पांच की वृत्ति जयादित्यकृत तथा शेष तीन की वामनकृत है। प्रथम दोनों ने स्वतंत्रतया पूर्ण अष्टाध्यायी पर वृत्ति रचना की थी, परंतु आगे चलकर ये दोनों सम्मिलित हो गईं। यह संयोग किसने और क्यों किया यह ज्ञात नहीं है। रचना का स्थान काशी होने से वृत्ति नाम काशिका रखा हो। जयादित्य की अपेक्षा वामन की लेखनशैली अधिक प्रौढ है। यह ग्रंथ विशेष महत्त्वपूर्ण होने का कारण 1) गणपाठ का यथास्थान सनिवेश 2) अष्टाध्यायी के प्राचीन और विलुप्त वृत्तिकारों के मत इसमें उद्धृत हैं। ये मत अन्यत्र अप्राप्य है। 3) अनेक सूत्रों की वृत्ति, प्राचीन वृत्तियों के आधार पर होने से प्राचीन मतों का ज्ञान होता है। 4) अनेक उदाहरण और प्रत्युदाहरण प्राचीन वृत्तियों के अनुसार हैं। प्राचीन काशिका का रूप अनेक अशुद्धियों से व्याप्त है। वामन - जयादित्य कृत काशिका सी टीकाएं अनेक विद्वानों ने लिखी हैं। उनमें कई अप्राप्य हैं। बहुतों के नाम भी ज्ञात नहीं हैं। काशिकातिलक-चम्पू - ले.- नीलकण्ठ। पिता- रामभट्ट। विषय- प्रवास के माध्यम से शैव क्षेत्रों का वर्णन । काशिकाविवरण-पंजिका - ले. जिनेन्द्रबुद्धि। ई. 8 वीं शती। पाणिनीय परंपरा का यह ग्रंथ "न्यास" नाम से विख्यात है। काशी-कुतूहलम् - ले. रामानन्द । ई. 17 वीं शती। काशीतिहास - ले. भाऊ शास्त्री वझे। आप विद्वान प्रवचनकार थे। ई. 20 वीं शती। वेदकाल से स्वातंत्र्य प्राप्ति तक का उत्तर प्रदेश का वैशिष्ट्य पूर्ण संक्षिप्त इतिहास इस ग्रंथ में समाविष्ट है। वझे शास्त्री का निवास दीर्घकाल तक नागपुर में रहा। काशीप्रकाश - ले. नंदपडित। ई. 16 वीं शती। काशीमरणमुक्तिविवेक - ले. नारायण भट्ट । पिता- रामेश्वरभट्ट । ई. 16 वीं शती। काशीविद्यासुधानिधि - इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन 1 जून, 1866 से प्रारम्भ हुआ तथा यह सन १९१७ तक लगातार प्रकाशित होती रही। इसका दूसरा नाम “पण्डित" था। प्रकाशन स्थल राजकीय संस्कृत विद्यालय वाराणसी था। अप्रकाशित और अप्राप्य पुस्तकों का प्रकाशन इसका प्रमुख उद्देश्य था। कुछ पाश्चात्य संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद यथा बर्कले के "प्रिंसिपल्स ऑफ ह्युमन नॉलेज" ग्रंथ का अनुवाद, "ज्ञान -सिद्धान्त चन्द्रिका' नाम से तथा लॉक के एसेज कन्सर्निग ह्युमन अन्डरस्टॅन्डिंग' ग्रंथ का अनुवाद “मानवीय-ज्ञान-विषयक शास्त्र नाम से इसमें प्रकाशित किया गया। लगभग 50 वर्षों के कालखण्ड में इस मासिक पत्रिका में रामायण, साहित्य-दर्पण, मेघदूत आदि अनेक संस्कृत ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद, संस्कृत का प्रथम निबन्ध बापुदेव शास्त्री का "मानमन्दिरादिवेधालयवर्णन" के अतिरिक्त रामभट्ट का "गोपाललीला" काव्य, अमरचन्द्र, कृत "बालभारत" काव्य तथा मथुरादास की "वृषभानुजा" नाटिका भी प्रकाशित हुई। पौरस्त्य और पाश्चात्य दोनों दृष्टिकोणों का इसमें समन्वय था । काशीशतकम् - ले. बाणेश्वर विद्यालंकार । ई. 17-18 वीं शती। काश्मीर-सन्धान-समुद्यम (नाटक) - ले. नीर्पाजे भीमभट्ट । जन्म 1903 | "अमृतवाणी' 1952-53 के अंक 11-12 में तथा पुस्तक रूप में प्रकाशित। आठ दृश्यों में विभाजित । नान्दी नहीं। एकोक्तियों का प्रयोग अधिक मात्रा में है। कथासार - श्यामा प्रसाद मुखर्जी काश्मीर विभाजन के विरोधी हैं। विश्व राष्ट्रसंघ की ओर से ग्राहम काश्मीर समस्या सुलझाने आते हैं। नेहरू अहिंसा के पक्षधर हैं। नेहरू तथा शेख अब्दुल्ला से वार्तालाप करने पर ग्राहम निष्कर्ष निकालते हैं कि काश्मीर भारत के साथ सम्बन्ध रखना चाहता है। श्यामाप्रसाद समझते हैं कि शेख अब्दुल्ला भारत को धोखा संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/71. For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किरणावली - ले. डॉ. राम-किशोर मिश्र। मेरठ (उ.प्र.) में प्राध्यापक। प्रकाशन- 1984 में। 18 किरणों में अन्योक्तिशतक, किशोरगीत, बालगीत, प्रेमगीत, शोकगीत, गद्यगीत, इत्यादि विविध विषयों पर काव्यरचना। भारत सरकार के अनुदान से प्रकाशित । डॉ. मिश्र की अन्य 11 संस्कृत रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। किरणावली - ले. उदयनाचार्य। ई. 10 वीं शती (उत्तरार्ध) न्यायशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ। किरणावलीप्रकाशदीधितिः - ले. रघुनाथ शिरोमणी। किरणावलीप्रकाशरहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश। किरणावलीप्रकाशविवृत्ति परीक्षा - ले. रुद्र न्यायवाचस्पति । किरातचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद। . किरातार्जुन-गद्यकथा - ले. दोराईस्वामी अय्यंगार। आयुर्वेद भूषण उपाधि से सम्मानित । देंगे। अन्त में निर्णय होता है कि स्वतंत्र ध्वज मिलेगा, और भारतीय ध्वज का भी काश्मीर आदर करेगा, तथा कर्णसिंह राज्यपाल होंगे। स्वसमकालीन राजनैतिक घटना रंगमंच पर लाने में लेखक की जागरूकता व्यक्त होती है। काश्यपपरिवर्त-टीका - लेखक- स्थिरमति । ई. 4 थी शती । बौद्धाचार्य। विषय- काश्यप (बुद्धविशेष) का उदात्त चरित्र तथा उसके सिद्धान्त का निरूपण। तिब्बती तथा चीनी रूपान्तर उपलब्ध है। काश्यपशिल्पम् - शिल्पशास्त्र की 18 संहिताएं विदित हैं। उनमें काश्यप-शिल्पसंहिता प्राचीनतम है। इसका संपादन रावबहादूर। कृष्णाजी वामन वझे (नासिक निवासी) ने किया। प्रकाशन पुणे के आनंदाश्रम संस्कृत ग्रंथावली ने किया। ई. 19 वीं शती। इस ग्रंथ में 88 अध्याय हैं। कु. स्टेला कमेरिश, लाश हेन्स और अन्नमलै विश्व-विद्यालय के डॉ. काह्यण इन तीन पंडितों ने काश्यप शिल्प संहिता के आधार पर ग्रंथ लेखन किया है। काश्यपसंहिता - आयुर्वेद का एक प्राचीन ग्रंथ रचियता (अथवा उपदेष्टा) मारीच काश्यप। यह ग्रंथ खंडित रूप में प्राप्त हुआ, जिसे नेपाल के राजगुरु पं. हेमराज ने प्रकाशित किया है। यादवजी विक्रमजी आचार्य इसके संपादक हैं। उपलब्ध "काश्यपसंहिता" में चिकित्सास्थान, कल्पस्थान व खिलस्थान हैं। इसमें अनेक विषय चरक संहिता से लिये गए हैं, विशेषतः आयुर्वेद के अंग, उनकी अध्ययनविधि, प्राथमिक तंत्र का स्वरूप आदि। इस संहिता में पुत्र जन्म के समय होने वाली छठी की पूजा का महत्त्व दर्शाया गया है। दांतों के नाम व उनकी उत्पत्ति आदि का विस्तृत विवरण, पक्वरोग, (रिकेट) व कटु-तैल-कल्प का वर्णन, इस संहिता की अपनी विशेषताएं हैं। इसके अध्यायों के नाम "चरकसंहिता'' के ही आधार पर प्राप्त होते हैं। इसमें नाना प्रकार के धूपों व उनके उपयोगों का महत्त्व बतलाया गया है। सत्यपाल विद्यालंकार ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। किरणतन्त्रम् - श्लोक- 2700। रचनाकाल ई. 10 वीं शती । त्रिपुरेश्वर-गरुड संवादरूप यह महातन्त्र 64 पटलों में पूर्ण है। पटलों के विषय- पशु आहार-विहार, शिव-शक्ति-दीक्षामन्त्र, शिव और शक्ति, ज्ञानभेद, मन्त्रोद्धार, लिङ्गार्चन, अग्निकार्यविधि, गृहलक्षण, अष्टयाग, अंशभेद, पवित्रारोहण-विधि, गुरुपरीक्षा, व्रतेश्वरयाग, शुद्धि, और अशुद्धि, पंचमहापातक, प्रायश्चित्त-विधि, भोजन, आसनविधि, नित्यहानि पर प्रायश्चित्त, साधन विधान, पंचब्रह्मोद्धार, लिङ्गाद्धार, मातृकायाग इत्यादि। किरणागम - श्रीकण्ठी के मतानुसार यह अष्टदश रुद्रागमों में अन्यतम है। किरणागमवृत्ति - ले. अघोर शिवाचार्य। यह तंत्रग्रंथ शतरत्र मंग्रह तथा तन्त्रालोक में अन्तर्भूत है। किरातार्जुनीयम् - महाकवि-भारवि-रचित प्रख्यात महाकाव्य । इसका कथानक "महाभारत" पर आधारित है। इन्द्र व शिव को प्रसन्न करने के लिये की गई अर्जुन की तपस्या ही इस महाकाव्य का वर्ण्य विषय है जिसे कवि ने 18 सर्गों में विस्तार से लिखा है। संस्कृत साहित्य के पंच महाकाव्यों में किरातार्जुनीय की गणना होती है। इसकी कथा का प्रारंभ द्यूतक्रीडा में हारे हुए पांडवों के द्वैतवन में निवास काल से हुआ है। युधिष्ठिर द्वारा नियुक्त किया गया वनेचर (गुप्तचर) उनसे आकर दुर्योधन की सुंदर शासन-व्यवस्था व रीति-नीति की प्रशंसा करता है। शत्रु की प्रशंसा सुनकर द्रौपदी का क्रोध उबल पडता है। वह युधिष्ठिर को कोसती हुई उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करती है। द्वितीय सर्ग में द्रौपदी की बातें सुनकर उनके समर्थनार्थ भीम कहते हैं कि पराक्रमी पुरुषों को ही समृद्धियां प्राप्त होती है। युधिष्ठर उनके विचार का प्रतिवाद करते हैं। सर्ग के अंत में व्यास का आगमन होता है। तृतीय सर्ग में युधिष्ठिर व महर्षि व्यास के वार्ताक्रम में अर्जुन को शिव की आराधना कर पाशुपतास्त्र प्राप्त करने का आदेश होता है। व्यासजी अर्जुन को योगविधि बतला कर अंतर्धान हो जाते हैं और उनके साथ अर्जुन व यक्ष प्रस्थान करते हैं। चतुर्थ सर्ग में इंद्रकील पर्वत पर अर्जुन व यक्ष का प्रस्थान एवं शरद् ऋतु का वर्णन। पंचम सर्ग में हिमालय का वर्णन व यक्ष द्वारा अर्जुन को इंद्रियों पर संयम करने का उपदेश। सर्ग 6 में अर्जुन संयतेंद्रिय होकर घोर तपस्या में लीन हो जाते हैं। उनके व्रत में विघ्न उपस्थित करने हेतु इन्द्र द्वारा अप्सरायें भेजी जाती हैं। सर्ग 7 में गंधों व अप्सराओं द्वारा अर्जुन की तपस्या में विघ्न करने का प्रयास । वनविहार व पुष्पचयन का वर्णन । सर्ग 8 में अप्सराओं की जलक्रीडा का कामोद्दीपक वर्णन । सर्ग 9 में संध्या, चंद्रोदय, मान, मान-भंग व दूती-प्रेषण 72/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मोहक वर्णन। सर्ग 10 में अप्सराओं की असफलता व प्रपाण। सर्ग 11 में अर्जुन की सफलता देखकर इन्द्र मुनि का वेश धारण कर आते हैं और उनकी तपस्या की प्रशंसा करते हैं। वे अर्जुन से तपस्या का कारण पूछते हैं और शिव की आराधना का आदेश देकर अंतर्धान हो जाते हैं। सर्ग 12 में अर्जुन प्रसन्नचित्त होकर शिव की आराधना में लीन हो जाते हैं। तपस्वी लोग उनकी साधना से व्याकुल होकर, शिवजी के पास जाकर उनके बारे में बतलाते हैं। शिव उन्हें विष्णु का अंशावतार बतलाते हैं। अर्जुन को देवताओं का कार्य साधक जानकर, मूक नामक दानव शूकर का रूप धारण कर उन्हें मारने के लिये आता है। पर किरात वेशधारी शिव व उनके गण उनकी रक्षा करते है। सर्ग 13 में एक वराह अर्जुन के पास आता है। उसे लक्ष्य कर शिव व अर्जुन दोनों बाण मारते हैं। शिव का किरात-वेशधारी अनुचर आकर कहता है कि शूकर उसके बाण से मरा है, अर्जुन के बाण से नहीं। सर्ग 14-15 में अर्जुन व किरात वेशधारी शिवजी के घनघोर युद्ध का वर्णन। सर्ग 16-17 में शिव को देखकर अर्जुन के मन में तरह तरह का संदेह उठना व दोनों का मल्लयुद्ध। सर्ग 18 में अर्जुन के युद्ध कौशल्य से शिवजी प्रसन्न होते हैं व अपना वास्तविक रूप प्रकट कर देते हैं। अर्जुन उनकी प्रार्थना करते हैं तथा शिवजी अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करते हैं। मनोरथ पूर्ण हो जाने पर अर्जुन अपने भाइयों के पास लौट जाते हैं। प्रस्तुत "किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य का प्रारंभ "श्री" शब्द से होता है, और प्रत्येक के अंत में "लक्ष्मी' शब्द प्रयुक्त है, अतः इसे लक्ष्मीपदांक कहते हैं। कवि ने एक अल्प कथावस्तु को इसमें महाकाव्य का रूप दिया है। प्रस्तुत महाकाव्य के नायक अर्जुन धीरोदात्त है, और प्रधान रस वीर है। अप्सराओं का विहार श्रृंगार रसमय है, जो अंग रूप में प्रस्तुत किया गया है। महाकाव्यों की परिभाषा के अनुसार इसमे संध्या, सूर्य, रजनी आदि का वर्णन है, और वस्तु-व्यंजना के रूप में क्रीडा, सुरत आदि का समावेश किया गया है। “किरातार्जुनीयम्" में कई स्थानों पर क्लिष्टता आने के कारण उसे ठीक समझने में विद्वानों की भी कष्ट होते हैं। टीकाकार पल्लिनाथ ने संभवतः इसी कारण भारवि कवि की वाणी को कठोर कवच परंतु मधुर स्वाद वाले नारियल (नारिकेल फल) की उपमा दी है। किरातार्जुनीयम् के टीकाकार- 1) मल्लिनाथ । 2) विद्यामाधव। 3) मंगल। 4) देवराजभट्ट। 5) रामचन्द्र। 6) क्षितिपाल मल्ल। 7) प्रकाशवर्ष । 8) कृष्णकवि । 9) चित्रभानु । 10) एकनाथ। 11) जिनराज। 12) हरिकान्त। 13) भरतसेन । 14) भगीरथ मिश्र। 15) पेद्दाभट्ट। 16) अल्लादि नरहरि । 17) हरिदास। 18) काशीनाथ। 19) धर्मविजयगणि। 20) राजकुण्ड। 21) गदासिंह। 22) दामोदर मिश्र। 23) मनोहर शर्मा। 24) माधन। 25) लोकानन्द। 26) बंकीदास। 27) विजयराम (या विजयसुन्दर) 28) शब्दार्थदीपिका- ले. अज्ञात । 29) प्रसन्नसाहित्यचन्द्रिका ले. अज्ञात। 30) नृसिंह। 31) रविकीर्ति। 32) श्रीरंगदेव। 33) श्रीकण्ठ। 34) वल्लभदेव। 35) जीवानन्द विद्यासागर। 36) कनकलाल शर्मा 37) गंगाधर मिश्र। किरातार्जुनीय-व्यायोग- 1) ले. रामवर्मा। संक्षिप्त कथा अस्त्रों की प्राप्ति हेतु शिव को प्रसन्न करने के लिए अर्जुन हिमालय पर तपस्या करता है। अप्सराएं उसमें विघ्न डालने का प्रयास करती हैं। किन्तु इसमें वे असफल ही रहती हैं। किरात-वेशधारी शिव और अर्जुन का एक वराह पर एक ही साथ बाण लगता है। वे दोनों उसे अपना शिकार मानते हैं। इस बात पर से उन दोनों में युद्ध होता है। शिव दुर्योधन का रूप धारण कर अर्जुन के क्रोध को उद्दीप्त करते है। अन्त में शिव अपने स्वरूप को प्रकट कर अर्जुन को पाशुपत अस्त्र देते हैं। 2) ले. ताम्पूरन्। केरलवासी। ई- 19 वीं शती। कीचकवधम् - ले. नितीन वर्मा। ई. 20 वीं शती। सर्ग संख्या पांच। चित्रकाव्य। सन 1928 में डाका से एस.के.डे. द्वारा प्रकाशित । सर्वानन्द तथा जनार्दन द्वारा लिखित टीकाएं प्राप्य । कीदृशं संस्कृतम् (निबंध) - ले. आचार्य श्यामकुमार। 5 अध्याय। विषय- संस्कृत की सद्यःस्थिति का वर्णन। कीरदूतम् - ले. रामगोपाल । ई. 18 वीं शती । बंगाल के निवासी। कीरसन्देश - ले. श्री.ग. लक्ष्मीकान्त अय्या। प्राध्यापक, निजाम कॉलेज़, हैद्राबाद। कीर्तिकौमुदी - ले. सोमेश्वर दत्ता। ई. 13 वीं शती । कुंकुमविकास - ले. शिवभट्ट। पदमंजरी पर टीका । कुंडभास्कर - ले. शंकर भट्ट। ई. 17 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। कुण्डलिनीहोम-प्रकरणम् - इसमें शक्ति देवी की पूजा में आध्यात्मिक होम का प्रतिपादन किया गया है। होम-क्रम यों लिखा है- प्रकृति, अहंकार, बुद्धि, मन, श्रोत्रादि ज्ञानेंद्रिय, हस्तादि कर्मेन्द्रिय, शब्दादि गुण, आकाशादि महाभूत, उनसे युक्त आत्मतत्त्व से आणव मल स्थूल देह को शोधित कर, अखण्ड एकरस आनन्ददायक कुलरूपी वर सुधात्मा में हवन कर, . फिर धर्म और अधर्मरूपी हवि से दीप्त आत्मा रूपी अग्नि में मनरूपी स्खुवा से इन्द्रिय वृत्तियों का हवन करें इत्यादि। कुंडार्क - ले. शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । विषय- धर्मशास्त्र । कुंडिकोपनिषद - सामवेदीय उपनिषद् । कुल 28 श्लोक। विषय- संन्यासव्रत का विवेचन। संन्यास व्रतों के पालन से जीवनन्मुक्ति की आनंदानुभूति की चर्चा । संम्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/73 For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुन्दमाला (नाटक)- ले. दिङ्नाग (सम्पादक रामकृष्ण के मतानुसार)। नवीन शोध के अनुसार लेखक धीरनाग। ई.5 वीं शती। विषय- राज्याभिषेक के उपरांत रामचरित्र। संक्षिप्त कथा - कुन्दमाला नाटक के प्रथम अंक में, लक्ष्मण सीता को गंगा के किनारे छोड कर जाते हैं। परित्यक्ता एवं कठोरगर्भा सीता को वाल्मीकि अपने आश्रम में ले जाते हैं। द्वितीय अंक में वाल्मीकि-आश्रम के समस्त ऋषि नैमिषारण्य में राम के अश्वमेघ यज्ञ में भाग लेने के लिये जाते हैं। तृतीय अंक में राम और लक्ष्मण नैमिषारण्य में जाते हैं। भागीरथी में तैरती हुई कुन्दमाला के गंध के कारण सीता के समीप होने का अनुमान राम लगाते हैं। चतुर्थ अंक में सीता और राम । का संवाद है। पंचम अंक में राम को लव और कुश रामायण का सस्वर गान सुनाते है। राम, प्रेम से उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाते हैं और उन दोनों को अपनी ही संतान मानते हैं। षष्ठ अंक में लव-कुश राम को रामायण की कथा सीता निर्वासन से सुनाते हैं। बाद में वाल्मीकि के शिष्य कण्व, राम को लव-कुश के वास्तविक स्वरूप का परिचय देते हैं। सीता के द्वारा अपनी शुद्धि प्रमाणित कर देने पर राम-सीता को स्वीकार कर राज्यकारभार कुश को सौंप देते हैं। कुन्दमाला नाटक में कुल दश अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 3 प्रवेशक 6 चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। कुन्दमाला ( नाटक) - ले. उपेन्द्रनाथ सेन । कुक्कुटकल्प - श्लोक 2000 । इसमें वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, स्तंभन, मोहन, ताडन, ज्वरबन्धन, जलस्तंभन, सेनास्तंभन आदि विविध तान्त्रिक कर्मों की सिद्धि के लिए मन्त्र-जप आदि उपाय बतलाए हैं। कुक्षिाभर-भैक्षवम् (प्रहसन) - ले. प्रधान वेङ्कप्प। ई. 18 वीं शती। श्रीरामपुर के निवासी। इस प्रहसन में पात्रों के नाम हास्यकारी एवं कथानक अश्लील सा है। कथासार - नायक कुक्षिम्भर बौद्धाचार्य, भ्रष्टाचारी तथा ढोंगी है। कामकलिका वारांगना को देखकर यह कामपीडित होता है। वह शिष्य वज्रदन्त से कहता है कि कामकलिका से मिला दो। कुक्षिम्भर की रखैल कुर्करी को यह वृत्त ज्ञात होता है। कुर्करी का परिचारक पिचण्डिल वक्रदन्त से कहता है कि एक हूण "किलकिल - हुकटक" कामकलिका का प्रेमी है जो गुरु के नाक कान कटवा लेगा। कुक्षिम्भर बुद्धायतन वन की ओर निकलता है। मार्ग में उसकी कई प्रेमिकाएं मिलती हैं। आगे चलकर उसे जंगम तथा कापालिक मिलते हैं। कापालिक कुक्षिम्भर की बलि चढाने की सोचता है। वहां से वह जैसे तैसे बच निकलता है। आगे उसे जैन क्षपणक मिलता है जो अमर्ष का उपदेश देता है। नायक का शिष्य भल्लूक उस पर दण्डप्रहार करके कहता है कि अब इसी प्रकार योगी, चार्वाकपन्थी, दिगम्बर तथा वैदेशिक विट उसे मिलते हैं और सभी पन्थों की पोल खुलती जाती है। ___ जब वह बुद्धायतन पहुचता है, तब विधवा कुर्करी कामकालिका के हूण प्रेमी का और पिचण्डिल उसके भृत्य का रूप धारण कर आते है। पिचण्डिल नायक के शिष्यों को पीटता है। इसी समय वास्तविक हूण और उसका भृत्य उपस्थित होता है। हूण कुर्करी को दण्डित कर उस पर बलात्कार करता है और भृत्य पिचण्डिल से मैथुन करता है। कृक्षिम्भर कुर्करी को छुडाने जाता है, तो भृत्य उसके साथ भी मैथुन करता है। फिर दोनों निकल जाते हैं। इतने में कामकलिका को लेकर वक्रदन्त आता है। विदूषक कहता है कि कुक्षिम्भर मठ की सम्पत्ति कामकलिका पर लुटायेगा। फिर वक्रदन्त मठाधिपति बनता है। कुचशतकम् - ले. आत्रेय श्रीनिवास । कुचेलवृत्त चम्पू- ले. नारायण भट्टपाद। विषय- कृष्णसुदामा की कथा । कुचेलोपाख्यानम् - ले. त्रावणकोर के नरेश राजवर्म कुलदेव। ई. 19 वीं शती। विषय- कृष्ण-सुदामा की कथा । कुट्टनीमतम् - ले. दामोदर गुप्ता। "राजतरंगिणी" से तथा स्वयं इस काव्यग्रंथ की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि दामोदर गुप्त, काश्मीर नरेश जयापीड (779-813) ई. के प्रधान अमात्य थे। उनकी प्रस्तुत रचना तत्कालीन समाज के एक वर्ग विशेष (कुट्टनी अर्थात वृद्ध वेश्या) पर व्यंग है। इसमें लेखक ने अपने समय की एक दुर्बलता को अपनी पैनी दृष्टि से देखकर, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है और उसके सुधार व परिष्कार का प्रयास किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भारतीय वेश्यावृत्ति से संबंधित है। इसमे एक युवती वेश्या को कृत्रिम ढंग से प्रेम का प्रदर्शन करते हुए तथा चाटुकारिता की समस्त कलाओं का प्रयोग कर धन कमाने की शिक्षा दी गई है। कवि ने विकराला नामक कुट्टनी के रूप का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है।प्रस्तुत काव्य में 1059 आर्याएं हैं। यत्र-तत्र श्लेष का मनोरम प्रयोग है, और उपमाएं नवीन तथा चुभती हुई हैं। प्रस्तुत "कुट्टनीमतम्" के 2 हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध हैं। 1) अत्रिदेव विद्यालंकार कृत अनुवाद, काशी से प्रकाशित। 2) आचार्य जगन्नाथ पाठक कृत अनुवाद, मित्र - प्रकाशन, अलाहाबाद। कुब्जिकातन्त्र - 1) श्लोक - 720। शिव-पार्वती संवादरूप । नौ पटलों में विभक । विषय- मन्त्रार्थ का विवरण, मन्त्रचैतन्य, योनिमुद्रा, दिव्य, वीर और पशु भाव, ऐन्द्रजालिक विधि और मन्त्र-सिद्धि। 2) श्लोक सं- 453। पुष्पिका से ज्ञात होता है कि देवी-ईश्वर संवादरूप यह मौलिक तन्त्र 14 पटलों में पूर्ण है। विषय- स्त्रीदोष-लक्षण, रक्तमातृका-पूजा, नाडीशुद्धि, देवीपूजा, 74/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डांगुर कुमारपूजा, जयकुमारपूजा, स्नानविधि। पुत्रोत्पत्ति में रक्तमातृका, षष्ठीदेवी, डांगुरकुमार और जयकुमार ये चार बाधक होते हैं । अतः सन्तति के आकांक्षियों को इनकी तृप्ति करनी चाहिये। कुब्जिकापूजन - श्लोक 700। विषय- भूतशुद्धि, कलशपात्र-पूजन, गन्धिषडंग, मालिनी, अघोर षडंगदूती, अघोरास्त्र, एकाक्षरी षडंगविद्या, घोरिकाष्टक, रुद्रखण्ड, मातृखण्ड, विजयपंचक, आदिसप्तक, गुरुपंक्तिपूजा, ब्रह्माण्यादि पूजन, भगवती पूजन, वागीश्वरीपूजन, क्रमपूजन, कर्मध्यान, विमलपंचक, अष्टाविंशति कर्म इत्यादि। कुब्जिकापूजापद्धति- श्लोक- 2500। इसमें शिव शक्ति के बहुत से स्तोत्र और कूटाक्षार मंत्र प्रतिपादित हैं जिनमें व्यंजन -राशि के बीच एक ही स्वरवर्ण रहता है। इसमें 64 योगिनीयों के निम्नलिखित नाम यथाक्रम दिये गये हैं - श्रीजया, विजया, जयन्ती,अपराजिता, नन्दा, भद्रा, भीमा, दिव्ययोगिनी, महासिद्धयोगिनी, गणेश्वरी, शाकिनी, कालरात्रि, ऊर्ध्वकेशी, निशाकरी, गम्भीरा, भूषणी, स्थूलांगी, पावकी, कल्लोला, विमला, महानन्दा, ज्वालामुखी, विद्या, पक्षिणी, विषभक्षणी, महासिद्धिप्रदा, तुष्टिदा, इच्छासिद्धिदा, कुवर्णिका, भासुरा, मीनाक्षी, दीर्घाङ्गी, कलहप्रिया, त्रिपुरान्तकी, राक्षसी, धीरा, रक्ताक्षी, विश्वरूपा, भयंकरी, फेत्कारी, रौद्री, वेताली, शुष्कांगा, नरभोजिनी, वीरभद्रा, महाकाली, कराली, विकृतानना, कोटराक्षी, भीमा, भीमभद्रा, सुभद्रा, वायुवेगा, हयानना, ब्रह्माणी, वैष्णवी, रौद्री, मातङ्गी, चर्चिकेश्वरी, ईश्वरी, वाराही, सुबडी तथा अम्बा। योगिनीतंत्र की नामवली इससे भिन्न है। कुब्जिकामत - श्लोक- 2964। कहा जाता है कि एक तन्त्र-सम्प्रदाय था जो कुब्जिकामत कुललिकाम्नाय, श्रीमत, कादिमत, विद्यापीठ आदि विाविध नामों से अभिहित होता था उसी के श्रीमतोत्तर मन्थानभैरव, कुलब्जिकामतोत्तर आदि परिशिष्ट हैं। कहते हैं कि मूल ग्रंथ कुलालिकाम्राय 24000 श्लोकों का ग्रंथ है जो चार विभागों में विभक्त है, जिन्हें षट्क कहा जाता है। प्रत्येक षट्क में छह हजार श्लोक हैं। यह कुब्जिकामत कुलालिकाम्नाय के अन्तर्गत है। इसके कुल 25 पटलों के विषय हैं- चंद्रद्वीपावतार, कौमारी-अधिकार, मन्थानभेद प्रचार, रतिसंगम, गबरमालिनी उद्धार में मन्त्रनिर्णय, बृहत्समयोद्धार, जपमुद्रानिर्णय। मन्त्रोद्धार में षडंग विद्याधिकार, स्वच्छन्दशिखाधिकार, दक्षिणषट्क-परिज्ञान, देवीदूतीनिर्णय, योगिनीनिर्णय, महानन्दमंचक, पदद्वयंहंस-निर्णय, चतुष्क-पदभेद, चतुष्कनिर्णय, दीपाम्नाय, समस्त-व्यस्तव्यापिनिर्णय, त्रिकाल-उत्क्रान्ति सम्बन्ध, ग्रहपूजाविधि, पवित्रारोहण आदि। कुब्जिकामतोत्तरम् - (एक ही नाम के तीन भिन्न ग्रंथ हैं)। 1) यह कुलावलिकाम्नाय के अन्तर्गत है। इसमें 23 पटल हैं। विषय- त्रिकालसंक्रान्तिसंबंध, आनन्दचक्रद्वीपावतार, समस्तव्यस्तव्याप्ति आदि। 2) श्लोक- 929। यह शिव-पार्वती संवादरूप है। इसमें स्कन्द की आराधना, उनका परिवार, उनकी साधना, उसका क्रम, मण्डप, धारणामन्त्र, उसके अंगभूत मन्त्र, मन्त्रोद्धारक्रम, मुद्रा, दीक्षा अभिषेक-विधि, प्रतिमा लक्षण आदि विषय वर्णित हैं। 3) (कुमारतन्त्र या बालतन्त्र) ले.-रावण। विषय- बालरोग। इसके 12 अध्याय चक्रपाणिदत्त के चिकित्सासंग्रह में गद्य के रूप में दिये गये हैं। कलकत्तासंस्करण, सन 1872 में प्रकाशित। अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में भी इसका प्रायः उल्लेख आता है। कुमारभार्गवीयचम्पू - ले. भानुदत्त। पिता- गणपति। यह ग्रंथ 12 उच्छ्वासों में विभक्त है और इसमें कुमार कार्तिकेय के जन्म से लेकर तारकासुर वध तक की घटनाओं का वर्णन है। यह चम्पू अभी तक अप्रकाशित है, और इसका विवरण इंडिया ऑफिस कैटलाग 4040-408| पृष्ठ 1540 पर प्राप्त होता है। कुमारविजयम् (अपरनाम ब्रह्मानन्द- विजयम्) (नाटक) - 1) ले. घनश्याम। ई. 1700-1750। कवि ने यह नाटक बीस वर्ष की अवस्था में लिखा। विषय- दक्षयज्ञ में आत्मोत्सर्ग करने के पश्चात् दक्षकन्या सती, पार्वती के रूप में जन्म लेती है। वहां से लेकर कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर के वध तक का कथानक। प्रस्तावना में नटी नहीं। सूत्रधार अविवाहित । स्त्री तथा नीच पात्र का संवाद प्राकृत है। एकोक्तियों का विशेष प्रयोग, प्रगल्भ चरित्रचित्रण तथा बीच बीच में छायातत्त्व का अवलंब किया है। उस युग की सामाजिक विषमताओं का अङ्कन तथा विभिन्न सम्प्रदायों में धर्म के नाम पर चलने वाली चारित्रिक भ्रष्टता का चित्रण भी किया है। 2) ले. गीर्वाणेन्द्रयज्वा।। कुमारविजय-चम्पू - ले.- भास्कर। पिता- शिवसूर्य । कुमारसंभवम् - महाकवि कालिदास कृत प्रख्यात महाकाव्य । इसके कुल 17 सर्गों में से प्रथम 8 सर्ग ही कालिदास ने स्वयं रचे हैं। शेष अन्य किसी कवि के हैं। आठवें सर्ग के बाद कालिदास ने यह महाकाव्य अधूरा ही क्यों छोड दियाइस विषय में एक दंतकथा बतायी जाती है कि आठवे सर्ग में कालिदास ने शिव-पार्वती के संभोग का उत्तान वर्णन किया, जिससे उन्हें कुष्ठ रोग हो गया, और वे इस महाकाव्य को पूरा नही कर सके। संभव है कि तत्कालीन पाठकों एवं टीकाकारों ने देवताओं के संभोग-वर्णन के प्रति अपना तीव्र रोष व्यक्त किया, हो जिस कारण कालिदास को वह अधूरा छोडना पडा। कुछ विद्वानों के मतानुसार कुमारसंभव में कालिदास ने कुमार कार्तिकेय के जन्म वर्णन का संकल्प किया था और आठवें सर्ग में शिव-पार्वती के एकांत समागम से वे यही सूचित करना चाहते है। इस दृष्टि से उन्होंने आठवें सर्ग में ही अपनी संकल्पपूर्ति पर महाकाव्य समाप्त किया। अलंकारशास्त्र संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 75 For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के ग्रंथों में 8 वें सर्ग तक के ही उदाहरण मिलते हैं। इस महाकाव्य में अनेक रमणीय व सौंदर्यस्थलों के अलावा हिमालय, पार्वती की तपस्या, वसंतागमन, शिव-पार्वती -विवाह, रति-क्रीडा आदि के विवरण हैं। प्रस्तुत महाकाव्य के प्रथम सर्ग में शिव के निवासस्थान हिमालय का मनोरम वर्णन है। हिमालय का मेना से विवाह व पार्वती का जन्म, पार्वती का रूप-चित्रण, नारद द्वारा शिव-पार्वती के विवाह की चर्चा तथा पार्वती द्वारा शिव की । आराधना आदि घटनाएं वर्णित हैं। दूसरे सर्ग में तारकासुर से पीडित देवगण ब्रह्मा के पास जाते हैं कि शिव के वीर्य से सेनानी का जन्म हो, तो वे तारकासुर का वध कर देवताओं के उत्पीडन का अन्त कर सकते हैं। तृतीय सर्ग में इंद्र के आदेश से कामदेव शिव के आश्रम में जाते हैं और वे चारों ओर वसंत ऋतु का प्रभाव फैलाते हैं। उमा सखियों के साथ जाती है और उसी समय कामदेव अपना बाण शिव पर छोडते हैं। शिव की समाधि भंग होती है और उनके मन में चंचल विकार दृष्टिगोचर होने से क्रोध उत्पन्न होता है। वे कामदेव को अपनी ओर बाण छोड़ने के लिये उद्यत देखते है और तृतीय नेत्र खोल कर उन्हें भस्मसात् कर देते हैं। चतुर्थ सर्ग में कामदेव की पत्नी रती, करुण विलाप करती है। वसंत उसे सांत्वना देता है किन्तु वह संतुष्ट नहीं होती। वह वसंत से चिता सजाने को कह कर अपने पति का अनुसरण करना ही चाहती है कि उसी समय आकाशवाणी उसे वैसा करने से रोकती है। उसे अदृश्य शक्ति के द्वारा यह वरदान प्राप्त होता है कि पति के साथ उसका पुनर्मिलन होगा। पंचम सर्ग में उमा, शिव की प्राप्ति के लिये तपस्या -निमित्त अपनी माता से आज्ञा प्राप्त करती है। वह फलोदय पर्यंत साधना में निरत होना चाहती है। माता-पिता के मना करने पर भी स्थिर निश्चय वाली उमा अंत तक अपने हठ पर अटल रहती है और घोर तपस्या में लीन होकर, नाना प्रकार के कष्टों को सहन करती है। उसकी साधना पर मुग्ध होकर बटुरूपधारी शिव का आगमन होता है। वे शिव के अवगुणों का वर्णन कर उमा का मन उसकी ओर से हटाने का प्रयास करते हैं पर उमा अपने अभीष्ट देव की उद्वेगजनक निंदा सुनकर भी अपने पथ पर अडिग रहती है और उग्रता व तीक्ष्णता से बटुक के आरोपों का प्रत्युत्तर देती है। पश्चात् प्रसन्न होकर साक्षात् शिव प्रकट होते हैं और उमा को आशीर्वाद देते हैं। छठे सर्ग में शिव का संदेश लेकर सप्तर्षिगण हिमवान् के पास जाते हैं। सप्तम सर्ग में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है। शिव व उसकी बारात को देखने के लिए उत्सुक नारियों की चेष्टाओं का मनोरम वर्णन किया गया है। आठवें सर्ग में शिव-पार्वती का कामशास्त्रानुसार रति-विलास तथा आमोद -प्रमोद का वर्णन है। कुमारसम्भवम् के प्रमुख टीकाकार- 1) मल्लिनाथ। 2) कृष्णपति शर्मा। 3) कृष्णमित्राचार्य। 4) गोपालनन्द 5) गोविन्दराम। 6) चरित्रवर्धन। 7) जिनभद्रसूरि। 8) नरहरि । 9) प्रभाकर । 10) बृहस्पति 11) भरतसेन। 12) भीष्म मिश्र 13) मुनि मतिरत्न। 14) रघुपति। 15) वत्स (या व्यासवत्स)। 16) आनन्ददेव। 17) वल्लभदेव। 18) विन्ध्येश्वरी- प्रसाद 19) हरिचरणदास 20) नवनीतराम मिश्र । 21) भरत मल्लिक 22) जयसिंह 23) लक्ष्मीवल्लभ। 24) दक्षिणावर्तनाथ। 25) विद्यामाधव 26) नन्दगोपाल। 27) सीताराम। 28) नारायण। 29) हरिदास 30) अरुणगिरिनाथ । 31) गोपालदास। 32) तर्कवाचस्पति। 33) सरस्वतीतीर्थ । 34) रामपारस 35) जीवानन्द विद्यासागर और 36) कुमारसेन । कुमारसम्भवम् (नाटक) - ले. जीवन्यायतीर्थ । जन्म 1894 । प्रणव-परिजात पत्रिका में प्रकाशित। उज्जयिनी के कालिदास समारोह में अभिनीत। अंकसंख्या- पांच कालिदास विरचित कुमारसम्भव काव्य का शत प्रतिशत दृश्यरूप। किरतनिया नाटक परम्परा के स्तुतिगीतों की भरमार है। कुमारसंभव-चम्पू - ले. तंजौर के शासक महाराज शरफोजी द्वितीय (शंभुजी)। (व्यंकोजी का द्वितीय पुत्र) । शासनकाल 1800 ई. से 1832 ई. तक। यह काव्य 4 आश्वासों में विभक्त है और महाकवि कालिदास के "कुमारसंभव" के अनुसार इसकी रचना की गई है। इसका प्रकाशन वाणीविलास प्रेस, श्रीरंगम् से 1939 में हुआ है। कुमारसंहिता - श्लोक- 250। अध्याय- 10। ब्रह्मा-शिव संवाद रूप तांत्रिकग्रंथ। विषय- विद्या गणेश-मन्त्रोद्धार, पुरश्चरण पूजा, पंचमाचरण, वशीकरणादि प्रयोग, होमविधि, संग्रामविजय, वांछाकल्पलता, मन्त्रविधान इत्यादि। कुमारीतन्त्रम् - इस नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध है। 1) श्लोक- 300 । नौ पटलों में पूर्ण। यह तन्त्र पूर्व भाग और उत्तर भाग में विभक्त है। विषय- कालीकल्प अर्थात काली की पूजा है। 2) श्लोक 250 । पटल 10। परम-हरकालीतन्त्र का यह पूर्वभाग है। 3) श्लोक- 300 । पटल- 91 विषय- अन्तर्याग, बहिर्याग। नैवेद्य, पुरश्चरणविधि, कुलाचारविधि, पूजा के स्थान, आचारविधि तथा कालीकल्प। इसका श्मशान में 10 हजार जप करने से शत्रुमारण होता है। यह कालीकल्प अति गोपनीय कहा गया है। इसके गोपन से सर्व सिद्धियां प्राप्त होती हैं और प्रकाशन से अशुभ होता है। कुमारीविजयम् - ले. घनश्याम आर्यक। कुमारीविलसितम् - ले. सुन्दर सेन। विषय- कन्याकुमारी देवी की कथा। कुमारीहृदयम् - यह नंदि-शंकर संवाद रूप मौलिक तन्त्र है। 76/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भगवती दुर्गा की प्रसन्नता के उपाय इसमें प्रतिपादित हैं। इसके 5 पटलों में शक्ति कुमारी की पूजा विशेष रूप से वर्णित है। कुमुदिनी (उपन्यास) ले. चक्रवर्ती राजगोपाल | ले. मेघाव्रत शास्त्री आधुनिक तन्त्र के कुमुदिनीचन्द्र अनुसार 350 पृष्ठों का उपन्यास । । । कुरुकुल्लासाधनम् ले इन्द्रभूति विषय बौद्धतंत्र कुरुकेशगानुकरणम् शठगोप नम्मालवारकृत प्राचीन ( परंपरा के अनुसार ई.पू. 31 वीं शती) तामिळ काव्य नालायिरम् का अनुवाद। अनुवादक हैं रामानुज । भारत के प्रादेशिक भाषीय काव्य का प्रायः यह प्रथम संस्कृतानुवाद माना गया है। कुलचूडामणितन्त्रम् ( इस नाम से तीन विभिन्न ग्रंथ हैं ।) 1) श्लोक - 490। यह सात पटलों में पूर्ण है। 2 ) श्लोक504 । भैरव - भैरवी - संवाद रूप। विषय कुलदेवता की पूजा, कुलांगनाओं का निरूपण, यन्त्रलेखन, मद्यपान आदि की सिद्धि का प्रकार, कुलाचार - संकेत इत्यादि । www.kobatirth.org - 3) श्लोक- 460। पटल- 71 विषय- कुल तन्त्रों की प्रशंसा, कौलों के कर्तव्य, कर्मो का निरूपण कुतशक्ति-पूजाविधि, कौलिकों के विशेष अनुष्ठान, महिषमर्दिनी के स्तव आदि । | कुलदीक्षा ले. मनोदत्त । ई. 1875-76 । विषय- तंत्रविद्या । शिवस्वामी ने इस ग्रंथ का परिवर्धन किया। कुलदीपिका 1) श्लोक 360 कौलिकों के हित के लिए श्रीरामशंकर आचार्य ने इसकी रचना की। इसमें मंत्र पद का अर्थ, ब्रह्मनिरूपण, कुलाचार विधि, नित्यानुष्ठान, कुलपूजा, शिवालि संविदाशोधन, दीक्षा, होमविधि, प्रकारान्तर से शक्तिपूजा, बाग, बलिदान द्रव्य आदि विषय वर्णित है। 2) श्लोक- 940। कुलशास्त्र तथा तीन सम्प्रदायों का अवलोकन कर कौलिकों के हितार्थ कुलदीपिका की रचना की गयी। इसमें दस महाविद्याओं के मन्त्र, अनुष्ठान आदि विषय वर्णित हैं। - श्लोक- 361 विषय- कौलों द्वारा की कुलप्रकाशतन्त्रम् जाने वाली श्राद्धविधि का वर्णन । कुलप्रदीप ले. शिवानन्दाचार्य। 7 प्रकाशों में पूर्ण । विषय-: धर्म-प्रशंसा | कुलपूजा का समय, पूजा समय, द्रव्यकलशस्थापन के प्रयोग के चार प्रकार, कुण्ड गोल आदि द्रव्यों के ग्रहण की विधि, चक्रों का निरूपण आदि । ले. चन्द्रशेखर शर्मा । विषय कौलिकों कुलपूजनचन्द्रिका की पूजाविधि। कुलपूजाविधि श्लोक- 801 इसमें किसी विशेष देवी का उल्लेख किये बिना पूजा वर्णित है। इस पद्धति में साधारण पूजाविधि की अपेक्षा अत्यल्प अन्तर है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलमतम् ले. श्री. कविशेखर । श्लोक 1120 16 पटलों में पूर्ण लेखन शकाब्द- 1602 विषय- श्रीन्यास, 1 पूजा, बालकसंस्कार, गुरुशिष्य- लक्षण, दीक्षाविधि, पट्कर्मविधि, वीरसाधन, शवसाधन, योगिनीसाधन, आकर्षणप्रयोग दीपनी विधान आदि । कुलमुक्तिकल्लोलिनी से आयानन्द (नवमीसिंह) श्लोक94501 22 पटलों में पूर्ण । इस ग्रंथ में सामान्यतः तांत्रिक पूजा का विवरण दिया गया है। कालीपूजा के प्रचुर उदाहरण दिये गये हैं। इसमें बहुत से तंत्र ग्रंथ और ग्रन्थकारों का उल्लेख है। कुलशेखर - विजयम् (रूपक) ले. दामोदरन् नम्बुद्री । ई. 19 वीं शती । कुलसंहिता (नवरात्रादिकुलसंहिता) श्लोक- 7681 शिव-पार्वती संवादरूप। विषय कालीतन्त्र, यामल, भूतडामर, कुब्जिकातन्त्रराज खेमरीसाधन, कालीगन्ज, बीजमन्त्र, कोलधर्म मत्स्य आदि शोधन, बलिदान, पात्रग्रहण, जप और तर्पण की विधि, कलियुग में वीरभाव को प्रशस्तता, साधना विधि, साधनादि के विभिन्न दोषों का निरूपण, कोलों के कर्तव्याकर्तव्य का विधान कॉल गुरु के लक्षण, कौलावार मे अधिकार, गुरु- प्रशंसा, कौल्लाहस्य आदि। कुलसारसंग्रह श्लोक- 107 पटल- 7। शिव-पार्वती संवाद रूप यह मौलिक तन्त्रग्रन्थ सोमभुजंगवल्ली का एक भाग है। कुलसूत्रषोडशखरकला ले. शितिकण्ठ। 1 कुलानन्द तंत्रम्- ले. मत्स्येन्द्रनाथ। इसमे भैरव व देवी के बीच संभाषण के कुल साठ श्लोक हैं। देवी की जिज्ञासा पूर्ण करने के लिये भैरव ने इसमें पाशस्तरोत्र, भेद, धूनन, कंपन, खेचर, समरस, बलीपलित-नाशन आदि यौगिक प्रक्रियाओं का वर्णन किया है। कुलाचंनदीपिकाले महामहोपाध्याय जगदानन्द । कुलाचनपद्धति ले. सहतामनलाल दीक्षित । श्लोक संख्या 400 I कुलोडीशम् (महातन्त्र) 1) श्लोक 925 4 पटलों में पूर्ण देवी-ईश्वर संवादरूप विषय कामेधरी, बजेधरी, भगमाला, त्रिपुरसुन्दरी और परब्रह्मरूपिणीनिया इन पांच शक्तियों का ज्ञान । 2) श्लोक- 1237 देवी-ईश्वर संवादरूप। 4 पटलों में पूर्ण । विषय- पंचभूतों के अधिष्ठाता (देवता) पांच शक्तियां । पंचम शक्ति के दीक्षा के दीक्षाभेद से वैष्णव, शैवादि भेद, पंचम शक्ति की ब्रह्मरूपता, उसकी उपासना के प्रकार, पंच कूट स्वप्नवती विद्या की साधना, गन्धर्वविद्या महाविद्या, नटी कापालिकी आदि आठ प्रकार की नायिकाएं उनके आकर्षण आदि के साधन के प्रकार, समयाचार, कुलाचार, सुराशापविमोचन, पंचाक्षरी विद्या, पंचमी विद्या की गायत्री मुद्रा पद की निरुक्ति, For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 77 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra | मुद्रालक्षण, भौतिक, मनोदय आदि विविध शरीर, षोडश महाविद्या ध्यानयोग, कर्मयोग चौथे पटल में मन्त्रग्राम आदि का साधन प्रकार, आकर्षण, वशीकरण आदि में ऋतु आदि का नियम, सब कर्मों में होम की आवश्यकता, होमद्रव्यों का निरूपण, वशीकरण आदि में पुष्प विशेषों का नियम तथा गुरुतोषणविधि । www.kobatirth.org - 9 कुलार्णवतन्त्रम् 1) श्लोक- 2000 17 उल्लासों में विभक्त विषय जीवस्थिति कुलमाहात्म्य ऊर्ध्वाप्राय-माहात्य, । मन्त्रोद्धार सोलह प्रकार के न्यास, कुलद्रव्यों के निर्माण की विधि, कुल द्रव्य आदि के संस्कार, बटुक आदि की पूजाविधि, तीन तत्त्वों के उल्लास तथा पान के भेद, कुल यागादि का वर्णन, विशेष दिन की पूजा, कुलाचारविधि, श्री पादुकाभक्तिलक्षण, गुरु-शिष्य लक्षण, गुरु-शिष्यादि परीक्षा, पुरश्चरणविधि, काम्यकर्म विधि, गुरुनाम वासना आदि कथन I 2) श्लोक 2300 17 उल्लास। शिव-पार्वती संवादरूप | इसमें कहा गया है की उड्डीयान महापीठ में स्त्री के बिना सिद्धि नहीं होतीं । स्त्रीविहीन साधना में देवता विघ्न डालते हैं ब्राह्मणी और यवनी के सिवा सजातीया सर्वदा ग्राह्य हैं। विदग्धा रजकी और नापिती पाहा है। हिंगुला पीठ में जो साधक मत्स्य सेवन करता है उसे सिद्धि नहीं होती। मुद्राख्य पीठों में निवास कर रहा साधक मद्य पीकर यदि जप करे तो उसे भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। जालन्दर महापीठ में मद्य का त्याग कर देना चाहिए। वाराणसी में केवल मुद्रा से शिवभक्ति परायण साधक को सिद्धि प्राप्त होती है । अन्तर्वेदी, प्रयाग, मिथिला, मगध और मेखला में मद्य से सिद्धि होती है। वहां मद्य के बिना देवता विघ्न उपस्थित करते हैं। अंग वंग और कलिंग में स्त्री से सिद्धि होती है। सिंहल में स्त्री राज्य में तथा राढा में मत्स्य, मांस, मुद्रा और अंगना से सिद्धि होती है। गौड देश में पांचो द्रव्यों से सिद्धि होती है । उसी प्रकार अन्य देशों में भी पांच द्रव्यों से सिद्धि होती है। तन्त्रान्तर में कहा गया है कि दही के बराबर गुड और बेर की जड़ मिला कर तीन दिन रखा जाये तो वह मद्य हो जाता है। शक्ति ही “कुल" कहीं गयी है, उसमें जो पूजा आदि है वही "कुलाचार है। कुरुक्षेत्रम् ले. पांडुरंगशास्त्री डेम्बेकर, ठाणे, (महाराष्ट्र) निवासी। 15 सर्गों का महाकाव्य । कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय से प्रकाशित । 1 1 कुवलय-विलासम् ले. रयस अहोबल मन्त्री ई. 16 वीं शती। पांच अंक विषय नायक कुवलयाश्व तथा नायिका मदालसा की प्रणयकथा । विजयनगर के राजा श्रीरङ्गराज (1571-1585 ई.) के इच्छानुसार इसकी रचना हुई । कुवलयानन्द ले. अप्पय्य दीक्षित। इसमें 123 अर्थालंकारों का विस्तृत विवेचन किया गया है इसकी रचना जयदेवकृत 78 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - "चंद्रालोक" के आधार पर की गई है। दीक्षितजी ने इसमे "चंद्रालोक" की ही शैली अपनायी है, जिसमें एक ही श्लोक में अलंकार की परिभाषा व उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं। "चंद्रालोक" के अलंकारों के लक्षण "कुवलयानंद" में ज्यों के त्यों ले लिये गए हैं और दीक्षितजी ने उनके स्पष्टीकरण के लिये अपनी ओर से विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। दीक्षितजी ने अनेक अलंकारों के नवीन भेदों की कल्पना की है और लगभग 17 नवीन अलंकारों का भी वर्णन किया है। वे -प्रस्तुतांकुर, अल्प, करदीपक, मिथ्याध्यवसिति ललित, अनुशा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गृहोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति प्रतिषेध व विधि । यद्यपि इन अलंकारों के वर्णन भोज एवं शोभाकरण मित्र के ग्रंथों में भी प्राप्त होते हैं, पर इन्हें व्यवस्थित रूप प्रदान करने का श्रेय दीक्षितजी को ही प्राप्त है। " कुवलयानंद पर टीकाएं कुवलयानंद अलंकार विषयक ग्रंथों में अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है और प्रारंभ से ही इसे यह गुण प्राप्त है। इस ग्रंथ पर 10 टीकाओं की रचना हो चुकी है 1) रसिकरंजिनी टीका इसके रचयिता गंगाधर वाजपेयी (गंगाध्वराध्वरी) हैं जो तंजौर नरेश राजा शहाजी भोसले के आश्रित थे। सन 1754-1711। इस टीका का प्रकाशन सन 1892 ई. में कुंभकोणम् से हो चुका है और इस पर हालास्यनाथ की टिपणी भी है। 2) अलंकारचंद्रिका- लेखकआशाधर भट्ट हैं। यह टीका "कुवलयानंद" के केवल कारिकाभाग पर है (4-5) अलंकारसुधा एवं विषमपद- व्याख्यानषट्पदानंद इन दोनों ही टीकाओं के प्रणेता सुप्रसिद्ध वैयाकरण नागोजी भट्ट है। इनमें प्रथम पुस्तक टीका है और दीक्षितकृत कुवलयानंद के कठिन पदों पर व्याख्यान के रूप में रचित है। काव्यमंजरी रचयिता व्यायवागीश भट्टाचार्य 7) कुवलयानंद टीका टीकाकार मथुरानाथ 8) कुवलयानंद टिप्पण प्रणेता करवीराम 9) लध्वलंकारचंद्रिका रचयिता देवीदत्त और 10) बुधरंजिनी इसके टीकाकार बेंगलसूरि हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - For Private and Personal Use Only कुवलयानंद का हिन्दी भाष्य डॉ. भोलाशंकर व्यास ने किया है जो चौवा विद्याभवन से प्रकाशित है। कुवलयावली (अपरनाम - रत्नपांचालिका) ले. कृष्णकविशेखर यह चार अंकों की नाटिका रचकोण्डा के देवता प्रसन्न गोभल के वसंतोत्सव के अवसर पर मंच पर प्रस्तुत करने के विशिष्ट उद्देश्य से ही लिखी गई है। श्रीकृष्ण के साथ कुवलयावली का विवाह ही इसकी कथा का विषय है ब्रह्मा पृथ्वीदेवी को कुवलयावली नामक मानवी कन्या का रूप धारण करने के लिए विवश करते हैं। नारद उसके पालक पिता बनते हैं और रुक्मिणी के पास उसे यह कह कर छोड जाते हैं कि वे उसके लिए उपयुक्त वर की खोज में जा रहे है। उस समय वे कुवलयावली को उपहारस्वरूप Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra एक अंगूठी देते हैं जो अभिमंत्रित रहती है। जब वह उसे पहनेगी तब मनुष्यों को वह बहुमूल्य रत्नों की मूर्ति के रूप में दिखेगी। उसका 'रत्नपांचालिका" नामकरण इसी रहस्य के कारण हुआ है। जब वह अपनी सखी चन्द्रलेखा के साथ प्रासाद के उपवन में जाती है तो वहां उसकी भेंट अचानक श्रीकृष्ण के साथ होती है। जब कृष्ण की दृष्टि उस पर पड़ती है तो मंत्र क्रियाशील हो जाता है। वे यह नहीं समझ पाते कि चन्द्रलेखा मूर्ति के साथ वार्तालाप क्यों कर रही है। इसी वार्तालाप के समय अंगूठी कथंचित् गिर जाती है। इससे कुवलयावली का वास्तविक रूप प्रकट होता है और वे दोनों परस्पर प्रेमपाश में बंध जाते हैं। इसी समय कुवलयावली को प्रासाद में बुलावा आता है। वह कृष्ण को उदास छोड कर प्रसाद में चली जाती है। श्रीकृष्ण को अचानक अंगूठी मिल जाती है तथा उसपर उत्कीर्ण लेखा से वे उसके उद्देश्य से भी अवगत हो जाते हैं। कुवलयावली को अंगुठी खोने का ध्यान आता है तथा उसे खोजने वह पुनः उपवन में आती है। इसके कारण पुनः दोनों की भेंट होती है । श्रीकृष्ण अंगूठी लौटा देते हैं । रुक्मिणी को प्रेमप्रसंग का पता चलते ही वह कुवलयावली को प्रासाद में बन्दी बना कर रख देती है। तब एक राक्षस उप पर आक्रमण करता है और रुक्मिणी को श्रीकृष्ण की सहायता लेनी पडती है। वे तत्काल राक्षसवध के लिए उद्यत होते हैं। इसी बीच नारद लौट कर आते हैं तथा उनसे रुक्मिणी को कुवलयावली के वास्तविक स्वरूप का परिचय मिलता है। श्रीकृष्ण राक्षस को पराजित कर लौटते हैं। नारद की अनुमति से रुक्मिणी कुवलयावली को उपहारस्वरूप श्रीकृष्ण को समर्पित करती है। इस नाटिका की कथा भासकृत स्वप्रवासवददत्तम् तथा महाकवि कालिदासकृत मालविकाग्निमित्रम् से अत्यधिक साम्य रखती है । यद्यपि कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा तथा नारद आदि आमिधात कृष्णकथा से लिये गये हैं तथापि नाटिका का कथानक काल्पनिक है। वास्तव में कवि ने नवीन स्थिति की उद्भावना करके उसे मूल कृष्ण कथा के साथ जोड दिया है। इसमें भास के नाट्य का प्रारंभ देखा जा सकता है। कुवलयाश्वचरित्र ले. लक्ष्मणमाणिक्य देव । ई. 16 वीं शती के नोआखाली के राजा। नाटक का विषय है- कुवलयाश्व और मदालसा की प्रणयकथा । अंकसंख्या नौ । कुवलाश्वीयम् (नाटक) ले. कृष्णदत्त (ई. 18 वीं शती) प्रथम अभिनय महिषमर्दिनी देवी के चैत्रावली पूजन के अवसर पर हुआ था। मूल कथा मार्कण्डेय पुराण में है परंतु नाटककार ने उसमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। नाटक विशेषतः भवभूति से प्रभावित दिखाई देता है। अंकसंख्या सात है। कथासार नायक ऋतुध्वज महाराज शत्रुजित् का पुत्र है महर्षि गालव यज्ञरक्षा हेतु ऋतुध्वज को मांग लेते हैं और उसे कुवलय नामक अश्व देते हैं। उस अश्व का अ I - www.kobatirth.org - करने पातालकेतु, योद्धा कंकालक तथा करालक को भेजता है। नायक के पराक्रम के कारण करालक भाग जाता है परंतु कंकालक वहीं पर मुनिशिष्य शालंकायन का वेश धारण कर रहता है। उसी वेश में आश्रम दिखाने के बहाने नायक को दूर ले जाता है। इसी बीच पातालकेतु गालव के आश्रम पर धावा बोलता है । नायक उसे खदेड़ता है तथा उसका पाताल तक पीछा करता है। वहां गन्धर्व विश्वावसु की पातालकेतु द्वारा अपहृत कन्या मदालसा उसे दीखती है। विश्वावसु तथा गालव से अनुमति पाकर तुम्बरु उनका विवाह कराते हैं। नायक युवराज बनता है। राजा उसे प्रतिदिन मुनि के आश्रम की रक्षा करने का आदेश देता है। उसकी भेंट मुनिवेश में कंकालक से होती है। वह नायक को आश्रम की रक्षा का भार सौंप कर काशीराज के पास पहुंचता है। कुशकुमुद्वतम् ले. अतिरात्रबाजी नीलकण्ठ दीक्षित के अनुज । ई. 17 वीं शती । भाण की पद्धति पर विकसित प्रकरण । प्रथम अभिनय हालास्य चैत्रोत्सव की यात्रा के अवसर पर हुआ। कवि की मान्यता के अनुसार अम्बिका के प्रसाद से इसका प्रणयन हुआ। कथासार श्रीराम के पश्चात् अयोध्यानगरी उजड सी रही है। नागरिका (नगर की अधिदेवी) के साथ तिरस्करिणी से प्रच्छन्न होकर पता लगाती है कि नागलोक की राजकुमारी कुमुद्वती ज्योत्सा विहार के लिए जनहीन अयोध्या में सखियों के साथ आया करती है। सागरिका कुशावती में रहने वाले कुश को दिव्य नेत्र प्रदान कर कुमुद्रती का दर्शन कराती है। कुश उस पर मोहित हो, अयोध्या का नवीकरण करके वहीं रहने लगता है। सागरिका की सहायता से कुश कुमुद्वती का प्रेम पनपने लगता है परन्तु अयोध्या को जनसम्मर्दित देखकर नायिका के पिता उसके वहां जाने पर रोक लगाते हैं परन्तु सागरिका की सहायता से तिरस्करिणी का आश्रय ले, नायक नायिका मिल ही लेते हैं। परन्तु कंचुकी से कुमुद (नायिका के पिता) को यह बात ज्ञात होने पर, वे नायिका का विवाह शंखपाल के साथ निश्चित करते हैं। इस बात पर विदूषक और लव मिल कर सर्पयज्ञ के द्वारा नागों का दर्पभंग करने की ठानते हैं। नायिका उन्मत्त होने का नाटक करती है और उसका उपाय करने के बहाने सिद्धयोगिनी के रूप में सागरिका और दिव्य शुक के रूप में कुश वहां आते हैं। यहां सर्पयज्ञ से आंतकित कुमुद प्राणरक्षा के लिए याचना करता है और कुश का कुमुद्वती के साथ, एवं लव का कमलिनी (कुमुद्वती की बहन ) के साथ विवाह होता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - - कुशलवचम्पू ले. वेंकटय्या सुधी । कुशलवविजयम् - ले, वेङ्कटकृष्ण दीक्षित ई. 17 वीं शती । तन्जौर के शाहजी महाराज की प्रेरणा से इस नाटक की रचना हुई । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 79 - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुशलवविजय-चम्पू - ले. प्रधान वेंकप्प । श्रीरामपुर के निवासी। कुसुमांजलि - ले. उदयानाचार्य । बौद्ध । दार्शनिक कल्याणरक्षित के ईश्वरभंग-कारिका (ईश्वरास्तित्वविरोध विषयक ग्रंथ) का खण्डन इस प्रसिद्ध ग्रंथ का विषय है। कुसुमांजलि - डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी (ई. 20 वीं शती) कृत मुक्तक काव्य। अनेक छंदों में देवता एवं महापरुषों का स्तवन इस का विषय है। कुहनाभैक्षवम् (प्रहसन) - ले. तिरुमल कवि। ई. 17501 विषय- कुहनाभैक्षव नामक भिक्षु के अहमदखान की रखैल से प्रणय की कथा। कूर्मपुराण - अठारह पुराणों के क्रमानुसार 15 वां पुराण । समुद्रमंथन के समय विष्णु भगवान की स्तुति करने वाले ऋषियों को कूर्म का अवतार लिये विष्णु ने यह पुराण सुनाया इस लिये इसे कूर्म पुराण कहा जाता है। पंचलक्षणयुक्त इस पुराण में विष्णु के अवतारों की अनेक कथाएं हैं। इसके दो खण्ड है। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध । विष्णु पुराण के अनुसार इसमें 17 हजार तथा मत्स्य पुराण के अनुसार 18 हजार श्लोक होने चाहिये, किन्तु केवल 6 हजार श्लोकों की संहिता उपलब्ध है। नारदसूची के अनुसार इस पुराण की ब्राह्मी, भागवती, सौरी तथा वैष्णवी- ये चार संहिताएं हैं किन्तु संप्रति केवल ब्राह्मी संहिता ही उपलब्ध है। हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार इस पुराण का कालखण्ड ई. 2 री शताब्दी है; पर पुराण निरीक्षक काळे इसे इ.स. 500 से पूर्व काल का मानते हैं। इसमें पाशुपत का प्राधान्य होने से कुछ विद्वानों ने इस का समय 6-7 वीं शती निर्धारित किया है। इसमें वैष्णव और शैव दोनों विषयों का समावेश है। शंकरमाहात्म्य, शिवलिंगोत्पत्ति, शंकर के 28 अवतार के अलावा विष्णुमाहात्म्य, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र के भ्रमण व मार्ग, ईश्वरगीता, व्यासगीता एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी के आचार धर्मों का विवेचन है। डॉ. हाजरा के मतानुसार यह पांचरात्र मत का प्रतिपादक प्रथम पुराण है। इ.स. 1564-1596 कालखण्ड में तिन्काशी के राजा अतिवीर राम पांड्य ने कूर्मपुराण का तमिल अनुवाद किया। इसका प्रथम प्रकाशन सन 1890 ई. में नीलमणि मुखोपाध्याय द्वारा "बिल्बियोथिका इण्डिका" में हुआ था, जिसमें 6 हजार श्लोक थे। प्रस्तुत पुराण में भगवान् विष्णु को शिव के रूप में तथा लक्ष्मी को गौरी की प्रतिकृति के रूप में वर्णित किया गया है। शिव को देवाधिदेव के रूप में वर्णित कर उन्हीं की कृपा से कृष्ण को जांबवती की प्राप्ति का उल्लेख है। यद्यपि इसमें शिव को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त है फिर भी ब्रह्मा, विष्णु व महेश में सर्वत्र अभेद स्थापित किया गया है तथा उन्हें एक ही ब्रह्म का पृथक् पृथक् रूप माना गया है। इसके उत्तर भाग में "व्यासगीता" का वर्णन है जिसमें गीता के ढंग पर व्यास द्वारा पवित्र कर्मों व अनुष्ठानों से भगवत्साक्षात्कार का वर्णन है। इसके एक अध्याय में सीताजी की ऐसी कथा वर्णित है जो रामायण से भिन्न है। इस कथा के अनुसार सीता को अग्निदेव ने रावण से मुक्त कराया था। प्रस्तुत पुराण के पूर्वार्ध, (अध्याय 12) में महेश्वर की शक्ति का अत्यधिक वैशिष्ट्य प्रदर्शित किया गया है और उसके चार प्रकार माने गये हैं- शांति, विद्या, प्रतिष्ठा एवं निवृत्ति । व्यासगीता के 11 वें अध्याय में पाशुपत योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है तथा उसमें वर्णाश्रम धर्म व सदाचार का भी विवेचन है। कृत्यकल्पतरु - ले. लक्ष्मीधर। कनौज राज्य के न्यायाधीश । ई. 12 वीं शती। इसके कुल 14 काण्ड हैं। इसमें धर्म, परिभाषा, संस्कार, आचमन, शौच, संध्याविधि, अग्निकार्य, इन्द्रियनिग्रह, आश्रमव्यवस्था, गृहस्थधर्म, विवाहभेद, आपत्ति, कृषि, प्रतिग्रह, व्यवहार-निरूपण, सभा, भाषा, क्रियादान, ऋणदान-विधि, स्तेय स्त्रीपुरुषयोग, तीर्थ, राजधर्म, मोक्षधर्म आदि विषयों का विवेचन किया गया है। "कृत्यकल्पतरु" का राजधर्मकाण्ड प्रकाशित हो चुका हैं। जिसमें राज्यशास्त्र विषयक तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं। यह काण्ड 21 अध्यायों में विभक्त है। पहले 12 अध्यायों में राज्य के 7 अंग वर्णित है। 13 वें तथा 14 वें अध्यायों में पाइगुण्यनीति व शेष 7 अध्यायों में राज्य के कल्याण के लिये किये गये उत्त्सवों, पूजा-कृत्यों तथा विविध पद्धतियों का वर्णन है। इसके 21 अध्यायों के विषय इस प्रकार हैं- राजप्रशंसा, अभिषेक, राज-गुण, अमात्य, दुर्ग, वास्तुकर्म-विधि, संग्रहण, कोश, दंड, मित्र, राजपुत्र-रक्षा मंत्र, षाड्गुण्य-मंत्र, यात्रा, अभिषिक्तकृत्यानि, देवयात्रा-विधि, कौमुदीमहोत्सव, इंद्रध्वजोच्छाय-विधि, महानवमी-पूजा, चिह्न-विधि, गवोत्सर्ग तथा वसोर्धारा इत्यादि। कृत्यचन्द्रिका - श्लोक- 96। रचयिता- रामचन्द्र चक्रवर्ती । इसमें सब कामनाओं की सिद्धि के लिए षडशीति संक्रान्ति (चैत्र की संक्रान्ति) से महाविषुव संक्रान्ति तक गणेश आदि की तथा कालार्क रुद्र की पूजापूर्वक शिवयात्रा वर्णित है। इससे शिवजी प्रसन्न होते हैं। यह तन्त्र शिवोपासनापरक है। कृषिपराशर - कृषि विषयक इस ग्रंथ के लेखक हैं पराशर । प्रस्तुत ग्रंथ की शैली से, यह ग्रंथ ईसा की 8 वीं शताब्दी का माना जाता है। अतः इस ग्रंथ के रचयिता पराशर, वसिष्ठ ऋषि के पौत्र सूक्तद्रष्टा पराशर से भिन्न होने चाहिये। प्रस्तुत ग्रंथ में खेती पर पड़ने वाला ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव, मेघ व उनकी जातियां, वर्षा का अनुमान, खेती की देखभाल, बैलों की सुरक्षितता, हल, बीजों की बोआई, कटाई व संग्रह, गोबर का खाद आदि संबंधी जानकारी दी गई है। कृत्यासूक्त -टीका - ले. पिप्पलाद। श्लोक 380। यह ग्रंथ प्रत्यङिगरासूक्त - टीका से नाम से भी प्रसिद्ध है। कृष्णकथारहस्यम् - कवि- शिौयंगार । 80/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कृष्णकर्णामृतम् - ले. बिल्वमंगल । कृष्ण की लीलाओं का 112 श्लोकों में वर्णन है। चैतन्यप्रभु इसका नित्य पाठ करते थे। इसमें हरिदर्शन की उत्कण्ठा, मन की कृष्णरूप अवस्था, हरि से साक्षात्कार तथा संवाद आदि विषय हैं। जयदेव के गीतगोविन्द के समान ही कृष्णकर्णामृत श्रेष्ठ काव्यगुणों से युक्त है। अंतर केवल इतना है कि जयदेव रसिक थे, बिल्वमंगल भक्त थे। इस खण्ड काव्य पर गोपाल, जीव गोस्वामी, वृन्दावनदास, शंकर, पालक ब्रह्मभद्र, पुरुपतिपापयल्लय सूरि और अवंच रामचन्द्र इन लेखकों ने टीकाएं लिखी हैं। इन के अतिरिक्त कर्णानन्द तथा शृंगाररंगदा नामक दो टीकाओं के लेखकों के नाम अज्ञात हैं। कृष्णकर्णामृतम् ले कृष्णलीलांशुक। पिता दामोदर मातानीली। 12 तरंगों का यह गीति काव्य अनुपम सौन्दर्ययुक्त गीतमाधुर्य के कारण अत्यंत प्रसिद्ध है । विषय- कृष्णलीला । अधिकतर कल्पनाएं हावभाव से तथा अभिनय से प्रदर्शित । हाव-नृत्यकारों में यह काव्य विशेष प्रचलित है। - कृष्णक्रीडा (अपरनाम कृष्णभावनामृतम्) - ले. केशवार्क । कृष्णकेलिमाला (नाटिका) ले नन्दीपति ई. 18 वीं शती । अंकसंख्या चार कृष्ण के जन्म तथा लीलाओं का वर्णन इस नाटिका का विषय है। - - www.kobatirth.org श्रीनिवास । ले. परशुराम । - कृष्णकेलि सुधाकर ले. रघुनन्दन गोस्वामी ई. 18 वीं शती। कृष्णगीता - ले. वेंकटरमण | कृष्णचन्द्रोदय कवि गोविन्द । पिता कृष्णचम्पू 1) ले. शेष सुधी । 2) कृष्णचरितम् ले मानदेव कवि कृष्णचरित (कृष्णविनोद) कवि मोतीराम । कृष्णचरित्रम् ले अगस्त्य ई. 14 वीं शती । । कृष्णनाटकम् ले. मानवेद । रचनाकाल ई. 1652। इसमें रूपक-परम्परा की अभिनव दिशा की प्रतिनिधि कृति । गीतिनाट्य । इसमें आख्यान तत्त्व पद्यों में और भावविशिष्ट तत्त्व गीतों में है। गुरुवायूर मन्दिर में प्रतिवर्ष इस गीतिनाट्य का अभिनय होता है । त्रिचूर के मंगलोदय कम्पनी द्वारा सन 1914 में प्रकाशित । कृष्णपदामृतम् (स्तोत्र ) ले. कृष्णनाथ सार्वभौम भट्टाचार्य ई. 17-18 वीं शती । · - - कृष्णभक्तिकाव्यम्ले अनन्तदेव । / । कृष्णभक्तिचंद्रिका ले अनंतदेव ई. 17 वीं शती पिताआपदेव । कृष्णभावनामृतम् ले. विश्वनाथ । कृष्ण यजुर्वेद - चार वेदों में यजुर्वेद द्वितीय वेद है। वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन यजुर्वेद के प्रथम आचार्य है। उन्होंने यह वेद अपने शिष्यों को सिखलाया। इस सम्बन्ध में एक कथा बतलाई जाती है कि इनके शिष्यों में याज्ञवल्क्य नामक एक शिष्य था, जिसका अपने गुरु के साथ झगडा हो जाने पर वैशंपायन ने उससे यह वेद उगल डालने के लिये कहा। याज्ञवल्क्य द्वारा उगला हुआ वेद व्यर्थ न जाए इस हेतु अन्य शिष्यों ने तित्तिरी पक्षियों के रूप में उसे पचा लिया। यही " तैत्तिरीय" नामक यजुर्वेद की शाखा की उत्पत्ति बताई जाती है । याज्ञवल्क्य ने आगे चलकर सूर्योपासना कर सूर्य से नये वेद की प्राप्ति की जिसे "शुक्ल यजुर्वेद" कहा गया। अर्थात् पूर्ववर्ती तैत्तिरीय शाखा को "कृष्ण यजुर्वेद" माना गया। पातंजल महाभाष्य के अनुसार यजुर्वेद की 101 शाखाएं थीं। चरणव्यूह में 86 शाखाओं (यजुर्वेदस्य षडशीति भेदा भवन्ति) का उल्लेख है किन्तु कृष्ण यजुर्वेद की 1) तैत्तिरीय 2 2) मैत्रायणी, 3) काठक और 4) कपिष्ठल यह केवल चार शाखाएं ही उपलब्ध हैं । श्वेताश्वतर भी इसकी एक शाखा है, किन्तु अब केवल उसका उपनिषद् ही उपलब्ध है । आनंदसंहिता के अनुसार कृष्ण यजुर्वेद की कौडिण्य अथवा अग्निवेश नामक शाखा भी थी किन्तु इस शाखा का अब केवल गृह्यसूत्र ही उपलब्ध है। तैत्तिरीय शाखा के संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथ उपलब्ध हैं। कठ और कपिष्ठल संहिताओं को चरकसंहिता भी कहा जाता है। चरक यह वैशम्पायन का ही नाम माना जाता है। कृष्णयामलम् - श्लोक 460 | व्यास नारद संवादरूप। इसमें कृष्ण की महिमा का प्रतिपादन किया गया है जिसमें वृन्दावन का आरोहण, विद्याधर आदि का प्रत्यागमन, विद्याधरी को कृष्ण का शाप, विद्याधर के साथ नारदजी का निर्गमन, कृष्ण के किंकर की उत्पत्ति, मदालसा का उपाख्यान, ऋतुध्वज का पितृपुर में प्रवेश, कालयवन का भस्म होना आदि विषय वर्णित हैं। कृष्णराजकलोदय- चम्पू ले. यदुगिरि अनन्ताचार्य । विषय मैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र कृष्णराजगुणाल कृष्णराज वोडियर का कृष्णराजप्रभावोदय ले. श्रीनिवास विषय मैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र । कृष्णराजयशोडिण्डिम ले. अनन्ताचार्य । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले. त्रिविक्रमशास्त्री । विषय- मैसूर नरेश चरित्र । कृष्णराजाभ्युदय कवि - भागवतरत्न । विषय- मैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र - - | कृष्णराजेन्द्रयशोविलास चम्पू ले.एस. नरसिंहाचार्य विषयमैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र । कृष्णराजोदय-चम्पू ले. गीताचार्य । विषय- मैसूर नरेश कृष्णराज वोडियर का चरित्र । कृष्णलहरी ( सटीक ) कृष्णलीला - - - ले. वासुदेवानन्द सरस्वती। 1) ले. मदन । ई. 17 वीं शती घटखर्पर संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 81 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काव्य की पंक्तियों को समस्या रूप में लेकर श्लोकपूर्ति इस काव्य में की है। इस प्रकार घटखर्पर के एक श्लोक से मदन के चार श्लोक हुए हैं। 2) ले. कृष्णमिश्र। ___3) ले. अच्युत रावजी मोडक। ई. 19 वीं शती। कृष्णलीलातरंगिणी - 1) कवि नारायणतीर्थ। ई. 18 वीं शती। कृष्णलीला विषयक संगीतिका। इसमें 12 तरंग हैं। तथा कृष्णचरित्र के रुक्मिणीहरण प्रसंग तक घटनाओं का समावेश है। यह ग्रंथ 36 दाक्षिणात्य रागों में रचा गया है। 2) ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । कृष्णलीलामृतम् - कवि- महामहोपाध्याय लक्ष्मण सूरि । ई. 19 वीं शती। कृष्णलीलास्तव - ले.कृष्णदास कविराज । ई. 16 वीं शती। कृष्णलीलोद्देशदीपिका - ले.कर्णपूर। कांचनपाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती। कृष्णविजयम् - 1) ले.-रामचन्द्र। 2) शंकर आचार्य । कृष्णविलास-1) कवि-प्रभाकर । 2) दीक्षित । 3) पुण्यकोटि । कृष्णविलासचम्पू - 1) ले.- लक्ष्मण। 2) नरसिंह सूरि। अनन्तराय का पुत्र । 3) वीरेश्वर । 4) कृष्णशास्त्री। कृष्णशतकम् - 1) मूल तेलगु काव्य का अनुवाद । अनुवादक चिट्टीगुडूर वरदाचारियर । 2) वाक्तोल नारायण मेनन । केरलवासी। कृष्णस्तुति - ले.धर्मसूरि। ई. 15 वीं शती। कृष्णायनम् - ले.भारद्वाज। सात सर्ग। कृष्णार्चनदीपिका - ले.चैतन्यमत के एक आचार्य जीव गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। इस ग्रंथ में कृष्ण-पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। कृष्णार्जुनविजयम् (नाटक) - ले.सी.वी.वेंकटराम दीक्षितार । 1944 में पालघाट से प्रकाशित। अंक संख्या- पांच। अंतिम अंक में तीन दृष्य, अन्य प्रत्येक में दो दृश्य हैं। जिस पर श्रीकृष्ण क्रुद्ध थे, ऐसे गय नामक गन्धर्व की युधिष्ठिर द्वारा रक्षा की कथा इस का विषय है। कृष्णानंदकाव्यम् - ले.नित्यानन्द। ई. 14 वीं शती। कृष्णाभ्युदयम् ( नाटक) - ले.लोकनाथ भट्ट। ई. 17 वीं शती। प्रथम अभिनय कांचीपुर में हस्तगिरिनाथ की वार्षिक यात्रा महोत्सव के अवसर पर हुआ। विषय- कृष्णजन्म की कथा। जबलपुर से सन 1964 ई. में प्रकाशित। 2) वरदराजयज्वा। 3) तिम्मयज्वा। 4) यलेयवल्ली श्रीनिवासार्य। पिता- वेंकटेश। 5) वरदादेशिक। पिता- आप्पाराय। कृष्णामृततरंगिका- कवि- वेंकटेश। कृष्णामृत-महार्णव - श्रीकृष्ण की स्तुति में प्राचीन ऋषि मुनियों एवं कवियों के सरस पद्यों का यह संकलन है। संकलन कर्ता द्वैतमत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। कृष्णह्निकौमुदी (लघुकाव्य)- ले.कवि कर्णपूर ई. 16 वीं शती। कृष्णोदन्त - कवि- भास्कर। विषय- कृष्णकथा । केतकीग्रहगणितम् - ले.व्यंकटेश बालकृष्ण केतकर। केतकीवासनाभाष्यम - ले.व्यं.बा.केतकर । विषय-ज्यं केनोपनिषद् - यह सामवेद की तलवकार- शाखा के अंतर्गत नवम अध्याय है। अतः इसे तलवकारोपनिषद् या जैमिनीयउपनिषद् कहते हैं। इसके प्रारंभ में "केन" शब्द आया है (केनेषितं पताति) जिसके कारण इसे केनोपनिषद् कहा जाता है। इसके छोटे छोटे 4 खंड हैं जो अंशतः गद्यात्मक व अंशतः पद्यात्मक गुरु-शिष्य संवाद रूप है। प्रथम खंड में शिष्य द्वारा यह पूछा गया है कि इंद्रियों का प्रेरक कौन है। इसके उत्तर में गुरु ने इंद्रियादि को प्रेरणा देने वाला परब्रह्म परमात्मा को मानते हुए उनकी अनिर्वचनीयता का प्रतिपादन किया है। द्वितीय खंड में जीवात्मा को परमात्मा का अंश बता कर, संपूर्ण इंद्रियादि की शक्ति को ब्रह्म की ही शक्ति माना गया है तथा तृतीय व चतुर्थ खंडों में उमा हैमवती के आख्यान द्वारा अग्नि प्रभृति वैदिक देवताओं की सारी शक्ति ब्रह्ममूलक मान कर ब्रह्म की महत्ता और देवताओं की अल्पशक्तिमत्ता स्थापित की गई है। इसमें ब्रह्म-विद्या के रहस्य को जानने के साधन, तपस्या, मन-इंद्रियों का दमन तथा कर्तव्यपालन बतलाये गये हैं। आचार्यों ने इस पर भाष्य लिखे हैं। केरल-ग्रंथमाला - "मित्रगोष्ठी' पत्रिका के अनुसार 1906 में दक्षिण मलबार के कोट्टकाल नगर से इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसका सम्पादन कालीकत के जैमोरिणवंशी करते थे। लगभग 64 पृष्ठों वाली इस पत्रिका में केरलीय संस्कृत वाङ्मय प्रकाशित होता था। केरलभाषाविवर्त - मूल मलयालम ग्रन्थ का अनुवाद । अनुवादक हैं- ई.व्ही. रामानुज नम्बुद्री (नम्पुतिरी) केरलाभरण-चम्पू -ले. रामचंद्र दीक्षित। ई. 17 वीं शती। पिता- केशव (यज्ञराम) दीक्षित जो "रत्नखेट" श्रीनिवासदीक्षित के परिवार से सम्बन्धि थे। इस चम्पू काव्य में इन्द्र की सभा में वसिष्ठ व विश्वामित्र के इस विवाद का वर्णन है कि कौनसा प्रदेश अधिक रमणीय है। इंद्र के आदेशानुसार मिलिंद व मकरंद नामक दो गंधर्व भ्रमण करने निकलते हैं और केरल की रमणीय प्रकृति पर मुग्ध होकर उसे ही सर्वाधिक श्रेष्ठ घोषित करते हैं। इसकी भाषा अनुप्रासमयी व प्रौढ है। यह ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। केरलोदय- (महाकाव्य) - ले. एलुतच्छन्। केरलनिवासी। प्रस्तुत महाकाव्य को सन 1979 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। 82 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केलिकल्लोलिनी- (काव्य) - ले. अनादि मिश्रा। ई. 18 वीं शती। केलिरहस्यम् - ले. विद्याधर कविराज। केवलज्ञानहोरा - ले. ज्योतिषशास्त्र के एक जैन आचार्य चंद्रसेन। कर्नाटक प्रान्त के निवासी। इन्होंने अपने इस ग्रंथ में कहीं कहीं कन्नड भाषा का भी प्रयोग किया है। अपने विषय का यह एक विशालकाय ग्रंथ है जिसमें लगभग 4 हजार श्लोक हैं। विषय- हेम, धान्य, शिला, मृत्तिका, वृक्ष, कार्पास,गुल्म- वल्कल- तृणरोम-चर्मपट, संख्या, नष्टद्रव्य, स्वप्न निर्वाह, अपत्य, लाभालाभ, वास्तु-विद्या, भोजन, देहलोक-दीक्षा अंजन-विद्या व विश्वविद्या नामक प्रकरणों में विभाजित है। इस विषय-सूचि के अनुसार यह ग्रंथ होरा विषयक न होकर संहिता विषयक सिद्ध होता है। ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार ने स्वयं अपनी प्रशंसा की है। केवलिमुक्ती (अमोघवृत्तिसंहिता) - ले. शाकटायन पाल्यकीर्ति जैनाचार्य। ई. 9 वीं शती। केशववैजयंती - ले. नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। कैतवकला (भाण) - ले.नारायण स्वामी। ई. 18 वीं शती। श्रीरंगपत्तन में अभिनीत।। कैयटव्याख्या - ले. नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण। कैलासकम्प (नाटक) - ले. श्रीराम भिकाजी वेलणकर । मार्च 1963 में दिल्ली से प्रसारित। अंकसंख्या तीन। आद्यन्त गेय पद। सुपरिचित छन्दों के साथ उमानाथ, सम्पात, नयन और शस्त्र-सन्धि इन नये स्वरचित छन्दों का प्रयोग। दृश्यस्थली कैलास। प्राकृत भाषा का अभाव। कथासार - चीन भारत पर आक्रमण करता है। भयग्रस्त जनता शिव से रक्षा चाहती है। शशांक, स्वर्गंगा, गणेश भी भयभीत हैं और कैलास पर्वत जड से आतंकित। अन्त में युद्ध समाप्त होता है और शिव की कृपा से कैलास पर शान्ति स्थापित होती है। कैलासनाथविजय (व्यायोग) - ले. जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894। बंगाल के राज्यपाल कैलासनाथ काटजू के आगमन पर अभिनीत। कैलासवर्णन-चम्यू- ले.नारायण भट्टपाद । कैवल्यकलिकातन्त्र-टीका - श्लोक- 468। यह कैवल्यकलिकातन्त्र के द्वितीय पटल की टीका है। ले. विश्वनाथ। पिता- वामदेव भट्टाचार्य। पितामह-वैदिक पंडित नारायण भट्टाचार्य। कैवल्यतन्त्रम् - श्लोक- 1681 5 पटलों में पूर्ण। इसमें तांत्रिकों में प्रसिद्ध पंच तत्त्व -मत्स्य, मांस, मद्य आदि का उपयोग वर्णित है। कैवल्य-दीपिका- 1) ले. पुसदेकर शाङ्गधर । ई. 16 वीं शती। 2) ले. हेमाद्रि। ई. 13 वीं शती। पिता- कामदेव । कैवल्यावली-परिणयम् (रूपक) - ले. इल्लूर रामस्वामी शास्त्री। ई. 19 वीं शती। कैवल्योपनिषद् - शांतिपाठ के अनुसार यह उपनिषद् कृष्णयजुर्वेदीय प्रतीत होता है, किन्तु इसके अंत में “अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषत् समाप्त" लिखा होने के कारण यह अथर्ववेदीय होना चाहिये। इसके दो खंड हैं। प्रथम खण्ड में 23 श्लोक हैं जब कि दूसरे खण्ड में केवल फलश्रुति है। इसमें ब्रह्मदेव द्वारा आश्वलायन को ब्रह्मविद्या बतायी गयी है। श्रद्धा, भक्ति व ध्यान, तीनों के योग से ब्रह्मविद्या प्राप्त हो सकती है, तथा त्याग से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। इस लिये संन्यासाश्रम स्वीकार कर इन्द्रियसंयम पूर्वक परम तत्त्व नीलकण्ठ शिव का ध्यान करना चाहिये, यही उक्त उपनिषद का सार तत्त्व है। अद्वैतपरक इस उपनिषद् का झुकाव शैव सम्प्रदाय की ओर है। कोकिलदूतम् - 1) ले. म.म. प्रमथनाथ तर्कभूषण। 2) ले. हरिदास। ई. 18 वीं शती। कोकसंदेश - ले. विष्णुत्रात। समय ई. 16 वीं शती। इस संदेश काव्य में नायक राजकुमार अपनी प्रिया से एक यंत्रशक्ति के द्वारा वियुक्त हो जाता है, और श्रीविद्यापुर से प्रिया को संदेश भेजता है। इसके पूर्व भाग में 120 व उत्तर भाग में 186 श्लोक रचे गये हैं। संपूर्ण काव्य मंदाक्रांता वृत्त में लिखा गया है। इसमें वस्तु-वर्णन का आधिक्य है और प्रेयसी के गृह वर्णन में 50 श्लोक है। कोकिलसंदेश - 2) ले. उद्दण्ड कवि। समय ई. 16 वीं शती का प्रारंभ। कालीकत के राजा जमूरिन के सभाकवि । पिता रंगनाथ। माता- रंगाबा। इसमें पूर्व व उत्तर दो भाग हैं और सर्वत्र मंदाक्रांता वृत्त का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत काव्य की कथा काल्पनिक है। कोई प्रेमी जो प्रासाद में अपनी प्रिया के साथ प्रेमालाप करते हुए सोया हुआ था, प्रातःकाल अप्सराओं द्वारा कंपा नदी पर स्थित कांची नगरी के भवानी मंदिर में स्वयं को पाता है। उसी समय आकाशवाणी होती है कि यदि वह 5 मास तक यहां रहे तो पुनः उसे अपनी प्रिया का वियोग नहीं होगा। वहां रहते हुए जब 3 मास व्यतीत हो जाते हैं तो उसे प्रिया की याद आती है और वह कोकिल के द्वारा उसके पास संदेश भेजता है। वसंत ऋतु में कोकिल का कल-कूजन सुनकर ही उसे अपनी प्रिया की स्मृति हो आती है। अतः कोकिल द्वारा ही वह अपना संदेश भिजवाता है। इसमें कांची नगरी से लेकर जयंतमंगल (चेन्न मंगल) तक के मार्ग का मनोरम चित्र अंकित किया गया है। 3) ले. वेंकटाचार्य। ई. 17 वीं शती। कोमलाम्बाकुचशतकम् - ले. सुन्दराचार्य । पिता- रामानुजाचार्य। कोविदानंदम् - ले. आशाधर भट्ट (द्वितीय)। ई. 17 वीं संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /83 For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शताब्दी का अंतिम चरण। उनके अलंकार शास्त्र विषयक अन्य दो ग्रंथ हैं- त्रिवेणिका व अलंकारदीपिका। प्रस्तुत "कोविदानंद" अभी तक अप्रकाशित हैं किंतु इसका विवरण "त्रिवेणिका में प्राप्त होता है। इसमें शब्द-वृत्तियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। डॉ. भांडारकर ने प्रस्तुत "कोविदानंद" के एक हस्तलेख की सूचना दी है जिसमें निम्न श्लोक है "प्राचां वाचा विचारेण शब्दव्यापारनिर्णयम्। करोमि कोविदानंदं लक्ष्यलक्षासंयुतम्।। शब्दवृत्ति के अपने इस प्रौढ ग्रंथ पर स्वयं ग्रंथकार आशाधर भट्ट ने ही "कादंबिनी" नामक टीका लिखी है। कोसलभोसलीयम् - ले. शेषाचलपति। (आन्ध्रपाणिनि उपाधि) अपूर्व भाषापाण्डित्य। यह द्वयर्थी काव्यरचना है। कोसल वंशीय राम की कथा तथा एकोजी पुत्र शाहजी भोसले के चरित्र का श्लेष अलंकारद्वारा वर्णन इसका विषय है। शाहजीद्वारा कवि का कनकाभिषेक से सत्कार हुआ था। कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्- प्रणेता-कौटिल्य, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के मंत्री एवं गुरु। इन्होंने अपने बुद्धिबल व अद्भुत प्रतिभा के द्वारा नंद-वंश का अंत कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। प्रस्तुत ग्रंथ में भी इस तथ्य का संकेत है कि कौटिल्य ने सम्राट चंद्रगुप्त के लिये अनेक शास्त्रों का मनन व लोक-प्रचलित शासनों के अनेकानेक प्रयोगों के आधार पर इस ग्रंथ की रचना की थी "सर्वशास्त्रण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च। कौटिल्येन नरेंद्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः ।।" कौटिल्य के नाम की ख्याति कई नामों से है। चणक के पुत्र होने के कारण "चाणक्य' व कुटिल राजनीतिज्ञ होने के कारण ये "कौटिल्य" के नाम से विख्यात हैं। यो दोनों ही नाम वंशज नाम या उपधिनाम हैं, पितृदत्त नाम नहीं। कामंदक के "नीतिशास्त्र" से ज्ञात होता है कि इनका वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। "नीतिशास्त्रमृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदयः। य उद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे । 16 ।। यह ग्रंथ सन 1905 में उपलब्ध हुआ तब आधुनिक युग के कतिपय पाश्चात्य व भारतीय विद्वानों ने यह मत प्रतिपादन किया "अर्थशास्त्र" कौटिल्य विरचित नहीं है। जोली, कीथ व विंटरनित्स ने अर्थशास्त्र को मौर्य मंत्री की रचना नहीं मानी है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति मौर्य जैसे सुविशाल साम्राज्य की स्थापना में जुटा रहा, उसे इतना समय कहा था जो इस प्रकार के बृहत् ग्रंथ की रचना कर सके। किन्तु यह कथन अयोग्य माना जाता है क्यों कि सायणाचार्य जैसे व्यस्त जीवन व्यतीत करने वाले महामंत्री ने वेद-भाष्यों की रचना की थी। अतः यह कथन असिद्ध माना जाता है। जोली, कीथ और विंटरनित्स ने "अर्थशास्त्र" को तृतीय शताब्दी की रचना माना है किन्तु आर.जी. भांडारकर ने अनुसार इसका रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी है। इस ग्रंथ में कौटिल्य ने “अर्थशास्त्र" की व्याख्या इस भांति की है- तस्याः पृथिव्याः लाभपालनोपायः शास्त्रम् अर्थशास्त्रम् (कौ.अ.15-1) अर्थःपृथ्वी पर जो सम्पत्ति है, उसका लाभ उठाकर उस (पृथ्वी) का पालन करने का उपाय जिसमें है, वही यह अर्थशास्त्र है। "अर्थ एवं प्रधानः इति कौटिल्यः। अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति (को.अ. 7) अर्थ- अर्थ ही प्रधान है। धर्म और काम अर्थमूलक हैं। अपने पूर्व के 28 अर्थशास्त्रज्ञों का उल्लेख कौटिल्य ने किया है। इसका अर्थ यही है कि नन्द के काल तक अर्थशास्त्र स्वतंत्र विद्या के रूप में मान्य हो चुका था। कौटिल्य के प्रस्तुत अर्थशास्त्र में पंद्रह अधिकरण है। उनके विषय :1) विनयाधिकार - अमात्योत्पत्ति, मंत्री, पुरोहित की नियुक्ति मंत्रियों की सत्त्वपरीक्षा, गुप्त विचार, राजकुमारों की रक्षा और कर्तव्य, अन्तःपुर का प्रबंध, आत्मरक्षण, दूतकर्म आदि। 2) अध्यक्षप्रचार - शासन संस्था के प्रमुख याने अध्यक्ष के कर्त्तव्य , उनके विभाग, दुर्ग = किलों का निर्माण, करग्रहण, रत्नपरीक्षा, खनिज पदार्थों के उद्योगों का संचालन, वजन, ताप, सेनापति के कार्य, गुप्तचरों की योजना आदि। 3) धर्मस्थानीय - विवादों का निर्णय, विवाहविषयक नियम, दायविभाग, गृहवास्तु, श्रम एवं संपत्ति का विनियोग, लावारिस धन की व्यवस्था आदि । 4) कंटकशोधन - कारीगरों एवं व्यापारियों की सुरक्षा, दैवी संकट पर उपाय, गुंडे तथा अत्याचारी लोगों का दण्डन । 5) योगवृत्त - राजा के प्रति सेवकों का कर्तव्य, विश्वासघातकों का प्रतिकार, कोशसंग्रह। 6) मंडलयोनिः - शत्रुओं को वश करने का उपाय, उद्योग, शांति। 7) षाड्गुण्य - राजनीति के षड्गुणों का उद्देश्य, उनके स्थान, वृद्धि-क्षय, युद्धविचार, संधि, विग्रह, विक्रम, प्रबलशत्रु से व्यवहार की नीति। 8) व्यसनाधिकारिक - राज्य पर जो संकट आते हैं, उनके मूल कारणों की खोज करना एवं शांति के उपाय। 9) अभियास्यत्कर्म - युद्ध प्रस्थान की तैयारी, बाह्य-आभ्यंतर आपत्ति, अर्थानर्थसंशय, उनका विवेचन और उपाय। 10) सांग्रामिक - सेना का प्रयाण, पडाव, कूटयुद्ध, युद्धभूमि, व्यूह, प्रतिव्यूह आदि। 11) संघवृत्त- संघराज्य में फूट डालने का विचार, उसके नियम। 12) अबलीयस् - दुर्बल राजा प्रबल राजा का प्रतिकार कैसे करे, मंत्रयुद्ध शस्त्र, अग्नि और रस का प्रयोग। 13) दुर्गलंभोपाय - शत्रु के किलों पर अधिकार करने के 84 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाय, जित प्रदेशों में शांति की स्थापना। 14) औपनिषदिक - शत्रुनाश के विभिन्न प्रयोग, अपने पक्ष की रक्षा, औषधि, मंत्र का प्रयोग। 15) तंत्रयुक्ति - अर्थशास्त्र का अर्थ, बत्तीस युक्तियों के नाम, उनका अर्थ आदि। इस ग्रंथ में 15 अधिकरण, 150 अध्याय और 180 उपविभाग हैं। कौटिल्य व मनु में कुछ मतभेद हैं। कौटिल्य नियोगपद्धति (ब्राह्मणों के लिये) के समर्थक है। मनु ने विधवा विवाह को अमान्य किया है। कौटिल्य ने उसे मान्य किया है। मनु द्यूत के विरोध में हैं, तो कौटिल्य चोर-डाकू अपराधियों को पकड़ने के लिये, यह व्यवस्था राजा के नियंत्रण में आवश्यक बताते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति में कौटिल्य के अनेक मतार्थ किये गए हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र तथा कामसूत्र में अनेक विषयों में साम्य है। कौटिलीय अर्थशास्त्र पर अब तक भट्टस्वामी कृत "प्रतिपदपंचिका" एवं माधवयज्वकृत "नयचंद्रिका" ये दो भाष्य प्रकाशित हुये हैं। कौण्डिन्य शाखा - कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित सौत्र शाखा । कौण्डिन्य सूत्र से उद्धृत वचन कई ग्रंथों में मिलते हैं। कुण्डिन को तैत्तिरियों का वृत्तिकार भी कहा गया है। कौण्डिन्यप्रहसनम् - ले.महालिंग शास्त्री (जन्म- 1897) कथासार - गृध्रनास को पृथुक (पोहे) खरीदते देख, परान्नभोजी कौडिन्य उसका पीछा करता है। गृध्रनास उसकी दृष्टि बचाकर घर में प्रवेश कर दरवाजा बन्द करना चाहता है। गृधनास शीघ्र से पोहे खाने लगता है, तो जीभ जलती है और वह चिल्लाता है। तब कौंडिन्य रसोई में पहुंचता है। उसे टालने हेतु गृधनास की पत्नी जिह्मता कहती है कि उनके मुंह में फोडा होने से बडी पीडा है, शीघ्र वैद्य को बुलाइये। कौण्डिन्य बाहर देहली के पास भूसे में छिपता है। जिह्नता यह देख बहाना बनाती है कि उसे ब्रह्मराक्षस ने पकड़ लिया। गृध्रनास ब्रह्मराक्षस को (वस्तुतः कौण्डिन्य को) मारने मूसल उठा कर देहली तक दौडा जाता है। कौण्डिन्य हाथ में भूसा लेकर तैयार ही है। गृध्रनास के मुख पर वह भूसा फूंकता है। आंखों में भूसा जाने से वह चिल्लाता रहता है उसके पीछे जिह्मता भी दौडी जाती है, इतने में कौण्डिन्य पूरा पोहा खा जाता है और पूछता है कि वैद्य को फोडे के लिए बुलाऊं या अन्धत्व दूर करने। फिर कहता है कि अतिथि को छोड अकेले खाने से मनुष्य ब्रह्मराक्षस बनता है, उससे मैने गृध्रनास को बचाया। कौत्सस्य गुरुदक्षिणा - ले. वासुदेव द्विवेदी। वाराणसी की संस्कृत प्रचार पुस्तक- माला में प्रकाशित । एकांकी रूपक। कौतुकचिन्तामणि - श्लोक- 1025 | विषय- स्तंभन, वशीकरण, वाजीकरण, कृत्रिम-वस्तुकरण, जनोपकार, वृक्षदोहन, परसेना-स्तंभन, अङ्गरक्षण, गृहदाहस्तंभन, खङ्गस्तंभन, अग्निस्तंभन तथा जलस्तंभन के भेद वीर्यस्तंभन, स्त्रीवशीकरण, आकर्षण, विविध अंजननिर्माण, अदृश्यकरण, पाषाणचर्वण, नाना-रूपकरण, मत्स्य-सर्पकरण आदि। ये तांत्रिक विषय राजा के लिए आवश्यक बताए गए हैं। कौतुकरहस्यम् - ले. पण्डित चूडामणि। विषय- स्तंभन, वशीकरण, वाजीकरण, लोगों को अदृश्य कर देना, वृक्षों पर फल-फूल खिलाना, बाढ को रोकना, जलती आग में कूदने पर भी न जलना आदि। इसकी पुष्पिका में दो मन्त्र भी दिये गये हैं किन्तु उनकी भाषा समझ में नहीं आती। कौतुकरत्नाकरम् (प्रहसन) - ले. कवितार्किक। ई. 16 वीं शती। कथा - पुण्यवर्जिता नगरी के राजा दुरितार्णव की रानी दुःशीला का अपहरण होता है। वसन्तोत्सव का समय है, इसलिए राजा अपने मंत्रिगण "कुमतिपुंज' तथा "आचारकालकूट", वैद्य "व्याधिवर्धक", ज्योतिषी "अशुभचिन्तक" सेनापति “समरकातर" तथा गुरु "अजितेन्द्रिय" आदि से सलाह लेकर अनंगतरंगिणी नामक वेश्या को पत्नी बनाता है। तभी विदित होता है कि रानी का अपहरण "कपटवेषधारी' नामक ब्राह्मण ने किया है। वही ब्राह्मण अनङ्गतरंगिणी से भी प्रणय रचाता है, परंतु वह उसे उठाकर पटकती है। न्यायालय में ब्राह्मण कपटवेषधारी अपराधी घोषित होता है किन्तु वसन्तोत्सव में उसका अपराध धुल जाता है। कौतुकसर्वस्वम् (प्रहसन) - ले. गोपीनाथ चक्रवर्ती। ई. 18 वीं शती। अंक संख्या - दो। धर्मनाश नगरी के राजा, कलिवत्सल, मन्त्री शिष्टान्तक, पुरोहित धर्मानल, सेवक अनंग सर्वस्व, पण्डित पीडाविशारद आदि का व्यंगात्मक चरित्र वर्णित है। कौतूहल- चिन्तामणि - ले. नागार्जुन। विषय- शत्रु के घर को गिराना, उच्चाटन, वशीकरण, हनन, वैरजनन, बन्धमोचन आदि विविध कृत्यों के तन्त्र-मन्त्र और उपाय। कौतूहलविद्या - श्लोक-149। ले. नित्यनाथ । माता- पार्वती। विषय- व्याधि और दारिद्रय हरने वाला तथा जरा और मृत्यु से बचाने वाला इन्द्रजाल। इसमें कबूतर, बकरी, मोर आदि को उत्पन्न करनेवाली विविध औषधियाँ बतायी गयी हैं एवं वशीकरण के मन्त्र आदि वर्णित हैं। कौथुम-संहिता - सामवेद की कौथुम शाखीय संहिता के मुख्यतः दो भेद हैं- 1) आर्चिक और गेय। आर्चिक के भी दो भाग हैं- 1) पूर्वाचिक और 2) उत्तरार्चिक । पूर्वार्चिक को छन्द, छंदसी या छंदसिका भी कहते हैं। विषयानुसार पूर्वार्चिक के चार भाग हैं 1) आग्नेयपर्व 2) ऐंद्रपर्व 3) पवमान पर्व और 4) आरण्यक पर्व। बीच में महानाम्नी आर्चिक प्रकरण भी आता है। फिर उत्तरार्चिक के विषयानुसार 7 भाग हैं1) दशरात्र 2) संवत्सर 3) एकाह 4) अहीन 5) सत्र 6) प्रायश्चित्त 7) क्षुद्र। ऋचाओं को आर्चिक कहते हैं। आर्चिका योनिग्रंथ कहलाता है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 85 For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संहिता के द्वितीय भेद 'गान' के चार भाग हैं- 1) गेय, 2) आरण्यक, 3) ऊह 4) ऊह्य। पूर्वार्चिक में गेय और आरण्यक गान हैं, तो उत्तरार्चिक में ऊह और ऊह्य गान । दोनों आर्चिकों में ऋचाएं हैं और तन्मूलक ही ये चार गान हैं। इन चारों गानों की ऋचाएं क्रमबद्ध नहीं हैं। पूर्वार्चिक में 6 प्रपाठक और उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक हैं। कुल संहिता की मन्त्र संख्या 1810 है। 75 मन्त्रों को छोड शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद में पाये जाते हैं। दशरात्र पर्व से सत्रान्त तक यागों में उद्गातृगण द्वारा गाये जाने वाले स्तोत्र इस संहिता में संकलित हैं। सामवेद की कौथुम शाखा का प्रचार गुजरात में अधिक है। कौथुमों का गृह्यसूत्र उपलब्ध है। उनका कल्पसूत्र होने की भी संभावना है। कौमारबलि - श्लोक- 120। विषय- स्कन्द (कार्तिकेय) की पूजा एवं बलिदान विधि आदि । कौमारीपूजा - इसमें सप्त मातरों में अन्यतम कौमारी देवी की पूजापद्धति निर्दिष्ट है। इसका काल नेपाली संख्या 400 या 1280 ई. कहा गया है। कौमुदी - गोल्डस्मिथ के मूल हरमिट नामक अंग्रेजी काव्य का अनुवाद । अनुवादक- क्रागनोर का राजवंशीय कवि रामवर्मा। कौमुदी - सन 1944 में हैदराबाद (सिन्ध) से श्रीसरस्वती परिषद् की ओर से पं. कालूराम व्यास के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ था। यह प्रति पौर्णिमा को प्रकाशित की जाती थी। इसका वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया था। कौमुदी-मित्रानंदम् (प्रकरण) - ले. गुरु रामचंद्र। रचना काल 1173 के 1176 ई. के आसपास। इस प्रकरण में अभिनय के तत्त्वों का अभाव पाया जाता है। इसका प्रकाशन 1917 में भावनगर से हो चुका था। कौमुदी-सुधाकरम् (प्रकरण) - ले. चन्द्रकान्त । रचनाकालसन 1888। हरचन्द्र के पुत्र हेमचन्द्र और चारुचन्द्र के विवाह अवसर पर अभिनीत । कलकत्ता से सन 1888 में प्रकाशित । कथावस्तु उत्पाद्य । “भवभूति" के "मालती-माधव'"से प्रभावित । कथासार- कात्यायनी यात्रा महोत्सव में नायिका कौमुदी को देख नायक सुधाकर मोहित होता है। खण्डमुण्डन नामक कापालिक नायिका का अपहरण करता है। नायक उसे ढूंढ लेता है परन्तु राजा वसुमित्र के लिए फिर उसका अपहरण होता है। भगवती उसकी रक्षा करती है, अन्त में दोनों का विवाह होता है। कौमुदी-सोम (रूपक) - ले. ब्रह्मश्री कृष्णशास्त्री । रचनाकालसन 1860, केरलनरेश रामवर्मा के अभिषेक अवसर पर प्रथम बार अभिनीत। स्वयं राजा उपस्थित थे। अंकसंख्या पांच। सन 1886 में मद्रास से प्रकाशित। यह एक प्रतीक नाटक है। प्रकृति के विविध तत्त्व मानवीय प्रवृत्ति में प्रदर्शित हैं। प्रमुख रस-शृंगार। कथासार - पुष्करपुरी के राजा शरदारम्भ की कन्या कौमुदी की जन्म अशुभ मुहूर्त पर होता है। अशुभ निवारणार्थ उसे कस्तूरिका गणिका को सौंपते हैं। ज्योत्स्रावती नगरी की रानी तारावती के वसन्तोत्सव में कस्तूरिका के साथ नायिका संमिलित होती है। उस पर ज्योत्स्रावती का नरेश सोम मोहित होता है। यहां सोम की राजधानी पर अन्धकार आक्रमण कर कौमुदी का अपहरण करता है परन्तु गभस्तिदेवी उसे बचाती है। कौलगजमर्दनम् - श्लोक- 624। ले. श्रीकृष्णानंदाचल । रचनाकाल - सन 1954। इसमें तन्त्र-मन्त्र का, विशेषतः कौल क्रियाओं का खण्डन, विविध तन्त्रों का तथा पुराणों के वचन प्रमाण से किया गया है। कौलज्ञाननिर्णय - योगिनीकौलमत का एक प्रमुख ग्रंथ । श्लोक- 567। इसमें भैरवी एवं देवी के संवादों के माध्यम से सृष्टिसंहार, कुललक्षण, जीवलक्षण, अजरामरता, चक्र, शक्तिपूजा, ध्यानयोगमुद्रा, परमवज्रीकरण, भैरवावतार, ज्ञानसिद्धि, क्रियासिद्धि, योगिनीकौलमत व अन्य कौलपरम्परा का विवरण है। कौलतन्त्रम् - श्लोक- 104 । पटल-5। भैरवी-भैरव संवादरूप। इस ग्रंथ में कौल सम्प्रदायानुसार तारा और काली की पूजा का प्रतिपादन है जिनमें ताराकल्पस्थ, तारारहस्य, ताराचार तथा कालीकल्प के विषय प्रमुखता से वर्णित हैं। कौलरहस्यम् (रजस्वलास्तोत्र) - ले.तरुणीवीरेन्द्र । नरोत्तमारण्य मुनीन्द्र का शिष्य। कौलादर्श - श्लोक 200। ले. विश्वानन्दनाथ । विषय- कौलामृत तथा कुलार्णव में कहे गये पदार्थों का संग्रह कर, कौलों के आचार और समस्त धामों का वर्णन । कौलादर्शतन्त्रम् - ले.अभयशंकर। पिता-उमाशंकर । कौलावलीतन्त्रम् - श्लोक 600। उल्लास 3। ईश्वर-देवी संवादरूप। विषय-रुद्रयामल के उत्तर तन्त्र से गृहीत । कौलावलीयम् - ले.जगदानन्द मिश्र । सन 1772 में लिखित । श्लोक 1860 । विषय- तंत्रशास्त्र । तांत्रिक साधना की गोपनीयता पर ग्रन्थकार ने अधिक बल दिया है। कौलिर्काचनदीपिका - [नामान्तर 1) कुलदीपिका 2) अर्चनदीपिका ।] ले.जगदानन्द परमहंस । विषय- तंत्रशास्त्र । सन 1758 में वाराणसी में इसका लेखन हुआ। श्लोक 1500। विषय- कुलधर्म की प्रशंसा, कौलज्ञान की प्रशंसा, कुलीनों की प्रशंसा, कुलीन का लक्षण, वंशवृक्ष कुलीनों के पर्वकृत्य, कुलीनों के त्याज्य और ग्राह्य विषय। कुलद्रव्य और उनके प्रतिनिधि, कलशलक्षण, कलशपात्र का वर्णन, उसका आधार, चषकविधान, पूजा, मंडल, सामान्य अर्ध्य । कुलीनों के द्वारपाल, उनकी पूजा, विजयाग्रहण, विजया स्वीकारविधि, पूजाप्रयोग आदि का कथन, घटस्थापन, सुधासंस्कार, श्रीपात्रस्थापन, गुरु आदि 86 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . के पात्रों का स्थापन, भिन्न भिन्न देशों में भिन्न व्यवस्था, तर्पणविधि, बिन्दुस्वीकार, द्रव्यशोधन, सब शक्तियों का और शिव का निरूपण पानविधि, पात्रवन्दन, पंचमपात्र में पंचम की विधि, विविध, स्तोत्र आत्मसमर्पण, देवीविसर्जन, चषक का शीतलीकरण, निर्माल्य आदि धारण। कौषिकसूत्रम् - अर्थर्ववेद की शौनक शाखा के सूत्र। इनमें गृह्य विधियों के अतिरिक्त अथर्ववेद की ऋचाओं से सम्बन्धित मंत्रविद्या व जादूटोना की भी जानकारी है। इसमें प्रमुखतया दर्शपूर्णमास, मेधाजनन, ब्रह्मचारिसंपद् ग्राम, दुर्ग, राष्ट्र आदि लाभ, पुत्र-धन-प्रजा आदि सम्पति तथा मानव समाज की एकता के लिये सौमनस्य आदि उपायों की चर्चा की गयी है। कौषीतकी आरण्यकम् - इसके कुल तीन खण्ड हैं। प्रथम दो खण्ड कर्मकांड से सम्बन्धित हैं जब कि तीसरा खण्ड उपनिषद् है। आरण्यक में प्रथम रूप से आनंदप्राप्ति, गृहकृत्य, इतिहास तथा भूगोल विषयक आख्यानों की चर्चा है। कौषीतिकी उपनिषद् - इस ऋग्वेदीय उपनिषद् में 5 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में देवयान या पितृयात्रा का वर्णन है जिसमें मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा का पुनर्जन्म ग्रहण कर दो भागों से प्रयाण करने का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में आत्मा के प्रतीक प्राण का स्वरूपविवेचन है। तृतीय अध्याय में प्रतर्दन का इंद्र द्वारा ब्रह्मविद्या सीखने का उल्लेख है तथा प्राणतत्त्व का विस्तारपूर्वक वर्णन है। अंतिम दो अध्यायों में बालाकि और अजातशत्रु की कथाद्वारा ब्रह्मवाद का विवेचन करते हुए ज्ञान की प्राप्ति करने वाले साधकों को कर्म व ज्ञान के विषयों का मनन करने की शिक्षा दी गयी है। इसके अनुसार प्राण ही वायु है, वहीं ब्रह्म है। वह अमृतमय तथा षड्भावविकार रहित है। सर्वत्र प्राण का संचार है। प्राण से ही देवता और देवताओं से प्रजा उत्पन्न हुई। इस की रचना बृहदारण्यक और छांदोग्य उपनिषद् के पूर्व मानी जाती है। कौषीतकी गृह्यसूत्र - ऋग्वेद की कौषीतकी शाखा के गृह्य सूत्र। इसके रचयिता शांबव्य ऋषि थे अतः इसे शांबव्यसूत्र भी कहते हैं। इसके कुल 5 अध्याय हैं। कर्णवेध संस्कारों का प्रयोग इसकी विशेषता है। कौषीतकी ब्राह्मण - ऋग्वेद की शाखायन संहिता के कौषीतकी . ब्राह्मण में 30 अध्याय हैं। इसमें क्रमशः अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास और अन्तिम अध्यायों में चातुर्मास्य यज्ञ का वर्णन है। इसमें भी सोमपात्र की प्रधानता है। इसमें यज्ञ का संपूर्ण विवरण है। यह ऐतरेय ब्राह्मण से मिलता जुलता है। कुषीतकी ऋषी के पुत्र कौषीतकी इसके प्रधान आचार्य हैं। इसमें नैमिषारण्य में हुए यज्ञ का विवरण है। ऋषिपुत्र विनायक का इस पर भाष्य है। इसमें "पुनर्मत्यु" शब्द मिलता है। यह शब्द ब्राह्मणकाल में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का स्पष्ट द्योतक • है। समस्त ब्राह्मणों का संकलन लगभग समकाल में हुआ है। इस लिए एक स्थान में किसी सिद्धान्त मिल जाने से उस काल में उस सिद्धान्त का सर्वत्र प्रचार मानना ही पडेगा। शाखांयन अथवा कौषीतकी द्वारा इसका संकलन माना जाता है। इसका प्रचार उत्तर गुर्जर देश में था। कौषीतकीब्राह्मण-सूची - ले.केवलानंद सरस्वती। ई. 19-20 वीं शती। कौषीतकी शाखा (ऋग्वेद की) - इस शाखा की संहिता का अभी तक पता नहीं लगा। शाखांयन संहिता से इस शाखा की संहिता में कोई विशेष भेद न होगा ऐसा अभ्यासकों का तर्क है। कौषीतकी का दूसरा नाम कहोड होगा। कौषीतकि याने कुषीतक का पुत्र। कौस्तुभचिन्तामणि - ले. गजपति प्रतापरुद्रदेव (ई. 15-16 वीं शती) नामक उडीसा के प्रसिद्ध धर्मशास्त्री ने आतिषबाजी की बारूद बनाने की विधि का वर्णन इस ग्रंथ में किया है। कौस्तुभ-प्रभा - ले. केशव काश्मीरी । ई. 13 वीं शती। विषय- निंबार्काचार्य के प्रधान शिष्य श्रीनिवासायार्य के "वेदांत-कौस्तुभ" नामक ग्रंथ पर पांडित्यपूर्ण भाष्य । क्रमकेलि - यह क्रमस्तोत्र की अभिनवगुप्त विरचित टीका है। क्रमचन्द्रिका - ले. रत्नगर्भ सार्वभौम । श्लोक 22201 विषयतंत्रशास्त्र में प्रतिपादित विचारों की व्याख्या और तांत्रिक पूजाविधि । क्रमदीक्षा - ले. जगन्नाथ । श्रीकालिकानन्द के शिष्य । श्लोक7001 विषय- क्रमदीक्षा संबंध में विवरण। इसमें बृहत्तन्त्रराज, शारदातिलक, सोमशंभु, तन्त्रसार, विष्णुयामल, प्रपंचसार महानिर्वाणतन्त्र आदि तांत्रिक ग्रंथों से वचन उद्धृत हैं। विविध देवियों के मन्त्र भी उत्तरार्ध में वर्णित हैं। क्रमदीपिका - 1) ले. केशव काश्मीरी। ई. 13 वा शती । निंबार्क संप्रदायी आचार्य। श्लोक 1001 विषय- विष्णुदेव की तांत्रिक पूजाविधि। इस पर भैरव त्रिपाठी कृत टिपण्णी और गोविन्द विद्याविनोद भट्टाचार्यकृत टीका है। . 2) ले. वसिष्ठ। श्लोक- 9001 क्रमदीपिका -टीका - ले. भैरव त्रिपाठी। श्लोक- 4500। क्रमदीपिका- विवरण - ले. गोविन्द विद्याविनोद भट्टाचार्य । केशव काश्मीरीकृत क्रमदीपिका की व्याख्या । क्रमपूर्णदीक्षापद्धति - ले. शुकदेव उपाध्याय। श्लोक- 5701 विषय- क्रमदीक्षा और तारा का पूर्णाभिषेक प्रयोग और प्रमाण दोनों वर्णित हैं। क्रमसंदर्भ - भागवतपुराण को पांडित्यपूर्ण टीका। टीकाकार चैतन्यमत के श्रेष्ठ आचार्य जीव गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। गौडीय वैष्णव संप्रदाय के अनुसार भागवत की व्याख्या करने हेतु, जीव गोस्वामी ने तीन ग्रंथों की रचना की है। 1) क्रम-संदर्भ 2) बृहत्क्रमसंदर्भ और 3) वैष्णवतोषिणी। ये संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 87 For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीनों टीकाएं परस्पर पूरक हैं किन्तु प्रस्तुत क्रम-संदर्भ नामक टीका ही संपूर्ण भागवत पर लिखी गई है। टीका की दृष्टि से यह प्रामाणिक एवं मूलग्राही है। क्रमोत्तम - (नामान्तर 1) गद्यवल्लरी 2) श्रीविद्यापद्धति 3) क्रमोत्तमपद्धति, 4) महात्रिपुरसुन्दरी-पादुकार्चनपद्धति ५) श्रीपराप्रसादपद्धति ।) ले. निरात्मानन्दनाथ (मल्लिकार्जुन योगीन्द्र) गुरु श्रीनृसिंह तथा माधवेन्द्र सरस्वती। श्लोक 2400। पटल 33| विषय- साधकों के कर्त्तव्य, संहाररूप चक्रन्यास का वर्णन, न्याय-विवरण, पूजापटल आदि। क्रान्तिसारिणी - ले.दिनकर। विषय- ज्योतिषशास्त्र । क्रियाकलाप - ले. विजयानंद (विद्यानन्द)। विषयव्याकरणशास्त्र के अन्तर्गत आख्यातों का अर्थबोध । क्रियाकलापटीका - ले. प्रभाचन्द्र जैनाचार्य। समय- दो मान्यताएं 1) ई. 8 वीं शती। 2) ई. 11 वीं शती। क्रियाकल्पतरु- यह सम्पूर्ण कुलशास्त्र का भाग है। इसमें वामाचार पूजा वर्णित है। तांत्रिक क्रिया के अनुसार बहुत से योगों का वर्णन है। क्रियाकाण्डम् - ले. श्रीशक्तिनाथ (श्रीकल्याणकर) । शिष्यसंघ की ज्ञानसिद्धि के लिए क्रियाकल्पतरु के अन्तर्गत इस क्रियाकाण्ड का निर्माण किया गया। गुरु-पारम्पर्यप्रकाशी। मार्गप्रदर्शकश्रीकण्ठनाथ, गंगाधरमुनींद्र महाबल, महेशान, महावागीश्वरानन्द, देवराज तथा विचित्रानन्द । विषय- पीठयाग, सुभद्रयाग, कन्दरयाग, जयाख्ययाग, भीमाख्ययाग, कुहूयाग आदि। क्रियाकालगुणोत्तरम् - शिव-कार्तिकेय संवादरूप। लिपिकाल ई. 1184, श्लोक 2100। इसमें तीन कल्प हैं- क्रोधेश्वरकल्प, अघोरकल्प और ज्वरेश्वरकल्प। विषय- नागों की विभिन्न जातियों के लक्षण, गोत्पत्ति, ग्रह, यक्ष, पिशाच, डाकिनी-शाकिनियों के लक्षण, विषैलै सर्प, बिच्छू आदि विषैलै जीव जन्तुओं के लक्षण। क्रियाकोश - ले. रामचन्द्र। पिता- विश्वनाथ। विषयव्याकरणशास्त्र के अन्तर्गत आख्यातों का अर्थबोध । भट्टमलकृत आख्यातचन्द्रिका का यह संक्षेप है। क्रियाक्रमद्योतिका - ले.अधोरशिवाचार्य अथवा परमेश्वर । श्लोकसंख्या- 3000 । लेखक ने स्वयं इसकी व्याख्या लिखी है। क्रियागोपनरामायणम् - ले. शेषकृष्ण। ई. 16 वीं शती। क्रियानीतिवाक्यामृतम् - ले.सोमदेव। ई. 11 वीं शती। पिता- राम। क्रियापर्यायदीपिका - ले.वीरपांडव। विषय- आख्यातों का अर्थबोध । क्रियायोगसार - पद्मपुराण का एक खंड। इसे ई.स. 900 के लगभग बंगाल में लिखा जाने का अनुमान है। इसमें विष्णु के पराक्रम और वैष्णवों के गुणों का विवेचन है।ध्यानयोग की अपेक्षा क्रियायोग की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गयी है। क्रियायोग के छह अंग इस प्रकार बताए गये हैं- 1) गंगा, श्री व विष्णु की पूजा 2) दान 3) ब्राह्मणों पर श्रद्धा, 4) एकादशी व्रत का पालन 5) तुलसी की पूजा और 6) अतिथिसत्कार । एकनिष्ठ भक्ति से ही कैवल्यप्राप्ति का प्रतिपादन इसमें किया गया है। क्रियारत्नसमुच्चय - हैम धातुपाठ पर गुणरत्नसूरिकृत व्याख्या। इसमें सभी धातुओं के सभी प्रक्रियाओं में रूपों का संक्षिप्त निर्देश किया है। और धातुरूप संबंधी अनेक प्राचीन मतों का उल्लेख किया है। इस के अन्त में 66 श्लोकों में गुरुपदक्रम लिखा है जिसमें 49 पूर्व गुरुओं का वर्णन मिलता है। क्रियालेशस्मृति - ले.नीलकण्ठ । श्लोकसंख्या- 1000 | विषयसंक्षेपतः सब अनुष्ठानों का परिचय। विष्णु, दुर्गा, शिव, स्कन्द, गणेश, शास्ता हर, अच्युत आदि की संक्षेपतः पूजा, बीजांकुर, स्थान और विग्रह की शुद्धि , निष्क्रमण, स्नान, पूजा, बलि, उत्सव, तीर्थयात्रा इत्यादि है। क्रियासंग्रह - ले. शंकर। श्लोक 2500। शैव विभाग के 9 पटल तक का ग्रन्थांश। विषय- उपासक की देहशुद्धि, देवतापूजन, हवन आदि । क्रियासार - ले.नीलकण्ठ। ई. 15 वीं शती। श्लोक 3600। पटल-69 1 विषय- मातृका-स्थापन आदि विविध तांत्रिक क्रियाएं। क्रियासार-व्याख्या - ले. व्याघ्रग्रामवासी नारायण । श्लोक-95001 क्रोधभैरवतंत्रम् - 64 आगमों में अन्यतम। भैरवाष्टक वर्ग के अन्तर्गत। क्षणभंगाध्याय - ले. ज्ञानश्री । ई. 14 वीं शती । बौद्धाचार्य । क्षणभंगासिद्धि - ले. धर्मोत्तराचार्य। ई. 9 वीं शती। क्षणिकविभ्रम - लेखिका- लीला राव दयाल। यूरापीय रीति का एकांकी रूपक। पत्नी के दुर्व्यवहार से खिन्न पति के गृहत्याग की कथा। क्षत्रचूडामणि - ले. वादीभसिंह। जैनाचार्य। इनके समय के विषय में चार मान्यताएं हैं- 1) ई. 8-9 वीं शती 2) ई. 11 वीं शती का प्रारंभ 3) ई. 11 वीं शती का उत्तरार्ध 4) ई. 12 वीं शती। प्रथम मत अधिक मान्य है। क्षत्रपतिचरित्रम् - (महाकाव्य) - ले. डॉ. उमाशंकर शर्मा त्रिपाठी। वाराणसी में अंग्रेजी के प्राध्यापक। सर्गसंख्या 19। राज्याभिषेक समारोह तक शिवाजी महाराज का चरित्र। हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित। क्षत्रियरमणी - मूल बंकिमचंद्र का बंगाली भाषा में उपन्यास । अनुवादक- श्रीशैल ताताचार्य। क्षपणक-व्याकरणम् - क्षपणक ई. पहली शती के एक 88 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याकरणकार थे। इन्होंने अपने व्याकरण पर वृत्ति और महान्या नामक ग्रंथ लिखे है । 1) ले. नेमिचन्द्र । ले. माधवचन्द्र क्षपणकसार ( क्षपणक शास्त्रसार) जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती का (उत्तरार्ध) । 2 ) त्रैविद्य। जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती का प्रथम चरण । क्षीरतरंगिणी ले. क्षीरस्वामी । ई. 11 से 12 वीं शती । पिता- ईश्वरस्वामी । क्षीराब्धिशयनम् (रूपक) ले. श्रीनिवासाचार्यई 19 वीं शती । क्षत्क्षेमीयम् (प्रहसन ) - ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म सन 1894) सन 1972 में कलकत्ता से रूपकचक्रम्" संग्रह में प्रकाशित हुआ। इसका प्रथम अभिनय संस्कृत साहित्य समाज के प्रतिष्ठा दिवस पर हुआ। कथासार यमराज का कर्मकर चित्रगुप्त सेठ रंगनाथ से सत्कार पाता है और उसे बताता है। कि तुम्हारी आयु केवल एक वर्ष शेष है किन्तु दीनदुखियों के घरों पर तृणाच्छादन कराओगे तो दीर्घायु बनोगे। द्वितीय मुखसन्धि में यम तथा चित्रगुप्त की उपस्थिति में रंगनाथ यमपुरी पहुंचता है। चित्रगुप्त की मंत्रणा से यम के आते ही रंगनाथ छींक देता है। यम के मुख से "जीव, जीव" शब्द निकलते हैं। चित्रगुप्त कहता है कि अब तो इसे जीवित करना पडेगा । फिर उसके पुण्य का लेखा-जोखा देखा जाता है, और तृणाच्छादन के पुण्य के बल पर उसे फिर से जीवदान मिलता है। क्षेत्रतत्त्वदीपिका १) ले इलातुर रामस्वामी शास्त्री । ई. 1823 में लिखित भूमितिशास्त्रीय रचना | क्षेत्रतत्त्वदीपिका - 2 ) ले. योगध्यान मिश्र । सन 1928 में लिखित भूमिति विषयक रचना । I खंडखाद्यम् ले. ब्रह्मगुप्त ई. 6 वीं शती विषय ज्योतिषशास्त्र । खण्डनखण्डखाद्य ले. श्रीहर्ष। ई. 12 वीं शती । वेदान्त शास्त्र का एक दुर्बोध ग्रंथ । इसमें उदयनाचार्य के मत का खंडन किया है। खण्डनखण्डखाद्यदीधिति - www.kobatirth.org - - ले. रघुनाथ शिरोमणि । खलावहेलनम् ले. वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य । खाण्डवदहनम् (महाकाव्यम्) ले. ललितमोहन भट्टाचार्य किरातार्जुनीयम् की शैली में लिखित । खिलपांठ इस नाम का कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। व्याकरणशास्त्र में शब्दानुशासन अथवा सूत्रपाठ प्रमुख है। धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ तथा लिंगानुशासन गौण होने से उन्हे "खिलपाठ" कहते हैं। काशिका, (अष्टाध्यायी की व्याख्या) ह्रदयहारिणी (सरस्वतीकंठाभरण की व्याख्या) आदि ग्रंथों में धातुपाठ आदि शब्दानुशासन के चार अंगों के लिए "खिलपाठ" शब्द का प्रयोग किया है। स्वयं पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन से संबद्ध धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिंगानुशासन इन चार खिलपाठों का प्रवचन किया था। पाणिनीय व्याकरण के ये खिलपाठ, उनके व्याख्यान ग्रंथों सहित उपलब्ध हैं। पाणिनि से उत्तरकालीन प्रायः सभी व्याकरणशास्त्रकारों ने अपने खिलपाठ लिखे हैं। खांडिकीय शाखा खाण्डिक का नाम पाणिनीय सूत्र, मैत्रायणी संहिता तथा जैमिनीय ब्राह्मण में मिलता है। इस शाखा की संहिता या ब्राह्मण इनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं । चरणव्यूह में खाण्डिकेयों की पांच शाखाएं कही गई है । चरणव्यूह के अनुसार खाण्डिकीय शाखा के विषय में दो प्रकार के पाठ उपलब्ध है- 1) कालेता, शाट्यायनी, हिरण्यकेशी, भारद्वाजी आपस्तम्बी 2) आपस्तम्बी, बोधायनी, सत्याषाढी, हिरण्यकेशी और औधेयी आपस्तम्ब, बौधायन, सत्याषाढ, हिरण्यकेशी और भारद्वाज ये सौत्र शाखाएं हैं। इन सब के कल्प ग्रंथ उपलब्ध हैं। कालेता, शाट्यायनी और औधेयी शाखाएं नाममात्र शेष है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - खादिरगृहसूत्रम् - यह गोभिल गृह्यसूत्र की संक्षिप्त आवृत्ति है। खेचरीपटलम् पिशाची या भूतिनी को वश में लाने के लिए उनकी गुप्तपूजा का विधान इसमें वर्णित है। यह माना जाता है कि यह किसी तंत्र से अंशतः गृहीत हुआ है। खेचरीविद्या महाकाल - योगशास्त्रान्तर्गत उमा महेश्वर संवादरूप यह ग्रंथ चार पटलों में पूर्ण है। श्लोक संख्या 300 है। खेटकृतिले राजपण्डित खाण्डेकर विषय ज्योतिषशास्त्र ख्रिस्तचरितम् (अर्थात् मिथि मार्क लूक योहन-विरचितम्- सुसंवादचतुष्टयम्) बैटिस्ट मिशन मुद्रणालय कलकत्ता द्वारा, ई. 1878 में मुद्रित। ख्रिस्तधर्मकौमुदी ले. जे. आर. बेलंटाइन विषय-हिन्दुत्व । दर्शन से ईसाई धर्म की भिन्नता । ई. 1859 में लन्दन में प्रकाशित । ख्रिस्तधर्मकौमुदी - समालोचना ले. वज्रलाल मुखोपाध्याय । विषय- डॉ. बेलेन्टाइन ने ख्रिस्तधर्मकौमुदी में हिन्दुधर्म की निंदा की। उस निंदा का प्रत्युतर सन् 1894 में कलकत्ता में प्रकाशित । - For Private and Personal Use Only ख्रिस्तयज्ञविधि - मूल लैटिन ग्रंथ का अनुवाद । अनुवादकएम्ब्रोस सुरेशचन्द्र राय । कलकत्ता में 1926 में प्रकाशित । ख्रिस्तुभागवतम् ले पी.सी. देवासिया ख्रिस्ती मतानुयायी । केरल निवासी । ईसा मसीह का चरित्र पौराणिक पद्धति से पद्य रूप में लिखा गया है। 1980 में प्रस्तुत महाकाव्य को साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। गकारादि-गणपति सहस्रनाम इस स्तोत्र का समावेश रुद्रयामलतंत्र में होता है। शिव-पार्वती संवाद रूप श्लोक - 250। गंगागुणादर्शचम्पू - ले दत्तात्रेय वासुदेव निगुडकर ई. संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 89 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19-20 वीं शती। राजापुर संस्कृत विद्यालय में आचार्य। गजेन्द्रचरितम् - ले- कविशेखर राधाकृष्ण तिवारी । विषय- हाहा और हूहू गंधर्वो के संवाद द्वारा गंगा के गुण-दोषों सोलापुर-निवासी। 5 सर्ग। का विवेचन। अन्त में गंगा का श्रेष्ठत्व प्रस्थापन। गणदेवता - डॉ. रमा चौधुरी। "गणदेवता" नामक उपन्यास गंगाधरविजयम् - कवि- वेंकटसुब्बा।। के कर्ता तारांशंकर बन्दोपाध्याय के चरित्र पर आधारित रूपक। गंगालहरी - पंडितराज जगन्नाथ द्वारा रचित सुप्रसिद्ध गंगास्तोत्र।। गणधरवलयपूजा - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य ई. 16-17 वीं शती। श्लोक संख्या 52। इसमें गंगा के दिव्य सौंदर्य और सामर्थ्य गणपतिमन्त्रसमुच्चय - ले- पूर्णानन्द। श्लोक- 300 । का वर्णन है। इस रचना के सन्दर्भ में एक आख्यायिका गणेशकल्प- पटल 6। विषय- गणेशपूजा संबंधी तांत्रिक बतायी जाती है। लवंगी नामक एक यवनकन्या से जगन्नाथ विधियां। बीजकोश तथा चतुर्विध दीक्षाओं का वर्णन। गणपति का विवाह हुआ था। अनेक वर्षों तक दिल्ली के मुगल के एकाक्षर आदि 37 मंत्रों का विधान । उपासक के प्रातःकालीन दरबार में भोगविलास में जीवन व्यतीत करने के बाद वृद्धावस्था कृत्य, मातृकान्यास, पूजाविधि पुरश्चरणविधि तथा स्तभंन आदि में जब वें अपनी पत्नी को लेकर काशी पहुंचे तो यवनकन्या षट्कर्मों का वर्णन। से उनके सम्बन्धों को देखकर काशी के पंडितों ने उनका गणपतिविलासम् (नाटक) - ले- नैव वेंकटेश । बहिष्कार किया। यह अपमान सहन न होने के कारण वे गणपत्यथर्वशीर्षम् - अर्थववेद से सम्बन्धित एक नव्य वैदिक अपनी पत्नी के साथ गंगा-घाट पर जाकर रहने लगे और स्तोत्र । इसमें गणेशविद्या बतायी गयी है। गणेशजी को परब्रह्म वहीं उन्होंने आत्मोद्धार के लिये गंगा के स्तवन में स्तोत्ररचना निरूपित कर 'ग' उसका महामंत्र बताया गया है। इस महामंत्र प्रारंभ की। गंगा प्रसन्न हुई और उसका जल एक एक सीढी के साथ ही गणेशगायत्री भी दी गयी है :- एकदन्ताय विद्महे बढने लगा। 52 श्लोक पूर्ण होने पर 52 वीं सीढी पर बैठे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।। जगन्नाथ एवं उनकी पत्नी को गंगा ने अपने में समा लिया। इसमें गणपति तत्त्व का विस्तृत विवेचन है। इस का पाठ गंगा दशाह के पर्व पर इस काव्य का सर्वत्र पारायण होता है। हजार बार करने पर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है- यह (2) ले- प्राचार्य के.व्ही.एन. आप्पाराव। संस्कृत कॉलेज भी बताया गया है। इसमें वर्णित शांतिमंत्र ऋग्वेद से लिये कोब्बूर (आंध्र) द्वारा प्रकाशित। गये हैं। महाराष्ट्र में इसका अत्यधिक प्रचार है। गंगावतरणम् - (1) ले. नीलकण्ठदीक्षित (अय्या दीक्षित)। गणमार्तण्ड - ले- नृसिंह। ई. 18 वीं शती। ई. 17 वीं शती। 8 सर्गों का महाकाव्य। गणरत्नमहोदधि - ले- वर्धमान सूरि। ई. 13 वीं शती। गंगावतरणचंपू (गंगावतारचंपू) - ले. शंकर दीक्षित। ई. पाणिनीय गणपाठ पर उपलब्ध महत्त्वपूर्ण व्याख्यान ग्रंथ । यद्यपि 18-19 वीं शती। काशीनिवासी। इस चंपू काव्य में 8 यह पूर्णरूप से परिज्ञात नहीं है तथापि गणपाठ के परिज्ञान उच्छ्वासों में गंगावतरण की कथा का वर्णन किया है। इसकी के लिए समस्त वैयाकरणों का यही एकमात्र आधार है। शैली अनुप्रासमयी है। कवि ने प्रारंभ में वाल्मीकि, कालिदास गणरत्नावली - ले- यज्ञेश्वरभट्ट। ई. 20 वीं शती। वर्धमानसूरि व भवभूति प्रभृति कवियों का भी स्तवन किया है। काव्य के गणरत्न-महोदधि से इसका साम्य है। के अंत में सगर-पुत्रों की मुक्ति का वर्णन किया है। गणवृत्ति - (1) ले- क्षीरस्वामी। ई. 11-12 वीं शती। गंगाविलासचम्पू - ले- गोपाल। पिता- महादेव। पिता- ईश्वरस्वामी। (2) ले- पुरुषोत्तमभाई 11 वीं शती। गंगासुरतरंगिणी - ले- विश्वेश्वर विद्याभूषण । ई. 20 वीं शती। गणाभ्युदयम् - ले- डॉ. हरिहर त्रिवेदी। सन् 1966 में दिल्ली गजनी-महमंदचरितम् - ले- पी.जी. रामार्य। श्रीरंगम् की से संस्कृतरत्नाकर में प्रकाशित । उज्जयिनी के कालिदास उत्सव सहदया पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित। में अभिनीत । अंकसंख्या पांच। भारत में गणराज्यों का उदय, गजलसंग्रह - ले- राधाकृष्णजी। संस्कृत गझलों का संग्रह । उन पर आयी विपत्तियां आदि पर आधारित कथावस्तु है। गजेन्द्रचम्पू - ले- विठोबा अण्णा दप्तरदार । ई. 19 वीं शती। गणितचूडामणि - ले- श्रीनिवास। रचनाकाल- सन 1158 । गजेन्द्रमोक्षचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । गणेशगीता - वरेण्य नामक राजा को श्रीगणेशजी द्वारा किया गजेन्द्र-व्यायोग - ले. मुड़म्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य स्वामी। गया ज्ञानोपदेश जो गणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में अध्याय 138 जन्म- 1842 ई.। इसका प्रथम अभिनय सिंहगिरिनाथ के से 148 के बीच समाविष्ट है, वही है गणेश गीता। भगवद्गीता चन्दन महोत्सव के अवसर पर हुआ था। नृत्य और संगीत के अनुकरण से जो विभिन्न 17 गीताएं रची गयीं, उनमें इसका की इसमें अधिकता है। 14 रागों था 6 तालों का स्तोत्रात्मक स्थान काफी ऊंचा है। गणेशगीता के कुल 11 अध्यायों में गीतों में प्रयोग हुआ है। व्यायोग के नाटकीय तत्त्वों का सांख्यसारार्थ, योग, कर्मयोग, ज्ञानप्रतिपादनयोग आदि विषयों अभाव है। गजेन्द्रमोक्ष की सुप्रसिद्ध कथा निबद्ध है। का विवेचन है- भगवद्गीता व गणेशगीता में अनेक श्लोंकों 90/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra का काफी साम्य है । यथा " नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः । । भगवद्गीता। “अच्छेद्यं शस्त्रसङ्घातैरदाह्यमनलेन च । अक्लेद्यं भूप सलिलैरशोष्यं मारुतेन च । । गणेशगीता....... गणेशगीता टीका ले नीलकंठ चतुर्धर पिता गोविंद। । माता - फुल्लांबिका । ई. 17 वीं शती । लेखिका लीला राव दयाल । गणेशचतुर्थी (रूपक) गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शन कुफलदायी होता है- इस विश्वास पर आधारित कथानक । गणेशचरितम् - ले- घनश्याम आर्यक । - - गणेशपंचविंशतिका निवासी । गणेशपंचांगम् (1) रुद्रयामलान्तर्गत पांच ग्रंथ (1) गणपति मंत्रोद्धारविधि, महागणपति-पूजापद्धति (2) (3) महागणपतिपूजाकवच (4) महागणपति पूजासहस्रनामस्तव और (5) महागणपतिपूजास्तोत्र । गणेशपद्धति ले- उमानन्दनाथ । श्लोक- 500। गणेश- परिणयम् (नाटक) ले- वैद्यनाथशर्मा व्यास । इण्डियन प्रेस, प्रयाग से सन 1904 में प्रकाशित। मिथिला राजवंश के जनेश्वर सिंह द्वारा पुरस्कृत । अंकसंख्या सात । कथासार शिव के पास, ब्रह्मा अपनी पुत्रियां सिद्धि और बुद्धि के गणेश के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजते हैं। गणेश का दूत नंदी सिंधुराज के पास इन्द्रादि देवताओं को मुक्त करने का सन्देश ले जाता है। सिंधुराज के न मानने पर युद्ध होता है और गणेश देवताओं को मुक्त कराते हैं। गणेश के विवाह में वे देवता सम्मिलित होते हैं। www.kobatirth.org - - - गणेशलीला ले. गंगाधरशास्त्री मंगरुळकर, नागपुर निवासी। 19 वीं शती । गणेशसहस्त्रनामव्याख्या - ले. गोपालभट्ट । गणेशशक्तिकम् ले. पं. अम्बिकादत्त व्यास । गणेशाचंनचन्द्रिका ले (1) ले मुकुन्दलाल (2) ले. । सदानन्द | 450 श्लोक । (3) ले- काशीनाथ। (4) ले - वृन्दावन । गणेशाचारचन्द्रिका - ले. दामोदर पटल- 7। विषय- संध्या, जप, बाह्यपूजा, ब्राह्मणभोजन, काम्यकर्म, मंत्रवैगुण्य होने पर प्रायश्चित्त, दक्षिणा, दान आदि । गद्यकथाकोश - ले- प्रभाचन्द्र जैनाचार्य । समय- दो मान्यताएं ई. 8 वीं शती । (2) ई. 11 वीं शती । गद्यकर्णामृतम् ले विद्याचक्रवर्ती ई. 13 वीं शती गद्यचिन्तामणि ले- वादीभसिंह | जैनाचार्य । - ले- विमलकुमार जैन । कलकत्ता ले रामानुजाचार्य 1017-1137 ई. विषय गद्यत्रयम् प्रपत्तियोग । गदनिग्रह ले सौद्दल गुजरात के निवासी तथा जोशी थे। समय- 13 वीं शताब्दी का मध्य गद-निग्रह 10 खंडों में विभक्त है प्रथम खंड में चूर्ण, गुटिका, अवलेह, आसव, घृत व तैल विषयक 6 अधिकार हैं। इसमें 585 के लगभग आयुर्वेदिक योगों का संग्रह भी है तथा अवशिष्ट 9 खंडों में कायचिकित्सा, शालाक्य, शल्य, भूततंत्र, बालतंत्र, विषतंत्र, वाजीकरण, रसायन व पंचकर्माधिकार नामक प्रकरण हैं। इसमें सुवर्णकल्प, कुंकुमकल्प, अम्लवेतसकल्प आदि अनेक कल्पों का भी वर्णन है। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद सहित, दो भागों में प्रकाशन, चौखंबा विद्याभवन से हो चुका है। गद्यभारतम् - दो भाग । कवि पं. शिवदत्त त्रिपाठी । गद्यरामायणम् कवि- पं. शिवदत्त त्रिपाठी । गद्यवल्लरीले निजात्मप्रकाशान्दनाथ (मल्लिकार्जुनयोगीन्द्र) । श्रीविद्यापद्धतिरूप प्रथम खण्ड । श्लोक 2016| विषय - गुरुपरम्परावर्णन, सम्पदायप्रवृत्ति, प्रातः कृत्य, तांत्रिक संध्या, अर्द्धरात्रि में तुरीय संध्या तर्पण, श्रीविद्यापूजाविधि, प्राणप्रतिष्ठा, प्रपंचमार्ग, बालासम्पुटित, मातृकान्यास, लक्ष्मीसंपुटित, कामसंपुटित, श्रीविद्यासम्पुटित, श्रीकण्ठ, केशव, काम, रति, प्रणव, उत्थानकला आदि के मातृकान्यास, मालिनी कामसंकर्षिणी आदि के न्यास, परा, वैखरी, सूर्यकला, योग पीठ, ग्रह, नक्षत्रादि के न्यास, जपविधि, मण्डपध्यान, तथा श्रीविद्यामाहात्म्य आदि । गन्धर्वतंत्रम् दत्तात्रेय विश्वामित्र संवादरूप पटलसंख्या 42 विषय- तंत्र की प्रस्तावना विविध विद्याभेदों का उद्धार, पंचमी विद्या की उद्धारविधि, राजराजेश्वरी कवच, मन्त्रोद्धार आदि अंग और आवरण पूजा, कर्मयोगादि का क्रम । भूतशुद्धि, करशुद्धि, मातृकान्यास, पोढान्यासक्रम, नित्यन्यास आदि अन्तर्यागविधि। मानसपूजा, ध्यायनयोगक्रम, बहिर्यागक्रम, विशेषार्ध्यविधि, बहिहोंम प्रकार, पूजोपचार, प्रकटाप्रकट योगिनी पूजनक्रम, जपादिविधि बटुक आदि के लिए बलि पूजासम्पूरणादि उपासविधि, समयाचारविधि । कुमारी पूजन-क्रम, कुमारीपूजा का माहात्म्य, पुण्यपीठ कथन, आपत्कालीन पूजा आदि की विधि। गुरु, शिष्य और दीक्षा के लक्षण, दीक्षाविधि, पुरश्चरणविधि, विद्यासंकेतनिर्णय, त्रिकूट- साधनविधि, होमद्रव्यप्रयोग, मुद्राधारणविधि, चक्रराजप्रतिष्ठा, कुलाचार आदि । गन्धर्वराजमन्त्रविधि विषय- गन्धर्वराज विश्वावसु की पूजापद्धति, एवं सुन्दर पुत्रियों की कामना के लिये जपपद्धति । - For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गंधर्ववेद सामवेद का उपवेद । संगीत विद्या के सहारे आजीविका चलाने वाले गंधर्व का यह वेद है, इसलिये इसे गंधर्ववेद कहा गया। यह ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं है, तथापि तांत्रिक ग्रंथ के अनुसार संगीत पर रचे गये इस वेद में 36 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 91 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हजार अनुष्टुभ श्लोक थे। गन्धहस्तिमहाभाष्य - ले- समन्तभद्र । जैनाचार्य । ई. प्रथम शती। गंधोत्तमनिर्णय - ले- गुरुसेवक। श्लोक 4001 गरुडपुराण - 18 पुराणों के क्रम में 17 वां पुराण। यह वैष्णव पुराण है, जिसका नामकरण विष्णु भगवान के वाहन गरुड के नाम पर किया गया है। इसमें स्वयं विष्णु ने गरुड को विश्व की सृष्टि का उपदेश दिया है। उक्त नामकरण का यही आधार है। यह हिन्दुओं का अत्यंत लोकप्रिय व पवित्र पुराण है, क्यों कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् श्राद्धकर्म के अवसर पर इसका श्रवण आवश्यक माना गया है। इसमें अनेक विषयों का समावेश है, अतः यह भी "अग्नि-पुराण" की भांति पौराणिक महाकोश माना जाता है। इसके दो विभाग हैं- पूर्व खंड व उत्तर खंड पूर्व खंड में अध्यायों की संख्या 229 और उत्तर खंड में 35 है। इसकी श्लोक संख्या 18 हजार मानी गई है पर मत्स्य पुराण, नारद पुराण व रिवा- माहात्म्य' में संख्या 19 हजार मानी गयी है किन्तु आज उपलब्ध पुराण में 7 हजार से कम श्लोकसंख्या है। कलकत्ता में प्रकाशित गरुड पुराण में 8800 श्लोक हैं। वैष्णव पुराण होने के कारण इसका मुख्य ध्यान विष्णुपूजा, वैष्णवव्रत, प्रायश्चित्त तथा तीर्थों के माहात्म्यवर्णन पर केंद्रित रहा है। इसमें पुराण विषयक सभी तथ्यों का समावेश है। और शक्ति-पूजा के अतिरिक्त पंचदेवोपासना (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य व गणेश) की विधि का भी उल्लेख है। इसमें रामायण, महाभारत व हरिवंश के प्रतिपाद्य विषयों की सूची है तथा सृष्टि- कर्म, ज्योतिष, शकुनविचार, सामूहिक शस्त्र, आयुर्वेद, छंद, व्याकरण, रत्नपरीक्षा व नीति के संबंध में भी विभिन्न अध्यायों में तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं। 'गरुड पुराण' में याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र के एक बडे भाग का भी समावेश है तथा एक अध्याय में पशु-चिकित्सा की विधि व नाना प्रकार के रोगों को हटाने के लिये विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्णन किया गया है। इस पुराण में छंद-शास्त्र का 6 अध्यायों में विवेचन है और एक अध्याय में भगवद्गीता का भी सारांश दिया गया है। अध्याय 108 से 115 में राजनीति का विस्तार से विवेचन है तथा एक अध्याय में सांख्ययोग का निरूपण किया गया है। इसके 144 वें अध्याय में कृष्णलीला कही गई है तथा आचारकांड में श्रीकृष्ण की रुक्मिणी प्रभृति 8 पत्नियों का उल्लेख है, किन्तु उनमें राधा का नाम नहीं है। इसके उत्तर खंड में, (जिसे प्रेतकल्प कहा जाता है) मृत्यु के उपरान्त जीव की विविध गतियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख है। व्रतकल्प में गर्भावस्था, नरक, यम, यम-नगर का मार्ग, प्रेतगणों का वासस्थान प्रेतलक्षण प्रेतयोनि से प्रेतों का स्वरूप, मनुष्यों की आयु, यमलोक का विस्तार, सपिंडीकरण का विधान, वृषोत्सर्ग विधान आदि विविध पारलौकिक विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। प्रस्तुत पुराण में गया- श्राद्ध का विशेष रूप से महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। आधुनिक शोध-पण्डितों ने इस पुराण की रचना का समय नवम शती के लगभग माना है परंतु इसका संकलन जनमेजय के काल में माना जाता है। डॉ. हाजरा के अनुसार इसका उद्भव-स्थान मिथिला है। इसमें याज्ञवल्क्य स्मृति के अनेक कथन, कतिपय परिवर्तन व पाठांतर के साथ संग्रहीत हैं। इसमें 107 वें अध्याय में 'पराशर-स्मृति' का सार 381 श्लोंको में दिया गया है। गर्वपरिणति (नाटक) - ले. नंदलाल विद्याविनोद (सन् 1885 में संस्कृत चन्द्रिका में प्रकाशित)। अंक दृश्यों में विभाजित। नान्दी प्रस्तावना, अर्थोपक्षेपकादि का अभाव । भरतवाक्य छोड पूरा नाटक गद्य में। छोटे छोटे वाक्य । अलंकारों का विरल प्रयोग। नायक का चरित्र क्रमशः विकसित । नूतन संविधान यूरोपीय संस्कृति की विषमयता का दर्शन । पारिवारिक संबन्धों की सुंदरता का सफल संवर्धन। करुण तथा हास्य रस का संमिश्रण। कथासार- रामचन्द्र और कमला का पुत्र सुरेश, मेधावी किन्तु कठोर है। अग्रज कृष्णदास को वह हेय समझता है, क्यों कि वह आधुनिक सभ्यता से दूर है। माता-पिता सुरेश के आचरण से दुखी हैं। बाद में सुरेश वन में खो जाता है। पुस्तकी ज्ञान वहां काम नहीं आता। वह हताश है, इतने में कृष्णदास उसे ढूंढता हुआ पहुंचता है। उसकी सहायता से सुरेश बचता है और उसका स्वभाव परिवर्तित होता है। गर्भकुलार्णव - पार्वती-परमेश्वर- संवादरूप। 34 पटल। विषय कौलागम का सारभूत रहस्य । सौभाग्यदेवी की सविस्तर अर्चनाविधि का वर्णन है। गर्भकौलागम - शिवपार्वती संवाद रूप। विषय- ध्यान, जप, स्मरण और क्रिया के बिना पार्वती का अष्टोत्तर शत नामस्तोत्र ही सिद्धि देता है। गर्भपुष्टिव्रतम् - ले- श्रीनारायण। श्लोक- 25। श्रीरामडामरमन्त्रानुसार इसकी रचना हुई है। गांडीवम् - 1964 में वाराणसी से रामबालक शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें सभी प्रकार के समाचारों का प्रकाशन होता था। श्री रामबालक शास्त्री के निधन के कारण कुछ वर्षों तक इसका प्रकाशन बंद रहा। बाद में श्री गोपालशास्त्री के संपादकत्व में यह पत्र संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित किया जाने लगा। गाथाकादंबरी (बाणभट्ट की कादम्बरी का पद्यमय रूप) - ले- वरकर कृष्ण मेनन। चित्तूर (कोचीन) के निवासी। केरल की लोकप्रिय गीत-पद्धति से प्रस्तुत गाथाओं की रचना 92 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाथासप्तशती - हालकविकृत प्राकृत गाथासप्तशती का संस्कृतानुवाद । ले- श्रीभट्टमथुरानाथ शास्त्री। जयपुर-निवासी। गादाधरी - ले- गदाधर भट्टाचार्य। ई. 17 वीं शती। यह रघुनाथ शिरोमणिकृत तत्त्वचिंतामणि-दीधिति की व्याख्या है। विषय- नव्य न्यायदर्शन। गादाधरीकर्णिका - ले- कृष्णभट्ट आर्डे। गादाधरीपंचवादटीका - ले- रघुनाथशास्त्री। गान्धिचरितम् - ले- चारुदेवशास्त्री। गानस्तवमंजरी - ले- राधाकृष्णजी। गानामृतरंगिणी - ले- टी. नरसिंह अय्यंगार (अपरनाम कल्किसिंह) विविध विषयों पर लिखे गेय काव्यों का संग्रह। गान्धीविजयम् (नाटक) - ले- मथुराप्रसाद दीक्षित। सन 1910 तक गांधीजी के जीवन में आफ्रिकी तथा भारत में जो राजनैतिक घटनाएं हुईं उनका चित्रण हुआ है। अंकसंख्या दो। इसमें प्राकृत के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग तथा बालोचित संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है। नायक के रूप में गांधी और तिलक, मालवीय, राजेन्द्रप्रसाद, नेहरु, सरदार पटेल, तथा लार्ड इरविन, माऊंटबॅटन, क्रिप्स आदि विदेशीय पात्रों का भी। चित्रण है। गायकपारिजातम् - ले- शिंगराचार्य । गायकवाड-बंध - ले-वेदमूर्ति रामशास्त्री। ई. 19 वीं शती। विषय बडोदा के गायकवाड वंश के राजपुरुषों का चरित्र-चित्रण। गायत्रीकल्प - गायत्री के ध्यान, वर्ण, रूप, देवता, छन्द आवाहन, विसर्जन, माहात्म्य आदि का वर्णन, ब्रह्मा- नारद संवाद के रूप में हुआ है। गायत्रीकवचम् - नीलतन्त्र तथा आगमसंदर्भ के अन्तर्गत । शरीर के विभिन्न अंगों के रक्षार्थ वैदिक गायत्री के विभिन्न वर्णों का उपयोग बतलाया गया है। गायत्रीतन्त्रम् - पटल-9 और श्लोक- 195 हैं। गायत्रीमाहात्म्य, गायत्री का ध्यान, न्यास, गायत्रीहीन ब्राह्मण की निन्दा, यज्ञोपवीत-लक्षण, संध्यालक्षण, तिथियों के स्थान और मन्त्र, शुक्ल-कृष्ण पक्षों के ध्यान और मंत्र एवं गायत्री कवच का वर्णन है। गायत्रीपंचांगम् - विषय- (1) गायत्री-हृदय (2) रुद्रयामलतन्त्रोक्त गायत्रीरहस्यान्तर्गत-गायत्री नित्यपूजा- पद्धति (3) रुद्रयामलतंत्रोक्त गायत्रीरहस्यान्तर्गत गायत्रीसहस्रनाम (4) विश्वामित्रसंहितान्तर्गत गायत्रीकवच (5) विश्वामित्रकृत गायत्री स्तवराज। गायत्रीपद्धति - रूद्र यामलोक्त गायत्रीपूजा का सविस्तर विवरण और उपासकों के प्रातः कृत्यों में गायत्रीपूजा की विधि बतलायी गयी है। गायत्रीपुरश्चरणचन्द्रिका- ले- काशीनाथ। पिता-जयराम । श्लोक- 666। गायत्रीपुरश्चरणपद्धति - ले- गंगाधर। विश्वामित्रकल्प और वसिष्ठकल्प का स्मृतिशास्त्र के अनुसार साररूप प्रतिपादन हुआ है। गायत्रीपुरश्चरणविधि - श्लोक-2001 विषय- गायत्री-मंत्र के अक्षरों का अंग प्रत्यंग में न्यास, गायत्री मानसपूजा, गायत्रीशाप-विमोचन, गायत्री मंत्र के ब्रह्मास्त्र और आग्नेयास्त्र बनाने की विधि, गायत्री-जपविधि, उत्तरन्यासविधि आदि का वर्णन । गायत्रीब्रह्मकल्प - गायत्री की पूजा, न्यास, ध्यान, पुरश्चरण आदि की पद्धति और प्रयोग का सांगोपांग वर्णन है। यह ऋग्विधान के अंतर्गत है। गायत्रीब्राह्मणोल्लासतंत्रम् - कुल पटल-5। श्लोक- 8251 कामधेनुतंत्र में देव-देवी संवाद के रूप में प्रतिपादन। प्रथम पटल में ध्यान, जप, आदि गायत्री उपासकों के उपयोग की नाना विधियां हैं। द्वितीय में 'भू' आदि सप्त व्याहृतियों के अर्थ का निरूपण हुआ है। तृतीय में गायत्री के जपयोग का वर्णन है। चतुर्थ में गायत्री का आवाहन, यज्ञोपवीतनिर्माण आदि तथा पंचम में संध्योपासना आदि का वर्णन है। गायत्रीमाला - विषय- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महालक्ष्मी, नृसिंह, लक्ष्मण, कृष्ण, गोपाल, परशुराम, तुलसी, हनुमान्, गरुड, अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश, सूर्य, चंद्र, परमहस, पवन, हंस, गौरी और देवी के भेद से कुल 24 गायत्रियों का वर्णन । गायत्रीरहस्यम् - ले-व्यास परशुराम। अध्याय-10। विषयप्राणायामाभ्यास का आनन्द । संध्यार्थ के ध्यानानन्द का उदय, मार्जन, आचमन, अधमर्षण, अर्घ्यदान तथा शुद्धि के निर्धारण का आनन्द, गायत्री-उपासनाजन्य आनन्द का उदय। 24 मुद्राओं के तत्त्व, विचारानन्द का उदय आदि । गायत्रीस्तवराजस्तोत्रम् - ले-विश्वामित्र। विश्वामित्रसंहिता के अंतर्गत। गायत्रीहृदयम् - ले- वसिष्ठ-ब्रह्म संवादरूप। विषय-गायत्री की उत्पत्ति तथा गायत्री का अर्थ। गायत्री मंत्र के 3 लाख 60 हजार जप से तीर्थों के स्नान का तथा वेदाध्ययन का फल मिलता है, यह फलश्रुति बताई है। गायत्र्यर्चसंदीपिका - ले- भडोपनायक शिवराम भट्ट। पितामहजयरामभट्ट। पिता- काशीनाथ। विषय- उपासकों के प्रातःकृत्य एवं गायत्री देवी की पूजा। गायत्र्यष्टोत्तरशत- दिव्यनामामृत-स्तोत्रम् - यह स्तोत्र विश्वामित्ररामचंद्र संवाद रूप है। श्लोक- 42 | विषय गायत्री के 108 नामों का पाठ रोगमुक्ति तथा ऐश्वर्यवृद्धि के लिये बतलाया गया है। गालव ऋग्वेद की शाखा - गालव का दूसरा नाम ब्राभ्रव्य और निवास- पंचाल देश (अर्थात् आधुनिक रोहेलखंड के आसपास)। इस ऋषि ने ऋग्वेद का क्रमपाठ बनाया था। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड 43 For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस शाखा की संहिता, ब्राह्मण और सूत्र अभी तक अप्राप्त व्याकरण महाभाष्य, ऐतरेय आरण्यक, आयुर्वेद की चरक-संहिता, महाभारत सभापर्व, स्कन्दपुराण आदि स्थानों पर गालव-नाम मिलता है परंतु उनमें से ऋग्वेद शाखा प्रवर्तक गालव को निर्धारित करना आसान नहीं। गीतम् (ईहामृग) - ले-कृष्णावधूत पण्डित । ई. 19 वीं शती।। गीतगंगाधरम् - (1) ले- कल्याण कवि। (2) लेनंजराजशेखर । ई. 20 वीं शती। (3) ले- चन्द्रशेखर सरस्वती। गीतगिरीशम् - ले- रामकवि। गीतगोविन्द - ले-जयदेव। पिता- भोजदेव। माता-वामादेवी। समय-11 वीं शती। जयदेव परम कृष्णभक्त थे। इसमें 12 सर्ग एवं 24 अष्टपदियां हैं। सर्ग भागवत 12 के काण्डों के समान हैं। अष्टपदी के राग एवं ताल का निर्देश किया है। कहते हैं कि कवि की पत्नी पद्मावती पति के गान के साथ नृत्य करती थी। काव्य भक्तिरसपूर्ण, संगीतमय तथा रहस्य युक्त है। शब्दालंकारयुक्त उत्कृष्ट रचना है। इसी से गेय काव्य की परपरा का प्रारंभ संस्कृत साहित्य में माना जाता है। ____ इस काव्य के नायक कृष्ण और नायिका राधा है। श्रृंगार के दोनों पक्षों- (संभोग-विप्रलम्भ) का इसमें वर्णन है। काव्य में राधा की सखी दोनों की मनोदशाओं से परस्पर को अवगत कराते हुए दूती की भूमिका निभाती है। संस्कृत रस शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार काव्य की रचना की गयी है। चैतन्य संप्रदाय में गीतगोविंद काव्य पवित्र माना गया है। गीतगोविंद के टीकाकार - (1) उदयनाचार्य (2) कृष्णदास (3) गोपाल (4) नारायणदास (5) भावाचार्य (6) रामतारण (7) रामदत्त (8) रूपदेव (9) विठ्ठल (10) विश्वेश्वर (11) शालीनाथ (12) हृदयाभरण (13) तिरुमलार्य (14) श्रीकण्ठ मिश्र (15) गदानन्द (16) लक्ष्मीधर (लक्ष्मणसूरि) (17) कृष्णदत्त (18) अजद्धर (19) वनमाली भट्ट (20) वासुदेव वाचासुन्दर (21) अनूपभूपति (25) नारायण (26) शंकरमिश्र (27) भगवद्दास (28) राजा कुम्भकर्ण (29) लक्ष्मण (30) चैतन्यदास पूजक (31) मानांक (32) ------ (33) . संग्रहदीपिका तथा बालबोधिनी, ले-अज्ञात गीतगौरांगम् - ले- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य। यह लेखक की दसवीं संस्कृत रचना है। लेखक की कन्या वैजयंती ने इस रचना के निर्माण में सहयोग किया है। यह गीतिनाट्य है| अतः नृत्य-गीतों का प्राचुर्य है। 6 रागों तथा 75 रागिणियों में रचित 81 गीत हैं। गद्य का प्रयोग नहीं हुआ है। अंकसंख्या- पांच है। कुल दृश्य 301 प्रवेशक, विष्कम्भकादि का अभाव है। वैदर्भी रीति, अलंकारों का अति विरल प्रयोग, प्राकृत का अभाव, एकोक्तियों की बहुलता आदि इसकी विशेषताएं हैं। नायक चैतन्य महाप्रभु तथा नायक की पत्नी विष्णुप्रिया का मार्मिक रेखांकन हुआ है। चैतन्य महाप्रभु के संपूर्ण जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का दर्शन इस में होता है। संस्कृत पुस्तक भण्डार, कलकत्ता से मार्च 1974 में प्रकाशित। गीतगौरीपति - ले- भानुदास । गीतदिगम्बर - ले- वंशमणि। पिता- रामचंद्र। सन् 1755 ई. में रचित। काठमाण्डू के राजा प्रतापमल्ल के तुलापुरुषदान महोत्सव के अवसर पर अभिनीत । अंकसंख्या- चार । गीतभारतम् - ले-कवि- त्रैलोक्यमोहन गुह। विषय- आंग्ल साम्राज्य तथा सम्राज्ञी व्हिक्टोरिया का यशोगान । सर्गसंख्या 21 । गीत-राघवम् - 1) ले. प्रभाकर। सन- 1674 । 2) ले. रामकवि। 3) ले. हरिशंकर। गीत-वीतरागम् - ले. अभिनवचारुकीर्ति । गीत-सुन्दरम् - ले. सदाशिव दीक्षित। 6 सर्ग। गीत शंकरम् - ले. अनन्तनारायण। पिता- मृत्युंजय । गीत-शतकम् - ले. सुन्दराचार्य। गीत-सूत्रसार - ले.कृष्ण बॅनर्जी । गीता (श्रीमद्भगवद्गीता) - महाभारत के भीष्म पर्व में इस ग्रंथ का अन्तर्भाव होता है। अध्यायसंख्या 18 और श्लोकसंख्या 700। प्रत्येक अध्याय के अन्त में "श्रीमद्भगवद् गीतासु" उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन शब्दों के द्वारा इस ग्रंथ का महत्त्व बताया गया है। यह एक ऐसा उपनिषद् है कि जिस में ब्रह्मविद्या एवं समग्र योगशास्त्र का (ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग एवं राजयोग इन चारों योगों का) शास्त्रीय प्रतिपादन एवं समन्वय हुआ है। यह सारा प्रतिपादन योगेश्वर कृष्ण और उनके प्रिय सुहृत् अर्जुन के संवाद-रूप में अत्यंत प्रासादिक शैली में हुआ है। गीता के प्रथम अध्याय का प्रारंभ धृतराष्ट्र-संजय के संवाद से होता है। कौरव-पांडवों की रणोत्सुक सेना के बीच रथ खड़ा होने पर सारे प्रिय व आदरणीय आप्तस्वजनों के संभाव्य विनाश के विचार से अर्जुन के मन में विषाद निर्माण होता है। वह अपने धनुष्य बाण त्याग कर शोकमग्न अवस्था में बैठ जाता है। दूसरे सांख्ययोग नामक अध्याय में आत्मा की अमरता देह की क्षुद्रता एवं स्वधर्म की अनिवार्यता के सिद्धान्तों का प्रतिपादन अर्जुन को कर्तव्यप्रवण करने के लिए भगवान करते हैं। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफल हेतुर्भूः मा ते संगोङ्स्त्व कर्मसु। (2-47) यह कर्मयोग का सुप्रसिद्ध सिद्धान्त -वचन इसी अध्याय में कहा गया है। द्वितीय अध्याय में बताया हुआ स्थितप्रज्ञ का लक्षण भगवद्गीता के तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। तीसरे कर्मयोग नामक अध्याय में आसक्तिविरहित वृत्ति से कर्म करने से कर्मबंध नहीं लगते। जनकादि स्थितप्रज्ञ पुरुषों 94/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ट For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ने कर्मयोग द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी। लोकसंग्रह की दृष्टि से तुझे भी कर्मयोग का अवलंब करना योग्य होगा (4-20) यह आदेश भगवान देते हैं। ज्ञानकर्मसंन्यास योग नामक चौथे अध्याय में "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।4-7। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4-8 ।। इन सुप्रसिद्ध श्लोकों में अवतारवाद का सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। कर्म, अकर्म और विकर्म के ज्ञान की आवश्यकता तथा विविध प्रकार के यज्ञों में ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता प्रतिपादन की है। संन्यास और कर्मयोग दोनों भी मोक्षप्रद हैं फिर भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग की विशेषता अधिक है। ध्यानयोग नामक छठे अध्याय में आत्मसाक्षात्कार करने के लिये ध्यानयोग की साधना बताई है। ज्ञानविज्ञानयोग नामक सातवें अध्याय में परमात्म-तत्त्व के ज्ञान के लिए आवश्यक सृष्टिज्ञान बताया और फिर दैवी गुणमयी माया के जाल से मुक्त होने के लिए आर्त जिज्ञासु तथा अर्थार्थी भक्तों की सकाम भक्ति से ज्ञानयुक्त भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादन की है। अक्षरब्रह्मयोग नामक आठवें अध्याय में ब्रह्म, अध्यात्म, • कर्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधियज्ञ इत्यादि पारिभाषिक शब्दों . का विवरण करते हैं। पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के लिए परमात्मा का स्मरण करते हुए शरीर-त्याग करने का उपाय बताया है। इसी संदर्भ में अंतिम शुक्ल और कृष्ण गति का निवेदन किया है। राजविद्या-राजगुह्य नामक नवम अध्याय में आसुरी प्रवृत्ति के लोग परमात्मस्वरूप को ठीक न पहचानने के कारण अवतारों की अवज्ञा करते हैं, परंतु दैवी प्रवृत्ति के महात्मा विविध प्रकारों से विविध स्वरूपी परमात्मा की उपासना करते हैं। • ऐसे अनन्य भक्तों के योगक्षेम की चिंता परमात्मा स्वयं करते हैं यह सिद्धान्त बताया है। यत् करोषि यदनासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम् ।।9-27।। इस संदेश के अनुसार परमात्मा को सर्वस्वार्पण करने वाला दुराचारी भी भक्तिमार्ग से जीवन व्यतीत करने लगे तो वह भी परमपद प्राप्त करता है, यह महान् सर्वसमावेशक सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। विभूतियोग- नामक दसवें अध्याय में समस्त चराचर सृष्टि का आदिकारण परमात्मा ही है इस भावना से उपासना करने वाले को आत्मज्ञान के लिए आवश्यक बुद्धियोग की प्राप्ति परमात्मा की कृपा से होती है यह रहस्य बताते हुए, यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवनम्।। 10-41 ।। ___ इस लोक में "विभूतियोग" का महान् सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन की इच्छा के अनुसार उसे दिव्य चक्षु देकर भगवान कृष्ण ने अपना अकल्पनीय विराट स्वरूप दिखाया, जिसे देखकर भयग्रस्त अर्जुन प्रार्थना करता है कि "तैनैव रूपेण चतुर्भुजेन । सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।" इस अध्याय में भी ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने वाला, निस्संग वृत्ति का पुरुष ही परमात्म पद की प्राप्ति करता है, यह रहस्य बताया है। भक्तियोग नामक बारहवें अध्याय में निर्गुण उपासना से सगुण उपासना की श्रेष्ठता बता कर अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्यान और ध्यान से श्री कर्मफलत्याग को उत्तम साधना कहा है क्यों कि उसी से चित्त को निरंतर शांति का लाभ होता है। इस अध्याय के अन्त में परमात्मा को प्रिय भक्त के जो लक्षण बताए हैं वे, साधकों के लिए उत्कृष्ट मार्गदर्शक हैं। क्षेत्रक्षेत्रज्ञ- विभाग योग नामक तेरहवें अध्याय में ज्ञान के अमानित्व, अदंभित्व अहिंसा आदि ज्ञान के 26 लक्षण बताए हैं। साथ ही अनादि और सर्वव्यापि ब्रह्म ही ज्ञेय है और उसी के ज्ञान से मोक्षप्राप्ति बताई है। ___गुणत्रय-विभाग-योग-नामक चौदहवें अध्याय में सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों का विवेचन और त्रिगुणों से अतीत होने का संदेश दिया है। इस अध्याय में निवेदित गुणातीत के लक्षण भी साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पुरुषोतम-योग नामक पंद्रहवे अध्याय में विशाल अश्वत्थ रूपक के माध्यम से अनादि-अनंत संसार का स्वरूप वर्णन कर, इस के जंजाल से छुटकारा पाने के लिए असंग-शस्त्र की आवश्यकता बताई है। इस सृष्टि के भूत-सृष्टि रूपी "क्षर" तथा कृटस्थ हिरण्यगर्भ रूपी "अक्षर" नामक दो विभागों से उत्तम पुरुष अथवा पुरुषोत्तम पृथक् है। इस क्षराक्षर विभाग तथा पुरुषोतम के ज्ञान से साधक कृतार्थ होता है। दैवासुरसंपद् विभाग नामक सोलहवें अध्याय में, अभय सत्त्वशुद्धि, दान, दया, सत्य आदि दैवी संपत्ति के मोक्षप्रद गुण तथा उस के विपरीत बंधन कारक आसुरी संपत्ति के गुणों का वर्णन करते हुए काम, क्रोध, और लोभ ये तीन नरकद्वार हैं, उनका सर्वथा त्याग करने का आदेश दिया है। सत्रहवें श्रद्धात्रय-विभाग-योग नामक अध्याय में बताया है कि यह मानव मात्र श्रद्धामय है (श्रद्धामयोयं पुरुषः) और वह अपनी सात्त्विक, राजस तथा तामस श्रद्धा के अनुसार उपासना करता है। त्रिविध श्रद्धाओं के अनुसार ही मानव के आहार, यज्ञ, दान, तप आदि व्यवहार होते हैं। गुणातीत अवस्था की प्राप्ति के लिए "ॐ तत् सत्"इस समर्पण मंत्र के साथ सारे व्यवहार करने की साधना बताई है। मोक्ष-संन्यासयोग नामक अठारहवां अध्याय उपसंहारात्मक है। संत ज्ञानेश्वर इसे "कलशाध्याय" संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 95 For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कहते हैं। इसमें यज्ञ, दान, और तप जैसे पावन कर्म अनासक्त वृत्ति से अवश्य करने का आदेश दिया है। कर्म फल के त्याग से, कर्म के इष्ट, अनिष्ट अथवा इष्टानिष्ट फलों से कर्ता मुक्त होता है। त्रिगुणों के कारण कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति, और सुख के भी सात्त्विक राजस और तामस प्रकार होते हैं। त्रिगुणों के कारण ही मानव में ब्राह्मणादिक चार वर्णों के भेद निर्माण हुए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने नियत कर्मद्वारा परमात्मा की उपासना करने से सिद्धि प्राप्त करता है। अपना चित्त सतत परमात्मा को समर्पण करने वाले पर, परमात्मा की कृपा हो कर वह परम शांति तथा शाश्वत पद प्राप्त करता है । इस प्रकार गीता में प्रतिपादित विषयों का अध्यायशः स्वरूप देखकर यह स्पष्ट होता है की गीता ज्ञान, भक्ति, कर्म, तथा राजयोग का प्रतिपादन करने वाला अखिल मानव जाति का मार्गदर्शक दीपस्तंभ है। हिंदु समाज के सभी सम्प्रदायों में गीता के प्रति परम श्रद्धा है । समस्त उपनिषदों का सारभूत ज्ञान गीता में संगृहीत हुआ है। सभी प्रमुख आचायों ने अपना मन्तव्य प्रतिपादन करने के लिए गीता पर विद्वत्तापूर्ण भाष्य ग्रंथ लिखे हैं। श्री ज्ञानेश्वर महाराज की भावार्थदीपिका अर्थात् ज्ञानेश्वरी नामक मराठी टीका भारतीय (विशेषतः मराठी) साहित्य का सौभाग्यालंकार माना जाता है। हिंदी में संत तुलसीदास व हरिवल्लभदास जैसे संतों ने लिखे छन्दोबद्ध गीता टीका के उल्लेख मिलते हैं। आधुनिक महापुरुषों में लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, योगी अरविन्द, डॉ. राधाकृष्णन वेदमूर्ति सातवळेकर, स्वामी चिन्मयानंद जैसे विद्वानों ने देशकाल - परिस्थितीसाक्षेप गीता के भाष्य ग्रंथ लिखे हैं। आचार्य विनोबाजी के गीता प्रवचन तथा गीताई नामक समश्लोकी अनुवाद अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं। संसार की सभी प्रगल्भ भाषाओं में गीता के अनुवाद हो चुके हैं। गीता की इस योग्यता तथा मान्यता के कारण संस्कृत भाषा में रामगीता, शिवगीता, गुरुगीता हंसगीता, पांडवगीता, आदि 17 प्राचीन प्रसिद्ध गीता ग्रंथ प्रचलित हुए तथा आधुनिक काल में रमणगीता इत्यादि दो सौ से अधिक "गीता" संज्ञक ग्रंथ निर्माण हुए हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रभाव से "दूतकाव्य" के समान गीता एक पृथगात्म वाङ्मयप्रकार ही संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में हो गया है। www.kobatirth.org गीता सन 1960 में के. वेंकटराव के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन उडुपी से प्रारंभ हुआ। यह संस्कृत पत्रिका कन्नड लिपी में प्रकाशित होती थी। इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपये था। गीतांजलि रवींद्रनाथ टैगोर की प्रस्तुत सुप्रसिद्ध काव्य रचना एवं कथा उपन्यास आदि बंगाली साहित्य का अनुवाद पद्यवाणी, मंजूषा आदि संस्कृत पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ । अन्यान्य अनुवादकों में क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय प्रमुख अनुवादक हैं। - 96 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - गीतातात्पर्य-निर्णय लेखक हैं द्वैत मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य जो पूर्णत्रज्ञ एवं आनंदतीर्थ के नामों से भी जाने जाते हैं। यह गीता की गद्यात्मक टीका है। गीताभाष्य की अपेक्षा यह गंभीर शैली में निबद्ध है। मध्वाचार्य के अनुसार ईश्वर का " अपरोक्ष ज्ञान" ही मोक्ष का अंतिम साधन है। यह दो प्रकार से संभव है। ध्यान एवं परम वैराग्य का जीवन बिताने से तथा शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित कर्मों का योग्य दृष्टि से संपादन करने मे । गीतातात्पर्य - न्यायदीपिका माध्वमत की गुरुपरंपरा में 6 वें गुरु जयतीर्थ की गीताप्रस्थान विषयक दो महनीय रचनाओं में से एक। (दूसरी रचना है- गीताभाष्यप्रवेश टीका ) । गीताभाष्यप्रवेश -टीका माध्वमत की गुरुपरंपरा में 6 वें गुरु जयतीर्थ की गीता प्रस्थान विषयक दो महनीय रचनाओं में से यह टीका विस्तृत तथा शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से नितांत प्रौढ एवं प्रामाणिक है। इसमें आचार्य शंकर तथा भास्कर के गीता भाष्यों में लिखित मतों का खंडन किया गया है। गीतार्थसंग्रह ले. यामुनाचार्य तामिल नाम आलंवंदार । विशिष्टाद्वैत मत के अनुसार गीता के गूढ - सिद्धान्तों का संकलन इस ग्रंथ में किया है। गिरिजायाः प्रतिज्ञा (रूपक) ले. श्रीमती लीला राव दयाल । ई. 20 वीं शती । कथासार एकमात्र पुत्र की हत्या के प्रतिशोध की लालसा रखने वाली एकाकिनी वृद्धा गिरिजा के घर पर जेल से भागा हुआ एक बन्दी आता है। गिरिजा उसे कुएं में छिपाती है। बाद में ज्ञात होता है कि वही उसके पुत्र का हत्यारा है। वह उससे प्रतिशोध लेने की ठानती है, परंतु बंदी उसे कहता है कि वह भी माता का एकमात्र पुत्र है अतः उसे क्षमा किया जाये । वृद्धा गिरिजा प्रतिशोध की भावना भूलकर उसे छोड देती है । गिरि-संबर्धनम् (व्यायोग) ले. जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894 ई. । प्रणव- पारिजात में प्रकाशित। संस्कृत राष्ट्रभाषा सम्मेलन के अधिवेशन में अभिनीत । कृष्ण के गोवर्धन धारण की कथा में सुदर्शन, योगमाया आदि छायात्मक पात्र दिखाए हैं । । नृत्य तथा संगीत का प्राचुर्य और हास्य का पुट इसकी विशेषताएं हैं। गीर्वाण (पत्रिका) कार्यालय मद्रास। 1924 में प्रारंभ। गीर्वाणकेकावली अनुवादक पं. डी. टी. साकुरीकर, भोर (महाराष्ट्र) के निवासी मूल मोरोपन्त कृत केकावली नामक प्रख्यात मराठी भक्तिस्तोत्र का अनुवाद | गए गीर्वाणज्ञानेश्वरी अनुवादककर्ता - अनंत विष्णु खासनीस | प्रत्येक 6 अध्यायों के 2 भागों में प्रकाशित मूल श्रीज्ञानेश्वर लिखित भावार्थदीपिका (ज्ञानेश्वरी नामक भगवद्गीता का मराठी में भावार्थ ) । महादेव पांडुरंग ओक ने प्रथम 6 अध्यायों का अनुवाद किया है। For Private and Personal Use Only - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गीर्वाणभारती - सन 1906 में बडोदा से शास्त्री भगतलाल गिरिजाशंकर के सम्पादकत्व में संस्कृत और गुजराती में इस द्विभाषी पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। गीर्वाणभाषासमुदय - ले.आर. श्रीनिवास राधवन्। गीर्वाणशठगोपसहस्रम् - मूल तमिल भक्ति काव्यों के संग्रह का अनुवाद। अनुवादक- मेडपल्ली वेङ्कटरमणाचार्य। गीर्वाणसुधा - संस्थापक एवं संपादक- श्रीराम भिकाजी वेलणकर। मुंबई के देववाणीमंदिरम् नामक संस्था का यह मुखपत्र सन 1979 से शुरु हुआ। इस मासिक पत्रिका में विद्वानों के लेख, कविता, नाट्यांश के अतिरिक्त सारे देशभर के संस्कृत विषयक वृत्तों का संक्षेपतः प्रकाशन होता है। वार्षिक मूल्य 20/- 1 प्राप्तिस्थान देववाणी मंदिरम्, इंदिरा निवास, अ.गो.मार्ग; मुंबई-4। गीर्वाण्युपासकाः वैदेशिकाः - ले.डॉ. कान्तिकिशोर भरतिया। कानपुर के डी.ए.व्हि. कॉलेज में संस्कृत प्राध्यापक। इस पुस्तक में विदेशी संस्कृतोपासकों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। संस्कृतनाट्यसौष्ठवम् इत्यादि अन्य पुस्तकें भी डॉ. भरतिया ने लिखी हैं। संस्कृत एवं संस्कृति विषयक अन्य लेखन हिन्दी में किया है। गुंजारव - अहमदनगर (महाराष्ट्र) से श्री. व. त्र्यं. झांबरे के संपादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है। गुटिकाधिकार - ले. धन्वन्तरि। गुणदीधितिविवृत्ति - ले.जयराम न्यायपंचानन । गुणरत्नाकर - ले.नरसिंह । विषय- अलंकारों के उदाहरण तथा तंजौरनरेश सरफोजी भोसले का गुणवर्णन । गुणरहस्यम् - ले. रामभद्र सार्वभौम । गुणविवृत्तिविवेक - ले. गुणानन्द विद्यागीश। गुणशिरोमणिप्रकाश - ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य चक्रवर्ती । पिता- रघुनाथ शिरोमणि। गुणसंग्रह - ले. गोवर्धन (सम्भवतः उणादिवृत्ति के लेखक) गुप्तपाशुपतम् - ले. विश्वनाथ सत्यनारायण। ई. 20 वीं शती। विषय- अर्जुनद्वारा पाशुपत अस्त्र-प्राप्ति की कथा। गुप्तसाधनतंत्रम् - उमा-महेश्वर संवादरूप। 12 पटल। विषयतांत्रिक कुलाचार और कौलों की साधना, पंचांगोपासना, आत्मसिद्धि के उपाय, मासिक जप विवरण, दक्षिणा के प्रकार, मंत्रोद्धार आदि। गुमानीशतकम् - ले-गुमणिक। प्रथम श्लोक में भारत कथा का दृष्टान्त देकर दूसरे में उसका नैतिक रहस्य, तात्पर्यरूप निवेदन किया है। यही क्रम पूरे काव्य में है। इसका मराठी . अनुवाद नागपूर के म.म. केशवराव ताम्हन ने किया है। गुरुकल्याणम् - ले-वेदमूर्ति श्रीरामशास्त्री। नेल्लोर (आन्ध्र) निवासी ई. 19-20 वीं शती। गुरुकुलपत्रिका - सन् 1960 में गुरुकुल कांगडी हरिद्वार से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सम्पादक- धर्मवेद विद्यामार्तण्ड और प्रकाशक- सत्यव्रत विद्यामार्तण्ड हैं। इसमें दार्शनिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और सामाजिक निबन्ध प्रकाशित होते हैं। गुरुगीता - यह स्कन्दपुराणान्तर्गत तथा रुद्रयामलांतर्गत भी है। इसमें सद्गुरु की महिमा वर्णन की है। गुरुगोविन्दसिंहचरितम् - ले-डॉ. सत्यव्रत शास्त्री। दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष। सिक्ख सम्प्रदाय के दशम गुरु श्रीगोविंदसिंह की जन्म-त्रिशताब्दी निमित्त लिखे गए प्रस्तुत पद्यात्मक चरित्रग्रंथ को 1968 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। गुरुचरित्रम् (द्विसाहस्री) - ले-वासुदेवानन्द सरस्वती। मूल मराठी ग्रन्थ का परिवर्धित संस्कृत रूपान्तर। गुरुतत्त्वविचार - ले-गंगाधरशास्त्री मंगरुलकर, नागपुर । गुरुतन्त्रम् - श्लोक-264 । विषय-गुरु का ध्यान, पूजा, माहात्म्य आदि। गुरुदक्षिणा (रूपक) - ले-श्रीनिवास रंगाचार्य। श. 20 वीं। "अमृतवाणी' पत्रिका में सन् 1946 में प्रकाशित । अंकसंख्या-तीन। विषय-रघुवंशान्तर्गत कौत्स की कथा। गुरुपंचांगम् - गुरुयामलान्तर्गत, हरगौरी-संवादरूप। विषय-(1) श्रीगुरुपटल (2) गुरुनित्यपूजापद्धति (3) गुरुकवच, (4) गुरुमंत्रगर्भ सहस्रनाम और (5) गुरुस्तोत्र । गुरुपरम्पराप्रभाव - ले-विजयराघवाचार्य। तिरुपति देवस्थान के लेखाधिकारी। गुरुपालीश्वर-पूजाविधि - श्लोकसंख्या-775। विषयश्रीगुरुपालीश्वर नामक महाप्रभु की पूजाविधि। गुरुपूजा - ले-ब्रह्मजिनदास जैनाचार्य । ई. 15-16 वीं शती। गुरुमाहात्म्यशतकम् - ले.डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी। सुबोध प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित। गुरु-सप्तति - ले-म.म. गणपति शास्त्री, (वेदान्तकेसरी)। गुरुवर्धापनम् - ले-श्री.भि. वेलणकर। लेखक ने अपने गुरु भारतरत्न म.म.पां.वा. काणे का वर्णन प्रस्तुत खंडकाव्य में किया है। गुरूवायुरेशशतकम् - ले-त्रावणकोर नरेश केरल वर्मा । विषय-गुरुवायुर क्षेत्र के देवता का स्तवन । गुरुवायुर केरल का एक प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है। गुरुवाल्मीकि-भावप्रकाशिका - ले-हरिपंडित लक्ष्मीनारायणामात्य। गुरुसहस्रनामस्तोत्रम् - संमोहन तंत्रान्तर्गत हर-पार्वती संवादरूप । श्लोक-1161 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/97 For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुसौन्दर्यसागर - ले-श्रीनिवास शास्त्री । श्लोकसंख्या-3 सहस्र। गुह्यकातन्त्र - महागुह्यतन्त्र की श्लोकसंख्या 12 हजार है। उसी का महागुह्यातिगुह्य अंश 1300 श्लोकों में दिया गया है। यह श्रीगुह्यकाली से सम्बद्ध है। गुह्यकालीसहस्रनाम - श्लोक-270। भैरव-भैरवी संवादरूप । प्रस्तुत स्तोत्र बाला-गुह्यकालिका तन्त्ररहस्य के अन्तर्गत है। गुह्यषोढान्यास उपनिषद् - देवी का एक उपनिषद । परात्परतरा, परातीतरूपा, काली, कला, परातीता एवं पूर्ण इन छह कलाओं से यक्त देवी की तान्त्रिक उपासना इसमें वर्णित है। छह कलाओं से युक्त होने के कारण देवी को 'घोढा' संबोधित किया गया है। गुह्यसमाजतन्त्रम् - बौद्ध धर्म के वज्रयान पंथ का प्रमाणभूत ग्रंथ है। तथागत गुह्यक नाम से भी इस ग्रंथ का उल्लेख होता है। इस ग्रन्थ के प्रभाव से बौद्धधर्म में शक्तितत्त्व का समावेश हुआ है। गूढादर्श-दक्षिणाचारतंत्रटीका - ले-भडोपनामक काशीनाथ भट्ट। पटलसंख्य-261 गूढार्थदीपिका - भाष्य । ले-मधुसूदन सरस्वती। काटोलपाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती। गूढार्थप्रकाशिनीरहस्य - ले-मथुरानाथ तर्कवागीश। ई. 16 वीं शती। गूढार्थादर्श - ले-काशीनाथ । पिता-जयरामभट्ट । (शिवानंदनाथ) ज्ञानार्णवतन्त्र को टीका। पटल-23। शिवपार्वती संवादरूप । विषय-त्रिपुरा मंत्र की उपासना के प्रकार, अन्तर्याग, मंत्रपूजा के प्रकार, बलिदान प्रकार, पंचसिंहासनस्थित त्रिपुरा का विवरण, त्रिपुराभैरवी के बीज, महाविद्या के बीज । त्रिपुरा के तीन भेद, उनके मंत्र, श्रीविद्या के 10 भेद, षोडशी के चार भेद, आसनशुद्धि, अर्धस्थापन, नित्यपूजा के प्रकार । गूढावतार - "विश्वसारतंत्र" के उत्तर खण्ड का 11 वा पटल । शिव-पार्वती संवादरूप है। इसमें भगवान विष्णु का महाप्रभु चैतन्यदेव के रूप में अवतरण तथा "चैतन्य-गायत्री" का वर्णन है। गुह्यपरिशिष्टम् - ले-कात्यायन। विषय-धर्मशास्त्र। गैरिकसूत्रटीका - प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में अनेक सन्दर्भ तथा संकेतों के लिए गेरू लेपन किया जाता था। प्रस्तुत रचना में रचनाकार ने 9 सूत्रों में गैरिकलेपन के नियमों को निबद्ध किया है। मूल ग्रंथ के कर्ता वाराणसी के विद्वान श्री बालंभट्ट पायगुण्डे हैं। इस पर श्री बालशास्त्री गर्दैजी नी टीका लिखी है। मूल ग्रंथ तथा टीका से युक्त पाण्डुलिपि सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान, उज्जैन में उपलब्ध है। प्रतिलिपि का समय संवत् 1935 है। गैर्वाणी - सन् 1960 में चित्तूर (आन्ध्र) से संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा द्वारा एम्. वरदराजन् पन्तुल के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। गैर्वाणी-विजय (प्रतीकनाटक) - ले-राजराज वर्मा (1863-1918) नवरात्रि-महोत्सव में प्रथम अभिनीत । कलपदि पालघाट - (केरल) के कल्पतरु प्रेस से सन् 1890 में प्रकाशित। कथासार - सरस्वती अपनी दुर्दशा ब्रह्मा से कहती है कि मैं भारत में हौणी (अंग्रेजी) की दासी बनायी जा रही हूं। मेरी कन्याएं (भाषाएं) परस्पर लड रही हैं। गैर्वाणी बताती है कि लक्ष्मी हौणी का साथ देती है और मैं निर्वासित हैं। हौणी बताती है कि मैं गैर्वाणी का आदर करती हूँ परन्तु लोग ही मुझ पर मोहित हैं। ब्रह्मा गैर्वाणी से कहते हैं कि हौणी को कनीयसी भगिनी मानकर उसे वैधानिक भार सौंप दो, तुम्हारा आदर होता रहेगा। इतने में गरुड समाचार देता है कि केरलनरेश ने धर्मशाला में रुचि लेकर गैर्वाणी की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। गैर्वाणीविजयम् - ले-बालकवि । गोत्रप्रकाश - ले-ज्योतिष-शास्त्र के आचार्य नीलांबर झा (जन्म 1823 ई.)। यह ग्रंथ ज्योत्पत्ति, त्रिकोणमिति-सिद्धान्त, चापीयरेखागणित-सिद्धान्त, चापीय-त्रिकोणमिति-सिद्धान्त और प्रश्न नामक 5 अध्यायों में विभक्त है। गोत्रप्रवरनिर्णय - ले-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता-रामेश्वरभट्ट। गोदा-परिणयचंपू - ले-रंगनाथाचार्य। केशवनाथ ई. 17 वीं शती (अंतिम चरण)। इसमें 5 स्तबक हैं। विषय-तमिल की प्रसिद्ध कवियित्री गोदा (आण्डाल) का श्रीरंगम् के देवता रंगनाथजी के साथ विवाह का वर्णन। गोपथ ब्राह्मणम् - अथर्ववेद का एकमात्र ब्राह्मण। इसके दो भाग हैं। पूर्व गोपथ व उत्तर गोपथ। प्रथम भाग में 5 अध्याय (या प्रपाठक) हैं और द्वितीय में 6 अध्याय हैं। प्रपाठक कंडिकाओं में विभक्त हैं, जिनकी संख्या 258 है। यह ब्राह्मणों में सब से परवर्ती माना जाता है। इसके रचयिता गोपथ ऋषि हैं। यास्क ने इसके मंत्रों को "निरुक्त" में उद्धृत किया है। इससे इसकी “निरुक्त" से पूर्वभाविता सिद्ध होती है। ब्लूमफील्ड ने इसे "वैतान-सूत्र" से अर्वाचीन माना है किन्तु डॉ. केलेण्ड व कीथ के मत से यह प्राचीन है। इसका अनुमानित समय ई.पू. 4 हजार वर्ष है। इसमें "अथर्ववेद" की महिमा का वर्णन करते हुए, उसे सभी वेदों में श्रेष्ठ बताया गया है। इसके प्रथम प्रपाठक में ओंकार व गायत्री की महिमा प्रदर्शित की गयी है। द्वितीय प्रपाठक में ब्रह्मचारी के नियमों का वर्णन व तृतीय एवं चतुर्थ प्रपाठक में संवत्सर का वर्णन है और अंत में अश्वमेध, पुरुषमेध, अग्निष्टोम आदि अन्य यज्ञ वर्णित हैं। उत्तर भाग का विषय उतना सुव्यवस्थित नहीं है। इसमें विविध प्रकार के यज्ञों एवं उनसे संबंद्ध 98/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कथाओं का उल्लेख किया गया है। भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी इस में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भरे हुए हैं। इसमें वसिष्ठ आश्रम और अनेक प्राचीन साम्राज्यों का वर्णन तथा ओंकार की तीन मात्राओं का वर्णन प्रथम बार मिलता है। गुजरात में इसका विशेष प्रचार है। - गोपालचम्पू (1 ) ले जीवराज कवि । महाप्रभु चैतन्य के समकालीन महाराष्ट्र-1 -निवासी। भारद्वाज गोत्रोत्पन्न कामराज के पौत्र । इसमें काल ने "श्रीमद्भागवत" के आधार पर गोपाल के चरित का वर्णन किया है। स्वयं कवि ने ही इस पर टीका भी लिखी है। इसका प्रकाशन वृंदावन से बंगलालिपि में हुआ है। (2) ले जीव गोस्वामी (श. 15-16 ) । वैष्णव परंपरा की रचना । www.kobatirth.org (3) ले किशोरविलास । (4) ले विश्वनाथसिंह । गोपालचरितम् - कवि पद्मनाभ भट्ट । गोपालपंचांगम् इस में (1) गोपालपटल (अंगन्यास, ध्यान, बिन्दुबीज, अंगमलादि रूप) (2) गोपाल- मन्त्रपद्धति (3) गोपालसहस्त्रनाम संमोहनतन्त्र में उक्त हर पार्वती संवाद रूप) (4) त्रैलोक्यमंगल गोपाल (सनत्कुमारसंहितान्तर्गत) (5) गोपालस्तवराज ( गौतमीतंत्रोक्त ) इन पांच विषयों का विवरण है। गोपालपूर्वतापिनी अथर्ववेद से संबंधित एक वैष्णवीय नव्य उपनिषद् | इसमें ब्रह्मा ऋषि, ब्रह्मा-नारायण एवं गोपी- दुर्वास के पृथक संभाषण के माध्यम से बतलाया गया है कि कृष्ण ही परब्रह्म है । - गोपालविरुदावली ले जीवगोस्वामी ई. 15-16 वीं शती। गोपाललीला ले- रामचन्द्र । गोपाल- लीलामृतम् ले म.म. कृष्णकान्त विद्यावागीश सन् 1810 में रचित । गोपालविजयम् - कवि - गिरिसुन्दरदास । गोपालार्चनाविधि ले- पुरुषोत्तमदेव । गोपालार्या ( काव्य ) ले- श्रीशैल दीक्षित गोपालोत्तरतापिनी यह एक नव्य वैष्णव उपनिषद् है। विषय :- दुर्वास- गोपी संवाद के माध्यम से कृष्णोपासना का उपदेश । मोक्षदायिका सप्तपुरियों में मथुरा को मूर्तिमान ब्रह्म, उसके चतुर्दिक बाहर वनों का अस्तित्व तथा उसमें अष्ट वसु, एकादश रुद्र, द्वादशादित्य, सप्तर्षि सप्तविनायक तथा अष्टलिंगों का निवास कहा गया है। ओंकार से जगत् की उत्पत्ति हुई है। उसकी चौथी मात्रा भगवान् कृष्ण है तथा रुक्मिणी उसकी आदिशक्ति है। आदिशक्ति ही प्रकृति है और उसका अन्य रूप राधा है। यह रहस्य नारायण ने ब्रह्मदेव को, ब्रह्मदेव ने - सनकादि मुनियों को, सनकादि मुनियों ने नारद को, नारद ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने गोपियों को बतलाया । गोपालरहस्यम् ले मुकुन्दलाल । गोपीगीतम् कवि-गोपालराव अटरेवाले। चार सर्गों का लघुकाव्य । इसकी एकमात्र उपलब्धपाण्डुलिपि ग्वालियर के सिंधिया प्राच्य शोध संस्थान में है। इसका प्रकाशन ई.स. 1945 में ग्वालियर के आलीजाह दरबार प्रेस से किया गया। इसमें 156 पद्य हैं। रचना में श्रीमदभागवत् के रासपंचाध्यायी की छाया परिलक्षित होती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोपीचंदनोपनिषद् - गोपीचंदन का तिलक लगाने से मोक्षप्राप्ति और मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है ऐसा इस उपनिषद् में कहा गया है। गोपीचन्दन की दूसरी व्याख्या भी इसी उपनिषद् में की गयी है। वह इस प्रकार है श्रीकृष्णाख्यं परं ब्रह्म गोपिकाः श्रुतयोऽभवन्। एतत्सम्भोगसम्भूतं चन्दनं गोपिचन्दनम् ।। अर्थात् श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं । गोपी श्रुतियां हैं। कृष्ण और गोपी के सम्भोग से निर्माण हुआ चन्दन ही गोपिचन्दन है। यहां चन्दन का लाक्षणिक अर्थ है आल्हाददायक सुख । यह उपनिषद् वासुदेव द्वारा नारद को बतलाया गया है। गोपीदूतम् - ले- लंबोदर वैद्य । वैष्णव परंपरा का दूतकाव्य । गोभिलगृह्यसूत्रम् - गोभिल ऋषि द्वारा रचित । सामवेद के कौथुम तथा राणायनी शाखा के लोग इस गृह्य को मानते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। इस ग्रंथ पर काल्यायन द्वारा कर्मप्रदीप नामक परिशिष्ट लिखा गया है। गोभिलस्मृति गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन द्वारा लिखा गया परिशिष्ट ही गोभिल स्मृति है। यह स्मृति गोभिल गृह्यसूत्र के स्पष्टीकरणार्थ लिखी गई है। इसमें तीन अध्याय हैं और उनमें श्राद्धकर्म नित्यकर्म, संस्कार आदि का निरूपण है। गोम्मटसार ले-लेमिचन्द जैनाचार्य ई. 10 वीं शती - गोमुखलक्षणम् ललितागमान्तर्गत ग्रंथ जपमाला के लिए गोमुख अर्थात् गोमुखी पांच प्रकार की बतलायी है। लाल, हरी, सफेद, नीली, चितकबरी। इससे सब मन्त्रों की सिद्धि की जाती है। वशीकरण मन्त्र की सिद्धि के लिये लाल, आकर्षण मन्त्र सिद्धि के लिये हरी, स्तम्भन और उच्चाटन मन्त्र की सिद्धि के लिए सफेद और मारण मन्त्र की सिद्धि के लिए नीली और मोहनमल की सिद्धि के लिए चितकबरी गोमुखी होनी चाहिए। वशीकरण में 9 अंगुल की, आकर्षण में 25, स्तंभन और उच्चाटन में 32 शत्रुनाशार्थ 15 अंगुल की गोमुखी होनी चाहिए। For Private and Personal Use Only गोरक्षकल्प - ले गोरखनाथ (गोरक्षनाथ ) ई. 11-12 वीं शती । गोरक्षगीता ले गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 99 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गोरक्षपद्धति ले गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती । गोरक्षशतकम् - नामान्तर-ज्ञानशतक या ज्ञान-प्रकाशशतक ले- मीननाथ - शिष्य गोरखनाथ । इस पर मथुरानाथ शुक्ल तथा शंकर कृत दो टीकाएं हैं। गोरक्षसंहिता ले- गोरखनाथ (गोरक्षनाथ ) ई. 11-12 वीं शती विषय-षट्चक्रभोदन I गोरक्षियुद्धम् - अपरनाम - श्रीगोपाल चिन्तामणि विजयम् (नाटक) ले- म.म. शंकरलाल । लेखन प्रारंभ सन् 1890, समाप्ति 1892 । प्रथम अभिनय महाराज श्री व्याघ्रजित के निवास स्थान पर । अंकसंख्या सात । छायातत्त्व का आधिक्य । सैकडों पात्र तथा मर्त्यलोक और विष्णु लोक के दृष्य । सुसूत्रता की कमी। प्रदीर्घ कथावस्तु । कथासार मथुरा के राजा उग्रसेन के राज्य में गो-ब्राह्मणों को पीडा होती है। यमुना तीर पर चरती देवकी की गायों को कंस के सेवक छीनते हैं। वसुदेव प्रतिकार करते हैं, कंस वसुदेव के छह पुत्रों को मरवाता है । सरस्वती और भरतभूमि घोषणा करती है कि देवकी का पुत्र शीघ्र ही कंस को मारेगा। अंत में कंस का वध होता है। कंसद्वारा बद्ध गायों को मुक्त कर, कृष्ण उग्रसेन तथा वासुदेव को भी छुडाता है। सरस्वती भरतभूमि तथा गोरक्षादेवी कृष्ण के पास आती है। गोलप्रकांशले नीलाम्बर शर्मा प्रकाशक- बापूदेव शास्त्री । । | ई. 19 वीं शती । विषय - ज्योतिषशास्त्र । गोलानन्द ले चिन्तामणि दीक्षित विषय ज्योतिषशास्त्र । । गोलानन्द- अनुक्रमणिका ले-यज्ञेश्वर सदाशिव रोडे । विषय- ज्योतिषशास्त्र - गोलाभदर्शन ले-पं. शिवदत्त त्रिपाठी । गोवर्धनधृत् कृष्णचरितम् कवि जयकान्त । गोवर्धनविलास (रूपक) ले पद्मनाभाचार्य । ई. 19 वीं शती । गोविन्दभाष्यम् - ले-बलदेव विद्याभूषण । साहित्यकौमुदीकार । विषय- ब्रह्मसूत्र की टीका । - - www.kobatirth.org गोविन्दकल्पकता ले- समीराचार्य 13 संग्रहों में पूर्ण श्लोक - 2500 | विषय - दीक्षा, मन्त्र के अधिकारी, अकडमचक्र, मलों के चैतन्य कृष्ण के मन्त्र, आचारगत मासिकपूजा, मन्त्र, ऋषि, छन्द, गोपालमन्त्रग्रहण की विधि, भजनाविधिप्रयोग, पुरश्चरणविधि तथा मन्त्र के प्रभेद, कुण्ड के लक्षण आदि का वर्णन । गोविन्दचरितामृतम् (महाकाव्य) - ले कृष्णदास कविराज । इसमें 23 सर्गों में 2511 श्लोक हैं। कवि ने राधाकृष्ण की अष्टकालिक लीलाओं का इसमें वर्णन किया है। गोविन्दबल्लभम् (नाटक) ले- द्वारकानाथ । रचनाकाल सन् 1725 ई. के लगभग। श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का कथानक । अंकसंख्या दस संगीत की प्रधानता। श्रीधाम नवद्वीप के हरिबोल कुटीर से बंगाली लिपि में प्रकाशित । - 100 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - 1 गोविन्दवैभवम् ले श्रीभट्ट मथुरानाथ शास्त्री इसकी टीका भी लेखक ने स्वयं लिखी है। गोविन्द- विरुदावली ले-रूपगोस्वामी । ई. 16 वीं शती । श्रीकृष्णविषयक काव्य । गोविन्दलीला कवि - रामचन्द्र । गोविन्दलीलामृतम् (महाकाव्य) - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कृष्णदास कविराज । ई. 15-16 वीं शती। इसमें राधा-कृष्ण की वृंदावन लीला का सरस वर्णन है। इस ग्रंथ का यदुनंदन दास ने 1610 ई. बंगला भाषा में अनुवाद किया है। सर्गसंख्या 231 श्लोकसंख्या - 25111 मोष्ठीनगरवर्णन चम्पू - ले नारायण भट्टपाद । गौतम - धर्मसूत्र - धर्मसूत्रों में एक प्राचीनतम ग्रंथ । कुमारिल भट्ट के अनुसार इसका संबंध सामवेद से है। चरणव्यूह की टीका (माहीदास कृत) से ज्ञात होता है कि गौतम सामवेद की राणायनीय शाखा की 9 अवांतर शाखाओं में से एक उप विभाग के आचार्य थे। सामवेद के लाट्यायन श्रौतसूत्र (1-3-3, 1-4-17) एवं द्राह्यायण श्रौतसूत्र ( 1-4, 17-9, 3,14) में गौतम नामक आचार्य का कई बार उल्लेख है तथा सामवेदीय "गोभिल गृह्यसूत्र" में (3-10-6) उनके उद्धरण विद्यमान हैं। इससे ज्ञात होता है कि औत, गृह्य व धर्म के सिद्धांतों का समिन्वित रूप " गौतम- धर्मसूत्र " था। इस पर हरदत्त ने टीका लिखी थी। इसका निर्देश याज्ञवल्क्य, कुमारिल, शंकर व मेधातिथि द्वारा किया गया है। गौतम, यास्क के परवर्ती • हैं। उनके समय पाणिनि व्याकरण या तो था ही नहीं, और यदि था भी तो उसकी महत्ता स्थापित न हो सकी थी। इस ग्रंथ का पता बौधायन व वसिष्ठ को था। इससे इसका रचनाकाल ई.पू. 400-600 माना जाता है। टीकाकार हरदत्त के अनुसार इसमें 28 अध्याय हैं। संपूर्ण गद्य में रचित है। इसकी विषयसूचि इस प्रकार है :धर्म के उपादान, मूल वस्तुओं की व्याख्या के नियम, प्रत्येक वर्ण के उपनयन का काल, यज्ञोपवीतविहीन व्यक्तियों के नियम, ब्रह्मचारी के नियम, गृहस्थ के नियम, विवाह का समय, विवाह के आठों प्रकार, विवाह के उपरांत संभोग के नियम, ब्राह्मण की वृत्तियां, 40 संस्कार, अपमान - लेख, गाली, आक्रमण, चोरी, बलात्कार तथा कई जातियों के व्यक्ति के लिये चोरी के नियम, ऋण देने, सूदखोरी, विपरीत संप्राप्ति, दंड देने के विषय में ब्राह्मणों का विशेषाधिकार, जन्ममरण के समय अपवित्रता के नियम, नारियों के कर्तव्य, नियोग तथा उनकी दशाएं, 5 प्रकार के श्राद्ध व श्राद्ध के समय न बुलाये जाने वाले व्यक्तियों के नियम, प्रायश्चित्त के अवसर व कारण, ब्रह्महत्या, बलात्कार, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गाय या किसी अन्य पशु की हत्या से उत्पन्न पापों के प्रायश्चित्त, पापियों की श्रेणियां महापातक, उपपातक तथा दोनों के लिये गुप्त प्रायश्चित्त, चांद्रायण व्रत, संपत्ति-विभाजन, · Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-धन, द्वादश प्रकार के पुत्र तथा वसीयत आदि । सर्वप्रथम डॉ. स्टेज्लर द्वारा 1876 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित। अंग्रेजी "सेक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट" भाग 2 में डॉ. बूल्हर द्वारा प्रकाशित। गौतमशाखा (सामवेदीय) - गौतमों की स्वतंत्र संहिता थी या नहीं इस विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इस शाखा के गौतम धर्मसूत्र, गौतम पितृमेध सूत्र और गौतम शिक्षा ये ग्रन्थ उपलब्ध हैं। गौतमीतन्त्र (नामान्तर गौतमीयतन्त्र या गौतमीयमहातन्त्र) - यह वैष्णव तन्त्र होने पर भी इसमें शाक्त आचार के अनुसार पूजा आदि का प्रतिपादन है। पटलसंख्या-33 । गौर-गणेशोद्दीपिका - ले-कवि कर्णपूर। ई. 16 वीं शती। चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों के जन्मपूर्व अस्तित्व का कथानक इसमें है। गौरचन्द्र - ले-इन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय। ऐतिहासिक उपन्यास। गौरांगचम्पू - ले-रघुनन्दन गोस्वामी। (श. 18) चैतन्य महाप्रभु . की जीवनी पर आधारित बृहद् रचना । गौरांगलीलामृतम् - ले-विश्वनाथ चक्रवर्ती । ई. 17 वीं शती। गौरीकंचूलिका - श्लोक सं. 3301 विषय :- जडी-बूटियों के खोदने और उखाडने की तिथि, वार, नक्षत्र आदि के नियम, विशिष्ट नक्षत्रों में रोग होने पर उसके भोगकाल, साध्य, असाध्य आदि का वर्णन। दाद, प्रमेह, गण्डमाला आदि रोगों की विशेष चिकित्सा। शरीर से जरा को हटाने के लिए शेमर, चित्रक, निर्गुण्डी आदि का कल्प कहा गया है। गौरीकल्याणम् - ले-गोविन्दनाथ । गौरीचरित - कवि-वृन्दावन शुक्ल। गौरीडामरम् - पार्वती-ईश्वर संवादरूप। विषय-आकर्षण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि तांत्रिक कर्मों का वर्णन । गौरीदिगंबरम् (प्रहसन) - ले-शंकर मिश्र । ई. 15 वीं शती। गौरीपरिणय-चम्पू - (1) ले-चिन्न वेंकटसूरि । (2) ले-चक्रकवि। पिता-अम्बालोकनाथ । गौरीमायूरमाहात्म्य-चंपू - ले-अप्पा दीक्षित। मयूरवरम् के किल्लपुर के निवासी। समय-17-18 वीं शताब्दी। यह चंपू 5 तरंगों में विभक्त है और सूत तथा ऋषियों के वार्तालाप के रूप में रचित है। ग्रंथप्रदर्शिनी - सन् 1901 में विशाखापट्टम से इस पत्रिका का प्रकाशन पं.एस.पी.व्ही. रंगनाथ स्वामी के सम्पादकत्व में प्रारंभ हुआ। यह मासिक पत्रिका दो वर्षों तक चल पायी। इसमें कुछ प्राचीन और आधुनिक प्रबंध प्रकाशित हुए। ग्रन्थरत्नमाला - सन् 1887 में मुंबई से प्रकाशित इस मासिक पत्रिका में कुछ अर्वाचीन संस्कृत ग्रंथ प्रकाशित किये गये जिनमें प्रकाशित उदारराघवम्, कुवलयाविलासम्, राघवपाण्डवीयम् काव्य और रतिमन्मथ नाटक आदि महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। ग्रहयामलतन्त्रम् - हर-पार्वती संवादरूप। 18 पटल । नवग्रहपूजा विषयक तान्त्रिक ग्रंथ। विषय-क्षेत्रादि षड्वर्गदृष्टिफल, राशियों के शील, अष्टादश-विध अशनादि, पथ्यापथ्य, प्राणायाम, दश महामुद्रादि, समाधि, वास्तुग्रह, ग्रहचरितादि निर्णय, अक्षय कवच इत्यादि। ग्रहगणितचिन्तामणि - ले-मणिराम । ग्रहणाङ्कजालम् - ले-दिनकर । ग्रहलाघवम् - ले-गणेश दैवज्ञ । ई. 15 वीं शती। ग्रहविज्ञानसारिणी - ले-दिनकर। ग्रामगीतामृतम् - विदर्भ (महाराष्ट्र) के लोकप्रिय राष्ट्रसंत श्री तुकडोजी महाराज (20 वीं शती) का ग्रामगीता नामक मराठी पद्य ग्रंथ महाराष्ट्र की ग्रामीण जनता का प्रिय धर्मग्रंथ है। हजारों लोग इस ग्रंथ का नित्य पारायण करते हैं। राष्ट्रसंत के अमृतोत्सव निमित्त सन् 1984 (अक्तूबर) में डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने इस 5 हजार पद्यों के मराठी ग्रंथ का 1870 अनुष्टुप् श्लोकों में सारानुवाद किया। ग्रामोद्धार के विषय में प्रायः सभी प्रकार के आवश्यक देशकालोचित विचार इस ग्रंथ में प्रतिपादित हुए हैं। ग्रामगीतामृत द्वारा समाजसुधार की आधुनिक विचारप्रणाली संस्कृत वाङ्मय में सविस्तर प्रविष्ट हुई है। प्रकाशक-अध्यात्मकेंद्र अड्याल टेकडी, जिला-चंद्रपुर, महाराष्ट्र। ग्रामज्योति - लेखिका-पंडिता क्षमाराव। विषय-आधुनिक सामाजिक कथाएं। ये कथाएं पद्यबद्ध हैं। ग्वालियर-संस्कृतग्रंथमाला - सन् 1936 में ग्वालियर से इस वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इसमें कुल तीन सौ पृष्ठों में वेद, वेदांग, धर्म और दर्शन से संबंधित लेख और अप्रकाशित ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर इसके संपादक थे। घटकपर - कवि घटकर्पर के नाम से यह लघुकाव्य, यमकयुक्त शृंगारिक उत्कृष्ट रचना के कारण प्रसिद्ध है। विरहिणी नायिका प्रातःकालीन बादलों को अपनी अवस्था की सूचना दूर स्थित नायक को देने की बिनती करती है। यमक युक्त रहते हुये भी रचना बडी प्रासादिक तथा मधुर तथा रसिकों में आदृत है। घटकर्पर के टीकाकार - (1) अभिनवगुप्त, (2) भरतमल्लिक, (3) शंकर, (4) ताराचन्द्र, (5) जीवानन्द, (6) गोवर्धन, (7) कमलाकर, (8) कुचेलकवि, (9) बैद्यनाथ, (10) विन्ध्येश्वरीप्रसाद इत्यादि। मदन कवि कृत कृष्णलीला काव्य में घटकर्पर काव्य की श्लोक पंक्ति का समस्या रूप में प्रयोग है। घटकर्पर के एक श्लोक से मदन के चार श्लोक हुए और उनमें घटकर्पर का प्रत्येक पाद समस्या के रूप में आता संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 101 For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हे रचना काल 1624 ई. घटतन्त्रम् - वारम्भणि ऋषि कृत । घनवृत्तम् ले कोरड रामचन्द्र । मद्रास में प्रकाशित । घृतकुल्यावली ( प्रहसन ) ले- हरिजीवन मिश्र | ई. 17 वीं शती । (अपरनाम युधिष्ठिरानृशंस्यम्) अंकसंख्या चार । घोषयात्रा (डिम) ले- लक्ष्मण सूरि । (जन्म 1859) विषय घोषयात्रा की महाभारतीय कथावस्तु । चक्रदत्त (चिकित्सासंग्रह) आयुर्वेद शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ । ले चक्रपाणि दत्त । समय ई. 11 वीं शताब्दी । पितानारायण, जो गौडाधिपति नयपाल की पाकशाला के अधिकारी थे चक्रपाणि सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थे। 'चक्रदत्त' ग्रंथ को प्रणेता ने 'चिकित्सासंग्रह' कहा है, किन्तु वह चक्रदत्त के ही नाम से विख्यात है। इस ग्रंथ की रचना वृंद - कृत 'सिद्धयोग' के आधार पर हुई है। इसमें वृंद की अपेक्षा योगों की संख्या अधिक प्राप्त होती है। भस्मों व धातुओं का प्रयोग भी इसमें अधिक है। इस ग्रंथ पर निश्चल ने 'रत्नप्रभा' तथा शिवदास सेन ने 'तत्त्व-चंद्रिका' नामक टीकाएं लिखी हैं। इसकी हिन्दी टीका जगदीश्वरप्रसाद त्रिपाठी ने लिखी है। I चक्रदीपिका ले- रामभद्र सार्वभौम विषय तंत्रशास्त्रोक्त षट्चक्रों का विवरण । चक्रनिरूपणम् रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप । विषय- महाकुलाचार-क्रम से 5 चक्र, उनके आचार तथा विधि, श्रीतन्त्र में निर्दिष्ट राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, और पशुचक्र का विधियुक्त पूजन चारों वर्णों की सुरूपा और मनोहर कुमारियों की पूजा आवश्यक, उनके अभाव में किसी भी कुमारी की पूजा की जा सकती है यखनी, योगिनी, रजकी, श्वपची, मल्लाह की लडकी- ये पाच शक्तियां कही गयी है। मन्तराज की पूजा में तुलसीदल, बिल्वदल, भात्रीदल का उपयोग करने से अति शीघ्र सिद्धि की प्राप्ति कही गई है। चक्रनिरूपण ( नामान्तरषट्चक्रक्रम तथा षट्चक्रप्रभेद) लेपूर्णानन्द | विषय तन्त्रों के अनुसार षटचक्रों के भेदक्रम से उद्भूत परमानन्द । इस पर राम-वल्लभ कृत संजीवनी तथा रामनाथ सिद्धान्त रचित "दीपिका" नामक दो टीकाए हैं। चक्रपाणिकाव्यम् ले लक्ष्मीधर । - - www.kobatirth.org - - - चक्रपाणि विजयम् ले- लक्ष्मीधर । ई. 11 वीं शती । उषा-अनिरुद्ध की सुप्रसिद्ध प्रणयकथा पर आधारित महाकाव्य । चक्रवर्तिचत्वारिंशत् - कवि आर. व्ही. कृष्णम्माचार्य । विषयपंचम जार्ज के राज्याभिषेक का काव्यमय वर्णन । चक्रसंकेत चन्द्रिका ले- काशीनाथ पिता जयराम भट्ट | इसमें वामकेश्वरतन्त्र के अंतर्गत योगिनीतंत्र के कतिपय पद्यों पर काशीनाथकृत संक्षिप्त टीका है। यह टीका अमृतानन्द नाथ 102 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड की टीका से मिलती है । चक्रोद्धारसारले विनायक। पिता जयदेव । श्लोक- 2000। चंचला - ले- हरिदास सिद्धान्तवागीश । ई. 19-20 वीं शती । यह कालिदासकृत मेघदूत की व्याख्या है। चट्टल-विलाप ले- रजनीकांत साहित्यचार्य । यह पद्मबन्ध में निवद्ध चित्र है। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चण्डकौशिक (नाटक) ले- क्षेमीश्वर । कन्नोजनिवासी । ई. 10 वीं शती । संक्षिप्त कथा- इस नाटक के प्रथम अंक में राजा हरिश्चंद्र के गुरु वसिष्ठ राजा के उपर अनिष्ट के आगमन की आशंका से राजा से रात्रि में गुप्त रूप से स्वस्ति अयन विधि करवाता है। दूसरे दिन राजा के रात्रि में न आने से रानी शैव्या चिंता करती है किन्तु राजा से न आने का कारण जान कर प्रसन्न होती है। तभी राजा वनरक्षक से एक बड़े शूकर के उत्पात की सूचना प्राप्त कर शूकर को मारने के लिये वन में जाता है। द्वितीय अंक में शूकर का पीछा करते हुए विश्वामित्र के आश्रम के पास पहुंचता है। उस समय विश्वामित्र विद्यात्रयी की साधना में लगे रहते हैं। शूकर आश्रम के पास जाकर गुप्त हो जाता है। तब स्त्रियों के रुदन को सुन राजा आश्रमस्थ व्यक्ति के प्रति दुर्वाक्य बोलता है और विश्वामित्र का कोपभाजन बनता है। विश्वामित्र के कहने पर अपना सर्वस्वदान कर दक्षिणा के रूप में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का प्रबंध करने काशी में जाता है। तृतीय अंक में राजा अपनी पत्नी शैव्या को उपाध्याय और स्वयं को चाण्डाल के हाथ बेच कर स्वर्ण मुद्राएं विश्वामित्र को देता है। चतुर्थ अंक में राजाके श्मशान जाने का वर्णन है। पंचम अंक में शैव्या मृतपुत्र का दाह संस्कार करने श्मशान में आती है। दाह शुल्क के रूप में वह पुत्र का वस्त्र फाड कर देती है। तभी चाण्डाल वेषी धर्म प्रकट होकर रोहिताश्व को पुनर्जीवित कर उसका राज्याभिषेक करते हैं। इस नाटक में कुल 11 अर्थोपक्षेपक है। इनमें विष्कम्भक और 9 चूलिकाएँ है। चण्डताण्डवम् (रूपक) ले- जीवन्यायतीर्थ । जन्म- ई. 1894 संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका तथा आचार्य पंचायत स्मृति ग्रंथमाला में प्रकाशित। अंकसंख्या दो । द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का परिहासपूर्ण परिचय । धर्म, लोभ, क्रोध, पाप आदि प्रतीक भूमिकाएं इसमें हैं। कथासार- स्टालिन धर्मध्वंस की घोषणा करता है। धर्म-पुरुष रूस छोड भारत की और भागता है । हिटलर तथा मुसोलिनी विश्व जीतने की चर्चा में है। आंग्ल सचिव प्रतिज्ञा करता है कि संसार में जर्मनों का नाम नहीं रहने देंगे। रूस और इंग्लैंड ने सन्धि कर ली। जापान ने हिटलर से मित्रता कर ली। अमरिका इंग्लैंड का पक्षपाती बना । For Private and Personal Use Only - लोभ और क्रोध का पिता पाप, अपने पुत्रों को लेकर विश्वविजय हेतु निकलता है। देवमंदिर के समक्ष क्रोध, लोभ, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसा तथा पाप एकत्रित होते हैं। तभी धर्म वहाँ पहुंचकर चतुरर्थी - ले-अज्ञात। कई महत्त्वपूर्ण श्लोकों के चार अर्थ 'विश्वकल्याणमस्तु' भरत वाक्य सुनाता है। इसमें दिए हैं। चण्डभास्करपताका - ले- दामोदर शास्त्री। श्लोक-300। चतुर्दण्डीप्रकाशिका - ले-व्यंकटमखी। (वेंकटमखी) ई.स. 1625 में तंजौर के राजा विजयराघव नायक की आज्ञा से चण्डरोषणमहातन्त्रम् - कल्पवीराख्य नीलतन्त्रान्तर्गत । कर्नाटक संगीतशास्त्र पर लिखा हआ ग्रंथ। इस ग्रंथ को अध्यायसंख्या 251 दक्षिण के संगीतज्ञों में अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त है। छह अध्यायों चण्डानुरंजनम् (प्रहसन) - ले-घनश्याम । समय- 1700-1750 के इस ग्रंथ में रागों के स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी ई.। बीभत्स व्याभिचार का वर्णन इस रूपक में है। नामक चार भाग किए हैं। वीणा वादन विषयक चर्चा विशेष चण्डिकानवाक्षरी-मन्त्रप्रकाशिका - ले-विद्याचरण। श्लोक रूप से की है। 300। चतुर्भाणी - ले- इसमें 4 भाणों का संग्रह है। इनके नाम चण्डिकार्चनक्रम - ले-कृष्णनाथ । हैं, वरवरुचिकृत उभयाभिसारिका शूद्रककृत पद्मप्राभृतक, ईश्वरदत्त चण्डिकार्चनचन्द्रिका - ले-वृन्दावन शुक्ल । कृत धूर्तविटसंवाद, श्यामिलकृत पादताडितक। चण्डिकार्चनदीपिका - ले-काशीनाथभट्ट। पिता- जयरामभट्ट । भाण संस्कृत साहित्य के दश रूपकों में से एक रूपक विषय- नवरात्रोत्सव के संबंध में कर्तव्य और नवरात्रोत्सव का है। भाण रूपक मे धूर्त, विश्वासधातकी, शृंगारी आदि नीच वर्णन। व्यक्तियों का वर्णन होता है। विट उसका नायक होता है तथा चण्डिकाशतकम् - (नामान्तर चण्डीशतकम्) ले- बाणभट्ट। वह अपने या दूसरे व्यक्ति के साहसी कार्यों का वर्णन करता ई-7 वीं शती। सुप्रसिद्ध स्तोत्र काव्य । है। इसमें एक अंक तथा दो संधियां होती हैं। रंगभूमि पर चण्डीकुचपंचशती - ले-लक्ष्मणार्य। स्तोत्रकाव्य । एक ही पात्र उपस्थित होकर वह अन्य काल्पनिक पात्रों से चण्डीटीका - ले-कामदेव कविवल्लभ। श्लोक- 1000। संभाषण करता है। भाण रूपक में श्रृंगार या वीररस प्रधान होता है। चतुर्भाणी के संपादक डॉ. मोतीचंद्र के अनुसार चण्डीनाटकम् - ले-भारतचन्द्र राय। ई. 18 वीं शती। इसका समय ई. 4-5 वीं शताब्दी है। गुप्तकालीन भारत की कलकत्ता से भारतचन्द्र ग्रन्थावली में वंग संवत् 1308 में । सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवस्था समझने के लिए इस ग्रंथ प्रकाशित । प्राकृत के स्थान पर बंगाली तथा हिन्दी भाषा का का महत्त्व माना जाता है। चतुर्भाणी का, हिंदी अनुवाद सहित प्रयोग इस नाटक की विशेषता है। बंगाली गीत विविध रागों प्रकाशन, हिंदी ग्रंथ रत्नाकर मुंबई से हुआ है। डॉ. वासुदेव और तालों में दिये हैं। असम के 'अंकिया नाट' से मिलती। शरण अग्रवाल व डॉ. मोतीचंद्र चतुर्भाणी के अनुवादक एवं जुलती रचना है। प्रकाशक है। चण्डीपुराणम् - ले- मार्कण्डेयमुनि। विषय- दक्ष को शाप, चतुर्वर्गसंग्रह - ले- क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पितासती के देहत्याग से उत्पन्न पीठों का माहात्य, मधुकैटभ, प्रकाशेन्द्र। इसमें चतुर्विध पुरुषार्थों की चर्चा की है। दुन्दुभि, घोर, नमुचि, क्षुर, महिषासुर सुन्दोपसुन्द और मुर इन चतुर्मतसारसंग्रह - ले- अप्पय दीक्षित । श्लोक- 600। दैत्यों का वध तथा सनत्कुमारोपाख्यान । चतुर्विंशतिमतम् - इस धर्मग्रंथ में मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, चण्डीप्रयोगविधि - ले-नागोजिभट्ट। श्लोक- 462। विष्णु, वसिष्ठ आदि चोबीस धर्मशास्त्रज्ञों के उपदेशों का सार कात्यायनीतन्त्रान्तर्गत। ग्रंथित हुआ है। इसीलिये ग्रंथ का नामकरण (चतुर्विंशतिमत) चण्डीरहस्यम् - ले-नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती। यह सार्थक हुआ है। भक्तिकाव्य है। चतुर्वेदोपनिषद् - ले- इसे महोपनिषद् भी कहते हैं। इस चण्डीविधानम् - ले-श्रीनिवास । श्लोक- 8001 ग्रंथ के प्रारंभ में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है: आदिनारायण के माथे पर से जो पसीना हुआ उससे जल चण्डीविधानपद्धति - ले- कमलाकरभट्ट । निर्माण हुआ। उसमें से ब्रह्मदेव का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मदेव चण्डीसपर्याकल्प - ले-श्रीनिवासभट्ट। श्लोक- 1100। ने जब पूर्वाभिमुख होकर ध्यान किया तब ऋग्वेद तथा गायत्री चण्डीसपर्याक्रमकल्पवल्ली - ले- श्रीनिवासभट्ट। श्लोक छन्द निर्माण हुए। इसी प्रकार पश्चिमाभिमुख, उत्तराभिमुख तथा 15461 स्तबक विषय- नवाक्षर मंत्र देवीमाहात्म्य, चण्डीपूजा दक्षिणाभिमुख होकर ध्यान किया तब क्रमशः यजुर्वेद तथा में अभिषेक, तर्पण, अर्चन, आसन, विविध न्यास पीठपूजा, त्रिष्टुभ छन्द, सामवेद तथा जगती छन्द और अर्थवेद तथा मानसपूजा, नैमित्तिकार्चन इत्यादि। अनुष्टुभ् छन्द की उत्पत्ति हुई। चण्डीस्तोत्रप्रयोगविधि - ले-नागोजिभट्ट। श्लोक- 5601 चतुःशतक - ले- बौद्धपंडित आर्यदेव। पिता- सिंहलद्रीप के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 103 For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नृपति। गुरु- नागार्जुन । कुल संख्या 400। धर्मपाल तथा चन्द्रकीर्ति द्वारा इस पर टीका लिखी है। व्हेन सांग ने इसके उत्तरार्ध का धर्मपाला टीका सहित चीनी अनुवाद किया था । उस में इसे “शतशास्त्रवैपुल्य" की संज्ञा है । चन्द्रकीर्ति टीका तिब्बती अनुवाद के रूप में उपलब्ध है। कुछ मूल संस्कृत अंश भी प्राप्त होते हैं। प्रथम भाग धर्मशासन शतक तथा दूसरा विग्रहशतक नाम से ज्ञात है। विषय- शून्यवाद । चतुःशतकम् - ले मातृचेट। 400 श्लोकों का स्तोत्रकाव्य । यह मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं परंतु तिब्बती अनुवाद सुरक्षित है जिसमें इसका अभिधान 'वर्णनार्हवर्णन' है टायलन का आंग्लानुवाद इण्डियन एण्टिक्वेरी में प्रकाशित हो चुका है। चतुःशतकटीका ले चन्द्रकीर्ति आचार्य आर्यदेवरचित चतुःशती स्तोत्र की टीका । उपलब्ध प्रारम्भिक संस्कृत अंश म. म. हरप्रसाद शास्त्री द्वारा सम्पादित। इसके 8 से 16 परिच्छेद तक मूल और व्याख्या विधुशेखर शास्त्री द्वारा संस्कृत में सम्पादित हुए हैं। शून्यवाद के सिद्धान्तों के स्पष्टीकरणार्थ यह महत्त्वपूर्ण रचना है । - चतुःशतीटीका ( नामान्तर अर्थरत्नावली या नामकेश्वर) - विद्यानन्द | गुरु-रत्नेश । अध्याय-5। बहुरूपाष्टक की अंशभूत चतुःशती पर यह व्याख्यान है। विषय- देवी त्रिपुरसुन्दरी की तांत्रिक पूजा। चतुःशती (नारदीय) 400 अध्याय-6 1 · · www.kobatirth.org पार्वती - ईश्वर संवाद रूप । श्लोक - I 1 चतुःस्तव - नागार्जुन । शून्यवादी बौद्धाचार्य । भक्तिरसपूर्ण चार स्तोत्रों का संग्रह । इसका तिब्बती अनुवाद ही उपलब्ध है। चन्दनषष्टीकथा ले श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं शती । चन्दनषष्ठी व्रतपूजा - ले- शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 शती । चन्दनाचरितम् - ले- शुभचन्द्र जैनाचार्य । ई. 16-17 शती । चन्द्रकलाकल्याणम् (नाटक) ले नृसिंहकवि ई. 18 वीं शती। मैसूरनिवासी प्रथम अभिनय गरलपुरीश्वर के वसन्तोत्सव के अवसर पर । ऐतिहासिक कथावस्तु । प्रधान रस- शृङ्गार । कथासार - कुन्तल के राजा रत्नाकर की पुत्री चन्द्रकला पर नायक नंजराज अनुरक्त है । विदूषक तथा चन्द्रकला की चेटियों की सहायता से दोनों का मिलन होता है। भगवती अम्बिका द्वारा स्वप्न में सन्देश पाकर स्वयंवर आयोजित करते हैं। उसमें जराज भी आमंत्रित है। चन्द्रकला उन्हीं को जयमाला पहनाती है। चन्द्रचूडचरित ( काव्य ) ले- उमापतिधर । राजा चाणक्यचन्द्र के निजी वैद्य । राजा द्वारा पारितोषिक प्राप्त । चन्द्रज्ञानम् - चन्द्रहाससंहितान्तर्गत शिव चन्द्र संवादरूप। विषयसंसार की विविध वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति के संबंध में विवेचन | चन्द्रज्ञानागमसंग्रह शिव-पार्वती संवादरूप अध्याय 15 - 104 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - विषय- षडाम्नायों, पीठों तथा श्रीचक्र के लक्षण । चक्र के मध्य में देवताओं का प्रतिपादन। श्रीविद्योपासना की प्रशंसा । श्रीविद्यासन्ध्यानुष्ठान, श्रीविद्यान्यास, श्रीविद्याजपकल्प, पूजा के स्थान समय का निरूपण, चक्र की आराधना का फल, शक्तिपूजा का फल, शक्त- शाक्तों के आचार और दीक्षाविधि । चन्द्रदूतम् ले. कृष्णचन्द्र कलंकार ई. 18 वीं शती । चन्द्रप्रज्ञप्ति - ले. अमितगति (द्वितीय)। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। | - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रप्रभचरित - ले. शुभचन्द्र जैनाचार्य । ई. 16-17 श. । चन्द्रप्रभा ले. म.म. विधुशेखर शास्त्री । जन्म - 1870 1 प्रणयप्रधान गद्यबन्ध | चंद्रमहीपति - ले. कविराज श्रीनिवासशास्त्री । राजस्थान निवासी । बीसवी शताब्दी का सुप्रसिद्ध उपन्यास। इसकी रचना कादम्बरी की शैली पर हुई है। ग्रंथ का निर्माण काल ई. 1933 और प्रकाशन काल ई. 1958 है। लेखक ने स्वयं ही इसकी "पार्वती विवृति" लिखी है इस कथा कृति में राजा चंद्र महीपति के चरित्र का वर्णन है, जो प्रजा के कल्याण के लिये अपनी समस्त संपत्ति त्याग कर देता है। लेखक ने सर्वोदय की स्थापना को ध्यान में रख कर ही नायक के चरित्र का निर्माण किया है। उपन्यास में 9 अध्याय ( निश्वास) और 296 पृष्ठ हैं। गद्य के बीच-बीच में श्लोक भी पिरोये गये हैं। चन्द्रवंशम् - ले, चन्द्रकान्त तर्कालंकार । समय- 1836-1908 ई. । रघुवंश से प्रभावित महाकाव्य । चन्द्रव्याकरणम्- ले. चन्द्रगोमी (देखिए चान्द्र व्याकरण) । चन्द्रशेखरचंपू ले. रामनाथ कवि । पिता रघुनाथ देव । कवि की मृत्यु 1915 ई में । यह चंपू काव्य पूर्वार्ध व उत्तरार्ध दो भागों में विभक्त है । पूर्वार्ध में 5 उल्लास हैं। इसमें ब्रह्मावर्त नरेश पौष्य के जीवन-वृत्त पुत्रोत्सव, मृगया आदि का वर्णन है। उत्तरार्ध अपूर्ण रूप में प्राप्त होता है । पूर्वार्ध का प्रकाशन कलकत्ता व वाराणसी से हो चुका है। चन्द्रशेखरचरितम् ले दुःखभंजन वाराणसी के निवासी ई. 18 वीं शती । चन्द्रशेखरविलासम्- ले तंजौरनरेश शाहजी महाराज। ई. 18 वीं शती, सर्वप्रथम हस्तलिखित प्रति सन 1701 की है | यक्षगान कोटि की यह रचना तेलगु भाषा से संस्पृष्ट है। शिष्य और एक मुनि का संवाद तेलगु में है। सुबोध, संगीतमयी शैली । विविध रागों की सूचना । रंगमंच पर सूत्रधार अन्त तक उपस्थित रहता है। कथासार इन्द्र की सभा अप्सराओं का नृत्यगान इतने में सभी देवता भयभीत होकर आते है। इन्द्र से निवेदन करते हैं कि कालकूट से सब आतंकित हैं। परंतु इन्द्र, ब्रह्मा तथा विष्णु उनका समाधान करने में असमर्थ हैं । अन्त मे शिवजी उन्हें आश्वस्त करतें है कि मैं कालकूट - - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पी जाऊंगा उदर में स्थित जगत् की रक्षा के लिए वह कालकूट शिवजी कंठ में स्थापित है। फिर नारदादि मुनि मंगल गान करते हैं। अन्त में ग्रंथ श्रीत्यागेश साम्बशिव को अर्पित है। चन्द्रापीडचरितम् - व्ही.अनन्ताचार्य कोडम्बकम्। चन्द्राभिषेकम् - ले. बाणेश्वर विद्यालंकार। रचनाकाल - सन 1740। बर्दवान के राजा चित्रसेन के आदेश से कुसुमाकरोद्यान में अभिनीत । अंकसंख्या- सात। छायातत्त्व तथा कपट नाटक प्रयोग। स्त्रियों की भूमिकाएं नगण्य । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण । नीति तथा वैराग्य का उपदेश। कथासार - योगीन्द्र सम्पन्नसमाधि के दो शिष्य हैं, विनीत और दान्त। विद्याप्राप्ति के बाद वे गुरु से अनुरोध करते हैं कि वे गुरुदक्षिणा मांगे। गुरु चौदह कोटी सुवर्ण मुद्रा मांगते हैं। दोनों शिष्य विंध्यवासिनी देवी की आराधना करते हैं। देवी प्रसन्न होती है कि तुम्हारे गुरु ही तुम्हें दक्षिणा प्राप्ति का उपाय बतायेंगे। शिष्य गुरु के पास आते हैं। गुरु उन्हे उपाय बताते हैं कि आजसे पांचवे दिन राजा नन्द मरेगा। विनीत वहां जाकर कहे कि मै संजीवन औषधि से राजा को पुनर्जीवित करता हूं। मै उसके शरीर में प्रवेश करूंगा। इस बीच मेरे निष्प्राण कलेवर की रक्षा दान्त करता रहेगा। जीवदान के लिए राजा नन्द के रूप में तुम्हे चौदह कोटि सुवर्ण मुद्राएं अर्पण करूंगा। फिर में मृगया के लिए यहां आकर देह त्यागूंगा और पुनः अपने शरीर में प्रवेश करूंगा। . इस प्रकार सब होने पर नन्द का मन्त्री शक्रटार को ज्ञात होता है कि राजा के शरीर में किसी योगी ने प्रवेश किया है। वह नन्द को जीवित रखने का उपाय सोचता है कि प्रविष्ट योगी के वास्तविक शरीर को नष्ट करना पडेगा। वह सेवक को आज्ञा देता है कि वह विनीत पर दृष्टि रखे। __फिर वह आज्ञा करता है कि कहीं भी कोई शव दिखे तो उसे जलाया जाये। जिसके क्षेत्र में शव दिखाई देगा उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा। योगीन्द्र का कलेवर जला दिया जाता है। सन्तप्त विनीत शाप देता है कि जिसने कर्म किया, उसका सपरिवार विनाश हो। बाद में राजा के चोले में गुरु को भी यह सब विदित होता है। शटकार सोचता है कि शोक के कारण राजा कहीं मर न जाय। वह उसके पैरों पड कर बताता है कि राज्य को सनाथ रखने हेतु ही उसने यह कार्य किया है। यहां राक्षस नामक बालक, जिसे राजा ने संवर्धित किया था, शकटार को सकुटुब्म बन्दी बना कर स्वयं मन्त्री बनता है। उन्हें तीन दिन में एक की बार सत्तू व जल दिया जाता है। कुछ ही दिनों में शकटार छोड परिवार के अन्य सभी सदस्य मर जाते हैं। एक दिन राजा के एक कठिन प्रश्न का उत्तर पाने के हेतु रानी शकटार से मिलती है। उत्तर सुनकर राजा चकित होता है। उसे पता चलता है कि यह उत्तर शकटार ने दिया। उसकी बुद्धि से प्रभावित राजा उसे बन्दीगृह से छुडा कर फिर मंत्री बनाता है, परन्तु शकटार अब बदला लेने के लिए चाणक्य से मिलता है और दोनो मिल कर नन्दों को नष्ट कर चंद्रगुप्त मौर्य को राजा बनाते हैं। चन्द्रालोक - ले. आचार्य जयदेव। ई. 13 वीं शताब्दी। काव्य-शास्त्र का एक सरल एवं लोकप्रिय ग्रंथ। इसमें 294 श्लोक एवं 10 मयूख हैं। इसकी रचना अनुष्टुप् छंद में हुई है जिसमें लक्षण एवं लक्ष्य दोनों का निबंध है। प्रथम मयूख में काव्यलक्षण, काव्य-हेतु, रूढ, यौगिक शब्द आदि का विवेचन है। द्वितीय मयूख में शब्द एवं वाक्य के दोष तथा तृतीय में काव्य-लक्षणों (भरतकृत "नाट्य-शास्त्र" में वर्णित) का वर्णन है। चतुर्थ मयूख में 10 गुण वर्णित हैं और पंचम मयूख में 5 शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों का वर्णन है और अंतिम दो मयूखों में लक्षणा एवं अभिधा का विवेचन है। इस ग्रंथ की विशेषता है एक ही श्लोक में अलंकार या अन्य विषयों का लक्षण देकर उसका उदाहरण प्रस्तुत करना। इस प्रकार की समासशैली का अवलंब लेकर आचार्य जयदेव ने ग्रंथ को अधिक बोधगम्य व सरल बनाया है। "चन्द्रालोक" में सबसे अधिक विस्तार अलंकारों का है। इसमें 17 नवीन अलंकारों का वर्णन है। उन्मीलित, परिकराङ्कुर, प्रोढोक्ति, संभावना, परहर्ष, विषादन, विकस्वर, विरोधाभास, असंभव, उदारसार, उल्लास, पूर्वरूप , अनुगुण, अवज्ञा, पिहित, भाविकच्छवि एवं अन्योक्ति। हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों के लिये यह ग्रंथ मुख्य उपजीव्य था। इस युग के अनेक आलंकारिकों ने इसके पद्यानुवाद किये हैं। चंद्रालोक पर अनेक टीकाएं हैं। प्रद्योतन भट्टकृत शरदागम, वैद्यनाथ पायगुंडेकृत रमा, गागाभट्टकृत राकागम, विरूपाक्षकृत शरद-शर्वरी, वाजचंद्रकृत चंद्रिका एवं चंद्रालोकदीपिका आदि। अप्पय दीक्षित कृत "कुवलयानंद" एक प्रकार से "चंद्रालोक" के पंचममयूख की विस्तृत ख्याख्या ही है। हिंदी में चन्द्रालोक के कई अनुवाद प्राप्त होते हैं। चौखंबा विद्याभवन से संस्कृत-हिंदी टीका प्रकाशित है। चन्द्रिका (वीथि) -ले. राम पाणिवाद। ई. 18 वीं शती।. त्रिचूर से 1934 में प्रकाशित। कथासार - नायक स्वप्न में किसी सुंदरी को देख कर कामसन्तप्त होता है। विदूषक के साथ पुष्प पाकर उद्यान में • मन बहलाते समय भूर्जपत्र पर लिखा हुआ एक प्रेमसन्देश उसे प्राप्त होता है। आकाशवाणी द्वारा ज्ञान होता है कि यह संदेश लिखने वाली चन्द्रिका नायक के लिए पत्नी कल्पित की गयी है। नायक हर्षित है। इतने में नेपथ्य से सुनाई देता है कि चण्ड नाम राक्षस चन्द्रिका का अपहरण कर ले गया। नायक मूर्च्छित होता है। विदूषक उसे परामर्श देता है कि संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/105 For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लम्बोदर की स्तुति कर। लम्बोदर अपने दांत से राक्षस को चरक, कनिष्क के राजवैद्य थे पर इस संबंध में विद्वानों में विदीर्ण कर नायिका को छुडा कर नायक को सौंपता है। शुभ । मतैक्य नहीं है। चरक संहिता में मुख्य रूप से काय-चिकित्सा मुहूर्त पर उनका विवाह होता है। का वर्णन है। इसमें वर्णित विषय हैं- रसायन, वाजीकरण, चंद्रिका - महादेव दंडवते कृत हिरण्यकेशि श्रौतसूत्र की टीका । ज्वर, रक्त, पित्त, गुल्म, प्रमेह, कुष्ट, राजयक्ष्मा, उन्माद, अपस्मार, चन्द्रोदयांकजालम् - ले. दिनकर। विषय- ज्योतिषशास्त्र। क्षत, शोध, उदर अर्श ग्रहणी पाण्डु, श्वास, कास, अतिसार, चन्द्रोन्मीलनम् - पटल 49। बहुत से ग्रंथों से संगृहीत । छर्दि, विसर्य, तृष्णा, विष, मदात्यय, द्विवर्णीय, त्रिमर्मीय, ऊरुस्तंभ, रुद्रयामल, ब्रह्मायामल, विष्णुयामल, उमायामल, बुद्धयामल इन वातव्याधि वात-शोणित व योनिव्यापद्। “चरक-संहिता" में पांच यामलों के उद्धरण विशेष रूप से लिये गये हैं। विविध दर्शन व अर्थशास्त्र के भी विषय वर्णित हैं तथा अनेक स्थानों तांत्रिक विषयों का वर्णन करने वाला विशाल ग्रंथ । व व्यक्तियों के संकेत के कारण इसका सांस्कृतिक महत्त्व अत्यधिक बढा हुआ है। यह ग्रंथ भारतीय चिकित्सा-शास्त्र चापस्तव - ले. रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी। ई. 17 की प्रमाणभूत रचना के रूप में प्रतिष्ठित है। इसका अनुवाद वीं शती। चपेटाहतिस्तुति - ले.श्रीकृष्ण ब्रह्मतन्त्र परकालस्वामी। ई. 19 संसार की प्रसिद्ध भाषाओं में हो चुका है। इसकी हिन्दी वीं शती। व्याख्या (विद्योतिनी) पं. काशीनाथ शास्त्री व डॉ. गोरखनाथ चतुर्वेदी ने की है। चमत्कार-चन्द्रिका - 1) विश्वनाथ चक्रवर्ती। ई. 17 वीं शती। 2) ले. कृष्णरूप । विषय- कृष्णचरित्र। 3) ले. कर्णपूर।। चरित्रशुद्धिविधानम् - ले. शुभचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 कांचनपाड (बंगाल) के निवासी ई. 16 वीं शती। शती। चम्पूराघवम् - ले. आसुरी अनन्ताचार्य। ई. 19 वीं शती। चाणक्य -विजयम् (नाटक) ले. विश्वेश्वर विद्याभूषण (श. चंपूरामायणम् (युद्धकांड) - ले. लक्ष्मण कवि। इस ग्रंथ 20) रूपकमंजरी ग्रंथमाला में 1967 ई. में कलकत्ता से पर भोज कृत "चंपूरामायण" का अत्यधिक प्रभाव है और प्रकाशित । अंकसंख्या- पांच। प्रत्येक अंक दृश्यों में विभाजित। यह चंपूरामायण के ही साथ प्रकाशित है। ग्रंथारंभ में भोज विष्कम्भक या प्रवेशक का अभाव। प्रसंगोचित एकोक्तियाँ । की वंदना की गयी है। संवाद सरल तथा लघु। छायातत्त्व का समावेश। नृत्य, वीणा 2) सीताराम शास्त्री। काकरपारती (आंध) निवासी। वादन, गीत आदि से भरपूर। इसमें चाणक्य की सहायता से चरणव्यूह - इसके रचयिता शौनक मुनि कहे जाते हैं। इसमें चन्द्रगुप्त की नन्द पर विजय वर्णित है और अन्त में है चार भागों में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भारतीय एकता का सन्देश। की जानकारी दी गयी है। चाणक्य-विजयम्- ले.रमानाथ मिश्र। जन्म 1904। रचना ऋग्वेद - वेदाध्ययनविधि और पारायण विधि के चार-चार सन 1938 में । ऑल इंण्डिया ओरिएन्टल कान्फरेन्स के भेद बताये गये हैं। चर्चा, श्रावक, चर्चक और श्रवणीयपार बीसवें अधिवेशन में 1959 में भुवनेश्वर में अभिनीत । अंकसंख्या वेदाध्ययन-विधि के और क्रमपार, क्रमपद, क्रमजटा और पांच। अंक दृश्यों में विभाजित । कथावस्तु है नन्द का वध, क्रमदण्ड, पारायण-विधि के भेद हैं। चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक तथा राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त के मंत्रिपद यजुर्वेद के 86, सामवेद के 1000, अथर्ववेद के 9 भेद की स्वीकृति। बताये गये हैं। इस ग्रंथ की महीधरकृत टीका वेदविषयक चातुर्मास्यप्रयोग - ले. वैद्यनाथ पायगुंडे । ई. 18 वीं शती। सामान्यज्ञान की दृष्टि से अत्यंत उपोदय मानी जाती है। चान्द्रवृत्ति - इस ग्रंथ पर अनेक वृत्तियां लिखी हैं, वे अप्राप्य इसके फलश्रुति खण्ड में कहा गया है कि गर्भिणी स्त्री हैं। केवल एक वृत्ति जर्मनी में रोमन अक्षरों में है। इस पर को इस ग्रंथ के श्रवण से पुत्रसंतति होगी। किसी धर्मदास का कर्तृत्व अंकित है पर युधिष्ठिर मीमांसक चरकन्यास- ले. हरिचन्द्र। ई. 4 थी शती। जैनकवि। पिता- को संदेह है कि यही चन्द्रगोमी की है। आदिदेव। माता-रथ्या। चांद्रव्याकरणम् - ले. चन्द्रगोमी। ई. 5 वीं शती। पाणिनीय चरकसंहिता - आयुर्वेद शास्त्र का सुप्रसिद्ध ग्रंथ। इस ग्रंथ सिद्धान्तों का सरलीकरण इस ग्रंथ में किया है। पारिभाषिक के प्रतिसंस्कर्ता चरक हैं। इनका समय इसा की प्रथम शताब्दी संज्ञाओं का प्रयोग न करना इस व्याकरण का वैशिष्ट्य है। के आसपास माना गया है। विद्वानों का कहना हैं कि चरक पाणिनीय तन्त्र की अपेक्षा तघु। विस्पष्ट तथा कातन्त्र की एक शाखा है, जिसका संबंध वैशंपायन से है। "कृष्णयजुर्वेद" अपेक्षा संपूर्ण है। पाणिनीय तन्त्र के जिन शब्दों का साधुत्व से संबद्ध व्यक्ति चरक कहे जाते थे। उन्ही में से किसी एक वार्तिक और इष्टि द्वारा होता है, वे शब्द इसमें सूत्रों में ने इस संहिता का प्रतिसंस्कार किया है। कहा जाता है कि समाविष्ट हैं। पतंजलि द्वारा प्रत्याख्यात शब्द इसमें नहीं हैं। चाद्रयामा 106/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कई विद्वानों का मत है की यह 6 अध्यायों का है। ज्ञात होता है कि ग्रंथकार बौद्ध होने से वैदिकी स्वरप्रक्रिया इसमें नहीं है। चामुण्डा (नाटक) - ले. व्यासराज शास्त्री। ई. 20 वीं शती। चिन्ताद्रि पेट, मद्रास से प्रकाशित। कथावस्तु उत्पाद्य और हास्यप्रधान, अंकसंख्या चार । कथासार - एक विधवा लन्दन से डॉकटर बन आती है, परंतु ग्रामवासी उसका तिरस्कार करते हैं। इन विरोधियों के नेता की बहू जब बीमार होती है, तब वही विधवा उसे स्वस्थ बनाती है। अन्त में वे ही विरोधी उसे साधुवाद देते हैं। चारायणी शाखा (कृष्णयजुर्वेदीय) - चारायणीयों का एक मन्त्रार्षाध्याय मिलता है। उसके अनुसार निम्नलिखित बातों का पता चलता है। (1) चारायणीय संहिता का विभाग अनुवाकों और स्थानकों में था। (2) चारायणीय संहिता में वाक्यानुवाक्या ऋचाएं चालीसवें स्थानक के अन्त में एकत्र पढी गई थीं। (3) चारायणीय संहिता में कहीं तो काठक संहिता का क्रम था और कहीं मैत्रायणीय संहिता का था। (4) चारायणीयसंहिता के कई पाठ काठक में नहीं और कई मैत्रायणीय में नहीं हैं। (5) चारायणीय संहिता के अन्त में अश्वमेधादि का पाठ था। चारुचरितचर्चा - ले-आचार्य रमेशचंद्र शुक्ल, आचार्य संस्कृत विभाग, वार्ष्णेय कॉलेज, अलीगढ (उ.प्र.)। 480 पृष्ठों के इस ग्रंथ में मनु याज्ञवल्क्य से लेकर आधुनिक युग के आंबेडकर-गोलवलंकर तक हुए 101 महानुभावावों के व्यक्तित्त्व का प्रसन्न गद्य शैली में लिखे हुए संक्षिप्त लघुनिबंधों में परिचय दिया है। संस्कृत वाङ्मय में इस प्रकार का यह पहला ही प्रयास है। प्राप्ति-स्थान- वाणीपरिषद् आर-6, उत्तमनगर वाणीविहार, नई दिल्ली-1100591 चारुचर्या - ले-क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिता-प्रकाशेन्द्र।। श्लोक संख्या-45001 चारुदत्तम् (प्रकरण) - ले-भास। इस प्रकरण का नायक चारुदत्त वणिक् तथा नायिका वसंतसेना वेश्या है। प्रकरण के लक्षण के अनुसार इसमें 10 अंक होना चाहिए जब कि इसमें 4 अंक ही प्राप्त होते हैं। अतः इस प्रकरण को अपूर्ण माना गया है। संक्षिप्त कथा : इस प्रकरण की कथा चार अंकों में विभक्त है। इसके प्रथम अंक में शकार द्वारा पीछा किये जाने पर गणिका वसंतसेना शकार से बचने के लिए अचानक चारुदत्त के घर में छुप जाती है। वसंतसेना अपना हार चारुदत्त के पास रख कर जाती है। विदूषक उसे पहुंचाने वाला है। द्वितीय अंक में वसंतसेना जुए में पराजित संवाहक को, विजेताओं को धन देकर मुक्त करती है और उसे धारुदत्त के पास भेज देती है; तभी चेट से हाथी की घटना एवं चारुदत्त द्वारा चेट को प्रावारक देने की घटना सुन कर चारुदत्त को देखती है। तृतीय अंक में सज्जलक चारुदत्त के घर से वसंतसेना के सुवर्णहार को चुरा कर ले जाता है। चारुदत्त इससे दुःखी होकर हार के बदले अपनी पत्नी की मोती की माला विदूषक के हाथ वसंतसेना के पास भेजता है। चतुर्थ अंक में सजलक अपनी प्रेमिका मदनिका को वसंतसेना से मुक्त कराने के लिए चोरी किया गया हार ले कर वसंतसेना के घर जाता है। किन्तु मदनिका हार को पहचान लेती है और सज्जलक को हार लौटाने के लिए कहती है। उतने में विदूषक आकर चारुदत्त द्वारा प्रेषित माला वसंतसेना को देता है। सज्जलक से हार ले कर वसंतसेना सज्जलक के साथ मदनिका को बिदा करती है और चारुदत्त से मिलने के लिए जाती है। इस प्रकरण में एक ही अर्थोपक्षेक (चूलिका) का प्रयोग हुआ है। इस चूलिका का स्थान प्रस्तावना के अन्तर्गत है। चार्वाक-ताण्डवम् - ले-डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । अंकसंख्याआठ। विषय-षड्दर्शनों के प्रवर्तकों से चार्वाक का विवाद । चालुक्यचरितम् - ले-परवस्तु लक्ष्मीनरसिंह स्वामी। मद्रास निवासी। दक्षिण भारत के चालुक्यवंशीय पुरुषों का चरित्र तथा शिलालेखों एवं ताम्रपटों से प्राप्त घटनाओं का काव्यमय निवेदन इस ग्रंथ का विषय है। चिकित्साकौमुदी - ले-धन्वतरि। विषय-वैद्यकशास्त्र । चिकित्सादर्शनम् - ले-धन्वन्तरि । चिकित्सामृतम् - ले-गोपालदास। ई. 16 वीं शती। विषयआयुर्विज्ञान। चिकित्सा-रत्नावली - ले-कविचन्द्र। ई. 17 वीं शती । विषय-वैद्यकशास्त्र। चिकित्सारत्नम् - ले-जगन्नाथ दत्त। ई. 19 वीं शती। विषय-आयुर्वेदिक चिकित्सापद्धति । चिकित्सासारसंग्रह - (1) ले-धन्वंतरि (2) ले-बंगसेन। ई. 11 वीं शती। (3) ले-चक्रपाणि। ई. 11 वीं शती। (4) ले-कालीचरण वैद्य। ई. 19 वीं शती। इन ग्रंथों का विषय है : आयुर्वेदिक चिकित्सापद्धति । चिकित्सासोपान - सन् 1898 में कलकत्ता से संस्कृत-हिन्दी में प्रकाशित इस मासिक पत्रिका के सम्पादक रामशास्त्री वैद्य थे। चिंचिणीमतसारसमुच्चय - 12 पटलों में पूर्ण। तांत्रिकों का चिंचिणीमत सिद्धनाथ ने स्थापित किया था। इसका संबंध वामाचार, पश्चिम क्रम से है। चित्तरूपम् - ले-रुद्रराम। चित्तप्रदीप - ले-वासुदेव। काश्मीरी पंडित। चित्तविशुद्धिप्रकरणम् (नामान्तर चित्तावरणविशोधनम्) - ले-बौद्ध पंडित आर्यदेव। विषय-ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड की आलोचना तथा अन्य तांत्रिक बातों का वर्णन । चित्तवृत्तिकल्याण - ले-भूमिनाथ (नल्ला) दीक्षित । ई. 17-18 शती। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 107 For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिन्तामणि - ले-यज्ञवर्मा । शाकटायन व्याकरण की लघुवृत्ति। काशी में प्रकाशित लगभग-6000 श्लोक। यह अमोघा वृत्ति का संक्षेप है। प्रस्तुत चिन्तामणि वृत्ति पर मणिप्रकाशिका नाम की वृत्ति अजित सेनाचार्य ने लिखी है। चिन्तामणिकल्प - ले-दामोदर पण्डित। श्लोक-500। विषय-तंत्रशास्त्र। चिन्तामणितन्त्रम् - (1) हर-पार्वती संवाद रूप। विषय-योनिबीजरहस्य, कुण्डलिनीध्यान, योनिकवच, आधारचक्र के क्रम से कवच-पाठ का फल, योनिकवच धारण का फल षट्चक्रों के क्रम से मन्त्रार्थ कथन, षड्दलों का वर्णन, मुद्रामन्त्रार्थ निरूपण और चैतन्यरहस्य। (2) श्लोक-264 । अध्याय 71 विषय-षट्चक्रों में स्थित योनिरूप के चिन्तन की विधि, त्रैलोक्यमंगल कवच, योनिमुद्रा, मन्त्रार्थनिरूपण इत्यादि । चिंतामणि-प्रकाशिका - ले-अजितसेनाचार्य। विषय-यक्षसेन (यक्षवर्मा) रचित चिंतामणि नामक ग्रंथ पर टीका। चिन्तामणिविजयचम्पू - ले-शेष कवि। चिदानन्दकेलिविलास - ले-गौडपाद । देवीमाहात्म्य की टीका। चिदानन्दमन्दाकिनी - ले-कृष्णदेव । तांत्रिक दर्शन का प्रतिपादक ग्रंथ । विषय-महामोक्ष, जपानुष्ठान, भावनिरूपण, शारीर योगसाधन इत्यादि। चिद्गणचन्द्रिका - ले-कालिदास। चिदद्वैतक - ले-प्रधान वेंकप्पा। श्रीरामपुर के निवासी। चित्सुखी (अपरनाम-तत्त्वप्रदीपिका) - ले-चित्सुखाचार्य । ई. 12 वीं शती। अद्वैत वेदान्त का एक प्रमाणभूत ग्रंथ। चित्सूर्यालोकम् - (1) ले-मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य । ई. 1848 से 1926 | विषय-सूर्यग्रहण की कथा। (2) ले-चिन्ना नरसिंह चालूँ। ई. 19 वीं शती।। चिल्ली - ले-नटमानव। ई. 17 वीं शती। श्लोक-3751 कामकलाविलास नामक ग्रंथ की व्याख्या। चिदविलास - (1) ले-संपूर्णानन्द, उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री। दर्शनविषयक लेखों का संस्कृत अनुवाद। (2) ले-पुण्यानन्द योगी। श्लोक-37। चिद्विलासस्तुति - ले-अमृतानन्दनाथ । चित्रकाव्यकौतुकम् - ले-रामरूप पाठक। इस ग्रंथ को 1967 का साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है।। चित्रचंपू - ले-विद्यालंकार बाणेश्वर भट्टाचार्य। काव्य निर्मिति 1744 ई. में। यह काव्य वर्धमाननरेश महाराज चित्रसेन के आदेश से लिखा गया था। इसमें यात्रा-प्रबंध व भक्ति-भावना का मिला हुआ रूप है। इसमें 294 पद्य व 131 गद्य चूर्णक हैं। इसमें कवि ने राजा के आदेश से मनोरम वन का वर्णन किया है। प्रस्तुत चंपूकाव्य का प्रकाशन कलकत्ता से हो चुका है। चित्रबन्धरामायणम् - कवि-वेङ्कटमखी । ई. 17 वीं शती। चित्रमंजूषा - ले-गंगाधर शास्त्री मंगरूळकर । नागपुर निवासी। चित्रयज्ञम् (निवेदनप्रधान नाटक) - ले-बैद्यनाथ वाचस्पति भट्टाचार्य। 18 वीं शती उत्तरार्ध। गोविन्द देव की यात्रा के अवसर पर प्रथम अभिनय। अंकसंख्या- पांच। किरतनिया तत्त्व से युक्त। श्लेषात्मक पदों का प्रयोग। संरभात्मक वातावरण में संवाद की चटुलता। निवेदन प्रायः पद्यात्मक। प्रथम अंक में रंगमंच पर एकसाथ बीस पात्र आते हैं। कथासार - प्रजापति दक्ष के यज्ञानुष्ठान में शिव को अनुपस्थित देख दधीचि उसकी निर्भर्त्सना करते हैं। दक्ष उन्हें अपमानित कर भगाता है। यह देख देवता और नारदादि ऋषि सभात्याग करते हैं। नारद यह वार्ता शिव को देते हैं। सती पिता के घर से यज्ञ का समाचार सुन निकल गयी। शिव उसके पीछे नन्दी को भेजते हैं। दक्ष शिव की निन्दा करते हैं। यह सुन सती यज्ञकुण्ड में आत्मदाह करती है। उसी समय नारद बताते हैं कि शिव का क्रोध वीरभद्र के रूप में साकार हआ है। अन्त में यज्ञ विध्वस्त होता है। चित्रवाणी - मासिक पत्रिका। काशी से सन 1913 में प्रकाशित। रवीन्द्र काव्य के अनुवाद तथा कालीपद तर्काचार्य का महाकाव्य इसमें क्रमशः प्रकाशित हुए। चित्रभाषिका - ले-बाणेश्वर विद्यालंकार। बरद्वान के बंगाल राजा चित्रसेन की प्रेरणा से लिखित ग्रंथ। चिपिटक-चर्वणम् (प्रहसन) - ले-जीव न्यायतीर्थ । जन्म-1894। “रूपक-चक्रम्" में प्रकाशित । विषय-धनी किन्तु अत्यंत कृपण कपाली का हास्योत्पादक चित्रण । नायक-कपाली नायिका-रंगिणी। चिमनीशतकम् - ले-नीलकण्ठ। 106 श्लोक। विषय-अलीवर्दीखान की स्नुषा चिमनी का दयादेव शर्मा से प्रेमप्रकरण। चेतना क्वास्ते - ले-वंशगोपाल शास्त्री। चेतसिंहकल्पद्रम - ले-भवानीशंकर। विषय-धर्मशास्त्र । चेतोदूतम् - एक संदेशकाव्य। लेखक का नाम व रचनाकाल अज्ञात। इसमें किसी शिष्य द्वारा अपने गुरु के चरणों में उनकी कृपादृष्टि को प्रेयसी मान कर अपने चित्त को दूत बना कर भेजने का वर्णन है। गुरु की वंदना, उनके यश का वर्णन व उनकी नगरी का वर्णन किया गया है। अंत में गुरु की प्रसन्नता व शिष्य के संतोष का वर्णन है। इसमें कुल 129 श्लोक हैं और मंदाक्रांता वृत्त का प्रयोग किया गया है। चित्त को दूत बनाने के कारण इसका नाम "चेतोदूत" रखा गया है। इसकी रचना मेघदूत के श्लोकों की समस्यापूर्ति के रूप में की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन ई. 1922 में जैन आत्माराम सभा भावनगर से हो चुका है। इसकी 108 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भाषा प्रवाहपूर्ण व प्रसादमयी है और श्रृंगार के स्थान पर शांत रस व धार्मिकता का वातावरण निर्माण किया गया है । गुरु की कृपा दृष्टि को ही कवि सर्वस्व मानता है। चैतन्यगिरिपद्धति ले चैतन्यगिरि । श्लोक www.kobatirth.org - विषय- धर्मशास्त्र । चैतन्यकल्प ब्रह्मयामलान्तर्गत पार्वती ईश्वर संवादरूप । श्लोक 157 | अध्याय - 7 | विषय -गौरांगदेव का जन्म, गौरांगदेव का माहाल्य, गौरांगदेव मंत्रोद्धार यमुना स्तुति, गौरांग पूजा वर्णन इत्यादि । 300 I - चैतन्यचरितम् ले- कालीहरदास बसु । ई. 1928 - 29 में संस्कृत साहित्य पत्रिका में प्रकाशित चैतन्यचरितामृतम् (महाकाव्य)ले कवि कर्णपूर। कांचनपाडा (बंगाल) के निवासी। 16 वीं शती । चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पर रचित महाकाव्य । चैतन्यचन्द्रामृतम् (1 ) ले प्रबोधानन्द सरस्वती । श. 16 मध्य । विषय- महाप्रभु चैतन्य की स्तुति । (2) ले म.म. कृष्णकाल विद्यावागीश। सन् 1810। चैतन्य चन्द्रोदयले कवि कर्णपूर रचनाकाल सन् 1572 । महानाटक। अंकसंख्या दस । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण । महाप्रभु चैतन्य का चरित्र वर्णित है। उडीसा के महाराजा गजपति प्रतापरुद्र की प्रेरणा से इस नाटक का अभिनय हुआ था । चैतन्यचन्द्रोदयम् - एक प्रतीक नाटक । लेखक - श्री. परमानंद । ई. 16 वीं शती। नाटक का प्रतिज्ञात विषय है चैतन्य महाप्रभु का चरित्र, किंतु इसमें भक्ति, वैराग्य, कलि, अधर्म आदि अमूर्त पात्रों के साथ, चैतन्य व उनके शिष्यों के रूप में मूर्त पात्र भी प्रस्तुत किये गए हैं। चैतन्य - चैतन्यम् - ले. रमा चौधुरी। डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी की धर्मपत्नी । चैतन्य महाप्रभु का पांच दृश्यों में चरित्र वर्णन । वैयज्ञ ( रूपक) ले- वैद्यनाथ वाचस्पति भट्टाचार्य ई. 19 वीं शती । चौलचंपू ले विरूपाक्ष कवि समय संभवतः 17 वीं शती । । । इस चंपू का प्रकाशन मद्रास गवर्नमेंट ओरियंटल सीरीज व सरस्वती महल सीरीज तंजौर से हो चुका है। इस चंपू के वर्ण्य विषय इस प्रकार हैं: खर्वट ग्राम वर्णन, कुलोत्तुङ्गवर्णन, कुलोत्तुङ् की शिवभक्ति, वर्षागम, शिवदर्शन, शिव द्वारा कुलोलुङ्ग को राज्यदान, कुबेरागमन, तंजासुर की कथा, कुबेर की प्रेरणा से कुलोत्तुङ्ग का राज्यग्रहण, राज्य का वर्णन, पुत्रजन्म- महोत्सव, राजकुमार को अनुशासन, कुमार चोलदेव का विवाह, पट्टाभिषेक, अनेक वर्ष तक कुलोत्तुङ्ग का राज्य करने के पश्चात् सायुज्यप्राप्ति व देवचोल के शासन करने की सूचना । इस चंपू में मुख्यतः शिवभक्ति का वर्णन है। चोलभाण - ले-अम्मल आचार्य। ई. 17 वीं शती । पिता घटित सुदर्शनाचार्य । चोरचत्वारिशी कथा अलिबाबा और चालीस चोर इस प्रसिद्ध अरबी कथा का अनुवाद। अनुवादक गोविन्द कृष्ण मोडक, पुणे- निवासी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर-चातुरीयम् (प्रहसन ) - ले-जीव न्यायतीर्थ । जन्म-1894 । 1 संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका में सन् 1951 में प्रकाशित। चौर्य कला के विविध पक्षों का हास्योत्पादक परिचय | चौरपंचाशती ले भारतचन्द्र व ई. 18 वीं शती सौरपंचाशिका 50 श्लोकों का लघु काव्य । ले-बिल्हण । काश्मीरी कवि । उत्कृष्ट काव्य का उदाहरण । कुछ पाण्डुलिपियों की प्रस्तुति में यह कथा मिलती है कि वैरसिंह राजा की कन्या चन्द्रलेखा (शशिकला) कवि की शिष्या तथा प्रेयसी थी । गुप्त रूप से प्रेम प्रकरण बढता रहा। अन्त में राजा को पता चलने पर कवि को मृत्युदण्ड घोषित होता है । राजकन्या के साथ व्यतीत क्षण तथा उपर्युक्त आनन्द की स्मृति में यह रचना हुई । राजा को ज्ञात होने पर राजकन्या से विवाह संपन्न । इस कथा में ऐतिह्य का अंश नहीं है। प्रत्येक श्लोक "अद्यापि तां" से प्रारम्भ तथा "स्मरामि" से अन्त होता है। इस काव्य पर गणपति शर्मा, रामोपाध्याय और बसवेश्वर की टीकाएं है। छत्रपति शिवराजः ले- श्रीराम भिकाजी वेलणकर । "देववाणीमन्दिर" तथा भारतीय विद्याभवन से प्रकाशित रचना सन् 1974 में। अंकसंख्या- पांच। सन् 1662 की विजापुर की विजय से लेकर शिवाजी के राज्याभिषेक (1674) तक की घटनाएं प्रस्तुत । कुल पात्र 25 सन्त रामदास, शे मुहम्मद आदि के गीतों का संस्कृतीकरण किया है । कतिपय नये छन्दों का प्रयोग इसमें हुआ है। है । छत्रपति शिवाजी महाराज चरित ले श्रीपादशास्त्री हसूरकर । इंदौर निवासी । भारतरत्नमाला का द्वितीय पुष्प । प्रासादिक गद्य शैली में शिवाजी महाराज का यह चरित्र लिखा हुआ छत्रपति साम्राज्यम् (नाटक) से मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक 1886 1965 ई. । लेखक की अंतिम रचना । अंकसंख्या दस | छत्रपति शिवाजी के सन् 1646-1674 तक के शासनकाल की घटनाओं पर आधारित। अंतिम अंक में राज्याभिषेक महोत्सव | - For Private and Personal Use Only संक्षिप्त कथा इस नाटक में छत्रपति शिवाजी के शौर्यपूर्ण कार्यों का मुगलों के विरुद्ध संघर्ष और स्वराज्य की स्थापना करने की घटनाओं का वर्णन है। नाटक के प्रथम अंक में शिवाजी भारत में धर्मराज्य की स्थापना करने का प्रण करते हैं। तोरण दुर्ग का दुर्गपाल तोरणदुर्ग शिवाजी को सौंप दोता है। शिवाजी चाकण और कोंडाना दुर्ग पर अधिकार करने के लिए अपनी सेना को भेजते हैं और स्वयं पुरंदर दुर्गं को अधीन करने के लिए जाते हैं द्वितीय अंक में शिवाजी राजमाची दुर्ग के जीर्णमन्दिर की खुदाई से प्राप्त धन के द्वारा संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 109 - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विदेशियों से शस्त्रास्त्र खरीदते हैं और कल्याण दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के लिये आबाजी को भेज देते हैं। चालीस हजार मावलों की सेना को लेकर शिवाजी कोंकण विजय के लिए प्रस्थान करते हैं। तृतीय अंक में उक्त दोनों की विजय के बाद बीजापुर नरेशद्वारा शिवाजी के पिता को कारागार में डाल देने पर शिवाजी पिता की मुक्ति के लिए मुगल साम्राज्य को पत्र लिखते हैं। चतुर्थ अंक में शिवाजी बीजापुर नरेश से संधि करने की योजना बनाते हैं। पंचम अंक में पन्हाला और जुन्नर दुर्गा पर मराठों का अधिकार हो जाता है। इसके बाद मराठे विशाल दुर्ग पर जाते हैं। षष्ठ अंक में मुगल सम्राट् शिवाजी को पकड़ने के लिए दक्षिण प्रान्त के राज्यपाल को आदेश देता है। सप्तम अंक में मुगल सेनापति जयसिंह शिवाजी से मुगल सम्राट् की संधि मान्य करवाता है और शिवाजी को आगरा भेज देता है। अष्टम अंक में शिवाजी मिठाई के पिटारे में छुप कर निकल भागते हैं। नवम अंक में साधुवेश में पूना लौटते है। दक्षिण प्रान्त का राज्यपाल, शिवाजी को स्वसंमत राजा बनने का अधिकार देता है। दशम अंक में शिवाजी गुर्जर प्रदेश पर अधिकार स्थापित कर लौटते हैं और राज्यपद पर अभिषिक्त हो धर्मराज्य की स्थापना करते हैं। छत्रपति साम्राज्य नाटक में कुल नौ अर्थोपक्षेपक हैं। छन्दः कल्पकता ले- मथुरानाथ छन्दः कोश ले रत्नशेखर । छन्द:कौस्तुभ (1) ले-राधादामोदर (2) ले-बलदेव विद्याभूषण ई. 18 वीं शती । छन्दश्चूडामणि ले- हेमचंद्र | छन्दः पीयूषम् - ले-जगन्नाथ मिश्र पिता राम (ई. 18 वीं शती) । छन्दःप्रकाश ले- शेषचिन्तामणि । छन्दः शास्त्रम् (१) ले जयदेव । समय-ई. 10 वीं शती । सूत्ररूप रचना । इस पर मुकुलभट्ट के पुत्र हरदत्त की टीका है (2) ले देवनन्दी पूज्यपाद जैनाचार्य माता श्रीदेवी पिता - माधवभट्ट । ई. 5-6 वीं शती । 1 - - - www.kobatirth.org - - छन्दः सारसंग्रहः ले चन्द्रमोहन घोष ई. 20 वीं शती । विविध स्तोत्रों से प्राप्त विविध छन्दों का यह संकलन है । छन्दः सुंदर ले- नरहरि । छन्दः सुधाकर ले-कृष्णाराम। छन्दः सुधाचिल्लहरी ले अज्ञात । - - छन्दोनुशासन ले जिनेश्वर । छन्दोगोविन्द ले-गंगादास (श. 16)। छन्दोमखान्त ले- पुरुषोत्तम भट्ट (श. 16 ) । छन्दोमंजरी लेखक - गंगादास ई. 16 वीं शती । । पिता-गोपालदास। अनेक वृत्तों का परिचय देते हुए उदाहरणों 110 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड में कृष्णस्तुति की है। प्रकरणसंख्या - 6 । टीकाकार (1) जगन्नाथ सेन, (जटाधर कविराज के पुत्र), (2) चंद्रशेखर । (3) दत्ताराम (4) गोवर्धन वंशीधर (5) वंशीधर, (6) कृष्णवर्मा। छन्दोमाला ले शाङ्गधर । छन्दोमुक्तावली ले शंभुराम । छन्दोरत्नाकर (१) ले रत्नाकर शान्तिदेव (ई. 9 बी शती), (2) ले वासुदेव सार्वभौम 1 ले- राजमल पांडे । ई. 16 वीं शती । छंदोविद्या छन्दोविवेक छन्दोव्याख्यासार ले कृष्णभट्ट । ले- गणनाथ सेन । ई. 20 वीं शती । - - - छलार्णसूत्रम (सवृति) बुद्धिराज श्लोक 2001 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मूलकार भास्करराय तथा वृत्तिकार छगली ऋषि के छागलेय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) शिष्य छागलेय। शांखायन श्रौत - - सूत्र के आनर्तीय भाष्य में छागलेयोपनिषद् डा. बेलवलकर ने मुद्रित कर दिया था । निबन्ध ग्रंथों में छागलेय स्मृति के श्लोकों के उद्धरण मिलते हैं। छागलेयशाखा से संबंधित छागलेय उपनिषद् एक नव्य उपनिषद् माना जाता है। छागलेयोनिषद् यह अल्पाकार उपनिषद् है। इसमें कुरुक्षेत्र में निवास करने वाले बालिश नामक ऋषियों द्वारा कवष ऐलूष को उपदेश देने का वर्णन है। इसके अंत में "छागलेय" शब्द का एक बार उल्लेख हुआ है। इसमें रथ का दृष्टांत देकर उपदेश दिया गया है। सरस्वतीतीरवासी ऋषियों ने "कवश ऐलूष" को "दास्याः पुत्र” कह कर उसकी निंदा की तथा "कवष" ने उनसे ज्ञान प्राप्त करने की प्रार्थना की। इस पर ऋषियों ने उसे कुरुक्षेत्र में वालिशों के पास जाकर उपदेश ग्रहण करने का आदेश दिया। वहां "कवष ऐलूष" ने एक वर्ष तक रह कर ज्ञान प्राप्त किया। छंदोगाह्निक ले-दत्त उपाध्याय । (ई. 13-14 वीं शती) विषय- धर्मशास्त्र । छांदोग्य उपनिषद् सामवेद की तलवकार शाखा के अन्तर्गत छांदोग्य ब्राह्मण में यह उपनिषद है। इसमें आठ अध्याय हैं । प्रथम दो अध्यायों में सामविद्या का निरूपण है। तीसरे अध्याय में सूर्य की "देवमधु" के रूप में उपासना का वर्णन है। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" यह सर्वविदित तथा प्रसिद्ध सिद्धान्त इसी अध्याय में है। चौथे अध्याय में रैक्व का तत्त्वज्ञान, सत्यकाम, जाबालि की कथा, सत्यकाम द्वारा उपकोसल को दिया गया ब्रह्मज्ञान का उपदेश आदि विषयों का समावेश है। पांचवें अध्याय में प्रवाहण जैवलि के दार्शनिक सिद्धान्तों और अश्वपति केकप के सृष्टिविषयक तत्त्वों का प्रमुखता से विवेचन है। छठवें अध्याय में महर्षि आरुणि के सिद्धान्तों का वर्णन है। सातवें अध्याय में सनत्कुमार तथा नारद का संवाद है और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आठवें अध्याय में इंद्र और विरोचन की कथा है। जडवृत्तम् - ले-माधव। विषय-नर्तिकाओं द्वारा मूर्ख बनने वाले छायाशाकुन्तलम् - ले-जीवनलाल पारेख। सन् 1957 में तरुणों का परिहासगर्भ वर्णन । सूरत से प्रकाशित एकांकी रूपक। कथासार-दुष्यन्त द्वारा जनकजानन्दनम् (नाटक) - ले-कल्य लक्ष्मीनरसिंह (ई. अस्वीकृत शकुंतला कण्वाश्रम आती है। वह तिरस्करिणी के 18 वीं शती) नरसिंह के वासन्तिक उत्सव में प्रथम अभिनय । प्रभाव से अदृश्य होकर विदित करती है कि कण्व हिमालय अंकसंख्या-पांच। विषय-रामकथा । चले गये हैं। दुष्यन्त वहां आता है, उसकी वाणी सुनकर जनमारशान्तिप्रयोग - विधानमालान्तर्गत गर्गकारिका के अनुसार। शकुन्तला गद्गद् होती है। श्लोक-38| विषय-महामारी भय के निवारणार्थ गर्गप्रोक्त विधान छिन्नमस्ताकल्प - रुद्रयामलान्तर्गत । अध्याय-18 । श्लोक-500। से शान्तिप्रयोग। छिन्नमस्तापंचांगम् - फेल्कारीतन्त्रान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप। जनाश्रयी छन्दोचिति - ले-जनाश्रय। प्रारम्भ में ही राजा विषय-(1) छिन्नमस्तापटल, (2) छिन्नमस्ता-पूजापद्धति, (3) जनाश्रय तथा उसके यश का उल्लेख है। यह नरेश माधववर्मा छिन्नमस्ता-कवच, (4) छिन्नमस्ता-सहस्रनाम, (5) (द्वितीय) विष्णुकुण्डी वंश का है जिसने यह उपाधि धारण छिनामस्तास्तोत्रम्। की थी। (समय 580 से 615 इ.स.) उसने अनेक प्राचीन छिन्नमस्ताष्टोत्तरशतनाम - गोरक्षसंहितान्तर्गत। इसे शिवजी ने । ग्रंथों का उल्लेख किया है, 16 प्रकरण। छन्दों की पहचान नारदजी से कहा था। फलश्रुति-इस स्तोत्र का नवमी या षष्ठी के लिये अलग पद्धति का आविष्कार। सम, विषम, अर्धसम, को जो पाठ करता है वह कुबेर की तरह धनसम्पन्न होता है। वृत्त, जाति, वैतालिय, आर्या, प्रस्तार आदि परिभाषाओं का निर्माण किया है। छेलोत्सवदीपिका - ले-राधाकृष्णजी। जन्ममरणकवचार - ले-भट्ट रामदेव। गुरु योगराज अथवा जगत्प्रकाश - कवि-विश्वनाथ नारायण वैद्य। इसमें गुजरात । योगेश्वराचार्य जो अभिनवगुप्त के शिष्य थे। के रावल वंशीय नृपति जगत्प्रसाद का चरित्र 14 सर्गों में ग्रंथित है। जन्म रामायणस्य - ले-श्रीराम वेलणकर "सुरभारती' भोपाल जगदम्बाचम्पू - कवि-गोपाल। पिता-महादेव। से सन् 1972 में प्रकाशित। 25 मिनटों में अभिनेय। कुल जगदाभरण - ले-जगन्नाथ पंडितराज। अपने आश्रयदाता पात्र-पांच। गीत संख्या पांच। विषय-क्रौन्चवध की कथा। उदेपुरनरेश जगत्सिंह की स्तुति के लिये पंडितराज ने यह रचना की है। जन्माभिषेक - ले-देवनन्दि पूज्यपाद। जैनाचार्य। (ई. 5-6 जगद्गुरु-अष्टोत्तरशतकम् - ले-कविरत्न पंचपागेश शास्त्री। वीं शती)। माता-श्रीदेवी। पिता-माधवभट्ट । जगद्गुरुविजयचम्पू - ले-यलुंदर श्रीकण्ठ शास्त्री। जपसूत्रम् - ले-स्वामी प्रत्यागात्मानंद सरस्वती। प्राचीन सूत्र पद्धति के अनुसार जपविद्या का समीक्षण प्रस्तुत ग्रंथ में किया जगन्नाथवल्लभम् - ले-रामानन्द राय। ई. 16 वीं शती। हुआ है। इसमें सूत्रसंख्या 522 और कारिकासंख्या 2059 है, पांच अंकों का श्रीकृष्णविषयक संगीत नाटक। विविध गीतों जिन पर लेखक ने अति विस्तृत बंगला भाष्य भी लिखा है। में विविध रागों का प्रयोग। उत्कल के महाराज गजपति प्रस्तुत ग्रंथ अध्यात्मविद्या और उपनिषद् का विश्वकोष माना प्रतापरुद्र के समाश्रय से प्रेरित। राधा-माधव की प्रणयक्रीडा जाता है। भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, द्वारा इसका हिंदी का चित्रण। प्रमुख रस शृंगार और बीच बीच में हास्यरस । अनुवाद प्रकाशित हुआ है।। 1901 ई. में वृन्दावन के देवकी नन्दन प्रेस में देवनागरी लिपि में मुद्रित। तत्पूर्व बंगाली लिपि में। जपार्चनपुरश्चरणविधि - रुद्रयामल-बटुककल्पान्तर्गत। जगन्नाथविजयम् - (1) ले-प्रधान वेंकप्प। श्रीरामपुर के श्लोक-6321 निवासी। (2) रुद्रभट। जप्येशोत्सवचम्पू - ले-वेंकटसुब्बा । जगन्मोहनभाणः - कवि-श्री रघुनाथ शास्त्री वेलणकर। ई. जम्बूद्वीपपूजा - ले-ब्रह्मजिनदास । ई. 15-16 वीं शती। 20 वीं शती। इसका एकमात्र प्रकाशन शिलायंत्र का है। जम्बूस्वामिचरित - ले-ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 जगन्मोहन वृत्तशतकम् - ले-वासुदेव ब्रह्मपण्डित।। वीं शती। सर्ग 11। जटापटलदीपिका - ले-श्री बालंभट सप्रे। ग्वालियर निवासी। जयतु संस्कृतम् - सन् 1960 में काठमाण्डू (नेपाल) से श्री वेद-पठन के संहिता, पद, क्रम, जटा, शिखा सदृश पाठशैली प्रसाद गौतम के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रारंभ हुई। के नियमों का इस ग्रंथ में विवेचन किया गया है। यह टीका प्रकाशक केशव दीपक थे। आगे चल कर संपादन का दायित्व ग्रंथ है। इस रचना की पाण्डुलिपि सिंधिया प्राच्य शोधा संस्थान वासुदेव त्रिपाठी ने संभाला। नेपाल में संस्कृत का प्रचार इसका उज्जैन में उपलब्ध है। उद्देश्य था। पत्र में कविता, निबन्ध, कथा, अनुवाद आदि का संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/111 For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकाशन होता है। प्रकाशन स्थल- जयतु संस्कृतम् कार्यालय, रानी पोखरी 10/558 भोटाहिटी काठमाण्डू । जयधवला टीका ले- वीरसेन । जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती । कषायप्राभृत की टीका । श्लोकसंख्या 20,000 1 जयनगररंगम् कवि - मल्लभट्ट हरिवल्लभ । विषय-जयपुर का इतिहास और नरेशों के चरित्र मुंबई में मुद्रित। जयन्तिकाले जग्गु श्री बकुल भूषण का अनुसरण करने हेतु लिखित कथा । जयन्ती 1 जनवरी 1907 से त्रिवेन्द्रम मारुताचार्य और लक्ष्मीनन्दन स्वामी के वाणभट्ट की पद्धति - (केरल) से कोमल सम्पादकत्व में इस प्रथम संस्कृत दैनिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ । ग्राह और अर्थाभाव के कारण यह पत्र शीघ्र पड़ गया। जयन्ती ले- हरिदास सिद्धान्तवागीश (ई. 19-20 वीं शती) श्रीहर्ष के नैषधीय काव्य की व्याख्या । जयन्तीनिर्णय ले मध्वाचार्य ई. 12-13 वीं शती । जयन्तु कुमाउनीयाः - लेखिका-लीला राव दयाल । सन् 1966 में "विश्वसंस्कृतम्" में प्रकाशित दृश्यसंख्या तीन भावुकतापूर्ण संवाद। कुमाउनी गीतों का समावेश । सैनिक जीवन का वास्तव चित्रण इसमें है । कथासार जनरल हरीश्वर दयाल के नेतृत्व में भारतीय सेना सक्रिय है। अधिकांश सैनिक फुफुस रोग, आदि से पीड़ित हैं, उनके अस्त्र शस्त्र अपर्याप्त एवं पुराने हैं और उनके पास ऊनी वस्त्रों की कमी है। कर्नल शेखर के साथ जनरल हरीश्वर के नेतृत्व में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है, परंतु विदेशमंत्री वर्मा आदेश देते हैं कि इतने संकटों से प्राप्त इस प्रदेश को अमरीकादि देशों के मन्त्रियों की इच्छानुसार छोड देना है। जयपुरराजवंशावली ले श्रीरामनाथ नन्द। जयपुर के निवासी । जयपुरविलास - कवि आयुर्वेदाचार्य कृष्णराम । जयपुर निवासी । (ई. 19 वीं शती)। जयपुर के अनेक राजाओं का चरित्र इस काव्य में वर्णित है । - - www.kobatirth.org - - जयमंगला मराठी के प्रसिद्ध कवि यशवन्त के काव्य का अनुवाद अनुवादक - श्रीराम वेलणकर। जयरत्नाकरम् (नाटक) ले- शक्तिवल्लभ अर्ज्याल । सन् 1792 में लिखित । नेपाल सांस्कृतिक परिषद् द्वारा सन् 1965 में प्रकाशित। प्रथम अभिनय राजा रणबहादुर के समक्ष । भिन्न नाट्यपरम्परा । अंकों के स्थान पर "कल्लोल" शब्द का प्रयोग किया है। कल्लोल संख्या - ग्यारह । शास्त्रोचित रंगमंच की आवश्यकता नहीं। चारों ओर प्रेक्षक और बीच में पात्र पात्रों को 'समार्जि" संज्ञा और नाट्यप्रयोग को "ताण्डव" । सभी पात्रों से बढ कर सूत्रधार तथा नटी का महत्त्व है। वे दोनों अन्त तक मंच पर उपस्थित रहते हैं। सभी पात्रों की भाषा संस्कृत है, प्राकृत का प्रयोग नहीं । कथावस्तु का प्रपंच सूत्रधार 112 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - नटी के संवादों द्वारा प्रस्तुत होता है । कतिपय स्थानों पर नाट्यशास्त्रीय नियमों का उल्लंघन हुआ है। चम्पूतत्त्व की विशेष योजना । अनङ्गमंजरी नामक सारिका तथा वंजुल नामक शुक का अन्य पात्रों के साथ संवाद । ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जानकारी इसमें भरपूर है । ब्राह्मणों की तथा कुलाङ्गनाओं की भ्रष्टता, प्रतिलोभ विवाह से उत्पन्न वर्णसंकर जातियां, फिरंगी, गनीम, कूर्माचल की कन्या का दहेज लेने की प्रथा इत्यादि पर प्रकाश डाला है। प्रमुख कथावस्तु की उपेक्षा करने वाले लम्बे संवादों की भरमार है। नेपाली रहनसहन की झांकियां, स्त्रीजाति की निन्दा और कहीं कहीं अश्लील वर्णन भी है। प्रधान रूप से श्रीरणबहादुर शाह के पराक्रम का वर्णन इसमें है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयवंशम् - ले-पर्वणीकर सीताराम। ई. 18 वीं शती । जयद्रथयामलम् पार्वती महेश्वर संवादरूप। 4 षट्कों में विभक्त । प्रत्येक षट्क में 6000 श्लोक। उत्तरषट्क में बगलामुखी की पूजा प्रतिपादित है। दुर्योधन की बहिन का पति सिन्धुदेश का राजा जयद्रथ भूतल के सकल भोगों को अनित्य समझकर, विशाल समृद्ध राज्य त्याग कर हिमालय स्थित बदरिकाश्रम चला गया। जगन्माता पार्वती को उसने प्रसन्न किया। पार्वतीजी ने उसका शिवजी से परिचय करा दिया। इन तीनों का संवादरूप यह ग्रंथ है। जयद्रथ ने मुक्ति के विषय में प्रथम प्रश्न पूछा। उसका भगवान् शिवजी ने सांख्य मत के अनुसार उत्तर दिया। मुक्ति के लिए काल-संकर्षिणी अत्यन्त सरल उपाय बता कर अमुक-अमुक व्यक्ति इसका अवलम्बन कर सफल मनोरथ हुए। उन व्यक्तियों के नाम भी इसमें वर्णित हैं। जयसिंहकल्पद्रुम - - रत्नाकर पण्डित | जयसिंहराजं प्रति श्रीमच्छत्रपतेः शिवप्रभोः पत्रम् - शिवाजी महाराज का राजा जयसिंह को अव्याज देशभक्ति से ओतप्रोत मूल पारसी पत्र का अनुवाद अनेक प्रादेशिक भाषाओं में हुआ है। संस्कृत अनुवाद कविराज ने 60 श्लोको में किया है। उत्कृष्ट अनुवाद का यह एक उदाहरण है। जयसिंहाश्वमेधीयम् - ले. मु. नरसिंहाचार्य । जयाक्षरसंहिता (या जयाख्यसंहिता ज्ञानलक्षणी)- ले. एकायनाचार्य नारायण । अध्याय 27 विषय- स्नानविधि मानसयाग मल्लसन्तर्पण, चार आश्रमों के कर्म, प्रेतशास्त्रविधि, अन्त्येष्टिविधि प्रायश्चित्तविधि इ. श्लोक 4800 For Private and Personal Use Only जयाख्य -संहिता पांचरात्र साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसका मुद्रण भी हो चुका है। इस संहिता में 33 पटल हैं। इस संहिता के वक्ता हैं साक्षात् नारायण । इस संहिता में सात्वत पौष्कर व जयाख्य इन तीन तंत्रों को, "रत्नत्रय" बताया गया है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जयाजी प्रबंध कवि- श्रीबाळशास्त्री गर्दे समय 19 वीं शती का उत्तरार्ध । कवि ने इस काव्य में ग्वालियर नरेश श्री जयाजीवराव सिंधिया के जीवन का तथा तत्कालीन समाज का सजीव चित्रण किया है। प्रस्तुत काव्य में 33 अध्याय तथा 2498 पद्य हैं। इस रचना की एकमात्र उपलब्ध पाण्डुलिपि सिंधिया प्राच्यशोध संस्थान, उज्जैन में है। ( क्र. 3550) अप्रकाशित । जलद (अथर्वशाखा ) अथर्व परिशिष्ट में (2-5) जलदों की निन्दा मिलती है। यही एकमात्र इस शाखा के अस्तित्व का प्रमाण उपलब्ध है । जलयात्राविधि ले. ब्रह्मजिनदास जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती । www.kobatirth.org - जल्पकल्पतरु ले. गंगाधर कविराज। समय- 1798-1885 ई. । यह आयुर्वेद की चरक संहिता की व्याख्या है। जलशास्त्रम् प्रा. हरिदास मित्र ने अपनी ग्रंथसूची में प्रस्तुत विषय पर निम्नलिखित संस्कृत ग्रंथों का उल्लेख किया है जलागल, जलागलयंत्र, जलाशयोत्सर्ग, जलाशायोत्सर्गतत्त्व, जलाशयोत्सर्गपद्धति, जलाशयोत्सर्ग प्रमाणदर्शन, जलाशयोत्सर्गप्रयोग, जलाशयोत्सर्गविधि जलाशयारामोत्सर्ग, जलाशयारामोत्सर्गमयूख, तडागप्रतिष्ठा, तडागउत्सर्ग और कूपादिजलस्थान लक्षण वास्तुरवाकर में जलाशयों पर स्वतंत्र अध्याय लिखा गया है। जलालशास्त्रम् श्री. व्ही. रामस्वामी शास्त्री एण्ड सन्स ने तेलगु अनुवाद सहित इसका प्रकाशन मद्रास में किया है। विषय- शिल्पशास्त्र के अन्तर्गत । जरासन्ध-वधम् (रूपक) ले ताम्पूरन। ई. 19 वीं शती । केरलवासी । - जर्मनी - काव्यम् ले. श्यामकुमार टैगोर । सन 1913 में लिपझिग से प्रकाशित । जर्नल ऑफ दि केरल यूनिर्वसिटी ओरियन्टल मेन्युस्क्रिप्ट लायब्रेरी यह पत्रिका सन 1954 से त्रिवेन्द्रम में प्रकाशित हो रही है। इसके प्रधान सम्पादक के. राघवन् पिल्लई थे । इसमें स्तोत्र, चम्पू, नाटक आदि प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथों का प्रकाशन किया गया है। - 8 जर्नल ऑफ दि श्री वेंकटेश्वर यूनिर्वसिटी ओरियन्टल इन्स्टिट्यूट श्री. टी. ए. पुरुषोत्तम महाभाग के सम्पादकत्व में 1958 से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें गुरुरामकवि विरचित सुभद्राधनंजय नाटक, टी. वेंकटाचार्य का उपन्यास 'रसस्यन्द' आदि उल्लेखनीय रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। जवाहरतरंगिणी (भारतरत्नशतकम्) - ले. डॉ. श्री. भा. वर्णेकर नागपुर निवासी भारतरत्न पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीवन का इस खंडकाव्य में काव्यात्मक पद्धति से वर्णन किया है। लेखक के अंग्रेजी गद्यानुवाद सहित प्रकाशित । पंडित नेहरू ने इस काव्य को पढ कर अपना अभिप्राय लेखक को पत्ररूप में निवेदन किया था । श्लोकसंध्या 102 जवाहरवसन्तसाम्राज्यम् - कवि जयराम शास्त्री, साहित्यचार्य 1 सर्ग 7 श्लोक- 400। दिल्ली के परिसर का वसन्त वर्णन, पं. नेहरू की पचदीपूर्ति वर्ष (ई. 1950) में प्रकाशित I जंहागीरचरितम् ले. रुद्रकवि । राजा नारायणशाह (16-17 वीं शताब्दी) के आश्रित दण्डी के दशकुमारचरितम् की पद्धति का अनुसरण कर कवि ने जहांगीर का चरित्र वर्णन किया है। जगदीशी ले. जगदीश भट्टाचार्य । ई. 17 वीं शती । तत्त्वचिन्तामणि- दीधिति प्रकाशिका नामक प्रस्तुत लेखक का ग्रंथ 'जागदीशी' नाम से प्रख्यात है। विषय- न्यायशास्त्र । जागरणम् कवि शिवकरण शर्मा। गीतिकाव्यसंग्रह । भारतीनिकेतन, फतेहपुर (उ. प्र. ) से प्रकाशित । जातकपद्धति ले. केशव । विषय- ज्योतिषशास्त्र । जातकमाला (बोधिसत्त्वावदानमाला) बौद्ध जातकों को लोकप्रिय बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले आर्यशूर इस ग्रंथ के रचयिता हैं। इनका समय तृतीय या चतुर्थ शताब्दी है । "जातकमाला" की ख्याति, भारत के बाहर भी बौद्ध देशों मे थी। 34 जातकों में से 14 जातकों का चीनी अनुवाद 690 से 1127 ई. के मध्य में हुआ था । इत्सिंग के यात्रा - विवरण के अनुसार, 7 वीं शताब्दी में इसका प्रचार बहुत हो चुका था । अजंता की दीवारों पा "जातकमाला" के 3 जातकों (शांतिवादी, मैत्रीबल व शिविजातक) के चित्र अंकित हैं। इन चित्रों का समय 5 वीं शताब्दी है। "जातकमाला" के 20 जातकों का हिंदी रूपांतर सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। धर्मकीर्ति तथा अन्य एक अज्ञात टीकाकार की व्याख्याएं तिब्बती भाषा में उपलब्ध हैं। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा अनेक संस्करण तथा अनुवाद हुए है। - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M जानकीगीतम् - ले. स्वामी हर्याचार्य। गालवाश्रम (गलतागादी) के पीठाधिपति यह काव्य रसिक रामोपासक संप्रदाय का परमप्रिय उपासना ग्रंथ है। जानकीचरित्रामृतम् ले. श्रीराम सनेही दास वैष्णव कवि । रचनाकाल 1950 ई. और प्रकाशनकाल 1957 में है। यह महाकाव्य 108 अध्यायों में विभक्त है। इसमें सीता के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा वर्णित है। संपूर्ण काव्य संवादात्मक शैली में रचित है। जानकी-परिणयम् (नाटक) - ले. रामभद्र दीक्षित । रचनाकाल सन 1680 ई. । कुभकोणं के निवासी । सात अंको के इस नाटक में राम के मिथिला प्रस्थान से राज्याभिषेक तक की घटनाओं का चित्रण है। राम के मार्ग में बाधा डालने के - संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 113 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिए राक्षसी माया के प्रयास हास्योत्पादक बन पडे हैं। गर्भाङक में सीतापहरण के कारण राम के विलाप से लेकर वालि के वध तक की कथा अद्भुत रस का उपयोग। प्रकाशन- 1) तन्जोर से 1906 ई. में। 2) मुम्बई से 1866 में (मराठी। अनुवाद सहित)। 3) मद्रास से 1881 मे अनूदित)। 4) मद्रास से 1883 तथा 1892 में प्रकाशित। इसी नाम के नाटक की रचना निम्न कवियों ने भी की है : 1) भट्टनारायण 2) सीताराम। जानकीपरिणयम् (काव्य)- ले.चक्रकवि। 17 वीं शती। पिता- अंबालोकनाथ। सर्गसंख्या 8। जानकीपरिणय (रूपक)- ले. मधुसूदन। रचनाकाल सन 1861 । सन 1894 में दरभंगा से प्रकाशित । अंकसंख्या- चार । जानकी-विक्रमम् - ले. हरिदास सिद्धान्तवागीश। रचनाकाल 1894 ई.। लेखकद्वारा 18 वर्ष की अवस्था में लिखा गया नाटक। कोटलिपाडा में अभिनीत । जानकीस्तवराज - इस ग्रंथ के 69 श्लोकों में से आरंभिक 45 पद्यों में भगवती सीताजी का नखशिखान्त वर्णन कवित्वपूर्ण शैली में किया गया है। वैष्णव संप्रदाय का यह मान्य सिद्धान्त है कि जब तक भगवती सीता के चरणों में नैसर्गिक अनुराग नहीं होता तब तक कोई भी साधक भगवान् श्रीराम के पादारविंद का दास नहीं बन सकता। जानकीहरणम् - कवि-कुमारदास। ई. 7 या 8 वीं शती। सर्ग- 201 विषय- रावणवध तक की रामकथा। यह काव्य रघुवंश की योग्यता का माना गया है। एक सुभाषितकार कहता है कि जानकीहरणं कर्तुरघुवंशे स्थिते सति। कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः ।। भावार्थ यह है कि रघुवंश के होते हएि अगर रावण जानकी हरण करने में समर्थ था तो रघुवंश (काव्य) होते हुए कुमारदास कवि भी जानकीहरण करने में समर्थ है। संपूर्ण काव्य का प्रथम प्रकाशन हिन्दी अनुवाद के साथ प्रयाग के पं. व्रजमोहन व्यासजी ने किया। जानक्यानन्दबोध - कवि- श्रीपति गोविन्द। . जाबालदर्शनोपनिषद - सामवेद का योगपरक उपनिषद् । दत्तात्रय द्वारा अपने शिष्य संकृति को यह उपनिषद् कथन किया गया। जाबालोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित उपनिषद्। इसके छह खण्ड हैं। जाबाल्युपनिषद् - शैव उपनिषद् । जामविजयम् - ले. कवितार्किक । ई. 17 वीं शती। वाणीनाथ का पुत्र । सात सर्गों के इस काव्य में कच्छ के जामवंश का वर्णन है। जाम्बवती-कल्याणम् (नाटक) - ले. विजयनगर के राजा कृष्णदेवराय। ई. 16 वीं शती। इसका प्रथम अभिनय विजयनगर के देवता विरूपाक्ष के महोत्सव के अवसर पर चैत्र मास में हुआ था। इस नाटक में श्रीकृष्ण के द्वारा स्यमन्तक मणि की प्राप्ति तथा जाम्बवती के साथ उनके परिणय की कथा पांच अंकों में निबद्ध है। जारजातशतकम् - ले.नीलकण्ठ। जॉर्जप्रशस्ति - 1) ले. भट्टनाथ। विजगापट्टण के निवासी। 2) ले. लालमणि शर्मा, मुरादाबाद के निवासी। जॉर्ज-चरितम् - ले. व्ही.जी.पद्मनाभ । विषय- आंग्ल अगिपति पंचमजार्ज का चरित्र। जॉर्जपंचकम् - रचयिता - महालिङ्गशास्त्री। मद्रास -निवासी। विषय- पंचम जॉर्ज की स्तुति । जॉर्जराज्यभिषेकम् - कवि- शिवराम पाण्डे । प्रयाग के निवासी। रचनां- सन ई. 1911 में। जॉर्जदेवचरितम् (नामान्तर राजभक्तिप्रदीपः ( ले. जी.व्ही. पद्मनाभ शास्त्री। श्रीरंगनिवासी। 2) ले. लक्ष्मणसूरि । जॉर्जवंशम् - ले. विद्यानाथ के. एस. अय्यास्वामी अय्यर । जॉर्जमहाराजविजयम् - ले. कोचा नरसिंह चारलु । जॉर्जाभिषेकदरबारम् - कवि- शिवराम पाण्डे । प्रयाग-निवासी। ई. 1911 में रचित। जालन्धरपीठदीपिका - ले. प्रह्लादानंद । श्लोक 600 । जिनचतुर्विंशातिस्तोत्रम् - ले. जिनचन्द्र। ई. 15 वीं शती। जिनदत्तचरितम् - ले. गुणभद्र । जैनाचार्य । ई.9 वीं शती। जिनशतकम् - ले.समन्तभद्र। जैनाचार्य। ई. प्रथम शती। पिता- शान्तिवर्मा। जिनसहस्रनामटीका - ले. श्रुतसागरसुरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। जीरापल्ली-पार्श्वनाथस्तवनम् - ले. पद्मनन्दी। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। इस स्तोत्र में पद्म नामक 10 अध्याय हैं। जीवच्छ्राद्धप्रयोग - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वरभट्ट। जीवनतत्त्वप्रदीपिका - ले. तृतीय नेमिचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। जीवनसार - लेखक- श्रीराम वेलणकर। अपने गुरु भारतरत्न डा.पाण्डुरंग वामन काणे का, अमृत महोत्सव के उपलक्ष में, चरित्र वर्णन । मराठी के पुराने और नए छन्द इस में प्रयुक्त हैं। जीवन्धरचरितम् - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 वीं शती। जीवन्मुक्ति-कल्याणम् (नाटक) - ले. नल्ला दीक्षित (भूमिनाथ) ई. 17-18 वीं शती। कवि की प्रगल्भ अवस्था में लिखी हुई कृति। प्रथम अभिनय मध्यार्जुन प्रभु की यात्रा 114/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के अवसर पर हुआ। इस अध्यात्मपर प्रतीक नाटिका में शृङ्गार रस का पुट दिया है। कथासार- नायक जीव अपनी प्रौढा नायिका "बुद्धि" से खिन्न होकर 'जीवन्मुक्ति" की ओर आकृष्ट होता है। बुद्धि के पिता अज्ञानवर्मा अपने कामादि छह सेवकों को नियुक्त करते हैं कि जीव जीवन्मुक्ति की ओर प्रवृत्त न होने पाये। दयादि आठ आत्मगुण जीव को उन षड्रिपुओं से बचाने में कार्यरत होते हैं। भक्ति बुद्धि के पास जीवन्मुक्ति का चित्र ले जाती है, जिसे देख बुद्धि पहचानती है कि यही तो मेरी सखी है। फिर जीव का विवाह जीवन्मुक्ति के साथ होता है। जीवयात्रा - अनुवादक- महालिंगशास्त्री। शेक्सपियर के मैकबेथ नाटक का अनुवाद। जीवसंजीवनी (रूपक) - ले. वेंकटरमणाचार्य (श. 20) सन 1945 में प्रकाशित प्रतीक रूपक। इसमें नायक जीव, और नायिका संजीवनी औषधि है। नाटक के माध्यम से आयुर्वेद के तत्त्व विशद किए हैं। जीवसिद्धि - ले. समन्तभद्र । जैनाचार्य । ई. प्रथम शती अन्तिम भाग। पिता- शान्तिवर्मा। जीवानंदनम् - एक प्रतीक-नाटक। ले. आनंदराय मखी। ई. 18 वीं शती के दाक्षिणात्य पंडित। सात अंकों वाले इस नाटक में पांडुरोग, उन्माद, कुष्ठ, गुल्म, कर्णमूल आदि रोगों को पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सुदृढ शरीर में ही सुदृढ मन का वास होता है, और उन्हीं के द्वारा आत्मकल्याण साध्य हुआ करता है, यह बात पाठकों व दर्शकों को बताना ही इस नाटक का उद्देश्य है। जीवितवृतान्त - ले.चन्द्रभूषण शर्मा। विषय- आचार्य बेचनराम का चरित्र। जैत्रजैवातृकम् (रूपक)- ले. नारायण शास्त्री। 1860-1911 ई.। वाणी मनोरंगिणी मुद्राक्षर शाला, पुंगनूर से प्रकाशित। सम्पादक- नारायण राव। विषय- सूर्यद्वारा चन्द्र पर विजय की कथा । अन्त में दोनों समान रूप से रात्रि के प्रणयी बताए हैं। जैनमतभंजनम् - ले. कुमारिल भट्ट। ई. 7 वीं शती। जैनमेघदूतम् - कवि- मेरुतुंगाचार्य। समय ई. 14 वीं शती। "जैनमेघदूत' में जैन आचार्य नेमिनाथजी के पास उनकी पत्नी राजीमती के द्वारा प्रेषित संदेश का वर्णन है। जब नेमिनाथजी मोक्षप्राप्ति के लिए घरद्वार त्याग कर रैवतक पर्वत पर चले गए तो उस समाचार को प्राप्त कर उनकी पत्नी मूर्छित हो गयी। उन्होंने विरह से व्यथित होकर अपने प्राणनाथ के पास संदेश भेजने के लिये मेघ का स्वागत व सत्कार किया। सखियों ने उन्हें समझाया और अंततः वे वीतराग होकर मुक्तिपद को प्राप्त कर गईं। छंदों की संख्या 196 है। संपूर्ण काव्य को 4 सों में विभक्त किया गया है। अलंकारों की भरमार व श्लिष्ट वाक्यरचना के कारण प्रस्तुत काव्य दुरूह हो गया है। इसका प्रकाशन जैन आत्मानंद सभा भावनगर से हो चुका है। जैन शाकटायन-व्याकरणम् - रचयिता- पाल्यकीर्ति । जैनाचार्य । इसमें वार्तिक इष्टियां नहीं हैं। इंद्र-चन्द्रादि आचार्यों के आधार पर केवल सूत्र हैं। इसने अपनी रचना में प्रक्रियानुसारी रचना का सूत्रपात किया है। आगे चल कर इसके कारण व्याकरण शास्त्र दुरूह हो गया। पाल्यकीर्ति ने स्वयं अपने शब्दानुशासन की वृत्ति लिखी है। नाम- अमोघा वृत्ति। यह अत्यंत विस्तृत है (18000 श्लोक)। श्रीप्रभाचन्द्र ने अमोघावृत्ति पर न्यास नाम की टीका रची है। जैनेन्द्र व्याकरण पर न्यास टीका करने वाला प्रभाचन्द्र यही है या अन्य यह विवाद्य है। न्यास के केवल दो अध्याय उपलब्ध हैं। जैनेन्द्रप्रक्रिया - ले. वंशीधर। इसके उत्तरार्ध में धातुपाठ की व्याख्या है। जैनेन्द्रव्याकरणम् - रचयिता देवनन्दी। अपर नाम पूज्यपाद तथा जिनेन्द्र। इसके दो संस्करण हैं। औदीच्य 3000 सूत्र, 2) दाक्षिणात्य, 3700 सूत्र। औदीच्य के संस्करण की वृत्ति में वार्तिक हैं जो दाक्षिणात्य संस्करण मे सूत्रान्तर्गत हैं। औदीच्य संस्करण पूज्यपाद कृत मूल ग्रंथ है तथा दाक्षिणात्य संस्करण परिष्कृत रूपान्तर है। अल्पाक्षर संज्ञाएं इसका वैशिष्ट्य है। परंतु जैनेन्द्र व्याकरण का लाघव शब्दकृत होने से वह क्लिष्ट है। पाणिनीय लाघव अर्थकृत है। इसका आधारभूत शास्त्र पाणिनीय तन्त्र है। चान्द्रव्याकरण से भी साहाय्य लिया है। औदीच्य संस्करण की वृत्तियों के लेखक देवनन्दी (जैनेन्द्र-न्यास) अभयनन्दी (महावृत्ति) प्रभाचन्द्राचार्य शब्दाम्भोज-भास्करन्यास महती व्याख्या), महाचन्द्र (लघु जैनेन्द्रवृत्ति ) आर्य श्रुतकीर्ति (पंचवस्तुप्रक्रिया ग्रंथ) तथा वंशीधर (जैनेन्द्रप्रक्रिया)। दाक्षिणात्य संस्करण का नाम शब्दार्णव व्याकरण है। शब्दार्णव का व्याख्यान सोमदेव सूरि (चन्द्रिका) तथा अज्ञात लेखक द्वारा (शब्दार्णव) हुआ है। जौमर व्याकरण- परिशिष्ट - रचयिता- गोपीचंद्र औत्यासनिक । जुमरनन्दी के जौमेर व्याकरण के खिलपाठ पर भी टीका रचित है। लन्दन में हस्तलेख सुरक्षित है। गोपीचन्द्र की टीका के व्याख्याकार हैं : 1) न्यायपंचानन, 2) तारक-पंचानन (दुर्घटोद्घाट) 3) चन्द्रशेखर विद्यालंकार, 4) वंशीवादन, 5) हरिराम, 6) गोपाल चक्रवर्ती। इस व्याकरण का प्रचलन पश्चिम बंगाल में विशेष है। जैमिनीयब्राह्मणम् - यह “सामवेद" का ब्राह्मण है, जो पूर्ण रूप से अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। यह ब्राह्मण विपुलकाय व योगानुष्ठान के महत्त्व का प्रतिपादक है। डॉ. रघुवीर द्वारा संपादित यह ब्राह्मण, 1954 ई. में नागपुर से प्रकाशित हो चुका है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 115 For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानदीपविमर्शिनी रची। पटल- 25 | विषय- गुरुध्यान, मन्त्रध्यान, स्नानादि, द्वारपालार्चन, चक्रोद्धार, अर्कसाधन, याग, मन्त्रोद्धार, न्यास, अन्तास, पीठार्चन, सामान्यार्घपात्रविधि, ध्यानपद्धति, चक्रार्चन, पूजा, जप, होम, स्तोत्र, उशनारोपण, काम्यसाधन, दीक्षा और पारम्पर्यचर्या । इस ग्रन्थ का मुध्य आधार वामकेश्वरतन्त्र जैमिनीसूत्रभाष्यम् - ले. कुमारिल भट्ट। ई. 7 वीं शती। विषय- मीमांसादर्शन। जैमिनीय शाखा (सामवेदीय) - जैमिनीय शाखा के संहिता, ब्राह्मण, श्रौत सूत्र और गृह्य सूत्र सभी अंश मिलते हैं। जैमिनीय गानों की सामसंख्या निम्नलिखित है : ग्रामगेय-गान1232। आरण्यगान- 291 । ऊहगान- 1802। ऊह्य रहस्यगान356। जैमिनीय सामगानों की कुलसंख्या 3681 है। अर्थात् कौथुम शाखा की अपेक्षा जैमिनीय शाखा के गानों में 959 साम अधिक हैं। जैमिनी ब्राह्मण को तलवकार ब्राह्मण भी कहा जाता है। जैमिनी शाखा का ब्राह्मण वर्ग तामिलनाडू के तिन्नेवल्ली जिला में एवं कर्नाटक में भी मिलता है। जोगविहारकल्पद्रुम - ले. राधाकृष्णजी। ज्ञानकलिका - ले. मत्स्येन्द्रनाथ। कौलमत का ग्रंथ । ज्ञानकारिका - पटल-3, श्लोक- 225 । यह शैव तन्त्र है। ज्ञानचन्द्रोदय - ले. गोवर्धन तांत्रिक। श्लोक 1600। यह शाक्त तन्त्र है। ज्ञानचन्द्रोदयम् (लाक्षणिक नाटक) - ले. पद्मसुन्दर। ई. 16 वीं शती। ज्ञानतन्त्रम् - 1) महादेव-नारद संवादरूप। परिच्छेदों के अनुसार इसमें प्रतिपादित विषय- 1) गुरुपरीक्षा, 2) चराचर विषयों के ज्ञान का उपाय, 3) मुक्ति और नर्क के अधिकारी, 4) पूजा, होम, बलिदान इ. प्रतिपादन, 5) मन्त्रों की उत्पत्ति का निरूपण, 6) मन्त्र-शोधन की विधि, 7) मन्त्रशापोद्धार, पूजाप्रकार ई. 8) किस मन्त्र के प्रभाव से नागराज शेष पृथ्वी धारण करते हैं, इस प्रश्न का उत्तर, और 9) मन्त्रों का गन्धर्वशापमोचन। 2) यह पार्वती-ईश्वर संवादरूप। विषय- तत्त्वज्ञान का स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपाय, एकाक्षर आदि मन्त्रों का कथन, मन्त्रोद्धार साधन, महाविद्याओं के स्वरूप, उनके अंगसंस्थानों का कथन, बाल मन्त्र के अंगों का निर्णय, भुवनेश्वरी विद्या का निरूपण, उनके मन्त्रों के अंगों का निरूपण, त्रिवर्गसाधनी-विद्या का निर्देश त्रिपुराविद्या का प्रतिपादन, अन्नपूर्णा, महात्रिपुरसुन्दरी तथा काली के मंत्रांगों का निर्णय, गुरु-निरूपण, मंत्रसिद्धि के उपाय इ. ज्ञानतिलक (नामान्तर- कालज्ञानतिलक) - शिव-कार्तिकेय संवादरूप पटल- 8। श्लोक 199 | विषय- परम ज्ञान का प्रतिपादन। ज्ञानदीपक - 1) ले. विद्यानन्दनाथ (देव) । ज्ञानदीप-विमर्शिनी का एक अंश। विषय- त्रिपुरसुन्दरी की पूजाविधि। ज्ञानदीपक - 2) ब्रह्मदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। ज्ञानदीपविमर्शिनी - ले. परमहंस विद्यानन्दनाथ देव। उन्होंने वामकेश्वरानाय उड्डीशरूप महासागर के आधार पर यह ज्ञानमार्जनतन्त्रम्- उमा-महेश्वर संवादरूप। विषय- ब्रह्मज्ञान का उपाय, अठारह विद्याओं का वर्णन, और शांकरी विद्या की गुप्तता का प्रतिपादन, अध्यात्मविद्या का स्वरूप निर्देश, त्रिदण्डी आदि का सिद्धान्त कथन, शारीर तत्त्व-वर्णन, शरीर में चंद्र, सूर्य इ. का क्रमशः स्थान निरूपण, आहार, निद्रा सुषुप्ति के कारणों में शिव और शक्ति के स्वरूप का निर्देश, षट्चक्र, निरूपण, त्रिगुण, त्रिदेव इत्यादि का तत्त्व कथन। ज्ञानयज्ञ • तैत्तिरीय संहिता पर भाष्य। ले.- भास्कर भट्ट। ई. 15 वीं शती। ज्ञानयाथार्थ्यवाद - ले. अनंतार्य। ई. 16 वीं शती। ज्ञानवर्धिनी - सन 1959 में लखनऊ विश्वविद्यालय की ज्ञानवर्धिनी सभा द्वारा डॉ. सत्यव्रतसिंह के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित हुई। इसमें विश्वविद्यालय के छात्रों एवं प्राध्यापकों की रचनाएं ही प्रकाशित हुई हैं। ज्ञानसंकुली (या ज्ञानसंकुलतन्त्रम्) - शाम्भवीतन्त्रान्तर्गत । उमा-महेश्वर संवादरूप। वेदान्तसार सर्वस्व का उपदेश। प्रणव की प्रशंसा, स्थूल देहादि के लक्षण ई. ज्ञानसिद्धान्तचन्द्रिका - मूल बर्कले का "प्रिन्सिपल्स ऑफ ह्यूमन नॉलेज" नामक ग्रंथ। उसका यह अनुवाद काशी के किसी अप्रसिद्ध पण्डित ने किया है। ज्ञानसिद्धि - ले. इन्द्रभूति । बौद्ध पंडित। ज्ञानसूर्योदयम् (नाटक) - ले. वादिचन्द्रसूरि । ई. 16 वीं शती । गुजरात के कधूक नगर में सन 1582 ई. में रचना। कृष्णमिश्र के "प्रबोधचन्द्रोदय' तथा वेङ्कटनाथ के "संकल्पसूर्योदय" की परवर्ती कडी। बौद्धों तथा श्वेताम्बर जैनों का उपहास इस लाक्षणिक नाटक में किया है। प्रारंभ में प्रस्तावना के स्थान पर "उत्थानिका है। ज्ञानसेनस्य चित्रापीड महोदयं प्रति लेख:- मूल "डॉ. जॉनसन्स लेटर दू लॉर्ड चेस्टर फील्ड " नामक ग्रंथ का अनुवाद महालिंगशास्त्री ने किया है। ज्ञानाङ्कुरचम्पू - ले. लक्ष्मीनृसिंह । ज्ञानानन्दतरंगिणी - ले. शिरोमणि। श्लोक 2000। परिच्छेद - 8। विषय- गुरुशिष्यलक्षण, अकडमचक्र, आसनों के भेद, मालासंस्कार, पुरश्चरणविधि, योनिमुद्राविधान, महाविद्याओं का विवेचन, भगवतीतत्त्व-निर्णय तथा दुर्गोत्सव में प्रमाण, सर्वतोभद्र, मण्डल, दीक्षाविधि, सामान्यपूजाविधि, गायत्री आदि की पूजाविधि, मन्त्रोद्धार इ. 116/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानामृतरसायनम् - ले. गोरक्षणाथ। इस शाक्ततन्त्र विषयक ग्रंथ पर सदानन्द कृत टीका है। ज्ञानामृतसारसंहिता - 1) नारद पंचरात्र पर आधारित ग्रंथ।। इस ग्रंथ में यह बताया गया है कि श्रीकृष्ण की महत्ता तथा उनकी पूजाविधि जानने के लिये नारदजी भगवान् शंकर के पास जाते हैं। कैलास पर्वत पर सात द्वारों वाले शंकर भवन में वे प्रवेश करते हैं। इन द्वारों पर वृंदावन, यमुना, गोपियों के वस्त्र लेकर कदंब वृक्ष पर बैठे श्रीकृष्ण, नग्नावस्था में जल में स्नान कर बाहर निकली गोपियाँ, कालियादमन, गोवर्धन धारण, श्रीकृष्ण का मथुरागमन, गोपियों का विलाप आदि चित्र अंकित थे। इस संहिता में कृष्ण के निवासस्थान गोलोक के वर्णन के साथ ही कछ मंत्र भी दिये गये हैं जिनका जप करने से स्वर्गप्राप्ति होने की बात कही गयी है। इस ग्रंथ के सिद्धान्त आचार्य वल्लभ के पुष्टिमार्गी सिद्धान्तों से मिलते जुलते हैं अतः यह अनुमान निकाला गया है कि इसकी रचना ई. 16 वीं शताब्दी के पूर्व नहीं हुई होगी। 2) नारद-पंचरात्र का एक भाग। विषय- कृष्णस्तवराज, कृष्णस्त्रोत्र, कृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्र, गोपालस्तोत्र, त्रैलोक्यमंगलकवच, राधाकवच इ. ज्ञानार्णव (नित्यातन्त्र) - (1) देवी-ईश्वर संवादरूप। पटल23 | विषय- पटल 1 से 5 तक बाला के न्यास, ध्यान, पूजन, यजन ई., 6 से 8 तक पूर्व, द्वितीय तथा पश्चिम सिंहासन का विधान, 9 में पंचम सिंहासन का विधान, 10 से 14 वें तक त्रिपुरसुन्दरी के द्वादश भेद, षोडशी श्रीविद्या के न्यास, मुद्रा, पूजनप्रयोग इ. 15 वें से 23 वें पटल तक रत्नपुष्पा बीज सन्धान, त्रिपुरा के जप, होम, द्वितीय योगज्ञान, द्वितीय यागदीक्षा इ.। (2) ले. शुभचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती। ज्ञानेश्वरचरितम्- ले.- क्षमादेवी राव। सन्त ज्ञानेश्वर का चरित्र वर्णन क्षमादेवीकृत अंग्रेजी अनुवादसहित प्रकाशन । ज्ञानोदय - महेश्वर-विनायक संवादरूप। पटल 8। श्लोक500। विषय- हरिहर-पूजाप्रकार। ज्ञापकसमुच्चय - ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। विषय- पाणिनीय अष्टाध्यायी के ज्ञापक सत्रों का विवेचन। ज्युबिलीगानम् (संकलित)- महारानी व्हिक्टोरिया के हीरक महोत्सव प्रसंग पर उत्तर कनाडा जिले के कवियों की रचनाओं का यह संग्रह है। ज्येष्ठ जिनवरकथा - ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। ज्येष्ठजिनवरपूजा - ले. ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। ज्योत्स्रा - 1) गोपीनाथ भट्टकृत हिरण्यकेशि श्रौतसूत्र की टीका। 2) ब्रह्मानंद कृत हठयोग-प्रदीपिका की टीका। जोतिषसिद्धान्तसार - ले. मथुरानाथ । ज्योतिषाचार्याशयवर्णनम् - ले-नृसिंह (बापूदेव) ई. 19 वीं शती। ज्योतिर्गणितम् - ले-व्यंकटेश बापूजी केतकर । ज्योतिष्मती - (1) सन् 1939 में वाराणसी से महादेवशास्त्री तथा बलदेवप्रसाद मिश्र के सम्पादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह हास्यरस प्रधान पत्रिका थी। इसके कुछ अंकों में अश्लील रचनाएं भी प्रकाशित हुईं। इसके राजनीति विषयक निबन्धों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह पत्रिका लगभग ढाई वर्ष तक प्रकाशित हो सकी। (2) ले-ईश्वरोपाध्याय । ई.8 वीं शती। ज्योतिःसारोद्धार - ले-हर्षकीर्ति। ई. 17 वीं शती। ज्योतिःसारसमुच्चय - ले-नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। ज्योतिःसिद्धांतसार - ले-मथुरानाथ। पटना (बिहार) निवासी । ई. 19 वीं शती। ज्वरशान्ति - गर्गसंहिता में उक्त । श्लोक-38 | विषय-शरीरोत्पन्न, आमज्वर, पित्तज्वर, श्लेष्मज्वर इ. सब ज्वरों से निवृत्तिपूर्वक शीघ्र आरोग्य लाभ के लिए ज्वर के अधिपति महारुद्र के प्रीत्यर्थ गर्गसंहिता में उक्त नवग्रहयाग सहित ज्वरशान्ति । ज्वालमालिनीकल्प - ले-इन्द्रनन्दि । जैनाचार्य । विषय-मंत्रशास्त्र। ई. 10 वीं शती। 10 परिच्छेद और 372 पद्म । ज्वालापटल - रुद्रयामलान्तर्गत। विषय-ज्वालामुखी देवी के पूजा की पद्धति। ज्वालामुखीपंचांग - रूद्रयामलान्तर्गत । श्लोक-232 । ज्वालासहस्रनाम - रूद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप । विषय-देवी ज्वालामुखी के एक हजार नाम। ज्वालिनीकल्पः - ले-मल्लिषेण । जैनाचार्य । ई. 11 वीं शती। झंकारकरवीरतन्त्रम् - श्लोक-80001 विषय-चण्डकपालिनी की पूजा। झंझावृत्त - ले-वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य (श. 20)। शेक्स्पीयर लिखित टेम्पेस्ट पर आधारित रूपक। टीकासर्वस्वम् - ले-सर्वानन्द वंद्यघटीय । रचनाकाल सन् 1159 ईसवी। यह अमरकोश की टीका है। टिप्पणी (अनर्धराघव पर टीका) - ले-पूर्णसरस्वती। ई. 14 वीं शती। टिप्पणी (विवृति) - ले-विट्ठलनाथजी । भागवत की शुद्धाद्वैती व्याख्याओं की परंपरा, वल्लभाचार्यजी द्वारा "सुबोधिनी' नामक टीका से प्रारंभ होती है। उसके पश्चात् रचित व्याख्याओं में कुछ तो स्वतंत्ररूपेण टीकायें हैं और कुछ सुबोधिनी के गूढ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 117 For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिप्राय को अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से विरचित हैं । दूसरे प्रकार की टीकाओं में विट्ठलनाथजी की टिप्पणी या विवृति नितांत विश्रुत है। सुबोधिनी के गूढ स्थलों की सरल अभिव्यक्ति के लिये ही इसका प्रणयन हुआ था। यह टीका दशम् स्कंध पर 32 वें अध्याय तक, भ्रमर गीत, वेद-स्तुति एवं द्वादश स्कंध के कतिपय श्लोकों पर लिखी गई है। पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों का भागवत से समर्थन एवं पुष्टिकरण करने हेतु लिखी गई इस प्रगल्भ टीका में श्रीधरी तथा विशिष्टाद्वैती व्याख्याओं के अर्थ का स्थान-स्थान पर खण्डन किया गया है। ले- घनश्याम (ई. 1700-1750 ) डमरुकम् (प्रहसन ) तंजौरनरेश तुकोजी का मंत्री समाज की आत्मवंचनामयी प्रवृत्ति पर व्यंग | उदात्त प्रवृत्ति की प्रशंसा । अप्रचलित नाट्यशिल्प । दस अलंकार । प्रत्येक में लगभग दस श्लोक । संगीतमयी शैली, सन् 1939 में मद्रास से प्रकाशित । तकारादिस्वरूपम् श्रीबालाविलास- तन्त्रान्तर्गत। देवी-ईश्वर संवादरूप । श्लोक 312 विषय- तकरादिपदों से तारा देवी की स्तुति इस सहस्रनाम स्त्रोत्र का पुरश्चरण, फल इ. तक्ररामायणम् - ले. भैयाभट्ट । पिता- कृष्णभट्ट । रचना ई. 1628 में विषय- काशीस्थित राम का वर्णन । तटाटकापरिणयम् ले. म/म. गणपति शास्त्री, वेदान्तकेसरी । तत्त्वगुणादर्श - (चम्पू) ले. अण्णयाचार्य । समय- ई. 17-18 वीं शती पिता श्रीदास ताताचार्य पितामह अण्णयाचार्य, जो श्रीशैल - परिवार के थे। इस चंपू में जयविजय संवाद द्वारा शैव वा वैष्णव सिद्धान्तों के गुण-दोषों की चर्चा की गई है। तत्त्वार्थ-निरूपण एवं कवित्व चमत्कार दोनों का सम्यक् निदर्शन इस काव्य में किया गया है। तत्त्वचन्द्र - ले. जयन्त । शेषकृष्ण की प्रक्रियाकौमुदी की टीका । तत्त्वचिन्तामणि ले. पूर्णानन्द यति । सन 1577 में लिखित । प्रकाश 6। छठे प्रकाश के (जिसका नाम योगविवरण या षट्चक्रनिरूपण है) सन 1856, 1860 तथा 1891 में कलकत्ते से 3 संस्करण प्रकाशित हो चुके । तत्त्व- चिंतामणि - ले. गंगेश उपाध्याय । न्यायदर्शन के अंतर्गत नव्यन्याय नामक शाखा के प्रवर्तक तथा विख्यात मैथिल नैयायिक । इस ग्रंथ की रचना ने न्यायदर्शन में युगांतर का आरंभ किया और उसकी धारा ही पलट दी थी। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना 1200 ई. के आसपास हुई। इस ग्रंथ में 4 खंड हैं जिसमें प्रत्यक्षादि 4 प्रमाणों का पृथक् पृथक् खंडों में विवेचन है। मूल ग्रंथ की पृष्ठसंख्या 300 है पर इस पर रची गई टीकाओं की पृष्ठसंख्या 10 लाख से भी अधिक मानी जाती है। इस पर पक्षधर मिश्र (13 वें शतक का अंतिम चरण) ने "आलोक" नामक टीका की रचना की है। गंगेश के पुत्र वर्धमान उपाध्याय ने भी अपने पिता की इस कृति पर टीका लिखी है जिसका नाम "प्रकाश" है । 118 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड तत्त्वचिन्तामणि- आलोक - विवेक- ले. रघुदेव न्यायालंकार । तत्त्वचिन्तामणि- टीका ले. भवानन्द सिद्धान्तवागीश । तत्त्वचिन्तामणि- टीकाविचारले. हरिराम तर्कयागीश । तत्त्वचिन्तामणि- दर्पण ले. रघुनाथ शिरोमणि । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिगृहार्थविद्योतनम् ले. जयराम - - न्यायपंचानन । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिटीका ले रामभद्र तर्कवागीश। तत्त्वचिन्तामणि दीधितिपरीक्षा - ले. रुद्र न्यायवाचस्पति । तत्त्वचिन्तामणि- प्रकाशटीका ले. धर्मराजाध्वरीण । तत्त्वचिन्तामणि- दीधितिप्रकाशिका ले. सिद्धान्तवागीश (2) ले. गदाधर भट्टाचार्य । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रकाशिका (जागदीशी) जगदीश तकलंकार । तत्त्वचिन्तामणिदीधितिप्रसारिणी भट्टाचार्य । तत्त्वचिन्तामणि- मयूख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only - भवानन्द - ले. जगदीश तर्कालेकार । तत्त्वचिन्तामणिरहस्यम् ले. मथुरानाथ तर्कवागीश । तत्त्वचिन्तामणिव्याख्या से गदाधर भट्टाचार्य तत्त्वज्ञानतरंगिणी - ले. ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । तत्त्वत्रयप्रकाशिका - ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं शती । तत्त्वदीपनम् - रचयिता- अखण्डानन्द सरस्वती श्रीमत्शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त की इसमें चर्चा की गयी है। तत्त्वदीपिका (1) ले. सदानन्दनाथ । अष्टाध्यायी की वृत्ती । (2) ले. रामानन्द । सिद्धान्त कौमुदी की हलन्त स्त्रलिंग प्रकरण तक व्याख्या । ले. ले. कृष्णदास सार्वभौम तत्त्व-दीपिका से श्रीनिवास ई. 19 वीं शती पूर्वार्ध - सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से भागवत के दो स्थल विशेष महत्त्व रखते हैं। प्रथम है- ब्रह्मस्तुति ( भाग- 10-14 ) तथा द्वितीय है वेद-स्तुति ( भाग 10-87) | प्रस्तुत तत्त्व दीपिका इन दोनों स्तुतियों के तत्त्वों की दीपन करने वाली है तथा अपनी पुष्टि में श्रुतियों के वाक्यों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख करती है। इस टीका में विशिष्टद्वैत के द्वारा उद्भावित दार्शनिक तथ्यों का निर्धारण भागवत के पद्यों से बड़ी गंभीरता के साथ किया गया है। इस टीका के प्रणेता श्रीनिवास सूरि गोवर्धन स्थित पीठ के अधिपति श्री रंगदेशिक के गुरु थे। प्रस्तुत टीका प्रकाशित हो चुकी है और उपलब्ध भी है। वेदस्तुति टीका के आरंभ में स्पष्टतया कहा गया है कि सुदर्शनसूरि की लघुकाय व्याख्या को विस्तृत करने के उद्देश्य से प्रस्तुत टीका का प्रणयन किया गया है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तत्त्वदीपिका - ले. चित्सुखाचार्य । ई. 13 वीं शती । विषयअद्वैत वेदान्त तत्त्वप्रकाश ले. ज्ञानानन्द ब्रह्मचारी । कल्प 12 प्रथम कल्प (अपर नाम कुलसंगीता ) 5 विरामों में पूर्ण है। बहुत से तन्त्रों का अवलोकन कर ग्रन्थकार ने शाक्तों के आनन्द के लिए इस ग्रंथ का 1808 ई. में निर्माण किया । ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा है कि मैं आत्मतत्त्व के प्रबोध तथा भ्रमविनाश के लिए इस ग्रंथ के प्रथम कल्प में कुलसंगीता का प्रतिपादन करता हूं। तत्त्व - प्रकाशिका माध्वमत की गुरुपरंपरा में 6 वें गुरु जयतीर्थ इस ग्रंथ के प्रणेता हैं। मध्वाचार्य रचित ब्रह्मसूत्र भाष्य की यह प्रौढ टीका मूल भाष्य के भावों को स्पष्ट करती हुई अनेक तर्क- युक्तियों को अग्रेसर करती है। इस पर रची गई व्याख्याएं प्रस्तुत ग्रंथ के महत्त्व तथा प्रामाण्य की बलवती निदर्शक है। अपने गुणों के कारण इस टीका ने पूर्व व्याख्याकारों को विस्मृत करा दिया। इसमें मंडन ही अधिक है। पर पक्ष का खंडन कम है। 1 तत्त्वप्रकाशिका ले. केशव काश्मीरी, ई. 13 वीं शती । गीता का निवार्कमतानुयायी भाष्य । तत्त्वप्रकाशिका (वेदस्तुति) - ले. केशवभट्ट काश्मीरी। तत्त्वप्रदीप ले. त्रिविक्रम पंडित । ई. 13 वीं शती । पिता सुब्रहमण्यभट्ट | तत्त्वप्रदीपिका ले. राधामोहन । गौतमीयतन्त्र पर टीका । तत्त्वबोध ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । - - - - www.kobatirth.org तत्त्वबोधिनी (1) नामान्तर श्री तत्त्वबोधिनी । ले. कृष्णानन्द जिज्ञासु । कल्प 15 | विषय - कल्प 1 में गुरुस्तोत्र, कवच । 2 में नित्य कर्मों का अनुष्ठान, पूजा ई. । 3 में शिवपूजा विधान 4 में पूजा के आधार तथा न्यासविवरण । 5 में साधारण पूजा। 6 में जपरहस्य । में पंचांग, पुरश्चरण । 8 में ग्रहण - पुरश्चरण इ. विवरण। 9 और 10 में होम का विवरण 11 में कुमारी पूजा इ. । 12 में षट्चक्रविधि, इ. । 13 में शान्ति, वश्य इ. षट्कर्म। 14 में शान्तिकल्प विधान । 15 में आथर्वणोक्त ज्वरशान्ति । तत्त्वबोधिनी (टीका) ले. ज्ञानेन्द्र सरस्वती। यह प्रायः प्रौढमनोरमा का संक्षेप है इनके शिष्य नीलकण्ठ वाजपेयी ने तत्त्वबोधिनी पर गूढार्थदीपिका नाम की व्याख्या लिखी है। इसी नीलकण्ठ ने महाभाष्यपर भाष्यतत्त्वरविवेक, सिद्धान्तकौमुदी पर सुखबोधिनी (अपरनाम व्याकरण- सिद्धान्तरहस्य) तथा परिभाषावृत्ति इन ग्रंथों की रचना की है। - - तत्त्वबोधिनी ले. महादेव विद्यावागीश । शंकराचार्य कृत आनन्दलहरी की टीका । रचनाकाल 1605 ई. । तत्त्वबोधिनी ले. नृसिंहाश्रम ई. 16 वीं शती - I तत्त्वमसि (रूपक) ले श्रीराम वेलणकर "सुरभारती" भोपाल से 1972 में प्रकाशित। एकांकी रूपक । छान्दोग्य उपनिषद् की वेतकेतु को आरुणी द्वारा दी गयी "तत्त्वमसि " की शिक्षा रूपकायित । कुलपात्र आठ । गीतसंख्या चार । तत्त्वमुक्तावलि ले नंदपंडित ई. 16-17 वीं शती । तत्त्वयोगबिन्दु ले. रामचन्द्र । विषय- राजयोग के क्रियायोग, ज्ञानयोग, चर्यायोग, हठयोग, कर्मयोग, लययोग, ध्यानयोग, मन्त्रयोग, लक्ष्ययोग, वासनायोग, शिवयोग, ब्रह्मयोग, अद्वैतयोग, राजयोग, और सिद्धयोग, नामक 15 भेदों का प्रतिपादन । तत्त्व-विवेक ले मध्वाचार्य द्वैत मत प्रतिपादक एक दार्शनिक निबंध । इसमें द्वैत मत के अनुसार पदार्थों की गणना और वर्गीकरण है। इसी प्रकार मध्वाचार्य ने भी तत्त्व - संख्यानम् नामक ग्रंथ में द्वैत मत के अनुसार पदार्थों की गणना एवं वर्गीकरण किया है । तत्त्वसंख्यानम् उनके "दशप्रकरण" के अन्तर्गत संकलित 10 दार्शनिक निबंधों में से एक निबंध है। तत्त्वविवेकपरीक्षा ले. बापूदेव शास्त्री विषय ज्योतिषशास्त्र । (2) ले. नृसिंह। ई. 19 वीं शती तत्त्वविमर्शिनी पाणिनीय प्रत्याहारसूत्रों पर नन्दिकेश्वर ने जो काशिकावृत्ति लिखी थी उस पर उपमन्यु ने लिखी हुई यह टीका है। उपमन्यु ने इन्द्र को धातुपाठ का प्रथम प्रवक्ता माना है। तत्त्वशतकम् ले. डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा, भूतपूर्व निदेशक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान अजमेर निवासी। हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित विषय श्रम का महत्त्व । तत्त्वसंख्यानम् (देखिए - तत्त्वविवेक) ले. मध्वाचार्य (ई. 12-13 वीं श) द्वैत मत विषयक ग्रंथ । तत्त्वसंग्रह ले. सोज्योति शिवाचार्य श्लोक 300 इसके ज्ञान, क्रिया और योग नामक तीनपाद हैं। विषय- शैवतन्त्र । तत्त्वसंग्रह - ले. शान्तरक्षित । ब्राह्मणों तथा बौद्धों के अन्यान्य सम्प्रदायों की कटु आलोचना इस में की है। इनके शिष्य कमलशील ने ग्रंथ पर टीका की है। लेखक ने दिङ्गनाग, धर्मकीर्ति आदि महान बौद्ध आचार्यों तथा उनके सिद्धान्तों की कड़ी आलोचना की है। न्याय मीमांसा, स्वख्य का खण्डन किया है। यह ग्रंथ, लेखक की अलौकिक प्रतिभा तथा पाण्डित्य का परिचायक है। कमलशील की व्याख्या सहित इस ग्रंथ का सम्पादन ए. कृष्णमाचार्य द्वारा हुआ है। तत्त्वसंग्रहदीपिका टिप्पणी ले. रामचन्द्र तर्कवागीश तत्त्वसंग्रहपत्रिका ले. कमलशील। बौद्धाचार्य । ई. 8 वीं शती। मूलग्रंथ अप्राप्य। केवल तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। शांतरक्षित नामक बौद्धाचार्य के तत्त्वसंग्रह नामक ग्रंथ पर लिखी हुई टीकाओं का सार इस ग्रंथ में संकलित किया है। तत्त्वसद्भावतन्त्रम् - देवी भैरव संवादरूप। यह तन्त्र दक्षिणाम्नाय से सम्बद्ध है अर्थात् इसका प्रतिपादन शिवजी ने अपने मुख 1 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 119 For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org से किया है जो दक्षिणामुख था । यह भैरवस्तोत्र कहा गया है क्यों कि वक्ता भैरव हैं और उन्होंने अपना कथन तब आरंभ किया जब ब्रह्मा का मस्तकस्थित सिर काटकर अपने मस्तक पर रख लिया था। संख्या 7 करोड़ कही गई है। अर्थात् 7 करोड श्लोक हैं या शब्द इसका निश्चय नहीं । महादेवजी ने वाम दक्षिण इ. जो तंत्र और यामल कहे हैं, उनमें भिन्न-भिन्न विषय कहे हैं पर इसमें केवल ज्ञान का प्रतिपादन है I तत्त्वसंदर्भ-- श्रीमद्भागवत की टीका लेखक- जीव गोस्वामी। यह टीका भागवत का मार्मिक स्वरूप विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इसमें भागवत की प्राचीन टीकाओं के अंतर्गत हनुमद्भाष्य, वासनाभाष्य, संबोधोक्ति, विद्वत्कामधेनु, तत्त्व-दीपिका, भावार्थ दीपिका, परमहंस - प्रिया तथा शुकहृदय नामक भागवत से संबंधित ग्रंथों का निर्देश किया गया है। तत्त्वसमास - ले. कपिल। सांख्यसूत्रकार से भिन्न व्यक्तित्व । तत्त्वसार ( 1 ) - ले. भट्पल्ली राखालदास । (2) ले. देवसेन । जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती । तत्त्वसार ( नामान्तर - योगसार ) - आनन्दभैरव आनन्द भैरवी संवादरूप । पटल 10। यह तत्त्वसार अर्थात् योग का सार सब शास्त्रों में परमोत्तम तथा सब तन्त्रों में प्रधान माना जाता है। तत्त्वानन्दतरंगिणी - ले. पूर्णानन्द । उल्लास 7 । श्लोक 350 1 तत्त्वानुशासनम् ले. रामसेन। जैनाचार्य ई., 11 वीं शती । 259 पद्य। (1) ले. समन्तभद्र । जैनाचार्य। पिता- शांतिवर्मा ई. प्रथम शती । तत्त्वामृतरंगिणी - ले. कुलानन्दनाथ । श्रीनाथशिष्य । 7 तरंग । श्लोक 700 रचना 1660 शकाब्द में विषय- गुरुशिष्य लक्षण, जीव-चित्त संवाद छह आन्नायों का विवेचन, प्रकृति और पुरुष का अभेद निरूपण, आत्मविवेक इ. तत्त्वार्थचिन्तामणि ले. वसुगुप्त । तत्त्वार्थटीका ले. सिद्धसेन दिवाकर। ई. 5 वीं शती । तत्त्वार्थदीपनिबंध - ले. वल्लभाचार्य पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक । इसमें शास्त्रार्थ, सर्व निर्णय तथा भागवतार्थ - प्रकरण और उनकी टोका है। तत्त्वार्थवार्तिकम् (सभाष्य) ले. अकलंकदेव जैनाचार्य ई. 8 वीं शती। टीकाग्रन्थ । तत्त्वार्थवृत्ति - श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य ई. 16 वीं शती । तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरणम्- (सर्वार्थसिद्धिव्याख्या) ले. प्रभाचन्द्र जैनाचार्य । समय- ई. 8 वीं शती । (2) ई. 11 वीं शती। दो मान्यताएं । तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) ले देवनन्दी पूज्यपाद जैनाचार्य माता श्रीदेवी पिता- माधवभट्ट । 1 120 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड तत्त्वार्थालोकवार्तिक शती। टीका ग्रंथ | I तत्त्वार्थसार ले. अमृतचंद्र सूरि। ई 9-10 वीं शती । जैनाचार्य । तत्त्वार्थसारदीपकले. सकलकीर्ति जैनाचार्य ई 14 वीं शती । पिता कर्णसिंह माता शोभा । अध्याय 12 तत्त्वार्थसूत्रम् (तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ) ले. उमास्वाति या उमास्वामी । जैन दर्शन के मगध निवासी आचार्य । इन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ का प्रणयन विक्रम संवत् के प्रारंभ में किया था। इन्होंने स्वयं ही अपने इस ग्रंथ पर भाष्य लिखा है। यह जैन-दर्शन के मंतव्यों को प्रस्तुत करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ पर अनेक जैनाचार्यों ने वृत्तियों व भाष्यों की रचना की है इनमें पूज्यपाद देवनंदी, समंतभद्र, सिद्धसेन दिवाकर भट्ट अकलंक व विद्यानंदी प्रसिद्ध हैं। इस ग्रंथ का महत्त्व दोनों ही जैन संप्रदायों (श्वेतांबर दिगंबर) में समान है। इस ग्रंथ के प्रणेता उमास्वाति को दिगंबर जैनी उमास्वामी कहते हैं। इस ग्रंथ के द्वारा जैन सिद्धान्त सर्वप्रथम सूत्रबद्ध हुए। जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का मार्मिक विवेचन इस ग्रंथ में है। For Private and Personal Use Only - - - 2) ले. बृहत्प्रभाचन्द्र। जैनाचार्य । यह ग्रंथ गृद्ध पिच्छाचार्य के तत्त्वार्थ पर आधारित है। तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति - ले. भास्करनन्दी । जैनाचार्य । ई 14-15 वीं शती । तत्त्वोद्योत ले. मध्वाचार्य। ई 12-13 वीं शती विषयद्वैतमत का प्रतिपादन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले. विद्यानन्द । जैनाचार्य। ई 8-9 वीं - - 1 तथागतगुह्यकतंत्रम् (गुह्यसमाजतंत्रम्) मंजुश्रीमूलकल्प, सद्धर्मपुंडरीक आदि बौद्ध तांत्रिक ग्रंथों के पश्चात् रचित एक महत्त्वपूर्ण तांत्रिक ग्रंथ ईसा की चौथी शताब्दी के पहले इस ग्रंथ की निर्मिति हुई। इस ग्रंथ में शून्यवाद एवं विज्ञान के अधिष्ठान पर तांत्रिक बौद्धमत के स्वरूप का निर्धारण किया प्रतीत होता है। तदतीतमेवले. अन्नदाचरण तर्कचूडामणि (जन्म सन 1852) देशभक्तिपर काव्य । तनयो राजा भवति कथं मे ले. श्रीराम वेलणकर सुरभारती भोपाल से सन 1972 में प्रकाशित रेडिओ नाटक । पात्रसंख्या छह । गीतसंख्या चार विषय- जातककथा में वर्णित रानी धनपरा की स्वार्थपरता । तन्त्रकोष ले. वीरभद्र । विषय- अकार आदि मातृका वर्णों का यथायोग्य अर्थ । तन्त्रकौमुदी ले. देवनाथ ठक्कुर तर्कपंचानन । गोविन्द ठक्कर के पुत्र । ये कूचबिहार के राजा मल्लदेव नरनारायण के सभापण्डित थे। श्लोक- 2485 विषय तन्त्रशास्त्र का प्रामाण्यस्थापन दीक्षाकाल, कलावती दीक्षादिविधि, दीक्षित के Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नियम, दीक्षा में पूजाविधि, पुरश्चर्यादिविधि, आसन आदि की मुद्राओं के लक्षण, जपमाला, उपविधि, विविध मन्त्रों का कौलयोगविधि, कौलों को अहिकविधि भूतशुद्धि प्रकार मातृकादिन्यासविधि अन्तर्यागविधि षट्कर्मविधि निरूपण इ. www.kobatirth.org 2) हर-गौरी संवादरूप। श्लोक- 4412। विषय- ब्रह्मनिरूपण, कालिका ही ब्रह्म है यह कथन, मतभेद से 27 प्रकार की महाविद्याओं का कथन, पूर्व पश्चिम आदि भेद से छह आम्नायों का वर्णन, उनकी उत्पत्ति और विभाग, काली के मूर्तिग्रहण की कथा, उग्रतारा, नीलसरस्वती आदि के रूप धारण का विवरण, विद्यामाहात्म्य, जगत्सृष्टि प्रकरण, शिवशक्त्यात्मक तीन गुणों से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की उत्पत्ति, 50 वर्णरूपा देवी के शरीर से माधव, गोविंद कृष्ण आदि की उत्पत्ति, कीर्ति, कान्ति, लज्जा, लक्ष्यी इत्यादि की उत्पत्ति, पृथ्वी की उत्पत्ति, धर्म और अधर्म, स्थावर जंगम आदि की सृष्टि इ. तन्त्रगन्धर्व ले. दत्तात्रेय । श्लोक 4575 पटल 42 । विषयमहादेवजी का देवीजी से गौतमोल शास्त्र को अग्राह्यता का कथन, शक्तिमंत्र, पंचमी विद्या का माहात्म्य, त्रिपुराकवच, त्रिपुरासुन्दरी के मंत्र, त्रिपुरादेवी की पूजा, षोडश मातृकान्यास, करशुद्धि, षोडशोपचारपूजा, सांगबहिर्यागविधान, खेचरी इ. विविध मुद्रा, पूजोपचार, मद्यविशेष, प्रकटादि शक्तिविशेष की पूजा, जपविधान, बटुकादि विधान, शोषिका देवी की पूजाविधि, कुमारीपूजा और उसका फल, गुरुशिष्य- लक्षण, दीक्षाविधि, पुण्यक्षेत्रादि का निरूपण, पुरश्चरणविधि, मुद्राधारणविधि, हंसमंत्रजप, होमविधि, पूजाधिष्ठान, कुलाचारादि रात्रि में शक्तिविशेष की पूजा, कुलपूजा इ. । - तन्त्रचन्द्रिका ले. रामचन्द्र चक्रवर्ती 1) श्लोक 4064 | 2) ले रामगति सन तन्त्रचिन्तामणि ले. नेपालनरेश के अमात्य नवमीसिंह । श्लोक 3000 | इसमें 40 प्रकाश हैं। विषय- अनेक तन्त्रग्रंथों के नाम, उनकी उत्पत्ति, सत्ययुग आदि के भेद से पृथक्-पृथक् मार्ग, आगमों की श्रेष्ठता सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम, कालिका और कृष्ण, तारा और राम की एकरूपता, दश विद्याओं का निर्णय, शिव और शक्ति की उपासना, श्यामा की सर्वमूलता ई. । तन्त्रचूडामणि श्लोक- 66 । विषय- 51 पीठों का वर्णन । तन्त्रदर्पण ले. सच्चिदानन्दनाथ वास्तव में इसके रचयिता रघुनाथ थे। ये सच्चिदादनन्द के शिष्य माने जाते हैं। तदीपनी ले. रामगोपाल शर्मा गुरु-परम निरंजन काशीनाथानन्दनाथ । निर्माणकाल संवत् 1626 वि. 11 उल्लास । विषय- तत्त्वज्ञान आदि का विवेचन, सामान्यपूजा, विष्णु, सूर्य इ. के मंत्र, श्रीविद्या, पूजा इ. का प्रतिपादन, छियाप्रकरण, तारिणीप्रकरण, मंजुघोषा इ. के स्तोत्र, मंत्र, कवच इ. का विचार, पूजोपचार, विजयाकल्प इत्यादि । तन्त्रदीपिका (1) ले. श्रीगोपाल। पिता हरिनाथ । पितामह - आगमरागीश। श्लोक 11715 विषय- दीक्षा की आवश्यकता, सद्गुरुलक्षण, महाविद्या स्वरूप, सिद्धमन्त्रलक्षण, महादीक्षा और उपदेश में भेद, सर्वसाधारण नित्यपूजा विधि, आह्निककृत्य तन्त्रोक्त विधि से प्रातःकृत्य का निरूपण, प्राणायाम, पूजा में विहित और अविहित पुष्प, पूजा का अधिकरण, नैमित्तिक, काम्य आदि पूजाविधियां, परमयगोगियों की मोक्ष पूजाविधि, जपादिविधि, अन्तःपूजा ( मानसपूजा) विधि, नौ प्रकार के कुण्डों का निरूपण, कुण्डों का विशेष फल, काम्य होम के लिए कुण्ड, होम-विधि, जपमाला, चन्द्र और सूर्य ग्रहण के अवसर पर किये जाने वाले पुरश्चरण मंत्रों के विविध संस्कारों की विधि, सर्वतोभद्र मण्डल का निरूपण ई. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2) विषय- दीक्षा शब्द के अर्थ का विवेचन, सब आश्रमों में दीक्षा की आवश्यकता, गुरु शब्द का अर्थ, गुरु के लक्षण, दोषमुक्त गुरु और तत्प्रदत्त मन्त्र, शिष्य-लक्षण, निषिद्ध शिष्य लक्षण, महाविद्याओं का निर्देश, पिता आदि से मन्त्र - ग्रहण का निषेध, निर्बीज मन्त्र के लक्षण इ. । स्वप्रलब्ध मन्त्र की विशिष्टता इ. । 3 ) ( उत्तरतन्त्र के उत्तरकल्पान्तर्गत) ले. मुकुन्द शर्मा । देवो-ईश्वर संवादरूप। श्लोक 875 विषय- गुरुलक्षण, मन्त्रत्यागनिन्दा, गुरु शिष्य के लक्षण, दीक्षा लक्षण, शूद्रदीक्षा का निषेध, दीक्षा की प्रशंसा, सिद्धविद्या, कुलाकुल चक्र, राशिचक्र, नक्षत्रचक्र, अकथहचक्र, वैदिक मन्त्र का त्याग, अकडमचक्र, ऋणी धनी चक्र, दीक्षाकाल गालानिर्णय, आसनभेद, मालासंस्कार, पुरश्चरण, भक्ष्य-नियम, पुरश्चरण, प्रयोग, ग्रहण- पुरश्चरण, मन्त्र - संस्कार अभिषेकमंत्र, संक्षेपदीक्षा, अन्य दीक्षाएं, स्नानादि विधि, सामान्यपूजा, पीठपूजा, भुवनेश्वरी मन्त्र, अन्नपूर्णामल, श्यामामन्त्र डाग आदि की बलि प्राणप्रतिष्ठा, दुर्गा और तारा के मन्त्र, तारा प्राणायाम, अनेक देवदेवियों के मन्त्र, कवच इ. । तंत्रनिबन्ध - विविध तंत्र ग्रन्थों का संग्रह | विषय - गुरुमहिमा, विविध चक्र, दीक्षाकाल, कालनिर्णय, विविध आसन, गायत्री, मंत्रसंस्कार, मालासंस्कार एवं विविध देवीदेवताओं के मंत्र, ध्यान, स्तोत्र, कवच इ. । तंत्रप्रकाश ले गोविन्द सार्वभौम विषय दीक्षा, पुरशरण | - इ. अनेकविध तान्त्रिक विधियो, तारा, त्रिपुरा प्रभृति देवियों की पूजा का विवरण । तंत्रदीप ले. जगन्नाथ चक्रवर्ती। परिच्छेद-9 । श्लोक- 4500 विषय मंत्र और दीक्षा पदों की व्युत्पत्ति, गुरु शिष्य आदि के लक्षण, दीक्षाकाल, दीक्षा प्रयोग, पुरश्चरण, ग्रहण के समय के पुरश्चरण, राम, विष्णु, सूर्य इ. के मंत्र, स्तोत्र, कवच इ., मंत्रसंस्कार नित्य होम आदि की विधि, इत्यादि । तंत्रदीप पर तंत्रदीपप्रभा नामक व्याख्यान, सनातन तर्काचार्य ने लिखा है। - For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 121 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (2) ले- गदाधर। पिता- राघवेन्द्र। पितामह- धीरसिंह ।। तंत्रराज - (1) ले- काशीराम भट्टाचार्य विद्यावाचस्पति । शारदातिलक का व्याख्यान। यह व्याख्यान शारदातिलक के (2) (कादिमत) श्लोक- 40401 विषय- विद्या-प्रकरण, 25 वें प्रकाश (भुवनप्रकाश) तक पूर्ण है। दक्षिणाम्नाय, उत्तराम्नाय, भाषा की सृष्टि और स्थिति, स्वप्नावती (3) ले- मैत्रेयरक्षित। ई. 12 श.। यह काशिकावृत्ति पर माहात्म्य, मधुमती का सिद्धिप्रकार, ककारादि का फल, मंत्रादि लिखित "न्यास" की विद्वत्तापूर्ण विपुल व्याख्या व्याकरण के निर्माण की विधि, श्रीचक्र के दर्शन का माहात्म्य, व्यापकादि महाभाष्य के आधार पर लिखी गई है। व्यास, कामकलाध्यान इ. अमाय, अनहंकार इ. 10 प्रकार के तंत्रप्रदीपोद्योतनम् - ले- नन्दन मिश्र न्यायवागीश। पिता पुष्प, अहिंसा इन्द्रियनिग्रह इ.5 प्रकार के पुष्प, 64 उपचार धनेश्वर। अन्य हस्तलेखानुसार पिता-बाणेश्वर मिश्र। कलकत्ता तथा 16 उपचारों का उल्लेख। में इसका प्रथमाध्याय विद्यमान है। यह तंत्रप्रदीप की टीका है। तंत्रराज की टीकाएं (1)- मनोरमा - ले-सुभगानन्दनाथ । तंत्रप्रमोद - ले- श्रीरामेश्वर। पिता- रामभद्र। श्लोक- 268 | इन का वास्तविक नाम श्रीकण्ठेश था। ये काश्मीर महाराज पटल-7। विषय- कुण्ड-निर्णय, सुवादि- अग्निसंस्कार, होमविधि, के कर्मचारी थे। प्रपंचसारसिंह नाम से भी इनकी प्रसिद्धि थी। संक्षेप-होमविधि, हवनीय वस्तुओं के परिणाम, संक्षेप-दीक्षाविधि इसकी पूर्ती प्रकाशानन्द ने की। (2) सुदर्शना - ले-प्रेमानिधि पन्त की तृतीय पत्नी प्रेममंजरी। तंत्रभूषा - ले- श्रीकाशीनाथ। पिता- भडोपनामक जयराम । (3) - शिवराम कृत टीका।। विषय- तंत्रों की वेदमूलकता का प्रतिपादन। तंत्रलीलावती - ले-कर्णसिंह । पटल- 5। तंत्रमणि - ले- काशीश्वर । पटल-4। विषय- गुरु और शिष्य तंत्रसंक्षेपचन्द्रिका - ले- भवानीशंकर बंद्योपाध्याय। (ग्रंथ की के लक्षण, कुल-अकुल चक्रों का विचार, राशिचक्र, दीक्षा पुष्पिका में वंद्यघटीय भवानीशंकरदेव विरचिता लिखा है।) का योग्य समय, माला-संस्कार, पुरश्चरण, दीक्षा-प्रयोग, सकल विषय- गुरु-शिष्य लक्षण, साधक के कर्तव्य, अकडमचक्र, मंत्रों की गायत्री, सामान्य पूजापद्धति। सब मन्त्रों के बीज, राशिचक्र और कुलाकुलचक्र का निरूपण, दीक्षाकाल, मालानिर्णय, तारा-पूजा प्रयोग, मंत्र सिद्धि के उपाय, बलिदान विधि इ.। मंत्र के 10 संस्कार, तान्त्रिक संध्या, गायत्री, दुर्गादि की पूजा, तंत्ररक्षामणि - ले- राजचूडामणि दीक्षित। ई. 17 वीं शती। पुरश्चरण, अन्नपूर्णा इ. के मंत्र- श्यामापूजा प्रकरण, ऋष्यादि टीकाग्रंथ। (2) ले- दिङ्नाग। ई. 5 वीं शती। न्यासों का निरूपण, दुर्गाशतनामस्तोत्र, श्यामास्तोत्र, शिवस्तुति, तंत्ररत्नम् (1) नामान्तर- तंत्रदीपिका - ले.- नवद्वीपनिवासी कवच इ.। संक्षेपहोम, कूर्मादिचक्रों का निरूपण, सर्वतोभद्र कृष्ण विद्यावागीश भट्टाचार्य । पटल- 51 विषय- अनेक प्रधान मंडल। पंचायतनी दीक्षा, कुण्ड-विधान इत्यादि। तंत्रों का अवगाहन और विवेचन कर उनका सारभूत उत्तम ग्रंथ । तंत्रसमुच्चय (1) - ले- नारायण। श्लोक 53600। इसमें (2) ले- श्रीकृष्ण विद्यावागीश। श्लोक 1800। पटल मंदिर का पताका और वन्दनवारों से सजाना, द्वार पर कलश 5। विषय- चक्रविचार, दीक्षाकाल नियम, सर्वतोभद्रमण्डलादि, आदि का पूजन, अग्नि की उत्पत्ति, शय्यापूजन, शयनपट आदि सांगोपाग पूजनविधि, मातृकान्यास इ. । की स्थापना, बिम्ब की विशुद्धि आदि कर्मों का निरूपण है। (3) ले- आनन्दनाथ। गुरु-सहजानन्द । विविध तंत्रों का (2) - ले-रविजन्मा। श्लोक- 1500। यत्नपूर्वक अवलोकन कर ग्रंथकार ने इसमें श्रीचक्रविधि लिखी तंत्रसमुच्चय (3) - विषय- मंदिर निर्माण की विद्या । अन्नमलै है। विषय- कौलिकोपनिषत् कौलिकस्वरूप, आत्मरहस्य, विश्वविद्यालय के डा. एन. व्ही. मलय्या ने इसके आधार पर कौलिक-प्रतिष्ठा, कौलिकों में शक्ति की प्रधानता, कौलीश्वरों के शोधकार्य कर, "स्टडीज इन् संस्कृत टेक्स्टस् ऑन टेंपल लक्षण एवं पंचमकारविधि, विविध शक्तियों का निरूपण इ. । आर्किटेक्चर विथ रेफरन्स टू तंत्रसमुच्चय" है शोध प्रबन्ध (4) ले. शिवराम। विषय- गुरु और शिष्य के लक्षण, लिखा जो प्रकाशित हुआ है। नक्षत्रचक्र, अकथचक्र, अकडमचक्र, ऋणि-धनिचक्र, विद्यारम्भ तंत्रसार (1) - ले-अभिनवगुप्त। श्लोक- 772 । में वार और तिथि का नियम, नक्षत्र, लग्न, पक्ष और मास . (2) ले- कृष्णानन्द । विषय- योगिनी- साधन, कामेश्वरीसाधन, का निर्णय, मंत्र-नमस्कार, दीक्षा-प्रयोग, उपदेश, पंचायतनी बगलामुखी, कर्णपिशाचीमंत्र, मंजुघोषा, मातंगी, उच्छिष्ट-चाण्डाली, दीक्षा, पुरश्चरण, कूर्मचक्र, ग्रहण के समय के पुरश्चरण का धूमावती, भद्रकाली, उच्छिष्ट-गणेश इत्यादि के मंत्र । संकल्प, विष्णुगायत्री, गोपाल-गायत्री इ.। (3) - ले- सिद्धनार्थ। श्लोक- 288 । (5) ले.- पार्थसारथि मिश्र । ई. 10 वीं अथवा 11 वीं (4) - ले- मध्वाचार्य। ई. 12-13 श.। शती। पिता- यज्ञात्मा। तंत्रसारपरिशिष्टम् - ले- यतिवर। विषय- गुरुविचार। यदि (6) ले- नरोत्तम शुक्ल। गुरुकुल का व्यक्ति छोटी अवस्था का भी हो तो भी उसे 122/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा ज्ञानवृद्ध ब्राह्मण अपने से कनिष्ठ हो तो भी उसे गुरु बना लेना चाहिए। दीक्षा का समय, दीक्षायोग्य मंत्र का विचार, मंत्र के दस संस्कार, आगमतत्त्वविलास में उक्त दीक्षाविधि, मंत्रचैतन्य, मंत्रेन्द्रियज्ञान, सप्तांग पुरश्चरण, ग्रहण व्यवस्थादि, कलियुग में होम का निषेध, मिश्रित आचार, गुरु-ध्यान, गायत्री-ध्यान इ.। तान्त्रिक संध्या, विशेष पूजा, अन्तर्यागमुद्रा, तांत्रिक लिंगपूजा, काम्यपूजादि, दीपान्वित पूजा की व्यवस्था रटन्तीपूजा-व्यवस्था, अजपामन्त्रप्रयोगादि, सीता, राम इ. के मंत्र, ताराष्टक का व्याख्यान कवच इ.। तंत्रसारपूजापद्धति - विषय- मध्वाचार्यकृत तंत्रसार के अनुसार मध्वाचार्य के उपास्य देवता लक्ष्मीनारायण देव की पूजापद्धति । तंत्रसारसंग्रह - ले-द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य। यह वैष्णव पूजा-अर्चा एवं दीक्षा का वर्णनपरक ग्रंथ है। तंत्रसिद्धान्तकौमुदी - ले- काशीनाथ। पिता- भडोपनामक . श्रीजयरामभट्ट। माता- वाराणसी। प्रकार- 3 | विषय- शाम्भव, शाक्त और आणव उपाय । तंत्रसिद्धान्त- दीपिका- दुरूह- शिक्षा - ले- अप्पय्य दीक्षित (तृतीय)। ई. 17 वीं शती। तंत्रहृदयम् - ले- काशीनाथ। पिता- भडोपनामक जयरामभट्ट । श्लोक- 1501 विषय- दक्षिणाचार। इस पर ग्रंथकार की खररचित टीका है। तंत्राधिकार - विषय- पंचरात्र तंत्रों का प्रामाण्य सिद्ध करना । तंत्राधिकारिनिर्णय - ले- भट्टोजि। श्लोक- 6241 विषयपंचरात्र मत के अनुयायियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले तांत्रिक अधिकारों का अनुसन्धान । तंत्रालोक - ले- अभिनवगुप्त। टीकाकार- जयरथ। संपूर्ण तांत्रिक वाङ्मय में यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है। तंत्रोक्तचिकित्सा - ले-शिव-पार्वती संवाद रूप। श्लोक 888। विषय- बहुत से रोगों की औषधियों के साथ जगद्वशीकरण, वीर्यकरण, स्थूलीकरण, सर्वविषहरण, स्त्रीवन्ध्यात्वहरण इ.। तपोलक्षणपक्तिकथा - ले- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। तपोवैभवम् (रूपक) - ले-नित्यानंद। कलकत्ता की संस्कृत साहित्य-परिषत् पत्रिका में प्रकाशित। परिषद् में अभिनीत । लेखक के पिता रामगोपाल स्मृतिरत्न का चरित्र इसमें वर्णित है। कथानक की दृष्टि से यह रूपक अनूठा है। इसमें नायक रामगोपाल का गंभीर अध्ययन, उनकी पत्नी दीनतारिणी की पति के अनुकूल दिनचर्या, नायक का स्वामी सच्चिदानन्द का शिष्य बनना, अन्त में देवी से साक्षात्कार पाना आदि घटनाएं चित्रित हैं। तप्तमुद्राविद्रावणम् - ले-भास्कर दीक्षित । पिता- उमा महेश्वराचार्य श्लोक- 1600। तंरगिणी - सन 1958 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष डॉ. आर्येन्द्र शर्मा के सम्पादकत्व में विश्वविद्यालयीन पत्रिका के रूप में प्रकाशित की जाने लगी। इसमें शोध-परक निबन्धों के अलावा हास्य, व्यंगप्रधान कविताओं का भी प्रकाशन हुआ। पत्रिका के मुखपृष्ठ पर अजन्ता आदि के प्राचीन चित्रों की अनुकृति प्रकाशित होती है। तंरगिणीसौरभ - ले-वनमाली मिश्र । तत्त्वभारतम् (काव्य) - ले-चित्रभानु । तर्क-ताण्डवम् - लें- व्यासराय। (अपरनाम- व्यासतीर्थ) माध्व-मंत की गुरु-परंपरा में 14 वें गुरु जो द्वैत-संप्रदाय के 'मुनित्रय' में समाविष्ट होते हैं। इस ग्रंथ का मुख्य विषय है न्याय-वैशेषिक के सिद्धातों का परीक्षण एवं खंडन। अतः इसमें उदयन की 'कुसुमांजलि', गंगेश के 'तत्त्व-चिंतामणि' आदि प्रौढ न्याय-ग्रंथों का प्रखर खंडन किया गया है। न्यायामृत के अद्वैत-खंडन तक नैयायिक-गण व्यासराय की प्रशंसा में मुखर थे। किन्तु प्रस्तुत 'तर्क-ताण्डव' को देख उन्होंने अपना रोष 'न्यायामृतार्जिता कीर्तिः ताण्डवेन विनाशिता' इस वचन से प्रकट किया, ।" प्रमाण का स्वरूप, संख्या, लक्षण आदि विषयों का गंभीर विश्लेषण इस ग्रंथ की विशेषता है। तर्कभाषा - ले- केशव मिश्र । ई. 13 वीं शती। न्यायदर्शन का प्रसिद्ध लोकप्रिय ग्रंथ। प्रस्तुत ग्रंथ में न्याय के पदार्थो का अत्यंत सरल ढंग से वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ विद्वानों व छात्रों में अत्यंत लोकप्रिय है। इस पर 14 टीकाएं लिखी गई हैं। गोवर्धन, केशव मिश्र के शिष्य थे। उनकी टीका का नाम है 'तर्कभाषा-प्रकाश'। इस टीका में गोवर्धन ने अपने गुरु का परिचय भी दिया है। नागेश्वर भट्ट ने भी 'तर्कभाषा' पर 'युक्ति-मुक्तावलि' नामक टीका लिखी है। इसका हिंदी विवरण आचार्य विश्वेश्वर ने किया है। तर्कभाषाप्रकाश - ले- 16 वीं शताब्दी में गोवर्धन नामक नैयायिक द्वारा अपने गुरु केशवमिश्र के तर्कभाषा नामक ग्रंथ पर लिखी गई प्रसिद्ध टीका। तर्करहस्यदीपिका (व्याख्या) - ले-आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि। तर्कशास्त्रम् - ले- वसुबन्धु । विषय- बौद्धन्याय का विवेचन । इसमें वाक्य के पंचावयव, जाति एवं निग्रहस्थान का क्रमशः वर्णन है। ई. 550 में परमार्थ द्वारा इसका चीनी अनुवाद हुआ। तर्कसंग्रह - ले- अन्नंभट्ट । तर्कसंग्रहटीका - ले- नीलकंठ। (2) रुद्रराम । तर्कामृतम् - ले-जगदीश भट्टाचार्य तर्कालंकार । ई. 17 वीं शती । तर्जनी - ले- दुर्गादत्त शास्त्री। निवास- कांगडा जिला (हिमाचल प्रदेश) में नलेटी नामक गाव । इस काव्य में 11 अध्याय है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 123 For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलवकार आरण्यक (अथवा जैमिनीय उपनिषद) (सामवेदीय) - इस में चार अध्याय और उनके 145 खण्ड हैं। खण्डसंख्या में यत्र तंत्र विभिन्नता दीखती है। चौथे अध्याय के 10 वे अनुवाक से प्रसिद्ध केनोपनिषद् का आरम्भ होता है और उसी अध्याय के चार खण्डों में ही उसकी समाप्ति होती है। ब्राह्मण के समान आरण्यक भाग का संकलन भी जैमिनि और तलवकार ने ही किया होगा। तलवकार ब्राह्मणम् - (जैमिनीय ब्राह्मण) सामवेदीय। इसके तीन भागों में कुल मिलाकर 1182 खण्ड हैं। इस ब्राह्मण के वाक्य, ताण्ड्य, षड्विंश, शतपथ, और तैत्तिरीय संहिता के वाक्यों से बहुधा मिलते हैं। इस ब्राह्मण का संकलन कृष्णद्वैपायन वेदव्यास के शिष्य सुप्रसिद्ध सामवेदाचार्य जैमिनि और उनके शिष्य तलवकार का किया हुआ है। कर्नाटक में इसका अधिक प्रचार है। संपादन- जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण- सम्पादक ए.सी. बनेंल, मंगलोर, सन 1878 । तलस्पर्शिनी - ले-वाधुलवंशोत्पन्न वीर राघवाचार्य। भवभूतिकृत उत्तररामचरितम् नाटक की टीका। ताजकपद्धति - ले- केशव दैवज्ञ। विषय- ज्योतिःशास्त्र । ताजिकनीलकण्ठी - ले- नीलकंठ। जन्म ई. 1561। फारसी ज्योतिष के आधार पर रचित फलितज्योतिष संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। इसमें 3 तंत्र हैं- संज्ञातत्र. वर्षतंत्र, व प्रश्रतंत्र । इसमें इक्कबाल, इंदुबार, इत्थशाल, इशराफ, नक्त, यमया, मणऊ, कंबूल, गैरकंबूल, खल्लासर, रद्द, यूपाली, कुत्ध, दुत्थोत्थदवीर, तुंबी, रकुत्थ, एवं युरफा आदि सोलह योग अरबी ज्योतिष से ही गृहीत हैं। ताटंकप्रतिष्ठामहोत्सवचम्पू - ले- कविरत्न पंचपागेशशास्त्री। ताण्ड्य-ब्राह्मण (पंचविंश ब्राह्मण) - इसे तांड्य महाब्राह्मण भी कहा जाता है। इसका संबंध 'सामवेद' की तांडि-शाखा से है। इसी लिये इसका नाम तांड्य है। इसमें 25 अध्याय हैं। इसलिये इसे 'पंचविंश' भी कहते हैं। विशालकाय होने के कारण इसकी संज्ञा 'महाब्राह्मण' है। इसमें यज्ञ के विविध रूपों का प्रतिपादन किया गया है जिसमें एक दिन से लेकर सहस्रों वर्षों तक समाप्त होने वाले यज्ञ वर्णित हैं। प्रारंभिक तीन अध्यायों में त्रिवृत, पंचदश, सप्तदश आदि स्तोमों की विष्टुतिया विस्तारपूर्वक वर्णित हैं व चतुर्थ एवं पंचम अध्यायों में 'गवामयन' का वर्णन किया गया है। षष्ठ अध्याय में ज्योतिष्टोम, उक्थ व अतिरात्र का वर्णन है। सप्तम से नवम अध्याय में प्रातःसवन, माध्यंदिन सवन, सायंसवन व रात्रि-पूजा की विधियां कथित हैं। 10 वें से 15 वें अध्याय तक द्वादशाह यागों का विधान है। इनमें दिन से प्रारंभ कर 10 वें दिन तक के विधानों व सामों का वर्णन है। 16 वें से 19 वें अध्याय तक अनेक प्रकार के एकाह यज्ञ वर्णित हैं। 20 वे में 22 वें अध्याय तक अहीन यज्ञों का विवरण है। 23 वें से 25 वें अध्याय तक सत्रों का वर्णन किया गया है। इस ब्राह्मण का मुख्य विषय है साम व सोम यागों का वर्णन। कहीं कहीं सामों की स्तुति व महत्त्व-प्रदर्शन के लिये मनोरंजक आख्यान भी दिये गये हैं तथा यज्ञ के विषय से संबद्ध विभिन्न ब्रह्मवादियों के अनेक मतों का भी उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण के समान ही ताण्ड्य और भाराल्लवियों का ब्राह्मणस्वर था। इसका प्रकाशन (क) बिब्लोथिका इंडिका (कलकत्ता) में 1869-74 ई. में हुआ था, जिसका संपादन आनंदचंद्र वेदांत-वागीश ने किया था। (ख) सायण भाष्य सहित चौखंबा विद्याभवन वाराणसी से प्रकाशित । (ग) डा. कैलेण्ड द्वारा आंग्ल-अनुवाद विब्लोथिका कलकत्ता से, 1932 ई. में विशिष्ट भूमिका के साथ प्रकाशित । तातार्यवैभवप्रकाश - कवि- रामानुजदास। इसमें कुम्भघाणम् के लक्ष्मीकुमारताताचार्य नामक सत्पुरुष का चरित्र वर्णित है। तात्पर्यचंन्द्रिका -ले- व्यासराय (व्यासतीर्थ) यह सूत्र-प्रस्थान का ग्रंथ है और केवल 'चन्द्रिका' के नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रणेता माध्व-मत की गुरु-परंपरा में 14 वें गुरु थे जो द्वैत-संप्रदाय के 'मुनित्रय' में समाविष्ट होते है। तर्क तथा युक्तियों के आधार पर ब्राह्मण-सूत्रों के दार्शनिक तत्त्वों की मीमांसा इस ग्रंथ की विशेषता है, और द्वैत-मत की पुष्टि के निमित्त शंकर, भास्कर तथा रामानुज के भाष्यों की तुलनात्मक आलेचना प्रस्तुत ग्रंथ में की गई है जो गंभीर एवं अपूर्व है। इसमें द्वैत-सिद्धांत ही ब्रह्मसूत्रों का अंतिम सिद्धांत निश्चित किया गया है। 2. ले- शिवचिदानन्द। सच्चिदानन्द शिवाभिनव नृसिंहभारती के शिष्य। श्लोक 9501 तात्पर्यटीका - ले-उंबेक। भवभूति और उंबेक में कुछ विद्वान् अभेद मानते हैं। तात्पर्यदीपिका - 1. ले- सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- विश्वजयी। 2. ले- सनातन गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। यह मेघदूत की व्याख्या है। 3. लेमाधवाचार्य। ई. 13 वीं शती। स्कन्दपुराण के तांत्रिक विषयों पर टीका। तानतनु - ले- डॉ. रमा चौधुरी। विषय- प्रख्यात गायक तानसेन का जीवन-चरित्र । तान्त्रिककृत्यविशेषपद्धति - इसमें पशुदानविधि, शिवाबलिप्रकार, कुमारीपूजा, पंचतत्त्वशोधन तथा पात्रवन्दन इत्यादि तांत्रिक विधियों की पद्धतियां वर्णित हैं। तान्त्रिक-पूजा-पद्धति - (1) श्लोक- 2501 विषय तांत्रिक सन्ध्याविधि, वैष्णवाचमनविधि, करन्यास और अंगन्यास, शरीर के भीतर स्थित चतुर्दलपद्म में व, श, ष, स, आदि चार वों का न्यास, सब अंग प्रत्यंगों में मातृकान्यास, छह अंगों में केशव-कीर्ति आदि देवतायुगल का न्यास, फिर वहीं पर प्राणादि, सत्यादि तत्त्वों का न्यास, प्राणायाम, देवतापीठ न्यास, 124 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मानसपूजा, शंखस्थापनादि प्रकार पीठपूजा, देवतापूजन इ. (2) श्लोक- 2672 (अपूर्ण) www.kobatirth.org तान्त्रिक प्रयोगसंग्रह ले श्लोक 925। विषय काम्य शिवलिंग पूजाविधि, काम्य-प्रयोग, स्तोत्र, कवच इ. । श्लोक 40 विषय- त्रिपुरसुन्दरीकल्पोक्त तांत्रिक प्रातःकृत्य तान्त्रिक स्नानविधि और पूजा । तांत्रिकमुक्तावली ले नागेशभट्ट ई. 12 वीं शती पितावेंकटेशभट्ट । 1 - तान्त्रिकसन्ध्याविधि ले- श्लोक 500। वियष- वैदिक संध्या करने के अनन्तर तांत्रिक संध्या का विधान तथा प्रयोग । तान्त्रिकहवनपद्धति ले- प्रकाशानन्दनाथ । श्लोक 1501 तान्त्रिकहोमविधि ( नामान्तर शवाग्निहोमविधि) श्लोक 100 I तापनीय (यजुर्वेद की एक शाखा का नाम ) इस शाखा का संहिता या ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है । तापनीय श्रुति के नाम पर दिया गया वचन- "सप्तद्वीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं न कल्प्यतेइति" तापनीय उपनिषद् में न होने के कारण यह वचन तापनीय ब्राह्मण या आरण्यक में हो ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। - - तापार्तिसंवरणम् (महाकाव्य) ले वाक्तोलनारायण मेनन। तापसवत्सराजनाटकम् ले मायुराज महिष्मती के अधिपति । पिता- नरेंद्रवर्धन । संक्षिप्त कथा नाटक के प्रथम अंक में मंत्री यौगन्धरायण वत्सदेश पर पांचाल नरेश आरुणि द्वारा आक्रमण कर देने पर भी वत्सराज की उदासीनता को देख राजा प्रद्योत से सहायता लेता है और वासवदत्ता के साथ योजना बनाता है जिसके अनुसार कुछ समय तक वासवदत्ता राजा से अलग रहने का निश्चय करती है। द्वितीय अंक में अन्तःपुर में वासवदत्ता और यौगन्धरायण के जलकर मरने की वार्ता पर राजा विलाप करता है और मंत्री रुमण्वान् के कहने से सिद्धदर्शन के लिए प्रयाग जाता है। तृतीय अंक में यौगन्धरायण ब्राह्मण वेष में वासवदत्ता को अपनी प्रोषितपति बहन बताकर मगधराजपुत्री पद्मावती के पास छोड़ देता है। पद्मावती उदयन से प्रेम करती है। वह तपस्विनी बन जाती है। राजा भी तापसवेष में राजगृह में आता है और तपस्विनी पद्मावती को देखता है। चतुर्थ अंक में राजा पद्मावती को अपने लिए कष्ट साधना करते हुए देख दुःखी होता है और पद्मावती के साथ विवाह करता है। पंचम अंक में आरुणि पर विजय प्राप्ति की वार्ता पाकर राजा प्रयाग होते हुए. कौशाम्बी लौटना चाहता है । वासवदत्ता दुःखी होकर प्रयाग में संगम के पास चिता में प्रवेश करना चाहती है। उधर राजा भी चिता देख कर उसमें अपना प्राणोत्सर्ग करने को उद्यत होता है, किन्तु वहां राजा यौगन्धरायण को और पद्मावती वासवदत्ता को पहचान लेती है । सब का मिलन होने से सभी प्रसन्न होते हैं। तापसवत्सराज नाटक में कुल 10 अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 4 विकम्भक 1 प्रवेशक और 5 चूलिकाएं हैं। तारकासुरवधम् (काव्य) - ले मलय कवि । पिता- रामनाथ । ताराकल्पलता ले नारायणभट्ट । ताराकल्पलतापद्धति विद्यानन्द ( श्रीनिवास) । ले- नित्यानन्द (नारायणभट्ट) । गुरु ताराचन्द्रोदयम् - ले- मैथिल कवि जगन्नाथ। 17 वीं शती । 20 सर्गों के इस काव्य में ताराचंद्र नामक साधारण भूपति का चरित्र ग्रंथित किया है। तारातन्त्रम् ले पटल- 61 भैरव भैरवी संवादरूप। विषयतारा की तांत्रिक पूजा । राजशाही की वारेन्द्र सोसाइटी द्वारा सन् 1913 में प्रकाशित । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तारापंचांगम् - ले- देवी-भैरव संवादरूप विषय 1. तारापटल, 2. तारापूजापद्धति, 3. तारासहस्रनाम, 4. त्रैलोक्यमोहन नामक ताराकवच (भैरवीतन्त्रोक्त), 5. महोग्रतारास्तवराज (ताराकल्पीय) । तारापद्धति श्लोक- 600 विषय संक्षेपतः तारा की पूजापद्धति । For Private and Personal Use Only - तारापूजारसायनम् ले- काशीनाथ। पिता भडोपनामक जयरामभट्ट । श्लोक- 280 विषय तारा पूजापद्धति तथा साधक के प्रातःकृत्य इ. । 1 ताराप्रदीपले लक्ष्मणदेशिक । श्लोक 1260 पटल- 5। ताराभक्तितरंगिणी (1) ले विमलानन्दनाथ । श्लोक20001 (2) ले. प्रकाशानन्दनाथ । 4 तरंग | विषय - कुल धर्मानुसार तारादेवी की पूजाविधि (3) से काशीनाथ नदिया के महाराज कृष्णचंद्र की प्रेरणा से लिखित । श्लोक - 6451 तरंग 61 विषय- प्रथम तरंग में नदिया के महाराज कृष्णचंद्र का वंशवर्णन। 2 से 5 तक मोक्षोपायों का निरूपण । तरंग 6 में कतिपय स्तुतियों द्वारा ताराभक्ति तथा तारा के शरणागतों की संसारनिवृत्ति का निवेदन । ताराभक्तिसुधार्णव गदाधर । ले- नरसिंह । पितामह श्रीकृष्ण । पिता - तारारहस्यम्ले श्रीकिशोरपुत्र श्रीराजेन्द्र शर्मा परिच्छेद । 22 | विषय - प्रथम 3 परिच्छेदों में प्रातःकृत्य, गुरुस्तोत्र आदि का विवरण, 4 में ज्ञान आदि का विधान, 5 में स्नान-शुद्धि, 6 में प्राणायामविधि, 7 में भूतशुद्धि, कालपुरुष, आदि का निरूपण, 8 में मानसपूजा का विवेचन, 9 में मंत्र आदि का विवेचन तथा 10 में अर्ध्य-शोधन निरूपण, 11 में पूजा पुष्प आदि का विचार, तारा स्तोत्र 12 में देवी पूजा का निरूपण, इ. । तारारहस्थवृत्तिटीका तारारहस्यतंत्र की यह 15 पटलों में टीका है। विषय नित्यपूजा, दीक्षाविधि, पुरवरण, काम्यनिर्णय, रहस्यनिर्णय, कुमारीपूजा, पुरारणरहस्य, तंत्रनिर्णय एवं नीलतंत्र संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 125 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीरतंत्र, मत्स्यसूक्त, भैरवीतंत्र, महाभैरवीतंत्र, विज्ञानेश्वरसंहिता, विशुद्धेश्वरतंत्र इ. के वचन प्रमाणरूप से उद्धृत। तारार्चनचन्द्रिका - ले- जगन्नाथ भट्टाचार्य। श्लोक- 450। विषय- तारादेवी की पूजापद्धति के साथ-साथ उपासक (साधक) के प्रातःकालीन देवी-ध्यान आदि कर्म। तारार्चनतरंगिणी - ले- रामकृती। श्लोक- 11001 तरंग-4। विषय- तारादेवी की पूजा का सविस्तर वर्णन। तारासहस्रनामव्याख्या (अभिधार्थ-चिन्तामणि) लेविश्वेश्वर। पिता- लक्ष्मीधर । तारासहस्त्रनामस्तोत्र - बालाविलास- तन्त्रान्तर्गत। इसमें तारा के तकारादि सहस्र नाम हैं। तारासाधकशतकम् - ले-ताराभक्त चन्द्रगोमिन्। इस रचना का जे.डी. ब्लोने द्वारा उल्लेख हुआ है। तारसारोपनिषद् - शुक्ल यजुर्वेद का एक नव्य उपनिषद् । तीन पाद वाले इस उपनिषद में भगवान् विष्णु के रामावतार से संबंधित कुछ मंत्र हैं। राजा जनक के सभापंडितों को शास्त्रार्थ में पराजिन्न करने के पश्चात् याज्ञवल्क्य ऋषि ने राजा जनक को परब्रह्मविद्या का ज्ञान कराया। इस ग्रंथ में उस विषय का समावेश है। तारावलीशतकम् - ले- श्रीधर वेंकटेश 1 गेय काव्य । तारास्तोत्रम् - ले- बाणेश्वर विद्यालंकार। ई. 18 वीं शती। ताराविलासोदय - ले- वासुदेव कविकंकण चक्रवर्ती। श्लोक900। उल्लास- 101 षिय- तारादेवी की पूजा का विस्तार से प्रतिपादन। तालदशाप्राणदीपिका - ले- गोविन्द । रामभक्तिपरक गीतों का संग्रह । गीतों द्वारा विविध तालों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। तालदीपिका - ले- गोपेन्द्र तिप्प भूपाल। ई. 15 वीं शती। 3 अध्याय। मार्गी तथा देशी तालों का विवेचन । तालप्रबंध - ले- गोपेन्द्र। शिवभक्तिपरक गीतों का संग्रह। प्रत्येक गीत एक एक ताल का उदाहरण है। . ताललक्षणम् - ले- कोहल।। तिलकायनम् (नाटक) - ले- श्रीराम वेलणकर। अंकसंख्यातीन। स्त्रीपात्रविरहित। गीतों और प्राकृत का अभाव। सन 1897 से 1908 तक लोकमान्य तिलक पर लगाये अभियोगों के परीक्षण पर आधारित। न्यायालय की न्यायप्रक्रिया का सरस प्रस्तुतीकरण। तिथिचिंतामणि (बृहत्) - तिथिचिंतामणि (लघु) लेगणेश दैवज्ञ । ई. 15 वीं शती। विषय- ज्योतिषशास्त्र। इन ग्रंथों की सारिणियों से सुलभता से पंचांग बनाया जा सकता है। तिथिनिर्णय - 1. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वरभट्ट । 2. ले. हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती। पिता- कामदेव। तिथिपारिजातम् - ले- शिव। तिथिरत्नमाला - ले- नीलकंठ। ई. 16 वीं शती। । तिथीन्दुसार - ले- नागोजी भट्ट। ई. 18 वीं शती। पिताशिवभट्ट। माता- सती। तिमिरचन्द्रिका - (1) ले- रामरत्न । श्लोक- 6501 विषयतांत्रिक पूजा का विवरण तथा तांत्रिक साधक के दीक्षादिनिर्णय, प्रातःकृत्य अन्तर्यागादिविधि- स्थानशोधनपूर्वक पूजा, निशापूजन, शिवलिंगार्चन आदि दैनिक कृत्य। (2) उल्लास- 171 श्लोकलगभग 15001 ऊपर कहे गये विषयों के अतिरिक्त यंत्रमाला, नित्यजप, कुण्डादिसाधन इत्यादि विषय अधिक वर्णित हैं। तिलकमंजरी - ले- धनपाल। ई. 10-11 वीं शती। पितासर्वदेव। विषय- एक शृंगारिक कथा। तिलकयशोर्णव - ले- नागपुर निवासी माधव श्रीहरि उपाख्य लोकनायक बापूजी अणे। ई. 20 वीं शती। जीवन के प्रारंभ से आप लोकमान्य तिलक के प्रमुख अनुयायी तथा महाराष्ट्र के विदर्भ विभाग के प्रमुख राजकीय नेता रहे। जनता में रुग्णशय्यापर ही आपने पूज्य गुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का श्लोकबद्ध समग्र चरित्र लिखा। प्रस्तुत पद्यरूप चरित्र ग्रंथ तीन खण्डों में 'तिलकयशोर्णवः' नाम से प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ को 1973 में लेखक के देहान्त के बाद साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। तीक्ष्णकल्प - ले-राजा श्रीराधामोहन द्वारा स्वयं रचित या उनकी प्रेरणा से किसी अन्य विद्वान् के द्वारा रचित ग्रंथ । शकाब्द 1732 में लेखन पूर्ण हुआ। पटल- 51 श्लोक लगभग 3000। विषय- प्रातःकाल के जप, पूजा इ. के विधि, मंत्र आदि का विवरण, आसन- शुद्धि, मातृकाध्यान, ध्यानविधि, न्यास आदि का विवरण, एकजटा देवी की पूजा इ.। तीर्थकल्पलता - ले- नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। विषयतीर्थयात्रा। तीर्थभारतम् - गीतिमहाकाव्य । ले.-डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर । नागपुर-निवासी। इस काव्य में संपूर्ण भारत के विख्यात तीर्थक्षेत्रों एवं तत्रस्थ देवताओं के तथा भारत के प्राचीन और अर्वाचीन तीर्थरूप विभूतियों के स्तुतिरूप पद्यों का संकलन किया है। साथ ही राष्ट्रीय गीत और भक्तिपरक तथा प्रकीर्ण गीतों का भी संग्रह किया है। कुल गीतसंख्या- 164। इन सभी गीतों के रागों का निर्देश कवि ने आरोह-अवरोह स्वरों तथा मुख्यांग स्वरों के साथ किया है। अप्रैल 1983 में न्यूयार्क में सम्पन्न संस्कृत सम्मेलन में इस महाकाव्य का विमोचन हुआ। प्रकाशकललिताप्रसाद शास्त्री, पीतांबरापीठ संस्कृत परिषद, दतिया, म.प्र.। तीर्थ-यात्रा-प्रबंध (चंपू) - रचयिता- समरपुंगव दीक्षित । वाधुलगोत्रीय ब्राह्मण। ई. 17 वीं शती। इस चंपूकाव्य में १ उच्छ्वास हैं और उत्तर व दक्षिण भारत के अनेक तीर्थों का वर्णन किया गया है। इसमें नायक द्वारा तीर्थाटन का वर्णन 126 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है पर कहीं भी उसका नाम नहीं है। कवि के भ्राता सूर्यनारायण ही इसके नायक ज्ञात होते हैं। कवि ने स्थान-स्थान पर प्रकृति के मनोरम चित्र का अंकन किया है। तीर्थयात्रा के प्रसंग में उत्तान श्रृंगार के चित्र भी यत्र-तत्र उपस्थित किये गये हैं और दृतिप्रेक्षण चंद्रोपालंभ व काम-पीडा के अतिरिक्त भयानक रति-युद्ध का भी वर्णन किया गया है। भारत का काव्यात्मक भोगोलिक चित्र प्रस्तुत करने में कवि पूर्णतः सफल हुआ है। इस चंप-काव्य का प्रकाशन, काव्यमाला निर्णय सागर प्रेस मुंबई से, 1936 ई. में हो चुका है। तीर्थाटनम् - कवि- चक्रवर्ति राजगोपाल। समय- इ. 1882 से 1934। इसके चार अध्यायों में भारतान्तर्गत प्रवास के विभिन्न अनुभव वर्णित हैं। तीर्थेन्दुशेखर - ले. नागोजी भट्ट। ई. 18 वीं शती। पिताशिवभट्ट । माता- सती। विषय- धर्मशास्त्र के अन्तर्गत तीर्थयात्रा की विधि। त्यागराजचरितम् - ले. सुन्दरेश शर्मा। विषय- दक्षिणभारत के मख्यात आधुनिक गायक सन्त त्यागराज का चरित्र । ई. 1937 में प्रकाशित। त्यागराजविजयम् - ले.म.म.यज्ञस्वामी। लेखक ने अपने पितामह का चरित्र इस काव्य में ग्रथित किया है। त्रिकाण्डविवेक - ले. रामनाथ विद्यावाचस्पति । रचनाकालसन 1633 ईसवी। विषय- अमरकोश पर टीका। त्रिकाण्ड-चिन्तामणि - ले. रघुनाथ। रचनाकाल सन 1652 । विषय- अमरकोश पर टीका। त्रिकाण्ड-शेष - ले. पुरुषोत्तम। ई. 12-13 वीं शती।। अमरकोश का परिशिष्ट । त्रिकालपरीक्षा - ले. दिङ्नाग। इस ग्रंथ का अस्तित्व केवल तिब्बती अनुवाद से ज्ञात होता है। त्रिकुटारहस्यम् - श्रीविद्यासाधन में वामाचार का वर्णन । त्रिकुटार्चनपद्धति - (नामान्तर त्रिपुरार्चनपद्धति) श्लोक-620 । त्रिकोणमिति - ले. बापूदेवशास्त्री। विषय- गणितशास्त्र । त्रिदशडामर - देवी-भैरव संवादरूप। श्लोक 24000। पटल 82 । देवताओं की सिद्धि के लिए साधु जनों के हितार्थ दुष्ट जीवों के विनाशक डामर तंत्र का निर्माण हुआ। त्रिपादविभूति-महानारायणोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित माना हुआ एक नव्य उपनिषद्। इसके दो कांड और प्रत्येक कांड के चार-चार अध्याय हैं। इसकी रचना समासप्रचुर एवं पांडित्यपूर्ण गद्य में की गई है। अद्वैतवेदान्त पर वैष्णव उपनिषदों में इसका प्रमुख स्थान है। परमतत्त्व का रहस्य जानने हेतु ब्रह्माजी ने हजार वर्षों तक तपस्या की। विष्णु भगवान् उन पर प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें परमतत्त्व का रहस्य समझायें। वही प्रस्तुत उपनिषद् का विषय बना है। इस उपनिषद् में अद्वैताधिष्ठित भक्ति पर विशेष बल दिया गया है। त्रिपुरतापिन्युपनिषद् - यह प्रायः अड्यार से शाक्त उपनिषदों में प्रकाशित है। त्रिपुरदाहः (डिम)- संक्षिप्त कथा -इस डिम में देव-दानवों के युद्ध का वर्णन है। प्रथम अंक में पृथ्वी, शेष नाग, हिमवान, बृहस्पति, इन्द्र तथा नारद शिव को त्रिपुर नामक दानव के अत्याचार के बारे में बताते हैं। शिवजी इन्द्रादि देवताओं को त्रिपुरदाह करने के लिए सत्रद्ध होने को कहते हैं। [तैयारी करने की बात जानकर देवताओं में विवाद उत्पन्न करने के लिए मिथ्या नारद का रूप धारण करता है।] तृतीय अंक में देव-दानव युद्ध का वर्णन है। किन्तु दानव मरकर भी पुनः जीवित हो जाते हैं। इससे देव चिंतित होते हैं। चतुर्थ अंक में महेश (शिव) स्वयं युद्ध करने जाते हैं और त्रिपुर का अन्त करते हैं। इस डिम में कुल 22 अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 2 विष्कम्भक, 1 प्रवेशक और 19 चूलिकाएं हैं। त्रिपुरभैरवी-पंचांगम् - विश्वसार तन्त्रान्तर्गत। श्लोक- 3801 त्रिपुर-विजयचंपू - ले. अतिरात्रयाजी। नीलकंठ दीक्षित के सहोदर। समय 17 वीं शती। यह चंपू काव्य चार आश्वासों में प्राप्त हुआ है और अभी तक अप्रकाशित है। इसके प्रथम व चतुर्थ आश्वास के क्रमशः प्रारंभ व अंत के कतिपय पृष्ठ नष्ट हो गए हैं। इसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4037 में प्राप्त होता है। (2) ले. नृसिंहाचार्य। यह रचना अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4036 में प्राप्त होता है। इसका रचनाकाल 16 वीं शताब्दी के मध्य के आसपास रहा होगा क्यों कि इसके रचयिता नृसिंहाचार्य तंजौर के भोसला-नरेश एकोजी के अमात्यप्रवर थे। (3) कवि शैल। पिता - आनन्दयज्वा तंजौर नरेश के मन्त्री थे। ई. 17 वीं शती।। त्रिपुरविजय-व्यागोग - ले. पद्मनाभ। ई. 19 वीं शती। रामेश्वर के वसन्त-कल्याण महोत्सव में अभीनीत । विषय- त्रिपुर दाह की पौराणिक कथा । त्रिपुरसुन्दरीतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप यह तंत्र 101 कल्पों में पूर्ण है। त्रिपुरसुन्दरीत्रैलोक्यमोहनकवचम् - गन्धर्वतंत्रान्तर्गत उमा-महेश्वर संवादरूप। त्रिपुरसुन्दरीदीपदानविधि - रुद्रयामलान्तर्गत। उमा-महेश्वर संवादरूप। विषय- त्रिपुरसुन्दरी देवी के निमित्त प्रज्वलित दीपदान की विधि। त्रिपुरसुन्दरीपंचागम् - (षोडशीपंचांग) रुद्रयामलान्तर्गत । श्लोक3501 त्रिपुरसुन्दरीपटलम् - (पंचांग के अन्तर्गत) रुद्रयायमलान्तर्गत । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 127 For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोक 250। विषय- श्रीविद्या की पूजाविधि । त्रिपुरसुन्दरीपद्धति - 1) ले. शिवरामभट्ट , 2) विद्यानंद, 3) आत्मानंद। श्लोक 725। 18 पद्धतियां पूर्ण हैं। त्रिपुरसुन्दरीपूजनम् - ले. श्रीकर । त्रिपुरसुन्दरीपूजापद्धति - ले. शंकरानन्दनाथ। श्लोक 480। त्रिपुरसुन्दरीपूजार्चनक्रमपद्धति - ले. पूजानन्द । श्लोक 600 । त्रिपुरसुन्दरीपूजाविधि - ले. भास्करराय। श्लोक 600। त्रिपुरसुन्दरीमानस-पूजा-स्तोत्रम् - ले. सामराज दीक्षित । मथुरानिवासी। त्रिपुरसुन्दरीमालामन्त्रपंचदशकम् - श्लोक- 800। त्रिपुरसुन्दरीवरिवस्याविधि - ले. भासुरानन्दनाथ । श्लोक-350। त्रिपुरसुन्दरीसंकोचाचाररत्नावली - ले. कृष्णभट्ट । श्लोक 200 । त्रिपुरसुन्दरीस्तवराज - ले. भट्ट मथुरानाथ शास्त्री। त्रिपुरसुन्दरीस्तोत्रम् - इसमें तीन स्तोत्र और एक कवच है। स्तोत्र रुद्रयामलान्तर्गत शिवकृत और कवच रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर- संवादरूप है। कवच का नाम त्रैलोक्यमोहन है जो महापातकों का विनाशक है। उसके पाठ से शस्त्राघात का भय नहीं रहता और चिरायुष्य प्राप्त होता है ऐसा कहा है। त्रिपुरसुन्दर्यर्चनपद्धति - ले.काशीनाथ। भडोपनामक जयराम भट्ट का पुत्र । इसमें दक्षिणामूर्तिसंहिता में उक्त महात्रिपुरसुन्दरी-पूजा प्रतिपादित है। त्रिपुराकल्प - ले. आदिनाथ आनन्दभैरव। यह शाक्त आगम 16 पटलों में पूर्ण है। विषय- मंत्रोद्धार, अनुष्ठान, चक्रपूजा, न्यास, चक्रन्यास, ध्यान, आत्मपूजा, पूजामण्डल में दीक्षा, चक्रपूजा का क्रम, षोडशारपूजा, पूजाद्रव्य-निरूपण, मुद्रानिरूपण, जपयज्ञ इ.। त्रिपुराजपहोमविधि - वामकेश्वर तन्त्र से गृहीत । त्रिपुरान्तकशिवपूजा- लिंगार्चन तंत्रान्तर्गत । त्रिपुरातापिनी उपनिषद् - अथर्ववेद से संबद्ध माना हुआ यह एक नव्य उपनिषद्। इसके 5 छोटे भाग हैं और प्रत्येक भाग उपनिषद् कहलाता है। इस उपनिषद् का विषय है त्रिपुरा देवी की तांत्रिक उपासना। इसमें त्रिपुरादेवी का स्वरूप, शिवशक्ति के मिलन से जगत् की उत्पत्ति, देवी का ध्यान, उसे संतुष्ट करने हेतु कहे जाने वाले मंत्र, शिव-शक्तिविषयक विविध विद्या, देवीचक्र, मुद्रा आदि विषयों की चर्चा है। अंतिम भाग में तत्त्वज्ञान के अनुसार ब्रह्म का वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि शब्दब्रह्म में प्रावीण्य प्राप्त करने वाला व्यक्ति परब्रह्म की ओर जाता है। त्रिपुरापूजापद्धति - त्रिपुरा देवी की पूजा विस्तार से प्रतिपादित । बहुत से स्तोत्र विभिन्न तन्त्र ग्रंथों से इसमें उद्धृत हैं। सौभाग्य कवच वामकेश्वरतन्त्र से, अन्नपूर्णेश्वरी पंचाशिका-कल्पवल्ली रुद्रयामल से, राजराजेश्वरीध्यान रुद्रयामल से उद्धृत है। त्रिपुरार्चनपद्धति - 1. ले. शिवराम। नामान्तर -त्रिकूटार्चन पद्धति। 2. ले. कैवल्यानन्द। श्लोक 1462 । त्रिपुरारहस्यम् - माहात्म्य-खण्ड श्लोक- 5200। त्रिपुरार्चनमंजरी - ले. केशवानन्द। श्लोक 3701 त्रिपुरार्चनरहस्यम् - ब्रह्मानन्द । ज्ञानार्णवान्तर्गत दक्षिणामूर्तिसंहिता के अनुसार। श्लोक 10501 विषय- ब्राह्म मुहूर्त में देशिक का कर्तव्य, गुरु-राजा, अजपाजप स्नान, तर्पण, त्रिपुरायजन, त्रिपुरापूजा की पद्धति, उसमें गणेशपूजा की पद्धति, उसमें गणेश-न्यास, योगिनीन्यास आदि विविध न्यासों का निरूपण, चक्रसिंहासन के उपर स्थित सुन्दरी की पूजा का प्रयोजन है। हठयोगप्रदीपिका के टीकाकार ब्रह्मानन्द ही इस के लेखक हैं। त्रिपुराचरित्रम् - ले. विमलानन्दनाथ। श्लोक 800। त्रिपुरार्णवचन्द्रिका - ले. रामलिंग। त्रिपुरावरिवस्याविधि - ले. कैवल्याश्रम । त्रिपुरासहस्रनामस्तोत्रम् - महामन्त्रमानसोल्लासान्तर्गत । हर-कार्तिकेय संवादरूप। श्लोक 200। त्रिपुरासारतन्त्र - (नामान्तर -श्रीसारतन्त्रम्)शिव-पार्वती संवादरूप। पटल 101 विषय- दशमहाविद्या, महामन्त्र, मन्त्रों के अर्थ, पूजा की विधि, गुरुद्वारा प्रदत्त मंत्र के गोपन की विधि। योग का उदय,षट्कर्मों (मारण, मोहन आदि) के साधन का प्रकार, अन्तर्याग इ.।। त्रिपुरासारसमुच्चय - ले. नागभट्ट अथवा भट्टनाग। श्लोक 900। इस पर गोविन्दशर्मा कृत पदार्थादर्शनामक 1135 श्लोकों की टीका है। दूसरी टीका है सम्प्रदार्थदीपिका। त्रिपुरासिद्धान्त - श्रीविद्यान्तर्गत। उमा-महेश्वर-संवादरूप। त्रिपुराषोडशीतन्त्रम् - श्लोक 25001 त्रिपुरास्तोत्रम् - ले. सामराज दीक्षित । त्रिपुरोपनिषद् - ऋग्वेद से संबंधित माना हुआ एक नव्य उपनिषद्। तद्नुसार स्थूल सूक्ष्म व कारण इन तीनों शरीरों में वास करने वाली चिच्छक्ति ही त्रिपुरादेवी है और कर्म, उपासना एवं ज्ञान की सहायता से साधक अपने हृदय में उनका साक्षात्कार कर सकता है। पंच मकारों से योनिपूजा करने पर परम सुख की प्राप्ति होती है इस शाक्तमत को गौण माना है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि निष्काम साधकों को ही श्रीविद्या की सिद्धि होती है, सकाम साधकों की कभी भी नहीं। देवी की निःस्वार्थ पूजा करने से किस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति हुआ करती है यह भी उपनिषद् में बताया है। त्रिबिल्वदलचंपू - ले. व्ही. एस.रामस्वामी शास्त्री। मदुरै में वकील। विषय- प्रवास में देखे हुए विभिन्न तीर्थक्षेत्रों तथा विश्वविद्यालयों का वर्णन । 128 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिभंगचरित्रम् - कृष्णयामलान्तर्गत-बलराम-कृष्ण संवादरूप। इसमें त्रिभंगरूप कृष्ण का वर्णन है। श्लोक 112। त्रिमतसम्मतम् - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय। आंध्रवासी। त्रिलक्षणकदर्थनम् - ले. पात्रकेसरी। जैनाचार्य। ई. 6-7 वीं । शती। त्रिलोकसार - ले. नेमिचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। उत्तरार्ध । त्रिवेणिका - ले. आशाधर भट्ट। (द्वितीय)। ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध। आशाधर के अलंकार शास्त्र-विषयक 3 ग्रंथों में से एक ग्रंथ। इसमें अभिधा को गंगा, लक्षणा को यमुना और व्यंजना को सरस्वती माना गया है। यह ग्रंथ 3 परिच्छेदों में विभक्त है तथा प्रत्येक में 1-1 शब्द शक्ति का विवेचन है। इस ग्रंथ में अर्थ के 3 विभाग किये गए हैं। 1. चारु, 2. चारुतर व 3. चारुतम। अभिधा से उत्पन्न अर्थ चारु, लक्षणा से चारुतर तथा व्यंजनाजनित अर्थ चारुतम होता है। इस ग्रंथ का प्रकाशन सरस्वती भवन ग्रंथमाला काशी से हो चुका है। त्रिशती - इसमें ललिता देवी के 300 नाम हैं। उन पर श्रीशंकराचार्य की "त्रिशतीनामार्थ प्रकाशिका" नामक व्याख्या है। त्रिंशच्छलोकी (विष्णुतत्त्वनिर्णयः)ले. वेङ्कटेश। सटीक।। विषय- न्यायेन्दुशेखर का खण्डन। त्रिंशिकाभाष्यम् - ले. स्थिरमति। ई. 4 थी शती। मूल । संस्कृत का नेपाल में पता लगाकर सिल्वां लेवी द्वारा फ्रेंच अनुवाद सहित प्रकाशित । यह वसुबन्धुकृत त्रिशिका का भाष्य है। त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् - शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। इसमें कुल 164 श्लोक हैं। इसका श्रोता है त्रिशिखी नामक ब्राह्मण जिसे आदित्य ने शरीर, प्राण, मूलकारण, आत्मा आदि विषयों का ज्ञान कथन किया है। इस उपनिषद् में पंचीकरण एवं अष्टांग योग की चर्चा विशेष रूप से की गई है। इसमें स्वस्तिकासनादि सत्रह योगासनों एवं उनके अभ्यास से शरीरक्रिया पर होने वाले परिणामों की विस्तृत जानकारी के साथ ही कुंडलिनी को जागृत करते हुए मनोजय साध्य करने की विधि भी स्पष्ट की गई है। इस उपनिषद् के मतानुसार, सगुण ब्रह्म की उपासना करने से भी मुक्ति प्राप्त होना संभव है। योगाभ्यास करनेवालों की दृष्टि से यह उपनिषद् अत्यंत उपयुक्त है। त्रिष्टविनियोगक्रम - श्लोक 400। त्रिष्टुप् छंद को सकल . सुखप्रदान में कामधेनुरूप, शत्रुओं तथा पापों को निश्शेष करने में प्रलयानलतुल्य और सकलनिगमसारविद्या रूप कहते हुए उसका गुप्ततम विनियोग क्रम प्रतिपादित किया है। त्रिस्थलविधि - ले. हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती । पिता-कामदेव । त्रिस्थलीसेतु - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता रामेश्वरभट्ट। त्रैलोक्यमोहनकवचम् - श्लोक- 7001 तकारादि तारासहस्रनाम-सहित। ऋक्-प्रातिशाख्यम् - ले. शौनक। (यह विष्णुमित्र का कथन है)। एक प्राचीन ग्रन्थ। पार्षद या पारिषदसूत्र कहा गया है। शिक्षा नामक वेदांग विषयक विवेचन के कारण इसे शिक्षाशास्त्र भी कहा गया है। इसमें अठारह पटल हैं। त्वरितरुद्रविधि - ले. गंगासुत। इसमें त्वरित रुद्र की पूजा के प्रमाण और प्रयोगविधि प्रदर्शित है। त्वरितास्तोत्रम् - त्वरिता, काली का एक ऐसा रूपभेद है जिसकी तन्त्रसार में दक्षिणाचारान्तर्गत पूजा दी है। यह स्तोत्र उससे संबंध रखता है। तुकारामचरितम् - लेखिका- क्षमादेवी राव। विषय- महाराष्ट्र के सन्त-शिरोमणि तुकाराम' का चरित्र । लेखिका के अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित। तुकारामचरितम्- ले. लीला राव दयाल। क्षमादेवी राव की कन्या। अंकसंख्या -ग्यारह । क्षमा राव लिखित "तुकारामचरित' पर आधारित नाटक। आद्यन्त सारे संवाद पद्यात्मक हैं। तुलसी-उपनिषद् - एक नव्य उपनिषद् । इसके ऋषि हैं नारद, छंद अथर्वांगिरस्, देवता-अमृता तुलसी, शक्ति-वसुधा और कीलक है नारायण। प्रस्तुत उपनिषद् का सारांश इस प्रकार है : तुलसी श्यामवर्णा, ऋग्यजुःस्वरूप, अमृतोद्भव, विष्णुवल्लभा तथा जन्ममृत्यु का अंत करने वाली है। इसके दर्शन से पाप का एव सेवन से राग का नाश होता है। तुलसी की परिक्रमा करने से दारिद्रय दूर होता है। इसके मूल में समस्त तीर्थक्षेत्रों, मध्य में ब्रह्माजी और अग्रभाग में वेदशास्त्रों का वास होता है। विष्णु भगवान् इसके मूल में एवं लक्ष्मीजी इसकी छाया में वास करते है। तुलसी-दल के अभाव में यज्ञ, दान, जप, भगवान् की पूजा, श्राद्ध कर्म आदि निष्फल सिद्ध होते हैं। इस उपनिषद् में समाविष्ट तुलसी का गायत्री मंत्र निम्नांकित है। श्रीतुलस्यै विद्महे । विष्णुप्रियायै धीमहि । तन्नो अमृता प्रचोदयात्।। इस उपनिषद् की प्रस्तावना गद्य में है और आगे का भाग है श्लोकबद्ध । तुलसीदूतम् - 1) ले. त्रिलोचनदास। ई. 18 वीं शती। 2) ले. वैद्यनाथ द्विज । रचनाकाल सन 1734। इस संदेश काव्य में दूत के रूप में तुलसी का पौधा है। तुलसीमानस-नलिनम् - रामचरितमानस (तुलसीरामायण) के बालकाण्ड का यह भावानुवाद हैं। शारदापत्रिका में इसका क्रमशः मुद्रण होकर बाद में शारदा गौरव ग्रंथमाला में 51 वें ग्रंथ के रूप में पं. वसंत अनंत गाडगील ने इसका सन 1972 में प्रकाशन किया। शृंगेरी तथा द्वारकापीठ के शंकराचार्यजी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 129 For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ने इसकी प्रशंसा की है। लेखिका श्रीमती नलिनी साधले ( पराडकर) उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) में संस्कृत प्राध्यापिका हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के अवशिष्ट कांड अप्रकाशित हैं। तुलाचलाधिरोहणम् - ले. लीला राव दयाल । रचना 1971 में "विश्वसंस्कृतम्" में 1972 में प्रकाशित "तुलाचल" घाटी की मनुष्यवाणी में बोलना छायातत्वानुसारी है। विषय- नेपालस्थित तुलाचल घाटी पर घटित वायुयान दुर्घटना का चित्रण | तुलादानप्रयोग ले. गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती । पिता दिनकर भट्ट | तुलापुरुषदानप्रयोग - ले. नारायण भट्ट । ई. 16वीं शती । तुलापुरुषदानप्रयोग ले. नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती । तुरीयातीतोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् आदिनारायण ने यह उपनिषद् ब्रह्मदेव को सुनाया। इसमें सर्वसंगपरित्यागी अवधूत का वर्णन किया गया है। तद्नुसार अवधूत अवस्था दुर्लभ तथा परमहंस से भी उच्च श्रेणी की है। तुरीयातीत अर्थात् अवधूत पुरुष का वर्णनः अवधूत पुरुष दंड, कमंडलू, उपवीत आदि बाह्योपधियों का त्याग करता है। वह दिगंबर रूप में संसार में विचरण करता है। मुंडन, अभ्यंगस्नान, ऊर्ध्वपुड़ आदि बातों का उसे कोई विधि - निषेध नहीं होता। वह सभी बंधनों से परे होता है। वासना पर विजय प्राप्त करते हुए, उसने षड्रिपुओं का संहार किया होता है। अपने शरीर को वह प्रेतवत् मानाता है। पागल जैसा दिखाई देने पर भी वह परमज्ञानी होता है । तुरीयोपनिषद् - लगभग पच्चीस वाक्यों का यह एक छोटा सा नव्य उपनिषद् है । इसका प्रतिपाद्य विषय है प्रणव की श्रेष्ठता तथा स्वरूप। इसमें प्रणव के विराट् रूप की कल्पना की गई है और उसकी मात्राएं बताई गई हैं सोलह । प्रणव के बिराट रूप के चौंसठ भेद माने गए हैं। यह प्रणव, सगुण व निर्गुण अर्थात् उभयविध है । तृचकल्पपद्धति वैद्यनाथ रोगों की समूल निवृत्ति पूर्वक शीघ्र आरोग्य लाभ के लिए तृचकल्प में उक्त रीति के अनुसार तूच का व्यासपूर्वक मण्डल लेखन, पीठपूजन, प्रधान मूर्तिपूजा इ. विषय वर्णित है। T - - - - तृचभास्कर ले. भास्करराय भारती। विषय- यज्ञ कर्मों में उपयोग में आने वाली मुद्रओं के लक्षण । तृणजातकम् (नाटक) ले. दुर्गादत्त शास्त्री विद्यालंकार । 1983 में हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित बंधुआ मजदूरी, जातिभेद, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक दोषों का दर्शन इस नाटक में किया गया है। तेजोबिन्दूपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् | इसके 6 अध्याय और 462 श्लोक हैं। समस्त नव्य उपनिषदों में प्रदीर्घ यह उपनिषद्, काव्यमय भाषा में www.kobatirth.org - 130 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - लिखा गया है। पहले अध्याय में तेजोबिन्दु के ध्यान के बारे में विस्तृत विवेचन है। इस उपनिषद् में योग के (आठ के बदले) पंद्रह अंग बताये गये हैं। दूसरे अध्याय में परब्रह्म के चिन्मयस्वरूप का वर्णन है। तीसरे अध्याय में आत्मानुभूति के विवेचन के साथ की यह कहा गया है, की "अहं ब्रह्मास्मि" मंत्र का 7 कोटि बार जाप करने पर तुरंत मोक्ष प्राप्ति होती है। चौथे अध्याय में जीवनमुक्त व विदेहमुक्त का वर्णन है। पांचवें अध्याय में आत्मा और अनात्मा का भेद स्पष्ट किया गया है और छटवें अध्याय में कहा गया है कि चिदात्मा का सत्स्वरूप है ओंकार। इस संपूर्ण वर्णन को इस उपनिषद् में शांकरीय महाशास्त्र बताया गया है। तैत्तिरीय आरण्यक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का आरण्यक है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के ही एक भाग को तैत्तिरीय आरण्यक कहा जाता है। इसके दश प्रपाठक हैं और प्रत्येक प्रपाठक का कुछ अनुवाकों में विभाजन किया गया है। अनुवाकों की कुल संख्या है 170। इसके 7 से 9 तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीयोपनिषद् कहा जाता है। तैत्तिरीय आरण्यक में काशी, पांचाल, मत्स्य, कुरुक्षेत्र, खांडव, अहल्या आदि का वर्णन है। एक स्थान पर नरक का वर्णन है। इस ग्रंथ में तपस्वी पुरुष को श्रमण कहा गया है। (2.7.1 ) । बौद्धों ने यह शब्द यहीं से लिया प्रतीत होता है। यज्ञोपवीत का उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रंथ में हुआ है। (तै. आ.2.1) इसके अतिरिक्त यज्ञसंबंधी अनेक विषयों का समावेश इस ग्रंथ में है। इस आरण्यक में वेद की बहुतसी ऋचाओं के उदाहरण दिये गये हैं। प्रथम प्रपाठक में आरुण केतुक संज्ञक अग्नि की उपासना का वर्णन है, तथा द्वितीय प्रपाठक में स्वाध्याय व पंचमहायज्ञ वर्णित हैं। इस प्रपाठक में गंगा-यमुना के मध्यप्रदेश की पवित्रता स्वीकार कर मुनियों का निवासस्थान बतलाया गया है। तृतीय प्रपाठक में चतुर्होत्र चिति के मंत्र वर्णित हैं व चतुर्थ में प्रवर्ग्य के उपयोग में आने वाले मंत्रों का चयन है। इसमें शत्रु का विनाश करने के लिये अभिचार मंत्रों का भी वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीयसंकेत व षष्ठ प्रपाठक में पितृमेध विषयक मंत्र हैं। "व्यास" का निर्देश, उनके उपयुक्त निर्वचनों का संग्रह, यज्ञोपवीत शब्द की उपपत्ति इत्यादि अन्यान्य सामग्री इस आरण्यक में मिलती है। संपादनतैत्तिरीयारण्यकम् सायणभाष्यसहितम्, सम्पादक राजेन्द्रलाल मित्र, एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता, सन 1872 सन 1898 में पुणे आनंदाश्रम सीरीज द्वारा हरि नारायण आपटे (जो मराठी के अग्रगण्य उपन्यासकार थे) ने किया। - For Private and Personal Use Only तैत्तिरीय उपनिषद्- यह उपनिषद "कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का अंश है। तैत्तिरीय आरण्यक में 10 प्रपाठक या अध्याय हैं और इसके 7 वें, 8 वें, व 9 वें अध्याय को ही तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। इसके तीन अध्याय क्रमशः शिक्षावल्ली (12 अनुवाक) ब्रह्मानंद वल्ली (9 अनुवाक) व भृगुवल्ली (10 अनुवाक) के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका संपूर्ण भगा गद्यात्मक है। शिक्षावल्ली नामक अध्याय में वेद मंत्रों के उच्चारण के नियमों का वर्णन है व शिक्षा समाप्ति के पश्चात् गुरु द्वारा स्नातकों को दी गई बहुमूल्य शिक्षाओं का वर्णन है। ब्रह्मानंद वल्ली ने ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का निरूपण व ब्रह्म-विद्या का विवेचन है। प्रसंगवशात् इसी वल्ली में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनंदमय इन पंचकोशों का निरूपण किया गया है। इसमें बताया गया है कि ब्रह्म हृदय की गुहा में ही स्थित है। अतः मनुष्यों को उसके पास तक पहुंचने का मार्ग खोजना चाहिये, किंतु वह मार्ग तो अपने ही भीतर है। पंचकोश या शरीर के भीतर, अंतिम कोठरी अर्थात् (आनंदमय कोश) में ही ब्रह्म का निवास है, जीव जहां पहुंच कर रसानंद का अनुभव करता है। "भृगुवल्ली" में ब्रह्म -प्राप्ति का साधन तप व पंचकोशों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस अध्याय में अतिथि सेवा का महत्त्व व उसके फल का वर्णन भी है। इसमें ब्रह्म को आनंद मान कर सभी प्राणियों की उत्पत्ति आनंद से ही कही गई है। प्राचीन काल में अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् आचार्य अपने शिष्य को जो "सत्यं वद धर्म चर" आदि उपदेश दिया करते थे, वह सुप्रसिद्ध शिक्षावल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में अंकित है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - इस प्रातिशाख्य का संबंध यजुर्वेद "तैत्तिरीय संहिता" के साथ है। यह 2 खंडों में विभाजित है व प्रत्येक खंड में 12 अध्याय हैं। इस ग्रंथ की रचना सूत्रात्मक है। इस में सर्वत्र उदाहरण तैत्तिरीय संहिता से दिये हैं। प्रथम प्रश्न (या अध्याय) में वर्णसमानाय, शब्द-स्थान, शब्द की उत्पत्ति, अनेक प्रकार की स्वर व विसर्ग संधियों व मू_न्य-विधान का विवेचन है। द्वितीय प्रश्न में पत्वविधान, अनुस्वार, अनुनासिक, स्वरितभेद व संहितारूप का विवरण प्रस्तुत किया है। इस पर अनेक व्याख्याएं प्राप्त होती हैं जिनमें माहिषेयकृत “पाठक्रमसदन" सोमचार्यकृत "त्रिभाष्यरत्न" व गोपालयज्वा की "वैदिकाभरण" प्रकाशित हैं। इनमें प्रथम भाष्य प्राचीततम है। इसका प्रकाशन व्हिटनी द्वारा संपादित "जर्नल ऑफ दि अमेरिकन ओरीएंटल सोसाइटी" भाग 9, 1871। ई. मे हुआ था। 2. रंगाचार्य द्वारा संपादित व मैसूर से 1906 ई. में प्रकाशित ।। तैत्तिरीयब्राह्मणम् - यह "कृष्ण यजुर्वेदीय" शाखा का ब्राह्मण है। इसमें 3 कांड है। यह तैत्तिरीय संहिता से भिन्न न होकर उसका परिशिष्ट ज्ञात होता है। इसका पाठ स्वरयुक्त उपलब्ध होता है। इससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रथम व द्वितीय काण्ड में 12 अध्याय (या प्रपाठक) हैं व तृतीय में 13 अध्याय हैं। कुल अनुवाक 308 हैं। तैत्तिरीय संहिता मे प्रतिपादित यज्ञों की विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस में ब्राह्मण ग्रंथ के हेतु, निर्वचन, निन्दा, प्रशंसा, संशय, विधि, पराकृति, पुराकल्प, व्यवधारण, कल्पना, उपमान आदि सभी विषय आए हैं। इसके प्रथम अध्याय में अग्न्याधान, गवामयन, वाजपेय, सोम, नक्षत्रइष्टि व राजसूय का वर्णन है तथा द्वितीय अध्याय में अग्निहोत्र, उपहोम, सौत्रामणि, बृहस्पतिसव, वैश्वसव आदि अनेकानेक सवों का विवरण है। इसमें ऋग्वेद के अनेक मंत्र उद्धृत हैं और अनेक नवीन भी हैं। तृतीय अध्याय की रचना अवांतरकालीन मानी गई है। इसमें सर्वप्रथम नक्षत्रेष्टि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है व सामवेद को सभी वेदों में श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया है। मूर्ति व वैश्य की उत्पत्ति ऋक् से, गति व क्षत्रिय की उत्पत्ति यजुष से और ज्योति तथा ब्राह्मण की उत्पत्ति सामवेद से बतलाई गई है। ब्राह्मण की उत्पत्ति होने के कारण सामवेद का स्थान सर्वोच्च है। अश्वमेध का विधान केवल क्षत्रिय राजाओं के लिये किया गया है तथा उसका वर्णन बडे विस्तार के साथ है। पुराणों की कई अवतार संबंधी कथाओं के संकेत यहां मिलते हैं। वराह-अवतार का तो स्पष्ट उल्लेख भी है। इसमें वैदिक काल के अनेक ज्योतिष-विषयक तथ्य भी उल्लिखित हैं। इस पर सायण तथा भट्टभास्कर के भाष्य हैं। इसका प्रथम प्रकाशन व संपादन राजेंद्रलाल मित्र द्वारा कलकत्ता में हुआ था। (बिब्लिओथिका इंडिका में 1855-70 ई.)। आनंदाश्रम सीरीज पुणे से 1898 में प्रकाशित, संपादक एन्. गोडबोले। मैसूर में 1921 में श्री. श्यामशास्त्री द्वारा संपादित। तैत्तिरीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) ले- वैशंपायन की शिष्य परंपरा में से एक का नाम तित्तिरि था। तित्तिरि का प्रवचन पढने वाले तैत्तिरीय कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता के 7 काण्डों में, आठ प्रश्न, दूसरे, सातवें में पांच पांच, तीसरे, चौथे में सात सात और पांचवें, छटे में छः छः प्रश्न हैं। लौगाक्षिस्मृति में तैत्तिरीय संहिता के सात काण्डों के विषय-विभाग की विस्तृत व्याख्या मिलती है। तैत्तिरीय और कठों का आरम्भ से ही दृढ संबंध होता है। तैत्तिरीयों के दो भेद हैं (1) आखेय और (2) आत्रेय। तैसिरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद)- आज कल कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा को सर्वाधिक महत्त्व है। इसकी संहिता दो संस्करणों में उपलब्ध है। :- (1) आपस्तम्ब (महाराष्ट्र के देशस्थ ब्राह्मणों में और दक्षिण भारतीयों में) और (2) हिरण्यकेशी (महाराष्ट्रीय कोंकणस्थ ब्राह्मणों में)। इस संहिता में 7 अष्टक या काण्ड हैं। प्रत्येक अष्टक में 5 से 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय अनुवाकों में विभक्त है, अन्यत्र सर्वत्र भेद है। शुक्ल यजुर्वेद की कुछ बातों में साम्य छोड़ कर अन्यत्र अनेक मतभेद पाये जाते हैं। 4 और 5 काण्डों में पवित्र होमाग्नि का विषय वर्णित है। 7 वें में ज्यातिष्टोम और संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /131 For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सोमरस के निर्माण तथा उसके पान का वर्णन है। यह भी गद्यपद्यात्मक है और पदपाठ सहित इसकी विकृतियों का पाठ होता है। इसकी संहिता मंत्र और ब्राह्मण मिश्रित तथा गद्य-पद्यात्मक है। इसके प्रमुख भाष्यकारों में सायणाचार्य, बालकृष्ण दीक्षित, भट्टभास्कर, कपर्दीस्वामी, भवस्यामी, गुहदेव आदि के नाम उल्लेख हैं। इस संहिता का सर्वानुक्रमणी जैसा कोई ग्रंथ नहीं मिलता। फिर भी कुछ टीकाकारों के संकेतानुसार इसमें कुछ काण्डर्षियों तथा संहिता देवता आदि के नाम प्राप्त होते हैं। संहिता में राष्ट्रीय भावना का पर्याप्त और सुपुष्ट विवरण मिलता है। प्रायः ऋग्वेदानुसार देवताविचार होते हुए भी 'रुद्र' दैवत पर विशेष बल दिया गया है। इसका 'रुद्राध्याय' स्वतंत्र है। इसके पद पाठ के रचयिता ऋषि गालव और क्रम पाठ के शाकल्य हैं। - तैलमर्दनम् (प्रहसन) ले जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894 ) । तोडरानंदम् - ले- नीलकंठ । विषय- मुहूर्तशास्त्र । तोडलतन्त्रम् - उमा महेश्वर संवादरूप । श्लोक-500। पटल(उल्लास ) 5| विषय - दस महाविद्याओं के पूजन, पुरश्चरण, होम इ. तोषिणी तांत्रिक संग्रहबंध विषय कुल्लुका, सेतु महासेतु आदि का वर्णन । दक्षमखरक्षणम् (डिम) - ले व्ही. रामानुजाचार्य दक्षयागचम्पू ले नारायण भट्टापाद । - दक्ष स्मृति ले दक्ष ऋषि । इनका उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में किया गया है, विश्वरूप, मिताक्षरा व अपरार्क ने "दक्ष-स्मृति" के उद्धरण दिये हैं। जीवानंद संग्रह में उपलब्ध 'दक्ष-स्मृति' में 7 अध्याय व 220 श्लोक हैं। इसमें वर्णित विषय हैंचार आश्रमों का वर्णन, ब्रह्मचारियों के दो प्रकार, द्विज के आह्निक धर्म। कर्मों के विविध प्रकार, नौ प्रकार के कर्मों का विवरण, नौ प्रकार के विकर्म नौ प्रकार के गुप्तकर्म, खुलकर किये जाने वाले नौ कर्म। दान में न दिये जाने वाले पदार्थ, दान, उत्तम पत्नी की स्तुति, शौच के प्रकार, जन्म व मरण के समय होने वाले अशौच का वर्णन, योग व उसके षडंग और साधुओं द्वारा त्याज्य 8 पदार्थो का वर्णन । दक्षाध्वरध्यसंनम् ले म.म. नारायणशास्त्री ख्रिस्ते वाराणसी निवासी । - - दक्षिणकालिका-नित्यपूजालघुपद्धति श्लोक- 5001 दक्षिणकालिकापंचांगम् www.kobatirth.org - 132 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड ले रामभट्ट । रुद्रयामल से संगृहीत। श्लोक 1500 J दक्षिणकालिकापद्धति श्लोक 1000 यह दक्षिण कालिका की पूजा-पद्धति का प्रतिपादक निबन्ध ग्रंथ है। इसमें दक्षिण कालिकापूजा का निरूपण कर अंत में निर्वाण मंत्र दिया गया है जिसका मणिपूर चक्र में ध्यानपूर्वक जप करने का निर्देश है। दक्षिणकालिकार्चनपद्धति - ले त्रैलोक्यनाथ । श्लोक - 836 । विषय- कालिका के उपासकों की दैनिक चर्या के साथ कालीपूजा का विशेष विवरण । दक्षिणकालिकासंक्षेपपूजाप्रयोग श्लोक- 4681 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ले- सुन्दराचार्य । इसका दक्षिणकालिकासपर्याकल्पलता निर्माणकाल शकाब्द- 1480, तथा निर्माणस्थान वाराणसी कहा गया है। I कालीकुलसर्वस्वान्तर्गत दक्षिणकालिका सहस्त्रनामस्तोत्रम् शिव-परशुराम संवाद रूप। श्लोक- 367। दक्षिणकाली ककारादिसहस्त्रनाम ले- आदिनाथ । दक्षिणचैतन्यगूढार्थादर्श - ले काशीनाथभद्र भटोपनामक - जयरामपुत्र । दक्षिणयात्रादर्पणम् कवि श्री गोपालराव अटरेवाले यह चार प्रकरणों का चम्पूकाव्य है । कवि ने इस में दक्षिण भारत की तीर्थयात्रा का वर्णन किया है। रचना अपूर्ण प्रतीत होती है । इस रचना की एकमात्र उपलब्ध पाण्डुलिपि, सिंधिया प्राच्यशोधसंस्थान उज्जैन में है। (क्र. 7124)। प्रस्तुत लेखक द्वारा विरचित (1) (1) वेण्यष्टकम् (2) गोपीगीतम् (3) दक्षिणयात्रादर्पणम् (4) राधाविनोद (चम्पू) इन चार रचनाओं का प्रकाशन ई.स. 1945 में उज्जैन के शोध संस्थान के क्यूरेटर डॉ. सदाशिव कात्रे ने किया है। इस प्रबन्धचतुष्टयम् में उक्त चम्पू का भी समावेश किया गया है। दक्षिणाकल्प ले हरगोविन्द तंत्रवागीश । श्लोक- 10001 दक्षिणाचारचन्द्रिका ले काशीनाथ भोपनामक जयरामभट्ट का पुत्र । श्लोक- 1000 1 - · ले हरकुमार ठाकुर । For Private and Personal Use Only दक्षिणाचारदीपिका ले काशीनाथ। भडोपनामक जयरामभट्ट का पुत्र । श्लोक- 500 1 - दक्षिणामूर्ति उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से संबंध शिवस्तुति परक एक नव्य उपनिषद् । ब्रह्मावर्त में भांडीर वटवृक्ष के नीचे सत्र हेतु एकत्रित ऋषिगण सत्र की समाप्ति के पश्चात् मार्कण्डेय ऋषि के यहां गए। उन्होंने मार्कण्डेय से अमरत्व एवं नित्यानंद की प्राप्ति का रहस्य जानना चाहा। मार्कण्डेय ने बताया-' "शिवतत्त्व का ज्ञान होने से अमरतत्त्व की प्राप्ति होती है। जिसके द्वारा दक्षिणमुख शिव का साक्षात्कार इंद्रियों को होता है, वह तत्त्व महारहस्य है। इस उपनिषद् में इसी रहस्य को उद्घाटित किया गया है। इसमें कुछ मंत्र भी दिये गए हैं। उनमें मेधादक्षिणामूर्ति मंत्र इस प्रकार है 11 "ओम् नमो भगवते दक्षिणामूर्तये अस्मभ्यं मेघां प्रज्ञां यच्छ स्वाहा " । पश्चात् भावशुद्धि के लिये एक नवाक्षर मंत्र बतलाया है। फिर "ओम् नमः दक्षिणपदमूर्तये ज्ञानं देहि स्वाहा-" Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह अठारह अक्षरों का मंत्र, सभी मंत्रों से श्रेष्ठ बतलाया गया है। इस उपनिषद् में दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ निम्न प्रकार दिया है- बुद्धि ही दक्षिणा है। यह दक्षिणा जिसकी आंखे और मुख है, वही दक्षिणामूर्ति है। दक्षिणामूर्तिकौस्तुभ - ले- काशीनाथ । भडोपनामक जयरामभट्ट का पुत्र। दक्षिणामूर्तिचन्द्रिका - ले- भडोपनामक काशीनाथ। श्लोक2000। पटल- 151 दक्षिणामूर्तिदीपिका - ले- काशीनाथ। भडोपनामक जयराम भट्ट का पुत्र । विषय- दक्षिणामूर्ति शिव की नित्य और नैमित्तिक पूजाओं की प्रक्रियाएं। दक्षिणामूर्तिपंचांगम् - श्लोक- 8001 दक्षिणामूर्तिपूजापद्धति - ले- सुन्दाराचार्य। श्लोक- 525 । दक्षिणामूर्तिमंत्रार्णव - ले- शंकराचार्य । दक्षिणामूर्तिसहस्रनाम - व्याख्याएं- (क) प्रबन्धमानसोल्लाससुरेश्वराचार्य कृत। श्लोक- 400। 10 उल्लास। (ख) मानसोल्लास सुवृत्तरूपविलास, रामतीर्थकृत। श्लोक- 1050 । (ग) तत्त्वसुधा- स्वयंप्रकाशयति-विरचित। श्लोक- 4001 दक्षिणामूर्तिसंहिता- शिव-पार्वती-संवादरूप । पटल-64 । विषयएकाक्षरलक्ष्मीपूजा, महालक्ष्मी-पूजा, त्रिशक्तिमहालक्ष्मीयजन, अंतरंग-स्थित अक्षर परमज्योति विद्या की आराधना, अजप-सनाम-विधान, मातृका-पूजासाधन, त्रिपुरेश्वर-समाराधन, कामेश्वरपूजा आदि। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र - ले- श्रीशंकराचार्य। श्लोक- 48। इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई हैं। दक्षिणावर्तशंखकल्प - दक्षिणावर्त शंख एक प्रकार की निधि है। इसके घर में आने पर धनधान्य की समृद्धि हो जाती है, सम्पत्तियों का अम्बार लग जाता है ऐसी लोक-प्रसिद्धि है। उक्त शंख के सम्बन्ध में कतिपय विधियां इस में वर्णित हैं। दण्डिनीरहस्यम् - ले- सदाशिव द्विवेदी। दत्तकनिरूपणम् - ले-नीलकण्ठ। ई. 17 वीं शती। पिताशंकरभट्ट। विषय- धर्मशास्त्र । दत्तकनिर्णय - ले-नीलकंठ । ई. 17 वीं शती। पिता- शंकरभट्ट।। दत्तकमीमांसा - ले- नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। दत्त-करुणार्णव (स्तोत्र) - ले- श्रीधरस्वामी। सन 1908-1983 । रामदासी संप्रदाय के महाराष्ट्र के योगी। दत्तकसूत्रम् - ले- दत्तक। वेश्याओं से संबंधित कामशास्त्रीय रचना। गंगवंश के माधव वर्मा ने (ई.स. 380) इन सूत्रों की वृत्ति लिखी है जिसके केवल दो अध्याय उपलब्ध हैं। दत्तचम्पू - ले-वासुदेवानन्द सरस्वती । महाराष्ट्र के प्रख्यात योगी। दत्तपुराणम् - ले- वासुदेवानन्द सरस्वती । लेखक ने स्वयं इस नव्य पुराण पर टीका लिखी है। दत्तलीलामृताब्धिसार - ले- वासुदेवानन्द सरस्वती। दत्तात्रेय- उपनिषद् - अर्थर्ववेदान्तर्गत एक नव्य उपनिषद् । इसका स्वरूप तांत्रिक है। ग्रंथारंभ में दत्तात्रेय के तांत्रिक मंत्रों की चर्चा है। इसमें दं अथवा दां इस ओंकारसदृश दत्तबीजाक्षर का वर्णन किया गया है, पश्चात् छह, आठ, बारह और सोलह अक्षरों के दत्तमंत्र व दत्तात्रेय अनुष्टुभ् मंत्र दिये गये हैं। इस उपनिषद् के तीन छोटे खंड हैं। प्रथम खंड में उपरोक्त मंत्र, द्वितीय खंड में दत्तमाला-मंत्र तथा तृतीय खंड में फलश्रुति समाविष्ट है। द्वितीय खंडातर्गत दत्तामालामंत्र अतीव प्रभावी माना जाता है। इसके जाप से भूतपिशाच-बाधा नहीं होती। किसी को हुई हो तो इससे वह दूर की जा सकती है ऐसी श्रद्धा है। दत्तात्रेयकल्प - श्लोक- 200। इसमें नृसिंहमालामंत्र, ज्वरमंत्र, शूलिनीमंत्र, सुदर्शनमंत्र इत्यादि अन्तर्भूत हैं। दत्तात्रेयचंपू - ले- दत्तात्रेय कवि। ई. 17 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। इस चंपू- काव्य में विष्णु के अवतार दत्तात्रेय का वर्णन किया गया है जो 3 उल्लासों में समाप्त हुआ है। यह सामान्य कोटि का ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। दत्तात्रेयतन्त्रम् - ईश्वर-दत्तात्रेय संवादरूप। श्लोक- 644 । पटल- 22 | विषय-मारण मोहन, स्तम्भन इ. के उपाय । दत्तात्रेयपद्धति (दत्तार्चनकौमुदी) - ले-चैतन्यगिरि । दत्तात्रेयसहस्रनामभाष्य - ले- देवजी भट्ट । दत्तात्रेयसंहिता - श्लोक- 2251 विषय- योगांगनिरूपणपूर्वक बहुत से योगोपायों का प्रतिपादन। दत्तार्चनचन्द्रिका - ले- रामानन्द। गुरु-कृष्णानन्दसरस्वती। तीन परिच्छेदों में पूर्ण। विषय- त्रिपुराजा पद्धति।। दत्तिलम् - ले- दत्तिलाचार्य । ई. 4 थी शती । विषय- संगीतशास्त्र । दमयन्तीकल्याणम् (रूपक) - ले-रंगनाथ। ई. 18 वीं शती। प्राप्य प्रतियों में प्रथम अंक पूरा तथा द्वितीय अंक का कुछ अंश मिलता है त्रावणकोर के शुचीन्द्र मंदिर में अभिनीत । विषय- नल-दमयन्ती-विवाह की कथा। दमयन्ती-परिणयम् - ले-वासुदेव (मलबारनिवासी)। दयानन्ददिग्विजय (महाकाव्य) - ले- मेधाव्रत शास्त्री। 27 सर्ग। 2700 श्लोक। 12 और 15 सर्गों के दो काण्ड । हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित। विषय- आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का स्फूर्तिप्रद चरित्र। (2) लेअखिलानन्दशर्मा । सर्ग-21। दयानन्दलहरी - ले-मेधाव्रत शास्त्री। खंडकाव्य । दयाशतकम् (1) • ले- वेंकटनाथ। (2) ले- श्रीधर वेंकटेश (गेयकाव्य)। ई. 18 वीं शती। दरिद्र-दुर्दैवम् (प्रहसन ) - ले. जीव न्यायतीर्थ । जन्म 18941 संस्कृत साहित्य परिषद् ग्रंथमाला में 1968 में प्रकाशित । S संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 133 For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "ऋषि बंकिमचन्द्र महाविद्यालय"की "देवभाषा परिषद्' के वार्षिकोत्सव पर अभिनीत । कथासार - नायक वक्रेश्वर भिखारी है। उसकी दुर्दशा पर द्रवित होकर एक सिद्ध पुरुष उसे ऐसा दिव्य पाश देता है जिससे इच्छित वस्तु प्राप्त होती है और उससे दूना पडोसी को प्राप्त होता है। वक्रेश्वर अन्धता, कुष्ट और दारिद्र, मांगने की बात सोचता है तो सिद्ध उससे पाश छीन लेता है। दारिद्राणां हृदयम् (उपन्यास) - ले.नारायणशास्त्री खिस्ते । वाराणसी निवासी। दर्शनसार - ले. निजगुणशिवयोगी। समय ई. 12 वीं शती से 16 वीं शती तक (अनिश्चित)। 2) ले. देवसेन। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। दर्शनोपनिषद् - सामवेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् । महायोगी दत्तात्रेय और उनके शिष्य सांकृति के संवाद से यह उपनिषद विस्तारित हुआ है। दस खंडों के इस उपनिषद् में अष्टांग योग का विवेचन है। पहले खंड में योग के यम-नियमादि अष्टांग बतला कर प्रथम अंग यम की विस्तृत व्याख्या दी गई है, दूसरे खंड में नियमों का, तीसरे खंड में आसनों का, चौथे खंड में प्राणायाम का, इस प्रकार दस खंडों में समाधि तक के सभी योगांगों का व्याख्यापूर्वक विवेचन किया गया है। यह कहा गया है कि अष्टांग का अभ्यास पूर्ण होने के पश्चात् वह योगी ब्रह्ममात्र रहता है। उस समय उसे अनुभव आता है कि वह मैं ब्रह्म हूं। मैं संसारी नहीं। मेरे अतिरिक्त दूसरा अन्य कोई नहीं। जिस प्रकार सागरपृष्ट पर उभरे हुए फेनतरंगादि पदार्थ फिर से सागर ही में विलीन होते हैं, उसी प्रकार यह संसार मुझमे लीन होता है। अतः मुझसे पृथक् मन नाम की वस्तु नहीं, संसार नहीं और माया भी नहीं।" इस प्रकार महायोगी दत्तात्रेय द्वारा योगविद्या का उपदेश दिया जाने पर सांकृति स्वस्वरूप में स्थित हुए। दशकुमारचरितम् - ले. महाकवि दण्डी। पिता- वीरदत्त । माता- गौरी। ई. 7 वीं शती। कांचीवरम् के निवासी। ग्रंथ के नाम के अनुसार इस ग्रंथ में दस कुमारों का चरित्र कथन कवि को अभिप्रेत था परंत उपलब्ध आठ उच्छवासों में आठ कुमारों की ही कथा मिलती हैं। यह ग्रंथ पूर्व पीठिका (5 उच्छ्वास) और उत्तर पीठिका, नामक दो भागों में विभक्त है। कथासार - मगध नरेश राजहंस तथा मालवनरेश मानसार में युद्ध होता है। पराभूत मगधनरेश विन्ध्यपर्वत के अरण्य का आश्रय लेता है। राजपुत्र राजवाहन तथा मन्त्रियों के सात पुत्रों तथा मिथिला के दो राजकुमारों को मगधनरेश विजययात्रा पर भेजता है। वापिस आने पर प्रत्येक कुमार अपनी अपनी कहानी सुनाता है। उन कहानियों में 1) सोमदत्त और उज्जयिनी की राजकन्या वामलोचना का विवाह 2) पुष्पोद्भव और वणिक्कन्या बालचंद्रिका का विवाह, 3) राजवाहन और पिता के शत्रु मालवनरेश मानसार की राजकन्या अवंतिसुंदरी का प्रेमसंबंध 4) मिथिला का राजकुमार अपहारवर्मा और मिथिला के शत्रुराजा विकटवर्मा की पत्नी का विवाह (साथ ही रागमंजरी या काममंजरी नामक वेश्या की छोटी बहन से प्रेमसंबंध) 5) अर्थपाल और काशी की राजकन्या का विवाह 6) प्रमति और श्रावस्ती की राजकन्या का विवाह, 7) मातृगुप्त और दामलिप्त की राजकन्या कटुकावली का विवाह 8) मंत्रगुप्त और कलिंगराजकन्या कनकलेखा का विवाह एवं 9) विश्रुत और मंजुवादिनी का विवाह, इस प्रकार कुमारों के विवाहों की कथाओं का साहस कपट, जादू चमत्कार, चोरी, युद्ध इत्यादि अद्भुत एवं रोमांचकारी घटनाओं के साथ, वर्णन किया है। सारी घटनाओं के वर्णनों में वास्तवता का प्रत्यय आता है। इन सारी घटनाओं में दण्डी ने जिस समाज का वर्णन किया है वह गुप्त साम्राज्य के हास काल का माना जाता है। दशकुमारचरित की ख्याति एक धूर्ताख्यान की दृष्टि से है प्रस्तुत ग्रंथातंर्गत विविध प्रसंगों के वर्णनों से स्पष्ट होता है कि दंडी की दृष्टि वास्तववादी थी और उन्होंने समाज के सभी स्तरों का सूक्ष्म निरीक्षण किया था। दंडी ने यह गद्य ग्रंथ वैदर्भी शैली में लिखा। उसका पदलालित्य रसिकों को मुग्ध करने वाला है। इसीलिये "दंडिनः पदलालित्यम्" कहकर संस्कृत रसिकों ने दंडी की शैली का गौरव किया है। संप्रति यह ग्रंथ जिस रूप में उपलब्ध है, वह दंडी की मूल रचना न होकर उसका परिवर्धित रूप माना जाता है। ग्रंथ की पूर्वपीठिका के बीच मूल ग्रंथ है, जिसके 8 उच्छ्वासों में 8 कुमारों की कहानियां हैं और उत्तरपीठिका में किसी की कहानी न होकर ग्रंथ का उपसंहार मात्र है। वस्तुतः पूर्व व उत्तरपीठिकाएं दंडी की मूल रचना न होकर परवर्ती जोड है किंतु इन दोनों के बिना ग्रंथ अधूरा प्रतीत होता है। पूर्वपीठिका को अवतरणिकास्वरूप व उत्तरपीठिका को उपसंहार स्वरूप कहा गया है। दोनों पीठिकाओं को मिला लेने पर ग्रंथ पूर्ण हो जाता है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारंभ में दंडी ने संपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी किंतु कालांतर में इसका अंतिम अंश नष्ट हो गया और किसी अन्य कवि ने पूर्व व उत्तर पीठिकाओं की रचना कर ग्रंथ को पूरा कर दिया। पूर्व पीठिका व मूल “दशकुमारचरित' की शैली में अंतर दिखाई पडने से यह बात और भी अधिकं पुष्ट हो जाती है। दशकुमार चरित में कथा एकाएक स्थगित होती है तथा अपूर्ण जान पड़ती है। शेष भाग चक्रपाणि दीक्षित ने पूर्ण किया है। दशकुमारचरित के टीकाकारः 1) शिवराम 2) गुरुनाथ काव्यतीर्थ 3) कवीन्द्राचार्य सरस्वती 4) हरिदास सिद्धान्तवागीश 5) हरिपाद चट्टोपाध्याय 6) जी.के. आम्बेकर 7) ए.बी.गजेन्द्रगडकर 8) रेवतीकान्त भट्टाचार्य 9) जीवानन्द 10) 134 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तारानाथ तथा 11) घनश्याम। दशकुमारचरितसंग्रह नाम से एक अज्ञात कवि ने कथा का संक्षेप किया है। अन्य संक्षेपकार हैं आर.व्ही. कृष्णमाचार्य। दशकुमार -पूर्वकथासार - कवि- वीरभद्रदेव। अकबर की सभा में गोविंद भट्ट, बीरबल और पद्मनाभ मिश्र आदि हिन्दी संस्कृत के अनेक कवि थे। इनके सम्पर्क में वीरभद्र रहे। आपके गुणों का अभिनन्दन पद्मनाभ मिश्र के अनेक ग्रंथों में मिलता है। प्रस्तुत वीरभद्र-कृत ग्रंथ के अनुसार मगध के राजा राजहंस, मालवेश से पराजित होकर विंध्य के वनों में विपत्ति के दिन जब काट रहे थे, तब वहीं राजकुमार का जन्म हुआ। उनके मित्र के दो पुत्र, तीन मंत्रियों के तीन पुत्र और उनके साथ रहे चार मंत्रियों के चार पुत्र - ये दशकुमार मित्रवत् रहते हैं। वीरभद्रदेव को दण्डी का आधार प्राप्त था। यह एक स्वतंत्र काव्यरचना नहीं है। तथापि वीरभद्रदेव ने अपना भाषा का पयाप्त प्रयोग किया है। वारभद्रदव ने कथासार लिखने की परम्परा को आगे बढ़ाया है। दशकुमार-चरितम् (एकांकी- रूपक) - ले. ताम्पूरन । ई. 19 वीं शती। केरलवासी। दशकुमारचरितम् उत्तरार्धम् - ले. चक्रपाणि दीक्षित। दशग्रंथ - संहिता, ब्राह्मण, पदक्रम, आरण्यक, शिक्षा, छंद, ज्योतिष, निघंटु, निरुक्त व अष्टाध्यायी इन दस वेद-वेदांगों को "दशग्रंथ" कहा जाता है। आरण्यक को ब्राह्मण ग्रंथों में न लेते हुए उसका स्वतंत्र निर्देश किया है। उसी प्रकार निघंटु व निरुक्त को एक न मानते हए, उन्हें दो स्वतंत्र ग्रंथ माना गया है। व्याडि ने इन दशग्रंथों के नाम निराले दिये हैं जो इस प्रकार हैं- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, शिक्षा, कल्प, अष्टाध्यायी, निघंटु, निरुक्त, छंद व ज्योतिष। ये दशग्रंथ व्याडि द्वारा बताये गये हैं, अतः दशग्रंथों के अध्ययन की परंपरा अति प्राचीन सिद्ध होती है । दशग्रंथी वैदिक श्रेष्ठ माना जाता है। दशकोटि - ले. अण्णंगराचार्य शेष। नवकोटि का खण्डन । दशप्रकरणम् - ले. द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य। यह छोटे दार्शनिक निबंधों का एक समुच्चय है। इसमें संकलित निबंध द्वैत, वेदांत के तर्क, धर्म, ज्ञान-मीमांसा आदि विषयों का संक्षिप्त, परन्तु शास्त्रीय निरूपण प्रस्तुत करते हैं। इनके नाम हैं- प्रमाणलक्षण, कथालक्षण, उपाधिखंडन प्रपंचमिथ्यात्वानुमान- खंडन, मायावाद-खण्डन, तत्त्व-संख्यान, तत्त्व-विवेक, तत्त्वोदय, विष्णुतत्त्व-निर्णय और कर्म-निर्णय । "प्रमाणलक्षण" शीर्षक के निबंध में द्वैत मत के निर्धारित प्रमाणों की संख्या एवं स्वरूप का विवेचन किया गया है। कथा-लक्षण शीर्षक निबंध में शास्त्रार्थ की विधि का वर्णन 25 अनुष्टप् पद्यों में निबद्ध किया गया है। दशभक्ति - ले. देवनन्दी पूज्यपाद । जैनाचार्य। माता- देवश्री। पिता- माधवभट्ट। ई. 5-6 वीं शती। दशभक्त्यादिमहाशास्त्रम् - ले. वर्धमान। (द्वितीय) ई. 16 वीं शती। दशभूमिविभाषाशास्त्रम् - ले.नागार्जुन। यह एक भाष्य ग्रंथ है। कुमारजीव द्वारा चीनी भाषा में अनूदित। बोधिसत्त्व की दस भूमियों में प्रमुदिता और विमला का उल्लेख इसमें है। दशरथ-विलाप - ले. कवीन्द्र परमानंद शर्मा। लक्ष्मणगढ ऋषिकुल के निवासी। ई. 19-20 वीं शती। कवि ने संपूर्ण रामचरित्र का वर्णन किया है। दशरथ विलाप उसी का अंश है। दशरूपकम् - ले.धनंजय। मालवराज मुंज के आश्रित। ई. 10 वीं शती। नाट्य-शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ। इस ग्रंथ की रचना भरतकृत नाट्यशास्त्र के आधार पर हुई है। नाटक विषयक तथ्यों को इसमें सरस ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस पर अनेक टीकाग्रंथ लिखे गये हैं जिनमें धनंजय के भ्राता धनिक की “अवलोक" नामक व्याख्या अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसके अन्य टीकाकारों के नाम हैं- बहरूपभद्र, नसिंहभद्र, देवपाणि, क्षोणीधर मिश्र व कूरवीराम। संस्कृत में अभिनेय काव्य को रूप अथवा रूपक कहा जाता है। "रूप्यते नाट्यते इति रूपम्। रूपमेव रूपकम्" (जिसका अभिनय किया जाता है वह रूप। रूप ही रूपक है) नाट्य को दृश्य काव्य कहा जाता है। नाट्य दृश्य होता है और श्राव्य भी। नाटक के दर्शकों को अभिनय वेष तथा रंगभूमि आदि की सजावट देखनी होती है। अन्य आवाज सुनने होते हैं। इनमें से जो दृश्य होता है, वह प्रमुखतः अभिनेय होता है। उस अभिनेय दश्य को ही रूपक कहा जाता है। रूपक के दो प्रकार हैं- 1) प्रकृति व 2) विकृति । रूपक के सभी लक्षणों और अंगों से युक्त दृश्य काव्य को प्रकृतिरूपक कहा जाता है। दश रूपकों में नाटक, प्रकृति रूपक है। प्रकृतिरूपक के समान किन्तु रूपक का कोई वैशिष्ट्य रखने वाली कृति है विकृतिरूपक। ऐसे महत्त्वपूर्ण दस रूपक, भारत ने बताये है, जिनके नाम हैं- नाटक, प्रकरण अंक (अथवा उत्सृष्टांक) व्यायोग, भाण, समवकार, वीथी, प्रहसन, डिम व ईहामृग। इन दस रूपकों के अंकों की व्याप्ति एक से दश अंकों तक होती है। इनमें मुख्य रस होता है श्रृंगार अथवा वीर। कथावस्तु पांच संधियों में विभाजित होती है। किन्तु छोटे रूपकों में कुछ संधियां कम होती हैं। कथानक के मुख्य पुरुष को "नायक" कहते हैं। मूल कथावस्तु कमनीय, प्रमाणबद्ध, एकसंघ प्रभावोत्पादक होने की दृष्टि से कथा के पांच मूलतत्त्व माने गए हैं। उन्हें अर्थप्रकृति कहते हैं। उनके नाम हैं- बीज, बिन्दु, पताका प्रकरी और कार्य। रूपकों में गद्य व पद्य दोनों ही का प्रयोग किया जाता है। रूपकों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होने पर भी उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति की भी थोडी बहुत कल्पना आ सकती है। इसी विषय को संक्षेप में निवेदन करने हेतु धनंजय ने दशरूपक नामक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 135 For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथ लिखा जिसमें दस रूपकों के लक्षण और विशेषताएं बताई गई हैं। "दशरूपक' की रचना 300 कारिकाओं में हुई है, यह ग्रंथ 4 प्रकाशों में विभक्त है। प्रथम प्रकाश में रूपक के लक्षण, भेद, अर्थ-प्रकृतियां, अवस्थाएं, संधियां, अर्थोपक्षेक, विष्कंभक, चूलिका, अंकास्य, प्रवेशक व अंकावतार तथा वस्तु के सर्वश्राव्य, अश्राव्य, व नियतश्राव्य नामक भेद वर्णित हैं। इस प्रकाश में 68 कारिकाएं हैं। द्वितीय प्रकाश में नायक-नायिका भेद, नायक-नायिका के सहायक नायिकाओं के 20 अलंकार, 4 वृत्तियां (कैशिकी, सात्त्वती, आरभटी व भारती) नाट्य-पात्रों की भाषा का वर्णन है। इस प्रकाश में 72 कारिकायें हैं। तृतीय प्रकाश मे पूर्वरंग अंक विधान व रूपक के 10 भेद वर्णित हैं। इसमें 76 कारिकाएं हैं। चतुर्थ प्रकाश में रस का स्वरूप, उसके अंग व 9 रसों का विस्तृत वर्णन है। इस अध्याय में रसनिष्पत्ति, रसास्वादन के प्रकार तथा शांत रस की अनुयोगिता पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। इस प्रकाश में 86 कारिकाएं हैं। इसके 3 हिंदी अनुवाद प्राप्त हैं- 1) डॉ. गोविंद त्रिगुणायत कृत दशरूपक का अनुवाद । 2) डॉ. भोलाशंकर व्यास कृत दशरूपक व धनिक की अवलोक नामक व्याख्या का अनुवाद (चौखंबा विद्याभवन) 3) आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीकृत अनुवाद (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) दशरूपक-तत्त्वदर्शनम् - ले. डॉ. रामजी उपाध्याय। सागर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष । भारतीय नाट्यशास्त्र से संबंधित प्रायः सभी विषयों का परामर्श प्रस्तुत प्रबंध में 23 अध्यायों में (पृष्ठसंख्या 215) लिया गया है। नाट्यशास्त्र का सर्वकष प्रतिपादन करने वाला यह एक उत्तम गद्य प्रबंध नाट्यशास्त्र के अध्येताओं के लिए उपकारक है। प्रकाशन वर्ष वि.सं. 2035। प्रकाशक- भारतीय संस्कृति संस्थानम्, नारीबारी, इलाहाबाद। दशलक्षणी व्रतकथा - ले. श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती। दश-श्लोकी - ले. निंबार्काचार्य। स्वसिद्धांत प्रतिपादक 10 श्लोकों का संग्रह। इस पर हरि व्यास देव कृत व्याख्या प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।। दशाननवधम् - ले. योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि। ई. 20 वीं शती। व्याकरणनिष्ठ महाकाव्य । दशावतारचरितम् - ले.क्षेमेन्द्र। ई. 11 वीं शती। पिताप्रकाशेन्द्र। विष्णुभक्ति की भावना से प्रेरित होकर लिखा हुआ काव्य। दशावतारचरितम् - ले. कविशेखर राधाकृष्ण तिवारी। सोलापुर (महाराष्ट्र) के निवासी। दशावताराष्टोत्तराणि - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । दशोपनिषद-भाष्यम् - ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं श. द्वैतमत का प्रतिपादन इस का प्रयोजन है। दस्युरत्नाकर - ले. ध्यानेश नारायण तथा विश्वेश्वर विद्याभूषण । ई. 20 वीं शती। 1 सन 1957 में "मंजूषा" में प्रकाशित । एकांकी। दृश्यसंख्या चार । नान्दी प्रस्तावना तथा भरतवाक्य का अभाव । नायक दस्युरत्नाकर के मुनि वाल्मीकि बनने तक का चरित्र-विकास है। दाधीचारिगजाङ्कुश - ले. पं. शिवदत्त त्रिपाठी । दानकेलिकौमुदी - ले. रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण विषयक काव्य । दानकेलिचिन्तामणि - ले. रघुनाथदास। ई. 15 वीं शती । कृष्णचरित विषयक काव्य । दानभागवतम् - ले. कुबेरानन्द । श्लोक 1600। दानशीला - ले. भट्टमाधव चक्रवर्ती। ग्वालियर निवासी। इसका प्रकाशन दो बार किया गया है। ___ 1) काव्यमाला के तृतीय गुच्छक में ई. स. 1899 में निर्णयसागर प्रेस से किया गया है। 2) खेमराज कृष्णदास ने वेंकटेश प्रेस से ई.स. 1931 में किया है। इस रचना में 53 पद्य हैं। सभी पद्य शृंगारप्रचुर हैं। दानवाक्यावली - ले.हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती । पिता कामदेव। दानस्तुतिसूक्तम् - विभिन्न राजाओं ने ऋषियों को अश्व, गाय, बैल, धन का जो दान किया, उसके लिये इन ऋषियों ने राजाओं की स्तुति की। इसे ही दानस्तुति-सूक्त कहा गया है। कात्यायन के ऋक्सर्वानुक्रमणी में ऐसे 22 सूक्तों का उल्लेख है। परंतु आधुनिक विद्वानों के अनुसार यह संख्या 68 है। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 117 वें सूक्त में दान माहात्य का ओजस्वी वर्णन है : मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः । सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य । नार्यमणं पुष्यति नो सखायं । केवलाघो भवति केवलादी। ___ अर्थ - जिस मूर्ख ने व्यर्थ अन्नप्राप्ति के लिये श्रम किये वह अन्न नहीं, साक्षात् मृत्यु ही है क्यों कि जो याचकों के रूप में आने वालों को अन्नदान कर संतुष्ट नहीं करता, मित्रों को भी संतुष्ट नहीं करता, अकेला ही खाता है, वह महापातकी है। यह वेदवचन सुप्रसिद्ध है। दाय-भाग - ले. जीमूतवाहन । बंगाल के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार । इस ग्रंथ में हिन्दु कानूनों का विस्तृत विवेचन है। रिक्थ विभाजन, स्त्री-धन व पुनर्मिलन का अधिक विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। "दाय-भाग" में पुत्रों को पिता के धन पर जन्मसिद्ध अधिकार नहीं दिया गया है, अपितु पिता के मरने, संन्यासी होने या पतित हो जाने पर ही संपत्ति पर पुत्रों का अधिकार होने का वर्णन है। पिता की इच्छा होने पर ही उसके धन का पुत्रों में विभाजन संभव है। इस ग्रंथ में यह 136/र कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काव्यमय वर्णन। दिल्लीमहोत्सव - ले-श्रीश्वर विद्यालंकार भट्टाचार्य । सन 1903 में प्रकाशित । सर्गसंख्या 6। सन 1901 में सप्तम एडवर्ड के राज्याभिषेकनिमित सम्पन्न दिल्ली दरबार का वर्णन। दिल्ली- सामाज्यम् (नाटक) - ले- लक्ष्मण सूरि। जन्म 18591 लेखक की पहली रचना। सन 1912 में मद्रास से प्रकाशित। अंकसंख्या- पांच। चालीस से अधिक पात्र । स्त्री पात्र कम। उच्च कोटि को स्त्रियां और अन्य कन्यकाएं प्राकृत बोलती हैं। वीर या शृंगार के स्थान पर 'दया' अंगी भाव । भाषा सुबोध एवं नाट्योचित । अंग्रेजी के सुबोध संस्कृत पर्याय इसमें प्रयुक्त हैं। कथासार :- वाइसरॉय लॉई हार्डिंग्ज दिल्ली में पंचम जॉर्ज का राज्याभिषेक करना चाहता है। पार्लियामेंन्ट में चर्चा होती है। फिर भारतीय नरेश बकिंगहॅम पॅलेस में सम्राट् से मिलते हैं। उनके बम्बई आने पर सर मेहता प्रशस्तिपत्र पढ़ते हैं। उनसे शिक्षा-प्रकाश की मांग करते हैं। जॉर्ज उन्हें यथा शीघ्र शिक्षा के प्रसार का वचन देते है। अंतिम अंक में जॉर्ज का विधिवत् राज्याभिषेक होता है और वे शिक्षा विकास के हेतु 50 लाख रु. प्रदान करते हैं। भी बताया गया है कि पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा का अधिकार न केवल पति के धन पर अपितु उसके भाई के संयुक्त धन पर भी हो जाता है। इस ग्रंथ में अनेक विचार "मिताक्षरा" के विपरीत व्यक्त किये गये हैं। दायाधिकारक्रम - ले. लक्ष्मीनारायण। दारुकावनविलास - ले- रत्नाराध्य । दारुणसप्तकम् - उमा-महेश्वर संवादरूप। आकाशतन्त्रोक्त। दाशरथीयतन्त्रम् - इसके मूल प्रवक्ता दशरथ पुत्र राम हैं। यह रामोपासना- विषयक वैष्णव तंत्र है। पूर्वार्ध में 59 अध्याय और उत्तरार्ध में 45 अध्याय हैं। उत्तरार्ध का नामान्तर है 'सौभाग्यविद्योदय' । पूर्वार्ध में कहा गया है कि प्रस्तुत दाशरथीय तंत्र 'अनूत्तर-ब्रह्मतत्त्वरहस्य' नामक श्रुतिसंग्रह के अन्तर्गत है। उत्तरार्थ में श्रीविद्या, लक्ष्मी, महालक्ष्मी, त्रिशक्ति और साम्राज्यशक्ति इनमें श्रीविद्या का माहात्म्य वर्णित है। इसके अनन्तर पाशुपती, वैष्णवी तथा त्रैपुरी दीक्षाओं का वर्णन है एवं दक्षिणामूर्तिद्वारा उपदिष्ट विज्ञान का भी वर्णन है। 28 से 45 वें अध्याय तक राजराजेश्वरी विद्या का माहात्म्य वर्णित है। दाशरथिशतकम् - अनवादक- चिट्टीगुडूर वरदाचारियर। मूल तेलगु काव्य। दिग्दर्शनी - उत्कल संस्कृत गवेषणा समाज की त्रैमासिकी पत्रिका। संपादक- डॉ. पतितपावन बॅनर्जी। कार्यालय :- हवेली लेन, जगन्नाथपुरी। वार्षिक शुल्क- रु. 10/दिग्विजयम् - कवि- मेघविजयगणि। 13 सों का काव्य । विषय- कच्छभूपति विजय- प्रभुसूरि का चरित्र। दिग्विजय-प्रकाश - कवि- राम । व्रजवासी । ई. 17 वीं शती। दिनकरीयप्रकाशतरंगिणी - ले- रामरुद्र तर्कवागीश। दिनकरोद्योत - (या शिवधुमणिदीपिका) - ले- दिनकर। ई. 17 वीं शती। पिता का अर्धलिखित ग्रंथ प्रख्यात पुत्र विश्वेश्वर (गागाभट्ट) द्वारा समाप्त हुआ। विषय आचार, अशौच, काल, दान, पूर्त, प्रतिष्ठा, प्रायश्चित्त, व्यवहार, वर्षकृत्य व्रत, शूद्र, श्राद्ध एवं संस्कार। दिनत्रयनिर्णय - ले- विद्याधीश मुनि । दिनत्रयमीमांसा - ले- नारायण। माध्व अनुयायियों के लिए लिखित आचारधर्म-विषयक ग्रंथ। दिनभास्कर - ले- शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश। ई. 18 वीं शती। गृहस्थों के आह्निक कृत्यों का संग्रह। दिनसंग्रह - ले-रघुदेव नैय्यायिक। दिनाजपुर-राजवंश-चरितम् (काव्य) - ले- महेशचंद्र तर्कचूडामणि। ई. 20 वीं शती। सर्गसंख्या- 17। दिल्लीप्रभा - कवि वेदमूर्ति श्रीनिवास शास्त्री। 1911 के दिल्ली-दरबार का काव्यमय वर्णन। (2) कवि- शिवराम शास्त्री, शतावधानी विद्वान्। 1911 के दिल्ली-दरबार का दिव्यचापविजय-चंपू-ले- चक्रवर्ती वेंकटाचार्य । इस चंपू-काव्य में 6 स्तबक है। विषय- दर्भशयनम्' की पौराणिक कथा । कथा का प्रारंभ पौराणिक शैली पर है और प्रसंगतः राम-कथा का भी इसमें वर्णन है। कवि ने कथा के माध्यम से 'तिरुपल्लाणि' की पवित्रता व धार्मिक महत्ता का प्रतिपादन किया है। दिव्यज्योति - सन 1956 में शिमला से विद्यावाचस्पति आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा के सम्पादकत्व में इस मासिकपत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।केशव शर्मा शास्त्री इसके प्रबंध संपादक हैं। इसमें अर्वाचीन विषयों के अलावा काव्य, नाटक, दूतकाव्य, गीत, विनोद, आयुर्वेद, इतिहास, समीक्षा, आदि विषयों से सम्बधित रचनाओं का प्रकाशन होता है। इसके अर्वाचीन संस्कृत कवि परिचयांक, अभिनव शब्द निर्माणांक, संस्कृत पत्र लेखनांक, कथानिका विशेषांक विशेष लोकप्रिय रहे। वार्षिक मूल्य छः रु.। प्रकाशन स्थल- दिव्यज्योति कार्यालय, आनन्द लॉज, जाखू, शिमला। दिव्यतत्त्वम् - ले- रघुनंदन। टीका- मथुरानाथ शुक्ल द्वारा। (2) ले- देवनाथ। विषय-वैष्णव कृत्य। इस का अपर नाम है तंत्रकौमुदी। दिव्यदीपिका - ले- दामोदर ठक्कुर। मुहम्मदशाह के शासन में संगृहीत। विषय- धर्मशास्त्र । दिव्यदृष्टि (उपन्यास) - ले- नारायणशास्त्री खिस्ते। वाराणसी के निवासी। अपक्व बुद्धि के पाठकों के लिये सरल संस्कृत में रचना। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 137 For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिव्यनिर्णय - ले- दामोदर ठक्कर। संग्रामशाह के राज्य में संगृहीत। विषय धर्मशास्त्र। दिव्यप्रबन्ध - ले.-व्यंकटेश वामन सोवनी। दिव्यवाणी - मासिक पत्रिका। संपादक-सूर्यनारायण मिश्र । दिव्यसंग्रह - ले- सदानन्द । दिव्यसिंहकारिका - ले- दिव्यसिंह । लेखक के कालदीप एवं श्राद्धदीप का पद्यात्मक संक्षेप। दिव्यशास्त्रतंत्रम् - इस में चौदह पीठ (अध्याय) हैं। यह ग्रंथ शाबरतंत्र नाम से अरुणोदय और इन्द्रजाल-संग्रह में मुद्रित हो चुका है। दिव्यसूरिचरितम् - कवि- गरुडवाहन पण्डित। विषय- अलवार संप्रदाय के 12 वैष्णव साधुओं का चरित्र । दिव्यावदानम् - महत्त्वपूर्ण अवदान ग्रंथ। ई. 2 री शती। यह अवदानशतक के बाद की रचना है। मूल संस्कृत का सम्पादन डॉ. कॉवल तथा नील द्वारा हुआ। अंग्रेजी, जर्मन अंशानुवाद के साथ जे.एस. स्पेयर की आलेचनात्मक टिप्पणियां हैं। नवीनतम संस्करण पी.एल. वैद्य द्वारा प्रकाशित हुआ। इस में महायान तत्त्व यत्र तत्र उपलब्ध है। तथापि संपूर्ण रचना हीनयान के अनुकूल है। अवदानशतक का इस पर प्रभाव स्पष्ट दीख पडता है। इसमें अधिकांश कथाएं सरल संस्कृत गद्य में तथा कतिपय अंश काव्य शैली में हैं। सालंकार रचनायुक्त, कहीं दीर्घ समास भी पाए जाते हैं। अधिकांश कथाएं अन्य ग्रंथों में भी प्राप्त होती हैं। इस रचना के 26 से 29 तक परिच्छेद अशोकावदान नाम से ज्ञात हैं। दिव्यानुष्ठानपद्धति - ले- नारायण भट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता-रामेश्वरभट्ट। दीक्षाक्रम - कालीसोपानोल्लासान्तर्गत- श्लोक- 300। शक्ति की उपासना में अधिकार प्राप्ति के लिए साधक को दी जाने वाली दीक्षा की विधि इसमें वर्णित है। उमा- महेश्वर संवादरूप। दीक्षातत्त्वम् - ले- रघुनन्दन । दीक्षातत्त्वप्रकाशिका - ले- रामकिशोर। दीक्षादर्श - ले- देवज्ञान । पिता- वामदेव। दीक्षापद्धति - ले- श्रीहंसानन्दनाथ योगी। श्लोक- 2251 विषय- त्रिपुरसुन्दरी की तांत्रिक उपासना में अधिकार-प्राप्ति के लिए साधक को दी जाने वाली दीक्षा के नियम, विधि इत्यादि। दीक्षाप्रकाश - ले-जीवनाथ। श्लोक- 1898 । दीक्षाविधानम् - परमानन्दतंत्रान्तर्गत, सपादलक्ष (125000) श्लोकात्मक, उमा-महेश्वर संवादरूप। विषय- शक्ति की उपासना में अधिकार सिद्धि के लिए साधक की आम्नायदीक्षा- विधि । दीक्षाविधि - इसमें क्रियादीक्षा, वर्णदीक्षा, कलावती, स्पर्श, दृग, वेध, शाक्त, यामल, पंचपंचिका, चरण, मेध्य, कौशिकी आदि दीक्षाएं तथा पूर्णाभिषेक वर्णित हैं। दीक्षाविनोद - ले-रामेश्वर शुक्ल। दीक्षासेतु - ले- रामशंकर। विषय- तंत्रशास्त्र । दीक्षितेन्द्रचरितम् (महाकाव्य) - ले- वे. राघवन्। मद्रास विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष। प्रस्तुत काव्य में श्री मुत्तुस्वामी दीक्षित का चरित्रवर्णन है। चरित्रनायक बडे योगी थे तथा उन्होंने कर्नाटकीय पद्धति के अनुसार सैकडों संस्कृत गीतों की संगीतमय रचना की है। यह महाकाव्य इ. 1955 में मद्रास में प्रकाशित हुआ। इस अवसर पर जगद्गुरु कांचीपीठाधीश्वर ने डॉ. राघवन् कवि को "कविकोकिल" उपाधि प्रदान की। दीधिति - ले- रघुनाथ शिरोमणि। ई. 14 वीं शती। यह गंगेशोपाध्याय कृत सुप्रसिद्ध ग्रंथ तत्त्वचिंतामणि की महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। (2) ले-बदरीनाथ शर्मा । ध्वन्यालोक की टीका । दीधितिटीका - ले- रामभद्र सार्वभौम । दीधितिरहस्यम् - ले- मथुरानाथ तर्कवागीश। पिता- रघुनाथ के ग्रंथ की टीका। दीनदासो रघुनाथः- ले-यतीन्द्रविमल चौधुरी। प्राच्यवाणी, कलकत्ता से सन 1962 में प्रकाशित। चैतन्य महाप्रभु के 474 वें जन्मदिन पर अभिनीत। अंकसंख्या- बारह। वैष्णव भक्त रघुनाथ का जीवनचरित्र वर्णित । दी न्यू टेस्टामेन्ट ऑफ जेसूस ख्रिस्ट- मूल-यूनानी से संस्कृत अनुवाद, विलियम केरी के अधीक्षण में, श्रीरामपुर के पादरी द्वारा सन 1808 से 1811 इ.। 3 खंड। (2) संस्कृत अनुवाद श्रीरामपूर के पादरी द्वारा। ई. 18211 (3) मूल हिब्रू से संस्कृत अनुवाद बैप्टिस्ट पादरी द्वारा। कलकत्ता में ई. 1843 में प्रकाशित। (4) संस्कृत अनुवाद, स्कूल बुक सोसायटी मुद्रणालय, कलकत्ता ई. 1842 । (5) हिब्रू से संस्कृत अनुवाद, बैप्टिस्ट मिशन मुद्रणालय, कलकत्ता। ई. 1846। दीपक - ले-भद्रेश्वर सूरि। गणरत्न महोदधिकार द्वारा उद्धृत । विषय- व्याकरण। दीपकर्मरहस्यम् - उड्डामरतंत्र में कार्तवीयार्जुनविद्या के अन्तर्गत । श्लोक- 2521 दीपकलिका - ले- शूलपाणि । याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका । दीपदानरत्नम् - ले- प्रेमनिधि पन्त। विषय- तंत्रशास्त्र। दीपदानविधि - ले- रामचन्द्र । विषय- बटुक भैरव के निमित्त दीपदानविधि - श्लोक- 111। दीपदीपिका - श्लोक-1000 । पटल-81 । विषय- तंत्रशास्त्र । दीपप्रकाश - ले- प्रेमनिधि पन्त । नंद-पुत्र दीनानाथ के प्रेम से शकाब्द 1648 में विरचित। इसमें कार्तवीर्य और बटुक-भैरव को दीप अर्पण की विधि दी है। 138 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org · दीपिका ले शिवनारायण दास उपाधि सरस्वती कण्ठाभरण । ई. 17 वीं शती । काव्यप्रकाश पर टीका । दीपिका दीपनम् ले राधारमणदास गोस्वामी वृंदावननिवासी। ई. 19 वीं शती (पूर्वार्ध) श्रीमद्भागवत की श्रीधरी व्याख्या को सरल बनाने हेतु लिखी गई टीका। श्रीधरी व्याख्या संक्षिप्त सी है। अतः कठिन है । इस लिये श्रीधरी के भावार्थ को सरल बनाने के लिये वृंदावन निवासी राधारमणदास गोस्वामी ने 'दीपिकादीपन' नामक टीका लिखी। किंतु इसे उन्होंने टीका न कहकर टिप्पणी कहा है। यह टीका पूरे भागवत पर न होकर कतिपय स्कंधों तक ही सीमित है इसमें एकादश स्कंध की व्याख्या सर्व तदनंतर प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ ( 16 वें अध्याय के 20 वें श्लोक तक ) की तथा वेद-स्तुति की टीका लिखी गई है टीका बड़े विस्तार से की गई है। I प्रतीत होता है कि 1 प्रथम की गई है। 1 प्रस्तुत दीपिकादीपन के लेखक राधारमणदास चैतन्य महाप्रभु के मतानुयायी वैष्णव संत थे । इसी लिये एकादश स्कंध के आरंभ में ही चैतन्य अद्वैत नित्यानंद तथा षट्संदर्भ के प्रकाशक श्री गोपाल भट्ट की वंदना है । टीका के आरंभ में कोई मंगलाचरण नहीं। वह एकादश स्कंध के आरंभ में है, जिससे प्रतीत होता है कि एकादश स्कंध की टीका का प्रणयन सर्वप्रथम किया गया होगा। इसी एकादश स्कंध के आरंभ में टीकाकार ने अपने कुटुंबीय जनों का निर्देश किया है। दुन्दुम शाखा कृष्ण यजुर्वेद की एक नामशेष शाखा । दुःखोत्तरं सुखम्- ले. प्रा. एम. अहमद। मुंबई - निवासी । 'जामे उल्लिकायान" नामक फारसी कथासंग्रह का (जो अलफर्जबादषि नामक अरबी ग्रंथ का अनुवाद है) यह संस्कृत अनुवाद प्रा. अहमद ने किया है। इस में व्यास - वाल्मीकि के सुभाषित उद्धृत करते हुए कुछ अधिक कथाएं लिखी हैं। दुर्गभंजनम् (या स्मृतिदुर्गभंजनं ) - चंद्रशेखर शर्मा । नवद्वीप के वारेन्द्र ब्राह्मण । चार अध्यायों में, तिथि, मास दुर्गापूजा, उपवास इत्यादि धार्मिक कृत्यों के अधिकारी एवं प्रायश्चित्त आदि धर्मसंबंधी संदेहों को दूर करने का प्रयत्न इस ग्रंथ में हुआ है। दुर्ग ले- दुर्गसिंह । ई. 8 वीं शती। इन्होंने कातंत्र धातुपाठ पर एक वृत्ति लिखी थी जिसके उद्धरण व्याकरण शास्त्र के ग्रंथों में मिलते हैं। इस वृत्ति के महत्त्व के कारण कातंत्र - धातुपाठ "दुर्ग" नाम से प्रसिद्ध हो गया है। दुर्गम-संगमनी (या दुर्गसंगमनी) - ले- जीव गोस्वामी । ई. 16 वीं शती रूपगोस्वामी के भक्ति रसामृत सिंधु की यह टीका है। टीकाकार रूपगोस्वामी जी के भतीजे थे। दुर्गवधकाव्यम् - ले- गंगाधर कविराज । ई. 1798-1885 | 1 दुर्जन मुख - चपेटिका ले रामचंद्राश्रम । वल्लभ संप्रदाय की - १ मान्यतानुसार भागवत की महापुराणता के पक्ष में लिखित एक लघु-कलेवर ग्रंथ पूर्ववर्ती गंगाधरभट्ट द्वारा । लिखित'दुर्जन मुख - चपेटिका' की अपेक्षा, प्रस्तुत 'चपेटिका 'परिमाण में कम है। इसी प्रकार के अन्य 5 लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, 'सप्रकाश तत्त्वार्थ-दीप-निबंध' के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट के रूप में मुंबई में ई. 1943 में किया गया है 1 दुर्बलबलम् (रूपक) ले- विद्याधरशास्त्री । रचना- सन् 1962 में चीन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण की कथा । इसका नायक आनन्द काश्यप नामक बौद्ध है। अंकसंख्या- चार। दुर्गाक्रयाभेदविधानम् महाशैवतंत्र से गृहीत । श्लोक 924 | 13 उपदेशों में विभक्त । · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्गाचरित्रम् ले शिवदत्त त्रिपाठी। - । दुर्गातत्त्वम् ले रामवभट्ट (2) ले प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज | सूत्रबद्ध ग्रंथ । दुर्गा - दकारादि- सहस्त्रनामस्तोत्रम् - कुलार्णवतंत्रांतर्गत । दुर्गानुग्रह (महाकाव्य) ले पुल्य उमामहेश्वर शास्त्री इसमें प्रथम 6 सर्गों में काशी के तुलाधार श्रेष्ठी का चरित्र, 7 से 9 सर्गो मे पुष्कर श्रेत्र के समाधि नामक वैश्य का चरित्र तथा आगे के सर्गों में विजयवाडा के धनाढ्य व्यापारी चुण्डरी वेंकटरेड्डी का चरित्र वर्णन है रेडी जी का चरित्र वर्णन कवि ने धनाशा से किया है। इस कवि की अन्य रचना आंध्र के विद्वान साधु वेल्लमकोण्ड रामराय का चरित्र वर्णन अश्वघाटी के 108 श्लोकों में है । दुर्गापंचांगम् - रुद्रयामल तंत्रान्तर्गत देवीरहस्य में उक्त देवी - भैरव संवादरूप | विषय - 1) दुर्गापूजाविधि 2) दुर्गापूजापद्धति 3 ( दुर्गासहस्रनाम, 4) दुर्गाकवच, 5 ) दुर्गास्तोत्र | दुर्गाप्रदीप - ले- नीलकण्ठ । पिता- रंगनाथ । श्लोक - 3000 1 विषय- तंत्रशास्त्र । दुर्गाभक्तितरंगिणी ( या दुर्गोत्सवपद्धति) - ले- प्रसिद्ध कवि विद्यापति उन्होंने मिथिलाधिपति भैरवसिंह (धीरसिंह के भाई) के संरक्षण में यह ग्रंथ रचा। तरंग-2। पहले में 32 श्लोकों द्वारा सामान्य रूप से देवीपूजाविधि वर्णित है तथा पूजा की तिथियां। दूसरे में दुर्गोत्सव का प्रतिपादन है। इस पुस्तक की सामग्री प्रायः देवीपुराण कालिकापुराण, भविष्यपुराण आदि पुराणों से संगृहीत है। गौड निबंध, शारदातिलक, शिल्पशास्त्र, शिवरहस्य आदि से भी उद्धरण लिये गये हैं। यह विद्यापति की अंतिमरचना है। (2) ले माधव । For Private and Personal Use Only दुर्गाभक्तिलहरी - ले- रघूत्तम तीर्थ । श्लोक- 1769 । विषयपरब्रह्म का भक्तों के उपर अनुग्रह करने के लिए दुर्गा आदि के रूप में शरीर कल्पन, ज्ञानियों को भी दुर्गा का ही सेवन और भजन करना चाहिये, देवीकीर्तन का माहात्म्य आदि । दुर्गाभ्युदयम् (रूपक) ले- छज्जूराम शास्त्री। सन् 1931 - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 139 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra में प्रकाशित । अंक संख्या सात विषय- दुर्गासप्तशती में वर्णित दुर्गादेवी का चरित्र | दुर्गामंत्रविभागकारिका श्लोक- 2151 दुर्गारहस्यम् पटल - 101 विषय- मंत्रविग्रह, पुरश्चर्याविधि, चक्रपूजाविधि इ. - 1 दुर्गाराधनचन्द्रिका श्लोक- 784। विषय- तंत्रशास्त्र । दुर्गार्चनकल्पतरु ले देवशशिरोमणि लक्ष्मीपति पिताकृष्णानन्द 10 कुसूमों में पूर्ण विषय-पूजा, पाठ आदि का निर्णय प्रतिपदा से पंचमी पर्यंत कृत्य, बिल्व का अभिमंत्रण, अष्टमी, नवमी, दशमी के कृत्य, बलिदान, कुमारीपूजन इत्यादि । दुर्गार्चनामृतरहस्यम् - ले. मथुरानाथ शुक्ल । विषय- तंत्रशास्त्र । दुर्गार्चाकालनिष्कर्ष - ले. मधुसूदन वाचस्पति । दुर्गाचकौमुदी - ले. परमानन्द शर्मा । दुर्गार्चाकुर ले. कालीचरण । दो खण्डों में पूर्ण प्रथम में जगद्धात्रीपूजा और द्वितीय में कालिका पूजा है। इसमें दुर्गापूजा को कार्तिक शुक्ल के दिन माना है, किन्तु प्रसिद्ध दुर्गापूजा आश्विन में होती है । दुर्गावती-प्रकाश ले. पद्मनाभ । पिता बलभद्र । सात आलोक (अध्याय) सुप्रसिद्ध रानी दुर्गावती के आश्रय में ग्रंथलेखन हुआ। सात आलोकों के विषय :- समय, व्रत, आचार, व्यवहार, दान, शुद्धि और ईश्वराराधना इत्यादि । दुर्गा-सप्तशती - ले. म. म. विधुशेखर शास्त्री । जन्म 1878 । दुर्गासहस्त्रनामस्तोत्रम् कुर्लागवतान्तर्गत। - - www.kobatirth.org दुर्गेशनन्दिनी बंकिमचंद्र के बंगभाषीय उपन्यास का अनुवाद। अनुवादक- श्रीशैलताताचार्य। दुर्गोत्सव - ले. उमानन्दनाथ । श्लोक 700 । दुर्गोत्सवकृत्यकौमुदी ले. शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश संवत्सरप्रदीप एवं वर्षकृत्य इन ग्रंथों का उल्लेख है। लेखक कामरूप के राजा की सभा का पण्डित था। ई. 18 वीं शती । दुर्गोत्सवचन्द्रिका ले. भारतभूषण वर्धमान । उडीसा के राजकुमार रामचंद्रदेव गजपति के आदेश से लिखित । दुर्गोत्सवतत्त्वम् (दुर्गातत्त्व) ले. रघुनन्दन । दुर्गोत्सवनिर्णय - ले. गोपाल । - दुर्गोत्सवप्रमाणम् - ले. शूलपाणि । 2) ले. श्रीनाथ आचार्यचूडामणि । दुर्घटवृत्ति ले. शरणदेव असाधु वा दुःसाध्य पदों के साधुत्व का व्याकरणदृष्ट्या निर्णय देने का प्रयास इसमें है । 2) ले. पुरुषोत्तम देव । ई. 12-13 वीं शती । 3) ले. मैत्रयरक्षित । दुर्जन मुखचपेटिका- ले. गंगाधर भट्ट । वल्लभ संप्रदाय में 140 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वमान्य ग्रंथ श्रीमद् भागवत के विषय में प्रस्तुत किये जाने वाले प्रमाणता तथा महापुराणता संबंधी संदेहों का निरसन करने हेतु लिखे गए लघुकलेवर ग्रंथों में से एक ग्रंथ इस पर, पंडित कन्हैयालाल रचित "प्रहस्तिका" नामक व्याख्या प्रकाशित है। पुष्पिका पुष्पिका में व्याख्याकार (पंडित कन्हैयालाल ) "दुर्जन मुख-चपेटिका" के लेखक गंगाधरभट्ट के पुत्र निर्दिष्ट किये गये है। मूल चपेटिका तो लघु है किन्तु " हस्तिका " में विषय का प्रतिपादन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, "सप्रकाश तत्त्वार्थ- दीपिका-निबंध" के द्वितीय प्रकरण के रूप में मुंबई से 1943 ई. मे किया गया है। दुर्वासस्तृप्तिस्वीकार (नाटक) ले. पं. शिवदत्त त्रिपाठी । दूतघटोत्कचम् (नाटक) ले महाकवि भास इसमें हिडिंबा के पुत्र घटोत्कच के द्वारा, धृतराष्ट्र के पास जाकर दौत्य करने का वर्णन है । अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा करने पर, श्रीकृष्ण के आदेश से घटोत्कच धृतराष्ट्र के पास जाता है । वह युद्ध के भयंकर दुष्परिणामों की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करता है । धृतराष्ट्र दुर्योधन को समझाते हैं, पर शकुनि की सलाह से वह उनकी एक भी नहीं सुनता। दुर्योधन व घटोत्कच में वाद-विवाद होने लगता है और घटोत्कच युद्ध के लिये दुर्योधन को ललकारता है पर धृतराष्ट्र उसे शांत कर देते हैं। अंत में घटोत्कच अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की हत्या का बदला लेने की बात कहकर धमकी देते हुए चला जाता है। इस नाटक में भरतवाक्य नहीं है। इसमें पात्र महाभारतीय हैं परंतु कथा काल्पनिक है । घटोत्कच के दूत बनकर जाने के कारण ही इस नाटक का नाम "दूतघटोत्कच " है । इसका नायक घटोत्कच वीररस के प्रतीक के रूप में चित्रित है। वीरतत्त्व के साथ ही साथ उसमें शालीनता व शिष्टता समान रूप से विद्यमान है। दुर्योधन, कर्ण व शकुनि के चरित्र परंपरागत हैं और वे अभिमानी व क्रूर व्यक्ति के रूप में चित्रित हैं। इस नाटक में वीर व करुण दोनो रसों का मिश्रण है। अभिमन्यु की मृत्यु के कारण करुण रस है तो घटोत्कच व दुर्योधनादि के विवाद में वीर रस है। दूत-वाक्यम् ले. महाकवि भास एक अंक का यह "व्यायोग" है। (रूपक के एक भेद को व्यायोग कहते हैं ।) इसमें महाभारत के विनाशकारी युद्ध से बचने के लिये पांडवों द्वारा कृष्ण को अपना दूत बनाकर दुर्योधन के पास भेजने का वर्णन है । कथासार नाटक के प्रारंभ में कंचुकी घोषणा करता है कि "पांडवों की ओर से पुरुषोत्तम कृष्ण दूत बनकर आये हैं"। श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम कहने पर दुर्योधन उसे डांट कर वैसा फिर कभी न कहने को कहता है। वह अपने सभासदों से कहता है कि "कोई भी व्यक्ति कृष्ण के आनेपर अपने आसन से खडा न हो। जो व्यक्ति कृष्ण के आगमन For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर अपने आसन से खडा होगा उसे द्वादश सुवर्ण भार का दंड होगा। वह कृष्ण का अपमान करने के लिये, चीरकर्षण के समय का द्रौपदी का चित्र देखता है, भीम, अर्जुन आदि की तत्कालीन भाव-भंगियों पर व्यंग करता है। कृष्ण के प्रवेश करते ही सभासद सहसा उठ खडे हो जाते हैं, तब दुर्योधन उन्हे दंड का स्मरण कराता है पर घबराहट के कारण स्वयं गिर जाता है। श्रीकृष्ण अपना प्रस्ताव रखते हुए पांडवों का आधा राज्य मांगते हैं। दुर्योधन पूछता है, मेरे चाचा पांडु तो स्त्री-समागम से विरत रहे, तो फिर दूसरों से उत्पन्न पुत्रों का दायाद्य कैसा? इस पर कृष्ण भी वैसा ही कटु उत्तर देते हैं। दोनों का उत्तर-प्रत्युत्तर बढता जाता है व दुर्योधन उन्हें बंदी बनाने का आदेश देता है पर किसी का साहस नहीं होता। तब दुर्योधन उन्हें पकडने के लिये स्वयं आगे बढ़ता है पर अपना विराट रूप प्रकट कर कृष्ण उसे स्तंभित कर देते हैं। कृष्ण क्रुद्ध होकर सुदर्शन चक्र का आवाहन करते हैं व उसे दुर्योधन का वध करने का आदेश देते हैं पर वह उन्हें वैसा करने से रोकता है। श्रीकृष्ण शांत हो जाते हैं। जब वे पांडव शिबिर में जाने लगते हैं तब धृतराष्ट्र आकर उनके चरणों में गिर पडते हैं और कृष्ण के आदेश से लौट जाते हैं। पश्चात् भरतवाक्य के बाद प्रस्तुत नाटक की समाप्ति हो जाती है। दूतवाक्य में दो चूलिकाएं है। व्यायोग का नायक गर्वीला होता है, और कथा ऐतिहासिक होती है। इसमें स्त्री-पात्रों का अभाव होता है व युद्धादि की प्रधानता होती है। "दूत-वाक्य" में व्यायोग के सभी लक्षण हैं। संपूर्ण नाटक में वीर रस से पूर्ण वचनों की रेलचेल है। पांडवों की ओर से कौरवों के पास जाकर कृष्ण के दूतत्व करने में “दूतवाक्य' नाटक के नामकरण की सार्थकता सिद्ध होती है। दूतवाक्यचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद। दूताङ्गदम् - दूताङ्गद को विद्वानों ने "छायानाटक' माना है। किन्तु इसमें एक ही अंक है, अतः इसे व्यायोग मानना अधिक उचित लगता है। संक्षिप्त कथा - इस नाटक का आरंभ श्रीराम के दूत के रूप में अंगद के लंका में जाने की घटना से होता है। बिभीषण मन्दोदरी और माल्यवान् द्वारा समझाये जाने पर भी रावण सीता को लौटाना नहीं चाहता। अंगद, राम की प्रशंसा रावण के सामने करता है। रावण क्रुद्ध होकर उसे भगा देता है। रावण, नेपथ्य से राक्षसों के संहार की सचना पाकर युद्ध के लिए जाता है। बाद में गंधवों के द्वारा रावण तथा उसकी सेना के विनाश की सूचना दी जाती है। राम सपरिवार पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या लौटते हैं। इस नाटक में अर्थोपक्षेपण के लिए चूलिकाओं का प्रयोग किया गया है जिनकी संख्या तीन है। दृक्कर्मसारिणी - ले, दिनकर । विषय- ज्योतिषशास्त्र । देवताध्याय-ब्राह्मणम् - यह सामवेद का ब्राह्मण है। सामवेदीय सभी ब्राह्मण ग्रंथों में यह छोटा है। यह 3 खंडों में विभाजित है। प्रथम खंड में सामवेदीय देवताओं के नाम निर्दिष्ट हैं यथा अग्नि, इन्द्र, प्रजापति, सोम, वरुण, त्षटा, अंगिरस्, पूषा, सरस्वती व इंद्राग्नी। द्वितीय खंड में छंदों के देवता का वर्णन तथा तृतीय खंड में छंदों की निरुक्तियों का वर्णन है। इसकी अनेक निरुक्तियों को यास्क ने भी ग्रहण किया है। इसका प्रकाशन तीन स्थानों से हो चुका है- 1) बर्नेल द्वारा 1873 ई. में प्रकाशित 2) सायणभाष्य सहित जीवानंद विद्यासागर द्वारा संपादित व कलकत्ता से 1881 ई. में और 3) केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति से 1965 ई. में प्रकाशित । देवतापूजनक्रम - ले. अनन्तराम। मन्त्रमहोदधि के अनुसार श्लोक- 40011 देवदर्शिसंहिता - ले. चिदानन्दनाथ । सर्वसम्मोहिनी - तन्त्रान्तर्गत । देवदासप्रकाश (या ग्रंथचूडामणि) - ले.देवदास मिश्र। पिता- अर्जुनात्मज नामदेव। गौतमगोत्रीय। विषय- श्राद्ध आदि । यह निबंध कल्पतरु, कर्क, कृत्यदीप, स्मृतिसार, मिताक्षरा कृत्यार्णव पर आधृत है। 1350-1500 ई. के बीच इसकी रचना मानी जाती है। देवदूतम् (कमलासन्देश) - ले. सुधाकर शुक्ल। प्राचार्य शासकीय उच्चस्तर माध्यमिक विद्यालय, बसई (म.प्र.) प्रस्तुत दूतकाव्य में एक देवदूत द्वारा स्वर्गीय कमला गांधी का अपने पति पंडित जवाहरलाल तथा कन्या इंदिरा के प्रति अत्यंत सद्भावपूर्ण संदेश, कवि ने मंदाक्रांता छंद के 77 श्लोकों में निवेदन किया है। प्रस्तुत दूतकाव्य हिंदी गद्यानुवाद के साथ दतिया (म.प्र.) से प्रकाशित हुआ। पं. सुधाकर शुक्ल को गांधीसौगन्धिकम् नामक 20 सर्गो के महाकाव्य पर अ. भा. संस्कृत साहित्य सम्मेलन के पटना अधिवेशन में प्रथम पुरस्कार मिला था। देवनन्दसमुद्यम् - ले. जैन मुनि मेघविजयगणि। इस सप्तसर्गात्मक काव्य में विजयदेव सूरि का चरित्र वर्णन किया है। देवप्रतिष्ठातत्त्व (या प्रतिष्ठातत्त्व) - ले. रघुनन्दन । देवप्रतिष्ठाप्रयोग - ले. श्यामसुन्दर । गंगाधर दीक्षित के पुत्र । देवबन्दी वरदराज - मूल तमिल कथा का अनुवाद । अनुवादकडॉ.वे. राघवन्। देवभाषा-देवनागराक्षरयोः उत्पत्ति - ले. द्विजेन्द्रनाथ गुहचौधरी । देवयाज्ञिकपद्धति (यजर्वेदीय) - ले. देवयाज्ञिक। देवलस्मृति - यह ग्रंथ अपने मूल स्वरूप में उपलब्ध नहीं है। इसी नाम का एक 90 श्लोकों का ग्रंथ मुद्रित है किन्तु चरित्र कोशकार श्री. चित्रावशास्त्री के मतानुसार, वह अन्य स्मृतियों से केवल प्रायश्चित्त विषयक श्लोक चुनकर किया गया संग्रह होगा। साथही पर्याप्त अर्वाचीन भी होगा। मिताक्षरा, हरदत्त का विवरण नामक ग्रंथ, स्मृति-चंद्रिका व अपरार्क संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 141 For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नामक ग्रंथों में, आचार, व्यवहार, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि विषयक उद्धरण देवल स्मृति के लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि देवल, बृहस्पति कात्यायन प्रभृति स्मृतिकारों के समकालीन होंगे। देवल के सर्वत्र दिखाई देने वाले धर्मशास्त्रविषयक तीनसौ श्लोकों को एकत्रित करते हुए, उनका एक संग्रह " धर्मप्रदीप" नामक ग्रंथ में दिया गया है। उस पर से मूल स्मृतिपेय के वैविध्य एवं विस्तार की कल्पना की जा सकती है। भारत के धार्मिक इतिहास में देवलस्मृति के वचनों के आधार पर सिंध प्रदेश में मुहंमद बिन कासिम के आक्रमण के कारण धर्मच्युत हुए हिंदुओं का शुद्धीकरण किया गया, यह उल्लेख होने के कारण देवलस्मृति का विशेष महत्त्व माना जाता है - देववाणी सन 1960 में मुंगेर (बिहार) से रूपकान्त शास्त्री और कृपाशंकर अवस्थी के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें कविता, नाटक और आधुनिक प्रणाली से प्रभावित रचनाओं का प्रकाशन किया जाता है। प्रकाशनस्थल देववाणी कार्यालय, अवस्थी निवास, मुंगेर। देववाणी सन 1934 में कलकत्ता से श्रीकृष्ण स्मृतितीर्थ के सम्पादकत्व में इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्राप्ति स्थान 38 नं. हरिमोहन लेन बेलेघाटा, कलिकाता । त्रैमासिक मूल्य 1 रु. /- 1 देवस्थानकौमुदी ले. शंकर बल्लाल घारे । बडौदा निवासी । स. 1464 - - www.kobatirth.org देवगण - स्तोत्रम् - ले. समन्तभद्र । जैनाचार्य । ई. प्रथम शती अन्तिम भाग । पिता- शान्तिवर्मा । देवानन्दाभ्युदयम् - ले. मेघविजय गणी । देवालयप्रतिष्ठाविधि ले. रमापति । देवी - उपनिषद् ( नामान्तर देवी - अथर्वशीर्ष) अथर्ववेद से संलग्न एक नव्य उपनिषद् | इस उपनिषद् का आरम्भ, देवताओं से सम्मुख देवी द्वारा अपने स्वरूप के वर्णन से हुआ। देवी से ही यह सारी सृष्टि निर्माण हुई देवी एवं देवी वाणी का ऐक्य है तथा उसके स्वरूप में शैव व वैष्णव इन उभय रूपों का समन्वय है, ऐसा कहा गया है। इसमें निम्न देवी- गायत्री मंत्र दिया है - महालक्ष्मीश्च विद्महे सर्वसिद्धिश्च धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात् ।। (देवी उ.7) 142 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - इस देवी मंत्र के भावार्थ, वाच्यार्थ सांप्रदयार्थ, कौलिकार्थ रहस्यार्थ व तत्त्वार्थ ये छह प्रकार के अर्थ नित्याषोडशिकार्णव नामक ग्रंथ मे दिये गये हैं। "ही" है देवीप्रणव और ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" वह है देवी का नवाक्षरिक मंत्र प्रस्तुत उपनिषद् में देवी का वर्णन और इसके पश्चात् "दुर्गे, तुम मेरे पापों का नाश करो"- ऐसी प्रार्थना की गई है। इस उपनिषद् को देवी अथर्वशीर्ष भी कहते हैं। गाणपत्य संप्रदाय में जो गणपति अथर्वशीर्ष को महत्त्व है वही शाक्त संप्रदाय में देवी अथर्वशीर्ष का है। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवीकवचम् ले. हरिहर ब्रह्म श्लोक 75 विषय- जयादि देवियों का अंग-प्रत्यंग में विन्यास | देवीकवचस्तोत्रटीका ले. नारायणभट्ट । श्लोक 1601 देवीचरित्रम् - रुद्रयामलान्तर्गत श्लोक 1000 | अध्याय 13 | विषय- उमापूजाविधि, देवीप्रभाव, देवीरहस्य नवरात्रोत्सव पर दुर्गापूजा ६. देवीदीक्षाविधानम् - ऊर्ध्वाम्नायमिश्र अनुत्तरपरमहस्य के अंतर्गत ईश्वर - स्कन्द संवादरूप । सात उल्लासों में पूर्ण । विषयबहिर्मातृका, अन्तर्मातृका भूशुद्धि, प्रोक्षण आदि । देवीनामविलास ले. साहिब कल पिता श्रीकृष्ण कौल। ग्रंथरचना सन 1667 ई. में । भवानी के सहस्रनामों में से प्रत्येक नाम का अर्थ श्लोक द्वारा उत्तम रीति से वर्णित किया है। I - For Private and Personal Use Only : देवीपुराणम् शाक्त लोगों में प्रसिद्ध 128 अध्यायों का उपपुराण । इसमें मुख्यतः देवी के माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त शाक्त मूर्तिकला, शाक्तव्रत व पूजाविधि, शैव-वैष्णव प्रथा, ब्राह्मणधर्म, युद्ध, नगर तथा दुर्ग की रचना वेद, उपवेद, वेदों की शाखाएं, वैद्यक, ग्रंथलेखन, दान, तीर्थ क्षेत्र आदि अनेक विषयों का वर्णन है। इस के प्रारंभ में कुछ ऋषि वसिष्ठ ऋषि से प्रश्न पूछते हैं और वे उनका समाधान करते हैं। इसके चार भाग किये गये हैं जिनके नाम हैं त्रैलोक्यविजय, त्रैलोकाभ्युदय, शुंभनिशुंभमंथन तथा देवासुरयुद्ध | सृष्टि के निर्माण के प्रारंभ में देवी का आविर्भाव किस प्रकार हुआ यह प्रथम भाग में कहा गया है। दूसरे भाग के विषय हैं- शक्र की कथा, दुंदुभि-वध और घोर का उदय तथा उसे विष्णु का वरदान, उसका मंत्र - सामर्थ्य, विंध्य पर्वत पर हुआ देवी का अवतरण, देवों ने देवी की कृपा से किया राक्षससंहार आदि। तीसरे भाग में शुंभ-निशुंभ के वध द्वारा तारकासुर के वध की कथा । इस समय जो देवीपुराण उपलब्ध है वह है प्राचीन देवीपुराण का संक्षिप्त रूप है। उसमें केवल दो ही भाग हैं। पुराणों की सूचि में समाविष्ट न होने पर भी यह पुराण अधिक अर्वाचीन नहीं। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के तथा उसके बाद के धर्मनिबंधकारों ने इस पुराण के उद्धरण अपनाये हैं। अनेक अभ्यासकों के मतानुसार इस पुराण की रचना ई. सातवीं शताब्दी में हुई होगी । इस पुराण में व्यक्त शक्त्युपासना का स्वरूप तांत्रिक है । वेद- प्रामाण्य मानते हुए भी इस पुराण में तंत्र मार्ग पर विशेष बल दिया गया है। तंत्रमार्ग में स्त्री और शूद्रों का विशेष स्थान होने के कारण इस पुराण में स्त्री और शूद्रों प्रति उदार भाव परिलक्षित होता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवीपूजनभास्कर - ले. शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश। श्लोक20001 देवीपूजापद्धति - श्लोक - 11501 देवीभक्ति रसोल्लास- ले. जगन्नारायण। श्लोक 222। यह ग्रंथ 2 भागों में विभाजित है। देवीभागवतम् - एक उपपुराण। देवी भक्तों की मान्यतानुसार अठारह महापुराणों में परिगणित भागवत नामक महापुराण वस्तुतः यहीं है। किंतु यह मान्यता समर्थनीय सिद्ध नहीं होती। क्यों कि विभिन्न पुराणों में अंकित अठारह महापुराणों की सूचि में केवल "भागवत" का संदिग्ध नामोल्लेख होते हुए भी उसमें उस भागवत पुराण का जो वैशिष्ट्य बताया गया है, वह श्रीमद्भागवत को ही लागू पडता है। देवीभागवत, श्रीमद्भागवत की निर्मिति के पश्चात् ही रचा गया और उस पर श्रीमद्भागवत का काफी प्रभाव है। इन दोनों में ही बारह स्कंध तथा 18,000 श्लोक होना यही इन दो ग्रंथों का प्रमुख साम्य है। देवीभागवत का अष्टम स्कंध, श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध का अक्षरशः अनुकरण है। इससे सिद्ध होता है, कि देवी भागवत महापुराण न होकर उपपुराण ही है। शिवपुराण के उत्तर खंड में और देवीयामलादि शाक्त ग्रंथों में देवी भागवत को केवल सांप्रदायिक आग्रह के कारण ही "महापुराण' बताया गया है। इस उपपुराण का प्रमुख विषय है- आदिशक्ति दुर्गा के माहात्य का वर्णन और उसकी उपासना के विधि-विधानों का सांगोपांग निरूपण। इस पुराण के अनुसार भगवती दुर्गा ही विश्व का परम तत्त्व है। मूलप्रकृति से लेकर मणिदीपस्थ भुवनेश्वरी तक अनेक देवी- रूपों के वर्णन इसमें हैं। गंगा, तुलसी, षष्ठी, तुष्टि, संपत्ति प्रभृति को भी दुर्गा के ही रूप माना है। इस चराचर जगत् में जो जो दृश्यमान शक्तियां हैं, उनके रूपों में दुर्गा ही विराजमान हैं। इस उपपुराण की भूमिका इसके तृतीय स्कंध के वर्णनानुसार ब्रह्मा-विष्णु-महेश, देवी के ही प्रभाव से प्रभावित होने से, विनीत भाव से देवी के व्यापक स्वरूप का स्तवन करते हैं। देवीभागवत के मुख्य विषय के संदर्भ में अनेक उपकथाएं हैं। इसके सप्तम स्कंध में "देवीगीता" भी है। यह गीता देवी -हिमालय संवादात्मक है। इस गीता के 9 अध्याय हैं और श्लोकसंख्या है 432 । इस पर भगवत्गीता का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है। भगवत्गीतातंर्गत श्रीकृष्ण के समान ही देवी ने भी अपना अवतार-प्रयोजन निम्न श्लोक में स्पष्ट किया है। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भूधर।। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा वेषम् बिभर्म्यहम् ।। (दे.गी.8.23) देवीभागवत पर नीलकंठ (ईसा की 18 वीं शताब्दी) नामक महाराष्ट्रीय तंत्रशास्त्रज्ञ द्वारा लिखी गई टीका प्रकाशित हो चुकी है। नीलकंठ ने देवीभागवत के गौड और द्रविड पाठों का भी उल्लेख किया है। देवीमहिम्नःस्तोत्रम् - ले. दुर्वासा। विषय- त्रिपुरा देवी की महिमा इस पर नित्यानन्द विरचित व्याख्या है। देवीमहोत्सव - ले. ब्रह्मेश्वर। गोदातीरवासी। तिरुमलभट्ट के अनुज। देवीमाहात्म्यम् (दुर्गासप्तशती) - देवी के उपासकों का एक प्रमुख ग्रंथ। यह ग्रंथ मार्कंडेय पुराणांतर्गत (अ.81-93) है। इसमें 567 श्लोक हैं जो तेरह अध्यायों में विभाजित किये गये हैं। इन 567 श्लोकों का विभाजन 700 मंत्रों में किया होने से, यह ग्रंथ "सप्तशती" अथवा "दुर्गासप्तशती" के नाम से पहचाना जाता है। देवीमाहात्म्य में देवी के महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती इन विविध स्वरूपों के चरित्र ग्रथित हुए हैं। पहले अध्याय में महाकाली का चरित्र है, साथ ही 71 से 87 तक के सत्रह मंत्रों में ब्रह्मस्तुति है। यही ब्रह्मस्तुति “पौराणिक रात्रिसूक्त" है। दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायों में महालक्ष्मी का चरित्र है, और मुख्यतः वर्णित है महिषासुर के वध की कथा। चौथे अध्याय के प्रारंभिक 27 मंत्रों में देवी द्वारा की गई जगदंबा की स्तुति है। इन स्तुतिमंत्रों में देवी का विश्वव्यापक स्वरूप वर्णित है। पांचवें से सतरहवें (अर्थात अंतिम 9) अध्यायों मे महासरस्वती का चरित्र है। इस भाग में प्रमुखतः शुभ-निशुंभ के वध का वर्णन है। "देवीसूक्त" के नाम से प्रसिद्ध मंत्रसमूह भी इसी भाग में (5.8.22) है। इस ग्रंथ के ग्यारहवें अध्याय के प्रारंभिक 35 मंत्रों के समूह को, "नारायणी-स्तुति" कहते हैं। देवी के त्रिविध स्वरूपों के ये चरित्र, सुमेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा समाधि वैश्य को कथन किये हैं। सप्तशती की सुरथ समाधिविषयक कथा आदि से अंत तक रचा गया एक रूपक है। तद्नुसार महालक्ष्मी एवं महासरस्वती ये त्रिविध रूप क्रमशः शरीर बल, संपत्ति बल तथा ज्ञान बल के प्रतीक हैं। इन तीनों की उपासना से ही व्यष्टि व समष्टि का जीवन सर्वांगीण समृद्ध हो सकेगा ऐसा सप्तशती का संदेश है। देवी के उपासना क्षेत्र में इस ग्रंथ की विशेष महिमा है। संत ज्ञानेश्वर ने भगवतगीता पर सप्तशती का जो रूपक किया है, उसमें इस ग्रंथ को “मंत्रभगवती' कहा है। इस ग्रंथ को संक्षेप मे "चण्डी" भी कहा जाता है। देवी की कृपा प्राप्त करने हेतु, देवी-भक्त इस ग्रंथ का पाठ करते हैं। देवीरहस्यम् (परादेवीरहस्य) - रुद्रयामलान्तर्गत 60 पटलों में यह कौल सम्प्रदाय से सम्बद्ध है। पूर्वार्ध में 25 पटलों से शाक्त मत के मुख्य तत्त्वों का विवेचन है। उत्तरार्ध के 35 पटलों में विभिन्न देवियों की पूजा विधियां प्रतिपादित हैं। देवीरहस्यतन्त्रम् - श्लोक- 400। अंतिम 26 से 30 तक के 5 पटल गणपतिपरक हैं। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 143 For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवीशतकम् - कवि- विठ्ठलदेवुनि सुंदरशर्मा। हैदराबाद, पीठाचार्य चन्द्रशेखर सरस्वती की स्तुत्यर्थ 5 स्तोत्र काव्य 1) आंध्र के निवासी। देशिकेन्द्रस्तवांजलि (29 श्लोक) 2) विजयवादित्रम् (18 2) ले. आनंदवर्धनाचार्य। ई. 9 वीं शती। पिता- नोण । श्लोक) 3) धर्मचक्रानुशासनम् (24 श्लोक) 4) आचार्य (सुप्रसिद्ध साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ- ध्वन्यालोक के लेखक) पंचरत्नम् और गुरुराजाष्टकम् समाविष्ट हैं। देवी-सप्तपारायणकम् - देवी- ईश्वर संवादरूप। इसमें देवी देशोपदेश - ले. क्षेमेन्द्र। यह एक व्यंग काव्य है। इसमें के सप्तपारायण स्तोत्र का अथवा देवी के स्तोत्र पारायण के कवि ने काश्मीरी समाज व शासक वर्ग का रंगीला व सात प्रकारों का प्रतिपादन है। प्रभावशाली व्यंग चित्र प्रस्तुत किया है। इसका प्रकाशन 1924 देवीस्तव - ले. वाक्तोलनारायण मेनन । केरलनिवासी। ई. में काश्मीर संस्कृत सीरीज (संख्या 40) में श्रीनगर से देव्यागमनम् (काव्य) - ले. गोलोकनाथ वंद्योपाध्याय। ई. हो चुका है। इसमें 8 उपदेश हैं। प्रथम में दुर्जन व द्वितीय 20 वीं शती। में कदर्य (कृपण ) का तथ्यपूर्ण वर्णन है। तृतीय परिच्छेद में वेश्या के विचित्र चरित्र का वर्णन व चतुर्थ में कुट्टनी की देव्यायशतकम् - ले. रमापति । काली करतूतों की चर्चा की गई है। पंचम में विट व षष्ट देशदीपम् (रूपक) - ले. डॉ. रमा चौधुरी। लेखिका के में गौडदेशीय छात्रों का भंडाफोड किया गया है। सप्तम पति डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी के जन्मोत्सव पर अभिनीत । उपदेश में किसी वृद्ध सेठ की युवती स्त्री का वर्णन कर, नेता, कार्यस्थली तथा कथावस्तु नूतन प्रवृत्ति की संगीत बहुल मनोरंजन के साधन जुटाए गए हैं। अंतिम उपदेश में वैद्य, है। दृश्य. (अंक) संख्या नौ। कतिपय पात्रों के नाम पशुपक्षियों भट्ट, कवि,बनिया, गुरु, कायस्थ, आदि पात्रों का व्यंग चित्र के नाम जैसे हैं। कतिपय पात्र विदूषक समान हैं। इसमें उपस्थित किया गया है। इसका द्वितीय प्रकाशन हिंदी अनुवाद देश-रक्षा हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले वीरों का चरित्र चित्रित सहित चौखंबा प्रकाशन द्वारा हो चुका है। हुआ है। कथासार - ब्रह्मबल तथा आगधना नामक देहली-महोत्सव - कवि श्रीनिवास विद्यालंकार । विषय- ई. ब्राह्मणदम्पती का पुत्र चम्पकवदन अपने मित्र अभ्रप्रतिम के 1912 में दिल्ली में पंचम जॉर्ज के सन्मानार्थ संपन्न महोत्सव साथ देशरक्षा का व्रत लेता है चम्पकवदन पदाति तथा का वर्णन। अभ्रप्रतिम वायुसेना में सैनिक है। चम्पकवदन की बहन दैवज्ञबांधव - ले. हरपति । ई. 15 वीं शती । पिता- विद्यापति । पंकजनयना भी घायल सैनिकों की शुश्रूषा करने युद्धक्षेत्र जाती दैवज्ञमनोहर - ले. लक्ष्मीधर । विषय- ज्योतिषशास्त्र । रचना है। चम्पकवदन घायल होता है। पंकजनयना तथा अभ्रप्रतिम 1500 ई. के पूर्व। सेवा करते हैं परंतु वह देशहितार्थ हुतात्मा होता है। दैववल्लभा - ले. नीलकंठ (श्रीपति) ई. 16 वीं शती। देशबन्धुःदेशप्रियः (नाटक) - ले. यतीन्द्रविमल चौधरी। विषय- ज्योतिषशास्त्र । विषय- देशबन्धु चित्तरंजन दास की गौरव गाथा । अंकसंख्या नौ। दैवतब्राह्मणम् - सामवेद का पांचवां ब्राह्मण। मन्त्रों के ध्रुवपद देशस्वातंत्र्य समरकाले राष्ट्रधर्मः - ले. का.र. वैशम्पायन । पर से सामों का दैवतानुसार वर्गीकरण करना इस ब्राह्मण का सन 1970 में "शारदा' में प्रकाशित । दृश्यसंख्या दो। कथानक प्रमुख विषय है। इसके तीन खंड तथा 62 कंडिकाएं हैं। शिक्षाप्रद है। कथासार - ब्राह्मण देवालय जाते समय किसी प्रथम खंड की 26 कंडिकाओं में विभिन्न देवताओं के वर्णन राष्ट्रसेवक के छू जाने से क्रोधित होता है क्यों कि वह काँग्रेस हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक देवता के साम के ध्रुवपद किस भक्तों को भ्रष्टाचारी मानता है। राष्ट्रसेवक उसे समझाकर उसके किस प्रकार के होते हैं, इसका विवेचन भी है। दूसरे खंड साथ देवालय जाता है। दूसरे दृश्य में गोसेवक, चाय-निषेधक, में ग्यारह कंडिकाएं हैं जिनमें देवता और उनके वर्णों का भाषा-शुद्धिप्रचारक, समाजसुधारक, साम्यवादी और विशेष वर्णन है। तीसरे खंड मे पच्चीस कंडिकाएं हैं। उनमे स्त्री-स्वातन्त्रवादी एकत्रित होकर कोलाहल करते हैं। देवालय वैदिक छंदों की काल्पनिक व्युत्पत्ति दी गई है। यास्क ने यह से ब्राह्मण तथा राष्ट्रसेवक आकर सभी को राष्ट्रधर्म-पालन हेतु भाग निरुक्त में उद्धृत किया है। भाषा- शास्त्र की दृष्टि से प्रोत्साहित करते हैं। यह भाग महत्त्वपूर्ण है। अंत में गायत्री मंत्र का गान साम देशावलिविवृति - ले. जगमोहन। ई. 17 वीं शती। चौहान में कैसा होना चाहिये इसका विवेचन है। इसका संपादन वंशीय बेजल राजा के आदेश पर कवि ने यह रचना की। जीवानंद विद्यासागर द्वारा, सन 1881 में कलकत्ता मे हुआ। इसके समकालीन 56 राजाओं का वर्णन, संक्षिप्त ऐतिहासिक देवोपालम्भ - ले. मुडुम्बी नरसिंहाचार्य । पार्श्वभूमि के साथ होने से तत्कालीन इतिहास का प्रामाणिक दोलागीतानि - ले. प्रा. सुब्रह्मण्य सूरि । संदर्भ ग्रंथ माना जा सकता है। दोलापंचीककम् - ले. एस.के, रामनाथ शास्त्री। हास्यप्रधान देशिकेन्द्रस्तवांजलि - ले. महालिंगशास्त्री । इसमें कांची कामकोटी नाटक। 144 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोलायात्रामृतम् - ले. नारायण तर्काचार्य । दोलयात्रामृतविवेक - ले. शूलपाणि । दोलारोहणपद्धति - ले. विद्यानिवास। दौर्गानुष्टान-कलापसंग्रह - श्लोक 5500 । विषय- बीजांकुरारोपण से लेकर तीर्थस्नानान्त दुर्गोपासना संबंधी संपूर्ण क्रियाकलाप। द्यूतकरनिर्वेद - अनुवादकर्ता - महालिंग शास्त्री। ऋग्वेद के अक्षदेवन सूक्त (10-34) का संस्कृत पद्यात्मक रूपान्तर। द्रव्यगुणम् - ले. राजवल्लभ। विषय- औषधिशास्त्र। गंगाधर कविराज द्वारा लिखित टिप्पणी सहित उपलब्ध है। द्रव्यगुणसंग्रह - ले. चक्रपाणि दत्त। ई. 11 वीं शती। वैद्यकशास्त्रीय ग्रंथ। द्रव्यदीपिका - ले. विमलकुमार जैन। कलकत्ता निवासी। द्रव्यशुद्धि - ले- रघुनाथ। द्रव्यसंग्रह - ले- नेमिचन्द्र जैनाचार्य। ई. 10 वीं शतीं । द्रव्यसारसंग्रह - ले- रघुदेव न्यायालंकार। द्राविडार्यासुभाषित-सप्तति - प्रख्यात तमिल कवयित्री औवय्यी के लोकप्रिय सुभाषितों का अनुवाद। अनुवादक- वाय, महालिंगशास्त्री। इसमें सन्मार्गबंध तथा वृद्धोक्तिसंग्रह नाम दो खंड हैं। अनुवादक ने अमृतोर्मिला और मत्तभ्रमरी नामक नवीन दो छंदों का प्रयोग किया है। द्राह्यायण गृह्यसूत्रम् (देखिए खादिरगृह्यसूत्रम्) - आनन्दाश्रम प्रेस (पूना) में टीका के साथ मुद्रित। इस पर रुद्रस्कन्द और श्रीनिवास की टीकाएं हैं। द्राह्यागण गृह्यसूत्रकारिका - ले- बालाग्निहोत्री। द्राह्यायणसूत्रम् (नामान्तर वसिष्ठसूत्रम्)- सामवेद की राणायनी शाखा का एक श्रौतसूत्र । लाट्यायन श्रौतसूत्र से इसका काफी साम्य है। द्राह्यायणगृह्यसूत्रप्रयोग - ले- विनतानन्दन । द्रुतबोधव्याकरणम् - ले- भरतमल्लिक। ई. 17 वीं शती। इस पर ग्रंथकार द्वारा लिखित "द्रुतबोधिनी' नामक वृत्ति. उपलब्ध है। द्रोणाद्रिशतकम् - ले- केरल वर्मा। त्रिवांकुर (त्रावणकोर के) अधिपति। द्रौपदी- परिणयम् (रूपक) - ले- पेरी काशीनाथशास्त्री। ई. 19 वीं शती। द्रौपदी-परिणय चंपू- ले- चक्रकवि। ई. 17 वीं शती। पितालोकनाथ। माता- अंबा। वाणीविलास प्रेस श्रीरंगम्। यह चंपू 6 आश्वासों में विभाजित है। इसमें पांचाली (द्रौपदी) के स्वयंवर से लेकर धृतराष्ट्र द्वारा पांडवों को आधा राज्य देने तथा युधिष्ठिर के राज्य करने तक की घटनाएं वर्णित हैं। कथा का आधार महाभारत के आदि पर्व की एतद्विषयक घटना है। कवि ने अपनी ओर से उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं किया है। ग्रंथ के प्रत्येक अध्याय में कवि-परिचय दिया गया है। द्रौपदीवस्त्रहरणम् - कवि- गोवर्धन। दात्रिंशदीक्षाप्रयोग - विषय- शाक्त संप्रदाय में प्रचलित दीक्षा-संबंधी विविध 32 विधियों का निरूपण। द्वात्रिंशिका-स्तोत्रम् - सिद्धसेन दिवाकर (जैन न्याय के प्रणेता)। ई. 5 वीं शती (उत्तरार्ध)। द्वादशदर्शन- सोपानावलि- ले- श्रीपादशास्त्री हसूरकर। इंदौर में संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य। इसमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व और उत्तर मीमांसा इन 6 आस्तिक, एवं चार्वाक, जैन, बौद्ध (वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, माध्यमिक) इन 6 नास्तिक, कुल मिलाकर द्वादश) दर्शनों का. सुव्यवस्थित परिचय दिया है। साथ ही उत्तर मीमांसा के अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत इ. सांप्रदायिक दर्शनों का भी स्वतंत्र परिचय दिया है। उपसंहार में इन सभी दर्शनों का समन्वय तथा उनकी उपयुक्तता का मार्मिक विवेचन शास्त्रीजी ने किया है। द्वादशमंजरी - ले- प्रा. कस्तूरी श्रीनिवासशास्त्री। द्वादश-महागणपतिविद्या - कुलडामरान्तर्गत। श्लोक- 112 । द्वादशयात्रातत्त्वम् (या द्वादशयात्रा-प्रमाणतत्त्व):- लेरघुनंदन। विषय- जगन्नाथपुरी में विष्णु की 12 यात्राओं या उत्सवों का प्रतिपादन। द्वादशयात्राप्रयोग - ले- विद्यानिवास। विषय- जगन्नाथपुरी की 12 यात्राएं। द्वादशस्तोत्रम् - ले- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वाविंशतिपात्रविधि - इस में कौलों की 22 पात्रविधियां वर्णित हैं। द्वाविंशत्यवदानम् - प्रस्तुत ग्रंथ का प्रारंभ उपगुप्त तथा अशोक के संवाद से होता है किंतु शीघ्र ही उनके स्थान शाक्यमुनि तथा मैत्रेय लेते हैं। इस में 22 कथाएं संस्कृत में, गाथाओं से संवलित गद्य में रचित हैं जिन में श्लाघ्य पुण्यकृत्य, दानशीलता, उदारता आदि गुणों का माहात्म्य प्रतिपादन किया है। समय ई. 6 वीं शती। द्वीपकल्पलता - ले- परशुराम। उल्लास- छह । द्विजाह्निकपद्धति - ले- ईशान। हलायुध के ज्येष्ठ भ्राता। ई. 12 वीं शती। द्विरूपकोश- ले- पुरुषोत्तम देव। ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। (2) ले- श्रीहर्ष। ई. 12 वीं शती। द्रिरूप-ध्वनि-संग्रह - ले- भरत मल्लिक । ई. 17 वीं शती। द्विविध-जलाशयोत्सर्ग-प्रमाणदर्शनम् - ले- बुद्धिकर शुक्ल। विषय- धर्मशास्त्र । द्विसंधानकाव्यम् (राघवपांडवीयम्) - ले- धनंजय। यह संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 145 For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्यर्थी काव्यों में सर्वथा प्राचीन है। भोजकृत "सरस्वती कंठाभरण" में महाकवि दंडी व धनंजय कृत "द्विसंधानकाव्य" का उल्लेख है परंतु दंडी की इस नाम की कोई रचना प्राप्त नहीं होती पर धनंजय की कृति अत्यंत प्रख्यात है जिसका दूसरा नाम है "राघवपांडवीय"। इस पर विनयचंद्र के शिष्य नेमिचंद्र ने विस्तृत टीका लिखी थी जिसका सारसंग्रह कर जयपुर के बदरीनाथ दाधीच ने "सुधा" नाम से काव्यमाला (मुंबई) से 1895 ई. में प्रकाशित किया है। इसके प्रत्येक सर्ग के अंत में धनंजय का नाम अंकित है। "द्विसंधान काव्य" में 18 सर्ग हैं और उनमें श्लेष-पद्धति से रामायण व महाभारत की कथा कही गई है। द्वैततत्त्वम् - ले- सिद्धान्तपंचानन । द्वैतदुन्दुभि - सन् 1923 में बीजापुर से अनन्ताचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ किन्तु यह अधिक काल तक नहीं चल पायी। द्वैतनिर्णय - ले- शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती। विषयधर्मसंबंधी मतभेदों का विवेचन। (2) ले- नरहरि। (3) लेव्रतराजकार विश्वनाथ के पितामह- ई. 17 वीं शती। (4) ले- चंद्रशेखर वाचस्पति। पिता- विद्याभूषण। (5) लेवाचस्पति मिश्र । इस पर मधुसूदन मिश्र कृत जीर्णोद्धार (प्रकाश) और गोकुलनाथकृत कादम्बरी (प्रदीप) नामक टीका है। द्वैतनिर्णयपरिशिष्टम् - ले- शंकरभट्ट के पुत्र दामोदर। ई. 17 वीं शती। (2) ले- केशव मिश्र। विषय- श्राद्ध। द्वैतनिर्णयसंग्रह - ले- चंद्रशेखर । वाचस्पति विद्याभूषण के पुत्र । द्वैतनिर्णयसिद्धान्तसंग्रह - ले- भानुभट्ट। पिता- नीलकण्ठ पितामह- शंकरभट्ट (द्वैतनिर्णय के लेखक) ई. 17 वीं शती। द्वैतविषयविवेक - ले- वर्धमान । भावेश के पुत्र । ई. 16 वीं शती। द्वैताद्वैतनिर्ण - ले- नीलकंठ। ई. 17 वीं शती। पिता-शंकर भट्ट। द्वैभाषिकम् - सन 1887 में जेसौर (बंगाल) से कृष्णचंद्र मजुमदार के सम्पादकत्व में संस्कृत- बंगला भाषा में इस मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें ललित निबंध प्रकाशित होते थे। यामुष्यायणनिर्णय - ले- विश्वनाथ । पिता- कृष्णगुर्जर । नैधृव गोत्र । ई. 17 वीं शती।। द्वयोपनिषद् - इस नव्य उपनिषद् में गु तथा रु इस अक्षर द्वय का महत्त्व बताया गया है। इसीलिये इसे द्वयोपनिषद् नाम प्राप्त हुआ है। निम्न श्लोक द्वारा गुरु का महत्त्व कथन किया गया है आचार्यों वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः । मंत्रज्ञो मंत्रभक्तश्च सदा मंत्राश्रयः शुचिः ।। गुरुभक्तिसमायुक्तः पुराणज्ञो विशेषवित् । एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते। अर्थ :- वेदज्ञ, आचार्य विष्णुभक्त, निर्मत्सर, मंत्रज्ञ, मंत्रभक्त, निरंतर मंत्राश्रित, शुद्ध, गुरुभक्ति से युक्त, पुराणवेत्ता और अनेक बातों का विशेष ज्ञान रखने वाला व्यक्ति ही गुरु कहलाता है। गुरु शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए इसमें कहा गया है कि गु - अंधकार (अज्ञान) रु = उसका विरोधक। अतः गुरु का अर्थ हुआ अज्ञान का विरोधक। धनंजयनिघण्टु - ले- धनंजय। ई. 7 - 8 वीं शती। धनंजय-पुरंजयम् (नाटक) - ले- विष्णुपद भट्टाचार्य (श, 20)। प्रथम अभिनय शिवचतुर्दशी के मेले में। अंकसंख्यासात। अंक अत्यंत लघु परंतु रंगसंकेत लम्बे हैं। सशक्त चरित्रचित्रण और हास्यप्रवण शैली में मानवता का संदेश दिया है। कथासार - धनंजय नामक वृद्ध ब्राह्मण का पुत्र पुरंजय अपने पिता की सदा अवहेलना करता है। धनंजय की मृत्यु होती है। पुरंजय स्वप्न में देखता है कि पिता को नरक में यमदूतों द्वारा यंत्रणायें दी जा रही हैं। शिवजी उसे स्वप्न में आदेश देते हैं कि तुम्हारे ही पापों से तुम्हारे पिता पीडा पा रहे हैं, अतः माहिष्मती के राजा से एक दिन का पुण्य मांग लो, फिर पिता मुक्ति पायेंगे। पुरंजय माहिष्मती की ओर प्रस्थान करता है। मार्ग में एक निषाद उसे आश्रय देता है, अपने प्राण खोकर उसकी रक्षा करता है। दुखी मन से उसका अग्निसंस्कार कर पुरंजय राजप्रासाद पहुंचता है। राजा से एक दिन का पुण्य पाकर पिता को मोक्ष दिलाता है। राजा को उसी दिन पुत्र होता है जो पूर्वजन्म का वही पुण्यात्मा निषाद है। धनंजयव्यायोग - ले- कांचनाचार्य। विषय- किरात- अर्जुन युद्ध की प्रसिद्ध महाभारतीय कथा । धनदा-यक्षिणीप्रयोग - इस में धनदा यक्षिणी की पूजा प्रक्रिया वर्णित है। यह पूजाप्रक्रिया अंशतः कृष्णानन्द के तंत्रसार में वर्णित पूजाप्रक्रिया से मिलती जुलती है। धनवर्णनम् - ले- बेल्लंकोण्ड रामराय। आंध्र-निवासी। धनुर्वेद - यह यजुर्वेद का उपवेद माना जाता है। इस विषय पर वसिष्ठ, विश्वामित्र, जामदग्न्य, भारद्वाज, औशनस, वैशंपायन और शाङ्गधर इनके नामों से संबंधित संहिता ग्रंथ प्रसिद्ध है। इनमें वसिष्ठ और औशनस का धनुर्वेद प्रकाशित हुआ है। संपादक- जयदेव शर्मा विद्यालंकार। प्रकाशन- कर्मचंद । भल्ला, स्टार प्रेस, प्रयाग में मुद्रित। धनुर्वेदचिन्तामणि - ले- नरसिंहभट्ट। धनुर्वेदसंग्रह - (वीरचिन्तामणि) ले- शाङ्गधर । धनुर्वेदसंहिता - (1) संपादक- दीपनारायणसिंह। डुमराव राज्य (उत्तर प्रदेश) के निवासी। 2. ले- वसिष्ठ । कलकत्ता में प्रकाशित। धन्यकुमारचरितम् - ले- सकलकीर्ति । जैनाचार्य । ई. 14 वीं शती। पिता- कर्णसिंह। माता- शोभा। 7 सों का काव्य । 146/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय- उज्जयिनी के शीलसम्पन्न वैश्य धनपाल के पुत्र धन्यकुमार का चरित्रवर्णन। धन्योऽहं धन्योऽहम् - ले- डॉ. गजानन बालकृष्ण पळसुले। स्वातंत्र्यवीर सावरकर विषयक नाटक। शारदा प्रकाशन, पुणे-30 द्वारा प्रकाशित। धन्वंतरिनिघंटु - ले- धन्वंतरि । धर्म - ले- कालडी रामकृष्णाश्रम के स्वामी आगमानन्द। 5 निबन्धों का संग्रह। विषय- धर्मविवेक। धर्मकूटम् - ले- त्र्यंबक मखी। पिता- गंगाधर तंजौरनरेश एकोजी भोसले के मंत्री थे। ई. 17 वीं शती। वाल्मीकीय रामायण की प्रत्येक कथा नीतिशास्त्र पर आधारित होने का प्रतिपादन करने वाला यह एक टीका ग्रंथ है। इसमें स्वमत स्थापना के लिए वेदों के और धर्मशास्त्र के अनेक उद्धरण दिए है। धर्मकोश - सपादक- तर्कतीर्थ लक्ष्मणाशास्त्री जोशी। ई. 20 वीं शती। वाई, जिल्हा- सातारा, महाराष्ट्र में प्रकाशित। धर्मकोश - ले- केशवराय। पिता-रामरायात्मज गोविंदराय । गोत्र- भारद्वाज। आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं उसके परिशिष्ट पर आधारित। धर्मचक्रम् - (पत्रिका) इसका कार्यालय तिरुचि में था। प्रकाशन 1913 में प्रारंभ । धर्मतत्त्वकमलाकर - ले- कमलाकर भट्ट । रामकृष्ण के पुत्र । विषय- व्रत, दान, कर्मविपाक, शान्ति, पूर्त, आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त, शूद्रधर्म एवं तीर्थ । 10 परिच्छेदों में विभक्त । धर्मतत्त्वप्रकाश - ले- शिव दीक्षित। पिता- गोविंद दीक्षित। कूर्परग्राम (कोपरगाव- महाराष्ट्र) के निवासी। ई. 18 वीं शती। 2.ले- शिव चतुर्धर। धर्मतत्त्वसंग्रह - ले- महादेव । धर्मदीपिका - (या स्मृतिप्रदीपिका) ले- चंद्रशेखर वाचस्पति । धर्मविरोधी उक्तियों का समाधान इसमें किया है। धर्मधर्मताविभंग - ले- मैत्रेयनाथ। इस ग्रंथ के केवल चीनी तथा तिब्बती अनुवाद उपलब्ध हैं। धर्मनिबन्ध - ले- रामकृष्ण पण्डित । धर्मनिर्णय - ले- कृष्णताताचार्य। धर्मनौका - ले- अद्वैतेन्द्रयति । धर्मपद्धति - ले- नारायण भट्ट। धर्मपरीक्षा - ले- अमितगति। ई. 11 वीं शती। जैनाचार्य । 2. ले- मंजरदास। धर्मपुस्तकस्य शेषांशः - (प्रभुणा यीशुख्रिष्टेन निरूपितस्य धर्मनियमस्य ग्रंथसंग्रहः) बायबल का अनुवाद। अनुवादकवंगदेशीय पंडित मंडली। पृष्ठसंख्या- 6361 1910 में कलकत्ता में मुद्रित। 1922 में द्वितीय आवृत्ति का प्रकाशन हुआ। धर्मप्रकाश - (या सर्वधर्मप्रकाश) ले- शंकरभट्ट। पिता-नारायणभट्ट। माता- पार्वती। ई. 16 वीं शती. का उत्तरार्ध । मेघातिथि, अपरार्क, विज्ञानेश्वर, स्मृत्यर्थसार, कालादर्श, चन्द्रिका, हेमाद्रि, माधव, नृसिंह एवं त्रिस्थलीसेतु का अनुसरण इसमें है। लेखक की शास्त्रदीपिका का भी उल्लेख है। (2) ले- माधव। विषय- समयालोक अर्थात् अन्यान्य मासों के व्रत। समय ई. 16 वीं शती। इसमें वाचस्पतिमिश्र, माधवीय, पुराणसमुच्चय इ. ग्रंथों का उल्लेख है। धर्मप्रकाश (मासिक पत्रिका) - सन् 1867 में आगरा से संस्कृत- हिन्दी में इस का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसमें ऐतिहासिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों का विवेचन होता था। इसके सम्पादक थे ज्वालाप्रसाद। कालान्तर में इसका संस्कृत प्रकाशन स्थगित हो गया। धर्मप्रदीप - (1) ले- वर्धमान। (2) ले- धनंजय। (3) ले- गंगाभट्ट (4) ले- भोज। धर्मप्रदीपिका • ले- सुब्रह्मण्य। पिता- वेंकटेश। अभिनव षडशीति की टीका। धर्मप्रशंसा - ले- बेल्लमकोण्ड रामराय। आंधनिवासी। धरित्रीपति- निर्वाचनम् (रूपक) - ले- सिद्धेश्वर चट्टोपाध्याय (जन्म 1918)। रचना- सन 1967 में। संस्कृत साहित्य परिषद् द्वारा 1971 में प्रकाशित । प्रथम अभिनय 1969 में। इस प्रतीकात्मक व्यंग-नाटिका में आधुनिक तंत्र का प्रयोग किया है। कार्यस्थली भव-पान्थशाला। उसके अध्यक्ष भगवान् तथा द्वारपाल विश्वकर्मा । कथासार- भगवान् की कन्या धरित्री का स्वयंवर है। स्वयंवरार्थी हैं गांगोलक, युयुधान, वरण्डलम्बुक, लघुवंचक, धुरंधर तथा हयंगल। उनका आपस में कलह होता है। धरित्री को बलपूर्वक ले जाने का प्रयास युयुधान तथा गांगोलक करते हैं। भयानक मारपीट में सभी घायल होते हैं, तब भगवान् सभी को अर्धचंद्र देते है। धर्मरत्नम् - ले- जीमूतवाहन। धर्मविषयक निबंध। 2. लेभैय्याभट्ट। पिता- भट्टारक-भट्ट। विषय- आह्निक धर्माचार । धर्मरत्नाकर - ले- रामेश्वरभट्ट। विषय- धर्मस्वरूप, तिथिमासलक्षण, प्रतिपदादि तिथियों पर विहित कृत्यविधान, उपवास, युगादिनिरूपण, संक्रान्ति, अशौच, श्राद्ध, वेदाध्ययन, अनध्याय आदि। धर्मराज्यम् (नाटक) - ले- अमियनाथ चक्रवर्ती (श. 20)। संस्कृत साहित्य परिषत्-पत्रिका में प्रकाशित । पश्चिम बंगाल की 'संस्कृत-नाट्यपरिषद्' द्वारा अभिनीत । विषय- पाण्डवों के राजसूय यज्ञ से लेकर कपट द्यूत के पश्चात् पाण्डवों के वनवास तक का कथाभाग। धवला (टीका) - ले- वीरसेन । जैनाचार्य । ई. 8 वीं शती। समस्तषट्खण्डागम की टीका। श्लोकसंख्या- 72,000। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/147 For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धर्मविवेक ले- चंद्रशेखर । विषय-मीमांसा दर्शन के न्यायों की व्याख्या । 2. विश्वकर्मा। पिता- दामोदर माता- हीरा । ई. 15-16 वीं शती । इसमें कालमाधव, मदनरत्न, हेमाद्रिसिद्धान्तसंग्रह आदि ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं। - धर्मविवेचनम् ले रामसुब्रह्मण्य शास्त्री । रामशंकर के पुत्र । - - धर्मविजयम् ले- भूपदेव शुक्ल । ई. 16 वीं शती । जन्मभूमि - गुजरात। यह हास्य प्रधान नाटक है परन्तु इसमें विदूषक नहीं। इसमें पाखण्ड का भण्डाफोड तथा सामाजिक विकृति का दर्शन करने वाली मौलिक कथावस्तु है । पात्र भावात्मक है, जैसे अधर्म, व्यभिचार, परीक्षा, परस्परप्रीति, अनाचार, पण्डितसंगति, कविता, व्यवहार, हिंसा, अहिंसा, दया, क्रोध, शौच, अशौच इ । प्रथम द्वितीय अंकों के मध्य के विष्कम्भक प्रदीर्घ है। एक स्थान पर रंगपीठ पर एक साथ ग्यारह पात्रों की उपस्थिति है। दिल्लीदयित वेतन-दानामात्य केशवदास के आदेशानुसार नाटक का अभिनय आयोजित होता है । कथावस्तु सत्ययुग में धर्म द्वारा अधर्म का घर्षण । त्रेता में ज्ञान एवं द्वापर में तप का विनाश होता है। व्यभिचार परस्परप्रीति से, बूढे धनपाल की युवती वनिता का कामाचार पूछता है । फिर अनाचार नामक ब्राह्मण को अपनी कामगाथा सुनाता है। परस्परप्रीति का देवर होने से अनाचार उसे सुरापान कराता है। द्वितीय अंक में पौराणिक और अधर्म का वार्तालाप । तृतीय अंक में विद्या के अभाव के कारण पंडितसङ्गति फांसी लगाने को उद्यत है। चतुर्थ अंक में व्यवहार महापातक न्याय करता है कि उसका वध होना चाहिये। प्रयाग में धर्म-अधर्म में युद्ध होता है, जिसमें धर्म की विजय होती है। फिर धर्म महाविद्या को देखने दशाश्वमेघ पर जाता है। अंतिम अंक में राजा, कविता और परिवार रंगपीठ पर आते हैं । कविता बताती है कि प्रजा में अब चारित्रिक दोष नहीं रहे। वहीं शिवजी पधारते है और राजा धर्म उनकी पूजा करते है। www.kobatirth.org -- धर्मविजयचम्पू ले-भूमिनाथ ( नल्ला) दीक्षित । उपाधिअभिनव भोजराज । ई. 18 वीं शती । विषय- तंजौर के व्यंकोजी पुत्र शाहजी का चरित्रवर्णन धर्मवितानम् ले हरिलाल । पितामह मिश्र मूलचन्द्र । पिताभवानी दास । रचनाकाल ई. 1722 । धर्मशतकम् - ले-पं. जयराज पाण्डे मुंबई के व्यापारी । भाषा प्रासादिक । संसार से सब धर्म प्रवर्तकों के विचार इस में समाविष्ट है। श्लोक 1 से 66 वैदिक ऋषि, 67 से 70 कनफ्यूशियस, 71 से 78 बुद्ध, 79 से 86 अफलातून (प्लेटो) 87 से 91 येशू ख्रिस्त, 92 झरतुष्ट्र, 93 शोपेनहार, 94 से 96 महंमद इस प्रकार विचारों की व्यवस्था की है 1 धर्मशास्त्रनिबंध ले- फकीरचंद । धर्मशास्त्रव्याख्यानम् - व्याख्याता म.म. श्रीधर शास्त्री पाठक, 148 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड धुळे (महाराष्ट्र) के निवासी। यह व्याख्यानों की संकलित रचना है। धर्मशास्वव्याख्यानम् ले बालशास्त्री पायगुंडे । धर्मशास्त्रसर्वस्वम् - ले- भट्टोजी ई. 17 वीं शती । । धर्मशास्त्र - सुधानिधि ले दिवाकर 1686 ई. में प्रणीत । धर्मसंगीतम् ले राधाकृष्णजी। धर्मसंग्रह ले नारायण शर्मा (2) ले हरिचन्द्र । धर्मसंप्रदायदीपिका ले आनन्द । धर्मसार - ले पुरुषोत्तम। (2) ले प्रभाकर । धर्मसिंधु ले काशीनाथ पाध्ये (उपाध्याय) (पंढरपुरवासी) धर्मशास्त्रविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ । निर्णयसिंधु पुरुषार्थीचंतामणि कालमाधव, हेमाद्रि, कालतत्त्वविवेचन, कौस्तुभ स्मृत्यर्थसार आदि ग्रंथों का आधार लेकर ग्रंथकार ने व्यवहार में आवश्यक धर्मशास्त्रांतर्गत विषयों पर इसमें विचार किया है। कतिपय स्थानों पर उन्होंने स्वयं को उचित प्रतीत होने वाला अलग निर्णय भी दिया है। इस ग्रंथ के तीन परिच्छेदों में काल के भेद, संक्रांति का पर्वकाल, मलमास, वर्ज्यावर्ण्य कर्म, व्रत- परिभाषा, प्रतिपदादि तिथियों का निर्णय, इष्टिकाल आदि विषय समाविष्ट हैं । द्वितीय परिच्छेद में चैत्रादि बारह मासों में किये जाने वाले कृत्य, दशावतारों की ज्योतियां, कपिलाषष्ठी गजच्छाया चंद्रादि ग्रहों का संक्रांति का पुण्यकाल, ग्रहों के दान आदि विषयों पर विचार किया गया है। तृतीय परिच्छेद के (पूर्वार्ध व उत्तरार्ध शीर्षक वाले दो भाग हैं ।) पूर्वार्ध में गर्भाधान, पुंसवनादि संस्कार, दशदिशांति, पुनरुपनयन, गणविचार राशिकूट, नाडी, गोत्रप्रवर, उपासनादि होम, नित्यदान, शूद्रसंस्कारनिर्णय स्वप्ननिर्णय आदि विषयों का विवेचन है। उत्तरार्ध में श्राद्ध के अधिकारी, श्राद्धभेद, श्राद्ध के ब्राह्मण आदि श्राद्धविषयक विषयों के साथ ही अशौचनिर्णय, प्रेतसंस्कार, विधवा - धर्म, संन्यास, यतिधर्म, आदि विषयों का भी समावेश है। भारत में सर्वत्र इस ग्रंथ को मान्यता प्राप्त है। धर्मसिंधु का निर्णय भारत में सर्वत्र मान्य किया जाता है। इस ग्रंथ का लेखन पूर्ण होने पर पाध्येनी के भाई विठ्ठलपंत उसे सर्वप्रथम काशी ले गए। काशी के पंडितों ने ग्रंथ का परीक्षण करने के पश्चात् उसके अधिकृत एवं उत्तम होने का निर्णय दिया । प्रस्तुत ग्रंथ के गौरवार्थ काशी क्षेत्र में उसकी शोभायात्रा भी निकाली गई थी। - For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - धर्मसिंधु - 1. ले मणिराम। 2. ले कृष्णनाथ । धर्मसिंधुसार (धर्माव्थिसारः) ले काशीनाथ उपाध्याय । (बाबा पाध्ये) धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ में एक बृहद व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। रचनाकाल 1790 ई. । यह ग्रंथ 3 परिच्छेदों में विभक्त है व तृतीय परिच्छेद के भी दो भाग किये गये हैं। इसकी रचना " निर्णयसागर " के आधार पर की गई है। धर्मसुबोधिनी ले- नारायण । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मसेतु - ले- तिरुमल। पराशरगोत्र । विषय- व्यवहार। लेरघुनाथ। धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः (रूपक)- ले-वेंकटकृष्ण तम्पी। अंकसंख्या- तीन। सन् 1924 में प्रकाशित । धर्मादर्श-ले- पं. देवकृष्ण। महाराष्ट्र के संतोजी महाराज कुकरमुण्डेकर के आदेश से लिखित महाप्रबन्ध। इसमें धर्म विषयक अद्ययावत् सभी मतों का परामर्श लिया है। धर्माधर्मप्रबोधिनी - ले- प्रेमनिधि ठक्कुर । इन्द्रपति ठक्कुर के पुत्र। लेखक निजामशाह के राज्य में माहिष्मती के निवासी थे किन्तु उसने सं. 1410 (1353-54 ई.) में मिथिला में अपना निबंध संगृहीत किया। आह्निक, पूजा, श्राद्ध, अशौच, शुद्धि, विवाह, धार्मिक दान, आपद्धर्म, वैकल्पिक भोज, तीर्थयात्रा, प्रायश्चित्त, कर्मविपाक, सर्वसाधारण के कर्तव्य इत्यादि विषयों पर 12 अध्यायों में विवेचन किया है। धर्माध्वबोध - ले-रामचंद्र । धर्मानुबन्धिश्लोका - ले-कृष्णपण्डित। टीका-राम पण्डित द्वारा लिखित। धर्मामृतम् - ले-नयसेन । जैनाचार्य । ई. 12 वीं श. (पूर्वार्ध) धर्मामृतमहोदधि - ले-रघुनाथ। पिता- अनन्तदेव । धर्माम्भोधि - अनूपविलास का अपरनाम । धर्मार्णव - ले- पीताम्बर। काश्यपाचार्य के पुत्र । धर्मोदयम् (नाटक) - ले- धर्मदेव गोस्वामी। असम-निवासी। रचनाकाल 1770 ईसवी। रंगपर में अभिनीत । विषय-अहोम राजा लक्ष्मीसिंह (1769-1780 ई.) द्वारा मंडिया ग्राम की प्रजा के विद्रोह के शमन की ऐतिहासिक कथा। संस्कृत संजीवनी सभा, नालवाडी (आसाम) में प्राप्य । धर्मोपदेश - पं. रामनारायण शास्त्री के सम्पादकत्व में बरेली • में सन् 1883 से यह मासिक पत्रिका संस्कृत-हिन्दी में प्रकाशित की जाती थी। धातुकल्प - ले- धन्वंतरि। विषय- आयुर्वेद ।। धातुचिन्तामणि - ले- हर्षकुलमणि । ई. 16 वीं शती। लेखक ने स्वकृत कविकल्पद्रुम पर लिखी हुई यह टीका है। धातुपाठ - अर्थ सहित धातुपाठ के प्राच्य, उदीच्य और दाक्षिणात्य ऐसे देशभेदानुसार तीन प्रकार हैं। मैत्रेय प्रभृति की व्याख्या प्राच्य पाठ पर है। क्षीरस्वामी प्रभृति की वृत्ति उदीच्य पाठ पर है और पाल्यकीर्ति आचार्य का प्रवचन संभवतः दाक्षिणात्य पाठ पर है। जिस धातुपाठ का प्रकाशन चन्नवीर कवि की कत्रड टीका के साथ हुआ है, वह काशकृत्स्रकृत धातुपाठ माना जाता है। (2) ले- अनुभूतिस्वरूपाचार्य । धातुपाठतरंगिणी - ले- हर्षकीर्ति। ई. 17 वीं शती। धातुपारायणम् - ले- हेमचन्द्राचार्य। स्वकृत धातुपाठ पर हेमचंद्राचार्य की यह अपनी टीका है। श्लोक- 5600। हेमचंद्र ने इसका संक्षेप भी लिखा है। (2) ले- पूर्णचंद्र। ई. 12 वीं शती। चांद्र व्याकरण की प्रणाली के अनुसार यह धातुपाठ है। (3) ले- देवनन्दी। यह पाणिनीय धातुपाठ की व्याख्या है। पाणिनीय धातुपाठ का अपर नाम है 'दण्डकपाठ' । धातुप्रत्ययपंजिका - ले- हरयोगी। (नामान्तर- प्रोलनाचार्य) ई. 12 वीं शती। धर्मकीर्ति नामक विद्वान ने भी इसी नाम का अन्य ग्रंथ लिखा है। धातुप्रदीप - ले-मैत्रेयरक्षित। ई. 11-12 वीं शती। पाणिनि के "धातुपाठ" पर भाष्य। धातु-प्रबोध - ले. कालिदास चक्रवर्ती। ई. 18 वीं शती उत्तरार्ध । धातुमाला - ले. षष्ठीदास विशारद । ई. 18 वीं शती उत्तरार्ध । धातु-रत्नाकर - ले. नारायण बन्दोपाध्याय। ई. 17 वीं शती। यह एक पद्यमय व्याकरण ग्रंथ है। धातुरूपभेद - ले. दशबल (अथवा वरदराज) विषयआख्यातों का अर्थबोध। धातुविवरणम् - ले. पाल्यकीर्ति धातुवृत्ति - ले. सायणाचार्य। इसमे लेखक ने धातुपाठ का निर्धारण आत्रेय, मैत्रेय, पुरुषकार, न्यासकार इनके अनुसार किया है। पाणिनीय धातुपाठ में चिरकाल से अव्यवस्था अथवा विपर्यास हो गया था। सायणाचार्य ने अपनी धातुवृत्ति में स्वमतानुसार पाठों का परिवर्तन परिवर्धन और शोधन किया है। धातवत्ति सधानिधि - ले. सायणाचार्य। 13 वीं शती। पाणिनीय धातुपाठ की विस्तृत टीका। प्रस्तुत ग्रंथ में हेलाराज, भट्ट-भास्कर, क्षीरस्वामी, शाकटायन, पतंजलि, भागुरि, कैयट, हरदत्त, जयादित्य इत्यादि प्राचीन वैयाकरणों का यत्र तत्र उल्लेख किया है। शब्दशास्त्र विषयक ज्ञानकोश के समान इसका महत्त्व है। धारायशोधारा - लें. दिगंबर महादेव कुलकर्णी । संस्कृताध्यापक। न्यू इंग्लिश स्कूल, सातारा। मालव प्रदेश तथा उसके इतिहास का वर्णन। धीर-नैषधम् (नाटक) - ले. म.म. रामावतार शर्मा। जन्म 1874 ई.। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से रामावतार शर्मा ग्रंथावलि में प्रकाशित। यह कवि के विद्यार्थिकाल की रचना है। अंकसंख्या सात। नल-दमयन्ती की कथा को नया रूप देने का लेखक ने प्रयास किया है। धूतावतीदीपदानपूजा - रुद्रयामलान्तर्गत, शिव-पार्वती संवादरूप । विषय- धूमावती देवी के निमित्त प्रज्वलित दीपदान और पूजाविधि । धूतावतीपंचागंम् - श्लोक 3251 धूर्तनाटकम् - सामराज दीक्षित। ई. 17 वीं शती (उत्तरार्ध) मथुरानिवासी। प्रथम अभिनय भगवान् नरकेसरी की यात्रा के अवसर पर हुआ था। कथासार- नायक मूढेश्वर अपने शिष्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 149 For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HTHHTHH मुखर और जगवंचक को साथ लेकर नायिका वसन्तलतिका ध्रुवावतारम् (रूपक) - ले.- स्कंद शंकर खोत। नायक से मिलने चले। गुरु के आगमन की सूचना देने जगवंचक सुधीर नामक छात्र जिसे ध्रुव का नूतन अवतार बताया गया जाता है तो वही उसके प्रणय में समासक्त हो जाता है। गुरु है। नागपुर से प्रकाशित । के वहां पहुंचने पर शिष्य भाग कर पलिस को ले आता है। ध्वन्यालोक (अपरनाम-1) सहदयालोक 2) काव्यालोक) पलिस. नायक मढेश्वर को वेश्या के साथ प्रणयक्रीडा करते .ले. आनंदवर्धन। भारतीय काव्यशास्त्र का यह एक युगप्रवर्तक हुए रंगे हाथों पकड़ कर, दोनो को राजा के समक्ष ले जाता ग्रंथ है। इसमें ध्वनि को सार्वभौम सिद्धान्त का रूप देकर है। राजा वसन्तलतिका को देखते ही सुध खो बैठता है। उसका सांगोपांग विवेचन 4 उद्यातों में विभक्त है। इसके 3 मुढेश्वर अपनी सिद्धियों का वर्णन बढा चढा कर करता है। भाग हैं- कारिका, वृत्ति व उदाहरण। प्रथम उद्योत में ध्वनि और राजा को मूर्ख बनाकर वसन्तलतिका को हथिया लेता है। संबंधी प्राचीन आचार्यों के मतों का निर्देश करते हुए ध्वनि धूर्ताख्यानम् - ले. हरिभद्रसूरि। जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती।। विरोधी संभाव्य आपत्तियों का निराकरण किया गया है। इसी हास्य और व्यंगपूर्ण रचना। विषय- अतिरंजित पौराणिक कथाओं उद्योत में ध्वनि का स्वरूप बतलाकर, उसे काव्य का एकमात्र को निरर्थक सिद्ध करना। इसी प्रकार का धर्मपरीक्षा नामक प्राणतत्त्व स्वीकार किया गया है और बतलाया गया है कि ग्रंथ अमितगति ने लिखा है। प्रस्तुत संस्कृत ग्रंथ हरिभद्र के काव्यशास्त्रीय अलंकार, रीति, वृत्ति गुण आदि किसी भी संप्रदाय मूल प्राकृत ग्रंथ का रूपांतर है। में ध्वनि का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। प्रत्युत उपर्युक्त ध्यानबिंदूपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित 150 श्लोकों सभी सिद्धान्त ध्वनि में ही अन्तर्भूत किये जा सकते हैं। द्वितीय उद्योग में ध्वनि के भेदों का वर्णन व इसीके एक का एक नव्य उपनिषद् । इसमें ध्यान योग का माहात्म्य बताते हुए कहा गया है कि ध्यान द्वारा ब्रह्मसमाधि सिद्ध होने पर प्रकार असंलक्ष्यक्रमव्यंग के अंतर्गत रस का निरूपण है। पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। इस उपनिषद् में ओंकार रसवदलंकार व रस-ध्वनि का पार्थक्य प्रदर्शित करते हुए गुण के ध्यान की विस्तृत जानकारी दी गई है। तत्पश्चात् ब्रह्मा, व अलंकार का स्वरूपभेद विशद किया गया है। तृतीय उद्योत विष्णु, रुद्र, महेश्वर एवं अच्युत इन पांच मूर्तियों का वर्णन इस ग्रंथ का सबसे बडा अंश है जिसमें ध्वनि के भेद व है। फिर षडंग योग के निदेश के साथ ही सिद्ध, भद्र, सिंह प्रसंगानुसार रीतियों व वृत्तियों का विवेचन है। इसी उद्योत में और पद्म इन प्रमुख योगासनों का वर्णन किया गया है। भट्ट एवं प्रभाकर प्रभृति तार्किकों व वेदांतियों के मतों में पश्चात् योगचक्रों एवं नाडीचक्रों का वर्णन करते हुए, अजपा ध्वनि की स्थिति दिखलाई गई है और गुणीभूतव्यंग व चित्रकाव्य हंसविद्या कथन की गई है। इसके बाद के भाग में योगी का वर्णन किया गया है। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त की के आचार-विचारों, विविध योगबंधों व योगमुद्राओं का वर्णन व्यापकता व उसका महत्त्व वर्णित कर, प्रतिभा के आनंत्य का करते हुए तदनुसार प्राणों का कार्य, ‘अग्नि का 'र' पृथ्वी का वर्णन है। इस पर एकमात्र टीका (अभिनव गुप्त कृत'ल' 'जीव' का 'व' और आकाश का 'ह' बीजाक्षर बताए "लोचन") प्राप्त होती है। अभिनव गुप्त ने अपने इस टीकाग्रंथ में चंद्रिका नामक टीका का भी उल्लेख किया है गए हैं। प्राण व अपान का अवरोध कर प्रणव का उच्चार करने पर जो नाद होता है, वह अमूर्त, वीणादंडसमुत्थित तथा किंतु यह टीका प्राप्त नहीं होती। "ध्वन्यालोक' की रचना शंखनादयुक्त होता है। ध्यान से कपालकुहर के मध्य भाग में कारिका व वृत्ति में हुई है। कई विद्वानों का मत है कि चतुर्दारों में सूर्य के समान चमकने वाले आत्मस्वरूप का दर्शन कारिकाएं ध्वनिकार की रची हुई हैं जो आनंदवर्धन के पूर्ववर्ती होता है और वहां मन का लय होकर माहेश्वरपदरूपी बिंदु थे और आनंदवर्धन ने उन पर अपनी वृत्ति लिखी है किन्तु परंपरागत मत दोनों की अभिन्नता मानता है। अभिनवगुप्त, का साक्षात्कार हुआ करता है। कुंतक, महिमभट्ट व क्षेमेंद्र के अतिरिक्त स्वयं आनंदवर्धन ने ध्यानशतकम् - ले- शेष। भी अपने को "ध्वनिसिद्धान्त का प्रतिष्ठापक" कहा है और ध्रुव (रूपक) - ले. श्रीनिवासाचार्य। ई. 19 वीं शती। "ध्वन्यालोक" के अंतिम श्लोक से भी इस तथ्य की पुष्टि ध्रुवतापसम् (रूपक) - ले.- पद्मनाभाचार्य । ई. 19 वीं शती। होती है। संप्रति "ध्वन्यालोक" व "लोचन" के कई हिंदी ध्रुवचरितम् - ले.- म.म.गणपति शास्त्री, वेदान्तकेसरी। 2) अनुवाद व भाष्य प्राप्त होते हैं। डा. कृष्णमूर्ति ने अंग्रेजी में ले. जयकान्त। और डा.जैकोबी ने इसका जर्मन में अनुवाद किया है। इसमें कुल 117 कारिकाएं (19+33+48+17 = 117) हैं। ध्रुवाभ्युदयम् (नाटक)- ले. म.म. शंकरलाल। रचनाकाल1886 ई. यशवन्तसिंह स्टीम मुद्रयन्त्रालय, लोबडीपुर, जामनगर नकुलीवागीश्वरीप्रयोग - श्लोक 95। से सन 1911 में प्रकाशित । अंकसंख्या- सात। ध्रुव की कथा नक्षत्रकल्प - एक शांतिग्रंथ । इस ग्रंथ में नक्षत्रपूजा, नैऋत्यकर्म का छायातत्त्व-प्रधान प्रदर्शन । व अमृतशांति से अभयशांति के तीस भेद और निमित्त दिये गए हैं। 150/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नक्षत्रशान्ति - ले. बोधायन । नगर-नूपूरम् (रूपक) - ले. डा. रमा चौधुरी। अंकसंख्या दस । कथासार मेखला नाम की सुन्दरी गणिका पूरे नगर को अपने नृत्य से वश कर लेती है परंतु अन्त में उसे प्रतीत होता है कि ऐहिक भोग वस्तुतः व्यर्थ है । हरिद्वार के किसी महात्मा से उपदेश ग्रहण कर वह संन्यासिनी बन जाती है। नखस्तुति - ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती । स्तोत्रकाव्य । जराज- यशोभूषणम् ले. नरसिंह कवि। इस ग्रंथ की रचना विद्यानाथ कृत "प्रतापरुद्र- यशोभूषण" के अनुकरण पर की गई है। यह ग्रंथ मैसूर राज्य के मंत्री नंजराज की स्तुति में लिखा गया है। इसमें 7 विलासों में नायक, काव्य, ध्वनि, रस, दोष, नाटक व अलंकार का विवेचन है। प्रत्येक विषय के उदाहरण में नंजराज संबंधी स्तुतिपरक श्लोक दिये गए हैं। और नाटक के विवेचन में (षष्ठ विलास में) स्वतंत्र रूप से एक नाटक की रचना कर दी गयी है। इसका प्रकाशन गायकवाड ओरिएंटल सीरीज से हो चुका है। नवाद1) ले. गदाधर भट्टाचार्य 2) रघुनाथशिरोमणि । नवादीका ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । नटाङ्कुशम् - ले. महिमभट्ट । इस में रस तथा अभिनय पर सशक्त चर्चा तथा उनका संबंध दिग्दर्शित है। गलत प्रकार के अभिनय पर कड़ी आलोचना है। इसके उदाहरण के लिये आश्चर्यचूडामणि (शक्तिभद्र कृत) से श्लोक उद्धृत किए हैं। प्रथम श्लोक में महिम शब्द आने से यह रचना महिमभट्ट की हो ऐसा सुझाया गया है। इसमें प्रतिज्ञा यौगन्धरायण तथा वीणावासवदत्ता के साथ यौगन्धरायण और अविमारक की कुरंगी का आत्मदाह उल्लिखित है। नटेशविजयम् ( काव्य ) कवि वेङ्कटकृष्ण यज्वा । पितावेङ्कटाद्रि । ई. 17 वीं शती। सात सर्ग के इस महाकाव्य में चिदम्बर क्षेत्र के नटेश भगवान् का विलास वर्णित है । नन्दिघोषविजयम् (अपरनाम- कमलाविलास) (नाटक) ले. शिवनारायण दास इ. 16 वीं शती। पांच अङ्कों में कमला तथा पुरुषोत्तम की पारस्परिक चर्या का अङ्कन । नना- विताइनम् (रूपक) लो. डा. सिद्धेश्वर पट्टोपाध्याय । जन्म 1918 | संस्कृत साहित्य परिषद् द्वारा सन 1974 में प्रकाशित। आधुनिक तंत्र से लिखित कथासार - सूत्रधार अशौच वेष में प्रवेश कर कहता है कि नना के मरणासन्न होने से आज अभिनय न होगा। दर्शकों में से एक तरुण, एक शिक्षक तथा एक पंडित उठ कर मंचपर जा कर विचार विमर्श करते हैं तथा वैद्यों के बुलाने जाते हैं। तीनों स्वकुम्भ, मकुम्भ तथा वसुकुम्भ नामक वैद्यों को बुलाने जाते हैं। तीनों की उपाय-योजना अलग अलग रहती है। इतने में उत्तरा घोषित करती है कि नना मर गयी। अब उसके शव की - - व्यवस्था करने की चर्चा चलती है इतने में नना उठ खडी होती है। उसे प्रेताविष्ट समझ वैद्य भाग जाते हैं। उत्तरा डरती है कि जब यह मेरा गला मरोडेगी, क्यों कि उसी ने वैद्यों की सहायता से नना को विष देने की योजना बनायी थी । नन्दिकेश्वरसंहिता ले. नंदिकेश्वर। ई. पू. 4 थी शती । प्रायः भरत के समकालीन माने जाते है। इस संगीतविषयक ग्रंथ में षड्ज, ऋषम, गंधार, मध्यम और पंचम इन पाच स्वरों के निर्माता नारद और धैवत तथा निषाद के निर्माता तुंबरु थे ऐसा विशेष निर्देश किया है। अभिनयदर्पण नामक ग्रंथ के निर्माता भी नन्दिकेश्वर माने जाते हैं। नन्दिचरितम् ले कृष्णकवि । नपुंसकलिंगस्य मोक्षप्राप्तिले सत्यन्नत शास्त्री (श. 20) लघु रूपक विषय नपुंसकलिंगी शब्दों की महिमा । नरकासुरविजयम् (1) कवि- माधवामात्य । विषय कृष्णचरित्र । 2) ले. धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती । नरपतिराजचर्या ले. नरपति। विषय- शुभाशुभ शकुन की चर्चा । नरवरशतकम् ले. तिरुवेंकट तातादेशिक । नेलोर (आंध्र ) में मुद्रित । नरसिंहपंचागंम् रुद्रयामल- तन्त्रान्तर्गत । श्लोक 468 1 नरसिंहपुराणम् इसी प्राचीन वैष्णव उपपुराण को नृसिंह अथवा नारसिंह पुराण भी कहते हैं। इसमें निम्न विषयों का समावेश है। नरसिंह को परब्रह्म मानकर उनकी स्तुति, ब्रह्मांड की उत्पत्ति काल विभाग, संसार वृक्ष का वर्णन, ज्ञानस्तुति, विष्णुपूजा, "ओम् नमो नारायणाय'' इस मन्त्र का जाप, सूर्यसोम वंशावलि, उसमें विशेषतः नरसिंहपूजक राजाओं का इतिहास, लक्षकोटि होम, विष्णु प्रतिष्ठा, वर्णाश्रम के कर्तव्य, वैष्णव तीर्थक्षेत्र, व्रत, दान, सदाचार और दुराचार । उक्त विषयों से संबंधित कथाएं भी हैं इस उपपुराण में यह पुराण सन 400 से 500 के कालखंड में प्रमुखतया नरसिंह के गुण गौरव हेतु रचा गया है। इसका अधिकांश भाग पद्य में तथा अल्प भाग गद्य में है। - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - नरसिंहभारतीचरितरम् ले. राजवल्लभ शास्त्री, मद्रास । शृंगेरी के शांकर पीठाधिपति स्वामी का महाकाव्यात्मक चरित्र, इ. 1936 में लिखित । नरसिंहसरस्वती मानसपूजास्तोत्रम् - कवि - श्रीगोपाल । नरसिंहाट्टहास - ले. मु. नरसिंहाचार्य । नराणां नापितो धूर्तः ले. नारायणशास्त्री काङ्कर । जयपुर निवासी । सन 1957 में "मधुरवाणी" पत्रिका में प्रकाशित । एकांकी। दृश्यसंख्या चार । कथासार निठल्ला रामकिशोर, पत्नी कमला के समझाने पर धन अर्जित करने हेतु दूसरे ग्राम को जात है। मार्ग में रात में किसी दानव से मुठभेड होती है। वह अपने थैले संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 151 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से दर्पण दिखा कर दानव को डराता है कि इस थैले में कई दानव बंद हैं। उससे स्वर्णमुद्राएं प्राप्त कर वह घर लौटता है। दानव के मामा उससे निपटने आते हैं। उन्हें रामकिशोर एकदम छः दर्पण दिखाकर डराता है तथा उससे भी धन ऐंठता है। नरेशविजयम् (काव्य) - ले. वेंकटकृष्ण दीक्षित। नरेश्वरपरीक्षा-प्रकाश - ले. रामकण्ठ। श्लोक 2500 । सर्वदर्शनसंग्रहान्तर्गत शैवदर्शन में उल्लिखित नरेश्वरपरीक्षा पर टीका। नरेश्वरविवेक - ले. परमेष्ठी। नरोत्तमविलास - ले. विश्वनाथ चक्रवर्ती। नर्मभाला- (व्यंग्य काव्य ) ले. क्षेमेंद्र। ग्रंथ की रचना के उद्देश्य पर विचार करते हुए क्षेमेंद्र ने सज्जनों के विनोद को ही अपना लक्ष्य बनाया है। नर्ममाला में 3 परिच्छेद या परिहास हैं। उनमें कायस्थ, नियोगी आदि अधिकारियों की घृणित लीलाओं का सूक्ष्म दृष्टि से वर्णन है। क्षेमेंद्र ने इसमें समकालीन समाज व धर्माचार का पर्यवेक्षण करते हुए उनकी बुराइयों का चित्रण किया है, किंतु कहीं-कहीं वर्णन ग्राम्य व उद्वेगजनक हो गया है। क्षेमेंद्र की यह रचना संस्कृत साहित्य में सर्वथा नवीन क्षेत्र का उद्घाटन करनेवाली है। नलचंपू - ले. · त्रिविक्रमभट्ट। पिता- नेमादित्य। ई. 10 वीं शती। विषय- महाराज नल व भीमसुता दमयंती की प्रणय कथा । प्रस्तुत काव्य का विभाजन 7 उच्छवासों में किया गया है। प्रथम उच्छ्वास- इसका प्रारंभ चंद्रशेखर भगवान् शंकर व कवियों के वागविलास की प्रशंसा से हुआ है। सत्काव्य-प्रशंसा, खल-निंदा व सज्जन प्रशंसा के पश्चात् वाल्मीकि व्यास, गुणाढ्य व बाण की प्रशंसा की गई है। तदनंतर वर्षा वर्णन के बाद एक उपद्रवी शूकर का कथन किया गया है जिसे मारने के लिये राजा नल आखेट के लिये प्रस्थान करता है। आखेट के कारण थके हुए नल का शालवृक्ष के नीचे विश्राम करना वर्णित है। इसी बीच दक्षिण देश से आया हुआ पथिक दमयंती का वर्णन करता है। पथिक ने यह भी सूचना दी कि दमयंती के समक्ष राजा नल की भी प्रशंसा किसी पथिक द्वारा हो रही थी। उसके रूपसौंदर्य का वर्णन सुनकर दमयंती के प्रति नल का आकर्षण होता है और पथिक चला जाता है। द्वितीय उच्छ्वास - इसमें वर्षा काल की समाप्ति व शरद् ऋतु का आगमन, विनोद के हेतु घूमते हुए नल के समक्ष हंसों की मंडली उतरती है। उनमे से एक को नल पकड लेता है। आकाशवाणीद्वारा यह सूचना प्राप्त होती है कि दमयंती को आकष्ट करने के लिये यह हंस दूतत्व करेगा राजा दमयंती के विषय में हंस से पूछता है। हंस कुंडिनपुर के राजा भीम व उनकी रानी प्रियंगुमंजरी का वर्णन करता है। तृतीय उच्छ्वास- रानी प्रियंगुमंजरी को दमनक मुनि के वरदान से दमयंती कन्या होती है। उसके शैशव, शिक्षा एवं तारुण्य का वर्णन है। चतुर्थ उच्छ्वास- हंस द्वारा दमयंती के सौंदर्य का वर्णन सुनकर राजा नल की उत्कंठा बढ़ती है। हंस-विहार, हंस का कुंडिनपुर जाना व नल के रूप-गुण का वर्णन सुनकर दमयंती रोमांचित होती है। नल के लिये सालंकायन का उपदेश, वीरसेन द्वारा सालंकायन की नीति का समर्थन, नल का राज्याभिषेक वर्णन, पत्नी के साथ वीरसेन का वानप्रस्थ अवस्था व्यतीत करने हेतु वन-प्रस्थान व पिता के अभाव में नल की उदासीनता का वर्णन है। ___ पंचम उच्छ्वास- नल के गुणों का वर्णन श्रवण कर दमयंती के मन में नल विषयक उत्कंठा होती है। वह नल को देने के लिए हंस को अपनी हारलता देती है। दमयंती के स्वयंवर की तैयारी, उत्तर दिशा में निमंत्रण देने जाने वाले दूत से दमयंती की श्लिष्ट शब्दों में बातचीत, सेना के साथ नल का विदर्भ देश से लिये प्रस्थान, नर्मदा के तट पर इंद्रादि लोकपालों द्वारा दमयंती- दौत्य-कार्य में नल की नियुक्ति। लोकपालों का दूत बनने के कारण नल चिंतित होता है, श्रुतशील नल को सांत्वना देता है। षष्ठ उच्छ्वास में प्रभात काल और विंध्याटवी का वर्णन है। विदर्भ देश के मार्ग में दमयंती का दूत पुष्कराक्ष दमयंती का प्रणयपत्र नल को अर्पित करता है। नल व पुष्कराक्षसंवाद। पयोष्णी-तट पर सेना का विश्राम, दमयंती द्वारा प्रेषित किन्नरमिथुन द्वारा दमयंती वर्णन- विषयक गीत, रात्रि में नल का विश्राम, प्रातः अग्रिम यात्रा की तैयारी व कुंडिनपुर में नल के आगमन के उपलक्ष्य में हर्ष । सप्तम उच्छ्वास में नल के समीप विदर्भराज का आगमन, अन्यान्य कुशल-प्रश्न. दमयंती द्वारा भेजी गई किरात कन्याओं का नल के समीप आगमन। नलद्वारा प्रवर्तक, पुष्कराक्ष व किनरमिथुन दमयंती के पास भेजे जाते हैं। नल का मनोविनोद व औत्सुक्य, दमयंती के यहां से पर्वतक लौट कर अंतःपुर एवं दमयंती का वर्णन करता है। इंद्र के वर प्रभाव से कन्यांतःपुर में नल का प्रकट होना व दमयंती तथा उसकी सखियों का विस्मय। नल-दमयंती का अन्योन्य दर्शन व तन्मूलक रसानुभूति । नलद्वारा दमयंती के समक्ष द का संदेश सुनाया जाता है। दमयंती विषण्ण होती है। दयमंती के भवन से नल प्रस्थान करता है और उत्कंठापूर्ण स्थिति में हर-चरण-सरोजध्यान के साथ किसी भांति नल रात्रि यापन करता है। प्रस्तुत सुप्रसिद्ध चंपू में नल-दमयंती की पूरी कथा वर्णित न होकर आधे वत्त का ही वर्णन किया गया है। यह श्रृंगारप्रधान रचना है. अतः इसकी सिद्धि के लिये अनेक काल्पनिक मनोरंजक घटनाओं की इसमें योजना की गई है। प्रस्तुत 'नलचंपू' व श्रीहर्ष-रचित 'नषेधचरित' की कथाओं व 152 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्णनों में विस्मयजनक साम्य है। संस्कृत साहित्य में श्लेष योजना की विशेषता उसकी सरलता में है और उसमें सभंग पदों का आधिक्य है। श्लेष-प्रिय होने के कारण शाब्दी क्रीडा के प्रति भट्टजी का ध्यान अधिक है। अतः वे कथा के इतिवृत्त की चिंता न कर श्लेष-योजना व वर्णन-बाहुल्य के द्वारा ही कवित्व का प्रदर्शन करते हैं। यह शाब्दी -क्रीडा सर्वत्र दिखाई पड़ती है। इसके प्रत्येक उच्छ्वास के अंतिम पद्य में "हरिचरणसरोज" शब्द प्रयुक्त है, अतः यह चम्पू "हरिचरण-सरोजांक" कहलाता है। नलचरितम् (नाटक)- ले, नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। प्रथम अभिनय कांची में कामाक्षीपरिणय के अवसर पर। दस अंकों का यह नाटक, छठवें अंक के प्रारंभ तक ही उपलब्ध है। प्रधान रस शृंगार, वैदर्भी रीती। आवेश के क्षणों में स्त्री -पात्रों के मुख से भी संस्कृत उद्गार। विषयनल और दमयंती की प्रणयकथा। पाणिग्रहण के पश्चात् दमयन्ती पतिगृह में आती है। अंतिम अंक में मन्त्री व्यक्त करता है कि प्रतिनायक की पुष्कर के साथ मित्रता नल के लिए हानिकारक है। इसके आगे का अंश अप्राप्य है। नलदमयंतीयम् - ले- कालीपद तर्काचार्य। समय1888-1972। रचनाकाल- सन 1917। सारस्वत महोत्सव के अवसर पर संस्कृत छात्रों द्वारा अभिनीत। अंकसंख्या सात । इस नाटक में नृत्य-गीतों का प्रचुर प्रयोग, प्राकृत भाषा का समावेश तथा अत्यंत लम्बे संवाद तथा एकोक्तियां हैं। नलपाकदर्पण - विषय- पाकशास्त्र । चौखंबा संस्कृत पुस्तकालय (वाराणसी) द्वारा प्रकाशित । नलविजयम् (महानाटक) (अपर नाम- भैमीपरिणय) - ले- मण्डिकल रामशास्त्री। मैसूर से सन् 1914 में प्रकाशित । महाराज कृष्णराज के आदेश से कपिलाती पर, नवरात्र महोत्सव में अभिनीत । अंकसंख्या दस। नल-दमयंती के विवाह, वियोग तथा पुनर्मिलन की कथा। नलविलासम् - ले-पर्वणीकर सीताराम । ई. 18-19 वीं शती। नलविलासम् - ले- अहोबल नृसिंह। रचनाकाल- सन् 1760 ई। अंकसंख्या - छः। विषय- नलदमयंती की प्रणयकथा। नलानन्दम् (नाटक) - ले- जीवबुध। इ. 17 वीं शती। जगन्नाथ पंडितराज के वंशज । विषय- नल-दमयंती के विवाह की कथा। नल की चूत में पराजय होने के बाद, पुनर्मिलन तक का कथानक निबद्ध। अंकसंख्या- सात। नलाभ्युदयम् - ले- तंजौर नरेश रघुनाथ नायक। ई. 17 वीं शती। नलायनी चम्पू - ले- नारायण भट्टपाद । नलोदयम् - ले- रविदेव (टीकाकार रामर्षि के मतानुसार) श्लोकसंख्या- 2101 4 सों का लघु काव्य। कथावस्तुनलचरित्र। महाभारतीय मूल कथा पर विशेष ध्यान न देकर कवि यमकचातुरी के प्रदर्शन में व्यस्त दिखाई देता है। अनावश्यक लम्बे वर्णन तथा गेयता। इसका लेखक निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। कोई इसे कालिदासप्रणीत मानते हैं पर उसके ज्ञात काव्यों की तुलना में यह निम्न श्रेणी का है। नलोदय तथा राक्षसकाव्य का लेखक यमककवि कालिदास को ही मानते हैं। एक टीकाकार के मतानुसार राक्षसकाव्य वररुचि का है पर अन्य टीकाकार (विष्णु) नलोदय का कर्तृत्व वासुदेव को देता हैं। वासुदेव कृत त्रिपुरदहन और प्रस्तुत नलोदय का प्रारंभ समान श्लोकों से होता है। नलोदय के टीकाकार- (1) मल्लिनाथ, (2) प्रज्ञाकर मिश्र, (3) कृष्ण, (4) तिरुवेंकटसूरि (5) आदित्यसूरि, (6) हरिभट्ट, (7) नृसिंहशर्मा, (8) जीवानन्द, (9) केशवादित्य, (10) गणेश, (11) भरतसेन (12) मुकुन्दभट्ट, और (17) प्रभाकर मिश्र, (18) रामर्षि । राक्षसकाव्य के टीकाकार- (1) प्रेमधर, (2) शम्भु भास्कर, (3) कविराज (4) कृष्णचन्द्र, (5) उदयाकर मित्र, और (6) बालकृष्ण पायगुण्डे। नलचरित्र विषयक प्रमुख ग्रंथों की सूचि - (1) नलोदयरविदेव (यमककवि), (2) नलाभ्युदय-वामन भट्टबाण, (3) नलचम्पू (दमयंतीकथा)- त्रिविक्रमभट्ट (4) दमयंती-परिणयचक्रकवि, (5) राघवनैषधीय- हरदत्त, (6) अबोधाकरघनश्याम, (7) कलिविडम्बन-नारायण शास्त्री, (8) नलचरित्र नाटक- नीलकण्ठ, (9) नल-हरिश्चन्द्रीय- अज्ञात लेखक, (10) सहृदयानन्द- (15 सर्ग) ले- कृष्णानन्द, (11) उत्तरनैषधम्(16 सर्ग) ले- वन्दारु भट्ट। (श्रीहर्ष काव्य की कमी की पूर्ति, नैषधीयानुसार, विशेष काव्यगुणयुक्त रचना), (12) कल्याण-नैषधम्- (सात) सर्ग। (13) सारशतक- कृष्णराम, (14) आयनिषधम् ले- पं.ए.व्ही. नरसिंहचारी, मद्रास, (15) प्रतिनैषधम्- ले. विद्याधर और लक्ष्मण, ई. 16521 (16) मंजुलनैषधम् - नाटक, 7 अंक ले.- वेंकट रंगनाथ, विजगापट्टम्निवासी। (17) भैमीपरिणय- 10 अंक का नाटक, लेरामशास्त्री (मंडकल) (18) नलानन्द नाटक- 7 अंक, लेजीवबुध। (19) नलविलास- नाटक, (7 अंक) ले-रामचंद्र । (20) नलदमयंतीय ले- कालिपद तर्काचार्य, कलकत्ता। (12) अनर्घनलचरित महानाटकम्, ले- सुदर्शनाचार्य, पंचनद-निवासी। (22) नलभूमिपालरूपकम्- ले- अज्ञात। (23) दमयंतीकल्याणम्- 5 अंकों का नाटक ले- रंगनाथ। (24) दमयंतीपरिणय- 5 अंकों का नाटक, ले- नल्लन चक्रवर्ती शठगोपाचार्य। 18 वीं शती का उत्तरार्ध) इत्यादि । नवकण्डिकाश्राद्धसूत्रम्-(नामान्तर- श्राद्धकल्पसूत्र) - इस पर टीका है- (1) कर्ककृत श्राद्धकल्प, (2) कृष्णमिश्रकृत श्राद्धकाशिका। (3) अनन्तदेवकृत- शाद्धकल्पसूत्रपद्धति । नवकोटिः (शतकोटि:)-ले- रामशास्त्री । विषय- शैवसिद्धान्त । नव-गीताकुसुमांजलि - ले- सी. वेंकटरमण, प्रधान आचार्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/153 For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संस्कृत महाविद्यालय बंगलोर । 108 श्लोकों में 9 गीताएं समाविष्ट - रामगीता, कृष्णगीता, दशावतारगीता, गणेशगीता, सद्गुरुगीता, शिवगीता, वाणीगीता, लक्ष्मीगीता, और गौरीगीता। नवग्रहचरितम् (भाण) । ले घनश्याम । ई. 18 वीं शती । नवग्रहचरितम् ले घनश्याम 1700-1750 ई. प्रतीक रूपक । अनूठी पारिभाषिक शब्दावली का इसमें उपयोग हुआ है जैसे "प्रपंच अंक । प्रस्तावना के स्थान पर “सूच्यार्थ " । विष्कम्भक के स्थान पर "काल" इ. दिव्य और भावात्मक पात्रों का संयोजन । चरितनायक देवता । प्रपंचसंख्या तीन । नायक सूर्य का प्रतिनायक राहु गृहाधिपति होकर स्वतंत्र रूप से राशिलाभ चाहता है। अपने और साथी केतु के नाम पर एक एक दिन बनवाना चाहता है। सूर्यपक्ष का सेनापति मंगल है। राहु की ओर से "शनि" को फोडने के प्रयत्न चल रहे हैं। लडाई उनती है। अन्त में शुक्र और बृहस्पत्ति सन्धि करते हैं। शुक्र, राहु को "स्वर्भानु' नाम देकर प्रसन्न करता है। कथासार नवग्रहचिन्तामणि श्लोक- 6401 - - www.kobatirth.org - नवग्रहमंत्र (नवग्रहकारिका) ले बृहस्पति श्लोक- 301 नवग्रहशान्तिपद्धति (सामवेदियों के लिए) ले शिवराम । पिता विश्राम। - नवग्रह सिद्धमंत्र पूजाविस्तार (रुद्रयामलोक्त) कृष्ण युधिष्ठिर संवादरूप। इसमें नवग्रह यंत्र के निर्माण और पूजन की विधि वर्णित है। - - नव्यधर्मप्रदीपिकाले कृपाराम तर्कवागीश, वारेन हेस्टिंग्ज की समिति के सदस्य । नवरात्रकल्प ले- शिव-पार्वती संवादरूप विषय- शारद नवरात्र के पुरश्चरण आदि । नवरात्रनिर्णय ले-गोपाल व्यास । नवदुर्गापूजारहस्यम् (रुद्रयामलन्तर्गत) पार्वती महादेव नवरात्रपूजाविधानम् - ले-विषय- शारद नवरात्र में भगवती संवादरूप पटल- 11 प्रारंभिक 2 पटल प्रस्तावना के रूप शक्ति की पूजा, पुरश्चरण आदि का तांत्रिक प्रतिपादन । में हैं। शेष 9 पटलों में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा का विवरण है। नवरात्रप्रदीप ले- (1) ले- विनायक पंडित । श्लोक- 1000 1 नवदुर्गापूजाविधि (रुद्रयामलान्तर्गत)। (2) ले नन्दपण्डित । देवदूतीपूजाविधि। श्लोक- 2951 नवरात्रविधि नव्यधर्मप्रदीप नवविवेकदीपिका ले- कृपाराम गुरु जयराम । आश्रयदाता त्रिलोकचंद्र एवं कृष्णचंद्र 18 वीं शती के उत्तरार्ध में बंगाल के जमीनदार थे। नामान्तर नवमालिका (नाटिका) ले- विश्वेश्वर पाण्डेय। समयअठारहवीं शती । पटिया (जिल्हा अल्मोडा उ. प्र.) के निवासी । कथासार- नायिका नवमालिका का कोई राक्षस अपहरण करता है। प्रभाकर नामक तपस्वी उसे मुक्त करा कर अवस् के राजा विजयसेन को सौंपता है। दोनों में प्रीति होती है। प्रतिनायिका महारानी चंद्रलेखा क्रुद्ध होकर नवमालिका को उसकी सखी चंद्रिका के साथ कारागार में डालती है। कुछ दिन पश्चात् अनंगराज हिरण्यवर्मा का मंत्री आकर बताता है कि उनकी राजकन्या अपहृत हो गयी थी। बाद में ज्ञात होता 154 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड है कि नवमालिका ही वह राजकुमारी थी। ज्योतिषियों के मतानुसार उसका पति सार्वभौम सम्राट होने वाला है। तब महारानी चंद्रलेखा स्वयं उसका विवाह नायक से कराती है। - प्रह्लादभट्ट । शैवधर्मशास्त्र से संगृहीत 900 नवरत्नमाला श्लोक | नवरत्नरसविलास ले- श्रीनिवास । नवरसमंजरी ले- नरहरि । बीजापुर के सुलतान इब्राहिम (ई. 16-17 वीं शती) के आश्रय में नरहरि ने इस साहित्य शास्त्रीय ग्रंथ की रचना की। नरहरि ने प्रथम अध्याय के 172 श्लोकों में अपने विद्याप्रेमी तथा संगीतज्ञ आश्रयदाता की स्तुति की है। नायक-नायिका के प्रकार, रस-भाव आदि विषयों का प्रतिपादन इस ग्रंथ के छह उल्लासों में किया हुआ है उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा. प्रमोद गणेश लाले ने इस ग्रंथ की एकमात्र पांडुलिपि का संशोधन कर, सन 1979 में इसका प्रकाशन किया है। नवरससामंजस्यम् ले रूपलाल कपूर । प्रस्तुत महाकाव्य शास्त्रीय लक्षणानुसार नहीं है। इसमें एक प्रधान नायक नहीं है। लेखक ने संस्कृत हिंदी उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी भाषा में भी रचनाएं की हैं। प्रस्तुत काव्य में कुछ अप्रसिद्ध छंदों का भी प्रयोग किया है। ई. 1981 में मुद्रित । - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - हरिदीक्षित - पुत्र कृत । श्लोक - 150 ले- वरदराज । - नवसाहसाङ्क-चरितम्- कवि- पद्मगुप्त "परिमल" । एक ऐतिहासिक महाकाव्य । इसकी रचना 1005 ई. के आसपास हुई थी। इस महाकाव्य में धारा- नरेश भोजराज के पिता सिंधुराज या नवसाहसाङ्क का शशिप्रभा नामक राजकुमारी से विवाह 18 सगों में वर्णित है। इसके 12 वे सर्ग में सिंधुराज के समस्त पूर्वपुरुषों (परमारवंशी राजाओं) का काल-क्रम से वर्णन है, जिसकी सत्यता की पुष्टि शिलालेखों से होती है। इसमें कालिदास की रससिद्ध सुकुमार मार्ग की पद्धति अपनायी गयी है। यह इतिहास व काव्य दोनों ही दृष्टियों से समान रूप से उपयोगी ग्रंथ है। इसका हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखंया विद्याभवन से हो चुका है। नवात्रभाष्यनिर्णयम्ले गौरीनाथ चक्रवर्ती। नवार्णचण्डीपंचांगम् ले रुद्रयामल तंत्रातंर्गत । श्लोक - 892 । - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवार्णचन्द्रिका - ले- परमानन्दनाथ। 5 प्रकाशों में पूर्ण। विषय- चण्डिका- उपासक के दैनिक कर्तव्य और चण्डिका की पूजा। नवार्णपूजापद्धति - ले-सर्वानन्दनाथ। श्लोक- 2881 नवीननिर्माणदीधिति- टीका- ले- रघुदेव न्यायालंकार । नष्टहास्यम् (प्रहसन) - ले- जीव न्यायतीर्थ ( जन्म 1894) नष्टोद्दिष्ट- प्रबोधक- ले- भावभट्ट।। नहुषाभिलाषः (ईहामृग) - ले-व्ही. रामानुजाचार्य । नागकुमारकाव्यम् - ले-मल्लिषेण । जैनाचार्य। त्रिषष्टिमहापुराण के रचयिता। कर्नाटकवासी। ई. 11 वीं शती। 5 सर्ग और 507 पद्म। नाग-निस्तारम् (नाटक) - ले- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894)। महाभारत के जनमेजय आख्यान का नाट्यरूप। अंकसंख्या- छः । अंगी रस अद्भुत । वीर तथा श्रृंगार अंगरस । गीतों की प्रचुरता। गीतोंद्वारा भावी घटनाएं व्यंजित की हैं। "किरतनिया नाटक" का प्रभाव इस नाटक पर है। सूर्य, काल, ब्रह्मा इ. दिव्य पात्र है। नागप्रतिष्ठा - (1) ले- बोधायन। (2) ले- शौनक । नागबलिः - ले- शौनक। नागरसर्वस्वम् - लेखक पद्मश्री ज्ञान। 18 अध्याय। मनोहर काव्य का उदाहरण। सौंदर्य तथा विलास प्रिय व्यक्ति के लिए आवश्यक सब अंगों का विवेचन करने वाले शरीर तथा घर सजाने से लेकर, प्रियाराधन और गर्भधारणा तक सब क्रिया कलापों का इसमें विचार है। जादू टोना और औषधियों को भी स्पर्श किया है। टीका तथा टीकाकार- (1) तनुसुखराम, लेखक प्रकाशक, (2) जगज्ज्योतिर्मल्ल (इ.स. 1617-1633 । (3) नागरिदास रचित नागरसमुच्चय। नागराज- विजयम् (रूपक) - ले- डॉ. हरिहर त्रिवेदी। 1960 में 'संस्कृत--प्रतिभा' में प्रकाशित। उज्जयिनी में अभिनीत । विषय- नायक नागराज द्वारा शक तथा कुषाणों पर प्राप्त विजय की कथा। नागानंदम् (नाटक) - ले- महाकवि श्रीहर्ष । इस नाटक में कवि ने विद्याधरराज के पुत्र जीमूतवाहन की प्रेम कथा व उसके त्यागमय जीवन का वर्णन किया है। इस नाटक का मूल एक बौद्ध-कथा है, जिसका मूल "बृहत्कथा" व वेताल-पंचविंशति में प्राप्त होता है। __ कथानक- प्रथम अंक- विद्याधरराज जीमूतकेतु, वृद्ध होने पर वे इस अभिलाषा से वन की और प्रस्थान करते हैं कि उनके पुत्र जीमूतवाहन का राज्याभिषेक हो जाय किंतु पितृभक्त जीमूतवाहन स्वयं राज्य का त्याग कर, पिता की सेवा के निमित्त, अपने मित्र आत्रेय के साथ वन-प्रस्थान करता है। वह अपने पिता के स्थान की खोज करता हुआ मलय पर्वत पर पहुंचता है जहां देवी गौरी के मंदिर में अर्चना करती हुई मलयवती उसे दिखाई पड़ती है। दोनों मित्र गौरी देवी के मंदिर में जाते हैं और मलयवती के साथ उनका साक्षात्कार होता है। मलयवती को स्वप्न में देवी गौरी, जीमूतवाहन को उसका भावी पति बतलाती है। जब वह स्वप्र-वृत्तांत अपनी सखी मे कहती है, तब जीमूतवाहन झाड़ी में छिप कर उनकी बातें सुन लेता है। विदूषक दोनों के मिलन की व्यवस्था करता है किन्तु एक संन्यासी के आने से उनका मिलन संपन्न नहीं होता। द्वितीय अंक- इसमें मलयवती का चित्रण कामाकुल स्थिति में किया गया है। जीमूतवाहन भी प्रेमातुर है। इसी बीच मित्रवसु आता है और अपनी बहन मलयवती की मनोव्यथा को जान कर उसका विवाह किसी अन्य राजा से करना चाहता है। मलयवती को जब यह सूचना प्राप्त होती है तब वह प्राणांत करने का प्रस्तुत हो जाती है पर सखियों द्वारा उसे रोक लिया जाता है। जब मित्रवसु को ज्ञात होता है कि उसकी बहन उसके मित्र से विवाह करना चाहती है तो वह प्रसन्न चित्त होकर उसका विवाह जीमूतवाहन से कर देता है। तृतीय व चतुर्थ अंक में नाटक के कथानक में परिवर्तन होता है। एक दिन जीमूतवाहन भ्रमण करता हुआ अपने मित्र मित्रवसु के साथ समुद्र के किनारे पहुंचता है। वहां उन्हें तत्काल वध किये गए सपों की हड्डियों का ढेर दिखाई पडता है। वहां पर उन्हें शंखचूड नामक सर्प की माता विलाप करती हुई दीख पडती है। उससे उन्हें विदित होता है कि वे हड्डियाँ गरुड द्वारा प्रतिदिन के आहार के रूप में खाये गये सों की है। इस वृत्तांत को जान कर जीमूतवाहन अत्यंत दुखी होता है। वह अपने मित्र को एकाकी छोड कर बलिदान-स्थल पर जाता है जहां शंखचूड की माता विलाप कर रही थी क्यों कि उस दिन उसके पुत्र शंखचूड की बलि होने वाली थी। तब जीमूतवाहन ने प्रतिज्ञा की कि वह स्वयं अपने प्राण देकर उस हत्याकांड को बंद करेगा। ___ पंचम अंक में जीमूतवाहन अपनी प्रतिज्ञानुसार बलिदान-स्थल पर जाता है जिसे गरुड अपनी चंचू में पकड कर मलय पर्वत पर चल देता है। जीमूतवाहन के वापस न लौटने से उसके परिवार के लोग उद्विग्न हो उठते हैं। इसी बीच रक्त व मांस से लथपथ जीमूतवाहन का चूडामणि अचानक कहीं से आकर उसके पिता के समीप गिर पडता है। तब सभी लोग चिंतित होकर उसकी खोज में निकल पड़ते हैं। मार्ग में जीमूतवाहन के लिये रोता हुआ शंखचूड मिलता है और वह उन्हें सारा वृत्तांत कह सुनाता है। सभी लोग गरुड के पास पहुंचते हैं। जीमूतवाहन को खाते-खाते उसका अद्भुत धैर्य देख कर गरुड उसका परिचय पूछते हैं और चकित हो संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 155 For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाते हैं। इसी बीच शंखचूड के साथ जीमूतवाहन के माता-पिता हुआ है। इसका सम्पादन डॉ. कालीकुमार-दत्त शास्त्री ने किया वहां पहुंचते हैं और शंखचूड गरुड को अपनी गलती बतलाता है तथा उन्होंने उसकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका भी लिखी है। यह है। गरुड अत्यधिक पश्चात्ताप करते हुए आत्महत्या करना चाहते संस्करण दो पाण्डुलिपियों के आधार पर बनाया गया है जिसमें हैं पर जीमूतवाहन के उपदेश से भविष्य में हिंसा न करने एक तेलगु लिपि में तथा दूसरी नागरी लिपि में है तथा जो का संकल्प करते हैं। घायल होने के कारण जीमूतवाहन । लंदन की इण्डिया आफिस लायब्रेरी में सुरक्षित है। इसमें मृतप्राय हो जाता है अतः उसे स्वस्थ बनाने हेतु, गरुड अमृत तिथि का उल्लेख होता तो नाटक-परिभाषा के स्वतंत्र ग्रंथ के लेने चले जाते हैं। उसी समय देवी गौरी प्रकट होकर रूप में उल्लेख की परम्परा के स्रोत तथा समय का परिचय जीमूतवाहन को स्वस्थ बना देती है और वह विद्याधरों का मिल सकता था। चक्रवर्ती बना दिया जाता है। गरुड आकर अमृत की वर्षा इस संस्करण की एक विशेषता यह है कि इसमें इतिवृत्त, करते हैं और सभी सर्प जीवित हो उठते हैं। तब सभी संधि, सन्ध्यन्तर, भूषण तथा रूपक की प्रकारविषयक प्रायः आनंदित होते है और भरतवाक्य के बाद प्रस्तुत नाटक की 250 कारिकाएं भी सम्मिलित की गई हैं। समाप्ति होती है। नाट्यचूडामणि - ले- अष्टावधानी सोमनाथ। 7 अध्यायों का इस नाटक की नान्दी में बुद्ध का आवाहन तथा बुद्धचरित्र प्रबंध। विषय नारदमतानुसार गीत तथा नृत्य । की घटनाओं का नाटक में समावेश है केवल इनसे इस नाट्यपरिशिष्टम् - ले- कृष्णानंद वाचस्पति । नाटक को बौद्धमत प्रचारक नहीं मान सकते, अनुकम्पा तथा नाट्यांजनम् - ले- त्रिलोचनादित्य । अहिंसा की संकल्पना बुद्ध पूर्व है तथा गौरी-प्रवेश और अमृतवृष्टि यह भी पौराण धर्म की सूचक हैं। नाट्याध्याय - ले- अशोकमल्ल । ___टीका तथा टीकाकार- (1) आत्माराम, (2) एन.सी. नाट्यवेदागम - ले- तुलजराज (तुकोजी), तंजौरनरेश। विषय-नृत्य। कविरत्न, (3) शिव-राम, (4) श्रीनिवासाचार्य। (नागानन्दम् नामक एक लघु काव्य भी है। चन्द्रगोमिन् का लोकानंद नाट्यशास्त्र - ले- भरतमुनि। (नाटक), तथा अज्ञात लेखक का शान्तिचरित्र यह दोनों इसी भारतीय नाट्यकला की कल्पना नाट्यशास्त्र को छोडकर हेतु तथा प्रकार से लिखे नाटक हैं।) नहीं की जा सकती क्यों कि भारतीय नाट्यकला के स्वरूप, नागार्जुनतंत्रम् ले- ध्रुवपाल। तत्त्व तथा प्रकृति को समझाने के लिए नाट्यशास्त्र ही आलम्बन है। नाट्यकला के अनुषंगिक विषय यथा काव्य, संगीत, नृत्य, नागार्जुनीयम् - श्लोक-400 । इसमें 196 तांत्रिक प्रयोग हैं। शिल्प आदि का विस्तृत विवरण इस ग्रंथ में उपलब्ध है और नागार्जुनीययोगशतकम् - ले- ध्रुवपाल । भी इस विविधता ने इसे विश्वकोशसा बना दिया है। नाचिकेतसम् (महाकाव्य) - लेखक- काठमांडू (नेपाल) रोक्त नाट्यतत्त्वों के व्यवस्थित सूक्ष्म तथा तात्त्विक विवेचन के निवासी पं. कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे। ई. 20 वीं शती। का प्रभाव संपूर्ण परिवर्ती नाट्यशास्त्रीय चिंतन परम्परा पर देखा कठोपनिषद् के नाचिकेत- आख्यान पर यह महाकाव्य लिखा । जा सकता है। चतुर्विध अभिनयसिद्धान्त, गीत एवं विद्यविधि, गया है। इसके लेखक कविरत्न एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों पात्रों की विविध प्रकृति तथा भूमिका, रसनिष्पत्ति, रूपकों के से विभूषित हैं। आपकी 12 रचनाएं प्रकाशित हैं। संघटक तत्त्व आदि नाट्यविषयों का सांगोपांग विवरण देने नाडीपरीक्षा - (1) ले- गंगाधर कविराज। (1798-1885 वाला यह ग्रंथ नाट्यकला के प्रमाणभूत ग्रंथ के रूप में ई.)। (2) ले- गोविंदराम कविराज । प्रतिष्ठित हुआ है। नाडी-प्रकाश - ले- शंकर सेन। ___ इस ग्रंथ की 'भरतसूत्र' नाम से प्रसिद्धि इसके रचयिता नाटककथासंग्रह - ले-प्रा. व्ही. अनन्ताचार्य कोडंबकम्। के महत्त्व को सिद्ध करती है। नाट्यशास्त्र में भरत को ही नाटक-चंद्रिका - (1) ले- रूप गोस्वामी। सन 1492-1591 । नाट्यवेद का आचार्य बताया गया है। इन्होंने विभिन्न रूपकों इस ग्रंथ में भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के आधार पर नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया। परवर्ती नाट्यशास्त्रीय रचनाओं में के तत्त्वों का संक्षिप्त वर्णन है। हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित । भरतमुनि को ही नाट्यशास्त्र का प्रणेता बतलाया गया है। (2) ले- विश्वनाथ चक्रवर्ती। ई. 17 वीं शती। नाट्यशास्त्र दशरूपक अभिनयदर्पण, भावप्रकाशन, अभिनवभारती, नाटकविषयक ग्रंथ। लक्षणरत्नकोश तथा रसार्णवसुधाकर आदि रचनाओं में आचार्य नाटकपरिभाषा- (1) ले- श्रीरंगराज । विषय नाटक की रूढ भरत का उल्लेख नाट्याचार्य के रूप में बडी श्रद्धा से किया विधियों का विवरण। (2) नाटकपरिभाषा का एक सुन्दर गया है। अभिनेता सूत्रधार आदि अर्थो में भी "भरत" शब्द संस्करण संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता से 1967 में प्रकाशित का प्रयोग मिलने के कारण भरत के अस्तित्व का निषेध 156/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचित नहीं है। अतः आचार्य भरत ही नाट्यशास्त्र के प्रणेता सिद्ध होते हैं। नाट्यशास्त्र में मूलतः 36 अध्याय थे- (षट्त्रिंशकं भरतसूत्रमिदम्) परंतु अभिनवगुप्त ने 37 अध्यायों का विवरण किया है। अध्याय की संख्या काश्मीरी शैवदर्शन के 36 तत्त्वों की संख्या के अनुरूप है तथा 37 वां अध्याय उत्पलदेव के अनुत्तर के सिद्धान्त का निदर्शक है ऐसा आचार्य अभिनव गुप्त का प्रतिपादन हैं। इस समय नाट्यशास्त्र के विभिन्न संस्करण विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध हैं। हिन्दी में श्री बाबलाल शुक्ल शास्त्री का आलोचनात्मक संस्करण अद्यतन अध्ययन को समाहित करता हुआ स्वतंत्र व्याख्यान ग्रंथ बन गया है। समय- अनेक विद्वानों के द्वारा गहन तथा विशद अध्ययन तथा अनुसंधान करने के पश्चात् भी नाट्यशास्त्र को किसी निश्चित काल विशेष में निर्धान्त स्थिर करना कठिन है। वस्तु विषय की दृष्टि से इसके कुछ अंश पांचवी अथवा छठवी शताब्दी ई. पूर्व के हो सकते है जब कि कुछ अंश द्वितीय शताब्दी के प्रतीत होते हैं। महाकवि कालिदास नाट्यशास्त्र के मूल रूप से परिचित थे यह तो निर्विवाद है। ग्रन्थपरिमाण - वर्तमान नाट्यशास्त्र प्रायः 6,000 श्लोकों का ग्रंथ है अतः उसे "षट्साहस्री' संहिता भी कहा जाता है। परंतु भावप्रकाशन के अनुसार नाट्यशास्त्र के बाद साहस्री संहिता की रचना आदि भरत या वृद्धभरत ने की थी। इसके कुछ गंद्याश भी उसमें उद्धृत किये गये हैं और एक 'अष्टादशसाहस्त्री संहिता" मानी गई है। भोज के अतिरिक्त दशरूपक के टीकाकार बहुरूप मिश्र ने भी द्वादशसाहस्री संहिता का उल्लेख किया है। धनंजय, भोज तथा आचार्य अभिनवगुप्त के समय तक नाट्यशास्त्र के दो पाठों की परम्परा अवश्य विद्यमान थी। श्री शुक्ल का मत है कि आदि भरत की रचना, भरत की उत्तरवर्ती है (जैसे मनुस्मृति के पश्चात् वृद्ध-मनु की रचना) जिनमें भरत शब्द का विशेषण लगा कर नाट्यशास्त्रीय ग्रंथों को निदर्शित किया गया है। व्याख्यानशैली - इस ग्रंथ में प्रधान रूप से पद्यात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। प्रायः अनुष्टुप् वृत्त में रचित ये पद्य सूत्र अथवा कारिका के रूप में माने जाते है परंतु मुनि ने यथाप्रसंग आनुवंश्य श्लोक, आर्याओं तथा सूत्रानुविद्ध आर्याओं का भी प्रयोग किया। गद्य का प्रयोग भी सिद्धान्त निरूपण, व्याख्यान तथा निर्वचन के लिए किया गया है। इस प्रकार नाट्यशास्त्र में सूत्र, भाष्य, संग्रहकारिका एवं निरुक्त जैसी सभी प्राचीन शास्त्रीय पद्धतियों का दर्शन होता है। भोज ने 'गद्यपद्यव्यायोगि मिश्रम्" कह कर उदाहरणस्वरूप नाट्यशास्त्र का ही उल्लेख किया है। ग्रंथ के बृहत् कलेवर, विषयविस्तार, नाट्य के सहयोगी कलारूपों के विवरण, अनेक आचार्यों के उल्लेख तथा विविध विवेचन शैलियों के प्रयोग के कारण, नाट्यशास्त्र एक सतत विकासमान परम्परा का ग्रंथ बन गया है और यही कारण है कि डा. बलदेव उपाध्याय, डा. गो.के. भट आदि कई विद्वान् इसे एक ही आचार्य की कृति के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। परंतु आचार्य भरत ने अपने समय तक उपलब्ध समस्त नाट्यशास्त्रीय परंपरा, प्रयोग तथा सिद्धान्त चिन्तन को व्यवस्थित कर अपनी विलक्षण अर्थप्रतिभा से इस आकरग्रंथ की रचना की है इससे संदेह नहीं है। इसमें अन्य आचार्य प्रयोक्ता तथा शिष्यपरिवार का सहयोग लेकर इतने बहदाकार ग्रंथ का प्रणयन हुआ होगा ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वार्तालाप तथा उपदेश शैली भी सजीव व्याख्यान एवं लेखन की ओर ही इंगित करती है। आचार्य भरत ने नाट्य की एक व्यापक अवधारणा दी है और यही कारण है कि परवर्ती-शास्त्रकार उनकी प्रतिपादित धारणाओं तथा सिद्धान्तों का ही व्याख्यान, विवेचन तथा उपबंहण करते रहे। इतने सर्वस्पर्शी तथा महनीय शास्त्रग्रंथ का प्रणयन करने के पश्चात् भी आचार्य भरत ने स्वयं इस शास्त्र के प्रस्तार को दुस्तर माना है। पूर्ववर्ती नाट्याचार्य - नाट्यशास्त्र में नाट्य के विविध विषयों के अनेक आचार्यों का उल्लेख हुआ है। नाट्योत्पत्ति एवं नाट्यावतार के वर्णन प्रसंग में भरताचार्य के सौ शिष्यों का उल्लेख मिलता है। इनमें से कुछ नाट्यशास्त्र के प्रयोक्ता एवं प्रणेता थे जिनका विवरण भरत ने स्वयं उपस्थित किया है। इनमें से कुछ आचार्य नाट्यशास्त्रीय परम्परा में उल्लेखों तथा उद्धरणों के माध्यम से भी प्रसिद्ध हए है। नाट्यशास्त्र-व्याख्याकार- शाङ्गदेव ने "संगीतरत्नाकर" के एक श्लोक में भरत के नाट्यशास्त्र के व्याख्याकारों का उल्लेख किया है व्याख्याकारा भारतीये लोल्लटोद्भटशंकुकाः । भट्टाभिनवगुप्तश्च श्रीमत्कीर्तिधरोऽपरः ।।। इसके अनुसार- लोल्लट, उद्भट्ट, शंकुक, अभिनवगुप्त तथा कीर्तिधर भरत के व्याख्याकार हैं। इसमें भट्टनायक का नाम नहीं है परंतु अभिनवगुप्त ने इनके नाम का उल्लेख अनेक बार किया है,। इस प्रकार नाट्यशास्त्र पर लिखित व्याख्याओं की सदीर्घ परम्परा का परिचय अभिनवभारती से ही मिलता है। ये व्याख्याकार प्रायः काश्मीर के निवासी हैं। ___ नाट्यशास्त्र के कुछ टीकाकारों के नाम ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं :(1) भरतटीका- ले- श्रीपाद शिष्य। (2) हर्षवार्तिक- लेहर्ष। (3) राहुलक (4) नखकुट्ट। (5) मातृगुप्त। (6) कीर्तिधराचार्य। (7) उद्भट (8) लोल्लट। (9) शकलीगर्भ । (10) दत्तिल (भरत के शिष्य) (11) कोहल (भरत के शिष्य)। (12) मतंग। (13) ब्रह्मा। (14) सदाशिवभरतम्ले. सदाशिव। (15) नन्दी। (16) भरतार्थचंद्रिका (यही संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/157 For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले- मैत्रेय नाण। प्रस्तुतों का जीव भरतार्णव का संक्षेप है।) भरतनाट्यशास्त्र पर अभिनवगुप्ताचार्य नादासक्त मन फिर विषयों की इच्छा नहीं करता। जिस स्थान की अभिनवभारती नामक टीका अप्रतिम मानी गई है। पर चित्त का लय होता है वहीं है विष्णु का परमपद। जिस नाट्यसंहार - ले- वीरभट्टदेशिक। आंध्र के काकतीय नृपति समय योगी शब्दातीत ब्रह्मप्रणव के नाद में मग्न रहता है रुद्रदेव का आश्रित। ई. 12 वीं शती। उस समय उसका शरीर मृतवत् होता है। नाट्यसर्वस्वदीपिका - ले- नारायण शिवयोगी। नानकचन्द्रोदय- कवि देवराज व गंगाराव। इसमें सिक्ख नाथमुनिविजयचंपू - ले- मैत्रेय रामानुज। समय- अनुमानतः संप्रदाय के आद्य प्रवर्तक नानक के चरित्र का वर्णन है। 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। प्रस्तुत चंपू-काव्य में नानार्थ-शब्द - ले. माथुरेश विद्यालंकार। (ई. 17 वीं शती) नाथमुनि से रामानुज पर्यंत विशिष्टाद्वैतवादी आचायों का जीवन-वृत्त स्वलिखित शब्दरत्नावली का अंश। वर्णित है। इसका कवित्वपक्ष दुर्बल है और इसमें विवरणात्मकता नानार्थसंग्रह - ले. अजय पाल । शब्दकोश । ई. 11 वीं शती। का प्राधान्य है। नानाशास्त्रीयनिर्णय - ले. वर्धमान। पिता- भवेश। ई. 16 नादकारिका - ले- रामकंठ। पिता-नारायण। इस पर रामकंठ वीं शती। के शिष्य अघोर शिवाचार्य ने टीका लिखी है। नान्दीश्राद्धपद्धति - ले. रामदत्त मंत्री। पिता- गणेश्वर । नाद-दीपक - ले-भट्टाचार्य। इस ग्रंथ में आधुनिक संगीत नाभिनिर्णय - ले. पुण्डरीक विठ्ठल। विषयक विविध तंत्रों की जानकारी है। नाभिविद्या - श्लोक 173। इसमें त्रिपुरसुन्दरी के मंत्र, (जिन्हें नादबिंदूपनिषद् - ले- ऋग्वेद से संबंधित 56 श्लोकों का "नाभिविद्या" कहते हैं) के जप की पद्धति वर्णित है। एक नव्य उपनिषद् । ग्रंथारंभ में प्रणव की तुलना पक्षी से नामलिंगाख्या -कौमुदी- ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य (ई. 16 वीं की गई है। तदनुसार 'अ' है पक्षी का दाहिना पंख 'उ' बाया शती) अमरकोश की टीका । पंख 'म' पूंछ, अर्धमात्रा है सिर, सत्त्व, रज, तम ये गुण हैं नायिकासाधनम् - 1) श्लोक- 157| विषय- 1। सुन्दरी, पैर, सत्य है शरीर, धर्म है दाहिनी आंख, अधर्म बांई आंख, 2) मनोहरी, 3) कनकवती,? 4) कामेश्वरी,-5) रतिकरी, भूलोक है पोटरियां, भुवर्लोक हैं घुटने, स्वलोक जंधाएं, महर्लोक 6) पद्मिनी, 7) नटी, 8) अनुरागिणी नामक अष्टनायिकाओं है नाभी, जनलोक है हृदय और तपोलोक है पक्षी का गला । का साधन और विचित्रा, विभ्रमा, विशाला, सुलोचना, मदनविद्या, प्रणव की मात्राओं में से अकार अग्नि की, उकार वायु मानिनी, हंसिनी, शतपत्रिका, मेखला, विकला, लक्ष्मी, महाभया की, मकार बीजात्मक की, तथा अर्धमात्रा वरुण की मानी गई विद्या, महेन्द्रिका, श्मशानी विद्या, वटयक्षिणी, कपालिनी, चंद्रिका, है। इनके अतिरिक्त घोषणी, विद्युत्, पतंगिनी, वामवायुवेगिनी, घटना विद्या, भीषणा, रंजिका, विलासिनी नामक 21 अवांतर नामधेयी, ऐन्द्री, वैष्णवी, शांकरी, महती, धृति, नारी और ब्राह्मी शक्तियों की साधना। नामक और भी प्रणव की मात्राएं हैं। नारदपंचरात्रम् - इसमें लक्ष्मी, ज्ञानामृतसागर, परमागम-चूडामणि, योगी को सुनाई देने वाले विविध नादों का वर्णन भी इस पौष्कर, पाद्म और बृहद्ब्रह्म नामक छः संहिताएं अन्तर्भूत हैं। उपनिषद् में इस प्रकार किया गया है : श्लोक 12 हजार। आदौ जलधि-जीमूत-भेरी-निर्झर-सम्भवः । नारदपरिव्राजकोपनिषद् - अथर्ववेद से संबद्ध एक नव्य मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टा-काहलजस्तथा।। उपनिषद्। इसके १ भाग हैं। प्रत्येक भाग की संज्ञा है अन्ते तु किङकिणी-वंश-वीणा-भ्रमर-निःस्वनः। "उपदेश"। नारद ने यह उपनिषद् शौनकादि मुनियों को कथन इति नानाविधा नादाः श्रूयन्ते सूक्ष्म-सूक्ष्मतः ।। किया है। इसके पहले उपदेश में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ व वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों मे जीवन किस प्रकार अर्थ- प्रथम समुद्र, मेघ, भेरी, झरने की ध्वनि जैसे आवाज, व्यतित किया जाय। क्रमांक 2 से 5 तक के उपदेशों में फिर नगाडा, घंटा मानकंद के आवाजों जैसे नाद और अंत संन्यास- विधि का वर्णन, संन्यास के भेद और संन्यासी के में क्षुद्र घंटा, वेणु (मुरली), वीणा एवं भ्रमर के आवाजों कर्तव्य अंकित हैं। 6 वें उपदेश में ज्ञानी पुरुष का रूपकात्मक जैसे नाद इस प्रकार अनेकविध सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद सुनाई देते हैं। वर्णन निम्न प्रकार हैंजिस नाद में मन पहले रमता है, वही पर स्थिर होकर ज्ञानी पुरुष का ज्ञान है शरीर, संन्यास है जीवन, शांति बाद में उसी में वह विलीन होता है। फिर बाह्य नादों को व दांति हैं नेत्र, मन है मुख, बुद्धि है कला, पच्चीस तत्त्व भूलकर मन चिदाकाश में विलीन होता है और ऐसे योगी __ हैं अवयव और कर्म व भक्ति अथवा ज्ञान व संन्यास हैं बाहु। को उन्मनी अवस्था प्राप्त होती है। जिस प्रकार मधु का सेवन इसके पश्चात् इसी उपदेश में हृदय पर निर्माण होने वाली करने वाला भ्रमर सुगंध की अपेक्षा नहीं करता, उसी प्रकार विविध भावनाओं की उर्मियां कहां कहां पर निर्माण होती है 158 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसका वर्णन है। - सातवें उपदेश में यति के आचार-नियम बताये हैं और आठवें तथा नौवें उपदेश में संसारतारक प्रणव का वर्णन है। नारदपुराणम्- (बृहन्नारदीयपुराणम्) - सनत्कुमारों द्वारा नारद को कथन किया जाने के कारण इसे नारद पुराण कहते हैं। इस उपपुराण की श्लोकसंख्या 25 हजार बताई गई है, किन्तु उपलब्ध प्रति के केवल 18 हजार 101 श्लोक हैं। इसके दो भाग हैं- पूर्व भाग में 125 अध्याय हैं और उत्तर भाग में 82 अध्याय । पूर्वभाग में चार पाद हैं। उत्तर भाग अखंड है। नारद पुराण में समाविष्ट विषय इस प्रकार हैं- गंगा-माहात्म्य, भगीरथकृत गंगावतरण की कथा, धर्माख्यान, वापीकूपतडागादि की निर्मिति, तिथिव्रत, दान, प्रायश्चित्त, युगचतुष्टय- परिस्थिति, नाममाहात्म्य, सृष्टि-निरूपण, ध्यानयोग, मोक्षधर्म-निरूपण, निवृत्ति-धर्म का वर्णन मंत्रसिद्धि, मंत्रजप, दीक्षा-विधि, गायत्री-विधान, महा-विष्णुमन्त्र का जपविधान, नृसिंहमंत्र, हनुमन्मंत्र, महेश्वरमंत्र, दुर्गामंत्र, एकादशी-माहात्य के प्रसंग में रुक्मांगद-मोहिनी की कथा, पुरुषोत्तमक्षेत्रयात्रा, समुद्र-स्नान, राम-कृष्ण-सुभद्रादर्शन, कुरुक्षेत्रमाहात्य, बद्रीक्षेत्रयात्रा, पुष्करक्षेत्रमाहात्म्य, नर्मदातीर्थमाहात्म्य, रामेश्वर-माहात्य, मथुरा-वृंदावन माहात्म्य आदि । प्रस्तुत पुराण का काल ई 6 वीं शती शताब्दी के पूर्व का माना जाता है। अल् बेरुनी (7 वीं शती) ने इसका उल्लेख किया है। पद्मपुराण में इस पुराण को सात्त्विक कहा गया है। इस पुराण में एकादशी और श्रीविष्णु का माहात्म्य विशेष रूप से है। अतः इसे वैष्णव पुराण माना जाता है। इस पुराणांतर्गत विषयों की विविधता को देखते हुए विद्वानों ने इसे ज्ञानकोश ही बताया है। नारद-पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है क्यों कि इसके 92 के 109 तक के अध्यायों में पूरे अठारह पुराणों की विस्तृत सूचि दी गई है। इस सूचि से संबंधित पुराण का मूल भाग कौनसा है इस तथ्य का निश्चित पता चला जाता है। ___इस पुराण में अनेक विषयों का निरूपण है जिनमें मुख्य हैं- मोक्षधर्म, नक्षत्र, व कल्प-निरूपण, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मंत्रसिद्धि, देवताओं के मन्त्र, अनुष्ठान-विधि । अष्टादश-पुराण विषयानुक्रमणिका, वर्णाश्रम धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त, सांसारिक कष्ट व भक्तिद्वारा सुख। इसमें विष्णुभक्ति को ही मोक्ष का एक मात्र साधन माना गया है तथा अनेक अध्यायों में विष्णु, राम, हनुमान, कृष्ण, काली व महेश के मन्त्रों का विश्ववत् निरूपण है। सूत-शौनक संवाद के रूप में इस पुराण की रचना हुई है। इसके प्रारंभ में सृष्टि का संक्षेप वर्णन किया गया है। तदनंतर नाना प्रकार की धार्मिक कथाएं वर्णित हैं। प्रस्तुत पुराण में दार्शनिक विषयों की जो चर्चा की गई है वह महाभारतांतर्गत शांतिपर्व में की गई चर्चा के अनुसार है (पूर्वभाग 42 से 45 तक)। नारदपुराण के तत्त्वज्ञानानुसार नारायण ही अंतिम तत्त्व है। उन्हींको महाविष्णु कहते हैं। उन्हींसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार अखिल विश्व में श्रीहरि समाये हुए हैं उसी प्रकार उनकी शक्ति भी। उस शक्ति को श्रीहरि से पृथक् नहीं किया जा सकता। यह शक्ति कभी व्यक्त स्वरूप में रहती है तो कभी अव्यक्त स्वरूप में। प्रकृति, पुरुष और काल हैं उसके तीन व्यक्त स्वरूप । प्राणिमात्र को त्रिविध दुःख भोगने ही पडते हैं किन्तु भक्तियोग द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होने पर ये सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य का मन ही बंध और मोक्ष का कारण है। मनुष्य की विषयासक्ति है बंध। इस बंध के दूर होने पर सहज ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। मन का ब्रह्म से संयोग करना ही योग है। भक्तियोग द्वारा ब्रह्मलय साध्य होता है। वह मानव जीवन में भी एक अत्यंत आवश्यक तत्त्व है। उसी के द्वारा ईश्वरी कृपा का लाभ होता है और मनुष्य के इह-परलोक सुरक्षित होते हैं। ___ पुराणों में नारदीय पुराण के अतिरिक्त एक 'नारदीय उपपुराण' भी प्राप्त होता है। इसमें 38 अध्याय व 3600 श्लोक हैं। यह वैष्णव मत का प्रचारक एवं विशुद्ध सांप्रदायिक ग्रंथ है। इसमें पुराण के लक्षण नहीं मिलते। कतिपय विद्वानों ने इसी ग्रंथ को "नारद-पुराण" मान लिया है। इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से हुआ है। "नारद-पुराण" के दो हिन्दी अनुवाद हुए हैं। 1) गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित और 2) रामचंद्र शर्मा द्वारा अनूदित व मुरादाबाद से प्रकाशित। नारद-भक्तिसूत्रम्- भक्तियोग का व्याख्यान करने वाला एक प्रमाणभूत सूत्रग्रंथ। इसमें कुल 84 सूत्र हैं। इसका प्रथम सूत्र है-“अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः"-यहां से आगे भक्ति का व्याख्यान कर रहे हैं। आगे के दो सूत्रों में भक्ति का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है सा त्वस्मिन् परमप्रेमस्वरूपा। अमृतस्वरूपा च। अर्थ भक्ति परमात्मा के प्रति परमप्रेमरूप है और अमृत (मोक्ष) स्वरूप भी है। इस स्वरूप के कथन के पश्चात् नारद ने पहले दूसरों के भक्तिलक्षण बतलाकर फिर स्वयं के भक्ति लक्षण इस प्रकार बताय है-. नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तविस्मरणे परमव्याकुलतेति । __अर्थ- नारद के मतानुसार भक्ति का लक्षण अपने सभी कर्म भगवंत को अर्पण करते हुए रहना तथा उस भगवंत के विस्मरण से परम व्याकुल होना है। समस्त ज्ञान का ही नहीं तद्वर संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/159 For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 अपितु सभी कर्मों व योगों का भी अंतिम ध्येय भक्ति ही है भक्ति, सगुण-साकार परमेश्वर पर अधिष्ठित रहती है। भक्ति में वर्ण, शिक्षा-दीक्षा, कुल, संपत्ति अथवा कर्म आदि भेद कदापि संभव नहीं, यह बतलाकर नारद ने भक्ति प्राप्त करने के साधन निम्न प्रकार कथन किये हैं www.kobatirth.org तत्तु विषयत्यागात् सङ्गत्यागाच्च । अव्याहत - भजनात् । लोकेऽपि भगवद्गुण-श्रवणकीर्तनात् । मुख्यतस्तु महत्ययैव भगवत्कृपालेशाद्वा । अर्थ- विषयत्वाग, संगत्याग, अखंडनामस्मरण, भगवान् के गुण-कर्मों का सामूहिक श्रवण-कीर्तन आदि है भक्ति के साधन किंतु वह भक्ति मुख्यतः संतसज्जनों की और भगवान् की कृपा से प्राप्त होती है। नारद कहते हैं कि भक्त ने एकांतवास करना चाहिये । योगक्षेम की चिंता नहीं करनी चाहिये। धन के विचार और दंभ तथा मद से भक्त दूर रहे। उसी प्रकार अहिंसा तथा सत्य, पावित्र्य, दया, ईश्वरनिष्ठा आदि गुणों का विकास भक्त ने अपने अंतःकरण में करना चाहिये, किसी से भी वह वाद-विवाद न करे और दूसरों की निंदा की ओर भी ध्यान न दे। ईश्वर का गुण वर्णन, उनके दर्शन की व्याकुलता उनकी प्रतिमा का पूजन, उनका ध्यान, सेवा, सख्य, प्रेम, पतिव्रता जैसी भक्ति आत्मनिवेदन, परमेश्वर से ऐक्य और परमेश्वर विरह का दुःख ही नारदजी द्वारा कथित भक्ति के 11 प्रकार हैं । फिर नारद ने प्रस्तुत विषय का समारोप करते हुए बतायापूर्ण समाधान प्राप्त होता है और समस्त वासनाएं नष्ट होती हैं। भक्त स्वयं के साथ ही दूसरों का भी उद्धार करता है। अन्य किसी भी बात में भक्त को आनंद और उत्साह का अनुभव नहीं हुआ करता। भक्त को आध्यात्मिक स्थैर्य व शांति प्राप्त होती है। नारदीयभक्तिसूत्र - भाष्यम् - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । प्राप्तिस्थान विश्वसंत साहित्य प्रतिष्ठान, सिव्हिल लाइन्स, नागपुर। नारदशिक्षा ले. नारद । 1 ) संगीत शास्त्र से संबंधित एक ग्रंथ । इसकी रचना ईसा की 10 वीं और 12 वीं शताब्दियों के बीच हुई होगी। किंतु इस ग्रंथ का संबंध, पौराणिक नारद से तनिक भी नहीं है। नाट्यशास्त्र में वर्णित राग-पद्धति की अपेक्षा इस ग्रंथ की रागपद्धति में अनेक सुधार परिलक्षित होते हैं। संगीतरत्नाकर ग्रंथ इस ग्रंथ के बाद का है। उसका नारदशिक्षा से कुछ बातों में मतभेद है। इस ग्रंथ के दो भाग अध्यायों में विभाजित हैं। यज्ञविधि के सामगान की चर्चा इसमें होने से वैदिक तथा तदुदत्तरकालीन संगीत को जोडने वाली यह रचना मानी जाती है। इस पर शुभंकर (ई.17 वीं शती) की टीका है। शुभंकर के ग्रंथ है संगीतदामोदर, रागनिरूपण एवं पंचमसारसंहिता । 160 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - I 2) व्याकरणविषयक अनेक शिक्षाओं में से एक। इस नारद शिक्षा में सामगान तथा लौकिकगान के नियम दिये गये हैं। नारदशिल्पशास्त्रम् (नारदशिल्पसंहिता) संस्कृत संशोधन विद्यापीठ, मैसूर के प्रमुख जी. आर. जोशियर द्वारा प्रकाशित । इसमें 83 विषयों का अन्तर्भाव है। ग्राम, नगर, दुर्ग तथा घरों के अनेक प्रकार वर्णित इसके व्यतिरिक्त स्तम्भ, प्रासाद आदि का शिल्प शास्त्रीय विवरण | नारदसंगीतम् - बडोदा से प्रकाशित । नारदस्मृति ईसा की 5 वीं अथवा 6 वीं शती का एक स्मृति ग्रंथ । याज्ञवल्क्य और पराशर ने धर्मशास्त्रकारों की सूचि में नारद का नाम नहीं दिया, किन्तु विश्वरूप ने धर्मशास्त्रविषयक प्रथम दस ग्रंथकारों में नारद का उल्लेख किया है। प्रस्तुत स्मृति का प्रास्ताविक भाग गद्यमय है। शेष भाग श्लोकात्मक है। इसमें 18 प्रकरण और कुल श्लोकसंख्या है 1528 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - इनमें से 50 श्लोक नारद और मनु के एक जैसे हैं । इस स्मृति के लगभग 700 श्लोक विभिन्न निबंधग्रंथों में उद्धृत किये गये हैं। श्री विश्वरूप ने भी इस स्मृति के लगभग 50 श्लोक अपने ग्रंथ में लिये हैं। आचार, श्राद्ध व प्रायश्चित्त विषयक विवेचन में हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिंतामणि स्मृतिचंद्रिका, पराशर - माधवीय तथा बाद के अन्य निबंधग्रंथों में भी नारद के अनेक श्लोक लिये गये है। नारद और मनु का संबंध अत्यंत निकट का है । यह संबंध श्री. विलियम जोन्स ने अपनी मनुस्मृति की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है। ऐसा कहा जा सकता है कि नारदस्मृति मनुस्मृति के व्यवहाराध्याय (9 वें अध्याय) की संक्षिप्त आवृत्ति ही है स्वायंभुव मनु ने जो मूल धर्मग्रंथ लिखा, उसी को आगे चलकर भृगु, नारद, बृहस्पति, और आंगिरस ने विस्तृत किया । नारदस्मृति की जो प्रति नेपाल में मिली है, उसके अंत में " इति मानवधर्मशास्त्रे " ये शब्द हैं। मनुस्मृति के कतिपय अध्यायों की सामग्री नारद स्मृति में ज्यों की त्यों मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मदेश में “धमत्थत्सं" नामक जो कानून हैं वे मनुस्मृति के ही आधार पर बनाये गये हैं किन्तु तदंतर्गत अनेक कानून मनुस्मृति में नहीं, नारदस्मृति में मिलते हैं। नारद ने अपनी स्मृति के प्रास्ताविक भाग में व्यवहार - मातृक अर्थात् न्यायदान विषयक सामान्य तत्त्वों के साथ ही न्यायसभा के बारे में भी जानकारी दी है। पश्चात् उन्होंने क्रमशः कानून के जो विषय दिये हैं, वे इस प्रकार हैं : For Private and Personal Use Only " 2 ऋणादान (कर्ज की वसूली) उपनिधि ( धरोहर, कर्ज व रेहन ) संभूयसमुत्थान ( उद्योग धंदों की भागीदारी) दत्ताप्रदानिक ( दिया हुआ दान वापस लेना) अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (नौकरी के करार का उल्लंघन ) वेतनस्य अनपाकर्म (नौकर चाकरों को वेतन न देना), अस्वामिविक्रय (स्वामित्व न होते हुए भी किसी वस्तु का विक्रय करना), विक्रयासंप्रदान ( वस्तु का Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विक्रय करने पर भी ग्राहक को उसका कब्जा न देना), क्रीतानुशय (खरीदी रद्द करना), समयस्यानपाकर्म (मंडलिया, संघ आदि के नियमों का उल्लंघन), सीमाबंध (चतुःसीमा निश्चित करना), स्त्रीपुंसयोग (वैवाहिक संबंध), दायभाग (प्राप्ति का बंटवारा और उत्तराधिकार), साहस (मनुष्यवध, डाका, स्त्री पर बलात्कार आदि प्रकार के अपराध), वाक्पारुष्य (बेइज्जती और गालीगलोज), दंडपारुष्य (विविध प्रकार के शारीरिक आघात) और प्रकीर्ण (संकीर्ण अपराध)। परिशिष्ट में चोरों के अपराध के बारे में विवेचन किया गया है। न्यायदान की पद्धति के विषय में जो- कानून स्मृति में अंकित है उन्हें देखते हुए नारद को मनु से श्रेष्ठ मानना पडता है। दीवानी और फौजदारी कानूनों के बारे में नारद जैसा वतंत्र विचार अन्य किसी भी स्मृतिकार ने नहीं किया है। महत्त्व की बात यह है कि प्रायश्चित्त तथा अन्य वैसी ही धार्मिक विधियों का विचार न करते हुए, नारदजी ने केवल कानूनों का ही विचार किया है। परिणाम स्वरूप नारदस्मृति से तत्कालीन राजकीय एवं सामाजिक संस्थाओं के बारे में काफी जानकारी मिलती है। सभी स्मृतियों में मनुस्मृति का स्थान श्रेष्ठ है, किन्तु नारद ने मनु के विरुद्ध अपना मतस्वातंत्र्य व्यक्त किया है। इस बारे में नारद को पूर्ववर्ती स्मृतिकारों का आधार अवश्य होगा। मूलभूत मानी गई नारदस्मृति की प्रतियां अनेक हैं, किन्तु श्री. बेंडाल को ताडपत्र पर लिखी गई जो प्रति नेपाल में मिली, उसी प्रति को प्रामाणिक माना जाता है। उसमें एक नवीन अध्याय उपलब्ध है। नारदस्मृति पर असहाय नामक पंडित ने टीका लिखी है। यह टीका बडी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। डा. विंटरनित्सने इसमें "दीनार" शब्द को देख कर इसका समय द्वितीय या तृतीय शताब्दी माना है पर डा. कीथ इसका काल 100 ई. से 300 ई. के बीच मानते हैं। इसे "याज्ञवल्क्य-स्मृति" का परवर्ती माना जाता है। नारदोपनिषद् - बारह पंक्तियों का एक अपूर्ण नव्य उपनिषद् । इसमें ब्रह्माजी ने नारद को अमरत्व संबंधी ज्ञान कथन किया है वैष्णव ने ऊर्ध्वत्रिपुंड्र किस प्रकार लगाना चाहिये इस जानकारी के साथ प्रस्तुत उपनिषद् का आरंभ हुआ। नारायणउत्तरतापिनी उपनिषद् - अथर्ववेद से संबंध तीन खंडों का एक नव्य उपनिषद्। इसमें प्रथम "वासुदेव" शब्द की व्युत्पति देते हुए बताया गया है कि नारायण से ही समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ और वे ही जीवात्मा तथा परमात्मा हैं। दूसरे खंड में "ओम् नमो भगवते श्रीमन्नारायणाय" से प्रारंभ होने वाला नारायणमालामंत्र दिया गया है। तीसरे खंड में प्रस्तुत उपनिषद् के अभ्यास से प्राप्त होने वाली फलप्राप्ति का वर्णन है। नारायणपंचांग - विश्वसारतन्त्रान्तर्गत। श्लोक 392। नारायण-पदभूषणमाला (स्तोत्र) - 1) ले. शेषाद्रि शास्त्री। पिता- वेंकटेश्वरसूरि । श्लोक 100 । इस पर लेखक की व्याख्या है। नारायणपूर्वतापिनी उपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध एक नव्य उपनिषद्। यह ब्रह्मदेव ने सनत्कुमारदि मुनियों को कथन किया है। इसके 6 खंड हैं। प्रथम खंड में पृथ्वी आदि पंचमहाभूत, चंद्र, सूर्य व यजमान को नारायण की अष्ट मूर्तिया बताया गया है और कहा गया है कि सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान व अनुसंमति ये नारायण के 5 प्रमुख कृत्य हैं। दूसरे खंड में अष्टाक्षरी-मन्त्र का वर्णन है और नारायण को परब्रह्म व महालक्ष्मी को मूलप्रकृति बताया गया है। तीसरे खंड में नारायणगायत्री है, और वेदवचनों के आधार पर नारायण का माहात्म्य प्रतिपादित है। इसमें नारायण के 5,6,7,12,13 व 16 अक्षरों के मंत्र दिये गये हैं। चौथे खंड में नारायण गायत्री, अनंगगायत्री व लक्ष्मीगायत्री नामक मंत्र दिये हैं। पांचवें खंड में विष्णु की जरा, शांति आदि दस कलाओं के नाम बताते हुए उनके 10 अवतारों के मंत्र दिये है। फिर सांख्यपद्धति से मिलता-जुलता विश्व की उत्पति का वर्णन है। इस उपनिषद् के 6 वें खंड में नारायणयंत्र का विस्तृत वर्णन करते हुए बताया गया है कि उनकी पूजा करने से विविध ऐहिक कामनाएं पूर्ण होती हैं। . नारायणभट्टी - नारायणभट्टकृत प्रयोगरत्न एवं अन्त्येष्टि पद्धति का यह नामान्तर है। नारायणबलिपद्धति - ले. दाल्भ्य । नारायणबलि प्रयोग - ले. कमलाकर। पिता- रामकृष्ण । नारायणाचरित्रमाला - ले. भगवद्गोस्वामी। विषय- तांत्रिक रीति से नारायण की पूजाविधि । नारायणोपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद से संबद्ध एक नव्य उपनिषद् । इसमें नारायण ही ब्रह्म है और वे ही सब कुछ हैं इस प्रतिपादन के साथ "ओम् नमो नारायणाय" यह अष्टाक्षरी मंत्र अंकित है। इस उपनिषद् का संदेश है कि नारायण के साक्षात्कार द्वारा माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है। नारसिंहकल्प - ब्रह्म-नारद संवादरूप। पटल- 8। विषयनृसिंह भगवान् की पूजा। नासदीयसूक्तम् - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त। इस सूक्त का प्रारंभ "नासदासीत्" शब्द से होने के कारण इसे यह नाम प्राप्त है। इसकी 7 ऋचाएं हैं। इसके ऋषि हैं परमश्रेष्ठी प्रजापति, देवता है परमात्मा और छंद है त्रिष्टुप् । यह सूक्त उपनिषदंतर्गत ब्रह्मविद्या का आधारभूत सिद्ध हुआ है। सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है और उससे यह विविध दृष्य सृष्टि किस प्रकार निर्मित हुई होगी इस बारे में इस सूक्त में जो विचार प्रस्तुत किये गए हैं, वे प्रगल्भ, स्वतंत्र तथा मूलगामी हैं। लोकमान्य तिलक के मतानुसार- "इस प्रकार संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/161 For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के तत्त्वज्ञान के मार्मिक विचार अन्य किसी भी धर्म के मूलग्रंथ में दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत इनके समान इतना प्राचीन लेख भी अब तक कही पर भी उपलब्ध नहीं हुआ है। ___ इस सूत्रातंर्गत विषयों का आगे चलकर भारत के ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों एवं उनके बाद के वेदांतशास्त्र विषयक ग्रंथों में तथा पाश्चिमात्य देशों के कांट प्रभृति आधुनिक तत्त्वज्ञानियों ने बडा ही सूक्ष्म परीक्षण किया है। निकुंज बिरुदावली- ले. विश्वनाथ चक्रवर्ती । ई. 17 वीं शती। निगमकल्पद्रुम - श्लोक 600। शिव-पार्वती संवादरूप। 10 पटलों में पूर्ण। विषय- पंचमकारों की प्रशंसा, पंच मकारों की शुद्धि का कारण, परम साधन का निर्देश, स्त्री माहात्म्य, उसके अंग विशेषों के प्रभेद, उसके पूजनादि कथन, उसके साधन विशेषों का प्रतिपादन, पंचतत्त्व आदि का शोधन, मांस विशेषादि कथन इत्यादि। निगमकल्पलता - श्लोक 500। पटल 22 । निगमतत्त्वसार - आनन्दभैरवी और आनन्दभैरव संवादरूप। 11 पटलों में पूर्ण। श्लोक 437। विषय- तत्त्वसार और ज्ञानसार का निर्देश। मंत्र आदि की साधना। स्तव और कवच का साधन । चण्डीपाठ का क्रम। प्राण, अपान आदि 5 वायुओं में से किन्हीं से मन का संयोग होने पर, मन का क्रियाभेद हो जाता है। पंचतत्त्वों के शोधन का प्रकार, संविदाशोधन विधि आदि। निगमलता (तन्त्र) - इसकी कोई प्रति 24 पटलों में पूर्ण है तो कोई 27 पटलों मे पूर्ण है और किसी की पूर्ति 44 पटलों में हुई है। इसमें बहुत सी देव-देवियां वर्णित हैं। विरोचन, शंख, मामक, असित, पद्मान्तक, नरकान्तक, मणिधारिवज्रिणी, महाप्रतिसरा तथा अक्षोभ्य ये कहीं पर ऋषिरूप में वर्णित हैं। यह तंत्र कौल पूजा का प्रतिपादक है। निगमसारनिर्णय - ले. रामरमणदेव। विषयकालिका-मंत्रविधान, कालिका के ध्यान पूजन इ.। निगमानन्द-चरित्रम् (नाटक) - ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) 1952 में प्रकाशित। उसी वर्ष राममोहन लायब्रेरी हाल, कलकत्ता में अभिनीत । अंकसंख्या सात। निघण्टु - वेदों में प्रयुक्त कठिन शब्दों का संग्रह अथवा कोश। यास्क ने इसे “समाम्नाय कहा है। महाभारत के अनुसार (शांति 342.86-87) इस के कर्ता हैं प्रजापति काश्यप। निघंटु के पांच अध्याय हैं। प्रथम तीन अध्यायों को "नैघण्टुक कांड" कहते हैं। इसमे एकार्थवाचक शब्द संग्रह है। चौथे अध्याय को "नैगम कांड" कहते हैं। इसमें अग्नि से लेकर देवपत्नी तक वैदिक देवताओं के नाम दिये हैं। यास्क का निरुक्त, इस निघंटु पर ही आधारित है। जिस “निघण्टु" पर यास्क की टीका है, उसमें 5 अध्याय हैं। प्रथम 3 अध्याय, (नघण्टुक काण्ड) शब्दों की व्याख्या निरुक्त के द्वितीय व तृतीय अध्यायों में की गई है। इनकी शब्दसंख्या 1314 है, जिनमें से 230 शब्दों की ही व्याख्या की गई है। चतुर्थ अध्याय को नैगमकाण्ड व पंचम अध्याय को दैवतकाण्ड कहते हैं। नैगमकाण्ड मे 3 खंड हैं, जिनमे 62, 64 व 132 पद हैं। ये, किसी के पर्याय न होकर स्वतंत्र हैं। नैगमकाण्ड के शब्दों का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। दैवतकाण्ड के 6 खंडों की पदसंख्या 3, 13, 36, 32, 36 व 31 है जिनमें विभिन्न वैदिक देवताओं के नाम हैं। इन शब्दों की व्याख्या, "निरुक्त" के 7 वें से 12 वें अध्याय तक हुई हैं। डॉ. लक्ष्मणसरूप के अनुसार, 'निघण्टु" एक ही व्यक्ति की कृति नहीं है पर विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे ने इनके कथन का सप्रमाण खंडन किया है। कतिपय विद्वान् निरुक्त व निघण्टु दोनों का ही रचयिता यास्क को ही स्वीकार करते हैं। स्वामी दयानंद व पं भगवद्दत्त के अनुसार जितने निरुक्तकार हैं वे सभी निघण्टु के रचयिता हैं। आधुनिक विद्वान् सर्वश्री रॉय, कर्मकर, लक्ष्मणसरूप तथा प्राचीन टीकाकार स्कंद, दुर्ग व महेश्वर ने निघण्टु के प्रणेता अज्ञातनामा लेखक को माना है। दुर्ग के अनुसार निघण्टु श्रुतर्षियों द्वारा किया गया संग्रह है। अभी तक निश्चित रूप से यह मत प्रकट नहीं किया जा सका है कि निघण्टु का प्रणेता कौन है। निघण्टु पर केवल एक ही टीका उपलब्ध है जिसका नाम है "निघंटुनिर्वचन"। देवराज यज्वा नामक एक दाक्षिणात्य पंडित इस टीका के लेखक हैं। उन्होंने नैघंटुक कांड का ही निर्वचन विस्तारपूर्वक किया है। तुलनात्मक दृष्टि से अन्य कांडों का निर्वचन अत्यल्प है। इस टीका का उपोद्घात, वेदभाष्यकारों का इतिहास जानने के लिये अत्यंत उपयुक्त सिद्ध हुआ। देवराज यज्वा के काल के बारे में मतभेद है। कोई उन्हें सायण के पहले का मानते हैं तो कोई बाद का। किंतु श्री. बलदेव उपाध्याय के मतानुसार उन्हें सायण के पहले का माना ही उचित होगा। भास्करराय नामक एक प्रसिद्ध तांत्रिक ने एक छोटा सा ग्रंथ लिखकर निघंटु के सभी शब्दों को अमरकोश की पद्धति पर श्लोक बद्ध किया है। नित्यकर्मपद्धति - (अपरनाम श्रीधरपद्धति)। ले. श्रीधर । प्रभाकर नायक के पुत्र । यह ग्रंथ कात्यायनसूत्र पर आधारित है। नित्यकर्मप्रकाशिका - ले. कुलनिधि। नित्यकर्मलता - ले. धीरेन्द्र पंचीभूषण। पिता-धर्मेश्वर। नित्यातन्त्रम् - नित्या (तन्त्रसार में उक्त) काली का एक भेद है। इस ग्रंथ में उनकी तांत्रिक पूजा वर्णित है । श्लोक - 14651 नित्यदानादिपद्धति - ले.- शामजित् त्रिपाठी। नित्यदीपविधि - रुद्रयामल से संकलित। श्लोक - 460। 162 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नित्यदीपविधिक्रम - ले. - हरिहराचार्य। श्लोक - 150। पांच परिच्छेद । नित्यनैमित्तिक-तान्त्रिकहोम - ले. - चतुर्भुजाचार्य नागर। निपाताव्ययोपसर्गवृत्ति - ले. क्षीरस्वामी। ई. 11 वीं शती हरिहराचार्याभिषिक्त। से पूर्व। पिता- ईश्वरस्वामी। इस ग्रंथ पर "तिलक' नाम की नित्यापारायणम् - ले. बुद्धिराज। टीका है। यह वृत्ति अप्पल सोमेश्वर शर्मा द्वारा संपादित हुई। नित्यप्रयोगरत्नाकर - ले, प्रेमनिधि पन्त। श्लोक - 400। सन 1951 में तिरुपति के वेंकटेश्वरप्राच्य ग्रंथावली से इसका नित्यस्नानपद्धति - ले. कान्हदेव । प्रकाशन हुआ। नित्याचारपद्धति - (1) ले. विद्याकर वाजपेयी। पिता - निपाताव्ययोपसर्गवृत्ति - ले. 12 वीं शती। पिता- ईश्वरस्वामी। शुभंकर। यह ग्रंथ वाजसनेयी शाखा के लिये लिखा है। निपुणिका - (हास्यप्रधान नाटिका) ले. एल. एस. व्ही. समय - 14-15 वीं शती। शास्त्री। मद्रासनिवासी। (2) ले. गोपालचन्द्र। निबन्धचूडामणि - ले. यशोधर । अध्याय- 162। विषय नित्याचारप्रदीप - ले. नरसिंह वाजपेयी। कौत्यवंशीय मुरारी शांतिकर्म। के पुत्र। धराधर के पौत्र एवं विघ्नेश्वर के शिष्य। यह कुल निबन्धनवनीतम् - ल. रामजित्। सामान्यतिथिनिर्णय, उत्कल से काशी में आकर रहा था। व्रतविशेषनिर्णय, उपाकर्मकाल, एवं श्राद्धकाल नामक चार नित्यादर्श - (या कालादर्श) ले. आदित्यभट्ट । आस्वादों में विभक्त। इसमें अनन्तभट्ट, हेमाद्रि, माधव एवं नित्यानुष्ठानपद्धति - ले. बलभद्र। निर्णयामृत प्रामाणिक रूप में उल्लिखित हैं। नित्यार्चनविधि - ले. श्रीकृष्णभट्ट। श्लोक - 223| निबन्धसर्वस्वम् - ले. महादेव । पिता- श्रीपति । विषय-प्रायश्चित्त । मंत्ररत्नाकरान्तर्गत। निबन्धसार - ले. वंचिय। पिता- श्रीनाथ। आचार, व्यवहार नित्याषोडशिकार्णव - विषय - शक्ति के नित्या, महात्रिपुरसुन्दरी, एवं प्रायश्चित्त का तीन अध्यायों में एक विशाल ग्रंथ । लेखन कामेश्वरी, भगमालिनी, नित्याक्लिन्ना, भेरुण्डा इ. 16 स्वरूपों तिथि सं. 1632। का प्रतिपादन । उनके पूजनार्चन तथा बीजमन्त्र का प्रतिपादन । निबन्ध-प्रकाश-टीका - ले. विठ्ठलनाथ। आचार्य वल्लभ के (2) वामकेश्वरतन्त्रानतर्गत । श्लोक-3100। इस पर भास्करराय यशस्वी पुत्र एवं वल्लभ-संप्रदाय का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार कृत सेतुबन्ध नामक टीका है। करने वाले गोसाईं। ___ (3) अमृतानंदनाथकृत योगिनीहृदय टीकासहित। श्लोक - निबन्धमहातन्त्रम् - यह ग्रंथ दो भागों में रचा गया है। 10001 पहले भाग में 87 पटल हैं। यह भाग दो कल्पों में विभक्त नित्याह्निकतिलक - ले. मुंजक। पिता - श्रीकण्ठ। है। प्रारंभ से 82 पटल तक सारस्वतकल्प तथा 83 से 87 रचनाकाल-सन 1197। विषय - कुब्जिका देवी की पूजा। पटल तक श्यामाकल्प है। दूसरे भाग में 33 पटल हैं। यह नित्योत्सवतन्त्रम् - ले. उमानन्दनाथ। श्लोक- 8401 द्वितीय भाग 5 कल्पों में विभक्त है। प्रथम से 9 पटल तक नित्योत्सवनिबन्ध - ले. उमानन्दनाथ । गुरु- भास्करराय। यह महेशकल्प, 10 से 18 पटल तक गणेशकल्प, 19 से 25 ग्रंथ परशुरामकल्पसूत्र, वैशम्पायनसंहिता, सारसंग्रह, भैरवतन्त्र तक वैष्णव कल्प, 26 वें पटल में सौरकल्प एवं 27 से 33 आदि से संगृहीत है। वें पटल तक शाक्तकल्प वर्णित है। (2) ले. जगन्नाथ। निबन्धसिद्धान्तबोध - ले. गंगाराम । निदानसूत्रम् - सामवेद का एक सूत्र। इसके प्रपाठकों में निबन्धशिरोमणि - ले. नृसिंह। सामगान में आने वाले छंदों के विषय में विचार किया गया निंबार्कविक्रांति - ले. औदुंबराचार्य । आचार्य निंबार्क के शिष्य । है। सायणाचार्य के मतानुसार इस सूत्र की रचना पतंजलि ने निंबार्कसहस्रनाम - ले. गौरमुखाचार्य। निंबार्क के शिष्य । की होगी। पतंजलि के नाम पर सामवेद की एक शाखा भी नियमसारटीका - ले. पद्मप्रभ मलधारिदेव। जैनाचार्य। ई. है। संभवतः यह सूत्र उसी शाखा का होगा। निदानसूत्र के 12 वीं शती। समान ही "उपनिदानसूत्र" नामक एक अन्य सूत्र भी उपलब्ध है। निरनुनासिकचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । निधिदर्शनम् - ले. भालव वाजपेयी श्रीराम । नैमिश्र - निवासी । निरालंब-उपनिषद् - यजुर्वेद से संबंधित एक गद्यबद्ध नव्य इसमें गुप्त निधियों तथा अन्य आकांक्षित विषयों की प्राप्ति उपनिषद्। यहां निरालंब शब्द का अर्थ है ब्रह्म । इसमें प्रथमतः के लिए कई ऐन्द्रजालिक विधियां वर्णित हैं। जीव, ईश्वर व प्रकृति के विषय में प्रश्न उपस्थित करते हुए, निधिप्रदीप - ले. श्रीकण्ठाचार्य पण्डित। श्लोक - 474।। उन सभी का उत्तर निरालंब ब्रह्म ही दिया गया है। इस ब्रह्म संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/163 For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से ही विश्व की उत्पत्ति होती है। प्रकृति है परमात्मा की शक्ति। ईश्वर एक है और अनेक. शरीरों के आश्रय के कारण वह बहुरूप दिखाई देता है। ब्रह्मानंद के उपरान्त प्राप्त होने वाली आनंद की स्थिति वास्तव सुख है। उसी प्रकार विषयों की इच्छा ही दुख है। विषय-सुख में डूबे हुए लोगों की संगति है नरकवास। अनादि अविद्या के कारण निर्माण होने वाली - “मेरा जन्म हुआ” यह भावना बंध है और नित्यानित्यवस्तुविवेक और मोहपाशों का छेदन है मोक्ष । चिदात्मक ब्रह्म की ओर ले जाने वाला ही सच्चा गुरु है और जिसे बाह्य विश्व का आकर्षण न रहा हो वही है सच्चा शिष्य । प्राणिमात्र के हृदय में निवास करने वाले शुद्ध ज्ञान का प्रतीक है ज्ञानी। कर्तृत्त्व के अभिमान से पीडित व्यक्ति ही मूढ है। व्रत-उपवासों से शरीर को कष्ट देने वाला किंतु प्रदीप्त विषयवासनावाला असुर । कामनाओं के बीजों को जला डालना ही तप है और सच्चिदानंद ब्रह्म ही परमपद है। निरुक्तम् - प्रणेता-महर्षि यास्क । आधुनिक विद्वानों के अनुसार इनका समय ई. पू. 8 वीं शताब्दी है। "निरुक्त" के टीकाकार दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में 14 निरुक्तों का संकेत किया है (दुर्गावृत्ति, 1-13)। यास्क कृत निरुक्त में भी 12 निरुक्तकारों के नाम हैं। वे हैं- आग्रायण, औपमन्यव, औदुंबरायण, शाकपूणि, व स्थौलाष्ठीवि इ.। इनमें से शाकपूणि का मत "बृहदेवता" में भी उद्धृत है। यास्क कृत निरुक्त (जो निघंटु की टीका है) में 12 अध्याय हैं और अंतिम 2 अध्याय परिशिष्टरूप हैं। महाभारत के शांतिपर्व में यास्क का नाम निरुक्तकार के रूप में आया है (अध्याय 342-72-73)। इस दृष्टि से इनका समय और भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है। निरुक्त के चौदह अध्याय हैं परन्तु तेरहवां व चौदहवां अध्याय स्वरचित न होकर अन्य किसी का है। अतः इन दो अध्यायों को परिशिष्ट कहा जाता है। निरुक्त तीन कांडों में विभक्त है। पहले कांड को नैघंटुक, दूसरे को नैगम और तीसरें को दैवत कहते हैं। इस तरह निरुक्त के तीन प्रकार होते हैं। निरुक्त में प्रतिपादित विषय हैं- नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात के लक्षण, भावविकार-लक्षण, पदविभाग-परिज्ञान, देवतापरिज्ञान, अर्थप्रशंसा, वेदवेदांगव्यूहलोप उपधाविकार, वर्णलोप, वर्णविपर्यय का विवेचन, संप्रसार्य व असंप्रसार्य धातु, निर्वचनोपदेश, शिष्य-लक्षण, मंत्र-लक्षण आशीर्वाद, शपथ, अभिशाप, अभिख्या, परिदेवना, निंदा, प्रशंसा आदि द्वारा मंत्राभिव्यक्ति हेतु उपदेश, देवताओं का वर्गीकरण इत्यादि । निरुक्तकार ने शब्दों की व्युत्पत्ति प्रदर्शित करते हुए धातु के साथ विभिन्न प्रत्ययों का भी निर्देश किया है। यास्क समस्त नाम ने "धातुज' मानते हैं। इसमें आधुनिक भाषा-शास्त्र के अनेक सिद्धांतों का पूर्वरूप प्राप्त होता है। निरुक्त में वैदिक शब्दों की व्याख्या के अतिरिक्त व्याकरण, भाषाविज्ञान, साहित्य, समाज-शास्त्र, इतिहास आदि विषयों का भी प्रसंगवश विवेचन मिलता है। यास्क ने वैदिक देवताओं के 3 विभाग किये हैं- पृथ्वीस्थानीय (अग्नि) अंतरिक्षस्थानीय (वायु व इंद्र) और स्वर्गस्थानीय (सूर्य)। यास्काचार्य के प्रभाव के कारण सभी परवर्ती निरुक्तकार उनसे पिछड गए। आगे के वेदभाष्यकारों को केवल यास्क ने ही प्रभावित किया। सायणाचार्य ने यास्काचार्य के अनुकरण पर ही अपने वेदभाष्यों की रचना की है। निरुक्त की गुर्जर व महाराष्ट्र-प्रतियां सांप्रत उपलब्ध हैं। निरुक्त का समय-समय पर विस्तार किया गया है और वह भी अनेक व्यक्तियों द्वारा। अतः मूल निरुक्त की व्याप्ति निर्धारित करना कठिन हो गया है। निरुक्त के विस्तार की दृष्टि से दुर्गाचार्य की प्रति, गुर्जर-प्रति और महाराष्ट्र-प्रति ऐसा अनुक्रम लगाना पडता है। निरुक्त के सभी टीकाकारों में श्री. दुर्गाचार्य का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने अपने ग्रंथ में पूर्ववर्ती टीकाकारों का उल्लेख तथा उनके मतों की समीक्षा भी की है। सबसे प्राचीन टीकाकार हैं स्कंदस्वामी। उन्होंने सरल शब्दों में निरुक्त के 12 अध्यायों की टीका लिखी थी। डॉ. लक्ष्मणसरूप के अनुसार उनका समय 500 ई. है। देवराज यज्वा ने "निघण्टु" की भी टीका लिखी है। उनका समय 1300 ई. है। महेश्वर की टीका खंडशः प्राप्त होती जिसे डॉ. लक्ष्मणसरूप ने 3 खंडों में प्रकाशित किया है। महेश्वर का समय 1500 ई. है। आधुनिक युग में "निरुक्त" के अंग्रजी व हिन्दी में कई अनुवाद प्राप्त होते है। निरुक्तोपनिषद् - एक अत्यंत छोटा नव्य उपनिषद् । गर्भावस्था में शरीर के विविध अवयव किस प्रकार निर्माण होते हैं और अर्भक की वृद्धि किस क्रम से होती है, यह (गर्भोपनिषद् के समान) इस उपनिषद का प्रतिपाद्य विषय है। निरूढ-पशुबंध-प्रयोग - ले. गागाभट्ट। ई. 17 वीं शती। पिता- दिनकरभट्ट। निरुत्तरतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक-20001 पटल151 विषय-दक्षिण-कालिका का माहात्म्य, पूजाविधि, मन्त्र, कवच, पुरश्चरणविधि और रजनीदेवी की पूजाविधि आदि । निरुत्तरभट्टाकर - देवी-भैरव संवादरूप। मुख्यतः योगसंबंधी ग्रंथ। निरौपम्यस्तव - ले. नागार्जुन। एक बौद्ध स्तोत्र। यह सुरस स्तोत्र शून्यवादी कवि की आस्तिकता का उत्कृष्ट निदर्शन है। निर्णयकौस्तुभ- ले. विश्वेश्वर । निर्णयचंद्रिका - 1. ले. शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती। पितानारायणभट्ट । विषय - धर्मशास्त्र। निर्णयचिन्तामणि - ले. विष्णुशर्मा महायाज्ञिक। विषयधर्मशास्त्र। निर्णयतत्त्वम् - ले. नागदैवज्ञ । पिता-शिव । ई. 14 वीं शती। आधुनिक भाषा का पूर्वरूप प्रा * शब्दों की 164 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपनयन, ला था। यह ग्रंशय के पूर्व इन्होंने निर्णयदर्पण - (1) ले. गणेशाचार्य। विषय - धर्मशास्त्र। (2) ले. शिवानन्द । तारापति ठक्कुर के पुत्र । विषय- श्राद्ध एवं अन्य कृत्य। निर्णयदीपक - ले. अचल द्विवेदी। पिता- वत्सराज। गुरु - भट्टविनायक। ये वृद्धपुर के नागर ब्राह्मणों की मोड शाखा के थे। इनका बीरुद था भागवतेय। इस ग्रंथ के पूर्व इन्होंने ऋग्वेदोक्त-महारुद्राविधान लिखा था। यह ग्रंथ श्राद्ध, आशौच, ग्रहण, तिथिनिर्णय, उपनयन, विवाह, प्रतिष्ठा का विवेचन करता है। इसकी समाप्ति सं. 1575 की ज्येष्ठ कृष्णद्वादशी (1518 ई.) को हुई। विश्वरूपनिबन्ध, दीपिका-विवरण, निर्णयामृत, कालादर्श, पुराणसमुच्चय, आचारतिलक के उद्धरण इसमें दिए हैं। निर्णयदीपिका - ले. वत्सराज । निर्णयबिन्दु - ले. वक्कण। निर्णयसंग्रह - (1) ले. मधुसूदन। (2) ले. प्रतापरुद्र निर्णयरत्नाकर - ले. गोपीनाथभट्ट निर्णयबृहस्पति - ले. बृहस्पति मिश्र "रायकूट", ई. 15 वीं । • शती। यह “शिशुपालवध" की व्याख्या है। निर्णयभास्कर - ले. नीलकण्ठ। निर्णयमंजरी - ले. गंगाधर । निर्णयसार- 1) ले. नन्दराम मिश्र। दीपचन्द्र मिश्र के पुत्र । तिथि, शाद्ध आदि विषय - छः परिच्छेदों मे वर्णित। वि. सं. 1836 (1780 ई.) में प्रणीत। 2) ले. भट्टराघव। ई. 17 वीं शती। 3) ले. क्षेमंकर। 4) ले. रामभट्टाचार्य। 5) ले. लालमणि। निर्णयसिद्धान्त - ले. महादेव। विषय - कालनिर्णय। (2) ले. रघुराम। विषय- कालनिर्णय । निर्णयसिन्धु - ले. कमलाकरभट्ट। पिता- शंकरभट्ट। रचना काल- 1612 ई.। इस ग्रन्थ में 100 स्मृतियों तथा 300 से अधिक निबन्धकारों के नाम सहित उनके उध्दरण भी दिये गये हैं। ग्रन्थ के कुल तीन परिच्छेद हैं। इनमें धार्मिक-कृत्यों के विषय में कालनिर्णय', चान्द्र-सौर वर्ष, अधिक व क्षय मास, व्रत, पर्व, शुद्धा व विध्दा तिथियां, श्राद्ध, उत्तरक्रिया, सहगमन, संन्यास, मूर्तिप्रतिष्ठा आदि विविध कार्यों के लिये शुभ मुहूर्तो का विवरण है। यह ग्रन्थ न्यायालयों में भी प्रमाण माना जाता है। इस ग्रंथ पर कृष्णभट्ट आर्डे की 'दीपिका', नामक टीका है। निर्णयामृतम् - ले. अल्लाड (नाथसूरि)। सिद्धलक्ष्मण के पुत्र। युमना पर एकचक्रपुर के राजकुमार सूर्यसेन की आज्ञा से विरचित। इसमें एकचक्रपुर के बाहूबाणों (चाहुवाणों) के राजाओं की तालिका दी हुई है। आरम्भ में मिताक्षरा, अपरार्क, अर्णव, स्मृतिचंद्रिका, धवल, पुराणसमुच्चय, अनन्तभट्टीय गृह्यपरिशिष्ट, रामकौतुक, संवत्सरप्रदीप, देवदासीय, रूपनारायणीय, विद्याभट्टपद्धति, विश्वरूपनिबन्ध पर ग्रंथ की निर्भरता की घोषणा की गई है। यह ग्रंथ निर्णयदीपिका, श्राद्धक्रियाकौमुदी में उल्लेखित है, अतः तिथि 1500 ई. को पूर्व किन्तु 1250 के पश्चात् की है। व्रत, तिथिनिर्णय, श्राद्ध, द्रव्यशुद्धि एवं आशौच पर चार प्रकरण हैं। वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित । (2) ले. रामचंद्र। (3) ले. गोपीनारायण। पिता-लक्ष्मण। निर्णयार्णव - ले. बालकृष्ण दीक्षित । निर्णयोद्धार - (तीर्थनिर्णयोद्धार) ले. राघवभट्ट। ई. 17 वीं शती। विषय- धर्मशास्त्र। निर्णयोद्धार-खण्डनमण्डनम् - ले. यज्ञेश। विषय - राधवभट्ट कृत निर्णयोद्धार के विषय में उठाये गये सन्देहों का निवारण। निर्दुःखसप्तमीकथा - ले. श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। निर्वाणगुह्यकालीसहस्रनाम - बालागुह्यकालिका-तंत्ररहस्य प्रकरणान्तर्गत। निर्वाणतन्त्रम् - चण्डी-शंकर संवाददरूप। श्लोक - 524 । पटल - 18| विषय - जगत् की उत्पत्ति का और संक्षेप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड का वर्णन, ब्रह्मा, विष्णु आदि की उत्पत्ति, क्रम से सावित्री और लक्ष्मी के साथ उनका विवाह । भुवनसुन्दरी के साथ सदाशिव का विवाह । अनादि पुरुष के अंश रूप . जीव का चौरासी लाख जन्मों के उपरान्त मानव-जन्म लाभ । गायत्री के जप का माहात्म्य, गायत्रीपुरश्चरणविधि। संन्यासी आदि के लक्षण। गोलोक वर्णन। राधास्वरूप का वर्णन । साकार द्विभुज महाविष्णुविधि। मन्त्रप्रकरण, अष्टादश उपचारों का निर्देश, समयाचारवर्णन आदि । निर्वाणोपनिषद् - ऋग्वेद से संबध्द नव्य उपनिषद् । वर्ण्य विषय है अवधूत संन्यासी। इस उपनिषद् में “निर्वाण' शब्द का अर्थ वासुदेव बताया है और अवधूत संन्यासी को उनकी पूजा करनी चाहिये ऐसा कहा गया है। कर्मनिर्मूलन है उस अवधूत की कथा, (गुदडी) काठिण्य है उसकी कौपीन, ब्रह्म है उसका विवेक और ज्ञान ही उसका रक्षण है। अवधूत को चाहिये कि वह काशी में वास करे, एकांतवास में रहे और-भिक्षा का सेवन करे तथा सत्य ज्ञान से भाव व अभाव इन दोनों को जला डाले। ऐसा करने से वह निरालंब-पद पर विराजमान होता है। निवेदित-निवेदतम् - लेखिका- डॉ. रमा चौधुरी। विषयभगिनी निवेदिता का 12 दृश्यों में नाट्यात्मक चरित्र । निशाचरपूजा - श्लोक - 501 विषय - देवी की रात्रिपूजापद्धति । निःश्वासतत्त्वसंहिता - मतंग- ऋचीक संवादरूप। इसका प्रथम भाग श्रौतसूत्र और द्वितीय भाग गृह्यसूत्र कहलाता है। आरंभ में 4 लौकिक पटल हैं। मूल सूत्र में 8 पटल, उत्तर सूत्र में 5 पटल, नयसूत्र में 4 पटल, गृह्यसूत्र में 18 पटल है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/165 For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोक- 4500। उत्तरार्ध गृह्यसूत्र में उक्त 18 पटलों के अन्तर्गत सद्योजातकल्प, अधोरकल्प तथा सत्पुरुषकल्प भी प्रतिपादित हैं। निष्कलक्रमचर्या - ले- श्रीकण्ठानन्द मुनि। पितामह- शिवानंद। पिता- चिदानन्द । श्लोक- 2001 विषय- शैवमतानुसार पूजाविधि। निःश्वाससंहिता - शिवप्रणीत एक शास्त्र । परंपरा के अनुसार ब्राभ्रव्य व शांडिल्य नामक शिवभक्तों के निवेदन पर शिवजी ने इस संहिता की निर्मिति की। यह वेदक्रियायुक्त है। पाशुपत-योग व पाशुपत-दीक्षा इसके विषय हैं। वराह-पुराण में कहा गया है कि प्रस्तुत संहिता के पूर्ण होने पर बाभ्रव्य व शांडिल्य ने उसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। निष्किंचन-यशोधरम् - ले- यतीन्द्रविमल चौधुरी। रवीन्द्रभारती और प्राच्यवाणी मन्दिर द्वारा कलकत्ता में अभिनीत । अंकसंख्यासात। कथासार- दण्डपाणि की पुत्री यशोधरा गोपा को सिद्धार्थ स्वयंवर में जीतते हैं। विवाह के तेरह वर्ष पश्चात् उन्हें पुत्रप्राप्ति होती है, उसी समय वे आत्मिक शान्ति की खोज में गृहत्याग करते हैं। यशोधरा छन्दक से वृत्तान्त सुन स्वयं भी तप में लीन होती है। सात वर्ष पश्चात् गौतम बुद्ध बने सिद्धार्थ के आगमन पर यशोधरा राहुल से दायाधिकार रूप में संन्यास की याचना करवाती है। उसके मुण्डन के पश्चात् युद्धोदन यशोधरा को राज्य सौंपना चाहते हैं परंतु संन्यासी की पत्नी का राज्ञीपद के उचित नहीं, यह कहकर वह अस्वीकार करती है। गौतम से भिक्षुणी-संघ बनाने का अनुरोध कर यशोधरा भी भिक्षुणी बनती है और 78 वर्ष की आयु में देहलीला समाप्त करने की अनुमति पाकर कहती है कि मैं स्वामी में ही विलीन हूं। नीतिकमलाकर - ले. कमलाकर। नीतिकल्पतरु - ले- क्षेमेन्द्र । काश्मीरी कवि । ई. 11 वीं शती। नीतिकुसुमावलि - ले- अप्पा वाजपेयी। नीतिगर्भितशास्त्रम् - ले- लक्ष्मीपति । नीतिचिन्तामणि - ले- वाचस्पति मिश्र। ई. 9 वीं शती। नीतिप्रकाश - ले- कुलमुनि । नीतिप्रकाश (नीतिप्रकाशिका) - ले- वैशम्पायन। मद्रास में डा. ओपर्ट द्वारा सन् 1882 में सम्पादित। विषयराजधर्मोपदेश, धनुर्वेदविवेक, खड्गोत्पत्ति, मुक्तायुधनिरूपण, सेनानयन, सैन्यप्रयोग एवं राजव्यापार। तक्षशिला में वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को दिया गया शिक्षण। आठ अध्यायों में राजशास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख है। कौडिन्यगोत्र के नंजुण्ड के पुत्र सीताराम द्वारा इस पर तत्त्वविवृत्ति नामक टीका लिखी गई है। नीतिमंजरी (वेदमंजरी) - ले- विद्या द्विवेद। गुजरात प्रदेश के आनंदपुरनिवासी। शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण। आपने इस ग्रंथ की रचना सन् 1494 में की। इस ग्रंथ के अनुष्टुप छंद में बद्ध 166 श्लोकों को आठ अष्टकों में विभाजित किया गया है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि प्रत्येक श्लोक के पूर्वार्ध में नीतिवचन ग्रथित करते हुए उत्तरार्ध में उस वचन की पुष्टि हेतु ऋग्वेद की कथा का आधार दिया गया है। चतुर्विध पुरुषाथों के संदर्भ में नैतिक संदेश को स्पष्ट करने वाला यह ग्रंथ नीतिपरक संस्कृत साहित्य में सम्मानित है। धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष विषयक क्रमशः 44, 68, 53 और 5 श्लोक हैं। इस ग्रंथ पर स्वयं श्री. द्या द्विवेद ने ही संस्कृत गद्य में 'युवदीपिका' नामक टीका लिखी है। इस टीका में पहले प्रत्येक श्लोक का अन्वयार्थ, फिर श्लोक में समाविष्ट ऋग्वेदीय कथा से संबद्ध मंत्र और अंत में ब्राह्मण-ग्रंथ से तत्संबंधी अंश उद्धृत किये गये हैं। द्या द्विवेद ने सामान्यतः अपनी इस टीका में यास्क-सायणादि पूर्वाचायों का अनुसरण किया है। फिर भी अनेक स्थानों पर उन्होंने पूर्वाचार्यों से अपना मतभेद भी अंकित किया है। दूसरी टीका के लेखक हैं देवराज। इस ग्रंथ से वैदिक साहित्य की विविध कथाओं का परिचय प्राप्त होने के साथ ही उन कथाओं का नैतिक मूल्य भी परिलक्षित होता है। नीतिमयूख - ले- नीलकंठ (ई. 17 वीं शती) भारतीय राज्यशास्त्र संबंधी यह एक बहुमूल्य ग्रंथ है। देश, काल व परिस्थिति के अनुरूप राजधर्म का स्वरूप इस ग्रंथ में वर्णित है। राजधर्माविषयक जटिल कर्मकांड की ओर ध्यान न देते हुए नीलकंठ ने अपने इस ग्रंथ में केवल राज्याभिषेक के कृत्यों का ही विस्तृत वर्णन किया है। तदर्थ श्री. नीलकंठ ने विष्णुधर्मोत्तरपुराण तथा देवीपुराण से जानकारी प्राप्त की है। नीलकंठ ने राजनीति को धर्मशास्त्र के अंतर्गत माना है। गुजराती प्रेस, मुंबई, द्वारा प्रकाशित । नीतिमाला - ले- नारायण। नीतिरत्नाकर (या राजनीतिरत्नाकर) - 1) ले- चण्डेश्वर । डा. जायस्वाल द्वारा प्रकाशित। 2) ले- बृहत्पण्डित कृष्ण महापात्र ई. 15 वीं शती। नीतिरहस्यम् - ले- वेंकटराम नरसिंहाचार्य। नीतिलता - ले- क्षेमेन्द्र। लेखक के औचित्यविचारचर्चा में उल्लिखित। ई. 11 वीं शती। नीतिवाक्यरत्नावली - ले- शिवदत्त त्रिपाठी। नीतिवाक्यामृतम् - ले- सोमदेव। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। महेन्द्रदेव के छोटे भाई एवं नेमिदेव के शिष्य। मुम्बई में मानिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला द्वारा टीका के साथ प्रकाशित । धर्म, अर्थ, काम, अरिषड्वर्ग, विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता, दण्डनीति, मंत्री, पुरोहित, सेनापति, दूत, चार, विचार, व्यसन, सप्तांग राज्य, (स्वामी आदि), राजरक्षा, दिवसानुष्ठान, सदाचार, व्यवहार, विवाद, षाड्गुण्य युद्ध, विवाह, प्रकीर्ण नामक 32 प्रकरणों में विभाजित है। इसकी टीका में 166/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृतियों एवं राजनीतिशास्त्र के उद्धरण दिये हुए हैं। त्यौहार व विधि, अन्य पुराणों के अनुसार तथा भारतवर्ष के अन्य भागों में प्रचलित त्यौहारों व विधियों जैसे ही हैं। किन्तु नीतिविलास - ले- व्रजराज शुक्ल । नवहिमोत्सव तथा बुद्धजन्म ये दो त्यौहार सर्वथा भिन्न हैं। नीतिविवेक - ले- करुणाशंकर । इस ग्रंथ का आरंभ वैशंपायन और जनमेजय के संवाद रूप नीतिशतकम् - (1) ले- भर्तृहरि। (2) ले- पं. तेजोभानु। में हुआ है। इसमें वैशंपायन जनमेजय को राजा गोनंद तथा ई. 20 वीं शती। उनके पांडवकालीन वंशजों की कथा सुनाते हैं। पश्चात् ग्रंथकार नीतिसारसंग्रह - ले- मधुसूदन । ने काश्मीर के माहात्म्य का वर्णन किया है, काश्मीर की भूमि नीलकंठविजयचंपू - ले- नीलकंठ दीक्षित । सुप्रसिद्ध विद्वान् की निर्माणविषयक आख्यायिका कथन की है और उस प्रदेश अप्पय दीक्षित के भ्राता। इस चंपू-काव्य का रचनाकाल 1636 के पिशाचों एवं कडी ठंड से होने वाले कष्टों से मुक्ति हेतु ई. है। कवि ने स्वयं अपने काव्य की निर्माण-तिथि कल्यब्द विविध व्रत तथा विधि-विधान बताए हैं। 4738 दी है। इस में देवासुर-संग्राम की प्रसिद्ध पौराणिक । नीलरुद्रोपनिषद् - शैव पंथी एक नव्य उपनिषद्। यह तीन कथा 5 आश्वासों में वर्णित है। प्रारंभ में महेन्द्रपुरी का खंडों में विभजित है। नीलरुद्र है इस उपनिषद् के देवता विलास-मय चित्र है जिसके माध्यम से नायिका-भेद का वर्णन और परमगुरु । इसमें बताया गया है कि नीलरुद्र ने 'अस्पर्शयोग प्रस्तुत हुआ है। प्रकृति का मनोरम चित्र, क्षीरसागर का सुंदर संप्रदाय' का प्रवर्तन किया। इस उपनिषद् के द्रष्टा को नीलरुद्र चित्र, शिव व शैवमत के प्रति श्रद्धा एवं तात्त्विक ज्ञान की स्वर्ग से पृथ्वी पर आते हुए दिखाई दिये। किन्तु प्रस्तुत अभिव्यक्ति, इस ग्रंथ की अपनी विशेषताएं हैं। इसमें श्लोकों उपनिषद् के प्रथम व द्वितीय खंड में उन्हीं का वर्णन है। की संख्या 279 है। इस पर टीका घनश्याम ने ई. 18 वीं यह वर्णन, ऋग्वेद के रुद्रसूक्तों का अनुसरण है। ग्रंथ के शती में लिखी है। तृतीय खंड में महिषरूप केदार का स्तोत्र है। महिषरूप केदार नीलकण्ठी टीका - टीकाकार नीलकण्ठ चतुर्धर । महाराष्ट्र के है उस स्वरूप में रुद्र। उनके कुछ अवयव हल्के पीले हैं, नगर जिले में कोपरगाव के निवासी। यह महाभारत पर कुछ काले हैं और कुछ हैं हल्के सफेद । “नीलशिखंडाय विद्वन्मान्य टीका है। ई. 17 वीं शती। नमः" उनका मंत्र है। नीलकण्ठीय-विषयमाला - ले- कामाक्षी। नीलवृषोत्सर्ग - ले-अनन्तभट्ट । विषय-धर्मशास्त्र से संबंधित । नीलतन्त्रम् - 1) देवी-ईश्वर संवादरूप। श्लोक- 595। पटल नीलापरिणयम् (नाटक) - ले-वेङ्कटेश्वर। (नैधृव वेंकटेश) 17। विषय- नीलतंत्र माहात्म्य। इस तंत्र के अनुयायियों के ई. 18 वीं शती। इसकी कथावस्तु उत्पाद्य हैं। प्रधान रस शय्यात्याग के अनन्तर कर्तव्य, देवी-स्मरण आदि, तांत्रिक स्नान, शृंगार। स्त्रिया भी पुरुषों की भूमिका में दिखाई हैं। कथासारमंत्र-जप, आदि की विधि, पूजास्थान का निर्णय, नीलदेवी की राजगोपाल नाम लेकर श्रीकृष्ण द्वारका में रहते हैं। एक दिन पूजाविधि, तंत्रयंत्र लेखन, भूतशुद्धि, यंत्र-शक्ति देवता के महर्षि गोप्रलय को गरुड एक दिव्य मणि तथा दर्पण देते हैं ध्यानादि, मत्स्य, मांस आदि नैवेद्यदान आदि। (2) भैरव-पार्वती जिसे महर्षि सौराष्ट्र नरेश के उद्यान में लगाते हैं। राक्षस संवादरूप। श्लोक- 7151 पटल- 15। यह ब्रह्मनीलतंत्र से 'मायाधर वह दर्पण प्रतिनायक स्थूलाक्ष के लिए प्राप्त कर मिलता जुलता है। लेता है। राजगोपाल चोल-राजकुमारी चम्पकमंजरी पर अनुरक्त नीलमतपुराणम् - ले- नीलमुनि। इस ग्रंथ में नीलमुनि ने हैं। चम्पकमंजरी का मदन-सन्ताप देखकर वे उसके सामने काश्मीरी हिन्दुओं के लिये अनेक धर्मकृत्य, व्रत, त्यौहार तथा प्रकट होते हैं। मायाधर अदृश्य अंजन के प्रयोग से नायिका समारोह बताये हैं। इसी प्रकार काश्मीरस्थित पुण्यक्षेत्रों की ___को छुपाकर स्थूलाक्ष के पास ले जाने की योजना बनाता है। जानकारी भी इस ग्रंथ में विस्तारपूर्वक दी गई है। यह स्वतंत्र वह नायिका की सखियों को पकडता है। उनका आक्रोश सुन पुराण-ग्रंथ न होकर किसी पुराण का एक भाग होगा ऐसा राजगोपाल नायिका को छोड वहां जाते हैं। इतने में मायाधर प्रतीत होता है। कल्हण की राजतरंगिणी में इस ग्रंथ का नायिका को अदृश्य कर देता है। सखियां समझती हैं कि उल्लेख है और ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया है कि इसकी राक्षस नायिका को खा गया। यह सुनकर नायक मूर्च्छित रचना ईसा की 12 वीं शताब्दी में हुई होगी। किन्तु राजतरंगिणी होता है परंतु अदृश्य रूप में नायिका उसे आलिंगन करती के प्रथम भाग में दिया गया कालक्रम विश्वसनीय नहीं है। है जिससे वह भी सचेत होता है और नायिका के ललाट अतः कल्हण के अनुमान को ग्राह्य नहीं माना जा सकता। पर मला अंजन लगाने पर वह भी सशरीर प्रकट होती है। फिर भी प्रस्तुत ग्रंथ के अंतर्गत प्रमाणों से इतना तो निर्विवाद गरुड स्थूलाक्ष को मार डालता है और अन्त में नायक-नायिका निश्चित होता है कि इस ग्रंथ का रचना-काल 6 वीं शताब्दी का विवाह सम्पन्न होता है। के पहले का नहीं हो सकता। इस ग्रंथ में वर्णित अधिकांश नीवी - ले-शंकरराम। व्याकरणविषयक ग्रंथ। रूपावतार की संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 167 For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन व तद्विबीच संवा व्याख्या। नूतनमूर्तिप्रतिष्ठा - ले- नारायणभट्ट। आश्वलायन-गृह्यपरिशिष्ट पर आधारित। नूतनगीतावैचित्र्यविलास - ले- भगवद्गीतादास। नृगमोक्षचम्पू - ले- नारायण भट्टपाद । नृत्तरत्नावली - ले- जय सेनापति। 8 अध्याय। विषय मार्गी तथा देशी संगीत का विवेचन। भरत मत तथा सोमेश्वर मत का अनुकरण करते हुए नवीनतम आविष्कार समाविष्ट किए हैं। नृत्यनिर्णय - ले- पुडरीक विठ्ठल। ई. 16 वीं शती। इस ग्रंथ की रचना अकबर बादशाह के आश्रय में हुई। श्री पुंडरीक एक गायक व संगीतज्ञ के रूप में विशेष प्रसिद्ध थे। संगीत-पद्धति को इन्होंने सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया था। अंत में अकबर की इच्छानुसार नृत्यनिर्णय ग्रंथ लिखकर, उन्होंने नृत्य-कला संबंधी साहित्य की भी श्री-वृद्धि की। नृत्येश्वरतन्त्रम् - इसमें परशुराम, रामभद्र, सुग्रीव, भीम, हनुमान् आदि विविध युद्धवीरों का आवाहन और पूजन-विधि वर्णित हैं। 8 भैरव तथा 8 महाकाली के नामों के साथ उनका ध्यान और पूजन वर्णित है। नृपचन्द्रोदय - ले- सतीशचंद्र भट्टाचार्य । विषय- सम्राट पंचम जार्ज की प्रशस्ति। नृपविलास - पर्वणीकर सीताराम । ई. 18 से 19 वीं शती। नृसिंहउत्तरतापिनी (उपनिषद्) - अथर्ववेद से संबंद्ध इस नव्य उपनिषद् के 9 खंड हैं। इन सभी खंडों में नृसिंह को ही परब्रह्म बताया गया है। पश्चात् तीन गुण, तीन अवस्था, तीन कोश, तीन ताप, तीन चैतन्य तथा तीन ईश्वर ऐसी त्रिविधता का वर्णन है। फिर नृसिंह के सगुण-निर्गुण स्वरूप । का निदर्शन किया गया है। नृसिंहकवचम् - ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गत । नृसिंहचम्पू - 1) ले- संकर्षण। 2) ले- दैवज्ञ सूर्य। ई. 16 वीं शती। लेखक ने प्रस्तुत काव्य में अपना परिचय दिया है। प्रस्तुत चंपूकाव्य 5 उच्छ्वासों में विभक्त है। इसमें नृसिंहावतार की कथा का वर्णन है। प्रथम उच्छ्वास में हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद की प्रताडना का वर्णन है। तृतीय उच्छ्वास में हिरण्यकशिपु का वध तथा चतुर्थ उच्छ्वास में देवताओं व सिद्धों द्वारा नृसिंह की स्तुति है। पंचम उच्छ्वास में नृसिंह का प्रसन्न होना वर्णित है। इस चंपू काव्य में श्लोकों की संख्या 75 और गद्य के 19 चूर्णक हैं। इसका प्रकाशन जालंधर से हुआ है। संपादक हैं- डा. सूर्यकांत शास्त्री। नृसिंहजयन्ती-निर्णय - ले- गोपालदेशिक । नृसिंहपरिचर्या - 1) ले- कृष्णदेव। पिता-रामाचार्य। वैकुंठानुष्ठान पद्धति से गृहीत। (2) श्लोक- 126। पटल- 5। विषयनृसिंहपरिचर्या में पवित्रारोपणविधि, उसका प्रयोग तथा नृसिंह-पूजा।। नृसिंहपूजापद्धति - ले- वृन्दावन । नृसिंहपूर्वतापिनी उपनिषद्- अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। वैष्णव मत के इस उपनिषद् के आठ अध्याय हैं। इन अध्यायों को भी उपनिषद् ही कहा गया है। ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा व तद्विषयक निर्णय है इसका उद्देश्य । ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं के बीच संवाद के रूप में उसका निरूपण किया गया है। प्रारंभ में चर्चित नृसिंह-मंत्र इस प्रकार है। उग्रं वीर महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युमृत्यु नमाम्यहम्।। दूसरे उपनिषद् की कथानुसार देवगण जब मृत्यु के भय से प्रजापति के पास गए तब उन्होंने अमरत्व हेतु देवताओं को नृसिंह-मंत्र का जाप करने का परामर्श दिया। तीसरे उपनिषद् में मंत्रों के सभी तांत्रिक अंगों का निरूपण है। चौथे उपनिषद् में प्रणव, सावित्री, यजुर्लक्ष्मी व नृसिंहगायत्री नामक अंगमंत्र हैं। पांचवें उपनिषद् में इस नृसिंहचंक्र का विस्तृत वर्णन। इसमें यह भी बताया गया है कि बत्तीस पंखुडियों का कमल बनाकर उसमें नृसिंह-मंत्र किस प्रकार लिखा जाय । अंतिम तीन उपनिषदों में नृसिंहचक्र-पूजा की महिमा वर्णित है। नृसिंहप्रसाद - ले- दलपतिराज। पिता-वल्लभ। ई. 15-16 वीं शती। इस ग्रंथ के प्रत्येक भाग के प्रारंभ में नृसिंह देवता का आवाहन होने से इस ग्रंथ को नृसिंहप्रसाद (नृसिंह की कृपा का फल) यह नाम दिया गया है। इस ग्रंथ को धर्मशास्त्रविषयक एक ज्ञानकोश कहा जा सकता है। इस ग्रंथ के संस्कार, आह्निक, श्राद्ध, काल, व्यवहार, प्रायश्चित्त, कर्मविपाक, व्रत, दान, शांति, तीर्थ, और प्रतिष्ठा नामक बारह सारभाग हैं। उपनयन, विवाह, चारों ही आश्रमों के लोगों के कर्त्तव्य, दिनमान के आठ भाग, व्रत, दान के प्रकार, तीर्थस्थल आदि विषयों का प्रस्तुत ग्रंथ में समावेश है। लेखक- श्री. दलपतिराज थे शुक्ल यजुर्वेदी भारद्वाज-गोत्री। आप निजामशाही में दफ्तर-प्रमख और वैष्णव धर्म के अच्छे ज्ञाता थे।आपने सूर्यपंडित नामक गुरु के पास अध्ययन किया था। कतिपय विद्वानों के मतानुसार ये सूर्यपंडित महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत एकनाथ महाराज के पिता होंगे। श्री. दलपति को मातुल-कन्या-विवाह सम्मत है। उनके कथनानुसार यह विवाह वेदों ने भी मान्य किया है। उसी प्रकार उनका कहना है कि यदि किसी बात के बारे में श्रुति तथा स्मृति का परस्पर विरोध हो तो उस बात को वैकल्पिक माना जाना चाहिये। नृसिंहप्रिया - सन 1942 में आहोबिलमठ तिरुवाल्लूर चिंगलपेट से जे. रंगाचारियर स्वामी के संपादकत्व में संस्कृत और तमिल भाषा ने यह पत्रिका प्रकाशित हुई। यह वैष्णव धर्म प्रधान दार्शनिक पत्रिका थी। नृसिंहविलास - ले- श्रीकृष्ण ब्रह्मतंत्र परकाल स्वामी । नृसिंहशतकम् - ले- तिरुवेंकट-तातादेशिक । नेलोर (आंध्र) 168 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में मुद्रित। नृसिंहषट्चक्रोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। इसमें श्रीनृसिंह के अचक्र, सुचक्र, महाचक्र, सकललोकरक्षणचक्र, द्यूतचक्र व असुरांतचक्रनामक छह चक्रों का वर्णन है। पश्चात् इन चक्रों के अंतर्बाह्य वलयों की जानकारी देते हुए बताया गया है कि मानव शरीर में ये 6 चक्र किन स्थानों पर होते हैं। नृसिंहस्तोत्रम् - ले- प्रा. कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री। नृसिंहाराधनरत्नमाला - ले- मेङ्गनाथ। पिता- रामचंद्र। 9 पटलों में पूजाविधि वर्णित। नृसिंहार्चनपद्धति - ले- ब्रह्माण्डानन्दनाथ । नेत्रचिकित्सा - ले- डा. बालकृष्ण शिवराम मुंजे। नागपुर के निवासी। लेखक तीन खंडों में ग्रंथ लिखना चाहते थे, परन्तु उच्चस्तरीय राजनीति में अत्यधिक व्यस्त होने से एक ही खण्ड लिख पाए। आधुनिक नेत्रविज्ञान के विषय पर संस्कृत भाषा में यह एकमात्र सचित्र निबंध है। नेत्रविज्ञानविषयक नवीन पारिभाषिक शब्द स्वयं लेखक ने निर्माण किए हैं। लेखक की जन्मशताब्दी के अवसर पर बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन (नागपुर) द्वारा इसकी द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित हुई। . नेत्रज्ञानार्णव - उमा-महेश्वर संवादरूप। पटल-59 1 तांत्रिक ग्रंथ । नेत्रोद्योततंत्रम् - ले- राजानक क्षेमराज। श्लोक- 322। नेपालीय-देवता-कल्याण- पंचविंशतिका-ले-अमृतानंद । 25 स्रग्धरा छन्दों में निबद्ध । विषय- नेपाली हिंदु, बौद्ध देवताएं चैत्य, तीर्थस्थान आदि की स्तुति।। नेमिदूतम् - ले- विक्रम। पिता- संगम। मेघदूत की पंक्तियों की समस्या पूर्ति के रूप में यह काव्य रचा है। विषयराज्यैश्वर्य-त्यागी नेमिनाथ को पत्नी का पर्वत द्वारा संदेश । नैगेय शाखा (सामवेदीय) - इस शाखा का नाम चरणव्यूह में कौथुमों के अवान्तर-विभागों में मिलता है। 'नैगेय परिशिष्ट' नाम का एक ग्रंथ उपलब्ध है। उसमें दो प्रपाठक हैं। नैमित्तिकप्रयोगरत्नाकर - ले-प्रेमनिधि पन्त। नैषधपारिजातम् - ले- कृष्ण (अय्या) दीक्षित। व्यर्थी संधान-काव्य। विषय- राजा नल की और पारिजात-अपहरण की कथा का श्लेष अलंकार में वर्णन। नैषधानंदम् (नाटक) - ले- क्षेमीश्वर। कन्नौज-निवासी। ई. 10 वीं शती। इसमें 7 अंक हैं और 'महाभारत' की कथा के आधार पर नल-दमयंती की प्रणय-कथा को नाटकीय रूप प्रदान किया गया है। प्रस्तुत नाटक की भाषा सरल है परंतु साहित्यिक दृष्टि से उसका विशेष महत्त्व नहीं है। नैषधीयचरितम् (नामान्तर- नलीयचरितम्, भैमीचरितम्, वैरसेनिचरितम्) - इस महाकाव्य को संक्षेप में "नैषध" भी कहते हैं। इसके रचयिता हैं श्रीहर्ष । पिता- श्रीहरि। माता- मामल्लदेवी। सम्राट हर्षवर्धन से श्रीहर्ष का कोई संबंध नहीं। सम्राट हर्षवर्धन ईसा की 7 वीं शताब्दी में हुए जब कि प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष हुए 12 वीं शताब्दी में। महाकवि श्रीहर्ष थे राजा जयचंद राठोड के आश्रित। राजा जयचंद की ही प्रेरणा से श्रीहर्ष ने नैषधीयचरित की रचना की। परंपरा के अनुसार प्रस्तुत काव्य 60 या 120 सर्गों का था। विद्यमान 22 सगों के काव्य में नल-दमयंती की प्रणय-गाथा वर्णित है। प्रथम सर्ग में नल के प्रताप व सौंदर्य का वर्णन है। राजा भीम की पुत्री दमयंती, नल के यश-प्रताप का वर्णन सुन कर उसकी ओर आकृष्ट होती है। उद्यान में भ्रमण करते समय नल को एक हंस मिलता है और नल उसे पकड कर छोड देता है। द्वितीय सर्ग में नल के समक्ष हंस दमयंती के सौंदर्य का वर्णन करता है और नल का संदेश लेकर दमयंती के पास विदर्भस्थित कुंडिनपुर जाता है। तृतीय सर्ग में हंस एकांत में दमयंती को नल का संदेश सुनाता है, तब दमयंती उसके सम्मुख नल के प्रति अपना अनुराग प्रकट करती है। चतुर्थ सर्ग में दमयंती की पूर्वरागजन्य वियोगावस्था का चित्रण व उसकी सखियों द्वारा भीम से दमयंती के स्वयंवर के संबंध में वार्तालाप का वर्णन है। पंचम सर्ग में नारद द्वारा इन्द्र को दमयंती स्वयंवर की सूचना प्राप्त होती है और उससे विवाह करना चाहते हैं। वरुण, यम व अग्नि के साथ इंद्र राजा नल से दमयंती के पास संदेश भेजने के लिये दूतत्व करने की प्रार्थना करते हैं। नल को अदृश्यता शक्ति प्राप्त हो जाती है और वह अनिच्छुक होते हुए भी इंद्र के कार्य को स्वीकार कर लेता है। षष्ठ सर्ग में नल का अदृश्य रूप से दमयंती के पास जाने का वर्णन है। वह वहां इन्द्रादि देवताओं द्वारा प्रेषित दूतियों की बातें सुनता है। दमयंती स्पष्ट रूप से उन दूतियों को बतलाती है कि वह नल का वरण कर चुकी है। सप्तम सर्ग में नल द्वारा दमयंती के सौंदर्य का वर्णन है। अष्टम सर्ग में नल स्वयं को प्रकट कर देता है। वह दमयंती को इन्द्र, वरुण, यम प्रभृति का संदेश कहता है। नवम सर्ग में नल इन्द्रादि देवताओं में से किसी एक को दमयंती का वरण करने के लिये कहता है पर वह राजी नहीं होती। वह उसे भाग्य का खेल समझ कर देवताओं का दृढतापूर्वक सामना करने की बात कहता है। इसी अवसर पर हंस आकर उन्हें देवताओं से भयभीत न होने की बात कहता है। दमयंती स्वयंवर में नल से आने की प्रार्थना करती है। नल उसकी बात मान लेता है। दशम सर्ग में स्वयंवर का उपक्रम वर्णित है। एकादश व द्वादश सर्गों में सरस्वती द्वारा स्वयंवर में आए हुए राजाओं का वर्णन किया गया है। तेरहवें सर्ग में सरस्वती नलसहित चार देवताओं का परिचय श्लेष में देती है। सभी श्लोकों का अर्थ नल व देवताओं पर घटित होता है। चौदहवें सर्ग में दमयंती वास्तविक नल का वरण करने हेतु देवताओं की स्तुति करती है। इससे देवगण प्रसन्न होकर सरस्वती के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 169 For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाते हैं। अतः कुछ सासार इसके शेष याही श्लेष को समझने की उसे शक्ति प्रदान करते हैं, तब भैमी उसने अधर्म, अनीति व पाखंड का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए (दमयंती) वास्तविक नल को गले में मधूकपुष्पों की वरमाला उसके विरुद्ध स्वयं ही अकाट्य उत्तरपक्ष खडा किया है। डाल देती है। पंद्रहवें सर्ग में विवाह की तैयारी व पाणिग्रहण शास्त्रीय अथ च रूखा विषय होते हुए भी श्रीहर्ष ने बडी तथा सोलहवें सर्ग में नल का विवाह और उनका अपनी तन्मयता तथा काव्यात्मक पद्धति से उसे प्रस्तुत किया है। राजधानी लौटना वर्णित है। सत्रहवें सर्ग में देवताओं का प्रस्तुत महाकाव्य की पूर्णता के प्रश्न को लेकर विद्वानों में विमान द्वारा प्रस्थान व मार्ग में कलि-सेना का आगमन वर्णित मतभेद है। इसमें कवि ने 22 सर्गो में नल के जीवन का है। सेना में चार्वाक, बौद्ध आदि के द्वारा वेद का खंडन . एक ही पक्ष प्रस्तुत किया है। वह केवल दोनों के विवाह और उनके अभिमत-सिद्धांतो का वर्णन है। कलि, देवताओं व प्रणय-क्रीडा का ही चित्रण करता है। शेष अंश अवर्णित द्वारा नलदमयंती के परिणय की बात सुनकर, नलको राज्यच्युत . ही रह जाते हैं। अतः कुछ विद्वानों के अनुसार यह 22 सों करने की प्रतिज्ञा करता है और नल की राजधानी में पहुंचता का काव्य अधूरा है। उनके मतानुसार इसके शेष सर्ग या तो है। वह उपवन में जाकर विभीतक-वृक्ष का आश्रय लेता है लुप्त हो गए हैं या कवि ने अपना महाकाव्य पूरा किया ही और नल को पराजित करने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में नहीं है। वर्तमान ( उपलब्ध) 'नैषधीयचरित' को पूर्ण मानने रहता है। अठारहवें सर्ग में नल-दमयंती का विहार व पारस्परिक , वाले विद्वानों में कीथ, व्यासराज शास्त्री व विद्याधर ('हर्षचरित' अनुराग वर्णित है। उन्नीसवें सर्ग में प्रभात में वैतालिक द्वारा के टीकाकार) हैं। इस मत के विरोधी पक्ष का युक्तिवाद है नल का प्रबोधन, सूर्योदय व चंद्रास्त का वर्णन है। बीसवें कि यदि यह काव्य "नल-दमयंती-विवाह" या सर्ग में नल-दमयंती का परस्पर प्रेमालाप तथा इक्कीसवें सर्ग "नल-दमयंती-स्वयंवर" रखना चाहिये था। नैषध-काव्य के में नलद्वारा विष्णु, शिव, वामन, राम, कृष्ण प्रभृति देवताओं की अंतर्गत कई ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनकी संगति वर्तमान प्रार्थना का वर्णन है। बाईसवें सर्ग में संध्या व रात्रि का वर्णन, (उपलब्ध) काव्य से नहीं होती यथा कलिद्वारा भविष्य मे वैशेषिक मत के अनुसार अंधकार का स्वरूप-चित्रण तथा चंद्रोदय नल का पराभव किये जाने की घटना। नल-दमयंती को व दमयंती के सौंदर्य का वर्णन कर प्रस्तुत महाकाव्य की देवताओं द्वारा दिये गए वरदान भी भावी घटनाओं के सूचक समाप्ति की गई है। हैं। इंद्र ने कहा कि वाराणसी के पास अस्सी के तट पर श्रीहर्ष के नैषधीयचरित में शब्दालंकार व विविध अर्थालंकार, नल के रहने के लिये उनके नाम से अभिहित नगर (नलपुर) रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि काव्यजीवित तथा वैद्यक, कामशास्त्र, होगा। देवगण व सरस्वती ने दमयंती को यह वर दिया था राज्यशास्त्र, धर्म, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण, वेदांत, आदि समस्त कि जो तुम्हारे पातिव्रत को नष्ट करने का प्रयास करेगा वह परंपरागत शास्त्रीय ज्ञान का मालमसाला इतना लूंसकर भरा भस्म हो जावेगा (नैषध चरित 14-72) भविष्य में नल द्वारा हुआ है कि इस काव्य को “शास्त्र-काव्य" कहने की प्रथा परित्यक्ता दमयंती जब एक व्याध द्वारा सर्प से बचाई जाती है। इसी प्रकार प्रस्तुत काव्य के अभ्यासक को हर प्रकार का है तब वह उसके रूप को देख कर मोहित हो जाता है और शास्त्रीय ज्ञान, शब्द-व्युत्पत्ति, व्यवहार व सांस्कृतिक विशेषताओं उसका पातिव्रत भंग करना ही चाहता है कि उसकी मृत्यु हो का काव्यगुणों के मधुर अनुपातसहित सेवन प्राप्त होने के जाती है। किन्तु नैषध-काव्य में इस वरदान की संगति नहीं कारण तथा उसकी पहले की दुर्बल मनःप्रकृति स्वस्थ व सुदृढ होती। अतः विद्वानों की राय है कि इस महाकाव्य की रचना बनने के कारण नैषधीय को- "नैषधं विद्वदौषधम्" (अर्थात् निश्चित रूप से 22 से अधिक सर्गों में हुई होगी। 17 वें विद्वानों की बलवर्धक औषधि) कहा जाता है। यह काव्य-रसायन, सर्ग में कलि का पदापर्ण व उसकी यह प्रतिज्ञा [कि वह दुर्बल पचनशक्ति वाले व्यक्ति को लाभप्रद नहीं होता। इसीलिये नल को राज्य व दमयंती से पृथक् कराएगा (17-137)] नैषध के सशक्त अभ्यासक को संस्कृत क्षेत्र में विशेष मान से ज्ञात होता है कि कवि ने नल की संपूर्ण कथा का वर्णन है. महाभारत के नल से, श्रीहर्ष ने अपने काव्यनायक को, किया था क्योंकि इस प्रतिज्ञा की पूर्ति वर्तमान काव्य से नहीं रूप-गुण की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ चित्रित किया है। दमयंती होती। मुनि जिनविजय ने हस्तलेखों की प्राचीन सूची में श्रीहर्ष का चित्रण भी एक आदर्श राजर्षि की सुयोग्य धर्मपत्नी के के पौत्र कमलाकर द्वारा रचित एक विस्तृत भाष्य का विवरण अनुरूप रहा है। श्रीहर्ष की श्रद्धा है कि राजा नल की कथा दिया है जिसमें 60 हजार श्लोक थे। "काव्य-प्रकाश" के के संकीर्तन से अपनी वाणी पवित्र होगी। श्रीहर्ष के सैकड़ों टीकाकार अच्युताचार्य ने अपनी टीका में बतलाया है कि श्लोक प्रासादिक हैं, परंतु कुछ श्लोक वास्तव में ही क्लिष्ट नैषध-काव्य में 100 सर्ग थे। इन तर्कों के आधार पर वर्तमान हैं। कवि की श्लेषप्रियता भी इस क्लिष्टता की कारणीभूत हुई "नैषध-काव्य' अधूरा लगता है। है। इस महाकाव्य में संयम व सुबद्धता का अभाव सर्वत्र नैषधीयचरितम् के प्रमुख टीकाकार - 1) आनन्द राजानक, दृष्टिगोचर होता है। कवि की वृत्ति है वैदिक धर्माभिमानी। 2) ईशानदेव, 3) उदयनाचार्य, 4) गोपीनाथ, 5) जिनराज, परंपरागा कि इस कार्य काव्य के अभ्यास सांस्कृतिक कि 170/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6) नरहरि, 7) चाण्डु पण्डित (दीपिका, इ. 1296 में लिखित), 8) चरित्रवर्धन, 9) नारायण, 10) भगीरथ, 11) भरतमल्लिक या भरतसेन, 12) भवदत्त, 13) मथुरानाथ, 14) मल्लिनाथ, 15) महादेव, 16) विद्यावागीश, 17) शेष रामचन्द्र, 18) श्रीनाथ, 19) वंशीवादन, 20) विद्याधर, 21) विद्यारण्य योगी, 22) विश्वेश्वर, 23) श्रीदत्त, 24) सदानन्द, 25) गदाधर, 26) लक्ष्मणभट्ट, 27) गोविन्द मिश्र, 28) प्रेमचन्द्र, 29) श्रीधर, 30) परमानन्द, 31) चक्रवर्ती, 32) सर्वज्ञ माधव, 33) विद्याश्रीधर देवसूरि और 34) विश्वेश्वर पांडेय इत्यादि । न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय की व्याख्या) - ले. प्रभाचन्द्र।। जैनाचार्य। इनके समय के बारे में दो मान्यताएं हैं। 1) ई. 8 वीं शती 2) ई. 11 वीं शती।। न्यायकुसुमकारिका- व्याख्या - ले. रघुदेव न्यायालंकार। न्यायकुसुमांजलि - सुप्रसिद्ध मैथिल नैयायिक उदयनाचार्य की सर्वश्रेष्ठ रचना (984 ई.) अपने अन्य तीन ग्रंथों के समान उदयनाचार्य ने इस ग्रंथ में भी ईश्वर की सत्ता को सिद्ध कर बौद्ध नैयायिकों के मत का निरास किया है। इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य ईश्वर, सिद्ध ही है। इसकी रचना कारिका व वृत्ति शैली में हुई है। स्वयं उदयनाचार्य ने अपनी कारिकाओं पर विस्तृत व्याख्या लिखी है जो उनकी प्रौढप्रज्ञा का परिचायक है। हरिदास भट्टाचार्य ने इस पर अपनी व्याख्या लिखकर इस ग्रंथ के गूढार्थ का उद्घाटन किया है। बौद्ध विद्वान् कल्याणरक्षित कृत “ईश्वर-भंगकारिका" (829) का खंडन प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है। न्यायकुसुमांजलिकारिकाव्याख्या - 1) ले. हरिदास न्यायालंकार भट्टाचार्य। 2) ले. रामभद्र सार्वभौम, 3) ले. जयराम न्यायपंचानन। न्यायकुसुमांजलिविवेक - ले. गुणानन्दविद्यावागीश। न्यायतत्त्वम् - ले. नाथमुनि । दक्षिण भारत के एक वैष्णव आचार्य। ई. 9 वीं शती। उस ग्रंथ को विशिष्टाद्वैत मत का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। नाथमुनि ने दो और ग्रंथ लिखे हैं। उनके नाम हैं- पुरुषनिश्चय और योगरहस्य । न्यायतन्त्रबोधिनी - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । न्यायदीपिका - 1) ले. अभिनव धर्मभूषणाचार्य (धर्मभूषण) जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। 2) ले. भावसेन विद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। न्यायप्रदीप-ले. विश्वशर्मा । केशव मिश्र की तर्कभाषा पर टीका। न्यायप्रवेश - ले. दिङ्नाग। ई. वीं शती। मूल संस्कृत ग्रंथ आचार्य ए.बी. ध्रुव द्वारा सम्पादित। तिब्बती संस्करण विधुशेखर भट्टाचार्य द्वारा संपन्न। एच.एन. रेण्डल ने उद्धरणों में प्राप्त संस्कृत अंशों का अनुवाद किया है। न्यायप्रवेशतर्कशास्त्रम् - ले. शंकरस्वामी। व्हेन सांग ने इसका चीनी अनुवाद सन 647 ई. में किया । न्यायबिन्दु - ले. धर्मकीर्ति । ई. 7 वीं शती। बौद्धन्याय पर सत्ररूप रचना। प्रथम प्रकरण में प्रमाण के लक्षण तथा प्रत्यक्ष के भेद। द्वितीय में अनुमान के प्रकार और हेत्वाभास तथा तृतीय में परार्थानुमान वर्णित है। ई. 9 वीं शताब्दी में। धर्मोत्तराचार्य ने इस पर लिखी टीका प्रकाशित हुई है। न्यायबिन्दुपूर्वपक्ष - ले. कमलशील। ई. 8 वीं शती। मूल ग्रंथ अप्राप्य। तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। धर्मकीर्तिकृत न्यायबिंदु नामक ग्रंथ पर लिखी हुई टीका का सारांश इस ग्रंथ का विषय है। न्यायभास्कर - ले. अनन्ताल्वार। विषय- “शतकोटि" का खण्डन। प्रस्तुत न्यायभास्कर का खण्डन राजू शास्त्रिगल ने अपने न्यायेन्दुशेखर में किया है तथा शैवाद्वैत की स्थापना की है। न्यायमंजरी - 1) ले. प्रसिद्ध न्यायशास्त्री जयंतभट्ट ने अपने इस न्यायशास्त्रीय ग्रंथ में “गौतम-सूत्र" के कतिपय प्रसिद्ध सूत्रों पर प्रमेयबहुला वृत्ति प्रस्तुत की है। इसमें चार्वाक, बौद्ध मीमांसा व वेदांत-मतावलंबियों के मतों का खंडन किया गया है। ग्रंथ की भाषा प्रासादिक है। "न्यायमंजरी" में वाचस्पति मिश्र व ध्वन्यालोककार आनंदवर्धन का उल्लेख है। अतः इसका रचनाकाल नवम शतक का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। यह वृत्ति, न्यायशास्त्र पर एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। 2) नृसिंहाश्रम। ई. 9 वीं शती। न्यायमुक्तावलि - ले. दीक्षित राजचूडामणि । ई. 17वीं शती। न्याय-रत्नमाला - ले. पार्थसारथी मिश्र। समय-ई. 10 से 12 वीं शती के बीच। मीमांसा-दर्शन के भाट्टमत के आचार्य पार्थसारथि मिश्र की यह एक मौलिक रचना है। इस ग्रंथ में स्वतःप्रामाण्य व व्याप्ति इत्यादि 7 विषयों का विवेचन है। इस पर रामानुजाचार्य ने (17 वीं शती) "नाणकरत्न" नामक व्याख्या ग्रंथ की रचना की है। न्यायरत्नावली - ले. कृष्णकान्त विद्यावागीश। न्यायरहस्यम् - ले. रामभद्र सार्वभौम । न्यायसूत्र की टीका । न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति - ले. रघुनाथ शिरोमणि । न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति-विवेक - ले. गुणानन्द विद्यावागीश। न्यायलीलावती-दीधिति-व्याख्या - ले. जगदीश तर्कालंकार। न्यायलीलावती-रहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश। न्यायवार्तिकम् - ले. उद्योतकर। "वात्स्यायन-भाष्य" का यह टीका-ग्रंथ है। उद्योतकर का समय ई. 6-7 वीं शती। इस ग्रंथ का प्रणयन दिङ्नाग, वसुबन्धु नागार्जुन आदि बौद्ध नैयायिकों के तर्कों का खंडन करने हेतु हुआ है। इस ग्रंथ में बौद्ध मत का पांडित्यपूर्ण निरास कर आस्तिक न्यायदर्शन की निर्दुष्टता प्रमाणित की गई है। शास्त्रार्थ का प्रमुख विषय संस्कृत कश्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /171 For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है आत्मतत्त्व का अस्तित्व । स्वयं टीकाकार ने अपने इस ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद । कुतार्किकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।। सुबंधु कृत "वासवदत्ता" में इस ग्रंथ के प्रणेता की महत्ता प्रतिपादित की गई है- "न्यायसंगतिमिव उद्योतकर-स्वरूपाम्" इस उपमा के द्वारा। न्यायवाार्तिकतात्पर्यटीका - ले. भामती-प्रस्थानकार वाचस्पति मिश्र । न्यायवार्तिक पर बौद्ध आक्षेपों का खण्डन । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका-परिशुद्धि - ले. उदयनाचार्य । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पर बौद्ध नैयायिकों द्वारा किये आक्षेपों का खंडन। न्यायविनिश्चय - ले. अकलंकदेव। जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती। न्यायशास्त्र का प्रकरण ग्रंथ। न्यायविनिश्चय-विवरणम् - ले. वादिराज । जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध। न्याय-विवरणम् - ले. मध्वाचार्य। द्वैतमत के प्रवर्तक। आचार्यजी ने ब्रह्मसूत्र पर 4 ग्रंथ लिखे। इस ग्रंथ में ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों का निरूपण किया है। न्यायविनिश्चयवृत्ति (टीका)- ले. अनंतवीर्य । ई. 11 वीं शती। न्यायविवरणपंजिका - ले. जिनेन्द्रबुद्धि। यह सबसे प्राचीन काशिका की व्याख्या है। न्यायसंक्षेप - ले. गोविन्द (खन्ना) न्यायवागीश। न्यायसूत्र की टीका। न्याय-संग्रह - ले. प्रकाशात्मयति। ई. 13 वीं शती। न्यायसार - ले. भा-सर्वज्ञ। काश्मीरनिवासी। समय ई.9 वीं शती। "न्यायसार" न्यायशास्त्र का ऐसा प्रकरण है जिसमें न्याय के केवल एक ही "प्रमाण" का वर्णन है और शेष 15 पदार्थों को "प्रमाण" में ही अंतर्निहित कर दिया गया है। इसके प्रणेता ने अन्य नैयायिकों के विपरीत प्रमाण के तीन ही भेद माने हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम जब कि अन्य आचार्य "उपमान" प्रमाण को भी मान्यता देते हैं। "न्यायसार" की रचना नव्यन्याय-शैली पर हुई है। इस पर 18 टीकाएं लिखी गई हैं जिनमें 4 टीकाएं अत्यंत प्रसिद्ध हैं- 1) विजयसिंहगणीकृत "न्यायसार-टीका", 2) जयतीर्थरचित "न्यायसार-टीका", 3) भट्ट-राघवकृत "न्यायसार-विचार" और 4) जयसिंह सूरि रचित "न्याय-तात्पर्य-दीपिका"। न्यायसूत्रम् - ले. अक्षपाद गौतम। ई. पूर्व चौथी शती। यह न्यायशास्त्र का मूल सूत्रग्रंथ है। इसके पांच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के दो भाग किये हुए हैं। प्रत्येक भाग को "आह्निक' नाम दिया है। इसके पहले अध्याय में 11 प्रकरण व 61 सूत्र, दूसरे अध्याय में 12 प्रकरण व 137 सूत्र, तीसरे अध्याय में 16 प्रकरण व 145 सूत्र, चौथे अध्याय में 20 प्रकरण व 118 सूत्र तथा पांचवें अध्याय में 24 प्रकरण व 67 सूत्र हैं, ऐसा वृद्धवाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसूची निबंध में लिखा है। न्यायसूत्र ग्रंथ के कुछ प्रसिद्ध सूत्र इस प्रकार हैं प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टांत-सिद्धान्त-अवयवतर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितंडा-हेत्वाभास-च्छल-जाति -निग्रहस्थानानां-तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । (न्यायसूत्र 1.1.1) अर्थ- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति व निग्रहस्थान (इन 16 पदार्थों) के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । (न्या. सू. 1.1. 3.) अर्थ- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व शब्द हैं चार प्रमाण । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्य मव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। (न्या.सू.1.1.4.) अर्थ- इन्द्रिय व विषय के संबंध से उत्पन्न संशयरहित व अव्यभिचारी ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। अर्थात्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टं च । (न्याय.सू. 1.1.5.) अर्थ- अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक है और उसके तीन प्रकार हैं पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतो दृष्ट। प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम् (न्या,सू.1.1.6) अर्थ-साधर्म्य प्रसिद्ध होने के कारण साध्य के साधन को उपमान प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार प्रथम अध्याय में सोलह पदार्थों के नाम कौर लक्षण बताकर, शेष ग्रंथ में उन लक्षणों की परीक्षा की गई है। दूसरे अध्याय के पहले आह्निक में संशय, प्रमाण-सामान्य, प्रत्यक्ष, अवयव, अनुमान, वर्तमान, शब्दसामान्य और शब्दविशेष शीर्षक- आठ प्रकरण हैं तथा दूसरे आह्निक में प्रमाणचतुष्टय, शब्दनित्यत्व, शब्दपरिणाम एवं शब्दपरीक्षा-शीर्षक चार प्रकरण हैं। तीसरे अध्याय के पहले आह्निक में आत्मा, शरीर, विभिन्न इन्द्रिय तथा इन्द्रियों के विषयों का विस्तृत विवेचन है और उसके साथ ही है इन्द्रियभेद, देहभेद, चक्षुरद्वैत, मनोभेद, अनादिनिधन, शरीरपरीक्षा, इन्द्रियपरीक्षा, इन्द्रियनानात्व तथा अर्थपरीक्षा का भी विवेचन । दूसरे आह्निक में बुद्धि, मन और अदृष्ट इन विषयों का वर्णन है। चौथे अध्याय के पहले आह्निक में प्रवृत्ति और दोष के न्यायसिद्धान्तमंजरी - ले. जानकीनाथ शर्मा। न्यायसिद्धान्तमंजरीभूषा - ले. नृसिंह न्यायपंचानन । न्यायसिद्धान्तमाला - ले. जयराम न्यायपंचानन। यह न्यायसूत्र की टीका है। 172 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षण, दोषों की परीक्षा, प्रेत्यभाव की परीक्षा, शून्यताका जो द्वैत -संप्रदाय के "मुनित्रय" में समाविष्ट किये जाते हैं। उपादान व निराकरण, ईश्वर का उपादानकारणत्व, सर्वानित्यत्व अद्वैत विषयक विभिन्न शास्त्रीय ग्रंथों के अनुशीलन द्वारा का निरसन, सर्वस्वलक्षणपृथक्त्व का निराकरण, सर्वशून्यत्व का अद्वैतवादियों के मतों को संकलित कर तथा नैयायिक पद्धति निराकरण, सांख्य एकांतवाद का निराकरण, फलपरीक्षा, दुःखपरीक्षा से उनका विन्यास कर, व्यासराय ने इस ग्रंथ में उनका गंभीरता व अपवर्गपरीक्षा शीर्षक -चौदह प्रकरण हैं और दूसरे आह्निक से खंडन किया है। इसके पूर्व किसी भी द्वैती पंडित ने अपने में है तत्त्वज्ञानोत्पत्ति, अवयवी, निरवयव, बाह्यार्थभंगनिराकरण, खंडन-मे इतने विषयों का समावेश नहीं किया था। न्यायामृत तत्त्वज्ञानाभिवृद्धि व तत्त्वज्ञानपरिपालन शीर्षक 6 प्रकरण। में किया गया खंडन,अद्वैत के मर्म-स्थल को भेदने वाला है। __पांचवें अध्याय के पहले आह्निक में सत्रह प्रकरण हैं। फलतः मधुसूदन सरस्वती जैसे दार्शनिक-प्रवर (ई. 16 वीं दूसरे आह्निक में न्यायाश्रित पांच निग्रह, अभिमतार्थ प्रतिपादन श. ने इसके खंडन के लिये “अद्वैत-सिद्धि" का प्रणयन न करने वाले चार निग्रह, स्वसिद्धांत के अनुरूप प्रयोगाभास किया। रामाचार्य (17 वीं शती का प्रारंभ) ने अपनी "तरंगिणी" के तीन निग्रह व निग्रहस्थानविशेष शीर्षक विषयों का प्रतिपादन में इसका खंडन किया, जिसकी आलोचना की ब्रह्मानंद सरस्वती किया गया है। न्यायदर्शन पर सैकडों ग्रंथ लिखे जा चुके ने। पश्चात् वनमाली मिश्र ने अपने "तरंगिणी-सौरभ" में (17 हैं, फिर भी न्यायसूत्रों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। न्यायसूत्रों वीं शती का उत्तरार्थ) सरस्वतीजी का खंडन प्रस्तुत किया। की भाषाशैली प्रौढ है। प्रमाण और तर्क इन विषयों में गौतम इस प्रकार न्यायामृत में उद्भावित तथ्यों के खंडन को नव्यन्याय की विशेष रुचि है। पूर्वपक्ष का प्रस्तुतीकरण वे निष्पक्षतापूर्वक की शैली में ध्वस्त करने हेतु अद्वैती विद्वानों का एक संप्रदाय करते हैं। प्रतिपक्ष द्वारा उद्भूत कठिन शंकाओं से भी वे ही उठ खडा हुआ जिसे “नव्यवेदांत' के नाम से निर्दिष्ट विचलित नही होते। अपने सिद्धान्त पर उनका विश्वास दृढ किया जाता है। यह बात न्यायामृत के असाधारण महत्त्व की है। अन्य दर्शनों के समानन्यायदर्शन का चरम लक्ष्य भी द्योतक है। उन्होंने ज्ञानद्वारा मोक्ष ही माना है किन्तु बौद्धों के मतों का न्यायामृतसौगंधम् - ले. वनमाली मिश्र । खंडन करना भी उनका उद्देश्य था। अतः इस दर्शन में उन्होंने न्यायादर्श (न्यायसारावली) - ले. जगदीश तर्कालंकार । वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान न्यायावतार - ले. सिद्धसेन दिवाकर। जैनाचार्य। माता-देवश्री। का समावेश किया है। समय- ई. 8 वीं शती। न्यायसुधा (न्यायसूत्रभाष्यम्) - ले. वात्सायन। गौतम के न्यायेन्दुशेखर - ले. त्यागराजमखी (राजू शास्त्रीगल) । विषयन्यायसूत्र पर प्रसिद्ध भाष्य ग्रंथ। शैवाद्वैत का समर्थन। न्यायसूत्रवृत्ति - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन (भट्टाचार्य)। . इसकी रचना 1631 ई. में हुई थी। इसमें न्यायसूत्रों की 'सरल न्यासजालम् - इसमें मूलमन्त्र के करन्यास तथा छह अंगन्यास व्याख्या प्रस्तुत की गई है जिसका आधार रघुनाथ शिरोमणि कर "शिवोहम्" की भावना करते हुए क्षोभण आदि नौ मुद्राएं तथा पाशादि चार मुद्राएं बांध कर सर्वावयवरूप से काम-कलारूप कृत व्याख्यान है। अपना ध्यान कर, शक्त्युत्यापन मुद्रा बांध कर प्रातःस्मरण में न्याय-सुधा - ले. जयतीर्थ टीकाचार्य। मध्व के मूर्धन्य ग्रंथ उक्त प्रकार से कुण्डलिनी को जगाकर छह चक्रों के भेदनक्रम अनुव्याख्यान की अत्यंत प्रौढ व्याख्या। माध्व-मत की गुरुपरंपरा से ध्यान करते हुए अन्तर्याग कर सर्वाभरण-संयुक्त शक्ति का में 6 वें गुरु थे जयतीर्थ। यह व्याख्या केवल "सुधा" के ध्यान करना चाहिये, यह प्रतिपादित किया है। नाम से विशेष विख्यात है। संप्रदायवेत्ता पंडितों की "सुधा वा पठनीया, वसुधा वा पालनीया" यह उक्ति प्रस्तुत व्याख्या न्यास-पद्धति - ले. त्रिविक्रम । की महनीयता का प्रमाण है। द्वैतविरोधी आचार्य शंकर, भास्कर, न्यायप्रकाश - ले. नरपति महामिश्र। रामानुज एवं यादवप्रकाश के दार्शनिक सिद्धांतों का अनेक न्यासोद्दीपनम् - ले. मनसाराम (अपर नाम श्रीमान् उपाध्याय) प्रबल युक्तियों के आधार पर खंडन, इस ग्रंथ की विशेषता ई. 16 वीं शती) यह "न्यास" पर टीका है। विषय- व्याकरण । है। मूल ग्रंथ के समान ही प्रस्तुत व्याख्या, जयतीर्थ स्वामी ___ न्यासदीपिका - ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य चक्रवर्ती। का मूर्धाभिषिक्त ग्रंथ है। यह सूत्रप्रस्थान विषयक ग्रंथ है। न्यासोद्योत - ले. मल्लिनाथ । न्यायसूर्यावली - ले. भावसेन त्रैविद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं पक्षिराजविधानम् - आकाशभैरवान्तर्गत । श्लोक 4801 शती। पंचकन्या (रूपक) - सुरेन्द्रमोहन। श. २०। उपनिषद् की न्यायामृतम् - ले. व्यासराय (व्यासतीर्थ) अद्वैत वेदांत के परस्पर स्पर्धा करने वाली इन्द्रियों की कथा पर आधारित । सिद्धांतों का सांगोपांग खंडन करने वाला एक सशक्त ग्रंथ। "मंजूषा" में प्रकाशित। बालोचित लघु प्रतीकनाटक । शिक्षा, ग्रंथ के प्रणेता माध्वमत की गुरु परंपरा में 14 वें गुरु थे भक्ति, सेवा, प्रीति तथा शान्ति पंच कन्याओं के रूप में चित्रित संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/173 For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की हैं। सब अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादन करती हैं, अन्त में सब शत्रुत्व की प्रमुख कथा है। का समान महत्त्व दर्शाया गया है। ____4) लब्धप्रणाशम्- इसमें बंदर और मगर की मित्रता की पंचकल्पतरु - ले. श्रीराघवदेव। पिता- रामानंद तर्कपंचानन । प्रमुख कथा है। श्लोक 8832 1) सन्तानक 2) कल्पवृक्ष 3) हरिचन्दन 4) 5) अपरीक्षितकारकम्- इसमें ब्राह्मण और उसके नेवले पारिजात और 5) मन्दारक ये पांच कल्पतरू माने जाते हैं। की, अविचार का परिणाम दिखाने वाली कथा है। विषय- विविध चक्रों, महाविद्याओं, सिद्धविद्याओं, विविध पांच तंत्रों की ये पांच प्रमुख कथाएं हैं। उनके संदर्भ में आसनों, न्यासों तथा 16, 38 और 64 उपचारों का वर्णन । भी अनेक उपकथाएं प्रत्येक तंत्र में यथासार आती हैं। प्रत्येक दीक्षा, मन्त्र, मन्त्रसंस्कार, दीक्षापद्धति, मार्ग का शोधन, कलावती तंत्र इस प्रकार कथाओं की लडी सा ही है। पंचतंत्र में कुल आदि दीक्षाओं का निरूपण। पिता आदि से मन्त्रग्रहण में 87 कथाएं हैं, जिनमें अधिकांश हैं प्राणी कथाएं। प्राणी दोष, अंकुरापर्णविधि, अग्निसंस्कार आदि का निर्देश, कृष्ण के कथाओं का उगम सर्वप्रथम हुआ महाभारत में। विष्णुशर्मा ने मन्त, पूजा आदि का विधान, मृत्युंजय आदि विविध मन्त्रों अपने पंचतत्र की रचना महाभारत से ही प्रेरणा लेकर की का विधान, शिवप्रकरण, गणेशप्रकरण आदि इस तांत्रिक ग्रंथ है। उन्होंने अपने ग्रंथ मे महाभारत के कुछ संदर्भ भी लिए के विषय हैं। हैं। इसी प्रकार रामायण, महाभारत मनुस्मृति तथा चाणक्य के पंचकल्याणकपूजा- ले. शुभचंद्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 वीं अर्थशास्त्र से श्री विष्णुशर्मा ने अनेक विचार और श्लोक शती। ग्रहण किये हैं। इससे माना जाता है कि विष्णुशर्मा चन्द्रगुप्त पंचकल्याणकोद्यानपूजा - ले. ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 मौर्य के पश्चात् ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुए होंगे पंचतत्र वीं शती। की कथाओं की शैली सर्वथा स्वतंत्र है। उस का गद्य जितना पंचकल्याणचम्पू - ले. चिदम्बर। इस श्लिष्टकाव्य में राम, सरल और स्पष्ट है, उतने ही उसके श्लोक भी समयोचित, कृष्ण, विष्णु शिव तथा सुब्रह्मण्य इन पांच देवताओं के विवाहों अर्थपूर्ण, मार्मिक और पठन-सुलभ हैं। परिणामस्वरूप इस ग्रंथ का वर्णन है । लेखक ने स्वयं इस पर टीका भी लिखी है। की सभी कथाएं सरस, आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण बनी हैं। श्री. पंचकशान्तिविधि - ले. मधुसूदन गोस्वामी। विषय- धर्मशास्त्र । विष्णुशर्मा ने अनेक कथाओं का समारोप श्लोक से किया है पंचकोशयात्रा - ले. शिवनारायणानन्द तीर्थ । और उसी से किया है आगामी कथा का सूत्रपात।। पंचग्रंथी - बुद्धिसागर। विषय- व्याकरण। इसी का दूसरा पंचतंत्र की कहानियां अत्यंत प्राचीन हैं। अतः इसके विभिन्न नाम है बुद्धिसागर-व्याकरण । सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ (अथवा . शताब्दियों में, विभिन्न प्रांतोंमें, विभिन्न संस्करण हुए है। इसका प्रातिपदिक पाठ) उणादिपाठ तथा लिंगानुशासन ये व्याकरण सर्वाधिक प्राचीन संस्करण "तंत्राख्यायिका' के नाम से विख्यात शास्त्र के पांच अंग या ग्रंथ हैं। इन पांच अंगों में सूत्रपाठ है तथा इसका मूल स्थान काश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् अथवा शब्दानुशासन) मुख्य है। शेष चार अंगों को खिलपाठ डॉ. हर्टेल ने अत्यंत श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण कहते हैं। को खोज निकाला था। उनके अनुसार "तंत्राख्यायिका" या पंचचक्रपूजनम् - रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप। इस "तंत्राख्यान' ही पंचतंत्र का मूल रूप है। इस में कथा का ग्रंथ में राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र नामक रूप भी संक्षिप्त है तथा नीतिमय पद्यों के रूप में समावेशित पांच चक्रों के पूजन की विधि प्रतिपादित है। पद्यात्मक उद्धरण भी कम हैं। संप्रति पंचतंत्र के 4 भिन्न पंचतत्रम् - इस विश्वविख्यात कथाग्रंथ के रचयिता हैं श्री संस्करण उपलब्ध होते हैं। पंचतंत्र की रचना का काल अनिश्चित विष्णुशर्मा। इस ग्रंथ में प्रतिपादित राजनीति के पांच तंत्र है किंतु इसका प्राचीन रूप, डॉ. हर्टल के अनुसार दूसरी (भाग) हैं। इसी लिये इसे "पंचतंत्र" नाम प्राप्त हुआ। इन शताब्दी का है। इसका प्रथम अनुवाद छठी शताब्दी में ईरान तंत्रों के नाम इस प्रकार हैं की पहलवी भाषा में हआ था। हर्टेल ने 50 भाषाओं में 1) मित्रभेद- इसमें पिंगलक नामक सिंह तथा संजीवक इसके 200 अनुवादों का उल्ख किया है। पंचतंत्र का सर्वप्रथम नामक बैल इन दो मित्रों के बीच एक धूर्त सियार ने किस परिष्कार एवं परिबृंहण, प्रसिद्ध जैन विद्वान् पूर्णभद्र सूरि ने संवत् 1255 में किया है और आजकल का उपलब्ध संस्करण प्रकार वैमनस्य निर्माण किया इसकी कथा है। इसी पर आधृत है। पूर्णभद्र के निम्न कथन से पंचतंत्र के 2) मित्रसंप्राप्ति - इसमें चित्रग्रीव हंस, हिरण्यक चूहा, पूर्ण परिष्कार की पुष्टि होती है : लघुपतनक कौआ, चित्रांग हिरन और मंथरक नामक कछुए के बीच मित्रता किस प्रकार हुई इसकी प्रमुख कथा है। प्रत्यक्षरं प्रतिपदं प्रतिवाक्यं प्रतिकथं प्रतिश्लोकम्। 3) काकोलूकीयम् - इसमें कौए और उलूक (उल्लू) के श्रीपूर्णभद्रसूरिर्विशेषयामास शास्त्रमिदम्।। 174/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉ. हर्टेल ने सर्व प्रथम पंचतंत्र" का संपादन कर उसे हार्वर्ड ओरियंटल सीरीज संख्या 13 में प्रकाशित कराया। पंचतंत्र की रचना होते ही यह ग्रंथ शिक्षित समाज में अल्पकाल में लोकप्रिय हो गया। विद्या-परंपरा में उसका अध्ययन एवं अध्यापन भी प्रारंभ हुआ। इस ग्रंथ के अनेक श्लोक वा श्लोकार्ध, सुभाषितों अथवा लोकोक्तियों के रूप में लोगों के जिह्वाग्र पर नर्तन करने लगे। पंचतंत्र ग्रंथ विश्वविख्यात है और संसार की प्रायः सभी भाषाओं में उसके अनेक अनुवाद हो चुके हैं। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार बोकेशियों, इसाप प्रभृति पाश्चात्य कथालेखकों को पंचतंत्र से ही प्रेरणा प्राप्त हुई थी। पंचदशमालामंत्र - श्लोक- 1200। विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशांगयन्त्रविधि - श्लोक - 420| विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशी- श्री. विद्यारण्य व भारतीतीर्थ द्वारा रचित अद्वैत वेदांत संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। पंद्रह प्रकरण होने के कारण इसे पंचदशी नाम प्राप्त हुआ है। प्रथम पांच प्रकरणों के क्रमशः नाम हैं- तत्त्वविवेक, महाभूतविवेक, पंचकोशविवेक, द्वैतविवेक और महावाक्यविवेक। तत्त्वविवेक में ब्रह्मात्मैक्यरूप तत्त्व का अन्नमयादि पंचकोशों से विवेक (भेद) किया जाने से उसे तत्त्वविवेक नाम दिया है। इस प्रकरण में जीव और ब्रह्म का ऐक्य प्रतिपादित किया है। महाभूतविवेक में पंचमहाभूतों के गुण, धर्म और कार्यों का विवेचन है। पंचकोशविवेक में अन्नमयादि पंचकोश के स्वरूप तथा अनात्मकत्व का विवेचन है। द्वैतविवेक में ईशनिर्मित व जीवकृत द्वैत कथन किया है। ईशकृत द्वैत सदैव एकरूप होता है किन्तु जीव फिर भी उस द्वैत के विषय में अनेक कल्पनाएं करता है। यह बात एक दृष्टांत से बताई है :__रत्न के प्राप्त होने पर एक जीव को आनंद होता है तो दूसरे को वह प्राप्त न होने के कारण दुःख होता है। विरागी व्यक्ति केवल उसकी ओर देखता है, उसे न आनंद होता है और न क्रोध। ईशकृत द्वैत जीव को बद्ध नहीं करता किन्तु जीवकृत द्वैत जीव को बद्ध करता है। ___ महावाक्यविवेक में "प्रज्ञानं ब्रह्म " "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" व "अयमात्मा ब्रह्म" इन महावाक्यों से जीव और ब्रह्म के ऐक्य का प्रतिपादन किया गया है। आगे के क्रमांक 6 से 10 तक के प्रकरणों के नाम हैं- चित्रदीप, तृप्तिदीप, कूटस्थदीप ध्यानदीप और नाटकदीप।। चित्रदीप में वस्त्र पर चित्र के समान ब्रह्म पर जगत् का आरोप हुआ है यह नाना उपपत्तियों से समझाया गया है। तृप्तिदीप मे जीव की सात अवस्थाओं का सम्यक् प्रतिपादन किया है और यह भी कहा गया है कि अपरोक्ष आत्मज्ञान से मनुष्य को कृतकत्यता प्राप्त होती है और वह तृप्त हो जाता है। कूटस्थदीप में कूटस्थ व जीव इनके स्वरूप का भेद बताकर कहा गया है कि कूटस्थ का भेद, घटाकाश व महाकाश के बीच के भेद के समान नाममात्र ही है। ध्यानदीप में बताया गया है कि केवल आत्मोपदेश से ही उपासनोपयोगी परोक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, किन्तु अपरोक्ष ज्ञान विचार के बिना नहीं होता। फिर भी अनेक बार इस विचार को भी कुछ प्रतिबंध होते हैं। विषयों में चित्त की आसक्ति, बुद्धिमांद्य, कुतर्क, आत्मा के कर्तृत्त्वादि गुण हैं। ऐसे विपरीत ज्ञान को यथार्थ मानकर उस बारे में आग्रह रखना, ऐसे चार प्रकार के वर्तमान प्रतिबंध हैं। इन प्रतिबंधों का नाश होता है शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा एवं समाधान से। तत्पश्चात् निर्गुणोपासना के प्रकार कथन करते हुए उसकी प्रशंसा की है और कहा है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना से जीव मुक्त होता है। ___नाटकदीप में साक्षी चैतन्य को नृत्यशाला के दीप की उपमा देते हुए साक्षी का दीपवत् निर्विकारत्व सिद्ध किया है। अंतिम ग्यारहवें से पंद्रहवें प्रकरणों का विषय है ब्रह्मानंद । उन प्रकरणों के क्रमशः नाम हैं- योगानंद, आत्मानंद, अद्वैतानंद, विद्यानंद और विषयानंद । योगानंद में आत्मज्ञान का फल, ब्रह्म का श्रुत्युक्त स्वरूप, ब्रह्मानंद के प्रकार, उनका स्वयंवेद्यत्व आदि विषय आए है। आत्मानंद में आत्मा को अत्यंत प्रिय बताते हुए उसी का निरंतर अनुसंधान किया जाये ऐसा उपदेश है। अद्वैतानंद में आनंद रूप ब्रह्म को एकमेवाद्वितीय व सत्य बताते हुए उसे जगत् का उपादान कारण माना है। अतः कहा गया है कि समस्त जगत् ही आनंद रूप हैं ऐसा चिंतन कर, उसमें चित्त को स्थिर करने से अद्वैतानंद का लाभ होता है। विद्यानंद का स्वरूप तथा उसके अवांतर भेद कथन किये गये हैं। दुःख का अभाव, इष्टप्राप्ति, कृतकृत्यता की भावना तथा सभी प्राप्तव्य हुआ है ऐसा निश्चय, ये वे चार भेद हैं। विषयानंद में यह प्रतिपादित किया गया है कि ब्रह्मानंद का एकदेशसदृश विषयानंद, शांत वृत्ति में ही अनुभव आता है। ___ जिस प्रकार काष्ठ (लकडी) में उष्णता व प्रकाश दोनों ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार शांत वृत्ति में सुख च चैतन्य दोनों की उत्पत्ति होती है। वह विषयानंद, चित्त के अंतर्मुख होने की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होता है। अतः इस प्रकरण के अंत में उपदेश है कि विषयानंद चित्त को एकाग्र करने का द्वार ही है ऐसा मानकर, बाह्य विषयों का त्याग करते हुए वृत्ति को अंतर्मुख बनाया जाये। पंचदशीयन्त्रकल्प - श्लोक- 4901 विषय- तंत्रशास्त्र । पंचदशीविधानम् - गौरी-शंकर संवादरूप। इसमें पंचदशी मंत्र के निर्माण की विधि बतलायी गई है। पंचनिदानम् - ले- गंगाधर कविराज । समय ई. 1798-1885 । विषय- आधुनिक चिकित्सा शास्त्र (पॅथॉलॉजी)। पंचपात्रशोधनम् - श्लोक- 104। इसमें कौलों के 22 पात्रों की विधि भी वर्णित है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /175 For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचपादी उणादि- पाणिनीय संप्रदाय के संबद्ध पंचपादी-उणादि-सूत्रों के तीन पाठ हैं। उज्ज्वलदत्त आदि की वृत्ति जिस पाठ पर है, वह है प्राच्य पाठ। क्षीरस्वामी की क्षीरतरंगिणी में उद्धृत पाठ है उदीच्य और नारायण तथा श्वेतवनवासी की वृत्तियां जिस पर है, वह पाठ है दाक्षिणात्य । पंचपादिका - ले- पद्मपादाचार्य। ई. 8 वीं शती। पंचपादिकादर्पण - ले- अमलानन्द। ई. 13 वीं शती। पंचपादिका- विवरणम् - (1) ले-नृसिंहाश्रम। ई. 16 वीं शती। (2) ले- प्रकाशात्मयति। ई- 13 वीं शती। पंचस्कंधप्रकरणम् - ले- स्थिरमति। ई. 4 थी शती। पंचब्रह्मोपनिषद् - कृष्णयजुर्वेद से संबंधित एक नूतन शैव उपनिषद् । इसका प्रारंभ होता है पिप्पल मुनि द्वारा शिवजी को पूछे गए प्रश्न से। “सृष्टि में सर्वप्रथम कौन उत्पन्न हुआ।" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शिवजी बताते हैं कि सद्योजात, अघोर, वामदेव, तत्पुरुष व ईशान क्रमशः प्रथम उत्पन्न हुए। इन पांच को ही 'पंचब्रह्म' संज्ञा प्राप्त है। सद्योजात है पीत वर्ण का, अघोर है कृष्ण वर्ण का, वामदेव है श्वेत वर्ण का, तत्पुरुष है रक्त वर्ण का और ईशान है आकाश के वर्ण का। इन पंचब्रह्मों का रहस्य जानने वाला व्यक्ति मुक्त होता है। अंत में शिवजी ने उपदेश दिया है कि 'नमः शिवाय' मंत्र के जप से उक्त रहस्य समझ में आ जाता है। पंचभाषाविलास - ले- शाहजी महाराज । ई. 17-18 वीं शती। दक्षिण भारत के यक्षगान कोटि की रचना। संस्कृत, हिन्दी, मराठी,तेलगू तथा द्रविड भाषाओं का प्रयोग इस में किया है। कथासार- - द्रविड देश की राजकुमारी कान्तिमती, आंध्र की कलानिधि, महाराष्ट्र की कोकिलवाणी, उत्तरप्रदेश की सरसशिखामणि ये चारों नायिकाएं श्रीकृष्ण के साथ विवाहबद्ध होती हैं। श्रीकृष्ण का सर्वभाषाविद् नर्मसचिव उन सबके साथ उन्हीं की भाषा में वार्तालाप करता है, और कृष्ण को संस्कृत में उनकी प्रणयविह्वलता सुनाता है। अन्त में पुरोहित काशीभट्ट चारों का विवाह कृष्ण के साथ करता है। पंचमकारविवरणम् - ले- मधुसूदनानन्द सरस्वती। श्लोक3001 पंचमाश्रमविधि - शंकराचार्य कृत कहा गया है। परमंहसनामक पांचवी संन्यस्त अवस्था के (जब संन्यासी अपना दंड एवं कमण्डलु त्याग देता और बालक या पागल की भांति घूमता रहता है) विषय में इस ग्रंथ में विवेचन किया है। पंचमी क्रमकल्पलता- ले- श्रीनिवास। पंचमीसाधनम् - ब्रह्माण्डयामल के अन्तर्गत हर-गौरी संवादरूप। विषय- मुक्तिदायक तांत्रिक विधियों का प्रतिपादन। पंचमी विद्या पंचकूटरूपा है । वे पंच है- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन। पंचमीसुधोदय - ले- मथुरानाथ शुक्ल। पंचमुखी वीरहनूमत्कवचम् - श्लोक- 100। पंचमुद्राशोधनपद्धति - ले- चैतन्यगिरि। श्लोक- 510। इसमें लिंग-पुराणोक्त सरस्वतीस्तोत्र भी संमिलित है। पंचरत्नमाला - ले- राम होशिंग। श्लोक- 1800। पचरत्नस्तव - ले- अप्पय्य दीक्षित। पंचरत्रम् - ले- महाकवि भास। तीन अंकों का समवकार (रूपक का एक प्रकार)। इसकी कथा महाभारत के विराट पर्व पर आधारित है। नाटककार ने अत्यंत मौलिक दृष्टि से काल्पनिक घटना का चित्रण किया है। प्रथम अंकः द्यूतक्रीडा में पराजित पांडव वनवास समाप्ति के बाद एक वर्ष का अज्ञातवास बिताने के लिये राजा विराट के यहां रहते हैं। इसी समय कुरुराज दुर्योधन का यज्ञ पूर्ण समारोह के साथ संपन्न होता है। पश्चात् दुर्योधन गुरु द्रौणचार्य से दक्षिणा मांगने के लिये कहता है। द्रोणाचार्य पांडवों को आधा राज्य देने की दक्षिणा मांगते हैं। इस पर शकुनि उद्विग्न होकर वैसा नहीं करने को कहता है। गुरु द्रोण रुष्ट हो जाते हैं पर वे भीष्म द्वारा शांत किये जाते हैं। शकुनि दुर्योधन को कहता है कि यदि 5 रात्रि में पांडव प्राप्त हो जाएं तो इस शर्त पर यह बात मानी जा सकती है। द्रोणाचार्य यह शर्त मानने को तैयार नहीं होते। इसी बीच विराट नगर से एक दूत आकर सूचना देता है, कि कीचक सहित सौ भाइयों को किसी व्यक्ति ने बाहों से ही रात्रि में मार डाला। इसी लिये विराट राजा यज्ञ में सम्मिलित नहीं हुए। यह सुनकर भीष्म को विश्वास होता जाता है कि अवश्य ही कीचकवध का कार्य भीम ने किया होगा। अतः वे द्रोण से दुर्योधन (शकुनि) की शर्त मान लेने को कहते हैं। तब द्रोण उस शर्त को स्वीकार कर लेते है और यज्ञ हेतु आये हुए राजाओं के समक्ष उसे सुना दिया जाता है। फिर भीष्म विराट पर चढाई कर उसके गोधन को हरण करने की सलाह देते हैं जिसे दुर्योधन मान लेता है। द्वितीय अंक में विराट के जन्म-दिन के अवसर पर कौरवों द्वारा उसके गोधन के हरण का वर्णन है। युद्ध में भीम द्वारा अभिमन्यु पकड लिया जाता है और वह राजा विराट के समक्ष निर्भय होकर बातें करता है। युधिष्ठिर, अर्जुन प्रभृति भी प्रकट हो जाते हैं। राजा विराट उन्हें गुप्त होने के लिये कहते हैं। इस पर युधिष्ठिर उन्हें बताते हैं कि अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी है। तृतीय अंक का प्रारंभ कौरवों के यहां हुआ है। सूत द्वारा यह सूचना मिलती है कि कोई व्यक्ति पैदल ही आकर अभिमन्यु को पकड ले गया। भीष्म ने कहा कि यह कार्य निश्चित ही भीम ने किया होगा। इसी समय युधिष्ठर की ओर से एक दूत आता है। गुरु द्रोण दुर्योधन को गुरु-दक्षिणा देने की बात कहते हैं। दुर्योधन उसे स्वीकार कर कहता है कि उसने पांडवों को आधा राज्य दे दिया। भरतवाक्य के पश्चात् प्रस्तुत 176/ संस्कृत वाङ्मय काश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाटक समाप्त हो जाता है। पंचरात्र में पांच अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें एक विष्कम्भक। प्रवेशक और 2 चूलिकाएं हैं। पंचरुद्रप्रकारकथनम् - नन्दिकेश्वर शतानन्द संवादरूप। इसमें पंचरूद्र के प्रकार, उसके अधिकारी, कलशरुद्र-प्रकरण, मण्डप-निर्माण, तोरण और द्वारो का निर्माण, जयप्रकरण वेदीनिर्माण, ध्वजारोपण, कुण्डनिर्माण, सर्वतोभद्रनिर्माण, न्यास आदि विषय वर्णित हैं। पंचवस्तुप्रक्रिया - ले. देवनंदी। ई. 5 वीं शती। पंचसंस्कारदीपिका - ले. विजयीन्द्र भिक्षु। गुरु- सुरेन्द्र।। मध्वाचार्य के सिद्धान्तानुसार वैष्णवपद्धति का निवेदन इसका विषय है। पंचसायकम् - ले. कविशेखर ज्योतिरीश्वर। इस के चार विभागों में नायिकाभेद, रति के 3 प्रकार तथा मन्त्रतन्त्रादि का विवरण है। पंचसिद्धान्तिका - ले.वराहमिहिर। ई. 5 वीं शती। विषयज्योतिष शास्त्र। इस ग्रंथ में उस समय प्रचलित पुलिश, रोमक, वसिष्ठ, सौर तथा पैतामह इन पांच ज्योतिषविषयक सिद्धान्तों की चर्चा है। वराहमिहिर ने अपने सौरसिद्धान्त के आधार पर ग्रह-नक्षत्रों की आकाश में स्थिति निश्चित की और ग्रहणों तथा ग्रहयुति का काल निश्चित करने के नियम बनाये हैं। पंचस्कन्धप्रकरणभाष्यम् - ले. स्थिरमति। यह वसुबन्धु के पंचस्कंध का भाष्य है। विषय- बौद्धदर्शन। पंचस्तवी - इसमें 5 अध्यायों में दुर्गास्तुति की गई है। ये पांच अध्याय हैं- लघुस्तव, सरसास्तव, घटस्तव, अम्बास्तव और सकलजननीस्तव। पंचाक्षरीभाष्यम् - ले. पद्मपादाचार्य। ई. 8 वीं शती। पंचाक्षरीमुक्तावली - ले. सिद्धेश्वर पण्डित । गुरु- विद्याकर। 5 श्रेणियों (अध्यायों) में वर्णित। श्लोक- 765। विषयनित्य नैमित्तिक जप, नित्य नैमित्तिक होमविधि, लघुदीक्षाविधि, देश, काल, जपस्थान, जपनियम, पुरश्चरणनियम इ.। पंचांगार्क - ले. राघव पण्डित खाण्डेकर।। पंचाध्यायी - ले. राजमल पांडे। ई. 16 वीं शती। पंचायतनपद्धति • ले. दिवाकर। महादेव के पुत्र। विषयसूर्य, शिव, गणेश, दुर्गा एवं विष्णु के पंचायतन की उपासना । पंचायुधप्रपंच - ले. त्रिविक्रम। सन 1864 में मुंबई से प्रकाशित। इसमें विट प्रबलदाम के प्रयास से, कन्दर्पविलास का कलहंसलीला से, तथा मन्दारशेखर का कमलज्योत्स्रा से स्नेहसंबंध होने की कथा वर्णित है। पंचालिका-रक्षणम् (रूपक) - ले. पेरी काशीनाथ शास्त्री। ई. 19 वीं शती। पंचाशत्सहस्त्री- महाकालसंहिता - शिव-पार्वती संवादरूप। विषय- कामकला काली की पूजा । पंचस्तिकायटीका - ले. अमृतचन्द्रसूरि । जैनाचार्य। ई. 10-11 वीं शती। पंजिकाउद्योत - ले.त्रिविक्रम । पंजिका पर टीका ग्रंथ । पंजिकाव्याख्या - ले. विश्वेश्वर तर्काचार्य। इनके अतिरिक्त जिनप्रभसूरि, रामचंद्र और कुशल द्वारा रचित पंजिका टीकाओं का भी उल्लेख मिलता है। पण्डितचरितप्रहसनम् - ले. काव्यतीर्थ मधुसूदन । पण्डितपत्रिका - सन 1898 में वाराणसी से संस्कृत-हिन्दी में प्रकाशित इस मासिक पत्रिका के सम्पादक थे बालकृष्ण शास्त्री। यह समाचार-प्रधान पत्रिका थी। फिर भी इसमें उच्च कोटि के लेख प्रकाशित होते थे। सन 1953 में अखिल भारतीय पण्डित महापरिषद्, धर्मसंघ दुर्गाकुण्ड काशी, से इस पत्रिका का प्रकाशन पुनश्च आरंभ हुआ। इसके संरक्षक श्री. पण्डित रामयश त्रिपाठी थे तथा सम्पादक मण्डल में सर्वश्री महादेव शास्त्री, दीनानाथ शास्त्री, रामगोविन्द शुक्ल, सीताराम शास्त्री और बालचन्द दीक्षित थे। पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य धर्मप्रचार था। चार पृष्ठों वाली इस मासिक पत्रिका में सैद्धान्तिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विषयों से सम्बद्ध सामग्री प्रकाशित होती थी। इसका वार्षिक मूल्य चार रुपये था तथा यह प्रति सोमवार को प्रकाशित होती. थी। यह पत्रिका 1960 तक प्रकाशित हुई। आर्थिक समस्या के कारण यह बन्द हुई। पंडितसर्वस्वम् - ले. हलायुध । ई. 12 वीं शती। पिता- धनंजय। पतंजलिचरितम् - ले. रामचन्द्र दीक्षित। आठ सर्गों के इस महाकाव्य में व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि का चरित्र वर्णन किया है। यह कवि अठारहवीं शताब्दी के तंजौर-अधिपति सरफोजी भोसले का आश्रित था। पतितत्याग-विधि- ले. दिवाकर। विषय- धर्मशास्त्र । पतितसंसर्गप्रायश्चित्तम् - तंजौर के राजा सरफोजी भोसले के तत्त्वावधान में पंडितों की परिषद द्वारा प्रणीत । पतितोद्धार-मीमांसा - ले. म.म. कृष्णशास्त्री घुले, नागपुरनिवासी। छात्रावस्था में लिखित निबंध। अन्य धर्म में गए हिन्दुओं को वापिस अपने धर्म में लेना योग्य है वह मत इसमें प्रतिपादन किया है।। पत्रपरीक्षा- ले. विद्यानन्द । जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। पथ्यापथ्य-विनिश्चय - ले. विश्वनाथ सेन । पदचन्द्रिका - ले. बृहस्पति मिश्र (अपरनाम रायमुकुट)। अमरकोश पंजिका पर भाष्य। रचनाकाल- सन 1431 । पदचन्द्रिका - ले. दयाराम । पदभूषणम् - ले, रघुनाथ शास्त्री पर्वते। विषय- भगवद्गीता की टीका। पदवाक्यरत्नाकर - गोकुलनाथ। ई. 17 वीं शती। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /177 For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदमंजरी- ले. हरदास मिश्र । यह काशिका की व्याख्या है। पदरत्नावली - ले. विजयध्वजतीर्थ । ई. 15 वीं शती। (पूर्वार्ध) द्वैतमत संप्रदाय के मुख्य भागवत- व्याख्याकार। भागवत की यह टीका इस संप्रदाय के टीकाकारों का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें अंकित अनेक ज्ञातव्य बातें टीका-लेखक के जीवन पर प्रकाश डालती हैं। पदरत्नावली बडी प्रगल्भ कृति है। इसमें अर्थ का विश्लेषण बडी मार्मिकता से किया गया है। भागवत के पथों द्वारा द्वैत के सिद्धान्तों का समर्थन एवं पुष्टीकरण ही लेखक का वास्तविक लक्ष्य है। स्थान-स्थान पर श्रीधर के मत का खंडन करते हुए, मायावाद को निरस्त करने का प्रयास किया गया है। यह संपूर्ण भागवत पर है, बडे उत्साह एवं निष्ठा से विरचित है। इसमें भागवत के पद्यों के लिये उपयुक्त आधारभूत श्रुति का संकेत किया गया है। पदरत्नावली की यह विशेषता उसके प्रणेता के प्रगाढ वैदिक पांडित्य की भी परिचायक है। पदादूतम् - ले. कृष्ण सार्वभौम। समय ई. 18 वीं शती। इस दूतकाव्य की रचना नवद्वीप के राजा रघुरामराय की आज्ञा से हुई थी इस तथ्य का निर्देश कवि ने प्रस्तुत काव्य के अंत में (श्लोक क्र. 46) किया है। इस काव्य में श्रीकृष्ण के एक पदाङ्क को दूत बना कर किसी गोपी द्वारा कृष्ण के पास संदेश भेजा गया है। प्रारंभ मे श्रीकृष्ण के चरणांक की प्रशंसा की गई है और यमुनातट से लेकर मथुरा तक के मार्ग का वर्णन किया गया है। इसमे कुल 46 छंद हैं। एक श्लोक शार्दूलविक्रीडित छंद का है और शेष छंद मंदाक्रांता के हैं। पदार्थखण्डनम् - ले. रघुदेव न्यायालंकार । व्याख्यात्मक ग्रंथ। 2) रुद्र न्यायवाचस्पति। 3) ले. गोविंद न्यायवागीश। पदार्थतत्त्वनिरूपणम् - ले. रघुनाथ शिरोमणि । पदार्थतत्त्वनिर्णय - ले. जगदीश तर्कालंकार । पदार्थतत्त्वालोक - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपादभाष्यम्)- ले. प्रशस्तपाद (प्रशस्तदेव) ई. 2 री शती। वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य। चतुर्थ शती का अंतिम चरण। यह ग्रंथ वैशेषिक सूत्रों की व्याख्या न होकर तद्विषयक स्वतंत्र व मौलिक ग्रंथ है। वैशेषिक सूत्र के पश्चात् इसे उस दर्शन का अत्यंत प्रौढ ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ की प्रशस्ति , “प्रशस्तपादभाष्य" के रूप में है। यह वैशेषिक दर्शन का आकरग्रंथ है। इसमें जगत् की सृष्टि व प्रलय, 24 गुणों का विवेचन, परमाणुवाद एवं प्रमाण का विस्तारपूर्वक विवेचन है और ये विषय कणाद सिद्धान्त के बढाव के द्योतक हैं। इस ग्रंथ का 648 ई. में चीनी में अनुवाद हो चुका था। प्रसिद्ध जापानी विद्वान् उई ने इसका आंग्ल भाषा में अनुवाद किया है। इस ग्रंथ की व्यापकता व मौलिकता के कारण इस पर अनेक भाष्य लिखे गये हैं। उनमें से प्रमुख हैं- 1) दाक्षिणात्य शैवाचार्य व्योमशिखाचार्य ने "व्योमवती' नामक भाष्य की रचना की है जो “पदार्थधर्मसंग्रह' का सर्वाधिक प्राचीन भाष्य है। व्योमशिखाचार्य हर्षवर्धन के समसामायिक थे। 2) प्रसिद्ध नैयायिक उदयनाचार्य ने "किरणावली' नामक भाष्य की रचना की है। 3) वंगदेशीय विद्वान् श्रीधराचार्य ने "न्यायकंदली'' नामक भाष्य का प्रणयन किया। उनका समय 991 ई. है। पदार्थमणिमाला - ले. जयराम न्यायपंचानन । पदार्थविवेक-टीका - ले. गोपीनाथ मौनी । पदार्थविवेक-प्रकाश - ले. रामभद्र सार्वभौम। पदार्थसंग्रह - ले. पद्मनाभाचार्य। ई. 16 वीं शती। पदार्थादर्श - ले. रामेश्वरभट्ट। 2) श्रीराघवभट्ट। शारदातिलक की व्याख्या। पद्धतिचन्द्रिका - ले. राघव पण्डित खाण्डेकर । पद्धतिरत्नमाला - ले. राघवानन्द। जालंधर निवासी। श्लोक52561 पद्धतिविवरणम् - ले. मुरारि। श्लोक- 3250। इसमें 12 आह्निक और विविध देव-देवियों की पूजाविधि वर्णित है। पद्मनाभचरितचम्पू - ले. कृष्ण। विषय- तिरु - अनन्तपुर (त्रिवेंद्रम) के देवता श्री पद्मनाभ स्वामी की कथा । पद्मनाभशतकम् - ले. राजवर्म कुलशेखर। त्रावणकोर के अधिपति । ई. 19 वीं शती। पद्मपुराणम् - पुराणों की सूची में इस वैष्णव पुराण का दूसरा क्रमांक है किन्तु देवीभागवत में 14 वां है। इसकी श्लोकसंख्या 55 हजार और कुल अध्याय 641 हैं। इसके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। देवनागरी व बंगाली। पुणे के आनंदाश्रम से सन 1894 ई में बी. एन. मंडलिक द्वारा यह पुराण 4 भागों में प्रकाशित हुआ था। इसमें 6 खंड- 628 अध्याय और 48452 श्लोक हैं। इसके उत्तर खंड में मूलतः 4 ही खंडों का उल्लेख है। 6 खंडों की कल्पना परवर्ती है। "पद्मपराण" की श्लोकसंख्या 55 हजार कही गई है, जब कि "ब्रह्मपुराण" के अनुसार इसमें 59 हजार श्लोक हैं। इसी प्रकार खंडों के क्रम में भी भिन्नता दिखाई देती है। बंगाली संस्करण हस्तलिखित पोथियों में ही प्राप्त होता है जिसमें 5 खंड हैं। 1) सृष्टि खंड- इसका प्रारंभ भूमिका के रूप में हुआ है। इसमें 82 अध्याय हैं। इसमे लोमहर्षण द्वारा अपने पुत्र उग्रश्रवा को नैमिषारण्य में सम्मिलित मुनियों के समक्ष पुराण सुनाने के लिये भेजने का वर्णन है, और वे शौनक ऋषि के अनुरोध पर उपस्थित ऋषियों को पद्मपुराण की कथा सुनाते हैं। इसके इस नाम का रहस्य बताया गया है कि इसमें सृष्टि के प्रारम्भ में कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति का कथन किया 178/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गया था। सृष्टि खंड भी 5 पर्वो में विभक्त है। इसमें इस पृथ्वी को “पद्म" कहा गया है तथा कमल-पुष्य पर बैठे हुए। ब्रह्मा द्वारा विस्तृत ब्रह्माण्ड की सृष्टि का निर्माण करने के संबंध में किये गये संदेह का इसी कारण निराकरण किया गया है कि पृथ्वी कमल है। __ क) पौष्कर पर्व- इस खंड में देवता, पितर, मनुष्य व मुनिसंबंधी 9 प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया गया है। सृष्टि के सामान्य वर्णन के पश्चात् सूर्यवंश का वर्णन है। इसमें पितरों व उनके श्राद्धों से संबंद्ध विषयों का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें देवासुर-संग्राम का भी वर्णन है। इसी खंड में पुष्कर तालाब का वर्णन है जो ब्रह्मा के कारण पवित्र माना जाता है। उसकी, तीर्थ के रूप में वंदना भी की गई है। ख) तीर्थपर्व- इस पर्व में अनेक तीर्थों, पर्वतों, द्वीपों व सप्तसागरों का वर्णन किया गया है। इसके उपसंहार में कहा गया है कि समस्त तीर्थों में श्रीकृक्ण भगवान् का स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है व इनके नाम का उच्चारण करने वाले व्यक्ति सारे संसार को तीर्थमय बना देते है (तीर्थानां तु परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः । तीर्थीकुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः ।। ग) तृतीय पर्व- इस पर्व में दक्षिणा देने वाले राजाओं . का वर्णन किया गया है तथा चतुर्थ पर्व में राजाओं का वंशानुकीर्तन है। ___ अंतिम पंचम पर्व में मोक्ष व उसके साधन वर्णित हैं। इसी खंड में निम्न कथाएं विस्तारपूर्वक वर्णित हैं : समुद्रमंथन, पृथु की उत्पत्ति, पुष्करतीर्थ के निवासियों का धर्म-वर्णन, वृत्रासुर-संग्राम , वामनावतार, मार्कण्डेय व कार्तिकेय की उत्पत्ति, राम-चरित तथा तारकासुर-वध। असुर -संहारक विष्णु की कथा एवं स्कंद के जन्म व विवाह के पश्चात् इस खंड की समाप्ति होती है। __2) भूमिखंड - इसका प्रारंभ सोमशर्मा की कथा से होता है जो अंततः विष्णुभक्त प्रह्लाद के रूप में उत्पन्न हुआ। इसमें भूमि का वर्णन व अनेकानेक तीर्थों की पवित्रता की सिद्धि के लिये अनेक आख्यान दिये गये हैं। इसमें सकुला की एक कथा का उल्लेख है, जिसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार पत्नी भी तीर्थ बन सकती है। इसी खंड मे राजा पृथु, वेन, ययाति आदि के अध्यात्मसंबंधी वार्तालाप तथा विष्णुभक्ति की महनीयता का वर्णन है। इसमें च्यवन ऋषि का आख्यान तथा विष्णु व शिव की एकता विषयक तथ्यों का विवरण है। स्वर्गखंड- इसमें अनेक देवलोकों,देवता, वैकुंठ, भूतों पिशाचों, विद्याधरों, अप्सरा व यक्षों के लोकों का विवरण है। इसमें अनेक कथाएं व उपाख्यान हैं, जिनमें सुप्रसिद्ध शकुंतलोपाख्यान भी है जो "महाभारत" की कथा से भिन्न व महाकवि कालिदास के "अभिज्ञान-शाकुंतल' के निकट है। अप्सराओं व उनके लोकों का वर्णन में राजा पुरुरवा व ऊर्वशी का उपाख्यान भी वर्णित है। इसमें कर्मकांड, विष्णु-पूजापद्धति, वर्णाश्रम-धर्म व अनेक आचारों का भी वर्णन है। 4) पातालखंड- इस में नागलोक का वर्णन है तथा प्रसंगवश रावण का उल्लेख होने कारण इसमें संपूर्ण रामायण की कथा कह दी गई है। रामायण की यह कथा महाकवि कालिदास के "रघुवंश" से अत्यधिक साम्य रखती है। "रामायण" के साथ इसकी समानता आंशिक ही है। इसमें श्रृंगी ऋषि की भी कथा है जो "महाभारत" से भिन्न ढंग से वर्णित है। "पद्मपुराण" के इस खंड में भवभूति कृत "उत्तर-रामचनित्र" की कथा से साम्य रखने वाली उत्तर-रामचरित की कथा वार्णित है। इसके बाद अष्टादश पुराणों का वर्णन विस्तारपूर्वक करते हुए "श्रीमद्भागवत" की महिमा का लोकप्रिय आख्यान किया गया है। 5) उत्तर खंड- यह सबसे बड़ा खंड है। मुद्रित उत्तर खंड के 282 अध्याय हैं जब कि वंगीय प्रति में केवल 172 है। इसमें नाना प्रकार के आख्यानों, वैष्णव धर्म से संबंध व्रतों व उत्सवों का वर्णन किया गया है। विष्णु के प्रिय माघ एवं कार्तिक मास के व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन कर शिव-पार्वती के वार्तालाप के रूप में राम व कृष्ण कथा दी गई है। उत्तर खंड में परिशिष्ट के रूप में "क्रियायोग-सार" नामक अध्याय में विष्णु भक्ति का महत्त्व बतलाते हुए गंगा-स्नान एवं विष्णु संबंधी उत्सवों की महत्ता प्रदर्शित की गई है। उत्तर खंड इस नाम से सी सिद्ध होता है कि यह खंड मूल पुराण को बाद में जोडा गया किन्तु किस काल में इसमें रामानुज के मत का उल्लेख है, अतः इस खंड की रचना रामानुजाचार्य के पश्चात् ही हुई यह स्पष्ट है। प्रस्तुत खंड में द्रविड देश के राजा की कथा है। यह राजा पहले वैष्णव था किंतु शैवों के आग्रही मत के प्रभाव में आकर उसने वैष्णव धर्म का त्याग किया। यही नहीं, उसने अपने राज्य में स्थापित विष्णु की मूर्तियों को उठवाकर फेंक दिया, विष्णु के मंदिर बंद करवा दिये और अपने प्रजाजनों को शैव बनने के लिये बाध्य किया। श्री अशोक चक्रवर्ती नामक एक विद्वान् के मतानुसार यह राजा था चोलवंशीय कुलोत्तुंग (द्वितीय)। शैवों के प्रभाव से वह वीरशैव बना। उसके राज्यारोहण का काल है सन 1133। इससे स्पष्ट होता है कि उत्तरखंड की रचना इस काल के पश्चात् ही हुई होगी। "पद्मपुराण" वैष्णव मत का प्रतिपादन करनेवाला पुराण है जिसमें भगवन्नाम-कीर्तन की विधि व नामापराधों का उल्लेख है। इसके प्रत्येक खंड में भक्ति की महिमा गायी है तथा भगवत्स्मृति, भगवत्तत्त्वज्ञान व भगवत्तत्त्वसाक्षात्कार को ही मूल विषय मानकर उसका व्याख्यान किया गया है- श्राद्धमाहात्म्य, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/179 For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीर्थमहिमा, आश्रमधर्म-निरूपण, नाना प्रकार के व्रत व स्नान, ध्यान व तर्पण का विधान, दानस्तुति, सत्संग का माहात्म्य दीर्घायु होने के सहज साधन, त्रिदेवों की एकता, मूर्तिपूजा, ब्राह्मण व गायत्री मंत्र का महत्त्व, गौ व गोदान की महिमा, द्विजोचित आचार-विचार, पिता एवं पति की भक्ति, विष्णुभक्ति, अद्रोह, पंच महायज्ञों का माहात्म्य, कन्यादान का महत्त्व, सत्यभाषण व लोभत्याग का महत्त्व, देवालयों का निर्माण, पोखरा खुदवाना, देवपूजन का महत्त्व, गंगा, गणेश, व सूर्य की महिमा तथा उनकी उपासना के फलों का महत्त्व, पुराणों की महिमा, भगवन्नाम, ध्यान, प्राणायाम आदि। साहित्यिक दृष्टि से भी इस पुराण का महत्त्व असंदिग्ध है। इसमे अनुष्टुप् के अतिरिक्त बडे-बडे छंद भी प्रयुक्त किये गये हैं। ___ "पद्मपुराण" के कालनिर्णय के संबंध में विद्वानों में एकमत नहीं है। "श्रीमद्भागवत" का उल्लेख, राधा के नाम की चर्चा, रामानुज मत का वर्णन आदि के कारण इसे रामानुज का परवर्ती माना जाता है। अशोक चॅटर्जी के अनुसार इसमें राधा के नाम का उल्लेख हितहरिवंश द्वारा प्रवर्तित “राधावल्लभ संप्रदाय" का प्रभाव सिद्ध करता है। इस संप्रदाय का समय ई. 16 वीं शती है। अतः “पद्मपुराण" का उत्तरखंड 16 वीं शताब्दी के बाद की रचना है। विद्वानों का कथन है कि "स्वर्गखंड' में शकुंतला की कथा महाकवि कालिदास से प्रभावित है तथा इस पर "रघुवंश" व "उत्तर-रामचरित" का भी प्रभाव है। अतः इसका रचनाकाल 5 वीं शती के बाद का है। कालिदास ने 'पद्मपुराण' के आधार पर ही "अभिज्ञान-शाकुंतल'' की रचना की थी, न कि उनका "पदमपुराण' पर ऋण है। इस पुराण के रचनाकाल व अन्य तथ्यों के अनुसंधान की अभी पूरी गुंजाइश है। अतः इसका समय अधिक अर्वाचीन नहीं माना जा सकता। पद्मपुराणम् (पद्मचरितम्) - ले. रविषेण । संस्कृत भाषा में लिखे गए इस जैन पुराण में राम को पद्म नाम है। उन्हें आठवा "बलभद्र" भी कहते हैं। इस ग्रंथ में उन्हीं का चरित्र वर्णित है। रविषेण ने अपने संघ अथवा गण-गच्छ का उल्लेख कहीं पर भी नहीं किया है उनके स्थान का भी निश्चय नहीं हो पाता है किंतु उनके सेन शब्दान्त नाम से अनुमान होता है कि वे सेन संघ के होंगे। उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा, इन्द्र सेन, दिवाकर सेन, अर्हत्सेन व लक्ष्मण सेन ऐसी बताई है। प्रस्तुत पुराण में अंकित राम का चरित्र वाल्मीकि रामायण के अनुसार नहीं है। वह जैन संकेतों के अनुसार है। पद्मपुराण की कथा संक्षेप में इस प्रकार है :- राक्षस वंश का रत्नश्रवा नामक एक राजा पाताल में राज्य करता था। उसकी केकसी (कैकसी) नामक रानी थी। उसे चार संताने थी। उनके नाम थे- रावण, कुंभकर्ण, चंद्रनखा और बिभीषण। राजा ने रावण । का दूसरा नाम रखा था दशानन । एक दिन रावण को अपनी मां से विदित हुआ कि पहले उसके पिता (रत्नश्रवा) लंका के राजा थे किंतु रावण के मौसेले भाई वैश्रवण विद्याधर ने रत्नश्रवा से लंका का राज्य छीन लिया। इसी लिये तब से हम लोगों को पाताल लोक में दिन बिताने पड़ रहे हैं। यह सुनकर रावण वैश्रवण का द्वेष करने लगा। उसने विद्यासंपादन द्वारा सामर्थ्यशाली बनने का निश्चय किया। वन में जाकर वह तपस्या करने लगा। जंबुद्वीप में रहने वाले एक यक्ष ने रावण की अनेक प्रकार से परीक्षा ली। उन परीक्षाओं मे सफल होकर रावण ने अनेक विद्याएं हस्तगत की। फिर उसका मंदोदरी से विवाह हुआ। मंदोदरी के अतिरिक्त, रावण ने 6 हजार अन्य कन्याओं से भी विवाह किए। चन्द्रनखा का विवाह हुआ खरदूषण से और उसे शंबूक नामक एक पुत्र हुआ। आगे चलकर रावण ने वैश्रवण से युद्ध करते हुए उसे लंका के बाहर खदेडा और अपने पैतृक राज्य लंका पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। फिर वैश्रवण के पुष्पक विमान में बैठकर रावण से अपनी दक्षिण दिग्विजय संपन्न की। वाली और सुग्रीव नामक दो भाई थे। वे विद्याधर थे, वानर नहीं। रावण द्वारा पराजित होने पर वाली ने सुग्रीव को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं दिगंबर दीक्षा ग्रहण की। हनुमान् थे चरमशरीरी एक महापुरुष। प्रारंभ में वे रावण के मित्र थे। उन्होंने रावण का पक्ष लेते हुए वरुण के विरुद्ध युद्ध किया और विजय प्राप्त होने पर रावण की बहिन चंद्रनग्न, की कन्या अनंगसुकुमा से विवाह किया। एक दिन रावण को विदित हुआ कि उसकी मृत्यु दशरथ व जनक की संतति के हाथों होने वाली है। अतः उन दोनों का वध करने हेतु रावण ने अपने भाई विभीषण को भेजा। किंतु इस बात की सूचना नारद ने उन्हें पहले ही दे दी थी। अतः दशरथ व जनक ने अपना एक एक पुतला बनवाकर अपने अपने महल में रखवा दिया था। उन पुतलों को ही दशरथ व जनक समझकर बिभीषण ने उन दोनों का शिरच्छेद किया और तदनुसार रावण को सूचना दी। तब रावण निश्चिंत हुआ। अयोध्या के राजा दशरथ को कौशल्या, सुमित्रा व सुप्रभा तीन रानीयां थी। एक बार देशभ्रमण करते हुए वे संयोगवश कैकयी के स्वयंवर मे जा पहुंचे। उन्हें देखते ही कैकयी ने उन्हीं के गले मे वरमाला डाली। तब स्वयंवर हेतु एकत्रित अन्य राजागण बौखला उठे। उनके व दशरथ के बीच घमासान युद्ध हुआ। उस युद्ध मे कैकयी ने दशरथ के रथ का सफल संचालन किया। कैकयी के साहस व चातुर्य को देख दशरथ प्रसन्न हुए। उन्होंने कैकयी को वरदान दिया। कैकयी ने कहा उन्हें आप अपने राजभांडार में सुरक्षित रहने दीजिये। जब आवश्यकता पडेगी मैं वह मांग लूंगी। ___ आगे चलकर राजा दशरथ के चार पुत्र हुए - कौशल्या से राम (या पद्य) सुमित्रा से लक्ष्मण, कैकयी से भरत और 180/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खार For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुप्रभा से शत्रुघ्न । उधर राजा जनक की रानी विदेहा को सीता नामक एक कन्या और भामंडल नामक एक पुत्र हुआ। किन्तु जनक के एक शत्रु ने भामंडल का प्रसूतिगृह से अपहरण किया। इसके पास से भामंडल एक विद्याधर को प्राप्त हुआ। उसे ने भामंडल का पालनपोषण किया। एक दिन नारद ने भामंडल को कुछ चित्र दिखाए। उनमें सीता का भी चित्र था। उस चित्र में सीता के रूपलावण्य को देख भामंडल सीता पर अनुरूक्त हो उठा। सीता उसकी बहन है यह बात उसे विदित नहीं थी। अतः उसने अपने पालक विद्याधर से कहा कि उसका विवाह सीता के साथ हो। विद्याधर कपट द्वारा जनक को अपने लोक में ले आया और बोला तुम अपनी कन्या सीता का विवाह मेरे पुत्र भामंडल से कराओ। जनक ने विद्याधर के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए बताया- " मै सीता का विवाह दशरथ-पुत्र राम से करने के लिये वचनबद्ध हूं।" तब विद्याधर ने कहा- “ तुम अपनी सीता के विवाह के लिये वज्रावर्त नामक धनुष्य पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त रखो। यदि राम शर्त पूरी करे तो सीता उसे प्राप्त हो सकेगी। अन्यथा हम सीता का बलपूर्वक हरण करेंगे। तब अन्य कोई उपाय न देख, जनक ने उक्त शर्त के साथ सीता स्वयंवर का आयोजन किया। राम ने शर्त जीती और उनका विवाह सीता से हुआ। पश्चात् भरत व . लक्ष्मण के विवाह भी उसी मंडप में संपन्न हुए। बारात के अयोध्या आने पर, दशरथ अपना राज्य राम को सौंपने के लिये सिद्ध हुए। किन्तु ठीक उसी समय कैकयी आडे आई। उसने अपने सुरक्षित वर द्वारा भरत को राजगद्दी दिये जाने की इच्छा व्यक्त की। उसकी इच्छा पूरी करने के लिये दशरथ बाध्य थे। अतः राम, लक्ष्मण और सीता वनवास हेतु दक्षिण दिशा की ओर चल पडे। किंतु बाद में कैकयी • को अपनी करनी पर पश्चात्ताप हुआ और भरत को साथ लेकर वह राम से मिलने वन में गई। उसने राम से बडा आग्रह किया कि वे अयोध्या लौट चले किन्तु राम ने भरत का ही राज्याभिषेक करते हुए उन्हें अयोध्या लौटाया। वनवास की अवधि में राम-लक्ष्मण ने अनेक युद्ध किये। एक स्थान पर उन्होंने सिंहोदर चन्द्र से वज्रकर्ण की रक्षा की। दूसरे स्थान पर उन्होंने वालखिल्य को म्लेच्छ राजा के कारागृह से मुक्त किया। बीच की कालावधि में अमितवीर्य नामक राजा ने भरत पर आक्रमण किया। राजा को इसकी सूचना मिलते ही उन्होंने गुप्त रूप से वहां पहुंचकर भरत की रक्षा की। वनवास की अवधि मे, लक्ष्मण और सीता, दंडकारण्य पहुंचे तथा कर्णरवा नदी के तट पर रहने लगे। वहां पर सीता ने राम को जैन मुनियों के दर्शन कराए और उन्हें भोजन परोसा। चन्द्रनखा का पुत्र शंबूक सूर्यहास खड्ग की सिद्धि के हेतु वेणुवन मे विगत बारह वर्षों से तपस्या में रत था। एक दिन वह खङ्ग उसके सम्मुख प्रकट हुआ। संयोगवश उसी समय लक्ष्मण वहां पहुचे और उन्होंने शंबुक के पहले उस खङ्ग को हस्तगत कर लिया। फिर उस खड्ग की परीक्षा लेने हेतु लक्ष्मण ने उसे वेणुवन पर चलाया। उससे वन के सभी वेणु (बांस) कट गये और उनके साथ शंबूक भी मारा गया। चन्द्रनखा जब उसका भोजन देने के लिये वहां पहुंची तो उसे अपने पुत्र का शव दिखाई दिया। उसे उस दुर्घटना का सारा हाल भी विदित हुआ। वह बडी दुखी हुई। उसने राम और लक्ष्मण से बदला लेने की ठानी। अतः मायावी कन्या का रूप धारण कर वह उनके पास पहुंची और उनसे प्रेम की याचना की। किंतु राम और लक्ष्मण ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब उसने अपने पति खरदूषण को पुत्र निधन की वार्ता जा सुनाई। खरदूषण ने क्रुद्ध होकर रावण के साथ राम व लक्ष्मण पर आक्रमण किया। युद्ध में खरदूषण मारा गया परंतु रावण को सीता का हरण करने में सफलता, प्राप्त हुई। लंका पहुंच कर रावण ने सीता को देवारण्य नामक उद्यान में रखा और वह नित्यप्रति उससे प्रेम याचना करने लगा। खरदूषण को मार कर जब राम अपने आश्रम (पर्णकुटी) में लौटे तो वहां सीता को न पाकर बड़े दुखी हुए। फिर सीता की खोज करते हुए राम और लक्ष्मण दक्षिण की ओर बढने लगे। किष्किंधा पहुंचने पर उनकी भेंट सुग्रीव से हुई। राम ने सुग्रीव से मित्रता की। उसी समय साहसगति नामक एक विद्याधर सुग्रीव का मायावी रूप धारण कर उसके राज्य व उसकी पत्नी पर अपना अधिकार जताने लगा। अतः राम ने उसका वध किया। तब सुग्रीव राम का भक्त बना। साथ ही अपनी तेरह कन्याएं देकर उसने राम को अपना जामाता (दामाद) भी बना लिया। फिर सुग्रीव के आदेश पर उसके विद्याधर सैनिक सीताजी की खोज करने के लिये चल पडे। उनमें से रत्नजटी नामक विद्याधर इस कार्य में सफल हुआ किन्तु सीता का हरण रावण ने किया है यह विदित होने पर, सभी विद्याधर सहम उठे क्यों कि रावण था उस समय का एक महाबली सत्ताधीश। अतः प्रश्न उठा कि उसका वध कौन कर सकेगा। तभी सुग्रीव आदि को एक बात का स्मरण हो आया। पहले एक बार अनंतवीर्य नामक केवली (साधु) ने बताया था की जो व्यक्ति कोटि शिला को उठा सकेगा वही रावण का वध कर सकता है। तब वे सभी कोटि शिला के समीप गये। लक्ष्मण ने उस शिला को उठा दिया। रावण का वधकर्ता अपने बीच में है यह जानकर सभी को आनंद हुआ। फिर राम का संदेश लेकर हनुमान् लंका गए और सीताजी से मिले। उन्होंने राम की मुद्रिका भी सीता को दी। सीता की प्रतिज्ञा थी, कि जब तक राम का समाचार नहीं मिलता, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 181 For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तब तक वे अन्नोदक ग्रहण न करेंगी। अतः राम का संदेश प्राप्त होने पर सीताजी हर्षित हुई। उन्होंने अन्न और जल ग्रहण किया। तत्पश्चात् लंकानगरी को काफी हानि पहुंचा कर हनुमान्जी राम की ओर लौटे। फिर विद्याधरों की सेना के साथ राम आकाश-मार्ग से लंका पहुंचे। रावण को समाचार विदित हुआ। राम का सामना करना उसे भी कठिन प्रतीत हो रहा था। अतः युद्ध से पूर्व बहुरूपिणी विद्या साध्य करने हेतु वह आसनस्थ हुआ। उसकी विद्या-सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने का विद्याधरों ने प्रयत्न किया किन्तु विविध प्रकार की बाधाओं में भी अडिग रहकर रावण ने वह विद्या साध्य कर ली। इस बीच राम की सेना ने लंका को चारों ओर से घेर लिया। लक्ष्मण की प्रेरणा से अनेक विद्याधरों ने लंका में प्रविष्ट होकर उपद्रव प्रारंभ कर दिये।। रावण द्वारा किया गया सीता का हरण बिभीषण अन्यायपूर्ण मानता था। वह चाहता था कि रावण अभी भी सन्मार्ग पर आवे, सीता को राम के हवाले करे और लंका पर छाए संकेट को टाले। तदनुसार उसने रावण को पुनः समझाने का प्रयास किया। परंतु रावण ने बिभीषण के हितोपदेश पर ध्यान देने के बदले, उसकी निर्भत्सना ही की। तब रावण का पक्ष छोडकर बिभीषण राम की और जा मिला। फिर उभय पक्षों की सेनाओं में तुमुल युद्ध प्रारंभ हुआ। रावण हजार हाथियों के ऐन्द्र नामक रथ पर आरूढ होकर अपनी सेना के अग्रभाग पर रहा। रावण की और से लड़ने वाले मंदोदरी के पिता मयासुर को राम ने अपने बाण से विद्ध किया। तभी लक्ष्मण ने आगे बढकर, रावण को युद्ध के ललकारा। उस युद्ध में रावण द्वारा छोडी गई शक्ति से मूर्छित होकर लक्ष्मण धराशायी हुए। तब राम विलाप करने लगे। यह समाचार अयोध्या में भी फैल गया। सुनकर अयोध्यावासी दुखी हुए। तब कैकयी ने विशल्या नामक एक कुमारी को लंका भेजा। उसके नानजल के स्पर्श मात्र से लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई। तब लक्ष्मण ने उसी स्थान पर विशल्या से विवाह किया। रावण और लक्ष्मण के बीच पुनः युद्ध प्रारंभ हुआ। लाख प्रयत्न करने पर भी लक्ष्मण को पराभूत न होता देख रावण ने उस पर सूर्य के समान तेजस्वी एक चक्र फेका। परन्तु लक्ष्मण को आघात करने के बदले उस चक्र ने वही चक्र रावण पर फेंका। उस अमोध चक्र के प्रहार से रावण तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ। रावण के अंत के साथ ही युद्ध की समाप्ति हुई। लंका के सैनिकों तथा लंकावासियों में भगदड मच गई। मंदोदरी सहित राज्य की 18 हजार रानियां रणक्षेत्र में आकर विलाप करने लगीं। राम ने उन सभी को समझाकर शांत किया। फिर जीवन की नश्वरता का ज्ञान होने पर इन्द्रजित, मेघवाहन कुंभकर्ण, मंदोदरी प्रभृति ने जिनदीक्षा ली। मंदोदरी जैन आर्यिका बनी। फिर राम ने धूमधाम के साथ लंका में प्रवेश किया। देवारण्य में जाकर वे सीताजी से मिले। उस समय आकाश में एकत्रित देवताओं व विद्याधरों ने राम और सीता पर पुष्पवृष्टि की। पश्चात् सीता को साथ लेकर राम रावण के महल में गए और वहां के शांतिनाथ जिनालय में जाकर उन्होंने शांतिनाथ की स्तुति की। फिर राम ने बिभीषण का राज्याभिषेक किया। राम और लक्ष्मण लंका में 9 वर्षों तक रहे। उस अवधि में उन्होंने अपनी सभी विवाहित स्त्रियों को लंका में बुलवा लिया और उनके साथ विलास-सुखों का उपभोग किया। इधर अयोध्या में राम की बाट जोहते हुए कौशल्या थक चुकी थी। सुमित्रा को भी अपने पुत्र लक्ष्मण का वियोग असह्य हो उठा था। नारद को उन दोनों की इस अवस्था का अनुभव हुआ। वे अयोध्या से लंका गए और उन्होंने विलास में निमग्न राम और लक्ष्मण को उनकी माताओं का विरह दुःख कथन किया। तब वे दोनों अयोध्या को लौटने का विचार करने लगे। बिभीषण ने केवल सोलह दिन और रूकने की उनसे प्रार्थना की। राम ने उसकी बात मान ली। इस अवधि में बिभीषण ने भरत को राम और लक्ष्मण का कुशल समाचार सूचित करने के साथ ही विद्याधर- कारीगरों के द्वारा अयोध्या नगरी का नूतनीकरण भी करा दिया। तब सभी के साथ राम पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या पधारे। उस प्रसंग पर कुलभूषण केवली वहां पर आए। उनके शुभागमन से सर्वत्र प्रसन्नता छा गई। केवली ने दर्शनार्थ आये राम को जैन धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने भरत को भी उनके पूर्व जन्म की बात बताई। उसे सुनते ही भरत का वैराग्य इतना प्रवृत्त हो उठा कि उन्होंने उसी क्षण दिगंबर-दीक्षा धारण कर ली। उस दुःख से कैकयी को अपना जीवन भारभूत प्रतीत हुआ और उसने भी जैन आर्यिका की दीक्षा स्वीकार की। फिर सब राजाओं ने एकत्रित होकर राम और लक्ष्मण दोनों का राज्याभिषेक किया। राम ने उन राजाओं को अलग अलग प्रदेश बांट दिये। इस प्रकार की समुचित व्यवस्था करने के पश्चात् राम स्वस्थ चित्त से अपने राज्य का उपभोग करने लगे। कुछ समय पश्चात् अयोध्या की प्रजा में सीता के चरित्रसंबंधी लोकापवाद प्रसारित हुआ। उस समय सीताजी गर्भवती थीं किन्तु लोकापवाद से बुरी तहर भयभीत राम ने अपने कृतांतवस्त्र नामक सेनापति को आदेश दिया कि वह सीता को वन में छोड आए। सेनापति जिन-मंदिरों के दर्शन के बहाने सीता को गंगा नदी के पार ले गया और वहां उसने उन्हें राम का आदेश सुनाया। सुनकर सीता मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ी। परन्तु थोडी देर बाद उन्होंने सचेत होकर राम के लिये संदेश 182/ सम्बत वाताग कोण - गंश स्वाट For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिया “आपने मेरा त्याग किया वह ठीक है किंतु किसी भी स्थिति में जैन धर्म का त्याग न करना"। सीता का संदेश लेकर मेनापति लौट पडा। सीता वहीं पर बैठी विलाप करती रही। संयोगवंश उसी समय पुंडरीकपुर के राजा वज्रजंघ वहां पहुंचे। सीता का विलाप सुनकर वे द्रवित हो उठे। उन्होंने सीता की सांत्वना की, उन्हें अपनी बहन माना और उनको अपने महल में ले गए। नौ मास पुरे होने पर, सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया। उनके नाम रखे गए- अनंगलवण और लवणांकुश। राजा वज्रजंघ के महल में सीता का पदार्पण होने के कारण उनका राज्य वैभव वृद्धिंगत हुआ था। अतः अपनी 32 कन्याएं अनंगलवण को देने का उन्होंने निश्चय किया। लवणांकुश की वधू नियोजित की गई पृथु राजा की कन्या कनकमाला। सीता के उभय पुत्रों को धनुर्विद्या में पारंगत बनाकर वज्रजंघ ने उनके द्वारा दिग्विजय संपन्न कराये। एक दिन नारद पुंडरीकपुर पहुंचे और उन्होंने दोनों कुमारों को बताया कि वे राम के पुत्र हैं। नारद ने राम का चरित्र भी उन्हें विस्तारपूर्वक सुनाया। यह विदित होने पर कि राम ने उनकी माता को गर्भिणी होते हुए भी अन्यायपूर्वक वन में एकाकी छोड दिया, दोनों कुमार क्रोध से भर उठे। वज्रजंघ की सेना लेकर उन्होंने अयोध्या पर धावा बोल दिया। उनका और राम का घनघोर युद्ध छिड गया। किसी भी शस्त्र के प्रयोग से उनका पराभव न होता देख राम को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी सिद्धार्थ नामक एक व्यक्ति ने वहां पहुंच कर राम को बताया कि जिनसे वे युद्ध कर रहे हैं, वे उन्हीं के पुत्र है। यह जानकर राम को बडी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शस्त्र का त्याग कर दोनों कुमारों को गले लगाया। इससे सारा वातावरण आंनद में बदल गया। तत्पश्चात् सभी लोगों की प्रार्थना पर राम ने सीता को वहां बुलवाया और अपने विशुद्ध चारित्र्य के प्रमाणस्वरूप अग्नि-परीक्षा देने को कहा। सीता उस परीक्षा हेतु प्रस्तुत हुई। पंच-परमेष्ठियों का स्मरण कर वह अग्निकुंड में कूद पडी। दूसरे ही क्षण वह अग्निकुंड, . जलकुंड में परावर्तित हुआ और उससे बहने वाले तीव्र जल-प्रवाह में उपस्थित लोग डूबने लगे। सर्वत्र हाहाकार मच गया। तब राम द्वारा उस जल को पद-स्पर्श किया जाते ही वह प्रवाह शांत हुआ और उपस्थित जनों को उस संकट से मुक्ति मिली। फिर अपने दोनों कुमारों के सम्मुख राम ने सीता से क्षमा-याचना की और अपने साथ राजमहल चलने की प्रार्थना की किन्तु सीताजी को अब वैराग्य प्राप्त हो चुका था। अतः वे पुनः वन में गई और वे तपःप्रभाव से अच्युत स्वर्ग में प्रविष्ट हुई। फिर कुछ ही दिनों पश्चात् लक्ष्मण ने देहत्याग किया। किन्तु उन्हें स्वर्ग के बदले नर्क प्राप्त हुआ। राम ने भी वैराग्य प्राप्त कर तपस्या प्रारंभ की। कुछ ही दिनों में क्षपणक की श्रेणी प्राप्त करते हुए वे केवली बने। सीता के जीव ने नर्क में जाकर लक्ष्मण के जीव को देखा। उसने धर्मोपदेश करते हुए लक्ष्मण के जीव के प्रति सहसंवेदना व्यक्त की। लक्ष्मण के जीव को नर्क से बाहर निकालने का भी प्रयास किया। परंतु सीता का जीव इस कार्य में सफल न हो सका। अल्प काल में पश्चात् राम ने निर्वाण प्राप्त किया। ___संस्कृत भाषा में लिये गए प्रस्तुत पद्मरित (पद्मपुराण) तथा प्राकृत भाषा के "पउमचरिय' की कथा एक जैसी है। दोनों ग्रंथों को पढने पर यह भी स्पष्ट होता है कि इनमें से एक ग्रंथ, दूसरे ग्रंथ का अनुवाद है। तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल ग्रंथ कौन सा है और अनूदित किसे माना जाएं। इस प्रश्न पर पौर्वात्य तथा पाश्चात्य विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है। उन सभी के तर्क-वितकों को ध्यान रखते हुए श्री. नाथूलाल प्रेमी ने जो विवेचन किया, उसका सारांश इस प्रकार है : "प्राकृत से संस्कृत में अनूदित किया गया प्राचीन जैन साहित्य विपुल मिलता है किन्तु इतने बड़े संस्कृत ग्रंथ का प्राकत में अनुवाद किये जाने का उदाहरण एक भी नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त उपरोक्त दोनों ग्रंथों में से पउमचरित्र में यदि संक्षेप परिलक्षित होता है, तो पद्मचरित में विस्तार दिखाई देता है। इन तथा इन्हीं प्रकार के अन्य अनेक अंतर्गत प्रमाणों के आधार पर मानना पडता है कि श्री. रविषेण ने प्राकृत के 'पउमचरिय' का ही पद्मपुराण के नाम से संस्कृत में विस्तारपूर्वक अनुवाद किया है।" पद्मपुष्पांजलिस्तोत्रम् - ले- श्रीशंकराचार्य । श्लोक- 2001 पद्मावती-परिणयचम्पू - ले- श्रीशैल। पद्यचूडामणि - ले- बुद्धघोष। भगवान् बुद्ध के चरित्र का चित्रण करने वाला यह महाकाव्य है। बौद्धधर्म का प्रसार तथा प्रचार इस काव्य का उद्देश्य है। 10 सर्ग। मद्रास से 1921 में सटीक प्रकाशित। पद्यपंचरत्नम् (काव्य) - ले- सुब्रह्मण्य सूरि । पद्यपीयूषम् - ले- रामानन्द। ई. 17 वीं शती। पद्यपुष्पांजलि - मूल कतिपय चुने हुवे अंग्रेजी काव्य । अनुवादकर्ता- प्राचार्य व्ही. सुब्रह्मण्य अय्यर । पद्यमुक्तावली - ले- गोविन्द भट्टाचार्य। ई. 17 वीं शती। शाहजहां के मंत्री आसफखान की प्रशस्ति । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण। पद्यमुक्तावली - ले- श्रीभट्ट मथुरानाथ शास्त्री। पद्यवाणी - कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली यह पत्रिका अब बंद है। पद्यावली - ले- रूप गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार विष्णुभक्तिपर पद्यों का यह संग्रह है। परब्रह्मप्रकाशिका - ले- रघूत्तमतीर्थ । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 183 For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परब्रह्मोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध यह नव्य उपनिषद् गद्य-पद्यमिश्रित है। इसमें पिप्पलाद अंगिरस् ने शौनक को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया है। पिप्पलाद कहते हैं- ब्रह्मविद्या, देवताओं तथा प्राणों से भी श्रेष्ठ है। प्रणवहंस ही ब्रह्म है। जीव भी प्रणवरूरूप ही है। ब्रह्मज्ञानप्राप्त संन्यासी का जीव-ब्रौक्य हुआ करता है। इस प्रकार के संन्यासी का शिखा-सूत्र ज्ञानमय होता है। बहिःसूत्र का त्याग करते हुए वह स्वान्तःसूत्र धारण करता है। परभूप्रकरणम् - ले- बाबदेव आठल्ये। विषय महाराष्ट्र की परभू (या प्रभु) जाति का आधारधर्म । (2) नीलकण्ठ सूरि । परभूप्रकरणम् - ले- गोविन्दराय। ई. 18 वीं शती। शिवाजी के पौत्र शाहूजी के राज्य काल में जब बालाजी बाजीराव पेशवा थे, गोविंदराय राजलेखक एवं शाह के प्रिय थे। इसमें बाबदेव आठले की निंदा कपटी कहाडा (कव्हाड विभाग में रहने वाला) ब्राह्मण इस शब्दों में की है। परमलघुमंजूषा - ले-नागेश भट्ट । व्याकरण विषयक महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रंथ। परमशिवगृहिणी-पूजनादिमार्ग - श्लोक- 2000। 16 विश्रामों में पूर्ण। परमशिवसहस्रनाम - उमायामल के अन्तर्गत हर-गौरी संवादरूप। परमसंहिता - पांचरात्र तत्त्वज्ञान विषयक साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसके 31 अध्याय हैं और उनमें सृष्टि की उत्पत्ति, दीक्षाविधि, पूजा के प्रकार एवं योग का निरूपण है। इस संहिता के उद्धरण रामानुजाचार्य ने अपने श्रीभाष्य में लिये हैं। परमहंसचरितम् - ले- नवरंग। जैनाचार्य । परमहंसपचांगम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत । इसमें परमहंसपटल (चैतन्यानन्द विरचित) परमहंस-पद्धति (रुद्रायामलान्तर्गत) परमहंससहस्रनाम (प्रजापति भैरव- संवादरूप) परमहंसस्तोत्र और परमहंसकवच वर्णित हैं। परमहंसकवच परमहंस के नामों का श्लोकात्मक संग्रह है जिससे शरीर के विभिन्न अवयवों की रक्षा तथा रोगनिवृत्ति की जाती है। परमहंसपद्धति - रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप ग्रंथ । श्लोक- 192। विषय- परमहंस (परब्रह्म परमात्मा) की पूजाप्रक्रिया। आरंभ में उपासक के प्रातःकालीन कर्त्तव्यों का निर्देश किया गया है। परमहंस-परिव्राजक-धर्मसंग्रह - ले- विश्वेश्वर सरस्वती। यह यति धर्मसंग्रह है। आनन्दाश्रम प्रेस, पुणे में प्रकाशित। परमहंस-परिव्राजकोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध यह नव्य उपनिषद् गद्यात्मक है। इसके वक्ता-आदिनारायण और श्रोता हैं ब्रह्मदेव। संन्यास की पात्रता प्राप्त करने की विधि का विवरण इस उपनिषद् में है। तीनों ही आश्रमों के कर्त्तव्यों को पूरा करने के पश्चात् ही संन्यासाश्रम का स्वीकार करना चाहिये अथवा वैराग्य उत्पन्न होने की स्थिति में- 'यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्' अर्थात् जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो उसी दिन संन्यास लिया जाये, ऐसा बताया गया है। फिर ब्रह्म व ओंकार का अभेद से वर्णन किया गया है। परमहंससंध्योपासनम् - ले- शंकराचार्य। परमहंसोपनिषद् - शुक्ल यजुर्वेद से संबद्ध यह नव्य उपनिषद, पूर्णतः गद्यात्मक है। यह संन्यासपरक उपनिषद् श्रीकृष्ण ने नारद को कथन किया है इसमें परमहंस का जीवनक्रम बताया गया है। परमहंस की स्थिति को प्राप्त करने वाला संन्यासी सभी व्यावहारिक बातों से विरक्त होता है। उसकी सभी इंद्रियों की गति निश्चल होती है, और वे इंद्रियां उसकी आत्मा में ही स्थिरता प्राप्त करती हैं। उसे, "ब्रह्मैवाहमस्मि' अर्थात् मैं ब्रह्म ही हूं" की भावना का अनुभव होता रहता है। उसे दंड धारण करने की भी आवश्यकता नहीं रहती। परमागम-चूडामणि - (नामान्तर परमागमचूडामणिसंहिता) नारद पंचरात्र के अंतर्गत पटल 95। नारद पंचरात्र में निम्न लिखित संहिताएं अंतर्भूत हैं लक्ष्मीसंहिता, ज्ञानामृतसारसंहिता, परमागमचूडामणिसंहिता, पौष्करसंहिता, प्राप्तसंहिता, बृहद्ब्रह्मसंहिता। इनके अतिरिक्त सात्वतसंहिता तथा परमसंहिता का भी उल्लेख है। परमात्मराजस्तोत्रम् - ले- सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता-कर्णसिंह। माता शोभा। परमात्मसहस्रनामावली - ले- बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रनिवासी संत। परमात्मस्तव - ख्रिस्तधर्मीय अंग्रेजी स्तोत्रों का पद्यात्मक संस्कृत अनुवाद । मिशन मुद्रण, अलाहाबाद द्वारा प्रकाशित । ई. 1853 । परमानन्दतन्त्रम् - देवी-भैरव संवादरूप ग्रंथ। 25 उल्लासों में पूर्ण । विषय तंत्रों का अवतरण, तंत्रभेदों का निर्णय, श्रीविद्या का स्वरूपनिर्देश और बाला का मंत्रोद्धार।। परमानन्दतंत्र-टीका - (अपरनाम- सौभाग्यानन्दसंदेह) लेखकमहेश्वरानन्दनाथ। श्लोक- 12001 परमार्थदर्शनम् - ले- म.म. रामावतार शर्मा । काशी में प्रकाशित । परमार्थसंग्रह - (नामान्तर परमार्थसारसंग्रह) लेअभिनवगुप्ताचार्य। शलोक- 104। परमार्थसप्तति - ले- वसुबन्धु । विन्ध्यवासीकृत सांख्यसप्तति का खण्डन कर अपने गुरु बुद्धमित्र के पराजय का बदला लेखक ने इस ग्रंथ द्वारा चुकाया है। परमार्थसार - (नामांतर- आधारकारिका) ले- अभिनवगुप्त । इस पर अभिनवगुप्त तथा वितस्तापुरी निर्मित दो टीकाएं है। वितस्तापुरी निर्मित टीका का नाम 'पूर्णाद्वयमयी" है। विषय 184/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शैवतंत्र। परमार्थसारसंग्रह-विवृत्ति - मूलकार-अभिनवगुप्त तथा । विवृत्तिकार- क्षेमराज। परमावटिक -यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । परमेशस्तोत्रावली - ले- उत्पलदेव। इस पर क्षेमराज कृत अद्वयस्तुतिसृक्ति नामक व्याख्या है। विषय- शैवतंत्र।। परमेश्वर-संहिता - ले- पाचरात्र-साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसमें सात्त्वत-विधि का वर्णन है। यह संहिता द्वापर युग के अंत में संकर्षण द्वारा प्रवृत्त हुई ऐसा कहा गया है। परमेश्वरीदासाब्धि - (या स्मृतिसंग्रह) ले- होरिलमिश्र । परलोकसिद्धि - ले- धोत्तराचार्य। ई. 9 वीं शती । परशुरामकल्पसूत्रम् - श्लोक- 600। परशुरामकल्पसूत्रवृत्ति - (अपर नाम सौभाग्योदय) लेरामेश्वर । श्लोक- 50001 परशुरामचरितकाव्यम् - ले-हेमचंद्र राय कविभूषण। जन्म 1882। परशुरामप्रकाश - ले- खंडेराय । पिता-वाराणसी के धर्माधिकारी नारायण पण्डित। यह दो उल्लासों में आचार एवं श्राद्ध पर निबंध है। गोमती पर यमुनापुरी में संग्रहीत। शाकद्वीपीय कुलावतंस होरिलमिश्र के पुत्र परशुराम की आज्ञा से प्रणीत आचारार्क एवं स्मृत्यर्थसागर में वर्णित । माधवीय एवं मदनपाल का इसमें उल्लेख है। समय- सन् 1400-1600 के बीच । परशुरामप्रताप - ले- सांबाजी प्रतापराज। पिता- पण्डित पद्मनाभ। ये भट्ट कूर्म के शिष्य एवं निजामशाह के आश्रित थे। इस में कम से कम आह्निक जातिविवेक, दान, प्रायश्चित्त, संस्कार, राजनीति एवं श्राद्ध का विवेचन है। इस पर बोपदेवकृत श्राद्धकाण्डदीपिका (या श्राद्धदीपकलिका) नामक टीका है। पराख्यतंत्रम् - श्लोक- 2000। शतरत्नसमुच्चय में निर्दिष्ट । परातंत्र - पार्वती-ईश्वर संवादरूप। पटल 4। विषय- पूर्वाम्नाय, दक्षिणाम्नाय, उत्तराम्नाय, ऊर्ध्वाम्नाय आदि छह आम्नायों का प्रतिपादन। परात्रिंशिका - ले-अभिनवगुप्त । विषय- शैवतंत्र। इस पर सोमेश्वर विरचित व्याख्या है। परानन्दमतम् - विषय- तंत्रमार्ग के परानंद- सम्प्रदाय के दृष्टिकोण का प्रतिपादन। पराप्रसादपद्धति - (नामान्तर-क्रमोत्तम): ले- निजात्मप्रकाशानन्द । श्लोक- 5001 पराशर-स्मृति - ले- पराशर । गरुडपुराण में (अध्याय 107) इस स्मृति के 39 श्लोक समाविष्ट हैं, जिससे इसकी प्राचीनता का पता चलता है। कौटिल्य ने भी पराशर के मत का 6 बार उल्लेख किया है। इसका प्रकाशन कई स्थानों से हुआ है पर माधव की टीका के साथ मुंबई संस्कृत माला का संस्करण अधिक प्रामाणिक है। इसमें 12 अध्याय व 592 श्लोक हैं। संक्षेपतः इसकी विषयसूची इस प्रकार है- (1) पराशर द्वारा ऋषियों को धर्म-ज्ञान देना, युगधर्म व चारों युगों का विविध दृष्टिकोण से अंतर्भेद, स्नान, संध्या, जप, होम, वैदिक अध्ययन, देवपूजा, वैश्वदेव तथा अतिथि-सत्कार, क्षत्रिय वैश्य व शूद्र की जीविकावृत्ति के साधन । (2) गृहस्थधर्म । (3) जन्म व मरण से उत्पन्न अशुद्धि का पवित्रीकरण (4) आत्महत्या दरिद्र मूर्ख या रोगी पति को त्यागने पर स्त्री को दंड, स्त्री का पुनर्विवाह । पतिव्रता नारियों के पुरस्कार। (5) कुत्ता काटने पर शुद्धि (6) पशु-पक्षियों, शूद्रों, शिल्पकारों, स्त्रियों, वैश्यों व क्षत्रियों को मारने पर शुद्धीकरण, पापी ब्राह्मण-स्तुति। (7) धातु काष्ठ आदि के बर्तनों की शुद्धि। (8) रजोदर्शन के समय नारी। (9) गाय बैल को मारने के लिये छडी की मोटाई। (10) वर्जित नारियों से संभोग करने पर चांद्रायण या अन्य व्रत से शुद्धि। (11) चाण्डाल का अन्न खाने पर शुद्धि व खाद्याखाद्य के नियम (12) दुःस्वप्न देखने, वमन करने, बाल बनवाने आदि पर पवित्रीकरण तथा पांच स्नान। पराशरस्मृति पर माधवाचार्य, गोविंदभट्ट (ई. 1500 से पूर्व) नन्दपंडित (विद्वन्मनोहरा), वैद्यनाथ पायगुंडे, कामेश्वरयज्वा और भार्गवराय की टीकाएं हैं। पराशरोदितम् - ले- पराशर । ई. 8 वीं शती। पराशरोदित-केवलसार - ले-पराशर । पराशरोदित- वास्तुशास्त्रम् - ले- पराशर । पराशरोपपुराणम् - ले- पराशर । परिणयमीमांसा - ले-के.जी. नटेशशास्त्री। परिणाम (रूपक) - ले- चूडामणि भट्टाचार्य। श. 20 काठमाण्डू में 1954 में प्रकाशित। अंकसंख्या- सात। विषययुरोपीय सभ्यता में पली युवा पीढी की पतनोन्मुखता का चित्रण। परिभाषामण्डलम् (नामान्तर- ललितासहस्रनाम)- लेनृसिंहयज्वा। श्लोक- 300। परिभाषाविवेक - ले- वर्धमान । पिता- बिल्वपंचक कुल के भवेश। समय- 1460-1500 ई। विषय- नित्य नैमित्तिक एवं काम्य कर्म, कर्माधिकारी, प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्म, आचमन, स्नान, पूजा, श्राद्ध, मधुपर्क, दान आदि। परिभाषावृत्ति (ललितावृत्ति) - ले-पुरुषोत्तम देव। समय ई. 11 वीं शती से 13 वीं शती। (2) ले- सीरदेव। ई. 13 वीं शती का प्रथम चरण) पाणिनीय पारिभाषिक शब्दावली पर वृत्ति । इस पर गोविन्द शर्मा द्वारा लिखित भाष्य खण्डशः उपलब्ध है। (3) ले- रामचन्द्र विद्याभूषण। ई. 17 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 185 For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह 'मुग्धबोध' की टीका है। (4) ले- सीरदेव।। परिभाषावृत्तिव्याख्यानम् - ले-रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोण निवासी। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण । परिभाषेन्दुशेखर - ले- नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट। मातासती। ई. 18 वीं शती। पाणिनीय व्याकरण का यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है। "शेखरन्तं व्याकरणम्" यह उक्ति इस ग्रंथ की महत्ता सूचित करती है। व्याकरण की 130 परिभाषाओं की चर्चा इस ग्रंथ में हुई है। इस की निम्न लिखित टीकाएं प्रसिद्ध है :- (1) वैद्यनाथ पायगुंडे कृत "गदा" (2) भैरवमित्रकृत भैरवी (3) उदयशंकर पाठक कृत पाठकी (4) हरिनाथकृत अंकांडताण्डवम् (5) मन्तुदेवकृतदोषोद्धरण। (6) भीमभट्टकृत भैमी। (7) शंकरभट्टकृत "शांकरी" (8) लक्ष्मीनृसिंहकृत 'त्रिशिखा। (9) विष्णुशास्त्री भट्टकृत "विष्णुभट्टी" (19) शिवनारायणशास्त्री कृत "विजया" और गुरुप्रसादशास्त्री कृत "वरवर्णिनी"। नागपुर के प्रसिद्ध न्यायाधीश रावबहादूर नारायण दाजीबा वाडेगावकर ने इस ग्रंथ का विवरणात्मक अनुवाद मराठी में किया है। प्रकाशक- उद्यम प्रेस, नागपुर। परिवर्तनम् (रूपक)- ले. कपिलदेव द्विवेदी। सन 1966 में लखनौ से प्रकाशित। रचना - सन 1950 में। कथासार - कन्या के विवाह में अत्यधिक व्यय होने पर शंकर अपना घर किसी सेट को बेचता है। कुंए तथा सीढी की आय पर जीविका चलाने को पत्नी से कहकर शंकर मुंबई जाता है। वहां से लौटने पर विदित होता है कि सेठ ने कुआं भी हथिया लिया है। न्यायालय सेट के पक्ष में निर्णय देने वाला है, इतने में आकाशवाणी प्रभाव से न्यायाधीश उसे पंचायत भेजता है जहां शंकर के पक्ष में निर्णय होता है। परिशिष्टदीपकलिका - ले. शूलपाणि।। परिशुद्धि - ले. उदयनाचार्य । ई. 10 वीं शती (उत्तरार्ध)। परीक्षापद्धति - ले. वासुदेव। विश्वरूप, यज्ञपार्श्व, मिताक्षरा, शूलपाणि पर आश्रित धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ । विषय- न्यायालयीन दिव्यपरीक्षा। समय- 1450 ई. के पश्चात्। परीक्षामुखम् (सूत्रग्रंथ) - ले. जैन नैयायिक माणिक्यनंदी। जैनन्याय के अध्येताओं के लिये अत्यंत उपयोगी ग्रंथ। इस ग्रंथ पर प्रभाचंद्र की व्याख्या है। पर्जन्यप्रयोग - ले.हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती। पिता- कामदेव। पर्णालपर्वत-ग्रहणाख्यानम्- ले. जयराम पिण्ड्ये। ई. 17 वीं शती। इसमें पांच प्रकरणों का संवादरूप आख्यान द्वारा छत्रपति श्री. शिवाजी महाराज के जीवन चरित्र के कतिपय प्रसंगों का वर्णन तथा उस युद्ध का वर्णन है, जिसके द्वारा शिवाजी के सैनिकों ने पन्हाळगढ़ नामक दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी। इस आख्यान से उस समय की अनेक घटनाएं प्रकाश में आती हैं। शिवाजी महाराज व समर्थ गुरु रामदास की पारस्पारिक भेंट विषयक जानकारी भी इस आख्यान द्वारा प्राप्त होती है। शिवाजी द्वारा दूसरी बार की गई सूरत शहर की लूट से लेकर शिवाजी के एक सेनापति प्रतापराव गजर और बहलोलखान के बीच हुए युद्ध तक का, अर्थात् सन 1670 से लेकर सन 1674 तक का कथा भाग भी इस आख्यान में समाविष्ट है। शिवाजी की युद्धनीति का परिचय इस ग्रंथ में ठीक होता है। शिवाजी के पिता राजा शाहजी की स्तुति में राधा माधवविलासचंपू नामक काव्यग्रंथ के लेखक श्री. जयराम पिण्ड्ये, इस आख्यान के रचयिता हैं। श्री. के.व्ही. लक्ष्मणराव के मतानुसार कवि जयराम कर्नाटक के (बंगलोर स्थित) शासक शाहजी, उनके उत्तराधिकारी (व शिवाजी के सौतेले भाई) एकोजी तथा छत्रपति शिवाजी, इन तीनों के आश्रित कवि रहे थे। राधामाधवविलासचंपू के समान ही प्रस्तुत पर्णालपर्वतग्रहण आख्यान का भी ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद माना गया है। पर्यन्तपंचाशिका - ले. अभिनवगुप्ताचार्य। विषय- मन्त्रों एवं मुद्राओं का रहस्य। पर्यायोक्तिनिस्यन्द (काव्य)- ले. रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी। ई. 17 वीं शती। पर्वनिर्णय - ले. गणपति रावल। पिता- हरिदास। पितामहरामदास (औदीच्य गुर्जर एवं गौडाधीश मनोहर द्वारा सम्मानित) । विषय- दर्श एवं पूर्णिमा के यज्ञों एवं श्रादों के सृचित कालों पर विवेचन। रचनासमय- 1685-86 ई.। पलंग - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा। पलंग आचार्य पूर्वदेशीय थे। पलपीयूषलता - ले. मदनमनोहर । पिता- मधुसूदन। विषयविभिन्न प्रकार के मांसों का धार्मिक विधि में उपयोग। 7 अध्यायों का ग्रंथ। पलाण्डुमण्डनम् (प्रहसन)- ले. हरिजीवन मिश्र। ई. 17 वीं शती। विषय- लिङ्गोजी भट्ट की दूसरी पत्नी चिन्चा के गर्भाधान संस्कार के अवसर पर आये हुए अशास्त्रीय भोजी पलाण्डुमण्डन, लशुनपन्त आदि की कथा।। पल्लवदीपिका - ले. श्रीकृष्ण विद्यावागीश भट्टाचार्य। श्लोक196 | विषय- मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन आदि को विधियां। पल्लीकमल - ले. डॉ. रमा चौधुरी। श. 20। "प्राच्यवाणी" द्वारा अभिनीत । ग्रामीण परिवेश में परिहास । पटपरिवर्तन (फ्लॅश बेक) द्वारा पूर्वकथा दर्शाने का तन्त्र । संगीत का बाहुल्य । एकोक्तियों का प्रभावी प्रयोग "अंक" के स्थान पर "दृश्य"। दृश्यसंख्या- नौ। कथासार - नायिका कमलकलिका नायक रूपकुमार पर आसक्त है परंतु माता उसका विवाह मार्तण्ड के साथ कराना चाहती है। नायिका छुपकर नायक से मिलती है जिसे मार्तण्ड देख लेता है और स्वैरिणी मानकर उसके पिता 186/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर भूमिकर न देने का आरोप लगाता है। निराश पिता नायिका की रत्नमाला बेचने प्रभंजन (मार्तण्ड के पिता) के पास जाता है। रत्नमाला को देखकर रहस्य खुलता है कि नायिका वास्तव में मार्तण्ड की बचपन मे खोयी बहन थी जिसे ब्रह्मपद ने पाला था। अन्त में नायिका का रूपकमार के साथ मिलन होता है। पल्लीछवि - ले. उपेन्द्रनाथ सेन। ई. 20 वीं शती। आधुनिक पद्धति का उपन्यास। पल्लीविधानकथा - ले. श्रुतसागरसुनि । जैनाचार्य। ई.16 वीं शती। पल्लीव्रतोद्यनम् - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 वीं शती। पवनदूतम् - ले. कविराज धोयी। ई. 12 वीं शती के बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि थे। “पवनदूत" की कथा इस प्रकार है- गौड देश के नरेश लक्ष्मण सेन दक्षिण -दिग्विजय करते हुए मलयावल तक पहुंचते है। वहां कनकनगरी में रहने वाली कुवलयवती नामक अप्सरा उनसे प्रेम करने लगती है। राजा लक्ष्मण सेन के अपनी राजधानी लौट जाने पर वह अप्सरा उनके विरह में तडपने लगती है। वसंत ऋतु के आगमन पर वह वसंतवायु को दूत बनाकर अपना विरहसंदेश भिजवाती है। कवि ने मलय पर्वत से बंगाल तक के मार्ग का अत्यंत ही मनोरम वर्णन किया है जो कवित्वमय व आकर्षक है तथा राजा लक्ष्मण सेन की राजधानी विजयपुर का वर्णन करते हुए कुवलयवती की अवस्था का वर्णन अंकित किया है। अंत में कुवलयवती का संदेश है। इस संदेशकाव्य में मंदाक्रांता छंद में कुल 104 श्लोक हैं। अंतिम 4 श्लोकों में कवि ने स्वयं का परिचय दिया है। इसमें "मेघदूत" की भांति पूर्वभाग व उत्तर भाग नहीं हैं, मेघदूत का अनुकरण करते हुए भी कवि ने नूतन उद्भावनाएं की है। सर्वप्रथम म.म.हरप्रसाद शास्त्री ने इसके अस्तित्व का विवरण स्वरचित संस्कृत हस्तलिखित पोथियों के विवरण विषयक ग्रंथ के प्रथम भाग में दिया था। पश्चात् 1905 ई. में मनमोहन घोष ने इसका एक संस्करण प्रकाशित किया किंतु वह एक ही हस्तलेख पर आधत होने के कारण भ्रष्ट पाठों से युक्त था। अभी कलकत्ते से इसका शुद्ध संस्करण प्रकाशित हुआ है। 2) ले. वादिचन्द्रसृरि। गुजरात के निवासी। गुरु- ज्ञानभूषण भट्टारक। समय 17 वीं शती के आसपास। इस काव्य में मेघदूत के अनुकरण पर कुल 101 श्लोक मंदाक्रांता छंद में लिखे हैं। इसमें कवि ने विजयनरेश नामक उज्जयिनी के एक राजा का वर्णन किया है जो अपनी पत्नी के पास पवन द्वारा संदेश भेजता है। विजयनरेश की पत्नी तारा को अशनिवेग नामक विद्याधर हरण कर ले जाता है। रानी के वियोग मे दुःखित होकर राजा पवन के द्वारा उसके पास संदेश भेजता है। पवन उसके पास जाकर उसे राजा का संदेश देता है और अशनिवेग की सभा में जाकर तारा को उसके पति को लौटाने की प्रार्थना करता है। विद्याधर उसकी बात मानकर तारा को पवन के हाथ सौंप देता है। इस प्रकार तारा अपने पति के पास आ जाती है। "पवन-दूत' का, हिंदी अनुवाद सहित, प्रकाशन हिन्दी जैन-साहित्य प्रकाशिका कार्यालय, मुंबई से हो चुका है।। 3) ले. सिद्धनाथ विद्यावागीश। पवनविजय (या स्वरोदय)- ईश्वर- पार्वती संवादरूप ग्रंथ । श्लोक- 494। विषय- इसमें दाहिनी और बायी नासिका से निकली श्वास वायु से युद्ध, वशीकरण, रोग आदि कतिपय कार्यों में शुभाशुभ फल का ज्ञान होता है, यह प्रतिपादित है। पशुबंधसूत्रम् - ले. कात्यायन। विषय- कर्मकाण्ड। पाकयज्ञनिर्णय (नामान्तर पाकयज्ञपद्धति)- ले. चन्द्रशेखर । पिता- उमाशंकर (उमणभट्ट) ई. 16-17 वीं शती। पाकयज्ञनिर्णय - ले. पशुपति । पाकयज्ञप्रयोग - ले. शम्भुभट्ट। पिता- बालकृष्ण। ई. 17 वीं शती। आपस्तम्ब धर्मसूत्र का अनुसरण इस ग्रंथ में किया है। पाखण्डधर्मखण्डनम् (रूपक)- ले. दामोदर। रचनाकाल1636 इसवी। ऋषि-आश्रम, सारङ्गपुर, अहमदाबाद से ब्रह्मर्षि हरेराम पण्डित द्वारा 1931 ई. में प्रकाशित। तीन अंकों की नाटकसदृश इस रचना में संवाद प्रायः पद्यात्मक हैं। अभिनयोचित सामग्री की कमी है। कथानककलि के प्रभाव से धार्मिक प्रवृत्तियों को दूषित होते देख घृणा के परवश होकर यह नाटक लिखा गया। इसमें क्रमशः जैन मतावलम्बी, सौगत, वल्लभ, वैष्णव, श्रुति धर्म और अन्त में कलि का राजदूत आता है और अपने अपने पंथ की इनमें से प्रत्येक व्यक्ति प्रशंसा करता है। पाखण्ड की निर्भर्त्सना के पश्चात् सद्धर्म का उपदेश है। पाखंडमतखंडनम् - ले. विश्वास भिक्षु। ई. 14 वीं शती। काशी निवासी। पांचरात्र-संहिता - पांचरात्र संप्रदाय की साहित्यिक संपत्ति विपुल है किन्तु अभी तक उसका बहुत ही अल्प अंश प्रकाशित हुआ है। प्रकाशित अंश भी दक्षिण भारत में तेलग लिपि में ही अधिक है। नागरी लिपि में प्रकाशित पांचरात्र ग्रंथ बहुत कम हैं। कपिजल-संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों के निर्देशानुसार पांचरात्र संहिताओं की संख्या 215 है। इनमें अगस्त्य-संहिता, काश्यप-संहिता, नारदीय-संहिता, वासुदेव-संहिता, विश्वामित्र-संहिता आदि मुख्य हैं। किन्तु इनमें से निम्न 16 संहिताएं ही अब तक प्रकाशित हुई हैं 1) अहिर्बुध्यसंहिता- (नागरी)- अड्यार लाईब्रेरी मद्रास, 1916 (तीन खंडों में) 2) ईश्वरसंहिता- (तेलगु)- सद्विद्या प्रेस, मैसूर 1890 । (नागरी) सुदर्शन प्रेस कांची, 1932 । संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/187 For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3) कपिजलसंहिता - (तेलगु) मद्रास । 4) जयाख्या संहिता- (नागरी) - गायकवाड ओरियंटल सीरीज, नं. 54 बडौदा, 1931।। 5) परमसंहिता- (नागरी) वही, बडौदा, 19401 6) पारणाशरसंहिता (तेलगु) बंगलोर, 1898 । 7) पद्मतंत्र- (तेलगु) मैसूर, 1924 । 8) बृहद्ब्रह्मीसंहिता- (तेलगु) तिरुपति 1909। (नागरी) आनंदाश्रम संस्कृत सीरीज, पुणे 19261 9) भारद्वाजसंहिता- (तेलगु)- मैसूर । 10) लक्ष्मीतंत्र- (तेलगु)- मैसूर 1888 | 11) विष्णुतिलक- (तेलगु) 1896 । 12) विष्णुसंहिता- (नागरी)-अनंतशयन-ग्रंथमाला, त्रिवेंद्रम, 19261 13) शांडिल्यसंहिता- (नागरी) सरस्वती भवन टेक्स्ट सीरीज, काशी 14) श्रीप्रश्नसंहिता- (तेलगु)- कुंभकोणम् 1904 । 15) सात्वतसंहिता- (नागरी) सुदर्शन प्रेस, कांची, 1902 । 16) नारदपांचरात्र (नागरी) कलकत्ता। 1890 । इन संहिताओं के निर्देश तथा उद्धरण श्रीवैष्णव मत के आचार्यों ने अपने ग्रंथों मे बडे आदर के साथ अपनाए हैं। पांचाली स्वयंवरचम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । केरलवासी। पाटलश्री - पटना से प्रकाशित होने वाली इस शोधप्रधान पत्रिका में साहित्य, धर्म, आदि विषयों के निबन्ध प्रकाशित होते हैं। पांडवचरितम् (महाकाव्य)- ले. देवप्रभ सूरि । जैनकवि। ई. 13 वीं शती। इस महाकाव्य की रचना 18 सों में हुई है जिसमें अनुष्टुप् छेद में महाभारत की कथा का संक्षेप में वर्णन है। पाण्डवचरितम् - ले. लक्ष्मीदत्त। श्रीलक्ष्मीनारायण राय के आश्रित राजपण्डित। सर्ग संख्या-211 विषयानुक्रम सर्ग। 1) पाण्डवोत्पत्ति। 2) शस्त्रशिक्षा। 3) एकचक्रानिवास। 4-5) द्रौपदीपरिणय। 6-7) निसर्गवर्णन (खाण्डववनदाह) 8) राजसूयवर्णन। 9) द्यूतक्रीडा। 10) अर्जुनविद्यालाभ। 11) स्वर्गवर्णन। 12) निवातकवचसंहार। 13) तीर्थपर्यटन। 14) भीम अलकापुरी से कृष्ण के लिए सुवर्ण सौगंधिका लाता है।15-16) विराट नगरवास। 16) विराट-गोग्रहण। 18) युद्धोद्योग। 19) अभिमन्यु-वध। 20) पाण्डवविजय। 21) हिमालय-प्रस्थान। संपूर्ण महाकाव्य की श्लोकसंख्या 17151 दशमसर्ग की पुष्पिका में कवि का नाम लक्ष्मीनाथ लिखा है। प्रयाग के गंगानाथ झा केंद्रीय विद्यापीठ के शोधछात्र राधेश्याम ने प्रस्तुत महाकाव्य पर शोध प्रबंध लिखा है। 2) ले, म.म. दिवाकर। 14 सगों का महाकाव्य। इसमें पाणिनीय सूत्रों के उदाहरण विशेषतः दिए गए हैं। पाण्डवपुराणम् - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 वीं शती। 2) ले. वादिचंद्र सूरि । गुजरात निवासी । ई. 16 वीं शती। पाण्डवविजयम् (काव्य) - ले. हेमचंद्राचार्य( हेमचंद्र राय) कविभूषण। जन्म - 1882 । पांडवाभ्युदयम् - ले, चित्रभानु । पाणिग्रहणम् - ले. आर. कृष्णम्माचार्य। पिता- रंगाचार्य । पाणिग्रहणादिकृत्यविवेक - ले. मथुरानाथ (रघुनाथवागीश) विषय- धर्मशास्त्र। पाण्डित्य-ताण्डवितम् (रूपक)- ले. प्र. बटुकनाथ शर्मा । प्रथम प्रकाशन “वल्लरी" में, तदनंतर काशी की "सूर्योदय" पत्रिका के अगस्त 1972 के अंक में। शृंगारविरहितप्रहसन । पात्रों के नाम गुणानुसार दण्डधर, हलधर, कैयट-कैरव, साहित्यसैरिभ, कृदन्तदत्त, तद्धितदत्त, प्रचण्डस्फोट आदि। शब्दप्रयोगों द्वारा हास्योत्पादकता इसमें है। कथासार- हलधर मिश्र का शिष्य दण्डधर सभी मूर्ख पण्डितों को पराजित करता है। उसे काशी में कतिपय शिष्य मिलते हैं। पाणिनिप्रभा - ले. देवेन्द्र बंद्योपाध्याय। ई. 19 वीं शती। यह पाणिनीय व्याकरण की व्याख्या है। पाणिनीय-शिक्षा - शब्दोच्चारण के यथार्थ ज्ञान के लिये रचित सूत्रात्मक ग्रंथ । अर्वाचीन श्लोकात्मक शिक्षा का रचयिता अन्य व्यक्ति है, पर इसका आधार यह पाणिनीय शिक्षासूत्र है। मूल पाणिनिरचित शिक्षासूत्रों का पुनरुद्धार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बड़े परिश्रम से किया, तथा वर्णोच्चार शिक्षा के नाम से ई. 1879 में हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित किया। पाणिनीय श्लोकात्मक शिक्षा पर दो टीकाएं लिखी हैं- 1) शिक्षाप्रकाश 2) शिक्षा पंजिका। शिक्षाप्रकाशकार के अनुसार वर्तमान श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा का रचयिता पाणिनि का कनिष्ठ भ्राता पिङ्गल है। इस शिक्षा के दो पाठ हैं। लघु या याजुष पाठ- 35 श्लोक। बृहत् या आर्षपाठ- 60 श्लोक। उपरि निर्दिष्ट दोनों टीकाएं लघुपाठ पर हैं। पातसारिणीटीका - ले. दिनकर। विषय- ज्योतिषशास्त्र । पाताण्डनीय - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा। पातिव्रत्यम् - ले. आर. कृष्णम्माचार्य । पिता- परवस्तु रंगाचार्य । पात्रकेसरीस्तोत्रम् (जिनेद्रगुणसंस्तुति)- ले. पात्रकेसरी। ई. 6-7 वीं शती। पात्रशुद्धि - ले. हरिहर। पादपदूतम् - ले. गोपेन्द्रनाथ गोस्वामी। पादांकदूतम् - ले. श्रीकृष्णसार्वभौम। ई. 17 वीं शती। बंगाल के राजा रघुनाथ की आज्ञा से रचित भक्तिपर दूतकाव्य । पादुकाविजयम् - ले. पं.सुदर्शनपति। उत्कल के इतिहास पर आधारित नाटक। पादुकासहस्त्रावतार-कथासंग्रह - ले, रंगनाथाचार्य । 188 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पादुकोदयम् - ले. महेश्वरानन्द (अपरनाम- गोरख)। पाद्मतन्त्रम् (नामान्तर-पाद्मसंहिता या पांचरात्रोपरिषद्)श्लोक 9000। यह कण्व तथा कण्वाश्रमवासी ऋषियों का संवादरूप ग्रंथ है। यह तंत्र कण्व को संवर्त से प्राप्त हुआ था। इसके ज्ञान, योग, क्रिया और चर्या ये चार पाद हैं। ज्ञानपाद 12 अध्यायों में, योगपाद 5 अध्यायों में, क्रियापाद 32 अध्यायों में एवं चर्यापाद 33 अध्यायों में पूर्ण है। पान्थदूतम् - ले. भोलानाथ गंगटिकरी। पारमात्मिकोपनिषद् - एक नव्य वैष्णव उपनिषद् । इस उपनिषद् में विष्णु को परब्रह्म बताते हुए उनके विषय में निम्न विवेचन किया गया है : श्री विष्णु के षडक्षर , अष्टाक्षर एवं द्वादशाक्षर मंत्र पारमात्मिक हैं। इनमें से षडक्षर मंत्र विष्णुपरक है और अष्टाक्षर मंत्र नारायणपरक है। विष्णु से कोई भी बड़ा नहीं। भक्तों के लिये वे अवतार लेते हैं, इस लिये उन्हें भव कहते हैं। सूर्य व चंद्र का तेज उन्हींका है। उन्होंने रुद्र पर भी अनुग्रह किया है। उनकी तीन मूर्तिया, तीन गुण तथा तीन । पद प्रसिद्ध हैं। वे ही ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं। ऋषि मुनि यज्ञ द्वारा उन्हींकी उपासना करते हैं। समस्तप्रकृति (सृष्टि) उनकी आज्ञा में है। काम के रूप में वे ही प्राणिमात्र के मन को सुख प्रदान करते हैं। उन्होंने अनेक अवतार धारण किए। वे जलशायी हैं और लक्ष्मीजी उनके वक्ष पर विश्राम करती है। पारमितासमास - ले. आर्यशूर। नवीन अनुसंधान कर्ताओं द्वारा प्रकाश में लाई हुई रमणीय रचना। मूल प्रति नेपाल राजकीय पुस्तकालयत में सुरक्षित। प्रतिलिपि तथा अनुवाद इटली में भी सम्पन्न। इस ग्रंथ में दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, तथा प्रज्ञा, इन पारमिताओं का वर्णन 6 समासों में किया गया है। इन समासों के नाम दानपारमिता आदि हैं। रचना 364 श्लोकों की है तथा सरल सुबोध शैली में है। पारमिता का अर्थ नैतिक तथा आध्यात्मिक पूर्णता अथवा पारंगतता है। इस पारंगतता का प्रतिपादन इस ग्रंथ में है तथा दर्शन जातकमाला की कथाओं में होता है। आर्यशूर का दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ है बोधिसत्वावदानमाला। पारमेश्वरतन्त्रम् - श्रीकण्ठी के अनुसार यह अष्टदश रुद्रागमों मे अन्यतम है। पारमेश्वरसंहिता - श्लोकसंख्या लगभग- 8000। दो काण्डज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड। प्रथम ज्ञानकाण्ड 9 अध्यायों में और दूसरा क्रिया काण्ड 25 अध्यायों में पूर्ण है। पारसिक-प्रकाश- ले. विहारीकृष्णदास। ई. 17 वीं शती। संस्कृतश्लोकों द्वारा पारसिक भाषां की शब्दावली का परिचय। पारस्कर-गृह्यकारिका- ले. रेणुकाचार्य। पिता- सोमेश्वगत्मज महेशसूरि। ई. 12 वीं शती। पारस्करगृह्यसूत्रम् (कातीय अथवा वाजसनेय गृह्यसूत्रम्)शुक्ल यजुर्वेद का पारस्कररचित एक गृह्यसूत्र। इसमें विवाह, गर्भाधान आदि संस्कार तथा कृषि का प्रारंभ, विद्याध्ययन, श्रावणी, गृह-निर्माण वृषोत्सर्ग, श्राद्ध आदि विषयों का तीन खंडों में विवेचन है। आद्याक्षर देकर जो श्लोक अथवा उद्धरण दिये हैं वे सभी शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा से लिये हुए हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र की टीकाएं-1) नन्दपंडितकृत- अमृतव्याख्या। ई. 15 वीं शती। 2) भास्करकृत - अर्थभास्कर। 3) वेदमिश्रकृत- प्रकाश। 4) रामकृष्णकृत- संस्कारगणपति। 5) जयराम (पिता-बलभद्र, मेवाड निवासी ) कृत सज्जनवल्लभा । 6) कामदेवकृत- परिशिष्ट (काण्डिका पर भाष्य)। अन्य टीकाकार हैं 7) गदाधर (पिता- वामन) ई. 16 वीं शती । 8) भर्तृयज्ञ (ई. 14 वीं शती) 9) वागीश्वरदत्त 10) वासुदेव दीक्षित। 11) विश्वनाथ (पिता- नृसिंह) ई. 17 वीं शती। 12) हरिशर्मा। ये सारी टीकाएं अन्यान्य स्थानों पर प्रकाशित हुई हैं। स्टेजलर द्वारा यह ग्रंथ लिपजिग में अनेक टीकाओं के सहित प्रकाशित हुआ है। गुजराती प्रेस, मुंबई द्वारा सन 1917 में प्रकाशित। पारस्करगृह्यसूत्रपद्धति - ले. कामदेव । 2) ले. भास्कर। 3) वासुदेव। पारस्करगृह्यपरिशिष्टपद्धति - ले. कामदेव दीक्षित (विषय - कूपादिप्रतिष्ठा (गुजरात प्रेस में मुद्रित)। पारस्करमंत्रभाष्यम् - ले. मुरारि । पारस्करश्राद्धसूत्रवृत्यर्थसंग्रह - ले. उदयशंकर । परमानन्दसूत्रम् - श्लोक 20001 पारायणोपनिषद् - अथर्ववेद (सौभाग्य काण्ड) से संबद्ध एक नव्य शैव उपनिषद् । इसका प्रारंभ रुद्र- गायत्री मंत्र से होता है। पश्चात् गायत्री मन्त्र के साथ एक बीजाक्षर मंत्र का पारायण तथा कालनित्य का स्तवन किया जाये ऐसा बताया गया है। यह भी कहा गया है कि देवी-सहस्रशीर्ष का 200 बार जप करने से साधक पारायणी बनता है और उसे वाणी पर प्रभुत्व प्राप्त होता है। पाराशर - यजुर्वेद की एक लुप्तशाखा। पाराशर (धर्मसंहिता) - ले. पाराशर। ई. 5 वीं शती । इस संहिता या स्मृति का उपक्रम निम्न प्रकार किया गया हैएक बार कुछ ऋषि व्यासजी के पास गये और उन्होंने उनसे कलियुग में मानव जाति का कल्याण साध्य करने वाले आचारधर्म के विषय में जानकारी चाही। तब व्यासजी उन्हें अपने पिता पाराशर के पास बदरिकाश्रम में ले गए। वहां पर पराशरजी ने उन ऋषियों को चार वर्णों के धर्म बताये। इस स्मृति के प्रारंभिक चार अध्यायों में उन्नीस स्मृतियों के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /189 For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम दिये हैं और आदेश दिया है कि कृत, त्रेता, द्वापर और कृष्ण ने प्रद्युम्न सात्यकि और सत्यभामा के साथ गरुड पर कलि चार युगों में क्रमशः मनु, गौतम, शंखलिखित तथा आरूढ होकर इन्द्र पर चढाई कर दी और उन्हे परास्त कर पराशर की स्मृतियों को प्रमाण माना जाये। प्रस्तुत स्मृति में स्वर्ग लोक से पारिजात वृक्ष का हरण किया। इस महाकाव्य समाविष्ट विषय हैं- चार युगों के धर्म, विविध दृष्टिकोण से में संपूर्ण भारतवर्ष का वर्णन करते हुए कवि ने सांस्कृतिक इन चार युगों के बीच का अंतर, षट्कर्म, अतिथिसत्कार, एकता का परिचय दिया है। इस महाकाव्य का प्रकाशन क्षत्रिय वैश्य व शूद्रों के निर्वाह के साधन, कलियुग में गृहस्थों मिथिला, संस्कृत विद्यापीठ, दरभंगा से 1956 ई. में हो चुका है। के कर्त्तव्य, जननमरणाशौच की शुद्धि, दरिद्री, मूर्ख, अथवा 2) ले. रघुनाथ। तंजौर के नायकवंशीय अधिपति । रोगी पति का त्याग करने वाली पत्नी को सजा, स्त्रियों का 3) ले. गोपालदास। पुनिर्विवाह, श्वान-दशादि की शुद्धि, चांडालादि द्वारा मारे गए पारिजातहरणम् (नाटक) - ले. रमानाथ शिरोमणि। सन ब्राह्मण देह को स्पर्श किया जाने पर प्रायश्चित्त, अग्निहोत्री 1904 में प्रकाशित । अंकसंख्या-सात । नृत्य संगीतादि से भरपूर । ब्राह्मण की देशांतर में मृत्यु होने की स्थिति में उसकी अंत्यक्रिया चर्चरी का प्रयोग। प्रदीर्घ वर्णन। परिहास इत्यादि गुणों से के विषय में विचार, विभिन्न पशु-पक्षियों की हिंसा की जाने युक्त रचना। पर प्रायश्चित्त, काष्ठ, धातु आदि के बने पात्रों की शुद्धि, रजस्वला स्त्रियों द्वारा आपस मे स्पर्श किया जाने पर प्रायश्चित्त, 2) ले. कुमार ताताचार्य। जन्मभूमि-नावलापवका। ई. १७ वीं शती। पांच अंकों का नाटक। वैदर्भीय शैली। नरकासुर अनजाने में गाय-बैलों की हिंसा होने पर प्रायश्चित्त, अगम्यागमन का वध तथा सत्यभामा के लिये पारिजात का हरण इस संबंधी प्रायश्चित्त आदि । प्रस्तुत स्मृति में पराशरजी ने अपने कुछ मत व्यक्त किये हैं। उदाहरणार्थ- पति के गायब होने नाटक की कथावस्तु है। पात्रसंख्या-पैंतीस। पर, मृत होने पर अथवा क्लीब होने पर भी पत्नी ने दूसरा पारिजातहरणचंपू - ले. शेषकृष्ण। ई. 16 वीं शती। इस विवाह नहीं करना चाहिये तथा "देशभंगे प्रवासे वा व्याधिषु काव्य में श्रीकृष्ण द्वारा स्वर्ग के पारिजात वृक्ष के हरण की व्यसनेष्वपि । रक्षेदेव स्वदेहादि पश्चाद्धर्म समाचरेत्।।" अर्थ- देश कथा वर्णित है जो "हरिवंश-पराण" की तद्विषयक कथा पर में अराजकता निर्माण होने पर प्रवास में आरोग्य ठीक न रहने आधारित है। इसमें 5 स्तबक हैं और प्रधान रस श्रृंगार है तथा संकटग्रस्त रहने की स्थिति में पहले अपने शरीर की तथा अंतिम स्तबक में युद्ध का वर्णन है। नारद मुनि श्रीकृष्ण रक्षा करनी चाहिये और बाद में करना चाहिये धर्म का को पारिजात का पुष्प देते हैं जिसे कृष्ण से रुक्मिणी को भेंट आचरण। मिताक्षरा, अपरार्क एवं स्मृतिचंद्रिका में तथा हेमाद्रि करते हैं। इससे सत्यभामा को ईर्ष्या होती है और वे कृष्ण व विश्वरूप के ग्रंथों में पराशर स्मति के वचन उदधत किये। से मान करती है। तब कृष्ण नारद द्वारा इन्द्र के पास पारिजात गए हैं। विद्वानों के मतानुसार इस स्मति की रचना ईसा की . वृक्ष भिजवाने का संदेश भेजते हैं। इन्द्र वक्ष देना स्वीकार पहली से पांचवीं शताब्दी के बीच की गई। नहीं करते। तब यादवों द्वारा पारिजात वृक्ष का हरण किया जाता है और सत्यभामा प्रसन्न हो जाती है। यही इस चंपू पाराशरसंहिता - ले. पराशर। ई. 8 वीं शती। विषय-वैद्यक की कथा है। इस काव्य में कवि ने मान एवं विरह का बड़ा शास्त्र। ही आकर्षक वर्णन किया है। सत्यभामा के सौकुमार्य का चित्र पारिजात - ले. भानुदास। (अनेक ग्रंथों के नाम इस शीर्षक अतिशयोक्तिपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमाला (मुंबई) से से पूर्ण होते हैं यथा मदनपारिजात, प्रयोगपारिजात, विधानपारिजात 1916 ई. में हुआ था। इसकी भाषा अनुप्रासमयी व प्रसादगुण-युक्त है, तथा पात्रानुरूप है। इस चंपू काव्य का पारिजातसौरभ - ले. स्वामी भगवदाचार्य। विषय- महात्मा प्रणयन महाराजाधिराज नरोत्तम के आदेश से हुआ है। गांधी का पद्यात्मक चरित्र। इसी चरित्र का अंत लेखक ने पारिजातापहार नामक अन्य ग्रंथ में किया है। पार्थपाथेयम् (रूपक) - ले. काशीराज प्रभुनारायणसिंह । पारिजातहरणम् (महाकाव्य) - ले. कवि कर्णपूर । ई. 16 शासनकाल-सन 1886-1925। सन 1928 में रामनगर में श्री. वीं शती। इसकी रचना "हरिवंशपुराण' की पारिजातहरण कथा लक्ष्मण झा द्वारा प्रकाशित। अंकसंख्या-तीन। सुपरिष्कृत हास्य के आधार पर हुई है। कथा इस प्रकार है- एक बार नारद प्रधान रचना। प्रधान रस-शृंगार। सशक्त उक्तियां, भावानुसारी ने श्रीकृष्ण को उपहार के रूप में एक पारिजात- पुष्प दिया। शब्दों का प्रयोग गीतों की अधिकता, कतिपय गीत प्राकृत में श्रीकष्ण ने वह पष्प रुक्मिणी को समर्पित किया। इस पर इत्यादि इसकी विशेषताएं हैं। यह उल्लाघ कोटि का उपरूपक सत्यभामा को रोष हुआ देख, कष्ण ने उसे पारिजात वृक्ष है। विषय- अर्जुन तथा सुभद्रा के प्रणय की कथा। लाकर देने का वचन दिया। उन्होंने इन्द्र के पास यह समाचार पार्थाश्वमेधम् (काव्य) - ले. म. म. पंचानन तर्करन । भेजा, पर इन्द्र पारिजात वृक्ष देने को तैयार न हुए। तब पार्थिवलिंगपूजनविधि - शिव-पार्वती-संवादरूप । इसमें पार्थिव 190 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra | (मृण्मय) शिवलिंग की पूजनविधि प्रतिपादित है यह ग्रंथ किसी अज्ञात तन्त्र से संगृहीत है। श्लोक 340 1 पार्थिवार्चनचूडामणि ले. भूपालेन्द्र नवमीसिंह ग्रंथकार ने अपने गुरुजी का मत जानकर वैदिक, तान्त्रिक, कौलिक तथा वामक शिवपूजाविधि के विवेचनार्थ इस ग्रंथ का निर्माण सन 1715 में किया। पार्वणचन्द्रिका ले रत्नपाणि शर्मा। गंगोली संजीवेश्वर शर्मा के पुत्र । विषय- छन्दोग्य सम्प्रदाय के अनुसार विविध प्रकार के (विशेषतः पार्वण) श्राद्ध । ले. देवभट्ट । वाजसनेयी शाखीय - पार्वणचटश्राद्धप्रयोग ब्राह्मणों के लिये। - - पार्वणस्थालीपाकप्रयोग एक अंश । पार्वती कवि वा. आ. लाटकार। पार्वतीपरिणय- चम्पू ले कुन्दकूरी रामेश्वर । पार्वतीपरिणयम् ले. ईश्वरसुमति। " कुमारसम्भवम्” के समान आठ सर्ग युक्त महाकाव्य रचयिता - ईश्वरसुमति । पार्वतीस्वयंवर - ले. नारायण भट्टपाद । पार्श्वनाथकाव्यम् ले पद्मसुन्दर जैनाचार्य । पार्श्वनाथकाव्यपंजिका ले. शुभचन्द्र जैनाचार्य ई. 16-17 वीं शती । - चम्पू | 1 पार्श्वनाथचरितम् ले वादिराज सूरि उपाधि द्वादशविद्यापति जैनाचार्य । ई. 11 वीं श. पूर्वार्ध । पार्श्वनाथपुराणम् - ले. सकलकीर्ति जैनाचार्य । पिता - कर्णसिंह। माता - शोभा। ई. 14 वीं शती। 23 सर्ग । पार्श्वनाथपूजाले छत्रसेन समन्तभद्र के शिष्य ई. 8 वीं शती पार्श्वनाथस्तवनम् ले श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं । I - - www.kobatirth.org - - नारायण भट्ट के प्रयोगरत्न का शती । पार्श्वनाथस्तोत्रम् - ले. पद्मप्रभ मलधारिदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती । पार्श्वपुराणम् (काव्य) - वादिचन्द्रसूरि । गुजरात निवासी। ई. 15 वीं शती । पार्श्वाभ्युदयम् (संदेशकाव्य) ले जिनसेनाचार्य गुरु वीरसेन। ई. 9 वीं शती । इस की रचना राष्ट्रकूटवंशीय अमोघवर्ष (प्रथम) के शासनकाल में हुई। इसमें कालिदास के मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति के रूप में पद्यरचना हुई है। कवि ने प्रत्येक श्लोक में दो पंक्तियां मेघदूत की ली हैं और दो पंक्तियां अपनी जोड़ी हैं। यह काव्य 4 सर्गो में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 118, 118, 57 व 71 श्लोक हैं। चतुर्थ सर्ग के अंत में 5 श्लोक मालिनी छंद में हैं और छठा श्लोक वसंततिलका वृत्त में है। शेष सभी छंद मंदाक्रांता वृत्त में हैं। इस संदेश काव्य में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र वर्णित है पर समस्यापूर्ति के कारण कथानक शिथिल हो गया है। समस्यापूर्ति के रूप में लिखा होने पर भी यह काव्य कलात्मक भाव सौंदर्य की दृष्टि से उच्च कोटि का है । यत्र तत्र कालिदास के मूल भावों को सुंदर ढंग से पल्लवित किया गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाशुपततन्त्रम् नन्दिकेश्वर-दधीचि संवादरूप। श्लोक-1700। विषय - शिव, स्कन्द, देवी प्रभृति अन्यान्य देवताओं की पृथक् पद्धति से पूजाविधि । पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् अथर्ववेद से संबध्द एक गद्यपद्यात्मक नव्य शैव उपनिषद् । वालखिल्य द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर स्वरूप ब्रह्माजी ने इस उपनिषद् का कथन किया है। इसके अंतिम 46 श्लोक अनुष्टुभ् छंद में हैं जिनके द्वारा वेदान्त के तत्त्व सरल भाषा में बताए गए है। उपनिषद् का सारांश इस प्रकार है- पशुपति शिव ही परब्रह्म है । समस्त सृष्टि के वे ही कर्ता धर्ता हैं। शरीर की इंद्रियों की विविध कृतियां उन्हीं की प्रेरणा से हुआ करती हैं। इंद्रया पशु है और शिव हैं उनके पालक अर्थात् पशुपति शिवजी माया विरहित एवं अवर्णनीय परम प्रकाश हैं। साधक को चाहिये कि वह उन्हें अपनी आत्मा के स्थान पर देखे परन्तु माया के प्रभाव के कारण ऐसा करना सभी को संभव नहीं हो पाता। उसके लिये पहले चित्त की शुद्धि होनी चाहिये। चित्त-शुद्धि के पश्चात् क्रम से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् साधक की हृदय ग्रंथियां टूटती हैं और उसे विश्वस्वामित्व का बोध होता है। पाश्चात्यप्रमाणतत्त्वम् - ले. डॉ. श्यामशास्त्री । विषय- पाश्चात्य दर्शन। 1929 में प्रकाशित । पिकदूतम् ले. रुद्र न्यायवाचस्पति (ई. 16 वीं शती) । राधाद्वारा कोयल को दूत बनाकर कृष्ण के प्रति संदेश लेकर मथुरा भेजने की कथा । पिंगलप्रकाश ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । विषय छन्दः शास्त्र | पिंगलसूत्रम् ले. पिंगलाचार्य। यह छन्दः शास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रधानतया लौकिक साहित्य के लिए लिखा गया है । इस ग्रन्थ में प्रतिपादित तीन अक्षरों के आठ गणों की पद्धति तथा गुरु और लघु वर्णों का निर्धारण करने की पद्धति सर्वत्र इतनी लोकप्रिय हुई कि पूर्वकालीन भरत अथवा जनाश्रय की पद्धति का लोप हो गया। छन्दः शास्त्र की चर्चा अग्निपुराण में (अध्याय 328 से 334) हुई है जिसका पिंगलसूत्रों के प्रतिपादन से साम्य है। पिंगलसूत्र में प्रतिपादित सारा छन्दोविचार "यमाताराजभानसलगाम्" इस सूत्र में कथित ब म त र ज, भ, न, स, इन आठ गणों पर आधारित है। पिंगलसूत्रों में प्रतिपादित अनेक छंद काव्यों में प्रयुक्त नहीं हुए। उत्तरकालीन ग्रंथों में नारायणकृत वृत्तोतिरन तथा चंद्रशेखरकृत यूत्तमौक्तिक For Private and Personal Use Only - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 191 - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथ पिंगलसूत्र पर पूर्णतथा आधारित है। वृत्तमौक्तिक के छह प्रकरण हैं। उसका लेखक चंद्रशेखर उसे पिंगलसूत्र का वार्तिक कहता है। पिंगलसूत्र के टीकाकार : (1) हलायुध, (2) श्रीहर्षशर्मा, (3) वाणीनाथ, (4) लक्ष्मीनाथ, (5) यादवप्रकाश, (6) दामोदर। पिंगलामतम् - पिंगला-भैरव संवादरूप। यह ब्रह्मयामल का एक अंश है। इसमें आगम, शास्त्र, ज्ञान और तंत्र के लक्षण प्रतिपादित हैं। यह ग्रंथ पश्चिमानाय से सम्बध्द है। इसमें आठ प्रकार है । पिच्छिलातन्त्रम् - पूर्व और उत्तर दो खण्डों में विभक्त। उनमें क्रमशः 21 और 24 पटल हैं। इस तन्त्र में मुख्यतया कालीपूजाविधि वर्णित है। साथ ही आनुषंगिक रूप से उपासना के यन्त्र मन्त्र आदि का भी प्रतिपादन है। पिण्डपितृयज्ञप्रयोग - ले. चन्द्रचूडभट्ट। उमापति के पुत्र।। विषय- धर्मशास्त्र। ___ (2) ले. विश्वेश्वरभट्ट (अर्थात् सुप्रसिद्ध मीमांसक गागाभट्ट काशीकर) पिंडोपनिषद् - यह अथर्ववेद से संबद्ध केवल 8 श्लोकों का एक नव्य उपनिषद् है। कतिपय विद्वान् इसे शुक्ल युजर्वेद से संबद्ध मानते हैं। मनुष्य-देह के पंचत्व में विलीन होने पर उसके जीवात्मा का क्या होता है, ऐसा प्रश्न देवताओं ने पूछा । प्रजापति ने जो उत्तर दिया वही यह उपनिषद् है। उसका सारांश इस प्रकार है :- देह का पतन होने पर जीवात्मा उसे छोड जाता है। पश्चात् वह क्रमशः तीन दिन पानी में, तीन दिन अग्नि में, तीन दिन आकाश में और एक दिन वायु में रहता है। दसवें दिन अंत्यक्रिया करने वाला अधिकारी दस पिंड देकर, उस जीवात्मा के लिये शरीर बनाता है। पहले पिंड से संभव, दूसरे पिंड से मांस, तीसरे से त्वचा, चौथे से रक्त इस क्रम से वह शरीर बनाता है। पितामह-स्मृति - ले. पितामह । “पितामह-स्मृति" के उध्दरण "मिताक्षरा" में प्राप्त होते हैं और पितामह ने बृहस्पति का उल्लेख किया है, अतः डॉ. काणे के अनुसार इनका समय 400 ई. के आसपास आता है। इस स्मृति में वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृति, पुराण व न्याय को भी धर्मशास्त्र के अंतर्गत परिगणित किया गया है। "स्मृति-चंद्रिका" में "पितामह-स्मृति" के व्यवहार विषयक 22 श्लोक प्राप्त होते हैं। पितामह ने न्यायालय में 8 करणों की आवश्यकता पर बल दिया हैलिपिक, गणक, शास्त्र, साक्ष्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि व जल। इस स्मृति में व्यवहार का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। पितुरुपदेशः - मूल शेक्सपियर का हैमलेट। अनुवादक रामचन्द्राचार्य। पितदयिता - ले. अनिरुद्ध। साहित्यपरिषद्, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित। पितृपद्धति - ले. गोपालाचार्य। समय 1450 ई. के उपरान्त । विषय- धर्मशास्त्र। पितृभक्ति - ले-श्रीदत्त उपाध्याय। समय- 13 से 15 वीं शती। इस पर मुरारिकृत टीका है। पितृभक्तितरंगिणी (श्राद्धकल्प) - ले-वाचस्पति मिश्र। पितृमेधप्रयोग - ले- कपर्दिकारिका के एक अनुयायी जो अज्ञात है। पितृमेधभाष्यम् (आपस्तम्बीय) - ले-गार्ग्य गोपाल । पितृमेधविवरणम् - ले- रंगनाथ । पितृमेधसार - ले- रंगनाथ के पुत्र वेंकटनाथ । पितृमेधसारसुधाविलोचनम् (एक टीका) - ले- वैदिक सार्वभौम। पितृमेधसूत्रम् - ले-गौतम। इसपर अनन्त यज्वा, भारद्वाज, हिरण्यकेशी और कपर्दिस्वामी की टीकाएं हैं। पिष्टपशुखण्डनम् - टीकाकार-शर्मा। गार्ग्यगोत्री । पिष्टपशुमीमांसाकारिका - ले- नारायण । विश्वनाथ के पुत्र । पिष्टपशुखण्डनमीमांसा - ले- नारायण पंडित । पिता- विश्वनाथ । गुरु- नीलकंठ। विषय- यज्ञों में बकरे के स्थान पर पिष्टपशु का प्रयोग करना योग्य इस मत का प्रतिपादन। पिष्टपशुखण्डन-व्याख्यार्थदीपिका -' ले- रक्षपाल । पीठचिन्तामणि - ले- रामकृष्ण । पीठनिरूपणम् - शिव-पार्वती संवादरूप ग्रंथ। सती नाम से प्रसिद्ध भगवती द्वारा दक्षयज्ञ में अपना शरीर त्याग करने पर भगवान् महादेवजी ने उस देह के टुकड़े-टुकडे कर उन्हें विभिन्न प्रदेशों में फेंक दिया। वे ही प्रदेश पीठ नाम से विख्यात है। उन्हीं का विवरण इससे किया गया है। पीठनिर्णय (या महापीठनिरूपणम्)- पार्वती-शिव संवादरूप ग्रंथ। तंत्रचूडामणि के अन्तर्गत। 51 विद्याओं की उत्पत्ति इस में वर्णित है। सती के शरीर के अवयव गिरने से उत्पन्न हुए पीठ स्थानों में स्थित शक्ति, भैरव आदि का प्रतिपादन है। पीठपूजाविधि - दक्ष-यज्ञ में सतीजी के देहत्याग के बाद जहां-जहां उनके शरीर के अवयव गिरे वहां (पीठों) पर होने वाली तांत्रिक क्रियाएं इसमें वर्णित हैं। पीताम्बरापद्धति - श्लोक- 155। विषय- पीताम्बरा देवी के मंत्र, जप, ध्यान, पूजा, मुद्रा, होम आदि का प्रतिपादन । पीताम्बरापूजापद्धति - श्लोक- 1196 । पीतांबरोपनिषद् - एक नव्य शाक्त उपनिषद् । इसमें पीतांबरादेवी का शांभवी महाविद्या के रूप में इस प्रकार वर्णन किया गया है : इस देवी के सर्वांग, पीत (पीले) रंग के हैं और वह पीतांबर तथा पीत अलंकार धारण करती है। अतः इसे पीतांबरा 192 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहते हैं। वह चतुर्भुज है। उसकी दो दाहिनी भुजाओं में वज्र व शत्रु की जिह्वा है। उसका सौंदर्य अनुपम है। वह उदित सूर्य के समान तेजःपूर्ण है। वह सुवर्ण के सिंहासन पर अधिष्ठित है। पीतांबरा देवी का (तंत्रशास्त्रानुसार) यंत्र अंकित कर उसकी भी पूजा की जाती है। यंत्र का अंकन इस प्रकार किया जाना चाहिये- पहले षट्कोण अंकित किया जाये। उसके चारों और 3 मंडल खींचे जायें। षट्कोण के मध्य भाग में देवी का आवाहन किया जाये। फिर देवी के 8 नामों (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, चामुंडा व महालक्ष्मी) का उच्चार करते हुए उसकी प्रार्थना की जाये। सोलह पंखुड़ियों के कमल में बगला, स्तंभिनी, जूंभिणी प्रभृति 16 देवियों का ध्यान किया जाये। षट्कोण के 6 खानों में डाकिनी, राकिनी, काकिनी, शाकिनी, हाकिनी नामक रौद्र देवियों का आवाहन अथवा स्मरण किया जाये। प्रस्तुत उपनिषद् में बताया गया है कि पीतांबरादेवी एवं उसके यंत्र की पूजा करने वाले साधक को 36 अस्त्रों की प्राप्ति होती है। पीतासपर्याविधि - इस में बगलामुखी की पूजा विस्तार से प्रतिपादित है। पीयूषपत्रिका - सन 1931 में नाडियाद (गुजरात) से हीरालाल शास्त्री पंचोली और हरिशंकर शास्त्री के संपादकत्व में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। इसके संरक्षक गोस्वामी अनिरुद्धाचार्य थे। यह एक दर्शन-प्रधान पत्रिका थी जिसमें मीमांसा, न्याय, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों के कतिपय प्रमुख ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। इसमें अन्तिम कुछ पृष्ठों में हिन्दी रचनाएं तथा श्रीकृष्णलीला के रंगीन चित्र भी छापा करते थे। तीन वर्षों के बाद इस पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हो गया। इसके कुछ अंकों में शोध निबंध भी मिलते हैं। पीयूषरत्नमहोदधि - ले- अकुलेन्द्रनाथ । पीयूषलहरी (अपरनाम गंगालहरी) - ले- जगन्नाथ पण्डितराज। ई. 16-17 वीं शती। पिता- पेरुभट्ट। मातामहालक्ष्मी। विषय- गंगानदी की स्मृति। पीयूषवर्षिणी - सन 1890 में फरुखाबाद से गौरीशंकर वैद्य के सम्पादकत्व में प्रकाशित इस पत्रिका में आयुर्वेद सम्बधी सरल निबन्ध प्रकाशित हुआ करते थे। पुण्याहवाचनप्रयोग - ले- पुरुषोत्तम । पुत्रक्रमदीपिका - ले- रामभद्र। विषय- बारह प्रकार के पुत्रों के दायाधिकार एवं रिक्थ।। पुत्रप्रतिग्रहप्रयोग - ले- शौनक। पुत्रस्वीकारनिरूपणम् - ले- रामपंडित। पिता- विश्वेश्वर । वत्सगोत्री। ई. 15 वीं शती। पुत्रीकरणमीमांसा - ले- नन्दपण्डित। विषय- दत्तकविधान। पुनरुन्मेष - ले- डॉ. वेंकटराम राघवन्। सन 1960 में नई दिल्ली में ग्रीष्म नाटकोत्सव में अभिनीत। नूतन विधा का प्रेक्षणक (ओपेरा) । कथासार- भारतीय पुरातन संस्कृति का कोई विदेशी उपासक दक्षिण भारत के विद्याराम ग्राम में पहुंचता है। वहां उसे पुरानी ताडपत्र-पोथियां फेंकने वाला ब्राह्मण, पटवारी बना हुआ और वीणा को उपेक्षित रखने वाला एक संगीतज्ञ का वंशज मिलता है। चोलवंशीय राजा के देवालय की दीवालों पर उत्कीर्ण अक्षर नष्टप्राय दीखते हैं। उसी देवालय से मूर्तियां उखाड कर विदेश भेजने वाला चोर दीखता है और सुन्दरी युवती कन्या को शहर जाकर फिल्मों में काम करने को उकसाने वाली, दारिद्र से ग्रस्त एक बुढिया दीखती है। आगंतुक उन ताडपत्रों को खरीदता है, पटवारी को गायन-कला के प्रति प्रेरित करता है, चोर को धमका कर भगाता है और उस युवती के लिए आचार्य की व्यवस्था करके भारमाता के उज्ज्वल पुनरुन्मेश की कामना करता है। पुनरुपनयनप्रयोग - ले- दिवाकर। पिता- महादेव। विषयअभक्ष्य भोजन करने पर ब्राह्मण का पुनरुपनयन । पुनर्मिलन - कवि -तपेश्वरसिंह । वकील, गया निवासी। विषयराधा-माधव का पुनर्मिलन। पुनर्विवाहमीमांसा - ले- बालकृष्ण । पुनःसंधानम् - विषय- गृह्य अग्नि की पुनः स्थापना । पुरंजनचरितम् (नाटक) - ले- कृष्णदत्त। 1775 ई. तक सुप्रसिद्ध। विदर्भ संशोधन मण्डल ग्रंथमाला क्र. 16 में सन 1961 में नागपुर से प्रकाशित। नागपुर के भोसले राजा के प्रधान मंत्री देवाजीपंत के वेंकटेश मन्दिर के द्वार पर प्रथम अभिनय। प्रधान उपजीव्य भागवत पुराण, जिसमें उत्पाद्य कथा का जोड दिया है। यह अध्यात्मप्रधान प्रतीक नाटक है, परन्तु प्रतीक तत्त्व गौण है। लोकोक्तियां तथा प्राकृत के स्थान पर मैथिली भाषा का प्रयोग किया है। कथासार- नायक राजा पुरंजन अपने सचिव के साथ ऐसा नगर ढूंढने निकले है, जिसमें वे बस सकें। नवद्वार वाले एक नगर में, जिसका गोप्ता प्रजागर नागराज है, बसकर वे महायोगी अविज्ञातलक्षण को ढूंढते है। नगरस्वामिनी पुरंजनी से उनका प्रणय होता है। नायक मृगया हेतु पंचप्रस्थावन में धूमते हैं। विरहसन्तप्त नायिका भी साथ चलती है। पुरंजन को विलास और मृगया में लिप्त जानकर चण्डवेग जरा और भय के साथ उस पर हमला करता है। पुरंजन हारकर भाग जाता है। तत्पश्चात् वह स्त्री रूप में परिणत होकर विदर्भ के राजकुमार मलयध्वज से विवाह करता है। अविज्ञातलक्षण इस अवस्था से उसे बचाने हेतु कामधेनु से सहायता लेता है। संयोगवश मलयध्वज से वियुक्त होने पर स्त्रीरूप पुरंजन आत्मदाह करने को उद्यत होता है, तब कामधेनु उसे बचा कर शेषाद्रि पर ले जाती है, जहां संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 193 For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष्णु वेङ्कटेश रूप में विराजमान हैं। वे उसे उपदेश देते है कि सदैव पुरंजनी का ध्यान करने से ही तुम स्त्री बन गये हो, अब मेरा ध्यान कर मुझसे तादात्म्य प्राप्त करो। पुरंजन को अद्वैत का ज्ञान होता है। पुरन्दरविधानकथा - ले- शतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। पुरश्चरणम् - ले-गोपीनाथ पाठक। श्लोक- 4001 पुरश्चरणकौमुदी (1) -ले- मुकुन्द पण्डित । पिता- माधवाचार्य। श्लोक- 1305 । (2) विद्यानन्दनाथ विरचित । श्लोक- 537। पुरश्चरणकौस्तुभ - ले- अहोबल। विषय- पापनिवृत्ति करने वाले व्रतादि तथा उनकी विधियों का वर्णन । पुरश्चरणचन्द्रिका - ले- देवेन्द्राश्रम । गुरु-विबुधेन्द्राक्षम । श्लोक1300 (2) ले- माधव पाठक। (3) ले- देवेन्द्राश्रम। गुरुविबुधेन्द्राश्रम। (4) ले- काशीनाथ। पिता- जयरामभट्ट । पुरश्चरणदीपिका - (1) ले- चंद्रशेखर । ई. 16 वीं शती। 15 प्रकाशों में पूर्ण। (2) रामचंद्र। (3) विबुधेन्द्राश्रम। पुरश्चरणप्रपंच - ले- सहजानन्दनाथ। श्लोक- 250। ले- (2) ले- श्रीनिवास। श्लोक-300। पुरश्चरणबोधिनी - इसमें विविध पुरश्चरणों का विस्तार से वर्णन है। इस ग्रंथ के रचयिता प्रसिद्ध टेगौर परिवार के थे, जो महाराज यतीन्द्रमोहन टैगोर के पिता महाराज प्रद्योतकुमार टैगोर के पितामह थे। बंगला लिपि में यह मुद्रित है। रचनाशकाब्द 1735 में। पुरश्चरणरसोल्लास - देव-देवी संवाद रूप। श्लोक- 488 | पटल-101 पुरश्चरणलहरीतन्त्रम् - नारद-सुभगा संवादरूप। पटल 51 विषय- उपासक के प्रातःकाल के कृत्य, रुद्राक्ष-धारण का फल, पूजनविधि, जपविधि आदि। पुरश्चरणविधि - ले- शैव-गोपीनाथ। पिता- शैव माधव।। श्लोक- 400। विषय- पुरश्चरण, तत्संबंधी दीक्षा, गुरु और शिष्य की परीक्षा, मंत्र संस्कार इ.। पुरश्चर्याकौमुदी - ले- माधवाचार्य। पुरश्चर्या-रसाम्बुनिधि - ले- शैलजा मंत्री। श्लोक- 8791 विषय- पुरश्चरणविधि, इन्द्रादि के आवाहन की विधि, क्षेत्रपाल आदि के लिए बलिदानविधि, पापनिवृत्ति के लिए सावित्री जप की विधि, संकल्प, जप आदि का क्रम, कुल्लुका, सेतु आदि का निरूपण, जिह्वाशुद्धि की विधि, श्यामा, तारा, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बंगला, मातंगी आदि की जपसंख्या का निरूपण, होम, तर्पण, ब्राह्मण-भोजन आदि की विधि, मंत्र के स्वप्न, जागरण आदि का निरूपण, बलिदान, रहस्यपुरश्चरण, तारिणीस्तोत्र, घोरमंत्र आदि का निर्देश, कामिनीतत्त्व मंत्रसिद्धि के लक्षण तथा उसके उपाय इ. । पुरश्चर्यार्णव - ले. नेपाल के महाराजधिराज प्रतापसिंहशाह । श्लोक 2000। ग्रंथरचना- काल वि. सं. 1831। विविध आगम, उपनिषद्, स्मृतियां, पुराण, ज्योतिषशास्त्र, शालिहोत्र तथा नाना प्रकार की पद्धतियों का भली भांति अवलोकन कर ग्रंथकार ने इसका निर्माण किया है। तरंग 12। विषय- छह आम्नायों के देवता, आम्नायों के आचार का निर्णय, दीक्षा के देश और काल, वास्तुयाग, कुण्डमण्डपादि-निर्णयपूर्वक अंकुरार्पण, दीक्षा विधि मे पुरूपूजनपूर्वक देवतापूजन, क्रियावत् दीक्षाविधि, क्रियादीक्षा-प्रयोग-पूर्वक दीक्षा के भेदों का निर्णय, सामान्य पुरश्चरणविधि, मंत्रसिद्धि के लक्षण, उपाय इ. पुराणम् - सन 1958 से राजेश्वरशास्त्री द्रविड और वासुदेवशरण अग्रवाल के संपादकत्व में इस षण्मासिक पत्रिका का वाराणसी से प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसका उद्देश्य है "आत्मा पुराण वेदानाम्" यह तथ्य प्रतिपादन करना। पुराणमीमांसा (सूत्रबद्ध)- ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भनिवासी। ई. 20 वीं शती। पुराणसर्वस्वम् - ले. गोवर्धन । वंगवासी। 2) ले. पुरुषोत्तम । 3) ले. हलायुध। पिता- पुरुषोत्तम। ई.15 वीं शती। 4) बंगाल के जमीनदार श्री सत्य के आश्रय में संगृहीत । समयसन 1474-751 पुराणसार - ले. नवद्वीप के राजकुमार रुद्रशर्मा । पिता- राघवराय। पुराणसारसंग्रह - ले, सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- कर्णसिंह। माता- शोभा। पुरातन-बलेश्वरम् - ले. रामानाथ मिश्र। रचना सन 1957 . में। विषय- अंग्रजी प्रभाव से अपनी महिमा खोये हुए बलेश्वर नगर की ऐतिहासिक गरिमा का चित्रण । पुरुदेवचंपू - ले. अर्हद्दास (या अर्हदास), आशाधर के शिष्य। समय 13 वीं शती का अंतिम चरण। इस चंपू-काव्य में जैन संत पुरुदेव का चरित्र वर्णन है। कवि ने इस चंपू के प्रारंभ में जिन की वंदना की है और अपने काव्य के संबंध में कहा है कि उसका उद्भव भगवान् के भक्तिरूपी बीज से हुआ है। नाना प्रकार के छंद (विविध वृत्त) इसके पल्लव हैं और अलंकार पुष्प-गुच्छ हैं। उसकी रचना "कोमल-चारु-शब्द-निश्चय" से पूर्ण है, तथा गद्य की भाषा "अनुप्रासमयी समस्तपदावली" से युक्त है। इस चंपू का अंत अहिंसा के प्रभाव वर्णन से हुआ है और श्रोताओं को सभी जीवों पर दया प्रदर्शित करने की ओर मोडने का प्रयास है। इसका प्रकाशन मुंबई से हुआ है। पुरुषकारम् - ले. लीलाशुकमुनि। ई. 13-14 वीं शती। यह देवकृत "देव' नामक धातुपाठवृत्ति पर लिखा हुआ एक वार्तिक है। 2) ले. लीलाशुकमुनि। यह भोजकृत सरस्वतीकंठाभरण की व्याख्या है। इसी लेखक की लिखी हुई केनोपनिषद् की व्याख्या 194 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का नाम सुपुरुषकार है। पुरुषदशासहस्रकम् - मूल शेक्सपिअरकृत "अॅज् यु लाईक । इट।" अनुवादकर्ता - रामचन्द्राचार्य । पुरुषनिश्चय - ले. नाथमुनि। दक्षिण भारत के एक वैष्णव आचार्य। ई. 19 वीं शती। न्यायतत्त्व व योगरहस्य नामक दो और ग्रंथ नाथमुनि ने लिखे हैं। पुरुष-पुंगव (भाष्य) - ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) नायक वाग्वीर अपनी पत्नी पर निर्बन्ध लगाता है। परंतु दूसरों की पत्नियों को स्वच्छन्दता सिखाता है। उसकी हास्योत्पादक फजीहत का वर्णन इस में किया है। "संस्कृत -साहित्यपरिषद् पत्रिका' में प्रकाशित । परिषद् के सारस्वत उत्सव में अभिनीत। " पुरुष-रमणीय - ले.जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) रचनाकालसन 1947। "संस्कृत साहित्य परिषद् पत्रिका' में सन 1940 में कलकत्ता से प्रकाशित। इस प्रहसन में गीतों का समावेश। देशकालोपयोगी छायातत्त्वानुसारी घटनाएं चित्रित हैं। कथासारदो स्नातक सुबन्धु और सोमदत्त जीविका की खोज में रानी सीमन्तिनी के पास जाते हैं। वहां सुबन्धु राजपुरुष से कलह कर से प्रतिज्ञा करता है कि डाका ही डालूंगा। इतने में सीमन्तिनी से दान पाकर एक वृद्ध दम्पती निकलते हैं उन्हीं को लूटना चाहता है। वृद्ध समझाता है कि लूटने से अच्छा है सीमन्तिनी से दान लो। मित्र सोमदत्त को भार्या के वेष में ले जाकर सुबन्धु सीमन्तिनी से दान पाता है। सोमदत्त सचमुच ही स्त्री बन जाता है। पुरुषार्थ - सन 1910 मे धारवाड से चिन्तामणि सहस्त्रबुद्धे के सम्पादकत्व में यह मासिक पत्रिका प्रारंभ हुई। पुरुषार्थचिन्तामणि - ले.विष्णुभट्ट आठवले। रामकृष्ण के पुत्र । काल, संस्कार आदि पर धर्मशास्त्र के विषयों एक विशाल ग्रंथ। मुख्यतः हेमाद्रि एवं माधव पर आधारित । पुरुषार्थप्रबोध - ले.ब्रह्मानन्द भारती। ई. 16 वीं शती। रामराज सरस्वती के शिष्य । भस्म, रुद्राक्ष, रुद्र-भक्ति के धार्मिक महत्त्व पर क्रम से 4,5,6 अध्यायों में तीन भागों वाला एक विशाल ग्रंथ। पुरुषार्थरत्नाकर - ले. रंगनाथ सूरि। कृष्णानंद सरस्वती के । शिष्य। विषय- पुराणप्रामाण्य विवेक, त्रिवर्गतत्त्वविवेक, मोक्षतत्त्वविवेक, वर्णादिधर्मविवेक, नामकीर्तनादि, प्रायश्चित्त, अधिकारी, तत्त्वंपदार्थविवेक, मुक्तिगतविवेक इत्यादि। 15 तरंगों में पूर्ण। पुरुषार्थसुधानिधि - ले.सायणाचार्य। ई. 13 वीं शती। चतुर्विध पुरुषार्थ विषयक महाभारत और पुराणों के वचनों का संग्रह। कुछ विद्वान् इस के कर्ता विद्यारण्य को मानते हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपपाद - ले.अमृतचन्द्रसूरि। समय- लगभग ई. 9 से 11 वीं शती। जैनाचार्य । पुरुषोत्तमक्षेत्रतत्त्वम् - ले.रघु। विषय- उडीसा का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर। पुरुषोत्तमचम्पू - ले.नृसिंह। पुरुसिकंदरीयम् - ले. साहित्याचार्य लक्ष्मीनारायण त्रिवेदी । विषय- पुरु-सिंकदरसम्बधित ऐतिहासिक घटना। पुलस्त्य-स्मृति - ले.पुलस्त्य नामक एक धर्मशास्त्री। प्रस्तुत स्मृति का रचनाकाल (डा. काणे के अनुसार) 400 से 700 के मध्य है। वृद्ध याज्ञवल्क्य ने पुलस्त्य को धर्मशास्त्र का प्रवक्ता माना है। विश्वरूप ने शरीर-शौच के संबंध में इस स्मृति का एक श्लोक दिया है, और मिताक्षरा में भी इसके श्लोक उद्धृत किये गये हैं। अपरार्क ने इस ग्रंथ से उद्धरण दिये हैं तथा "दान-रत्नाकर" में भी मृगचर्मदान के संबंध में इस ग्रंथ के मत का उल्लेख करते हुए इसके श्लोक उद्धृत किये हैं। इस स्मृति ने श्राद्ध-प्रसंग पर ब्राह्मण के लिये मुनि को भोजन, क्षत्रिय व वैश्य के लिये मांस तथा शूद्र के लिये मधु खाने की व्यवस्था दी गई है। पुष्टिमार्गीयाह्निकम् - ले.व्रजराज। वल्लभाचार्य के वैष्णव सम्प्रदाय के लिए उपयोगी ग्रंथ।। पुष्पचिन्तामणि - यह तांत्रिक निबन्ध 4 प्रकाशों में पूर्ण है। विविध देवीदेवताओं में से किसके पूजन के लिए कौन से पुष्प या पत्र विहित हैं और कौन से निषिद्ध हैं यह विषय इसमें विस्तार के साथ वर्णित है। पुष्पमाला - ले.रुद्रधर । विषय- देव-पूजा में प्रयुक्त होने वाले पुष्प एवं पत्तियां। पुष्पमाहात्म्यम् - पश्चिमाम्नाय, उत्तराम्नाय, सिद्धिलक्ष्मी, दक्षिणाम्नाय, नीलसरस्वती तथा उर्ध्वाम्नाय की देवियों को कौन से पुष्प चढाना, कौन से शुभफलप्रद और कौन से अशुभफलदायक हैं इसका वर्णन है। किस महीने मे महादेवजी को कौन से पुष्प चढाना चाहिये यह भी प्रतिपादित है। पुष्परत्नाकरतन्त्रम् - ले.भूपालेन्द्र नवमीसिंह। 8 पटलों में पूर्ण । विषय- पूजा में विहित एवं निषिद्ध पुष्पों का विवरण। पुष्पसूत्रम् - यह सामवेदीय प्रातिशाख्य है। रचयिता- पुष्प नामक ऋषि । इसमें 10 प्रपाठक या अध्याय हैं। इसका संबंध गर्ग संहिता से है। इसमें "स्तोभ" का विशेष रूप से वर्णन है और इन स्थलों व मंत्रों का विवरण दिया गया है जिनमें स्तोभ का विधान या अपवाद होता है। इस पर उपाध्याय अजातशत्रु ने भाष्य किया है जो प्रकाशित हो चुका है (चौखंबा संस्कृत सीरीज से, ग्रंथ व भाष्य 1922 ई. में प्रकाशित) "इसमें प्रधानतया गेयगान व अरण्यगेयगान में प्रयुक्त का ऊहन अन्य मंत्रों पर कैसे किया जाता है इस विषय का विशद विवेचन है"। पुष्पसेन-तनय-राज्यधिरोहणम् (रूपक)- ले.गोविंद जोशी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/195 For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन 1905 में पुणे से प्रकाशित । गुरुकुल कांगडी के पुस्तकालय में प्राप्य । तत्त्वज्ञान तथा भक्ति हेतु लिखित । प्राकृत का अभाव, सन्धि, सन्ध्यङ्ग, कार्यावस्था आदि की सोई योजना इसमें नहीं है। कथासार - राजा पुष्पसेन अमरेश्वर को जीत कर छोड देता है। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी गर्भवती पत्नी कलावती अमरेश्वर की शरण में जाती है। पुष्पसेन का सचिव दुष्टबुद्धि उसे मारना चाहता है, परंतु अमरेश्वर उसे बचा लेता है। उसे मृत पुत्र उत्पन्न होता है, किन्तु पुष्पसेन के गुरु सुधन्वा उसे जीवित करते हैं। अन्त में दृष्टबुद्धि को मारकर वह राज्यसिंहासन पर बैठता है। पुष्पांजलिव्रतपूजा - ले.शुभचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 वीं शती। 2) ले. श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। 3) ले. ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। पूजनप्रयोगसंग्रह - ले.शिव। श्लोक- 3951 ई. 18-19 वीं शती। पूजनमालिका - ले. भवानीप्रसाद । पूतनाविधानम् -- कमलाकर के शान्तिरत्न में जो विषय वर्णित है, प्रायः वही इसमें प्रतिपादित है। इसमें बालकों मे उत्पात करने वाली पूतना की झाडफूंक का वर्णन है। पूजादीपिका - ले.गोस्वामी सर्वेश्वरदेव । श्लोक- 738.1 पूजापद्धति - ले. नवानन्दनाथ। श्लोक 4501 विषय- आरंभ में उपासक के दैनिक कृत्य और भगवान् कृष्ण की तांत्रिक पूजा । पूजापद्धति - ( या पद्यमाला) ले.जयतीर्थ । आनन्दतीर्थ के शिष्य। 2) ले. रामचन्द्रभट्ट । विष्णुभट्ट शेजवलकर के पुत्र । ले. आनन्दतीर्थ । पिता- जनार्दन। पूजाप्रकाश - ले.मित्रमिश्र। यह लेखक के वीरमित्रोदय का अंश है। पूजाप्रदीप - ले. देवनाथ ठक्कुर । पिता- गोविन्द ठक्कुर । पूजापुष्करिणी - ले. चन्द्रशेखर शर्मा। वीथी नामक सात अध्यायों मे पूर्ण। पूजारत्नाकर - ले.चंडेश्वर ठक्कुर । मिथिला नरेश के सन्धि और विग्रह के मंत्री। श्लोक- 2732। विषय- साधारणतः देवपूजा के देश आदि का विचार, मण्डल, बलिदान आदि की विधि, पुष्प चुनने की विधि, देवी और मण्डप का निर्माण, नैवेद्य का निर्माण, सूर्यपूजा का फल, पूजाधिकारी के नियम, सूर्यमन्दिर का परिष्कार करने का फल इ.।। पूजाविधि (सपाविधि)- ले.रामचन्द्र। श्लोक- 300 । पूर्णकाम (रूपक) ले. ऋद्धिनाथ झा (श. 20)। रचना और अभिनय उमानाथ के पौत्र रत्नानाथ के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में। दरभंगा से 1960 में प्रकाशित। अनेक दृश्यों में विभाजित। दीर्घ मंचनिर्देश, मैथिली नाट्य-पद्धति, सुबोध भाषा, गीतों का प्राचुर्य और आध्यात्मिक गौरव की चर्चा यह इसकी विशेषताएं हैं। कथासार-नायक पूर्णकाम की तपस्या भंग करने हेतु इन्द्र, काम, वसन्त तथा अप्सराओं की नियुक्ति करता है। पूर्णकाम अविचल देखकर, मातलि के द्वारा इन्द्र उसे स्वर्ग से बुला लेता है। वहां भी मन्दाकिनी के तट पर तपस्या करके वह विष्णुलोक पाता है। पूर्णचन्द्र - ले.रिपुंजय। विषय- प्रायश्चित्त । पूर्णाज्योति - ले.स्वामी पूर्णानन्द हषीकेश। विषय- मानव जाति के कल्याणार्थ वैराग्य, भक्ति तथा योग का पुरस्कार। पूर्णदीक्षापद्धति - पारानन्दतन्त्र के अन्तर्गत। श्लोक 400 । पूर्णपुरुषार्थचन्द्रोदयम् - ले.जयदेव । ई. 18 वीं शती। इसमें दशाश्वराजा का (दस इन्द्रियों का निग्रह कर्ता आत्मा) आनन्दवल्ली से समागम, सुश्रद्धा तथा सुभक्ति द्वारा घटित दिखाया है। विकार रूपी राक्षस पराभूत होता है। पूर्णयोगसूत्राणि - ले.प्रा. अम्बालाल पुराणी। अरविन्दाश्रम के संस्कृत पण्डित । इसमें योगिराज अरविन्द का तत्त्वज्ञान संगृहीत है। पूर्णानन्दम् - ले.विद्याधर शास्त्री। रचना 1945 में। भक्त पूरनमल की कथा। इसमें आधुनिक जीवनपद्धति की पतनोन्मुखता प्रदर्शित है। अंकसंख्या- पांच । पूर्णानन्दचक्रनिरूपण-टीका - ले.रामवल्लभ शर्मा। वत्सपुरवासी। श्लोक - 750। यह पूर्णानन्द विरचित, मूलाधार प्रभृति योगशास्त्रोक्त छह चक्रों का निरूपण करने वाले "चक्रनिरूपण'"नामक ग्रंथ की व्याख्या । पूर्णानन्दचरितम् - ले.श्री शेवालकर शास्त्री। इस में 19 वीं शताब्दी के, प्रसिद्ध वैदर्भीय साधु, श्रीपूर्णानंद स्वामी का चरित्र, 50 अध्यायों में वर्णित है! लेखक ने इस काव्य का मराठी अनुवाद भी स्वयं ही किया है। पूर्णाभिषेक - पारानन्दतन्त्र के अन्तर्गत। श्लोक- 250 । पूर्णाभिषेकदीपिका - ले.आनन्दनाथ। पिता- अर्घकालीयवंशी रामनाथ । श्लोक- 2000 | विषय- कलिकाल में आगममोक्तपूजा का विधान, चार आश्रमों के कुलाचार का पूर्णाभिषेक, विभिन्न प्रकार के अभिषेक, गुरुनिर्णय, कुलधर्म-प्रशंसा, कौलिकलक्षण, कौलिक ज्ञान की प्रशंसा, कौलपूजा का फल, गृहस्थ कौल का लक्षण, दिव्य और वीर पूजा का कालनिर्णय, योगानुष्ठान, कामकला-निर्णय, तत्त्वज्ञाननिर्णय, कौलों के कम्बल आदि आसनों का वर्णन, कौल योगिरहस्य, माला-निर्णय, कलि में पश्वाचार का अभाव, दिव्य और वीरों के पुरश्चरण का विधान इ.। पूर्णाभिषेकपद्धति - ले. अनन्तभट्ट तथा मुरारिभट्ट । श्लोक 150 । पूर्णाहुति (दृश्यकाव्य)- ले.पं. कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे । काठमांडु (नेपाल) के निवासी। 20 वीं शती के एक श्रेष्ठ संस्कृत साहित्योपासक हैं। आपके श्रीकृष्णचरितामृत महाकाव्य 196/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि 12 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। कविरत्न एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों से आप विभूषित हैं। पूर्तकमलाकर - ले.कमलाकर-भट्ट। विषय- धर्मशास्त्र। पूर्तप्रकाश - यह ग्रंथ रुद्रदेवकृत प्रतापनरसिंह का एक प्रकरण है। पूर्तमाला - ले.रघुनाथ। पूर्वोद्योत - ले.विश्वेश्वर भट्ट। यह ग्रंथ दिनकरोद्योत का एक अंश है। पूर्वपंचिका - ले.अभिनवगुप्त पूर्वभारतचम्पू - ले. मानवेद। ई. 17 वीं शती। पूर्वमीमांसाधिकरण-सूत्रवृत्ति - ले.विट्ठल बुधकर। इस रचना में ग्रंथकार ने सुबोध शैली में पूर्व मीमांसा के सूत्रों पर वृत्ति लिखी है। पूर्वमीमांसा-भाष्यम् - ले. वल्लभाचार्य । “पुष्टि-मार्ग" नामक भक्ति-संप्रदाय के प्रवर्तक। यह भाष्य भावार्थ पद पर ही मिलता है। शेष भाग नष्ट हो गया है। पूर्वाम्नायतन्त्रम् - ले.श्रीरत्नदेव। यह संग्रह पूर्वाम्नाय ग्रंथों से संगृहीत किया गया है। इसमें 28 तांत्रिक क्रियाओं की प्रयोगविधि वर्णित है।विषय- पांच प्रणवन्यास, दश करन्यास, अष्टांगन्यास, शब्दराशिन्यास, त्रिविद्यांगन्यास, षडंगन्यास, द्वादश अंगन्यास, जलस्मरण, भूतशुद्धि, गुरुमण्डलपूजा, ध्यान, पांच पीठ, पांच अवधूत आदि तीन भोगविद्याएं, गायत्री रत्नदेवार्चन, ध्यान, तीन गुहाएं आदि। पृथ्वीमहोदयम् - ले.प्रेमनिधि शर्मा। भारद्वाज गोत्री उमापति के पुत्र । इसमें श्रवणाकर्म, प्रायश्चित्त आदि का विवेचन है। पृथ्वीराज-चव्हाण-चरितम् ले.श्रीपादशास्त्री हसूरकर । गद्यात्मक ग्रंथ। पृथ्वीराज-विजयम् - ले.जयानक। संप्रति यह अपूर्ण रूप से उपलब्ध है जिसमें 12 सर्ग हैं। इन सर्गों में पृथ्वीराज के पूर्वजों का वर्णन व पृथ्वीराज के विवाह का उल्लेख है। इसमें स्पष्ट रूप से कवि का नाम कहीं पर भी नहीं मिलता पर अंतरंग अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जयानक कवि थे। इसकी एक टीका भी प्राप्त है। टीकाकार जोनराज है। जयानक काश्मीर के थे और उन्होंने संभवतः 1192 ई. में इस महाकाव्य की रचना की थी। इसका महत्त्व ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक है। पृथ्वीराज के पूर्वपुरुषों व उनके आरंभिक दिनों का इतिहास जानने का यह एक महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक साधन है। कवि ने अनेक स्थलों पर श्लेषालंकार के द्वारा चमत्कार की निर्मिति भी की है। - पैंगलोपनिषद् - यजुर्वेद से संबद्ध एक नव्य उपनिषद् । मुनि याज्ञवल्क्य ने यह पैंगल को कथन किया। इसके 4 खंड हैं। प्रथम खंड में आत्मज्ञान से संबंधित जानकारी बताते हुए सृष्टि की रचना, सत् चित् व आनंद रूप मूल तत्त्वों से ईश्वर -चैतन्य की निर्मिति, सत्त्व वरण के उपरांत विक्षेप-शक्ति से रजोगुण का आवरण एवं समस्त चराचर सृष्टि की निर्मिति तथा जाग्रत्, स्वप्न व सुषुप्ति की अवस्थाओं में आत्मा का विवरण आदि बातें बताई हुए गई हैं। द्वितीय खंड में विभु-स्वरूपी ईश के जीव-रूप तक पहुंचने का वर्णन, स्थूल सूक्ष्म एवं कारण-देह का वर्णन, जीव व ईश्वर के स्वरूपों का वर्णन तथा शरीर किन तत्त्वों से बना इसका विवरण है। तृतीय खंड में महावाक्यों का विवरण करते हुए “तत्त्वमसि, त्वं ब्रह्मासि, अहं ब्रह्मास्मि" आदि तत्त्वों के मनन व अध्ययन से अनुपमेय अमृतानंद का लाभ होने की बात कही गई है। चतुर्थ खंड में ज्ञानी तथा उसके कर्तव्यों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि यदि किसी (वंश) में एक भी ब्रह्मज्ञानी हो तो भी 101 पीढियों का उद्धार होता है। इस उपनिषद् के अंत में कतिपय सुंदर व्याख्याएं भी दी गई हैं यथा 'मम' अर्थात् बंधन और “न मम" अर्थात् मुक्ति आदि । पैतृकतिथिनिर्णय - ले. चक्रधर। विषय-धर्मशास्त्र। पैतृमेधिकम् - ले. यल्लाजि। भरद्वाज गोत्री यल्लुभट्ट के पुत्र। भारद्वाजीय सूत्र के अनुसार इसका प्रतिपादन है। पैतृमैधिकसूत्र - ले. भारद्वाज। इसके प्रश्न नामक दो भाग हैं और प्रत्येक में 12 कंडिकाएं हैं। पैप्पलादसंहिता - ले. प्रपंचहृदय के अनुसार अथर्ववेद की पैप्पलाद संहिता बीस काण्डों में है और उसके ब्राह्मण में आठ अध्याय हैं। काश्मीर से भूर्जपत्र लिखित पिप्पलाद संहिता की एक प्रति शारदा लिपि से देवनागरी लिपि में निबद्ध होकर महाराज रणवीरसिंह की कृपा से भांडारकर ओरिएंटल रीसर्च इन्स्टिट्यूट, पुणे में आई। उसकी एक और देवनागरी प्रति मुंबई के रायल एशियाटिक सोसायटी के ग्रन्थालय में है। इस लेख के कुछ पत्र फट जाने के कारण पिप्पलाद संहिता का प्रथम मन्त्र अन्य प्रमाणों से ही निर्धारित करना पडता है। छान्दोग्य-मन्त्रभाष्य के कर्ता गुणविष्णु के कथनानुसार पहिला मन्त्र "शन्नो देवीः" है। व्हिटने और रॉथ का मत है कि पिप्पलाद शाखा के अथर्ववेद में अथर्ववेद संहिता की अपेक्षा ब्राह्मण पाठ अधिक हैं तथा अभिचारादि कर्म भी अधिक हैं। काठक और कालापक के समान किसी समय यह शाखा भारत में अत्यंत प्रसिद्ध रही होगी यह विद्वानों का तर्क है। पौलचरितम् - ले. ईसाई संत पॉल का पद्यात्मक चरित्र । कलकत्ता में सन 1850 में प्रकाशित। पौलस्त्यवधम् (नाटक) - ले. लक्ष्मणसूरि (जन्म 1859) प्रथम अभिनय चैत्रोत्सव में हुआ था। विंटरनित्ज द्वारा प्रशंसित । अंकसंख्या-छह । विराधवध के पश्चात् की राम-कथा इसमें चित्रित है। पौष्कर-संहिता - पांचरात्र-साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता। इसके 43 अध्याय हैं संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/197 For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनमें अनेक दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन किया गया है। श्री. रामानुजाचार्य ने अपने श्रीभाष्य में इस संहिता के उद्धरण लिये हैं। पौष्करागम (या पौष्करतन्त्रम्)- यह शैवतन्त्र ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद, चर्यापाद नामक चार पादों में विभक्त है। विषय- प्रतिपदार्थनिर्णय, बिन्दुपटल, मायापटल, पशुपदार्थ, कालादिपंचक, पुंस्तत्त्व-प्रमाणाधिकार तथा तन्त्रोत्पत्ति। योगपाद और क्रियापाद का ही दूसरा नाम सर्वज्ञानोत्तरतन्त्र है एवं चर्यापाद का नाम मतंगपारमेश्वरतन्त्र है। प्रकरणआर्यवाचा - आर्य असंग। 11 परिच्छेद । बौद्धों के योगाचार संप्रदाय के व्यावहारिक तथा नैतिक तत्त्वों की यह विशद व्याख्या है। व्हेनत्सांग द्वारा इसका चीनी भाषा में अनुवाद संपन्न हुआ। प्रकाश - (1) आचार्य वल्लभ के अणु-भाष्य की मथुरानाथकृत टीका। (2) ले. वर्धमान। ई. 13 वीं शती। (3) प्रकाशः ले.- हलायुध । ई. 12 वीं शती। पिता-संकर्षण । प्रकाशिका - (1) ले. केशव काश्मीरी। ई. 13 वीं शती। निंबार्क संप्रदाय के आचार्य। दशोपनिषदों पर भाष्य, जिसमें केवल "मुण्डक" का भाष्य प्रकाशित हो चुका है। (2) ले. नृसिंहाश्रम। ई. 16 वीं शती। प्रकाशोदय - ले. शिवानन्द। विविध तन्त्रों में उपदिष्ट मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों का संग्रह इस ग्रंथ में है। प्रकृति-सौन्दर्यम् (रूपक) - ले. मेधाव्रत शास्त्री (1893-1964) । रचना-सन 1901 में। वसन्तोत्सव में अभिनीत। अंकसंख्या-छः। नायक-राजा चन्द्रमौलि। नायक द्वारा मित्र चन्द्रवर्ण के साथ विमानयात्रा के प्रसंग में हिमालय, तपोवन तथा षड् ऋतुओं का वर्णन । प्रक्रियाकौमुदी - ले. रामचन्द्र। धर्मकीर्ति की रचना से अधिक विस्तृत। पाणिनि के सब सूत्रों का व्याख्यान इस में नहीं है। यह व्याकरण शास्त्र में प्रवेशार्थियों के लिये सरल ढंग की रचना है। लेखन का प्रयोजन शब्द- प्रक्रिया का ज्ञान कराना। प्रक्रियाकौमुदीप्रकाश (वृत्ति) - ले.श्रीकृष्ण (शेषकृष्ण) इसका एक हस्तलेख लन्दन में तथा एक बडौदा में विद्यमान है। टीका अत्यंत सरल है। इसके रचना काल तक प्रक्रियाकौमुदी में पर्याप्त प्रक्षेप हो चुके थे। इस ग्रन्थ में अनेक ग्रंथ तथा ग्रंथकार उद्धृत हैं। प्रक्रियाजन (टीका) - ले. वैद्यनाथ दीक्षित। प्रक्रियादीपिका - ले. अप्पन नैनार्य (वैष्णवदास), पाण्डुलिपि मद्रास में विद्यमान। प्रक्रियाप्रदीप - ले. चक्रपाणि दत्त । गुरु-वारेश्वर । यह रामचन्द्रकृत प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या है। इसी लेखक के प्रौढमनोरमा-खण्डन में इस व्याख्या का उल्लेख है। यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। प्रक्रियामंजरी - ले. विद्यासागर मुनि । यह काशिका की टीका है। प्रक्रियारंजनम् - ले. विद्यानाथ दीक्षित । प्रक्रियाकौमुदी की टीका । प्रक्रियारत्नमणि - ले. धनेश्वर (धनेश) । विषय- व्याकरण। प्रक्रियावतार - ले. देवनंदी। ई. 5-6 वीं शती। प्रक्रियाव्याकृति (अपरनाम-प्रक्रियाप्रदीप) - ले. विश्वकर्माशास्त्री। यह प्रक्रियाकौमुदी की टीका है। प्रक्रियासंग्रह - ले. अभयचन्द्राचार्य। विषय- व्याकरण । प्रक्रियासर्वस्वम् - ले. नारायणभट्ट। 20 प्रकरण। इसमें अष्टाध्यायी के समग्र सूत्रों का समावेश हुआ है। प्रकरणों का विभाग तथा क्रम सिद्धान्तकौमुदी से भिन्न है। भोज के सरस्वती-कण्ठाभरण तथा वृत्ति से रचना में सहायता ली गई है। प्रचण्डचण्डिका-सहस्रनामस्तोत्रम् - विश्वसारतन्त्रान्तर्गत हर-गौरी संवाद रूप। प्रचण्डपाण्डवम् (बालभारत) - ले. राजशेखर। संक्षिप्तकथा- इस नाटक के मात्र दो अंक प्राप्त होते हैं। इसके प्रथम अंक में द्रौपदी स्वयंवर का वर्णन है। पाण्डव ब्राह्मण वेष में स्वयंवर में आते हैं। अर्जुन शर्त के अनुसार राधनामक मत्स्य को वेध कर द्रौपदी से विवाह करने का अधिकारी हो जाता है। तब सारे राजा उसका विरोध करते हैं। अर्जुन उन्हें युद्ध का आव्हान करता है। द्वितीय अंक में दुर्योधन और युधिष्ठिर के मध्य द्यूत होता है जिसमें युधिष्ठिर पराजित हो अपनी पत्नी द्रौपदी और भाइयों के साथ बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए प्रयाण करते है। इस नाटक में कुल बारह अथोपक्षेपक हैं। इनमें 2 विष्कम्भक और नौ चुलिकाएं हैं। प्रचण्डराहूदय - (नाटक) ले. धनश्याम (1700-1750 ईसवी)। तंजौर के अधिपति तुकोजी भोसले के मंत्री थे। पांच अंक। विषय- वेङ्कटनाथकृत वेदान्तदेशिक के विशिष्टाद्वैत का खण्डन । प्रबोधचन्द्रोदयम् के अनुकरण पर ही इस लाक्षणिक नाटक की रचना है। प्रचण्डानुरंजम् - (प्रहसन) - ले. घनश्याम । ई. 18 वीं शती। प्रजापतिचरितम् - ले. कृष्णकवि।। प्रजापतिस्मृति - ले. इस स्मृति के रचयिता प्रजापति कहे गये हैं। आनंदाश्रम-संग्रह में इस स्मृति के श्राद्ध विषयक 198 श्लोक प्राप्त होते हैं। इनमें अधिकांश श्लोक अनुष्टुप् हैं किंतु यत्र-तत्र इंद्रवज्रा, उपजाति, वसंततिलका व स्रग्धरा छंद भी प्रयुक्त हुए हैं। "बौधायन धर्मसूत्र' में प्रजापति के सूत्र प्राप्त होते हैं। "मिताक्षरा" व अपरार्क ने भी प्रजापति के श्लोक उद्धृत किये हैं। "मिताक्षरा' के एक उद्धरण में प्रजापतिस्मृति के अनुसार परिव्राजकों के 4 भेद वर्णित हैंकुटीचक, बहूदक, हंस व परमहंस। प्रजापति ने अपनी इस 198 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स्मृति में कृत तथा अकृत के रूप में दो प्रकार के न्यायालयीन साक्षियों का वर्णन किया है। प्रजापतेः पाठशाला ले. सुरेन्द्रमोहन (रा. 20) "मंजूषा " में प्रकाशित बालोपयोगी लघु नाटक। सुबोध भाषा । उपनिषद् की कथा पर आधारित कथासार प्रजापति की पाठशाला में देवों, दानवों तथा मानवों को "द" अक्षर का उपदेश दिया जाता है। दानव उसका अर्थ दण्ड, दर्प तथा दीनों की दुर्गति करना समझते हैं । अन्त में तीनों को क्रमशः दम, दान तथा दया का उपदेश दिया जाता है। - प्रज्ञादण्ड ले. नागार्जुन । इस ग्रंथ का केवल तिब्बती अनुवाद विद्यमान है। ई. 1919 में मेजर कॅम्पबेल द्वारा कलकत्ता से संपादित तथा प्रकाशित । नीतिपूर्ण रोचक रचना नैतिक तथा बुद्धिमत्तापूर्ण शिक्षा देनेवाली 260 लोकोक्तियों का यह संग्रह है। प्रज्ञापारमितासूत्र ले. बौध महायान संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रकाशक ग्रंथ । प्रज्ञापारमिता का अर्थ हैशून्यताविषयक सर्वोच्च ज्ञान जगत् के पदार्थों की यथार्थ सत्ता नहीं है, अर्थात् वे शून्यस्वरूप हैं। इस शून्यता का ज्ञान ही प्रज्ञा का प्रकर्ष है । इस शून्यता के नाना रूपों का प्रतिपादन इस रचना का प्रतिपाद्य विषय है । इसका स्वरूप तथागत एवं शिष्य संभूति के परस्पर वार्तालाप का है। महायान सूत्रों में यह सर्वाधिक प्राचीन, (ई. 2 री शती) माना जाता है। इसका चीनी अनवाद लोकरक्ष ने किया। श्वाच्यांग ने 12 11 प्रज्ञापारमिताएं में : इसके अनेक संस्करण उपलब्ध हैं : प्रज्ञापारमिताओं का अनुवाद किया है। कंजूर संकलित हैं। 8 प्रज्ञापारमिताएं संस्कृत में भी प्राप्त हैं- (वे शतसाहस्त्रिका, पंचाविंशतिका अष्टसाहस्विका सार्धद्विसाहस्त्रिका, सप्तशतिका, वज्रच्छेदिका, अल्पाक्षरा तथा प्रज्ञापारमिता-हृदयसूत्र । नेपाली परम्परा से मूल रचना में सवा लाख श्लोक हैं, उसी का 25 हजार, 10 हजार, 8 हजार में संक्षेप है। अन्य परम्परा से प्राचीन रचना के 8 हजार श्लोक बढाकर ग्रंथ का विशदीकरण हुआ है। यह दूसरी परम्परा विश्वसनीय है। इन सूत्रों में दान, शील, धैर्य, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा इन 6 पारमिताओं का विवेचन है । अष्टसाहस्रिका संस्करण 32 परिवर्तों में विभक्त तथा सर्वाधिक प्राचीन है इसमें चर्चित सिद्धान्तों को ही नामान्तर से अनेक आचार्यों ने सुव्यवस्थित किया है । शतसाहस्त्रिका, पंचविंशतिसाहस्त्रिका, अष्टादशसाहस्त्रिका, दशसाहस्त्रिका, अष्टशतिका, सप्तशतिका, पंचशतिका, व्रजच्छेदिका, अल्पाक्षरा, एकाक्षरी आदि विविध बृहत् या संक्षिप्त रूप इसी अष्टसाहस्रिका रचना के हैं। इनमें से कुछ तो अप्राप्त हैं तथा अन्य अनूदित तथा प्रकाशित हैं, वज्रसूचिका प्रज्ञापारमिता में 300 श्लोक है तथा अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, तिब्बती खोतानी आदि अनेक भाषाओं मे अनूदित है। 1 प्रणवकल्प स्कन्दपुराणांतर्गत श्लोक 2701 विषय " www.kobatirth.org - - - प्रणवस्तवराज, प्रणवकवच, प्रणवपंजर, प्रणवहृदय, प्रणवानुस्मृति, ओंकाराक्षरमालिकामन्त्र प्रणवमालामन्त्र, प्रणवगीता, प्रणव के अष्टोत्तरशत नाम, प्रणव के षोडश नाम तथा यतियों का मानसिक स्नान आदि। यह ग्रंथ प्रणव या ओंकार की उपासना - विधि से संबंध रखता है। (2) ले. शौनक। इसपर हेमाद्रिकृत टीका है। (3) ले आनंदतीर्थ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणवकल्पप्रकाश ले. गंगाधरेन्द्र सरस्वती भिक्षु । श्लोक 1097| विषय प्रणव की उपासना से संबंधित । प्रणवदर्पण (1) ले. वेंकटाचार्य । (2) ले. श्रीनिवासाचार्य । - प्रणवपारिजात - सन 1958 में कलकत्ता से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में इसके संपादकत्व का दायित्व केदारनाथ सांख्यतीर्थ और श्री जीव न्यायतीर्थ व महामहोपाध्याय श्री. कालीपद तर्काचार्य ने संभाला। बाद में श्री. रामरंजन प्रकाशक और संपादक दोनों का दायित्व संभालते रहे। इस पत्र में गद्य-पद्यात्म काव्य, अनुवाद, निबंध, स्तुतियां, समालोचना और अभिनव साहित्य का प्रकाशन होता रहा। प्रणवार्चनचन्द्रिका ले. मुकुन्दलाल । प्रणवोपनिषद् एक नव्य उपनिषद् । इस नाम का एक उपनिषद् गद्य में और दूसरा पद्य में है । प्रणव अर्थात् विष्णु - रहस्य । विष्णु के नाभि कमल में विराजमान ब्रह्मदेव ने प्रणव की सहायता से सृष्टि की रचना करने का निश्चय किया । अ उ म इन 3 अवयवों में से, अकार से उन्होंने पृथ्वी, अग्नि, औषध, ऋग्वेद, भूः (व्याहृति) गायत्री छंद त्रिवृत् स्तोम, पूर्वदिशा, वसंतऋतु, जीभ, रस व रुचि की निर्मिति की उकार से वायु, यजुर्वेद, भुवः (व्याहृति) त्रिष्टुभ् छंदः पंचदश स्तोम, पश्चिम दिशा, ग्रीष्मऋतु, प्राण व नासिका का निर्माण किया । "मकार" से स्वर्ग, सूर्य, सामवेद, स्वः ( व्याहृति), जगती छंद, सप्तदश स्तोम, उत्तर दिशा, वर्षा ऋतु ज्योति व नेत्रों का निर्माण किया और अर्धमात्रा से श्रुति, इतिहास, पुराण, वाकोवाक्य, गाथा, उपनिषद् व अनुशासन की निर्मिति की । " For Private and Personal Use Only एक बार असुरों ने इन्द्रपुरी को घेर लिया। देवों ने प्रणव को अपना नायक बनाया। विजय प्राप्त होने की स्थिति में किसी भी वेदोच्चार के पूर्व प्रणव का उच्चार करने की बात मानी गई थी। देवों की विजय हुई। अतः तब से वेद पठन का प्रारंभ प्रणव से किया जाने लगा। प्रणव के साढे तीन मंत्रों का एक और वर्गीकरण इस उपनिषद में दिया है, जो निम्न प्रकार है ब्रह्मा दैवत, लालरंग व ब्रह्म-पद की प्राप्ति अकार ध्यान फल । उकार विष्णु दैवत, काला रंग व वैष्णव पद की प्राप्ति संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 199 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ध्यान फल । मकार - ईशान दैवत, गहरा पीला रंग व ऐशान पद की प्राप्ति ध्यान फल । अर्धमात्रा सर्वदैवत्य, स्फटिक के समान स्वच्छ रंग व ध्यान - फल अनामिक पद की प्राप्ति । प्रणवोपासनाविधि ले. गोपीनाथ पाठक । पिता - अग्निहोत्री - - पाठक । प्रणवलक्षणम् - ले. मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती । प्रणयिमाधवचम्पू ले. मा माधव भट्ट । प्रतापनारसिंह ले. रुददेव । भारद्वाज गोत्रज तेजोनारायण के पुत्र । गोदावरीतीरस्थ प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठन) में श, सं. 1632 (1710-11 ई.) में प्रमाणित विषय | संस्कार, पूर्त, अन्त्यष्टि, संन्यास, यति, वास्तुशान्ति, पाकवश, प्रायश्चित्त, कुण्ड, उत्सर्ग, जातिविवेक इ. । - | प्रताप-मानंद ले. रामकृष्ण पिता-माधव । कटक के राजा श्री प्रताप रुद्रदेव के आदेश से लिखित। (ई. 16 वीं शती) इस ग्रंथ के पदार्थ निर्णय, वासरादि-निरूपण, तिथि-निरूपण, प्रति-निरूपण व विष्णु भक्ति नामक 5 विभाग हैं। यह ग्रंथ प्रतापरुद्रनिबंध नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रतापरुद्रयशोभूषणम् ले. विद्यानाथ ई. 13-14 वीं शती विद्यानाथ ने संस्कृत साहित्य में नया मार्ग अपनाया जो इसके बाद बहुतों द्वारा अनुकृत हुआ। इस एक ही रचना द्वारा दो कार्यभाग संपन्न हुए हैं अपने आदरणीय राजा या देवता की प्रशंसा तथा साथ साथ साहित्य-शास्त्रीय उदाहरणार्थ रचना | यों तो उद्भट ने ( 6-9 वीं शती) इस प्रकार की रचना कर पार्वतीविवाह और अलंकारशास्त्रीय तत्त्वविवरण का सूत्रपात किया था, पर विद्यानाथ ने राजप्रशंसा की परम्परा का प्रारम्भ किया। इसकी नाट्य रचना "प्रतापरुद्रकल्याणम्" भी इसी प्रकार की है। ( प्रतापरुद्र के शौर्य तथा सद्गुण-वर्णन के साथ संस्कृत नाट्यतन्त्र का सोदाहरण विवेचन ) । प्रस्तुत रचना का पहला प्रकरण नायक-नायिका भेद वर्णन। दूसरा प्रकरण - काव्य का लक्षण और भेद । तीसरा प्रकरण आदर्शनाटक- प्रतापरुद्रदेव का राज्यारोहण समारम्भ, शानदार राज्यव्यवस्था तथा युद्ध में विजयपरम्परा | चौथा प्रकरण रसनिष्पत्ति । पांचवां और छठा प्रकरण - गुणदोष-विवेचन और अन्तिम प्रकरण अलंकार । इस पर कुमारस्वामी कृत "रत्नापण" टीका मिलती है। "रत्नशाण" नामक अन्य अपूर्ण टीका भी प्राप्त होती है। इस ग्रंथा प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है। इसका प्रकाशन मुंबई संस्कृत सीरीज से हुआ है, जिसके संपादक के. पी. त्रिवेदी थे। प्रतापरुद्र- विजयम् (प्रहसन ) ले. डॉ. वेंकटराम राघवन् । विषय - विद्यानाथ के प्रतापरुद्र यशोभूषण का विडम्बन । (अपर नाम विद्यानाथविडम्बन) परवर्ती युग की पतनोन्मुख संस्कृत - www.kobatirth.org - - 200 / संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड - शैली की बुराइयां दिखाने हेतु लिखित अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा का विडम्बित रूप । अंकसंख्या चार विशुद्ध प्रहसन । प्रतापरुद्र के दिग्विजय प्रस्थान से राज्याभिषेक तक की कथा इस रूपक में चित्रित है। - प्रतापविजयम् ले. मूलशंकर मणिलाल याज्ञिक । रचनाकाल - 1926 अंकसंख्या नौ नाट्योचित सुबोध शैली। प्रधान रस- वीर, अंगरस-शृंगार गीतों का बाहुल्य, राग-तालों का निर्देश सभी संवाद संस्कृत में, युद्धनीति का पाण्डित्य, स्वतन्त्रता का संदेश और अलंकारों का प्रयोग इस रूपक की विशेषताएं हैं। कथासार मानसिंह राणा प्रताप को अकबर के साथ मित्रता करने के लिये भोजन पर निमंत्रित करते हैं परंतु राणा प्रताप मानसिंह का साथ नहीं देते। मानसिंह चिढता है। हलदीघाटी का युद्ध होता है और मानसिंह मारा जाता है। अकबर प्रताप के पीछे चर लगाता है, प्रताप वनप्रदेश का आश्रय लेता है। यवनसेना उस प्रदेश को घेरती है। अन्त में दिल्ली से संधिपत्र आता है। प्रतापार्क ले. विश्वेश्वर। पिता रामेश्वर। गोत्र- शांडिल्य । जयसिंह ह पुत्र प्रताप के आदेश से इस की रचना हुई । लेखक के पूर्वज द्वारा लिखित जयसिंह कल्पद्रुम नामक ग्रंथ पर प्रस्तुत ग्रंथ आधारित है। विषय-धर्मशास्त्र । प्रतिज्ञा कौटिल्यम् (रूपक) ले. जग्गू श्री. बकुलभूषण । सन 1963 में बंगलोर से प्रकाशित। भगवान् सम्पत्कुमार के हीरकिरीट उत्सव में अभिनीत अंकसंख्या आठ छाया-तत्त्व की प्रचुरता अर्थगर्भ शब्दावली में "मुद्राराक्षस" के पूर्व का कथाभाग इसमें चित्रित है। कथा का मूलाधार चाणक्यनीति । विशेषताएं रंगमंच पर हाथी का प्रवेश, रंगमंच पर अनेक विभाग जिनमें दूरस्थ घटनाओं का चित्रण, एक ही पद्य में प्रश्नोत्तर, पर्वतेश्वर का विषकन्या के साथ प्रणय प्रसंग आदि । प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् ले महाकवि भास। - For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - 1 संक्षिप्त कथा :- इस नाटक में चार अंक हैं। प्रथम अंक में नागवन में शिकार के लिये आये हुए उदयन को प्रद्योत का मंत्री शालंकायन बंदी बना कर उज्जयिनी ले जाता है उदयन का मंत्री यौगन्धरायण उदयन को मुक्त कराने का संकल्प करता है। द्वितीय अंक में शालंकायन कंचुकी के हाथ उदयन की घोषवती नामक वीणा प्रद्योत के पास भेजता है। रानी के कहने पर प्रद्योत अपनी पुत्री वासवदत्ता को वीणा दे देता है । तृतीय अंक में यौगंधरायण विदूषक और रुमण्यान् वेष परिवर्तित करके उदयन सहित वासवदत्ता के अपहरण की योजना बनाते हैं। चतुर्थ अंक में उदयन भद्रावती नामक हाथिनी पर वासवदत्ता को बिठाकर भाग जाता है और उदयन तथा प्रद्योत की सेना में युद्ध होता है जिसमें यौगन्धरायण को बन्दी बनाया जाता है पर वासवदत्ता को उदयन के साथ विवाह का प्रद्योत द्वारा स्वीकार कर लिये जाने पर यौगन्धरायण मुक्त हो जाता है। 1 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस नाटक में कुल चार अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें एक विष्कम्भक । 1 प्रवेशक और 2 चूलिकाएं हैं। प्रतिज्ञावादार्थ - ले. अनंतार्य। ई. 16 वीं शती । प्रतिज्ञाशान्तनवम् - (लघुरूपक) ले. जगू श्रीबकुल भूषण। "संस्कृतप्रतिभा' में प्रकाशित । अंकसंख्या-दो। भीष्मप्रतिज्ञा का कथानका प्रतिक्रिया (रूपक)- ले. वेंकटकृष्ण तम्पी। सन 1924 में प्रकाशित। राजपूत-इस्लामी संघर्ष युग का अंकन आधुनिक युरोपीय शैली में किया है। प्रतिनैषधम् - ले. विद्याधर तथा लक्ष्मण । ई. 17 वीं शती। प्रथिततिथिनिर्णय - ले. नागदैवज्ञ। प्रतिभा- काशीधर्मसंघ द्वारा प्रकाशित पत्रिका । प्रतिमा (नाटक) - ले.महाकवि भास। रचनाकाल- कालिदास पूर्व। संक्षिप्त कथा - प्रथम अंक में राम के राज्याभिषेक की तैयारियां की जाती हैं किन्तु कैकेयी के द्वारा दशरथ के वरों के रूप में राम को 14 वर्ष का वनवास और भरत को राज्यप्राप्ति मांगने से दशरथ मूर्च्छित हो जाते हैं। राम सीता और लक्ष्मण के साथ वनगमन के लिए उद्यत होते हैं। द्वितीय अंक में रामादि के वनगमन का समाचार पाकर दशरथ अनेक प्रकार से विलाप करते हुए प्राणत्याग करते हैं। तृतीय अंक में ननिहाल से लौटते हुए भरत को प्रतिमागृह में दशरथ की मृत्यु का परिज्ञान होता है। वहां वे कौसल्यादि राजमाताओं से मिलकर तथा कैकेयी को दशरथ की मृत्यु का दोषी ठहराकर राज्याभिषेक छोडकर राम के पास चले जाते हैं। चतुर्थ अंक में भरत राम को अयोध्या लौटाने में असमर्थ हो राम की चरणपादुकाओं को राम का प्रतिनिधि मानकर राज्यभार धारण करना स्वीकार कर अयोध्या लोटते हैं। पंचम अंक में रावण ब्राह्मणवेष में आकर सीता का अपहरण करता है। मार्ग में जटायु उस पर आक्रमण करता है। षष्ठ अंक में सुमंत्र से सीताहरण का समाचार पाकर भरत कैकेयी की निंदा करते हैं, तब सुमंत्र दशरथ को श्रवणकुमार के मातापिता से मिले शाप के बारे में बताते हैं। सप्तम अंक में राम, रावण का वध कर बिभीषण को राज्याभिषेक कर पंचवटी लौटते हैं जहां भरत भी सपरिवार पहुंच कर राम का राज्याभिषेक करते हैं। बाद में सभी पुष्पक विमान से अयोध्या जाते हैं। इसमें 9 अर्थोपक्षेपक हैं जिनमें विष्कम्भक 3, प्रवेशक 2 और चूलिका 4 हैं। प्रतिमाप्रतिष्ठा - ले.नीलकंठ। प्रतिराजसूयम् (रूपक) - ले. महालिंगशास्त्री। मद्रास संस्कृत एकेडेमी से सन 1929 में पुरस्कृत। सन 1957 में साहित्य चन्द्रशाला,तिरुवलंगुडू, तंजौर से प्रकाशित। अंकसंख्या सात । महाभारत के वनपर्व का कथानक है। प्रतिष्ठाकल्पलता - ले. वृन्दावन शुक्ल । प्रतिष्ठाकौमुदी - ले. शंकर । श्लोक 1500 | विषय- शिल्पशास्र। प्रतिष्ठाकौस्तुभ - ले. शेषशर्मा। श्लोक 400। विषयशिल्पशास्त्र। प्रतिष्ठाचिन्तामणि - ले.गंगाधर । विषय- शिल्पशास्त्र। प्रतिष्ठातंत्रम् - ले. मय । विषय-शिल्पशास्त्र । (2) सुप्रभेदान्तर्गत, महेश्वर- महागणपति संवाद रूप। श्लोक- 13201 विषयमुख्य रूप से विमान-स्थापनाविधि, रसदीक्षा-विधान, अष्टमीभजनविधि, क्षेत्रपालार्चनविधि, नाडीचक्र आदि। (3) आदिपुराण के अन्तर्गत। श्लोक- 13700। विषय- शिव, विष्णु, ब्रह्म, विघ्न, शास्तू, रवि, कन्यका, मातृ, शेष पूजा आदि देवताओं के भाग तथा प्रत्येक भाग में 12 आश्वास हैं। कुल 144 आश्वास हैं। तंत्रों की उत्पत्ति, लक्षण, संख्या, शिष्य-संख्या, उनके नाम आदि विषय भी वर्णित हैं। (4) निःश्वास-महातंत्र के अंतर्गत, उमा-महेश्वर संवाद रूप। 70 पटलों में पूर्ण । स्थापक तथा स्थपति के लक्षण, लिंगयोनि पटल, रत्नज और पार्थिव लिंग का लक्षण, वनप्रवेश, वृक्षलक्षण और पाषाणलक्षण,वनाधिवास, वृक्षग्रहण इ. 70 पटलों के पृथक्-पृथक् विषय हैं। लिंगादि निर्माण, विविध देवप्रतिमा के लक्षण, जीर्णोद्धार-प्रतिष्ठा, प्रासाद तथा मन्दिर निर्माण इ. विस्तारपूर्वक वर्णित हैं। प्रतिष्ठातत्त्वम् (या देवप्रतिष्ठातत्त्व) - (1) ले- रघुनन्दन । (2) ले- मय। प्रतिष्ठातिलक - ले. ब्रह्मदेव (या ब्रह्मसूरि) जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। श्लोक- 500। प्रतिष्ठादर्पण - ले. पद्मनाभ। नारायणात्मज गोपाल के पुत्र । ई. 18 वीं शती। प्रतिष्ठानिर्णय - ले. गंगाधर । प्रतिष्ठापद्धति - ले.अनन्तभट्ट (बापूभट्ट) प्रतिष्ठापद्धति - (1) ले. महेश्वरभट्ट हर्षे। (2) ले. नीलकण्ठ । (3) ले. त्रिविकमभट्ट। पिता- रघुसूरि । (4) ले- राधाकृष्ण ।। (5) ले- शंकरभट्ट। प्रतिष्ठापाद - ले. नेमिचन्द्र जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। प्रतिष्ठाप्रकाश - ले. हरिप्रसाद शर्मा। प्रतिष्ठाप्रयोग - ले. कमलाकर। श्लोक- 180। प्रतिष्ठामयूख (नामान्तर- प्रतिष्ठाप्रयोग) - ले. नीलकण्ठ। घारपुरे द्वारा मुद्रित। प्रतिष्ठाकर्मपद्धति - ले.दिवाकर। प्रतिष्ठालक्षणसमुच्चय - ले. हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती। पिताकामदेव। प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय - ले. वैरोचनि। गुरु- ईशानशिव । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 201 For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra । श्लोक- 3500 पटल- 32 प्रतिष्ठाविधिदर्पण ले. नरसिंह यज्वा श्लोक- 16001 । प्रतिष्ठाविवेक (1) ले. उमापति (2) ले शूलपाणि । प्रतिष्ठासारसंग्रह इसमें देवता प्रतिष्ठाविधि प्रतिपादित है। प्रतिष्ठासार- ले. बल्लालसेन । उनके दानसागर में इसका निर्देश है। - प्रतिष्ठासारदीपिका ले. पांडुरंग चितामणि टकले महाराष्ट्र में नासिक पंचवटी के निवासी। सन 1780-81 में लिखित । प्रतिष्ठासारसंग्रह ले. वसुनन्दी जैनाचार्य ई. 11-12 वीं शती प्रतिष्ठेन्दु - ले. त्र्यंम्बकभट्ट। (2) ले त्र्यंबक नारायण भाटे । प्रतिष्ठोद्योत (दिनकरोद्योत का अंश) ले. दिनकर एवं 1 उनके पुत्र विश्वेश्वर भट्ट (गागाभट्ट) । प्रतिसरबन्धप्रयोग विवाह एवं अन्य उत्सवावसर पर कलाई में बांधने के नियमों पर । प्रतिहारसूत्रम् - ले. कात्यायन । प्रतिकार ले. सहस्रबुद्धे । रचना- सन 1933 के लगभग । छत्रपति शिवाजी विषयक उपन्यास (2) ले - डा. कृष्णलाल नादान । दिल्ली निवासी। "भारती" 7-4 में प्रकाशित। एकांकी रूपक । अष्टावक्र की कथा । प्रतीताक्षरा - ले. नंदपंडित । ई. 16-17 वीं शती। मिताक्षरा की टीका। - - प्रतीत्यसमुत्पाद-हृदयम् ले नागार्जुन आर्या छंदों में विवेचन । विषय- बौद्धदर्शन । प्रत्नकम्रनंन्दिनी इस पत्रिका का प्रकाशन वाराणसी से सन 1867 में सत्यव्रत सामश्रमी के सम्पादकत्व में प्रारम्भ हुआ । प्रकाशक थे हरिश्चन्द्र शास्त्री इस पत्रिका का दूसरा नाम 'पूर्णमासिकी" था । प्रकाशन लगभग आठ वर्षो तक हुआ। इसमें सामवेद और उस पर टीका तथा उसके बंगला अनुवाद के अलावा धर्म पर अनेक निवन्ध प्रकाशित हुए मैक्समूलर ने इसमें प्रकाशित निबन्धों की सराहना की है। प्रत्यक्ष- शरीरम् (शरीरव्यवच्छेदशास्त्रम्) ले कविराज गणनाथ सेन। ई. 19-20 वीं शती । आधुनिक पद्धति के अनुसार शरीरविज्ञान का प्रतिपादन । www.kobatirth.org - - प्रत्यगालोकसारमंजरी - ले. कृष्णनाथ। प्रत्यंगिरापंचांगम् रुद्रयामलान्तर्गत उमा-महेश्वर संवाद रूप। विषय- 1) प्रत्यंगिरा की पूजा, कवच सहस्रनाम स्तोत्र आदि । प्रत्यंगिरा मन्त्रप्रयोग पैप्पलाद शाखीय श्लोक- 450 । प्रत्यंगिरा मंत्रोद्धार श्लोक- 1211 प्रत्यंगिरा - यन्त्रकल्प श्लोक- 300 । प्रत्यंगिरा विधानम् श्लोक 400 प्रत्यंगिरा सिद्धिमंत्रोद्धारले. चण्डोशूलपाणि श्लोक 111 | - · 202 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - प्रत्यंगिरासूक्तम् ले. कृष्णनाथ । व्याख्यासहित । प्रत्यंगिरास्तोत्रम् ले चण्डोपशूलपाणि विश्वसारोद्धारान्तर्गत। श्लोक- 951 - प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (बृहती वृत्ति) विषय- काश्मीरीय प्रत्यभिज्ञा दर्शन । प्रत्यभिज्ञाहृदयम् प्रत्यभिज्ञादर्शन । प्रत्यवरोहणप्रयोग - - प्रदीप नारायणभट्ट के प्रयोगरत्न का अंश । ले. कैटभट्ट । ई. 10-11 वीं शती काव्यप्रकाश की सुप्रसिद्ध टीका । प्रदोषनिर्णय ले. विष्णुभट्ट पुरुषार्थचिन्तामणि से संगृहीत विषय- धर्मशास्त्र | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ले. आचार्य उत्पल । ले. क्षेमराज । विषय- काश्मीरीय प्रदोषपूजापद्धति - ले. वल्लभेन्द्र वासुदेवेन्द्र के शिष्य प्रद्युम्नचरितम् ले रामचंद्र पिता श्रीकृष्ण जैनसंप्रदायी। 17 वीं शती जैनपरम्परा के अनुसार प्रद्युम्र की कथा इस 18 सर्गो के काव्य में वर्णित है। (2) ले सोमकीर्ति । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । For Private and Personal Use Only 1 प्रद्युम्न - विजयम् - ले. शङ्कर दीक्षित । ई. 18 वीं शती (काशीनिवासी) छत्रसाल के पौत्र तथा हृदयशाह के पुत्र सभासिंह के राज्यभिषेक के अवसर पर पर अभिनीत अपर नाम "वज्रनाभ - वध" । अंकसंख्या सात प्रमुख रस- शृङ्गार । पंचम अंक में सम्भोग का वर्णन। छल-छद्मों से परिपूर्ण वृत्ति - आरभटी । शैली अंलकारप्रचुर । संयुक्त अक्षरों का आनुप्रासिक प्रयोग विविध छन्दों का प्रयोग शार्दूलविक्रीडित कवि का प्रियतम छन्द है। लम्बे समास और अलंकारों की बहुलता है। कथावस्तु कश्यप और दिति का पुत्र, वज्रपुर का राजा वज्रनाभ, ब्रह्मा से वरदान पाकर उन्मत्त बन, सब को सताता है। कश्यप उसे अत्याचारों से परावृत्त करना चाहता है । रुक्मिणी कृष्ण से कहती है कि वज्रनाभ की कन्या प्रभावती प्रद्युम्न की पत्नी बनने योग्य है। इन्द्र प्रभावती के पास हंस-ऐसियों को भेजता है। हंसियों के मुख से प्रम की प्रशंसा सुन प्रभावती उससे मिलने को उत्सुक होती है। कृष्ण ने पहले ही प्रद्युम्न, गद तथा साम्ब को नट के वेष में वज्रपुर भेजा है। प्रद्युम्न का प्रभावती से गान्धर्व विवाह होता है। गद और साम्ब के विवाह प्रभावती की बहनों से होते हैं। नारद वज्रनाभ से कहता है कि प्रभावती प्रद्युन से गर्भवती है। वज्रनाभ प्रद्युम्र पर धावा बोलता है। कृष्ण प्रद्युम्न की सहायतार्थ आते हैं और वज्रनाभ को मारकर प्रभावती को पुत्रवधू बनाकर ले जाते हैं। प्रद्युम्नानन्दम् (नाटक) - ले. वेंकटाध्वरि । प्रद्योत 1 4100 ले. त्रिविक्रम प्रयोगमंजरी की व्याख्या । श्लोक21 पटल ! Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रपंच-मिथ्यात्वानुमान-खंडनम् - ले. मध्वाचार्य। द्वैतमत के प्रवर्तक। “दश-प्रकरण" के अंतर्गत संकलित निबंधों में से एक। 29 पंक्तियों के प्रस्तुत निबंध में अद्वैत-मत का खंडन है। प्रपंचसार - ले. श्रीशंकराचार्य। 36 पटलों में पूर्ण । विषय-तांत्रिक अर्चना-पूजा। प्रपंचसार की टीकाएं- 1) प्रपंचसारसंबंधदीपिका-उत्तम प्रकाश के शिष्य उत्तमबोधकृत। 2) प्रपंचसार-व्याख्या-विज्ञानोद्योतिनी, श्लोक 6800। यह शंकराचार्य विरचित सर्वागमसारभूत प्रपंचसार की व्याख्या 30 पटलों तक है। 3) प्रपंचसारविवरण, विज्ञानेश्वर-विरचित । 4) प्रपंचसारविवरण, पद्मपादाचार्य-विरचित, श्लोक-2900। प्रपंचसारविवरण, नारायणकृत। प्रपंचसारविवरण, देवदेवकृत। तत्त्वप्रदीपिका-नागस्वामी कृत, श्लोक- 1400 । प्रपंचसारटीका, सारस्वतीतीर्थ कृत, श्लोक 28941 प्रपंचसारविवरण, प्रेमानन्द भट्टाचार्य शिरोमणि विरचित। प्रपंचसार - तंत्रशास्त्रविषयक ग्रंथ। ई. 1450 से पूर्व की रचना । इस पर गीर्वाणयोगीन्द्र की और ज्ञानस्वरूप की व्याख्या है। प्रपंचसारविवेक (या भवसारविवेक) - ले. गंगाधर महाडकर। सदाशिव के पुत्र। आठ उल्लासों में आह्निक, भगवत्पूजा, भागवतधर्म आदि विषय वर्णित हैं। प्रपंचसारसंग्रह - ले. गीर्वाणेन्द्र सरस्वती। गुरु- विश्वेश्वर सरस्वती। श्लोक 132001 प्रपंचामृतसार - ले. तंजौर के राजा एकराज (एकोजी) ई. 1676 से 16841 प्रपंचामृतसार - ले. महादेव। विशिष्टाद्वैत तथा द्वैतमत का खण्डन और अद्वैत मत की स्थापना । मराठी अनुवाद उपलब्ध है। प्रपन्नकल्पवली - ले. निंबाकाचार्य। निंबार्क-संप्रदाय में 1) श्रीमुकुंदशरण-मंत्र (नारद-पंचरात्रानुमोदित ) की तथा 2) अष्टादशाक्षर गोपाल-मंत्र की दीक्षा की पद्धति प्रचलित है। आचार्य निंबार्क ने दोनों मंत्रों का उपदेश गुरुदेव नारद से प्राप्त किया और उनकी व्याख्या के निमित्त दो ग्रंथों की रचना की- 1) मंत्र-रहस्य-षोडषी और 2) प्रस्तुत प्रपन्न-कल्पवल्ली। प्रथम ग्रंथ में गोपाल-मंत्र की विस्तृत व्याख्या है और प्रस्तुत प्रपन्न-कल्पवल्ली में मुकुंद-शरण-मंत्र के रहस्य का उद्घाटन किया गया है। प्रपन्नकल्पवल्ली पर सुंदर भट्टाचार्य ने "प्रपन्नसुरतरुमंजरी' नामक विस्तृत भाष्य लिखा है और वह हिन्दी अनुवाद के साथ मुद्रित भी हो चुका है। प्रपन्नगतिदीपिका - ले. तातादास। इसमें विज्ञानेश्वर, चंद्रिका, हेमान्द्रि माधव, सार्वभौम और वैद्यनाथ दीक्षित का उल्लेख है। प्रपन्नदिनचर्या - रामानुज सम्प्रदाय के अनुसार। प्रपन्न-सपिण्डीकरण-निरास - ले. घट्टशेषाचार्य । प्रपन्नामृतम् - कवि अनन्ताचार्य। अलवार संप्रदाय के कतिपय वैष्णव साधुओं का चरित्र इस काव्य में वर्णित है। प्रभा - ले. वैद्यनाथ पायगुंडे। ई. 18 वीं शती। शास्त्रदीपिका की व्याख्या। प्रभाकरविजय - ले. नन्दीश्वर । ई. 12 वीं शती। प्रभाकराह्निक - ले. प्रभाकरभट्ट। विषय धर्मशास्त्र । प्रभातवेला - अनुवादक महालिङ्गशास्त्री। मूल है वर्डस्वर्थ का अंग्रेजी काव्य। प्रभावती (नाटक)- ले. अनादि मिश्र। ई. 18 वीं शती। प्रभावती-परिणयम् (नाटक) - ले. हरिहरोपाध्याय। ई. 17 वीं शती। (पूर्वार्ध) कवि ने अपने छोटे भाई नीलकण्ठ के पढने के लिए यह छह अंकों का नाटक लिखा। वीररस तथा शृंगार रस का मिला जुला प्रवाह। पुरुष-चरित्रों की अपेक्षा स्त्री चरित्रों की प्रधानता। प्रस्तावना में ऐतिहासिक महत्त्व की कुछ सूचनाएं हैं। चौखम्भा संस्कृत सीरीज् (वाराणसी) से सन 1969 में प्रकाशित । कथासार- वज्रनाभ की कन्या प्रभावती पर मोहित नायक प्रद्युम्न चोरी छिपे वज्रनाभपुरी पहुंचता है। वहां एक नाटक में वह नायक का अभिनय करता है, जिसे देख प्रभावती भी आकृष्ट होती है। अन्त में वह अपने असली रूप में प्रकट होता है परन्तु शरीरतः दिखाई नहीं देता। वज्रनाभ उसके साथ युद्ध करता है परन्तु इन्द्र तथा श्रीकृष्ण की सहायता प्रद्युम्न को मिलती है। अन्त में वज्रनाभ तथा अन्य दानव भी मारे जाते है और नायक-नायिका का विवाह सम्पन्न होता है। प्रबन्धप्रकाश - ले. डा.मंगलदेव शास्त्री । वाराणसी निवासी। प्रबन्धमंजरी - ले. पं. हृषीकेश भट्टाचार्य। काशीनाथ शर्मा द्वारा प्रकाशित। विद्योदय मासिक पत्रिका में प्रथम क्रमशः प्रकाशित। प्रबुद्धरौहिण्यम् (प्रकरण) - ले. रामभद्र मुनि ई. 13 वीं शती । इसमें जैन धर्म के एक प्रसिद्ध आख्यान का अंकन है। प्रबुद्धहिमाचलम् (नाटक)- ले. विश्वेश्वर विद्याभूषण (श. 20) "प्रणवपारिजात" पत्रिका में प्रकाशित तथा आकाशवाणी से प्रसारित। उमामहेश्वर की यात्रा के अवसर पर अभिनीत । अंकसंख्या- छः । जीवन के संस्कृतिक आदर्शों का प्रस्तुतीकरण। कथासार- विशालपुर के राष्ट्रपाल का आदेश है कि समूची भूमि और मठ-मन्दिरादि राष्ट्रायत्त होंगी और जनता कृषि, शिल्प आदि से उपजीविका करे। राष्ट्रपति विक्रमवर्धन बढ़ती जनसंख्या हेतु समीपवर्ती देवस्थान पर आक्रमण करने की ठानता है। देवस्थान के राजा विजयकेतु के प्रेमवश सभी पुरजन राष्ट्ररक्षा हेतु कटिबद्ध होते हैं। इस बीच विजयकेतु का विवाह गन्धर्वराजकन्या मधुच्छन्दा के साथ होता है, अतः गन्धर्वराज से भी विजयकेतु सहायता पाता है। भारत को गौरव प्राप्त होता है। प्रबोधचन्द्रोदय | (लाक्षणिक नाटक) - ले. अद्वैतवादी यति कृष्णमिश्र । ई. 12 वीं शती। भागवत के पुरंजन उपाख्यान संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 203 For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर आधारित कथानक। लाक्षणिक पद्धति से श्रेष्ठ विचार तथा गहन तत्त्वज्ञान सामान्य लोगों के लिये सरल होते है इस विचार का प्रदर्शक यह प्रथम नाटक है। इस के बाद लाक्षणिक नाटकों की परंपरा संस्कृत नाट्य वाङ्मय में प्रवर्तित हुई। संक्षिप्त कथा . इसके प्रथम अंक में सचित है कि मन की दो स्त्रियां हैं। जिनसे उप्तन्न मोह और विवेक एक दसरे के विरोधी हैं। मोह के पक्ष में काम, लोभ, तृष्णा क्रोध, हिंसा हैं और विवेक के पक्ष में शांति, श्रद्धा आदि हैं। काम नित्य शुद्ध बुद्ध पुरुष को बंधन में डाल कर भी विवेक को पापी और स्वयं को सुकृती मानता है। विवेक पुरुष के उद्धार का कारण बताता है कि उपनिषद् से विवेक और मति का संबंध होने पर प्रबोध को उत्पत्ति होगी, तब पुरुष बंधनमुक्त होगा। द्वितीय अंक में विवेक प्रबोधोदय के लिए तीर्थों में शम-दम को भेजता है। मोह काशी में अपनी राजधानी बनाने का निश्चय करता है। उधर शांति और श्रद्धा विवेक के साथ उपनिषद् का मिलन कराने के लिए उपनिषद् को समझाती है, तब मोहपक्षीय काम और क्रोध, श्रद्धा को मिथ्यादृष्टि से पीडित करवा कर, शांति को निष्क्रिय बनाने का निश्चय करते है। तृतीय अंक में श्रद्धा को मिथ्यादृष्टि ग्रस्त कर लेती है। शांति उसको जैन-बौद्धों के मठों में ढूढंती है किन्तु वहां उसे तामसी श्रद्धा मिलती है। चतुर्थ अंक में मोह काम के सेनापतित्व में विवेक पर चढाई कर देता है। तब विवेक भी अपनी सेना वाराणसी भेज देता है। पंचम अंक में मन, मोहपक्ष के संहार होने से दुःखी होता है, तब सरस्वती आकर मन को संसार की अयथार्थता का परिचय करवा कर वैराग्य की ओर झुकाती है और मन शांति प्राप्त करता है। पंचम अंक में उपनिषद् और विवेक के मिलन से विद्या और प्रबोधचंद्र नामक दो सन्ताने उत्पन्न होती है। उनमें से प्रबोध को विवेक- पुरुष के हाथ सौप देता है और विद्या मन को। इससे पुरुष का अज्ञानान्धकार दूर होता है और उसे मुक्ति मिलती है। "प्रबोधचन्द्रोदय" में कुल दस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 5 विष्कम्भक और 5 चूलिकाएं है। प्रबोधचंद्रोदय के टीकाकार- 1) रुद्रदेव, 2) गणेश, 3) सुब्रह्मण्यसुधी, 4) रामदास, 5) सदात्ममुनि, 6) घनश्याम, 7) महेश्वर न्यायालंकार, 8) आर.व्ही.दीक्षित, 9) आद्यनाथ, 10) गोविन्दामृत, 11) पं. हृषीकेश भट्टाचार्य। __संकल्पसूर्योदय भी इसी प्रकार का नाटक है जो प्रबोध चन्द्रोदय का उत्तर पक्ष है। ले.- वेंकटनाथ ने विशिष्टाद्वैत मत की इसमें स्थापना की है। प्रबोध-प्रकाश - ले. बलराम । प्रबोधमिहिरोदय - ले. रामेश्वरतत्त्वानन्द (कायस्थमित्र) गुरु- तर्कवागीश भट्टाचार्य। विन्ध्यपुरवासी। शकाब्द 1597 में रचित। विविध तन्त्रों, स्मृतियों, पुराणों से संकलित। 8 अवकाशा (अध्यायों) में पूर्ण।। प्रबोधोत्सवलाघवम् - ले. दप्तरदार, विठोबा अण्णा। ई. 19 वीं शती। प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार - ले. देवसरि। ई. 11-12 वीं शती। विषय- जैनदर्शन। प्रभावतीहरणम् (रूपक) - ले. भानुनाथ दैवत । रचनाकालसन 1855। कीर्तनिया पद्धति का रूपक। संवाद संस्कृत तथा प्राकृत में, गीत मैथिली भाषा में। वज्रनाभ दैत्य की कन्या प्रभावती के कृष्णपुत्र प्रद्युम्न के साथ विवाह की भागवतोक्त कथा इस में चित्रित है। प्रमाणनिर्णय - ले. वादिराज। जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध । विषय- जैनन्यास। प्रमाणपदार्थ - ले. समन्तभद्र। जैनाचार्य। ई. प्रथम शती। पिता- शान्तिवर्मा। प्रमाण-पद्धति - ले. जयतीर्थ । माध्व-मत की गुरु-परंपरा में 6 वें गुरु। द्वैत-तर्क की दिशा तथा स्वरूप का निर्देशक ग्रंथ । जयतीर्थ स्वामी के मौलिक ग्रंथों में बृहत्तम ग्रंथ यही है। इस पर उपलब्ध टीकाएं इसके गांभीर्य एवं महत्त्व की द्योतक हैं। द्वैत दर्शन में मान्य तीनों प्रमाण -प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द-के स्वरूप, लक्षण, ख्यातिवाद तथा प्रामाण्य-मीमांसा (प्रमाण स्वतः होता है या परतः) का विस्तार से विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ से द्वैत -दर्शन की शास्त्रीय मर्यादा की प्रतिष्ठा वृद्धिंगत हुई और आगे के दार्शनिकों के लिये समुचित मार्गदर्शन किया गया। प्रमाणपरीक्षा - ले. विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। विषय- जैनन्याय। 2) ले. धर्मोत्तराचार्य। ई. 9 वीं शती। प्रमाणपल्लव - ले. नृसिंह (या नरसिंह) ठक्कुर। विषयआचारधर्म। प्रमाणवार्तिकम् - ले. धर्मकीर्ति । इसमें बौद्धन्याय का संस्कृत स्वरूप दिग्दर्शित है। राहुल सांस्कृत्यायन के प्रयास से मूलग्रंथ प्रकाशित हुआ। इस पर स्वंय लेखक की व्याख्या है। संस्कृत तथा तिब्बती में इस पर अनेक टीकाएं रचित हैं। मनोरथ नन्दीकृत टीका प्रकाशित है। ग्रंथ में 1599 श्लोक तथा 4 परिच्छेद हैं जिनमें स्वार्थानुमान, प्रमाणसिद्धि, प्रत्यक्षप्रमाण तथा परार्थानुमान का क्रमशः वर्णन किया है। वैदिक तार्किकों का मतखण्डन इस ग्रंथ का उद्देश्य है। प्रमाणविध्वंसनम् - ले. नागार्जुन। तर्कशास्त्रीय रचना। प्रमाणविनिश्चय - ले. धर्मकीर्ति। ई. 7 वीं शती। 1340 श्लोकों में निबद्ध यह न्यायशास्त्रीय रचना है। इसका संस्कृत रूप अप्राप्य है। प्रमाणविनिश्चय (टीकासहित) - ले. धर्मोत्तराचार्य। ई.9 वीं शती। 204 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाणशास्त्रन्यायप्रवेश (या प्रमाणशास्त्र)- ले. दिङ्नाग।। प्रयोगचन्द्रिका - ले. वीरराघव। विषय- धर्मशास्त्र । ई.5 वीं शती। तिब्बती तथा चीनी अनुवाद ही सुरक्षित है। प्रयोगचन्द्रिका - ले. सीताराम के भाई । श्रीनिवास के शिष्य। प्रमाणसंग्रह (सवृत्ति) - ले. अकलंक देव। जैनाचार्य। ई. प्रयोगचन्द्रिका - 18 खंडों में। पुंसवन से श्राद्ध तक के 8 वीं शती। संस्कारों का वर्णन। इसमें आपस्तम्ब गृह्य का अनुसरण है। प्रमाणसंग्रहभाष्यम् - ले. अनन्तवीर्य। जैनाचार्य। ई. 10-11 कण्ठभूषण, पंचाग्निकारिका, जयन्तकारिका, कपर्दिकारिका, वीं शती। दशनिर्णय, वामकारिका, सुधीविलोचन, स्मृतिरत्नाकर इन ग्रंथों प्रमाणसमुच्चय - ले. दिङ्नाग। शुद्ध संस्कृत अनुष्टुप् छन्द का इसमें यत्र तत्र उल्लेख है। में रचित यह महत्त्वपूर्ण रचना, आज केवल तिब्बती अनुवाद प्रयोगचिन्तामणि (रामकल्पद्रुम का भाग)- ले. अनन्तभट्ट। से ज्ञात है। 6 परिच्छेदों में प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान, प्रयोगचूडामणि - विषय- स्वस्तिक, पुण्याहवाचन, गृहयज्ञ, हेतु-दृष्टान्त, अपोह, जाति आदि न्यायशास्त्र के सर्व सिद्धान्त स्थालीपाक, दुष्टरजोदर्शनशान्ति, गर्भाधान, सीमान्तोन्नयन, षष्ठीपूजा, प्रतिपादित हैं। तिब्बती अनुवाद के लेखक हैं पं. हेमवर्मा। नामकरण, चौल, उपनयन, विवाह आदि का विवरण। प्रमाणसमुच्चयवृत्ति - ले. दिङ्नाग। प्रमाणसमुच्चय की प्रमेयतत्त्वम् - ले. रघुनाथ। पिता- भानुजी। गोत्र- शांडिल्य । लेखककृत टीका केवल तिब्बती अनुवाद में प्राप्य है। 25 तत्त्वों (अध्यायों) मे विभक्त । विषय- सामान्य धार्मिक कृत्य । प्रमाणसुंदर - ले. पद्मसुंदर। प्रमाणादर्श - ले. शुक्लेश्वर । प्रयोगतिलक - ले.वीरराघव। प्रमाप्रमेयम् - ले. भावसेन त्रैविद्य । जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती। प्रयोगदर्पण - 1) ले.नारायण। वायम्भट्ट के पुत्र। विषयप्रमिताक्षरा - ले. नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। ऋग्वेद विधि के अनुसार गृह्य कृत्य। उज्ज्वला (हरदत्त कृत) हेमाद्रि, चण्डेश्वर, श्रीधर, स्मृतिरत्नावलि के नाम इसमें उल्लखित प्रमुदितगोविन्दम् (रूपक) - ले. सदाशिव। ई. अठारहवीं हैं। 1400 ई. के उपरान्त यह रचना हुई. है। शती। धारकोटे नरेश की राजसभा में अभिनीत। वैष्णव मत 2) ले. रमानाथ विद्यावाचस्पति। 3) ले. वैदिकसार्वभौम । के प्रचार हेतु रचित। अंकसंख्या -सात। प्रधान रस शृङ्गार । 4) ले. वीरराघव। 5) ले. पद्मनाभ दीक्षित। पिता नारायण । वीर रस से संवलित। दीर्घ नाट्यसंकेत। कीर्तनिया नाटकों विषय- देवप्रतिष्ठा, मंडपपूजा, तोरण आदि। की शैली। विषय- समुद्र मंथन की कथा। प्रयोगदीप - ले.दयाशंकर (शांखायन गृह्य के लिए)। प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख व्याख्या)- ले. प्रभाचन्द्र। प्रयोगदीपिका- ले.मंचनाचार्य। 2) ले. रामकृष्ण । जैनाचार्य। समय- दो मान्यताएं 1) ई. 8 वीं शती या 2) प्रयोगपद्धति - 1) ले.गंगाधर (बोधायनीय) । 2) झिंगय्यकोविद 11 वीं शती। पिता- पैल्ल मंचनाचार्य। इस प्रयोगपद्धति का अपरनाम प्रमेयरत्नाकरालंकार - ले. अभिनव-चारुकीर्ति। जैनाचार्य। शिंगाभट्टीयं है। 3) ले. दामोदर गार्ग्य। इस ग्रंथ का अपरनाम प्रमेयरत्नमाला - ले. लघु-अनंतवीर्य । ई. 11 वीं शती। यह संस्कारपद्धति है। ग्रंथ पारस्कर गृह्य के अनुसार है। एक टीका ग्रंथ है। ___4) ले. रधुनाथ। पिता- रुद्रभट्ट अयाचित । प्रस्तावतरंगिणी - ले. चारुदेवशास्त्री। दिल्लीनिवासी। 5) ले. हरिहर। दो कांडों में विभक्त। प्रयागकौस्तुभ - ले. गणेश पाठक। प्रयोगपद्धति- सुबोधिनी - ले.शिवराम । प्रयागधर्मप्रकाश - सन 1875 में पं. शिवराखन के संपादकत्व प्रयोगपारिजात - ले.नृसिंह। कौण्डिन्य गोत्रीय एवं कर्नाटक में प्रयाग में इस मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। के निवासी। इसमें संस्कार, पाकयज्ञ, आधान, आह्रिक, कालान्तर से इसका प्रकाशन रूडकी से होने लगा। यह गोत्रप्रवरनिर्णय पर पांच काण्ड हैं। संस्कार का भाग निर्णय धार्मिक पत्रिका है। सागर प्रेस में मुद्रित (1916)। 25 संस्कारों का उल्लेख। प्रयागपत्रिका - प्रयाग से 1895 में प्रकाशित संस्कृत -हिंदी कालदीप, कालप्रदीप, कालदीपभाष्य, क्रियासार, फलप्रदीप, की इस मासिक पत्रिका का सम्पादन जगन्नाथ शर्मा करते थे। विध्यादर्श, विधिरत्न, श्रीधरीय, स्मृतिभास्कर का उल्लेख है। इसमें स्वामी दयानंद सरस्वती के सिद्धान्तों का विवेचन, हेमाद्रि एवं माधव की आलोचना है। 1360 ई. एवं 1435 धर्मसंबंन्धी प्रश्नोत्तर तथा धार्मिक कृत्यों संबंधी जानकारी प्रकाशित ई. के बीच में प्रणीत। 2) ले. पुरुषोत्तम भट्ट। देवराजार्य होती है। के पुत्र। 3) ले. रघुनाथ वाजपेथी। प्रयुक्ताख्यातमंजरी - ले. कविसारंग। विषय- आख्यातों का प्रयोगप्रदीप- ले. शिवप्रसाद । अर्थबोध। प्रयोगमंजरी- ले.श्रीरवि। पिता - अष्टमूर्ति। श्लोक- 1950। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 205 For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 21 पटलों में पूर्ण विषय- मन्दिरों के जीर्णोद्धार की विधि । शिव तथा अन्यान्य देवदेवी मूर्तियों की पुनः प्रतिष्ठाविधि । प्रयोगमंजरीसंहिता ले. श्रीकण्ठ । प्रयोगमणि ले. केशवभट्ट अभ्यंकर। पिता नारायणभट्ट । प्रयोगमुक्तावलि ले. वीरराघव । प्रयोगरत्नम् 1) ले. नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वरभट्ट | 2 ) ले. हरिहर । 3) ले अनन्त । पिता- विश्वनाथ । ग्रंथ का अपर नाम है स्मार्तानुष्ठानपद्धति । अश्वलायन के अनुसार 25 संस्कारों का विवेचन इसमें है। 4) ले. अनन्तदेव । पिताविश्वनाथ । हिरण्यकेशीयशाखा के लिए। 5 ) ले. केशव दीक्षित । पिता - सदाशिव । 6 ) ले प्रेमनिधि पन्त । 7 ) ले. नृसिंहभट्ट । पिता - नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती । विषय- आश्वलायन एवं शौनक के अनुसार है। 8) ले. महेश। पिता - महादेव वैशम्पायन । विषय- संस्कार, शान्ति एवं श्राद्ध । काशी में ग्रंथ का लेखन हुआ । १) ले. महादेव। (हिरण्यकेशीय) । प्रयोगरत्नभूषा - ले. रघुनाथ नवहस्त । - - प्रयोगरत्नमाला 1) ले. वासुदेव । पिता आपदेव भट्ट । महाराष्ट्रीय चित्तपावन ब्राह्मण। ई. 17-18 वीं शती । विषयदेवप्रतिष्ठा ग्रंथ के अपरनाम हैं- वासुदेवी और प्रतिष्ठारत्नमाला । 2) पुरुषोत्तम विद्यावागीश। 3) ले. चौण्डप्पाचार्य । 1 प्रयोगरत्नसंस्कार ले. प्रेमनिधि पन्त । प्रयोगरत्नाकर 1 ) ( नामान्तर भक्तव्रातसंतोषक) ले. प्रेमनिधि पन्त । पिता उमापति। 9 रत्न (अध्याय) । 2) ले. श्रीवासुदेव । पिता- गौतमगोत्री गौतमगोत्री कविता स्वयंवरपति श्रीकण्ठकाव्य । श्लोक- 3450। विषय- वशीकरण आदि 10 तान्त्रिक कर्मों का प्रतिपादन । 3) मैत्रायणीयों के लिए) ले. यशवन्तभट्ट । www.kobatirth.org - प्रयोगरत्नावली- ले. परमानन्द धन । चिदानन्द ब्रह्मेन्द्र सरस्वती के शिष्य । प्रयोगलाघवम् ले. विठ्ठल । महादेव के पुत्र । - - प्रयोगसंग्रह ले रमानाथ - । प्रयोगसरणि ले. नागेश। श्लोक 2001 प्रयोगसागर ले. नारायण आरडे । समय- 1650 के उपरान्त । इसे गृह्यानिग्नसागर भी कहा जाता है। प्रयोगसार (कात्यायनीय) 1) ले. देवभद्र पाठक बलभद्र के पुत्र । गंगाधर पाठक, भर्तृयज्ञ, वासुदेव, रेणु, कर्क, हरिस्वामी, माधव, पद्मनाभ, गदाधर, हरिहर, रामपद्धति, (अनन्तकृत) का उल्लेख इसमें है । श्रौत संबंधी विषयों पर विवेचन है। 2) ले नारायण लक्ष्मीधर के पुत्र । यह गुह्यग्निसागर ही है 3) ले गागाभट्ट पिता दिनकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । 4) ले निजानन्द । 5) ले बालकृष्ण । 206 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड गोकुल ग्राम के निवासी । दाक्षिणात्य । 6 ) ले. विश्वेश्वर भट्ट (गागाभट्ट) । दिनकर के पुत्र) । विषय- पुण्याहवाचन, गणपतिपूजन आदि 7) ले गोविन्द ग्रंथ पूर्व और उत्तर दो भागों में विभक्त है। दोनों में 27-27 पटल हैं। 8) ले. शिवप्रसाद 9 ) ले केशवस्वामी (बोधायनीय) विषय वैदिक यज्ञ समय ई. 12 वीं शती। 10) ले. कृष्णदेव स्मार्तवागीश । नारायण के पुत्र । इसे कृत्यतत्त्व या संवत्सरप्रयोगसार भी कहा जाता है। 11) ले. गंगाभट्ट (आपस्तम्बीय ) । प्रयोगसारपीयूषम् - ले. कुमारस्वामी विष्णु । विषय- परिभाषा, संस्कार, आह्निक, प्रायश्चित्त इत्यादि । | प्रयोगादर्श ले. कनकसभापति मौद्गल गोत्री बैद्यनाथ के पुत्र । यह लेखक की कारिकामंजरी पर टीका है । प्रवचनसारीका ले. अमृतचंद्रसूरि । जैनाचार्य । ई. 10-11 वीं शती । प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारव्याख्या (ले. प्रभाचन्द्र जैनाचार्य । समय दो मान्यताएं 1) 18 वीं शती । 2) ई. 11 वीं शती । प्रवरकाण्डम् ले. टी. नारायण । (आश्वलायनीय) गोत्रप्रवर-निबन्धकदम्बक में पी. चेन्तसालराव द्वारा मुद्रित मैसूर, ई. 1900 1 प्रवरखण्ड (आपस्तम्बीय) ले. टी. कपर्दिस्वामी । कुम्भकोणम् में 1914 में, एवं मैसूर में 1900 ई. में प्रकाशित । प्रवरदर्पण - ले. कमलाकर। इसे गोत्रप्रवरनिर्णय भी कहा जाता है। पी. चेन्नसालराव द्वारा सम्पादित गोत्रप्रवरनिबंधक में सन 1900 में प्रकाशित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवरदीपिका ले. कृष्णशैव प्रवरमंजरी, स्मृतिचन्द्रिका का । उल्लेख इसमें है । 1250 ई. के उपरान्त लिखित । प्रवरनिर्णय प्रकाशित । ले. भास्कर त्रिकाण्डमण्डन। टी. रामनंदी द्वारा - - - For Private and Personal Use Only प्रवरनिर्णय ( नामान्तर- गोत्रप्रवरनिर्णय) ले. भट्टोजी । प्रवरनिर्णयवाक्यसुधार्णव ले. विश्वनाथ देव । प्रवराध्याय 1) ले. पशुपति । लक्ष्मण सेन के मन्त्री । समय ई. 12 वीं शती । 2) ले. भृगुदेव। 3 ) ले. विश्वनाथ कवि । 4) लौगाक्षि । यह कात्यायन का 11 वां परिशिष्ट है। प्रवालवल्ली अनुवादक- श्रीनिवासाचार्य मूल कथा तामिल भाषा में है। - प्रवासकृत्यम् ले. गंगाधर । रामचन्द्र के पुत्र । स्तम्भतीर्थ ( आधुनिक खम्भात) में प्रणीत । (1606-70 ) । जीविका के लिए विदेश में निर्गत साग्निक ब्राह्मणों के कर्तव्यों पर यह निबंध है । प्रशान्त- रत्नाकरम् ले. कालीपद (1888-1972) संस्कृत साहित्य परिषद् के सदस्यों द्वारा अभिनीत । विषय- बंगाली में कृत्तिवास रचित रामायण पर आधारित वाल्मीकि का जीवन - - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनता वह उसके दस्युदलचाता है। परंत लूटते हुए दीखन चरित्र। अंकसंख्या- नौ। ___ अकाल-पीडित बंगाल, सूदखोरी, घुसखोरी आदि समसामयिक तत्त्वों का प्रदर्शन इस नाटक में है। सभी संवाद संस्कृत में हैं। गीतों की प्रचुरता तथा सुमति, नियति आदि प्रतीक-भूमिकाएं इसकी विशेषताएं हैं। अग्निदाह, लूटमार, दुर्भिक्ष्य, भिक्षा मांगना, नौकाविहार, मत्स्यभक्षण, च्यवन द्वारा फांसी लगाकर मर जाना आदि विरल दृश्यों का समावेश इसमें है। कथासाररत्नाकर नामक पहलवान दारिद्र से पीडित होकर फांसी लगाना चाहता है, इतने में किसी स्त्री को डाकू लूटते हुए दीखते हैं। वह उस स्त्री को बचाता है। परंतु डाकू से प्रभावित होकर वह उसके दस्युदल में समाविष्ट होकर दस्युदल-प्रमुख बनता है। धनिकों को लूटकर दरिद्रों की रक्षा करना उसका ध्येय रहता है। उस प्रदेश का राजा कामेश्वर अत्याचारी है। उसका कोश रत्नाकर लूटता है। उस के पुत्र को तथा पिता को कामेश्वर पिटवाता है तब रत्नाकर बदला लेने की सोचता है। वह कामेश्वर को बन्दी बनाता है। किन्तु च्यवन (रत्नाकर के पिता) उसे छुडाकर, पुत्र को सत्पथ पर लाने हेतु आत्मघात करता है। उस शोक से च्यवन की पत्नी भी मरती है। रत्नाकर का पुत्र क्षय रोग से और पत्नी विष पीकर मरती है। रत्नाकर अकेला बचता है। वह नदी में प्राण देने उद्युक्त है, इतने में "सुमति" प्रकट होकर सन्देश देती है कि शान्तिनिकेतन जाकर भक्ति करो। वहां नारद द्वारा राममंत्र पाकर धन्य होता है। वही बाद में वाल्मीकि बन रामायण की रचना करता है। अभ्यास करो और उसके पश्चात् मुझसे प्रश्न पूछो"। अपने गुरु की सूचनानुसार रहकर एक वर्ष बाद कबंधी कात्यायन ने पूछा- महाराज, यह प्रजा कहां से निर्माण होती है"। पिप्पलाद ने उत्तर दिया - प्रजापति अर्थात् ब्रह्मा को प्रजोत्पति की आवश्यकता प्रतीत हुई तब उन्होंने तपस्या कर, एक स्त्री-पुरुष की जोडी उत्पन्न की। रयी व प्राण उनके नाम हैं। ये दोनों अनेक प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करेंगे, इस हेतु प्रजापति ने इस मिथुन को उत्पन्न किया था। इसके पश्चात् भार्गव वैदर्भी ने दूसरा प्रश्न पूछा- "भगवन्, कौनसी शक्तियां इस शरीर का धारण करती हैं। उनमें से कौनसी शक्तियां शरीर को प्रकाशित करती हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ कौन सी है"। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पिप्पलाद ने कहा- "आकाश, वायु, अग्नि, आप, पृथ्वी, वाणी, मन, नेत्र व कान ये 9 शक्तियां शरीर का धारण करती हैं। दसवां प्राण इन सभी से श्रेष्ठ है।"। त्रैलोक्य में जो-जो स्थित है, वह सभी प्राण के अधीन है। प्राण विश्वव्यापी तत्त्व है। वह चिच्छक्ति है। इंद्रियों, मन व बुद्धि के सभी व्यापार प्राण की शक्ति पर चलते हैं। प्राणरूप चिच्छक्ति विलक्षण गतिमान् है, और जीव के जन्म-मरणादि सभी व्यवहार उसकी इच्छानुसार होते हैं। यह दूसरे प्रश्न का गर्भितार्थ है। फिर कौशल्य अश्वलायन ने पूर्व सूत्र के ही अनुरोध से अपना (तीसरा) प्रश्न पूछा- " हे भगवन्, प्राण किससे उत्पन्न होता है। इस शरीर में वह किस प्रकार आता है। स्वयं को विभक्त करते हुए वह शरीर में किस प्रकार रहता है आदि। ___इस पर पिप्पलाद ने बताया- यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार देह के साथ छाया रहा करती है, उसी प्रकार आत्मा के साथ यह प्राण रहा करता है। मन के द्वारा किये गए पूर्व कर्म के अनुसार वह शरीर में आता है। इस प्रश्न के उपरांत सौर्यायणी गार्ग्य ने अपना (चौथा) प्रश्न उपस्थित किया- “हे भगवन, शरीर में कौनसी इंद्रियां निद्रित होती हैं। कौनसी इंद्रिय जाग्रत् रहती हैं। स्वप्न कौन देखता है। सुख किसे होता है। श्री पिप्पलाद ने उत्तर देते हुए कहा- निद्रिस्त अवस्था में सभी इंद्रियां, अपने विषयों के साथ, स्वयं से श्रेष्ठ व दिव्य ऐसे मन में लीन होती हैं। इस अवस्था को सुषुप्ति कहते हैं। इस शरीररूपी नगरी में प्राणादि वायु जाग्रत् रहते हैं। मन स्वप्रों का अनुभव लेता है। जिस प्रकार पक्षी अपने निवासवृक्ष पर एकत्रित हुआ करते हैं उसी प्रकार पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, अपने तन्मात्र,उनके विषय आदि सभी, आत्मा में लीन होकर विश्रांति लेते हैं। प्रश्नकौमुदी (ज्योतिषकौमुदी) - ले. नीलकण्ठ। ई. 16 वीं शती। प्रश्नतन्त्रम् - केरल सिद्धान्त के अन्तर्गत तांत्रिक ग्रंथ । श्लोक3601 प्रश्नार्थरत्नावली - ले. लाला पण्डित, काश्मीरी। ज्योतिःशास्त्रीय रचना। प्रश्नावलीविमर्श - डा. श्री. भा. वणेकर, नागपुर। भारत सरकार के संस्कृतायोग की प्रश्नावलि का सविस्तर परामर्श इस निबंध लिया गया है। प्रश्नोपनिषद् - यह उपनिषद् अथर्ववेद से संबद्ध है। पिप्पलाद ऋषि के 6 शिष्यों ने उन्हें 1-1 प्रश्न पूछा, और पिप्पलाद ने उन प्रश्नों समर्पक उत्तर दिये। इसी लिये प्रस्तुत उपनिषद् को उक्त नाम प्राप्त हुआ। इसका उपक्रम निम्न प्रकार है___एक बार सुकेश भारद्वाज, शैल्य सत्यकाम, सौर्यायणी गाये, कौशल्य आश्वलायन, भार्गव वैदर्भी व कबंधी कात्यायन नामक 6 ब्रह्मनिष्ठ शिष्य अपने गुरु पिप्पलाद के पास आकर उनसे ब्रह्म-विद्या बताने की प्रार्थना की तब पिप्पलाद ने कहा, "तुम लोग यहां रहकर एक वर्ष तप, ब्रह्मचर्य व श्रद्धा का पहले संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 207 For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर शैव सत्यकाम का (5) वां प्रश्न था- "जो व्यक्ति प्राणांत तक प्रणव का ध्यान करता है, वह ध्यान के कारण किस लोक में जाता है। श्री. पिप्पलाद का उत्तर - "ओंकार रूपी ब्रह्म उभयविध होता है- पर व अपर। अतः संबंधित व्यक्ति जिस प्रकार के ब्रह्म का ध्यान करता है, उसी की ओर वह जाता है। जो व्यक्ति तीनों ही मात्राओं से युक्त ओंकार का ध्यान करता है, वह स्थिर चित्त होकर ज्ञानी बनता है और ब्रह्मलोक को जाता है। ___ अंत में सुकेश भारद्वाज ने अपना (6 वां) प्रश्न प्रस्तुत किया- “षोडशकलात्मक पुरुष कहां रहता है"। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पिप्पलाद ऋषी ने बताया"षोडशकलात्मक पुरुष मानव-शरीर के अंतर्भाग में रहता है। उसकी 16 कलाएं, उसी की ओर जाने वाली हैं। वे कलाएं उस पुरुष तक पहुंचने पर उससे एकरूप होती है ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं। प्रश्नोत्तरोपासकाचार - ले- सकलकीर्ति । जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। 24 परिच्छेद। पिता- कर्णसिंह । माता- शोभा। प्रसंगलीलार्णव - (काव्य) ले- घनश्याम । ई. 18 वीं शती। प्रसन्नकाश्यपम् (रूपक) - ले- जग्गू श्रीबकुलभूषण। सन 1951 में प्रकाशित । अंकसंख्या- तीन । कथावस्तु कल्पित । शाकुन्तल के बाद की घटनाएं चित्रित हैं। कथासार– राजा दुष्यन्त, कण्वाश्रम में शकुन्तला एवं भरत के साथ पधारते हैं। वहां अनसूया, प्रियंवदा, गौतमी, कण्व आदि से भेंट होती है। कण्व प्रसन्न होकर सब को आशीर्वाद देते हैं। प्रसन्नपदा - ले- चन्द्रकीर्ति। शून्यवादी नागार्जुनकृत माध्यमिककारिका पर प्रसिद्ध टीका। गंभीर विषय का सरस एवं प्रसादयुक्त विवेचन इसमें है। विषय- बौद्धदर्शन। प्रसन्न-प्रसादम् (रूपक) - ले- डा. रमा चौधरी (श, 20)। बंगाली गायक रामप्रसाद की जीवनगाथा इस में चित्रित है। उनके गीतों को संस्कृत रूप दिया गया है। दृश्यसंख्या- दस । प्रसन्नमाधवम् - ले- गंगाधरशास्त्री मंगरुलकर । नागपुर निवासी। प्रसन्नराघवम् (नाटक) - ले- जयदेव। इस नाटक की रचना 7 अंकों में हुई है और इसका कथानक रामायण पर आधृत है। जयदेव ने मूल कथा में नाट्य कौशल्य के प्रदर्शनार्थ अनेक परिवर्तन किये हैं व प्रथम 4 अंकों में बालकांड की ही कथा का वर्णन किया है। प्रथम अंक में मंजीरक व नुपूरक नामक बंदीजनों के द्वारा सीतास्वयंवर का वर्णन किया गया है। इस अंक में रावण व बाणासुर अपने-अपने बल की प्रशंसा करते हए व परस्पर संघर्ष करते हुए प्रदर्शित किये गये हैं। द्वितीय अंक में जनक की वाटिका में पुष्पावचय करते हुए राम व सीता के प्रथम दर्शन का वर्णन किया गया है। तृतीय अंक में विश्वामित्र के साथ राम व लक्ष्मण के स्वयंवर-मंडप में आने का वर्णन है। विश्वामित्र राजा जनक को राम-लक्ष्मण का परिचय देते हैं और राजा जनक उनकी सुंदरता पर मुग्ध होकर अपनी प्रतिज्ञा के लिये मन-ही-मन दुखी होते हैं। विश्वामित्र का आदेश प्राप्त कर राम शिव-धनुष्य को तोड डालते हैं। चतुर्थ अंक में परशुराम का आगमन व राम के साथ उनके वाग्युद्ध का वर्णन है। पंचम अंक में गंगा, यमुना व सरयू के संवाद द्वारा राम-गमन व दशरथ की मृत्यु की घटनाएं सूचित की जाती हैं। हंस नामक पात्र ने सीता-हरण तक की घटनाओं को सुनाया है। षष्ठ अंक में विरही राम का अत्यंत मार्मिक चित्र उपस्थित किया गया है। हनुमान का लंका जाना व लंका-दहन की घटना का वर्णन इसी अंक में है। शोकाकुल सीता दिखाई पडती है और उनके मन में इस प्रकार का भाव है कि, राम को उनके चरित्र के संबंध में शंका तो नहीं है, या राम का उनके प्रति अनुराग तो नहीं नष्ट हो गया है। उसी समय रावण आता है और सीता के प्रति प्रेम प्रकट करता है। सीता उससे घृणा करती है। रावण उन्हें कृपाण से मारने के लिये दौडता है। उसी समय उसके हनुमान् द्वारा मारे गये अपने पुत्र अक्षय का सिर दिखाई पडता है। सीता हताश होकर चिता में स्वयं को भस्म कर देना चाहती है, पर अंगारे मोती के रूप में परिणत हो जाते हैं। हनुमान् द्वारा राम की अंगूठी गिराने की घटना का भी वर्णन किया गया है। हनुमान् प्रकट होकर सीता को राम के एकपत्नी-व्रत का समाचार सुनाते हैं जिससे सीता को संतोष होता है। सप्तम अध्याय में प्रहस्त द्वारा रावण को एक चित्र दिखाया जाता है जिसे माल्यवान् ने भेजा है। इस चित्र में शत्रु के आक्रमण व सेतु-बंधन का दृश्य चित्रित है पर रावण उसे कोरी कल्पना मान कर उस पर ध्यान नहीं देता। कवि ने विद्याधर व विद्याधरी के संवाद के रूप में युद्ध का वर्णन किया है। अंततः रावण सपरिवार मारा जाता है। नाटक के अंत में राम, लक्ष्मण, सीता, बिभीषण व सुग्रीव के द्वारा बारी-बारी से सूर्यास्त व चंद्रोदय का वर्णन कराया गया है। "प्रसन्न-राघव", हिन्दी अनुवाद सहित, चौखंबा से प्रकाशित हो चुका है। इस नाटक पर (1) लक्ष्मीधर, (2) वेंकटार्य, (3) रघुनंदन, (4) लक्ष्मण, (5) नरसिंह की टीकाएं हैं। प्रसन्नराघव में कुल इकतीस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 3 विष्कम्भक, प्रवेशक और 27 चूलिकाएं प्रसन्नरामायणम् - कवि- देवर दीक्षित। पिता- श्रीपाद । प्रसन्नहनुमन्नाटकम् - ले- विश्वेश्वर दयाल चिकित्सा-चूडामणि । (ई. 20 वीं) । इटावा से प्रकाशित । रामकथा पर आधारित । प्रसादस्तव - ले- रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी। ई. 17 वीं शती। प्रस्तार-चिन्तामणि - ले- चिन्तामणि ज्योतिर्विद् । ई.स. 1680 208 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra में रचित । 3 अध्याय । विषय छंदः शास्त्र । इस पर दैवज्ञ की गद्य टीका है। विषय- वर्णप्रस्तार, मात्राप्रस्तार तथा खण्डप्रस्तार । प्रस्तारपतन ले- कृष्णदेव । - 1 प्रस्तावरत्नाकर ले- हरिदास । पिता- पुरुषोत्तम । आश्रयदातागदापत्तन के अधिपति वीरसिंह । रचना- 1557-8 में विषयनीति, ज्योतिषशास्त्र आदि विषयों के पद्य । प्रस्तारशेखर ले- श्रीनिवास । पिता- वेंकट । प्रस्थानभेद - ले- मधुसूदन सरस्वती । काटोलपाडा के (बंगाल) निवासी। ई. 16 वीं शती । वेदान्तविषयक ग्रंथ । प्रस्थानरत्नाकर ले पुरुषोत्तम पुष्टिमार्गी विद्वान् । विषय- न्यायशास्त्र | - हस्तिका ले गंगाधरभट्ट यह "दुर्जन मुख-पेटिका" नामक एक लघु-कलेवर ग्रंथ की विस्तृत व्याख्या है। पुष्पिका में व्याख्याकार पंडित कन्हैयालाल, गंगाधर भट्ट के पुत्र निर्दिष्ट किये गये हैं। वल्लभ संप्रदाय के मूर्धन्य ग्रंथ भागवत की महापुराणता के विषय में प्रस्तुत किये जाने वाले संदेहों का निरसन करने वाली मूल 'चपेटिका' तो लघु है, किन्तु उसकी प्रस्तुत व्याख्या में विषय का प्रतिपादन बडे विस्तार के साथ किया गया है। प्रह्लादचंपू (या नृसिंहचंपू) ले- केशवभट्ट । रचनाकाल - 1684 ई. । इस चंपू - काव्य के 6 स्तबकों में नृसिंहावतार की कथा का वर्णन है। यह एक साधारण कोटि की रचना है। और इसमें भ्रमवश प्रह्लाद के पिता को उत्तानपाद कहा गया । इस चंपू-काव्य का प्रकाशन, कृष्णाजी गणपत प्रेस, मुंबई से 1909 ई. में हो चुका है। संपादक हैं हरिहर प्रसाद भागवत । प्रह्लादचरितम् ले नयकान्त प्रह्लादविजयम् - ले- कथानाथ । www.kobatirth.org प्रह्लाद विनोदनम् (रूपक) ले- नित्यानंद (श. 20) विषय- भक्त प्रह्लाद का चरित्र । अंकसंख्या- पांच । प्राकृत एवं अर्थोपक्षेपक का अभाव इसमें है । 14 प्राकृत-पिंगल ले- पिंगल मुनि । समय- ई. 14-15 शताब्दियों का मध्य । । प्राकृतमणिदीप (नाटक) ले अप्पय्य दीक्षित (तृतीय) ई. 17 वीं शती । प्राकृतव्याकरणम् ले- समन्तभद्र जैनाचार्य । ई. प्रथम शती, अन्तिम भाग पिता शान्ति वर्मा । । प्राकृतव्याकरणम् ले पं. हषीकेश भट्टाचार्य अंग्रेजी अनुवादसहित प्रकाशित। - - - - - प्राचीनज्योतिषाचार्यवर्णनम् - ले- बापूदेव शास्त्री । प्राचीनवैष्णवसुधा (पत्रिका) कार्यालय कांचीवरम् 1913 में प्रकाशन। प्राच्यकठ 1 यह कृष्णयजुर्वेद की लुप्त शाखा है। प्राच्यप्रभा (रूपक) ले- गंगाधर कविराज। ई. 20 वीं शती । अग्निपुराण के "अलंकार खण्ड" पर आधारित रचना । प्राणतोषणी - ले- प्राणकृष्ण विश्वास। सहकारी ले. रामतोषण शर्मा । विषय- सब तंत्रों का सार । सहयोगी तथा निर्मातादोनों के नामों के आद्यन्त अक्षरों से ग्रंथ का नामकरण हुआ है। प्राणपणा ले पुरुषोत्तम (ई. 11 वीं शती) पतंजलि के महाभाष्य पर लघुवृत्ति । - - प्राणाग्निहोत्रम् ईश्वर- कार्तिकेय संवादरूप योगपरक तंत्रग्रंथ । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् - यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् । इसके चार खंड हैं। प्रथम खंड प्रारंभ में शरीर यज्ञ को समस्त उपनिषदों का सार बताते हुए कहा गया है कि शरीर-यज्ञ किया जाने पर अग्निहोत्र की आवश्यकता नहीं रहती। पश्चात् अग्नि की महत्ता का वर्णन है। अन्न, द्विपाद व चतुष्पाद प्राणियों को बल प्रदान करता है। उसे शुद्ध करने के लिये ईशान की प्रार्थना करनी होती है। शरीररस्थ प्राण ही अग्नि है । इस अग्नि को अन्न की आहुति देने के पहले, जल का प्राशन करते हुए सभी पापों को धो डालना होता है। उसी प्रकार पंचप्राणों को आसनस्थ करने हेतु आपोशन के जल का (भोजन के पूर्व आचमन का) उपयोग करना होता है । द्वितीय खंड में अग्नि की स्तुति है। भोजन करते समय मनुष्य वस्तुतः अग्निहोत्र ही किया करता है। मानव के शरीर में सूर्याग्नि, दर्शनाग्नि, कोष्ठाग्नि नाभि-प्रदेश में होती हैं। वह गार्हपत्याग्नि का प्रतीक है। वहीं चतुर्विध अन्न को पचाती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीय खंड में 37 प्रश्न उपस्थित किये गए हैं और चतुर्थ खंड में उनके उत्तर दिये गये हैं। उन उत्तरों के द्वारा आत्म-यज्ञ का ही वर्णन किया गया है। उनमें आत्मा को यजमान, वेदों को ऋत्विज, अहंकार को अध्वर्यु, ओंकार को यूप, काम को पशु, त्याग को दक्षिणा व मरण को अवभृथस्त्रान बताया गया है। अंत में कहा गया है कि प्राणाग्निहोत्र के इस तत्त्व को जानने वाला मुक्त हो जाता है । 1 प्रातः पूजाविधि ले नरोत्तमदास चैतन्य संप्रदाय के अनुयायियों के लिए। For Private and Personal Use Only 1 प्रभावतम् (नाटक) ले रघुनाथ सूरि (18 वीं शती)। रंगनाथ यात्रोत्सव में अभिनीत शृंगारप्रधान अंकसंख्या सात प्रामाण्यभंग ले अनन्तकीर्ति जैनाचार्य । ई. 8-9 वीं शती । प्रामाण्यवाददीधिति (टीका) ले- गदाधर भट्टाचार्य । प्रायश्चित्तम् - ले- अकलंकदेव । (2) नाटक । ले- रामनाथ मिश्र रचनाकाल- सन 1952 में । कथावस्तु उत्पाद्य । अंकसंख्या पांच । नायिका प्रधान नाटक । संभवतः सन 1961 में प्रकाशित । कथासार किसी निराश्रित बालिका को एक किसान आश्रय देकर उसका पालन पोषण करता है। राजा संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 209 - - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले- रत्नपाणि। प्रायश्चित्तप्रकरणम् - ले-भट्टोजि। (2) ले- भवदेव। (बाल-वलभीभुजंग- उपाधि) (3) ले- रामकृष्ण। प्रायश्चित्तप्रकाश - ले- प्रद्योतनभट्टाचार्य। बलभद्र के पुत्र । प्रायश्चित्तप्रदीप - ले- राजचूडामणि। रत्नखेट श्रीनिवास दीक्षित के पुत्र। (2) ले- रामशर्मा । (3) ले- वाहिनीपति। (4) ले- शंकरमिश्र। भवनाथ के पुत्र । ई. 15 वीं शती। (5) ले- केशवभट्ट। (6) ले- गोपालसूरि। (बोधायन श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार) (7) ले- प्रेमनिधि पन्त। ई. 17-18 वीं शती। (8) ले- वरदाधीश यज्वा । वेंकटाधीश के शिष्य द्वारा । प्रायश्चित्तप्रयोग - ले-बालशास्त्री कागलकर। (2) ले- अनन्त दीक्षित। (3) ले- त्र्यंबक। (आश्वलायन पर आधारित)। (4) ले- दिवाकर। प्रायश्चित्तमंजरी - ले- बापूभट्ट केलकर। पिता- महादेव । रचना- सन् 1814 में। प्रायश्चित्तमनोहर - ले- मुरारि मिश्र। पिता- कृष्णमिश्र। गुरुकेशवमिश्र तथा रामभद्र। प्रायश्चित्तमयूख - ले- नीलकण्ठ। घारपुरे द्वारा प्रकाशित । प्रायश्चित्तमार्तण्ड - ले-मार्तण्ड मिश्र। लेखन समय- 1622-23 उस किसान को पीडा देता है। राजपुत्र उस किसान-कन्या पर लुब्ध है परन्तु राजा क्रुद्ध हो अपने पुत्र को निष्कासित करता है। युग के प्रभाव से अन्त में राजा पछताता है और राजपुत्र का विवाह उसी कन्या के साथ तथा राजकन्या का विवाह पीडित किसान युवक के साथ कराता है। प्रायश्चित्तकदम्ब - (अपरनाम- निर्णय) ले- गोपाल न्यायपंचानन । विषय- धर्मशास्त्र। प्रायश्चित्तकदम्बसारसंग्रह - ले-काशीनाथ तर्कालंकार । शूलपाणि, मदनपारिजात, नव्यद्वैतनिर्णयकार चन्द्रशेखर के मत इसमें वर्णित हैं। प्रायश्चित्तकमलाकर - ले- कमलाकरभट्ट । विषय- धर्मशास्त्र । प्रायश्चित्तकारिका - ले- गोपाल । बौधायनसूत्र पर आधारित । प्रायश्चित्तकुतूहलम् - ले- कृष्णराम। (2) ले- मुकुन्दलाल । (3) ले- रघुनाथ। गणेश के पुत्र एवं अनन्तदेव के शिष्य । विषय- श्रौत एवं स्मार्त प्रायश्चित्त । समय- लगभग 1660-1700 ई.। (4) ले- रामचंद्र। शूलपाणि के प्रायश्चित्तविवेक पर आधारित। प्रायश्चित्तकौमुदी (प्रायश्चित्तविवेक) . ले- कृष्णदेव स्मार्तवागीश। (2) (प्रायश्चित्तटिप्पणी) ले- रामकृष्ण। प्रायश्चित्तचन्द्रिका - ले- दिवाकर। पिता-महादेव। (2) लेमुकुंदलाल। (3) ले- भैयालवंशज रमापति। (4) लेराधाकान्त देव। (5) ले- विश्वनाथभट्ट। प्रायश्चित्तचिन्तामणि - ले- वाचस्पति मिश्र। प्रायश्चित्ततत्त्व - ले- रघुनन्दन। जीवानन्द द्वारा प्रकाशित । टीकाग्रंथ (1) काशीनाथ तर्कालंकार द्वारा। कलकत्ता में 1900 में प्रकाशित। (2) राधा-मोहन गोस्वामी द्वारा (बंगलालिपि में कलकत्ता में मुद्रित, (1885)। प्रस्तुत लेखक कोलबुक का मित्र, चैतन्य का अनुयायी एवं अद्वैतवंशज था। (3) आदर्शविष्णुराम सिद्धान्तवागीश द्वारा लिखित । प्रायश्चित्तदीपिका - ले- अनन्तदेव। आपदेव के पुत्र। (यह प्रायश्चित्तशतद्वयी ही है)। विषय- श्रौतकृत्यों में प्रायश्चित्त। (2) ले- भास्कर। (3) ले- राम। (4) ले-लोकनाथ। वैद्यनाथ के पुत्र। (लेखक के सकलागमसंग्रह से संगृहीत)। (5) ले- वाहिनीपति। प्रायश्चित्तनिरूपणम् - ले-रिपुंजय। कलकत्ता में बंगला लिपि में मुद्रित (ई. 1883 में) (2) ले- भवदेवभट्ट । प्रायश्चित्तनिर्णय - ले- गोपाल न्यायपंचानन। (2) लेअनन्तदेव। प्रायश्चित्तपद्धति - ले- कामदेव। सन 16691 (2) लेजम्बनाथ सभाधीश। पिता- हेमाद्रि। पटलसंख्या 4। (3) लेरामचंद्र। पिता- सूर्यदास । प्रायश्चित्तपारिजात - ले- गणेशमिश्र महामहोपाध्याय। (2) प्रायश्चित्तमुक्तावली - ले-दिवाकर। महादेव के पुत्र। लेखक के धर्मशास्त्रसुधानिधि का अंश)। लेखक के पुत्र वैद्यनाथ द्वारा अनुक्रमणी की गई है। (2) ले- रामचंद्रभट्ट । प्रायश्चित्तसंक्षेप - ले- चिन्तामणि न्यायालंकार। प्रायश्चित्तसंग्रह . ले- नारायणभट्ट । रचना 1600 ई. के उपरान्त। प्रायश्चित्त की परिभाषा यों दी हुई है"पापक्षयमात्रकामनाजन्यकृतिविषयं पापक्षयसाधनं कर्म प्रायश्चित्तम्।” (2) ले- कृष्णदेव स्मार्तवागीश। प्रायश्चित्तसदोदय - ले- सदाराम। देवेश्वर के पुत्र । प्रायश्चित्तसमुच्चय - ले- श्रीहृदयशिव। गुरु-ईश्वरशिव । विषयसाधकों की पापविशुद्धि के लिए आगम में उपदिष्ट प्रायश्चित्त । (2) ले- त्रिलोचनशिव। (3) ले- भास्कर । प्रायश्चित्तसार - ले- त्र्यंबक भट्ट मोल्ह। (2) ले- दलपति । (नृसिंहप्रसाद का अंश)। (3) ले- हरिराम। (4) लेभट्टोजि दीक्षित। जयसिंहकल्पद्रुम द्वारा वर्णित। (5) लेश्रीमदाउचा शुक्ल दीक्षित। प्रतापनारसिंह में वर्णित। (6) यादवेन्द्र विद्याभूषण के स्मृतिसार से संगृहीत । सन 1691 ई.।। प्रायश्चित्तसारकौमुदी - ले- वनमाली। प्रायश्चित्तसारसंग्रह - (1) ले- आनन्दचन्द्र। (2) लेनागोजी भट्ट। (3) ले- रत्नाकर मिश्र। प्रायश्चित्तसारावली - ले- बृहन्नारदीयपुराण का एक अंश । 210 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रायश्चित्तसुधानिधि - ले- सायणाचार्य। ई. 13 वीं शती। धर्मशास्त्रान्तर्गत आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त विषयक विवेचन। प्रायश्चित्तसुबोधिनी-ले-श्रीनिवास मखी। (आपस्तम्बीय)। प्रायश्चित्तशतद्वयी - ले- भास्कर। चार प्रकरणों में। 1550 ई. के पूर्व । टीका- वेंकटेश वाजपेयी द्वारा । (1584-5 ई.)। प्रायश्चित्तशतद्वयी-कारिका - ले- गोपालस्वामी। प्रायश्चित्त-श्लोकपद्धति - ले- गोविन्द । प्रायश्चित्तसेतु - ले- सदाशंकर । प्रायश्चित्ताध्याय - यह महाराज सहस्रमल्ल श्रीपति के पुत्र महादेव के निबन्धसर्वस्व का तृतीय अध्याय है। प्रायश्चित्तानुक्रमणिका - ले- वैद्यनाथ दीक्षित। प्रायश्चित्तेन्दुशेखर और प्रायश्चित्तेन्दुशेखरसारसंग्रह- लेनागोजिभट्ट । शिवभट्ट एवं सती के पुत्र । 1781-82 ई. में रचित । प्रायश्चित्तोद्धार - ले- दिवाकर। महादेव के पुत्र। (इसके अन्य नाम हैं : स्मार्तप्रायश्चित्त एवं स्मार्तनिष्कृतिपद्धति)। प्रायश्चित्तोद्योत - ले- दिनकर। (दिनकरोद्योतका अंश)। प्रायश्चित्तौघसार - इसमें अपराधों को चार शीर्षकों में बांटा गया है। (1) घोर, (2) महापराध, (3) मर्षणीय (क्षन्तव्य) एवं (4) लघु । इनके प्रायश्चित्तों का विवरण इसका विषय है। प्रायश्चित्तरत्नमाला - ले- रामचंद्र दीक्षित। प्रायश्चित्तरत्नाकर - ले- रत्नाकर मिश्र । प्रायश्चित्तरहस्यम् - ले- दिनकर । स्मृतिरत्नावली में उल्लिखित । प्रायश्चित्तवारिधि - ले- भवानन्द। प्रायश्चित्तविधि - ले- मयूर अप्पय दीक्षित। इसमें हेमाद्रि एवं माधव का उल्लेख है। (2) ले- शौनक। (3) लेअज्ञात श्लिोक- 800। कामिकतंत्र, क्रियाक्रमद्योतिका तथा दीक्षाशास्त्र से संगृहीत। (4) ले- भास्कर । प्रायश्चित्तविधिपटलादि- श्लोक- 2000। विषय- प्रतिष्ठा और। उत्सवविधि। प्रायश्चित्तविनिर्णय - ले- यशोधरभट्ट। (2) ले- भट्टोजी। प्रायश्चित्तविवेक - ले- श्रीनाथ। ई. 15-16 वीं शती। (2) ले- शूलपाणि। जीवानन्दद्वारा मुद्रित। इस पर गोविंदानन्दकृत तत्त्वार्थकौमुदी, रामकृष्णकृत "कौमुदी" और अज्ञात लेखक-कृत निगूढ प्रकाशिका नामक तीन टीकाएं लिखी गई हैं। प्रायश्चित्तव्यवस्थासंग्रह - ले- मोहनचंद्र । प्रायश्चित्तव्यवस्थासंक्षेप - ले- न्यायालंकार, चिन्तामणि भट्टाचार्य । इन्होंने तिथि, व्यवहार उद्धार, श्राद्ध, दाय पर भी “संक्षेप" लिखा है। ई. 17 वीं शती। प्रायश्चित्तव्यवस्थासार - ले.. अमृतनाथ । प्रासंगिकम् - ले- हरिजीवन मिश्र। ई. 17 वीं शती। प्रहसन कोटि की रचना। शाब्दिक क्रीडा द्वारा हास्य रस की निर्मिति । कथासार- महाराज प्रताप पंक्ति का मंत्री प्रकृष्टदेव 'प्र' का प्रचारक है। केरलीय भट्ट 'प्र' का विरोधी। दोनों में वाग्युद्ध होता है जो योनिमंजरी नामक वेश्या के आगमन से समाप्त होता है। अब दूसरा विवाद चलता है कि योनिमंजरी के पुत्र का पितृत्व किसका है। दोनों राजा से निर्णय चाहते हैं इतने में एक वानर प्रकृष्टदेव की पत्नी प्रकृतिप्रिया का धर्षण करता है- भागने पर अन्तःपुर में घुसता है और उसके पीछे राजा भी दौडता चला जाता है। प्रासभारतम् - ले- सूर्यनारायण । प्रासाददीपिकामंत्रटिप्पनम् - तांत्रिक संग्रह ग्रंथ । 28 आह्निकों में पूर्ण। विषय- मन्दिरप्रतिष्ठा आदि विविध विषय । प्रासादप्रतिष्ठा - (1) ले- नृहरि (पण्ढरपुर उपाधि) प्रतिष्ठामयूख एवं मत्स्यपुराण पर आधारित ग्रंथ। (2) ले- भागुणिमिश्र । प्रासादशिवप्रतिष्ठाविधि - ले- कमलाकर। प्रासादप्रतिष्ठादीधिति - ले- अनन्तदेव। राजधर्मकौस्तुभ का अंश। प्रिन्सपंचाशत् - ले- कवि- राजा सर सुरेन्द्रमोहन टैगोर। इस खण्ड काव्य में प्रिन्स ऑफ वेल्स की प्रशंसा है। प्रियदर्शिका (नाटिका)- ले- महाराज हर्षवर्धन। अंकसंख्या चार। इसका नामकरण नायिका प्रियदर्शिका के नाम पर किया गया है। इसकी कथावस्तु गुणाढ्य की "बृहत्कथा" से ली गई है और रचनाशैली पर महाकवि कालिदास कृत "मालविकाग्निमित्र" का प्रभाव है। इसमें कवि ने वत्सनरेश महाराज उदयन तथा महाराज दृढवर्मा की दुहिता प्रियदर्शिका की प्रणय-कथा का वर्णन किया है। नाटिका के प्रारंभ में कंचुकी विनयवसु, दृढवर्मा का परिचय प्रस्तुत करता है। इसमें यह सूचना प्राप्त होती है कि दृढवर्मा ने अपनी पुत्री राजकुमारी प्रियदर्शिका का विवाह कौशांबी-नरेश वत्सराज के साथ करने का निश्चय किया था पर कलिंग नरेश की ओर से कई बार प्रियदर्शिका की याचना की गई थी। अतः कलिंगनरेश, दृढवर्मा . के निश्चय से क्रूद्ध होकर उसके राज्य में विद्रोह निर्माण कर देता है और दोनों पक्षों में उग्र संग्राम होने लगता है। कलिंग-नरेश, दृढवर्मा को बंदी बना लेता है किंतु कंचुकी, दृढवर्मा की पुत्री प्रियदर्शिका की रक्षा कर उसे वत्सराज उदयन के प्रासाद में पहुंचा देता है और वहां महारानी वासवदत्ता की दासी के रूप में वह रहने लगती है। उसका नाम आरण्यका रखा जाता है। द्वितीय अंक में वासवदत्ता के लिये पुष्पावचय करती हुई। आरण्यका के साथ सहसा उदयन का साक्षात्कार होता है और वे दोनों एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं। जब प्रियदर्शिका रानी के लिये कमल का फूल तोडती है तो सहसा भौरों का झंड आ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 211 For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धमकता है। इससे प्रियदर्शिका बेचैन हो उठती है। उसी प्रीतिपथे - कवि- श्रीराम भिकाजी वेलणकर। 25 गीतों का समय विदूषक के साथ भ्रमण करता हुआ राजा उदयन वहां प्रेमविषयक काव्य । देववाणी मंदिर मुंबई 4 द्वारा सन 1985 आ पहुंचता है और लता-कुंज में मंडराने वाले भ्रमरों को में प्रकाशित। दूर भगा देता है। यहीं से उदयन व प्रियदर्शिका में प्रथम प्रीतिविष्णुप्रियम् (रूपक) - ले. यतीन्द्रविमल चौधुरी । प्रेम का बीजवपन होता है। प्रियदर्शिका की सखी उन दोनों प्राच्यवाणी से सन 1958 में, तथा "मंजपा'' में 1961 में को एकाकी छोड कर चली जाती है और वे स्वतंत्रतापूर्वक प्रकाशित। विषय - चैतन्य महाप्रभु की पत्नी विष्णुप्रिया की वार्तालाप करने का अवसर प्राप्त करते हैं। तृतीय अंक में चरितगाथा। अंकसंख्या-ग्यारह है। उदयन व प्रियदर्शिका की परस्पर अनुरागजन्य व्याकुलता का प्रेतप्रदीपिका - ले- गोपीनाथ अग्निहोत्री। दृश्य उपस्थित किया गया है। फिर मनोरंजन के लिये राज-दरबार प्रेतप्रदीप - ले- कृष्णमित्राचार्य । में वासवदत्ता के विवाह पर आधत रूपक के अभिनय की प्रेतमंजरी - (या प्रेतपद्धति)- ले. द्यादुमित्र । व्यवस्था की जाती है। इस नाटक में वत्सराज उदयन अपनी भूमिका स्वयं अभिनीत करते हैं, और प्रियदर्शिका (आरण्यका) . प्रेतमुक्तिदा - ले.- क्षेमराज । वासवदत्ता का अभिनय करती है। यह नाटक केवल दर्शकों प्रेतश्राद्ध-व्यवस्थाकारिका - ले.- स्मार्तवागीश। के मनोरंजन का साधन न बन कर वास्तविक हो जाती है, प्रेमबन्ध - ले.- प्रेमराज। श्लोक - 1500। और उदयन व प्रियदर्शिका की प्रीति प्रकट हो जाती है। इस प्रेमरत्नावली - ले.- कृष्णदास कविराज । ई. 15-16 वीं शती। रहस्य को जान कर वासवदत्ता क्रोधित हो उठती है। चतुर्थ प्रेमराज्यम् - ले.- "व्हिकार ऑफ वेकलिल्ड" नामक अंग्रेजी अंक में प्रियदर्शिका रानी वासवदत्ता द्वारा बंदी बनाई जाकर उपन्यास का अनुवाद। ले. रंगाचार्य । तंजौर-निवासी। कारागृह में डाल दी जाती है। इसी बीच रानी की माता का प्रेमविजयम् (नाटक)- ले.- सुन्दरेश शर्मा प्रकाशित । एक पत्र प्राप्त होता है कि उसके मौसा दृढवर्मा, कलिंग-नरेश अंकसंख्या-सात । प्रधान रस- शृंगार। कथावस्तु कल्पित। प्राकृत के यहां बंदी हैं। यह जान कर रानी दुखी होती है पर उसी का अभाव। संस्कृत एकेडमी द्वारा अभिनीत । कथासारसमय राजा उदयन वहां आकर उसे बतलाते हैं कि उन्होंने मगधनरेश प्रतापरुद्र का रक्षक हेमचन्द्र विदेह से युद्ध कर दृढवर्मा की मुक्ति हेतु अपनी सेना कलिंग भेज दी है। इसी अपने राज्य की रक्षा करता है। राजा से वह पुरस्कृत होता बीच विजयसेन कलिंग-नरेश को परास्त कर दृढवर्मा कंचुकी ___ है। यह देख सेनापति दुर्मति को ईर्ष्या होती है। वह छद्म के साथ प्रवेश करता है और कंचुकी राजा उदयन को बधाई से उसको मारना चाहता है परंतु असफल रहता है। राजकुमारी देता है। राजकुमारी प्रियदर्शिका के न पाये जाने पर वह हेमचन्द्र पर मोहित होती है। हेमचन्द्र दुर्मति का वध करता अपना दुख भी व्यक्त करता है। तभी यह सूचना प्राप्त होती है परंतु राजकन्या से प्रेम करने पर राजा उसे बन्दी बनाता है कि आरण्यका (प्रियदर्शिका) ने विष-पान कर लिया है। है। कुछ दिनों बाद शत्रु का विध्वंस करने हेतु उसे मुक्त वह शीघ्र ही रानी द्वारा राजा के पास लायी जाती है, क्यों किया जाता है। विजय पाने के उपहार स्वयं राजा उसे कन्यादान कि मंत्रोपचार द्वारा राजा को विष का प्रभाव दूर करना ज्ञात करता है। है। मृतप्राय आरण्यका को वहां लाये जाते ही कंचुकी उसे प्रेमेन्दुसागर - कवि - रूपगोस्वामी। कृष्णभक्तिकाव्य। 16 वीं पहचान लेता है और घोषित करता है कि वह उसके स्वामी शती। दृढवर्मा की पुत्री प्रियदर्शिका है। मंत्रोपचार से प्रियदर्शिका प्रेयसीस्मृति - शेक्सपीयर के सॉनेट क्रमांक 29 का अनुवाद । स्वस्थ हो जाती है। तब रानी वासवदत्ता प्रसन्न होकर उसका हाथ राजा के हाथ में दे देती है। भरतवाक्य के पश्चात् नाटक अनुवादक हैं महालिंगशास्त्री । की समाप्ति होती है। इस नाटिका में श्रृंगाररस की प्रधानता प्रोद्गीथागम - शंकर-पार्वती संवादरूप। विषय - दक्षिण है और इसका नायक राजा उदयन धीर-ललित है। कालिका के दक्षिणत्व और शिवारूढत्व का निरूपण। उग्रतारा, __प्रियदर्शिका में चार अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें एक विष्कम्भक, त्रिपुरा आदि की उत्पत्ति । कालिका का महाविद्यात्व । पूजाविधि, । भुवनेश्वरी आदि महाविद्याओं का निरूपण, गुरुक्रमनिरूपण । 2 प्रवेशक और 1 चूलिका है। प्रचंडचण्डिका के बीजमन्त्र, पूजन आदि का निरूपण, पोडशाक्षर प्रियदर्शिप्रशस्तय - ले. म. म. रामावतार शर्मा । काशी-निवासी। आदि मन्त्रों का निरूपण।। यह अशोकस्तम्भों के पाली लेखों का संस्कृत सटीक संस्करण है। प्रौढमताब्जमार्तण्ड - (या कालनिर्णयसंग्रह) ले.-प्रतापरुद्रदेव । प्रियप्रेमोन्माद - ले- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। प्रौढमनोरमा - ले.- भट्टोजी दीक्षित। उन्हीं के सिद्धान्तकौमुदी प्रीतिकुसुमांजलि - (संकलित काव्यसंग्रह)- काशी के कतिपय नामक नव्यव्याकरण विषयक ग्रंथ की प्रसिद्ध टीका। इसमें पण्डितों द्वारा रानी व्हिक्टोरिया की स्तुति में रचित काव्यों का संग्रह। प्रक्रिया-कौमुदी (रामचन्द्रकृत) तथा उसकी टीकाओं का स्थान 212 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स्थान पर खण्डन किया है। लेखक ने “यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्'' पर विशेष बल दिया है। प्राचीन ग्रंथकारों के समान इसने पूर्वसूरिओं का मत दिग्दर्शन नहीं किया। इसकी टीका के बाद वह प्रथा ही बन्द हो गई। प्रौढमनोरमा पर भट्टोजी के पौत्र हरि दीक्षित ने "बृहच्छन्दरल" और "लघुशन्दर" नाम की दो व्याख्याएं लिखी हैं लघुशब्द पर अनेक वैयाकरणों को टीकाएं है। जगन्नाथ पण्डितराज ने मनोरमाकुचमर्दन नामक टीकाद्वारा प्रौढमनोरमा का खंडन किया है। फक्किकाप्रकाश ले. इन्द्रदत्त उपाध्याय । यह वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी की टीका है। 1 फिट्सूत्राणि ले. शंतनु फिट् अर्थात् प्रातिपदिक। प्रातिपदिक अर्थात् अर्थवत् किंतु अधातु तथा अप्रत्यय वर्ण-समूह । इन प्रातिपदिकों के स्वाभाविक उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित स्वर बताने हेतु इन सूत्रों की रचना की गई है। इनकी संख्या केवल 87 है, और उन्हें अंतोदात्त, आद्युदात्त, द्वितीयोदात्त व पर्यायोदात्त नामक 4 पादों में विभाजित किया गया है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इन सूत्रों का आधार लिया है। अतः शंतनु का काल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से भी प्राचीन निश्चित होता है ये सूत्र पाणिनि के भी पहले के होने चाहिये ऐसा मत सिद्धान्तकौमुदी के वैदिक प्रकरण पर सुबोधिनी नामक टीकाग्रंथ के लेखक ने अंकित किया है। फिट् सूत्रकार शंतनु की परंपरा पाणिनि से भिन्न प्रतीत होती है। सामान्यतः लोग समझते हैं कि उदात्तादि स्वर केवल वेदों में ही होते हैं, लौकिक भाषा में नहीं किन्तु यह बात फिट्सूत्रकार नहीं मानते। लौकिक भाषा में भी प्रत्येक शब्द को स्वर होता है। ऐसा वे कहते हैं । रचना, अर्थभेद के कारण लौकिक भाषा में भी प्रत्येक शब्द को स्वर होता है ऐसा वे कहते हैं । उदाहरणार्थ अर्जुन शब्द का एक अर्थ घास होता है । अतः उस अर्थ में वह अंतोदात्त होगा तथा वृक्षादि के अर्थ में आद्युदात्त । कृष्ण शब्द मृगवाचक हो, तब वह अंतोदान्त व विशेषनाम हो तब विकल्प से अंतोदात्त अर्थात् एक बार आनुदान भी होगा। ऐसे अनेक शब्दों की स्वयक चर्चा फिट्सूत्र में आई है। - www.kobatirth.org - बकदूतम् ले. म. म. बगलाक्रम - कल्पवल्ली तीन स्तबकों में पूर्ण विषय बगलामुखी की पूजा-प्रक्रिया। बगलापंचांगम् - श्लोक बगलापटनम् - इसमें संक्षेपतः बगलामुखी की पूजाप्रक्रिया प्रदर्शित है। इसका निर्माण कृष्णानन्द रचित तन्त्रसार के आधार पर माना जाता है। लगभग 145 1 बगलामुखी श्लोक अजितनाथ न्यायरत्न । - ले. अनन्तदेव । रेणुकापुरवासी । उपासक के प्रातः कृत्यों के साथ - 500 1 बगलामुखी पंचांगम् रुद्रयामलान्तर्गत श्लोक 2567 बगलामुखीपद्धति से अनन्तदेव श्लोक 8821 बगलामुखी-पूजापद्धति श्लोक 400 I बगला - रहस्यम् श्लोक 600| 1248 I बगलाचनपदी - ले. राघवानन्दनाथ । श्लोक 400 | बघेलवंशवर्णनम् - ले रूपमणिमिश्र । सन् 1957 में विंध्य संस्कृत विश्व परिषद् द्वारा प्रकाशित । बटुक पंचांग-प्रयोगद्धति - श्लोक बटुकपूजनपद्धति ले. रामभट्ट । श्लोक बटुकपूजापद्धति ले. बालम्भट्ट । श्लोक बटुकदीपदान प्रयोग भी सम्मिलित है। बटुकभैरवतचम् श्लोक 1255 - बटुकभैरव पंचांगम् रुद्रयामलान्तर्गत, श्लोक 362 बटुकभैरव - पुरश्चरणविधि उदण्डमाहेश्वरतन्त्रान्तर्गत श्लोक I I । 236 I - - - For Private and Personal Use Only - - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बटुकभैरव-बकारादि-सहखनाम रुद्रयामलतन्त्रान्तर्गत देवी - हर संवादरूप । ले. - रमानाथ । श्लोक - 60001 ले. श्रीनिवास । श्लोक बटुकभास्कर बटुकार्चनचन्द्रिका बटुकार्चनदीपिका - ले.- काशीनाथ। श्लोक बटुकार्बनपद्धति (नामान्तर भैरवार्चन चन्द्रिका) बालंभट्ट । श्लोक 1500 I - - - 146 I 205 | इस में - विश्वसारोद्धार में - - बटुकार्चनसंग्रह ले. बालंभट्ट । पितामह भट्ट दिवाकर । पिता रामभट्ट 8 अर्चनों (अध्यायों) संपूर्ण विषय बटुकभैरव की पूजा का विस्तार से वर्णन, तान्त्रिक नित्य होम, भस्मसाधन, स्तोत्र, कवच, सहस्रनाम के समग्र आवर्तन पर विचार, दिशा-नियम, शान्ति आदि काम्य कर्मों में पूजाविधान इ. । बटुकोपनिषद् अथर्ववेद से संबंधित गद्य-पद्यात्मक एक नव्य उपनिषद् | शिव का ही दूसरा नाम है बटुक । इसमें ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि सभी देवताओं को शिव अर्थात् बटुक के रूप मान कर उनकी वंदना करने के लिये मंत्र दिये गये हैं भस्म में पंचमहाभूतों की शक्ति प्रतीक रूप से रहती है तथा उसके धारण से मुक्ति मिलती है, इस प्रकार भस्मधारण का महत्त्व इसमें बतलाया गया है। बटुदैवत्यम् (तन्त्र) ले. नारायण। पिता यज्ञ । श्लोक 4940 24 पटलों में पूर्ण विषय विविध देवताओं की पूजाविधि । बद्धयोनिमहामुद्राकथनम् - तोंडलतन्त्र के अन्तर्गत । शिव-पार्वती संवादरूप । यह तोंडल तन्त्र का 3 रा और 4 था पटल ही है। बभ्रुवाहनचम्पू ले कुन्तुकडूण ताम्बरन्। कांगनूर (केरल) निवासी) । 600 I 696 1 · ले. - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 213 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बलिदानम् - ले. वा. आ. लाटकर। कोल्हापुर निवासी। यह श्री. नरसिंह चिन्तामण केलंकर के मराठी उपन्यास का संस्कृत अनुवाद है। बलिदानमन्त्र बटुक, क्षेत्रपाल, योगिनी तथा गणपति के लिये बलिप्रदान के मन्त्र इस में वर्णित । विषय देवी चण्डिका के 425 | बलिकल्प श्लोक लिए बलिदान - विधि | बलिविधानम् ले राघवभट्ट (कालीतत्त्वान्तर्गत) श्लोक 328 1 - बल्लवदूतम् - ले. बटुकनाथ शर्मा। हास्यरसात्मक दूतकाव्य । बालरामभरतम् ले. बालराम वर्मा । संगीतशास्त्र विषयक प्रबन्ध। 18 अध्याय । भाव, राग और ताल का परस्पर संबंध, मौखिक तथा वाद्य संगीत और आंगिक अभिनय से रसप्रादुर्भाव का प्रतिपादन किया है। बलिविजयम् ले. जग्गू श्रीबकुलभूषण बंगलोरनिवासी । छायातत्त्व की प्रचुरता और सौष्ठवपूर्ण हास्य इस की विशेषता / / है। विषय वामनावतार की कथा। - - - www.kobatirth.org - - बसवराजीयम् - ले. बसवराज। इस आयुर्वेदिक ग्रंथ का प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है। इस में 25 प्रकरण है तथा ज्वरादि रोगों के निदान एवं चिकित्सा का विवेचन है। ग्रंथ का निर्माण अनेक प्राचीन ग्रंथों के आधार पर किया गया है। इसका प्रकाशन नागपुर (महाराष्ट्र) में पं. गोवर्धन शर्मा छांगाणी ने किया है। बहुश्रुत ले. सन् 1914 में वर्धा (महाराष्ट्र) से पं. बालचन्द्रशास्त्री विद्यावाचस्पति के सम्पादकत्व में इस द्वैमासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दूसरे वर्ष से यह प्रति मास छपने लगी। इसमें वेद, धर्म, संस्कृति आदि विषयों के निबन्ध, कवियों की जीवनी और अन्तिम पृष्ठ पर समाचार होते थे । बहुवृच अवेद में बहु (अर्थात् सर्वाधिक ) ऋचायें होने से पतंजलि ने उसे बहवच संज्ञा दी है। ऋग्वेद की जो शाखाये पतंजलि के भाष्य में पायी जाती हैं, उनमें बहुवच भी एक शाखा है। उसे बहवृचचरण भी संज्ञा है । ऋग्वेद का यह एक प्रसिद्ध चरण है। इस चरण के 21 भेद हैं : 214 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - "एकविंशतिधा बाह्वचम्" ऐसा पतंजलि कहते हैं। शतपथ ब्रह्मण में (10-51-10) तथा आपस्तंब श्रीतसूत्र में बहवृचाओं का उल्लेख है । ऐतरेय तथा कौषीतकी ब्राह्मणों में बच शाखा का एक भी अवतरण नहीं पाया जाता । बह्वृच शाखा की संहिता तथा ब्राह्मण संप्रति उपलब्ध नहीं हैं। कुमारिलभट्ट के अनुसार वसिष्ठ गृह्यसूत्र बवृच का है। (तंत्रवार्तिक 1-3-11) बहवृचोपनिषद् - एक नव्य उपनिषद् । इसमें महात्रिपुरसुंदरी की महिमा का गद्य में वर्णन है। बहवचगृह्यकारिका ले शाकलाचार्य विषय धर्मशास्त्र । - बहवृचाह्निकम् - ले. कमलाकर रामचंद्र के पुत्र । लेखक के प्रायश्चित्तरत्न का उल्लेख इसमें है। विषय- धर्म शास्त्र । बाइबल ईसाई धर्म का यह पवित्रतम ग्रंथ माना गया है। संसार की करीब बारह सौ से अधिक प्रमुख तथा गौण भाषाओं में इस ग्रंथ के अनुवाद हो चुके हैं। अंग्रेज आक्रमक की भारत में विजय होने पर ईसाई धर्मप्रचार के हेतु संस्कृत भाषा में बाइबल के अनेक अनुवाद हुए 1) सन् 1808-11 में सेरामपुर (बंगाल) के मिशनरियों द्वारा विलियम केरी के मार्गदर्शन में मूल ग्रीक बाइबल से 3 खंडों में प्रथम अनुवाद हुआ। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · 2) सन् 1821 में उसी मिशन द्वारा ओल्ड अँड न्यू टेस्टामेंट्स का अनुवाद प्रकाशित हुआ । 3) सन् 1841 में कलकत्ता की बैप्टिस्ट मिशनरी सोसाइटी द्वारा स्थानिक पंडितों की सहायता से ग्रीक भाषीय न्यू टेस्टामेंट का अनुवाद प्रकाशित हुआ । 4) सन् 1842 में स्कूल बुक सोसाइटी प्रेस, कलकत्ता, द्वारा "प्राव्हर्बज् ऑफ सॉलोमन" का अनुवाद प्रकाशित हुआ। 5) सन् 1843 में कलकत्ता के बैप्टिस्ट मिशन द्वारा मूल हिब्रू बाइबल का अनुवाद प्रकाशित । 6) सन् 1844 में उसी मिशन द्वारा दि फोर गॉसपेल्स विथ दि अॅक्ट्स ऑफ दि अपोस्टल्स का अनुवाद प्रकाशित। 7) सन् 1845 में "दि बुक ऑफ दि प्रोफेट ईसा इन् संस्कृत" का प्रकाशन । 8) सन् 1846 में प्रॉव्हज ऑफ सॉलोमन का मूल हिब्रू ग्रंथ से अनुवाद प्रकाशित। सन 1860 में "बाइबल फॉर दि पंडित्स" नामक जेनेसिस के प्रथम तीन अध्याय टीकासहित प्रकाशित हुए। यह सविस्तर टीका संस्कृत और साथ ही अंग्रेजी में जे. आर. बॅलन्टाईन द्वारा लिखी गई। इस ग्रंथ का प्रकाशन लंदन में हुआ । 9) सन 1877 में "ईश्वरीय स्तवार्थक गीतसंहिता', कलकत्ता के बैपटिस्ट मिशन द्वारा प्रकाशित हुई। 10) सन 1877 में बैप्टिस्ट मिशन प्रेस, कलकत्ता द्वारा "ख्रिस्तीय धर्मपुस्तकान्तर्गतो हितोपदेशः " नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ । 11) सन 1877 में उसी मिशन द्वारा “मिथिलिखितः सुसंवादः ". प्रकाशित हुआ । 12) सन 1878 में इसी मिशन द्वारा "मार्क लिखितः सुसंवादः प्रकाशित । For Private and Personal Use Only 13) सन 1878 में सत्यधर्मशास्त्रम् मार्कलिखितः सुसंवादः अर्थतः येशु ख्रिस्तीय चरितदर्पणम्" का उसी मिशनद्वारा प्रकाशन । 14) सन 1878 में "लूक लिखितः सुसंवादः " प्रकाशित । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 15) सन 1878 में "स्त्रिस्तचरितम् अर्थतः मिथि मार्क लूक, योहनेर विरचित सुसंवादचतुष्टयम्" नामक अनुवाद उसी मिशन द्वारा प्रकाशित । 16) सन 1878 में योहानलिखितः सुसंवादः नामक "गॉस्पेल ऑफ सेंट जॉन" का अनुवाद प्रकाशित । 17) सन 1910 में कलकत्ता के ब्रिटिश फॉरेन धर्म-समाजद्वारा, अंग्रेज व बंगाली पंडितों के सहकार्य से न्यू टेस्टामेंट का अनुवाद “धर्मपुस्तकस्य शेषांश: अर्थतः प्रभुणा यीशुख्रिष्टेन निरूपितस्य नूतन - धर्मनियमस्य ग्रंथसंग्रहः " इस नाम से प्रकाशित हुआ। सन 1922 में बैप्टिस्ट प्रिंटिंग प्रेस कलकत्ता द्वारा फोटोग्राफी पद्धति से उसका पुनर्मुद्रण हुआ। बाइबल के इन अनुवादों के अतिरिक्त ख्रिस्तधर्म विषयक कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद ईसाई मिशन द्वारा प्रकाशित हुए हैं जैसे: 1) ईश्वरोक्तशास्त्रधारा 2) परमात्मस्तव, 3) पॉलचरितम् 4) ख्रिस्तसंगीतम् ख्रिस्तधर्मकौमुदी, 5) 6) ख्रिस्तधर्मकौमुदी -समालोचना और 7 ) ख्रिस्तयज्ञविधिः । यह सा ईसाई संस्कृत साहित्य 19 वीं शती में प्रकाशित हुआ है। बांग्लादेशोदयम् (नाटक) ले रामकृष्ण शर्मा, दिल्लीनिवासी। भारतीय विद्याप्रकाशन (पो.बा. 108 कचौडी गली, वाराणसी) द्वारा प्रकाशित। पाकिस्तान का 1971 के युद्ध में भारतद्वारा पराजय होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर "बांग्लादेश" नामक नए राज्य का उदय हुआ। 20 वीं सदी की इस महत्त्वपूर्ण घटना का चित्रण श्रीरामकृष्ण शर्मा ने प्रस्तुत नाटक में किया है। आधुनिक संस्कृत साहित्य की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण नाटक है । इस नाटक के दस अंकों में तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान के राजनैतिक, सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं कूटनैतिक प्रश्नों को स्पर्श किया गया है। डा. सत्यव्रत शास्त्री ने अपनी प्रदीर्घ अंग्रेजी प्रस्तावना में नाटक की कथावस्तु का सविस्तर परिचय दिया है। इस नाटक में हुजूर, गुरिल्ला, क्लब, ट्रांझिस्टर किरायादार जैसे असंस्कृत शब्दों का स्थान स्थान पर प्रयोग किया गया है। वाणयुद्धचम्पू ले. - चुन्नी ताम्बिरन् । क्रांगनूर- निवासी । बाणविजयम् (काव्य)- ले. शिवराम चक्रवर्ती। I बाणस्तव ले. रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं निवासी ई. 17 वीं शती । बाणासुर विजयचंपू ले. वेंकट या वेंकटाचार्य । इस चंपू-काव्य में 6 उल्लास हैं और "श्रीमद्भागवत" के आधार पर उषा-अनिरुद्ध की कथा इसमें वर्णित है । बालकानां जवाहर:- ले. - विघ्नहरि देव । पं. जवाहरलाल नेहरु का बालोपयोगी चरित्र शारदा प्रकाशन (पुणे- 30 ) द्वारा प्रकाशित । बालकृष्णचम्पू - ले. जीवनजी शर्मा । बालचरितम् (नाटक) ले. महाकवि भास। संक्षिप्त कथाप्रथम अंक में वसुदेव नवजात शिशुकृष्ण को यमुना के पार गोकुल में जाकर नन्द के पास रख देते हैं और नन्द की मूल पुत्री को मथुरा ले आते हैं। द्वितीय अंक में कंस वसुदेव के बंदीगृह से कन्या को मंगवाकर मार डालता है, तब उसी कन्या के शरीर से निकला हुआ दैवी अंश कंस के भावी विनाश की सूचना देता है। तृतीय अंक में दामोदर का गोपियों के साथ नृत्य तथा अरिष्टषभ का वध वर्णित है। चतुर्थ अंक में दामोदर द्वारा कालिया नाग के दमन की घटना है। पंचम अंक में मथुरा में कंस के धनुर्यज्ञ में दामोदर और संकर्षण, चाणूर और मुष्टिक नामक राक्षसों का वध करते हैं तथा दामोदर कंस को मारते हैं तब वसुदेव अग्रसेन को मुक्त कर उनका राज्याभिषेक करते हैं । बालचरित में अर्थोपक्षेपकों की संख्या 5 है जिनमें 1 ) प्रवेशक, 2) चूलिका । अंकास्य और अंकावतार है। इस नाटक में विष्कम्भक नहीं है। इस नाटक की कथा हरिवंश पुराण पर आधारित है । बालनाटकम् ले. वासुदेव द्विवेदी वाराणसी की संस्कृत प्रचार पुस्तकमाला में प्रकाशित लघुनाटक । - बालपाठ्या ले. रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। केरलनिवासी। बाल - प्रबोधिनी ले. गोस्वामी गिरिधरलालजी ई. 18 वीं शती । भागवत की टीका । हरि प्रसाद भागीरथ द्वारा मुंबई से प्रकाशित। अनेक टीकालंकृत भागवत के संस्करण में भी प्रकाशित । प्रकाशक कृष्णशंकर शास्त्री (1965 ई.) वल्लभचार्यजी की टीका सुबोधिनी की रचना अंशतः होने के कारण सांप्रदायिक मतानुसार तदितर स्कंधों का तात्पर्य अनिर्णीत रह गया था । इस अभाव की पूर्ति प्रस्तुत बाल - प्रबोधिनी द्वारा हुई। यह टीका स्वतंत्र तथा संपूर्ण भागवत पर निबद्ध है। यह शुद्धाद्वै तथ्यों का आविष्कारक ग्रंथरत्न है। इसकी रचना बडी विद्वतापूर्ण है। बालबोध: - ले. सारस्वत व्यूढ मिश्र । यह वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी की टीका है। बालबोधकम् - ले.-आनन्दचंद्र । प्रायश्चित्तविषयक 46 श्लोकों - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only का प्रकरण । बालबोधतन्त्रम् - लो. काशीनाथ श्लोक 600 | बालबोधिनी ले. वामनाचार्य झलकीकर। मम्मटकृत काव्य प्रकाश की यह आधुनिक एवं सर्वोत्कृष्ट टीका है। टीकाकार ने पूर्ववर्ती प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण टीकाओं का परामर्श इसमें किया है। बालम्भट्टी - ले. - लेखिका- लक्ष्मीदेवी। विषय- आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित्त । घारपुरे द्वारा प्रकाशित। घारपुरे ने व्यवहार के अंश का अनुवाद किया है। बालभागवतम् ले. धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती । बालभारत या प्रचण्डपाण्डवम् (नाटक) ले. - राजशेखर । I - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 215 - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह नाटक अपूर्ण सा है। इसके केवल 2 अंक उपलब्ध हैं। हो जाते हैं किंतु किसी प्रकार यह युद्ध टल जाता है। तृतीय कथावस्तु महाभारत से गृहीत है। द्रौपदीस्वयंवर, कपटद्यूत से ____ अंक लंकेश्वर में सीता को प्राप्त न कर सकने के कारण राज्य हारना, द्रौपदी का सभा में अपमान तथा पाण्डव-वनगमन दुखी रावण को प्रसन्न करने हेतु सीता-स्वयंवर की घटना को यह भाग कवि ने अंकित किया है। रंगमंच पर प्रदर्शित किया जाता है। उसे देख कर रावण बालभैरवसहस्रनाम - रुद्रयामल से गृहीत । क्रोधित हो उठता है पर वास्तविक स्थिति को जान कर उसका बालभैरवीदीपदानम् - भैरवीतन्त्र के अन्तर्गत । विषय- बालभैरवी क्रोध शांत हो जाता है। चतुर्थ अंक "भार्गव-भंग" में राम (दुर्गा का एक रूप) निमित्त प्रज्वलित दीपप्रदान की विधि। व परशुराम के संघर्ष का वर्णन है। देवराज इंद्र मातलि के बालभैरवीसहस्रनाम - रुद्रयामलान्तर्गत । हर-गौरी संवाद रूप। साथ इस संघर्ष को आकाश से देखते हैं और राम की विजय पर प्रसन्न होते हैं। पंचम अंक “उन्मत्तदशासन" में सीता के बालमनोरमा -ले. वासुदेव वाजपेयी। वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी वियोग में रावण की व्यथा वर्णित है। वह सीता की काष्ठ-प्रतिमा की यह व्याख्या अत्यंत सरल और सुबोध होने के कारण बनाकर, मन बहलाता हुआ दिखाया गया है। षष्ठ अंक छात्रों एवं विद्वानों में अधिक प्रचलित है। "निर्दोषदशरथ" में शूर्पणखा व मायामय अयोध्या में कैकेयी बालमार्तण्ड-विजयम् (नाटक) - ले.-देवराज सुरि । तमिलनाडू व दशरथ का रूप धारण करते हए दिखाये गये है। इन्हीं के निवासी। रचना- सन 1750 में। विषय- केरल के राजा के द्वारा राम के वन-गमन की घटना का ज्ञान होता है। बालमार्तण्ड का चरित्रवर्णन। अंकसंख्या - पांच। ऐतिहासिक सप्तम अंक "असमपराक्रम' में राम व समुद्र के संवाद का तथ्यों से भरपूर परन्तु अतिरंजित। अभिनेयता की अपेक्षा वर्णन है। समुद्र तट पर बैठे हुए राम के पास रावण द्वारा पठनीयता अधिक है। लेखक की भी एक प्रमुख भूमिका है। निर्वासित उसका भाई बिभीषण आता है। फिर समुद्र पर सेतु कथासार- श्रीपद्मनाभ के शंखतीर्थ में नायक माघस्नान करने बांधा जाता है और राम लंका में प्रवेश करते हैं। अष्टम हेतु जाते हैं। वहां विष्णु प्रकट होकर कहते हैं कि अन्य अंक को "वीरविलास" कहा गया है। इस अंक में राम-रावण राजाओं को जीतकर प्राप्त हुए धन से मेरे जीर्ण मन्दिर का का घमासान युद्ध वर्णित है। मेघनाद व कंभकर्ण मारे जाते नवीनीकरण करो। दिग्विजय के अनन्तर राजसूय विधि से मेरा हैं और रावण माया के द्वारा, सीता का कटा हुआ सिर राम अभिषेक करो। राज्यधुरा मैं वहन करूंगा, तुम मेरे युवराज की सेना के सम्मुख फेंक देता है पर वह अपने उद्देश्य में रहोगे। राजा दिग्विजय हेतु सज्ज होते हैं। कवि अभिनवकालिदास सफल नहीं हो पाता। नवम अंक में रावण का वध वर्णित (लेखक) वहां अपनी कविता सुनाकर राजा का उत्साह बढाते है। अंतिम दशम अंक "सानंदरघुनाथ" में सीता की अग्निपरीक्षा हैं। राजा कवि को पुरस्कार देता है। दिग्विजय के पश्चात् राजा और विजयी राम का पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या को लौटना पद्मनाभ मन्दिर का नूतनीकरण करते हैं। पद्मनाभ पर अभिषेक वर्णित है। सभी अयोध्यावासी राम का स्वागत करते हैं तथा कर उन्हें चक्रवर्ती चिह्न धारण कराते हैं और सारा शासन राम का राज्याभिषेक किया जाता है। यह महानाटक नाट्यकला पद्मनाभ की मुद्रा से चलाकर स्वंय केवल युवराज बने रहते हैं। की दृष्टि से सफल नहीं है पर काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बालराघवीयम् - ले.-शठगोपाचार्य । है। राम की अपेक्षा रावण से संबद्ध घटनाएं इसमें अधिक बालरामरसायनम् - ले.- कृष्णशास्त्री। हैं। ग्रंथ में स्रग्धरा व शार्दूलविक्रीडित छंदों का अधिक प्रयोग है। बालरामायण के टीकाकार हैं- 1) विद्यासागर और 2) बालरामायणम् - ले.- राजशेखर। यह 10 अंकों का लक्ष्मणसूरि। महानाटक है। कवि ने इस नाटक की रचना निर्भयराज के लिये की थी। इसकी रचना वाल्मीकीय रामकथा के आधार बालवासिष्ठम् - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । विदर्भवासी। पर हुई है। सीता-स्वयंवर से लेकर राम के अयोध्या-प्रत्यागमन विषय- योगवासिष्ठ का परामर्श । तक की घटनाएं इस नाटक में समाविष्ट हैं। प्रथम अंक बालविधवा - ले.-श्रीमती लीला राव-दयाल। मुंबई निवासी। "प्रतिज्ञा-पौलस्त्य" में रावण के सीता स्वयंवर हेतु जनकपुर विषय- समाज से उपेक्षित तथा परिवार में पीडित बाल-विधवा जाने व सीता के साथ विवाह करने की प्रतिज्ञा का वर्णन के नायक अनूप से असफल प्रेम की रोचक कहानी। है। महाराज जनक से सीता को प्राप्त करने के लिये रावण बालविवाहहानिप्रकाश - ले.-रामस्वरूप । एटा निवासी। 1922 प्रार्थना करता है किंतु जनक द्वारा उसका प्रस्ताव अस्वीकृत में मुद्रित। किये जाने पर वह क्रुद्ध होकर चला जाता है। द्वितीय अंक बालशास्त्रिचरितम् - ले.- म.म.मा. गंगाधरशास्त्री। लेखक राम-रावणीय में रावणद्वारा अपने सेवक मायामय को परशुराम के गुरु का पद्यमय चरित्र । के पास भेजे जाने का वर्णन है। रावण का प्रस्ताव सुनते बालसंस्कृतम् - सन 1949 में मुंबई से वैद्य रामस्वरूप शास्त्री ही परशुराम क्रुद्ध होते हैं और उससे युद्ध करने हेतु उद्यत आयुर्वेदाचार्य के संपादकत्व में इस पत्र का प्रकाशन आरंभ 216/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालापूजापद्धति - ले.- अमृतानन्द । गुरु- ईश्वरानन्द । श्लोक 2501 हुआ। बालकों में संस्कृत का प्रचार इसका प्रमुख उद्देश्य था। अतः इसकी भाषा सरल और इसमें प्रकाशित विषय बालकों में संस्कृत के प्रति रुचि बढाने वाले हैं। यह पत्र बालसंस्कृत कार्यालय, आगरा रोड, घाटकोपर, मुम्बई -77 से प्रकाशित होता था। इसका वार्षिक मूल्य पांच रुपये था। बालहरिवंशम् - कवि- शंकर नारायण । बालावबोध - ले.-कश्यप । सिंहलद्वीप का प्रसिद्ध व्याकरणग्रंथ । यह चान्द्र व्याकरण का संक्षिप्त रूप है। बार्हस्पत्यसंहिता- विषय गर्भाधान, पुंसवन, उपनयन एवं अन्य संस्कारों के मुहूर्त । वीरमित्रोदय ने हाथियों के विषय में इसका उद्धरण दिया है। बाष्कलमन्त्रोपनिषद् - एक गौण उपनिषद् । इसमें त्रिष्टुभ् छंद में 25 श्लोक हैं। इस उपनिषद् की कतिपय पंक्तियां ऋग्वेद में पायी जाती हैं। ऋग्वेद में उल्लेखित मेधातिथि और इंद्र की कथा (8-2-40) इसमें भी है। इसमें प्रारंभ में मेघातिथि तथा इंद्र का तात्त्विक तथा काव्यमय संवाद दिया गया है। इसका प्रतिपाद्य इंद्र-ब्रह्म का एकत्व है। बाष्कलशाखाएं (ऋग्वेद की) - शाकल्य संहिता के समान बाष्कलों का ब्राह्मण भी पृथक् होगा ऐसा अभ्यासकों का तर्क है। बाष्कलों का अंतिम सूक्त- "तच्छयोरावृणीमहे" यह है। शाकलों का अंतिम सूक्त- “समानी व आकूतिः" यह है। शाकल पाठ में 1117 सूक्त हैं किन्तु बाष्कल पाठ में 1125 सूक्त हैं। बाह्यमातृकान्यास (महाषोढान्यास) - ऊध्वाम्नायान्तर्गत । यह विरूपाक्ष परमहंस परिव्राजक द्वारा सिद्ध किया हुआ है। इसमें अकार आदि 30 वर्गों से शरीरस्थित मुख आदि स्थानों में न्यास का विधान है। श्लोक - 1501 बाह्यार्थसिद्धिकारिका - ले.-कल्याणरक्षित। ई. 9 वीं शती। विषय- बौद्धदर्शन। इसका तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। बालाकल्प - ले.-दामोदर त्रिपाठी। बालत्रिपुरापंचांगम् - श्लोक 1154।। बालात्रिपुरापद्धति - ज्ञानार्णव से गृहीत । श्लोक 200। बालात्रिपुरापूजनपद्धति - श्लोक- 1000। बालात्रिपुरापूजाप्रकार - ले.-शिवभट्ट-सुत। श्लोक 200। बालात्रिपुरसुन्दरी-पंचागम् - श्लोक- 3001 बालादित्य • त्रिपुरापूजा की पद्धति के निदेशक 9 मयूख इस ग्रंथ में हैं। अन्तिम मयूख में त्रिपुरा का स्तोत्र है। बालापंचागम् - रुद्रयामलतन्त्रान्तर्गत। श्लोक 852। । बालापद्धति - 1) ले.-चैतन्यगिरि। श्लोक 960। 2) ले. दामोदर त्रिपाठी। श्लोक- 311। बालापूजाविधानम् - महात्रिपुरासिद्धान्त के अन्तर्गत, उमा-महेश्वर -संवादरूप। विषय- दस दिक्पाल तथा द्वारपालों की पूजा कर एकाग्रचित्त से भूतशुद्धि करना, यन्त्र लिखना, यन्त्र के मध्य में बिंदु लिखना, त्रिकोण तथा षट्कोण लिखना । बालार्चनचन्द्रिका - ले.-लालचन्द्र। श्लोक- 9261 बालिकार्चनदीपिका - ले.-शिवरामाचार्य । बालार्चाकल्पवल्लरी- ले.- दामोदर त्रिपाठी। श्लोक 158 । बालार्चाक्रमदीपिका - श्लोक- 700। बिम्बप्रतिबिम्बवाद - ले.-अभिनवगुप्त । बिल्वोपनिषद् - एक नव्य उपनिषद् । यह सदाशिव (शंकर) द्वारा वामदेव को बतलाया गया है। विषय- बेल के त्रिदल से भगवान् शंकर की अर्चना का महत्त्व । बीजकोष - दक्षिणामूर्ति प्रोक्त । ऋषिवृन्द के प्रश्न पर दक्षिणामूर्ति ने इस बीजकोष का प्रतिपादन किया है। विषय- अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त मातृकावर्गों में मन्त्रबीजत्व का निरूपण। बीजचिन्तामणि - हर-गौरी संवादरूप। श्लोक 280। पटल9। विषय- वर्णो की प्रशंसा, वर्णतत्त्व, बीजमन्त्र, मन्त्रों के उद्धार, वासना, मन्त्र, चैतन्य आदि । बीजवर्णाभिधान-टीका - ले.-गौरमोहन भट्ट। बीजव्याकरण-महातन्त्रम् (सटीक) - शिव-पार्वतीसंवादरूप। अध्याय-छह । विषय-चक्र-विचार, मास आदि का निर्णय, दीक्षाविधि, पुरश्चरण, जपमाला-संस्कार, कालीपूजा, नित्यहोमविधि कालीकवच, दक्षिणकालीकवच, कुमारीपूजा, कालिकासहस्रनाम, तारामन्त्रप्रकरण, तारावासना, ताराष्टक, नीलसरस्वती-कवच, कुलसर्वस्वनामस्तोत्र आदि। इस पर उपलब्ध टीकाएं : 1) महातन्त्रभवार्थदीपिका ले. खिरिदेश-निवासी रामानन्ददेव शर्मा वाचस्पति भट्टाचार्य (चैतन्यसिंह मल्ल-महीन्द्रपुत्र) के समकालीन। 2) शैवव्याकरणीयसंग्रह भावार्थ टीका-टिपण्णी। ले. रामतनुशर्मा रामानन्द वाचस्पति भट्टाचार्य के शिष्य । बुधभूषणम् - ले.-शम्भुराज (संभाजी महाराज) छत्रपति शिवाजी के पुत्र। राज्य समय 1680-1689 ई.। राजनीति विषयक सुभाषितों का संग्रह। पुणे में 1926 में प्रकाशित । बुद्ध-चरितम् (महाकाव्य) - ले.-बौद्ध कवि अश्वघोष । संप्रति मूल ग्रंथ 17 सर्गों तक ही उपलब्ध है। उनमें अंतिम 3 सर्गों के रचयिता हैं अमृतानंद। मूलतः इसके 28 सर्ग थे जो इसके चीनी व तिब्बती अनुवादों में प्राप्त होते हैं। इसका प्रथम सर्ग अधूरा ही मिलता है, तथा 14 वें सर्ग के 31 वें श्लोक तक के ही अंश अश्वघोषकृत माने जाते हैं। प्रथम संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /217 For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्ग में राजा शुद्धोदन व उनकी पत्नी का वर्णन है। मायादेवी (शुद्धोदन की पत्नी) ने एक रात सपना देखा की एक श्वेत गजराज उनाके शरीर में प्रवेश कर रहा है। लुंबिनी के वन में सिद्धार्थ का जन्म होता है। उत्पन्न बालक ने भविष्यवाणी की- "मैं जगत् के हित के लिये तथा ज्ञान-अर्जन के लिये जन्मा हूं"। द्वितीय सर्ग- राजा शुद्धोदन ने कुमार सिद्धार्थ की मनोवृत्ति को देख कर अपने राज्य को अत्यंत सुखकर बना कर सिद्धार्थ के मन को विलासिता की ओर मोडना चाहा तथा उसके वन में चले जाने के भय से उसे सुसज्जित महल में रखा। तृतीय सर्ग- उद्यान में एक वृद्ध, रोगी व मुर्दे को देखकर सिद्धार्थ के मन में वैराग्य उत्पन्न होता है। इस सर्ग में कुमार की वैराग्य-भावना का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग- नगर व उद्यान में पहुंच कर सुंदरी स्त्रियों द्वारा कुमार को मोहित करने का प्रयास पर कुमार उनसे प्रभावित नहीं होता। पंचम सर्ग- वनभूमि देखने के लिये कुमार गमन करता है। वहां उन्हें एक श्रमण मिलता है। नगर में प्रवेश करने पर कुमार का गृह-त्याग का संकल्प व महाभिनिष्क्रमण । षष्ठ सर्ग- कुमार छंदक को लौटाता है । सप्तम सर्ग- कुमार तपोवन में प्रवेश कर कठोर तपस्या में लीन होता है। अष्टम सर्ग - कंथक नामक अश्व पर छंदक कपिलवस्तु लौटता है। नागरिकों व यशोधरा का विलाप। नवम सर्ग- राजा कुमार का अन्वेषण करता है। कुमार नगर को लौटता है। दशम सर्ग- बिंबिसार द्वारा कुमार को कपिलवस्तु लौटने का आग्रह। एकादश सर्गरामकुमार राज्य व संपत्ति की निंदा करता है व नगर में जाना अस्वीकार करता है। द्वादश सर्ग- राजकुमार अराड मुनि के आश्रम में जाता है। अराड अपनी विचारधारा का प्रतिपादन करता है। उसे मान कर कुमार के मन में असंतोष होता है और वह तत्पश्चात् कठोर तपस्या में संलग्न होता है। नंदबाला से पायस की प्राप्ति । त्रयोदश सर्ग- मार (काम) कुमार की तपस्या में बाधा डालता है परंतु वह पराजित होता है। चतुर्दश सर्ग में कुमार को बुद्धत्व की प्राप्ति। शेष सों मे धर्मचक्र प्रवर्तन व अनेक शिष्यों को दीक्षित करना, पिता-पुत्र का समागम, बुद्ध के सिद्धान्तों व शिक्षा का वर्णन तथा निर्वाण की प्रशंसा की गई है। "बुद्धचरित" में काव्य के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया गया है। विशुद्ध काव्य की दृष्टि से, प्रारंभिक 5 सर्ग व 8 वें तथा 13 वें सर्ग के कुछ अंश अत्यंत सुंदर हैं। डॉ. जॉन्स्टन ने इस के उत्तरार्ध का अनुवाद किया है। हिन्दी अनुवाद, सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। बुद्धविजयकाव्यम् - ले.-शान्तिभिक्षु शास्त्री। हरियाणा में सोलन में निवास । लेखक अनेक वर्षों तक श्रीलंका में रहे हैं। प्रस्तुत महाकाव्य 100 सर्गों का है। 1977 में उसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। बुद्धसंदेशम् (काव्य) - ले.-सुब्रह्मण्यम सूरि । बुद्धिसागर-व्याकरणम् - ले.-बुद्धिसागर सूरि । श्वेताब्दाचार्य । रचनासमय- वि.सं. 1080। इसी व्याकरण का दूसरा नाम है "पंचग्रंथी व्याकरण"। इसमें सूत्रपाठ के साथ, धातु-पाठ, गणपाठ, प्रातिपादिक पाठ, उणादिपाठ तथा लिंगानुशासन होने से यह "पंचग्रंथी" नाम से प्रसिद्ध है। श्लोकसंख्या 7000। इन पांच ग्रंथों में शब्दानुशासन मुख्य है, शेष चार अंग शब्दानुशासन के सहाय्यक होने से गौण हैं। अत एव धातु पाठ आदि चार अंगभूत व्याकरणशास्त्र (खिलपाठ) माने जाते हैं। बुद्धिवाद - ले. गदाधर भट्टाचार्य । बुलेटिन ऑफ दि गव्हर्नमेन्ट ओरियन्टल मॅन्युस्क्रिए लॉयब्रेरी- यह पत्रिका मद्रास से 1952 से प्रकाशित हो रही है। इसके सम्पादक टी. चन्द्रशेखर हैं। इस में संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथों का परिचय दिया जाता है। बृहच्छंकरविजय - कवि- चित्सुखाचार्य । विषय- आद्यशंकराचार्य का चरित्र। बृहच्छब्देनुशेखर - ले.-नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट । मातासती। ई, 18 वीं शती। यह व्याकरण दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस पर भैरवमित्र की “चन्द्रकला' नामक टीका है। बृहच्छान्तिस्तोत्रम्- ले.-हर्षकीर्ति । ई. 17 वीं शती। बृहज्जातकम् - ले.-वराहमिहिर। ज्योतिष-शास्त्र का सुप्रसिद्ध ग्रंथ। इस की रचना उज्जयिनी में हुई। प्रस्तुत ग्रंथ में वराहमिहिर ने स्वयं के बारे में भी कुछ जानकारी दी है यवन-ज्योतिष के अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, और अनेक यवनाचार्यों का उल्लेख किया है। ग्रंथ की शैली प्रभावपूर्ण व कवित्वमयी है। ग्रंथ में व्यक्त प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। बृहजातिविवेक - ले.-गोपीनाथ कवि। बृहज्जाबालोपनिषद् - एक नव्य उपनिषद्। इसमें शिव-महिमा तथा भस्मधारण और रुद्राक्षधारण विधि का वर्णन है। बृहती (निबंधन) - ले.-प्रभाकर मिश्र। ई. 7 वीं शती। बृहत्कथा - ले.- गुणाढ्य । इन्होंने पैशाची भाषा में "बड्डकहा" के नाम से इस ग्रंथ की रचना की थी किंतु इसका मूल रूप नष्ट हो चुका है। इसका उल्लेख सुबंधु, दंडी व बाणभट्ट ने किया है। इससे इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि होती है। "दशरूपक" व उसकी टीका "अवलोक" में भी बृहत्कथा के साक्ष्य हैं। त्रिविक्रमभट्ट ने अपने "नलचंपू" व सोमदेव ने अपने “यशस्तिलकचंपू' में इसका उल्लेख किया है। कंबोडिया के एक शिलालेख (875 ई.) में गुणाढ्य के नाम का तथा प्राकृत भाषा के प्रति उनकी विरक्तता का उल्लेख किया गया है। इन सभी साक्ष्यों के आधार पर गुणाढ्य का समय 600 ई. से पूर्व माना जा सकता है। गुणाढ्य के इस प्राकृत (पैशाची) ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद बृहत्कथा के रूप 218 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra में उपलब्ध है । गुणाढ्य राजा हाल के दरबारी कवि थे। संप्रति "बड्डकहा" के 3 संस्कृत अनुवाद प्राप्त होते हैं 1) बुधस्वामी कृत "बृहत्कथा - श्लोक-संग्रह" । बुधस्वामी नेपाल निवासी थे। समय 9 वीं शती। ये बृहत्कथा के प्राचीनतम अनुवादक हैं । 2) "बृहत्कथा मंजरी" अनुवादक क्षेमेंद्र बृहत्कथा का यह सर्वाधिक प्रामाणिक अनुवाद है जिसकी श्लोक संख्या 7500 है। इसका समय 11 वीं शती है। इसका हिन्दी अनुवाद किताब - महल इलाहाबाद से हो चुका है। www.kobatirth.org 3) सोमदेव कृत “कथा-सरित्सागर" । सोमदेव काश्मीर- नरेश अनंत के समसामयिक थे। इन्होंने 24 सहस्र श्लोकों का अनुवाद किया है। इसका हिन्दी अनुवाद राष्ट्रभाषा परिषद् पटना से दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। बृहत्कथा- कोश ले. हरिषेण । जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती । इसमें 157 कथाए, 12500 श्लोकों में निवेदित हैं। बृहत्कथामंजरी लो. क्षेमेन्द्र राजा शालिवाहन (हाल ) के सभा - पंडित । गुणाढ्य के पैशाची भाषा में लिखित अलौकिक ग्रंथ (बड्डकहा) का पद्यानुवाद। संप्रति "बहृत्कथा" के 3 संस्कृत अनुवाद प्राप्त होते हैं। इनमें से "बृहत्कथा मंजरी"सर्वाधिक प्रामाणिक अनुवाद है। इसकी श्लोक संख्या 7500 है। यह 18 लंबकों में समाप्त हुआ है। इसमें प्रधान कथा, के अतिरिक्त अनेक अवांतर कथाएं भी कही गई हैं। इसका नायक, वत्सराज उदयन का पुत्र नरवाहनदत्त हैं जो अपने बल - पौरुष से अनेक गंधर्वो को परास्त कर उनका चक्रवर्तित्व प्राप्त करता है। वह अनेक गंधर्व-सुंदरियों के साथ विवाह करता है। उसकी पटरानी का नाम मदनमंचुका है। इस कथा का प्रारंभ उदयन व वासवदत्ता के रोमांचक आख्यान से होता है। - - - बृहत्तोषिणी ले. सनातन गोस्वामी श्रीमद्भागवत की मार्मिक व्याख्या । ग्रंथकार चैतन्य मत के मूर्धन्य आचार्य थे । इस ग्रंथ का सार अंश सनातनजी के भतीजे जीव गोस्वामी ने सनातनजी के जीवन काल ही में प्रस्तुत किया। उस ग्रंथ का नाम है- वैष्णव तोषिणी। बृहत्तोषिणी टीका, भागवत के दशम स्कंध के कतिपय प्रसंगों पर ही सीमित है। वृंदावन संस्करण में ब्रह्म-स्तुति ( भाग-10-14), रास पंचाध्यायी, भ्रमरगीत एवं वेदस्तुति पर ही यह टीका प्रकाशित है पूरे दशम स्कंध की व्याख्या न होकर यह इतने ही प्रसंगों की है। प्रस्तुत वृहत्तोषिणी टीका बडी विस्तृत है, तथा गौडीय वैष्णव संप्रदाय की सर्वप्रथम मान्यता प्राप्त होने के कारण उसके तथ्यों का उन्मीलन बडी ही गंभीरतापूर्वक करती है टीकाकार सनातन गोस्वामी की श्रीधरी टीका के प्रति बडी श्रद्धा है। अतः वेदस्तुति के उपोद्घात में श्रीधरस्वामी तथा चैतन्य महाप्रभु को प्रस्तुत टीका के लिखने में प्रेरक व सहायक माना गया है I I श्रीधरस्वामिपादांस्तान् प्रपद्ये दीनवत्सलान् । निजोच्छिष्ट - प्रसादेन ये पुष्णन्त्याश्रितं जनम् । वंदे चैतन्यदेवं तं ततव्याख्यविशेषतः । योऽस्फोरयन्मे श्लोकार्थान् श्रीधरस्वाम्यदीपितान् ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह टीका गोवर्धन में रहकर लिखी गई थी। अतः उसमें गोवर्धन की भी वंदना है। टीका अत्यंत प्रगल्भ, प्रामाणिक एवं प्रमेय-बहुल है। बृहत्पाराशर होरा - ले. पराशर । समय- अनुमानतः ई. 5 वीं शती। फलित ज्योतिष विषयक यह एक प्राचीन ग्रंथ है। यह ग्रंथ 97 अध्यायों में विभक्त है। इसमें वर्णित विषय हैंग्रहगुण-स्वरूप, राशि-स्वरूप, विशेष लग्न, षोडश वर्ग, राशिदृष्टि-कथन, अरिष्टाध्याय, अरिष्ट-भंग, भावविवेचन द्वादशभाव फलनिर्देश, ग्रहस्फुट दृष्टिकथन, कारक, कारकांश - फल, विविध योग, रवियोग, राजयोग, दारिद्रयोग, आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष-नक्षत्र - दशाफल, कालचक्र, अष्टकवर्ग, त्रिकोणशोधन, पिंडशोधन, राशिफल, नारजातक, स्त्री- जातक, अंगलक्षण फल, ग्रहशांति, अशुभ जन्म निरूपण, अनिष्ट-योग-शांति आदि । बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् - ले. पराशर। ई. 8 वीं शती । श्लोकसंख्या 12000 I बृहत्संहिता ले. वराहमिहिर । फलित ज्योतिष का यह सर्वमान्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में ज्योतिष शास्त्र को मानव जीवन के साथ संबद्ध कर, उसे व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया गया है। इस ग्रंथ में सूर्य की गतियों के प्रभावों, चंद्रमा में होने वाले प्रभावों एवं ग्रहों के साथ उसके संबंधों पर विचार कर विभिन्न नक्षत्रों का मनुष्य के भाग्य पर पडने वाले प्रभावों का विवेचन है। इसमें 64 छंद प्रयुक्त हुए हैं। ग्रंथ की शैली प्रभावपूर्ण व कवित्वमयी है। ग्रंथ में व्यक्त प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। (2) ले. व्यास। - For Private and Personal Use Only बृहत्सर्वसिद्धि - ले. अनन्तकीर्ति । जैनाचार्य । ई. 8-9 वीं शती । बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र ले. समन्तभद्र जैनाचार्य समय ई. । प्रथम शती का अन्तिम भाग। पिता शान्तिवर्मा। बृहदारण्यकोपनिषद् - यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण का एक भाग है। सब उपनिषदों में इसका विस्तार अधिक है, इसलिये इसे 'बृहत्' कहा गया है तथा इसका आरण्यक में समावेश होने से इसके नाम में 'आरण्यक' का उल्लेख है । यह "शतपथब्राह्मण" की अंतिम दो शाखाओं से संबंद्ध है। इसमें 3 कांड व प्रत्येक में 2-2 अध्याय हैं। 'तीन कांडों को क्रमशः मधुकांड, याज्ञवल्क्य कांड ( मुनिकांड ) और खिलकांड कहा जाता है। इसके प्रथम अध्याय में मृत्यु द्वारा समस्त पदार्थों को ग्रास लिये जाने का, प्राणी की श्रेष्ठता व सृष्टि निर्माण संबंधी सिद्धांतों का वर्णन रोचक आख्यायिकाओं संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 219 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के द्वारा किया गया है। द्वितीय अध्याय में गार्ग्य व काशीनरेश बृहदारण्यकोपनिषत्खंडार्थ। 13) मथुरानाथ की लघुवृत्ति। 14) अजातशत्रु के संवाद हैं तथा याज्ञवल्क्य द्वारा अपनी दो राघवेन्द्र का बृहदारण्यकोपनिषदर्थ संग्रह। 15) पत्नियों- मैत्रेयी व कात्यायनी- में धन का विभाजन कर वन बृहदारण्यक-विषय-निर्णय, 16) बृहदारण्यक-विवेक। 17) जाने का वर्णन है। उन्होंने मैत्रेयी के प्रति जो दिव्य दार्शनिक विज्ञान-भिक्षु का भाष्य। 18) नारायण की दीपिका संदेश दिये हैं, उनका वर्णन इसी अध्याय में है। तृतीय व ऑफ्रेट के अनुसार इस आरण्यक पर निम्नलिखित वार्तिक-ग्रन्थ चतुर्थ अध्यायों में जनक व याज्ञवल्क्य की कथा है। तृतीय लिखे गये : में राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य द्वारा अनेक ब्रह्मज्ञानियों 1) शांकर-भाष्य का ही वार्तिकरूप, सुरेश्वराचार्य कृत। का परास्त होना तथा चतुर्थ अध्याय में राजा जनक का 2) आनन्दतीर्थ की शास्त्रप्रकाशिका याज्ञवल्क्य से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख ___3) आनन्दपूर्ण-विरचित न्यायकल्पलतिका । है। पंचम अध्याय में कात्यायनी एवं मैत्रेयी का आख्यान व 4) बृहदारण्यकवार्तिक-सार। नाना प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का निरूपण है यथा नीति बृहद्गोतमीयम् - नारद-शौनिकादि-संवादरूप। 36 पटलों में विषयक, सृष्टिसंबंधी व परलोक-विषयक। षष्ठ अध्याय में समाप्त। विषय- वैष्णवों की प्रशंसा, अवतार के कारण, अनेक प्रकार की प्रतीकोपासना व पंचाग्नि-विद्या का वर्णन कृष्ण-मन्त्र की प्रशंसा इत्यादि। है। इस उपनिषद् के मुख्य दार्शनिक याज्ञवल्क्य हैं और सर्वत्र उन्हीं की विचारधारा व्याप्त है। यह उपनिषद् गद्यात्मक है । बृहदेवता - ले.- शौनक। 6 वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के इसमें आरण्यक एवं उपनिषद् दोनों ही अंश मिले हुए है। ऋषि देवता, छंद पद आदि के विषय में जो ग्रंथ लिखे गये इसमें संन्यास की प्रवृत्ति का अत्यंत विस्तार के साथ वर्णन हैं, उनमें यह एक सर्वश्रेष्ठ प्राचीन ग्रंथ है। अनुमान है कि है तथा एषणात्रय (लोकैषणा, पुत्रैषणा व वित्तैषणा) का ईसा के पूर्व 8 वीं शताब्दी में अर्थात् पाणिनि के पूर्व तथा परित्याग, प्रव्रजन (संन्यास) व भिक्षाचर्या का उल्लेख है। यास्क के बाद इसकी रचना हुई है। मैक्डोनल के मतानुसार प्रथम अध्याय में प्राण को आत्मा का प्रतीक मान कर, आत्मा ये शौनेक पुराणोक्त शौनक से भिन्न हैं। वैदिक देवताओं के या ब्रह्म से जगत् की सृष्टि कही गई है और उसे ही समस्त नाम कैसे रखे गये इसका विचार इसमें हुआ है। इसमें 1200 प्राणियों का आधार माना गया है। आत्मा-परमात्मा का ऐक्य, श्लोक और 8 अध्याय हैं। प्रथम तथा द्वितीय अध्याय में अनुभव तथा तर्क के आधार पर क्रमशः मधु तथा मुनि ग्रंथ की भूमिका है। उसमें प्रत्येक देवता का स्वरूप, स्थान काण्ड में प्रतिपादित किया गया है। खिल-काण्ड में इस ऐक्य देवता का स्वरूप, स्थान तथा वैलक्षण्य का वर्णन है। भूमिका की अनुभूति के लिये अनेक मार्ग बताये गये हैं। प्रस्तुत . के अंत में निपात, अव्यय, सर्वनाम, संज्ञा, समास आदि उपनिषद् का सुप्रसिद्ध शांतिमंत्र इस प्रकार है: व्याकरण के विषयों की चर्चा है। यास्क के व्याकरणदृष्टि से पप्रयोगों पर भी टीका है। आगे के अध्यायों में ऋग्वेद के ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। वताओं का क्रमशः उल्लेख है। उसमें कुछ कथाएं भी हैं पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। जो देवताओं का महत्त्व प्रकट करती हैं। महाभारत तथा परब्रह्म सब प्रकार से परिपूर्ण है। यह जगत् (उस परब्रह्म बृहदेवता की इन कथाओं में साम्य दिखाई देता है। अनेक से उत्पन्न होने के कारण वह भी पूर्ण है)। पूर्ण (ब्रह्म) में विद्वानों का मत है कि महाभारत की कथाएं बृहद्देवता से से पूर्ण (जगत्) को निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता ली गयी हैं। कात्यायन ने अपने "सर्वानुक्रमणी' तथा सायणाचार्य है। प्रस्तुत उपनिषद् के दो पाठभेद हैं : एक काण्व और ने अपने “वेदभाष्य" में बृहद्देवता से ही कथायें उद्धृत की दूसरा माध्यंदिन। “अहं ब्रह्मास्मि" तथा "अयमात्मा ब्रह्म" ये हैं। इसमें मधुक, श्वेतकेतु, गालव, यास्क, गार्म्य आदि अनेक सुप्रसिद्ध महावाक्य इसी उपनिषद् के हैं। बृहदारण्यक (काण्वपाठ) आचार्यों के मत दिये गये हैं। अनेक देवताओं का उल्लेख का संपादन सन् 1886 में सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ। ऑफ्रेट करने के पश्चात् ये भिन्न-भिन्न देवता एक ही महादेवता के की बृहत्सूची में इस ग्रंथ के निम्नलिखित भाष्यों और भाष्यकारों विविध रूप हैं ऐसी बृहद्देवताकार की धारणा है। के नाम दिए गए हैं : बृहद्देशी - ले.- मतंगमुनि। ई. 5 वीं शती। विषय - 1) 1) सिद्धान्त-दीपिका, 2) शांकर-भाष्य, 3) आनन्दतीर्थ देशी संगीत पर शास्त्रशुद्ध चर्चा । 2) विभिन्न रागों का विवेचन । की शांकरभाष्य पर टीका, 4) आनन्दतीर्थ का स्वतंत्र भाष्य, रागलक्षण-राग वह है जो उत्तम स्वर तथा वर्ण से अलंकृत 5) रघूत्तम की परब्रह्म-प्रकाशिका टीका, 6) व्यासतीर्थ का तथा मन का रंजन करनेवाला होता है" यह राग की सर्वमान्य भाष्य, 7) दीपिका, 8) गंगाधर (अथवा गंगाधरेन्द्र) की व्याख्या इसी ग्रंथ में प्रथम की गई है। राग के शुद्ध, छायालग दीपिका। 9) नित्यानन्द शर्मा की मिताक्षरा टीका। 10) तथा संकीर्ण तीन भेद बताये हैं। रागों के लक्षणों के साथ रंगरामानुज भाष्य। 11) सायणभाष्य। 12) राघवेन्द्र का नादोत्पत्ति, श्रुति, स्वर, मूर्छना, वर्ण, अलंकार, गीति, जाति, 220/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राग, भाषा तथा प्रबंध की भी चर्चा है। वाद्याध्याय नामक एक अध्याय भी इसमें है। बृहद्रव्यसंग्रह - ले.- नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। बृहद्ब्रह्मसंहिता - वैष्णवों का उपासना विषयक ग्रंथ। इसमें 33 अध्याय हैं तथा पुष्टिमार्ग के अनुसार हरिलीला का वर्णन है। पुष्टिमार्ग के अनुसार हरि तथा उसकी लीला में अभेद है तथा लीलादर्शन के उत्सुक जीव हरिकृपा से गोलोक को जाते है। पद्मपुराण के गोपी-वर्णन में तथा प्रस्तुत ग्रंथ के गोपीवर्णन में बहुत साम्य है। इसी नाम का, एक और ग्रंथ । है तथा उसमें राधाकृष्ण तथा सीता-राम की युगल उपासना का वर्णन है। बृहद्भुतडामर-तन्त्रम् - उन्मत्तभैरवी-उन्मत्तभैरव संवादरूप। पटल- 25। विषय - इन्द्रजालादिसंग्रह। रसिकमोहन चटर्जी द्वारा सम्पादित। कलकत्ता में सन् 1879 में मुद्रित। बृहद्योनितन्त्रम् - ले.- पार्वती-ईश्वर संवादरूप। विषय - बृहद्योनितन्त्र का माहात्म्य, प्रकृति की योनिरूपता, सर्वदेवमयता, सर्वतीर्थमयता तया सर्वशक्तिमत्ता का प्रतिपादन। बृहद्रत्नाकर - ले.- वामनभट्ट । बृहद्द्रयामलम् - श्रीकृष्ण-नारद संवादरूप। खण्ड-4। बृहद्वृत्ति - ले.- हेमचन्द्राचार्य। इन्होंने प्रस्तुत स्वकीय ग्रंथ का महान्यास भी लिखा है जिसमें अनेक अव्ययों और निपातों का धातुजत्व दर्शाया है। बृहवृत्ति - ले.- त्रिविक्रम । यह सारस्वत व्याकरण का भाष्य है। बृहत्व्रजगुणोत्सव - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। बृहन्नारदीयपुराणम् - एक वैष्णव उपपुराण। इसमें 38 अध्याय और 3600 श्लोक हैं। अनुमान है कि सन 750 से 900 के बीच उत्कल या बंगाल में इसकी रचना हुई। संप्रति उपलब्ध नारदीय पुराण में इस उपपुराण के कुछ श्लोकों को छोडकर सभी अध्याय समाविष्ट हैं। इस में प्रारंभ में वृंदावन के उपेंद्र की स्तुति की गयी है। महाविष्णु से विश्व की उत्पत्ति, आश्रमधर्म, उत्तम भागवत के लक्षण, प्रयाग तथा वाराणसी की गंगा की महिमा, गुरु, भूमिदान, सत्कार्य की प्रशंसा, वर्णाश्रमधर्म, मोक्षमार्ग, चार युग आदि विषयों का इसमें वर्णन है। इस पुराण में विष्णु की उपासना के समान ही शिवोपासना का भी गौरव किया है। बृहन्निधिदर्शनम् - विषय - तंत्रमार्ग से संबंधित निधि-कर्म में उत्तम सहायकों तथा निंद्य सहायकों का वर्णन, निधिस्थानों का वर्णन। बृहनिर्वाणतन्त्रम् - चण्डिका-शंकर संवादरूप। 14 पटलों में पूर्ण। विषय - ब्रह्माण्ड-वर्णन, सृष्टि निरूपण, प्रकृति की प्रशंसा, गोलोकादि का कथन, ज्ञान-पद्मकथन इ.। बृहन्नीलतन्त्रम् - शिव-पावती संवादरूप महातन्त्र । चतुष्टि (64) महातन्त्रों में अन्यतम तथा 23 पटलों में पूर्ण । श्लोक32251 विषय- नीलसरस्वती-बीज, स्नान, तिलक आदि का प्रकार। साधनयोग्य स्थान, नीलसरस्वती की पूजाविधि। त्रिविध गुरु । बलिदान-मंत्र । संध्या का प्रकार। अष्टांगप्राणायामलक्षण । दीक्षाविधि तथा दीक्षाकाल। स्थान, नक्षत्र आदि का निरूपण । पुरश्चरण विधि। काम्यपूजाविधि। द्विजों के लिए सुरापान में प्रायश्चित्त । पीठपूजाविधि। कौलिकार्चन-माहात्म्य । शक्तिपूजा-प्रकार, कालिका, रटन्ती, अन्नपूर्णा आदि की पूजाविधि, षट्कर्म-निरूपण, ज्योतीरूप दर्शन के उपाय, वशीकरण, शान्तिस्तोत्र आदि। बृहमहाभाष्यप्रदीप-विवरणम् - ले.- ईश्वरानन्द सरस्वती । बृहस्पति-स्मृति - ले.- बृहस्पति, जो प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रज्ञ माने जाते हैं। प्रमुख 18 स्मृतियों में इसका अन्तर्भाव होता है। "मिताक्षरा' व अन्य भाष्यों में इनके लगभग 700 श्लोक प्राप्त होते हैं जो व्यवहार विषयक हैं। कौटिल्य ने इनको प्राचीन अर्थशास्त्री के रूप में वर्णित किया है। "महाभारत" के शांतिपर्व में (59-80-85) बृहस्पति को ब्रह्मा द्वारा रचित धर्म, अर्थ व काम-विषयक ग्रंथों को तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त करने वाला कहा गया है। महाभारत के वनपर्व में "बृहस्पति-नीति" का उल्लेख है। "याज्ञवल्क्य-स्मृति" में इन्हें धर्मवक्ता कहा गया है। "बृहस्पति-स्मृति", अभी तक संपूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हुई है। डॉ. जोली ने इसके 711 श्लोकों का प्रकाशन किया है। इनमें व्यवहार विषयक सिद्धान्त व परिभाषाओं का वर्णन है। उपलब्ध "बृहस्पति-स्मृति' पर "मनुस्मृति" का प्रभाव दिखाई पडता है। अनेक स्थलों पर तो बृहस्पति मनु के संक्षिप्त विवरणों के व्याख्याता सिद्ध होते हैं। अपरार्क व कात्यायन के ग्रंथों में बृहस्पति के उध्दरण मिलते हैं। भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे के अनुसार बृहस्पति का समय 200 ई. से 400 ई. के बीच माना जा सकता है। स्मृति-चंद्रिका, मिताक्षरा, पराशर-माधवीय, निर्णय-सिंधु व संस्कार-कौस्तुभ में बृहस्पति के अनेक उद्धरण प्राप्त होते है। बृहस्पति के बारे में विद्वान् अभी तक किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं। अपरार्क व हेमाद्रि ने वृद्धबृहस्पति एवं ज्योतिर्ब्रहस्पति का भी उल्लेख किया है। बृहस्पति प्रथम धर्मशास्त्रज्ञ हैं जिन्होंने धन तथा हिंसा के भेद को प्रकट किया है। इसमें भूमिदान, गयाश्राद्ध, वृषोत्सर्ग, वापीकूपादि का जीर्णोद्धार आदि विषय हैं। इसमें न्यायालयीन व्यवहार विषयक जो विवेचन हुआ है, वह इस स्मृति की विशेषता है। कुछ प्रमुख बातों का विवेचन इस प्रकार है- प्रमाण, गवाह, दस्तावेज तथा भुक्ति (कब्जा) न्यायालयीन कार्य के 4 अंग हैं। फौजदारी और दीवानी मामले दो प्रकार के होते हैं। लेन-देन के मामले के 14 तथा फौजदारी मामले के 4 भेद हैं। न्यायाधीश को संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 221 For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी भी मामले का निर्णय केवल शास्त्र के अनुसार नहीं, तो बुद्धि से कारणमीमांसा कर ही देना चाहिये। न्यायालय में मामला दाखिल होने से उसका फैसला होने तक की कार्यपद्धति इसमें विस्तार से दी गई है। इस में कानून विषयक शब्दों की अत्यंत सूक्ष्म परिभाषायें दी गई है। मृच्छकटिक नाटक के न्यायालयीन प्रसंग तथा कार्यपद्धति, इस स्मृति के अनुसार वर्णित हैं। इस स्मृति का मनुस्मृति से निकट संबंध है। स्कंद पुराण में किंवदन्ती है कि मूल मनुस्मृति के भृगु, नारद, बृहस्पति तथा आंगिरस ने चार विभाग किये। मनु ने जिन विषयों की संक्षिप्त चर्चा की, उसका बृहस्पति ने विस्तार से विवेचन किया है। बृहस्पति और नारद में अनेक विषयों पर मतैक्य है। परंतु बृहस्पति की न्यायविषयक परिभाषायें नारद से अधिक अनिश्चयात्मक हैं। बैजवाप गृह्यसूत्रम् - ले.- बैजवाप। यह शुक्ल यजुर्वेद का गृह्यसूत्र है। मानव गृह्यसूत्र के अष्टावक्र नामक टीकाकार तथा गंगाधर नामक धर्मशास्त्रकार ने इस गृह्यसूत्र के उध्दरण अपने अपने ग्रंथों में उध्दत किये हैं। बैजवाप ब्राह्मण तथा संहिता अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। चरकसंहिता में उल्लेख है कि हिमालय में एकत्र आने वाले ऋषियों में बैजवापी नामक ऋषि भी थे। बैजवापी-स्मृति का भी कहीं-कहीं उल्लेख होता है। बोधिचर्यावतारणपंजिका - ले.-नागार्जुन। इसमें बुद्ध के उपदेशों का विवेचन, आत्मवाद का खंडन तथा अनात्मवाद का मंडन है। उदाहरणार्थ जो आत्मा को देखता है, उसका अहं से सदा स्नेह रहता है। स्नेह के कारण सुखप्राप्ति के लिये तृष्णा पैदा होती है। तृष्णा दोषों का तिरस्कार करती है। गुणदर्शी पुरुष, इस विचार से कि विषय मेरे हैं, विषयों के साधनों का संग्रह करता है। इससे आत्माभिनिवेश उत्पन्न होता है। जब तक आत्माभिनिवेश रहता है, तब तक प्रपंच शेष रहता है। आत्मा का अस्तित्व मानने पर ही पर का ज्ञान । होता है। आप-पर विभाग से रागद्वेष की उत्पत्ति होती है। स्वानुराग तथा परद्वेष के कारण ही समस्त दोष पैदा होते हैं। महावस्तु - यह बौद्धों के हीनयान पंथ का एक प्रसिद्ध प्राचीन विनयग्रंथ है। महावस्तु का अर्थ है महान् विषय या कथा। इसमें बोधिसत्व की दशभूमियों का विस्तृत वर्णन है। बुद्धचरित्र महावस्तु का विषय है। इस ग्रंथ की भाषा मिश्र संस्कृत है। ईसा के दो सौ वर्ष पूर्व इस ग्रंथ का निर्माण संभव है। बेकनीयसूत्र-व्याख्यानम् - मूल "नोव्हम् ऑरगॅनम् " नामक बेकनकृत अंग्रेजी निबंध ग्रंथ का अनुवाद। अनुवादक- विट्ठल पण्डित । वाराणसी में 1852 में प्रकाशित । बोधपंचाशिका - ले.-अभिनवगुप्त । बोध-विलास - ले.- हर्षदत्त-सूनु। बौधायनगृह्यकारिका - ले.- कनकसभापति। बोधायनगृह्यपद्धति - ले.- केशवस्वामी। बोधायनगृह्यम् - मैसूर में प्रकाशित। डॉ. श्यामशास्त्री द्वारा संपादित। इसमें गृह्य के चार प्रश्न, गृह्यसूत्रपरिभाषा पर दो, गृह्यशेष पर पांच, पितृमेधसूत्र पर तीन एवं पितृमेधशेष पर एक प्रश्न है। यह बोधायनगृह्य-शेषसूत्र (2-6) है। इसमें पुत्रप्राप्तिग्रह (गोद लेना) पर एक वचन है जो वसिष्ठधर्मसूत्र से बहुत मिलता है। इस पर अष्टावक्रलिखित पूरणव्याख्या, और शिष्टिभाष्य नामक दूसरा भाष्य है। बोधायनगृह्यपरिशिष्टम् - हार्टिग द्वारा सम्पादित । बाधायनगृह्यप्रयोगमाला - ले.-राम चौण्ड या चाउण्ड के पुत्र । बोधायनगृह्यसूत्रम् - इसमें षोडश संस्कार, सप्त पाकसंस्था, गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य, आदिविषय हैं। अनेक अध्यायों के अंत में बोधायन के नाम का उल्लेख है। इसके परिभाषासूत्र तथा शेषसूत्र दो परिशिष्ट ग्रंथ हैं जिनमें अतिथिधर्म, पितृमेध, उदकशांति तथा दुर्गाकल्प, प्रणवकल्प, ज्येष्ठाकल्प आदि कल्पों का विधान है। बोधायन-धर्मसूत्रम् - ले. बोधायन । कृष्ण यजुर्वेद के आचार्य । यह धर्मशास्त्र उसके कल्पसूत्र का अंश है। बोधायन गृह्यसूत्र में इसका उल्लेख है। यह ग्रंथ संपूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं - है। इसमें 8 अध्याय हैं जो अधिकांश श्लोकबद्ध हैं। इसमें आपस्तंब तथा वसिष्ठ के अनेक सूत्र अक्षरशः प्राप्त होते हैं। यह धर्मसूत्र, “गौतम-धर्मसूत्र" से अर्वाचीन माना जाता है। इसका समय वि.पू. 500 से 200 वर्ष है। इसमें वर्णित विषय हैं- धर्म के उपादानों का वर्णन, उत्तर व दक्षिण के विभिन्न आचार-व्यवहार, प्रायश्चित्त, ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ब्रह्मचर्य की महत्ता, शारीरिक व मानसिक अशौच, वसीयत के नियम, यज्ञ के लिये पवित्रीकरण, मांस-भोजन का निषेधानिषेध, यज्ञ की महत्ता, यज्ञ-पात्र, पुरोहित, याज्ञिक व उसकी पत्नी, घी, अन्न का दान, सोम व अग्नि के विषय में नियम। राजा के कर्त्तव्य, पंच महापातक व उनके संबंध में दंडविधान, पक्षियों को मारने का दंड, अष्टविध विवाह, ब्रह्मचर्य तोडने पर ब्रह्मचारी द्वारा सगोत्र कन्या से विवाह करने का नियम, छोट-छोटे पाप, कच्छ व अतिकच्छों का वर्णन. वसीयत का विभाजन. ज्येष्ठ पुत्र का भाग, औरस पुत्र के स्थान पर अन्य प्रतिव्यक्ति, वसीयत के निषेध, पुरुष और स्त्री द्वारा व्यभिचारण करने पर प्रायश्चित्त, नियोग-विधि, अग्निहोत्र आदि गृहस्थ-कर्म, संन्यास के नियम आदि। इस में औजांघनी, कात्य, काश्यप, प्रजापति आदि शास्त्रकारों का उल्लेख है। यह ग्रंथ, गोविंदस्वामी के भाष्य के साथ काशी संस्कृत सीरिज से प्रकाशित हो चुका है और इसका अंग्रेजी अनुवाद "सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट' भाग 14 में समाविष्ट किया गया है। बोधायनश्रौतसूत्र - व्याख्या- ले.-वासुदेव दीक्षित तथा यज्ञेश्वर दीक्षित। रुष और स्त्री आदि गृहस्थ कम प्रजापति 222 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बोधायन श्रौतसूत्रम् इस में यज्ञ से संबंधित दर्श- पूर्णमास आधान, पुनराधान, पशु, चातुर्मास्य, सोम, प्रवर्ग्य, चयन, वाजपेय, अग्निष्टोम आदि विषयों का विवेचन है। इस पर भवस्वामी की टीका है यह संपूर्ण सूत्र डॉ. कोलॉण्ड द्वारा सम्पादित कर प्रकाशित किया गया है। बोधायनस्मार्तप्रयोग - - बोधायनाह्निकम् ले विद्यापति बोधिसत्त्वावदानकथा का चरित्र । ले कनकसभापति । । - www.kobatirth.org ले. क्षेमेन्द्र । विषय- भगवान् बुद्ध - 1 बोधिसत्त्वावदान - कल्पलता ले. क्षेमेन्द्र | ई. 11 वीं शती । पिता प्रकाशेन्द्र इसमें भगवान् बुद्ध के पूर्व जीवन से संबद्ध कथाएं पद्य में वर्णित हैं। इसमें 108 पल्लव या कथाएं है। इनमें से अंतिम पल्लव की रचना क्षेमेन्द्र की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र सोमेन्द्र ने की है। बोधिचर्यावतार ले. - शान्तिदेव । विषय बोधिसत्त्वचर्या । बोधिसत्त्व के लिये आवश्यक 6 पारमिताओं का विस्तृत वर्णन । इसमें 9 परिच्छेद हैं । अन्तिम परिच्छेद शून्यवाद के रहस्य का उद्घाटन करता है। इस रचना पर 11 टीकाएं लिखी गई है। ये सब टीकाएं तथा प्रस्तुत ग्रंथ तिब्बती भाषा में ही उपलब्ध हैं। मूल ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। I बौद्धधिक्कार - रहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश । बौद्धधिकारशिरोमणि ले. रघुनाथ शिरोमणि । - ब्रह्मज्ञानतन्त्रम् - उमा-महेश्वर संवादरूप । पृथिवी, आदि पांच तत्त्व किससे उत्पन्न होते हैं इत्यादि पार्वतीजी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान् शंकर ने इसमें शारीरिक पदार्थो में चन्द्र, सूर्य आदि बाह्य पदार्थों की भावना आदि से ज्ञानोत्पादन का प्रकार बतलाया है। श्लोक- 1201 ब्रह्मचर्यशतकम् - ले. मेधाव्रत शास्त्री । ब्रह्मज्ञानमहातन्त्रराज शिव-पार्वती संवादरूप सृष्टि किससे होती है, किससे उसका विनाश होता है और सृष्टिसंहार से वर्जित ब्रह्मज्ञान कैसे होता है इत्यादि पार्वतीजी के प्रश्नों का शंकर द्वारा तान्त्रिक क्रम से उत्तर इसका विषय है। ब्रह्मज्ञानशास्त्रम् - नन्दीश्वरप्रोक्त विषय- अनाहत नाद के 10 1 प्रकार । ब्रह्मतान्त्रिकम् श्लोक- 606 । विषय- गायत्री तथा अन्यान्य मन्त्रों के ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, वर्ण, स्वर, मुद्रा, फल, कीलक इत्यादि । ब्रह्मनिरूपणम् - चण्डिका - शंकर संवादरूप। यह ग्रंथ विभिन्न तन्त्रों के खण्डों (भागों) से निर्मित है विषय सृष्टि, चक्र, नाडी, और शक्ति की पूजा का प्रतिपादन । ब्रह्मपुराणम् विष्णुपुराण में दी गई 18 पुराणों की सूची Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में इसे "आदि महापुराण" कहा गया है। देवीभागवत में इसे महापुराणों में 5 वां क्रमांक दिया गया है। मत्स्यपुराण में इस पुराण की श्लोकसंख्या 13 सहस्र दी गई है। 8 सहस्र श्लोकों का 'आदिब्रह्मपुराण' नाम से एक और पुराण है। इस पुराण का प्रचलित ब्रह्मपुराण से बहुत साम्य है। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि दोनों एक ही हैं। नारद-पुराण में वैसा उल्लेख भी है इसमें सूर्योपासना का 6 अध्यायों में वर्णन है, इस लिये इसे "सौर पुराण" संज्ञा भी प्राप्त हुई है। आदिपुराण और सौर-पुराण नामक जो दो उपपुराण विद्यमान हैं। उनसे इसका संबंध नहीं है । ब्रह्मपुराण का प्रतिपाद्य कृष्णचरित्र है। हैं विष्णु पुराण तथा नारद-पुराण में वर्णित पुरुषोत्तम माहात्म्य, ब्रह्मपुराण के पुरुषोत्तमचरित्र पर आधारित है। महाभारत के अनुशासन पर्व में ब्रह्मपुराण के अनेक प्रसंग यथास्थित लिये गये हैं। (ब्र.पु. 223-225 / अ.प. 143-145)। इस पुराण में सांख्य तत्त्वज्ञान की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। आधुनिक अन्वेक्षकों के मतानुसार यह पुराण ईसा पूर्व 7 वीं या 8 वीं शताब्दी में रचा माना जाता है। इस पुराण में अवतारों में बुद्ध का उललेख नहीं है। डॉ. हाजरा ने सप्रमाण बताया है। कि इस पुराण का वर्तमान स्वरूप ऐसा प्रतित नहीं होता कि वह एक ही कालखंड में रचा गया है। इसमें अध्यायों की कुल संख्या 245 हैं, और इसमें लगभग 14 हजार श्लोक । पर श्लोकों की संख्या अन्यान्य पुराण भिन्न भिन्न बताते हैं। इसके आनंदाश्रम संस्करण में 13,783 श्लोक हैं। इस पुराण के दो विभाग किये गये हैं- पूर्व व उत्तर । यह वैष्णव पुराण है। इसमें पुराण विषयक सभी विषयों का संकलन किया गया है, तथा तीर्थों के प्रति विशेष आकर्षण प्रदर्शित हुआ है। प्रारंभ में सृष्टिरचना का वर्णन करने के उपरांत सूर्य व चंद्र-वंशों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है और पार्वती उपाख्यान को लगभग 20 अध्यायों (30 से 50 ) में स्थान दिया गया है। प्रथम 5 अध्यायों में सर्ग व प्रतिसर्ग तथा मन्वंतर कथा का विवरण है। आगामी सौ अध्यायों में वंश व वंशानुरचित परिकीर्तित हुए है। इसमें वर्णित अन्य विषयों में पृथ्वी के अनेक खंड, स्वर्ग व नरक, तीर्थमाहात्म्य, उत्कल या ओंदेश स्थित तीर्थ विशेषतः सूर्य पूजा है। इस पुराण के बड़े भाग में कृष्णचरित्र वर्णित है जो 32 अध्यायों में (234 से 266 ) किया गया है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि सांख्य के 26 तत्त्वों को कहा, जब कि परवर्ती ग्रंथों में 25 तत्त्वों का ही निरूपण है। यहा सांख्य, निरीश्वरवादी दर्शन नहीं माना गया है तथा ज्ञान के साथ ही साथ इसमें भक्ति के भी तत्त्व समाविष्ट किये गये हैं। इस पुराण में "महाभारत", "वायु", "विष्णु" व "मार्कण्डेय" पुराण के भी अनेक अध्यायों को अक्षरशः उद्धृत कर लिया For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 223 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गया है। आधुनिक विद्वानों का मत है कि मूलतः यह पुराण केवल 175 अध्यायों का ही था, और 176 तक के अध्याय प्रक्षिप्त हैं या बाद में जोडे गए हैं। 1) ब्रह्मखंड- इस खंड में श्रीकृष्ण द्वारा संसार की रचना करने का वर्णन है। इसमें 30 अध्याय हैं। इसमें परब्रह्म परमात्मा के तत्त्व का निरूपण किया गया है, और उसे सब का बीजरूप माना गया है। 2) प्रकृति खंड- इसमें देवियों का शुभ चरित वर्णित है। खंड 3 में प्रकृति का वर्णन, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री व राधा के रूप में है। इस में वर्णित अन्य प्रधान विषय हैं- तुलसीपूजन विधि, रामचरित, द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा, सावित्री की कथा, 86 प्रकार के नर्ककुंडों का वर्णन, लक्ष्मी की कथा, भगवती स्वाहा, स्वधा,देवी, षष्ठी आदि की कथा व पूजन विधि, महादेव द्वारा राधा के प्रादुर्भाव व महत्त्व का वर्णन, राधा के ध्यान व षोडशोपचार पूजन की विधि, दुर्गाजी के 16 नामों की व्याख्या दुर्गाशन स्तोत्र व प्रकृतिकवच आदि का वर्णन है। 3) गणेश खंड में- गणेश के जन्म, कर्म व चरित्र का परिकीर्तन है, और उन्हें कृष्ण के अवतार के रूप में परिदर्शित किया गया है। 4) श्रीकृष्ण-जन्मखंड - इसमें कृष्ण की लीला बड़े विस्तार के साथ कही गई है व राधा-कृष्ण के विवाह का वर्णन किया गया है। कृष्णकथा के अतिरिक्त इस पुराण में जिन विषयों का प्रतिपादन किया गया है, वे हैं- भगवद्भक्ति, योग, सदाचार, भक्ति-महिमा, पुरुष व नारी के धर्म, पतिव्रता व कुलटाओं के लक्षण, अतिथि-सेवा, गुरु-महिमा, माता-पिता की महिमा, रोग-विज्ञान, स्वास्थ्य के नियम, औषधों की उपादेयता, वृद्धत्व के न आने के साधन, आयुर्वेद के 16 आचार्य व उनके ग्रंथों का विवरण, भक्ष्याभक्ष्य, शकुन -अपशकुन व पाप-पुण्य का प्रतिपादन। इनके अतिरिक्त इस पुराण में कई सिद्धमंत्रों, अनुष्ठानों व स्तोत्रों का भी वर्णन है। इस पुराण का मूल उद्देश्य, परमतत्त्व के रूप में श्रीकृष्ण का चित्रण तथा उनकी स्वरूपभूता शक्ति को राधा के नाम से कथन करना है। इसमें श्रीकृष्ण, महाविष्णु, विष्णु, नारायण,शिव व गणेश आदि के रूप में चित्रित हैं, तथा राधा को दुर्गा, सरस्वती, महालक्ष्मी आदि अनेक रूपों में वर्णित किया गया है, अर्थात् श्रीकृष्ण के रूप में एकमात्र परमसत्य तत्त्व का कथन है, तो राधा के रूप में एकमात्र सत्यतत्त्वमयी भगवती का प्रतिपादन। इस पुराण के कतिपय अंशों को ग्रंथों ने उद्धृत किया है उदा- "कल्पतरु" में इसके लगभग 1500 श्लोक हैं और "तीर्थ-चिंतामणि" में तीर्थों संबंधी अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। "तीर्थ-चिंतामणि' के प्रणेता वाचस्पति मिश्र का समय ई. 17 वीं शती माना जाता है। इसके काल-निर्णय के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. विंटरनित्स ने, इसमें उडीसा के मंदिरों का वर्णन होने के कारण, इसका समय 13 वीं शती निश्चित किया है पर परंपरावादी भारतीय विद्वान् इसका रचनाकाल इतना अर्वाचीन नहीं मानते। उनका कहना है कि देवमुक्ति क्षेत्र एवं उनका माहात्म्य प्राचीन काल से है और मंदिर नित नये बनते रहते हैं। अतः मंदिरों के आधार पर, जिनका वर्णन इस पुराण में है, इस पुराण का काल-निर्धारण करना युक्तियुक्त नहीं है। परंपरावादी भारतीय विद्वानों के अनुसार "ब्रह्मपुराण' का रचनाकाल श्रीकृष्ण के गोलोक पधारने के बाद ही (द्वापर युग का अंत) का है। ब्रह्मप्रकाशिका - ले. वनमाली मिश्र। पिता- महेश मिश्र । यह सन्ध्यामंत्र की टीका है। ब्रह्मयज्ञशिरोरत्नम् - ले. नरसिंह। ब्रह्मयामलम् - किंवदन्ती है कि 25000 श्लोकात्मक पूर्ण ब्रह्मयामल तन्त्र के पूर्वानाय, दक्षिणाम्नाय, पश्चिमाम्नाय, उत्तराम्नाय, ऊर्ध्वाम्नाय आदि छहों आनायों से संबद्ध था। यह केवल 12000 श्लोकात्मक इसका एक अंश मात्र है और संभवतः केवल पश्चिमाम्नाय से ही संबद्ध है। यह 101 पटलों में पूर्ण है। ब्रह्मयामलतन्त्रम् (यामलतन्त्र) - विषय - आचारसार प्रकरण, ऊर्ध्वजननशांति, गुह्यकवच, चैतन्यकल्प, चैतन्यकल्प, जानकी त्रैलोक्यमोहनकवच, त्रैलोक्यमंगल-सूर्यकवच, नारायण-प्रश्नावली, रकारादि-सहस्रनाम, रामकवच, रामलोक्यमोहन-कवच, राम-सहस्रनाम, सर्वतोभद्रचक्र, सूर्यकवच इत्यादि। ब्रह्मलक्षणनिरूपणम् - ले. अनंतार्य। ई. 16 वीं शती। ब्रह्मरामायणम् - ले. भुशुण्डी। श्रीराम की रासलीला का वर्णन इसकी विशेषता है। ब्रह्मविद्या - 1) सन 1886 में चिदम्बरम् से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रथम संपादक श्रीनिवास शास्त्री शिवाद्वैती थे। बाद में नादुकावेरी (तंजोर) से परब्रह्मश्री विद्वान्, श्रीनिवास दीक्षित के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन होने लगा। यह पत्रिका 1903 तक प्रकाशित हुई। इस में धार्मिक निबन्धों के अतिरिक्त कतिपय उपनिषदों की टीकाओं और शतकों का प्रकाशन हुआ। 2) यह अड्यार लाइब्रेरी मद्रास की त्रैमासिकी पत्रिका है जो 1937 से प्रकाशित हो रही है। इसके प्रथम भाग में अंग्रेजी में संस्कृत विषयक निबंध तथा द्वितीय भाग में प्राचीन और अर्वाचीन संस्कृत ग्रंथों का प्रकाशन होता है। श्री रामशर्मा, वे. राघवन् तथा के, कुन्जुनी राजा इसके सम्पादक रहे। 3) सन 1948 में कुम्भकोणम् से पण्डितराज एस. सुब्रह्मण्य शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह "अद्वैतसभा कांची कामकोटि पीठ" की मुखपत्रिका है। इसमें अद्वैतदर्शन सम्बन्धी उच्चकोटि के निबंध प्रकाशित होते हैं। इसका वार्षिक मूल्य पांच रुपये है। ब्रह्मविद्योपनिषद् - कृष्ण-यजुर्वेद से संबंध एक नव्य उपनिषद् । इसमें 110 श्लोक है। विषय- ब्रह्मविद्या का महत्त्व । 224/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ब्रह्मवैवर्तपुराण विष्णुपुराण के अनुसार यह 10 वां महापुराण है। तो भागवत तथा कूर्मपुराण के अनुसार इसका स्थान 9 वां है। इस पुराण का नाम ब्रह्मवैवर्त क्यों रखा, इसका स्पष्टीकरण यों दिया गया है : - www.kobatirth.org इस पुराण में कृष्णद्वारा ब्रह्म का संपूर्ण विवरण किया गया है। इसलिये इसे पुराण को तत्त्ववेत्ता ब्रह्मवैवर्त कहते हैं। स्कंदपुराण के मत से यह "सौर पुराण" है परंतु प्रचलित ग्रंथ में सूर्यमाहात्म्य का वर्णन नहीं है। देवी - यामल ग्रंथ में इसे "शाक्त पुराण" कहा गया है परंतु संपूर्ण पुराण का अनुशीलन करने पर स्पष्ट होता है कि यह "वैष्णव पुराण" है। वैष्णव इसे सात्त्विक पुराण मानते हैं। गौडीय, वल्लभ तथा राधावल्लभ वैष्णव संप्रदायों में जो साधनविषयक रहस्यों का प्रचार है, उनका मूल इस पुराण में है । नारायण ऋषि ने नारद को, नारद ने व्यास को, व्यास ने सौति को, सौति ने शौनक को, इस पुराण का कथन किया। यह पुराण सर्व पुराणों का सारभूत है- "सारभूतं पुराणेषु" ऐसा सौति कहते । मत्स्यपुराण के अनुसार इसकी श्लोक संख्या 18 हजार है प्रस्तुत पुराण के 4 खंड है- 1) बाखंड, 2) प्रकृतिखंड 3) गणपतिखंड, 4) श्रीकृष्णखंड । कुल अध्याय - 276 तथा श्लोक संख्या - 10 सहस्र है। आद्य शंकराचार्य द्वारा विष्णुसहस्रनाम के भाष्य में प्रस्तुत पुराण के उद्धरण दिये गये हैं। इससे इसका रचनाकाल ई. 8 वीं शती से पूर्व सिद्ध होता है। ब्रह्मसन्धानम् शिव-स्कन्द संवादरूप। 28 पटलों में पूर्ण । विषय- उत्क्रान्ति निर्णय, त्रिस्थानों में स्थित ब्रह्म का निर्णय, प्राणनिर्णय, दो अपनों का निर्णय, ग्रहणनिर्णय, भूतों की उत्पत्ति पर विचार इ. । ब्रह्मसंहिता विषय- शारीरिक व्रतकल्पना, नव-व्यूहावतार, पुण्यविधिनिर्णय, चातुर्मास्य व्रतविधान, पवित्रारोहण, जयन्त्यष्टमीव्रत, युगावतारव्रत, मासोपवास, कल्पव्रत, यमपुरीमार्ग, यमदूत, नरकयातना आदि । 2) यह कृष्णपूजा विषयक ग्रंथ है। इसके 150 अध्यायों में बहुत से उपनिषदों के उद्धरण उद्धृत हैं। इस पर रूपगोस्वामी की दिग्ददर्शिनी टीका है। कुछ विद्वान् जीव गोस्वामी (ई. 16 वीं शती) को ब्रह्मसंहिता के रचयिता मानते हैं। ब्रह्मसंस्कारमंजरी ले. नारायण ठक्कुर । 15 - ब्रह्मसिद्धान्त ( या ब्रह्मसिद्धान्तपद्धति) श्लोक- 5001 विषय- अव्यक्त तत्त्व का निरूपण, उसके गुण, ब्रह्माण्डपिण्ड और उसके गुण, ब्रह्माण्डपिण्ड से शिव की उत्पत्ति । शिव से भैरव, भैरव से श्रीकण्ठ आदि की उत्पत्ति। उनसे पंच तत्त्वरूप प्रकृतिपिण्ड की उत्पत्ति । क्षुधा, तृषा आदि का कथन, अन्तःकरण और उसके गुणों का कथन । सत्त्व, रज, तम, और उनके गुणों का कीर्तन, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का निरूपण, इच्छा, क्रिया आदि पांच गुणों का निरूपण, कर्म, काम, चन्द्र, सूर्य, अग्नि- इन पांचों गुणों और कलाओं का कथन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2) ले भुला पंडित । ब्रह्मसिद्धिले मंडई. 7 वीं शती (उत्तरार्ध) 2) ले. चित्सुखाचार्य । ई. 13 वीं शती ब्रह्मसूत्रम् - ले. बादरायण व्यास । इसमें लगभग 550 सूत्र है इसे शारीरस्सूत्र या वेदान्तसूत्र भी कहते हैं। भिक्षु या संन्यासी के लिये ये सूत्र बहुत उपयोगी है, इसलिये इन्हें "भिक्षुसूत्र " भी कहते हैं। इसे वेदान्त के सिद्धान्तों का आकरग्रंथ मानते हैं। इसमें 4 अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय के 4 पाद हैं। समन्वय नामक प्रथम अध्याय में अनेक प्रकार की श्रुतियों का साक्षात् या परंपरा से अद्वितीय ब्रह्म से तात्पर्य बताया गया है। अविरोध नामक द्वितीय अध्याय में स्मृति - तर्कादि के विरोध का परिहार कर ब्रह्म से अविरोध बताया है। साधन नामक तृतीय अध्याय में जीव तथा ब्रह्म के लक्षणों तथा मुक्ति के अंतर्बाह्य साधनों का निरूपण है। फल नामक चतुर्थ अध्याय में सगुण-निर्गुण विद्याओं के फलों का सांगोपांग विवेचन है। ब्रह्मसूत्र इतने स्वल्पाक्षर हैं कि किसी न किसी भाष्य की सहायता लिये बिना उनका अर्थ स्पष्ट नहीं होता है डा. घाटे ने ब्रह्मसूत्रों के विभिन्न भाष्यों का तौलनिक अध्ययन कर मूल सूत्रों के संभाव्य सिद्धान्तों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। ब्रह्मसूत्रों पर शंकराचार्य, भास्कराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुज, मध्य, निम्बार्क, श्रीकण्ठ आदि आचायों ने भाष्य लिखे हैं । प्रत्येक भाष्यकार के सिद्धान्तों में ही नहीं अपि तु सूत्रों तथा अधिकरणों की संख्या में भी अंतर है। श्री चिंतामण विनायक वैद्य ने ब्रह्मसूत्रों का रचनाकाल ईसा पूर्व सौ डेड सौ वर्ष पूर्व सिद्ध किया है। भिक्षु । ब्रह्मसूत्र भाष्य द्वैत मत के प्रवर्तक मध्वाचार्य ने बासूत्र विषय पर 4 ग्रंथ लिखे। उनमें से प्रथम है ब्रह्मसूत्रभाष्य । इसमें लघ्वक्षर वृत्ति में द्वैत-मत का प्रतिपादन किया गया है। ब्रह्मसूत्रभाष्यविज्ञानामृतम् ले. - विश्वास काशी - निवासी। ई. 14 वीं शती । ब्रह्मसूत्रव्याख्या ले. अनंभट्ट । ब्रह्मसूत्रवैदिकभाष्यम् ले. - स्वामी भगवदाचार्य । भारतपारिजातम् नामक गांधी चरित्र के लेखक । अहमदाबादनिवासी । - For Private and Personal Use Only ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त ले. ब्रह्मगुप्त । ई. 6 शती । विषयज्योतिष शास्त्र । व्याख्याकार (1) पृथूदक, (2) अमरराज, और (3) बलभद्र । इस ग्रंथ में पृथ्वी का व्यास 1581 योजन ( 7905 - मील) बताया है। ब्रह्मगुप्त वेधयंत्रों से ग्रहों का निरीक्षण करते थे । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 225 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ब्रह्माण्डकल्प इसमें रासायनिक विधि से चांदी बनाना, पारे की विविध औषधियां बनाना एवं अन्यान्य ऐन्द्रजालिक कारनामे प्रतिपादित हैं। शनि या भौम वार को नरमुण्ड (मनुष्य की खोपडी) लावे। उसका चूर्ण बनाकर महीन कपडे से छान कर मिट्टी के चिकने बर्तन में रखे इत्यादि बहुत-सी विचित्र विधियां वर्णित है। www.kobatirth.org ब्रह्माण्डज्ञानतन्त्रम् - पार्वती ईश्वर-संवाद रूप। श्लोक- 240। पांच पटलों में पूर्ण विषय ब्रह्मतत्त्व का निरूपण । ब्रह्माण्डनिर्णय: ब्रह्मायामल में उक्त ईश्वर पार्वती संवादरूप । इस में संक्षेपतः सृष्टि की उत्पति का विवरण किया है । ब्रह्माण्डपुराणम् विष्णुपुराण की सूची के अनुसार इस महापुराण का क्रमांक 18 वां (अंतिम) है। देवीभागवत ने इसे 6 वां पुराण माना है। इसकी श्लोकसंख्या- 12 हजार और अध्यावसंख्या 109 है नारदपुराण की विषय-सूची में वायु ने व्यास को इस पुराण का कथन किया, इसलिये "वायवीय" ब्रह्मांड पुराण नाम कहा गया है। कुछ विद्वान् वायुपुराण और ब्रह्मांड पुराण को एक ही मानते हैं। उनके मतानुसार वायुपुराण की संस्कारित आवृत्ति ही ब्रह्मांडपुराण है। डॉ. हाजरा का मत है कि दोनों पुराणों में बिंब - प्रतिबिंब भाव है। दोनों पुराणों में बहुत से श्लोक समान हैं। पार्टिजर व विंटरनित्स ने "ब्रह्माण्ड पुराण" को "वायुपुराण" का प्राचीनतर रूप माना है किंतु वास्तविकता यह नहीं है । "नारदपुराण" के अनुसार वायु ने व्यासजी को इस पुराण का उपदेश दिया था । "ब्रह्मपुराण" के 33 वें से 58 वें अध्यायों तक ब्रह्मांड का विस्तारपूर्वक भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम खंड में विश्व का विस्तृत रोचक व सांगोपांग भूगोल दिया गया है । तत्पश्चात् जंबुद्वीप व उसके पर्वतों व नदियों का विवरण, 66 वें से 72 वें अध्यायों तक है। इसके अतिरिक्त भद्राश्च केतुमाल, चंद्रद्वीप, किंपुरुषवर्ष, कैलास, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप व पुष्करद्वीप आदि का विस्तृत विवरण है। इसमें हों, नक्षत्र-मंडलों तथा युगों का भी रोचक वर्णन है। इसके तृतीय पाद में विश्व प्रसिद्ध क्षत्रिय वंशों का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसका ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व माना जाता है। "नारद-पुराण" की विषयसूची से ज्ञात होता है कि "अध्यात्मरामायण", "ब्रह्मांडपुराण" का ही अंश है। किंतु उपलब्ध पुराण में यह नहीं मिलता। "अध्यात्म-रामायण" में वेदान्तदृष्टि से रामचरित्र का वर्णन है। इसके 20 वें अध्याय में कृष्ण के आविर्भाव व उनकी ललित लीला का गान किया गया है। इसमें रामायण की कथा (अध्यात्म रामायण के अंतर्गत) बडे विस्तार के साथ 7 खंडों में वर्णित है। इसमें 21 वें से 27 वें अध्याय तक के 1550 श्लोकों में परशुराम की कथा दी गई है । तदनंतर सगर व भगीरथ द्वारा गंगावतरण की कथा 48 वें से 57 वें अध्याय तक वर्णित है तथा 59 1226 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - वें अध्याय में सूर्य व चंद्रवंशीय राजाओं का वर्णन है। विद्वानों का कहना है कि चार सौ ईस्वी के लगभग "ब्रह्मांडपुराण" का वर्तमान रूप निश्चित हो गया होगा। इसमें "राजाधिराज" नामक राजनीतिक शब्द का प्रयोग देख कर विद्वानों ने इसका काल, गुप्त काल का उत्तरवर्ती या मौखरी राजाओं का समय माना है। महाराष्ट्र क्षेत्र का वर्णन इसमें आत्मीयता से वर्णन हुआ है, इसलिये कुछ विद्वानों का मत है कि यह पुराण नासिक-त्र्यंबक के समीप रचा गया है। इस पुराण में समाविष्ट परंतु स्वतंत्र रूप से प्रचलित हुये निम्नलिखित ग्रंथ हैं : अध्यात्मरामायण, गणेशकवच, तुलसीकवच, हनुमत्कवच, सिद्धलक्ष्मीस्तोत्र, सीतास्तोत्र, ललितासहस्रनाम, सरस्वतीस्तोत्रम् । अनुमान है कि यह पुराण सन् 325 के आसपास रचा गया है। 5 वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतीय ब्राह्मणों ने जावा सुमात्रा ( यवद्वीप) में इस पुराण का प्रचार किया। वहां की स्थानीय कवि भाषा में इसका अनुवाद हुआ है तथा वह आज भी प्रचार में है। मूल पुराण और इस अनुवादित पुराण की तुलना करने से पता चलता है कि दोनों के विषय समान हैं परंतु अनुवाद में भविष्यकालीन राजवंशों के वर्णन जोड़े गये है। ब्रह्मादर्श - ले.- विश्वास भिक्षु । काशी निवासी। ई. 14 वीं शती । ब्रह्मास्त्रपद्धति ले. कृष्णचन्द्र । 1 ब्रह्मास्त्रपूजनम् - ले. मयूर पण्डित। श्लोक 489 I ब्रह्मास्त्रविद्या दक्षिणामूर्तिसंहिता के अन्तर्गत श्लोक 140 ब्रह्मास्त्रविद्यानित्यपूजा ले- शिवानन्द यति के शिष्य । विषय- बगलामुखी देवी के उपासकों द्वारा पालनीय प्रातः कृत्यों का प्रतिपादन तथा बगलामुखी की पूजा-प्रक्रिया । ब्रह्मास्त्रसहस्त्रनाम श्लोक 181 I - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only - ब्रह्मास्त्रसूत्रम् (दीपिका) - ले. शांखायन । सूत्रसंख्या - 145। ब्रह्मोपनिषद् यह यजुर्वेदांतर्गत एक नव्य उपनिषद् है । पिप्पलाद अंगिरस ने शौनक को कथन किया । "प्राणो ह्येष आत्मा" शरीरस्थ प्राण ही सर्वव्यापी आत्मा तत्त्व है, ऐसा इसका प्रतिपाद्य है। ब्राह्मणम् - यह वैदिक वाङ्मय का एक भाग है। "ब्राह्मण" शब्द का प्रयोग ग्रंथ के अर्थ में होता है तब यह नपुंसकलिंगी होता है। ग्रंथ के अर्थ में "ब्राह्मण" शब्द का प्रयोग प्रथमतः तैत्तिरीय संहिता में (3.7.1.1.) हुआ है। ब्रह्म शब्द वेद अथवा मन्त्र के सामान्य अर्थ में भी वैदिक वाङ्मय में आया है । इसलिये ब्रह्म अर्थात् वेद का ज्ञान जिनसे होता है वे ब्राह्मण ग्रंथ हैं। ब्रह्म शब्द का यज्ञ भी अर्थ है। विविध प्रकार के यज्ञों के कर्मकांड ब्राह्मण ग्रंथों के प्रतिपाद्य हैं। यज्ञों के साथ अनेकविध शास्त्रों की चर्चा इन ग्रंथों में हुई है। वैज्ञानिक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक विचारों पर प्रकाश डालनेवाले, एक महान् विश्वकोष के रूप में ब्राह्मण ग्रंथों का Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथार्थ वर्णन कर सकते हैं। यज्ञकर्म के विधान तथा निंद्य कर्म के निषेध के साथ ही अर्थवाद भी ब्राह्मण ग्रंथों का प्रतिपाद्य है। शाबरभाष्य में ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषयों की संख्या दम्य बतलायी है: हेतुर्निर्वचनं नन्दा प्रशंसा संशयो विधिः। परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना । उपमानं दशैते तु विषया ब्राह्मणस्य हि ।। (जैमिनिसूत्र 2.1.8. भाष्य) अर्थ- हेतु शब्दों की निरुक्ति, कुछ कर्मों की निंदा, कुछ कर्मों की स्तुति, संशय, विधि, अन्यों द्वारा किये गये को का प्रतिपादन, पूर्व-कल्प की कथाएं, निश्चय तथा उपमान ये दस विषय ब्राह्मण ग्रंथों के प्रतिपाद्य हैं। ब्राह्मणों में सर्वप्रथम वेद मंत्रों का अर्थ तथा मंत्रों का कर्मों से संबंध बतलाने का प्रयास हुआ है। उदा. दीर्घ काल से रोगग्रस्त व्यक्ति के स्वास्थ्य- लाभ के लिये बतयाये गये यज्ञ में “आ नो मित्रावरुणा" ऋचा का सामगान (साम. 2.1.1.5.) विहित बताया है। यहां पर मंत्र में केवल मित्रवरुण की स्तुति है, इसलिये मंत्र के अर्थ का कर्म से संबंध नहीं है, तथापि तांड्य-ब्राह्मण में मंत्र-कर्म का संबंध इस प्रकार दिखाया गया है - मित्र और वरुण का प्राण और अपान से संबंध है। मित्र दिन के देवता तथा वरुण रात्रि के देवता हैं। इसलिये ये देवताएं रोगी के शरीर में निवास कर उसके प्राणापान का नियमन करें इसके लिये इस कर्म में मित्र-वरुण की प्रार्थना विहित है। प्राचीन शास्त्रकारों ने ब्राह्मणग्रंथों को वेद के समान मान्यता दी है। आपस्तंब ने मंत्र तथा ब्राह्मणग्रंथ को वेद संज्ञा दी है - "मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद-नामधेयम्" (आप. श्री. सू. 24.1.31.) वेद या वेद की शाखा के दोन भेद हैं- (1) मन्त्ररूप संहिता तथा (2) विधानरूप ब्राह्मण। ब्राह्मणों का भी अपौरुषेय ग्रंथों में समावेश हुआ है। ब्राह्मण के अन्तिम भाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद्' होते है। प्रत्येक ब्राह्मण अपने वेदसंहिता से संबंधित होता है। तथा ऋग्वेद की शाकल संहिता से सम्बद्ध है 'ऐतरेय ब्रह्मण', जिस में हौत्र-कर्म का तथा उससे सम्बद्ध संहिता में आयी ऋचाओं का विशेष विवरण या व्याख्यान है। इसी प्रकार अन्य वेदों की संहिताओं के ब्राह्मणों के विषय में कहा जा सकता है। ब्राह्मणों में मुख्यतः तीन भाग होते है:- 1) विधि या कर्मविधान, 2) अर्थवाद या प्ररोचन और 3) उपनिषद् या ब्रह्मविचार (तीर्थविचार) सामान्यतः वेदों की जितनी शाखाएं है उतने ही ब्राह्मण होने चाहिए। अर्थात् 1131 शाखाओं की संहिताएं है तो, ब्राह्मण भी उतने ही होने चाहिए। किन्तु सम्प्रति जिस प्रकार मात्र 11 संहिताए ही उपलब्ध है, उसी प्रकार ब्राह्मण भी 18 ही पाये जाते है। ब्राह्मणचिन्तामणितन्त्रम् - पटलसंख्या- 14 । ब्राह्मणमहासम्मेलनम् - सन् 1928 में ब्राह्मण महासम्मेलन कार्यालय, 177 दशाश्वमेघ घाट, वाराणसी से इसका प्रकाशन होता था। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। इसके सम्पादक मण्डल में महामहोपाध्याय अनन्तकृष्णशास्त्री, राजेश्वरशास्त्री द्रविड, ताराचरण भट्टाचार्य और जीव न्यायतीर्थ थे। यह ब्राह्मण महासम्मेलन की मुखपत्रिका थी। इसमें सभा का विवरण, भाषण, आय-व्यय और धर्म-प्रश्नों के उत्तर प्रकाशित होते थे। इसके हर अंक के मुख पृष्ठ पर यह श्लोक प्रकाशित हुआ करता न जातु कामान भयान्न लोभाद् धर्म जह्याज्जीवितस्याऽपि हेतोः । ब्राह्मणशब्दविचार - ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रनिवासी। ब्राह्मणसर्वस्वम् - ले.- हलायुध। ई. 12 वीं शती। पिताधनंजय । सन् 1893 में कलकत्ता एवं वाराणसी में प्रकाशित । ब्राह्मस्फोटसिद्धान्त - (देखिए ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त)। भक्तभूषणसंदर्भ - ले.- भगवतत्प्रसाद । श्रीमद्भागवत की टीका। स्वामी नारायण मत (उध्दवसंप्रदाय) के अनुसार 19 वीं शती के मध्यकाल अर्थात् 1850 ई. के लगभत लिखी गई इस व्याख्या का प्रकाशन, 1867 ई. में हुआ। प्रकाशक हैं, मुंबई के गणपति कृष्णाजी। भागवत की यह भक्तरंजनी टीका, विस्तृत तथा सरल-सुबोध है। उध्दव संप्रदाय की दार्शनिक विचाराधारा श्रीकृष्ण वाक्यों से मिलती है। इस लिये प्रस्तुत टीका को विशिष्टाद्वैत-व्याख्याओं में परिगणित किया जाता है। भक्तवातसंतोषक- (नामांतर प्रयोगरत्नाकर) ले.- प्रेमनिधि पन्त। विषय - धर्मशास्त्र। भक्तसुदर्शनम्- (नाटक) ले.-मथुराप्रसाद दीक्षित। श. 20 । सोलव-नरेश की धर्मपत्नी को समर्पित। अंकसंख्या छः । गीतों की प्रचुरता और छोटे चटपटे संवाद इसकी विशेषता है। कथासार- अयोध्या नरेश ध्रुवसन्धि की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र सुदर्शन उत्तराधिकारी हैं, परन्तु सापत्न बन्धु शत्रुजित् के नाना युधाजित् अपने पोते के लिए सिंहासन चाहते हैं। सुदर्शन के नाना वीरसेन उनसे लडते हैं। युद्ध में वीरसेन मारे जाते हैं। सुदर्शन की माता पुत्र को लेकर भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाती है। वहां सुदर्शन जगदम्बिका की उपासना में लीन होता है। यहां वाराणसी की राजकन्या शशिकला स्वप्न में सुदर्शन को देख कामपीडित होती है। उसके स्वयंवर के समय युद्ध में युधाजित् तथा शत्रुजित् मर जाते हैं और सुदर्शन शशिकला के साथ विवाह कर, माता तथा पत्नी के साथ सिंहासनारूढ होता है। भक्तामरपूजा - ले.- ज्ञानभूषण । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । भक्तामरस्तोत्र - ले.- मानतुंगाचार्य। जैन स्तोत्र वाङ्मय में अत्यंत मान्यताप्राप्त इस स्तोत्र पर समस्या पूर्ति के रूप में आधारित स्तोत्रों में समयसुंदर कृत ऋषभभक्तामर (श्लो.45), संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/227 For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लक्ष्मीविमलकृत शान्तिभक्तामर रत्नसिंहरिकृत नेमिभक्तामर (श्लोक 49 ) धर्मवर्धनागणिकृत वीरभक्तामर धर्मसिंहसूरिकृत ナ सरस्वती भक्तामर, तथा जिनभक्तामर, आत्मभक्तामर, श्रीवल्लभभक्तामर और कालूभक्तामर जैसे स्तोत्र उल्लेखनीय हैं। इस स्तोत्र की पद्यसंख्या 44 या 48 मानी जाती है। (2) ले. अप्पय्य दीक्षित । भक्तिकुलसर्वस्वम् - पूजा, ध्यान, जप, बलि, न्यास, धूपदीप, भूतशुद्धि, पुष्प, चन्दन, हवन आदि के बिना जिस साधन से देवी प्रसन्न होती है और साधकों का कल्याण होता है, वह तारा सहस्त्रनाम है। उसी सहस्रनाम का माहात्म्य इसमें प्रतिपादन किया गया है। भक्तिचन्द्रोदयम् - ले. श्री. वेंकटकृष्ण राव (सन 1957 में "मंजूषा" में प्रकाशित। अंकसंख्या तीन । भारतीय परंपरानुसार लिखित दीर्घ नाट्यसंकेत। नायक- भगवान् पुरुषोत्तम (विष्णु) कथासार - पुरुषोत्तम नालन्दा ग्राम में उदास बैठे हैं कि मानवता क्षीण हो रही है। नारद उनसे कहते हैं कि वें समाधिस्थ वेदव्यास से मिलेंगे। व्यास भी दुखी होकर नारद से कहते हैं कि शंकर-रामानुज को लोग भूल रहे हैं। मैसूर के वृन्दावन उद्यान में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य चिन्तित है कि उनके दर्शाये मार्ग पर लोग नहीं चलते। अन्त में सन्देश है कि "यं शैवाः समुपासते" का प्रचार सार्वत्रिक प्रेम तथा सौहार्द के लिए अवश्यंभावी है। www.kobatirth.org भक्तिजयार्णव ले. रघुनन्दन। ये सम्भवतः प्रसिद्ध रघुनन्दन भट्टाचार्य से भिन्न है। ले. - प्रज्ञाचक्षु · - · 228 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड उसके शांत भक्तिरस, प्रीति, प्रेम, वात्सल्य एवं मधुर भक्तिरस नामक भेद किये गये हैं। उत्तर विभाग में हास्य, अद्भुत वीर, करुण, रौद्र, बीभत्स एवं भयानक रसों का वर्णन है। इसका रचना - काल 1541 ई. है। रूप गोस्वामी के भतीजे जीव गोस्वामी ने इस ग्रंथ पर 'दुर्गमसंगमनी' नामक टीका लिखी है। इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका हैं । भक्तिरसायनम् ले. मधुसूदन सरस्वती काटोल्लपाडा के (बंगाल) निवासी ई. 16 वीं शती । भक्तिरसावले. कृष्णदास | भक्तिरहस्यम् ले. सोमनाथ 1 भक्तिवर्धिनी - ले वल्लभाचार्य । भक्तिविवेक ले. श्रीनिवास। यह ग्रंथ रामानुज सम्प्रदाय के लिए लिखा है । गुलाबराव महाराज । भक्तितत्त्वविवेक विदर्भनिवासी । भक्तिनिर्णय ले. विठ्ठलनाथ पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य | वल्लभ के सुपुत्र तथा वल्लभ संप्रदाय की सर्वांगीण श्री वृद्धि करने वाले गोसाई । भक्तिप्रकाश ले. वैद्य भक्तिहंस । आठ उद्योतों में पूर्ण । रघुनन्दन भक्तिमंजरी - ले.- त्रिवांकुर ( त्रावणकोर) नरेश राजवर्म कुलशेखर ई. 19 वीं शती । 1 भक्तिमंदाकिनी - ले.- पूर्णसरस्वती । ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध) । । I भक्तिमार्गमर्यादा ले. विठ्ठलेश्वर भक्तिरत्नाकर ले. नरहरि चक्रवर्ती। पिता शिवदास । भक्तिरसामृतसिंधु ले रूपगोस्वामी ई. 16 वीं शती भक्तिरस का अनुपम ग्रंथ । ग्रंथ का विभाजन 4 विभागों में हुआ है, और प्रत्येक विभाग अनेक लहरियों में विभक्त है। पूर्व विभाग में भक्ति का सामान्य स्वरूप एवं लक्षण प्रस्तुत किये गये हैं तथा दक्षिण विभाग में भक्तिरस के विभाव, अनुभाव, स्थायी, सात्त्विक व संचारी भावों का वर्णन है । पश्चिम विभाग में भक्तिरस का विवेचन किया गया है, तथा - 2) ले. नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती । भक्तिविष्णुप्रियम् (नाटक) ले. यतीन्द्रविमल चौधुरी (श. 20) "प्रीतिविष्णुप्रिय" का पूरक अंश प्रथम अभिनय दिसंबर 1959 में पाण्डिचेरी के अरविन्दाश्रम में । 1962 में राष्ट्रपति की उपस्थिति में दिल्ली के सप्रू हाऊस में अभिनीत । "प्राच्यवाणी" द्वारा 12 बार अभिनीत । कथासार -पत्नी विष्णुप्रिया पर माता की सेवा का भार सौंप कर चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेते हैं। विष्णुप्रिया यावज्जीवन वैष्णवधर्म का प्रचार करते हुए परलोक सिधारती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्तिस्तववैभवम् - ले. जीवदेव । भक्तिशतकम् - ले. रामचन्द्र कविभारती भक्तिरस परिप्लुत 100 छन्दों की उत्तम काव्यकृति। इस में ब्राह्मणभक्ति की विचारधारा से मिलती जुलती बुद्ध संप्रदाय की भक्तिविचारधारा व्यक्त हुई है। यह महायान तथा हीनयान दोनों संप्रदायों से समान रूप में सम्बध्द । For Private and Personal Use Only ले. विट्ठलनाथ, या विट्ठलेश आचार्य वल्लभ के सुपुत्र एवं वल्लभ संप्रदाय के सुप्रसिद्ध आचार्य । भक्तिहेतुनिर्णयले विठ्ठलेश रघुनाथ द्वारा इस पर टीका है। भगमालिनीसंहिता - यह नित्याषोडशिकार्णव का एक भाग है। भगवदनविधिले. रघुनाथ भगवद्गीताभाष्यार्थ । ले. - बेल्लमकोण्ड आंधनिवासी। ई. 19 वीं शती । भगवत्पादचरितं (काव्य) - ले. घनश्याम। ई. 18 वीं शती । भगवद्-बुद्ध-गीता- ले. प्राध्यापक इन्द्र | कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय । पालीभाषा के अध्यापक । धम्मपद का संस्कृत अनुवाद। भगवद्भक्तिरत्नावली • ले. विष्णुपुरी मैथिल ग्रंथरचना काशी में हुई। इस पर लेखक ने सन् 1634 में कान्तिमाला - - रामराय । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नामक टीका लिखी है। सरस्वती । भगवद्भक्तिरसायनम्- ले. - भक्तियोगविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भगवद्भक्तिविलास से गोपालभट्ट प्रबोधानन्द के शिष्य 20 विलासों में पूर्ण । वैष्णवों के लिए रचित । कलकत्ता में सन् 1845 में प्रकाशित । www.kobatirth.org मधुसूदन भगवद्भास्कर (या स्मृतिभास्कर) ले. नीलकण्ठभट्ट ई. 17 वीं शती । यमुना और चंबल नदियों के संगम समीपस्थ प्रदेश के बुंदेला राजा श्री भगवंतदेव थे उनके आश्रित धर्मशास्त्रज्ञ नीलकंठ थे । आश्रयदाता के लिये "भगवद्भास्कर" नामक एक बृहद् ग्रंथ की रचना की थी। धार्मिक और दीवानी कानून के बारे में इस ग्रंथ को ज्ञानकोश मानना युक्त होगा। इस ग्रंथ के संस्कारमयूख, कालमयूख, श्रद्धमयूख, नीतिमयूख, व्यवहारमयूख, दानमयूख, उत्सर्गमयूख, प्रतिष्ठामयूख, प्रायश्चित्तमयूख, शुद्धिमयूख आदि बारह भाग हैं, जिनमें धर्मशास्त्रांतर्गत विविध विषयों का विवेचन किया गया है। व्यवहारमयूख नामक प्रकरण (भाग) बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उसे गुजरात तथा महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों में प्रमाण माना जाता था। मिताक्षरा के पश्चात् इसी ग्रंथ को उच्चतम स्थान प्राप्त हुआ है। नीतिमयूख में राज्यशास्त्र विषयक सभी तथ्यों पर विचार किया गया है। भगवद्भास्कर में सर्वप्रथम राज्याभिषेक के कृत्यों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। फिर राज्य के स्वरूप व सप्तांगों का निरूपण है। इसके निर्माण में मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, कामंदक नीतिसार, वराहमिहिर, महाभारत व चाणक्य के विचारों से पूर्णतः सहायता ली गई है। स्थान स्थान पर इनके वचन भी उद्धृत किये गए हैं। इसमें राज्यकृत्य, अमात्यप्रकरण, राष्ट्र, दुर्ग, चतुरंग बल, दूताचार, युद्ध, युद्धयात्रा, व्यूह रचना स्कंधावार युद्धप्रस्थान के समय के शकुन व अपशकुन आदि विषय अत्यंत विस्तार के साथ वर्णित हैं। सन 1880 में वाराणसी में प्रकाशित। - भगवन्नामामृतरसोदय ले. बोधेन्द्रसरस्वती गुरु विश्वाधिपेन्द्र अनेक कवियों के संस्कृत गेय काव्यों श्लोक 3001 भजनोत्सवकौमुदी का संकलन । भंजमहोदय- (प्रकरण ) ले. नीलकण्ठ । ई. 18 वीं शती। अंकसंख्या दस विषय केओझर के भंजवंशी राजाओं का आनुवंशिक विवरण प्रधान रूप से राजा बलभद्र भंज (1764-1792) का परिचय । ऐतिहासिक युद्धों के समसामयिक वर्णन के कारण यह रूपक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रंगमंच पर केवल प्रियंवद तथा अनङ्गकलेवर अपने संवादों द्वारा इतिवृत्त दर्शाते हैं। संवाद प्रायः पद्यात्मक है । भट्ट - संकटम् (प्रहसन ) ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894 ) संस्कृत "साहित्य परिषद पत्रिका" में सन 1926 में कलकत्ता से प्रकाशित। कलकत्ता में सरस्वती महोत्सव में अभिनीत अंकसंख्या पांच कथासार यज्ञपरायण भट्ट अपनी कुरूप, कर्कशा पत्नी से त्रस्त है, किन्तु यज्ञ में सहधर्मिणी के रूप में चाहते हैं। यज्ञों से उद्विग्न राक्षस भट्ट पत्नी का अपहरण करते हैं। राजा श्रीभट्ट को दूसरी पत्नी ला देने या उसी पत्नी की स्वर्ण प्रतिमा बनवाने उद्यत हैं किन्तु भट्ट उसके लिए तैयार नहीं। राक्षस भट्टपत्नी का विवाह किसी वानर से साथ कराने का आयोजन करता है, परंतु उसी समय राजा राक्षस पर आक्रमण कर भट्टपत्नी को छुडाता है 1 भट्टचिन्तामणि ले. विश्वेश्वरभट्ट (गागाभट्ट काशीकर ) । भट्टिकाव्यम् - ले भट्टि रचनाकाल 6 वीं शताब्दी का उत्तरार्थ । महाकाव्य का मूलनाम "रावणवध" था परंतु कवि भट्टि के नाम से ही वह प्रसिद्ध है। इसमें 4 काण्ड 22 सर्ग, और 1025 श्लोक हैं। इसकी विशेषता यह है कि कवि द्वारा इसके माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने के एक अभिनव प्रयोग का सूत्रपात किया गया है। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - इसमें कथावस्तु तथा व्याकरण के सिद्धान्तों का गुम्फन इस प्रकार हुआ है- प्रथम (प्रकीर्ण) काण्ड में 5 सर्गों में रामजन्म से सीताहरण तक की कथा है। व्याकरण के अधिकार और अंगाधिकार के नियमों का उल्लेख है। द्वितीय (अधिकार) कांड में 4 सर्गों में ( 6 से 9 सर्ग) सुग्रीव के राज्याभिषेक से हनुमान् के रावण की राजसभा में दूत के नाते उपस्थित होने तक की कथा है । दुहादि द्विकर्मक धातु, कृत्- अधिकार, भावे तथा कर्तरि प्रयोग, आत्मनेपद आदि के उदाहरण हैं । तृतीय ( प्रसन्न ) काण्ड में (10 से 13 सर्ग) सेतुबंध की कथा है। शब्दालंकार तथा अर्थालंकार तथा उनके विभिन्न भेदोपभेद के उदाहरण है। चतुर्थ ( तिङ्न्त ) कांड में (14 से 22 सर्ग) रावणवध से राम के राज्याभिषेक तक की कथा है । व्याकरण शास्त्र के 9 लकार तथा उनका व्यावहारिक दिग्दर्शन है। For Private and Personal Use Only यह काव्य टीका की सहायता से ही समझा जा सकता है। इस पर कुल 14 टीकाएं लिखी गई हैं। उनमें जयमंगला तथा मल्लिनाथी टीका विशेष प्रसिद्ध हैं । भट्टिकाव्य के टीकाकार- 1) कन्दर्पचक्रवर्ती भरतसेन, 2) नारायण विद्याविनोद, 3) पुण्डरीकाक्ष, 4) कुमुदनन्दन, 5) पुरुषोत्तम, 6) रामचन्द्र वाचस्पति, 7) रामानन्द 8 ) हरिहराचार्य, 9) भरत या भरतमल्लिक, 10) जयमंगल, 11) जीवानन्द विद्यासागर, 12 ) मल्लिनाथ, 13) श्रीधर और 14) शंकराचार्य । भद्रकल्पावदानम् 34 अवदानों का संग्रह । उपगुप्त तथा अशोक के संवाद में कथन है। रचना छन्दोबद्ध । स्वरूप तथा विषय विनयपिटक के अनुरूप हैं। समय- क्षेमेंद्रोत्तर काल संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 229 - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के द्वितीय भाग में प्रकाशित हो चुका है। भवानीस्तवशतकम् - श्लोक- 150। इस भवानीस्तव से सौ कमलों द्वारा देवीपूजा करने पर प्रचुर पुण्यलाभ होता है, ऐसी फलश्रुति बताई है। संस्कृत-भवितव्यम्(साप्ताहिकी पत्रिका)- सन 1951 में श्रीधर भास्कर वर्णेकर के सम्पादकत्व में संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा, नागपुर द्वारा इस पत्र का प्रकाशन आरंभ किया गया। चार वर्षों बाद सम्पादन का दायित्व दि.वि.वराडपाण्डे पर आया। इस पत्र का वार्षिक मूल्य पांच रुपये था। प्रकाशन स्थल संस्कृतभवनम्, पश्चिम उच्च न्यायालय मार्ग, नागपुर-1 है। इस पत्र में सरल भाषा में समाचारों के अलावा संस्कृत भाषा में दिये गये भीषण तथा बालकों के लिये सामग्री भी प्रकाशित की जाती है। छोटी रुचिकर कहानियों के अतिरिक्त साहित्य और राजनीति विषयक निबन्धों का प्रकाशन भी इसमें होता है। इस पत्र का आदर्श श्लोक इस प्रकार है तावदेव प्रतिष्ठा स्याद् भारतस्य महीतले। ज्ञानामृतमयी यावत् सेव्यते सुरभारती ।। (ई. 11 वीं शती)। भद्रकालीचिन्तामणि - श्लोक- 1464 । भद्रकालीपंचांगम् - श्लोक- 374। भद्रतन्त्रम् - देवी-शिवसंवादरूप। विषय- वशीकरण, मोहन, मारण, उच्चाटन, आदि के साधनार्थ मन्त्र और विधियां। भद्रदीपक्रिया - श्लोक- 1550 । विषय- सात्त्वत आदि तन्त्रों में वर्णित दीपाराधावन क्रिया। भद्रदीपदीपिका - ले.-नारायण। गुरु- श्रीकण्ठ। ग्रंथकार ने अपने पिता की आज्ञा से चोलभूपाल द्वारा अनुष्ठित यज्ञ में भाग लिया था। यह भद्रदीपक्रिया श्री. नारायण से पृथ्वी और नारद को प्राप्त हुई। इन्होंने अपने भक्तों में उसका प्रचार किया। इससे मनुष्यों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारो पुरुषार्थ शीघ्र सिद्ध हो जाते हैं। भद्राचलचम्पू - ले.-राघव। विषय-वेंकटगिरि के श्रीनिवास का माहात्म्य। भद्रादिरामायणम् - कवि- वीरराघव । भरतचरितम् - ले.-म.म. विधुशेखर शास्त्री। जन्म - 1878 ई.। गद्य रचना। भरतमेलनम् (रूपक)- ले.-विश्वेश्वर विद्याभूषण। (श. 20) "मंजूषा" में प्रकाशित छः दृश्यों में विभाजित रूपक। भरत मिलाप की कथा । भरत का सशक्त चरित्र चित्रण किया गया है। भरतराज - ले.-हस्तिमल्ल। पिता- गोविंदभट्ट। जैनाचार्य। भरतशास्त्रम् - ले.-लक्ष्मीधर। अपनी ऋतुक्रीडाविवेक नामक रचना का उल्लेख लेखक ने किया है। 2) ले. रघुनाथ प्रसाद । भरतसारसंग्रह - ले.-मुम्मिदडि चिक्क देवराय (तृतीय) यह 2500 श्लोकों की संगीत शास्त्र विषयक रचना है। भरत, मतंग तथा विद्यारण्य के संगीतकार का मतानुसरण इसमें किया है। भर्तृहरिनिर्वेदम् - ले.-हरिहर। भरतेश्वराभ्युदयचंपू - ले.- आशाधर। जैनाचार्य। समय- ई. 14 वीं शती के आसपास। इस चंपू में ऋषभदेव के पुत्र की कथा कही गई है। भवदेवकुलप्रशस्ति - ले. कविवाचस्पति। ई. 11 वीं शती। उत्कल के इतिहास की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण रचना है। भवभूतिवार्ता - ले.- राघवेन्द्र कविशेखर। रचनाकाल- सन 1660। यह एक ऐतिहासिक चम्पू है। भववैराग्य-शतकम्- ले.-मिचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 11 वीं शती। भवानीपंचांगम् - रुद्रयामल तन्त्रान्तर्गत। श्लोक 630। भवानी-सहस्रनाम-पटलम् - रुद्रयामलान्तर्गत। श्लोक 78 । भवानी-सहस्रनाम-बीजाक्षरी - श्लोक- 336।। भवानी-सहस्रनामस्तोत्रम् - रुद्रयामलतन्त्रान्तर्गत यह स्तोत्ररत्नाकर डॉ. राघवन् के अनुसार पत्र में प्रकाशित सामग्री और शैली दोनों अनुपम हैं। इसमें धर्म, साहित्य समाज राजनीति विषयक सरल निबन्ध भी प्रकाशित होते हैं। भविष्यदत्तचरितम् - ले.-पद्मसुन्दर । भविष्यपुराणम् - पारंपारिक क्रमानुसार यह 9 वां पुराण है और श्लोकसंख्या 1,45,000 है। इसके नाम से ही ज्ञात होता है कि यह भविष्य की घटनाओं का वर्णन है। इस पुराण का रूप समय समय पर परिवर्तित होता रहा है. अतः प्रतिसंस्कारों के कारण इसका मूल रूप अज्ञेय होता चला गया है। समय समय पर घटित घटनाओं को विभिन्न समयों के विद्वानों ने इसमें इस प्रकार जोडा है कि इसका मूल रूप परिवर्तित हो गया है। ऑफ्रेड ने तो 1903 ई. में एक लेख लिख कर 'साहित्यिक धोखाबाजी' की संज्ञा दी है। वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित “भविष्यपुराण" में इतनी सारी नवीन बातों का समावेश है, जिससे इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। "नारदीयपुराण" में इसकी जो विषय सूची दी गई है, उससे पता चलाता है कि इसमें 5 पर्व हैं- ब्राह्मपर्व, विष्णुपर्व, शिवपर्व, सूर्यपर्व व प्रतिसर्ग पर्व। इसकी श्लोकसंख्या- 14 हजार है। नवलकिशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित आवृत्ति में 2 खंड हैं। (पूर्वार्ध व उत्तरार्ध) तथा उनमें क्रमशः 41 और 171 अध्याय हैं। इसकी जो प्रतियां उपलब्ध हैं, उनमें "नारदीयपुराण" की सूची पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं होती। इस पुराण में मुख्य रूप से वर्णाश्रम धर्म का वर्णन है, तथा नागों की पूजा के लिये किये जाने वाले नागपंचमी व्रत के वर्णन में नाग, असुरों व नागों से संबंद्ध कथाएं दी गई 230/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं। इसमें सूर्यपूजा का वर्णन है और उसके संबंध में एक या गीता रूढ हुआ। इस संक्षिप्त रूप में उपनिषद् शब्द कथा दी गई है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को अध्याहृत है। यदि मूल में उपनिषद् शब्द नहीं होता, तो ग्रंथ कुष्ठ रोग हो जाने पर उसकी चिकित्सा के लिये गरुड द्वारा का नाम केवल भगवद्गीतम् या गीतम् (नपुंसकलिंगी ) शकद्वीप से ब्राह्मणों को बुलाकर सूर्य की उपासना के द्वारा होता। इस विश्वमान्य ग्रंथ में कृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मयोग, रोगमुक्त कराया गया था। इस कथा में भोजक व मग नामक भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग का प्रधानतया प्रतिपादन किया दो सूर्य पूजकों का उल्लेख किया गया है। अलबेरुनी ने गया है। सभी वैदिक मतावलंबी आचार्यों ने इसपर भाष्य इसका उल्लेख किया है। इस आधार पर विद्वानों ने इसका लिखे हैं और संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में इस के समय 10 वीं शती माना है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति के साथ अनुवाद हुए हैं। ही साथ भौगोलिक वर्णन भी उपलब्ध होते हैं तथा सूर्य का भागवतम् - ले.-मुडूम्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य। ब्रह्म रूप में वर्णन कर उनकी अर्चना के निमित्त नाना प्रकार भागवत-गूढार्थदीपिका (टीकाग्रंथ)- ले.-धनपतिसूरि। ई. के रंगों के फूलों को चढ़ाने का कथन किया गया है। इस 17-18 वीं शती। रास-पंचाध्यायी एवं भ्रमरगीत (10-47) पुराण में उपासना व व्रतों का विधान, त्याज्य पदार्थों का की टीका। अष्टटीका-भागवत वाले संस्करण में प्रकाशित । रहस्य, वेदाध्ययन की विधि, गायत्री का महत्त्व, संध्यावंदन भागवत के गूढ अर्थों का प्रकटीकरण करना है प्रस्तुत टीका का समय तथा चतुर्वर्ण विवाह व्यवस्था का भी निरूपण है। का उद्देश्य । यह टीका विस्तृत, विशद तथा विविधार्थ प्रतिपादक इस पुराण में कलियुग के अनेकानेक राजाओं का वर्णन है, है। इसमें आकर ग्रंथों के संकेत एवं उद्धरण भी हैं। इस जो महारानी विक्टोरिया तक आ जाता है। इस पुराण के टीका में श्रीधर स्वामी का यह मत स्वीकृत है कि रासपंचाध्यायी प्रतिसर्ग पर्व की बहुत सी कथाओं को आधुनिक विद्वान् प्रक्षेप निवृत्तिमार्ग का उपदेश देती है, प्रवृत्तिमार्ग का नहीं। प्रस्तुत मानते हैं। इसके भविष्य कथन भी अविश्वसनीय माने जाते हैं। टीका पांडित्यपूर्ण तथा प्रमेय बहुल है। पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र के कथनानुसार चार प्रकार के भविष्यपुराण उपलब्ध हैं तथा प्रत्येक में भविष्यपुराण के थोडे भागवतचंद्रचंद्रिका - ले.-वीरराघवाचार्य। ई. 16 वीं शती। थोडे लक्षण पाये जाते हैं। सूत्रकार आपस्तंब द्वारा भविष्य श्रीमद्भागवत की टीका। भागवत की यह बडी विस्तृत व पुराण का उल्लेख हुआ है जिससे यह निश्चित है कि इसका विशालकाय व्याख्या है। इसका उद्देश्य है विशिष्टाद्वैती सिद्धान्तों कुछ अंश प्राचीन है जो ब्राह्म सर्ग के अंतर्गत आता है। का भागवत से समर्थन तथा पुष्टीकरण। इस उद्देश्य की सिद्धि इसमें उल्लेखित अनेक घटनाओं तथा राजवंशों के वर्णन में टीकाकार ने श्रीधरस्वामी के मत का बहुशः खण्डन किया इतिहास की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। है। "आत्मा नित्योऽव्ययः" (भाग 7-7-19) के अद्वैतपरक भस्मजाबालोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध एक नव्य उपनिषद्।। अर्थ की विशिष्टाद्वैती व्याख्या की है। इसी प्रकार 6-9-33 इसमें भगवान् शिव द्वारा भुशुंड को भस्मधारणविधि तथा उससे गद्यस्तुति की व्याख्या में, भगवन्नामों का अर्थ विशिष्टाद्वैत संबंधित व्रतों का कुथन दो अध्यायों में किया गया है। मतानुसारी किया है। भागवत 4-1-12-29 की व्याख्या में भगवद्गीता - व्यासरचित "महाभारत' महाकाव्य के अन्तर्गत श्रीधर के मत का खण्डन करते हुए स्वमत की प्रतिष्ठा की भीष्मपर्व में कृष्णार्जुन संवाद के रूप में भगवद्गीता का गुंफन है। सुदर्शनसूरि की लध्वक्षर टीका से असंतुष्ट होकर वीरराघव हुआ है। इसमें 18 अध्याय और कुल सात सौ श्लोक हैं। ने अपनी प्रस्तुत व्याख्या में दार्शनिक तत्त्वों का बहुशः विस्तार उपनिषदों और वेदान्तसूत्र के साथ भगवद्गीता को वैदिकधर्म किया है। इस टीका की प्रामाणिकता, संप्रदायानुशीलता एवं की व्याख्या करने वाला प्रमुख ग्रंथ मागा जाता है। इन तीनों प्रमेयबहुलता का यही प्रमाण है कि प्रस्तुत भागवतचंद्र-चन्द्रिका को 'प्रस्थानत्रयी" कहा जाता है। लोकमान्य तिलक के अनुसार के अनंतर किसी भी विशिष्टाद्वैती विद्वान् ने समस्त भागवत जिस स्वरूप में आज भगवद्गीता उपलब्ध है उसका प्रचलन पर टीका लिखने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। ईसा के 5 सौ वर्ष पूर्व हुआ है। भागवतचंपू- ले.-अय्यल राजू रामभद्र (रामचंद्र (भद्र) या राजनाथ कवि) नियोगी ब्राह्मण। समय 16 वीं शती का भगवद्गीता का संपूर्ण नाम "श्रीमद्भगवद्गीता-उपनिषद्' मध्य। कवि ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के आधार पर है। परन्तु संक्षेप करने की दृष्टि से उसके दो प्रथमान्त एकवचनी कंस-वध तक की घटनाओं का वर्णन किया है। शब्दों का प्रथम "भगवद्गीता" और आगे केवल “गीता" स्त्रीलिंगी अति संक्षिप्त रूप हुआ है। "श्रीमद्भगवद्गीता" 2) ले. चिदम्बर।। उपनिषद् का अर्थ है- भगवान् द्वारा गाया गया उपनिषद् । 3) ले. सोमशेखर (अपरनाम राजशेखर) पेरुर (जिल्हा उपनिषट संस्कत में मलिंगी रूप दसलिये जब ग्रंथ के गोदावरी) के निवासी। ई. 18 वीं शती। नाम का संक्षिप्त रूप हुआ तब वह भी स्त्रीलिंगी "भगवद्गीता" 4) ले. रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/231 For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भागवत-टीका- ले.-आचार्य केशव काश्मीरी। इस टीका में केवल "वेद-स्तुति" का ही भाष्य उपलब्ध एवं प्रकाशित है। भागवततात्पर्यम् - ले.-मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत मत विषयक प्रबन्ध। भागवत-तात्पर्यनिर्णय - ले.-मध्वाचार्य । द्वैत मत के प्रतिष्ठापक। भागवत के 18 सहस्त्र श्लोकों में से केवल 16 सौ श्लोकों की टीका। इसमें भागवत के अधिकार, विषय, प्रयोजन, तथा फल का विस्तृत विवरण दिया गया है। मूल ग्रंथ के समान भी इसमें भी 12 स्कंध हैं तथा उसके अध्यायों के विषय का भी विवेचन है। मध्वाचार्य ने भागवत में वर्णित समग्र प्रमेयों का समर्थन श्रुति, स्मृति, इतिहास एवं पुराण, तंत्र के आधार पर किया है। अपनी टीका को पुष्ट करने हेतु आचार्य ने इसमें पांचरात्र संहिताओं (विशेषकर ब्रह्मतर्क, कापिलेय, महा (सनत्कुमार) संहिता तथा तंत्रभागवत से उद्धरण दिये हैं। फलतः प्रस्तुत "भागवत-तात्पर्य निर्णय", भागवत के गूढ तात्पर्य को समझने की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इसमें उद्धरण तो विपुल हैं, किन्तु तत्संबंधित अनेक मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। माध्व मत में भागवत की विशेष मान्यता है। इसीलिये आचार्य मध्व ने अपने प्रस्तुत ग्रंथ में भागवत के गंभीर तात्पर्य का निर्णय किया। इस विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ में प्रत्येक स्कंध के अध्यायों का तात्पर्य तथा विवेचन अलग-अलग किया गया है। ग्रंथकार का विश्वास है कि भागवत ग्रंथ का ब्रह्मसूत्र , महाभारत, गायत्री एवं वेद से संबंध है। इस संबंध में प्रस्तुत ग्रंथ में गरुड पुराण के अनेक पद्य उद्धृत किये गए है। भागवत-तात्पर्य-निर्णय - ले.-आनंदतीर्थ । ई. 13-14 वीं शती। भागवतनिर्णय-सिद्धान्त - ले. दामोदर । लघु गद्यात्मक रचना । इसमें पुराणों के विस्तृत अनुशीलन का परिचय मिलता है। यह कृति पुष्टिमार्गीय साहित्य के अंतर्गत आती है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, "सप्रकाश तत्त्वार्थ-दीपनिबंध' के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट रूप में मुंबई से 1943 ई. में किया जा चुका है। भागवत-प्रमाण-भास्कर- इसी लघु कलेवर ग्रंथ के लेखक अज्ञात हैं। विषय प्रतिपादन को देखते हुए यह कृति पुष्टिमार्गीय साहित्य की श्रेणी में आती है। वल्लभ संप्रदाय के मूर्धन्य मान्यग्रंथ श्रीमद्भागवत के अष्टादश पुराणों के अंतर्गत होने से स्वमत का मंडन तथा विरुद्ध मत का खंडन इस ग्रंथ में किया गया है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन “सप्रकाश-तत्त्वार्थ-दीप निबंध" के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट के रूप में 1943 में मुंबई से किया गया है। भागवतपुराणम्- व्यासजी की पौराणिक रचनाओं में इस ग्रंथ को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। संस्कृत पुराण साहित्य का एक अनुपम रत्न होने के साथ ही भक्ति शास्त्र के सर्वस्व के रूप में यह चिरप्रतिष्ठित है। इसकी भाषा इतनी ललित है, भाव इतने कोमल व कमनीय हैं कि ज्ञान तथा कर्मकाण्ड की संततसेवा से उपर बने मानस में भी यह ग्रंथ भक्ति की अमृतमयसरिता बहाने में समर्थ सिद्ध होता है। व्यास द्वारा अपने पुत्र शुक को यह महापुराण कथन किया गया तथा शुक के मुख से राजा परीक्षित् ने उसे श्रवण किया। इसके पश्चात् सर्वसाधारण जनता में उसका प्रचारण हुआ। इसमें कृष्णभक्ति (अर्थात विष्णु-भक्ति) का प्रतिपादन किया गया है। इसकी रचना के संबंध में निम्नलिखित कथा प्रचलित है : एक बार व्यास महर्षि अत्यंत खिन्न होकर अपने सरस्वती तीर पर स्थित आश्रम में बैठे हुये थे कि नारद मुनि उनके पास आये। नारद मुनि ने उनसे उनकी खिन्नता का कारण पूछा। व्यास ने कहा, "अनेक पुराणों तथा भारत ग्रंथ की रचना करने पर भी मुझे आत्मशांति का लाभ नहीं हुआ है, इसलिये मै खिन्न हूं। 'नारद मुनि विचारमग्न हुये, फिर उन्होंने कहा, "आपने अब तक प्रचंड साहित्य निर्माण कर केवल ज्ञानमहिमा का बखान किया परन्तु भगवान् का भक्तियुक्त गुणगान आपके द्वारा नहीं हुआ है, अतः उस प्रकार की ग्रंथ रचना आप किजिये। इससे आपको आत्मशांति मिलेगी। नारदमुनि के उपदेश पर व्यास मुनि ने भक्ति रस प्रधान भागवत-पुराण की रचना की। उससे उन्हें शान्ति मिली। वैष्णव धर्म के अवांतरकालीन समग्र संप्रदाय , भागवत के ही अनुग्रह के विलास हैं, विशेषतः वल्लभ संप्रदाय तथा चैतन्य संप्रदाय, जो उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र जैसी प्रस्थानत्रयी मानते हैं। वल्लभ तथा चैतन्य के संप्रदायों को अधिक सरस तथा हृदयावर्जक होने का यही रहस्य है कि उनका मुख्य उपकाव्य ग्रंथ है श्रीमद्भागवत । इसमें गेय गीतियों की प्रधानता है, किन्तु इस ग्रंथ की स्तुतियां आध्यात्मिकता से इतनी परिप्लुप्त हैं कि उनको बोधगम्य करना, विशेष शास्त्रमर्मज्ञों की ही क्षमता की बात है। इसी लिये पंडितों में कहावत प्रचलित है- "विद्यावतां भागवते परीक्षा"। इसमें 12 स्कंध हैं तथा लगभग 18 सहस्र श्लोक हैं। दशम स्कन्ध सबसे बड़ा है जिसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्थ दो विभाग हैं। द्वादश स्कन्ध सबसे छोटा है। ___भागवत के विषय में प्रश्न उठता रहता है कि इसे पुराणों के अंतर्गत माना जाये अथवा उपपुराणों के। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने पुराण-विमर्श नामक ग्रंथ में इस बात का साधार विवेचन करते हुए अपना अभिमत व्यक्त किया है कि भागवत ही अंतिम अठारहवां पुराण है। वैष्णव धर्म के सर्वस्वभूत श्रीमद्भागवत को अष्टादश पुराणों के अंतर्गत ही मानना उचित प्रतीत होता है। भागवत के रचनाकाल के बारे में भी विद्वानों में अनेक भ्रामक धारणाएं हैं। पुराणों के विरोधक स्वामी दयानंदजी ने 232 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जबसे भागवत को बोपदेव की रचना बताया, तब से इतिहास के मर्मज्ञ कहलाने वाले विद्वानों ने भी उनके मत को अभ्रांत सत्य मान लिया है। परन्तु इस विषय का अनुसंधान इसे इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि भागवत 13 वीं सदी में हुए बोपदेव की रचना न होकर, उनसे लगभग एक हजार वर्ष पूर्व ही उसकी निर्मिति हो चुकी थी। बोपदेव ने तो भागवत के विपुल प्रचार की दृष्टि से तद्विषयक तीन ग्रंथों की रचना की थी। उन ग्रंथों के नाम हैं- हरिलीलामृत (या भागवतानुक्रमणी), मुक्ताफल और परमहंसप्रिया। हरिलीलामृत में भागवत के समग्र अध्यायों की विशिष्ट सूची दी गई है तथा मुक्ताफल है भागवत के श्लोकों के, नव रसों की दृष्टि से वर्गीकरण का एक श्लाघनीय प्रयास। ये दोनों ग्रंथ तो क्रमशः काशी व कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु तीसरा ग्रंथ परमहंसप्रिया, अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका। कहना न होगा की कोई भी ग्रंथकार, अपने ही ग्रंथ के श्लोकों के संग्रह प्रस्तुत करने का। प्रयास नहीं किया करता। यह कार्य तो अवांतरकालीन गुणग्राही विद्वान् ही करते है। अन्य प्रमाण इस प्रकार हैं 1) हेमाद्रि में, जो यादव नरेश महादेव (1260/71) तथा तथा रामचन्द्र (1271-1309 ई.) के धर्मामात्य तथा बोपदेव के आश्रयदाता थे, अपने "चतुवर्ग-चिंतामणि" के इतर खण्ड व "दानखंड" में भागवत के श्लोकों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। कोई भी ग्रंथकार, धर्म के विषय में, अपने समकालीन लेखक के ग्रंथ का आग्रहपूर्वक निर्देश नहीं किया करता। 2) द्वैतमत के आदरणीय आचार्य आनंदतीर्थ (मध्वाचार्य) ने, जिनका जन्म 1199 ई. में माना जाता है, अपने भक्तों का भक्ति-भावना की पुष्टि के हेतु श्रीमद्भागवत के गूढ अभिप्राय को अपने "भागवत-तात्पर्य-निर्णय" नामक ग्रंथ में अभिव्यक्त किया है। वे भागवत को पंचम वेद मानते हैं। 3) रामानुजाचार्य (जन्मकाल 1017 ई.) ने अपने "वेदान्त तत्त्वसार” नामक ग्रंथ में भागवत की वेदस्तुति (दशम स्कंध, अध्याय 87) से तथा एकादश स्कंध से कतिपय श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत का, 11 वें शतक से प्राचीन होना ही सिद्ध होता है। 4) काशी के प्रसिद्ध सरस्वतीभवन नामक पस्तकालय में वंगाक्षरों में लिखित भागवत की एक प्रति है। इसकी लिपि का काल दशम शतक के आसपास निर्विवाद सिद्ध किया जा चुका है। 5) शंकराचार्यजी द्वारा रचित "प्रबोध-सुधाकर" के अनेक पद्य भागवत की छाया पर निबद्ध किए गए हैं। सबसे प्राचीन निर्देश मिलता है हमें श्रीमद्शंकराचार्य के दादा-गुरु अद्वैत के महनीय आचार्य गौडपाद के ग्रंथों में। अपनी पंचीकरण व्याख्या में गौडपाद ने "जगृहे पौरुषं रूपम्" श्लोक उद्धृत किया है, जो भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय का प्रथम श्लोक है। आचार्य शंकर का आविर्भाव काल आधुनिक विद्वानों के अनुसार सप्तम शतक माना जाता है। अतः उनके दादा गुरु का काल, षष्ठ शतक का उत्तरार्ध मानना सर्वथा उचित होगा। इस प्रकार गौडपाद (600 ई.) के समय में प्रामाण्य के लिये उद्धृत भागवत, 13 वें शतक के ग्रंथकार बोपदेव की रचना हो ही नहीं सकती। भागवत, कम से कम दो हजार वर्ष पुरानी रचना है। पहाडपुरा (राजशाही जिला, बंगाल) की खुदाई से प्राप्त राधा-कृष्ण की मूर्ति, जिसका समय पंचम शतक है, भागवत की प्राचीनता को ही सिद्ध करती है। जहांतक भागवत के रूप का प्रश्न है, उसका वर्तमान रूप ही प्राचीन है। उसमें क्षेपक होने की कल्पना का होई आधार नहीं। इसके 12 स्कंध हैं और श्लोकों की संख्या 18 हजार है। इसमें किसी भी विद्वान् का मतभेद नहीं परंतु अध्यायों के विषय में संदेश का अवसर अवश्य है। अध्यायों की संख्या के बारे में पद्मपुराण का वचन है- "द्वात्रिंशत् त्रिशतं च यस्य- विलसच्छायाः।" चित्सुख्याचार्य के अनुसार भी भागवत के अध्यायों की संख्या 332 है (द्वित्रिंशत् त्रिशतं पूर्णमध्यायाः) । परन्तु वर्तमान भागवत के अध्यायों की संख्या 335 है। अतः किसी टीकाकार ने दशम स्कंध में 3 अध्यायों (क्र.12, 13 तथा 14) को प्रक्षिप्त माना है। ___ भागवत ग्रंथ टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी पुराण साहित्य में अग्रगण्य है। समस्त वेद का सारभूत, ब्रह्म तथा आत्मा की एकता रूप अद्वितीय वस्तु इसका प्रतिपाद्य है और यह उसी में प्रतिष्ठित है। इसीके गूढ अर्थ को सुबोध बनाने हेतु, अत्यंत प्राचीन काल से इस पर टीका ग्रंथों की रचना होती रही है। वैष्णव संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों ने अपने मतों के अनकल इस पर टीकाएं लिखी हैं और अपने मत को भागवत मलक दिखलाने का उद्योग किया है। भागवत में हृदय पक्ष का प्राधान्य होने पर भी, कला पक्ष का अभाव नहीं है। इसका आध्यात्मिक महत्त्व जितना अधिक है, साहित्यिक गौरव भी उतना ही है। भागवत के अंतरंग की परीक्षा करने से ज्ञात होता है कि उसमें दक्षिण भारत के तीर्थ क्षेत्रों की महिमा उत्तर भारत के तीर्थ क्षेत्रों से अधिक गाई गई है। इसमें पयस्विनी, कतमाला. ताम्रपर्णी आदि तामिलनाडु प्रदेश की नदियों का विशेष रूप से उल्लेख है, इसके साथ ही यह वर्णन है कि कलियुग में नारायण परायण जन सर्वत्र पैदा होंगे, परंतु तामिलनाडु में वे बहुसंख्य होंगे। इन विधानों से अनुमान किया जाता है कि भागवत की रचना दक्षिण भारत में विशेषतः तामीलनाडु में हुई है। श्रीमद्भागवत की प्रमुख टीकाएं1) भावार्थदीपिका- ले.- श्रीधरस्वामी [ई. 13-14 वीं श. (अद्वैत मत)] संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 233 For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 2) दीपिकादीपन - ले. - राधारमणदास गोस्वामी (चैतन्यदास) 3) तत्त्वसंदर्भ -ले. जीवगोस्वामी 4) भावार्थदीपिकाकाले वंशीधरशर्मा। 5) शुक्रपक्षीय ले सुदर्शनरि 6) भागवतचन्द्र- चन्द्रिका ले. वीरराघवाचार्य (विशिष्टाद्वैतमत) 7) भक्तरंजनी ले. भगवत्प्रसाद। (स्वामीनारायण मत ) 8) सिध्दान्तप्रदीप-ले. शुकदेव (द्वैताद्वैत मत ) 9) सुबोधिनी ले. वल्लभाचार्य (शुध्दाद्वैत मत ) 10) टिप्पणी ( विवृति) ले. विठ्ठलनाथजी शुदाद्वैत मत ) 11) सुबोधिनी - प्रकाश-ले. पुरुषोत्तमजी ( शुध्दाद्वैत मत ) बालप्रबोधिनी- ले. गोस्वामी गिरिधरलालजी । (शुध्दाद्वैतमत) 12) I 13) वृत्तितोषिणी- ले. सनातन गोस्वामी (गौडीय वैष्णव मत) 14) क्रमसंदर्भ- ले. जीवगोस्वामी (गौडीय वैष्णव मत ) 15) बृहत्क्रमसंदर्भ ले जीवगोस्वामी (गौडीय वैष्णव मत) 16) वैष्णवतोषिणी- ले. जीवगोस्वामी ( श्रीधर मत ) 17) सारार्थदर्शिनी - ले. विश्वनाथ चक्रवर्ती, ई. 18 वीं शती । 18) वैष्णवानन्दिनी - ले. बलदेव विद्याभूषण। मायावाद एवं विशिष्टाद्वैतवाद का खंडन । 19) अन्वितार्थप्रकाशिका - ले. गंगासहाय। 19 वीं शती । इत्यादि। www.kobatirth.org - भागवत - विजयवाद ले. रामकृष्णभट्ट । वल्लभ संप्रदाय या पुष्टिमार्ग की मान्यता के अनुसार भागवत की महापुराणता के पक्ष में लिखित पूर्ववर्ती 5 लघु ग्रंथों से, प्रस्तुत ग्रंथ, प्रमाण एवं युक्ति के प्रतिपादन में श्रेष्ठ है। यह प्रमेयबहुल कृति है । इसमें प्रमेयों पर बड़ी गंभीरता के साथ विचार किया गया है । इस रचना से ग्रंथकार द्वारा पुराणों के गंभीर मंथन तथा अनुशीलन का परिचय मिलता है। ग्रंथ की पुष्पिका से स्पष्ट होता है। कि ग्रंथकार रामकृष्णभट्ट, आचार्य वल्लभ के वंशज थे। संकेत दिया गया है, कि प्रस्तुत ग्रंथ की रचना 1924 वि. में की गई। तदनुसार प्रस्तुत रचना अधिक प्राचीन न होने पर भी विर्मर्श की दृष्टि से बड़ी सराहनीय है। इसी प्रकार के अन्य 5 पूर्ववर्ती लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन, "सप्रकाश तत्त्वार्थ दीप निबंध" के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट-रूप में, मुंबई से 1943 ई. में किया गया है। भागवतामृतम् ले. सनातन गोस्वामी चैतन्य मत के मूर्धन्य आचार्य। इस ग्रंथ में भागवत के सिद्धान्तों का सुंदर विवरण किया गया है | 1 । भागवतोद्योत ले. चित्रभानु भागविवेक (धनभागविवेक) ले. रामजित्। पिताश्रीनाथ। यह ग्रंथ मिताक्षरा पर आधारित है। लेखक ने स्वयं 234 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - इस पर मितवादिनी नामक टीका लिखी है 1 भागवृत्ति भागवृत्ति के लेखक के विषय में मतभेद है। श्रीपतिदत्त के मतानुसार विमलमति, शिवप्रसाद भट्टाचार्य के मतानुसार इन्दुमित्र और अन्यों के मतानुसार 9 वीं शती के भर्तृहरि इसके लेखक माने जाते हैं। 13 वीं शती के श्रीधर (भागवत के टीकाकार) को इस का लेखक अथवा टीकाकार माना गया है। इसके उद्धारण अनेक ग्रंथों में मिलते हैं जिन का संकलन प्रकाशित हुआ है। अष्टाध्यायी की यह वृत्ति पातंजल महाभाष्य पर आधारित है। भागवृत्ति पर श्रीधर नामक पंडित की व्याख्या है। भागीरथीपू ले- अच्युत नारायण मोडक । ई. 19 वीं शती । नासिक निवासी इस चंपू काव्य में 7 मनोरथ (अध्याय) हैं। इनमें राजा भगीरथ की वंशावली व गंगावतरण की कथा वर्णित है। इसका प्रकाशन गोपाल नारायण कंपनी मुंबई से हो चुका है। इस चंपू-काव्य का गद्य भाग, पद्य-भाग की अपेक्षा कम मनोरम है। 2 ) ले. - अनन्तसूरि । ई. 19 वीं शती । भाग्यमहोदयम् (नाटक) ले. जगन्नाथ । रचनाकाल 1795 ईसवी सन 1912 में भावनगर से प्रकाशित। इसके पात्र हैं काव्यशास्त्र के पारिभाषिक शब्द । प्रथमांक में मगण-यगणादि पात्र अपनी परिभाषा देकर राजा बखतसिंह का यशोगान करते है द्वितीयाङ्क में अर्थालंकार भी वही करते हैं। भाट्टचिंतामणि ले. विश्वेश्वरभट्ट (गागाभट्ट काशीकर ) ई. 17 वीं शती। पिता दिनकरभट्ट । वाराणसी-निवासी । विषयमीमांसाशास्त्र 2 ) ले. वांछेश्वर. भास्करराय। ई. 18 वीं शती । विषय - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले. दिनकरभट्ट । ई. 16 वीं शती । भाट्टजीविका - ले. मीमांसा । भाइदिनकरमीमांसा भाट्टदीपिका ले. खंडदेव मिश्र । कुमारिल (भाट्ट) मत के अनुयायी । ग्रंथ का विषय है शब्दबोध । नैयायिक प्रणाली पर रचित होने के कारण इसकी भाषा दुरूह हो गई है। इस ग्रंथ में लेखक ने प्रसंगानुसार भावार्थ व लकारर्थ प्रभृति विषयों का विवेचन, मीमांसाक दृष्टि से किया है। इसमें खंडदेव मिश्र की प्रौढता व्यक्त हुई है। इस पर 3 टीकाएं प्राप्त हुई है- 1) शंभुभट्ट विरचित "प्रभावती", भास्करराय कृत "भाट्टचंद्रिका" और (3) वांछेश्वरयज्वा प्रणीत "भाट्ट-चिंतामणि" । For Private and Personal Use Only - - भानुप्रबन्ध (प्रहसन ) ले. वेंकटेश्वर । ई. 18 वीं शती। कथावस्तु- नायिका के साथ कामुकता का सम्बन्ध होने पर दण्डित नायक, राजपुरुषों द्वारा पत्नी के पास पहुंचाया जाता है। सन 1890 में मैसूर से प्रकाशित । भानुमती - ले. चक्रपाणि दत्त। सुश्रुत पर टीका। ई. 11 वीं शती । भानोपनिषत्प्रयोगविधि ले. भास्करराय प्रयोगविधि नामक - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीका सहित भानोपषित् यह इस ग्रंथ का स्वरूप है। भामह-विवरणम् - ले.- उद्भट (भट्टोभट) अलंकार शास्त्र के आचार्य उद्भट काश्मीर-नरेश जयापीड के सभापंडित थे, और उनका समय 8 वीं शती का अंतिम चरण और 9 वीं शती का प्रथम माना जाता है। यह भामह कृत "काव्यालंकार" की टीका है जो संप्रति अनुपलब्ध है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ इटली से प्रकाशित हो गया है पर भारत में दुर्लभ है। इस ग्रंथ का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज ने अपनी "लघुविवृत्ति" में किया है। अभिनवगुप्त, रुय्यक तथा हेमचंद्र भी अपने ग्रंथों में इसका संकेत करते हैं। भामाविलास (काव्य)ले.- गंगाधरशास्त्री मंगरूळकर । नागपुरनिवासी। भामिनीविलास टीका - ले.- अच्युतराय मोडक। नासिक निवासी। भारतचम्पू - कवि- राजचूडामणि (रत्नखेट के पुत्र) ई. 17 वीं शती । इस पर घनश्याम (ई. 18 वीं शती) की टीका है। भारतचम्पू - ले.- अनंतभट्ट। ई. 11 वीं शती। इसमें संपूर्ण "महाभारत" की कथा कही गई है। श्लोकों की संख्या 1041 और गद्यखंडों की संख्या 200 से उपर है। यह वीर रस प्रधान काव्य है। इसका प्रारंभ राजा पाण्डु के मृगया वर्णन से होता है। प्रस्तुत भारतचंपू पर मानवदेव की टीका प्रसिध्द है जिसका समय 16 वीं शती है। पं. रामचंद्र मिश्र की हिन्दी टीका के साथ इसका प्रकाशन चौखंबा विद्याभवन से 1957 ई. में हो चुका है। भारतचंपूतिलक - ले.-लक्ष्मणसूरि । ई. 17 वीं शती। पितागंगाधर। माता-गंगांबिका। प्रस्तुत चंपू-काव्य में "महाभारत" की उस कथा का वर्णन है, जिसका संबंध पांडवों से है। पांडवों के जन्म से लेकर युधिष्ठिर के राज्य करने तक की घटनाएं इसमें वर्णित हैं। ग्रंथ के अंत में कवि ने अपना परिचय दिया है। भारततातम् (नाटक) - ले.-डॉ. रमा चौधुरी । अंकसंख्या-छः। विषय-महात्मा गांधी का चरित्र। बापू शताब्दी महोत्सव के अवसर पर भारत शासन के शिक्षा मन्त्रालय के तत्त्वावधान में अभिनीत। भारतदिवाकर - सन् 1907 में अहमदाबाद से श्री नारायणशंकर और हरिशंकर के सम्पादकत्व में संस्कृत-गुजराती में यह पत्रिका प्रकाशित हुई। इसमें धर्म और विज्ञान विषयक लेख प्रकाशित होते थे। भारतपथिक (रूपक) - ले.-डॉ. रमा चौधुरी। दृश्य संख्या-5। विषय- राजा राममोहन राय की चरित गाथा। प्रमुख घटनाएं हैं : सती प्रथा का उन्मूलन, अंग्रेजी शिक्षा की प्रेरणा, ब्राह्मसमाज की स्थापना, विदेश यात्रा तथा ब्रिस्टल में स्वर्गवास। भारतपारिजात - ले.-स्वामी भगवदाचार्य। इस महाकाव्य में महात्मा गांधी का जीवन-चरित तीन भागों में वर्णित है। प्रथम भाग में 25 सर्ग हैं, जिनमें गांधीजी की दांडी यात्रा तक की कथा है। द्वितीय भाग में 1942 के भारत छोडो आंदोलन तक की कथा 29 सर्गों में वर्णित है। तृतीय भाग के 21 सर्गों में नोआखाली तक की यात्रा का उल्लेख है। इसमें कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है गांधीदर्शन को लोकप्रिय बनाना । भाषा की सरलता इस की विशेषता है। भारतभूवर्णनम् - ले.-म.म.टी. गणपति शास्त्री। विषय-भारत इतिहास का वर्णन। भारतयुद्धचम्पू - ले.-नारायण भट्टपाद । भारत-राजेन्द्र (रूपक) - ले.-यतीन्द्रविमल चौधुरी । विषय-राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद की जीवनगाथा। कलकत्ता वि.वि. में प्रथम स्थान पाना, स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेना, नमक कानून का भंग, हिन्दू-मुस्लिम एकता हेतु प्रयास, सेंट स्टॅसवर्ग के अधिवेशन में उन पर आक्रमण, भागलपुर आन्दोलन, छपरा जेल की घटनाएं और अन्त में राष्ट्रपति बनने तक के प्रसंगों का चित्रण। भारतलक्ष्मी (रूपक) - ले.-यतीन्द्रविमल चौधुरी। सन् 1967 में प्रकाशित। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जीवनचरित्र । अंकसंख्या-दस। भारतवाणी - सन् 1955 में पुणे से डॉ. ग.वा. पळसुले के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। वसंत अनंत गाडगील उनके सहयोगी संपादक थे। आगे चलकर इसके संपादन का भार डॉ. वसंत गजानन राहूरकर पर आया। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य 5 रु. था। यह पत्रिका सचित्र थी। इसमें उच्च कोटि के निबन्ध, कविताएं, कहानियां, अनूदित साहित्य, देश-विदेश के समाचारों का समालोचन आदि का प्रकाशन किया जाता। इसके कुछ विशेषांक भी प्रकाशित हुए। भारतविजयम् (नाटक) - ले.- मथुराप्रसाद दीक्षित। रचना सन् 1937 में। सोलन की राजसभा में उसी वर्ष अभिनीत । शासन द्वारा जप्त होने पर बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रकाशित हुआ। अंकसंख्या-सात। इसमें 18 वीं शती में अंग्रेजों के पदार्पण से आगे की घटनाएं निबद्ध हैं। संक्षिप्त कथा- इस नाटक में सात अंक हैं। प्रथम अंक में गोरे लोग भारत में आकर व्यापार करने के लिए अपनी कंपनी स्थापित करते हैं और भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं। द्वितीय अंक में क्लाइव बंगाल के अधिपति सिराज के सेनापति मीर जाफर को, सिराज के विरुद्ध भडका कर उससे एक संधिपत्र लिखवाता है। तृतीय अंक में मीर कासिम द्वारा इस संधि का विरोध करने पर कंपनी के लोग मीर कासिम के विरुद्ध युद्ध छेड उसे पराजित कर देते हैं। चतुर्थ अंक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड 1235 For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में हेस्टिंज नन्दकुमार के मुकदमे के पत्र को छुपाकर उसे फांसी दिलाता है। पंचम अंक में पाण्डे और बाजपेयी एक गोरे को गोली से उडा देते हैं तथा झांसी की रानी, तात्या टोपे इत्यादि सब मिलकर विद्रोह कर देते हैं किन्तु गोरे लोग दबा देते हैं। झांसी रानी भी मारी जाती है। षष्ठ अंक में ह्यूम कांग्रेस की स्थापना करता है। तिलक, खुदीराम, गांधी इस कांग्रेस के सदस्य बनकर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करते हैं। वे गोरे लोगों की नौकरी शिक्षा, विदेशी वस्त्र सब का बहिष्कार करते हैं। सप्तम अंक में गांधीजी के अहिंसावादी आन्दोलन से प्रभावित होकर गोरे लोग भारत को स्वतंत्र कर देते हैं। इस नाटक में तीन अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें विष्कम्भक और 2 चूलिकाए हैं। भारतविवेक . ले.- यतीन्द्रविमल चौधुरी। सन 1961 में, विवेकानन्द की जन्म शताब्दी पर रचित। 2-11-1962 को विश्वरूप थिएटर में अभिनीत। 1963 में "प्राच्यवाणी" से प्रकाशित। बंगाल, दिल्ली तथा पाण्डिचेरी में अनेक बार अभिनीत । अंकों के स्थान पर "दृश्य" शब्द का प्रयोग है। दृश्यसंख्या-बारह। संगीत नृत्य से भरपूर । ऐतिहासिक तथा जीवनचरित्रात्मक नाटक। विवेकानन्द की संपूर्ण जीवनगाथा वर्णित है। भारतवीरम् - ले.- डॉ. रमा चौधुरी। छत्रपति शिवाजी महाराज का चरित्र इस नाटक का विषय है। भारतश्री - सन 1940 में महादेवशास्त्री के सम्पादकत्व में काशी से इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इसका वार्षिक मूल्य केवल एक रु. था। इसमें सभी विषयों के उच्चस्तर के लेख प्रकाशित होते थे। पत्रिका संस्कृतज्ञों के जागरण युग का बोध कराती है। भारतसंग्रह - ले.- लक्ष्मणशास्त्री। जयपुर-निवासी। विषयभारत का इतिहास। भारतसावित्री - महाभारतान्तर्गत एक स्तोत्र। रचयिता- व्यास महर्षि । इसके पठन से महाभारत के श्रवण-पठन की फलप्राप्ति होती है। पारंपारिक प्रातःस्मरण के ग्रंथों में इसका समावेश है। यह स्तोत्र इस प्रकार है महर्षिभगवान् व्यासः कृत्वमा संहितां पुरा । श्लोकैश्चतुर्भिर्धमात्मा पुत्रमध्यापयाच्छुकम्।।1।। मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ।।2।। हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।।3।। ऊर्ध्वबाहुर्विशैम्येष न च कश्चिश्रृणोति मे।। धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ।।4।। न जातु कामान भयान लोभाद धर्मं त्येजेज्जीवितस्यापि हेतोः । धमोनित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ।। इमां भारतसावित्री प्रातरुत्थाय यः पठेत् स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति।। अर्थ- भगवान् व्यास महर्षि ने भारत संहिता निर्माण की तथा उस धर्मात्मा ने चार श्लोकों में वह शुक नामक अपने पुत्र को सिखाई। हजारों मातापिता तथा सैकड़ों भार्याओं तथा संतानों का संसार में अनुभव लेना पडता है। वे जाते हैं जायेंगे तथा नये आयेंगे। हर्ष के हजारों तथा भय के सैकड़ों स्थान हैं। वे हर दिन मूढ मनुष्य को भावाभिभूत करते हैं, परंतु पण्डितों को नहीं करते। मैं यहां भुजाये ऊपर उठाकर आक्रोश कर रहा हूं, परंतु कोई सुनता ही नहीं। जिस धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, उसका मनुष्य क्यों नहीं आचरण करते। काम, भय तथा लोभ से धर्म का त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। जीवित रहने के लिये भी धर्म त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। क्योंकि धर्म नित्य है तथा सुख दुःख अनित्य हैं। जीव नित्य है, उसका हेतु अनित्य है। प्रातःकाल उठकर इस भारतसावित्री का जो पाठ करेगा, उसे भारत के श्रवण पठन का फल प्राप्त होकर परब्रह्मपद की प्राप्ति होगी। भारतसधा - सन 1932 में पूणे मे इस द्वैमासिक प्रत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सम्पादक मण्डल में महामहोपाध्याय वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर, वेदान्तवागीश श्रीधरशास्त्री पाठक, डॉ. वासुदेव गोपाल परांजपे, प्रो. शंकर वामन दांडेकर, श्री. शैलाद्रि गोविंद कानडे और पुरुषोत्तम गणेश शास्त्री आदि विद्वान् थे। भारतसुधा संस्कृत पाठशाला की ओर से इसका प्रकाशन होता था। भारतस्य संविधानम्- ले.- एम.एम. दवे.। स्वतंत्र भारत के संविधान (भाग 1 से 4 तक) का पद्यबद्ध अनुवाद मूल अंग्रेजी की साथ मुद्रित किया है। इसमें अनुष्टुप् के साथ अन्य वृत्तों में अनुवाद की रचना की गई है। पृष्ठसंख्या 93 । नवजीवन मुद्रणालय अहमदाबाद में मुद्रित । श्री. दवे मुंबई मे अधिवक्ता हैं। आपने "चार्टर ऑफ दि युनाईटेड नेशनस्' और "दि स्टॅट्यूट ऑफ इंटर्नेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस्' का भी संस्कृत में अनुवाद किया है। आप की स्फुट रचनाएं संस्कृत पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। 2) भारत शासन की ओर से नियुक्त विद्वत्समिति द्वारा संविधान का संस्कृत अनुवाद प्रकाशित। (भारत की सभी भाषाओं में संविधान के अनुवाद हुए हैं। भारतस्य सांस्कृतिको निधिः - ले.-डॉ. रामजी उपाध्याय । भारतीय संस्कृति विषयक विद्वत्तापूर्ण निबन्ध ग्रंथ । भारतहृदयारविन्दम् - ले.- डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी। रचना सन् 1959 में। सर्वप्रथम अभिनय पाण्डिचेरी के अरविन्दाश्रम में। अरविन्द घोष के जीवन पर लिखा पहला नाटक। अंकसंख्या-पांच। गीतों का बाहुल्य । 236/ संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगी अरविन्द का मृणालिनी देवी के साथ विवाह, उनके देशसेवा व्रत लेकर पति के अनुरूप बनना, बन्धु वारीन्द्र का देशसेवा का संकल्प, सन 1902 के सूरत अधिवेशन में अरविन्दजी द्वारा पूर्ण स्वातंत्र्य की घोषणा, मानिकतला तथा मुजफरपुर प्रकरण में अरविन्दजी का कारावास, चित्तरंजन दास द्वारा उनकी निःशुल्क पैरवी करना, पाण्डिचेरी प्रस्थान, माता मीरा का फ्रान्स से आगमन, स्वतंत्रता के समय भी देश के विभाजन से उन्हें होने वाली व्यथा और पाण्डिचेरी आश्रम में धर्मपताका का फहरना आदि प्रसंगों का चित्र इस नाटक में है। भारताचार्य - ले.- डॉ. रमा चौधुरी। सन् 1966 में राष्ट्रपति भवन में अभिनीत। निर्देशन लेखिका द्वारा। राष्ट्रपतिद्वारा "प्राच्यवाणी' को रु. 1500/- इसके अभिनय पर पुरस्काररूप में प्राप्त । विषय - राष्ट्रपति राधाकृष्णन् का चरित्र । भारतान्तरार्थ ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय। आंध्र निवासी। भारती- (मासिकी पत्रिका)- सन 1950 में भारती भवन, गोपालजी का रास्ता, जयपुर से सुरजनदास स्वामी के संपादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संचालक थे पं. गिरिराज शर्मा। चार वर्षों बाद संपादक का दायित्व भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने संभाला। इस पत्रिका में भारतीय वीर पुरुषों के चित्रों के अलावा काव्य, नाटक, कथा और विनोदी साहित्य का प्रकाशन होता है। इसके अलावा संस्कृत सम्मेलनों का विवरण, भारतीय उत्सवों की सूचना तथा संक्षिप्त समाचार भी होते हैं। यह प्रति पूर्णिमा को प्रकाशित होती है। भारती गीति- ले.- हेमचन्द्र राय कविभूषण। जन्म-1872 । भारतीयम् इतिवृत्तम्- ले.- रामावतार शर्मा । विषय - भारत का इतिहास। भारतीय विद्याभवन बुलेटिन - सन् 1947 में मुबंई से जयंतकृष्ण हरिकृष्ण दवे के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। समाचार प्रधान इस पत्रिका में संस्कृत विश्वपरिषद् शाखाओं के समाचार, सुभाषित, संस्कृत भाषण, संस्थाओं के विवरण आदि प्रकाशित होते रहे। भारती विद्या - संपादक- स्वामी चिन्मयानन्द। फतेहगढ़ से प्रकाशित मासिक पत्रिका। 2) सन् 1937 में भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह शोध-निबन्ध प्रधान पत्रिका है। इसमें गवेषणा सामग्री, संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथों तथा समालोचनाएं आदि का प्रकाशन होता है। भारतीविलास - शेक्सपियर कृत "कॉमेडी ऑफ एरर्स'' का अनुवाद। अनुवाद कर्ता श्री. शैल दीक्षित। भारतीस्तव - ले.-ब्रह्मश्री ति. वि. कपालीशास्त्री। योगी अरविन्द के राष्ट्रवादानुसार स्वातंत्र्य प्राप्तिदिन (15 अगस्त 1947) में रचित भारतमाता का स्तवन । (योगिराज अरविन्द का जन्मदिन 15 अगस्त) इस में श्लोकरचना 7 भिन्न छन्दों में है। भारतोद्योत - ले.- चित्रभानु । राष्ट्रीयभावनापरक काव्य । भारतोपदेशक - सन् 1890 में मेरट से संस्कृत-हिन्दी में प्रकाशित इस मासिक पत्र का सम्पादन ब्रह्मानंद सरस्वती करते थे। इसमें सामाजिक और धार्मिक निबन्ध प्रकाशित होते थे। भार्गवचम्पू - ले.- रामकृष्ण । भार्गवार्चनदीपिका - ले.- सावाजी (या सम्बाजी या प्रतापराज) अलवर-निवासी। भाल्लवी शाखा (सामवेदीय)- ले.-भाल्ल्लवी शाखा की संहिता अभी तक उपलब्ध नहीं हुई। सुरेश्वर कृत बृहदारण्यक भाष्य वार्तिक में भाल्नवी शाखा की एक श्रृति उल्लिखित है। वह श्रुति इस प्रकार है: "अतः मन्यस्य कर्माणि सर्वाण्यात्मावबोधतः । हत्वाविद्यां धियैवेयात्तद्विष्णोः परमं पदम्।। विद्वानों का तर्क है कि इस शाखा का ब्राह्मण विद्यमान था । भारतधर्म- इस मासिक पत्र का प्रकाशन 1901 मे चिदम्बरम से हुआ। धर्मप्रचार इसका उद्देश्य था। भारद्वाज (या भरद्वाज) संहिता - श्लोक-40001 4 अध्यायों में पूर्ण। विषय- न्यासोपदेश विस्तार से वर्णित। भारद्वाजगार्ग्य-परिणयप्रतिषेध-वादार्थ - विषय- भारद्वाज एवं गार्ग्य गोत्र वालों में विवाह का निषेध । भारद्वाज-श्रौतसूत्रम् - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के छह सूत्रों में एक। इस सूत्र का उल्लेख हिरण्यकेशी सूत्र के टीकाकार महादेव ने अपनी टीका की प्रस्तावना में किया है। यह सूत्र आपस्तंब सूत्र के पूर्व रचा गया है। रचना काल ई. स. पूर्व 600 वर्ष। सन् 1935 में डॉ. रघुवीर ने इस सूत्र का कुछ अंक प्रकाशित किया था। पुणे निवासी डॉ. चिं. ग. काशीकर ने इस सूत्र का गहन अध्ययन कर सन 1964 में इसकी आवृत्ति प्रकाशित की । इस ग्रंथ में 14 अध्याय हैं। भारद्वाजस्मृति - इस पर महादेव एवं वैद्यनाथ पायगुण्डे (नागोजी भट्ट के शिष्य) की टीका है। भावचषक - ओमरखय्याम की रुबाइयों का अनुवाद। ले. डॉ. सदाशिव अम्बादास डांगे। वसन्ततिलका वृत्त, केवल 66 रूबाइयां, हिन्दी गद्यानुवाद सहित खामगांव (विदर्भ) से प्रकाशित। डॉ. डांगे मुंबई विद्यापीठ में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे। भावचिन्तामणि - (नामान्तर-सन्तानदीपिका) - छह पटलों में पूर्ण है। विषय- पुत्र की उत्पत्ति में प्रतिबन्धक शाप के मोचक का प्रतिपादन तथा पुत्रोत्पादक ग्रहयोग का वर्णन । भावचूडामणि - ले.- विद्यानाथ। गुरु-रामकण्ठ। श्लोकलगभग-234001 विषय- दिव्य, वीर और पशु भाव के संकेत और उनके भेद। दिव्य, वीर और पशु क्रम से ब्रह्म की संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड/237 For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - प्राप्ति कराने वाले भावों के लक्षण भी कहे गये हैं। भावतत्त्वप्रकाशिका ले. चित्सुखाचार्य। ई. 13 वीं शती । भावदीपिका ले- अच्युत धीर । पितामह- पुष्कर। पिताजनार्दन । विषय सकल साधनाओं में भाव की आवश्यकता है। भाव को जाने बिना किसका किस कर्म में अधिकार है। यह जानना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में सब लोग भ्रष्ट होकर जाति, धन आदि सभी का वेदविरुद्ध रूप में उपयोग करते हैं। इसलिये बडी सावधानी के साथ भाव का इसमें निरूपण किया है। दिव्य, वीर और पशु के क्रम से भाव तीन प्रकार के होते हैं। उन भावों को क्रम से उत्तम मध्यम और अधम जाति के अन्तर्गत माना गया है। इसमें भाव के निर्णय से ही साधक सिद्धिलाभ करता है, यह विचार करते हुए ब्रह्मज्ञान से ही अभीष्ट सिद्धि हो सकती है यह निरूपित किया है। 2) ले नृसिंह पंचानन न्यायसिद्धान्तमंजरी की टीका। भावनाद्वात्रिंशतिका ले. अमितगति द्वितीय। जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती । - - भावनापुरुषोत्तमम् (प्रतीकनाटक) ले श्रीनिवास दीक्षित । ई. 16 वीं शती । वेङ्कटनाथ के वासन्तिक महोत्सव के अवसर पर इसका अभिनय हुआ। महाराज सुरभूपति की इच्छानुसार रचना हुई। यह प्रतीक नाटक है। इसमें प्रधान रस शृंगार है। बीच बीच में अन्य रसों का भी समावेश है। जीवदेव की कन्या भावना, पुरुषोत्तम (भगवान् कथावस्तु विष्णु) से प्रेम करती है पुरुषोत्तम गरुड पर बैठकर मृगया के बहाने, भावना से मिलने निकलते हैं। हिरन पकड़ा जाता है पुरुषोत्तम आगे बढने पर सिद्धाश्रम पहुंचते हैं, जहां नायिका भी सखी के साथ हैं। भावना वहां तुलसी का स्तवन कर रही है। विष्णु उसको चतुर्भुज, शंख-चक्र गदा पद्मधारी रूप में दर्शन देते हैं। इतने में दूर से विदूषक का "त्राहि माम्" स्वर सुनाई पड़ता है उसे बचाने पुरुषोत्तम चले जाते हैं और अपनी प्रेमाकुल अवस्था का वर्णन करते हैं। सिद्धाश्रम के निकट मानसोद्यान में योगविद्या ऐसे उपदान प्रस्तुत करती है, कि भावना पुरुषोत्तम का मिलन हो। भावना वहां अदृश्य रूप में उपस्थित है। पुरुषोत्तम उसे ढूंढने लगते हैं। अन्त में जब वे चतुभुर्ज रूप धारण करते हैं, तब नायिका प्रकट होती है। कांचीपुर में स्वयंवरसभा का आयोजन होता है सभी राजा और देवता स्वयंवर में आते हैं, किन्तु पुरुषोत्तम नहीं। भावना सभी को अस्वीकार करती है, अन्त में पुरुषोत्तम पधारते हैं। भावना उनके गले में वरमाला डालती है। ब्रह्मा मंगलाष्टक पढते हैं और विवाह सम्पन्न होता है । www.kobatirth.org भावनापद्धति - ले. पद्मनन्दी। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती । भावनाप्रयोग ले- भास्करराय । श्लोक - 340 । 238 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - भावनाविवेक मीमांसा दर्शन । भावनिरूपणम् इसमें निरुत्तरतन्त्र तथा कुब्जिकात के उद्धरण हैं। रामगीत सेन की तन्त्रचन्द्रिका (जो तन्त्रसंग्रह है ) का संभवतः यह एक भाग है। भावनिर्णय ले. शंकराचार्य। श्लोक 2001 भावनोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् । भावना से अभिप्राय हे अमूर्त का ध्यान इस उपनिषद् में मानवी शरीर के विविध अवयवों का श्रीचक्र के विभिन्न अंगोपांगों के साथ मेल दिखाया गया है तथा श्रीचक्र की मानसपूजा का विधान बताया गया है। इस उपनिषद् में तांत्रिक तथा मानसिक पूजा का समन्वय किया गया है। इसमें कहा गया है कि कुंडलिनी शक्ति को दुर्गा मान कर उसकी भाव पूजा करने से शक्ति का फल प्राप्त होता है तथा वह शक्ति भक्तों की रक्षा करती है। इस विधि से साधना करने वाले साधक को "शिवयोगी" कहते हैं। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ले. मंडन मिश्र । ई. 7 वीं शती । विषय - For Private and Personal Use Only भावप्रकाश ले. भाव मिश्र । पिता श्रीमिश्र लटक । इस ग्रंथ की गणना, आयुर्वेद शास्त्र के लघुयत्री के रूप में होती है। "भावप्रकाश" की एक प्राचीन प्रति, 1558 ई. की प्राप्त होती है, अतः इसका रचना काल इसी के लगभग ज्ञात होता है। इसमें फिरंग रोग का वर्णन होने के कारण विद्वानों ने इसका रचनाकाल 15 वीं शताब्दी के लगभग माना है। फिरंग रोग का संबंध पोर्चुगीज लोगों से है। इस ग्रंथ के 3 खंड हैं, पूर्व, मध्य व उत्तर । प्रथम (पूर्व) खंड में अश्विनीकुमार तथा आयुर्वेद की उत्पत्ति का वर्णन, गर्भ प्रकरण, दोष व धातु वर्णन, दिनचर्या, ऋतुचर्या, धातुओं का जारण, मारण, पंचकर्म विधि आदि का विवेचन है। मध्यम खंड में ज्वरादि की चिकित्सा था अंतिम (उत्तर) खंड में वाजीकरण अधिकार है। इस ग्रंथ में लेखक ने समसामयिक प्रचलित सभी चिकित्सा विधियों का वर्णन किया है। इस ग्रंथ का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखंबा विद्याभवन से हो चुका है। हिंदी टीका का नाम विद्योतिनी टीका है। 2) ले. पिंगल । भाव प्रकाशिका ले. कृष्णचंद्र महाराज पुष्टिमार्गीय सिद्धांतानुसार ब्रह्मसूत्र पर लिखी गई एक महत्त्वपूर्ण वृत्ति । यह वृत्ति मात्रा में अणुभाष्य से भी बढकर है। संभवतः इस वृत्ति की रचना में कृष्णचंद्र महाराज के सुयोग्य शिष्य पुरुषोत्तमजी का सहयोग रहा है। - 2) ले. चित्सुखाचार्य । ई. 13 वीं शती । 3) ले नृसिंहाश्रम ई. 16 वीं शती भावभावविभाविका (टीकाग्रंथ) ले. - रामनारायण मिश्र । श्रीभागवत के रास पंचाध्यायी की सरस टीका। प्रस्तुत टीका Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई. 11 शास्ति इस विसेना के उपोद्घात में, टीकाकार ने अपना परिचय दिया है। प्राचीन है, जिसके तात्पर्य का विनिश्चय श्रीधर स्वामी ने जितनी निष्ठा आचार्यों एवं टीकाकारों में शंकराचार्य, श्रीधर, चैतन्य, जीव, एवं विद्वत्ता से किया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। रूप, सनातन प्रभृति का सादर उल्लेख किया है, और विशेष ___ भावार्थ-दीपिका शंकराचार्यजी के अद्वैत की अनुयायिनी है, बात यह कि सिक्ख गुरु की वंदना की है। परंतु भिन्न मत होने पर भी चैतन्य संप्रदाय का आदर. इसके (वंदे श्रीनानक-गुरून् शास्त्रबोधगुरोर्गुरुम् । महत्त्व तथा प्रामाण्य का पर्याप्त परिचायक है। इसकी उत्कृष्टता गुरुशिष्यतया ख्याता यच्छिष्या एव केवलम्।। के विषय में नाभादासजी ने अपने 'भक्त-माल' में निम्न आख्यान प्रस्तुत टीका भागवत के श्लोकों में अंतर्निहित भावों का दिया है : विभासित करने वाली अत्यंत रसमयी व्याख्या है। राधा की श्रीधर के गुरु का नाम परमानंद था जिनकी आज्ञा से परदेवतारूपेण वंदना की गई है, और उन्हींका प्रामुख्य प्रदर्शित काशी में रहकर ही इन्होंने भावार्थदीपिका की रचना की। किया गया है। टीका की शब्दसंपत्ति विपुल है। भाषा में इसकी परीक्षा के निमित्त यह ग्रंथ बिंदुमाधवजी की मूर्ति के माधुर्य एवं प्रवाह है। शब्दों के अनेकार्थ के लिये, विभिन्न सामने रख दिया गया। एक प्रहर के पश्चात् मंदिर के पट कोषों का आश्रय लिया गया है। रास के रस का आवेदन खोलने पर लोगों ने आश्चर्य से देखा कि बिंदुमाधवजी ने इस कराने में प्रस्तुत टीका समर्थ है। टीका स्वयंपूर्ण है। शाब्दिक व्याख्या-ग्रंथ को उपर रखकर, उस पर अपनी उत्कटता सूचक चमत्कार तथा रसमयी स्निग्ध व्याख्या भी प्रस्तुत टीका की मुहर लगा दी। तबसे इसकी ख्याति समस्त भारत में फैल विशेषता है। यह टीका, “अष्टटीका-भागवत" के संस्करण में गई (छप्पय 440) मराठी नाथभागवत के रचयिता एकनाथ प्रकाशित हो चुकी है। महाराज ने अपने ग्रंथ के आरंभ में श्रीधर को सादर प्रणाम किया है। भावविलास - ले.- रुद्र न्यायवाचस्पति। ई. 16 वीं शती। ले.- रामानन्द। ई. 17 वीं शती मानसिंह के पुत्र भावसिंह की प्रशस्ति इस काव्य का विषय है। ले.-अनन्ताचार्य। ई. 18 वीं शती। भावसंग्रह - देवसेन (जैनाचार्य) ई. 10 वीं शती। ले.-ब्रह्मानन्द। आनंदलहरी स्तोत्र की टीका । भावांजलि - कवयित्री श्रीमती नलिनी शुक्ला "व्यथिता" ले.-श्रीरामानन्द वाचस्पति भट्टाचार्य। बीजव्याकरण महातंत्र की एम.ए.पीएच.डी.। आचार्य नरेन्द्रदेव महिला महाविद्यालय में टीका। संस्कृत प्राध्यापिका। प्रस्तुत ग्रंथ में कवयित्री द्वारा रचित 21 ले.-गौरीकान्त सार्वभौम। तर्कभाषा की टीका । भावप्रधान काव्यों का संकलन किया है। अपने इन काव्यों की सुबोध संस्कृत टीका भी लेखिका ने लिखी है, जिसमें भावार्थप्रदीपिका-प्रकाश (वंशीधरी टीका) - ले.-वंशीधर अलंकारों का भी निर्देश सर्वत्र किया है। प्रकाशक शक्तियोगाश्रम, शर्मा । ई. 19 वीं शती (उत्तरार्ध)। श्रीमद्भागवत की टीका। नानाराव घाट, छावनी कानपुर। प्रकाशन वर्ष- 1977। डॉ. श्रीराधारमणदास गोस्वामी के "दीपिका-दीपन" द्वारा श्रीधरी के नलिनी शुक्ला द्वारा लिखित योगशास्त्र विषयक कुछ ग्रंथ तथा भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति न हुई देख, श्री. वंशीधरशर्मा ने स्वरूपलहरी, नीरवगान नामक काव्यसंग्रह और कथाम्बरा नामक प्रस्तुत विशालकाय, विशद-भावापन्न, प्रौढ पांडित्यसंपन्न व्याख्या संस्कृत कथासंग्रह भी प्रकाशित हुआ है। लिखकर श्रीधरी (भावार्थ-दीपिका) को सचमुच प्रकाशित भावार्थदीपिका (श्रीधरी)- ले.-श्रीधरस्वामी। ई. 14 वीं किया। श्रीधरी बडी गूढ तथा अनेकत्र इतनी स्वल्प है कि शती (पूर्वार्ध)। श्रीमद्भागवत की टीका भावार्थदीपिका निश्चय - मूल तात्पर्य को समझना नितांत दुष्कर कार्य है। इस काठिन्य ही भागवत के भाव तथा अर्थ की विद्योतिका टीका है। उसी के परिहार हेतु, "भावार्थप्रदीपिका-प्रकाश (वंशीधरी) सर्वथा के आधार पर भागवत-पुराण का भाव खलता और खिलता जागरूक है। वस्तुतः वंशीधरी ही श्रीधरी के श्रृंगारिक दशम है। भावार्थ-दीपिका का वैशिष्ट्य यह है कि यह विशेष विस्तार स्कंध की सर्व प्रथम की गई व्याख्या है। तदनंतर अन्य स्कंधों नहीं करती, भागवतीय पद्यों के कठिन शब्दों की व्याख्या की। प्रस्तुत टीका अलौकिक पांडित्य से पूर्ण तथा प्राचीन स्फुट शब्दों में कर देती है जिससे ग्रंथ का रहस्य विशद आर्ष ग्रंथों के उद्धरणों से परिपुष्ट है। इसमें अनेक शंकाओं रूप से प्रतीत होता है। इस टीका के बिना भागवत के गूढ का समाधान किया गया है। वेद-स्तुति की व्याख्या 5 प्रकार अर्थ को समझना टेढी खीर ही है। इसीलिये अवांतरकालीन से की गई। निःसंदेश यह एक सिद्ध टीका है। सभी टीकाकार इसके ऋणी हैं। यह दूसरी बात है कि अपने भाषा (साप्ताहिक पत्रिका) - जुलाई सन् 1955 से संप्रदाय की मान्यता के विरुद्ध होने पर अनेक व्याख्याकारों पुस्तकाकार "भाषा" नामक पत्रिका का प्रकाशन 6, अरुण्डेलपेट ने यत्र-तत्र श्रीधरी के अर्थ का खंडन किया है, परंतु अधिकांश गुण्टर-2, से आरंभ हुआ। संपादक गो.स. श्रीकाशी वृष्णाचार्य सभी ने इनका अनुगमन किया है। श्रीमद्भागवत अद्वैत ज्ञान और संको. कृष्णसोमयाजी थे। प्रति सोमवार प्रकाशित होने एवं भक्ति रस का मंजुल सांमजस्य प्रस्तुत करने वाला पुराणरत्न वाली इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य पांच रु. था। इसमें संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 239 For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संस्कृत पाठशालाओं का इतिवृत्त तथा अन्य समाचारों का भी प्रकाशन होता था । भाषातन्त्रम् ले आइ. श्यामशास्त्री । भाषापरिच्छेद ले. विश्वनाथ भट्टाचार्य सिद्धान्तपंचानन । वंगदेशीय प्रसिद्ध आचार्य जिनका समय 17 वीं शती है । प्रस्तुत वैशेषिक दर्शन के ग्रंथ की रचना 168 कारिकाओं में हुई है। विषय- प्रतिपादन की स्पष्टता तथा सरलता के कारण इसे अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इस पर महादेवभट्ट भारद्वाज कृत "मुक्तावली - प्रकाश" नामक अधूरी टीका है जिसे टीकाकार के पुत्र दिनकरभट्ट ने "दिनकरी" के नाम से पूर्ण किया है। "दिनकरी" पर रामरुद्र भट्टाचार्यकृत "दिनकरी - तरंगिणी" नामक प्रसिद्ध व्याख्या है जिसे रामरुद्री भी कहा जाता है भाषारत्नम् ले कणाद तर्कवागीश । 1 - - - - 1 भाषावृत्ति से पुरुषोत्तम देव ई. 11 वीं शती के बौद्ध वैयाकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी की यह लघुवृत्ति केवल लौकिक सूत्रों की व्याख्या है। अतः नाम सार्थक है। इसमें अनेक प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण हैं जो अन्यत्र अप्राप्त हैं। इस पर ई. 17 वीं शती में सृष्टिधर लिखित टीका उपलब्ध है। परवर्ती वैयाकरणों ने इस ग्रंथ को प्रमाणभूत माना है। भाषावृत्यर्थं ले सृष्टिधर पुरुषोत्तम देव की भाषावृत्ति की टीका । www.kobatirth.org भाषाशास्त्रसंग्रह ले. - एस. टी. जी. वरदाचारियर । विषयआधुनिक भाषाविज्ञान । - भाषाशास्त्रप्रवेशिनी ले. आर. एस. वेंकटराम शास्त्री विषय । आधुनिक भाषाविज्ञान। भाषिकसूत्रभाष्यम् - ले. अनंताचार्य। ई. 18 वीं शती । भाष्यगाम्भीर्यनिर्णयखण्डनम् - ले. वेंकटराघव शास्त्री । यह शांकर सिद्धान्तों के खण्डन का प्रयास है। भाष्यतत्त्वविवेक ले. नीलकण्ठ वाजपेयी । यह ब्रह्मसूत्र महाभाष्य की व्याख्या है। - - भाष्यप्रकाश ले. - पुरुषोत्तमजी । गुरु- कृष्णचंद्र महाराज । पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ के "अणुभाष्य" पर एक सर्वप्रथम तथा सर्वोत्तम व्याख्यान । प्रस्तुत "भाष्य-प्रकाश" अणु-भाष्य के गूढार्थ का प्रकाशक होने के अतिरिक्त अन्य भाष्यों का तुलनात्मक विवेचक भी है। इस ग्रंथ की यह विशेषता है। प्रस्तुत भाष्यप्रकाश पर कृष्णचंद्र महाराज की ब्रह्मसूत्रवृत्ति-भावप्रकाशिका का विशेष प्रभाव पडा है। गोपेश्वर जी ने भाष्यप्रकाश पर " रश्मि" नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्या लिखी है। भाष्यभानुप्रभा ले.त्र्यंबक शास्त्री टीका ग्रंथ । । भाष्यव्याख्याप्रपंच - ले. पुरुषोत्तम देव । बौद्ध वैयाकरण । ई. 11 वीं शती। पंतजलि के व्याकरण महाभाष्य पर टीका । 240 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - ले. - हरिदासन्यायालंकार भट्टाचार्य । भाष्यालोक टिप्पणी भाष्योत्कर्षटीपिका ले. धनपति सूरि भगवद्गीता की टीका । टीका का रचनाकाल, जो स्वयं टीकाकार ने दिया है, 1854 वि.सं. (1700 ई) है। यह टीका आचार्य शंकर के गीताभाष्य के उत्कर्ष को प्रदर्शित करती है। भासोऽहासः (नाटक) - ले. डॉ, गजानन बालकृष्ण पलसुले (पुणे विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष ) । संस्कृत साहित्यिकों में भास कवि की कीर्ति, कविताकामिनी का हास (भासो हासः) के रूप में स्थिर हुई है। डॉ. पळसुले ने "भासो हासः " इस वाक्य में अकार का प्रश्लेष करते हुए " भासोऽहासः " याने भास में हास का अभाव, इस नाम से प्रस्तुत तीन अंकी नाटक लिखा है। शारदा गौरव ग्रंथमाला के संचालक पं. वसन्त अनन्त गाडगीळ ने सन 1980 में इस गद्य नाटक का प्रकाशन किया। भास्करभाष्यम् ले. भेदाभेदवादी आचार्य भास्कर। ई. 8 वीं शती । ब्रह्मसूत्र के इस भाष्य के अनुसार ब्रह्म सगुण, सल्लक्षण, बोधलक्षण और सत्य-ज्ञानानं लक्षण, चैतन्य तथा रूपांतररहित अद्वितीय है । प्रलयावस्था में समस्त विकार ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। ब्रह्म कारण रूप में निराकार तथा कार्यरूप में जीव रूप और प्रपंचमय है । ब्रह्म की दो शक्तियां होती हैं- 1) भोग्यशक्ति तथा 2) भोक्तृ-शक्ति (भास्कर भाष्य, 2-1-27 ) भोग्यशक्ति ही आकाशादि अचेतन जगत् रूप में परिणत होती है । भोक्तृशक्ति चेतन जीवन रूप में विद्यमान रहती है। ब्रह्म की शक्तियां पारमार्थिक हैं। वह सर्वज्ञ तथा समग्र शक्तियों से संपन्न है। - - प्रस्तुत भाष्य में भास्कर, ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम मानते हैं। जिस प्रकार सूर्य अपनी रशियों का विक्षेप करता है, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी अनंत और अचिंत्य शक्तियों का विक्षेप करता है। यह जीव, ब्रह्म से अभिन्न है तथा भिन्न भी। इन दोनों में अभेदरूप स्वाभाविक है, भेद उपाधिजन्य है। (भा.भा. 2-3 / 43 ) मुक्ति के लिये प्रस्तुत भाष्यकार, ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद को मानते हैं । प्रस्तुत भाष्य के अनुसार शुष्क ज्ञान से मोक्ष का उदय नहीं होता। उपासना या योगाभाभ्यास के बिना अपरोक्ष ज्ञान का लाभ नहीं होता । प्रस्तुत भाष्यकार को सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति दोनों अभीष्ट हैं। भास्करविलास ( काव्य ) - ले. जगन्नाथ । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भास्करशतकम् अनुवादक चिट्टीगुडूर वरदाचारियर मूल काव्य तेलगु भाषा में है । भास्करोदयम् (महानाटक ) ले. यतीन्द्र विमल चौधुरी। प्रणयन तथा मंचन सन 1960 में । यह पन्द्रह अंकों का महानाटक है। रवींद्रनाथ ठाकुर के 25 वर्ष तक के जीवन की घटनाओं का चित्रण इसका विषय है। प्राकृत का प्रयोग - Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं है। प्रवेशक विष्कम्भक का अभाव है। गीतों का प्राचुर्य है। कतिपय एकोक्तियां भी गीतात्मक हैं। भिक्षुकोपनिषद् - यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्।। इसमें संन्यासमार्ग का प्रतिपादन है। भिक्षुकतत्त्वम् - ले.-श्रीकण्ठतीर्थ। महादेवतीर्थ के शिष्य विषय- यतिधर्म एवं अन्य संन्यासग्रहणार्थी लोगों के कर्त्तव्य । भिक्षसूत्रम् - ले.-पाराशर्य ऋषि। इसमें संन्यासदीक्षा ग्रहण करने वाले भिक्षुओं के आचारसंबंधी नियम बताये गये हैं। जैन आचारांगसूत्र तथा बौद्ध विनयपिटक ये दो ग्रंथ पाराशर्य कृत भिक्षुसूत्र पर आधारित माने जाते हैं। भिषागिन्द्रशचीप्रभा - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भनिवासी। भीमपराक्रम (नाटक)- ले.- अभिनन्द। ई. 9 वीं शती। भुक्तिप्रकरणम् - ले.-भोजराज। विषय- ज्योतिषशास्त्र । शूलपाणिकृत श्राद्धविवेक एवं टोडरानन्द में इस ग्रंथ का उल्लेख है। भुक्ति-मुक्तिविचार - ले.-भावसेन त्रैविध ई. 13 वीं शती। भूपालवल्लभ - ले. परशुराम। धर्म, ज्योतिष, साहित्य आदि शास्त्रों का यह विश्वकोष माना जाता है। भुवन-दीपक - ले.-पद्मप्रभसूरि । ई. 13 वीं शती। ज्योतिष विषयक ग्रंथ। इस ग्रंथ में कुल 170 श्लोक हैं। सिंहतिलक सूरि ने वि.स. 1362 में "विवृत्ति" नामक इसकी टीका लिखी थी। इस ग्रंथ के वर्ण्य विषय है : राशिस्वामी, उच्चनीचत्व, मित्र, शत्रु, राहु, केतु के स्थान, ग्रहों का स्वरूप, विनष्टग्रह, राजयोगों का विवरण लाभालाभ-विचार, लग्नेश की स्थिति का फल, प्रश्न के द्वारा गर्भविचार व प्रसवज्ञान, इष्टकाल-ज्ञान, यमजविचार, मृत्युयोग, चौर्यज्ञान आदि । भुवनाधिपतिमन्त्रकल्प - श्लोक- 1900 । भुवनेशीकल्पलता - ले.-वैद्यनाथ भट्ट। पितामह- राघवभट्ट । पिता- महादेव भट्ट । विषय- भुवनेश्वरी के उपासक द्वारा पालनीय दैनिक कृत्यों का तथा कुमारियों की पूजा, होम, द्रव्य और उनका परिमाण, मालासंस्कार, मन्त्रों के 10 संस्कार इ.। भुवनेश्वरीपद्धति - ले.-महादेव। विषय- भुवनेश्वरी की पूजापद्धति। भुवनेश्वरीप्रकाश - ले.- श्रीवासुदेव रथ। पिता- काशीनाथ रथ। विषय- भुवनेश्वरी देवी की पूजा का विवरण। भुवनेश्वरवैभवम्- ले.-नारायणचन्द्र स्मृतिहर। ई. 19-20 वीं शती। भुवनेश्वरीकल्प - रुद्रयामल से गृहीत श्लोक- 300 । भुवनेश्वरीक्रमचन्द्रिका - ले.-अनन्तदेव। श्लोक 672 । भुवनेश्वरीदीपदानम् - रुद्रयामलान्तर्गत। शिवपार्वती संवादरूप। विषय- भुवनेश्वरी देवी के निमित्त दीपप्रदानविधि । भुवनेश्वरी-पंचागम् - श्लोक- 6000। विषय- 1) भुवनेश्वरी पटल जो रुद्रयामलान्तर्गत दशमहाविद्यारहस्य में उमा-महेश्वर संवादरूरूप में वर्णित है, 2) भुवनेश्वरी पूजापद्धति, 3) भुवनेश्वरीसहस्रनाम, 4) भुवनेश्वरीस्तोत्र, 5) भुवनेश्वरीकवच आदि। भुवनेश्वरीपद्धति- ले.- परमानन्दनाथ। श्लोक- 960 । भुवनेश्वरी-मंत्रपद्धति - ले.-वासुदेव। श्लोक- 765 । भुवनेश्वरी रहस्यम्- ले.-कृष्णचंद्र। 2) रुद्रयामल से गृहीत । श्लोक- 2500। भुवनेश्वरीसपर्या - ले.-उमानन्द। श्लोक 430। भुवनेश्वरी-सहस्रनामस्तोत्रम्- ले.-मेरुविहारतन्त्रांतर्गत । शिव-पार्वती संवादरूप। भुवनेश्वरीस्तवटीका - ले.-उपेन्द्रभट्ट वंशोद्भव श्रीगौरमोहन विद्यालंकार भट्टाचार्य । विषय- भुवनेश्वरीस्तव का व्याख्यान । भुवनेश्वरीस्तोत्रम् - ले.-पृथ्वीधराचार्य । गुरु- शम्भुनाथ । श्लोक1301 टीकाकार- पद्मनाभदत्त। श्रीदत्तपौत्र, दामोदरदत्त-पुत्र । टीकानाम-सिद्धान्तसरस्वती। भुवनेश्वरी-वरिवस्या-रहस्यम् - ले.- मथुरानाथ शुक्ल । भुवनेश्वरीअर्चन पद्धति- ले.-पृथ्वीधराचार्य । श्लोक - 178 । भुशुण्डिरामायणम् - वैष्णवों के रामभक्ति परक रसिक संप्रदाय का यह उपजीव्य ग्रंथ है। आदि रामायण, महारामायण, बृहद्ामायण एवं काकभुशुण्डि रामायण के नामों से भी इस ग्रंथ को जाना जाता है, परंतु इसका लोकप्रिय नाम, "भुशुण्डि-रामायण" ही प्रतीत होता है। इसके रचयिता का नाम विस्मृत हो चुका है। यह उस काल की कृति है, जब एक ओर राम-भक्ति मधुरा भक्ति का रूप धारण कर, जनमानस को अपनी और आकृष्ट कर रही थी। निर्माण काल- 14 वीं शती के आसपास। इसकी 3 पांडुलिपियां प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर डॉ. भगवतीप्रसाद सिंह ने इसका संपादन किया है। 1) मथुराप्रति, लिपिकाल सं. 1779, 2) रीवांप्रति, लिपिकाल सं. 1899 और 3) अयोध्याप्रति, लिपिकाल 1921 वि.सं.। इस रामायण की कथा, ब्रह्मा-भुशुण्डि के संवाद रूप में कही गई है। इसके 4 खंड हैं : पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण। पूर्व खंड में 146 अध्याय हैं। इनमें ब्रह्मा के यज्ञ में ऋषियों के रामकथा विषयक विविध प्रश्न तथा राजा दशरथ की तीर्थयात्रा का वर्णन है। पश्चिम खंड में 42 अध्याय हैं, तथा भरत-राम संवाद में सीता जन्म से लेकर स्वयंवर तक की कथा वर्णित है। दक्षिण खंड में 242 अध्याय हैं, जिनमें राम-राज्याभिषेक की तैयारी, वनगमन, सीताहरण, रावणवध व लंका से लौटते समय भारद्वाज मुनि के आश्रम मे राम-भरत मिलन तक की कथा है। उत्तर खंड में 53 अध्याय हैं और देवताओं द्वारा रामचरित की महिमा का गान है। इसकी संपूर्ण 16 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 241 For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोकसंख्या 36 हजार याने श्रीमद्भागवत से दुगुनी है। इस कृष्ण के समान ही राम प्रमोदवन में "राम-लीला' की रामायण की निर्मिति का क्षेत्र उत्तर भारत विशेष कर काशी रचना करते हैं। 31 वें अध्याय में श्रीराम के रास का उपक्रम के आसपास का विस्तृत भू-खंड है। इसकी विशेषता यह है ठीक भागवत जैसा ही है, जिसके अंत में सखियों के साथ कि इस रामायण में कृष्ण कथा को आदर्श मान कर राम क्रीडा करते श्रीराम अंतर्हित हो जाते हैं। 35 वें अध्याय में कथा का निरूपण किया गया है। वस्तुतः इसे रामायण का भागवत की गोपियों के समान राम की लीलाओं का अनुकरण भागवतीकरण कहा जाना उचित होगा, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण तथा वृक्षों से राम के विषय में मनोरम प्रश्न किये गये हैं, की समस्त ललित लीलाएं इसमें भगवान् श्रीराम पर आरोपित जो भागवत की अपेक्षा विस्तृत तथा आवर्जक हैकर दी गई हैं। भुवनसंतत-तापहरं जनपापहरं कमलासदनम्। श्रीराम के रूप का निरूपण करते हुए प्रस्तुत रामायण में चरणाब्जं कुरु वक्षसि नः शमय स्मरदुर्जय-बाणरुजम्।। कहा गया है- राम ही पूर्ण परात्पर ब्रह्म है। बलराम एवं इसके अनंतर 35 तथा 36 वें अध्याय में राम की रास कृष्ण, राम के ही आंशिक स्वरूप हैं। भागवत में कृष्ण की लीला का विस्तृत वर्णन है जिसमें रासस्थित राम की रुचिर वंदना हैभगवत्ता का प्रतिपादक प्रख्यात वचन है: मंदस्मिताधरसुधारस-रंजितोष्ठं लोकालकावलित-मुग्धकपोलवेशम्। एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। पादांबुजप्रथित-तालविधाननृत्यं यही पद्य, प्रस्तुत भुशुण्डि रामायण में इस प्रकार है रासस्थितं रघुपतिं सततं भजामः ।। एते चांशकलाश्चैव रामस्तु भगवान् स्वयम् इस प्रकार प्रस्तुत भुशुण्डि-रामायण, राम की माधुर्य रसामृत इस प्रकार "न रामात् परतस्तत्त्वं वेदैरपि विचीयते"। मूर्ति की उपासना का तथा सीता-राम की संश्लिष्ट चिंतना का "अवतारी स्वयं रामः ।।" इत्यादि। एक अद्भुत ग्रंथ है। इसमें राम कथा का विस्तार तथा प्रस्तुत रामायण में परात्पर ब्रह्म स्वरूप राम के दो रूप विवेचन भी अन्य प्रकार से किया गया है। अनोखा होने पर निर्दिष्ट हैं - पर रूप तो उनके स्वधाम (सीतालोक) में निवास यह एक रमणीय रससिक्त ग्रंथ है। भुशुण्डि रामायण का करता है और 2) द्वितीय (अपर) रूप चिल्लोक में निवास " आदर्श उपजीव्य ग्रंथ श्रीमद्भागवत है। अतः उसी को आधार करता है, जिसका नाम अयोध्या। (सीतालोकः परं स्थानं मान कर राम की ललित लीलाएं इस रामायण में चित्रित की चिन्मयानंदलक्षणम्। कोसलाख्यं पुरं नित्यं चिल्लोक इति गई हैं। मध्य युग की तांत्रिक पूजा का प्रभाव भी इस ग्रंथ कीर्तितम्।। पर स्पष्टतः दिखाई देता है। इसलिये इसे मध्य युग के बाद की कृति मानना होगा, किन्तु मानसकार गोस्वामी तुलसीदासजी राम की सहजा शक्ति है सीता। आनंद उनका रूप है, से यह पूर्ववर्ती होनी चाहिये, क्योंकि तुलसीदासजी के रामचरित सहजानंदिनी रूप है राधा। रुक्मिणी आदि उसी के विभिन्न मानस पर इसकी अमिट छाप है। प्रस्तुत भुशुण्डि रामायण स्वरूप हैं। के प्रणेता ने इतने अद्भुत व प्रभावशाली ग्रंथ का प्रणयन या ते शक्तिः सहजानंदिनीयं । करके भी स्वयं को पूर्णतः छिपाए रखा है, क्योंकि उनके नाम सीतेति नाम्नी जगतां शोकहन्त्री। का संकेत तक पूरे ग्रंथ में कहीं पर भी नहीं मिलता। तस्या अंशा एव ते सत्यभामा साहित्य दृष्टि से यह रामायण अत्यधिक आकर्षक, सरस -राधारुक्मिण्यादयः कृष्णदाराः ।। शैली में निबद्ध तथा अलंकार चमत्कार से पूर्णतः परिपुष्ट है। राम और सीता मिलकर एक ही स्वरूप है, उसमें कोई इसी प्रकार के रसिक संप्रदायी संस्कृत ग्रंथों को अपना उपजीव्य भिन्नता नहीं है। मानकर, हिन्दी में अनेक प्रौढ रचनाओं का सृजन हुआ है। रामस्य चापि सीताया मिथस्तादात्म्यरूपकम्। भूताडामर-तंत्रम् - यह चतुःषष्टि (64) मूल तन्त्रों में अन्यतम यथा रामस्तथा सीता तथा श्रीः सहजा मता।। है। इसको तान्त्रिक निबन्धकारों ने अपने निबन्धों में बहुधा प्रस्तुत रामायण मे राम पर, कृष्ण के स्वरूप का तथा उद्धृत किया है, किन्तु इसकी पूर्ण हस्तलिखित प्रति अतिदुर्लभ लीलाओं का जिस प्रकार पूरा आरोप किया गया है उसी है। उपलब्ध प्रति में केवल 14 पटल हैं। अतः यह सर्वथा प्रकार सरयू पर यमुना एवं यमुना-तीरस्थ वृंदावन, सरयूतीरस्थ अपूर्ण है। श्लोक 512। विषय- भूतडामर का विवरण, मारण, प्रमोदवन पर आरोपित है। राम अपनी सहजा शक्ति सीता से मन्त्रों का प्रतिपादन, पिशाचीसाधन, कात्यायनी मन्त्रसाधन, साथ वैकुण्ठ लोक में रमण किया करते हैं। वैकुण्ठ दो सिद्धिसाधन, यक्षिणी, अष्टनागिनी, किन्नरी अपराजिता आदि का प्रकारण का है। वैकुण्ठ से भी परे "सीता-वैकुण्ठ" है। वहां सिद्धिसाधन इत्यादि। प्रमोदवन में ही राम-वैकुण्ठ है। भूतभैरवम् (या भूततन्त्रम्) - ले.-परमहंस पारिव्राजक 242 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रोधीश भैरव। विषय- भूतडामर तथा यक्षडामर में अवर्णित बीजों का विधान एवं अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त वर्गों (मातृकाक्षरों) की संज्ञा भी निर्दिष्ट है। भूतशुद्धितन्त्रम् - हर-पार्वती संवादरूप । श्लोक- 760। पटल17। विषय- तत्त्वत्रय का वर्णन । भूतरुद्राक्षमाहात्य - ले. परमशिवेन्द्र सरस्वती। गुरुअभिनवनारायण सरस्वती। विषय- शिवजी के प्रति लिए विभूति के उपयोग तथा रुद्राक्षधारण की अत्यन्त आवश्यकता। भूदेव-चरितम् (महाकाव्य)- ले. महेशचन्द्र तर्कचूडामणि । ई. 20 वीं शती। सर्गसंख्या- चौबीस। भूतारोद्धरणम् (नाटक) - ले. मथुराप्रसाद दीक्षित (20 श.) दुर्वास द्वारा शापित साम्ब के कारण उत्पन्न यादवी युद्ध का कथानक इस दुःखान्त नाटक का विषय है। अंकसंख्या-पांच। अन्त में श्रीकृष्ण की मरणासन्न स्थिति देख बलराम की जलसमाधि का चित्रण किया है। भूमण्डलीय सूर्यग्रहगणितम्- ले. व्यंकटेश बापूजी केतकर । भू-वराहविजयम् - ले. श्रीनिवास कवि । सरदवल्ली कुलोत्पन्न । मुष्णग्राम के निवासी आठ सर्गों का काव्य । भूषणम् - ले. गोविंदराज। ई. 16 वीं शती। पिता- वरदराज। कांचीनिवासी। रामायण की यह प्रसिद्ध विद्वत्तापूर्ण टीका है। इसमें सप्त कांडों के नाम मणिमंजीर, पीतांबर, रत्नमेखला, मुक्ताहार, शृंगारतिलक, मणिमुकुट तथा रत्नकिरीट रखे गये हैं। भंगदूतम् - ले. शतावधान कवि श्रीकृष्णदेव। ई. 18 वीं शती। इस दूत-काव्य का प्रकाशन नागपुर विश्वविद्यालय पत्रिका (सं. 3) दिसंबर 1937 ई में हो चुका है। "मेघदूत" की शैली में रचित इस काव्य ग्रंथ में कुल 126 मंदाक्रांता छंद है। श्रीकृष्ण के विरह मे व्याकुल होकर कोई गोपी भंग के द्वारा उनके पास संदेश भिजवाती है। संदेश के प्रसंग में वृंदावन, नंदगृह, नंद उद्यान एवं गोपियों की विलासमय चेष्टाओं का मनोरम वर्णन किया गया है। संदेश का अंत होते ही श्रीकृष्ण प्रकट होकर गोपी को परम पद देते हैं। भंगसंदेश - ले. वासुदेव कवि। समय- 15-16 वीं शताब्दी। इस काव्य की काल्पनिक कथा में किसी प्रेमी विरही क्षरा स्यान्दुर (त्रिवेन्द्रम) से श्वेतदुर्ग (कोट्ब्टक्कल) में स्थित अपनी प्रेयसी के पास संदेश भेजा गया है। यह संदेश एक भंग के द्वारा भेजा जाता है। मेघदूत के समान इसके दो विभाग हैं पूर्व व उत्तर। प्रत्येक भाग में 80 श्लोक हैं। संदेश में नायक अपनी पत्नी को शीघ्र आने की सूचना देता है। भृगुसंहिता - भृगु ऋषि द्वारा रचित एक भविष्यविषयक ग्रंथ । इस ग्रंथ मे असंख्य जन्मकुण्डलियां दी गई हैं। जिस व्यक्ति को अपना भूत -भविष्य जानना हो वह अपनी जन्मकुंडली इस ग्रंथ में ढूंढ निकाले और उसके नीचे दिया हुआ भूत भविष्य पढे। आज कल नकली भृगुसंहिता का भी अत्यधिक प्रसार हो रहा है। इसकी प्रामाणिक प्रतियां जो अत्यंत जीर्ण पोथियों के रूप में हैं, मेरठ, पंजाब के दुबली, होशियारपूर तथा काश्मीर, बरनाली, दिल्ली, हरिद्वार, देवप्रयाग स्थानों पर पाई जाती है। "अॅस्ट्रोलाजिकल मॅगझीन" के अप्रैल 1966 के अंक में, भृगुसंहिता से स्व, लालबहादुर शास्त्री का भविष्य इस प्रकार उद्धृत किया गया था___इस व्यक्ति का स्वभाव सरल और विनम्र होगा। मितभाषी, निर्भय, स्पष्टवक्ता तथा सद्गुण संपन्न होगा। सहृदयता उसका स्वभाव धर्म होगा। धनी, निर्धन, उच-नीच के साथ समान व्यवहार करेगा। इसकी पत्नी का नाम ललिता होगा। उसके साथ वह अपने गृहस्थ धर्म का पालन करेगा। निर्धनता और संकटों को धैर्य तथा संतोष के साथ सहन करेगा। राजनीति में अनेक प्रतिष्ठा के पद विभूषित करेगा परंतु अहंकार या औद्धत्य से अलिप्त रहेगा। मातृभूमि के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने का एक उच्च आदर्श वह उपस्थित करेगा। इसके चार पुत्र और दो पुत्रियां होंगी। परिश्रमी और धैर्यवान, होगा परंतु स्वास्थ्य साथ नहीं देगा। 60 वर्ष की आयु में यह अपने देश का प्रधान मंत्री बनेगा। अल्पावधि में वह देश को बहुत बडा मान सम्मान तथा महत्त्व प्राप्त करा देगा। शांति और धीरज से विदेशी आक्रमण के संकट का सामना कर, मातृभूति को संकट से मुक्त करेगा तथा उसकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखेगा। 62 वर्ष की आयु में स्वास्थ्य के विषय में अत्यंत चिंता निर्माण होगी। ___ जब पोथी में यह भविष्य पढा जा रहा था, तब दिखाई दिया कि पौष शुद्ध पौर्णिमा से माघ शुद्ध पोर्णिमा तक समय अत्यंत चिंताजनक है। भृगु ने लिखा है कि इस काल में ऐसा विधिसंकेत है कि इसकी जान पर आने वाले प्राणांतिक संकट में से उसकी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है। आगे भृगु ऋषि कहते हैं कि हृदयव्यथा से जो परिणाम निकलने वाला है, उसका चित्र आंखों के सामने खडा होकर मेरे ही नेत्रों में आंसू आ गये हैं। यह अध्याय मुझे साश्रु नयनों से समाप्त करना पड़ रहा है। स्व. शास्त्री का भृगुसंहिता का दिया गया उपर्युक्त भविष्य अक्षरशः सही निकला यह बतलाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उनका जीवनपट लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है। भेदधिक्कार - ले.- नृसिंहाश्रम। ई. 16 वीं शती। भेदवादवारणम् - ले.- (नामान्तर भेदभाव- विदारिणी) । ले. अभिनवगुप्त। ग्रंथकार ने ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में इसका उल्लेख किया है। भेदरत्नप्रकाश - ले.- शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 243 For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भेदाभेदपरीक्षा ले. शानश्री बौद्धाचार्य ई. 14 वीं शती । भेदिका (भावार्थदीपिका की टीका) ले रामतनु शर्मा टीकाकार मूल ग्रंथकार के शिष्य थे । भेलसंहिता ले भेल आचार्य गुरु पुनर्वसु आत्रेय विषय- आयुर्वेद । इस ग्रंथ का उपलब्ध रूप अपूर्ण है। इस पर " चरक संहिता" का प्रभाव है। इसका प्रकाशन कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा हुआ है। इसके अध्यायों के नाम तथा बहुत से वचन " चरक संहिता" के ही समान हैं। इसका रचना काल ई.पू. 600 वर्ष माना जाता है। इसकी रचना सूत्र स्थान, निदान, विमान, शारीर चिकित्सा, कल्प व सिद्धस्थान के रूप में हुई है। इसके विषय बहुत कुछ "चरक” संहिता से मिलते जुलते है पर इसमें ऐसी अनेक बातों का भी विवेचन है, जिनका अभाव "चरक संहिता" में है। "सुश्रुतसंहिता " की भांति इसमें कुष्ठरोग में खदिर के उपयोग पर बल दिया है। इसका हृदयवर्णन सुश्रुत से साम्य रखता है । - www.kobatirth.org भैमी नैषधीयम् ले. सीताराम आचार्य (श. 20) "भारती" पत्रिका में जयपुर से प्रकाशित। 1937 में भारती की एकांकी प्रतियोगिता हेतु लिखित एकांकी। दृश्यसंख्या- चार । कथावस्तु नल-दमयन्ती की प्रणयकथा । भैरवदीपदानविधि ले. रामचन्द्र । भैरवपद्धति मुख्य मुख्य तंत्रों से संगृहीत विषय- भैरव की पूजा के लिए निर्देश है जैसे साधक रविवार को ब्राह्ममुहूर्त में दक्षिणांग से उठकर इष्ट देव भैरव का स्मरण करते हुए बाये पैर को भूमि पर रखे। हाथ पैर धोकर और रात्रि के वस्त्र बदल कर, भैरव स्वरूप का ध्यान कर मंत्र का एक लक्ष जप कर उसका दशांक होम नमक मिली सरसों से करे। - (2) ले मल्लिषेण । जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती। 10 अधिकार और 400 अनुष्टुप् श्लोक । भैरवपूजापद्धति ले. रामचंद्र । यह कृष्णभट्ट कृत भैरवपूजापद्धति के आधार पर लिखी गई है। श्लोक - 360 । विषय- अवश्य करणीय प्रातः कृत्यों से लेकर सांगोपांग बटुक भैरव पूजापद्धति भैरवविलासम् (रूपक) ले. ब्रह्ममित्र वैद्यनाथ T कथासार दभक्त के घर भैरव पधार कर कहते हैं कि अपने पांच वर्ष के बालक का आलभन कर भिक्षा परोसो । वे पुत्र श्रीलाल को काटते हैं। पुत्रमांस से युक्त भात परोसा जाता है। भैरव यजमान को भी भोजन सेवन के लिए बाध्य करते हैं। भैरव कहते हैं कि वह अपत्य हीन के घर भिक्षा ग्रहण नहीं करेंगा। दभ्रभक्त पत्नी सहित बाहर आकर बच्चे को पुकारते है। पुत्र पुनजीर्वित हो लौटता है। सब प्रसन्न हो भीतर आते हैं तो भैरव दिखाई नहीं देते। उनके दर्शन बिना प्राण छोड़ने का सभी निश्यय करते हैं। स्वर्ग से सपरिवार शिव आकर अपने विमान में सब को स्वर्ग ले चलते हैं। 244 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - भैरवाचपारिजात - ले. श्रीनिवास भट्ट । श्रीनिकेतन के पुत्र एवं सुन्दरराज के शिष्य । 2) ले जैत्रसिंह । बघेलवंशीय । 14 स्तबक। श्लोक- 36571 भैरवीपटलम् शारदातिलककार विरचित । भैरवरहस्यम् ले मुकुन्दलाल । भैरवरहस्यविधि ले. हरिराम । भैरवसपर्याविधि - ले. मथुरानाथ शुक्ल । भैरवस्तव ले. अभिनवगुप्त । 2 ) ले सत्यव्रत शर्मा | भैरवस्तवराज विश्वसारोध्दारान्तर्गत, पार्वती- परमेश्वर संवादरूप । विषय- बटुक भैरव का अष्टोत्तरशत नामस्तव । भैरवानुकरणस्तोत्रम् - ले. क्षेमराज । भैषज्यरसायनम् - ले. गंगाधर कविराज । समय- 17981885 ई. । औषधिशास्त्र विषयक ग्रंथ । भैष्मीपरिणयचंपू - ले. विषय- श्रीमद्भागवत के श्रीनिवासमखी। ई. 17 वीं शती । आधार पर श्रीकृष्ण व रुक्मिणी विवाह का वर्णन । इसमें गद्य व पद्य दोनों में यमक का सुन्दर समावेश किया गया है। भोगमोक्षप्रदीपिका ले. उत्पलाचार्य । 1 - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भोजनकुतूहलम् ले. रघुनाथसूरि । समय- 18 वीं शताब्दी (पूर्वार्ध) । यह पाकशास्त्र विषयक ग्रंथ अभी तक मुद्रित नहीं हो सका है। इस ग्रंथ की पांडुलिपि उज्जैन के प्राच्य ग्रंथसंग्रह में सुरक्षित है। ग्रंथ का लेखन करते समय पंडित रघुनाथ ने धर्मशास्त्र तथा वैद्यकशास्त्र के 101 ग्रंथों का उपयोग किया है। इन ग्रंथों के उद्धरण एक के बाद एक सुव्यवस्थित पद्धति से अंकित करते हुए श्री. रघुनाथ ने कहीं कहीं पर अपने स्वतंत्र मत भी व्यक्त किये हैं। ग्रंथ के इस स्वरूप से, इसे मौलिक नहीं कहा जा सकता। फिर भी पाकशास्त्र विषयक विपुल जानकारी के संकलन की दृष्टि से यह ग्रंथ पर्याप्त महत्त्व पूर्ण है। 1 - भोजप्रबंध ले- बल्लाल सेन । रचना -काल- 16 वीं शती । अपने ढंग के इस अनूठे काव्य की रचना, गद्य व पद्य दोनों में हुई है। इसमें धारा नरेश महाराज भोज की विभिन्न कवियों द्वारा की गई प्रशस्ति का वर्णन है। इसका गद्य साधारण है, किंतु पद्य रोचक व प्रौढ है। इस ग्रंथ की एक विचित्रता यह है कि इसके रचयिता ने कालिदास, भवभूति माघ तथा दंडी को भी राजा भोज की सभा में उपस्थित किया है। इसमें अल्प प्रसिद्ध कवियों का भी विवरण है। ऐतिहासिक दृष्टि से भले ही इसका महत्त्व न हो, पर साहित्यिक दृष्टि से यह उपादेय ग्रंथ है। इसकी लोकप्रियता का कारण इसके पद्य है। यह ग्रंथ हिंदी अनुवाद के साथ चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित हो चुका है। भोजराज सच्चरितम् (नाटक) ले वेदान्तवागीश भट्टाचार्य - - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोजराजांकम् - ले.- सुन्दरवीर रघूद्वह। ई. 19 वीं शती। 'मलयमारुत' पत्रिका के द्वितीय स्पन्द में प्रकाशित पुरी (तिरुक्कोवलूर) में दक्षिण पिनाकिनी (पैष्णार) नदीके तट पर रामनवमी के अवसरपर होने वाली विष्णु की यात्रामें प्रदर्शन हेतु लिखित। शृंगार के साथ करुण रस से परिप्लुत। अंक में विष्कम्भक का विधान न होते हुए भी इसमें विष्कम्भक का प्रयोग हुआ है। कथासार- नायक भोज के पिता ने उसका विवाह आदित्यवर्मा की कन्या लीलावती के साथ निश्चित किया है, परन्तु भोज के चाचा मुंज उसका अपहरण कराते है। वे सेनापति वत्सराज द्वारा भोज की हत्या का षडयंत्र रचते है, किन्तु वत्सराज उसे वन में छोड़ देते है। मंत्री बुद्धिसागर मुंज के अत्याचारों से क्षुब्ध हो, उसपर आक्रमण करने हेतु आदित्यवर्मा को उकसाते है। यहा वन में भोज को प्रेयसी विलासवती की स्मृति सताती है। दैववशात् नायिका उसे देख उस पर मोहित हो, वटपत्रपर ताम्बूल से प्रेमपत्र लिखती है। पत्र पढ कर भोज उसे ढूंढने निकलता है, इतने में मुंज द्वारा भेजे हुए हत्यारों से उसकी मुठभेड होती है। प्रसंग में अरण्यराज जयपाल भोज का मित्र बनता है। अपहृत लीलावती का पालक पिता जयपाल उसे पुरुषवेष में साथ लेकर मुंज पर आक्रमण करता है। अंत में भोज अपनी माता शशिप्रभा, तथा पत्नी विलासवती से मिलता है, उस का राज्यभिषेक होता है। और लीलावती के साथ उसका विवाह होता है। भोजराज्ये संस्कृतसाम्राज्यम् - ले.- वासुदेव द्विवेदी (श. 20 वीं) संस्कृत प्रचार पुस्तकमाला में प्रकाशित एकांकी रूपक। इसमें मध्यकालीन भारत का सांस्कृतिक दृश्य चित्रित है। भोसलवंशावली - ले.-गंगाधर । व्यंकोजी के अमात्य । व्यंकोजी के पुत्र शाहजी (तंजौरनरेश) की प्रशस्ति। भोसल-वंशावली (चंपू) - ले.- वेंकटेश कवि। पिताधर्मराज। तंजौरनरेश शरभोजी भोसले के राजकवि। रचना काल 1711 से 1728 के मध्य । इसमें तंजौर के भोसले वंश का वर्णन और मुख्यतः शरभोजी का जीवनवृत्त वर्णित है। यह काव्य एक ही आश्वास में समाप्त हुआ है। भ्रमभंजनम् (नाटक) - ले.- सत्यव्रत शर्मा । पंजाब के निवासी। भ्रमरदूतम् - ले.- रुद्र न्यायवाचस्पति। ई. 16 वीं शती। श्रीराम द्वारा सीता के प्रति अशोकवन में भ्रमर को दूत बनाकर भेजने की कल्पना चित्रित है। भ्रष्टवैष्णवखंडनम् - ले.- श्रीधर । भ्राजसूत्रम् - ले.- कात्यायन। विषय- व्याकरणशास्त्र । भ्रान्तभारतम् - ले.- नागेश पण्डित, अच्युत पाध्ये और शालिग्राम द्विवेदी। विबुध-वाग्विलासिनी सभा द्वारा प्रकाशित । कथासार- विबुधवागविलासिनी सभा के अधिवेशन में विवाह योग्य आयु के विषय में चर्चा चलती है। नागेश शर्मा के सभापतित्व में निर्णय होकर वाइसराय को प्रस्ताव भेजा जाता है कि शासन इस विषय में हस्तक्षेप न करे। विशेषताएं - एक अंक में अनेक दृश्य। पटल सन्देश के स्थान पर डुग्गी बजाना। प्राकृत के स्थान पर आधुनिक भारतीय भाषाएं। अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग। राजकीय सत्ता की स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना आदि। भ्रान्तिविलासम् - ले.- श्रीशैल दीक्षित। शेक्सपियर के "कॉमेडी ऑफ एरर्स' नाटक का संस्कृत अनुवाद। मकरंद - ले.-पक्षधर मिश्र । ई. 13 वीं शती। (उत्तरार्ध)। मकरन्दप्रकाश - ले.- हरिकृष्ण सिद्धान्त। (ई. 17 वीं शती) विषय- आह्निक, संस्कार। मकरन्दिका - ले.- उपेन्द्रनाथ सेन। यह आधुनिक पद्धति का उपन्यास है। मकर-संक्रान्तीयम् (काव्य) • ले.- हेमंतकुमार तर्कतीर्थ । मुकुटतंत्र - श्लोक- 280। मंखकोश - ले.- मंखक। ई. 12 वीं शती। काश्मीर निवासी। यह शब्दकोश है। मंगलनिर्णय - ले.- गणेश (केशव देवज्ञ के पुत्र) विषयउपनयन, विवाह आदि। मंगलविधि - रुद्रयामलान्तर्गत । विषय- मंगल ग्रह की तांत्रिक पूजा। मंजरी (पत्रिका)- कार्यालय- तिरुवायुरु। ई. 1913 । मंजरीमकरन्द (नामान्तर परिमल) - ले.-रंगनाथ यज्वा । पदमंजरी की टीका। मंजुकवितानिकुंज - ले.- भट्ट मथुरानाथशास्त्री। इसमें संस्कृतसर्वस्वम् और काव्यकलारहस्यम् नामक काव्य भी समाविष्ट मंजुभाषिणी - ले.- राजचूडामणि। पिता- श्रीनिवास दीक्षित (रत्नखेट नाम से प्रसिद्ध)। कवि ने इसका लेखन एक ही दिन में संपन्न किया। इस काव्य का प्रत्येक शब्द श्लेषगर्भ है। विषय-रामकथा। मंजुभाषिणी - सन 1900 के मई मास से कांचीवरम् से इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके सम्पादक थे पी.व्ही. अनन्ताचार्य, जो रामानुज सिद्धान्त के प्रकाण्ड पंडित थे। प्रथम छह अंकों तक यह पनि प्रति मास छपती रही, बाद में दो वर्षों तक मास में त... बार तथा चौथे वर्ष से यह प्रति सप्ताह छपने लगी। इसमें मधुर काव्य और सरस गीतों का भी प्रकाशन होता रहा। चार भागों में विभक्त इस पत्रिका में वैष्णव धर्म से सम्बन्धित सामग्री, महापुरुषों की जीवनी, देशवृत्तान्त और दर्शन सम्बधी रचनाओं के अलावा भ्रमणवत्तान्त प्रकाशित किये जाते थे। इसका प्रकाशन व्ययभार प्रतिवादि भयंकर मठ कांचीवरम् द्वारा वहन किया जाता था। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/245 For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंजुल-नैषधम् (नाटक) - ले.- म.म. वेंकट रंगनाथ (समय1822- 1900)। सन 1886 में विशाखापट्टन से प्रकाशित । प्रकाशक वेंकट रंगनाथ शर्मा, लेखक के पौत्र। अंकसंख्यासात। प्रत्येक अंक में शताधिक श्लोक हैं। विषय- निषधअधिपति नलराजा की कथा। मंजूषा (साप्ताहिकी पत्रिका) - सन 1935 में कलकत्ता से इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। डा. क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय इसके संपादक थे। 1937 में इसका प्रकाशन स्थगित हुआ जो 1949 से पुनः प्रारंभ हुआ और 1961 तक चला। इसका वार्षिक मूल्य छह रु. था और प्रकाशन स्थल 8, भूपेन्द्र बोस एव्हेन्यू. कलकत्ता-4 था। प्रारंभ में यह व्याकरण विषयक पत्रिका थी, बाद में नाटक तथा अन्य अनुवाद सामग्री का प्रकाशन भी हुआ। मंजूषा- ले.- भास्करराय। पिता- गंभीरराय। नवरत्नमाला की। टीका। मठप्रतिष्ठातत्त्वम् - ले.-रघुनन्दन । मठाम्नायादिविचार - विषय- शंकराचार्य सम्प्रदाय के प्रमुख सात मठों के धार्मिक कृत्यों का प्रतिपादन। मठोत्सर्ग - ले.. कमलाकर। (2) अग्निदेव। मण्डपकर्त्तव्यतापूजापद्धति - ले.- शिवराम शुक्ल । मण्डपकुण्डमण्डनम् - ले,- नरसिंहभट्ट सप्तर्षि। इस पर लेखक की प्रकाशिका नामक टीका है। मण्डपकुण्डसिद्धि - ले.- विट्ठल दीक्षित। वरशर्मा के पुत्र । श.सं. 1541 (1619-20 ई.) में काशी में प्रणीत। इस पर विवृति नामक लेखक कृत टीका है। वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से प्रकाशित। मण्डपोद्वासनप्रयोग - धरणीधर के पुत्र द्वारा लिखित। मंडलब्राह्मणोपनिषद् - एक यजुर्वेदीय उपनिषद् । इसके वक्ता सूर्यनारायण तथा श्रोता याज्ञवल्क्य मुनि हैं। इसमें पांच भाग हैं तथा प्रत्येक भाग को ब्राह्मण संज्ञा है। इसमें अष्टांगयोग, शांभवीमुद्रा, अमनस्क स्थिति, पंच आकाश तथा अर्थवाद इत्यादि विषय क्रमशः प्रतिपादित हैं। मणिकांचन-समन्वय (प्रहसन) - ले.- विष्णुपद भट्टाचार्य (श. 20)। मंजूषा में प्रकाशित। अंकसंख्या- दो। स्त्रीपात्रविरहित। कथानक बंगाल में प्रचलित एक लोककथा पर आधारित है। जनसामान्य से सम्बद्ध घटनाओं तथा ग्रामीण जीवनचर्या की झांकी इसमें दिखाई देती है। कथासारमधु बेचने वाले धूर्त शर्शरीक की मुठभेड गुड बेचने वाले धूर्त दर्दुरक रो होती है। दोनों में स्पर्द्धावश नोंकझोक होने पर धनपति दोनों चीजें चखकर घोषित करता है कि दोनों ही बनावटी वस्तुएं बेचते हैं। धनपति दोनों के व्यवसाय छुडा कर, गाय चराने की और आम्रवृक्ष सींचने की नौकरी दिलाता है। आम्रवृक्ष के तले मुद्राओं से भरा ताम्रकलश पाकर दोनों नोकरी छोड भागते हैं और कलश बेचकर आधा-आधा मूल्य बांटने का निर्णय लेते हैं। कलश शर्शरीक के घर रखा जाता है। शर्शरीक अपने पुत्र चतुरक को पाठ पढाता है कि दर्दुरक के आने पर कहना कि पिता कल रात विषूचिका से मर गये, कलश के विषय में मैं नहीं जानता। चतुरक वैसा करता है, परंतु दर्दरक उसकी चाल समझ कर, उसे अग्नि दिलाने स्वयं समशान तक जाता है। स्मशान में डाकुओं को देख वह झाड़ी में छिप जाता है। डाकू देखते हैं कि चिता में लिटाया शव करवट बदल रहा है। इतने में दर्दुरक झाडी में से भयानक आवाजें करता है। पिशाच के भय से दस्यु चुरायी हुई सम्पत्ति छोड भाग जाते है। शर्शरीक और दर्दुरक में पहले झडप होती है, परंतु अन्त में दस्युओं द्वारा छोडी सम्पत्ति का भी विभाजन करने पर दोनों में प्रेमालाप होता है, यही मणि-कांचन संयोग है। मणिकान्ति - ले.- यज्ञेश्वर सदाशिव रोडे । विषय- ज्योतिषशास्त्र। यह टीकात्मक ग्रंथ है। मणिमंजूषा (रूपक) - ले.- एस. के.रामनाथशास्त्री (श. 20) विषय- दशकुमारचरित में वर्णित अपहारवर्मा का चरित्र । दृश्यसंख्या- 18। गीतों का बाहुल्य ! संस्कृत साहित्य परिषत् पत्रिका में सन 1947 में प्रकाशित । मणिमाला - ले.- अनादि मिश्र। रचना काल- 1750 ई. के लगभग। चार अंकों की नाटिका। प्रथम अभिनय उज्जयिनी में दुगदिवी के शरद् उत्सव में हुआ था। खण्डपारा (उत्कल) के राजा नारायण मंगपार की इच्छापूर्ति हेतु इसकी रचना हुई ।इसमें अलङ्कारों का प्रचुर प्रयोग, पद्यों की अधिकता, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, शिखरिणी, द्रुतविलम्बित, पुष्धिताग्रा, स्रग्धरा पृथ्वी, इ. वृत्तों के साथ चण्डी तथा लोला आदि अप्रचलित छंद भी प्रयुक्त हैं। प्रधान रस शृंगार । संस्कृत के साथ प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है। कथावस्तु उत्पाद्य है। कथासार- उज्जयिनी नरेश शृंगारशृंग, पुष्करद्वीप की राजकुमारी मणिमाला पर अनुरक्त है। महारानी कुपित है। नायक पत्नी को अपना स्वप्न बताता है कि मणिमाला से विवाह करने से मेरे सम्राट् बनने की संभावना है। पुष्करद्वीप में मणिमाला का विवाह गंधर्वराज से करने की तैयारियां चल रही हैं। परंतु मणिमाला खिन्न है। इतने में सुसिद्धि-साधिनी, मणिमाला को कनकनौका में बिठाकर उज्जयिनी के लिए प्रस्थान करती है। नायक को सूचना मिलती है कि मणिमाला आ गई। वह उसे वरमाला पहनाने ही जा रही है, कि द्वन्द्वदंष्ट्र नामक राक्षस उसे अपहृत करता है। नायक विलाप करता है। उसी समय अद्भुतभूति वहां, आकर कहता है कि क्रौन्चपर्वत पर स्वर्णवृक्ष के मणिसम्पुट में रहने वाले कीटराज में द्वन्द्वदंष्ट्र का प्राण है। उसी स्वर्णवृक्ष के तले मणिमाला 246/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। फिर नायक क्रौन्चपर्वत पर जाकर कीटराज को मार कर, मणिमाला के साथ उज्जयिनी लौटता है। उज्जयिनी में नायकनायिका विवाहबद्ध होते हैं। मणिमेखला - अनुवादक - श्रीनिवासाचार्य । मूल तमिल कथा का अनुवाद। मणिव्याख्या - ले.-कणाद तर्कवागीश । मणिहरण - ले.- जग्गू श्रीबकुलभूषण (ई. 20 वीं शती) "संस्कृतप्रतिभा' में प्रकाशित एकांकी रूपक। उरुभंग का परवर्ती कथानक। सशक्त चरित्र-चित्रण। कार्य (एक्शन) की प्रचुरता और प्रतिक्रियात्मक एकोक्तियों का प्रयोग इसकी विशेषता है। कथासार - सौप्तित पर्व के बाद प्रक्षुब्ध द्रौपदी को सांत्वना देने हेतु अश्वत्थामा के मस्तक के मणि का हरण करना। मतसार-तंत्र-ले.- 1) इसमें बाला कुब्जिका देवी की पूजाविधि प्रतिपादित है। यह 10 पटलों में पूर्ण है। विषय- कुब्जिकास्तोत्र, भैरवस्तोत्र, अभिषेक, शब्दराशि-फल, दण्ड, काष्ठ आदि पंच अभिषेक, प्रस्तार-दीक्षाविधी, पंच प्रणवोद्धार, ध्यान, पशुपरीक्षा आदि। 2) सवा लाख से भी अधिक श्लोकों की महासंहिता के अन्तर्गत, 12 हजार श्लोकों का यह मतसारतन्त्र है। इसका दूसरा नाम "विद्यापीठ" है। इसमें 23 से अधिक पटल हैं। यह तन्त्र पश्चिमाम्नाय से संबन्ध रखता है। विषय- आज्ञाप्रसाद, ब्रह्मविष्णु-दीक्षा, इन्द्रानुग्रह, न्यासक्रम, शब्दराशि, मालिनी-उद्धार, विद्याप्रकाशोद्धार, शंकरविन्यास, युगनाम, नामोद्धार आदि । मतंगपारमेश्वरतन्त्रम् - मतंग-परमेश्वर संवादरूप यह मौलिक तन्त्र (शैवागम) विद्यापाद, क्रियापाद, योगपाद और चर्यापाद नामक चार पादों में पूर्ण है। विद्यापाद में 15, क्रियापाद में 11, योगपाद में 7 तथा चर्यापाद में 9 पटल हैं। विद्यापाद पर नारायण-पुत्र रामकण्ठ कृत टीका है। मतंगभरतम् - ले.- लक्ष्मण भास्कर। 1000 श्लोक। विषयमतंगमतानुसारी नृत्य कला का विचार। मतंगवृत्ति - ले.- 1) रामकण्ठभट्ट । पिता एवं गुरु- नारायणकण्ठ । श्लोक-84871 2) ले.- सर्वात्मवृत्ति मतोत्सव - ले.- रुद्रयामल के अन्तर्गत, उमा- महेश्वर संवादरूप। श्लोक - 1100। 30 अध्यायों में पूर्ण। विषयमारण, मोहन, उच्चाटन, स्तम्भन, वशीकरण और उनके उपयोगी यन्त्र । उनकी विधि प्रायः हिन्दी में लिखी गई है। मतोद्धार - ले.- शंकर पण्डित। मत्तलहरी - ले.- विद्याधरशास्त्री। मत्तविलासप्रहसनम् - ले.- महेन्द्र विक्रमवर्मा। कापालिक का मदिरा के नशे में मत्त होने से अपने कपाल को कहीं भूल जाना और याद आने पर उसे ढूंढना - इस प्रहसन की कथा है। इसे हास्यरस का पुट देकर प्रस्तुत किया गया है। प्रहसन में दो चूलिकाएं हैं। मत्स्यपुराणम् - ले.- अठारह पुराणों में से एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। भगवान् विष्णु ने वैवस्वत मनु को मत्स्यरूप में दर्शन देकर, इस पुराण का कथन किया यह कथा इस पुराण के पंचम अध्याय में है, जो इस प्रकार है : एक बार मनु आश्रम में पितरों का तर्पण कर रहे थे कि अकस्मात् उनकी अंजुलि में एक मछली आकर गिरी। मनु का हृदय करुणा से भर आया और उन्होंने उसे अपने कमंडलु में रखा। कमंडलु में वह मछली एक दिन में सोलह अंगुल बडी हुई। उसने राजा से उसकी रक्षा करने की प्रार्थना की। राजा ने उसे एक बड़े घडे में रखा परंतु वहां भी उसका शरीर बढा। जैसे-जैसे मछली का शरीर बढता गया राजा उसे क्रमशः कुएं, सरोवर तथा समुद्र में छोडते गये। समुद्र में भी वह मत्स्य बढ़ने लगा। यह मत्स्य कोई अलौकिक जीव है, ऐसा सोचकर मनु ने उसे प्रणाम किया तथा पूछा कि वह कौन है। मत्स्य ने कहा "मैं विष्णु हूं और तुझे भविष्य की सूचना देने आया हूं। शीघ्र ही जलप्रलय होकर संपूर्ण सृष्टि का विनाश होने वाला है। उस समय तुम संपूर्ण जीवसृष्टि के नर-मादी जोडे साथ लेकर एक नौका में बैठे रहो, तथा नौका को मेरे सींग से बांध कर रखो। इस प्रकार में प्रलयकाल में मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा"। मनु ने वैसा ही किया। प्रलय सागर में नौका में बैठकर संचार करते समय मत्स्यरूपी विष्णु ने जो पुराण मनु को सुनाया वही मत्स्य पुराण नाम से प्रसिद्ध हुआ। रचनास्थल - इसके विषय में भी भिन्न-भिन्न मत हैं, दक्षिण भारत (श्री दीक्षितार), आंध्र प्रदेश (पार्गिटर), नाशिक (श्रीहाजरा) तथा नर्मदातट (श्री कांटावाला)। इनमें से अंतिम मत अधिक ग्राह्य माना जाता है। मत्स्यपुराण में नर्मदा की यशोगाथा तथा महत्ता का अत्यंत आत्मीयता से गुणगान हुआ है। प्रलय काल में सभी वस्तुओं का विनाश हुआ, तो भी कुछ वस्तुएं अवशिष्ट रहती हैं, जिनमें नर्मदा नदी एक है। इस संबंध में इस पुराण में कहा है कि हे राजा, सारे देवता दग्ध होने पर भी तुम अकेले बचे रहोगे। उसी प्रकार सूर्य, चतुलॊकसमन्वित ब्रह्मा, पुण्यप्रदा नर्मदा तथा महर्षि मार्कण्डेय बचे रहेंगे। ___ मत्स्यपुराण के रचियता नर्मदातीर के छोटे-छोटे स्थानों का भी वर्णन करते हैं। उसमें एक पूरे अध्याय में नर्मदा-कावेरी (यह कावेरी दक्षिण भारत की नदी नहीं है, तो ओंकारेश्वर के पास नर्मदा को मिलनेवाली एक छोटी सी नदी) संगम का वर्णन किया है। इस संगम को उन्होंने गंगा-यमुना के संगम के समान पवित्र और स्वर्ग तुल्य माना है। इसमें जिस दशाश्वमेघ घाट का वर्णन है, वह भडोच के पास नर्मदा पर स्थित है। भारभूति तीर्थ वर्तमान भांडभूत है। मत्स्यपुराण के रचना काल के बारे में विभिन्न मत हैं। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /247 For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारदपुराण तथा महाभारत में इस पुराण का उल्लेख है। आज यह पुराण जिस स्वरूप में है वह इ.स. 200 से 300 में तैयार हुआ ऐसा श्री हाजरा का मत है। पार्गिटर का मत है कि इस पुराण का अधिकांश भाग इ.स. 200 के बहुत पूर्व रचा गया है। आपस्तंब सत्र में, (जिसका काल ईसा के 600 से 300 वर्ष पूर्व है) मत्स्यपुराण का एक उध्दरण ज्यों का त्यों लिया गया है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्यपुराण की रचना आपस्तंब-सूत्र के बहुत पहिले हुई है। श्री बलदेव उपाध्याय इसका रचनाकाल सन् 200 से 400 मानते हैं और भारतरत्न काणे इसे 6 वीं शती की रचना मानते हैं। पारंपारिक क्रमानुसार यह 16 वां पुराण है। प्राचीनता व वर्ण्य-विषय के विस्तार तथा विशिष्टता की दृष्टि से, यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुराण है। 'वामनपुराण" में इस तथ्य की स्वीकारोक्ति है कि "पुराणों में मत्स्य सर्वश्रेष्ठ है- (पुराणेषु तथैव मात्स्यम्) । "श्रीमद्भागवत", "ब्रह्मवैवर्त' व रेवा-माहात्म्य" के अनुसार, इस पुराण की श्लोक-संख्या 19 सहस्र बताई है। परंतु पुणे के आनंदाश्रम से प्रकाशित "मत्स्य पुराण" में 291 अध्याय व 14 सहस्र श्लोक हैं। ___इस पुराण का प्रारंभ प्रलय-काल के मत्स्यावतार की घटना से होता है। इसमें सृष्टि-विद्या, मन्वंतर तथा पितृवंश का विशेष विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसके 13 वें अध्याय में वैराज-पितृवंश का, 14 वें अध्याय में अग्निष्वात्त एवं 15 वें अध्याय में बर्हिषद पितरों का वर्णन है। इसके अन्य अध्यायों में तीर्थयात्रा, पृथु-चरित, भुवन-कोष, दानमहिमा, स्कंद-चरित, तीर्थ-माहात्म्य, राजधर्म, श्राद्ध व गोत्रों का वर्णन है। इस पुराण में तारकासुर के शिव द्वारा वध की कथा, अत्यंत विस्तार के साथ कही गई है। भगवान् शंकर के मुख से काशी का माहात्म्य वर्णित कर विभिन्न देवताओं की प्रतिमाओं के निर्णय की विधि बतलायी है। इसमें सोमवंशीय राजा ययाति का चरित्र अत्यंत विस्तार के साथ वर्णित है तथा नर्मदा नदी का माहात्म्य 187 वें से 194 वें अध्याय तक कहा गया है। इसके 53 वें अध्याय में अत्यंत विस्तार के साथ सभी पुराणों की विषय-वस्तु का प्रतिपादन किया गया है, जो पुराणों के क्रमिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत उपादेय है। इसमें भृगु, अंगिरा, अत्रि, विश्वामित्र, काश्यप, वसिष्ट, पराशर व अगस्त्य प्रभति ऋषियों के वंशों का वर्णन है, जो 195 वें से 202 वें अध्याय तक दिया गया है। इस पुराण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है राज-धर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन, जिसमें दैव, पुरुषकार, साम, दान, दंड, भेद, दुर्ग, यात्रा, सहाय, संपत्ति एवं तुलादान का विवेचन है, जो 215 वें से 243 वें अध्याय तक विस्तारित है। इस पुराण में प्रतिमा-शास्त्र का वैज्ञानिक विवेचन है, जिसमें काल-मान के आधार पर विभिन्न देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण तथा प्रतिमा-पीठ के निर्माण का निरूपण किया गया है। इस विषय का विवरण 257 वें से 270 वें अध्याय तक प्रस्तुत किया गया है। मत्स्यसूक्त या मत्स्य-तन्त्र -पराशर-विरूपाक्ष संवादरूप। पटल 101 विषय-तारा, महोग्रतारा, कल्परहस्य, पूजाविधि आदि । मत्स्यसूक्तमहातन्त्रम् -पटलसंख्या- 60 । विषय-अशौच, प्रायश्चित्त, भद्रकाली आदि देवताओं का पूजन, इत्यादि । मत्स्यावतारचम्पू - ले.- नारायणभट्ट।। मत्स्योत्तरतन्त्रम् - यह योगिक क्रियाओं का प्रतिपादक तन्त्र ग्रंथ है। मथुरामहिमा - ले. रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण भक्ति पर काव्य। मथुरासेतु - ले.- अनन्तदेव । आपदेव के पुत्र । विषय- धर्मशास्त्र । मदनकेतुचरितम्(प्रहसन) - ले.- रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। प्रथम अभिनय भगवान् रंगनाथ के यात्रोत्सव में हुआ। मोक्षमार्ग प्रवण बनाने वाली यह कृति है। राजा तथा भिक्षु का नवीन दिशा में व्यक्तित्व चित्रित है। कथासार - सिंहल के राजा, मदनकेतु और भिक्षु विष्णुत्रात वेश्यागामी हैं। युवराज मदनवर्मा, शिवदास नामक कापलिक योगी की सहायता से दोनों को उस भ्रष्ट आचरण से छुडाता है। दोनो सन्मार्ग पर चलने का व्रत लेते हैं। मदनगोपालमाहात्म्यम् - ले.- श्रीकृष्णब्रह्मतन्त्र परकालस्वामी । ई. 19 वीं शती। मदन-गोपाल-विलास (भाण) - ले.- गुरुराम। मूलेन्द्र (उत्तर अर्काट जिला) के निवासी। ई. 16 वीं शती। मदनपारिजात - ले.- विश्वेश्वरभट्ट। मदनपाल के आश्रित। मदनभूषण (भाण) - ले.- अप्पा दीक्षित। 17 वीं शती (उत्तरार्ध)। इसका प्रथम अभिनय कावेरी तट पर, भगवान गौरीमायूरनाथ के मन्दिर की नाट्यशाला में वसन्तोत्सव के अवसर पर हुआ। इसमें मदनभूषण नामक विट को प्रातः से शाम तक झूमते हुए जो अनुभव मिले, उनका वर्णन है। यज्ञवाट, मनोरंजन वाट, कावेरी के तट पर का उपवन पार करके वह वेशवाट पहुंचता है। मार्ग में ब्रह्मचारी, वारांगनाएं, शैलूष, ज्योतिषी, विषहर, वैद्य, नट, नर्तक, आहितुण्डिक इत्यादि मिलते हैं। फिर, पौराणिक, विद्वान, वैष्णव भक्त और रामानुजसम्प्रदायी भी मिलते हैं अन्त में वह वेशवाट पहुंचता है। समाज को नीतिशिक्षा देकर, सत्पथ की ओर उद्युक्त करने के उद्देश्य से इस भाण की रचना हुई है। मदनमंजरी-महोत्सव (नाटक) - ले.-विलिनाथ। 17 वीं शती (पूर्वार्ध)। तमिलनाडु के निवासी। अंकसंख्या-पांच। प्रथम अभिनय भगवान तेजनीवनेश्वर के चैत्रयात्रा महोत्सव के अवसर पर। परधान रस शृंगार । बीच बीच में हास्य का पुट । अनुप्रास, 248 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूपक अलंकारों का प्रचुर प्रयोग। कई स्थानों पर संस्कृत-प्राकृत मिश्रित संवादयुक्त श्लोक है। कथावस्तु - पाटलपुर का राजा चन्द्रवर्मा चन्चाल के राजा पराक्रमभास्कर को बन्दी बनाकर उसके राज्यपर अधिकार कर लेता है। प्रज्ञावती नामक तपस्विनी परिव्राजिका को भी वह दासी बनाता है। पुष्करपुर के राजा धर्मध्वज की पुत्री हेमवती को वह पत्नीरूप में पाना चाहता है। उसे बचाने स्वयं शिव, कुबेर तथा महाकाल पुष्करपुर निकल पड़ते हैं। चन्द्रवर्मा के आतङ्क से अभिभूत धर्मध्वज उसे अपनी कन्या देना मान लेता है, तो दासी बनी प्रज्ञावती उसे नायक से मिलाने की ठान लेती है। वह कपट नाटक का अवलम्ब कर उसे मिलने का मार्ग प्रशस्त कराती है। अन्त में नायिका का विवाह राजा शिखामणि के रूप में भगवान् शिव के साथ होता है। मदनमहार्णव - ले. मांधाता। मदनपाल का द्वितीय पुत्र । श्रुति-स्मृति-पुराणों का समालोचन कर ई. 15 वीं सदी में यह ग्रंथ, पेदिभट्ट के पुत्र विश्वेश्वरभट्ट की सहायता से निर्माण किया। प्राक्तनकर्म और अदृष्ट के कारण किन रोगों की उत्पत्ति शरीर में होती है और धर्मशास्त्रोक्त होमहव-जप आदि दैवी उपचारों से उनका निवारण कैसे हो सकता है, यह इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय है। आयुर्वेद में “दृष्टापचारजः कश्चित्, कश्चित् पूर्वापराधः । तत्संस्काराद् भवेदन्यः" इस वचन में रोगों के जो तीन कारण माने जाते है, उसमें से “पूर्वापराधज" रोगों का निवेदन मदनमहार्णव में है। ग्रंथोक्त अध्यायों को “तरंग" कहा है। संपूर्ण तरंग संख्या-40। तरंगों के विषय-प्रायश्चित्त, परिभाषा, व्याधिप्रतिमा, प्राचार्यवरण, शांतिपाठ, होम, कर्मज और उभयज रोग, रूद्रसूक्त, पुरुषसूक्त विनायकशांति, ग्रहशांति, कृच्छदि व्रत इत्यादि । तरंग 8 से 38 तक में क्षय, ज्वर श्वास इत्यादि अनेकविध रोगों का वर्णन और उनके निवारणार्थ वैदिक होमहवनादि उपचार निवेदित है। अन्न की चोरी से पेट का दर्द; गोहत्या से मस्तक, कान आदि रोग, मंगलकार्य में क्रुद्ध होने से ज्वर; कृतघ्नता से कफ दमा; जलाशय में मलमूत्र विसर्जन करने से शोथ सूझन इस प्रकार के रोग होते हैं। उनका निवारण रुद्राभिषेक, चांद्रायणव्रत कृच्छ्रवत, मृत्युंजय-जप इत्यादि आधिदैविक उपचारों से होता है। तरंग 39 में अप्रतिष्ठा, दारिद्र निकृष्ठता, नित्य दुःख इत्यादि विषयों का परामर्श है। अंतिम तरंग में ग्रहपीडा और उसके निवारण के वैदिक उपचार बताएं हैं। मदनसंजीवनम् (भाण) - ले.-घनश्याम। (1700-1750 ई.) प्रथम अभिनय पुण्डरीकपुर (चिदम्बर) में, कनक सभापति के आर्द्रादर्शन के महोत्त्सव में। वेश्यागामियों का अनेकमुखी पतन दिखाकर, समाज को वेश्यागमन से परावृत्त करने हेतु लिखित रूपक। विविध संप्रदायों में प्रचलित लम्पटता एवं भ्रष्टाचार का भंडाफोड करनेवाली यह कृति महत्त्वपूर्ण है। मदनाभ्युदय (भाण) - ले.-कृष्णमूर्ति । ई. 17 वीं शती (उत्तरार्ध)। पिता-सर्वशास्त्री। मदालसाचम्पू - ले.-त्रिविक्रमभट्ट। ई. 10 वीं शती। पिता-नेमादित्य। मदिरोत्सव - ले.-ओमरखय्याम की रूबाइयों का संस्कृत अनुवाद। अनुवादक-प्रा. व्ही. पी. कृष्ण नायर । एर्नाकुलम (केरल) के निवासी। मद्रकन्या-परिणयचंपू - ले.-गंगाधर कवि। ई. 17 वीं शती का अंतिम चरण। यह चंपू-काव्य 4 उल्लासों में विभक्त है। इसमें "श्रीमद्भागवत" के आधार पर लक्ष्मणा व श्रीकृष्ण के परिणय का वर्णन किया है। मधुकेलिवल्ली - ले.-गोवर्धन। कृष्णलीला विषयक काव्य । मधुमती - ले.-नरसिंह कविराज । विषय-वैद्यकशास्त्र । मधुरवाणी - सन 1935 में बेलगांव (कर्नाटक) से गलगली पंढरीनाथाचार्य के सम्पादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। तेरह वर्ष तक बेलगांव से प्रकाशित होने के बाद, यह बागलकोट से और 1955 से गदग (धारवाड) से प्रकाशित हुई। इसका वार्षिक मूल्य पांच रूपये था। इसमें सरल निबन्ध और कविताओं का प्रकाशन होता था। गदग से इसके संपादन का दायित्त्व गलगली रामाचार्य और पंढरीनाथाचार्य ने संभाला। मधुरानिरुद्धम् (नाटक) - ले.-चयनी चन्द्रशेखर । सन 1736 ई. में उत्कल नरेश गणपति वीरकेसरी देव के राज्याभिषेक के अवसर पर रचित । शिवयात्रा में उपस्थित महानुभावों के प्रीत्यर्थ अभिनीत। अंकसंख्या-आठ। उषा-अनिरूद्ध के परिणय की कथा, किन्तु कल्पित कथांश कतिपय स्थानों पर जोडे हुए हैं। प्रधान रस- श्रृंगार। अंगरस- वीर। आख्यायनात्मक शैली, अतएव कलात्मक नाट्यमयता की कमी है। इसमें लम्बे वर्णन है। परंतु प्रवेशक तथा विष्कम्भक का अभाव है। मथुराविजयम् (या वीरकंपराय-चरितम्) - कवियित्री गंगादेवी। विजयनगर के राजा कंपण की महिषी व महाराज बुक्क की पुत्रवधू। गंगादेवी ने प्रस्तुत ऐतिहासिक महाकाव्य में अपने पराक्रमी पति की विजय-यात्रा का वर्णन किया है। यह काव्य अधूरा है, और 8 सर्गों तक ही प्राप्त होता है। मधुवर्षणम् - ले.-दुर्गादत्त शास्त्री। निवास- कांगडा जिला (हिमाचल प्रदेश) में नलेटी नामक गांव। इस काव्य में सात सर्ग हैं। मधुवाहिनी - ले.-कल्लट । विषय- शैवागम। मध्यग्रहसिद्धि - ले.- नृसिंह। ई. 16 वीं शती। मध्यमव्यायोग - ले.- महाकवि भास। व्यायोग एक अंक का रूपक होता है। इसमें द्वितीय पांडव भीम और हिडिंबा की प्रणयकथा व उनके पुत्र घटोत्कच द्वारा सताये गये एक ब्राह्मण की भीम द्वारा मुक्ति का वर्णन है। घटोत्कच अपनी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /249 For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra माता हिडिंबा के आदेश से एक ब्राह्मण को सताता है। भीम ब्राह्मण को देख उसके पास जाते हैं, और हिडिंबा अपने पति (भीम) से मिलकर अत्यंत प्रसन्न होती है और अपना रहस्योद्घाटन करती हुई कहती है कि उसने भीम से मिलने के लिये ही वैसा षडयंत्र किया था। घटोत्कच भी अपने पिता से मिलकर अत्यंत प्रसन्न होता है। इस नाटक में मध्यम शब्द, मध्यम (द्वितीय) पांडव भीम का द्योतक है।. www.kobatirth.org भास ने इस व्यायोग के कथानक को "महाभारत" से काफी परिवर्तित कर दिया है। इसमें भीम का व्यक्तित्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, पर रूपक का संपूर्ण घटनाचक्र घटोत्कच पर केंद्रत है। व्यायोग का कथानक प्रसिद्ध व नायक धीरोद्धत्त होता है। इसमें वीर व रौद्र रस प्रधान होते हैं तथा गर्भ व विमर्श संधियां नहीं होती। मध्यमहृदय-रिका ले. - भावविवेक । बौद्धमत के शून्यवाद पर स्वतंत्र रचना । तिब्बती तथा अन्य अनुवादों से यह ग्रंथ ज्ञात है। मध्यमार्थसंग्रह - ले. भावविवेक प्रतिपाद्य विषय- शून्यवाद । तिब्बती अनुवाद से ज्ञात । मध्यान्तविभंग (मध्यांतविभाग) से. मैत्रेयनाथ कुछ संस्कृत मूल अंश उपलब्ध हैं। विधुशेखर भट्टाचार्य तथा डा. तशी ने इस ग्रंथ के प्रथम परिच्छेद का तिब्बती भाषा से संस्कृत में पुनरनुवाद कर मुद्रण किया। संपूर्ण ग्रंथ का आंग्लानुवाद डा. चेरवास्की ने किया है। ग्रंथरचना कारिकाबद्ध है। आचार्य वसुबन्धु ने इस पर भाष्य लिखा तथा उनके शिष्य आचार्य स्थिरमति ने टीका लिखी है। योगाचार मत के जटिल सिद्धान्तों का प्रतिपादन मूल ग्रंथ में और उसका उत्तम स्पष्टीकरण भाष्य तथा टीका में है। मध्वसिद्धांतसार ले. पद्मनाभाचार्य ई. 16 वीं शती मनुस्मृति मनुद्वारा रचित वैदिक धर्मशास्त्र का एक प्रमुख ग्रंथ । संपूर्ण स्मृतियों में मनुस्मृति को विशेष प्रामाण्य है यह बात निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट होती है "यद्वै किंचन मनुरवदत् तद् भेषजम्” जो कुछ मनु ने कहा है वह औषधि के समान है। ( तैत्तिरीय संहिता 2.10.2 ) वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते । । वेदों के अर्थों का उपनिबंधन करने के कारण मनु की स्मृति को प्राधान्य प्राप्त हुआ है। मनु के अर्थ से विपरीत जो स्मृति होगी वह अप्रशस्त है (स्मृतिकार बृहस्पति ) । यह माना गया है कि मूल मनुस्मृति में देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार संशोधन तथा परिवर्तन हुआ है। आज जो मनुस्मृति उपलब्ध है, उसमें 12 अध्याय हैं तथा 2684 श्लोक हैं। वेदों के बाद भारतीय हिंदुओं का यह प्रमाणभूत ग्रंथ है। 250 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वह हिंदुओं की संस्कृति तथा आचार-विचार का आधारस्तंभ है शताब्दियों से हिंदुओं के वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन का नियमन इसके द्वारा हुआ है। आज भी करोडों हिंदुओं का आचार-विचार तत्त्वतः मनुस्मृति पर ही आधारित है। रचनाकाल - मूल मनुस्मृति का रचनाकाल निश्चित करना बडा कठिन है। श्री मंडलिक मनुस्मृति को महाभारत के बाद की रचना, तो हापकिन्स तथा बुल्हर महाभारत के पहले की रचना मानते हैं। महाभारत के अधिकांश पर्वों में "मनुरब्रवीत्", "मनोः राजधर्मो" मनोः शास्त्रम्" आदि शब्दप्रयोग है तथा मनुस्मृति के उद्धरण भी है। धर्मशास्त्र इतिहास के लेखक भारतरत्न म.म. काणे ने इस संबंध में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है- ई. पूर्व चौथी शताब्दी के बहुत पूर्व स्वयंभुव मनुकृत एक धर्मशास्त्र ग्रंथ था, जो संभवतः श्लोकबद्ध था । उसी प्रकार संभवतः प्राचेतस मनु का राजधर्म नामक ग्रंथ का भी उसी समय अस्तित्व था। यह भी संभव है कि उपर्युक्त ग्रंथ पृथक्-पृथक् न होकर, धर्म तथा राजनीति, दो विषयों का एक ही बृहद् ग्रंथ है। महाभारत के अनुशासन पर्व में, “प्राचेतसस्य वचनं कीर्तयन्ति पुराविदः " वचन है ( पुरातत्त्ववेत्ता प्राचेतस के वचन प्रशंसा से गाते हैं) यास्क, गौतम, बोधायन तथा कौटिल्य ने "मनु का मत" या "मानव के मत" जो शब्दप्रयोग किये हैं वे संभवतः प्रस्तुत प्राचीन ग्रंथ के संबंध में हों तथा यही प्राचीन ग्रंथ वर्तमान मनुस्मृति का मूल हो । प्रचलित मनुस्मृति में पूववर्ती ग्रंथ के कुछ भाग का संक्षेप तथा कुछ भाग का विस्तार किया गया है। इसीलिये प्राचीन मनु की रचना के अनेक श्लोक आज की मनुस्मृति में हैं तथा अनेक श्लोक नहीं हैं। इससे अनुमान निकलता है कि आज का महाभारत आज की मनुस्मृति के बाद रचा गया। नारद कहते हैं कि सुमतिभार्गव ने मनु का बृहद् ग्रंथ 4 हजार श्लोकों में संक्षिप्त किया। यह मत बहुधा सत्य पर आधारित है, क्योंकि साम्प्रत की मनुस्मृति में 2684 श्लोक हैं। नारद ने 4 हजार संख्या इसलिये दी कि उन्होंने वृद्धमनु और बृहन्मनु के श्लोकों का समावेश भी उसमें कर लिया हो । विश्वरूप, मिताक्षरा, स्मृतिचंद्रिका तथा पराशरमाधवीय ग्रंथों में वृद्ध मनु तथा बृहन्मनु के श्लोक दिये गये है। दोनों मनु के स्वतंत्र ग्रंथ आज तक उपलब्ध नहीं हुये हैं। यदि वे उपलब्ध हुए तो ज्ञात होगा कि वे मनु के बाद के हैं। विद्वानों का मत है कि साम्प्रत की मनुस्मृति भृगुप्रोक्त है तथा ई. पूर्व 2 री शताब्दी से ई. दूसरी शताब्दी तक की कालावधि में किसी समय निर्माण हुई हो । अध्यायानुसार विषयवस्तु 1) सृष्टि की उत्पत्ति 2) धर्म का सामान्य लक्षण, 3) गृहस्थाश्रम, 4) जीवनोपाय, 5) भक्ष्याभक्ष्य, 6) वानप्रस्थ, 7) राजधर्म, 8) व्यवहार, 9) स्त्रीरक्षा, 10 ) वर्णसंकर, 11) स्नातक के प्रकार, 12) शुभाशुभ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कर्मों के फल । मनुस्मृति का वर्ण्य विषय अति व्यापक है। इसमें राजधर्म, धर्मशास्त्र, सामाजिक नियम तथा समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं हिंदु विधि की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है | राज्यशास्त्र के अंतर्गत राज्य का स्वरूप, राज्य की उत्पत्ति, राजा का स्वरूप, मंत्रि परिषद्, मंत्रि-परिषद् की संख्या, सदस्यों की योग्यता, कार्यप्रणाली न्यायालयों का संगठन व कार्यप्रणाली, दंड विधान, दंड - दान सिद्धान्त कोश-वृद्धि के सिद्धान्त, लाभकर, षाड्गुण्य मंत्र, युद्ध-संचालन, युद्धनियम आदि विषय वर्णित हैं। धर्मशास्त्रइसके अंतर्गत धर्म की परिभाषा, धर्म के उपादान, वेद, स्मृति, भद्र पुरुषों का आधार, आत्मतुष्टि, कर्म-विवेचन, क्षेत्रज्ञ, भूतात्मजीव, नरक कष्ट, सत्त्व-रज-तम का विवेचन, निःश्रेयस की उत्पत्ति, आत्मज्ञान, प्रवृत्ति व निवृत्ति का वर्णन है। सामाजिक विधि- इसके अंतर्गत वर्णित विषय हैं- पति-पत्नी के व्यवहारानुकूल कर्त्तव्य, बच्चे पर अधिकार का नियम, प्रथम पत्नी के अतिक्रमण का समय विवाह की अवस्था, बंटवारा व उसकी अवधि, ज्येष्ठ पुत्र का विशेष भाग, दत्तक पुत्र-पुत्रियां, दायभाग, स्त्री धन के प्रकार व उसका उत्तराधिकार, वसीयत से हटाने के कारण, माता एवं पितामह उत्तराधिकारी के रूप में आदि । मनुस्मृति के टीकाकार1) मन्वर्थमुक्तावलीकार कुल्लुकभट्ट ये वारेन्द्री (बंगाल में राजशाही) के निवासी थे। 2) मन्वाशयानुसारिणीकार गोविन्दराज 3) नन्दिनी टीकाकार नन्दनाचार्य । 4) मन्वर्थचन्द्रिकाकार राघवानन्द सरस्वती। 5) सुखबोधिनीकार मणिराम दीक्षित 6) मन्वर्थविवृत्तिकार नारायण सर्वज्ञ। इन के अतिरिक्त, असहाय, उदयकर, कृष्णनाथ, धरणीधर, यज्वा, रामचंद्र और रूचिदत्त द्वारा टीकाओं का उल्लेख मिलता है। व्ही. एन. मंडलीक द्वारा अनेक टीकाओं का प्रकाशन हुआ है। मनोदूतम् ले. कवि विष्णुदास । ई. 16 वीं शती। यह शांतरसपरक काव्य है। इसमें कवि ने अपने मन को दूत बना कर भगवान् कृष्ण के चरण कमलों में अपना संदेश भिजवाया है। कवि ने अपने मन को यमुना, वृंदावन व गोकुल में जाने को कहता है। संदेश के क्रम में यमुना व वृंदावन की प्राकृतिक छटा का मनोरम वर्णन है। इस काव्य की रचना "मेघदूत" के अनुकरण पर हुई है। इसमें कुल 101 श्लोक है। भाव, विषय व भाषा की दृष्टि से यह काव्य उत्कृष्ट है। वैष्णव दूतकाव्यों में, यह प्रथम माना जाता है । ले-तेलंग 2) व्रजनाथ । रचनाकाल- वि.सं. 1814 रचना-स्थल-वृंदावन। "मनोदूत"" की रचना का आधार "मेघदूत" ही है। इसमें 202 शिखरिणी छंद है और चीर हरण के समय असहाय द्रौपदी द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के पास संदेश भेजने का वर्णन है । कवि ने प्रारंभ में मन की अत्यधिक प्रशंसा की है। पश्चात् द्वारकापुरी का रम्य वर्णन है। इसमें कृष्ण भक्ति एवं भगवान् की अनंत शक्ति का प्रभाव दर्शाया गया है। मनोनुरंजनम् (हरिभक्ति) ले. अनन्त देव । 16वीं शती ( उत्तरार्ध) यह वैदर्भीय रीति में रचित पांच अंकों का श्रीकृष्णविषयक नाटक है प्रमुख रस भक्त, परंतु शृंगार में डूबी हुई। पूरे नाटक में एक भी प्राकृत वाक्य नहीं । सौ से अधिक में संगीतमयी शैली है। छायानाट्य तत्त्व का प्रयोग । कथावस्तु ब्राह्मणों एवं गोपालों के साथ नन्द यमुनातट पर स्थित गोवर्धन पर यज्ञ का आयोजन करते हैं । परंतु विवाद उठता है कि देवराज की सेवा नन्दराजा क्यों करें। कृष्ण का कथन है कि ब्राह्मण, गोमाता तथा गोवर्धन ही हमारे पोषक हैं, अतः उन्हीं की पूजा समुचित है। इन्द्र इस बात पर क्रुद्ध होते हैं और पूरे गोकुल को वर्षा से बहा देने की आज्ञा मेघों को देते हैं परंतु विजय श्रीकृष्ण की होती है, तथा इन्द्र क्षमायाचना करते हैं। पांचवे अंक में गोपियां यमुना में स्नान करती हैं, जब कृष्ण उनके वस्त्र उठाकर मित्र श्रीदामा के साथ कदंब वृक्ष पर चढ बैठते हैं और शाम को रासक्रीडा होती है। अन्त में कृष्ण नारद से कहते हैं कि हमारे गुणसंकीर्तन के लिए एक सम्प्रदाय बनाओ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मनोबोध - श्रीसमर्थ रामदास स्वामी विरचित "मनाचे श्लोक " (संख्या 205) नामक सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक मराठी काव्य का अनुवाद | अनुवादक- श्रीरामदासानुदास कहलाते है । 2 ) अनुवादक- तपतीतीरवासी। 3) अनुवादक- पांडुरंग शास्त्री डेगवेकर। ठाणे के निवासी। 4) अनुवादक- श्या. गो. रावळे । मनोयानम् (खंडकाव्य) ले. पं. कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे इसके रचयिता काठमांडु (नेपाल) के निवासी एवं श्रीकृष्णचरित महाकाव्य आदि 12 ग्रंथों के निर्माता है। कविरत्न और विद्यावारिधि इन उपाधियों से विभूषित आप 20 वीं शती के प्रमुख लेखकों में मान्यताप्राप्त है। For Private and Personal Use Only मनोरमा ले. - रमानाथ । ई. 16 वीं शती । यह कातंत्र धातुपाठ की वृत्ति है। - मनोरमा सन 1949 में बेहरामपुर (गंजाम) से अनन्त त्रिपाठी के सम्पादकत्व में इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्र के प्रथम भाग में किसी ग्रंथ का अंश तथा दूसरे भाग में दार्शनिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक निबन्धों का प्रकाशन होता है। इस में ताम्रपत्रों पर अंकित श्लोकों का प्रकाशन भी हुआ। मनोरमाकुचमर्दिनी (टीका) (या कुचमर्दन) ले. पंडितराज जगन्नाथ। भट्टोजी दीक्षित कृत प्रौढ मनोरमा नामक टीका में प्रतिपादित मतों के खंडनार्थ यह टीका लिखी गई है। मनोरमातंत्रराज- टीका ले. प्रकाशानन्द। ई. 15 वीं शती । मंधरादुर्विलसितम् ले कवीन्द्र परमानन्द शर्मा ई. 19-20 वीं शती । लक्ष्मणमठ के ऋषिकुल के निवासी । इनके संपूर्ण रामचरित्र के भागों में यह एक है। शेष भाग अन्यत्र उद्धृत हैं। - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 251 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन्थानभैरवम् (तंत्र) - श्रीनाथ -श्रीवक्रा संवादरूप यह कौलतन्त्र है। पटल 99। श्लोक 240001 विषय- क्षेत्रपाल मन्त्र, भैरव-ध्यानसूत्र, महामूर्ति भैरव के आठ वदनों में चतुःषष्टि कलाचक्र, योनिसंस्कार, विधि, सुक्-स्रुव-संस्कारविधि, घृतसंस्कारविधि इत्यादि। मंदाकिनी - कवि- श्रीभाष्यम् विजयसारथि। वरंगल (आन्ध्र प्रदेश) के निवासी। पंडितराज जगन्नाथ की सुप्रसिद्ध गंगालहरी के समान प्रस्तुत प्रदीर्घ गीतिकाव्य में भगवती गंगा मैया की सर्वांगीण स्तुति कवि ने प्रस्तुत की है। अनेक अप्रचलित नामों एवं क्रियापदों का प्रयोग कवि ने सर्वत्र भरपूर मात्रा में किया है, जिनके सुबोध संस्कृत पर्याय कवि ने अंत में दिए हैं। सन 1980 में यह गीतिरूप खंडकाव्य वरंगल की "संस्कृत भारती" संस्था द्वारा प्रकाशित हुआ। मन्दाक्रान्तावृत्तम् - ले.-म.म. कालीपद तर्काचार्य (1888-1972) मंदारमंजरी - ले.- व्यासतीर्थ । मन्दारमंजरी (कथा)- ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय । पटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। मंदार-मरन्दचंपू - प्रणेता-श्रीकृष्ण कवि। समय- 16-17 वीं शती। इस चंपू-काव्य की रचना लक्षण ग्रंथ के रूप में हुई है, जिसमें 200 छंदों के सोदाहरण लक्षण व नायक, श्लेष, यमक, चित्र, नाटक, भाव, रस, 116 अलंकार, 87 दोष-गुण तथा शब्द-शक्ति पदार्थ व पाक का निरूपण है। इसका वर्ण्य-विषय 11 बिंदुओं में विभक्त है। भूमिका-भाग में कवि ने प्रबंधत्व की सुरक्षा के लिये एक काल्पनिक गंधर्व-दंपती का वर्णन किया है, और कहीं कहीं राधा-कृष्ण का भी उल्लेख किया है। ये सभी वर्णन छंदों के लक्षण व उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये हैं। इसका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस, मुंबई (काव्यमाला 52) से, सन 1924 में हो चुका है। मन्त्रकमलाकर - ले.- कमलाकरभट्ट। पिता- रामकृष्णभट्ट । विषय- दीक्षाविधि, महागणपतिपद्धति, गणेशमन्त्र, रामपूजाविधि, राममन्त्रोद्धार, कार्तवीर्य-दीपदानप्रयोग, कार्तवीर्यार्जुन-पद्धति, बन्ध्यत्व की निवृत्ति, सर्प-विष को उतारना, कार्तवीर्य सहस्रनामस्तोत्र इ. श्लोक- 45051 मंत्रकाशीखंड -टीका- ले.-नीलकंठ चतुर्धर । पिता- गोविंद। माता- फुल्लांबिका। ई. 17 वीं शती। मन्त्रकौमुदी - ले.-देवनाथ ठक्कुर तर्कपंचानन। मन्त्रकल्प- मन्त्रचिन्तामणि के अन्तर्गत हर-गौरी संवादरूप। विषय- अभीष्ट फलप्रद विविध मन्त्रों की विधि, जिनमें ये मुख्य हैं- मोहनमंत्र, राजवशीकरणमंत्र, जीवनपर्यन्त स्वामी को वश में रखने वाला मन्त्र, दिव्य स्तम्भनमंत्र, राजकीयमोहनमंत्र, दुष्टवशीकरण मंत्र, मृत्युंजय मंत्र, धनिकवशीकरण मंत्र, विवाद में विजय करानेवाला मंत्र, जगद्वशीकरण मंत्र, मृत्युवशीकरण मंत्र, स्वामी को वश में करने वाला कालानलमंत्र, कोपहरण करनेवाला मंत्र, स्त्रीसौभाग्यप्रद मंत्र, प्रियवशीकरण-मंत्र, कामराजमंत्र, कामिनीमदनभंजनमंत्र राजांगना को वश में करने वाला मंत्र, आकर्षणमंत्र, प्रियदर्शनमंत्र, मानिनीकर्षणमंत्र, मुखस्तंभमंत्र, इ.। मन्त्रकल्पलता - तरंग- 8। विषय- महाविद्या आदि देवियों तथा देवों के मन्त्र और मन्त्रों के ऋषि, छन्द, देवता इ.। मन्त्रगणेशचन्द्रिका - विषय- महागणपति, लक्ष्मीविनायक, वक्रतुण्ड, विद्यागणपति, शक्तिगणेश, हेरम्बगणपति, हरिद्रागणेश आदि विभिन्न गणेशों की पूजापद्धति । मन्त्रकोश - 1) ले.-आशादित्य त्रिपाठी। श्लोक- 5000। ___2) ले. म.म. जगन्नाथ भट्टाचार्य। श्लोक- 279। विषयवर्णों की उत्पत्ति को प्रकारों का वर्णन करते हुए तन्त्रोक्त संकेत से उनके पर्याय प्रतिपादित। ____3) ले. दक्षिणामूर्ति। 4) ले. विनायक। 5) वामकेश्वरतंत्र से गृहीत। 6) ले. आशादित्य त्रिपाठी। दाक्षिणात्य। ई. 18 वीं शती। 20 परिच्छेदों में पूर्ण । चार काण्डों में सामवेद-गृह्यसूत्र के मन्त्रों की व्याख्या है। मन्त्रचन्द्रिका - ले.-जनार्दन गोस्वामी। पिता- जगन्निवास । प्रकाश- 12। श्लोक 2513। विषय- पंच देवों की पूजा तथा मन्त्रों का प्रतिपादन। मन्त्रचन्द्रिका - ले. काशीनाथ। पितामह- भडोपनामक शिवराम भट्ट। पिता- जयराम भट्ट। ग्रंथ साधारण तांत्रिक विधियों से पूर्ण। विविध देवियों के मन्त्र का इसमें प्रतिपादन है। विषयदीक्षाविधान, सामान्य पूजाविधि, गणेश-मंत्रविधान, राममंत्र आदि, वैष्णव मंत्रों का विधि, वागीश्वरी-मंत्रविधि, महाविद्या-मंत्रविधि, शैव सुब्रह्मण्यादि मंत्रों का विधान आदि। श्लोक- 1500 । प्रकाश- 9। प्रकाशों के क्रमशः विषय-1) गणेश, वक्रतुण्ड, मंदारमालिका (वीथी) - ले.-दामोदरन् नम्बुद्री (ई. 19 वीं शती)। मन्दारवती- ले. कृष्णम्माचार्य। रंगनाथाचार्य के पुत्र । आधुनिक उपन्यास तन्त्र के अनुसार रचना। 18 प्रकरण। मन्दोर्मिमाला - ले.-डा. श्री. भा. वर्णेकर, नागपुर निवासी। इसमें चार सौ श्लोक अन्तर्भूत हैं। कवि ने यह प्रथम रचना छात्रदशा मे की है। स्वाध्याय मंडल, किलापारडी (गुजरात) द्वारा सन 1954 में प्रकाशित । मन्मथ-मन्थनम् (डिम) - ले.-रामकवि । ई. 19 वीं शती । 2) काव्य। ले. सुब्रह्मण्यसूरि । मन्मथविजयम् (रूपक) - ले.-वेकट राघवाचार्य। ई. 19 वीं शती। 252 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वीरगणेश, लक्ष्मीगणेश, शक्तिगणेश, हरिद्रागणेश के मंत्र आदि का निरूपण 2) वाग्वादिनी, हंसवागीश्वरी, बाला, भैरवी, कामेश्वरी, राजमातंगी के मन्त्र आदि का प्रतिपादन । 3) भुवनेश्वरी, दुर्गा, जयदुर्गा, लक्ष्मी अन्नपूर्णा के मंत्र आदि। 4) अश्वारूढा, गौरी, ज्येष्ठ लक्ष्मी, वहितवासिनी, शिवदूती, त्रिकण्टकी, बगलामुखी के मंत्र आदि । 5) उग्रतारा, दक्षिणाकालिका, धूमावती, भद्रकाली, महाकाली, उच्छिष्टचाण्डालिनी, धनदयक्षिणी, के मन्त्र आदि । 6) वराह, सुदर्शन, पुरुषोत्तम से मंत्र कथन। 7) हृषीकेश, श्रीधर, नृसिंह, राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान् आदि के मन्त्र आदि । 8) गोपाल, कामदेव, कार्तवीर्यार्जुन, सूर्य, चंद्र आदि के मंत्र । अघोर, नीलकण्ठ, क्षेत्रपाल, 9) शिव- दक्षिणामूर्ति, मृत्युजंय बटुक आदि के मन्त्र । www.kobatirth.org - मन्त्रचिन्तामणि 1) बटुक भैरव - मन्त्रविधान वर्णित । श्लोक- 9321 विषय बटुक भैरव के मन्त्र, ऋषि, देवता, छन्द आदि का वर्णन, पुरश्चरण, पुरश्चरण-प्रयोग, मंत्र-संन्ध्या आदि, गावत्री आदि वहिमनुका आदि का निरूपण, सिंहबीजन्यास आदि कथन, विशेष अर्ध्य स्थापन की विधि, प्रमेय आदि आवरण देवों की पूजा, रुद्राक्षमालाभिमन्त्रविधि, बलिदानविधि, सात्त्विक और राजस भेद से बलि के दो प्रकार, लक्षण आदि कथा, दीपदान विधि, आकर्षण, विद्वेषण आदि कर्मो में दीप के लिए घृत, तेल आदि के भेद का कथन, धारण मन्त्र के लक्षण, सात्त्विक ध्यान कथन, अनन्तर राजसध्यान कथन, जन्ध्या की चिकित्सा, प्रज्ञाप्राप्ति के निमित्त औषधि, आपदुद्धरण आदि । मंत्रचिन्तामणि - ले. (१) ले दामोदार पण्डित पितागंगाधर। श्लोक - 696 नौ पीठिकाओं में पूर्ण । विषय- मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण तथा विपत्ति से मोचन करानेवाले विविध प्रकार के मंत्रों का वर्णन। 2) ले - शिवराम शुक्ल । श्लोक- 189। 3 ) ले आदिनाथ । 4 ) ले नित्यनाथ। 5 ) ले- नृसिंहाचार्य । 6 ) ले शिवराम । मंत्रचिन्तामणि ले. - ( नामान्तर मंत्रराजागमशास्त्र) श्यामाचार्य । श्लोक- लगभग 1440 लिपिकाल- 1831 वि. मंत्रचिन्तामणि ( वश्याधिकार मात्र) हर-गौरी संवादरूप | विषय- महामोहनमंत्र, राजमोहनमंत्र, मृत्युंजय मंत्र, शत्रुस्वानुकूलकर मंत्र, क्रोधशमन मन्त्र, स्वीसौभाग्यकर मंत्र, स्त्रीवश्यकर मंत्र, मदनमर्दन मंत्र, कामराजमंत्र 1 - - - मंत्रदर्पण ले. वागीश्वर शर्मा । श्लोक- 10238 । मंत्रदीपिका ले. - श्रीकृष्ण शर्मा । श्लोक - 1362 । मंत्रदेवप्रकाशिका - ले. श्रीविष्णुदेव । पितामह- परमाराध्य । पिता- लक्ष्मीधरसूरि । पटल- 321 श्लोक- 1161 विषय दीक्षा, होम तथा अन्यान्य तान्त्रिक विधियां, विविध देवियों की पूजा और मंत्र । मंत्रपद्धति ले. श्रीदत्त । श्लोक- 2001 कल्प-7। विषयभूतशुद्धि, विविध प्रकार के न्यास, पुरश्चरण, दीक्षा और विभिन्न वैष्णवी देवियों की पूजा । (2) ले सोमनाथ । मंत्रपारायणम् श्लोक- 160। इसमें त्रिपुरोपनिषद् भी सम्मिलित है। - मंत्रपारायणप्रयोग ले. बुद्धिराज श्लोक- 5261 मंत्रपुरश्चरणम् ले गोविन्द कविकंकण । मंत्रप्रकाश ले. सोमनाथ भट्ट । विषय- शाबर मंत्रों की साधना । मंत्रप्रदीप 1) ले. आगमाचार्य हरिपति । पिता रुचिपति । श्लोक- 4640 पटल - 15 विषय- दीक्षा की आवश्यकता, सिद्ध आदि मंत्रों का निर्णय, अकडमादिचक्रविधि, नाडीविधि, राशिचक्र, नक्षत्रचक्र, ऋणधन जिज्ञासा, कुल, अकुल आदि का विचार, मंत्रों के बालादि भेद, मंत्र-संस्कार दीक्षा का समय, देश, गुरु, शिष्य आदि का निरूपण, दीक्षाविधि ग्रहणकाल आदि की दीक्षा, नवग्रहोमविधि, वागीश्वरी, भुवनेश्वरी, नित्या, दुर्गा, बाला, गणेश, चन्द्र, कार्तिकेय आदि के मंत्र, सर्वदेवता-प्राणप्रतिष्ठा, प्रशस्त आसन, श्रीकण्ठादि न्यास, मालाद्रव्य, जपविधि, माला - संस्कार, त्रिशक्ति पूजा, छिन्नमस्ता, उग्रतारा, उच्छिष्ट- चाण्डाली के पूजन आदि कथन, सुन्दरी तथा त्रिपुरसुन्दरी की पूजाविधि, नवदुर्गा पूजाविधि आदि 2) ले काशीनाथ भट्टाचार्य श्लोक1207 I परिच्छेद- 4 | विषय- मंत्रार्थ, मंत्रचैतन्यकरण, योनिमुद्रानिरूपण इ. मंत्रार्थ - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - मंत्र- ब्राह्मणम् ( सामवेदीय) इस ब्राह्मण में दो प्रपाठक है। प्रत्येक प्रपाठक में 8 खण्ड हैं। इसमें भिन्न भिन्न वेदों से लिए गए मंत्रों का संग्रह है। कौथुम शाखा के सब ब्राह्मण छान्दोग्य ब्राह्मण के सामान्य नाम से पुकारे जाते हैं, पर इस ब्राह्मण को विशिष्ट रूप से छान्दोग्य - ब्राह्मण कहते हैं। कुछ अभ्यासकों का तर्क है कि पंचविंश, षडविंश, मंत्र ब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषद् ये सब मिलाकर एक ही ताण्ड्य या छान्दोग्य ब्राह्मण था । इस का संपादन सन 1901 में स्टोनर ने और सत्यव्रत सामश्रमी ने संवत् 1947 में कलकत्ता में किया। - I मंत्रभागवतम् ले. नीलकंठ चतुर्धर । पिता- गोविंद। माताफुल्लांबिका ई. 17 वीं शती कोपरगांव (महाराष्ट्र) निवासी। इस पर लेखक ने मंत्ररहस्य - प्रकाशिका नाम टीका लिखी है। राम और कृष्ण के चरितानुसार वेदमंत्रों का व्याख्यान करने का प्रयत्न ग्रंथकार ने किया है। श्लोकसंख्या- 1100 । - मंत्रमहोदधि ले. - महीधर । पितामह - रत्नाकर। पितारामभक्त राजा लक्ष्मीनृसिंह की संरक्षकता में संवत् 1645 में इसका निर्माण हुआ था। तांत्रिक पूजा का विवरणात्मक ग्रंथ । तरंग- 25 श्लोक- 3000। इसके प्रारंभ में ग्रंथकार ने लिखा संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 253 - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है कि अनेक तंत्रों का अवलोकन कर मैं (महीधर) मंत्र महोदधि का प्रतिपादन करता हूं। विषय- उपासक के प्रातःकालीन कृत्य, भूतशद्धि, गणेशमंत्र, काली, सुमुखी तथा तारा के मंत्र, तारामंत्र-भेद, छिन्नमस्ता, यक्षिणी, बाला, लघुयामा, अन्नपूर्णा, बगला आदि के मंत्र। श्रीविद्या के मंत्र । सुन्दरी की पूजाविधि, हनुमानजी के मंत्र, विष्णु, शिव, सूर्य आदि के मंत्र, पवित्रारोपण, मंत्रशोधन, षट्कर्म आदि का निरूपण इत्यादि। मंत्रमहोदधि की टीकाएं- 1) नौका टीका ग्रंथकार कृत, 2) पदार्थादर्श-काशीनाथ कृत, 3) मंत्रवल्ली गंगाधरकृत। मंत्रमंजूषा - ले.- त्रिविक्रम भट्टारक । गुरु- रामभारती। श्लोक15001 मंत्रमाला - इसमें देवियों के मंत्रों का संग्रह तथा तंत्रानुसारी क्रियाएं, ऋषि, न्यास, ध्यान आदि वर्णित हैं। ये सब मंत्र आदि भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, पद्मावती, जयदुर्गा और लक्ष्मी के हैं। मंत्रमुक्तावली - 1) ले- पूर्णप्रकाश । गुरु-परमहस परिव्राजकाचार्य अनन्तप्रकाश। पटल- 25, विषय- बहुत सी तांत्रिक विधियां, दीक्षा, विभिन्न देवियों के पुरश्चरण, पूजा, मंत्र इ.। श्लोक5000। 2) पार्वती- महेश्वर संवादरूप ।श्लोक- 100। इसमें 16 पटलों में विविध मंत्र, ध्यान, न्यास, कवच, सहस्रनामस्तोत्र वर्णित हैं तथा 17 वें पटल में छिन्नमस्ता के सहस्रनाम दिये गये है। मंत्रमुक्तावली विधि- तंत्रसारोक्त । विषय- भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, त्रिपुरा, महिषमर्दिनी, जयदुर्गा, श्री, हरिद्रागणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, रामचंद्र, वासुदेव, नृसिंह, वराह, कृष्ण, शिव, क्षेत्रपाल,भैरव, भद्रकाली आदि के विविध मंत्र। वीरसाधना आदि के मंत्र। मारण, मोहन आदि के मंत्र एवं अदर्शन-मंत्र। मंत्ररत्नम् - ले.-अनन्त पण्डित । मंत्ररत्नमंजूषा - ले.- त्रिविक्रम भट्ट । श्लोक-8101 पटल-8। मंत्ररत्नाकर - ले.- 1) ले- विजयराम आचार्य। गुरुचतुर्भुजाचार्य। तरंग- 14 (या 16)। विषय- केवल श्रीराधा के मंत्र और स्तोत्र इस ग्रंथ पर एक टीका उपलब्ध है जो ग्रंथकार कृत ही है। 2) ले- कृष्णभट्ट। श्लोक- 3501 3) मंत्ररत्नाकरमहापोत - ले- विजयरामाचार्य। गुरु-चतुर्भुज श्लोक1024। 4) ले.- श्रीयदुनाथ चक्रवर्ती। पिता- गौडदेशीय महापहोपाध्याय विद्याभूषण भट्टाचार्य। तरंग- 101 प्रत्येक तरंग में कई पटल हैं। कुछ पटलों की संख्या 49 तक है। विषयदीक्षा, चक्रविवेचन, माला-ग्रथन प्रकरण, आसनविधि, मंत्रशुद्धि-प्रकरण, प्रमाण-विवेचन, वास्तुभाग-प्रकरण, मण्डपनिर्माण, सर्वतोभद्रमण्डलविधि, मंत्रदोषकथन, वर्णमयी दीक्षा की विधि, कलावती दीक्षा, मुद्राप्रकरण, दशविद्या, मातृका प्रपंच, भुवनेश्वरीपूजा-प्रकरण, हरिद्रागणपति-मंत्र, चंद्रमन्त्र, धूमावती-मंत्र, कौलेश-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षट्कूटा भैरवी, नित्या भैरवी, रुद्र-भैरवी, भुवनेश्वरी भैरवी, अन्नपूर्णेश्वरी भैरवी आदि बहुत से विषय प्रतिपादित। श्लोक94881 मंत्ररत्नावली - ले.-भास्कर मिश्र। इनके आश्रयदाता थे कीर्तिसिंह जिनकी प्रेरणा से ग्रंथ निर्माण हुआ। उल्लास- 26 | विषय - मंत्रों के बालादि भेद, नक्षत्र प्रकार और ऋणशोधन, दीक्षाप्रकार, कुण्ड-निर्माण, भूमि पर पांच रंगों से श्रीचक्र का पूजन तथा समयाचार, होमविधि, मंत्रों के दस संस्कार, नित्य सृष्टि, स्थिति, लय, अपिधान और अनुग्रह रूप पंचकृत्यकारी शिव की स्तुति, विविध मुद्राएं, कूर्मचक्र, विद्यापूजन, रत्नपूजाविधान, काम्यकर्म, न्यासविधि, दक्षिणापुण्य, वारादिभेद, प्राणाग्निहोत्रविधि, शिरोमंत्र, भुवनेश्वरी-मंत्र, त्वरितामंत्र, दुर्गामंत्र, गणपति-मंत्र तथा वर-मंत्र। मंत्ररत्नावली (नामान्तर- सुरत्नावली, मनुरत्नमाला या मंत्ररत्नमाला)। ले.-विद्याधरशर्मा । गुरु-जगद्वल्लभ भट्टाचार्य । पिता- जगद्धर। यह शारदातिलक से संगृहीत ग्रंथ 10 पटलों में पूर्ण है। विषय- योनिमुद्रा, राशिविवाह, दीक्षा, होम, विष्णु-पूजा-विधि, वराहमंत्र, गोपाल मंत्र विधि, न्यासादिविधि, उमा-महेश्वरादि के पूजन की विधि, मृत्युंजयविधि आदि । मंत्रराज - ले.- चन्द्रचूड। श्लोक- 135। मंत्रराजपद्धति - श्लोक- 3261 मंत्रराजरहस्यदीपिका - ले.- श्लोक- 2000। मंत्रराजविद्योपासनाक्रम - श्लोक- 242 । मंत्रराजसमुच्चय - ले.- काशीनाथ। 1) पूर्वार्ध श्लोक- 9944 उत्तरार्ध श्लोक- 5851 मंत्रराजार्थ-दीपिका - तान्त्रिक मंत्रों का संग्रहात्मक ग्रंथ । संग्रहकर्ता- नीलकण्ठ चतुर्धर। मंत्ररामायण - ले.- नीलकंठ चतुर्धर । पिता- गोविंद। माताफुल्लांबिका। ई. 17 वीं शती। रामकथा वेदमूलक है यह बतलाना इस रामायण का उद्देश्य है। इसके प्रारंभ में रामरक्षास्तोत्र है। कुछ वैदिक मंत्रों में रामकथा के बीज पाये जाते हैं ऐसा नीलकंठ ने प्रतिपादित किया है। इन मंत्रों को मंत्ररामायण में उद्धृत किया गया है। ऋग्वेद का वभ्रदृष्ट (10.99) सूक्त इंद्र की स्तुतिपरक है। नीलकंठ के अनुसार वभ्र याने वाल्मीकि, इंद्र याने राम, तथा रुद्रगण याने हनुमान् तथा उनके सहायक वानर हैं। मंत्रयन्त्रचिन्तामणि - श्लोक- 6401 मंत्रयन्त्रविधि - श्लोक- 384 । मंत्ररहस्यम् - ले.- सोम्योपयन्तृ। श्लोक- 1638 । मंत्ररहस्यप्रकाश - ले- नीलकण्ठ चतुर्धर। यह स्वकृत मंत्ररामायण की व्याख्या है। श्लोक- 2366। मंत्र-रहस्य-षोडशी - ले.- निंबार्काचार्य। 18 श्लोकों के इस ग्रंथ में प्रारंभिक 16 श्लोकों में निंबार्क-मत के पूज्य मंत्र 254/ संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रेथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (अष्टादशाक्षर गोपाल-मंत्र) की विस्तृत व्याख्या है। इस ग्रंथ के उद्धार। मंत्र तथा विविध चक्रों का निरूपण। मंत्रों के पर सुंदर भट्टाचार्य ने मंत्रार्थ-रहस्य-व्याख्या लिखी है। दोष की निवृत्ति के उपाय। काली, तारा, भैरवी, भुवनेश्वरी, मंत्रवल्लरी - ले.- भगवद्भक्त-किंकर गंगाधर । यह मंत्रमहोदधि । मातंगी, विपुला, इन्द्राणी, मंगला, चण्डी आदि के मंत्र । की टीका है। पितामह- महायुकरोपनामक वीरेश्वरभट्ट अग्निहोत्री। देव-प्रतिष्ठा, मंत्रसंस्कार आदि। पिता- सदाशिवभट्ट। श्लोक- 4347। तरंग- 22 । मंत्रार्थ-निर्णय - ले.- श्रीविश्वनाथसिंह। इसमें रामतंत्र तथा मंत्रवारिधि - ले.- टीकाराम। पिता- भास्कर । रामपूजा की सर्वोत्कृष्टता प्रमाणों द्वारा सिद्ध की गई है। मन्त्रविभाग - ले.- भास्कर। मंत्राभिधानम् - ले.- यदुनन्दन भट्टाचार्य। विषय- यकारादि मंत्रव्याख्या-प्रकाशिका - ले.- नीलकण्ठ। पिता- रंगभट्ट। मातृकावर्गों के देवता और अर्थ का प्रतिपादन । 2) ले- नंद कात्यायनीतंत्र की टीका। श्लोक- लगभग- 7101 (नन्दन) भट्टाचार्य भैरवी-भैरव संवादरूप। विषय- मंत्रों के मंत्रशास्त्रम् - ले.- कमलाकर। इस मंत्रशास्त्र में उर्ध्वाम्नाय भेद तथा मंत्रों में व्यवहृत मातृका वर्णों के नाम दिये गये हैं। के मंत्र हैं। श्लोक- 22001 मंत्राराधनदीपिका - ले.- यशोधर। पिता- कंसारि मिश्र । मंत्रशास्त्रकारसंग्रह - ले.- तंजौर के नरेश तुलाजीराज। रचना रचनाकाल- शकाब्द- 14801 प्रकाश- 101 श्लोक- 394 । काल- संवत् 1765-88 के मध्य। श्लोक- लगभग 2544 | विषय- तांत्रिक विधियां, दीक्षा, वास्तुयाग तथा विविध देवियों विषय- अध्याय 1) उपोद्घात, 2) शिवविषयक प्रतिपादन, की पूजा। 3) वैष्णव-प्रकरण, 4) देवी-विषयक, 5) मोक्ष-विषयक। मंत्रोद्धार - वैष्णवतन्त्रसार से गृहीत। श्लोक- 300। पटल मंत्रशुद्धिप्रकरणम् - कौन मन्त्र किस व्यक्ति के लिए अनुकूल 61 विषय- तंत्रोक्त मंत्रों के रहस्य, अक्षर, पदों तथा देवियों या प्रतिकूल है, इस विषय का इस ग्रंथ में प्रतिपादन है। की पूजा। अपने नक्षत्र, तारा, राशि और कोष्ठ के अनुकूल मंत्रों का मंत्रोद्धार-कोश (या उद्धारकोश) - ले.-दक्षिणामूर्ति। 7 जप करना चाहिये, यह इसका प्रतिपाद्य विषय है। कल्पों में पूर्ण। (2) ले- श्रीहर्ष । मंत्रशोधनम् - ले.- कान्ताकर । श्लोक- 40। विषय- मंत्र-शोधन मंत्रोद्धारप्रकरणम् - ले.- अखण्डानन्द । के नौ प्रकार। मांत्रिकोपनिषद् - भृगूत्तम भार्गव द्वारा रचा गया एक यजुर्वेदीय मंत्र-संग्रह - श्लोक- 3800। प्रकाश-5। विषय- मारण आदि उपनिषद् है। इसमें केवल 19 श्लोक हैं। तांत्रिक क्रियाओं के मंत्रों का हिन्दी में प्रतिपादन। लोगों को मयवास्तु - ले.- मय। मद्रास के श्री. व्ही. रामस्वामी शास्त्री वश में लाने के लिए शाबर मंत्र तथा औषधियां इसमें वर्णित हैं। एण्ड सन्स द्वारा तेलगु अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हुआ है। मंत्रसाधना - ले.-नागार्जुन। श्लोक- 1101 मयशास्त्रम् - ले.- मय। विषय- शिल्पशास्त्र । मंत्रसार - ले.- 1) सिद्धनाथ (नित्यनाथ सिद्ध) लिपिकाल मयशिल्पम् - ले.- मय । त्रिवेंद्रम संस्कृत सिरीज से प्रकाशित । शकाब्द 16001 (2) दामोदर । (3) उत्पलदेव । श्लोक-7301 मयशिल्पतिका - ले.- मय। मंत्रसारसंग्रह - ले.- शिवराम । मयशिल्पशास्त्रम् - ई. 1876 में जे. ई. कान्स नामक मंत्रसारसमुच्चय - ले.- पूर्णानंद। श्लोक- 7000। तंजावर के मिशनरी ने तेलगु लिपि में मुद्रण करवाया। इंडियन मंत्रसिद्धान्तमंजरी - ले.- भडोपनामक काशीनाथ भट्ट। यह अण्टिक्वेरी में अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित । ग्रंथ तीन भागों में विभक्त है। मयसंग्रह - ले.- मय। विषय- शिल्पशास्त्र। मंत्राक्षरीभवानीसहस्रनामस्तोत्रम् - श्लोक- 5401 [मयकृत शिल्प-विषयकग्रंथ :- मयदीपिका, मयमत, प्रतिष्ठातंत्र, मंत्रार्थदीपिका - ले.- पयोधर। प्रकाशसंख्या- 5। शिल्पशास्त्रविधान, मयशिल्प, मयसंग्रह, प्रतिष्ठातत्त्व। मयसंस्कृति मंत्रार्थदीपिका (या सारसंग्रह) - ले.- श्रीहर्ष कवि। श्लोक- का प्रचार दक्षिण अमरिका तक हआ था ऐसा विद्वानों का 7301 विषय- हरचक्र, अकथहचक्र, ऋणी और धनीचक्र, मत है। श्री.सी. चमनलाल ने अपने "हिंदु अमेरिका" नामक नक्षत्रगण-मैत्री, राशिचक्र, भौतिकचक्र, अकडमचक्र, कूर्मचक्र, अंग्रेजी ग्रंथ में यह मत सप्रमाण स्थापित किया है।] दीक्षाफल, गुरुलक्षण तथा शिष्यलक्षण, दीक्षा में मास, तिथि, मयूख - ले.- शंकर मिश्र। ई. 15 वीं शती। नक्षत्र, लग्न, तीर्थस्थान आदि का निर्णय इ. मयूरचित्रकम् - ले.- भट्टगुरु। सात खण्डों में पूर्ण । मंत्रार्थदीपिका - ले- गोविन्द न्यायवागीश भट्टाचार्य। श्लोक- मयूरसंदेशम् - ले.- उदयकवि। ई. 15 वीं शती। प्रस्तुत 7378। इसमें कतिपय मंत्रों की व्याख्या की गई है। विषय- संदेशकाव्य "मेघदूत" के समान पूर्व उत्तर भागों में विभाजित शाक्त, शैव, आदि पांच देवोपासकों के हितार्थ विविध मंत्रों है। दोनों भागों में क्रमशः 107 व 92 श्लोक हैं। इसका संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/255 For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम श्लोक मालिनी छंद में है जिसमें गणेशजी की वंदना की गई है। शेष सभी श्लोक, मंदाक्रांता वृत्त में हैं। इसमें विद्याधरों द्वारा हरे गए किसी राजा ने अपनी प्रेयसी के पास मयूर से संदेश भिजवाया है। एक बार मलबार नरेश के परिवार का कोई व्यक्ति, अपनी रानी भारचेमंतिका के साथ विहार कर रहा था। विद्याधरों ने उसे शिव समझ लिया। इस पर राजा उनके भ्रम पर हंस पडा। यह देख विद्याधरों ने उसे एक मास तक अपनी पत्नी से दूर रहने का शाप दे दिया। राजा की प्रार्थना पर उसे स्थानदूर (त्रिवेंद्रम) में रहने की अनुमति प्राप्त हुई। वर्षा ऋतु के आने पर राजा ने एक मोर को देखा और उसके द्वारा अपनी पत्नी के पास संदेश भेजा। कवि ने केरल की राजनीतिक व भौगोलिक स्थिति पर पूर्ण प्रकाश डाला है। मरणकर्मपद्धति - यजुर्वेदीय गृह्यसूत्र से संबंधित । मराठी-संस्कृत शब्दकोश - संपादक श्री. जोशी, परांजपे, गाडगील । मराठी में प्रचलित शब्दों के संस्कृत पर्याय इसमें दिए हैं। शारदा-प्रकाशन, पुणे-301 मरीचिका - ले.- भट्ट व्रजनाथ। पुष्टिमार्गीय सिद्धांतानुसार ब्रह्म-सूत्र पर लिखी गई एक महत्त्वपूर्ण वृत्ति। यह वृत्ति, मूल अर्थ के समझने की दृष्टि से बड़ी ही उपयोगी है और अणु-भाष्य पर अवलंबित है। मर्कटमार्दलिकम् (भाण) - ले.- महालिंगशास्त्री। रचना1937 में। "मंजूषा' पत्रिका में, सन 1951 में कलकत्ता से प्रकाशित । कथासार- एक मर्कट की पूंछ में काटा चुभता है। एक नाई कांटा निकालता है परंतु पूंछ कट जाती है। वह नाई का छुरा लेकर कूदता है। किसी बुढिया से छुरे के विनिमय में टोकरी, फिर टोकरी के बदले किसी गाडीवान से बैल, फिर किसी तेली से बैल के बदले घडा भर तेल लेता है। एक बुढिया को तेल देकर पूए बनवाकर खा जाता है। कुछ पूए गायक को देकर उनसे मर्दल लेकर बजाता है, और घोषित करता है कि मै अब नेता हूं, पूंछ कटने से मैं मनुष्य बन गया हूं। सभी उसका लोहा मानते हैं। मर्मप्रदीपवृत्ति - ले.- दिङ्नाग। अभिधर्मकोश पर टीका। यह ग्रंथ केवल तिब्बती अनुवाद से ज्ञात है। मलमासतत्त्वम् (नामान्तर मलीम्लुचतत्त्वम्) - ले.- रघुनन्दन । इस ग्रंथ पर 1) जीवानंद 2) काशीराम वाचस्पति (पिताराधावल्लभ), 3) मथुरानाथ, 4) राधामोहन, 5) वृन्दावन । एवं 6) हरिराम द्वारा लिखित टीकाएं उपलब्ध हैं। मलमासनिर्णयतंत्रसार - ले.- वासुदेव । मलमासनिर्णय - ले.- 1) बृहस्पति भवदेव के पुत्र । 2) ले- वंचेश्वर नरसिंह के पुत्र । मलमासरहस्यम् - ले.- बृहस्पति । भवदेव के पुत्र। रचना 1681-2 ई. में। मलमासार्थसंग्रह - ले.- गुरुप्रसाद शर्मा। मलयजाकल्याणम् (नाटिका)- ले.- वीरराघव। ई. 18 वीं शती। उत्तरार्ध। जबलपुर से डॉ. बाबूलाल शुक्ल द्वारा प्रकाशित। तेलंगना के सत्यव्रत क्षेत्र के भगवान् देवराज के फाल्गुन उत्त्सव पर अभिनीत। अंकसंख्या- चार। कथावस्तु उत्पाद्य । कथासार - नायक देवराज मगया हेतु मलयपर्वत पर आता है और वीणागान करती हुई मलयजा (मलयराज की कन्या) पर मोहित होता है। महादेवी यह जान मलयजा के वेश में जाकर नायक का प्रणयालाप सुन कुपित होती है। राजा को मगयासक्त देख यवन आक्रमण करते हैं। अन्त में जामदग्न्य मुनि की मध्यस्थता से नायक का विवाह मलयजा के साथ होता है, और यवन भी परास्त होते हैं। मल्लादर्श - ले.- प्रेमनिधि पन्त । मल्लारिकल्प - मार्तण्ड भैरव तंत्र से गृहीत । श्लोक-3600। मल्लिकामारुतम् (प्रकरण) - ले.- उदंड कवि। कालीकत के राजकवि। ई. 16-17 वीं शती। यह प्रकरण 10 अंकों में है। इसका कथानक "मालती-माधव" से मिलता-जुलता है। प्रकाशक- जीवानंद विद्यासागर । मल्लिनाथचरितम् - ले.- सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती । पिता- कर्णसिंह । माता- शोभा । सर्ग-7। श्लोक-874 । मल्लिनाथ-मनीषा - उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) द्वारा सन 1979 सितंबर मास में विश्वविद्यालय के हीरक महोत्सव के उपलक्ष्य में, संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार की साहित्यसंपदा पर एक परिसंवाद आयोजित किया था। मल्लिनाथ आंध्र प्रदेश में कोलाचलम् (जि- मेदक) के निवासी होने के कारण यह आयोजन किया गया था। इस समारोह में 22 विद्वानों ने मल्लिनाथ विषयक जो शोध निबंध पढे, उनका संग्रह उस्मानिया विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा. प्र.ग. लाले ने प्रस्तुत ग्रंथ (पृष्ठ संख्या- 160) के रूप में प्रकाशित किया। इस संग्रह में 9 निबंध संस्कृत भाषा में हैं। शेष अंग्रेजी और तेलगु भाषा में है। अर्वाचीन पद्धति से संस्कृत में लिखे हुए शोध निबंधों का यह एक उत्कृष्ट नमूना है। महर्षि-चरितामृतम् - ले.- सत्यव्रत। सन 1965 में मुम्बई से प्रकाशित । गंगानाथ झा रिसर्च इन्स्टिट्यूट, प्रयाग में प्राप्य । अंकसंख्या- पांच। प्रत्येक अंक में महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन के क्रमशः शिवरात्रि उत्सव, महाभिनिष्क्रम, गुरुदक्षिणा, पाखण्ड-खण्डन तथा मृत्युंजय नामक प्रकरण हैं। महा-आर्यसिद्धांत - ले.-आर्यभट्ट (द्वितीय)। ज्योतिष शास्त्र संबंधी एक अत्यंत प्रौढ ग्रंथ। 18 अध्यायों में विभक्त। 625 आर्या छंद हैं। भास्कराचार्य के "सिद्धांत-शिरोमणि' में इस ग्रंथ में अंकित मत का उल्लेख प्राप्त होता है। "महा-आर्य 256 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धांत" में अन्य विषयों के अतिरिक्त, पाटी-गणित, क्षेत्र-व्यवहार ___तक संयमपूर्वक भगवती तारा की उपासना की, किन्तु भगवती व बीजगणित का भी समावेश है। का अनुग्रह प्राप्त नहीं हुआ। तदनन्तर वशिष्ठजी ने तारा को महाकविः कल्हणः (शोधनिबंध) - ले.- डॉ. सुभाष शाप दिया जिससे तारा की उपासना सफल नहीं होती। कहा वेदालंकार । मूल्य 45 रुपये। जाता है कि चीनाचार को छोड कर अन्य साधना से तारा महाकविः कालिदासः (रूपक) - ले.- जीव न्यायतीर्थ प्रसन्न नहीं होती। एकमात्र बुद्धरूपी विष्णु ही उनकी आराधना (जन्म 1894)। सन् 1972 में लेखक द्वारा रूपक-चक्र में और आचार जानते हैं। यह जानकर वशिष्ठ चीन देश में बुद्ध प्रकाशित प्रथम अभिनय 1962 में उज्जयिनी में कालिदास रूपी विष्णु के समीप उपस्थित हुए। उनका वेदबाह्य आचार समारोह के अवसर पर। अंकसंख्या- पांच। प्राकृत का समावेश, देख वशिष्ठ मन ही मन बडे विस्मित हुए। वशिष्ठजी के गीत, नृत्य तथा छायातत्त्व प्रचुर मात्रा में हैं। भाषा अनुप्रास सोच-विचार में पड़ने पर आकाशवाणी हुई। उसने कहा कि प्रचुर है। कालिदास की मूढता के फलस्वरुप पत्नी विद्यावती तारा की आराधना में वही आचार सर्वोत्तम है। दूसरे आचार द्वारा निर्भर्त्सना और तत्पश्चात् काली के प्रसादस्वरूप प्रतिभाशाली से वह प्रसन्न नहीं होती। यह सुन कर वे बुद्धरूपी विष्णु बनने की घटना इस में वर्णित है। को नमस्कार कर तारादेवी की आराधनाविधि जानने के लिए महाकविकृत्य - अनुवादक ई. व्ही. रामन् नम्बुद्री। मूल बद्धांजलि होकर उनके सामने खडे रहे। बुद्धरूपी विष्णु ने मलयालम् रचना। तारादेवी की उपासना का विधान उन्हें बतलाया। प्रसंगतः महाकालपंचरात्रम् - श्लोक- 9451 स्त्रियों की पूज्यता का उल्लेख करते हुए नौ (9) कन्याओं का उन्होंने निर्देश किया। वे नौ कन्याएं हैं- नटिका, पालिनी, महाकालपंचांगम् - रुद्रयामलान्तर्गत । श्लोक- 448 | विषय वेश्या, रजकी, नापितांगना, ब्राह्मणी, शूद्रकन्या, गोपाल-कन्या 1) महाकाल-पटल, 2) महाकाल-पद्धति, 3) मंत्रगर्भकवच, तथा मालाकार-कन्या। 4) महाकाल-सहस्रनाम तथा महाकाल-स्तोत्र हैं। ये श्रीविश्वसारोद्धारतंत्र के 34 से 37 वें पटल में वर्णित हैं। महागणपतिकल्प - ले.- शंकरनारायण। श्लोक -1001 विषय- महागणपति के न्यास, ध्यान, पूजा, हवन, जप, स्तुति महाकालयोगशास्त्रम् - ले.- आदिनाथ। इसमें खेचरी क्रिया इ. का प्रतिपादन। मात्र वर्णित है। महागणपतिक्रम - ले.- अनन्तदेव जो दाईदेव संप्रदाय के महाकालसंहिता - श्लोक-6810 । विषय- कालीसहस्रनामस्तोत्र, अनुयायी थे। कालीस्वरूप सहस्त्रनामस्तोत्र इ.।। महागणपतिरत्नदीप - ले.- ब्रह्मेश्वर। श्लोक - 400। महाकालसंहिताकूटम् - ले.- आदिनाथदेव । महागणपतिविद्या - श्लोक- 145 । महाकालीतन्त्रम् - महादेव-पार्वती संवादरूप। विषय- महाकाली के तंत्र, मंत्र, पूजन, ध्यान आदि का निरूपण। महागणतिपसहस्रनाम - शिव -गणेश संवादरूप। श्लोक - महाकालीमतम् - ऋषि-ईश्वर संवादरूप। श्लोक- 75। आदि 200। यह गणेशपुराण के उपासनाखण्डान्तर्गत है। त्रिपुरासुर के वध के समय विघ्ननिवृत्ति के लिए शिवजी के पूछने पर शिव ने ऋषिवरों के लिए इसका उपदेश किया। दुःख दारिद्रय गणपति ने अनपे पिता शिवजी से यह कहा। से प्रपीडित ब्राह्मण किस उपाय से दुर्गति से छुटकारा पावे इस प्रश्न पर शिवजी ने देवदुर्लभ इस निधिशास्त्र का जो महागणेशमन्त्रपद्धति - ले.- श्रीगीर्वाणेन्द्र। गुरु- विश्वेश्वरः। अत्यंत गोपनीय है, उसे उपदेश दिया। विषय- गुप्तनिधियों महागुह्यतन्त्रम् - गुह्यकाली की गुह्य पूजा प्रतिपादित । गुह्यकाली की ढूंढ निकालने की विधि। नेपाल में प्रसिद्ध है। यह सारा तन्त्र अत्यंत रहस्यमय तथा महाकालीसूक्तम् - रुद्रयामल से गृहीत। श्लोक- 2701 12000 श्लोकात्मक कहा गया है। किन्तु इसका अत्यंत रहस्य जो गुह्यातिगुह्य भाग है, उस विषय में 1300 श्लोक हैं। महाकौलक्रम-पंचचक्र-सदाचारविधि - श्लोक 101 महातन्त्रम् - ले.- वासिवेश्वर। श्लोक - 4501 महाक्रमार्चनम् - ले.- अजितानन्दनाथ। गुरु-अनंतानन्ददेव । विषय- कुब्जिका के उपासकों के प्रातःकृत्यों के साथ कुब्जिका महातन्त्रराज - पार्वती-शिव संवादरूप। श्लोक - 243 । देवी की पूजा का सविस्तर वर्णन। विषय- तन्त्रसम्मत ब्रह्मज्ञान का निरूपण। महाकौलज्ञानविनिर्णय - ले.- मत्स्येन्द्रपाल । श्लोक-726 । महात्रिपुरसुन्दरीपादुकार्चनक्रमोत्तम - ले.-निजात्मप्रकाशानन्द महाचीनक्रमाचार - (नामान्तर चीनाचारतन्त्र, आचारसारतन्त्र महात्रिपुरसुन्दरीपूजापद्धति - श्लोक - 500। अथवा आचारतन्त्र)- शिव- पार्वती संवादरूप। पटल - 71 महात्रिपुरसुन्दरी-वरिवस्याविधि - ले.- भासुरानन्दनाथ । श्लोकविषय - वशिष्ठाराधित भगवती तारा की उपासना। प्रसिद्धि है 4361 कि वशिष्ठजी ने कामाख्यामण्डलवर्ती नीलाचल में दीर्घ काल महात्मचरितम् - ले.- पंढरीनाथ पाठक। महात्मा गांधीजी का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 257 For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बालबोध चरित्र । शारदा प्रकाशन, पुणे 30 द्वारा प्रकाशित। महादाननिर्णय (अपरनाम महादानप्रयोगपद्धति) ले. - भैरवेन्द्र ( नामान्तर - रूपनारायण या हरिनारायण) । लेखक मिथिला के अधिपति थे । विख्यात पंडित वाचस्पति मिश्र की सहायता से उन्होंने यह ग्रंथ निर्माण किया। वाचस्पति ने अपने द्वैतनिर्णय में और कमलाकर ने अपने दानमयूख में इस ग्रंथ का निर्देश किया है। महादानपद्धति ले. विश्वेश्वर । महादानवाक्यावली- ले. रत्त्रपाणि मिश्र । पिता गंगोली संजीवेश्वर । · - - महादेवचम्पू ले. रामदेव । महादेवपंचागम् विश्वसारतन्त्रान्तर्गत श्लोक 296 महादेवपरिचर्याप्रयोग ले. सुरेश्वर स्वामी बोधायनीय शाखा के लिये । महादेवीपूजापरिमल श्लोक 560 I महादेशिकचरितम् - (व्यायोग) ले. व्ही. रामानुजाचार्य । महानाटकम् (या हनुमन्नाटकम्) परम्परा से इसके लेखक रामभक्त हनुमान् माने जाते हैं। किम्वदन्ती है कि इसके लिखने पर मुनि वाल्मीकि को अपना काव्य गौण हो जायेगा इस डर ने घेरा तथा उन्होंने हनुमान् की अनुज्ञा से इस रचना को समुद्र में फेंक दिया। भोजचरित में इसकी उपलब्धि की दूसरी कथा है: एक व्यापारी को कुछ श्लोक समुद्र किनारे पत्थर पर खुदे मिले, भोज ने स्वयं उस स्थान पर जाकर उन्हें पढा । यह श्लोक महानाटक में पाए जाते हैं। आज उपलब्ध रचना बृहत् है तथा इसमें श्लोक अधिक हैं और नाट्यांश अल्प है। इन श्लोकों की कल्पना बडी अद्भुत तथा भावप्रदर्शन उच्च कोटि का है 1 www.kobatirth.org = - - हनुमान् नाम के एक कवि भी थे, उनकी यह रचना मानी जाती है। इस नाटक में 14 अंकों में संपूर्ण रामकथा चित्रित की गई है। इस के कुछ श्लोक रामचरित्रविषय अन्य प्रसिद्ध नाटकों में मिलते हैं। नाटक में सूत्रधार और विष्कम्भक नहीं हैं। टीकाकार (1) रघुनाथ (2) गुणविजयगणि, (3) मोहनदास, ( 4 ) नारायण, (5) चंद्रशेखर। आधुनिक विद्वान् इसकी रचना भोजकालीन (इ. 1018-1063) मानते हैं। महानारायणोपनिषद् ले. नामान्तर- याज्ञिक्युपनिषद्) - यह "तैत्तिरीय आरण्यक" का दशम प्रपाठक है। नारायण को परमात्मा के रूप में चित्रित करने के कारण, इसकी अभिधा नारायणीय है। इसमें आत्मतत्त्व को परमसत्ता एवं सत्य, तपस्, दम, शम, दान, धर्म, प्रजनन, अग्नि, अग्निहोत्र, यज्ञ व मानसोपासना आदि का प्रभावशाली वर्णन है। इसकी अनुवाकसंख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। द्रवियों के अनुसार 64, आंध्रों के अनुसार 80 एवं कतिपय अन्य व्यक्तियों 258 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड 1 के अनुसार इसमें 79 अनुवाक है। इसमें पाठों की अनेकरूपता दिखाई पड़ती है, तथा वेदान्त, संन्यास, दुर्गा, नारायण महादेव, दंती एवं गरुड आदि शब्दों का प्रयोग है। इससे इसकी अर्वाचीनता सिद्ध होती है किन्तु बोधायन सूत्रों में उल्लेख होने के कारण, इसे अधिक अर्वाचीन नहीं माना जा सकता । विंटरनित्स इसे "मैदुपनिषद्' से प्राचीनतर स्वीकार करते हैं। महानिर्वाणतन्त्र- आद्या सदाशिव संवादरूप। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्व काण्ड में 14 उल्लास (पटल) हैं। विषयभगवती आद्या का महादेवजी से जीवों के निस्तार के उपाय के विषय में प्रश्न । परब्रह्म की उपासना के क्रमद्वारा जीवों का निस्तार हो सकता है यह भगवान् शिवजी का उत्तर है। परब्रह्म की उपासना, प्रकृति-साधना का उपक्रम, देवी के दशाक्षर मन्त्र का उद्धार, कलशस्थापना, तत्त्व- संस्कार, श्रीपात्रस्थापन, होम, चानुष्ठान, कुलतच कथन, वर्णाश्रमाचार, कुलतन्त्र कुशकण्डिका, दस संस्कारों की विधि, वृद्धि, श्राद्ध, अन्येष्टि पूर्णाभिषेक, अपने तथा पराये अनिष्टकारी पापों का प्रायश्चित्त इ. । 1. उत्तरार्ध में 14 उल्लास हैं। प्रथम में कलियुग में पतित जीवों के उद्धार के लिए भगवती द्वारा महादेवजी के प्रति प्रश्न 2. में महादेवजी का परम ब्रह्मोपासनाक्रम विषयक उत्तर । 3. द्वारा परमब्रह्मोपासना का वर्णन 4 प्रकृतिसाधना का उपक्रम । 5 मन्त्रों के उद्धार, संस्कार आदि। 6. पात्रस्थापन होम, चक्रानुष्ठान। 7. कुल तत्त्व कथन। 10. पूर्णाभिषेकादि । 11. अपने और पराये पापों का प्रायश्चित्त। 12 सनातन व्यवहार। 13. वास्तु ग्रहयोग एवं 14 वें में शिवलिंग स्थापन आदि । महानीलतन्त्रम् हर-गौरी संवादरूप। पटल - 31। विषय शिव और शक्ति की महिमा तथा उनके मन्त्रों का प्रतिपादन । महापथकल्प श्लोक महापरिनिर्वाणसूत्रम् ले. आचार्य वसुबन्धु। इसका चीनी अनुवाद ही उपलब्ध है। 831 I महापीठनिरूपणम् महाचूडामणितन्त्र के अन्तर्गत । शिव-पार्वती संवादरूप | विषय - 51 महापीठों का वर्णन । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · - For Private and Personal Use Only - महापुराणम् - ले. मल्लिषेण । जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती । 2000 श्लोक । यह जैनपुराण है। - महाप्रज्ञापारमितासूत्रकारिका ले नागार्जुन । यह एक भाष्य ग्रंथ है। कुमारजीव द्वारा इसका चीनी भाषा में अनुवाद ई. 405 में संपन्न हुआ । महाप्रभुः हरिदास:- ले. यतीन्द्रविमल चौधुरी । रचना सन 1958 में। अनेक स्थानों पर इसका प्रयोग हुआ। कथासारवनग्राम के जमीनदार ने भक्त हरिदास को मोहित करने जो वेश्या भेजी, वह उसकी संगति में संन्यासिनी बन जाती है । हरिदास की निन्दा करने वाले गुम्पराज की दुर्दशा होती है। हरिनाम संकीर्तन पर बन्दी लगाने वाले हुसेनशाह द्वारा निर्ममता Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से पीटे और नदी में फेंके जाने पर भी हरिदास न मरते हैं न संकीर्तन छोडते हैं। बाद में नवद्वीप में वे महाप्रभु चैतन्य से मिलते हैं। वहां दोनों मिलकर चांद काजी का हृदय परिवर्तन करते हैं। अंत में चैतन्य महाप्रभु के चरणों को छाती पर रखकर हरिदास देह छोडते हैं। महाप्रवरभाष्यम् - ले.-पुरुषोत्तम । महाप्रत्यलिंगकल्प - श्लोक- 37001 महाप्रस्थानम् - (महाकाव्य) ले.- अन्नदाचरण तर्कचूडामणि । जन्म सन 1862। महाबलसिद्धांत - ले.- नागेशभट्ट। ई. 12 वीं शती। पितावेंकटेशभट्ट। महाभारतम् - महर्षि वेदव्यास विरचित यह लक्ष श्लोकात्मक संहिता भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ माना जाता है। कुरुकुल के धार्तराष्ट्रों और पांडवों के संघर्ष का इतिहास इसमें काव्यात्मक एवं पौराणिक पद्धति से वर्णन किया गया है। भारतवर्ष के तत्कालीन धर्म-संस्कृति का समस्त ज्ञान इसमें निहित होने को कारण यह "पंचम वेद" माना गया है। स्वयं भगवान् व्यास अपने इस ग्रंथ की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि धर्म अर्थ, काम और मोक्ष के संबंध में जो इस ग्रंथ में कहा गया है, वही अन्य ग्रंथों में मिलेगा और जो यहां नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।" (धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । यदिहास्ति तदन्यत्र यत्नेहास्ति न तत् क्वचित्।।) यह विशाल ग्रंथ काव्यात्मक इतिहास के अतिरिक्त प्राचीन भारत के सर्वंकष सांस्कृतिक ज्ञान का अद्भुत कोष है। इस समय "महाभारत" के दो संस्करण प्राप्त होते हैं- उत्तरीय व दाक्षिणात्य । उत्तर भारत-संस्करण के 5 रूप हैं तथा दक्षिण भारतीय संस्करण के 3 रूप है। इसके दो संस्करण क्रमशः मुंबई एवं एशियाटिक सोसायटी से प्रकाशित हैं। मुंबई वाले संस्करण की श्लोक-संख्या 1 लाख 3 हजार 5 सौ 50 श्लोक है, तथा कलकत्ता वाले संस्करण की श्लोक-संख्या 1 लाख 7 हजार 4 सौ 80 है। उत्तर भारत में गीता प्रेस गोरखपुर का हिंदी अनुवाद सहित संस्करण अधिक लोकप्रिय है। भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यट. पणे से प्रकाशित संस्करण अधिक प्रामाणिक माना जाता है। आधुनिक विद्वानों की धारणा है की विकास के तीन सोपान (जय, भारत व महाभारत) चढा हुआ "महाभारत" का वर्तमान रूप, अनेक शताब्दियों के विकास का परिणाम है। यह एक व्यक्ति की रचना न होकर कई व्यक्तियों की कृति है किंतु आंतरिक प्रमाणों एवं भाषा व शैली की एकरूपकता के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि इसे एकमात्र महर्षि ने (व्यास ने) लिखा है। "महाभारत" का रचना-काल अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका। 445 ई. के एक शिलालेख में इसका नामोल्लेख है- ("शतसाहनयां संहितायां वेदव्यासेनोक्तम्")। इससे ज्ञात होता है की इसके कम से कम 200 वर्ष पूर्व अवश्य ही "महाभारत" का अस्तित्व रहा होगा। कनिष्क के सभा-पंडित अश्वघोष द्वारा “व्रजसूची-उपनिषद्' में हरिवंश" व "महाभारत" के श्लोक उद्धृत हैं। इससे ज्ञात होता है कि लक्ष श्लोकात्मक "महाभारत", कनिष्क के समय तक प्रचलित हो गया था। इन आधारों पर विद्वानों ने "महाभारत" को ई.पू. 600 वर्ष से भी प्राचीन माना है। बुद्ध के पूर्व अवश्य ही "महाभारत" का निर्माण हो चुका था। (कतिपय आधुनिक विद्वान्, बुद्ध का समय 1900 ई.पू. मानते है) ___"महाभारत" में 18 पर्व (या खंड) हैं - आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शांति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक तथा स्वर्गारोहण-पर्व। महाभारत की संपूर्ण कथा (उपाख्यानों सहित) अतिसंक्षेप में प्रस्तुतकोश के प्रास्ताविक खंड में दी है। ___ "महाभारत" में अनेक रोचक एवं बोधक आख्यानों का वर्णन है, जिनमें मुख्य हैं शंकुतलोपाख्यान (आदि पर्व 71 वां अध्याय), मत्स्योपाख्यान (वनपर्व), रामोपाख्यान, शिबि-उपाख्यान (वनपर्व 130 वां अध्याय), सावित्री-उपाख्यान (वन पर्व, 239 वां अध्याय) नलोपाख्यान (वनपर्व, 52 वें से 79 वें अध्याय तक), भीष्मपर्व में प्रतिपादित भगवद्गीता में संपूर्ण ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र का प्रतिपादन एवं शांतिपर्व में किया गया राजधर्म का विवेचन जो राजनीतिशास्त्र के विकास की महत्त्वपर्ण कडी है. जिसमें जीवन की समस्याओं के समाधान के नानाविध तत्त्वों का ज्ञान दिया गया है। अतः समस्त हिन्दू जाति के लिये महाभारत धर्म-ग्रंथ के रूप में समादृत है। भारतीय अध्यात्मविद्या का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ "गीता", "विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र, “अनुगीता", भीष्मस्तवराज' व गजेंद्रमोक्ष जैसे आध्यात्मिक भक्तिपूर्ण ग्रंथ, महाभारत के ही भाग हैं। ये 5 ग्रंथ, "पंचरत्न' के ही नाम से अभिहित होते हैं। संप्रति “महाभारत" में एक लाख श्लोक प्राप्त होते है। अतः इसे "शतसाहस्रीसंहिता" कहा जाता है। इसका यह रूप 1500 वर्षों से है। इसकी पुष्टी गुप्तकालीन एक शिलालेख से होती है, जिसमें "महाभारत" के लिए "शतसाहस्री" संहिता का प्रयोग किया गया है। महाभारत की टीकाएं - महाभारत पर 36 टीकाएं लिखी गई हैं1. नीलकण्ठ- महाराष्ट्र में कर्पू (कोपरगांव) के निवासी, 16 वीं शती। 2. अर्जुन सिका, 3. सर्वज्ञ नारायण, 4. यज्ञनारायण, 5. वैशंपायन, 6. वादिराज, 7. श्रीनन्दन, 8. विमलबोध, 9. आनन्दपूर्ण, 10. विद्यासागर, 12. चतुर्भुज, 13. नन्दिकेश्वर, 14. देवबोध, 15. नन्दनाचार्य, 16. परमानन्द भट्टाचार्य, 17. रत्नगर्भ, 18. रामकृष्ण, 19. लक्ष्मणभट्ट, 20. श्रीनिवासाचार्य, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/259 For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21. निगूढपदबोधिनी ले- अज्ञात। 22. भारत टिप्पणी लेअज्ञात । 23. भारतव्याख्या -ले.- कवीन्द्र। 24. लक्षश्लोकालंकार ले.- वादिराज। 25. केवल मोक्षधर्म अध्याय की टीका- ले. श्रीधराचार्य। इनमें सर्वज्ञ नारायण की टीका सबसे पुरानी मानी जाती है जिसका कुछ अंश उपलब्ध है। वादिराज, माध्वसंप्रदायी 15 वीं शती का है। कवीन्द्र, उडिसा प्रान्तीय 16 वीं शती के निवासी। श्रीनन्दन महाभारत भट्टारक नाम से प्रसिद्ध थे। 26. महाभारततात्पर्यनिर्णय- ले.- श्रीमध्वाचार्य, द्वैतमतप्रवर्तक, 12 वीं शती। मध्वाचार्यकृत इस ग्रन्थ के टीकाकार ज्ञानानन्द भट्ट, वरदराज, वादिराज, विठ्ठलाचार्य तथा व्यासतीर्थ। एक टीका सभ्याभिनयवती अज्ञात टीकाकार की है। 27. भारततत्त्वविवेचनम् -ले.- पुराणम् हयग्रीव शास्त्री (अद्वैतमत पोषक उध्दरणों का संकलन)। 29-30 बालभारतम्महाभारतसंग्रह- मूल कथावस्तु का संकलन। 31 संक्षिप्त महाभारत -ले. चिंतामण विनायक वैद्य। 32 व्यासकूट- एक वैशिष्ट्यपूर्ण टीका, ले.- अज्ञात। 33. भारतयुद्धविवाद -ले. भारताचार्य नारायणदास, भारतीय युद्ध समय व्याप्ति। 34. जैमिनीभारतम्- विस्तृत ग्रंथ, पाण्डवों का चरित्र तथा शौर्य का पद्यमय चित्रण, केवल एक पर्व उपलब्ध है जिसमें युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का वर्णन है। 35. बृहत्पाण्डवपुराणम् महाभारत ले. श्रीशुभचन्द्र। जैनमठपति। श्रीपुर में रचना, शिष्य ब्रह्म श्रीपाल द्वारा सुधारित तथा पुनर्लिखित । पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा तथा अन्यान्य जैन साम्प्रदायिक कथाएं इसमें हैं, इ. 1522 में रचना। 36 पाण्डवचरितम् ले.- देवप्रभसूरि, जैनमुनि । किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, नैषधचरित जैसे श्रेष्ठ महाकाव्य तथा शाकुन्तल, वेणीसंहार, मध्यमव्यायोग,, ऊरूभंग जैसे श्रेष्ठ नाटकों का उपजीव्य महाभारत ही है। हरिवंश - महाभारत का पूरक अन्तिम भाग है जिसमें श्रीकृष्ण का जन्म तथा बाललीला का वर्णन श्रीव्यास ने किया है। इन विविध टीकाओं में नीलकंठ की नीलकंठी अर्थात '. 'भारतभावदीप" नामक टीका संपूर्ण 18 पर्वो पर लिखी होने के कारण विषेश महत्त्वपूर्ण मानी गई है। अन्य महत्त्वपूर्ण टीकाओं में देवबोध, वैशंपायन, विमलबोध, नारायण सर्वज्ञ, चतुर्भुज मिश्र, और आनंदपूर्ण विद्यासागर की टीकाओं की गणना होती है। संसार की सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में महाभारत के अनुवाद हो चुके है। सन 1884-96 मे किशोरी मोहन गांगुली व प्रतापचंन्द्र राय ने अंग्रेजी अनुवाद किया। हिंदी अनुवादक हैं रामकुमार राय। महाभारत के आख्यानों, उपाख्यानों पर आधारित काव्य-नाटकादि ग्रंथों की संख्या भरपूर है। भारत की सभी भाषाओं के साहित्य की श्रीवृध्दि महाभारत के कारण उसके मूल अर्थ का विचार किया गया है। इसके रचियता द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक आचार्य हैं। महाभारतविमर्श- ले.- वासिष्ठ गणपति मुनि, ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंह शास्त्री। माता- नरसांबा। महाभारतसंग्रह - ले.- म.म. लक्ष्मणसूरि । प्राध्यापक, पचय्यप्पा संस्कृत कालेज, मद्रास। "भीष्मचरितम्' यह गद्य प्रबंध भी इनकी रचना है। महाभाष्यम् - ले.- पतंजलि। पाणिनीय व्याकरण का अति मार्मिक महाभाष्य । यह पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" और कात्ययनीय वार्तिकों की व्याख्या है। अतः इसकी सारी योजना “अष्टाध्यायी" पर आधृत है। इसमें कुल 85 आह्निक (अध्याय) हैं। भर्तृहरि के अनुसार "महाभाष्य" केवल व्याकरण-शास्त्र का ही ग्रंथ न होकर समस्त विद्याओं का आगर है। (वाक्यपदीय, 2-486)। पतंजलि ने समस्त वैदिक व लौकिक प्रयोगों का अनुशीलन करते हुए तथा पूर्ववर्ती सभी व्याकरणों का अध्ययन कर, समग्र व्याकरणिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इसमें व्याकरण विषयक कोई भी प्रश्न अछूता नहीं रहा है। इसकी निरूपण-शैली तर्कपूर्ण व सर्वथा मौलिक है। इसकी रचना में पाणिनि-व्याकरण के समस्त रहस्य स्पष्ट हो गए और उसी का पठन-पाठन होने लगा। “अष्टाध्यायी' के 14 प्रत्याहारसूत्रों को मिलाकर 3995 सूत्र हैं, किंतु इस महाभाष्य में 1689 सूत्रों पर ही भाष्य लिखा गया है। शेष सूत्रों को उसी रूप में ग्रहण कर लिया है। पतंजलि ने अपने कतिपय सूत्रों में वार्तिककार के मत को भ्रांत ठहराते हुए पाणिनि के ही मत को प्रामाणिक माना व 16 सूत्रों को अनावश्यक सिद्ध कर दिया। इन्होंने वार्तिककार कात्यायन के अनेक आक्षेपों का उत्तर देते हुए पाणिनि के प्रति उनकी अतिशय भक्ति व्यक्त की है। उनके अनुसार पाणिनि का एक भी कथन अशुद्ध नहीं है। "महाभाष्य" में संभाषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है तथा विवेचन के मध्य संवादात्मक वाक्यों का समावेश कर विषय को रोचक बनाते हुए पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। उसकी व्याख्यानपद्धति के 3 तत्त्व हैं - सूत्र का प्रयोजन- निर्देश, पदों का अर्थ करते हुए सूत्रार्थ निश्चित करना और "सूत्र की व्याप्ति बढाकर, सूत्र का नियंत्रण करना"। "महाभाष्य" का उद्देश्य ऐसा अर्थ करना था, जो पाणिनि के अनुकूल या इष्टसाधक हो। अतः जहां कहीं भी सूत्र के द्वारा यह कार्य संपन्न होता न दिखाई पडा, वहां पर या तो सूत्र का “योग-विभाग" किया गया है या पूर्व प्रतिषेध को ही स्वीकार कर लिया गया है। उन्होंने केवल दो ही स्थलों पर पाणिनि के दोष दर्शाये हैं। "महावाक्य" में स्थान-स्थान पर सहज, चटुल, तिक्त व कडवी शैली का भी प्रयोग है। व्यंग्यमयी कटाक्षपूर्ण शैली के उदाहरण तो उसमें भरे पडे है। "महाभाष्य" में व्याकरण के मौलिक व महनीय महाभारत-तात्पर्य-निर्णय - ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। इस ग्रंथ मे महाभारत का पद्यमय सारांश है, तथा 260/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें लोक-विज्ञान व लोक व्यवहार के आधार पर मौलिक सिद्धांत की स्थापना की गई है, तथा व्याकरण को "दर्शन" का स्वरूप प्रदान किया गया है। इसमें स्फोटवाद की मीमांसा करते हुए, शब्द को ब्रह्म का रूप माना गया है। इसके प्रारंभ में ही यह विचार व्यक्त किया गया है कि शब्द उस ध्वनि को कहते हैं, जिसके व्यवहार करने से पदार्थ का ज्ञान हो। लोक में ध्वनि करने वाला बालक "शब्दकारी" कहा जाता है। अतः ध्वनि ही शब्द है । यह ध्वनि स्फोट का दर्शक होती है। शब्द नित्य है, और उस नित्य शब्द का ही अर्थ होता है। नित्य शब्द को ही "स्फोट" कहते हैं। स्फोट की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश होता है। शब्द के दो भेद है- नित्य और कार्य । स्फोट-स्वरूप शब्द नित्य होता है तथा ध्वनिस्वरूप शब्द कार्य । स्फोट-वर्ण नित्य होते हैं, वे उत्पन्न नहीं होते। उनकी अभिव्यक्ति व्यंजक ध्वनि के द्वारा ही होती है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन की परंपरा तीन बार खण्डित हुई । चन्द्रगोमिन् ने प्रथम एक पाण्डुलिपि बडे परिश्रम से प्राप्त कर तथा उसे परिष्कृत कर उस परंपरा की पुनः स्थापना की। दूसरी बार खण्डित परम्परा क्षीरस्वामी ने स्थापित की। तीसरी बार स्वामी विरजानन्द तथा शिष्य दयानन्द स्वामी ने की। वर्तमान प्रति में अनेक प्रक्षेपक हैं, कुछ मूल पाठ भ्रष्ट या लुप्त हो गए हैं। महाभाष्य के टीकाकार- "महाभाष्य" की अनेक टीकाएं हुई हैं। इनमें से कुछ तो नष्ट हो चुकी हैं, और जो शेष हैं, उनका भी विवरण प्राप्त नहीं होता। अनेक टीकाएं हस्तलेख के रूप में वर्तमान हैं। उपलब्ध टीकाओं में भर्तृहरि की टीका सर्वाधिक प्राचीन है। इसका नाम है "महाभाष्यदीपिका " । ज्येष्ठकलक व मैत्रेयरक्षित की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। कैयट, पुरुषोत्तम देव, शेषनारायण, नीलकंठ वाजपेयी, यज्वा व नारायण की टीकाएं उपलब्ध हैं। महाभाष्यदीपिका यह आचार्य भर्तृहरि की महाभाष्य पर विस्तृत तथा प्रौढ व्याख्या है। अनेक ग्रंथों में इसे उद्धृत किया गया है। उन अनेक उद्धरणों से अनुमान होता है कि उन्होंने पूरे महाभाष्य पर दीपिका रची थी । कालान्तर से वह तीन पादों तक शेष रहने से बाद के वैयाकरणों ने केवल तीन पादों की भाष्यरचना का निर्देश किया है। वर्तमान में समूचे एक पाद की भी दीपिका उपलब्ध नहीं है। केवल 5700 श्लोक तथा 434 पृष्ठों का एक हस्तलेख बर्लिन में उपलब्ध होने की सूचना सर्वप्रथम डा. कीलहार्न ने दी। अभी तक अन्य प्रति अप्राप्त। इत्सिंग के समय दीपिका में 25000 श्लोक थे, संभवतः मूल दीपिका इससे बहुत अधिक थी । (वर्तमान प्रति का प्रकाशन पुणे तथा काशी में हो रहा है) । महाभाष्यप्रकाशिका रचयिता- विष्णु। बीकानेर के अनूप संस्कृत पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपि में प्रारंभ के दो - आह्निकों की टीका उपलब्ध है। महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह ले. नागेश भट्ट वाराणसी की । सारस्वती सुषमा में क्रमशः प्रकाशित। यह पातंजल महाभाष्य की टीका है। महाभाष्यप्रदीप ले. कैयट भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय तथा प्रकीर्ण काण्ड पर आधारित पातंजल महाभाष्य की प्रौढ तथा पाण्डित्यपूर्ण टीका । महाभाष्य को समझने के लिये यह एकमात्र सहारा है। यह पाणिनीय संप्रदार्य का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रस्तुत प्रदीप पर 15 टीकाकारों ने टीकाओं की रचना की है। महाभाष्यप्रदीप टिप्पणी ले. मल्लययज्या इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध है। लेखक के पुत्र तिरुमल की प्रदीप व्याख्या अप्राप्त है। महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश) ले. - प्रवर्तकोपाध्याय मद्रास, अडवार, मैसूर और त्रिवेन्द्रम में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है। - महाभाष्यप्रदीप - विवरणम् ले. नारायण । मद्रास और कलकत्ता में अनेक पाण्डुलिपियां उपलब्ध है। (2) ले.रामचंद्रसरस्वती । महाभाष्यकैयटप्रकाश महाभाष्यप्रदीपव्याख्या - - · - में निर्दिष्ट)। (2) ले रामसेवक For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - महाभाष्यप्रदीप स्फूर्ति ले. सर्वेश्वर सोमयाजी अड्यार ग्रंथालय में पाण्डुलिपि उपलब्ध । (2) ले आदेन्न । महाभाष्यरत्नाकरले. शिवरामेन्द्र सरस्वती (एक पाण्डुलिपि सरस्वतीभवन काशी में है) । 1 महाभाष्यलघुवृत्तिले पुरुषोत्तम देव ई. 12-13 वीं शती। महाभाष्यविवरणम् ले. नारायण ले. - चिन्तामणि । ले. हरिराम । (ऑफ्रेट बृहत्सूची - महाभाष्यस्फूर्ति ले सर्वेश्वर दीक्षित। महाभाष्यप्रदीपोद्योत ले. नागोजी भट्ट ई. 18 वीं शती । पिता - शिवभट्ट । माता सती । पातंजल महाभाष्य पर कैयटकृत प्रदीप नामक टीका की यह व्याख्या है। - महाभाष्यप्रदीपोद्योतनम् ले अन्नंभट्ट । कैयटकृत महाभाष्य प्रदीप की यह व्याख्या है। इस पर वैद्यनाथ पायगुंडे (नागोजी के शिष्य) ने छाया नामक टीका लिखी। (2) ले नागनाथ । ई. 16 वीं शती । महाभिषेकटीका शती । महाभैरवशतकम् - ले. - श्रीनिवास शास्त्री । ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं - । । महामुण्डमालातंत्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप । पटल- 12 । श्लोक- 800 | विषय - दिव्य, वीर और पशुओं के आचार । भावसाधन, समयाचार आदि का निरूपण । दुर्गा - माहात्म्यवर्णन । शाक्तों की प्रशंसा । दुर्गापूजाविधान । केवल दुर्गा के पूजन से संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 261 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वसिद्धि कथन। पुष्प आदि का माहात्म्यवर्णन। पुष्प-विशेष से पूजा में वैशिष्टय कथन इत्यादि । महामृत्युंजयमंत्र - श्लोक- 100। महामृत्युंजयविधि - विषय- महामृत्युंजय मंत्र की जपविधि रोगों से मुक्ति और दीर्घ जीवन-लाभ के लिए वर्णित । महामोक्षतंत्रम् • शंकरी-शंकर संवादरूप। पटल- 64 पूर्ण । श्लोक- लगभग 30001 विषय- पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकरूपता। अन्तर्यागादि के विषय में दिशाओं का विचार । अठारह महाविद्याओं की उत्पत्ति। अठारह भैरवों की उत्पत्ति । कालिका के शववाहन होने के कारण। शिवलिंग की उत्पत्ति, शिवजी के शवरूप होने के कारण। शिवजी की पृथिवी आदि आठ मूर्तियों की कथा। योनिबीज, लिंगबीज, महाबीज, बं बं कह कर गाल बजाने का माहात्म्य। कालीस्वरूप ककारादि-शतनामस्तोत्र । तारा, एकजटा, नीलसरस्वती के स्वरूप। तकारादि शतनामस्तोत्र इ.। महामोहम् (रूपक) - ले.-पं. कृष्णप्रसाद धिमिरे। काठमांडू (नेपाल) के निवासी। कविरत्न एवं विद्यावारिधि उपाधियों से विभूषित आधुनिक साहित्यिक। आपकी 12 कृतियां प्रकाशित महायान- उत्तरतंत्रम् - ले.- मैत्रेयनाथ। केवल चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से ज्ञात। महायानविंशकम् - ले.- नागार्जुन । एक लघु दार्शनिक रचना । इसमें न संसार न ही निर्वाण पूर्ण सत्य है, प्रत्येक वस्तु केवल भ्रम तथा स्वप्न है, यह निरूपण किया है। महायानसम्परिग्रह - ले.- आर्य असंग। महायान बौद्ध सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण इसका विषय है। मूल संस्कृत अनुपलब्ध। तीन चीनी अनुवाद (1) बुद्धशान्त (531 ई.) (2) परमार्थ (563 ई.) (3) ढेन सांग (650 ई.) द्वारा उपलब्ध हैं, दो टीकाएं भी उपलब्ध हैं जिनमें एक वसुबन्धुकृत है। महायानसूत्रालंकार - ले.- मैत्रेयनाथ और आर्य असंग। मूल संस्कृत में प्रकाशित। 21 परिच्छेद । इसका प्रथम कारिकाभाग मैत्रेयनाथकृत और द्वितीय व्याख्याभाग असंगकृत है। विज्ञानवाद की यह मौलिक रचना है। इसमें महायान सूत्रों का सारांश संग्रहीत है यह प्रख्यात रचना ई. 1909 में पेरिस में सिल्वाँ लेवी द्वारा फ्रेंच में अनूदित हुई है। प्रभाकर मित्र (ई. 7 वीं शती, ह्वेन सांग, ईत्सिंग आदि द्वारा चीनी भाषा में इसके अनुवाद हुए हैं। महारसायनविधि - ले.- महादेव। यह कतिपय तंत्रों से संगृहीत तांत्रिक वैद्यक विषयक ग्रंथ है। महाराणा प्रतापसिंह चरितम् ले.- श्रीपादशास्त्री हसूरकर, इन्दौरनिवासी। भारतरत्नमाला का पुष्प। इस गद्यात्मक चरित्र ग्रंथ पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का उत्कृष्ट अभिप्राय है। (2) ले- डा. सुभाष वेदालंकार। जयपुरनिवासी। महाराठ्यादिनिर्णय (समयाचारनिर्णययुत) - श्लोक- 304 । महारुद्रपद्धति - ले.- नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वर भट्ट। महारुद्रन्यासपद्धति (महारुद्रपद्धति)- ले.- बलभद्र। महारुद्रपद्धति (गोभिलीय) - ले.- रामचन्द्रार्य । महारुद्रपद्धति (शांखायन के अनुसार) - ले.- अचलदेव द्विवेदी। पिता- वत्सराज। ई. 16 वीं शती। महारुद्रपद्धति - ले.- वेदांगराय। त्रिगलाभट्ट के पुत्र । महारुद्रपद्धति (सामवेदानुसार) - ले.- परशुराम। पिताकर्ण । सन 1459 में लिखित । शूद्रकमलाकर में उल्लिखित । महारुद्रपद्धति (अपरनाम- रुद्रार्चनमंजरी) - ले.- मालजित् (मालजी) पिता- त्रिगलाभट्ट। श्रीस्थल (गुर्जरदेश) के निवासी । लेखक का अपरनाम वेदांगराय। समय ई. 1627-16551 महारुद्र (प्रयोग) पद्धति- ले.- अनंत दीक्षित । इन्हें यज्ञोपवीत उपाधि थी। पिता- विश्वनाथ। समय ई. 16 वीं शती। महारुद्रपद्धति - ले.- काशी दीक्षित । महारुद्रपद्धति (आश्वलायन के अनुसार)- ले.- नारायण । महारुद्रमंजरी - ले.- मालजी (नामान्तर वेदांगराय)। पितात्रिगलाभट्ट । श्लोक- 16001 महार्णव : (कर्मविपाक) - ले.- मान्धाता। मदनपाल के पुत्र। (2) ले- पेदिभट्ट (पोगभट्ट)। पिता- विश्वेश्वर । (प्रस्तुत दोनों लेखकों के ग्रंथों में अत्यधिक साम्य है।) महार्णवकर्मविपाक - श्लोक- 800। महार्थप्रकाश (या महानयप्रकाशः) - ले.- शितिकण्ठ । श्लोक- 11611 महार्थमंजरी (सटीक) - ले.- महेश्वरानन्द । श्लोक- 300 । यह ग्रंथ परिमल टीका के साथ अनन्तशयन संस्कृत ग्रंथावली में प्रकाशित हो चुका है। महार्थमंजरी पर भद्रेश्वर और क्षेमराज कृत टीकाएं हैं। महालक्ष्मी-पद्धति - ले.- प्रकाशान्द। ई. 15 वीं शती। श्लोक- 4501 महालक्ष्मीपूजाकल्पवल्ली - ले.-श्रीगोविंद । श्लोक- 500। प्रकाश-41 महालक्ष्मीपूजापद्धति - श्लोक- 200। महालक्ष्मीमतभट्टारक - उमा-महेश्वर संवादरूप । यह महामंत्रसार नाम के 24000 श्लोकात्मक तांत्रिक ग्रंथ का एक अंश है। प्रस्तुत ग्रंथ में श्लोक- 1800 और 10 आनन्द है। महालक्ष्मीमाहात्म्य-व्याख्यानसमुच्चय - ले.- गालव ऋषि । अध्याय- 161 महालक्ष्मीरत्नकोष - ले.- शंकराचार्य । ब्रह्मा-महेश्वर संवादरूप । 262 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह तंत्र शिवजी से देवी को प्राप्त हुआ। श्लोक- 45801 अध्याय- 1051 महालक्ष्मीव्रतम् (या महालक्ष्मीचरितम्) - ले.-श्रीराम कविराज। अध्याय- 5। महालक्ष्मी-हृदयस्तोत्रम् (महालक्ष्मीहृदयम्) - श्लोक- 107। अथर्वणरहस्य से गृहीत। महालिंगयंत्रविधि - श्लोक- 1001 महालिंगार्चनप्रयोगविधि - शिवरहस्य से गृहीत । महावस्तु (अन्य नाम- महावस्तु-अवदान) - इस की रचना संभवतः ई. पू. 3 री शती में हुई। हीनयान तथा महायान संप्रदायों के लिए यह ग्रंथ आदरणीय है। गद्य-पद्यमयी इस रचना में बुद्धचरित्र का निवेदन प्राचीन ग्रंथों के आधार पर किया है। इसके प्रथम भाग में बोधिसत्त्व की विविध चर्याओं का, द्वितीय. भाग में बोधिसत्त्व के जन्म से बुद्धत्व प्राप्ति तक का और तृतीय भाग में संघ के आरंभ और विकास का उल्लेख है। यह ग्रंथ सर्व प्रथम, सेनार्ट द्वारा मूल संस्कृत, तीन भागों में, पेरिस में सम्पादित हुआ (1882 से 1897 ई.)। जोन्स द्वारा आंग्ल रूपान्तर (1949 से 1956 ई.) हुआ और डा. राधागोविन्द वस्तक ने देवनागरी संस्करण तथा बंगला अनुवाद किया। महावाक्यदर्शनसूत्रम् (कारिकासहित )- सूत्र- 399 । कारिका- 5921 महाविद्या - विषय- दंष्ट्राओंसे भीषण, कृष्णवर्णा, पंचमुखी, त्रिनेत्रा, दशभुजा, लम्बे ओठों वाली, अरुणवस्त्र, खड्ग, मुसल, शूल, माला, बाण आदि अस्त्रों को धारण की हुई काली देवी की पूजाविधि। महाविद्यादीपकल्प - शिव-पार्वती संवादरूप। विषयब्रह्मस्वरूपिणी महाविद्या के लिए प्रज्वलित दीपदान विधि, महाविद्या के जप, पूजन आदि। महाविद्याप्रकरणम् - ले.- नरसिंह। महाविद्यारत्नम् - ले.- हरिप्रसाद माथुर। श्लोक- 969। महाविद्यासारचन्द्रोदय - ले.- महन्त योगीराज राजपुरी। श्लोक20301 महाविद्यासूत्रम् - ले.-वासिष्ठ गणपति मुनि। इ. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंह शास्त्री। माता- नरसांबा । महाविद्यास्तुति - श्लोक- 1001 महाविष्णुपूजापद्धति - ले.- चैतन्यगिरि । (2) ले- अखण्डानन्द । गुरु- अखण्डानुभूति। महावीरचरितम् - महाकवि भवभूति विरचित नाटक। इसके 7 अंक हैं जिनमें रामायण के पूर्वार्ध की कथा वर्णित है। रामचंद्र को साधान्त एक वीर पुरुष के रूप में प्रदर्शित करने के कारण इसकी अभिधा 'महावीरचरित' है। इस नाटक में भवभूति ने मुख्य घटनाओं की सूचना कथोपकथन के माध्यम से दी है, तथा कथा को नाटकीयता प्रदान करने के लिये मूल कथा में परिवर्तन भी किया है। प्रारंभ से ही रावण को राम का विरोध करते हुए प्रदर्शित किया गया है, तथा उनको नष्ट करने के लिये रावण सदा षडयंत्र करता रहता है। संक्षिप्त कथा- प्रथम अंक - में विश्वामित्र के आश्रम में यज्ञ में भाग लेने के लिए जनकपुत्री सीता और उर्मिला के साथ कुशध्वज का आगमन। वहां राम और लक्ष्मण के पराक्रम को देख कर वे आश्चर्य चकित होते हैं। अहिल्योध्दार, ताटकावध, विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को जम्भकास्त्रप्राप्ति । राम द्वारा शिवधनुष्य का भंग होने पर कुशध्वज द्वारा दशरथ के चारों पुत्रों के साथ अपनी चारों कन्याओं के विवाह का प्रस्ताव। रावण का दूत सीता की मंगनी करने आता है परंतु निराश होकर लौटता है। द्वितीय अंक - में परशुराम के साथ जनक, उनके पुरोहित शतानंद और दशरथ का रोषपूर्ण संवाद है। परशुराम के साथ युद्ध करने के लिए राम उद्यत होते हैं। चतुर्थ अंक- में राम से पराजित हुये परशुराम वनगमन करते हैं। शूर्पणखा मन्थरा के शरीर में प्रविष्ट होकर दशरथ से कैकेयी के दो वरों के रूप में राम लक्ष्मण सीता को वनवास तथा भरत को राज्य प्राप्ति मांगती है। सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को प्रयाण करते हैं। पंचम अंक में जटायु से सीताहरण का समाचार जानकर राम और लक्ष्मण, सीतान्वेषण करते हुए कबंध तथा वालि वध करते हैं। षष्ठ अंक - में हनुमान् द्वारा लंकादहन, वानरसेना सहित राम का लंकागमन, राक्षसों और वानरों का युद्ध और राम द्वारा रावणवध का वर्णन है। सप्तम अंक - में बिभीषण का लंका में राज्याभिषेक, सीता की अग्निपरीक्षा, राम का अयोध्या लौटना और वहां उनका राज्याभिषेक वर्णित है। महावीरचरित में कुल 32 अर्थोपक्षेपक हैं जिनमें 5 विष्कम्भक, 26 चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। ____ "महावीरचरित" भवभूति की प्रथम रचना है, अतः उसमें नाटकीय कुशलता के दर्शन नहीं होते। फिर भी इस नाटक में संपूर्ण रामचरित का यथोचित नियोजन कर भवभूति ने बहुत बड़ी प्रतिभा प्रदर्शित की है। पद्यों का बाहुल्य, इसके नाटकीय सौंदर्य को गिरा देता है। पात्रों के चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह नाटक उत्तम है। भवभूति ने अत्यंत सूक्ष्मता के साथ मानव-जीवन का चित्रण किया है। अंतिम (सप्तम) अंक में पुष्पक-विमानारूढ राम द्वारा विभिन्न प्रदेशों का वर्णन, प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से मनोरम है। इस पर वीरराघव की टीका है। महावीर-पुराणम् - ले.- सकलकीर्ति जैनाचार्य। ई. 17 वीं शती। इसमें जैन तीर्थंकर महावीर का चरित्र वर्णित है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 263 For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाशक्तिन्यास - श्लोक- 3501 (4) महिषमर्दिनीस्तोत्र तथा महिषमर्दिनी पद्धति इ.। महाशंखमालासंस्कार - श्लोक- 54। विषय- शक्तिपूजा में महिषमर्दिनीतंत्र - शंकर-पार्वती संवादरूप। पटल 10 । उपकरणभूत शंखमाला का लक्षण, उसका शोधन प्रकार, महिषमर्दिनीस्तवरहस्य-प्रकाश - ले.- जगदीश पंचानन धारणविधि आदि। भट्टाचार्य। यह महिषमर्दिनीस्तव का व्याख्यान है। महासिद्धांत - ले.- आर्यभट्ट। ई. 8 वीं शती। विषय- महिषमर्दिनीस्तोत्र टीका- ले.- कालीचरण। ज्योतिषशास्त्र। महीपो मनुनीति चोलः - अनुवादक डा. वें. राघवन्। मूल महाशिवरात्रिनिर्णय - ले. कृष्णराम। काश्मीरनिवासी। तमिल कथा। महाशैवतंत्रम् (आकाशभैरवकल्प) - उमा-महेश्वर संवादरूप।। महीशूरदेशाभ्युदय-चम्पू - ले.- सीताराम शास्त्री। मैसूर प्रदेश इसमें प्रथम कल्प में 1 से 11 अध्याय, द्वितीय कल्प में 1 सम्बन्धी निवेदन। से 15 अध्याय एवं ततीय कल्प में 1 से 50 अध्याय हैं। महीशराभिवद्धि-प्रबन्ध-चम्प - ले.- वेंकटराम शास्त्री। मैसर यह अतिरहस्यपूर्ण शैवतंत्र है। विषयक निवेदन। महाश्वेता - ले.- डा. वेंकटराम राघवन् (20 वीं शती)। महेन्द्रविजयम् (डिम) - ले.- प्रधान वेङ्कप्प। ई. 18 वीं आकाशवाणी, मद्रास से प्रसारित प्रक्षेणक (ओपेरा) । कथावस्तु- शती। श्रीरामपुरी के निवासी। श्रीरामपुरी के तिरुवेङ्गलनाथ शिवस्तुति में मग्न महाश्वेता का वीणागान सुनकर चन्द्रापीड के महोत्त्सव में सर्वप्रथम अभिनीत। कथा- समुद्रमन्थन के विस्मित होता है। उसके पूछने पर महाश्वेता अपना वृत्तान्त पश्चात् अमृतप्राप्ति के लिए देवों तथा असुरों में युद्ध होता उसे सुनाती है। है और उस युद्ध में महेन्द्र की विजय होती है। महाषोढान्यास - ले.- विरूपाक्ष। श्लोक- • 2501 महेन्द्रजालम् - ले,- पटुनाथ। श्लोक- 150 । बाह्यमातृका-न्यास भी इसमें सम्मिलित है। यह ऊर्ध्वाम्नाम के महेश्वरतंत्र - श्लोक- 3200 । अन्तर्गत है। विषय- करन्यास, अंगन्यास आदि की विधियां । महेश्वरोल्लास (रूपक) - ले.- राधामंगल नारायण। ई. 19 महासंमोहनतंत्रम् - श्लोक- 250। पटल- 101 विषय वीं शती। तांत्रिक सिद्धांतों का विस्तार से प्रतिपादन । महोडीशततंत्र - पार्वती-परमेश्वर संवादरूप। श्लोक- 500। महास्वच्छन्दसारसंग्रह - देवी-भैरव-संवादरूप। पटल- 45। विषय-वशीकरण, उच्चाटन, मोहन, स्तंभन, शान्तिक, पौष्टिक विषय- शक्ति देवी की पूजा के संबंध में विस्तृत विवरण। आदि विविध तांत्रिक कर्म । इनमें उन्मादन, विद्वेषण, अन्धीकरण, मंत्रोद्धार, मंत्रविद्या, न्यासमंत्र इ. मूकीकरण, शरीरसंकोचन, स्तब्धीकरण, भूतज्वरोत्पादन, शस्त्र महिममयभारतम् - ले.- यतीन्द्रविमल चौधुरी। रचना सन और शास्त्र को व्यर्थ कर देना, नदी आदि का जल शोषित 1958 में। भारत शासन नाटक विभाग के आश्रय में प्राच्यवाणी करना, दही, शहद आदि नष्ट कर देना, हाथी, घोडे आदि द्वारा 20-4-59 को दिल्ली में अभिनीत हुआ। अंकसंख्या को क्रुद्ध बना देना, सर्प का विष नष्ट कर देना, वेताल-सिद्धि, पांच। भाषा सुबोध । ब्रह्मा, विष्णु से लेकर श्रमिक वर्ग तक खडाऊ की सिद्धि आदि भी कई विधियां प्रतिपादर है। की भूमिकाएं इसमें हैं। दृश्यस्थली देवलोक से दिल्ली तक। ध्येय है मातृभूमि के प्रति प्रेम जगाना। गीतों का प्राचुर्य, मागधम् - सन 1967 से आरा (बिहार) से नेमिचंद्र शास्त्री वैदिक, पौराणिक, इस्लामी तथा आधुनिक भारत का दर्शन । के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित हो रही है। इसमें कृति का प्रायः अभाव, किन्तु मानसिक व्यापार तथा भावुक अर्वाचीन कवियों की कृतियों का प्रकाशन हुआ। इसका शैली से यह नाटक परिप्लुत है। दामोदर घाटी, माइथन बांध, कालिदास विशेषांक महत्त्वपूर्ण है। भाकरा-नांगल, चम्बल, नागार्जुन सागर तथा माचकुन्द योजनाएं, माघनन्दिश्रावकाचार - ले.- माघनन्दि। जैनाचार्य। समयविद्युत उत्पादन, मत्स्य-पालन आदि प्रकल्पों पर चर्चाएं और ई. 12 वीं शती। भारत के नवनिर्माण के प्रति आशावाद इसकी विशेषताएं हैं। माघमाहात्म्यम् - ले.- वासुदेवानंद सरस्वती महिशमंगलम् (भाण) - ले.- नारायण। ई. 16 वीं शती । माणवक-गौरवम् (रूपक) . ले.-कालीपद (ई. कोचीन के नरेश राजराज की इच्छानुसार इस भाण की रचना 1888-1972) "प्रणय-पारिजात" तथा "संस्कृत-साहित्यपरिषत् हुई। नायक अनङ्गकेतु तथा नायिका अनङ्गपताका के प्रणय पत्रिका" में प्रकाशित । सं.सा. परिषद की ओर से अभिनीत । की कथा । सन 1880 ई. में पालघाट से तथा त्रिचूर से प्रकाशित । अंकसंख्या-सात। संस्कृतिपरक संविधान, राजतंत्र, नीति तथा महिषमर्दिनीपंचांगम् - श्लोक-144। विषय- (1) महिषमर्दिनी आश्रमजीवन का सूक्ष्म निदर्शन, गुरुभक्ति का स्तोत्र-गान इत्यादि पटल, (2) महिषमर्दिनीकवच, (ध) महिषमर्दिनी सहस्रनाम, इसकी विशेषताएं है। इसका नायक ब्राह्मण और परिवेश 264/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तपोवन का है। ताडी पीने वाले किरात हल जोतकर श्रान्त कृषीवल इ. का प्रदर्शन भी इसमें है। कथासार- धौम्य ऋषि द्वारा शिष्यों की कडी परीक्षा ली जाती है। हारीत उनका विरोध करने के फलस्वरुप आश्रम से निष्कासित होता है। उपमन्यु उनके द्वारा ली गई सभी कठोर परीक्षाओं में सफल होता है। राजा धौम्य को प्रधानामात्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना करता है परंतु वे नहीं मानते। अपने शिष्य को प्रधानामात्य बनाते हैं। वह गुरु को उपहार देता है, परंतु धौम्य उसे छात्रों में वितरित करते हैं। उपमन्यु "उद्दालक मुनि" नाम से विख्यात होता है और हारीत पश्चाताप-दग्ध होकर गुरुकृपा पाता है। मांडूक्य उपनिषद्- यह अल्पाकार उननिषद् है जिसमें कुल 12 खंड या वाक्य हैं। इसका संपूर्ण अंश गद्यात्मक है जिसे मंत्र भी कहा जाता है। इस उपनिषद में ओंकार की मार्मिक व्याख्या की गई है। ओंकार में तीन मात्रायें हैं, तथा चतुर्थ अंश 'अ'- मात्र होता है। इसके अनुरूप ही चैतन्य की चार अवस्थाएं हैं- जागरित, स्वप्न, सुषुप्ति एवं अव्यवहार्य दशा । इन्हीं का आधिपत्य धारण कर आत्मा भी चार प्रकार का होता है- वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ तथा प्रपंचोपशमरूपी शिव । इसमें भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों से अतीत सभी भाव ओंकार स्वरूप बताये गये हैं। इसका संबंध 'अथर्ववेद' से है। इसमें यह बतलाया गया है कि ओंकार ही आत्मा या परमात्मा है। इस पर शंकराचार्य के दादागुरु गौडपादाचार्य ने "मांडूक्यकारिका' नामक सुप्रसिद्ध भाष्य लिखा है। मातंगीक्रम - ले.- कुलमणि शुक्ल (गुप्त)। मातंगीडामरम् - हर-गौरी संवादरूप। विषय- उच्चाटन, मारण, मोहन, वशीकरण, आकर्षण तथा विद्वेषण का विशेष वर्णन । मातंगीदीपदानविधि - रुद्रयामलान्तर्गत, शिव-पार्वती संवादरूप। विषय- देवी मातंगी के लिए प्रज्वलित दीपदान-विधि, मातंगी के मंत्र, उनके ऋषि, छन्द, देवता इ.। करन्यास, अंगन्यास देवी-पूजा इ. का विवरण। मातंगिनीपद्धति - ले.- रामभट्ट। श्लोक- 550। मातंगीपंचांगम् - श्लोक- 353 | मातंगीमंत्रपद्धति - शिवानन्दभट्ट । मातंगीप्रयोग - श्लोक- 164 । मातंगीश्यामाकल्प - श्लोक- 115। मातृकाकवचम् (नामान्तर-मातृकाश्रीजगन्मंगल) - चिन्तामणि-तंत्रान्तर्गत । देवी- ईश्वर संवादरूप। विषय- शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा के लिए विभिन्न वर्गों का विनियोग। मातृकाकेशवनिघण्टु - ले.-महीधर । मातृकाकोष - ले.- श्रीमच्चतुर्भुजाचार्य- शिष्य । श्लोक-2701 यह मातृका कोष सब कोषों में परमोत्तम है। इसके धारण से मनुष्य मंत्रोद्धारण में समर्थ होता है। इसमें अकारादि अक्षरों के मांत्रिक पर्याय कहे गये हैं। मातृकाचक्रविवेक - ले.- स्वतंत्रानन्दनाथ। इसमें (1) तात्पर्यविवेक, (2) सुषुप्तिविवेक, (3) स्वप्रविवेक, (4) जाग्रद्विवेक, (5) तुर्यविवेक और (6) मातृकाचक्रसंग्रह नामक छह खंड हैं। विषय- वर्णमालिका की प्रतिनिधिभूत शक्ति देवी का परमरहस्य एवं मातृकार्थस्वरूप। मातृकाचक्रविवेक-व्याख्या - ले.- शिवानन्द । मातृकाचक्रविवेक नाम का निबंध परम्परा द्वारा प्राप्त महामंत्रों के अर्थोपदेश में अत्यंत श्लाघ्य माना गया है। शिवानन्द ने इस पर सुबोध वृत्ति लिखी है। मातृकानिघण्टु - (1) ले.- महीदास। श्लोक- 6311 (2) महीधराचार्यकृत, श्लोक- 55, (3) नामान्तरतंत्रकोश। श्लोक831। ले.- अज्ञात। (4) ले.- आनन्दतीर्थ । (5) ले.परमहंस आचार्य- विषय मातृकाबीज निरूपण । (6) ले.- नृसिंह। मातृकाभेदतंत्रम् - चण्डिका - शंकर संवादरूप। पटल- 14 । श्लोक- 586 | विषय- सोना-चांदी बनाने के उपाय । सन्तानोत्पत्ति के नियम। कुण्डलिनी भोगों को भोगती है जीव नहीं, ऐसा विचार कर भोजन करने से मोक्ष-साधन होता है, यह प्रतिपादन । देह के भीतर स्थित कुण्ड आदि शिवनिर्माल्य की अग्राह्यता में हेतु । मद्य-पान की प्रशंसा। पारद-भस्म करने के उपाय और पारद-भस्म की महिमा। चंद्र और सूर्य के ग्रहण का रहस्य। चामुण्डा के मंत्र और उसकी आराधना विधि। त्रिपुरा के मंत्र, पूजा, स्तोत्र इ. का प्रतिपादन । पारद के शिवलिंग का माहात्म्य इ.। मातृगोत्रनिर्णय - (1) ले.- नारायण। (2) ले.लौगाक्षिभास्कर। पिता-मुद्गल। विषय- माध्यंदिनीय ब्राह्मणों में विवाह के लिए मातृगोत्र का वर्जन । मातृतत्त्वप्रकाश - ले.- ब्रह्मश्री कपाली शास्त्री। श्री अरविंद के “फोर पावर्स ऑफ दी मदर" काव्य का संस्कृत अनुवाद । मातृभूशतकम् - ले.- श्रीधर वेंकटेश। ई. 18 वीं शती। गीति काव्य। मातृकार्णवनिघण्टु - ले.-भानु दीक्षित । पिता- नारायण दीक्षित । (नामान्तर-मातृकावर्णन-संग्रह)। मातृसद्भाव (या मातृकासद्भावः) - श्लोक- 3150 । सब यामलों का सारसंग्रह-रूप ग्रंथ। विषय- पूजा के विभिन्न प्रकार, न्यास, मुद्रा इ. के विभिन्न प्रकारों के लक्षण। पुष्पिका में इसके 27 पटल निर्देशित हैं। मातृस्तोत्रम् - ले.- सत्यव्रत शर्मा, साहित्याचार्य (पंजाब निवासी)। मात्रादिश्राद्धनिर्णय - ले.-कोकिल। माथुरम् - गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य (जन्म- 1882) । खण्डकाव्य)। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 265 For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माधवचंपू - ले.- रामदेव चिरंजीव भट्टाचार्य। ई. 16 वीं शती। इस चंपू काव्य में 5 उच्छ्वास हैं। इसमें कवि ने माधव व कलावती की प्रणय-गाथा का शृंगारिक वर्णन किया है। इसमें प्रणय की समग्र दशाएं तथा श्रृंगार के संपूर्ण साधन वर्णित हैं। इसके माधव कल्पित न होकर श्रीकृष्ण ही हैं। माधव-निदानम् (रोगविनिश्चय) - ले.- माधव। ई. 7 वीं शती। आधुनिक युग में यह रोग-निदान का अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है- “निदाने माधवः श्रेष्ठ"। ग्रंथकर्ता माधव ने इसका नाम "रोगविनिश्चय" रखा था पर कालांतर में यह "माधवनिदान" के ही नाम से विख्यात हुआ। ग्रंथकार ने ग्रंथारंभ में बताया है कि अनेक शास्त्रों के ज्ञान से रहित व्यक्तियों के लिये इस ग्रंथ की रचना की गई हैं (मा.नि.3)। "माधवनिदान" की दो प्रसिद्ध टीकाएं हैं :1) श्रीविजयरक्षित व उनके शिष्य श्रीकंठ कृत मधुकोश टीका तथा (2) वाचस्पति वैद्य कृत आतंकदर्पण टीका । "माधवनिदान" के 3 हिन्दी अनुवाद प्राप्त होते हैं- 1) माधव निदान-मधुकोष संस्कृत एवं विद्योतिनी हिंदी टीका- सुदर्शन शास्त्री 2) मनोरमा हिंदी व्याख्या 3) सर्वागसुंदरी हिन्दी टीका । माधव-महोत्सवम् - ले.- जीव गोस्वामी (श. 15-16) वैष्णव परम्परा में प्रसिद्ध काव्य। माधव-साधना (नाटक) - ले.- नृत्यगोपाल कविरत्न। ई. 19 वीं शती। माधव-स्वातंत्र्यम् (नाटक) - ले.- गोपीनाथ दाधीच। जयपुरवासी। रचना सन् 1883 ई.में। प्रथम अभिनय जयपुर के रामीलाला मैदान में रामप्रकाश नाट्यशाला में हुआ। अंक संख्या सात। प्राकृत के रूप में हिन्दी तथा व्रजबोली का प्रयोग किया है। भाषा पात्रानुसारी है। विशेषताएं- राजनीतिक उथलपुथल के चित्रण में अंग्रेजी शब्दों के लिए संस्कृत शब्दों का गठन। अंक अनेक दृश्यों में विभाजित। कथासारकान्तिचन्द्र नामक अमात्य की नियुक्ति के पश्चात् जयपुरनरेश रामसिंह की मृत्यु होती है। भूतपूर्व प्रधान अमात्य फतेहसिंह दुष्ट तथा अविश्वसनीय है। वह कान्तिचन्द्र को फंसाना चाहता है, परंतु कान्तिचंद्र भी सतर्क हैं। मृत रामसिंह के बाल्यकाल में शिवसिंह (प्रधान अमात्य) तथा लक्ष्मणसिंह (सेनापति) ने जयपुर में अंग्रेजी का प्रवेश कराकर उसका महत्त्व बढाया है। महारानी उनके पुत्र विजयसिंह तथा गोविंदसिंह को मंत्री बनाना चाहती है, परंतु मुख्य अमात्य पद के कई प्रत्याशी हैं। उनमें से एक रघुनाथसिंह, कान्तिचन्द्र के विरोध में है। महारानी की इच्छानुसार अंग्रेज क्रासफोर्ड जयपुर हथियाने हेतु आया है। फतेहसिंह चाहता है कि क्रासफोर्ड राजकीय सत्ता उसीको सौपे । कान्तिचन्द्र त्यागपत्र देता है, परंतु क्रासफोर्ड उसे अस्वीकार करता है। फतेहसिंह वृन्दावन के ब्रह्मचारी गोपाल की सहायता से कान्तिचन्द्र के विरुद्ध झूठे आरोप मढ कर महाराज माधवसिंह को उसके विरुद्ध खडा करने का षडयंत्र रचता है। गोविन्दसिंह कान्तिचन्द्र की क्षमता से प्रभावित है, परंतु रघुनाथसिंह उसे समझाता है कि कान्तिचन्द्र स्वार्थी है, अतः उसे हटाना चाहिये। तत्पश्चात् फतेहसिंह को भी उखाड कर गोविन्दसिंह मंत्री बन सकता है। फतेहसिंह महाराज माधवसिंह को प्रसन्न कर कान्तिचन्द्र को पदच्युत करने के लिये प्रयत्न करता है। कान्तिचन्द्र गुप्तचरों द्वारा इस षडयन्त्र की सूचना पाता है। वह रघुनाथसिंह को चाराध्यक्ष पद से हटाने हेतु क्रॉसफोर्ड से कह कर किसी उंचे पद पर नियुक्त करने की सोचता है। महारानी विक्टोरिया के शासनादेश से महाराज माधवसिंह सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र बनते हैं परन्तु एजेंट का परामर्श अनिवार्य है। एजेंट शेखावत शिरोमणि अजितसिंह को प्रार्थित सुविधाएं प्रदान करता है, जिसे फतेहसिंह ने उकसाया था। इस अवसर पर गोविंदसिंह की अयोग्यता और कान्तिचन्द्र की योग्यता प्रमाणित होती है, और कान्तिचंद्र को सर्वाधिकार मिलते हैं। वह फतेहसिंह को वश करने की योजना बनाता है। अन्त में कान्तिचन्द्र की योजनाएं सफल होकर, माधवसिंह को स्वतंत्रता और के. जी. सी. एस्. आर. की उपाधि मिलती है। माधवानल (कथा) - ले.- आनन्दधर। 10 वीं शती। माधवीयसारोद्धार - ले.- रामकृष्ण दीक्षित । नारायण के पुत्र । महाराजाधिराज लक्ष्मणचंद्र के लिए लिखित, पराशरमाधवीय का यह एक अंश है। समय - लगभग 1575-1600 ई. माधवी-वसन्तम् (रूपक) - ले.- टी. गणपति शास्त्री (ई. 19 वीं शती)। माधवीया धातुवृत्ति (अथवा धातुवृत्ति) - ले.- सायणाचार्य । ई. 14 वीं शती। ज्येष्ठ भ्राता माधव के गौरवार्थ उनके नाम पर पाणिनीय धातुपाठ पर लेखक ने यह वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति में दो स्थानों पर ऐसे कुछ पाठ उपलब्ध होते हैं जिनसे इस वृत्तिग्रंथ के लेखक का नाम यज्ञनारायण प्रतीत होता है। मैत्रेयरक्षित और क्षीरस्वामी की धातुवृत्तियों में प्रत्येक धातु के णिजन्त, सन्नन्त, यङन्त आदि प्रक्रियायों के रूप प्रदर्शित नहीं किए। माधवीया धातुवृत्ति में प्रायः सभी धातुओं के वे रूप प्रदर्शित किए हैं और जिन रूपों के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं, उनके विषय में प्राचीन आचार्यों के विविध मतों को उध्दृत करके, अपना निर्णायात्मक मत लिखा है। अनेक स्थानों पर अतिसूक्ष्म विचारों की चर्चा है। जो लोग आर्षक्रम से ही पाणिनीय तन्त्र का अध्ययन-अध्यापन करना चाहते हैं उनके लिए यह धातुवृत्ति काशिका के समान परम सहायक हैं। माधवोल्लास - ले.- रघुनन्दन। माध्यन्दिनशाखा - इस समय शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा ही सबसे अधिक पढी जाती है। काश्मीर, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश में प्रायः इस शाखा का प्रचार है। इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण 266 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपलब्ध हैं। मन्त्रों की कुल संख्या 1975। इस विषय में अन्यान्य मत मिलते है। माध्यन्दिनों का कोई श्रौत और गृह्य कभी था या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। माध्यन्दिन के नाम से दो शिक्षा ग्रन्थ छपे हैं, जिनका कालनिर्णय अनिश्चित है। माध्यन्दिनीयाचारसंग्रहदीपिका - ले.- पदानाभ । माध्यमिककारिका - ले.- बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन। यह भारतीय दार्शनिकों में मान्यताप्राप्त प्रधान कृति है। इस संस्कृत छन्दोबद्ध रचना को "माध्यमिक शास्त्र" भी कहते हैं। 27 प्रकरण, 400 कारिकाएं। इस पर भव्य, चन्द्रकीर्ति, बुद्धपालित, विवेक तथा स्वयं नागार्जुन ने टीका लिखी है। अपनी ही दार्शनिक रचना पर टीका लिखने की परम्परा इसी ने आरम्भ की। कुछ वृत्तियां तिब्बती अनुवाद में उपलब्ध हैं। महायान - पन्थ के शून्यवाद का विवेचन ग्रंथ का उद्देश्य है। माध्यमिककारिकाव्याख्या - ले.- भवविवेक। यह बौद्धों के शून्यवाद पर स्वतंत्र सा ग्रंथ है। चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से यह ज्ञात है। माध्यमिक-हस्तवाल-प्रकरणम् (अथवा मुष्टिप्रकरणम्) - ले.- बौद्धपंडित आर्यदेव। केवल 6 कारिकाओं की यह लघु कृति है। प्रथम पांच कारिकाओं में विश्व के मायिक रूप का विवेचन तथा छठवीं में परमार्थ निरूपण है। दिङ्नाग ने इस पर टीका लिखी है। टॉमस ने तिब्बती तथा चीनी अनुवाद पर से इसे संस्कृत रूप देने का प्रयास किया है। माध्यमिकावतार - ले.- चन्द्रकीर्ति। शून्यवाद के विस्तृत विवेचन की यह मौलिक रचना है। इसका केवल तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। डॉ. पोसिन द्वारा सम्पादित तथा अनुवादित । माध्वमुखालंकार - ले.- वनमाली मिश्र। माध्वसिद्धान्तसार - ले.- वेदगर्भ पद्मनाभाचार्य। मानमंदिरस्थ-यंत्र-वर्णनम् - ले.- नृसिंह (बापूदेव) ई. 19 वीं शती। विषय - ज्योतिषशास्त्र । मानवगृह्यसूत्रम् - इसके पुरुष नामक दो भाग हैं। भूमिका में यह उल्लेख मिलता है कि यह ग्रंथ लेखक ने लिखा तब किसी संवत् के 100 वर्ष बीत चुके थे। इस पर भट्ट अष्टावक्र की टीका है, जिस में याज्ञवल्क्य, गौतम, पराशर, बैजवाप, शबरस्वामी, भद्रकुमार एवं स्वयं भट्ट अष्टावक्र के उल्लेख है। गायकवाड ओरिएंटल सीरीज में प्रकाशित । मानवधर्मप्रकाश - सन् 1891 में प्रयाग से प्रकाशित संस्कृत-हिन्दी भाषा की इस पत्रिका का संपादन भीमसेन शर्मा करते थे। मानवधर्मशास्त्रम् - (देखिए "मनुस्मृति") मानवधर्मसार - ले.- डॉ. भगवानदास। वाराणसी निवासी। मानवप्रजापतीयम् - ले.- रवीन्द्रकुमार शर्मा। 160 श्लोकों का काव्य। मानवशाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - यह सौत्र शाखा है। अर्थात् इस शाखा की संहिता या ब्राह्मण नहीं। इस शाखा का श्रौत व गृह्य सूत्र छप चुका है। इनके- श्रौत-गृह्य के अनेक परिशिष्ट हैं। मानवीयज्ञान विषयक शास्त्रम् - मूल "एसे कन्सनिंग ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग" (लाक लिखित)। वाराणसी के किसी अप्रसिद्ध विद्वान् ने इसका अनुवाद किया है। मानवेदचम्पूभारतम् - ले.- कालिकतनरेश मानवेद (एरलपट्टी) मानसतत्त्वम् - ले.- डॉ. श्यामशास्त्री। विषय - पाश्चात्य मनोविज्ञान। 1929 में प्रकाशित । मानसपूजनम्- ले.- विजयरामाचार्य। गुरु-चतुर्भुजाचार्य । श्लोक-4501 विषय - जयदुर्गास्तोत्र । मानसरंजनी - ले.- वल्लभ। सिद्धान्तकौमुदी की टीका। मानसागरी पद्धति - ले.- मानसिंह । मानसायुर्वेद - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । विदर्भनिवासी। मानसार - यह वास्तुशास्त्र पर दक्षिण भारतीय पद्धति का अधिकृत ग्रंथ माना जाता है। रचयिता की निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। किसी वास्तुविशारद अगस्त्य का नाम "मान" था, अतः यह ग्रंथ उन्होंने रचा होगा। "मानसार" में वास्तु विषयक सभी शिल्पों का समावेश है तथा तत्सम्बन्धी जानकारी विस्तृत रूप से दी गई है। इसके कुल 50 अध्याय हैं। इसका रचनाकाल श्री. भट्टाचार्य के मतानुसार ई. स. 11 वीं शती माना गया है। डॉ. प्रसन्नकुमार आचार्य के मतानुसार शिल्पशास्त्र विषयक यह प्राचीनतम ग्रंथ है। इस के 13 अध्यायों में वास्तुओं का वर्गीकरण, भूमिपरीक्षण, शंकुस्थापन, पदविन्यास, बलिकर्म विधान, नगर एवं दुर्गस्थापना गर्भविन्यास-विधान, अधिष्ठानविधान, स्तम्भलक्षण, प्रस्तरविधान, संधिकर्म विधान, विमानलक्षण, सोपानलक्षण, एकतल-द्वादशतल भवन, प्राकार-विधान, मंदिर और पारिवारिक देवायतन, गोपुर-विधान, मण्डपविधान, मंझिलनिर्माण, गृहमानस्थान, गृहप्रवेश, द्वारस्थान, द्वारमान राजहर्म्य, रथलक्षण, शयनागार, तोरणद्वार, मध्यरंग, काचवृक्ष (शोभावृक्ष) मौलिलक्षण, उपस्कर, शक्तिदेवता, जैन-बौद्ध प्रतिमाए, सप्तर्षि, छ: प्रकार के यक्ष विद्याधर, चार प्रकार के भक्त, हंस, गरुड, नन्दी, सिंह, इत्यादि प्रतिमाएं, निर्माण में दोष, मधूच्छिष्ट-विधान, नयनोन्मीलन विधान इत्यादि शिल्पशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण विषयों का परिचय सविस्तर उपलब्ध होता है। भारतीय शिल्पशास्त्रविषयक वाङ्मय में मानसार एक ज्ञानकोश सा ग्रंथ है। डॉ. प्रसन्नकुमार आचार्य ने मानसार सीरीज के 72 खण्डों में इस ग्रंथ का सांगोपांग परिचय प्रकाशित किया है। 1927 में "डिक्शनरी ऑफ हिन्दु आर्किटेक्चर" में मानसार तथा अन्य शिल्पशास्त्रविषयक ग्रंथों में उपलब्ध शिल्पशास्त्रविषयक पारिभाषिक शब्दावली डॉ. संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 267 For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शता। आचार्य ने प्रकाशित की है। मानसिंह • ले.- भारतचन्द्र गय। ई. 18 वीं शती। मानसोल्लास - ले.- सोमेश्वर (या भूलोक मल्ल) श्लोक - 2500| विषय - संगीत, वाद्य तथा संगीत की नवीन रचना और उसका विवरण। मानसोल्लास - (मानसोल्लास-वृत्तान्ताख्य टीका सहित) यह श्री श्रीशंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति की स्तुति पर व्याख्यान है। दूसरा मानसोल्लासवृत्तान्त पूर्व व्याख्यान की व्याख्या है। पूर्व व्याख्याकार हैं शंकराचार्य के शिष्य विश्वरूपाचार्य और द्वितीय व्याख्याकार हैं रामतीर्थ । मायाजालम् (आख्यायिका) - लेखिका - क्षमा राव। मुंबई निवासी। मायाजालम् - ले.- लीला-राव दयाल । क्षमा राव की कन्या । माता की लिखित कथा पर आधारित रूपक। इसमें नाट्य तथा कार्य (एक्शन) का अभाव है। धूतों के चंगुल में फंसी चार कन्याओं-मुग्धा, मन्दा, मोहिनी तथा दया की करुण गाथा इसमें अंकित की है। मायातन्त्रम् - हर-पार्वती संवादरूप। पटल - 17। विषय - भावादिनिरूपण, भुवनेश्वरी कवच, चण्डीपाठविधि, चण्डीपाठ-फल इ.। दिव्य, पशु और वीर इन तीन भावों का निरूपण तथा कलियुग में ज्ञानोपाय का निरूपण। मायाबीजकल्प - ले.- शक्तिदास । मायावादखंडनम् - ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। इस निबंध के नाम से ही उसके स्वरूप का परिचय मिलता है। तत्त्वसंख्यान और तत्वविवेक में द्वैतमत के अनुसार पदार्थो की गणना एवं वर्गीकरण है। इसमें अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त का निरूपण कर उसका प्रखर खंडन किया गया है। विश्वास किया जाता है कि अपने समय के मान्य अद्वैती विद्वान् पुंडरीकपुरी एवं पक्षतीर्थ के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित करने के अवसर पर मध्वाचार्य ने इन्ही तर्कों का प्रयोग किया था। अतः इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। मध्वाचार्य द्वारा लिखित 'दशप्रकरणम्' (दस निबंधों का संग्रह) में से यह एक महत्त्वपूर्ण निबंध है। मारीचवधम् - ले.- कवीन्द्र परमानन्द शर्मा। लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल निवासी। 19-20 शताब्दी। लेखनकने संपूर्ण काव्यमय रामचरित्र की रचना की, उसके भागों में से यह एक है। (शेष भाग अन्यत्र उल्लिखित हैं)। मारुतिविजयचंपू - ले.- रघुनाथ कवि (या कुप्पाभट्ट रघुनाथ) समय- ई. 17 वीं शती के आस-पास। इसमें कवि ने 7 स्तबकों में वाल्मीकि रामायण के सुंदर-कांड की कथा का वर्णन किया है। कवि का मुख्य उद्देश्य हनुमानजी के कार्यो की महत्ता प्रदर्शित करना है। इसके श्लोकों का संख्या 436 है। ग्रंथ के आरम्भ में गणेश तथा हनुमान् की वंदना की गई है। मारुतिशतकम् - ले.- म. म. रामावतार शर्मा। काशी में प्रकाशित। मार्कण्डेयपुराणम् - पौराणिक क्रम से 7 वां पुराण। मार्कण्डेय ऋषि के नाम से अभिहित होने के कारण इसे "मार्कण्डेय पुराण" कहा जाता है। इस पुराण में महामुनि मार्कण्डेय वक्ता हैं। इस पुराण में सहस्र श्लोक व 138 अध्याय हैं। "नारद पुराण" की विषय-सूची के अनुसार इसके 31 वें अध्याय के बाद इक्ष्वाकु-चरित, तुलसी-चरित, राम-कथा, कुश-वंश, सोम-वंश, पुरुरवा, नहुष तथा ययाति का वृत्तांत, श्रीकृष्ण की लीलाएं, द्वारिका चरित, व मार्कण्डेय का चरित, वर्णित हैं। इस पुराण में अग्नि, सूर्य तथा प्रसिद्ध वैदिक देवताओं की अनेक स्थानों पर स्तुति की गई है, और उनके संबंध में अनेक आख्यान प्रस्तुत किये गये हैं। इसके कतिपथ अंशों का "महाभारत" के साथ अत्यंत निकट का संबंध है। इसका प्रारंभ "महाभारत" कथा विषयक 4 प्रश्नों से ही होता है, जिनके उत्तर "महाभारत" में भी नहीं हैं। प्रथम प्रश्न द्रौपदी के पंचपतित्व से संबंद्ध है, व अंतिम (चौथे) प्रश्न में उसके पुत्रों का युवावस्था में मर जाने का कारण पूछा गया है। इन प्रश्नों के उत्तर मार्कण्डेय ने स्वयं न देकर, 4 पक्षियों द्वारा दिलवाये हैं। इस पुराण में अनेक आख्यानों के अतिरिक्त गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दैनिकचर्या, नित्यक्रम, व्रत एवं उत्त्सव के संबंध में भी विचार प्रकट किये गए हैं तथा 36 वें से 43 वें तक के 8 अध्यायों में योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है। "मार्कण्डेय पुराण" के अंतर्गत, "दुर्गासप्तशती" नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ है, जिसके 3 विभाग हैं। इसके पूर्व में मधुकैटभ-वध, मध्यमचरित में महिषासुर-वध व उत्तर चरित में शुभ-निशुंभ तथा उनके चंड-मुंड व रक्तबीज नामक सेनापतियों के वध का वर्णन है। इस सप्तशती में दुर्गा या देवी को, विश्व की मूलभूत शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है तथा देवी को ही विश्व की मूल चितिशक्ति माना गया है। आधुनिक विद्वानों ने इसे गुप्तकाल की रचना माना है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार इस पुराण में तयुगीन जीवन की अवस्था, भावनाएं, कर्म, धर्म, आचारविचार आदि तरंगित दिखाई देते हैं। इसमें बतलाया गया है कि मानव में वह शक्ति है, जो देवताओं में भी दुर्लभ है। कर्म-बल के आधिक्य के कारण ही देवता भी मनुष्य का शरीर धारण कर पृथ्वी पर आने की इच्छा करते हैं। इस पुराण में विष्णु को कर्मशील देवता तथा भारत देश को कर्मशील देश माना गया है। मार्कण्ड-विजयम् - ले.- इ. सु. सुन्दरार्य। श. 20 । कांचीकामकोटि पीठाधिपति शंकराचार्य के आदेश से रचित नाटक। संस्कृत साहित्य परिषद् के वार्षिक उत्सव में अभिनीत । प्रधान रस-भक्ति। शिवभक्त मार्कण्डेय की कथा इसका विषय 268/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। अंकसंख्या-छह । मार्कण्डेयोदयम् - ले.- वेंकटसूरि । मार्कलिखितः ससंवादः - यह बाइबल का अनवाद है। सन् 1878 मे बॅप्टिस्ट मिशन मुद्रणालय (कलकत्ता) से प्रकाशित । मार्गदायिनी - ले.- के. वेङ्कटरत्नम् पन्तलु। “अक्षरसांख्य" नामक नवीन सिध्दान्त के प्रतिपादन का प्रयास लेखक ने किया है। मार्गसहायचंपू - ले.- नवनीत कवि। ई. 17 वीं शती। इस चंपूकाव्य मे 6 आश्वासों में आर्काट जिलांतर्गत विरंचिपुरम . ग्राम के शिव-मंदिर के देवता मार्गसाहाय की पूजा वर्णित है। उपसंहार मे कवि ने स्पष्ट किया है कि इस चंपू में मार्गसहायदेव के प्रचलित आख्यान को आधार बनाया गया है। मर्जिना-चातुर्यम् - ले.- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । कलकत्ता आकाशवाणी से प्रसारित। अलीबाबा और चालीस चोर का कथानक इस संगीतिका का विषय है। मार्तण्डार्चनचन्द्रिका - ले.- मुकुन्दलाल। मालती - ले.- कल्याणमल्ल। ई. 17 वीं शती। मेघदूत की व्याख्या। मालती-माधवम् - (प्रकरण) - ले. भवभूति । संक्षिप्त कथा - ले.- प्रथम अंक मे माधव मदनोद्यान में मालती को देखकर कामासक्त हो जाता है। कलहंस मालतीनिर्मित माधव का चित्र माधव को दिखाता है। माधव भी चित्रफलक पर मालती का चित्र बना देता है। द्वितीय अंक में ज्ञात होता है की मालती के पिता भूरिवसु, नंदन के साथ मालती का विवाह निश्चित करते हैं। यह जानकर कामन्दकी, मालती और माधव की परस्पर अनुरक्ति देखकर, उनका गांधर्व पध्दति से विवाह कराने का निर्णय लेती है। तृतीय अंक में कामन्दकी और लवंगिका, मालती और माधव को एक दूसरे की विरहदशा के बारे में बता कर उनकी कामभावना को उद्दीप्त करती हैं। चतुर्थ अंक में माधव, मालती और नंदन के विवाह के बारे में जानकर दुःखी होता है और नरमांस विक्रय का निश्चय करता है। पंचम अंक में कपालकुण्डला नामक तांत्रिक योगिनी, मालती का अपहरण करके कराला देवी के मंदिर में ले जाती है, और अघोरघंट नामक तांत्रिक, मालती को देवी को बलि चढाना चाहता है। माधव वहीं पहुचकर मालती को बचाता है। षष्ठम अंक में कामन्दकी, माधव और मालती का गांधर्व विवाह कराती है। सप्तम अंक में मालती का वेष धारण किए हुए मकरन्द के साथ नंदन की शादी होती है और नंदन के मालती के भवन चले जाने पर मकरन्द अपने स्वरूप को प्रकट कर प्रेमिका मदयन्तिका को लेकर चला जाता है। अष्टम अंक में कपालकुण्डला मालती का अपहरण कर लेती है। नवम अंक में मालती के वियोग से व्याकुल होकर माधव आसन्नमरण अवस्था में पहुंच जाता है, तभी सौदामिनी (कामन्दकी की शिष्या) आकर मालती के जीवित होने का समाचार देती है। दशम अंक में माधवादि सभी को लेकर नगर में आकर, अग्निप्रेवश के लिए उद्यत भूरिवसु को, बचाते हैं। भूरिवसु मालती-माधव का विवाह कर देते हैं। इस प्रकरण में कुल उन्नीस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें से 4 विष्कम्भक 4 प्रवेशक, 9 चूलिकाएं हैं। अंकास्य और अंकावतार है। टीका तथा टीकाकार - (1) धरानन्द, (2) जगद्धर, (3) त्रिपुरारि, (4) मानांक, (5) राघवभट्ट (6) नारायण, (7) प्राकृताचार्य, (8) जे. विद्यासागर, (9) पूर्णसरस्वती, (10) कुंजविहारी। मैथिलशर्मा द्वारा लिखित संक्षिप्त पद्यमय मालती-माधव-कथा भी है। मालवमयूर - सन् 1946 में मध्यप्रदेश के मन्दसौर से डा. रुद्रदेव त्रिपाठी के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसका वार्षिक मूल्य 5 रु. था। इसमें लघु काव्य, समस्या, हास्यव्यंग, वैज्ञानिक विषयों पर निबंध आदि प्रकाशित होते थे। इसकी एक विशेषता यह थी कि तत्कालीन चलचित्रों के गीतों का उसी लय और ध्वनि में संस्कृत अनुवाद भी प्रकाशित होता था। इसका प्रकाशन पांच वर्षों बाद स्थगित हो गया। इसके मालवांक, होलिकांक, विनोदिनी अंक आदि विशेष लोकप्रिय रहे। मालविकाग्निमित्रम् - ले.- महाकवि कालिदास। संक्षिप्त कथा- प्रथम अंक में राजा अग्निमित्र मालविका के दर्शन के लिए आतुर होता है। तब विदूषक इसके लिये उपाय के रूप में गणदास और हरदत्त नामक दोनों नाट्याचार्यों में श्रेष्ठता विषयक विवाद उपस्थित कर देता है। उनमें श्रेष्ठता का निर्णय उनकी शिष्याओं के नृत्यप्रदर्शन से करने का निश्चय किया जाता है। द्वितीय अंक में नृत्यशाला में गणदास की शिष्या मालविका नृत्य प्रदर्शित करती है। राजा उसे देखकर मुग्ध हो जाता है। तृतीय अंक में अशोक वृक्ष के दोहद के लिए बकुलावलिका के साथ उपस्थित मालविका से राजा की प्रथम भेंट होती है, पर वहां इरावती के आने से विघ्न पड़ता है। चतुर्थ अंक में क्रुध्द इरावती देवी धारिणी को बताकर मालविका और बकुलावलिका को बन्दीगृह में डाल देती है, किन्तु विदूषक चतुराई से दोनों को मुक्त करके राजा से उनकी भेंट करवाता है। इरावती पुनः वहां आती है। पंचम अंक में धारिणी मालविका कृत दोहद से अशोक के पुष्पित होने और अपने पुत्र वसुमित्र की अश्वमेघ यज्ञ की विजय से प्रसन्न होकर राजा को उपहार के रूप में मालविका को देना चाहती है। राजसभा में उपस्थित मालविका को माधवसेन द्वारा राजा के लिए भेजी गई दो शिल्पिकाएं पहचान लेती हैं। तब कौशिकी मालिविका के वास्तविक रूप को प्रकट करती है। धारिणी प्रसन्न होकर मालविका को सदा के लिए राजा को समर्पित करती है। मालविकाग्निममित्र में कुल 8 अर्थोपक्षेपक हैं। जिनमें एक विष्कम्भक 2 प्रवेशक, 4 चूलिकाएं और । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 269 For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंकावतार है। इस रूपक में 5 अंक हैं, किंतु कथावस्तु के संविधान की दृष्टि से यह कृति "नाटक" न होकर "नाटिका" है, क्योंकि इसमें कथा-वस्तु राजप्रसाद एवं प्रमोदवन के सीमित क्षेत्र में ही घटित होती हैं। इसका मुख्य वर्ण्य-विषय प्रणय-कथा है। शास्त्रीय दृष्टि से शुंगवंशीय राजा अग्निमित्र धीरोदात्त नायक है, पर उसे धीरललित ही माना जावेगा। इसका अंगी रस श्रृंगार है तथा विदूषक की उक्तियों के द्वारा हास्यरस की सृष्टि हुई है। इसमें 5 अंकों को छोड अन्य तत्त्व नाटिका के ही है। (नाटिका में 4 अंक होते हैं) यह नाटक लेशतः ऐतिहासिक है। इसमें कालिदास ने कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का कुशलपूर्वक समावेश किया है। इसकी भाषा मनोहर व चित्ताकर्षक है। बीच-बीच में विनोदपूर्ण श्लेषोक्तियों का समावेश कर, संवादों को अधिक आकर्षक बनाया गया है। टीकाकार- 1. काटयवेम, 2) नीलकण्ठ, 3) वीरराघव, 4) मृत्युंजय निःशंक, 5) तर्कवाचस्पति 6) श्रीकण्ठ, 7) परीक्षित कुंजुत्री राजा। माला- ले.- परमानन्द चक्रवर्ती (ई. 12 वीं शती) अमरकोश पर टीका। माला-भविष्यम् - ले.- स्कन्द शंकर खोत। नागपुर से प्रकाशित । मुंबई के जीवन का परिहासपूर्ण चित्रण इस लघुनाटक का विषय है। मालामन्त्रमणिप्रभा - ले.- कोंकणस्थ रंगनाथ। श्लोकलगभग 500। यह श्रीविद्याविवरणमालामंत्र की व्याख्या है। यह त्रिपुरार्णव के अन्तर्गत माला मंत्रोद्धार नामक 18 वें तरंग के अंतर्गत है। मालिनीविजयम् (नामान्तर-श्रीपूर्वशास्त्र) - मालिनीमत त्रिकशास्त्र का सार है। त्रिकशास्त्र-दश शिवागम, अष्टादश रुद्रागम और चतुःषष्टि भैरवागम का सार है। मालिनीविजयवर्तिकम् - ले.- अभिनवगुप्त। यह मालिनीविजयतंत्र की प्रथम कारिका का व्याख्यान है। मालिनीशतकम् - ले.- पारिथीयुर कृष्ण । ई. 19 वीं शती। मासनिर्णय - ले.- भट्टोजि । मासप्रवेशसारिणी - ले.- दिनकर । मासमीमांसा - ले.- गोकुलदास (या गोकुलनाथ) महामहोपाध्याय ई. 17 वीं शती। चांद्र, सौर, सायन, हवं नाक्षत्र नामक चार प्रकार के मासों एवं वर्ष के प्रत्येक मास में किये जाने वाले धार्मिक कृत्यों का विवरण । मांसपीयूषलता - ले.- रामभद्रशिष्य । मांसभक्षणदीपिका - ले.- वेणीराम शाकद्वीपी। मांसमीमांसा - ले.- नारायणभट्ट। रामेश्वरभट्ट के पुत्र । मांसविवेक - ले.- भट्ट दामोदर। इस में बतलाया गया है कि मांसार्पण के प्रयोग आधुनिक काल में विहित नहीं हैं। मांसविवेक (या मांसतत्त्वविवेक) - ले.- विश्वनाथ पंचानन । 1634 ई. प्रणीत। सरस्वती भवन सीरीज में प्रकाशित। इसे मांसतत्त्वविचार भी कहा गया है। मासादिनिर्णय - ले.- दुण्डि । मासिकश्राद्धनिर्णय - ले.- रामकृष्णभट्ट। कमलाकरभट्ट के पिता। मासिकश्राद्धपद्धति - ले.- गोपीनाथभट्ट । मासिकश्राद्धप्रयोग (आपस्तंबीय) - ले.- रघुनाथभट्ट सम्राट स्थपति। मासिकश्राद्धमानोपन्यास - ले.-मौनी मल्लारि दीक्षित । माहेश्वरतन्त्रम् - उमा-शिव- संवादरूप। पूर्व और उत्तर खण्डों के रूप में इसके दो भाग हैं। उत्तर खण्ड में 51 पटल हैं, उनमें कृष्णकथा, कृष्ण-महिमा, और कृष्णपूजाविधि का वर्णन है। माहेश्वरीविद्या - इसमें बहुत से इन्द्रजाल या जादुगरी के मंत्र और नृसिंहसहस्रनाम हैं। मितभाषिणी - ले.- शारदारंजन राय। ई. 19-20 वीं शती। यह पाणिनीय व्याकरण की सुबोध व्याख्या है। मितवृत्यर्थसंग्रह - ले.- उदयन। अष्टाध्यायी की काशिका वृत्ति की यह संक्षिप्त आवृत्ति है। मिताक्षरा (अपरनाम- ऋजुमिताक्षरा) - ले.- विज्ञानेश्वर । 12 वीं शती। यह याज्ञवल्क्यस्मृति की श्रेष्ठ टीका है। मिताक्षरा में आंगिरस, बृहदंगिरस, अत्रि, आपस्तंब, आश्वलायन, उपमन्यु आदि 87 स्मृतिकारों एवं असहाय, मेघातिथि, श्रीकर, भारुचि, विश्वरूप एवं भोजदेव इन पूर्ववर्ती छह भाष्यकारों एवं निबंधकारों का उल्लेख है। मिताक्षरा की रचना सन् 1070 से 1100 के बीच हुई। "मिताक्षरा", याज्ञवल्क्य स्मृति का ऐसा वैशिष्ट्यपूर्ण भाष्य है, जिसमें 2 सहस्र वर्षों से प्रवहमान भारतीय विधि के मतों का सार गुंफित किया गया है। यह "याज्ञवल्क्य स्मृति" का भाष्य मात्र न होकर, स्मृतिविषयक स्वतंत्र निबंध का रूप लिये हुए है। इसमें अनेक स्मृतियों के उद्धरण प्राप्त होते हैं तथा उनके अंतर्विरोध को दूर कर उनकी संश्लिष्ट व्याख्या करने के प्रयास में पूर्वमीमांसा की ही पद्धति अपनायी है। इसमें दाय को दो भागों में विभक्त किया गया है। अप्रतिबंध व सप्रतिबंध और जोर देकर कहा गया है कि वसीयत पर पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र का जन्म-सिद्ध अधिकार होता है। इसे "जन्मस्वत्ववाद" कहते हैं। मिताक्षरा की प्रमुख टीकाएं - 1) नन्दपंडितकृत प्रमिताक्षरा (या प्रतीताक्षरा), (2) बालंभट्टकृत बालंभट्टी, (3) विश्वेश्वरभट्टकृत-सुबोधिनी, (4) मधुसूदन गोस्वामीकृत-मिताक्षरासार, (5) राधामोहन शर्माकृत-सिद्धान्तसंग्रह, (6) निर्दूरि बसवोपाध्यायकृत व्याख्यान दीपिका, (7) मुकुंदलालकृत, (8) रघुनाथ वाजपेयीकृत, (9) हलायुधकृत। 270 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मिताक्षरा 2 ) ले- हरदत्त । ई. 15-16 वीं शती। यह गौतमधर्मसूत्र पर टीका है 3) ले मथुरानाथ याज्ञवल्क्यस्मृति पर टीका। मिताक्षरासार का सारांश । ले. मयाराम । विज्ञानेश्वर की प्रसिद्ध टीका मित्रम् सन 1918 में इस पत्र का प्रकाशन पटना से प्रारंभ हुआ। इसका प्रकाशन संस्कृत संजीवन सभा द्वारा होता था । - - । मित्रगोष्ठी ले. सन् 1904 में वाराणसी से महामहोपाध्याय रामावतार शर्मा और विधुशेखर भट्टाचार्य (शांतिनिकेतन के संस्कृताध्यापक) के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। तीन वर्ष बाद इसके संपादन का भार नीलकमल भट्टाचार्य और ताराचरण भट्टाचार्य पर आया । 24 पृष्ठों वाली इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य डेढ रु. था इस पत्रिका में ज्योतिष, धर्म, इतिहास, दर्शन, साहित्य, कृषि विज्ञान, भूगोल आदि विषयों से संबंधित रचनाओं का प्रकाशन किया गया। मिथिलामोद सन 1905 में वाराणसी से मुरलीधर झा के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ । मिथिलिखितः सुसंवाद ले. बैप्टिस्ट मिशन मुद्रणालय (कलकत्ता) द्वारा सन् 1877 में प्रकाशित बाइबल का अनुवाद । मिथिलेशाह्निकम् ले. रत्नपाणि शर्मा गंगोली संजीवेश्वर शर्मा के पुत्र । मिथिला के राजकुमार छत्रसिंह के आश्रम से प्रणीत । विषय- सामवेद के अनुसार शौचविधि, दन्तधावन, स्नान, संध्याविधि, तर्पण, जपयज्ञ, देवपूजा, भोजन, मांसभक्षण, द्रव्यशुद्धि और गार्हस्थ्यधर्म नामक आह्निक । इस ग्रंथ में मिथिलेशचरित है जिसमें महेश ठक्कुर एवं उनके 9 वंशजों का उल्लेख है, और ऐसा कथन है कि महेश को दिल्ली के राजा से राज्य प्राप्त हुआ था। मिथुनमालामंत्र मिथ्याग्रहणम् ले- लीला राव दयाल दो दृश्यों में विभाजित एकांकी रूपक विषय मुहम्मद के बहुपत्नीत्व से क्षुब्ध उसकी पत्नी अमीना की कथा । श्लोक- 1621 मिथ्याज्ञानखण्डनम् - ले. रविदास । मिलिन्दप्रथाः - अनुवादकर्ता विभुशेखर भट्टाचार्य मूल " मिलिन्द पन्हो" नामक पाली ग्रंथ । मिवार प्रताप ( रूपक) ले- हरिदास सिद्धान्तवागीश । ई. 1946 में प्रकाशित। प्रथम अभिनय सन 1945 में कलकत्ता के "स्टार" रंगमंच पर “प्राच्यवाणी प्रतिष्ठान" की ओर से। अंकसंख्या छः । कतिपय अंकों का विभाजन दृश्यों में पुरुषपात्र 40, और स्त्रीपात्र 11, लोकोक्तियों और अन्योक्तियों का प्रचुर प्रयोग । देशप्रेम का सन्देश, नृत्य-गीतों की अधिकता और कतिपय गीत प्राकृत में हैं। विशेषताएं- अश्व का रंगमंच पर प्रवेश, महिला मेले का आयोजन, मंच पर युद्धप्रसंग, वेश्याओं 1 - - www.kobatirth.org - - का नृत्य, वन्य जीवन की झांकी, सौंदर्य प्रतियोगिता आदि । इस में मेवाड के राणा प्रताप सिंह का जीवन वर्णित है। मीनाक्षीकल्याणचंपू ले कंदकुरी नाथ तेलगु ब्राह्मण। । इस चंपू-काव्य में कवि ने पाण्ड्यदेशीय प्रथम नरेश कुलशेखर (मलयध्वज) की पुत्री मीनाक्षी का शिव के साथ विवाहवर्णन किया है। मीनाक्षी स्वयं पार्वती मानी गई है। इस काव्य की खंडित प्रति प्राप्त हुई है जिसमें केवल दो ही आश्वास हैं । प्रारंभ में गणेश एवं मीनाक्षी की वंदना की गई है। मीनाक्षीपरिणयम् - ले. मलय कवि । पिता- रामनाथ । मीनाक्षीपरिणयचम्पू ले. आदिनारायण । 1 - मीनाक्षीशतकम् ले पारिधीयर कृष्ण कवि ई. 19 वीं शती मीमांसाकुसुमांजलि (अपरनाम पूर्वमीमांसा) ले. - विश्वेश्वरभट्ट । अपर नाम- गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती । मीमांसाकोश संपादक- केवलानंद सरस्वती । वाई (महाराष्ट्र ) के निवासी । ई. 19-20 वीं शती । यह बृहत्कोश सात खंडों में प्रकाशित हुआ है। मीमांसाचंद्रिका - ले. ब्रह्मानंद सरस्वती । ई. 17 वीं शती । बंगनिवासी विषय- जैमिनिसूत्रों का विवरण। मीमांसान्यायप्रकाश ले- आपदेव । ई. 17 वीं शती । मीमांसापल्लव ले इन्द्रपति । पिता- श्रीपति। माता-रुक्मिणी । विषय- धर्मशास्त्रीय विषयों की मीमांसा । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - मीमांसाबालप्रकाश ले. शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । लेखक के पुत्र नीलकंठ ने ग्रंथ पूर्ण किया। मीमांसासर्वस्वम् - ले. हलायुध । पिता- धनंजय । ई. 12 वीं शती । For Private and Personal Use Only मीमांसा -सूत्रम् - ले. महर्षि जैमिनि । समय ई.पू. 4 थी शती । "मीमांसासूत्र" 16 अध्यायों में विभक्त है। इस मैथ में मीमांसा दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों का निरूपण है। इसके प्रारंभिक 12 अध्याय "द्वादशलक्षणी" के नाम से निर्देशित किये जाते हैं। शेष 4 अध्यायों का नाम "संकर्षण कांड" या "देवता कांड" है मीमांसा सूत्रों की कुल संख्या 2644 है, जो 909 अधिकरणों में विभक्त हैं। इसमें 12 अध्यायों में क्रमशः इन विषयों का विवेचन है- धर्मविषयक प्रमाण, एक धर्म का अन्य धर्म से भेद, अंगत्व, प्रयोज्यप्रयोजक, क्रम, यज्ञकर्ता के अधिकार, अतिदेश (7 वें व 8 वें अध्याय में एक ही विषय का वर्णन है) ऊह, बाध, तंत्र व प्रसंग । इस ग्रंथ पर शबरस्वामी का भाष्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। शावरभाष्य पर कुमारिलभट्ट, प्रभाकर मिश्र और मुरारि मिश्र ने व्याख्याएं लिखी हैं। मीमांसा - सूत्र का समय 100 से 200 ई.पू. माना जाता है । मीमांसासूत्रवृत्तिले भर्तृहरि । मीमांसासूत्रानुक्रमणी ले. मंडनमिश्र । ई. 7 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 271 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीराचरितम् - ले.-लीला राव दयाल। 13 दृश्यों में विभाजित रूपक। क्षमा राव कृत 'मीरालहरी' काव्य पर आधारित । संत मीरा की बाल्यावस्था से लेकर जीवनभर की हरिभक्तिपरक घटनाएं चित्रित हैं। यह रूपक प्रायः पद्यमय है। बीच बीच में संवाद तथा नाट्यनिर्देश हैं। मीरालहरी - ले.- क्षमादेवी राव। विषय- मीराबाई का चरित्र । अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित । मुकुटसप्तमीकथा - ले.- श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। मुकुटाभिषेकम् (रूपक) - ले.-नारायण दीक्षित । मद्रास से सन् 1912 में प्रकाशित। अंकसंख्या पांच। विषय- पंचम जॉर्ज के राज्याभिषेक की घटना का निवेदन। मुकुन्दचरितचम्पू - ले.- श्रीनिवास । मुकुन्द-पद-माधुरी - ले.- कृष्णनाथ सार्वभौम भट्टाचार्य। ई. 18 वीं शती। भक्तिविषयक कारिकाएं। मुकुन्दमनोरथम् (रूपक) - ले.- राधामंगल नारायण। ई. 19 वीं शती। मुकन्द-लीलामृतम् (नाटक)- ले.- विश्वेश्वर दयाल, चिकित्सक चूडामणि । सन् 1945 में इटावा से प्रकाशित । श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर अभिनीत। अंकसंख्या - सात। वसुदेव देवकी के विवाह से कंस-वध तक की कथावस्तु निबद्ध है। कंस की विदेशी शासक तथा कृष्ण की महात्मा गांधी से तुलना कर आधुनिकता का आभास निर्माण किया गया है। मुक्ताचरितम् (रूपक) - ले.- शेषकृष्ण । ई. 16 वीं शती। मुक्तावली- टीका- ले.- गदाधर भट्टाचार्य। मुक्तावलीनाटकम् - ले.- भद्रादि रामशास्त्री । ई. 19 वीं शती। मुक्तावलीव्रतकथा - ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। मुक्तिक्षेत्रप्रकाश - ले.- भास्कर । पिता आप्पाजी भट्ट। विषयअयोध्या, मथुरा आदि सात मोक्षपुरियों की महिमा। मुक्तिचिन्तामणि-ले.- गजपति पुरुषोत्तमदेव । विषय- जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पर धार्मिक कृत्य। मुक्तिपरिणयम् (लाक्षणिक रूपक) - ले.- सुन्दरदेव । मुक्तिसारदम् (रूपक) - ले.- यतीन्द्रविमल चौधरी। रामकृष्ण परमहंस के देहत्याग के पश्चात् उनकी धर्मपत्नी सारदामणि माता के जीवनचरित्र की कथा। अंकसंख्या- बारह । मुक्तिसोपानम् - ले.- अखण्डानन्द। श्लोक- 1075| विषयछिन्नमस्ता देवी की उत्पत्ति तथा पूजा का सविस्तर वर्णन । मुग्धबोधिनी - ले.- भरतमल्लिक। ई. 17 वीं शती। यह सुप्रसिद्ध भट्टिकाव्य की व्याख्या है। मुदितमदालसा (नाटक) - ले.- गोकुलनाथ । ई. 17 वीं शती। मुग्धबोध - ले.- बोपदेव । व्याकरण शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ । इस पर रामानन्द, देवीदास, रामभद्र विद्यालंकार, भोलानाथ (संदर्भामृततोषिणी) दुर्गादास (सुबोधा), विद्यावागीश, श्रीराम शर्मा, श्रीकाशीश, श्रीगोविन्द शर्मा, श्रीवल्लभ, कार्तिकेय तथा मधुसूदन द्वारा लिखित टीकाएं हैं। मुग्धबोध-परिशिष्टम् - ले.- नन्दकिशोर भट्ट। लेखक ने टीका भी लिखी है। मुग्धबोधरूपान्तरम् - ले.- राम तर्कवागीश । मुग्धबोधिनी - ले.- भरत मल्लिक (श. 17) अमरकोश पर व्याख्या। मुण्डमाला - श्लोक- 189। विषय- तंत्रशास्त्र । लिपिकाल सं. 17111 मुण्डमालातन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप। पटल- 15. विषयमहाविद्याओं में से प्रत्येक की उपासना का फल। (2) देव-देवी संवादरूप। विषय- पहले देवराज द्वारा साधित एकाक्षरी विद्या का निरूपण, अक्षमाला के नाम और फल, साधनायोग्य स्थान, निवेदन योग्य वस्तुएं, बलिदान, दीक्षाविधि, गुरु के लक्षण, पूजा, यंत्र आदि। मुंडकोपनिषद् - यह उपनिषद् “अथर्ववेद" की शौनकीय शाखा से संबंधित है। इसमें 3 मुंडक या अध्याय हैं जिनकी रचना गद्य में हुई है। प्रत्येक मुंडक में दो-दो खंड हैं। इसमें ब्रह्मा द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया गया है। प्रथम अध्याय में ब्रह्म व वेदों की व्याख्या मुकुन्दविलासम् (काव्य) - ले.- भगवन्तराय गंगाध्वरी। ई. 17 वीं शती। (2) ले.- नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। (3) ले.- रघूत्तमतीर्थ । मुकुन्दशतकम् - ले.- रामपाणिवाद । ई. 18 वीं शती। केरल निवासी। मुकुन्दस्तव - ले.-रामपाणिवाद। केरलनरेश रामवर्मा के आदेशानुसार लिखित स्तोत्रकाव्य । मुकुन्दानन्दम् (मिश्र भाण) - ले.- काशीपति। 18 वीं शती। प्रथम अभिनय मैसूर के निकट नूतनपुर परिसर में भद्रगिरि स्थित शिव के वसन्तोत्सव में हुआ। नायक भुजगशेखर । वेश्याओं से शृंगार इस रूपक का विषय है। मुक्तकमंजूषा - ले.- श्री. दि. दा. बहुलीकर। लोनावला (महाराष्ट्र) में संस्कृत के अध्यापक । प्रासादिक शैली में रचित मार्मिक मुक्तकों का संग्रह । मुक्तावली - ले.- रामनाथ तर्कालंकार । मेघदूत की व्याख्या। (2) ले.- ब्रह्मानंद सरस्वती। ई. 17 वीं शती। विषयब्रह्मसूत्र का विवरण। मुक्ताचरितचम्पू - ले.- रघुनाथ दास (15 वीं शती।) पाया है। 272 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तथा दूसरे में ब्रह्म का स्वभाव एवं विश्व से उसका संबंध वर्णित है। तृतीय अध्याय में ब्रह्मज्ञान के साधनों का निरूपण है। इसमें मनुष्यों को जानने योग्य दो विद्याओं का (परा और अपरा) उल्लेख है। जिसके द्वारा अक्षरब्रह्म का ज्ञान हो वह है परा विद्या, तथा चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष आदि छह वेदांग, अपरा विद्या है। अक्षरब्रह्म से ही विश्व की सृष्टि होती है। जिस प्रकार मकडी जाल बनाती है और उसे निगल जाती है, अथवा जिस प्रकार जीवित मनुष्य के लोम व केश उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार अक्षरब्रह्म से इस विश्व की सृष्टि होती है। ( 1-1-7) इस उपनिषद् में जीव और ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन दो पक्षियों के रूपक द्वारा किया गया है। एक साथ रहने वाले व परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा व परमात्मा), एक ही वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर निवास करते हैं। उनमें से एक (जीव) उस वृक्ष के फल का स्वाद लेकर उसका उपभोग करता है, और दूसरा भोग न करता हुआ उसे केवल देखता है। यहां जीव को शरीर के कर्मफल का उपभोग करते हुए चित्रित किया गया है, और ब्रह्म, साक्षी के रूप से उसे देखते हुए, वर्णित है। मुदितमदालसा (नाटिका) ले. गोकुलनाथ ई. 17 वीं शती विषय विश्वावसु की कन्या मदालसा का कुवलयाश्व के साथ विवाह | www.kobatirth.org - 18 मुद्गरदूतम् - • ले.- म. म. रामावतार शर्मा। काशी में प्रकाशित । मुद्गल (ऋग्वेद की शाखा) ले. इस शाखा की संहिता, ब्राह्मण सूत्र आदि अभी तक अप्राप्त हैं। प्रपंचहृदय नामक ग्रंथ के लिखे जाने के काल तक यह शाखा विद्यामान थी । मुद्गल के पिता थे भूम्यश्व । मुद्गलस्मृति ले. मुद्गलाचार्य विषय दाय, अशौच, प्रायश्चित्त इ । - मुद्राप्रकरणम् ले. कृष्णानन्द । तंत्रसार का मुद्रा प्रकरण इसमें निर्दिष्ट है। श्लोक 192 मुद्राओं से देवताओं की प्रसन्नता होती है एवं पापराशि नष्ट होती है। इसलिये मुद्रा सर्वकर्मसाधिका कही गई है। विषय- पूजा, जप, ध्यान, आवाहन आदि में मुद्रा आवश्यक है। "मुद्रा" की निरुक्ति यों की है मोदनात् सर्वदेवानां द्रावणात्पापसन्ततेः। तस्मान्मुद्रेति सा ख्याता सर्वकर्मार्थसाधिनी ।।" मुद्राओं के लक्षण और विनियोग के साथ अंकुश, कुग्भ, अग्निप्राकार, मालिनी, धेनु, शंख, योनि, मत्स्य, आवाहनादि विविध मुद्राएं प्रतिपादित हैं। मुद्राप्रकाश ले. श्रीरामकिशोर । ई. 18 वीं शती। साधारण मुद्राओं के निर्णय के साथ साथ उमेशमुद्रा, उपेन्द्रमुद्रा, गजाननमुद्रा, शक्तिमुद्रा इ. मुद्राओं का निर्णय भी इसमें किया गया है। परिच्छेद 6। श्लोक- 405 विषय मुद्रा शब्द की निरुक्ति-पूर्वक मुद्राओं के प्रमाण, लक्षण इ.का प्रतिपादन । - मुद्राराक्षसम् (नाटक) निरुक्त, अंकुश, कुन्त, तत्त्व, कालकर्णी, वासुदेवाख्या, सौभाग्यदण्डिनी, रिपुजिह्वासना, कूर्म, त्रिखण्डा, शालिनी, मत्स्यमुद्रा, आवाहनी, आदि बहुत-सी मुद्राएं इसमें प्रतिपादित हैं। ले. महाकवि विशाखदत्त । यह संस्कृत साहित्य में सुप्रसिद्ध राजनीतिक तथा ऐतिहासिक नाटक है। इस में 7 अंक हैं, और प्रतिपाद्य है चाणक्य द्वारा नंद सम्राट् के विश्वस्त व भक्त अमात्य राक्षस को परास्त कर चंद्रगुप्त का विश्वासभाजन बनाना। इसमें कथानक का मूलाधार है नंद वंश का विनाश, मौर्य साम्राज्य की स्थापना तथा चाणक्य के विरोधियों का नाश तथा चंद्रगुप्त के मार्ग को प्रशस्त करना। नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार द्वारा चंद्रग्रहण का कथन किया गया है, और पर्दे के पीछे चाणक्य की गर्जना सुनाई पडती है कि उसके रहते चंद्रगुप्त को कौन पराजित कर सकेगा। संक्षिप्त कथा :- प्रथम अंक :चाणक्य अपने गुप्तचर निपुणक से राक्षक की अंगूठी प्राप्त करता है, तथा राक्षक के तीन सहायक व्यक्तियों (जीवसिद्धि क्षपणक, शकटदास और चन्दनदास) के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। चाणक्य शकटदास से कपट लेख लिखवाता है, चन्दनदास के द्वारा राक्षस का परिवार न सौंपने पर उसे कैदखाने में डलवा देता है, और शकटदास को मृत्युदण्ड देता है। चाणक्य का सेवक सिद्धार्थक, शकटदास को वधस्थल से भगा ले जाता है। द्वितीय अंक :- गुप्तचर विराधगुप्त से राक्षस को ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने पर्वतक को मरवाया है । शकटदास को लेकर सिद्धार्थक राक्षस के पास आता है। उसे राक्षस मित्र का रक्षक मानकर विश्वास पात्र समझता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I तृतीय अंक चंद्रगुप्त की आज्ञा से मनाये जा रहे कौमुदी उत्सव को चाणक्य द्वारा बंद करवाने पर दोनों में कृतक कलह होता है। चतुर्थ अंक :- करभक, चाणक्य और चंद्रगुप्त के कृत्रिम कलह के बारे में राक्षस को बताता है। भागुरायण के कहने से मलयकेतु राक्षस को चन्द्रगुप्त के अमात्यपद के लिए इच्छुक मानने लगता है। पंचम अंक आभरण-पेटिका और राक्षस का मुहरयुक्त पत्र (जो चाणक्य ने लिखवाया था) लेकर आते हुए सिद्धार्थक को मलयकेतु कुसुमपुर जाने से रोकता है, और आभूषण पेटी से अपने पिता पर्वतक के आभूषण एवं राक्षस के पत्र से राक्षस को ही पर्वतक का हत्यारा मान कर राक्षस के सहायक पांच राजाओं को मरवा देता है। यह जानकर राक्षक चंदनदास की मुक्ति का उपाय सोचता है। षष्ठ अंक चाणक्य के गुप्तचर से चन्दनदास को फांसी देने की बात सुनकर, राक्षस उसे बचाने वध-भूमि पर जाता है। सप्तम अंक राक्षस के मिल जाने पर चाणक्य उसे चंद्रगुप्त के अमात्य के पद पर प्रतिष्ठित करता है । मुद्राराक्षस में अर्थोपक्षेपकों की संख्या 4 है जिनमें 2 प्रवेशक, 1 मूलिका और 1 अंकाश्य है इस For Private and Personal Use Only - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 273 - Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नाटक में विष्कम्भक नहीं है "मुद्राराक्षस" विशाखदत्त की नाटककला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसकी वस्तुयोजना एवं उसके संगठन में प्राचीन नाट्यशास्त्रीय नियमों की अवहेलना करते हुए स्वच्छंद वृत्ति का परिचय दिया गया है। कथावस्तु जटिल राजनीतिक होने के कारण, इसमें माधुर्य व लालित्य का अभाव है, और करुण तथा श्रृंगार रस नहीं दिखाई पड़ते । इसमें न तो किसी स्त्री पात्र का महत्वपूर्ण योग है और न विदूषक को ही स्थान दिया गया है। संस्कृत में एकमात्र यही नाटक है जिसमें नाटककार ने रस-परिपाक की अपेक्षा घटना - वैचित्र्य पर बल दिया है। उसमें नाटककार की दृष्टि अभिनय पर अधिक रही है। कथावस्तु की दृष्टि से "मुद्राराक्षस", संस्कृत के अन्य नाटकों की अपेक्षा अधिक मौलिक है। इसमें घटनाओं का संघटन इस प्रकार किया गया है, कि प्रेक्षक की उत्सुकता कभी नष्ट नहीं होती। संकलन त्रय के विचार से "मुद्राराक्षस" एक सफल नाट्यकृति है। इसके नायकत्व का प्रश्न विवादास्पद है । नाट्यशास्त्रीय विधि के अनुसार इसका नायक चंद्रगुप्त ज्ञात होता है, किंतु कतिपय विद्वान् कुछ कारणों से चाणक्य को ही इसका नायक स्वीकार करते हैं। इस नाटक का नामकरण वर्ण्य वस्तु के आधार किया गया है। राक्षस की नामंकित मुद्रा (मुहर) पर ही चाणक्य की समस्त कूटनीति केंद्रित हुई है, जिससे राक्षस के सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए । अतः नाटक का नामकरण 'मुद्राराक्षस' सार्थक है । मुद्राराक्षस के टीकाकार : (1) वटेश्वर (मिथिला के गौरीपति मिश्र के पुत्र) (2) दुण्डिराज ( पिता लक्ष्मण) समय- 17-18 वीं शती। (3) स्वामी शास्त्री अनन्तसागर। (4) तर्कवाचस्पति । (5) महेश्वर । (6) घटेश्वर-प्राकृताचार्य। (7) केशव उपाध्याय । (8) अभिराम । (9) ग्रहेश्वर । (10) जे. विद्यासागर । (11) शरभभूप तंजोर-नरेश सरफोजी भोसले इनके अतिरिक्त । अनन्तपंडित ने गद्यात्मक और रविकर्तन ने पद्यमय कथासार लिखा है । मुद्रार्णव ले. श्रीरामकृष्ण। मुद्रालक्षणम् - ले. कृष्णनाथ। श्लोक 1151 मुद्रालक्षणसंग्रह ले पौण्डरीक भट्ट श्लोक 3521 मुद्राविचार श्लोक- 961 www.kobatirth.org · मुद्राविवरणम् - श्लोक 100। विषय- तंत्रराज, प्रयोगसार, लक्षण संग्रह, राजतंत्र आदि तांत्रिक ग्रंथों से अंकुशमुद्रा, कुंभमुद्रा, अग्निप्राकारमुद्रा, ऋष्यादिन्यासमुद्रा, षडंगमुद्रा, मालिनीमुद्रा, शंखमुद्रा, मत्स्यमुद्रा आवाहनादि नौ मुद्राएं, 7 गणेशमुद्राएं 10 शाक्तमुद्राएं 19 वैष्णवमुद्राएं 10 शैवमुद्राएं, 5 गन्धादिमुद्राएं चक्रमुद्रा, प्रासमुद्रा, प्राणादि 5 मुद्राहं, 7 जिह्वामुद्राएं, भूतबलिमुद्रा नाराचमुद्रा, तमस्करमुद्रा, संहारमुद्रा, पाशमुद्रा, गदामुद्रा, शूलमुद्रा तथा खड्गमुद्रा और उनके लक्षण । 274 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड मुद्रितकुमुदचंद्रम् (प्रकरण ) - ले. यशश्चन्द्र । पिता पद्मचंद्र । इस प्रकरण में 1124 ई. में संपन्न एक शास्त्रार्थ का वर्णन है, जो श्वेतांबर मुनि देवसूरि व दिगंबर मुनि कुमुदचंद्र के बीच हुआ था। इस शास्त्रार्थ में कुमुदचंद्र का मुख-मुद्रण हो गया था। इसी के आधार पर प्रस्तुत प्रकरण का नामकरण किया गया है। इसका प्रकाशन काशी से हो चुका है। मुनित्रयविजय ( वीथि) - ले. रामानुजाचार्य । - । मुनिद्वात्रिंशत्का ले. विमलकुमार जैन। कलकत्ता निवासी । मुनिमतमणिमाला ले. वामदेव मुमुर्षुमृतकृत्यादिपद्धति - ले. शंकर शर्मा | मुरलीप्रकाश ले भावभट्ट विषय संगीत । मुरारिनाटक व्याख्या ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । मुरारिविजयम् (रूपक) - ले. शेषकृष्ण । ई. 16 वीं शती । मुहूर्तकलीन्द्रले शीतल दीक्षित - मुहूर्तकल्पद्रुम 1) ले. केशव। 2 ) ले. विट्ठल दीक्षित । गोत्र-कृष्णात्रि । सन 1628 में लिखित। इस पर लेखक की मंजरी नामक टीका है। मुहूर्त कल्याकर - ले. दुःखभंजन | मुहूर्त गणपति ले. गणपति रावल । पिता हरिशंकर । सन 1685 में लिखित। इस पर परमसुख कृत और परशुराम मिश्र कृत टीकाएं है। - - मुहूर्तचन्द्रकला ले. - हरजी भट्ट । ई. 17 वीं शती । ले. रामभट्ट । 2) ले. वेंकटेशभट्ट । मुहूर्तचिंतामणि मुहूर्तचिन्तामणि ले. रामदेवज्ञ पिता अनन्त सन 1600 । । में काशी में प्रणीत सन 1902 में मुंबई में मुद्रित । लेखक के बड़े भाई नीलकण्ठ अकबर के सभापंडित थे। इनके पूर्वज विदर्भ निवासी थे। इस पर लेखक ने प्रमिताक्षरा नामक टीका लिखी है जो सन 1848 में वाराणसी में मुद्रित हुई । लेखक का भतीजे गोविन्द ने पीयूषधारा टीका सान 1603 में लिखी जो सन 1873 में मुंबई में मुद्रित हुई। इस टीका पर रघुदैवज्ञ ने उपटीका लिखी अन्य टीकाएं कामधेनु एवं षटसाहस्त्री । मुहूर्तचूडामणि ले. शिव देवश भारद्वाजगोत्र श्रीकृष्ण के पुत्र । मुहूर्ततत्त्वम् - ले. - केशव । 1 मुहूर्तदर्पण ले. - लालमणि । पिता जगद्राम। अलर्कपुर विद्यामाधव। इस For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (प्रयाग के समीप) के निवासी। 2) ले पर माधवभट्ट की टीका है। - मुहूर्तदीप - ले. जयानन्द । 2) शिवदैवज्ञ के पुत्र । मुहूर्तदीपक ले. महादेव पिता कान्हजित् (कान्हुजी) सन 1661 में लिखित। इस पर लेखक की टीका है। 2) ले. रामसेवक । पिता- देवीदत्त । 3) ले नागदेव । - मुहूर्तपरीक्षा ले. देवराज । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुहूर्तभूषणटीका - ले.- रामदत्त । मुहूर्तभैरव - ले.- दीनदयालु पाठक । मुहर्तमंजरी - ले.- यदुनन्दन पण्डित। चार गुच्छों एवं 101 श्लोकों में पूर्ण। मुहूर्तमणि - ले.-विश्वनाथ । मुहर्तमाधवीयम् - ले.-सायण या माधवाचार्य का कहा गया है। मुहूर्तमार्तण्ड - ले.- नारायणभट्ट। पिता- अनन्त । देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद (महाराष्ट्र) निवासी। सन 1572 में लिखित। शार्दूलविक्रीडित श्लोक संख्या- 160। लेखक द्वारा मार्तण्डवल्लभ नामक टीका लिखित । सन 1861 में मुंबई में प्रकाशित। मुहूर्तमार्तण्ड - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वरभट्ट। मुहूर्तमाला - ले.- रघुनाथ। शाण्डिल्यगोत्री। चित्तपावन ब्राह्मण जातीय सरस के पुत्र । सन 1878 में रत्नागिरि में मुद्रित।। मुहूर्तमुक्तावली - ले.-श्रीकण्ठ। 2) ले.- श्री हरिभट्ट। 3) ले.- देवराम। 4) ले.- भास्कर। 5) ले.- लक्ष्मीदास । गोपाल के पुत्र। 6) ले.- काशीनाथ । मुहूर्तरचना - ले.-दुर्गासहाय । मुहूर्तरत्नम् - ले.- ईश्वरदास । ज्योतिषराय के पुत्र। ग्रंथ का अपरनाम "मुहूर्तरत्नाकर" है। 2) ले.- गोविन्द 3) ले.रघुनाथ। 4) ले.- शिरोमणिभट्ट । मुहर्तरत्नमाला - ले.- श्रीपति। टीका- लेखकद्वारा । मुहूर्तराज - ले.-विश्वदास। मुहूर्तशिरोमणि - ले.- धर्मेश्वर । रामचंद्र के पुत्र । मुहूर्तसिद्धि - ले.- नागदेव। 2) ले.- महादेव। मुहूर्तसिन्धु - ले.-मधुसूदन मिश्र। लाहोर में मुद्रित । मुहूर्तस्कन्ध - ले.- बृहस्पति। मुहूर्तालंकार - ले.- गंगाधर । भैरव के पुत्र । सन 1633 में लिखित। 2) ले.- जयराम । मूर्खहा - विषय- संकल्पवाक्य, नान्दिश्राद्ध, तिथिश्राद्ध, तिथिव्यवस्था, एकोद्दिष्टकालव्यवस्था, श्राद्धव्यवस्था, गोवधादिप्रायश्चित्त, व्यवहारदायादिव्यवस्था, विवाहनक्षत्रादि । मूर्तिलक्षणम् - श्लोक- 650 । पार्थिवलिंग-पूजाविधान पर्यन्त । मूल्यनिरूपणम् - ले.-गोपाल। मूलशान्ति - ले.-शिवप्रसाद। श्लोक- 1501 मूलशान्तिविधि - ले.-मधुसूदन गोस्वामी। मूलप्रकाश - ले.- प्रेमनिधि पन्त । मूलमाध्यमिककारिकावृत्ति - ले.- स्थिरमति। नागार्जुनकृत माध्यमिककारिका की टीका। मूलाचारप्रदीप - ले.-सकलकीर्ति । जैनाचार्य । पिता- कर्णसिंह । माता- शोभा । ई. 14 वीं शती। अधिकार नामक 12 अध्याय । मूलाविद्यानिरास - ले.-वाय. सुब्बाराव। चतुर्थाश्रम स्वीकार करने पर लेखक का नाम सच्चिदानंद सरस्वती हुआ। उन्होंने शंकराचार्य के अध्यासभाष्य पर 'सुगम' नामक विवेचक निबंध लिखा है। मूल्याध्याय - ले. कात्यायन । मृगाङ्कलेखा (नाटिका) - रचयिता- विश्वनाथ देव। रचनाकाल- सन 16071 काशीविश्वनाथ के महोत्सव में अभिनीत। अंगी रस शृंगार। वैदर्भी रीति। अन्योक्ति तथा अनुप्रास का प्रचुर प्रयोग। शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा का अधिक प्रयोग। वसन्ततिलका तथा मालिनी का क्रमांक उनके बाद आता है। नीच पात्रों के मुख से भी यत्र तत्र संस्कृत पद्यों की योजना है। सरस्वतीभवन प्रकाशनमाला में प्रकाशित । कथासार- कलिङ्ग के राजा कपूरतिलक, कामरूप की राजकुमारी मृगाकलेखा को देख काममोहित हो जाता है। दानव शंखपाल नायिका मृगाङ्कलेखा को तिरस्करिणी प्रयोग द्वारा अपहृत करना चाहता है, परन्तु योगिनी की सहायता से नायक उसे अन्तःपुर में ले जाता है। शंखपाल नायिका का पिण्ड नही छोडता। वह उसका अपहरण करके कालीमन्दिर में प्रणय निवेदन करने ही वाला है, कि वहा नायक पहुंचता है और शंखपाल को भगा देता है। अन्त में नायक-नायिका का विवाह सम्पन्न होता है। मृगेन्द्रटीका (मृगेन्द्रवृत्ति)- ले.-भट्ट नारायणकण्ठ। पिता- या गुरु- विद्याकण्ठ। श्लोक- 32201 मृगेन्द्रतन्त्र - इसपर अघोरशिवाचार्य विरचित मृगेन्द्रवृत्तिदीपिका टीका है। टीका के नाम से ज्ञात होता है कि दीपिका नारायणकण्ठ कृत टीका पर टीका है। मृगेन्द्रतन्त्रविवृत्ति -श्लोक - 3751 मृगेन्द्रवृत्तिदीपिका - अघोरशिव कृत नारायणी वृत्ति की व्याख्या। मृगेन्द्रोत्तर • श्लोक- 1750। पटल- 271 विषय- शिवजी की पूजा तथा महिमा । इस पर नारायणकण्ठ भट्ट कृत टीका है। मृच्छकटिकम् - महाकवि शूद्रक-विरचित सुप्रसिद्ध प्रकरण । इसमें चारुदत्त एवं वसंतसेना नामक वेश्या का प्रणय-प्रसंग, 10 अंकों में वर्णित है। प्रथम अंक में प्रस्तावना के पश्चात् चारुदत्त के निकट उसका मित्र मैत्रेय (विदूषक) अपने अन्य मित्र चूर्णवृद्ध द्वारा दिये गये जातीकुसुम से सुवासित उत्तरीय लेकर जाता है । चारुदत्त उसका स्वागत करते हए उत्तरीय ग्रहण करता है। वह मैत्रेय को रदनिका दासी के साथ मातृ-देवियों को बलि चढाने के लिये जाने को कहता है, पर वह प्रदोष-काल में जाने से भयभीत हो जाता है। चारुदत्त उसे ठहरने के लिये कह कर पूजादि कार्यों में संलग्न हो संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 275 For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाता है। इसी बीच वसंतसेना का पीछा करते हुए शकार, शकार की गाडी, वसंतसेना के पास उसे लेने के लिये आती विट और चेट पहुंच जाते हैं। शकार की उक्ति से वसंतसेना है। वसंतसेना की मां उसे जाने के लिये कहती है, पर वह को ज्ञात होता है कि पास में ही चारुदत्त का घर है। मैत्रेय नहीं जाती। शर्विलक वसंतसेना के घर पर जाकर मदनिका दीपक लेकर किवाड खोलता है और वसंतसेना शीघ्रता से को चोरी का वृत्तांत सुनाता है। मदनिका, वसंतसेना के दीपक बुझा कर भीतर प्रवेश कर जाती है। इधर शकार, आभूषणों को देख कर उन्हें पहचान लेती है, और उन्हें अपनी रदनिका को ही वसंतसेना समझ कर पकड़ लेता है, पर मैत्रेय स्वामिनी को लौटा देने के लिये कहती है। पहले तो शर्विलक डांट कर उसे छुडा लेता है। शकार विवाद करता हुआ मैत्रेय उसके प्रस्ताव को अमान्य करता है, किन्तु अंततः उसे मानने को धमकी देकर चला जाता है। विदूषक एवं रदनिका के को तैयार हो जाता है। वसंतसेना छिपकर दोनों प्रेमियों की भीतर प्रवेश करने पर वसंतसेना पहचान ली जाती है। वह बातचीत सुनती है, और प्रसन्नतापूर्वक मदनिका को मुक्त कर अपने आभूषणों को चारुदत्त के यहां रख देती है और मैत्रेय शर्विलक के हवाले कर देती है। रास्ते में शर्विलक को, राजा तथा चारुदत्त उसे घर पहुंचा. देते हैं। इस अंक में यह पता पालक द्वारा गोपालदारक को बंदी बनाये जाने की घोषणा चल जाता है कि वसंतसेना ने जब चारुदत्त को सर्वप्रथम सुनाई पड़ती है। अतः वह रेभिक के साथ मदनिका को कामदेवायतनोद्यान में देखा था, तभी से वह उस पर अनुरक्त भेजकर, स्वयं गोपालदारक को छुड़ाने के लिये चल देता है। हो गई थी। द्वितीय अंक में वसंतसेना की अनुरागजन्य उत्कण्ठा शर्विलक के चले जाने के बाद, धूता की रत्नावली लेकर दिखलाई गई है। इस अंक में संवाहक नामक व्यक्ति का मैत्रेय आता है और वसंतसेना को बताता है कि चारुदत्त चित्रण किया गया है जो पहले पाटलिपुत्र का एक संभ्रांत आपके आभूषणों को जूए में हार गया है, इसलिये रह रत्नावली नागरिक था, पर समय के फेर से दरिद्र होने के कारण उसने बदले में भिजवाई है। वसंतसेना मन-ही-मन प्रसन्न उज्जयिनी आकर संवाहक के रूो में चारुदत्त के यहां सेवक होकर रत्नावली रख लेती है, और संध्या समय चारुदत्त से बन गया था। चारुदत्त के निर्धन हो जाने से उसे बाध्य मिलने संदेश देकर मैत्रेय को लौटा देती है। (इस प्रकरण होकर वहां से हटना पडा और वह जुआडी बन गया। जुए के चतुर्थ अंक तक की कथा भासकृत चारुदत्त के समान है में 10 मोहरें हार जाने और उनके चुकाने में असमर्थ होने पर मृच्छकटिक में सज्जलक का नाम शर्विलक है)। के कारण वह छिपा-छिपा फिरता है। उसका पीछा द्यूतकार पंचम अंक में वसंतसेना चेटी के साथ चारुदत्त के घर और माथुर करते रहते हैं। वह एक मंदिर में छिप जाता है, जाती है। वसंतसेना सुवर्णभांड (हार इत्यादि आभूषण) चारुदत्त और वे दोनों एकांत समझकर वहीं पर जुआ खेलने लगते को देती है तभी शर्विलक कृत चोरी का सारा रहस्य खुलता हैं। संवाहक भी वहां आकर सम्मिलित होता है, पर द्यूतकार है। षष्ठ अंक में वसंतसेना चारुदत्त के पुत्र को सोने की द्वारा पकड लिया जाता है। वह भाग कर वसंतसेना के घर गाडी बनवाने के लिए आभूषण देती है। वसंतसेना प्रवहण छिप जाता है। द्यूतकार व माथुर उसका पीछा करते हुए वहां के बदल जाने से शकार की गाड़ी में बैठ के उद्यान मे पहुंच जाते हैं। संवाहक को चारुदत्त का पुराना सेवक जान चली जाती है और चारुदत्त की गाडी में कारागृह से भागा कर वसंतसेना उसे अपने यहां स्थान देती है, और द्यूतकार हुआ आर्यक आता है। वह उसके बंधन कटवा कर उसे को रुपये के बदले अपना हस्ताभरण देती है जिसे प्राप्त कर विदा करता है। अष्टम अंक में शकार वसंतसेना का गला वे दोनों संतुष्ट होकर चले जाते हैं। संवाहक विरक्त होकर दबा कर उसे मारता है और उसके शरीर को पत्तों के ढेर बौद्ध भिक्षु बन जाता है। तभी वसंतसेना का चेट एक बिगडैल में छिपाकर चला जाता है। बाद में भिक्षु को इस बात का हाथी से एक भिक्षुक को बचाने के कारण चारुदत्त द्वारा प्रदत्त पता चलता है। वह वसंतसेना को विहार में ले जाता है। पुरस्कार स्वरूप एक प्रावारक लेकर प्रवेश करता है। वह नवम अंक में शकार चारुदत्त पर वसंतसेना के वध का चारुदत्त की उदारता की प्रशंसा करता है, और वसंतसेना अभियोग लगाता है जिसमें चारुदत्त को मृत्युदण्ड देने की उसके प्रावारक को लेकर प्रसन्न होती है। तृतीय अंक में घोषणा होती है। दशम अंक में भिक्षु उक्त घोषणा को सुन वसंतसेना की दासी मदनिका का प्रेमी शर्विलक, उसे दासता कर वसंतसेना को लेकर वधस्थल पर पहुंचता है और चारुदत्त से मुक्ति दिलाने हेतु, चारुदत्त के घर से चोरी कर लाये ___को मुक्त करता है। शर्विलक भी आकर आर्यक के राजा वसंतसेना के आभूषण मदनिका को दे देता है। चारुदत्त जागने बनने की सूचना देते हैं। चारुदत्त वसंतसेना को पत्नी के रूप पर प्रसन्न और चिंतित दिखाई पड़ता है। चोर के खाली हाथ में स्वीकार करता है। इस प्रकरण में कुल आठ अर्थोपक्षेपक न लौटने से उसे प्रसन्नता है, पर वसंतसेना के न्यास को हैं। इनमें सात चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। "मृच्छकटिक" लौटाने की चिंता से वह दुःखी है। उसकी पत्नी धूता, उसे यह नाम प्रतीकात्मक है, और असंतोष का प्रतीक हैं। इस अपनी रत्नावली देती है, और मैत्रेय उसे लेकर वसंतसेना को नाटक के अधिकांश पात्र अपनी स्थिति से असंतुष्ट है। देने के लिये चला जाता है। चतुर्थ अंक में राजा के साले वसंतसेना धनी शकार से प्रेम न कर, सर्वगुणसंपन्न चारुदत्त 276 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को चाहती है। चारुदत्त का पुत्र मिट्टी की गाडी से संतुष्ट नहीं है, वह सोने की गाडी चाहता है। इसमे कवि ने यह दिखाया है कि जो लोग अपनी परिस्थितियों से असंतुष्ट होकर एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, वे जीवन में अनेक कष्ट उठाते हैं। इस प्रकार इसके पात्रों का असंतोष सर्वव्यापी है जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को कष्ट उठाना पडता है। अतः इसका नाम सार्थक एवं मुख्य वृत्त का अंग है। "मृच्छकटिक' एक ऐसा प्रकरण है, जिसमें वसंतसेना के प्रेम का वर्णन किया होने से श्रृंगार अंगी है। इसमें हास्य और करुण रस की भी योजना की गई है। शूद्रक के हास्य वर्णन की अपनी विशेषता है जो संस्कृत साहित्य में विरल है। इस प्रकरण में हास्य, गंभीर, विचित्र, तथा व्यंग के रूप में मिलता है । कवि ने हास्यास्पद चरित्र एवं हास्यास्पद परिस्थितियों के अतिरिक्त विचित्र वार्तालापों एवं श्लेष पूर्ण वचनों से भी हास्य की सृष्टि की है। "मृच्छकटिक" में सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है, और इस दृष्टि से यह संस्कृत की अपूर्व नाट्य-कृति है। टीकाकार पृथ्वीधर के अनुसार प्रयुक्त प्राकृतों के नाम हैं- शौरसेनी, आवंतिका, प्राच्या, मागधी, शकारी, चांडाली तथा ढक्की। टीकाकार ने विभिन्न पात्रों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का भी निर्देश किया है। इस नाटक का वस्तुविधान, संस्कृत-साहित्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। संस्कृत का यह प्रथम यथार्थवादी नाटक है, जिसे दैवी कल्पनाओं एवं आभिजात्य वातावरण से मुक्त कर, कवि यथार्थ के कठोर धरातल पर अधिष्ठित करता है। शूद्रककालीन समाज (विशेषतः मध्यमवर्गीय) का जीवनयापन प्रकार इसमें यथार्थतया चित्रित है। वेश्याओं के ऐश्वर्य की झलक भी इसमें दीखती है, न्यायदान में भ्रष्टाचार भी इसमें दिखाई देता है तथा राजा से असंतुष्ट प्रजा, उसके विरोध में क्रांन्ति को सहायक होती है, यह भी प्रभावी रूप से चित्रित है। इसकी कथावस्तु भास के चारुदत्त से बहुत कुछ मिलती जुलती होने के कारण इसकी मौलिकता तथा भास और शूद्रक का पौर्वापर्य तथा दोनों नाटकों का लेखक एक ही व्यक्ति होने के विवाद निर्माण हो। अवन्तिसुन्दरी कथासार के अन्तर्गत शूद्रक के जीवन पर जो प्रकाश पडता है उससे यह अनुमान हो सकता है कि आर्यक राजा ही शूद्रक है तथा चारुदत्त है उसका बालमित्र बन्धुदत्त । मृच्छकटिक के टीकाकार- 1) गणपति, 2) पृथ्वीधर, 3) राममय शर्मा, 4) जल्ला दीक्षित, 5) श्रीनिवासाचार्य, 6) विद्यासागर, और 7) धरानन्द। मृडानीतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक- 380 | विषयसुवर्ण बनाने की प्रक्रिया का वर्णन और अन्य रसायन विधियां । मृतसंजीवनी - ले.- हलायुध । ई. 8 वीं शती। यह आद्या काली देवी का "त्रैलोक्य-विजय" नामक अद्भुत शक्तिशाली कवच है। श्लोक-6161 विषय- दीर्घजीवन का उपाय, विविध मन्त, औषध आदि का प्रतिपादन। मृत्युजयतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप महातन्त्रों में अन्यतम । श्लोक 3001 अध्याय- 4। विषय- देहोत्पत्ति का क्रम, देह की ब्रह्मांड-रूपता, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, समाधि इन छह योगांगों के लक्षण इत्यादि । मृत्युंजयपंचांगम् - देवीरहस्यान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप । इसमें मृत्युंजय संबंधी पांच अंग वर्णित हैं। 1) मृत्युंजयपटल, 2) मृत्युंजयपद्धति, 3) मृत्युंजयसहस्रनाम,, 4) मृत्युंजयकवच और 5) मृत्युंजय स्त्रोत्र । श्लोक 5601 मृत्युंजयसंहिता - ले. गंगाधर कविराज। ई. 1798-1885 1 मृत्युंजिदमृतेशविधान (या मृत्युजिदमृतेशतन्त्रम्)पार्वती-परमेश्वर संवादरूप। (अध्याय 24)। विषय - मन्त्रावतार, मन्त्रोद्धार, यजमानाधिकार, दीक्षाधिकार, अभिषेकसाधन, स्थूलाधिकार, सूक्ष्माधिकार, कालबन्धन, सदाशिव, दक्षिणचक्र, उत्तरतन्त्र, कुलाम्नाय, सर्वविद्याधिकार, सर्वाधिकार, व्याप्ति-अधिकार, पंचाधिकार, वश्यकर्षणाधिकार, राजरक्षाधिकार, इष्टपाताद्यधिकार, जीवाकर्षणाधिकार, मन्त्रविचार, मन्त्रमाहात्म्य इ. मृत्युमहिषीदानविधि - विषय- किसी की मृत्यु के समय भैंस का दान। मेकाधीशशब्दार्थकल्पतरु - ले.- चारलु भाष्यकार शास्त्री (कंकणबन्धरामायणकार)। मेघदतम - महाकवि कालिदास कत विश्व-विश्रत खंडकाव्य । इस संदेश-काव्य में एक विरही यक्ष द्वारा अपनी प्रिया के पास मेघ (बादल) से संदेश प्रेषित किया गया है। वियोग-विधुरा कांता के पास मेघद्वारा प्रेम-संदेश भेजना, कवि की मौलिक कल्पना का परिचायक है। यह काव्य, पूर्व एवं उत्तर मेघ के रूप में दो भागों में विभाजित है। श्लोकों की संख्या 63 + 52 = 115 है। इसमें गीति काव्य व खंडकाव्य दोनों के ही तत्त्व हैं। अतः विद्वानों ने इसे गीति-प्रधान खंडकाव्य कहते है। इसमें विरही यक्ष की व्यक्तिगत सुख-दुःख की भावनाओं का प्राधान्य है, एवं खंडकाव्य के लिये अपेक्षित कथावस्तु की अल्पता दिखाई पड़ती है। "मेघदूत" की कथावस्तु इस प्रकार है :- धनपति कुबेर ने अपने एक यक्ष सेवक को, कर्तव्य-च्युत होने के कारण एक वर्ष के लिये अपनी अलकापुरी से निर्वासित कर दिया है। कुबेर द्वारा अभिशप्त होकर वह अपनी नवपरिणीता वधू से दूर हो जाता है, और भारत के मध्य विभाग में अवस्थित रामगिरि नामक पर्वत के पास जाकर निवास बनाता है। वह स्थान जनकतनया के स्नान से पावन तथा वृक्षछाया से स्निग्ध है। वहां वह निर्वासनकाल के दुर्दिनों को वेदना-जर्जरित होकर गिनने लगता है। आठ मास व्यतीत हो जाने पर वर्षाऋतु के आगमन से उसके प्रेमकातर हृदय में उसकी प्राण-प्रिया की स्मृति हरी हो उठती है, और वह मेघ के द्वारा अपनी कांता के पास प्रणय-संदेश भिजवाता है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 277 For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह कथा-बीज "आषाढ कृष्ण एकादशी (योगिनी) माहात्म्य (3) चरित्र्यवर्धन, (4) क्षेमहंसगणी, (5) कविरत्न, (6) कथा" से मिलता जुलता है। उसमें नव विवाहित यक्ष हेममाली कृष्णदास, (7) कृष्णदास, (8) जनार्दन, (9) जनैन्द्र, (10) अपनी नववधू विशालाक्षी से रममाण रहकर मानस सरोवर भरतसेन, (11) भगीरथ मिश्र, (12) कल्याणमल्ल, (13) से कुबेर के लिये कमल फूल न लाने की भूल करता है। महिमसिंहगणि, (14) राम उपाध्याय, (15) रामनाथ, (16) उसे कुबेर द्वारा दण्ड मिलता है- एक वर्ष तक प्रिया का वल्लभदेव, (17) वाचस्पति-हरगोविन्द, (18) विश्वनाथ, (19) विरह तथा श्वेतकुष्ठ। हिमालय में विचरण करते हुए उसे विश्वनाथ मिश्र, (20) शाश्वत, (21) सनातनशर्मा, (22) मार्कण्डेय ऋषि से उपदेश तथा शाप-निवारण मिलता है। इस सरस्वतीतीर्थ, (23) सुमतिविजय, (24) हरिदास सिद्धान्तवागीश, कथा में काव्य की उपयुक्तता से उचित हेर फेर महाकवि (25) मेघराज, (27) पूर्णसरस्वती, (28) मल्लीनाथ, (29) कालिदास ने किये हैं। प्रिया के वियोग में रोते-रोते काव्य- रामनाथ, (30) कमलाकर, (31) स्थिरदेव, (32) गुरुनाथ, नायक का शरीर कृश होने के कारण उसके हाथ का कंकण काव्यतीर्थ, (33) लाला मोहन, (34) हरिपाद चट्टोपाध्याय, गिर पडता है। आषाढ के प्रथम दिवस को रामगिरि की चोटी (35) जीवानन्द, (36) श्रीवत्स व्यास, (37) दिवाकर, पर मेघ को देख कर उसकी अंतर्वेदना उद्वेलित हो उठती है (38) असद, (39) रविकर, (40) मोतिजित्कवि, (41) और वह मेघ से संदेश भेजने को उद्यत हो जाता है। वह कनककीर्ति, (42) विजयसूरि, तथा कुछ अज्ञात टीकाकार । कुटज-पुष्प के द्वारा मेघ को अर्घ्य देकर उसका स्वागत करता इसके अनन्तर, काव्य में हंस, मानस, चेतस्, मनस्, चन्द्र, है, तथा उसकी प्रशंसा करते हुए उसे इन्द्र का "प्रकृति-पुरुष" कोकिल, तुलसी, पवन, मारुत, आदि संदेश वाहक बने। कहीं एवं "कामरूप" कहता है। इसी प्रसंग में कवि ने रामगिरि केवल अनुकरण, कहीं कथावस्तु में वृद्धि, कहीं धार्मिक रूप से लेकर अलकापुरी तक के भूभाग का अत्यंत काव्यमय देकर अपने गुरु को संदेश (विशेषतः जैन कवि) तो कहीं भौगोलिक चित्र उपस्थित किया है। इस अवसर पर कवि बिडम्बनात्मक रचना, जैसे काकदूतम्, मुद्गरदूतम् आदि, पर मार्गवर्ती पर्वतों, सरिताओं एवं उज्ययिनी जैसी प्रसिद्ध नगरियों इनमें से एक भी कालिदास के पास तक नहीं पहुंच पाया। का भी सरस वर्णन करता है। इसी वर्णन में पूर्व मेघ की मेघदूत (नाटक)- ले.- नित्यानन्द 20 वीं शती। प्रणव-पारिजात समाप्ति हो जाती है। पूर्वमेघ में महाकवि कालिदास ने भारत "में प्रकाशित इस गीतात्मकनाटक में नृत्य-गीतों का प्राचुर्य । की प्राकृतिक छटा का अभिराम वर्णन कर बाह्य प्रकृति के एकोक्तियों तथा छायातत्त्व का प्रयोग है। अंकसंख्या- पांच । सौंदर्य एवं कमनीयता का मनोरम वाङ्मय चित्र निर्माण किया अंक दृश्यों में विभाजित। विषय- "मेघदूत" की कथावस्तु । है। उत्तरमेघ में अलका नगरी का वर्णन, यक्ष के भवन एवं मेघदूत-समस्यालेखम् - कवि- जैन मुनि मेघविजयजी। समय उसकी विरह-व्याकुल प्रिया का चित्र खींचा गया है। तत्पश्चात् ई. 18 वीं शती। इस संदेश काव्य में कवि ने अपने गुरु कवि ने यक्ष के संदेश का विवेचन किया है जिसमें मानव-हृदय तपगणपति श्रीमान् विजयप्रभसूरि के पास मेघ द्वारा संदेश भेजा के कोमल भाव अत्यंत हृदयद्रावक एवं प्रेमिल संवेदना से है। कवि के गुरु नव्यरंगपुरी (औरंगाबाद) में चातुर्मास्य का पूर्ण हैं। 'मेघदूत" की प्रेरणा, कालिदास ने वाल्मीकि रामायण आरंभ कर रहे हैं, और कवि देवपत्तन, (गुजरात) में है। से ग्रहण की है। उन्हें वियोगी यक्ष की व्यथा में सीता-हरण वह गुरु की कुशल वार्ता के लिये मेघ द्वारा संदेश भेजता के दुःख से दुःखित राम की पीडा का स्मरण हो आया है। है और देवपत्तन से औरंगाबाद तक के मार्ग का रमणीय कवि ने स्वयं मेघ की तुलना हनुमान् से तथा यक्ष-पत्नी की वर्णन उपस्थित करता है। संदेश में गुरु-प्रताप, गुरु के वियोग समता सीता से की है (उत्तरमेघ 37)। कवि की प्रसन्न-मधुरा की व्याकुलता व अपनी असहायावस्था का वर्णन है। अंत वाणी "मंदाक्रांता" छंद में अभिव्यक्त हुई है जिसकी प्रशंसा में कवि ने इच्छा प्रकट की है कि वह कब गुरुदेव का आचार्य क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "सुवृत्ततिलक" में की है। साक्षात्कार कर उनकी वंदना करेगा। इस काव्य की रचना मल्लिनाथ की टीका के साथ "मेघदूत" का प्रकाशन 1849 "मेघदूत" के श्लोकों की अंतिम पंक्ति की समस्या-पूर्ति के ई. में बनारस से हुआ और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 1869 ___रूप में हुई है। इसमें कुल 131 श्लोक हैं और अंतिम ई. में कलकत्ता से स्वसंपादित संस्करण प्रकाशित किया। इसके श्लोक अनुष्टुप् छंद में है। आधुनिक टीकाकारों में चरित्रवर्धनाचार्य एवं हरिदास सिद्धांतवागीश मेघदूतोत्तरम् - ले.- श्रीराम वेलणकर। प्रकाशन सन 1968 अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इन टीकाओं के नाम हैं- “चारित्र्यवर्धिनी" में। 'सुरभारती' द्वारा जबलपुर, भोपाल, इन्दौर में अभिनीत । व “चंचला"। अनेक संस्करणों के कारण "मेघदूत" की गीति-नाट्य (ओपेरा) 38 राग तथा 8 तालों का प्रयोग। 30 श्लोक-संख्या में भी अंतर पड़ जाता है, और अब तक इसमें गद्य-वाक्यों द्वारा जोडे हुए 51 गीत। प्रधान पात्र यक्ष और लगभव 15 प्रक्षिप्त श्लोक प्राप्त होते हैं। यक्षिणी। अंकसंख्या- तीन। इसमें प्राकृत का अभाव है। मेघदूत के टीकाकार- ले.- (1) कविचन्द्र, (2) लक्ष्मीनिवास, विषय- मेघदूत का पश्चात्वर्ती कथानक। शापमुक्ति के पश्चात् 278 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुबेर प्रसन्न होकर यक्ष को अलकापुरी जाने की अनुमति देता है, तथा यक्ष का यक्षिणी से मिलन होता है । I मेघदौत्यम्ले डा. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य कलकतानिवासी। मेघदूत पर आधारित संगीतिका (2) ले त्रैलाक्यमोहन गुह ( नियोगी) । यह दूतकाव्य है। मेघनादवधम् लक्ष्मणगढ - ऋषिकुल के निवासी कवीन्द्र परमानन्द शर्मा (ई. 19-20 वीं शती) ने काव्यमय संपूर्ण रामचरित्र ग्रंथित किया है। उसका यह एक भाग है। शेष भाग अन्यत्र उद्धृत हैं। (2) ले अमियनाथ चक्रवर्ती । ई. 20 वीं शती । - मेघप्रतिसंदेशकथा ले. मंदिकल रामशास्त्री । मैसूर राज्य के प्रधान पंडित । इस संदेश काव्य की रचना 1923 ई. के आस-पास हुई थी। इसमें दो सर्ग हैं जिनमें 68 + 96 = 164 श्लोक हैं। इसमें एकमात्र मंदाक्रता छंद का ही प्रयोग हुआ है। इसमें कवि ने मेघसंदेश की कथा का पल्लवन किया है। इसके प्रथम सर्ग में यक्षी के प्रति संदेश का वर्णन एवं द्वितीय सर्ग में अलका से लेकर रामेश्वर व धनुष्कोटि तक के मार्ग का वर्णन है। यक्ष का संदेश सुन कर यक्षिणी प्रसन्न होती है, और विरह व्यथा के कारण अशक्त होने पर भी किसी प्रकार मेघ से वार्तालाप करती है । वह मेघ को भगवान् का वरदान मान कर उसकी उदारता एवं करुणा की प्रशंसा करती हुई यक्ष के संदेश का उत्तर देती है । प्रतिसंदेश में वह यक्ष के सद्गुणों का कथन कर अपनी विरह-दशा एवं घर की दुरवस्था का वर्णन कर शिवजी की कृपा से शाप के शांत होने की सूचना देती है। अंत में वह यक्ष को शीघ्र ही लौट आने की प्रार्थना करती है। - www.kobatirth.org - - मेघमाला रुद्रयामलान्तर्गत शिव-पार्वती संवाद रूप। श्लोक1044। अध्याय- 11 विषय मेघप्रभेद, मेघगर्जन, काकरुत आदि का फलाफल । मेघमालाव्रतकथा ले. श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । मेघमेदुरमेदिनीयम् ले डा. रमा चौधुरी (20 वीं शती)। उज्जयिनी के कालिदास समारोह में अभिनीत दृश्यसंख्या- नौ "मेघदूत" के आगे तथा पीछे की घटनाओं का काल्पनिक चित्रण । एकोक्तियों की बहुलता। पूरा सप्तम अंक यक्ष की तथा अष्टम अंक यक्षिणी की एकोक्ति मात्र है । कथासारयक्षकन्या कमलकलिका को यक्ष अरुणकिरण नदी में डूबने से बचा लेता है। तब से दोनों प्रेमासक्त हैं, परंतु कुबेर का निकटवर्ती प्रचण्ड - प्रताप कमलकलिका को चाहता है। नायिका उसे अपमानित कर अरुण-किरण को वरती है। प्रेममग्ननायक द्वारा कुबेर के कमलवन की रक्षा करने में त्रुटि होती है । कुबेर उस पर कुद्ध होते हैं तथा उसे निष्कासित करते हैं। आषाढ में मेघ को देखकर विरहातुर यक्ष उसके द्वारा अपनी - - पत्नी को संदेश भेजता है। अंत में अलकापुरी लौटकर उसका मिलन होता है। - - मेघसंदेशविमर्श ले. आर. कृष्णम्माचार्य यह निबंध मद्रास । में प्रकाशित हुआ । मेघाभ्युदयकाव्यम् ले मानाङ्क ई. 10 वीं शती मेघेश्वरम् ले हस्तिमल्ल पिता गोविंदभट्ट जैनाचार्य मेलनतीर्थम् ले. डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी विविधता में एकता का संदेश देनेवाली कृति । अंकसंख्या- दस । प्रत्येक अंक में क्रमशः अथर्वन् ऋषि अगस्त्य, सम्राट् अशोक, अकबर, चैतन्य महाप्रभु, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू की जीवनगाथा से विविध विचार प्रवाहों द्वारा सांस्कृतिक एकता का प्रस्तुतीकरण है । मेदिनीकोश ले. मेदिनीकर। ई. 12 वीं शती एक सुप्रसिद्ध शब्दकोश | - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेधा सन् 1961 में रायपुर के राजकीय दूधाधारी-संस्कृत विद्यालय से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन विद्यालय के प्राचार्य करते हैं और इसमें प्राध्यापकों एवं छात्रों का रचनाएं प्रकाशित होती हैं। मेनका वडुवर डोरास्वामी अय्यंगार का तमिल उपन्यास । अनुवादकर्ता ताताचार्य । उद्यानपत्रिका में क्रमशः प्रकाशित । मेरुतंत्रम् शिव-पार्वती संवाद रूप महातंत्र 35 प्रकाश में पूर्ण । शिवजी द्वारा उपदिष्ट 108 तंत्रों में इसका स्थान सब से ऊंचा है, इसलिए इसका नाम मेरुतंत्र है। खेमराज श्रीकृष्णदास, मुंबई द्वारा 1908 ई. में इसका प्रकाशन हो चुका है। जलन्धर के भय से मेरु की शरण में गये हुए देवताओं और ऋषियों के लिए शिवजी ने इसका उपदेश दिया था। प्रधान विषय संस्कार दीक्षा, होमविधि, आह्निक (या आम्नाय रहस्य) पुरश्चर्या, सिद्धिस्थिरीकरणमुद्रालक्षण, पार्थिवपूजन विधि, पुरश्चर्याकौलिकाचार, कलिसंस्थित सविधि मंत्र, वेदमंत्र नवग्रहमंत्र, प्रत्यंगिरामंत्र, वैदिकमंत्र, दक्षिणाम्नाय गणपतिमंत्र, ऊर्ध्वानाच गणपतिमंत्र, पश्चिमाम्नाय गणपतिमंत्र, उत्तरानाय गणपतिमंत्र, सूर्यमंत्र, ब्रह्मादि अष्टशक्तिमंत्र, दश-दिगीशों के मंत्र, दीपविधि आदि। यह तंत्र वाममार्गी और दक्षिणमार्गी दोनों को समान रूप से मान्य है । · For Private and Personal Use Only | मेरुपंक्तिकथा ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । मेरुपूजा - ले- छत्रसेन । गुरु- समन्तभद्र। ई. 18 वीं शती । मेरुसाधना श्लोक- 4001 -- मैत्रायणी उपनिषद् (मैत्री-उपनिषद्) - यह उपनिषद् गद्यात्मक है और इसमें 7 प्रपाठक हैं। इसमें स्थान-स्थान पर पद्य का भी प्रयोग हुआ है तथा सांख्य-सिद्धांत, योग के षडंगों का वर्णन और हठयोग के मंत्र सिद्धांतों का कथन किया गया है। इसमें अनेक उपनिषदों के उद्धरण दिये गये है, जिससे संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 279 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसकी अर्वाचीनता सिद्ध होती है। ऐसे उद्धरणों में "ईश", "कठ", "मुंडक" व "बृहदारण्यक" के उद्धरणों का समावेश है। मैत्रायणीय आरण्यक (बृहदारण्यक- चरकशाखोक्तयजुर्वेदीय)- इस आरण्यक में कुल सात प्रपाठक और उनमें खण्ड संख्या 73 है। यह आरण्यक मैत्रयुपनिषत् नाम से प्रसिद्ध है। मैत्रायणीगृह्यपद्धति - मैत्रायणी शाखा के अनुसार 16 संस्कारों का प्रतिपादन । अध्याय, का नाम पुरुष है। मैत्रायणीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - मैत्रायणीय संहिता मुद्रित हुई है। माध्यन्दिन, काण्व, काठक और चारायणीय संहिताओं के समान मैत्रायणीय में भी चालीस अध्याय हैं। इस शाखा के कल्प अनेक हैं। मैत्रायणीय गृह्य और मानवगृह्य में समानता होने के कारण इन्हें एक ही मानने की प्रवृत्ति है। एक ही संहिता को मैत्रायणी, मानव तथा वाराहसंहिता के नाम से उल्लिखित करने का प्रवृत्ति भी दीखती है किन्तु इन तीन शाखाओं के शुल्व सूत्रों में शाखाभेद के कारण पर्याप्त विभिन्नता है। मैत्रायणी-कालापसंहिता (कृष्ण यजुर्वेदीय) - कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता में 4 काण्ड, 54 प्रपाठक तथा 634 मंत्र हैं। इस में उच्चारणचिन्ह नहीं मिलते। 'कालाप' नाम से भी प्रसिद्ध यह शाखा 'चरणव्यूह' के समय से प्रधान शाखा के रूप में मानी जाती रही है। कृष्ण यजुर्वेदकी इन शाखाओं में रुद्र दैवत तथा अन्य अनेक बातों में समानता होने पर भी इसमें शैब-सम्प्रदाय का विशेष महत्त्व है। यह शाखा गुजरात तथा दक्षिण में विशेष प्रसिद्ध है। रामायण तथा पतंजलि के अनुसार प्राचीन काल में इसका बहुत बड़ा महत्त्व था। (चरक- कृष्ण यजुर्वेद की कण्ठक, कपिष्ठल-कठ और मैत्रायणी कालापी शाखाओं की व्यापक परिभाषा 'चरक' है। भाषा की दृष्टि से इनमें परस्पर सम्बन्ध है। इनमें कुछ रूप ऐसे मिलते हैं जो अन्यत्र नहीं हैं। विक्रम-पूर्व तक बहुत दूर तक इसका प्रभाव और प्रचार रहा।) मैत्रेयव्याकरणम् - ले.- आर्यचन्द्र। इस लेखक की यह एक ही रचना उपलब्ध है। विषय- मैत्रेय का भविष्यकथन । एक ही अपूर्ण हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है। उसमें नामनिर्देश नहीं है, किंतु तोखारियन तथा युगुरियन अवशेषों की पुष्पिका में नामनिर्देश है। चीनी भाषा में इसके अनेक अनुवाद उपलब्ध हैं। इनमें से तीन धर्मरक्ष (255-316 ई.) कुमारजीव (402 ई.) तथा ईसिंग (701 ई.) द्वारा संपन्न हुये। जर्मन, तोखारियन, तिब्बती तथा मध्य एशियाई अनुवाद भी उपलब्ध । यह रचना भारत के बाहर विशेष रूप से परिचित है। भावी बुद्ध मैत्रेय का जन्म, स्वरूप तथा स्वर्गीय जीवन संवलित है। इसके अनुसार धार्मिक व्रतों में नाटक भी व्रत रूप में व्यवहृत होता था। मैथिलीकल्याणम् (नाटक)- ले.- हस्तिमल्ल। पिता- गोविंदभट्ट। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। (पांच अंक)। मैथिलीयम् (रूपक) - ले.- नारायणशास्त्री (1860-1911 ई.) प्रथम अभिनय कुम्भेश्वर के वसन्तोत्सव में। नायिकाप्रधान। अंकसंख्या- दस। नाट्योचित सरल भाषा, मोहक चरित्र-चित्रण। सहज अनुप्रासों का प्रचुर प्रयोग। भावानुरूप शैली। छायातत्त्व का प्रयोग। राम-कथा के द्वारा लोकजीवन का दर्शन । संविधान का दक्ष प्रस्तुतीकरण इसकी विशेषता है। मैथिलेशचरितम् - कवि रत्नपाणि । दरभंगा के राजवंश का चरित्र । मैसूरसंस्कृतकॉलेज-पत्रिका- प्रकाशन बन्द । मोक्षप्रासाद - ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय । मोक्षमन्दिरस्य द्वादशदर्शनसोपानावलि - ले.- श्रीपाद शास्त्री हसूरकर। इ. 287 पृष्ठों के उत्कृष्ट प्रबन्ध में चार्वाक, बौद्ध (वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार, माध्यमिक), जैन, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा इन 12 दर्शनों का इतना व्यवस्थित परिचय देने वाला अन्य ग्रंथ अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में नहीं है। हसूरकर शास्त्री की मुद्रित पुस्तकों का परिचय यथास्थान दिया है। अमुद्रित पुस्तकें इस प्रकार हैं- (1) श्रीवर्धमानस्वामि-चरितम्, (2) श्रीबुद्धदेवचरितम्, (3) राजस्थानसती-नवरत्नहारः (4) महाराष्ट्रसती-नवरत्नहारः (5) महाराष्ट्रक्षत्रियवीर-रत्नमंजूषा, (6) सौराष्ट्र-वीर-रत्नावलिः (7) महाराष्ट्रवीररत्नमंजूषा। (8) श्रीशंकराचार्यचरितम् (9) विजयानगर-साम्राज्यम्। मोक्षमूलर-वैदुष्यम् (नाटक) - ले.- भवानीशंकर । विश्वविख्यात जर्मन पंडित मैक्समूलर ने अपना निर्देश "मोक्षमूलर" इस संस्कृत शब्द से किया है। संस्कृत एवं वैदिक वाङ्मय के अध्ययन से मोक्षमूलर के अन्तःकरण में भारतभूमि और विशेष कर वाराणसी के विषय में एक गूढ श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। श्री भवानीशंकर ने वाराणसी में सम्पन्न पंचम विश्वसंस्कृत सम्मेलन के अवसर पर सन् 1981 में इस तीन अंकी नाटक का लेखन और प्रकाशन किया। इसमें स्वामी विवेकानंद, केशवचंद्र सेन इन भारतीय पात्रों के अतिरिक्त मोक्षमूलर, ब्रोक हाऊस, रुडोल्फ रोथ, विल्सन जैसे यूरोपीय संस्कृत पंडित रंगमंच पर आते हैं। स्त्री पात्रों में सभी यूरोपीय हैं। "आर्यभारती" नामक संस्कृत संजाती भारोपीय आर्यभाषा संस्थान (दिल्ली) द्वारा हिंदी अनुवाद के संहित इस नाटक का प्रकाशन सन् 1981 में हुआ। श्रीमती कमलारत्नम्, सत्यप्रकाश हिंदबाण, रामगोपाल सक्सेना आदि महानुभावों ने दिल्ली आकाशवाणी से इस का प्रयोग प्रसारित किया था। मोक्षलक्ष्मीसाम्राज्यतंत्रम् - ले.-काण्डद्वयातीत योगी। तान्त्रिक और वेदान्त सिद्धान्त में सामंजस्य करने का प्रयत्न इस ग्रंथ में किया गया है। मोक्षसोपानटीका - ले.- काण्डद्वयातीत योगी। 280/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहनतंत्रम् - श्लोक- 12951 मोहराज-पराजयम् (प्रतीक-नाटक) - ले.- यशःपाल। ई. 14 वीं शती। जैन साहित्य में यह नाटक प्रसिद्ध है। इस नाटक में कल्पित व वास्तव पात्रों का परस्पर संयोग करते हुए धर्मचर्चा की गई है। भगवान् महावीर के उत्त्सव-प्रसंग पर इसका प्रयोग किया गया था। इस नाटक की रचना कृष्ण मिश्र के प्रबोधचंद्रोदय के अनुकरण पर हुई है। मौद (एक लुप्त वेदशाखा) - शाबर भाष्य में (1-1-30) अथर्ववेद की इस शाखा का नाम उल्लिखित है। इस शाखा का कुछ भी साहित्य उपलब्ध नहीं है। यक्षडामर - भैरव प्रोक्त। श्लोक- 4001 यक्ष-मिलनम् (काव्य) अपरनाम- यक्षसमागम) - ले.परमेश्वर झा। इसमें महाकवि कालिदास के "मेघदूत' के उत्तराख्यान का वर्णन है। कवि ने यक्ष व उसकी प्रेयसी के मिलन का वर्णन किया है। देवोत्थान होने पर यक्ष प्रेयसी के पास आकर उसका कशल प्रेम पूछता है। वह अपनी प्रिया से विविध प्रकार की प्रणय कथाएं एवं प्रणय लीलायें वर्णित करता है। प्रातः काल होने पर बंदीजन के मधुर गीतों का श्रवण कर उसकी निद्रा टूटती है और वह डरता-डरता कुबेर के निकट जाकर उन्हें प्रणाम करता है। कुबेर उससे प्रसन्न होते हैं और उसे अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य-भार सौपते हैं। यक्ष व यक्ष-पत्नी अधिक दिनों तक सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं। इसमें कुल 35 श्लोक हैं •और मदाक्रांता छंद प्रयुक्त हुआ है। इस काव्य का प्रकाशन (1817 शके में) दरभंगा से हुआ है। यक्षिणीपद्धति - ले.- मल्लीनाथ। श्लोक- 30। यह रत्नमाला शाबरतंत्र से गृहीत है। यक्षिणीसाधनविधि - ले.- श्रीनाथ। श्लोक- 401 यक्षोल्लासम् - ले.- कृष्णमूर्ति। पिता- सर्वशास्त्री। ई. 17 वीं शती। मेघदूत की यक्षपत्नी का प्रतिसंदेश इस संदेशकाव्य का विषय है। कवि अपना निर्देश “अभिनव-कालिदास' उपाधि से करता है। यजनावली - प्रकरण- 9। श्लोक- 14001 विषय- विष्णु भगवान् की अर्चा-पूजा। यजुःप्रातिशाख्यभाष्यम् - ले.- अनंताचार्य । ई. 18 वीं शती। यजुर्वल्लभा (नामान्तर- कर्मसरणि) - ले. विठ्ठल दीक्षित।। पिता- वल्लभचार्य । विषय-आह्निक, संस्कार, एवं आवसथ्याधान गृह्याग्नि की स्थापना यजुर्वेद के अनुसार। तीन काण्ड। यजुर्वेद (अपरनाम- अध्वरवेद) - इस वेद की मुख्य देवता वायु है और आचार्य हैं वेदव्यास के शिष्य वैशंपायन । महाभाष्य, चरणव्यूह और पुराणों के अनुसार यजुर्वेद की शाखाएं 86, 100, 101, 107 या 109 मानी जाती हैं किंतु आज केवल 5-6 शाखाएं उपलब्ध हैं। यज्ञ-संपादन के लिये "अध्वर्यु' नामक ऋत्विज् का जिस वेद से संबंध स्थापित किया जाता है, उसे "यजुर्वेद" कहते हैं। इसमें अध्वर्यु के लिये ही वैदिक प्रार्थनाएं संगृहीत हैं। "यजुर्वेद" वैदिक कर्मकांड का प्रधान आधार है, और इसमें यजुषों का संग्रह किया गया है। कर्म की प्रधानता के कारण समस्त वैदिक वाङ्मय में “यजुर्वेद" का अपना स्वतंत्र स्थान है। "यजुर्वेद" से संबद्ध ऋत्विज् (अध्वर्यु) को यज्ञ का संचालक माना जाता है। __"यजुर्वेद" संबंधित वाङ्मय अत्यंत विस्तृत था, किंतु संप्रति उसकी समस्त शाखाएं उपलब्ध नहीं होती। महाभाष्यकार पतंजलि के अनुसार इसकी सौ शाखाएं थीं। इस समय इसकी मात्र दो प्रमुख शाखाएं प्रसिद्ध हैं- "कृष्णयजुर्वेद" व "शुक्ल यजुर्वेद"। इनमें भी प्रतिपाद्य विषय की प्रधानता के कारण "शुक्ल यजुर्वेद" अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। "शुक्ल यजुर्वेद" की मंत्र-संहिता को "वाजसनेयी संहिता" कहते हैं। इसमें 40 अध्याय। 303 अनुवाक तथा 1975 कंडिकाएं या मंत्र हैं तथा अंतिम 15 अध्याय "खिल" कहे जाते हैं। प्रारंभिक दो अध्यायों में दर्श एवं पौर्णिमास यज्ञों से संबद्ध मंत्र वर्णित हैं, तथा तृतीय अध्याय में अग्निहोत्र और चातुर्मास्य यज्ञों के लिये उपयोगी मंत्र संग्रहित हैं। चतुर्थ से अष्टम अध्याय तक सोमयागों का वर्णन है। इनमें सवन (प्रातः, मध्याह्न व सायंकाल के यज्ञ), एकाह (एक दिन में समाप्त होने वाला यज्ञ) तथा राजसूय यज्ञ का वर्णन है। राजसूय के अंतर्गत द्यूत-क्रीडा, अस्त्र-क्रीडा आदि नाना प्रकार की राजोचित क्रीडाएं वर्णित हैं। 11 वें से 18 वें अध्याय तक "अग्निचयन" या यज्ञीय होमाग्नि के लिये वेदी के निर्माण का वर्णन किया गया है। इन अठराह अध्यायों के अधिकांश मंत्र कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में पाये जाते हैं। 19 से 21 वें अध्याय में सौत्रामणि यज्ञ की विधि का वर्णन है, तथा 22 से 25 वें अध्याय में अश्वमेध का विधान किया गया है। 26 से 29 वें अध्याय में "खिलमंत्र" (परिशिष्ट) संकलित हैं, और 30 वें अध्याय में पुरुषमेध वर्णित है। 31 वें अध्याय में “पुरुषसूक्त" है जिसमें ऋग्वेद से 6 मंत्र अधिक हैं। 32 वें व 33 वें अध्याय में "शिवसंकल्प" का विवेचन किया गया है। 35 वें अध्याय में पितृमेध तथा 36 वें से 38 वें अध्याय तक प्रवर्दीयाग वर्णित है। इसके अंतिम अध्याय में "ईशावास्य उपनिषद्" है। "शुक्ल यजुर्वेद" की दो संहिताएं हैं माध्यंदिन एवं काण्व। मद्रास से प्रकाशित काण्वसंहिता में 40 अध्याय, 328 अनुवाक तथा 2086 मंत्र हैं। माध्यंदिन संहिता के मंत्रों की संख्या 1975 है। शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शिक्षा आदि वाङ्मय पर्याप्त है। कृष्ण यजुर्वेद की काठक, कपिष्ठल, कठ, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 281 For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैत्रायणी, कालापी और तैत्तिरीय शाखाएं उपलब्ध हैं। इनमें तैत्तिरीय शाखा पर ब्राह्मण, आरण्यक, भाष्य आदि विपुल साहित्य पाया जाता है।। ___ आधुनिक विद्वानों के मतानुसार "इषे त्वोर्जे त्वा" से प्रारंभ होने वाली शुक्ल यजुर्वेद संहिता के प्रारंभ के 18 अध्याय ही इसके मूल के हैं। अन्तिम 22 अध्यायों के विषय तैत्तिरीय ब्राह्मण और आरण्यक में भी मिलते है। कात्यायन के अनुसार 26 से 35 तक अध्याय “खिल" हैं। 26-29 “परिशिष्ट" रूपात्मक हैं। 30 से 39 तक अध्याय नवीन पक्षों को प्रस्तुत करते हैं। 30 वें अध्याय में अनेक मिश्रित जातियों का वर्णन है। भाषा-विज्ञान के आधार पर इस संहिता के तीन स्तर किये जाते हैं। इसके अधिकाधिक अंश तैत्तिरीय के हैं तो कुछ स्थल परिवर्तित संशोधित मालूम पडते हैं। इस दृष्टि से तैत्तिरीय संहिता प्राचीन है। यह संहिता कुछ अंशों को छोडकर तैत्तिरीय से प्रायः समान है। स्वाभाविक है कि इनका मूल एक ही होगा। माध्यंदिन संहिता के भी पद, क्रम, जटा, धन, पंचसंधि आदि बहुत से विकृतिपाठ प्रसिद्ध हैं। एक दृष्टि से शाकल की अपेक्षा इसका विकृति-पाठ विस्तृत है। इस संहिता में कुछ स्थलों को छोडकर "ष" को "ख" पढा जाता है। इसका "खंडाध्याय" और पुरुषसूक्त तथा “ईशावास्योपनिषद्' सर्वत्र विख्यात है। कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखाओं के तीन भेद माने गए हैं। इनके प्रथम आचार्य हैं - (1) उदीच्य-श्यामायनि, (2) मध्यदेशीय-आरुणि (या आसुरि) और (3) प्राच्य-आलम्बि। इन सभी शाखाओं की चरक संज्ञा थी। कृष्णयजुर्वेदीय वैशंपायन की मूल चरक संहिता का यथार्थ स्वरूप अभी तक अज्ञात है। फिर भी चरणव्यूहादि ग्रंथों में पठित निर्देश के अनुसार, "चरक संहिता" और "चरक ब्राह्मण" थे यह अनुमान लगाया जा सकता है। यजुर्वेद ज्योतिषम् - ले. शेष। इसमें कुल 44 श्लोक हैं। ऋग्वेद ज्योतिष के समान यह वेदांग है। यज्ञकर्ताओं को इस वेदांग से दिक्, देश, काल का ज्ञान प्राप्त करने में सुविधा होती है। यजुर्वेदिवृषोत्सर्गतत्त्वम् - ले. रघुनाथ । यजुर्वेदिश्राद्धतत्त्वम् - ले.रघुनाथ। यजुःशाखाभेदतत्त्वनिर्णय - ले.-पांडुरंग टकले। बडोदा के निवासी। लेखक का सिद्धांत यह है कि जहां कहीं "यजुर्वेद" शब्द स्वयं आता है; वहां “तैत्तिरीय शाखा" समझना चाहिये न कि "शक्लयजु" । यज्ञशास्त्रार्थनिर्णय - ले.-वाणी अण्णय्या। तेलगु कवि । यज्ञसिद्धान्तविग्रह - ले.-रामसेवक। यज्ञसिद्धान्तसंग्रह - ले.-रामप्रसाद । यज्ञसूत्रप्रमाणम् - ले.-मातृकाभेदतन्त्र के अन्तर्गत, चण्डिका-शंकर संवादरूप। यह मातृकाभेद तंत्र का 11 वां पटल है। श्लोक-34 । विषय-यज्ञोपवीत की लंबाई की चर्चा । यज्ञोपवीतपद्धति - ले.-रामदत्त। पिता-गणेश्वर। वाजसनेयी शाखियों के लिए उपयुक्त ग्रंथ।। यतिक्षौरविधि - ले.-मधुसूदनानन्द । यतिखननादिप्रयोग - ले.-श्रीशैलवेदकीटीर लक्ष्मण। इसमें यतिधर्मसमुच्चय का उल्लेख है। यतिधर्म - ले.-पुरुषोत्तमानन्द सरस्वती। गुरु- पूर्णानंद । यतिधर्मप्रकाश - ले.-वासुदेवाश्रम। (2) ले.-विश्वेश्वर। इस ग्रंथ का यतिधर्मसंग्रह (या यतिधर्मसमुच्चय) से अत्यधिक साम्य है। यतिधर्मप्रबोधिनी - ले.-नीलकण्ठ यतीन्द्र। यतिधर्मसमुच्चय (अपरनाम-यतिधर्मसंग्रह) - ले.-विश्वेश्वर सरस्वती। गुरु-सर्वज्ञ विश्वेश। लेखनकाल ई. 1611-12 । यतिनित्यपद्धति - ले.-आनन्दानन्द। यतिपत्नीधर्मनिरूपणम् . ले.-पुरुषोत्तमानंद सरस्वती । गुरु-पूर्णानंद। यति-प्रणव-कल्प - ले.-मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत मत के प्रतिष्ठापक। इसमें 28 अनुष्टभों में संन्यास लेने की विधि एवं संन्यासी के कर्तव्यों का निरूपण किया गया है। यतिराजविजयम् (या वेदांतविलास) नाटक - ले.- अम्मल आचार्य । ई. 17 वीं शती का अंत । पिता- घटित सुदर्शनाचार्य । यतिराजविजयचंपू - ले.-अहोबिल सूरि । इस चंपू का विभाजन 16 उल्लासे में किया गया है, पर अंतिम उल्लास अपूर्ण है। इस काव्य में रामानुजाचार्य के जीवन की घटनाएं वर्णित हैं। विशिष्टाद्वैत संप्रदाय की आचार्य-परंपरा भी अंकित की गई होने से यह ऐतिहासिक दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यतिवल्लभा-( या संन्यासपद्धति) - ले.- विश्वकर्मा । विषयसंन्यास, यति के चार प्रकार (कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस) एवं उनके कर्त्तव्य।। यतिसन्ध्यावार्तिकम् - ले.-सुरेश्वराचार्य । श्रीशंकराचार्य के शिष्य । यतिसंस्कार - विषय- पुत्र द्वारा यति की अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध।. यतिसंस्कारप्रयोग - ले.-विश्वेश्वर। 2) ले.- रायभट्ट। यतिसिद्धान्तनिर्णय - ले.- सच्चिदानन्द सरस्वती। यतीन्द्रम् (रूपक) - ले.-डॉ. रमा चौधुरी। लेखिका के पति डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी की मृत्यु के पश्चात् (सन 1964 में) लिखित उनका चरित्र । उनके शिष्यों द्वारा उसी वर्ष अभिनीत हुआ। यतीन्द्रचम्पू - ले.-बकुलाभरण। पिता- शठगोप। विषयरामानुजाचार्य का चरित्रवर्णन। यतीन्द्रजीवनचरितम् - ले.- शिवकुमारशास्त्री। काशीनिवासी। योगी भास्करानन्द का चरित्र काव्य विषय है। 282 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यत्यनुष्ठानपद्धति - ले.-शंकरानंद । यत्यन्तकर्मपद्धति - ले. रघुनाथ । यत्याचारसंग्रहीययतिसंस्कारप्रयोग- ले.-विश्वेश्वर सरस्वती। यथाभिमतम् - मूल शेक्सपियर का 'अॅज यू लाइक इट्' नामक काव्य। अनुवादकर्ता आर. कृष्णमाचार्य । यदुगिरिभूषणचम्पू - ले.- अप्पलाचार्य। यदुनाथकाव्यम् - ले.- यदुनाथ । यदुवृद्धसौहार्दम् - ले.- ए. गोपालाचार्य । श्लोक 600। इंग्लैंड के युवराज अष्टम एववर्ड ने अपनी प्रेयसी के लिए राज्यत्याग किया, इस घटना का वर्णन प्रस्तुत काव्य का विषय है। यंत्रचिंतामणि - ले.-दामोदर गंगाधर पंडित। विषय- मन्त्र शास्त्र से संबंधित यंत्रों का विवेचन। हिन्दी टीका लेखकपं. कन्हैयालाल तंत्र-वैद्य। यन्त्रचिन्तामणि टीका - ले.-दिनकर । विषय- ज्योतिषशास्त्र । यंत्रभेद - श्लोक- 125 | विषय- विभिन्न तन्त्रों में उक्त विभिन्न यंत्रों का, (जिनसे तान्त्रिक जन अपना मनोवांछित सिद्ध करते हैं), भलीभांति विशद रूप से प्रतिपादन । यंत्रमंत्रसंग्रह - श्लोक- 1600। यंत्रराज (नामान्तर- यंत्रराजागम शास्त्र तथा यंत्रचिंतामणि) - ले.-श्यामाचार्य । श्लोक- 15001 यंत्रराजघटना - ले.-मथुरानाथ। पटनानिवासी। ई. 19 वीं शती। विषय- ज्योतिषशास्त्र । यन्त्रराजवासनाटीका - ले.-यज्ञेश्वर सदाशिव रोडे। विषयज्योतिषशास्त्र। यन्त्रलेखनप्रकाश - श्लोक- 1571 यन्त्रसंग्रह - श्लोक- लगभग 115, विषय- रामयन्त्र, श्यामायंत्र, प्रसवयन्त्र, गोपालयन्त्र, बगलामुखी-यन्त्र, श्मशानकालीयंत्र, भुवनेश्वरीयन्त्र एवं अन्नपूर्णा, बटुकभैरव, गुह्यकाली, तारा, वागीश्वरी तथा गणेश के यन्त्र। यन्त्रसर्वस्वम् - इस ग्रंथ का उल्लेख भारद्वाजविमानशास्त्र नामक ग्रंथ में कई बार हुआ है। इस ग्रंथ के आठ अध्यायों में एक सौ अधिकरण और पांच सौ सत्रों में निम्नलिखित 100 विषयों का विवरण है। अध्याय 1) - मंगलाचरण, विमानशब्दार्थ , यंतृत्व, मार्ग, आवर्त, अंग, वस्त्र, आहार, कर्म, विमान, जाति, वर्ण,। अध्याय 2) - संज्ञा, लोह, संस्कार. दर्पण, शक्ति, यंत्र. तैल, औषधि, वात, भाट, वेग, चक्र। अध्याय 3)- भ्रमणी, काल, विकल्प, संस्कार, प्रकाश, औषध, शैत्य, आंदोलन, तिर्यक्, विश्वतोमुख, धूम, प्राण, संधि। अध्याय 4)- आहार, लग, वग, हग, लहग, लवग, लवहग, वामगमन, अन्तर्लक्ष्य, बहिर्लक्ष्य, बाह्याभ्यन्तरलक्ष्य। अध्याय 5)- तंत्र, विद्युत्प्रसरण, व्याप्ति, स्तम्भन, मोहन, विकाश, दिनिदर्शन, अदृश्य, तिर्यंच, भारवाहन, घंटारव, शक्रभ्रमण, चक्रगति। अध्याय 6)- वर्गविभजन, नामनिर्णय, शक्त्युद्गम, भूतवाह, धूमयान, शिखोद्गम, अंशवाह, तारामुख मणिवाह, गरुत्सखा, शांतिगर्भ, गरुड। अध्याय 7)- सिंहिका, त्रिपुरा, गूढाचार, कूर्म, वालिनी, मांडलिका, आंदोलिका, ध्वजांग, वृन्यावन, वैरिचिक, जलद। अध्याय 8)- दिनिर्णय, ध्वज, काल विस्तृतक्रिया, अंगोपसंहार, नयःप्रसरण, प्राणकुण्डली, शब्दाकर्षण, रूपाकर्षण, प्रतिबिंबाकर्षण, गमागम आवसस्थान, शोधन, परिच्छेद और रक्षण। इस ग्रंथ पर बोधानंद यतीश्वर की टीका है। तन्त्रसार - श्लोक- 3800। विषय- वैदिक और तान्त्रिक विधि में उपयुक्त विविध यंत्रों के निर्माण के प्रकार। यन्त्रावली - श्लोक- 5001 विषय- विविध यंत्रों के निर्माण के प्रकार। यमकभारतम् - ले.-मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। (महाभारत विषयक) 89 यमकबद्ध श्लोकों का संग्रह। यम-स्मृति - ले.-यम (एक धर्मशास्त्री)। याज्ञवल्क्य के अनुसार यम धर्मवक्ता है। "वसिष्ठ-धर्मसूत्र में यम के उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं। यहां के 4 श्लोकों में 3 श्लोक "मनुस्मृति' में भी प्राप्त होते हैं। जीवानन्द-संग्रह में "यमस्मृति" के 78 श्लोक तथा आनंदाश्रम संग्रह में 99 श्लोक है। इन श्लोकों में प्रायश्चित्त, शुद्धि, श्राद्ध एवं पवित्रीकरण विषयक मत प्रस्तुत किये गये हैं। इनके अतिरिक्त विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क एवं "स्मृतिचंद्रिका" तथा अन्य परवर्ती ग्रंथों में भी "यमस्मृति" के 300 लगभग श्लोक प्राप्त होते हैं। "महाभारत" के अनुशासन पर्व (104,72-74) में भी यम की गाथाएं हैं। यम ने मनुष्यों के लिये कुछ पक्षियों के मांस-भक्षण की सूचना की है, तथा स्त्रियों के लिये संन्यास का निषेध किया है। ययातिचरितम् - ले.-पं. कृष्णप्रसाद शर्मा धिमिरे। काठमांडू (नेपाल) के निवासी। ई. 20 वीं शती। आप कविरत्न एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों से विभूषित हैं। आपकी लिखी हुई श्रीकृष्णचरितामृत महाकाव्य आदि 12 रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। ययाति-तरुणानन्दम् (रूपक) - ले.-वल्लीसहाय। ई. 19 वीं शती। मद्रास शासकीय संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थागार द्वारा प्रकाशित । विषय- ययाति देवयानी का विवाह तथा ययाति-शर्मिष्ठा का प्रणय। स्त्रियों के असहिष्णुता स्वभाव का वर्णन। लम्बे संवाद तथा एकोक्तियों से भरपूर । प्राकृत का प्रयोग किया गया है। ययाति-देवयानी चरितम (रूपक)- ले.-वल्लीसहाय। ययाति की पत्नी देवयानी तथा प्रिया शर्मिष्ठा के कलह की कथा निबद्ध। प्राकृत का अभाव। शृंगार गीतों का प्रचुर प्रयोग। मैथिली किरतानिया नाटक तथा असमी आंकिया नाट से समानता है। प्रकृति में नायिका का रूप निरूपित। लम्बे संवाद तथा एकोक्तियों की भरमार। आहितुण्डिक की एकोक्ति संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 283 For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में अर्थोपक्षेपक तत्त्व। आकाशवाणी का भी अथोपक्षेपण हेतु प्रयोग किया है। यल्लाजीयम् - ले.-यल्लाजि। यल्लुभट्ट के पुत्र। विषयअन्त्येष्टि, सपिण्डीकरण। आश्वलायनसूत्र, भारद्वाज सूत्र और उनके भाष्यों पर आधारित । यशवन्तभास्कर - ले.-हरिभास्कर। पिता अप्पाजीभट्ट। गोत्र काश्यप। ई. 17 वीं शती। त्र्यम्बकेश्वर निवासी। बुन्देलखंड के राजा यशवंतदेव (पिता इन्द्रमणि) के आश्रित । यशस्तिलकचन्द्रिका - ले.-श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। यशस्तिलकचंपू - ले.-सोमदेव सूरि। रचनाकाल 959 ई.। इस चंपू में जैन मुनि सुदत्त द्वारा राजा मारिदत्त को जैन धर्म । की दीक्षा देने का वर्णन है। मारिदत्त एक क्रूरकर्मा राजा था। उसे धार्मिक बनाने के लिये मुनिजी के शिष्य अभयरुचि ने यशोधरा की कथा सुनाई थी। जैन-पुराणों में भी यशोधर का चरित वर्णन है। कवि ने प्राचीन ग्रंथों से कथा लेकर उसमें कई परिवर्तन किये हैं। इसमें दो कथाएं संश्लिष्ट हैं- 1) मारिदत्त की कथा और 2) यशोधर की कथा। प्रथम के नायक मारिदत्त हैं तथा दूसरे के यशोधर हैं। इसमें कई पात्रों के चरित्र चित्रित हैं- मारिदत्त, अभयरुचि, मुनि सुदत्त, यशोधर, चंद्रमति, अमृतमति, यशोमति आदि। इस ग्रंथ की रचना सोद्देश्य हुई है और इसे धार्मिक काव्य का रूप दिया गया है। इसमें कुल 8 आश्वास या अध्याय हैं। 5 अध्यायों में कथा का वर्णन है और शेष 3 अध्यायों में जैन धर्म के सिद्धान्त वर्णित हैं। धार्मिकता की प्रधानता होते हुए भी इसमें श्रृंगार रस का मोहक वर्णन है। इसकी गद्य शैली अत्यंत प्रौढ है।आवश्यकतानुसार छोटे-छोटे वाक्य व सरल पदावली का भी प्रयोग किया गया है। इसके पद्य काव्यात्मक व सूक्ति दोनों ही प्रकार के हैं। इसके चतुर्थ आश्वास में अनेक कवियों के श्लोक उद्धृत हैं। कवि ने प्रारंभ में पूर्ववर्ती कवियों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अपना काव्य विषयक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने नम्रतापूर्वक यह भी स्वीकार किया है कि बौद्धिक प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष में ही नहीं रहती (1/11)। यशोधर-चरितम् - ले.-वादिराजसूरि (उपाधिद्वादशविद्याधिपति) समय ई. 16-17 वीं शती। (2) ले.- श्रुतसागरसूरि। ई. 16 वीं शती। (3) ले.- सोमकीर्ति । ई. 16 वीं शती। (4) ले.- सकलकीर्ति। ई. 14 वीं शती। पिता- कर्णसिंह। माता-शोभा। (5) क्षमाकल्याणकवि। ई. 19 वीं शती। इन सभी ग्रंथों का विषय है जैन धर्मी महाराजा यशोधर का चरित्र। इसी विषय पर एक नाटक भी लिखा गया है। लेखक-वादिचन्द्रसूरि ई. 16 वीं शती। यशोधरा-महाकाव्यम् - ले.-ओगेटि परीक्षित शर्मा। पुणे निवासी आंध्र के कवि। भगवान बुद्ध की धर्मपत्नी यशोधरा का जीवन इस महाकाव्य का विषय है। याचप्रबन्ध - कवि त्रिपुरान्तक । इसमें वेकटगिरि के याचवंशीय राजाओं का इतिहास ग्रथित है। याज्ञवल्क्यस्मृति - रचयिता- ऋषि याज्ञवल्क्य। इस स्मृति का "शुक्ल यजुर्वेद" से संबंध है और यज्ञवल्क्य शुक्ल यजुर्वेद के द्रष्टा माने जाते हैं। इस स्मृति का प्रकाशन 3 स्थानों से हुआ है।- (1) निर्णय सागर प्रेस मुंबई, (2) त्रिवेंद्रम तथा (3) आनंदाश्रम, पुणे। इनमें श्लोकों की संख्या क्रमशः 1010, 1003 और 1006 है। इसके प्रथम व्याख्याता विश्वरूप हैं जिनका समय 800-825 ई. है। द्वितीय व्याख्याता "मिताक्षरा' के लेखक विज्ञानेश्वर हैं जो विश्वरूप के 250 वर्ष पश्चात् हुए थे। 'मनुस्मृति' की अपेक्षा यह स्मृति अधिक सुसंगठित है। इसमें विषयों की पुनरुक्ति न होने के कारण इसका आकार "मनुस्मृति" से छोटा है। दोनों ही स्मृतियों के विषय समान हैं तथा श्लोकों में भी कही-कहीं शब्द-साम्य है। अतः प्रतीत होता है कि याज्ञवल्क्य ने इसकी रचना "मनुस्मृति" के आधार पर की है। इसमें 3 कांड हैं जिनकी विषयसूची इसप्रकार हैप्रथम कांड- चौदह विद्याओं व धर्म के 20 लेखकों का वर्णन, धर्मोपपादन, परिषद्-गठन, विवाह से गर्भाधान पर्यन्त सभी संस्कार, उपनयन-विधि, ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य तथा वर्जित पदार्थ व कर्म, विवाह एवं विवाह-योग्य कन्या की पात्रता, विवाह के 8 प्रकार, विजातीय विवाह, चारो वर्गों के अधिकार व कर्त्तव्य, स्नातक के कर्त्तव्य, वैदिक यज्ञ, भक्ष्याभक्ष्य के नियम तथा मांस-प्रयोग, दान पाने के पात्र, श्राद्ध तथा उसका उचित समय, श्राद्ध-विधि श्राद्धप्रकार, राज-धर्म, राजा के गुण, मंत्री, पुरोहित, न्याय-शासन आदि। द्वितीय कांड- न्याय-भवन के सदस्य, न्यायाधीश, कार्यविधि, अभियोग, उत्तर, जमानत लेना, न्यायालय के प्रकार, बलप्रयोग, ब्याज के दर, संयुक्त परिवार के ऋण, शपथ-ग्रहण, मिथ्या साक्षी पर दंड, लेख-प्रमाण, बंटवारा तथा उसका समय, स्त्री का भाग, पिता की मृत्यु के बाद विभाजन, विभाजन के अयोग्य संपत्ति, पिता-पुत्र संयुक्त स्वामित्व, बारह प्रकार के पुत्र, शूद्र व अनौरस पुत्र, पुत्रहीन पिता के लिये उत्तराधिकार, स्त्री धन पर पति का अधिकार, द्यूत तथा पुरस्कार-युद्ध, अपशब्द, मान-हानि, साहस, चोरी और व्यभिचार। तृतीय कांड- मृत व्यक्तियों का जल-तर्पण, जन्म-मरण पर तत्क्षण पवित्रीकरण के नियम। समय, अग्निसंस्कार, वानप्रस्थ तथा यति के नियम, सत्त्व, रज व तम के आधार पर तीन प्रकार के कार्य। डॉ. काणे के अनुसार इसका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी 284/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से ईसा की तीसरी शताब्दी तक माना गया है। युक्तिषष्टिका - ले.- नागार्जुन। विषय - शून्यवाद की 60 याज्ञवाल्क्यस्मृति के टीकाकार - (1) अपरार्क । (2) युक्तियों का प्रतिपादन। इसके उद्धरण अन्याय बौद्ध रचनाओं कुलमणि, (3) देवबोध, (4) धर्मेश्वर, (5) विश्वरूप कृत __ में प्राप्त होते हैं। बालक्रीडा, (6) विज्ञानेश्वरकृत मिताक्षरा, (7) रघुनाथभट्ट, युक्त्यनुशासनम् - ले.-समन्तभद्र। जैनाचार्य। ई. प्रथम शती। (8) मथुरानाथकृत मिताक्षरा। विभावना और वचनमाला पिता- शान्तिवर्मा। उपटीकाएं हैं। युक्त्यनुशासनालंकार - ले.-विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 यात्राप्रयोगतत्त्वम् - ले.- हरिशंकर। वीं शती। टीका-ग्रंथ। यादवराघवपाण्डवीयम् (व्यर्थी सन्धान-काव्य) - युगजीवनम् (रूपक) - लेखिका डॉ. रमा चौधुनी। प्रथम ले.-राजचूडामणि। इसमें श्लेष द्वारा कृष्ण, राम एवं पांडवों अभिनय सन 1967 में रामकृष्ण मठ (कलकत्ता ) में। की कथा का एकत्र वर्णन है। दृश्यसंख्या- दस। विषय- श्री रामकृष्ण परमहंस का चरित्र । (2) ले. -अनन्ताचार्य । उदयेन्द्रपुर (कर्नाटक) के निवासी। युगलाङ्गलीयम् (रूपक) - ले.-श्रीशैल ताताचार्य । ई. 19 यादवराघवीयम् (व्यर्थी सन्धान काव्य) - (1) ले. वीं शती। नरहरि। इसमें कृष्ण और राम की कथा श्लेषमय रचना में (2) ले.- कालीपद तर्काचार्य। निवेदित है। युधिष्ठिर (क्षमाशीलो युधिष्ठिरः) - ले.-ठाकुर ओमप्रकाश (2) ले.- वेंकटाध्वरी। शास्त्री। युधिष्ठिर के छात्र जीवन के तीन प्रसंग तीन दृश्यों यादवविजयम्- कवि - कुन्जुकुथानताम्बिरन्। ई. 18वीं शती। में प्रस्तुत । केरलवासी। युधिष्ठिर-विजयम् (महाकाव्य) - ले. वासुदेव कवि । यादवशेखरचम्पू - ले.-भाष्यकार । केरलनिवासी। यह यमक-काव्य है। इसके यमक क्लिष्ट न यामलाष्टकतन्त्रम्- श्लोक- 4200। अर्थरत्नावली के अनुसार होकर सरल एवं प्रसन्न हैं। यह महाकाव्य 8 उच्छ्वासों में अष्टक के अंतर्गत आठ यामलों के नाम है- (1) ब्रह्मयामल, विभक्त है। इसमें महाभारत की कथा संक्षेप में वर्णित है। (2) विष्णुयामल, (3) रुद्रयामल, (4) लक्ष्मीयामल, (5) इस पर काश्मीर निवासी राजानक रत्नकंठ की टीका प्रकाशित उमायामल, (6) स्कन्दयामल, (7) गणेशयामल और (8) हो चुकी है। टीका का समय 1672 ई. है। जयद्रथयामल। युद्धकाण्डचम्पू - ले.-घनश्याम । ई. 18 वीं शती। यामिनीपूर्णतिलकम् (रूपक)- ले.- पेरी काशीनाथ शास्त्री। युद्धकौशलम् - ले.-रुद्र । 19 वीं शती। युद्धचिन्तामणि - ले.- रामसेवक त्रिपाठी। युक्तिकल्पतरु - ले.-भोजदेव। विषय- शासन एवं राजनीति युद्धजयार्णवतन्त्रम् - ले.-भट्टोत्पल। पटल- 10। शिव-पार्वती के विषयों के अन्तर्गत-दूत, कोष, कृषिकर्म, बल, यात्रा, सन्धि, संवादरूप। विषय- स्वरोदय का प्रतिपादन । विग्रह, नगरनिर्माण, वास्तुप्रवेश, छत्र, ध्वज, पद्मरागादिरत्नपरीक्षा, युद्धजयोत्सव - ले.-गंगाराम। पांच प्रकाशों में पूर्ण । अस्त्र-शस्त्र-परीक्षा, नौका-लक्षण आदि विषयों की चर्चा । स्वयं युद्धजयप्रकाश - ले.-दुःखभंजन। भोज, उशना, गर्ग बृहस्पति, पराशर, वात्स्य, लोकप्रदीप, युद्धप्रोत्साहनम् - ले.- नरसिंहाचार्य । शाङ्गिधर एवं कतिपय पुराणों के प्रमाण दिये गये हैं। कलकत्ता यूरोपीयदर्शनम् - ले.-म.म. रामावतार शर्मा । काशी में प्रकाशित । ओरिएंटल सीरीज द्वारा प्रकाशित । युवचरितम् - ले.-जग्गू शिंङ्गया। ई. 1902-601 युक्तितत्त्वानुशासनम् - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भनिवासी। योगकल्पलतिका - ले.-श्रीकृष्णदेव। योगविषयक ग्रंथ । योग का लक्षण यों किया है :- "ऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं युक्तिप्रबोधम् (नाटक) - ले.-मेघविजय गणी। जैनाचार्य। योगविशारदाः"। अर्थात् योग में निष्णात पुरुष जीवात्मा और ई. 17 वीं शती। इसमें प्रतीकात्मक पात्रों द्वारा स्वमत-विरोधी परमात्मा की एकता (अभेद) को योग कहते हैं। पक्ष का खण्डन करने का प्रयत्न हुआ है। ऋषभदेव केसरीमल श्वेतांबर संस्था (रतलाम) द्वारा प्रकाशित। योगगुह्यम् - ले.-कण्ठनाथ । विषय- तान्त्रिक योग की शिक्षा । युक्तिमुक्तावली - ले.-नागेशभट्ट । केशव मिश्र कृत तर्कभाषा योगचिन्तामणि - ले.-हर्षकीर्ति, ई. 17 वीं शती। की टीका। (2) ले.- धन्वन्तरि। युक्तिरत्नाकर- ले. कृष्णमित्र (कृष्णाचार्य)। योगज्ञानम् - ले.-श्लोक- 50। लिपिकाल वंगसंवत् 1174 । युक्तिवाद - ले.-गदाधर भट्टाचार्य । विषय- पंचतत्त्व-लयप्रकार । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 285 For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra योगतारावली (स्तोत्र ) ले. श्रीशंकराचार्य । श्लोक- 291 विषय- आध्यात्मिक दृष्टि से योगक्रियाओं का वर्णन योगध्यानम् ले भूपति संसारचन्द्र । योगनिर्णय ले. ज्ञानश्री बौद्धाचार्य ई. 14 वीं शती । । योगबिन्दु - ले. - हरिभद्रसूरि । ई. 8 वीं शती । 1 योगबीजम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक - लगभग 150 | विषय- शाक्त सम्प्रदायानुसारी योग का प्रतिपादन | योगमार्तण्ड- ले. गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती । योगरत्रमाला (सटीक) ले. नागार्जुन श्लोक 480 - www.kobatirth.org - टीकाकार गुणाकार । योगरत्नाकर आयुर्वेद शास्त्र का ग्रंथ। यह ग्रंथ किसी अज्ञात लेखक की रचना है, और यह 1746 ई. के आसपास लिखा गया है। इसका एक प्राचीन हस्तलेख 1668 शकाब्द का प्राप्त होता है । इस ग्रंथ का प्रचार महाराष्ट्र में अधिक है। इसमें रोग परीक्षा, द्रव्यगुण, निबंटु तथा रोगों के वर्णन के साथ ही लोलिंबराज कृत "वैद्यजीवन" की भांति श्रृंगारी पदों का भी बाहुल्य है। इसके पूर्व अन्य किसी भी ग्रंथ में इस विषय का निरूपण नहीं किया गया है। इसके कर्ता ने भी इस तथ्य का स्पष्टीकरण अपने ग्रंथ में किया है। इस ग्रंथ का प्रकाशन विद्योतिनी (हिन्दी टीका) के सहित चौरबा विद्याभवन से हो चुका है। योगरत्नावली ले. श्रीकण्ठ शम्भु परिच्छेद 10 प्रारंभिक दो परिच्छेदों में बहुत सी ऐन्द्रजालिक क्रियाएं वर्णित हैं। तीसरे में त्रिपुरानित्यार्चननिधि तथा चौथे परिच्छेद में अभिषेक विधि आदि विषय वर्णित हैं । योगरहस्यम् ले नाथमनि। ई. ले. - नाथमुनि । ई. 9 वीं शती । दक्षिण भारत के वैष्णव आचार्य। इन्होंने न्यायतत्त्व और पुरुषनिश्चय नामक अन्य ग्रंथ भी लिखे हैं । योगवार्तिकम् - ले.- विश्वास भिक्षु । ई. 14 वीं शती । काशी निवासी । - योगयात्रा - ले. - वराहमिहिर । विषय- ज्योतिष शास्त्र । इस ग्रंथ में राजाओं के युद्ध का ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। ग्रंथ की शैली प्रभावशाली एवं कवित्वमयी है। योगराज उपनिषद् केवल 21 मंत्रों का एक नव्य उपनिषद् । इसमें मंत्र, लय, राज और हठ इन चार योगों का प्रतिपादन करते हुए मंत्र योग को महत्त्व दिया है। शरीरस्थ नव चक्रों पर ध्यान करने से योगसिद्धि की प्राप्ति भी इसमें सूचित की है। योगवासिष्ठम् - ( अपरनाम- आर्षरामायण, वसिष्ठमहारामायण, और मोक्षोपायसंहिता) इस ग्रंथ के रचयिता के संबंध में मतभेद है परंपरानुसार आदिकवि वाल्मीकि इसके रचयिता माने जाते हैं परंतु इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा काश्मीरी शैव, त्रिक, प्रत्यभिज्ञा 286 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड तथा स्पंद इत्यादि तत्त्वज्ञानों का निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने जाते हैं। योगवासिष्ठ की श्लोकसंख्या 32 हजार है। विद्वानों के मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ- (1) वसिष्ठकवच, मोक्षोपाय (2) ( अथवा सिष्ठ-रामसंवाद) (3) वसिष्ठरामायण (या बृहद्योगवासिष्ठ) । यह तीसरी पूर्णावस्था ई. 11-12 वीं शती में पूर्ण मानी जाती है। गौड अभिनंद नामक पंडित ने ई. 9 वीं शती में किया हुआ इसका "लघुयोगवसिष्ठ" नामक संक्षेप छह हजार श्लोकों का है। योगवसिष्ठसार नामक दूसरा संक्षेप 225 श्लोकों का है। योगवसिष्ठ ग्रंथ छह प्रकरणों में पूर्ण है। प्रथम प्रकरण का नाम वैराग्य प्रकरण है। इसमें उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचंद्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए । अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचंद्रजी विरक्त हुए। महाराजा दशरथ की सभा में वे कहते हैं। किं श्रिया, किं च राज्येन, किं कायेन, किमीहया । दिनैः कतिपयैरेव कालः सर्वं निकृन्तति । । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निवारण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र को की। दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। 3-4 और 5 वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उपपत्ति वर्णन की है। इन प्रकरणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान और उपाख्यान निवेदन किये हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया है। इसमें संसारचक्र में फंसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात् निरतिशय आनंद की प्राप्ति का उपाय निवेदन किया है। इस महान ग्रंथ में विषयों एवं विचारों की पुनरुक्ति के कारण रोचकता कम हुई है। परंतु अध्यात्मज्ञान सुबोध, तथा काव्यात्मक शैली में सर्वत्र प्रतिपादन किया है। बोगशिखोपनिषद् - शिव हिरण्यगर्भ संवादात्मक एक नव्य उपनिषद् इसके छह अध्यायों में योग के छह प्रकार, नादानुसंधान, जगन्मिथ्यात्व देहस्थ चक्रस्थान, कुंडलिनी योग इत्यादि विषयों का यथोचित प्रतिपादन हुआ है। इसी नाम का अन्य एक ग्रंथ है जो यजुर्वेद तथा अथर्ववेद से संबंधित कहा गया है। उसका विषय है- ध्यानयोग । योगसागर शुक्र- भृगु संवादरूप। विषय- मुख्य रूप से 50 योगों का वर्णन भवयोग, सौम्ययोग, यातुधान्य-योग, भीष्मयोग, जीमूतयोग, जवयोग, आदि योगों और उनके फलों का प्रतिपादन इसमें है। योगसार शिव-पार्वती संवादरूप । परिच्छेद-9 । विषयशिवजी के प्रति देवी का ब्रह्मस्वरूप कथन, ब्रह्म की योगगम्यता, For Private and Personal Use Only - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरोगीका ही योग में अधिकार है यह प्रतिपादन करते हुए। व्याधियों के विनाशक तृष्णानाश, अनाहारीकरण, मल-मूत्र विनाशन, शुक्रस्तंभन, आलस्यशमन, निद्रानिवृत्ति, इन्द्रियों का निग्रह, मंत्रसिद्धि, इष्टविद्याओं के मंत्र, पुरश्चरणविधि, भक्ष्य, अभक्ष्य, आसन, जपमाला, जप की गणना, चक्र-वर्णमाला, त्रिविध योग,शरीरस्थ चक्र, षट्चक्र के देवताओं के ध्यान, पूजा इ.। (2) शिव-पार्वती संवाद रूप। परिच्छेद-11। विषययोगियों द्वारा सम्पादनीय बहुत सी विधियां, शरीरस्थित षट् चक्र, दर्शनोद्दीपन, मूलाधारस्थित देवता, बाणलिंगोपाख्यान, हृदयकमल के ध्यान, पूजन आदि। (3) ले.- हरिशंकर । पिता- श्री लक्ष्मण ज्योतिर्विद । विषय- प्रथम अध्याय में गुरु के महत्त्व का वर्णन और द्वितीय में कुम्भक का वर्णन। (4) ले.- गंगानन्द। योगसारप्राभृतम् - ले.- अमितगति (प्रथम)। जैनाचार्य। ई.. 9 वीं शताब्दी। योगसारसंग्रह - ले.- विश्वास भिक्षु-काशी निवासी । ई. 14 श.। योगसारसमुच्चय (नामान्तर- अकुलागममहातंत्र) - शिव-पार्वती-संवादरूप। पटल 101 योगसिद्धान्त - विष्णु-शिव संवादरुप। श्लोक- 180/ योगसिद्धान्तमंजरी - ले.- काशीनाथ। पिता- जयरामभट्ट। श्लोक- 1501 विषय- शैवयोग। योगाचारभूमिशास्त्रम् (सप्तदश भूमिशास्त्र) - ले.-आर्य असंग। बौद्धदार्शनिक वसुबंधु के ज्योष्ठ भ्राता। योगाचार के साधन मार्ग का प्रामाणिक विवेचन करने वाला बृहग्रंथ। इसी रचना से विज्ञानवाद को "योगाचार" संज्ञा मिली। 17 परिच्छेद । प्रत्येक परिच्छेद को भूमि संज्ञा है। स्व. राहुल सांकृत्यायन के परिश्रम से मूल संस्कृत में रचना उपलब्ध हुई। संस्कृत में । प्रकाशित इसका लघु अंश "बोधिसत्त्वभूमि" उपलब्ध है। इसका संक्षेपीकरण कर उसकी व्याख्या सी.वेण्डल पोसिन आदि ने की है। इसमें 17 भूमि (या परिच्छेद) हैं जिनके नाम हैं : विज्ञानभूमि, मनोभूमि, सवितर्क-सविचारा भूमि, अवितर्क-विचारमात्रा भूमि, अवितर्क-अविचारा भूमि, समाहिता भूमि, असमाहिता भूमि, सचित्तकाभूमि, अचित्तका भूमि, श्रुतमयी भूमि, चिंतामयी भूमि, भावनामयी भूमि, श्रावकभूमि, व्रत्येकबुद्धभूमि, बोधिसत्वभूमि, सोपधिकाभूमि और निरुपधिकाभूमि। योगामृतम् - ले.-गोपाल सेन कविराज। ई. 17 वीं शती।। वैद्यक विषयक रचना। योगार्णव (नामान्तर-योगसारसंग्रह) - ले.- दामोदराचार्य । श्लोक 3301 (2) ले.- हरिशंकर। लेखक ने इसकी रचना काशीराम के प्रबोधनार्थ की। योगावलीतंत्रम् - हर-गौरी संवाद रूप। श्लोक- 2721 पटल-51 विषय-देहोत्पत्ति का निर्वचन करते हुए योग आदि का निरूपण। योगिनीचक्रपूजन - श्लोक- 200। योगिनीतंत्रम् (1) - देवी-ईश्वर संवादरूप। इसमें प्रथम और द्वितीय दो भाग हैं। प्रथम भाग में 19 पटल हैं। द्वितीय भाग का नाम कामरूपनिर्णय है। उसमें पटल हैं 14। द्वितीय भाग में 4 पीठों का विवरण भी दिया हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि उड्यान पीठ का आविर्भाव सत्ययुग में, पूर्णशैल का त्रेता में, जालन्धर का द्वापर में तथा कामरूप (या कामाख्या) का आविर्भाव कलियुग में हुआ। कलकत्ता और मुम्बई में 1887 ई. में इसका मुद्रग हो चुका है। (2) श्लोक- 3510। पटल- 9। विषय- योगिनीतंत्र का माहात्म्य आदि कथन,काली का रूप वर्णन, गुरुमाहात्म्य, दीक्षाविधि पूजा, जप आदि के काल आदि का कथन, काली, तारा आदि विद्याओं का अभेद कथन, दिव्य, वीर, पशु आदि भावों का निरूपण। (3) श्लोक- 2800। पटल- 101 योगिनीपूजा - श्लोक- 100। विषय- चौसठ योगिनियों की पूजाविधि, महाबलि आदि का वर्णन है। योगिनीहृदयम् - देवी-शंकर संवादरूप। श्लोक- 500 । पटल6। विषय- 1) श्रीचक्रसंकेत, 2) मंत्रसंकेत, 3) पूजासंकेत, 4) मन्त्रोद्धार, 5) दीक्षाकाल निर्णय आदि तथा 6) वीरसाधना। योगिनीहृदय-दीपिका - ले.- अमृतानन्द। गुरु-पुण्यानन्दनाथ । श्लोक- 3000। योगिनीहृदय की अमृतानन्दनाथ रचित दीपिका नामक टीका है। योगिन्यादिपूजनविधि - श्लोक- 3601 योगि-भक्त-चरितम् (काव्य) - ले.- म.म. कालीपद तर्काचार्य ई. 1888-1972। योगिभोगिसंवाद- शतकम् - ले.- श्रीनिवासशास्त्री। योगेशीसहस्रनामस्तोत्रम् - रुद्रयामलतंत्रान्तर्गत विष्णु-हर संवाद रूप। 200 श्लोकात्मक। यौवन-विलास (काव्य) - ले.- म.म. विधुशेखर शास्त्री। जन्म ई. 1978 में। यौवनोल्लासम् - कवि-उमानंद। यौवराज्यम् - ले.- जग्गू श्रीबकुल भूषण। “संस्कृतप्रतिभा" में प्रकाशित एकांकिका। छोटे छोटे चटुल संवाद। आरम्भ में हंस हंसी का मूकाभिनय । विषय-रामबन्धु भरत के यौवराज्याभिषेक की कथा। योनिकवचम् (अपरनाम- त्रैलोक्यविजयम्) - उमा-महेश्वर संवादरूप। नीलतंत्र के अंतर्गत । योनिगह्वरतन्त्रम् - श्री ज्ञाननेत्र द्वारा प्रकाशित हुआ। देवी-महादेव संवादरूप। नाथसम्प्रदाय से संबद्ध प्रतीत होता है। नाथसम्प्रदाय का गुरु-क्रम भी इसमें वर्णित है ।यह उत्तराम्नाय संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 287 For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का तंत्र है। नायक के दिग्विजय का वर्णन। (2) ले- राजचूडामणि। पितायोनितंत्रम् - (1) हर-पार्वती संवादरूप। पटल- 17। विषय रत्नखेट दीक्षित । विषय- तंजौर के रघुनाथ नायक का चरित्र । योनिपूजाप्रशंसा, पूज्य और अपूज्य योनियों का विचार । अक्षतयोनि रघुनाथभूपालीयम् - ले.- कृष्णकवि। विषय- आश्रयदाता। के पूजन में दोष। पंचतत्त्व विधि। कौलों में उत्तम, मध्यम रघुनाथ (नायक) नृपति का स्तवन, तथा अलंकारों के निदर्शन। आदि का भेद कथन, योनि में महाविद्या की उपासनाविधि।। आठ सर्ग । टीकाकार सुधीन्द्रयति का समय है ई. 17 वीं शती। तत्त्व से तिलकविधि । तत्त्व से पूजा की विधि, वीरसाधनाविधि। रघुनाथविजयचंपू - ले.- कृष्ण (कविसार्वभौम उपाधि) आसन की उपासना, अन्तर्याग, मंत्ररात्र आदि की विधि। काली रचनाकाल, 1885 ई.। पिता- दुर्गपुरनिवासी तातार्य। इस चंपू को प्रसन्न करने वाले उपचार, वीरपुरश्चरणविधि। पंचतत्त्वशोधन काव्य में 5 विलास हैं जिनमें पंचवटी के निकटस्थ विचूरपुर-नरेश विधि । पूजास्थान आदि का निरूपण। (2) हर-पार्वती संवादरूप । रघुनाथ की जीवन गाथा वर्णित है। कवि ने यात्राप्रबंध और श्लोक- 305। पटल-8, विषय- योनिपीठ की प्रधानता। हरिहर चरित वर्णन का मिश्रित रूप प्रस्तुत कर, इस काव्य के स्वरूप आदि का योनि से संभव (जन्म), कथन शक्ति-मंत्र की को संवारा है। स्वयं कवि के अनुसार इस काव्य की रचना उपासना कर योनिपूजा न करते में दोष। दिव्य भाव और एक दिन में ही हुई है। इसका प्रकाशन गोपाल नारायण वीरभाव की प्रशंसा। योनिपूजाविधि। रजकी, नापितांगना आदि कंपनी मुंबई से हो चुका है। 9 कन्याओं का कथन, योनिपूजा के साधन बलि और नैवैद्य, योनिपूजा का फल। राम, कृष्ण आदि की योनि-उपासकता। रघुनाथविलासम् (नाटक) - ले.- यज्ञनारायण दीक्षित। ई. वैदिक, वैष्णव, शैव, दक्षिण और वाम सिद्धान्त के कौल 17 वीं शती। प्रथम अभिनय तंजौर के राजा रघुनाथ (जो शास्त्रों में उत्तरोत्तर प्रधानता। श्राद्ध में कौलियों को भोजन इस नाटक के नायक हैं) के समक्ष । कवि को रघुनाथ से कराने का फल। योनिदर्शन काल में नायिका की उर्वशी पुरस्कारस्वरूप रत्न मिले थे। इसका नायक ऐतिहासिक, परन्तु तुल्यता। कलियुग में योनिपूजन ही श्रेयस्कर है। कथा कल्पनारंजित है। प्रमुख रस- शृंगार। समासबहुल शैली। लम्बी एकोकक्तियां, कुछ देशी शब्दों का प्रयोग। संवाद में रकारादिरामसहस्रनाम - ले.-श्रीब्रह्मयामल से गृहीत। उमा पद्यों की अतिशयता और अनुप्रास का प्रचूर प्रयोग इस की महेश्वर संवादरूप। विशेषता है। सरस्वती महल, तंजौर से प्रकाशित । कथासाररक्षकः श्रीगोरक्षः (नाटक) - ले.- यतीन्द्रविमल चौधुरी। तीर्थयात्रा में स्नान करते समय किसी ब्राह्मण को नायक रघुनाथ विषय- योगी गोरखनाथ का चरित्र। अंकसंख्या- सात । मकर से ग्रस्त होने से बचा लेता है। उस मकर के पेट में रक्षाबन्धनशतकम् - ले.- विमलकुमार जैन । कलकत्ता निवासी। से एक सुगन्धी नथनी निकलती है। उस नथनी की स्वामिनी रंगनाथ-देशिकाह्निकम् - ले.- रंगनाथ देशिक । को राजा ढूंढ निकालता है। वह है लङ्काधिप विजयकेतु रंगनाथसहस्रम् - ले.- त्रिवेणी। वेंकटाचार्य की पत्नी। की पुत्री चन्द्रकला। राजा रघुनाथ कापलिकी प्रतिभावती से रंगहृदयम् (स्तोत्रसंग्रह) - ले.- पांडुरंग अवधूत योगसिद्धि प्रदायिनी वस्तुएं पा लेता है और उनकी सहायता (रंगावधूतस्वामी)। ई. 20 वीं शती। नारेश्वर (गुजरात) के से नायिका के पास जाता है। चन्द्रकला के माता-पिता उसका निवासी। भगवान् दत्तात्रेय के परमभक्त संन्यासी थे। नर्मदा के विवाह रघुनायक के साथ कराना चाहते हैं परन्तु प्रतिभावती तीर पर बडोदा के पास नारेश्वर नामक तीर्थक्षेत्र में आपने की सहायता से नायक उसे पाने में सफल होता है। इन्दिरा तपश्चर्या की थी, वहीं उनका समाधिस्थान बना है जहां प्रतिदिन भवन में दोनों का विवाह सम्पन्न होता है। सैकड़ों यात्री दर्शन के लिए जाते हैं। रंगहृदय नामक स्तोत्रसंग्रह रघुनाथाभ्युदयम् (महाकाव्य) - कवयित्री- रामभद्राम्बा । में श्रीरंगावधूत स्वामी कृत श्रीदत्त तथा अन्य देवता विषयक तंजौर के अधिपति रघुनाथ नायक की धर्मपत्नी। अपना पति स्तोत्रों का संकलन गुजराती गद्यानुवाद के साथ प्रकाशित किया साक्षात् राम का अवतार है, इस श्रद्धा से उसने यह काव्य है। प्रकाशक- जयंतीलाल शंकरलाल आचार्य, अवधतसाहित्य रचना की तथा रघुनाथ नायक का चरित्र वर्णन किया है। प्रकाशन ट्रस्ट, नारेश्वर। रघुपतिविजयम् (काव्य) - ले.- गोपीनाथ कवि। रघुनन्दनविलसितम् - कवि- (1) वेंकटाचार्य और पात्राचार्य। रघुराज-मंगलचंद्रावली - कवि बघेलखण्ड के अधिपति रघुनाथ तार्किक-शिरोमणिचरितम् - कवि-वसन्त त्र्यम्बक रघुराजसिंह। कुल अध्याय दो भागों (86 = 48 + 38) शेवडे। नागपुर निवासी। त्रिसर्गात्मक 127 श्लोकों का यह में विभाजित ग्रंथ है। यह विभाजन श्रीमद्भागवत के दशम काव्य, सारस्वतीसुषमा (वाराणसी) में प्रकाशित । स्कन्ध के कृष्णचरित्र पर आधारित है। विषय- स्तुतिद्वारा श्रीकृष्ण रघुनाथभूपविजयम् - ले.- यज्ञनारायण। गोविंद दीक्षित का से रक्षा और मंगल की याचना । ग्रंथ की रचना मासार्घ (15 पुत्र । विषय- नायक वंश की श्रेष्ठता तथा तंजौरनृपति रघुनाथ दिन) में पूर्ण हुई। 288 / संस्कृत वाङ्मय कोश - पथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रघुवंशम् (महाकाव्य) प्रणेता महाकवि कालिदास। इस महाकाव्य के 19 सर्गो में सूर्यवंशी 21 राजाओं का चरित्र वर्णित है। इसकी सर्गानुसार कथा इस प्रकार है : प्रथम सर्ग में रघुवंशीय राजाओं की विशिष्टता का सामान्य वर्णन । प्रथमतः राजा दिलीप का चरित्र वर्णित है । पुत्रहीन होने के कारण राजा चिंतित होकर अपनी पत्नी सुदक्षिणा के साथ कुलगुरु वसिष्ठ के आश्रम में पहुंचते हैं तथा उन के आदेश से आश्रम में स्थित होमधेनु नंदिनी की सेवा में संलग्न हो जाते हैं। द्वितीय सर्ग में दिलीप द्वारा नंदिनी की सेवा एवं 21 दिनों के पश्चात् उनकी निष्ठा की परीक्षा का वर्णन है। नंदिनी एक सिंह आक्रमण में फंस जाती है और राजा उस सिंह को नंदिनी के बदले स्वयं को समर्पित कर देते हैं। इस पर नंदिनी प्रसन्न होकर उन्हें पुत्रप्राप्ति का आश्वासन देती है I तब राजा अपनी पत्नी सहित कुलगुरु की आज्ञा से नंदिनी का दूध पीकर उत्फुल्ल चित्त राजधानी लौटते हैं। तृतीय सर्ग में रानी सुदक्षिणा का गर्भाधान, रघु का जन्म व यौवराज्य तथा दिलीप द्वारा अश्वमेघ करने का वर्णन है। सर्ग के अंत में सुदक्षिणा सहित राजा दिलीप के वन जाने का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में रघु की दिग्विजय यात्रा तथा पंचम में उनकी असीम दानशीलता का वर्णन है। अत्यधिक दान करने के कारण उनका कोष रिक्त हो जाता है। उसी समय कौत्सनामक एक ब्रह्मचारी आकर उनसे 14 करोड स्वर्ण मुद्रा की याचना करता है। रघु को सारा धन कुबेर द्वारा प्राप्त होता है और वे उसे कौल्स को समर्पित कर देते हैं। इससे संतुष्ट हुआ कौत्स उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देकर चला जाता है। छठे और सातवें सर्ग में रघु के पुत्र अज का इंदुमती के स्वयंवर में जाने एवं अज- इंदुमती विवाह और अज की ईर्ष्यालु राजाओं पर विजय प्राप्ति का वर्णन है। आठवें सर्ग में अज की प्रजापालिता, रघु की मृत्यु, दशरथ का जन्म, नारद की पुष्पमाला गिरने से इंदुमती की मृत्यु, अज विलाप एवं वरिष्ठ का शांति-उपदेश तथा अज की मृत्यु का वर्णन है। नवम सर्ग में राजा दशरथ के शासन की प्रशंसा, उनका मृगयाविहार वर्णन, वसंत-वर्णन तथा भूल से मुनिपुत्र श्रवण का वध और मुनि के शाप का वर्णन है। दसवें सर्ग में राजा दशरथ का पुत्रेष्टि (यज्ञ) करना तथा रावण के भय से देवताओं का विष्णु के पास जाकर पृथ्वी का भार उतारने के लिये प्रार्थना करने का वर्णन है। 11 वें व 12 सर्गों में विश्वामित्र एवं ताडका - वध प्रसंग से लेकर शूर्पणखा प्रसंग तथा रावण वध तक की घटनाएं वर्णित हैं। 13 वें सर्ग में विजयी राम का पुष्पक विमान से अयोध्या लौटना व भरत मिलन की घटना का कथन है। चौदहवें सर्ग में राम राज्याभिषेक एवं सीतानिर्वासन तथा 15 वें में लवणासुर की कथा, शत्रुघ्न द्वारा उसका वध, लव कुश का जन्म, राम का अश्वमेध करना तथा सुवर्णसीता 19 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की स्थापना, वाल्मीकि द्वारा राम को सीता ग्रहण करने का आदेश, सीता का पातालप्रवेश एवं रामादि का स्वर्गारोहण वर्णित है। 16 वे सर्ग में कुश का शासन, कुशावती मे राजधानी स्थापित करना, स्वप्न में नगरदेवी के रूप में अयोध्या का दर्शन । कुश का पुनः अयोध्या आना तथा कुमुद्वती से उसके विवाह का वर्णन है। 17 वें सर्ग में कुमुद्वतीसे अतिथि नामक पुत्र का जन्म व कुश की मृत्यु वर्णित है। 18 वें सर्ग में अनेक राजाओं का संक्षिप्त वर्णन तथा 19 वें सर्ग में विलासी राजा अग्निवर्ण की राजयक्ष्मा से मृत्यु व गर्भवती रानी द्वारा राज्य संभालने का वर्णन है। इस महाकाव्य में कालिदास की प्रतिभा का प्रौढतम रूप अभिव्यक्त हुआ है। कवि ने विस्तृत आधारफलक पर जीवन का विराट चित्र अंकित कर इसे महाकाव्योचित गरिमा प्रदान की है। विद्वानों का अनुमान है कि संस्कृत साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने "रघुवंश" के ही आधार पर महाकाव्य के लक्षण निश्चित किये हैं। इसमें एक व्यक्ति की कथा न होकर एकमात्र रघुवंश के कई व्यक्तियों की कहानी है, जिसके कारण 'रघुवंश" कई चरित्रों की चित्रशाला बना है। दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक कवि ने कई राजाओं का वर्णन किया है किंतु उसका मन दिलीप, रघु, अज, राम व अग्निवर्ण के चित्रण में अधिक रमा है ।। कवि का उद्देश्य मुख्यतः राजा रघु और रामचंद्र का उदात्त रूप चित्रित करना रहा है जिसके लिये दिलीप, अज आदि अंग रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। अग्निवर्ण के विलासी जीवन का करुण अंत दिखाकर कवि यह विचार व्यक्त करता है कि चरित्र की उदात्तता एवं आदर्श के कारण रघु एवं राम ने जिस वंश को गौरवपूर्ण बनाया था, वहीं वंश विलासी व रुग्ण मनोवृत्ति वाले कामी अग्निवर्ण के कारण दुःखद अंत को प्राप्त हुआ । अग्निवर्ण की गर्भवती पत्नी के राज्याभिषेक के पश्चात् कवि प्रस्तुत महाकाव्य का अंत कर देता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के आदर्श चरित्रों के निर्माण में महाकवि ने तत्कालीन गुप्त सम्राटों के चरित्र एवं वैभव से भी प्रभाव ग्रहण किया है तथा अपनी नवनवोन्मेषशालिनी कल्पना का समावेश कर उसे प्राणवंत बना दिया है। पुत्रविहीन दिलीप की गोभक्ति व उनका त्यागमय जीवन बड़ा ही आकर्षक है रघु की युद्धवीरता एवं दानशीलता, अज व इंदुमती का प्रणय प्रसंग एवं चिरवियोग में हृदयद्रायवक दुःखानुभूति की व्यंजना तथा रामचन्द्र का उदात्त एवं आदर्श चरित्र सब मिलाकर कालिदास की चरित्र चित्रण संबंधी कला को सर्वोच्च सीमा पर पहुंचा देते हैं इतिवृत्तात्मक काव्य होते हुए भी "रघुवंश" में भावात्मक समृद्धि का चरम रूप दिखालाया गया है। इसमें कवि ने प्रमुख रसों के साथ घटनावली को संबद्ध कर कथानक में एकसूत्रता एवं चमत्कार लाने का सफल प्रयास किया है। For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 289 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रघुवंश प्राचीन काल से ही अत्यंत लोकप्रिय काव्य है। संस्कृत में इसकी 40 टीकाएं रची गई हैं। इनमें मल्लिनाथ की टीका विशेष लोकप्रिय है। अन्य टीकाकार :- (1) कल्लिनाथ, (2) नारायण, (3) सुमतिविजय (4) उदयाकर (5) हेमाद्रि (मक्कीभट्ट नाम से ज्ञात), ईश्वरसूरि का पुत्र महाराष्ट्र निवासी, देवगिरि के राजाओं का मंत्री, 12-13 वीं शती)। (6) वल्लभ (12 वीं शती का पूर्वार्ध) (7) हरिदास, (8) चरित्रवर्धन, (9) दिनकर, (10) गुणविजयगणी, (11) धर्ममेरु, (12) भरतसार (13) बृहस्पति मिश्र, (14) कृष्णपति शर्मा, (15) गुणविजयगणी, (16) गोपीनाथ कविराज, (17) जनार्दन, (18) महेश्वर, (19) नग्नधर, (20) भगीरथ, (21) भावदेव मिश्र, (22) रामभद्र, (23) कृष्णभट्ट, (24) दिवाकर, (25) लोष्टक, (26) श्रीनाथ, (27) अरुणगिरिनाथ, (28) रत्नचन्द्र, (29) भाग्यहंस, (30) ज्ञानेन्द्र, (31) भोज, (32) भरतमल्लिक, (33) जीवानन्दविद्यासागर, (34) समुद्रसूरि (विजयानन्दशिष्य), (35) दक्षिणावर्तनाथ, (36) समयसुन्दर, (37) कनकलाल ठाकुर, (38) रघुवंश विमर्श-ले.आर. कृष्णम्माचार्य विषय अन्तरंग सौन्दर्य का दर्शन, (38) रघुसंक्षेप ले. अज्ञात, रघुवंश की संक्षिप्त कथा, (40) अन्य कुछ टीकाओं के लेखकों के नाम अज्ञात हैं। रघुवंशम् (दृश्यकाव्य) - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) प्रणवपारिजात में प्रकाशित। उज्जयिनी के कालिदास समारोह में अभिनीत। कालिदास के रघुवंश काव्य का शत-प्रतिशत दृश्य रूप। अंकसंख्या- छः । रघुवंशचरितम् - ले.- प्रा. व्ही. अनन्ताचार्य कोडंबकम्। रघुवीरचरितम् - ले.- सुकुमार। रघुवीरवर्यचरितम् - ले.- तिरुमल कोणाचार्य । रघुवीरविजयम् (समवकार) - ले.- कस्तूरि रंगनाथ। ई. 19 वीं शती। प्रथम अभिनय शेषाद्रीश महोत्सव में। समवकार में विष्कम्भक तथा प्रवेशक का समावेश अशास्त्रीय है। परंतु यहां द्वितीय अंक के पूर्व विष्कम्भक तथा तृतीय अंक के पूर्व प्रवेशक का प्रयोग है। पद्यों की प्रचुरता। गद्योचित स्थल भी पद्यों में वर्णित । कथावस्तु सीतास्वयंवर पर आधारित, परंतु मूल कथा में परिवर्तन है। स्वयंवर के अवसर पर ही सीता का रावण द्वारा अपहरण, तत्पश्चात् अग्निपरीक्षा और उसके बाद राम-सीता का विवाह वर्णन किया है। छायातत्त्व का बाहुल्य। विद्युज्जिह्व और शूर्पणखा क्रमशः राम और सीता के रूप में प्रदर्शित हैं। रघुवीरविजयम् - ले.- वरदादेशिक पिता- श्रीनिवास । रघुवीरविलास् (काव्य) - ले.- लक्ष्मण। पिता- दामोदर। रघुवीरस्तव - ले.- नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। रजतदानप्रयोग - ले.- कमलाकर । रजस्वलास्तोत्रम् - ले.-रुद्रयामल के अन्तर्गत। उमा-महेश्वर संवादरूप। रणवीर-रत्नाकर - ले.-शिवशंकर पण्डित। काश्मीर-निवासी। विषय- धर्मशास्त्र। रतिकल्लोलिनी - ले.- सामराज दीक्षित। मथुरा-निवासी। ई. 17 वीं शती। विषय- कामशास्त्र । रतिकुतूहलम् - ले.- गंगाधरशास्त्री मंगरुलकर । नागपुर-निवासी। रतिचन्द्रिका - ले.- कौतुकदेव। विषय- कामशास्त्र । रतिनीतिमुकुलम् - ले.- क्षेमकर शास्त्री। रतिमंजरी - ले.- जयदेव। रतिमन्मथम् (नाटक)- ले.- जगन्नाथ। ई. 18 वीं शती। लोकमाता आनन्दवल्ली के वसन्तोत्सव के अवसर पर तंजौर में अभिनीत । अंकसंख्या- पांच । प्रधान रस- शृंगार । कथासाररति के माता पिता को बृहस्पति परामर्श देते हैं कि उसे मन्मथ से ब्याह दें। शुक्राचार्य के शिष्य बाष्कल कहते है कि उसे शम्बरासुर को दें। रति के पिता रति की इच्छा को ही प्रधानता देते हैं। वह शम्बर को नहीं चाहती, अत एव शम्बर से उनका वैरभाव होता है। इस बीच मदन-दहन का प्रसङ्ग है। सर्वार्थसाधिका मन्मथ को बचा लेती है और शिव द्वारा भेजी अग्नि को शिव के तृतीय नेत्र में पुनः स्थापित करती है। इसी समय शम्बरासुर रति को अपहृत करता है। मन्मथ, शम्बर से युद्ध कर उसे मारता है। परन्तु शम्बर द्वारा अपहत कन्या वास्तविक रति नहीं, सर्वार्थसाधिका द्वारा उत्पन्न की हुई रति की प्रतिकृति मायावती है। उसी को रति समझ मन्मथ उसे छुडाता है। वह भी मन्मथ पर आसक्त है। अन्त में सर्वार्थसाधिका मायावती की उत्पत्ति की कहानी बताती है और मन्मथ का विवाह दोनों कन्याओं से एक ही मण्डप में होता है। रतिमुकुलम् - ले. अच्युत। रतिरत्नप्रदीपिका - ले.- इम्मादि प्रौढ देवराय। सात अध्याय। विषयसुख का (बाह्य तथा आभ्यन्तर) प्रदीर्घ और रोचक विवेचन। टीकाकार- रेवणाराध्य । रतिरहस्यम् - ले.-कक्कोक। 10 अध्याय। किसी वैन्यदत्त को प्रसन्न करने हेतु लेखक ने यह रचना की। कामसूत्र का ओघवती भाषा में सुन्दर संक्षेप इसमें है। टीकाकारः 1) कांचीनाथ 2) अवंच रामचंद्र 3) कविप्रभु। रतिरहस्यम् - (या शृंगारभेदप्रदीपिका या शृंगारदीपिका) ले.हरिहर । सहजासारस्वतचंद्र की उपाधि । अन्य कामशास्त्रीय विषयों के साथ चौथे अध्याय में मन्त्र, तथा औषधि प्रयोग का भी वर्णन है। (रतिदर्पण नामक रचना चन्द्रपुत्र हरिहर की है।) रतिविजयम् - ले.-रामस्वामी शास्त्री। रचना 1928 में। प्रथम अभिनय भारत धर्म महामण्डल के महाअधिवेशन में । अंकसंख्यापांच। किरतनिया ढंग। गीतों का बाहुल्य। एकोक्तियां भी गीतों म अंक के प्रचुरता। थावस्तु सी " में परिव 290/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वारा प्रवेशक तथा विष्कंभक का अभाव । प्रतीक पात्र सरोजिनी तथा पुण्डरीक (कमल) । कथासार मदन- दहन के पश्चात इस जगत् में काम के अभाव में अव्यवस्था होती है। अं में शिव-पार्वती के विवाह के अवसर पर सभी की कामनापूर्ति होती है तथा शिव वरदान देते हैं- भारतीय रसिकजन देशभिमानी, कलानिपुण तथा ईश्वरभक्त बने। रतिसार 2) ले कौतुकदेव । विषय- कामशास्त्र । - रत्नकरण्ड श्रावकचार शती । पिता शान्तिवर्मा । ले. राजा महादेव। विषय- कामशास्त्र । - रत्नकरण्ड श्रावकाचारटीका ले. - प्रभाचन्द्र, जैनाचार्य । समयदो मान्यताएं (1) ई. 8 वीं शती 2) ई. 11 वीं शती । रत्नकरण्डका ले. द्रोण । ई. 1886-92। इसमें प्रायश्चित्त, स्पृष्टास्पृष्टप्रकरण, शौचाशौच, श्राद्ध, गृहस्थाश्रमधर्म, दाय, ऋण, व्यवहार, दिव्य, कृच्छ्र आदि पर विवेचन है । रनकेतदयम् ले. बालकवि ई. 16 वीं शती उत्तर अर्काट के निवासी। कोचीन के राजा रामवर्मा की इच्छानुसार इस नाटक की रचना हुई। ऐतिहासिक महत्त्व का नाटक । नायक राजा रामवर्मा है तथा उनके राज्यभार छोडने के पूर्व का कथानक है। श्रीविद्या प्रेस कुम्भकोणम् से प्रकाशित । रत्नकोश - ले. नृसिंह पुरी । परिव्राजक । श्लोक- 3500 1 2) ले. - लल्ल | विषय - मुहूर्तशास्त्र । | रत्नकोषवादरहस्यम् - ले. - गदाधर भट्टाचार्य । - रत्नकोशविचार- ले. हरिराम तर्कवागीश । रत्नत्रयम् ले रामकण्ठ । - www.kobatirth.org - ले. - समन्तभद्र । जैनाचार्य। ई. प्रथम रत्नत्रयव्रतकथा ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । रत्नपंचकावतार मौलिक तन्त्र । श्लोक 12000 पटल11 विषय देवी (कुब्जिका) और भैरव संवाद में पांच रनों (कुल, अकुल, कौल, कुलाष्टक तथा कुलषट्क) का वर्णन । रत्नप्रभा ले. - गोविन्दानन्द। विषय- शंकराचार्य के सुप्रसिद्ध शारीरक भाष्य पर टीका। 1 रत्नमाला ले. श्रीपति विषय मुहूर्तशास्त्र रत्नमाला ले. - शतानन्द । - - रत्नसेनकुलप्रशस्ति - ले. भावदत्त । बंगाल के सेन वंश का इतिहास इस काव्य का विषय है। रत्नाकर ले. शिवरामचन्द्र ( नामान्तर - शिवचन्द्र सरस्वती । विषय सिद्धान्तकौमुदी की टीका 2) ले. रामकृष्ण । विषय- सिद्धान्तकौमुदी की टीका । ई. 18 वीं शती। 3) ले. गोपाल । 4) ले रामप्रसाद । रत्नार्णव ले. कृष्णमित्र सिद्धान्तकौमुदी की टीका । । रत्नावली (नाटक) प्रणेता सम्राट् हर्ष या हर्षवर्धन । इस नाटिका में राजा उदयन व रत्नावली की प्रेम-कथा का वर्णन है। नाटिकाकार ने प्रस्तावना के पश्चात् विष्कम्भक में नायिका की पूर्वकथा की सूचना दी है। उदयन का मंत्री यौगंधरायण ज्योतिषियों की वाणी पर विश्वास कर लेता है कि राज्य कि अभ्युन्नति के लिये सिंहलेश्वर की दुहिता रत्नावली के साथ राजा उदयन का विवाह होना आवश्यक है। ज्योतिषियों ने बतलाया कि रत्नावली जिसकी पत्नी होगी, उसका चक्रवर्तित्व निश्चित है। इस कार्य को संपन्न करने के हेतु वह सिंहलेश्वर के पास रत्नावली का विवाह उदयन के साथ करने को संदेश भेजता है । उदयन इस विवाह को वासवदत्ता के कारण स्वीकार करने में असमर्थ हैं। अतः यौगंधरायण ने यह असत्य समाचार प्रचारित करा दिया कि लावाणक में वासवदत्ता आग लगने से जल मरी। इसी बीच सिंहलेश्वर ने अपनी दुहिता रत्नावली (सागरिका) को अपने मंत्री वसुभूति व कंचुकी के साथ उदयन के पास भेजा, पर दैवात् रत्नावली को ले जाने वाले जलयान के टूट जाने से वह प्रवाहित हो गयी तथा भाग्यवश कौशांबी के व्यापारियों के हाथ लगी। व्यापारियों ने उसे लाकर यौगंधरायण को सौंप दिया । यौगंधरायण ने उसका नाम सागरिका रख कर, उसे वासवदत्ता के निकट इस उद्देश्य से रखा कि उदयन उसकी और आकृष्ट हो सके। यहीं से मूल कथा का प्रारंभ होता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संक्षिप्त कथा इस नाटक के प्रथम अंक में वासवदत्ता कामदेव की पूजा करती है। वासवदत्ता के अन्तःपुर में सागरिका (दासी के रूप में रहती हुई रत्नावली) वहां राजा को देख कर उस पर आसक्त हो जाती है। द्वितीय अंक में कदली गृह में सागरिका और राजा की भेंट होती है किन्तु वासवदत्ता के आगमन से सागरिका चली जाती है। तृतीय अंक में राजा और सागरिका के प्रेम को देखकर वासवदत्ता क्रुद्ध होकर सागरिका को बन्दीगृह में डाल देती है। चतुर्थ अंक में ऐन्द्रजालिक की माया से बन्दीगृह में अग्निदाह उत्पन्न होने से सागरिका को वासवदत्ता मुक्त कर देती है। उस समय सिंहलेश्वर का अमात्य वसुभूति और कंचुकी बाभ्रव्य राजभवन में आते हैं और सागरिका को पहचान लेते हैं। तब वासवदत्ता अपनी मामा की पुत्री रत्नावली (सागरिका) का राजा के साथ विवाह संपन्न करती है। इस नाटिका में कुल आठ अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें 1 विष्यम्भक 3 प्रवेशक और 4 चूलिकाएं हैं। - For Private and Personal Use Only "रत्नावली” संस्कृत साहित्य की प्रसिद्ध नाटिकाओं में है, जिसे नाट्यशास्त्रीयों ने अत्यधिक महत्त्व देते हुए अपने ग्रंथों में उद्धृत किया है। इसमें नाट्य शास्त्र के नियमों का पूर्ण रूप से विनियोग किया गया है। "दशरूपक", "साहित्य-दर्पण आदि शास्त्रीय ग्रंथों में इसे आधार बनाकर नाटिका के स्वरूप की चर्चा की गई है तथा इसे ही उदाहरण के रूप में रखा है । (साहित्य दर्पण -3/72) नाटिका के शास्त्रीय स्वरूप की संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 291 - Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो मीमांसा "साहित्य दर्पण" में है (3-269-272) तदनुसार सभी नियमों की पूर्ण व्याप्ति "रत्नावली" में होती है। ___ "रत्नावली' में अंगी रस श्रृंगार है जो धीरललित नायक की प्रणय लीलाओं के चित्रण के लिये सर्वथा उपयुक्त है। विदूषक की योजना द्वारा इसमें हास्य रस की भी सृष्टि की गई है। इनके अतिरिक्त वीर व भयानक रस का भी संचार किया गया है। रत्नावली के टीकाकार - (1) भीमसेन (2) मुद्गलदेव (3) गोविन्द (4) प्राकृताचार्य (5) विद्यासागर (6) के.एन. न्यायपंचानन (7) एस.सी.चक्रवर्ती (8) शिव (9) लक्ष्मणसूरि (10) आर.व्ही. कृष्णमाचार्य (11) एस.एस. राय (12) व्ही.एस, अय्यर (13) नारायण शास्त्री निगुडकर। (क्षेमेन्द्र की नाटिका ललितरत्नमाला की कथावस्तु रत्नावली के समान है)। रत्नावली- ले.-बदरीनाथ शास्त्री। (ई. 20 वीं शती) संस्कृत विद्यामन्दिर, बडौदा से प्रकाशित । बडौदा संस्कृत विद्वत्सभा के पंचम वार्षिकोत्सव मे अभिनीत। यह एक "पुष्पगण्डिका" है जिसका विषय है- राधा-कृष्ण की लीला।। रत्नावली-भद्रस्तव - ले.-सदाक्षर (कवि कुंजर) ई. 17 वीं शती। रत्नाष्टकम् - ले.- पं. अम्बिकादत्त व्यास (शिवराजविजयकार)। रत्नेश्वर-प्रसादनम् (नाटक) - ले.-गुरुराम । ई. 16 वीं शती। उत्तर अर्काट जिले के निवासी। 1939 में प्रकाशित । अंकसंख्यापांच। कथासार - गन्धर्वराज वसुभूति की कन्या रत्नावली सरस्वती से शिक्षा पाती है। वह वाराणसी में निरन्तर शिवलिंग की आराधना करती है। शिव प्रसन्न होकर रत्नचूड को (भोगवती का राजकुमार) उसका पति चुनते हैं। ऐन्द्रजालिक की कला के द्वारा प्रेक्षकों को रत्नचूड रत्नावली की प्रणयगाथा विदित होती है। परंतु सुबाहु नामक दानव भी रत्नावली को चाहता है। रत्नचूड और सुबाहु में युद्ध होता है और नायक रत्नचूड के हाथों प्रतिनायक मारा जाता है। वसुभूति रत्नचूड को कन्या का दान करता है। रमणगीताप्रकाश - ले.-कपालीशास्त्री। गणपतिमुनि कृत रमणगीता की टीका । मूल रमण महर्षि के वचन तमिल भाषा में है। रमणीयराघवम् - ले.-ब्रह्मदत्त । रमावल्लभराजशतकम् - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। आन्ध्र निवासी। रम्भामंजरी - ले.-नयचंद्र सूरि। यह एक सट्टक अर्थात् शंगारिक उपरूपक है। 1889 ई. में निर्णयसागर प्रेस मुंबई द्वारा इसका प्रकाशन हुआ। रम्भारावणीयम् (नाटिका) - ले.-सुन्दरवीर रघूद्वह। ई. 19 वीं शती। इसमें पशुपक्षी पात्र के रूप में है। कई मानव पात्रों को भी शार्दूल, कलकण्ड, दर्दुरक, नीलकण्ठ, कलविंक इ. पशु-पक्षियों के नाम दिये हैं। कथानक में एकसूत्रता का अभाव है। रावण, बाणासुर तथा सहस्रार्जुन को समकालीन बनाया है। अंकसंख्या- चार। मायात्मक प्रवृत्ति की प्रचुरता । रूप बदल कर कई पात्र धोखाघडी में व्याप्त हैं। नलकूवर की पत्नी रम्भा का रावण द्वारा भ्रष्ट होना और नलकूवर द्वारा रावण को शाप देना यह है प्रमुख कथानक । रविवर्मसंस्कृतग्रंथावली - सन 1953 में त्रिपुरणिथुरा (केरल) से सि.के.राम नंबियार के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। त्रिपुरणिथुरा संस्कृत विद्यालय समिति की पत्रिका। वार्षिक मूल्य पांच रु.। इसमें अप्रकाशित ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। प्रत्येक अंक की पृष्ठसंख्या लगभग एक सौ। रविव्रतकथा - ले.-अभय पंडित। ई. 17 वीं शती। 2) ले.- श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। रविसंक्रान्तिनिर्णय - ले. रघुनाथ। पिता- माधव । रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता - अनुवादक- वरदाचार्य । रवीन्द्रनाथ टैगोर के "रिनन्सिऐशन" नामक काव्य का पद्य अनुवाद । अनुवादक- तिरुपति के पास तानपल्ली के निवासी थे। रश्मि - पृष्टिमार्गीय आचार्य पुरुषोत्तमजी के "भाष्य-प्रकाश" की गोपेश्वरकृत व्याख्या। रश्मिमालामन्त्र - श्लोक- लगभग 100। गायत्री आदि मन्त्रों का संग्रहरूप तन्त्रनिर्बन्ध । विषय- ध्यान, मुद्रा आदि के साथ विविध मन्त्रों का निर्देश। रसकर्ममंजरी - ले.-राजाराम तर्कवागीश। पटल- 3। विषयमारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तंभन आदि षट् कर्मों के उचित काल आदि के नियम । त्र्यम्बकादि प्रयोग तथा शान्तिविधि । रसकल्प - रुद्रायामलान्तर्गत, उमा-महेश्वर संवादरूप। विषयपारद से विविध रसों के निर्माण का प्रतिपादन। रसशोधन, रसमारण, सत्वपातन तथा सर्वलौह-द्रुतिपातन इ.। रस-कल्पद्रुम - ले.-चतुर्भुज। 65 प्रस्तावों का साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ। 1000 श्लोक। इनमें से 5-6 श्लोक शाइस्ताखान द्वारा लिखित हैं। रसगंगाधर - ले.-पंडितराज जगन्नाथ। इन्होंने मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश की टीका लिखते समय उनके प्रतिवादन में जो दोष देखे उनसे मुक्त साहित्य-शास्त्रीय ग्रंथ लिखने के उद्देश्य से रसगंगाधर की रचना की। इस ग्रंथ में ध्वनितत्त्व विरोधी युक्तिवादों का खंडन तथा ध्वनिसिद्धान्त की प्रतिष्ठापना प्रमुख उद्देश्य है। अपनी आयु के 58 वें वर्ष में पंडितराज ने इस महान् ग्रंथ का लेखन आरंभ किया। काव्य-प्रयोजनों में अन्य प्रयोजनों के साथ गुरुप्रसाद तथा (2) राजप्रसाद भी प्रयोजन माना है। पूर्वसूरियों के काव्यलक्षणों में दोष दिखाते हुए "रमणीयार्थप्रतिवादकः शब्दःकाव्यम्" यह स्वतंत्र लक्षण बताया गया है। अपने स्वकृत लक्षण की स्थापना करते हुए उन्होंने प्राचीन सभी काव्यलक्षणों का मार्मिकता से खंडन किया है। 292 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिभा शक्ति को काव्यनिर्मिति का एकमात्र हेतु कहते हुए जैसे दूषण देते हैं) के मतों का संपूर्ण रसगंगाधर में कठोर उन्होंने कहा है कि प्रतिभा अदृष्ट (दैवी) और दृष्ट (अर्थात् खंडन किया गया है। अतः अलंकार विवेचन में शायद 124 व्युत्पत्ति) इन दो कारणों से साहित्यिक को प्राप्त होती है। अलंकारों की चर्चा जगन्नाथ ने की भी होती; परंतु दुर्भाग्य रसगंगाधर में काव्य के प्रकार चार माने है। इन प्रकारों वश यह चर्चा 71 वें अलंकार में खंडित हुई। उत्तरालंकार के उदाहरण का श्लोक भी तीन ही चरणों तक हो सका। के उन्होंने जो स्वरचित उदाहरण (संपूर्ण रसगंगाधर में पंडितराज ने स्वरचित उदाहरण ही उद्धृत किए हैं। यह इस ग्रंथ की परंपरागत भारतीय साहित्यशास्त्र में रसगंगाधर का स्थान बहुत अपूर्वता है।) दिये हैं तदनुसार वे रसध्वनिप्रधान काव्य को ऊंचा है। पंडितराज जगन्नाथ का सर्वकष पांडित्य इस महान् उत्तमोत्तम, गुणीभूत-रसध्वनि को उत्तम, गुणीभूत-वस्तुध्वनि को (परंतु अपूर्ण) ग्रंथ में पूर्णतया प्रकट हुआ है। इस महान् ग्रंथ पर काशी के महामहोपाध्याय मानवल्ली गंगाधरशास्त्री की मध्यम और केवल शब्दवैचित्रप्रधान चतुर्थ प्रकार को अधम टीका है। कहा है। (मम्मट ने वाच्य-वैचित्र्य प्रधान काव्य को भी अधम माना है)। रसविषयक चर्चा में अभिनवगुप्त ने भरत नाट्यशास्त्र रसचन्द्रिका - ले.-विश्वेश्वर पाण्डेय। पाटिया (अलमोडा जिला) के छठे अध्याय में निर्दिष्ट सुप्रसिद्ध रससूत्र का अभिनवगुप्ताचार्य ग्राम के निवासी। ई. 18वीं शती (पूर्वार्ध) विषय- नायक-नायिका ने जो विवरण किया है, उसी का प्रायः अनुवाद किया है। भेदों का विवरण। पूर्वाचार्यों के स्वसंमत प्रतिपादन का सारांश देते हुए नव्य मत रस-जलनिधि - ले.-भूदेव मुखोपाध्याय। ई. 19 वीं शती। का सविस्तर निवेदन करते हए अभिनवगप्ताचार्य के प्रतिपादन विषय- औषधि एवं भारतीय रसायनशास्त्र । का विवरण वेदांत की परिभाषा में प्रस्तुत किया है। रस-मीमांसा रसतरंगिणी - ले.-भानुदत्त (भानुकर मिश्र) 8 अध्यायों की के साथ ही स्थायी, विभाव, अनुभाव व्यभिचारि-भाव की चर्चा रसचर्चापरक रचना। इसमें स्थान स्थान पर स्वकृत रसमंजरी करते हुए नव रसों की स्थापना की है। शांतरस-विरोधी मत का निर्देश है। भानुदत्त की निवासभूमि के संबंध में सन्देह का खंडन शागधर कृत संगीत-रत्नाकर के युक्तिवादानुसार निर्माण हुआ है। कुछ पाण्डुलिपियोंमें विदर्भ का उल्लेख है करते हुए, और वैष्णव साहित्याचार्यों द्वारा प्रस्थापित तथा अन्य में विदेह का; पर अन्तरंग में निर्देश है कि गंगा देवतादि-रतिमूलक भक्तिरस का रतिरूप भाव में ही अन्तर्भाव नदी उसके देश से बहती है। करते हुए नौ रसों की स्थापना रसगंगाधर में की गई है। टीका तथा टीकाकारः 1) गंगाराम जादी (या जडी)। गुणों के विवेचन में रसगंगाधर में ओज, प्रसाद और माधुर्य पिता- नारायण। स्वयं की रचना काव्यमीमांसा टीका, लेखनकाल को रसरूप काव्यात्मा के गुण न मानते हुए शब्द और अर्थ ई. स. 1732 1 2) जीवराज (पिता- व्रजराज 17 वीं शती)। के गुण माना गया है। जनन्नाथ का इस विषय में युक्तिवाद 3) दिवाकर, 4) नेमिसाह तथा वेणीदत्त। जीवराज अपनी है कि वेदांतादि दर्शनों में आत्मतत्त्व निर्गुण माना गया है। टीका में गंगाराम की टीका "नौका" का खण्डन कर अपनी अतः काव्य के रसरूप आत्मा को भी निर्गुण ही मानना टीका "सेतु" सरस बताते हैं। चाहिए। असंलक्ष्यक्रमध्वनि (अर्थात् रस-भावादिध्वनि) · का सर्वकष विवेचन करते हुए रस, भाव, रसाभास, भावाभास, रसतरंगिणीसेतु (टीका) - ले.- जीवराज । भावोदय, भावशांति, भावसंधि, भावशबलता, इन विविध ध्वनियों रसनिष्यदिनी - ले.-परित्तियूर कृष्णशास्त्रीगल। रामायण के का स्वरूपलक्षण, तथा सूक्ष्म शास्त्रार्थ करते हुए रसगंगाधर एक भाग की विद्वत्तापूर्ण टीका। समय ई. 19 वीं शती। का प्रथम आनन (प्रकरण) समाप्त किया गया है। द्वितीय रसप्रदीप - ले.- प्रभाकरभट्ट। ई. 16 वीं शती (उत्तरार्ध) आनन में संलक्ष्यक्रम ध्वनि के दस प्रकार (शब्दशक्तिमूलक-2, . काव्यशास्त्रीय ग्रंथ। तीन आलोकों में विभाजित। और अर्थशक्तिमूलक 8) कहे हैं। मम्मटोक्त कविनिबद्धवक्तृ- रसमंजरी - ले.-आचार्य भानुदत्त। ई. 13-14 वीं शती। प्रौढोक्तिसिद्ध व्यंग्यार्थ रसगंगाधर को सम्मत नहीं। "रस-मंजरी" नायक-नायिका भेद का अत्यंत प्रौढ ग्रंथ है। शब्दशक्तिमूलक ध्वनि की चर्चा में अभिधा और लक्षणा इसकी रचना सूत्र शैली में हुई है और स्वयं भानुदत्त ने इस का सविस्तर विवेचन करते हुए अलंकारों का मार्मिक विवेचन : पर विस्तृत वृत्ति लिख कर उसे अधिक स्पष्ट किया है। इस किया है। द्वितीय आनन में उपमा से लेकर उत्तर अलंकार पर आचार्य गोपाल ने 1428 ई. में "विवेक" नामक टीका तक 71 अलंकारों का विवेचन किया है। यह विवेचन अप्पय की रचना की है। आधुनिक युग में कविशेखर पं. बदरीनाथ दीक्षित के कुवलयानंद के अनुसार हुआ है। इसका कारण शर्मा ने "सुरभि" नामक व्याख्या लिखी है जो चौखंबा पंडितराज जगन्नाथ को अप्पय दीक्षित के प्रतिपादन का खंडन विद्याभवन से प्रकाशित है। आचार्य जगन्नाथ पाठक कृत करना था। दीक्षितजी के कुवलयानंद में 124 अलंकारों की इसकी हिन्दी व्याख्या भी वहीं से प्रकाशित हो चुकी है। चर्चा है। अप्पय दीक्षित (जिन्हें जगन्नाथ अवैयाकरण, द्रविडपुंगव भानुदत्त रसवादी आचार्य हैं। अतः उन्होंने अपने "रस-मंजरी" संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 293 For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व रस- तरंगिणी' नामक दोनो ही ग्रंथों में श्रृंगार का रसराजत्व स्वीकार करते हुए अन्य रसों का उसी में अंतर्भाव किया है। उन्होंने रस को काव्य की आत्मा माना है । भानुदत्त ने रस के अनुकूल विकार को भाव कहा है और इन्हें रस का हेतु भी माना है। उन्होंने रस के दो प्रकार माने हैं लौकिक व अलौकिक । लौकिक रस के अंतर्गत शृंगारदि रसों का वर्णन है, और अलौकिक के तीन भेद किये गए हैं- स्वामिक, मानोरथिक तथा औपनायिक। रसमंजरी के टीकाकार (1) महादेव (2) रंगशायी (3) अनंत पण्डित ( 4 ) नागेशभट्ट (5) गोपाल या बोपदेव (6) शेषचिन्तामणि (7) गोपालभट्ट (8) अनन्तशर्मा ( 9 ) व्रजराज, (10) विश्वेश्वर ( 11 ) अज्ञात लेखक । 2) ले. भरतचंद्र राय। ई. 18 वीं शती । रसमंजरी (गद्य प्रबंध) ले. कृष्णदेवराय । रसमंजरी ले. - पूर्णसरस्वती । ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध) | भवभूति के मालती माधव प्रकरण पर टीका । रसमंजरी (टीका) - ले. विश्वेश्वर पाण्डेय । पाटिया (अलमोडा जिला ) ग्राम के निवासी ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध) भानुदत कृत रसतरंगिणी की टीका । 2) ले व्रजराज । रसमंजरीपरिमल - - www.kobatirth.org ले. - चिन्तामणि । - 294 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड इसमें यत्र तत्र तांत्रिक योग का भी वर्णन है । " रस - रत्नाकर " मुख्यतः शोधन, मारण आदि रसायन विद्या के विषयों से पूर्ण है और इसके आरंभ में ज्वरादि की चिकित्सा भी वर्णित है। रसरत्नाकर (या रसेंद्रमंगलम् ) ले. नागार्जुन । ई. 7-8 वीं शती। आयुर्वेदीय रसविद्या का प्राचीनतम ग्रंथ । इसका प्रकाशन 1924 ई. में श्रीजीवराम कालिदास ने गोंडल से किया है। इस ग्रंथ में 8 अध्याय थे किंतु उपलब्ध ग्रंथ खंडित है जिसमें 4 ही अध्याय हैं। इस ग्रंथ का संबंध महायान संप्रदाय से है, और इसका प्रतिपाद्य विषय- "रसायन योग" है। नागार्जुन ने रासायनिक विधियों का वर्णन संवाद शैली में किया है जिसमें नागार्जुन मांडव्य, वटयक्षिणी, शालिवाहन तथा रत्नघोष ने भाग लिया है। ग्रंथ में विविध प्रकार के रसायनों की शोधन - विधि प्रस्तुत की गई है जैसेराजावर्त शोधन, गंधक शोधन, दरद शोधन, माक्षिक से ताम्र बनाना तथा माक्षिक एवं ताप्य से ताम्र की प्राप्ति । पारद व स्वर्ण के योग से दिव्य शरीर प्राप्त करने की विधि भी इसमें दी गई है। रसरत्नाकर (भाण) ले. जयन्त। ई. 19 वीं शती । रसरत्नावली ले. वीरेश्वर पण्डित। ई. 18 वीं शती । रसवतीशतकम् - ले. धरणीधर । शक्तिरूप रसवती के प्रति इसमें 119 श्लोक कहे गये हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसवती ले. जुमरनन्दी । क्रमदीश्वर लिखित संक्षिप्तसारव्याकरण पर वृत्ति । रसमय - रासमणि ले. डॉ. रमा चौधुरी। विषय- अंग्रेजों द्वारा पीडित प्रजा की साहसपूर्वक रक्षा करने वाली विधवा रानी रासमणि का चरित्र । बारह दृश्यों में विभाजित । ले. दाजी शिवाजी प्रधान । रसमाधव - रसरत्नम् ले. म.म.राखालदास न्यायरत्न । मृत्यु - 1921 रसरत्नसमुच्चय रससदनम् (भाण) ले. वाग्भट । पिता सिंहगुप्त। ई. 13 वीं ले. - गोदवर्मा । ई. 18 वीं शती। शती । यह रसायन शास्त्र का अत्यंत उपयोगी एवं विशाल काव्यमाला संख्या 37 में प्रकाशित लोकोक्तियों से भरपूर 1 ग्रंथ है। रसोत्पत्ति, महारसों का शोधन उपरस, साधारण रसों नायक विट की चन्दनलता, मंजुलानना, शृंगारलता, उसकी का शोधन आदि विषय, ग्रंथ के प्रारंभिक 11 अध्यायों में बहन विस्मयलता, इ. वारवनिताओं के साथ केलिक्रीडाएं, वर्णित हैं तथा शेष अध्यायों में ज्वरादि रोगों का वर्णन है । वेश्याओं के स्वभाव का चित्रण कर लोगों को सावधान करने इसमें रसशाला के निर्माण का भी निर्देश है तथा कतिपय हेतु वर्णन की है। अर्वाचीन रोगों का भी वर्णन इसमें है। इसमें खनिजों (रसायनशास्त्र संबंधी) को 5 भागों में विभक्त किया गया है : रस, उपरस, साधारण रस, रत्न तथा लोह । इसका हिन्दी अनुवाद आचार्य अंबिकादत्त शास्त्री ने किया है। रस-रत्नाकर ले. नित्यनाथ सिद्ध । ई. 13 वीं शती । पिताशंखगुप्त माता पार्वती आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ। यह रस शास्त्र का विशालकाय ग्रंथ है जिसमें 5 खंड हैं रस खंड रसेंद्र खंड, वादि खंड, रसायन खंड, एवं मंत्र- खंड इसके सभी खंड प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में औषधि योग का भी वर्णन है पर रसयोग पर विशेष बल दिया गया है । - रसविलास (भाण ) - ले. चोक्कनाथ । ई. 17 वीं शती । 2) प्रबन्ध) ले. भूदेव शुक्ल । गुजरात के निवासी। ई. 17 वीं शती । For Private and Personal Use Only - - 1 - रससर्वस्वम् -कवि- विट्ठल । रससारामृतम् ले. रामसेन विषय वैद्यकीय रसायनशास्त्र । (2) ले भिक्षु गोविंद भगवत् श्रीपाद । ई. 11 वीं शती । आयुर्वेद शास्त्र का यह ग्रंथ रस - शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन करता है। इसके अध्यायों की (संज्ञा अवबोध) संख्या 19 है। प्रथम अवबोध में रसप्रशंसा, द्वितीय में पारद के 18 संस्कारों के नाम तथा स्वेदन, मर्दन, मूर्छन उत्थापन, पातन, रोधन, नियमन व दीपन आदि संस्कारों की विधि वर्णित है। तृतीय व चतुर्थ अवबोध में अभ्रकग्रास की प्रक्रिया एवं अभ्रक के भेद और अभ्रक - सत्त्वपातन का विधान है। पंचम अवबोध Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में गर्भदृति की विधि, छठे में जारण व सातवें में विड-विधि। निरूपण है। दश रूपकों का लक्षणभेद आदि का विस्तृत वर्णित है। इसी प्रकार क्रमशः 19 वें अवबोध तक रसरंजन, विवरण देने के पश्चात् नाटक परिभाषा में भाषा आदि के भेद बीजनिर्वाहण, द्वंद्वाधिकार, संकरबीज-विधान, संकरबीज-जारण, निर्देश के अन्तर्गत पूज्य, समान, कनिष्ठ के सम्बोधन प्रकार बाह्यदृति, सारण, क्रामण, वेधविधान व शरीरशुद्धि के लिये तथा नायक, नायिका, कंचुकी, विदूषक आदि पात्रों के नामकरण रसायन सेवन करने वाले योगों का वर्णन है। इसमें पारद के के निर्देश दिये गये हैं। अन्त में सत्काव्य की प्रशंसा करते संबंध में अत्यंत व्यवस्थित ज्ञान उपलब्ध होता है। इस ग्रंथ हुए ग्रंथ की समाप्ति की गई है। का प्रथम प्रकाशन आयुर्वेद ग्रंथमाला से हुआ था, जिसे - रसाणव-सुधाकर में प्रत्येक बिन्दु को उदाहरण से स्पष्ट यादवजी त्रिकमजी आचार्य ने प्रकाशित कराया था। इसका, किया गया है। उदाहरण संस्कृत साहित्य के विशाल क्षेत्र से हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन, चौखंबा विद्याभवन से हुआ है। लिये गये हैं। इनकी संख्या साढे पांच सौ से भी अधिक रसाकुंश - रहस्यसंहिता के अन्तर्गत देवी-ईश्वरसंवादरूप।। है। इनमें शिंगभूपाल के स्वरचित पद्य भी सम्मिलित हैं, कुछ विषय- रसायनविधि एवं सुवर्ण बनाने की विधि। पटल-6।। तो कुवलयावली से उद्धृत हैं, तथा कुछ कंदर्पसंभव के हो रसामृत-शेष - ले.- विश्वनाथ चक्रवर्ती। ई. 17 वीं शती। सकते हैं। शेष स्फुट मुक्तक पद्य हैं। रसार्णवतरङ्गभाण- ले.- कृष्णम्माचार्य । रंगानाथचार्य के पुत्र। रसिककल्पलता • ले.- मोहनानन्द। विषय- कृष्णचरित्र । रसार्णवसुधाकर - ले.-शिंगभूपाल। गुरु-विश्वेश्वर। , यह रसिकजनमनोल्लास (भाण) - ले.- वेंकट। ई. 19 वीं नाट्यशास्त्र का प्रसिद्ध प्रकरण ग्रंथ है। इसकी रचना दशरूपक शती। तिरुपति के देवता श्रीनिवास के वासंतिक महोत्सव का के आर्दश के अनुसार हुई है। इस ग्रंथ में तीन विलास हैं। वर्णन। विटाचार्य कोक्कोंकोपाध्याय द्वारा विट तथा वारांगनाओं जिनमें क्रमशः 314, 265, 351 श्लोक हैं। विलासों के नाम को दिया जाने वाला प्रशिक्षण इस भाण में चित्रित किया है। हैं : रंजक, रसिक और भावक। प्रथम उल्लास के प्रारंभ में रसिकजन-रसोल्लास (भाण) - ले.-कौण्डिन्य वेंकट। ई. अर्धनारीश्वर एवं वाणी की वंदना और श्लोक 3 से श्लोक 18 वीं शती। 43 तक कवि ने अपने वंश का वर्णन किया है। ग्रंथकर्ता रसिकजीवनम् - ले.- रामानन्द। ई. 17 वीं शती। की प्रवृत्ति, निमित्तता, नाट्यवेद की उत्पत्ति, प्रवर्तक मुनि, रसिक-तिलकम् (भाण) - ले.- मुद्रदुराम। श. 18। प्ररोचना एवं नाट्यलक्षण के विवेचन से विषय का उपक्रम कमलापुरी तंजौर में त्यागराज के वसन्तोत्सव में अभिनीत । किया गया है। रस के अंग, नायक के लक्षण एवं गुणभेद, इसमें विट है रसिकशेखर और नायिका है कनकमंजरी । नायक के साहाय्यक एवं उनके गुण, नायिकाएं एवं उनके रसिक-प्रकाश - ले.- देवनाथ तर्कपंचानन । ई. 17 वीं शती। लक्षण, परिभाषा, भेद, गुण, नायिका, की सहायिकाएं एवं विषय- साहित्यशास्त्र। उनके भेद, एवं गुण, चतुर्विध अलंकार, उद्दीपक दश चित्तज भाव, रीति के लक्षण एवं भेद आदि विषय निरूपित हैं। रसिकबोधिनी - ले.- कामराज दीक्षित। पिता- वैद्यनाथ । वृत्ति-उत्पत्ति तथा भेद-प्रवृत्तियां एवं उनके भेद तथा सात्त्विक रसिकभूषण - ले.- म.म. गणपतिशास्त्री। वेदान्तकेसरी । भाव आदि सोदाहरण विवेचित किये गये हैं। रसिकभूषणम् (भाण) - ले.- उदयवर्मा । ई. 19 वीं शती। द्वितीय विलास में सर्वप्रथम संचारी भाव के विषय में 35 रसिकरंजनम् - ले.-वैद्यनाथ। (2) भाण- ले.- श्रीनिवास । भेद सहित निरूपण किया गया है। व्याभिचारि-भाव की ई. 19 वीं शती। विविधता, उनकी 4 दशाएं, स्थायी के लक्षण, भेद उदाहरण। रसिकविनोद (त्रोटक) - ले.- कमलाकरभट्ट। कालोल स्थायी भावों के विषय में सोड्ढलतनय (शाङ्गधर), भरत,भोज, (गुजरात निवासी) ई. 17 वीं शती। विषय- वल्लभाचार्य के भावप्रकाशकार आदि के मत वर्णित है। श्रृंगार रस की पौत्र गोकुलेश की वैष्णवी विचारधारा का प्रतिपादन। प्रस्तुत अग्रगण्यता का उल्लेख करते हुए श्रृंगार के भेद, विप्रलंभ रूपक में गोकुलेशजी के जीवन के अनेक प्रसंग उल्लिखित के भेद, रागादि का निरूपण, मान के भेद तथा हास्यादि रसों हैं। उनकी गुर्जर देश यात्रा तथा सर्वभेदविरहित वृत्ति का का सांगोपांग सोदाहरण विवेचन करने के पश्चात् रसाभास का 'परिचय इस में मिलता है। गीता-भागवत तथा गोकुलेश के भी विवेचन किया गया है। ग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत रूपक' में दिखाई देता है। तृतीय विलास में नाट्य-रूपक की निष्पत्ति करते हुए नाट्य रसेंद्रचिंतामणि - ले.- ढुण्ढिनाथ। गुरु- कालनाथ। आयुर्वेद के भेद, इतिवृत्ति स्वरूप, त्रिविधता तथा पंचविधता वर्णित हैं। शास्त्र का ग्रंथ। ई. 13-14 वीं शती। यह रस-शास्त्र का पंच संधि एवं संधियों का निरूपण संध्यन्तर सहित किया गया अत्यधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। लेखक के कथनानुसार इस ग्रंथ है। रूपकों में नाटक की प्रधानता, प्रस्तावना, नांदी, भारती, की रचना अनुभव के आधार पर हुई है। इस ग्रंथ का प्ररोचना, आमुख, वीथ्यंग, सूचकों के भेद आदि का सविस्तर प्रकाशन रायगढ़ से संवत् 1991 में हुआ था जिसे वैद्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 295 For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मणिशर्मा ने स्वरचित संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित किया था। राकागम - ले.- गागाभट्ट। ई. 17 वीं शती। पिता- दिनकर रसेन्द्रचिन्तामणि - ले.- रामचंद्र गुह। विषय- आयुर्वेद । भट्ट। जयदेवकृत चंद्रालोक पर टीका । रसेन्द्रचूडामणि - ले.- सोमदेव। ई. 12-13 वीं शती। यह रागकल्पद्रुम - ले.- पं. कृष्णानन्द व्यास। ई. 19 वीं शती। . आयुर्वेदीय रस-शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके वर्णित विषय विषय- संगीतशास्त्र। हैं- रसपूजन, रसशाला-निर्माणप्रकार, रसशाला-संग्राहण, परिभाषा रागकल्पद्रुमांकुर - ले.- अप्पातुलसी (या काशीनाथ)। मूषापुटयंत्र, दिव्यौषधि, औषधिगण, महारस, उपरस, साधारण समय- ई. 19-20 वीं शती। विषय- संगीतशास्त्र। रस, यत्नधात् तथा इनके रसायनयोग एवं पारद के 18 संस्कार। रागतरंगिणी - ले.- लोचनपण्डित। विषय- संगीतशास्त्र । इस ग्रंथ का प्रकाशन लाहोर से संवत् 1989 में हुआ था। .. रागतालपारिजात-प्रकाश - ले.- गोविन्द । विषय-संगीतशास्त्र । रसेन्द्रसारसंग्रह - ले.- म.म. गोपालभट्ट। ई. 13 वीं शती। . रागतत्त्वावबोध - ले.- श्रीनिवासपण्डित । विषय- संगीतशास्त्र । यह आयुर्वेद रस-शास्त्र का अत्यंत उपयोगी ग्रंथ है। इसमें रागनारायण - ले.- पुण्डरीक विट्ठल, जो हिंदुस्थानी तथा पारद का शोधन, पातन, बंधन, मूर्छन, गंधक, के शोधन कर्नाटकी संगीत के बडे जानकार थे। ई. 16 वीं शती। मारण आदि का वर्णन है। इसकी लोकप्रियता बंगाल में अधिक है। इसके दो हिंदी अनुवाद हए हैं : 1) वैद्य धनानंद . रागमंजरी - ले.- विट्ठल पुंडरीक। संगीतशास्त्र से संबंधित कृत संस्कृत-हिंदी टीका और 2) गिरिजादयालु शुक्लकृत हिंदी ग्रंथ। इस ग्रंथ की रचना राजा मानसिंग के आश्रय में हुई। अनुवाद। इसके पूर्व बुरहानुपूर के राजा बुरहानखान आश्रय में श्री, रसोपनिषद् - श्लोक- 4001 अध्याय (विरतियाँ) 25। पुंडरीक सद्रागचंद्रोदय नामक ग्रंथ की रचना कर चुके थे। विषय- रसोपनिषद् शास्त्र की शिष्य-परम्परा प्रतिपादन पूर्वक इस ग्रंथ ने उत्तर हिन्दुस्तानी संगीतपद्धति में फैली अव्यवस्था को दूर करते हुए, उसे अनुशासनबद्ध स्वरूप प्रदान किया रसायनविधि। था ।परिणाम स्वरूप संगीतशास्त्रज्ञ के रूप में पुंडरीक की ख्याति रहस्यटीका - ले.-श्रीजयसिंह मिश्र। श्लोक- 345 । सर्वत्र फैली। अतः सन 1599 में अकबर बादशाह ने पुंडरीक रहस्यत्रयसाररत्नावली - ले.- रंगनाथचार्य । को अपने आश्रय में दिल्ली बुलवा लिया। वहां पर उन्होंने रहस्यदीपिका (अपरनाम-तिलक तथा जयरामी) - ले. रागमाला तथा नृत्यनिर्णय नामक ग्रंथों की रचना की। इस जयराम न्यायपंचानन । ई.17 वीं शती । काव्यप्रकाश पर टीका। प्रकार इन ग्रंथों के द्वारा जहां एक ओर संगीतशास्त्र व नृत्य रहस्यनामसहस्रविवृत्ति - ले.- बुद्धिराज। श्लोक- लगभग- कला की श्रीवृद्धि हुई, वहीं पुंडरीक विट्ठल को विपुल सम्मान 3001 भी प्राप्त हुआ। रहस्य-प्रकाश - ले.-जगदीश। ई. 16 वीं शती। काव्यप्रकाश रागमाला - ले.- ग्रंथकार पुंडरीक विट्ठल के इस ग्रंथ की पर टीका। रचना, बादशाह अकबर के आश्रय में सन् 1599 में हुई। रहस्यातिरहस्यपुरश्चरण - श्लोक- 100 । विषय- श्मशान आदि इस ग्रंथ में विट्ठल पुंडरीक ने रागों के वर्गीकरण हेतु में विशिष्ट पुरश्चरण की विधि। परिवार-राग-पद्धति अपनाई है। यह पद्धति रागों में दिखाई रहस्यामृतम् (महाकाव्य) - ले.- बाणेश्वर विद्यालंकार। ई. देने वाली स्वर-समानता के तत्त्व पर आधारित है। विद्वानों के 17 वीं शती। विषय- शिव-पार्वती विवाह का कथानक। मतानुसार इस प्रकार रागों के वर्गीकरण की पद्धति अन्य सर्गसंख्या- बीस। तत्सम पद्धतियों की अपेक्षा अधिक सयुक्तिक है। दाक्षिणात्य रहस्यार्णव - ले.- वनमाली। त्रिगर्त (लाहोर) देशाधिपति संगीत को ध्यान में रखते हुए पुंडरीक ने एक नवीन पद्धति जयचन्द्र नरेन्द्र की प्रेरणा से विरचित। गुरु- हृदयानन्द । पटल का निर्माण किया। 2) ले.- क्षेमकर्ण । सन 1570 में रचना। 15, विषय- गुरुक्रमविधान । त्रिविध भाव निर्णय, कुमारीपूजन 3) ले.- कृष्णदत्त कविराज । ई. 16 वीं शती। 4) ले.- जीवराज । (कुमारिका-कल्प) कुचार (समयाचार), पीठपूजाविधि, रागरत्नाकर - ले.- गंधर्वराज। निशीथपूजापद्धति, पाण्डवमहापूजापद्धति, द्रौपदी-संस्कार, रागलक्षणम् - ले.- रामकवि । पुरश्चर्याक्रम, चिसाडीपटल, बलिदानविधि, विभूति-धारणविधि, रागविबोध - ले.- सोमनाथ । इ.स. 1609 में रचित आर्यावृत्त अन्तर्याग विधि, योगवर्णन, रहस्योक्त, द्रव्यशोधनविधान इ.।। का अच्छा प्रबंध। वीणा के प्रकार तथा उन पर बजाने के विविध तंत्रों का अवलोकन कर यह ग्रंथ संगृहीत किया गया है। लिये रागों के विवरण इसका विषय है। रहस्योच्छिष्टसुमुखीकल्प (नामान्तर-रहस्योच्छिष्ट-गणपति रागविराग (प्रहसन) - ले.- जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894 । कल्प) - शिव-पार्वती संवादरूप। विषय- उच्छिष्टगणपति तंत्र रचनाकाल- सन 1959। कथासार - संगीतविद्वेषी राजा को के ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति का वर्णन। जब विदित होता है कि संगीत के प्रभाव से राजकुमार पिता 296/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की हत्या करने से तथा राजकुमारी प्रियकर के साथ भाग जाने से विरत हो गयी, तब वह प्रभावित होता है और अपने राज्य में संगीत पर से निर्बंध हटा देता है। राघवचरितम् - ले.-सीताराम पर्वणीकर। ई. 18 वीं शती।। जयपुरनिवासी महाराष्ट्रीय पंडित। 2) ले.- आनन्द नारायण (पंचरत्न कवि) ई. 18 वीं शती। सर्ग- 12 । राघवनैषधीयम् - ले.- हरदत्त। पिता- जयशंकर। ई. 15 वीं शती। इस काव्य में केवल दो सर्गों में श्लिष्ट रचना द्वारा राम और नल की कथा का निवेदन है। राघव-पांडवीयम् (श्लेषमय महाकाव्य) - ले.- माधवभट्ट । कविराज उपाधि से प्रसद्धि । पिता- कीर्तिनारायण। इस महाकाव्य में कवि ने आरंभ से अंत तक एक ही शब्दावली में रामायण और महाभारत की कथा कही है। कवि ने प्रस्तुत काव्य में खयं को सुबंधु तथा बाणभट्ट की श्रेणी में रखते हुए अपने को "भंगिमामयश्लेष-रचना" की परिपाटी में निपुण कहा है तथा यह भी विचार व्यक्त किया है कि इस प्रकार का कोई चतुर्थ कवि है या नहीं इसमें संदेह है। 1/41/। इस महाकाव्य में 13 सर्ग हैं। सभी सर्गों के अंत में "कामदेव" शब्द का प्रयोग किया गया है क्यों कि इसके रचयिता जयंतीपुर में कादंब-वंशीय राजा कामदेव के (शासनकाल 1182 से 1187 तक) कवि थे। इसमें प्रारंभ से लेकर अंत तक रामायण व महाभारत की कथा का श्लेष के सहारे निर्वाह करते हुए राम पक्ष का वर्णन युधिष्ठिर पक्ष के साथ एवं रावण पक्ष का वर्णन दुर्योधन पक्ष के साथ किया गया है। ___ "राघव-पांडवीय" में महाकाव्य के सारे लक्षण पूर्णतः घटित हुए हैं। राम व युधिष्ठिर धीरोदत्त नायक हैं तथा वीर रस अंगी है। यथासंभव सभी रसों का अंगरूप से वर्णन है। ग्रंथारंभ में नमस्क्रिया के अतिरिक्त दुर्जनों की निंदा एवं सज्जनों की स्तुति की गई है। संध्या, सूर्येदु मृगया शैल, वन एवं सांगर आदि का विशद वर्णन है। विप्रलंभ, संभोग श्रृंगार, स्वर्गनर्क, युद्धयात्रा, विजय, विवाह, मंत्रणा, पुत्र-प्राप्ति तथा अभ्युदय का इस महाकाव्य में सांगोपाग वर्णन किया गया है। इसके प्रारंभ में राजा दशरथ एवं राजा पंडु दोनों की परिस्थितियों में साम्य दिखाते हुए मृगयाविहार, मुनि-शाप आदि बातें बडी कुशलता से मिलाई गई हैं। पुनः राजा दशरथ व राजा पंडु के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा मिश्रित रूप में कही गई है। तदनंतर दोनों पक्षों की समान घटनाएं वर्णित हैं। विश्वामित्र के साथ राम का जाना और युधिष्ठिर का वारणावत नगर जाना, तपोवन जाने के मार्ग में दोनों की घटनाएं मिलाई गई हैं। ताडका और हिंडिबा के वर्णन में यह साम्य दिखाई पडता है। द्वितीय सर्ग में राम का जनकपुर के स्वयंवर में तथा युधिष्ठिर का पांचाल-नरेश द्रुपद के यहां द्रौपदी के स्वयंवर में जाना वर्णित है। फिर राजा दशरथ व युधिष्ठिर के यज्ञ करने का वर्णन है। पश्चात् मंथरा द्वारा राम के राज्यापहरण और द्यूतक्रीडा के द्वारा युधिष्ठिर के राज्यापहरण की घटनाएं मिलाई गई है। अंत में रावण के दसों शिरों के कटने तथा दुर्योधन की जंघा टूटने का वर्णन है। अग्नि-परीक्षा से सीता का अग्नि से बाहर होने एवं द्रौपदी का मानसिक दुःख से बाहर निकलने के वर्णन में साम्य स्थापित किया गया है। इसके पश्चात् एक ही शब्दावली में राम व युधिष्ठिर के राजधानी लौटने तथा भरत एवं धृतराष्ट्र से मिलने का वर्णन है। कवि ने राघव और पांडव पक्ष के वर्णन को मिलाकर अंत तक काव्य का निर्वाह किया है परंतु समुचित घटना के अभाव में कवि उपक्रम के विरुद्ध जाने के लिये बाध्य हुआ है। उदा. 1) रावण के द्वारा जटायु की दुर्दशा से मिलाकर भीम के द्वारा जयद्रथ की दुर्दशा का वर्णन। 2) मेघनाद के द्वारा हनुमान् के बंधन से, अर्जुन के द्वारा दुर्योधन के अवरोध का मिलान। (3) रावण के पुत्र देवांतक की मृत्यु के साथ अभिमन्यु के वध का वर्णन। (4) सुग्रीव के द्वारा कुंभराक्षस वध से कर्ण के द्वारा घटोत्कच-वध का मिलान आदि । कविराज की इस श्लेषमय रचना का पंडित-कवियों को विशेष आकर्षण रहा जिसके फलस्वरूप दो, तीन, पांच, सात चरित्र एक ही शब्दावली में गुंफित करने वाले कुछ सन्धान महाकाव्य संस्कृत साहित्य में निर्माण हुए। राघवपांडवीयम् के टीकाकार- ले.-1) लक्ष्मण (2) रामभद्र (3) शशधर (4) प्रेमचन्द्र तर्कवागीश (5) चरित्रवर्धन (6) पद्मनंदी, (7) पुष्पदत्त और (8) विश्वनाथ । राघव-यादव-पाण्डवीयम् - ले.-चिदम्बरकवि। ई. 17 वीं शती। इसमें रामायण, भागवत एवं महाभारत की कथाएं श्लेषमय पद्यरचना में ग्रथित की है। कवि के पिता- अनंत नारायण ने इस काव्य पर पाण्डित्य पूर्ण टीका लिखी है। राघवानन्दम् (नाटक) - ले.- वेङ्कटेश्वर । ई. 18 वीं शती। रंगनाथ मन्दिर में अभिनीत । अंकसंख्या- सात। राम के वनवास से लेकर रावणविजय के बाद अयोध्या में आगमन तक की कथावस्तु वर्णित है। मूल कथानक में बहुविध परिवर्तन है। कृत्रिम, अदृश्य तथा रूप बदलने वाले पात्रों की भरमार । वीर के साथ अद्भुत तथा भयानक रस का संयोग। विकसित चरित्र-चित्रण। अपभ्रंश और मागधी भाषा का प्रयोग । वर्णनात्मक पद्य तथा एकोक्तियों की बहुलता इस की विशेषता है। राघवाभ्युदयम् (नाटक) - ले.- भगवन्तराय। पिता- गंगाधर अमात्य । त्र्यम्बकराय मखी के द्वारा सम्पादित यज्ञ के अवसर पर प्रथम अभिनीत । सन 1681। सात अंकों में कुल पात्र संख्या 28, जिनमें पुरुष पात्र 23 हैं। विश्वामित्र के साथ राम के प्रयाण से लेकर रावणविजय के पश्चात् राम के राज्याभिषेक तक की कथावस्तु । मूल कथा में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। राघवीयम् (महाकाव्य) - ले.- रामपाणिवाद । केरल-निवासी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 297 For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई. 18 वीं शती। सर्गसंख्या 201 हुआ। इस तरंग में 1001 ई. तक की घटनाएं 1731 पद्यों राघवेन्द्रविजयम् - ले.- नारायण कवि। विषय- माध्व संप्रदायी में वर्णित हैं। कवि, राजा हर्ष की हत्या तक का वर्णन इस आचार्य राघवेन्द्र का चरित्र । सर्ग में करता है। अंतिम तरंग अत्यंत विस्तृत है तथा इसमें राघवोल्लासम् - ले.- पूज्यपाद देवानन्द । 3449 पद्य हैं। इसमें कवि उच्छल के राज्यारोहरण से लेकर 2) ले.- अद्वैतराम भिक्षु । अपने समय तक की राजनीतिक स्थिति का वर्णन करता है। इस विवरण से ज्ञात होता है कि "राजतरंगिणी" में कवि ने राजकल्पगुम - ले.- राजेन्द्र विक्रमदेव शाह। 14 पटलों में । पूर्ण। विषय - दीक्षा-प्रयोग, पुरश्चरण-निर्णय, द्वारपूजादि अत्यंत लंबे काल तक की घटनाओं का विवरण दिया मातृकान्यासान्त, पीठपूजादि लोकपालान्त पूजा कथन, अग्नि का है। इसमें सभी विवरण जनश्रुतियों को आधार मानकर बनाये गये हैं। पर जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए वैसे वैसे उनके प्रादुर्भाव, हवन, यजुर्वेद विधानोक्त धनुर्वेद मंत्रदीक्षा प्रकरण, विवरणों में ऐतिहासिक तथ्य आ गये हैं और कवि वैज्ञानिक पूजापटल इ.। ढंग से इतिहास प्रस्तुत करने की स्थिति में आ गये हैं। ये राजकौस्तुभ (अपर नाम राजधर्मकौस्तुभ) - ले.- अनंत विवरण पौराणिक या काल्पनिक न होकर विश्वसनीय व प्रामाणिक देवभट्ट । पिता- आपदेव । ई. 17 वीं शती । प्रतिष्ठान (महाराष्ट्र) हैं। हिंदी अनुवाद सहित राजतरंगिणी का प्रकाशन पंडित निवासी। राजनीति-शास्त्र का प्रसिद्ध निबंध-ग्रंथ। 4 खंडों में (जिन्हें दीधिति कहा गया है) विभक्त । प्रथम दीघिती में 16 पुस्तकालय, वाराणसी से हो चुका है। अध्याय, द्वितीय में 12 अध्याय, तृतीय में 25 अध्याय, और ___ कल्हण के इस महाकाव्य में काव्यशास्त्रीय गुणों का अत्यंत संयत रूप से ही प्रयोग किया गया है। कथावस्त के विस्तार चतुर्थ दीघिती में 35 अध्याय हैं। इस प्रकार इसमें कुल 88 अध्याय हैं जिनमें राजधर्म-विषयक विविध पद्धतियां वर्णित व वर्ण्य विषय की विशदता के कारण ही कवि ने अलंकारों हैं। इस निबंध की रचना का प्रमुख उद्देश्य है "राजाओं को एवं विचित्र प्रयोगों से स्वयं को दूर रखा है। "राजतरंगिणी" उनके व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक कर्त्तव्यों के विधिवत् पालन में इतिहास का प्राधान्य होने के कारण इसकी रचना वर्णनात्मक हेतु पथप्रदर्शन एवं निर्देशन"। अनंतदेव चंद्रवंशीय राजा शैली में हुई है; पर यत्र तत्र आवश्यकतानुसार, वार्तालापात्मक व संभाषणात्मक शैली का भी आश्रय लिया गया है। कहीं-कहीं बहादुरचंद्र के सभापंडित थे। उन्हीं के आदेश से इस ग्रंथ की रचना हुई है। अनंत देव ने राजधर्म के पूर्वस्वीकृत सिद्धांतों शैलीगत दुरूहता दिखाई पडती है परंतु ऐसे स्थल बहुत ही कम हैं। राजतरंगिणी में शांत रस को रसराज मानकर उसका का समावेश करते हुए “राजधर्म कौस्तुभ' की रचना की है। वर्णन किया गया है। (राज, 1/37 व 1/23)। अलंकारों राजतरंगिणी - ले.-महाकवि कल्हण। संस्कृत का उल्लेखनीय के प्रयोग में कवि ने सराहनीय कौशल प्रदर्शित किया है ऐतिहासिक महाकाव्य। इसमें 8 तरंग हैं जिनमें काश्मीर के और नये-नये उपमानों का प्रयोग कर अपने अनुभव की नरेशों का इतिहास वर्णित है। कवि ने प्रारंभ काल से लेकर _ विशालता का परिचय दिया है। अपने समकालीन (12 वीं शताब्दी) नरेश तक का वर्णन इसमें किया है। इसकी प्रथम तरंग में 53 नरेशों का वर्णन राजतरंगिण्यां चित्रिता भारतीया संस्कृति :- ले.- डॉ. सुभाष है। यह वर्णन पौराणिक गाथाओं पर आधारित है तथा उसमें वेदालंकार। शोधप्रबंध। मूल्य-80 रु. । कल्पना का भी आश्रय लिया गया है। इसका प्रारंभ विक्रमपूर्व राजधर्मकौस्तुभ (देखिए राजकौस्तुभ) - ले.- अनन्त 12 सौ वर्ष के गोविंद नामक राजा से हुआ है जिसे कल्हण देवभट्ट प्रतिष्ठानवासी। विषय- पौराणिक मंत्रों संहित राज्यभिषेक युधिष्ठिर का समसामयिक मानते हैं। इन वर्णनों में कालक्रम की विधि तथा प्रयोग। पर ध्यान नहीं दिया गया है और न इनमें इतिहास व पुराण राजधर्मसारसंग्रह - ले.- तंजौर के अधिपति तुलाजिराज में अंतर ही दिखाया गया है। चतुर्थ तरंग में कवि ने भोसले। सन् 1765-1788 । कर्कोट-वंश का वर्णन किया है यद्यपि इसका भी प्रारंभ राजनीति - ले.-भोज। 2) ले.- हरिसेन । काशीनिवासी। 3) पौराणिक है, पर आगे चलकर इतिहास का रूप मिलने लगा ले.- देवीदास। है। 600 ई. से लेकर 855 तक दुर्लभवर्धन से अनंगपीड तक के राजाओं का इसमें वर्णन है। इस वंश का अंत राजनीतिप्रकाश - ले.-रामचंद्र अल्लडीवार । सुखवर्मा के पुत्र अवंतीवर्मा द्वारा पराजित होने के बाद हो 2) ले.- मित्र-मिश्र। (वीरमित्रोदय ग्रंथ का एक अंश)। जाता है। 5 वीं तरंग से वास्तविक इतिहास प्रारंभ होता है चौखंबा संस्कृत सीरीज द्वारा प्रकाशित । जिसका आरंभ अवंतीवर्मा केवर्णन से होता है। 6 वी तरंग राजनीतिशास्त्रम् - ले.- चाणक्य। 8 अध्याय एवं लगभग में 1003 ई. तक का इतिहास वर्णित है जो रानी दिद्दा के 566 श्लोक। भतीजे से प्रारंभ होता है और जिससे लौर वंश का प्रारंभ राजपुत्रागमनम् - ले.- पं. हृषीकेश भट्टाचार्य। 298 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजभक्तिमाला - कवि- नरसिंहदत्त शर्मा। अमृतसर के निवासी । 1929 ई. में लिखित। राजभूषणी - (नृपभूषणी) - ले.- रामानान्दतीर्थ । मनुस्मृति की कुल्लूक कृत टीका का उल्लेख इसमें है। विषयराजनीतिशास्त्र। राजमार्तण्ड - ले.- (भोज) । विषय- धर्मशास्त्रसंबंधी ज्योतिष, मुहूर्त व्रतबन्धकाल, विवाहशुभकाल, विवाहराशियोजन विधि, संक्रातिनिर्णय, दिनक्षय, पुरुषलक्षण, मेषादिलग्नफल। राजयोगभाष्यम् - ले.- पातंजल योगसूत्रों पर डॉ. चिं. त्र्यं. केंघे द्वारा लिखित भाष्य। लेखक का अध्ययन पुणे में हुआ और अनेक वर्षों तक अलिगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्राध्यापक रहे। राजयोगसारसूत्रम् - ले.- गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंहशास्त्री। माता- नरसांबा । राजराजेश्वरनित्यदीपविधिक्रम- ले.- हरिराम। श्लोक- लगभग 250। लिपिकाल- 1818 विक्रमसंवत्। शिव-पंचाक्षरमन्त्रविधि भी इसमें संनिविष्ट है। राजराजेश्वरस्य राजसूयशक्ति-रत्नावली- ले.- ईश्वरचन्द्र शर्मा। कलकत्ता-निवासी। सप्तम एडवर्ड के सम्बन्ध में सात सर्गो का काव्य। राजराजेश्वरीपूजाविधि - श्लोक लगभग-4001 राजलक्ष्मीपरिणयम् (प्रतीकनाटक) ले- शोभनाद्रि अप्पाराव। (शासनकाल-1860-1880) ई. । लेखक के पिता के राज्याभिषेक की कथा इसका विषय है। राजविनोदकाव्यम् - ले.- कवि उदयराज । रामदास का शिष्य तथा प्रयागदत्त के पुत्र । सात सर्गो के इस काव्य में गुजरात के सुलतान बेगडा महंमद का स्तुतिपूर्ण वर्णन है। राजसूयचम्पू - ले.- नारायणभट्टपाद । राजसूय-सत्कीति-रत्नावली (लघुकाव्य)- ले.- ईशानचन्द्र सेन । विषय- पंचम जार्ज के राज्याभिषेक की प्रशस्ति । राजसूर्जनचरितम् - जनमित्र के पुत्र, चन्द्रशेखर तथा गौड मित्र इस काव्य के रचनाकार हैं। इसमें आश्रयदाता सूर्जनराज का चरित्र 20 सों में वर्णित है। राजहंसीयनाटकम् - ले.-मुडुम्बी वेङ्कटराम नरसिंहाचार्य । राजहंसीयप्रकरणम् - ले.- नरसिंहाचार्य स्वामी। रचना काल सन 1881 के लगभग। प्रथम अभिनय. गोविंद के कल्याण महोत्सव में। गीतों का बाहूल्य । नायक युववर्मा। नायिका कटिश्वर कृष्ण की कन्या राजहंसी। शृंगार- प्रधान रचना है। विवाहपूर्व पुत्रोत्पत्ति, रंगमंच पर नायक का स्थान, भोजन आदि असाधारण घटनाओं का चित्रण इसमें हुआ है। राजाङ्ग्लमहोद्यानम्- ले.- अनन्त । राजाभिषेकप्रयोग (राज्याभिषेकप्रयोग)- ले.- गागाभट्ट काशीकर। पिता- दिनकर भट्ट। ई. 17 वीं शती। इसी प्रयोग के अनुसार शिवाजी महाराज का वैदिक राज्याभिषेक समारोह संपन्न हुआ। ऐतिहासिक महत्त्व का ग्रंथ।। राजारामचरितम्- ले.- केशव पण्डित। 5 सर्ग। औरंगजेब के आक्रमण काल में स्वातंत्र्यरक्षा के लिये छत्रपति राजाराम ने कर्नाटक में रहकर किये प्रयत्नों का वर्णन । राजारामशास्त्रिचरितम् - ले.- म. म. मानवल्ली गंगाधर शास्त्री। लेखक के गुरु का पद्यमय चरित्र । राजेन्द्रप्रसादचरितम् - ले.- वा. अ. लाटकर। शारदागौरव ग्रंथमाला (पुणे), द्वारा प्रकाशित। राजेन्द्रप्रसादप्रशस्ति- ले. भट्ट श्रीपद्मनाभ । ग्वालियर निवासी । यह एक परम्परागत शैली में ग्रथित प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की प्रशस्ति है। प्रकाशन ई. 1955 में हुआ। राज्याभिषेकम् (महाकाव्य)- ले.- यादवेश्वर तर्करत्न। विषयसप्तम एडवर्ड के राज्याभिषेक का वर्णन। सन् 1902 ई. में प्रकाशित। राज्याभिषेककल्पतरु - ले.-निश्चलपुरी। ई. 17 वीं शती। राज्याभिषेक विषयक तांत्रिक ग्रंथ। छत्रपति शिवाजी महाराज के तांत्रिक राज्याभिषेक निमित्त लिखा हुआ ग्रंथ। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका महत्त्व है। राज्याभिषेक-पद्धति - ले.- शिव। पिता- विश्वकर्मा । ___ (2) दिनकरोद्योत का एक भाग। (3) ले.- अनन्त देव । राज्याभिषेक प्रयोग - ले.- रघुनाथ। पिता- माधवभट्ट । 2) ले.- कमलाकर। पिता- रामकृष्ण । राज्यव्यवहारकोश - ले.- रघुनाथ शास्त्री हणमन्ते। ई. 17 वीं शती। चिरकालीन स्थिर यावनी सत्ता से अभिभूत प्रादेशिक भाषाएं विकृत हुई थीं एवं संस्कृत भाषा को ग्लानि आयी थी। स्वराज्य स्थापनोपरान्त शिवाजी महाराज ने यवनराज्य में प्रसृत उर्दू-फारसी के शब्दों के उच्चाटन कर अनेक स्थान पर संस्कृत प्रचलित करने की आकांक्षा से यह कोश निर्माण करवाया। अतः इस का ऐतिहासिक महत्त्व माना जाता है। राज्ञीदेवीपंचागम्- 1) श्लोक- 2521 2) श्लोक- 532 । राज्ञी दुर्गावती (संगीतिका)- ले.- श्रीराम वेलणकर। जन 1964 में दिल्ली आकाशवाणी से प्रसारित गढामंडला की वीर रानी दुर्गावती (1525-1564 ई.) की चरित्र गाथा। प्राकृत का अभाव। राज्ञीनित्यपूजापद्धति- दो भागों में विभक्त। प्रथम भाग में राज्ञी देवी के उपासक के करणीय स्नान, संध्या, तर्पण, इ. प्रातःकृत्यों का उल्लेख। द्वितीय भाग में राज्ञी देवी की पूजाविधि वर्णित है। राणायणीयसंहिता - सामवेद की राणायणीय शाखा की संहिता संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 299 For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra का गान महाराष्ट्र और द्रविड जाति में प्रचलित है। उच्चारण और गान की दृष्टि से यह कौम संहिता से थोडी मधुर और भिन्न भी है। बौधायन सूत्रानुसार यज्ञ कराने वाले इसी शाखा का ग्रहण करते है। राणायणीय शाखा का ब्राह्मण, कल्पसूत्र इत्यादि वाङ्मय उपलब्ध नहीं है व राणायणीयों के खिलों का एक पाठ शांकर (शारीरक) भाष्य में (3-3-23) मिलता है। राणायणीयों के उपनिषद् का भी उल्लेख है । राणकोजीवनी टीका ले. अनन्त भट्ट | राधाकृष्णमाधुरी- ले. अनन्यदास गोस्वामी । राधातन्त्रम् - कौलसंप्रदाय से संबध्द । पटल - 35। राधाप्रियशतकम् ले. कविशेखर राधाकृष्ण तिवारी सोलापूर निवासी वैष्णव संप्रदायी । www.kobatirth.org राधामाधवम् (नाटक) ले. राघवेन्द्र कवि । ई. 1717 में लिखित अंकसंख्या सात प्रथम अभिनय रासोल्लास महोत्सव के अवसर पर राधा-कृष्ण के विलास का कथानक निबध्द । प्रधान रस- शृंगार । • राधामाधवविलासचंपू ले जयराम पिण्ड्ये विषय शिवाजी के पिता शाहजी राजा भोसले की स्तुति ऐतिहासिक प्रमाण की दृष्टि से यह ग्रंथ बडा महत्त्वपूर्ण है। छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शाहजी जब बंगलोर (कर्नाटक) में शासक के रूप में स्थिर हुए तभी से जयराम उनके आश्रित कवि थे किंतु श्री. के. व्ही. लक्ष्मणराव के मतानुसार उन्होंने राधामाधवविलासचंपू की रचना शाहजी के पुत्र एकोजी के शासन काल में की थी। दस उल्लास व एक परिशिष्ट मिलाकर इस चंपू के 11 भाग हैं। पहले 5 उल्लसों में राधाकृष्ण का वर्णन तथा आगे के 5 उल्लासों में राजा शाहजी की प्रशंसा है। प्रस्तुत चंपू के 10 वें उल्लास तक का भाग संस्कृत भाषा में है। राजा शाहजी तथा अन्य राजपुरुषों के सम्मुख स्वयं जयराम एवं दूसरे कवियों ने संस्कृत के अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं में जो कवित्व व समस्यापूर्तियों निर्माण की, वह सामग्री प्रस्तुत काव्य ग्रंथ के परिशिष्ट भाग में संकलित की गई है। इस ग्रंथ में कवि जयराम ने राजा शाहजी की नल, नहुष, भगीरथ, हरिश्र्चंद्र प्रभृति पुण्यश्लोक महापुरुषों से केवल तुलना ही नहीं की अपि तु श्रीकृष्ण के समान शाहजी ने भूमि का भार हरण करने का व्रत लिया हुआ था, ऐसा कहा है। इस से शाहजी की राजनीति का महत्त्व उजागर होता है। शाहजी के दैनिक जीवनक्रम का जयराम द्वारा किया गया वर्णन वैशिष्ट्यपूर्ण है और उससे राजा शाहजी की ध्ययेनिष्ठा स्पष्ट होती है। राधामानतरंगिणी - ले.- नन्दकुमार शर्मा । रचनाकाल - 1639 ईसवी । नवद्वीप नरेशचन्द्र के समाश्रय में लिखित बंगाली कीर्तन शैली में इस की रचना हुई है। I 300 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - राधारसमंजरी ले. चैतन्यचंद्र । राधारहस्यम् (काव्य)- ले. कृष्णदत्त । ई. 18 वीं शती । राधाविनोदम् ले दिनेश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 2) ले. रामचंद्र । पिता जर्नादन। इस काव्य पर त्रिलोकीनाथ तथा भट्टनारायण की टीकाएं हैं। 3) ले. गंगाधर शास्त्री मंगरुलकर नागपुर निवासी ई. 19 वीं शती । राधासुधानिधि - ( या राधारससुधानिधि) - ले. - हितहरिवंशजी । राधावल्लभीय संप्रदाय के प्रवर्तक । 270 पद्यों का यह काव्य राधारानी की प्रशस्त प्रशस्ति है। राधा के सौंदर्य सेवाभाव तथा परिचर्यात्य का मार्मिक वर्णन करते हुए हितहरिवंशजी ने प्रस्तुत ग्रंथ मे अपनी उत्कृष्ट भक्ति एवं काव्य-प्रतिभा को मूर्तरूप दिया है। हिन्दी अनुवाद के साथ इसका प्रकाशन बाबा हितदास ने “बाद" नामक ग्राम (जिला-मथुरा) से किया है। हितहरिवंशजी, नित्य विहारिणी राधा को ही अपनी इष्ट देवता मानते हैं। वे ही उनकी सेव्या-आराध्या हैं, अन्य कोई नहीं। राधासौन्दर्यमंजरी से सुबालचन्द्रचार्य रामकथाचम्पू- ले. नारायण भट्टपाद । रामकथामृतम्- ले. गिरिधरदास। रामकथासुधोदयम् ले श्रीशैल श्रीनिवास रामकथासुधोदयचम्पू- ले. देवराज देशिक । रामकर्णामृतम्- ले. 1 प्रतापसिंह, 2) रामचंद्र दीक्षित । रामकल्पद्रुम ले. अनन्तभट्ट । पिता कमलाकर। ई. 17 वीं शती । दस काण्डों में विभक्त । विषय-काल, श्राद्ध, व्रत, संस्कार, प्रायश्चित्त, शान्ति, दान, आचार, राजनीति इत्यादि । रामकवचम् (त्रैलोक्यमोहनकवचम् ) - ब्रह्मयामलान्तर्गत गौरीतन्त्रोक्त, उमा-महेश्वर संवाद रूप। श्लोक - 100 | रामकालनिर्णयबोधिनी- ले. वेंकटसुन्दराचार्य । काकीनाडा निवासी । रामकाव्य ले. रामानन्दतीर्थ । For Private and Personal Use Only रामकीर्तिकुमुदमाला (अपरनाम-रावणारियशः कैरवस्वक्) - कवि - त्रिविक्रम । समय ई. 17 वीं शती का उत्तरार्थ । नलचम्पूकार त्रिविक्रमभट्ट से यह भिन्न हैं। त्रिविक्रम के पिता विश्वम्भर और गुरु धरणीश्वर का नामोल्लेख प्रस्तुत खंडकाव्य के टिप्पणीकार दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी ने किया है। इस काव्य में 272 श्लोकों में 16 प्रकार के वर्णन चारणशैली में किये हैं। विविध प्रचलित छन्दों के साथ मालभारिणी, निशीपाल, स्रग्विणी, पंचचामर और चर्चरी जैसे अप्रयुक्त छंदों का भी पर्याप्त मात्रा में कवि ने उपयोग किया है। आचार्य चंद्रभानु त्रिपाठी कृत "माधुरी" व्याख्या और हिंदी भाषानुवाद के सहित यह काव्य इलाहाबाद के शक्ति प्रकाशन ने प्रसिद्ध किया है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामकुतूहलम् - ले.-रामेश्वर कवि। पिता- गोविन्द। ई. 17 वीं शती। रामकृष्णकथामृतम् - अनुवादक- जगन्नाथ स्वामी। मूल-महेन्द्रनाथकृत बंगाली ग्रंथ। 5 खण्डों में से 4 खंडों का 7 भागों में अनुवाद प्रकाशित। विषय- श्रीरामकृष्ण परमहंस की चरित्रगाथा। रामकृष्ण परमहंस-चरितम् - ले.-पी, पंचपागेश शास्त्री। ई. 1937 में प्रकाशित। रामकृष्ण परमहंसीयम् (युगदेवता-शतकम्)- कवि- डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर, नागपुर निवासी । इस मन्दाक्रान्ता छन्दोबद्ध शतश्लोकी खण्डकाव्य में श्रीरामकृष्ण परमहंस के संपूर्ण विभूतिमत्व का भावपूर्ण वर्णन किया है। हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा में इसके अनुवाद हुए हैं। शारदा प्रकाशन पुणे-30 और भारतीय विद्याभवन मुंबई द्वारा प्रकाशित । रामकौतुकम् - ले. कमलाकर। पिता- रामकृष्ण। रामखेटकाव्यम् - ले.- पद्मनाभ । रामगीता - अद्वैत वेदान्त के अनुभवाद्वैत नामक पंथ के तत्त्वज्ञान का विवेचन करने वाला ग्रंथ । वसिष्ठकृत "तत्त्वसारायण ग्रंथ के उपासना-कांड के द्वितीय अध्याय में इसका समावेश हुआ है। रामगीता के कुल 18 अध्याय व एक हजार श्लोक हैं। सांसारिक दुःखों से मुक्त होने के लिए हनुमान्जी प्रभु रामचन्द्र से ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप की जानकारी पूछते हैं। प्रभु रामचन्द्र द्वारा प्रदत्त जानकारी ही इसका प्रतिपाद्य विषय है। इस ग्रंथ में अनुभवाद्वैत पंथ के तत्त्वज्ञान के अनुसार श्रौत, सांख्य और योग का पुरस्कार किया गया है तथा कर्म, भक्ति, ज्ञान व योग ये चार मार्ग बताये हैं। रामगीता के मतानुसार ज्ञानपूर्वक सप्तांगिक उपास्ति- (उपासना) योग ही मोक्ष का अंतिम साधन है। उपास्य वस्तु के साथ तादात्म्य प्रस्थापित होने पर जीवन्मुक्तावस्था प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिसे देहविषयक पूर्ण विस्मृति हो जाती है, वह विदेहमुक्त अवस्था प्राप्त करता है। रामगीता में सदाचार पर विशेष बल दिया गया है। प्रभु रामचंद्र कहते हैं कि ज्ञानी मनुष्य यदि सद्गुणी सदाचारी नहीं हुआ ते उसका जीवन व्यर्थ है। कहते हैं, जब हनुमानजी की प्रार्थना पर 12 वें अध्याय में रामचंद्रजी ने अपने विश्वरूप का वर्णन करना प्रारंभ किया, तो उस वर्णन की कल्पना से हनमानजी मर्छित हो गये! अंत में रामचंद्रजी ने हनुमान् को गीतामृत प्राशन करने पर चिरंजीवी होने का वरदान दिया। 2) अध्यात्म-रामायण के अंतर्गत भी एक "रामगीता" है जिसमें कुल 62 श्लोक हैं। इस रामगीता में "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" अर्थात् ब्रह्म की एकमात्र सत्य है और बाकी जगत् के रूप में दिखाई देने वाला पदार्थ मिथ्या है- इस तत्त्व का विवेचन किया गया है। इसमें रामचन्द्रजी लक्ष्मण को मोक्षज्ञान का उपदेश देते हैं। रामगीता - ले.- वेंकटरमण । रामगुणाकर- ले.- रामदेव। रामचन्द्रकथामृतम् - ले.- मुडुम्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य । रामचन्द्रकाव्यम् - ले.-शम्भु कालिदास । रामचन्द्रचम्पू - ले.-रीवा-नरेश विश्वनाथसिंह जिनका शासनकाल 1721 से 1740 ई. तक रहा। इस चम्पू में 8 परिच्छेदों में रामायण की कथा का वर्णन है। चंपू का प्रारंभ सीता की वंदना से हुआ है। 2) रामचन्द्रकवि। (रत्नखेट कवि का पोता)। रामचन्द्रजन्म-भाण - ले.-ताराचन्द्र ई. 17-18 वीं शती । रामचन्द्रपूजापद्धति - श्लोक लगभग 135/ रामचन्द्रमहोदयम् (काव्य) - ले.-सच्चिदानन्द । रामचन्द्रयशःप्रबन्ध (या रामचन्द्रेशप्रबन्ध) - कवि- गोविन्द भट्ट। “अकबरी कालिदास" उपाधि से विभूषित। यह उपाधि कवि को मुगल बादशाह अबकर का (1556-1605) समकालीन सिद्ध करती है। ___ यह ग्रंथ बीकानेर के महाराजा रामचंद्र की प्रशस्ति है। गोविंदभट्ट अनेक राजसभाओं में पहुंचे थे। उन्होंने अनेक देवी-देवताओं की स्तुति लिखी है। इस प्रबन्ध में छन्द योजना विचित्र है। 10 स्रग्धरा छन्दों के अतिरिक्त बीच-बीच में 8 प्रबन्ध हैं। डॉ. चौधुरी के अनुसार यह न तो गद्य है न पद्य और न ही इसे चम्पू कह सकते हैं। इसका सम्पूर्ण गद्य भी पद्य है, फिर भी यति और विराम की कठिनाइयां आती हैं। यह विधिवत् पद्य नहीं रह जाता फिर भी इसे पद्यबन्ध कहा जायेगा। संस्कृत साहित्य में यह दीर्घ समास युक्त, लयबद्ध गेय शैली, मुस्लिम शासन के समय विकसित हुई।। रामचन्द्रयशोभूषणम् - ले.-कच्छपेश्वर दीक्षित । रामचन्द्रविक्रमम् (या रामचन्द्राह्निकम्)- ले.- विश्वनाथ सिंह। बघेलखण्ड के निवासी। श्रीरामचंद्रजी का सामाजिक जीवन चित्रित किया है। दिनचर्या आठ यामों में विभाजित कर उनके आह्निक का सविस्तर वर्णन किया गया है। कथा की आत्मा गीतगोविन्द से भिन्न है। रामचन्द्रोदयम्- ले.-व्यं.वा. सोवनी। सर्ग- 4। 2) ले. वेंकटकृष्ण। चिदम्बर निवासी। ई. 19 वीं शती। विषय- रामचरित्र। - 3) ले. पुरुषोत्तम मिश्र। 4) ले.- रामदास कवि। 5). ले.- कविवल्लभ । 6) ले.- वेंकटेश। पिता- श्रीनिवास । सर्ग30। आरसालै ग्राम (तमिलनाडू) के निवासी। रामचंपू ले. बन्दालामुडी रामस्वामी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 301 For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामचरितम् (द्विसन्धानकाव्य) - ले.-सन्ध्याकर नदी। ई. 12 वीं शती। श्लोकसंख्या 2201 बंगाल नरेश रामपाल तथा * प्रभु रामचंद्र, दोनों पक्षों में व्यर्थी शब्दरचना । लौकिक कथानक मदनपाल (सन 1140-1155) के शासनकाल तक है। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण किन्तु द्विसन्धानकाव्य की दृष्टि से नीरस । द्वितीय खण्ड के मध्य भाग तक की टीका उपलब्ध है। यह काव्य वारेन्द्र रीसर्च सोसायटी, कलकत्ता, द्वारा सन 1939 में प्रकाशित हो चुका है। संपादक हैं डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार। 1) ले.- काशीनाथ। 2) ले.-मोहनस्वामी। 3) ले.-विश्वक्सेन। 4) ले.- रामवर्मा, क्रांगनोर (केरल राज्य) के नरेश। 5) ले.-अभिनन्द। ई. 9 वीं शती। सर्गसंख्या- 401 अंतिम चार सर्ग "भीम कवि द्वारा लिखित। गायकवाड ओरिएन्टल सीरीज" बडौदा द्वारा प्रकाशित । 6) ले.- ब्रह्मजिनदास । जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। सर्गसंख्या- 831 7) ले.. देवविजयगणी। ई. 16 वीं शती। रामचरितमानसम् - मूल संत तुलसीदास का हिन्दी काव्य । अनुवादकर्ता तिरुवेङकटाचार्य। मैसूर निवासी। रामचरितमानसम् (रूपक)- ले.- डॉ. रमा चौधुरी। जिसका मानस रामचरित मय हो चुका ऐसे संत तुलसीदास का 12 दृश्यों में रूपकायित चरित्र। तुलसीरचित हिंदी भजनों का संस्कृत रूपान्तर समाविष्ट । रामचरित्रम् - ले.-रामानन्द। ई. 17 वीं शती। 2) ले.- रघुनाथ। रामचर्यामृतचम्पू - ले.- कृष्णय्यगार्य। रामजन्म (भाण) - ले.- ताराचरण शर्मा । रचनाकाल- 1875 ई.। प्रभु नारायणसिंह के पुत्र का जन्मोत्सव वर्णित । गीतों का समावेश। रामजोशीकृत लावण्या - ले.- राम जोशी। मराठी भाषा के "लावणी" नामक ग्रामगेय काव्यों के समान कवि ने संस्कृत, मराठी-संस्कृत और मराठी-हिन्दी-कन्नड-संस्कृत (चार भाषीय) लावणी काव्य भी रचे हैं। रामतत्त्वप्रकाश - ले.- मधुराचार्य। राम की माधुर्य उपासना पर एक प्रमाणभूत ग्रंथ। इस ग्रंथ के 13 उल्लास हैं। जिनमें राम व सीता के सर्वागसुंदर रूपों का प्रमुखता से वर्णन है। रामसाहित्य के विविध वचनों के आधार पर राम को रसिक शिरोमणि सिद्ध किया गया है। श्रीकृष्ण की भांति राम की भी अपनी नायिकाओं के साथ रासक्रीडा का वर्णन है। रामतापनीय- उपनिषद् - अथर्ववेद से सम्बन्धित एक नव्य उपनिषद्। इसमें 75 मंत्र हैं। बृहस्पति (प्रश्नकर्ता) और याज्ञवल्क्य (उत्तरदाता) के बीच संवाद की इस ग्रंथ का स्वरूप है। श्रीराम सत्यरूप परब्रह्म व रामरूप होने के कारण जगत् भी सत्य है। जीवात्मा और रामरूप परमात्मा के बीच सेव्य-सेवक, आधारआधेय नियम्यनियामक जैसा सम्बन्ध है, यही इस उपनिषद का सार है। रामदासचरितम् - लेखिका- क्षमादेवी राव। समर्थ रामदास स्वामी का चरित्र। स्वयं लेखिका कृत अंग्रेजी अनुवादसहित प्रकाशित। रामदासस्वामिचरितम् - ले.- श्रीपादशास्त्री हसूरकर । भारतरत्नमाला का पुष्प। यह चरित्र गद्यात्मक है। रामदेवप्रसाद (या गोत्रप्रवरनिर्णय)- ले.- विश्वनाथ (या विश्वेश्वर) शम्भुदेव के पुत्र। (1584 ई) में प्रणीत। रामनवमीनिर्णय - ले.- विट्ठल दीक्षित। 2) ले.- गोपालदेशिक। रामनाथपद्धति - ले.- रामनाथ । रामनामदातव्य- चकित्सालय (रूपक)- ले.- जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894। भट्टपल्ली के संस्कृत महाविद्यालय के वार्षिक सारस्वतोत्सव पर अभिनीत । सीतारामदास ओंकारनाथ के बंगाली संलापकोटिक निबंध पर आधारित प्रहसन सदृश रचना। कथावस्तु - कोई क्षीब रामनाम-दातव्य चिकित्सालय खोलकर, राजयक्ष्मा, शय्यामूत्र, गुह्यरोग, शर्करा-रोग, आदि सभी रोगों की एक ही दवा (तुलसी के पौधों के घेरे के बीच बैठ कर रामनाम रटना) देता है। रामनामलेखन-विधि - रुद्रयामल के अन्तर्गत । विषय- रामनाम लिखने की विधि तथा उसका फल । रामनित्यार्चनपद्धति - ले.- चतुर्भुज । रामनिबन्ध - ले.-क्षेमराय। पिता- भवानन्द । ई. 1720 में प्रणीत । रामपंचागम् - श्लोक- 608 । रामपद्धति - ले.- लक्ष्मीनिवास। गुरु-नृसिंहाश्रम। श्लोक - लगभग- 420। रामपरत्वम् - ले.- विश्वनाथ सिंह। आपका राज्यारम्भ 1834 में हुआ और मृत्यु 1854 में। जीवन के अंत के लगभग 35 वर्ष तक संस्कृत और हिन्दी में निरंतर सर्जना करते रहे। रामपरत्वम् ग्रंथ में 16 श्लोक हैं। इनमें 8 आचार्यजी अनंताचार्य की प्रशस्तिपरक हैं। अंतिम श्लोक आचार्यजी से पत्र व्यवहार की एवं वार्ता की चर्चा करते हैं। इन श्लोकों के बाद राम के सर्वश्रेष्ठत्व का प्रतिपादन किया गया है। यह सारा प्रतिपादन गद्य में है किन्तु प्रमाण और उद्धरण गद्य एवं पद्य दोनों में हैं। सारा विवेचन भाष्य शैली में है। रामपूजापद्धति - ले.- रामोपाध्याय। रामपूजाप्रकार - श्लोक- लगभग 165 । ई. 17 वीं शती। रामपूजाविधि - ले. क्षेमराज। श्लोक 340 । 302 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामपूर्वतापनीय- उपनिषद् - अथर्ववेद का एक उपनिषद्। इसमें "राम" शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां व अर्थ बताये गये हैं। "राति राजते वा महीं स्थितः सन् रामः" अर्थात् जो दान देता है अथवा पृथ्वी पर प्रकाश मान है, वह राम है। यह व्युत्पत्ति अधिक ग्राह्य मानी गई है। इसमें राम का पूजामंत्र और रामोपासना का मालामन्च भी दिया गया है। पूजामंत्र में राम की शक्तियों के रूप में हनुमान्, सुग्रीव, भरत, बिभीषण, लक्ष्मण, अंगद, जाम्बवान् और शत्रुघ्न का समावेश किया गया है। इस उपनिषद् का रामोपासना का मालामन्त्र इस प्रकार है "ओम् नमो भगवते रघुनन्दनाय रक्षोघ्नविशदाय मधुर प्रसन्नवदना यामिततेजसे बलाय रामाय विष्णवे नमः ओम्।" रामप्रकाश - 1) कालतत्त्वार्णव पर एक टीका। 2) कृपाराम के नाम पर संगृहीत धार्मिक व्रतों पर एक निबन्ध। कृपाराम यादवराज के पुत्र, माणिक्यचन्द्र के राजकुल के वंशज एवं गौडक्षत्रकुलोद्भव कहे गये हैं। वे जहांगीर एवं शाहजहां के सामन्त थे। रामप्रमोद - ले.- गंगाधर शास्त्री मंगरुलकर, नागपुर निवासी। राममंत्रपद्धति - श्लोक- 121 । राममन्त्रविधि - रुद्रयामलोक्त, श्लोक- 56 । राममन्त्राराधनविधि - श्लोक लगभग- 195 । रामयमकार्णव - ले.- वेकटेश। कांचीवरम् के पास ग्राम आरसालई के निवासी। पिता- श्रीनिवास । कवि ने सन 1656 में इस यमकमय काव्य की रचना की। रामरक्षाबीजमन्त्र प्रयोग - श्लोक -लगभग 72। रामरक्षास्तोत्रम् - बुधकौशिक ऋषि द्वारा रचित इस प्रख्यात स्तोत्र में प्रभु रामचन्द्र की स्तुति की गई है। स्तोत्र का प्रमुख छंद अनुष्टप, सीता शक्ति, हनुमान् कीलक और ,राम की प्रसन्नता के लिये स्तोत्र का जप करना, यह विनियोग बताया गया है। कुल 40 श्लोक हैं। रचना के संदर्भ में यह आख्यायिका बताई जाती है कि भगवान् शंकर ने बुधकौशिक ऋषि के स्वप्न में आकर यह रामरक्षा सुनाई जिसे प्रातःकाल उठते ही बुधकौशिक ने लिखी। इसके छह श्लोकों का 'कवच' इस अर्थ में निरूपण किया गया है और उनमें राम से संकट के समय अपने शरीर के सर्व अवयवों की रक्षा हेतु सदिच्छा व्यक्त की गई है। रामायण के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का क्रमानुसार उल्लेख और रामनाम की महत्ता का प्रतिपादन भी इसमें है। बालकों पर नित्य के संस्कारों में रामरक्षा पाठ का समावेश किया जाता है। रामरत्नाकर - ले.- मधुव्रत कवि । रामरसामृतम्- ले.- श्रीधर कवि । रामलीलोद्योत - ले.रमानाथ। पिता- बाणेश्वर । रामवर्मयशोभूषणम् - कवि सदाशिव मखी। ई. 18 वीं . शती। पिता- कोकनाथ। त्रिवांकुर (त्रावणकोर) नरेश रामवर्मा .. का चरित्र तथा अलंकारनिदर्शन इस का विषय है। रामवर्मविलासम् (नाटक)- ले. बालकवि। 16 वीं शती। कोचीन के राजा रामवर्मा को नायक मानकर यह नाटक लिखा गया राजा रामवर्मा के प्रणय और विजय की कथा पांच अंकों में निबद्ध होने से ऐतिहासिक महत्त्व का नाटक है। कथानक कोचीन के राज्य का भार अपने भाई गोदवर्मा (1537-1561) पर डालकर राजा रामवर्मा तलकावेरी में निवास करने लगते हैं। वहां नायिका मन्दारमाला से विवाह 'कर कुछ दिन बिताते हैं। इस बीच में गोदवर्मा से सूचना पाकर कि कोचीन पर शत्रुओं ने आक्रमण किया है, पुनः कोचीन आकर शत्रुओं को परास्त करते हैं। रामविलासम्-ले.- रामचरण तर्कवागीश । ई. 17 वीं शती। 2) ले.- हरिनाथ। 3) रामचंद्र। रामसहस्रनाम - रुद्रयामलान्तर्गत, हरगौरी-संवादरूप। श्लोक277। इसका प्रकाशन कवचमाला में हो चुका है। विषयराम के सहस्रनाम अकारादि क्रम से वर्णित। श्रीरामचन्द्रजी के गुण, माहात्म्य इ. का वर्णन करते हुए उनके सहस्र नाम तथा उनके पाठ का फल वर्णित । रामसिंहप्रकाश- ले.- गदाधर । रामस्तुतिरत्नम् - ले.- रामस्वामी शास्त्री। विषय- विविध वृत्तों में प्रभु रामचंद्र की स्तुति। यह छन्दःशास्त्रीय ग्रंथ है। रामानन्दम् - ले.- बी. श्रीनिवास भट्ट। अंकसंख्या- पांच । उत्तररामचरित का कथानक। सन 1955 में प्रकाशित । 2) ले.- श्रीनिवास भट्ट। विषय- माध्वसिद्धान्त । रामानुजचम्पू - ले. रामानुजदास । विषय- रामानुजाचार्य का चरित्र । रामानुजचरितकुलकम् - ले.- रामानुजदास । प्रसिद्ध श्रीभाष्यकार रामानुजाचार्य का चरित्र वर्णन इस काव्य का विषय है। रामानुजविजयम् कवि- अन्नैयाचार्य। विषय- रामानुजाचार्य का चरित्र। रामाभिरामीयम् - ले.- नागेशभट्ट। यह वाल्मीकीय रामायण की टीका है। इसमें महासुंदरी तंत्र का कथन हुआ है। रामाभिषेकम् - ले.- केशव । रामाभिषेकचम्पू - ले.- देवराजदेशिक। पिता- पद्मनाभ । रामाभ्युदयम् - ले.- वेंकटेश। 2) ले.. अन्नदाचरण ठाकुर। तर्कचूडामणि। जन्म- ई. 1862। वाराणसी निवासी। रामाभ्युदय-चम्पू - ले.- राम । रामामृतम् - ले.- वेकटरंगा। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/303 For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामायणम् (वाल्मीकिरामायणम् आदिकाव्य) - प्रणेता महर्षि वाल्मीकि। यह महाकाव्य "चतुर्विंशति-साहस्री संहिता" के नाम से विख्यात है क्यों कि इसमें 24 सहस्र श्लोक हैं। (गायत्री में भी 24 अक्षर होते हैं) विद्वानों का कथन है कि "रामायण" के प्रत्येक हजार श्लोक का प्रथम अक्षर, गायत्री मंत्र के ही अक्षर से प्रारंभ होता है। भारतीय जनजीवन में यह आदिकाव्य धार्मिक ग्रंथ के रूप में मान्यताप्राप्त है। इसकी शैली प्रौढ, काव्यमयी, परिमार्जित, अलंकृत व प्रवाहपूर्ण है जिसमें अलंकत भाषा के माध्यम से मानव जीवन का अत्यंत रमणीय चित्र अंकित किया गया है। कवि की दृष्टि प्रकृति के अनेकविध मनोरम दृश्यों की ओर भी गई है। यह महाकाव्य 7 कांडों में विभक्त है- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, युद्धकाण्ड व उत्तरकाण्ड । इन काण्डों में क्रमशः 77, 119, 75, 67, 68, 128, और 111 सर्ग हैं। कुलसर्ग संख्या 645। ___ वाल्मीकि को इस महाकाव्य को लिखने की प्रेरणा कैसे हुई, इस सम्बन्ध में कथा बताई जाती है कि एक बार नारद मुनि के समक्ष वाल्मीकि ने यह जिज्ञासा प्रकट का कि इस भूतल पर गुणवान, पराक्रमी धर्मज्ञ, सत्यवचनी और जिसके कुपित होने पर देवताओं में भय निर्माण हो, ऐसा पुरुष कौन है। नारदमुनि ने कहा- ये सभी गुण एकत्र मिलना दुर्लभ है किन्तु इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राम इस दृष्टि से आदर्श पुरुष कहे जा सकते हैं। फिर वाल्मीकि के अनुरोध पर नारदजी ने राम के समग्र चरित्र को स्पष्ट करने वाली सम्पूर्ण रामकथा भी उन्हें सुनाई। फिर एक दिन वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी में स्नान के लिये निकले तो मार्ग में एक वृक्ष पर प्रणय क्रीडा में मग्न क्रौंच नामक पक्षी के एक जोडे में से अकस्मात् किसी निषाद के तीर से क्रौंच पक्षी आहत होकर नीचे गिर पडा। अपने सहचर की यह दशा देखकर क्रौंची आक्रोश करने लगी। इस दृश्य को देखकर वाल्मीकि अत्यंत द्रवित . हए और निषाद के कृत्य पर उन्हें बहुत क्रोध आया। निषाद के प्रति उनके मुख से यह शापवाणी निकल पडी__"मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।" अर्थात- हे निषाद, तू भूतल पर अधिक काल जीवित नहीं रहेगा, क्योंकि तूने काममोहित क्रौंच युगल में से एक का वध किया है। __ वाल्मीकि की शोकपूर्ण भावना शापात्मक श्लोक के रूप में थी और वह सहज उत्स्फू र्त अनुष्टुप् छंद ही थी। इस बात का स्वयं वाल्मीकि को आश्चर्य हुआ। उस अनुष्टुप् छंद को सुनकर ब्रह्मदेव ने वाल्मीकि से कहा कि तुममें साक्षात् सरस्वती आविर्भूत हुई है, अब तुम अनुष्टुप् छंद में समग्र रामचरित्र लिखो। ब्रह्मदेव के निर्देश पर ही वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की और कुश-लव ने इसे कंठस्थ कर लिया और वे लयबद्ध रामकथा गाकर सुनाने लगे। मुख्य रामचरित्र के अतिरिक्त बाल व उत्तरकांड में अवांतर कथाएं एवं उपकथाएं हैं। ग्रंथ के आरंभ में अयोध्या, राजा दशरथ और उनके शासन तथा नीति का वर्णन है। राजा दशरथ पुत्रप्राप्ति के हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं, ऋष्यश्रृंग के नेतृत्व में यह संपन्न होता है और दशरथ को चार पत्र प्राप्त होते हैं। विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिये राजा से राम-लक्ष्मण को मांग कर ले जाते हैं। वहां उन्हें बला और अतिबला नामक विद्याएं तथा अनेक अस्त्र प्राप्त होते हैं। राम, ताडका सुबाहु का वध कर विष्णु का सद्धिाश्रम देखते हैं। __ बालकाण्ड में बहुत कथाएं हैं जिन्हे विश्वामित्र ने राम को सुनाया। वंश का वर्णन व तत्संबंधी कथाएं, गंगा व पार्वती की उत्पत्ति कथा, कार्तिकेय जन्म की कथा, राजा सगर व उनके 60 सहस्र पुत्रों की कथा, भगीरथ कथा, दिति-अदिति की कथा व समुद्रमंथन का वृत्तांत, गौतम-अहिल्या की कथा, राम के चरण स्पर्श से अहिल्या की मुक्ति, वसिष्ठ व विश्वामित्र का संघर्ष, त्रिशंकु की कथा, राजा अंबरीष की कथा, विश्वामित्र की तपस्या का मेनका द्वारा भंग, विश्वामित्र द्वारा पुनः तपस्या तथा पद की प्राप्ति, सीता व उर्मिला की उत्पत्ति कथा, राम द्वारा धनुर्भंग एवं चारों भाइयों के विवाह।। अयोध्याकाण्ड - काव्य की दृष्टि से यह काण्ड अत्यंत महनीय है। इसमें अधिकांश कथाएं मानवीय हैं। राजा दशरथ द्वारा राम राज्याभिषेक की चर्चा सुनकर कैकेयी की दासी मंथरा उसे बहकाती है। कैकेयी राजा से दो वरदान मांगकर राम को 14 वर्षों का वनवास व भरत को राज-गद्दी की प्राप्ति मांगती है। इसके फलस्वरूप राम व सीता का वनगमन व दशरथ का देहांत । भरत अपने ननिहाल से अयोध्या लौटकर राम को मनाने के लिये चित्रकूट जाता है। राम लक्ष्मण का संदेह व वार्तालाप भरत व राम का मिलाप। जाबालि द्वारा राम को नास्तिक दर्शन का उपदेश तथा राम का उन पर क्रोध। पिता के वचन को सत्य करने के लिये राम का भरत को लौटकर राज्य करने का उपदेश। राम की पादुकाओं को लेकर भरत का नंदिग्राम में निवास तथा राम का दंडकारण्य में प्रवेश। अरण्यकाण्ड - दंडकारण्य में ऋषियों द्वारा राम का स्वागत । विराध का सीता को छीनना। विराध वध। पंचवटी में राम का आगमन, जटायु से भेंट, शूर्पणखा-वृत्तान्त, खर, दूषण व त्रिशिरा के साथ राम का युद्ध और तीनों की मृत्यु, मारीच के साथ रावण का आगमन। मारीच का स्वर्णमृग बनना। स्वर्णमृग का राम द्वारा वध तथा रावण द्वारा सीता का अपहरण । 304 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org किष्किंधा काण्ड पंपा सरोवर के तीर पर राम लक्ष्मण का शोकपूर्ण संवाद । पंपासर का वर्णन । राम व सुग्रीव की मित्रता । बाली का वध तथा सीता की खोज से लिये सुग्रीव का वानरों को आदेश । वानरों का मायासुर द्वारा रक्षित ऋक्षबिल में प्रवेश तथा वहां से स्वयंप्रभा तपस्विनी की सहायता से सागर तट पर आगमन। वानरों की संपाती से भेंट, उसके पंख जलने की कथा। जांबवान् द्वारा हनुमान् की उत्पत्ति का कथन । सुंदरकाण्ड समुद्रसंतरण करते हुए हनुमान् का अलंकारिक वर्णन व हनुमान् का लंका का भव्य वर्णन । रावण के शयन व पानभूमि का वर्णन अशोक वन में सीता को देखकर हनुमान् का बिषाद। लंकादहन तथा वाटिका- विध्वंस । हनुमान् जांबवान् आदि के पास लौटकर सीता की कुशल वार्ता राम-लक्ष्मण को निवेदन करता है। युद्धकाण्ड - राम द्वारा हनुमान् की प्रशंसा, लंका की स्थिति के संबंध में प्रश्न, रामादि का लंका प्रयाण । बिभीषण का राम की शरण में आना और उसके साथ राम की मंत्रणा । अंगद दूत बनकर, रावण के दरबार में जाता है और लौटकर राम के पास आता है। लंका पर आक्रमण । मेघनाद, राम लक्ष्मण को घायल कर पुष्पक विमान से सीता को दिखाता है । सुषेण वैद्य व गरुड का आगमन । राम लक्ष्मण स्वस्थ होते हैं। मेघनाद ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर राम लक्ष्मण को मूर्च्छित करता है। हनुमान् द्रोण पर्वत को लाकर राम लक्ष्मण एवं वानर सेना को चेतना प्राप्त कराता है। मेघनाद व कुंभकर्ण का वध । राम-रावण युद्ध । रावण की शक्ति से लक्ष्मण मूर्च्छित होता है। रावण के सिरों के कटने पर पुनः नये सिरों का निर्माण होते देखकर, इंद्र-सारथी मातलि के परामर्श से ब्रह्मास्त्र से रावण का वध राम करते हैं। सीता का राम के सम्मुख आगमन । राम उन्हें दुर्वचन कहते हैं। लक्ष्मण रचित अग्नि में सीता का प्रवेश तथा सीता को निर्दोष सिद्ध करते हुए अग्नि द्वारा राम को सीता सौंप दी जाती है। स्वर्गस्थ दशरथ का विमान द्वारा राम के पास आगमन तथा कैकेयी व भरत पर प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना । इंद्र की कृपा से मृत वानर पुर्नजीवित होते हैं। वनवास की अवधि की समाप्ति के पश्चात् अयोध्या लौटने पर रामचंद्रजी का राज्याभिषेक । सीता हनुमान् को रत्नहार समर्पण करती है। रामराज्य का वर्णन तथा रामायण श्रवण का फल । उत्तर काण्ड - राम के पास कौशिक, अगस्त्य आदि महर्षियों का आगमन । उनके द्वारा मेघनाद की प्रशंसा सुनने पर राम उसके संबंध में अधिक जानने की जिज्ञासा प्रकट करते हैं । अगस्त्य मुनि रावण के पितामह पुलस्त्य ऋषि व पिता विश्रवा की कथा सुनाते हैं। रावण, कुम्भकर्ण व बिभीषण की जन्मकथा तथा रावण की विजयों का विस्तारपूर्वक वर्णन । रावण द्वारा वेदवती नामक तपस्विनी को भ्रष्ट की जाती है। वही वेदवती 20 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीता के रूप में जन्म लेती है। हनुमान् के जन्म की कथा, जनक, केकय, सुग्रीव, बिभीषण आदि का प्रस्थान, सीता का निर्वासन व वाल्मीकि के आश्रम में उनका निवास । लवणासुर (मधु) के वध के लिये शत्रुघ्न का प्रस्थान और उनका वाल्मीकि के आश्रम में निवास लव-कुश का जन्म, ब्राह्मण पुत्र की अकाल मृत्यु, शंबूक नामक एक शूद्र की तपस्या । राम द्वारा उसका वध होने पर मृत ब्राह्मण पुत्र का पुनरुज्जीवन । राम राजसूय (यज्ञ) करने की इच्छा प्रकट करते हैं। वाल्मीकि का यज्ञ में आगमन लव-कुश द्वारा रामायण का गायन । राम, सीता को अपनी शुद्धता सिद्ध करने के लिये शपथ लेने की बात करते हैं। सीता शपथ लेती है। तब भूतल से एक सिंहासन प्रकट होता है और उस पर आरूढ होकर सीता रसातल में प्रवेश करती है। तापस के रूप में काल ब्रह्मा का संदेश लेकर राम के पास आता है। दुर्वासा का आगमन एवं लक्ष्मण को शाप । लक्ष्मण की मृत्यु तथा सरयू तीर पर राम का स्वर्गारोहण रामायण के पाठ का फल कथन । रामायण के बालकाण्ड व उत्तरकाण्ड के बारे में कतिपय आधुनिक विद्वानों का मत है कि ये प्रक्षिप्त अंश हैं। इस संबंध में युरोपीय विद्वानों का कहना है कि इन दो कांडों की रचना मूल काव्य के बहुत बाद हुई। मूल ग्रंथ की शैली तथा वर्णन पद्धति के आधार पर भी ये दो कांड स्वतंत्र रचना से प्रतीत होते है। "बालकाण्ड" के प्रारंभ में रामायण की जो विषयसूची दी गई है, उसमें उत्तरकाण्ड का उल्लेख नहीं है। जर्मन विद्वान् याकोबी के अनुसार मूल रामायण में 5 ही कांड थे । युद्ध कांड के अंत में ग्रंथ समाप्ति के निर्देश प्राप्त होते है। रामायण श्रवण का फल कथन भी इस कांड के अंत में है । इससे ज्ञात होता है कि उत्तरकांड आगे चलकर जोडा गया। इस कांड में कुछ ऐसे उपाख्यानों का वर्णन है जिनका पूर्ववर्ती कांडों में कोई संकेत नहीं मिलता। विद्वानों का मत है कि "रामायण" के प्रक्षिप्तांश "महाभारत" के " शतसाहस्री" संहिता का रूप प्राप्त होने के पूर्व रचे जा चुके थे। केवल पहले व सातवें कांडों में ही राम को देवता ( विष्णु का अवतार) माना गया है। कुछ ऐसे उपप्रकरणों को छोड (जो निस्संदेह प्रक्षिप्त हैं) दूसरे कांड से छठे कांड तक राम सर्वदा "मानव" के ही रूप में आते हैं। रामायण के निर्विवाद मूल भागों में राम के विष्णु का अवतार होने का कोई भी संकेत नहीं मिलता। रामायण का रचनाकाल बतलाने के लिये अभी तक कोई सर्वसम्मत प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका। प्रथम व सप्तम कांड को आधार बनाते हुए मैकडोनल ने अपनी सम्मति दी है कि यह एक ही व्यक्ति की रचना है। उन्होंने इसका For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 305 - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाप्ति- काल 500 ई. पू. तथा उसमें किये गये प्रक्षेपों का समय 200 ई. पू. स्वीकार किया है। रामायण के सामाजिक चित्रण के आधार पर भारतीय विद्वान् इसका समय 500 ई.पू. मानते हैं। ए. श्लेगल के अनुसार इसकी रचना 1100 ई. पू. हुई। जी. गोरेसियों के अनुसार 1200 ई.पू. तथा वेबर के अनुसार इस पर बौद्ध मत का प्रभाव होने के कारण इसकी रचना और भी पिछे बाद में हुई है। याकोबी इसकी रचना 500 ई.पू. से 800 ई.पू. के बीच मानते हैं। पर भारतीय परंपरा के अनुसार रामायण की रचना त्रेतायुग के प्रारंभ में हुई थी किंतु इस बारे में अभी पूर्ण अनुसंधान की आवश्यकता है कि त्रेतायुग की काल-सीमा क्या हो। "महाभारत' में रामायण से संबंधित उपमा दृष्टांत मिलते हैं तथा "रामायण" । की कथा की चर्चा है। अतः इसकी रचना महाभारत के पूर्व हुई थी। इसमें बौद्ध धर्म या बुद्ध का उल्लेख नही है। अतः इसका वर्तमान रूप, बौद्ध धर्म के जन्म के पूर्व प्रचलित हो चुका था। ___ वर्तमान समय में रामायण के 3 संस्करण प्राप्त होते हैं। इन तीनों मे पाठभेद दिखाई देता है। उत्तरी भारत, बंगाल व काश्मीर से उपलब्ध इन 3 संस्करणों में केवल श्लोकों का ही अंतर नहीं है अपितु कहीं कहीं तो इनके सर्ग तक भिन्न हैं। वैदिक साहित्य में रामकथा के पात्रों के नाम यत्र तत्र मिलते हैं किन्तु उनके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। रामकथा के मूल स्रोत की खोज मे अपने अध्ययन के बाद डॉ. बेवर ने यह अनुमान लगाया है कि बौद्ध जातक में वर्णित दशरथजातक और होमर का इलियड- ये दो महाकाव्य रामकथा के मूल स्रोत हैं; किन्तु कामिल बुल्के के मतानुसार दशरथजातक वाल्मीकीय रामकथा का विस्तृत रूप ही है। होमर के "इलियड" में भी एक या दो प्रसंगों की रामकथा से समानता मात्र है। रामकथा ऐतिहासिक है या काल्पनिक इस सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा अनेक तर्क लगाये जा रहे हैं। डॉ. याकोबी के अनुसार रामायण के अयोध्या काण्ड की घटनाएं मात्र ऐतिहासिक हैं, शेष काल्पनिक हैं किन्तु अनेक विद्वान् सम्पूर्ण रामकथा को ऐतिहासिक मानते हैं। वाल्मीकि रामायण का समग्र अध्ययन करने पर उसकी ऐतिहासिकता पर किसी को सन्देह नहीं रहता। डॉ. बेवर की मान्यता है कि रामकथा इतिहास नहीं अपि तु रूपक मात्र है जिसके माध्यम से आर्य संस्कृति व कृषिविद्या का प्रचार किया गया। बौद्ध त्रिपिटिकों में रामकथाओं का उल्लेख है। हरिवंश में एक श्लोक है "गाथा अप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः । रामे निबद्धतत्त्वार्थमाहात्म्यं तस्य धीमतः ।। अर्थात्- पुराणवेत्ता जन राम विषयक तत्त्वार्थ जिनमें निबद्ध है, तथा उस धीमान पुरुष की महत्ता जिसमें है, ऐसी गाथाओं को इस स्थान पर गाते हैं। ये सारी गाथाएं वाल्मीकि के पूर्वकालीन हैं। कामिल बुल्के के अनुसार रामविषयक मूल आख्यान ई.पूर्व 81 वें शतक में निर्माण हुए। इन्ही आख्यानों को संकलित कर वाल्मीकि ने रामायण नामक महाकाव्य में सूत्रबद्ध प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार रामायण पहले या महाभारत पहले इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद पाये जाते हैं। किन्तु दोनों संहिताओं पर रामायण के अनेक पात्रों का उपमाओं के रूप में उपयोग किया गया है। यह बात यही सिद्ध करती है कि रामायण की रचना पहले हुई है। उत्तर काल में हिंदु समाज के धार्मिक साहित्य में, संस्कृत साहित्य की प्रत्येक शाखा में रामकथा को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। हरिवंश में तथा प्राचीनतम पुराणों में राम को विष्णु का अवतार माना गया है। स्कंद, पद्य व भागवत पुराण में रामकथाओं का समावेश है। रामभक्ति के प्रसार के साथ अनेक संहिताओं और ग्रंथों का निर्माण होता गया। इनमें अध्यात्म, अद्भुत, आनंद व तत्त्वसंग्रह नामक रामायण विशेष उल्लेखनीय हैं। संस्कृत ललित साहित्य में रघुवंश , भट्टिकाव्य, प्रतिमा, अभिषेक, महावीरचरित, उत्तररामचरित, जानकीहरण, कुंदमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, महानाटक इत्यादि अनेकानेक काव्य-नाटकों मे वाल्मीकि की रामकथा ही आधारभूत विषय है। - आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी रामकथा को आदिस्थान प्राप्त है। हर भारतीयभाषा में रामायण की रचना हुई है और न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी रामकथा का व्यापक प्रसार हुआ है। रामायण को भारतीय संस्कृति की आधारशिला माना गया है। इसी प्रकार रामराज्य की शासन-प्रणाली आदर्श मानी जाती है। सत्य, सदाचार और कर्तव्यपालन का अनुकरणीय आदर्श वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत किया। वाल्मीकि रामायण ऐसा महाकाव्य है जिसमें दो भिन्न संस्कृतियों की सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी है। आदिकवि की सौंदर्यचेतना कवित्वमयी है। संस्कृत काव्यों के इतिहास में आदिकवि वाल्मीकि "स्वाभाविक शैली' के प्रवर्तक माने जाते हैं जिसका अनुगमन अश्वघोष, कालिदास प्रभृति श्रेष्ठ कवियों ने पूरी सफलता व पूरे मनोयोग के साथ किया है। मानवी प्रकृति के चित्रण मे भी वाल्मीकि ने सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का परिचय दिया है। राम, सीता, भरत, हनुमान, बिभीषण, रावण आदि के चरित्रांकन में चरित्रचित्रण का वैविध्य दिखाई देता है। (इनके राम में मानवसुलभ गुणों के अतिरिक्त मानवीय 306/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्बलताएं भी हैं जिससे वे अतिमानव नहीं बन पाते। पूरे मानव के रूप में ही वे उपस्थित होते हैं।) कथानक के संयोजन में कवि की उत्कृष्ट वर्णनात्मक शक्ति प्रकट होती है। भारतीय जीवन की उदात्तता, सौंदर्य, नीति-विधान, राजधर्म, सामाजिक आदर्श की सुखकर अभिव्यक्ति रामायण में है। संस्कृत वाङ्मय के सूचीकार डॉ. ओफ्रेक्ट के अनुसार वाल्मीकि रामायण की टीकाओं की संख्या 30 है। प्रमुख टीकाओं के नाम हैं :- रामानुजीयम्, सर्वार्थसार, रामायणदीपिका, बृहविवरण, लघुविवरण, रामायण-तत्त्वदीपिका, रामायणभूषण, वाल्मीकिहृदय, अमृतकतक, रामायणतिलक, रामायण-शिरोमणि, मनोहर और धर्माकूतम्। इनमें से "रामायणतिलक' सर्वाधिक लोकप्रिय टीका है। ऑफ्रेट ने ईश्वर दीक्षित, उमा महेश्वर, नागेश, रामनन्दतीर्थ, लोकनाथ, विश्वनाथ और शिवरसंन्यासी इन टीकाकारों का नामोल्लेख किया है। रामायण के रूपांतर - 1) रामायण कथासार : ले.-। सुब्बय्या शास्त्री। पिता- पुल्यवंशीय यज्ञेशसूरि। इस के सात काण्ड भिन्न भिन्न छंदो में लिखे हैं। 2) आर्यारामायणकथा- ले.- सूर्यकवि। 3) आर्यारामायण - लेखिका- सिस्टर बालंबाल। मद्रास निवासिनी। 4) तत्त्वसंग्रह -रामायणम् - ले.- रामब्रह्मानन्द। इसमें कवि ने अनेक काल्पनिक घटनाओं का समावेश किया है। 5) वाल्मीकिभावदीपनम् - ले.- अनन्तचार्य। रामकथा का आध्यात्मक दृष्टि से प्रतिपादन। 6) वासिष्ठ-रामायणम् (नामान्तर -ज्ञानवासिष्ठम्) - ले.- वाल्मीकि 1) यह वाल्मीकि रामायण का परिशिष्ट माना जाता है। इसमे छह अध्यायों में वसिष्ठ द्वारा राम को दिये गये योग तथा अद्वैत तत्त्वज्ञान विषयक प्रतिपादन है। इस पर आनंदबोधेन्द्र सरस्वती की टीका है। 7) वसिष्ठोत्तर-रामायणम्(अपरनाम -सीताविजयम्)- यह संपूर्ण उपलब्ध नहीं। इसके 12 वें प्रकरण में सीता द्वारा सौ मुखों के रावण का वध वर्णित है। 8) अद्भुत-रामायणम् (या अद्भुतोत्तर रामायणम्) - इसमें वाल्मीकि की मूल रामकथा को अद्भुतता पुट चढाया है। राम की असमर्थता पर सीता द्वारा शतमुख रावण का वध इसमें वर्णित है। 9) अध्यात्म-रामायणम् - शिव-पार्वती संवादरूप। ब्रह्माण्ड पुराणान्तर्गत। सात काण्डों के नाम वही हैं जो वाल्मीकि रामायण में है। इसमें राम तथा सीता, विष्णु और लक्ष्मी के अवतार के रूप में वर्णित हैं। स्थान स्थान पर संवादों में अद्वैत वेदान्त का कथन इसकी विशेषता है। 10) मूलरामायणम् तथा 11) आनन्दरामायणम् - इनमें हनुमानजी का विशेष महत्त्व वर्णन किया है। ये ग्रंथ माध्व संप्रदाय में विशेष प्रचलित है। 12) सत्योपाख्यानम्- यह संभवतः किसी पुराण का अंश है। इसमें अनेक अवांतर घटनाओं का वर्णन किया है। १३) रामचरितम् - ले.- पद्मविजयगणी। रचना ई. 1596 में। हेमचंद्राचार्य की रचना पर आधारित यह गद्यपद्यात्मक रचना है। इस में राम के निधन की असत्य वार्ता सुनते ही लक्ष्मण की मृत्यु एवं लव-कुश द्वारा जैन धर्म का स्वीकार निवेदित किया है। रामायण-कथाविमर्श - ले.- वेंकटाचार्य। विषय- रामायण की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का कालनिर्देश। रामायणकाव्यम् - कवियित्री मधुरवाणी। तंजौर के राजा रघुनाथ के आदेशानुसार इस काव्य की रचना हुई। सर्गसंख्या 14 । रामायणचम्पू - रचयिता धारानरेश परमारवंशी राजा भोज । इस चंपू काव्य की रचना वाल्मीकि रामायण के आधार पर हुई है। इस में बालकांड से सुंदरकांड तक की रचना राजा भोज ने की है तथा अंतिम युद्धकांड लक्ष्मणसूरि द्वारा रचा गया है। यह लक्ष्मण, गंगाधर और गंगाम्बिका का पुत्र तथा उत्तर सरकार प्रान्त का निवासी था। इसमें वाल्मीकि रामायण का भावापहरण प्रचुर मात्रा में है तथा बालकांड के अतिरिक्त शेष कांडों का प्रारंभ रामायण के ही श्लोकों से किया गया है। इसमें गद्य भाग कम हैं पद्यों का बाहुल्य है। रचयिता ने स्वयं ही वाल्मीकि का आधार स्वीकार किया है। रामायणचम्पू के टीकाकार- 1) नारायण (2) रामचन्द्र (3) कामेश्वर, (4) मानवेद, (5) घनश्याम तथा एक अज्ञात लेखक। लक्ष्मण की पूर्ति में उत्तर काण्ड भी समाविष्ट है। यह पूर्तिकार्य लक्ष्मण के व्यतिरिक्त अन्य कवियों ने भी किया है : जैसे 1) यतिराज 2) शंकराचार्य 3) हरिहरानन्द 4) वेंकटाध्वरि, 5) गरलपुरी शास्त्री तथा 6) राघवाचार्य । 2) रामायणचम्पू - लेखिका- सुंदरवल्ली। नरसिंह अय्यंगार की कन्या। 3) ले.- रामानुज कवि। रामायणतत्त्वदीपिका (तीर्थीयम्) - ले.-महेशतीर्थ । रामायणतत्त्वदर्पण- ले.- नारायण यति। 15 अध्याय। विषयरामायण के 9 सत्यों तथा महत्त्व का दिग्दर्शन । रामायणतनिश्लोकि व्याख्या - ले.- पेरियवाचाम्बुल कृत इस मूल तमिल टीका का संस्कृत अनुवाद किसी अज्ञात लेखक ने किया है। रामायणतात्पर्यनिर्णय (रामायणतात्पर्यसंग्रह) - ले.- अप्पय दीक्षित। ई. 17 वीं शती। रामायणदीपिका- ले.- विद्यानाथ दीक्षित । रामायणभूषणम् - ले.- प्रबलमुकुन्दसूरि । रामायणमहिमादर्श- ले.- हयग्रीव शास्त्री। मद्रास प्रेसिडेन्सी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 307 For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कॉलेज के प्रथम संस्कृत पण्डित । ई. 19 वीं शती उत्तरार्ध । विषय- अनेक विवाद्य घटनाओं का 5 प्रकरणों में विवेचन । रामायणविषमपदार्थ व्याख्यान- ले. भट्ट देवराम । वाल्मीकि रामायण के कठिन भागों का विवेचन इस की विशेषता है। रामायणसंग्रह- ले. महामहोपाध्याय लक्ष्मणरि ई. 19-20 वीं शती । 2) ले. वरदादेशिक पिता श्रीनिवास । रामायणसार- ले. अग्निवेश। विषय रामायण की घटनाओं का सुसंगत कालनिर्देश शार्दूलविक्रीडित छन्द में रचना । रामायणसारचन्द्रिका ले. श्रीनिवास राघवाचार्य श्रीरंगम् के निवास । रामायणसारसंग्रह ले. ईश्वर दीक्षित। 2) ले. वेंकटाचार्य । विषय- रामायणीय घटनाओं का काल तथा तिथिनिश्चय । (3) नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती। यह एक भक्तिपर काव्य है। (4) ले वरदराज (5) ले. अप्पय्य दीक्षित । रामायणसारसंग्रह ले तंजौर नरेश रघुनाथ नायक ई. 17 वीं शती । रामायणसारस्तव - कवि अप्पय दीक्षित। 17 वीं शती । विषयरामचरित । रामायणान्तरार्थ ले. - बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रनिवासी । ले. - रंगाचार्य । वादिहंस कुल के गोपाल रामायणाव के शिष्य । - - रामायणार्थ- प्रकाशिका - ले. लक्ष्मणसुत वेंकट । कुछ रामायणी घटनाओं का समालोचन । - रामार्चनचन्द्रिका ले आनन्दवन । गुरु-मुकुन्दवन । सांगोपांग रामपूजा का प्रतिपादक तंत्र। 5 पटलों में पूर्ण विषयपूजासंबंधी विविध विषय तथा राम मंत्रोद्धार, आचमन आदि साधारण कर्त्तव्य । विविध न्यासों का प्रतिपादन । 3 ) ध्यान, होम, पात्रासादन, अन्तयोग पीठपूजा स्तोत्र आदि आठ प्रकार के मंत्र इत्यादि । - www.kobatirth.org - रामार्चनचन्द्रिका - 2 भविष्योत्तरपुराणान्तर्गत । श्लोक- लगभग2050। 3) ले.- कुलमणि शुक्ल । 4) ले. अच्युताश्रम । रामार्चनपद्धति ले. - रामानन्द । 2) ले.- गोविन्द दशपुत्र । प्रकाशानन्दनाथ के शिष्य । श्लोक- 1100 निर्माणकालशकाब्द 1664 1 रामार्चनरत्नाकर ले. केशवदास । रामार्चनसोपान ले. शिवलाल शर्मा श्लोक 6001 । 600। रामार्चनसोपान- श्लोक लगभग 550 1 रामाचपद्धति श्लोक लगभग 380 रामावतारम् ले. प्रा. सुब्रह्मण्यसूरि । - रामेश्वरविजय ले. श्रीकृष्ण ब्रह्मतंत्र, परकालस्वामी । ई. 19 वीं शती । 308 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामेश्वरविजयचम्पू - ले. श्रीकृष्ण । रामोत्तरतापनीय उपनिषद् अर्थववेद का एक उपनिषद् । इसमें राम की सगुण व निर्गुण भक्ति का विवेचन है। रामाय नमः रामचंद्राय नमः व रामभद्राय नमः इन तीन तारक मंत्रों का क्रमशः ओंकार स्वरूप, तत्स्वरूप व ब्रह्मस्वरूप बताया गया है। राम और ओम् में कोई भेद नहीं- दोनों समान तारक ब्रह्म हैं। इसी प्रकार राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न को चतुष्पाद ब्रह्म के वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध व प्रयुन रूपों से जोडकर रामोपासना और कृष्णोपासना में अभेदता प्रस्थापित की गई है। इस उपनिषद् में लक्ष्मण को रामब्रह्म का प्रथम पाद माना गया है। ओंकार के "अ" से लक्ष्मण की उत्पत्ति होकर वह जाग्रत अवस्था का स्वरूप है। शत्रुघ्न रामब्रह्म का द्वितीय पाद है जिसकी उत्पत्ति ओंकार के 'उ' से हुई तथा वह तेज सुस्वभाव का है। भरत की उत्पत्ति ओंकार के 'म' अक्षर से हुई तथा वह प्रज्ञास्वरूप है । रामब्रह्म का वह तृतीय पाद है । राम की उत्पत्ति ओंकार की अर्धमात्रा से होकर वह ब्रह्मानंद स्वरूप है। रामोदयम् (नाटक) - ले. श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य ई. 16 वीं शती । रायमल्लाभ्युदय ले- पद्मसुन्दर । रावणचेटकम् - आगमोक्त श्लोक- लगभग 81 । यह शाबर मंत्र की तरह रावण मंत्र है। "ओम् नमो भगवते दशकण्ठाय दशशीर्षाय दशानन विंशतिनेत्रधराय" इत्यादि । इस में इसी तरीके से निम्न निर्दिष्ट चेटक भी है- रावणचेटक के अतिरिक्त रंजकचेटक भूजिचेटक विश्वावसुचेटक, चोलाचेटक, कुम्भकर्णचेटक, वाचाटचेटक, विश्वचेटक, रक्तकम्बल - चेटक, क्षोमचेटक, सागरचेटक, निशाचारचेटक, चुंचुकचेटक, सुपथचेटक, प्रेमचेटक, भवचेटक तथा अर्जुन चेटक । अर्जुनचेटक, कुम्भकर्णचेटक आदि रावण- चेटकवत् हैं। रावणपुरवधम् - ले. शिवराम ई. 19-20 वीं शती । रावणवधम् (भट्टिकाव्यम्) ले. महाकवि भट्टि । इन्होंने संस्कृत साहित्य में शास्त्रकाव्य लिखने की परंपरा का प्रवर्तन किया है। इस काव्य का मुख्य उद्देश्य है व्याकरण शास्त्र के शुद्ध प्रयोगों का संकेत करना। इस में भट्टि पूर्णतः सफल हुए हैं। इस महाकाव्य में 22 सर्ग और 3,624 श्लोक हैं। इसमें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है। इसका प्रकाशन "जयमंगला" टीका के साथ निर्णयसागर प्रेस मुंबई से 1887 ई में हुआ था। मल्लिनाथ की टीका के साथ संपूर्ण महाकाव्य का हिन्दी अनुवाद चौखंबा संस्कृत सीरीज से प्रकाशित हुआ है। इस महाकाव्य को 4 कांडों में विभाजित किया गया है। प्रथम 5 सर्ग प्रकीर्णकांड के नाम से अभिहित हैं। इनमें रामजन्म से लेकर रामवनगमन तक की कथा वर्णित है। इनमें For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याकरण की दृष्टि से कोई निश्चित योजना नहीं दिखाई पडती। इनमें भट्टि का वास्तविक महाकवित्व परिदर्शित होता है। 6 वें से लेकर 9 वें सर्ग को अधिकारकांड कहा गया है। इनमें कुछ पद्य प्रकीर्ण हैं तथा कुछ में व्याकरण के नियमों में दुहादि द्विकर्भक धातु (6, 8-10), ताच्छीलिक कृदधिकार (7, 28-33) भावेकर्तरि प्रयोग (7,68-77), आत्मनेपदाधकिार (8, 70-84) तथा अनभिहिते अधिकार (3, 94-131) पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रसन्नकांड नामक तृतीय कांड का संबंध अलंकारों से है। इसके अंतर्गत (10 से 13) दशम सर्गों में शब्दालंकार व अर्थालंकार के अनेक भेदोपभेदों के प्रयोग के रूप में श्लोकों की रचना की गई है। तिङन्तकांड। में संस्कृत व्याकरण के 9 लकारों को व्यावहारिक रूप में 14 से 22 वें सर्ग तक प्रस्तुत किया गया है और प्रत्येक लकार का परिचय एक सर्ग में दिया है। ___ अपने ग्रंथलेखन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए भट्टि ने स्वयं कहा है कि यह महाकाव्य व्याकरण के ज्ञाताओं के लिये दीपक की भांति अन्य शब्दों को भी प्रकाशित करने वाला है किंतु व्याकरण ज्ञानरहित व्यक्तियों के लिये यह काव्य अंधे के हाथ में रखे गए दर्पण की भांति व्यर्थ है। (22-23) प्रस्तुत महाकाव्य में सरसता का निर्वाह करते हुए पांडित्य का भी प्रदर्शन किया गया है। इसमें महाकाव्योचित सभी तत्त्वों का सुंदर निबंधन है। भट्टि ने पात्रों के चरित्र-चित्रण मे उत्कृष्ट कोटि की प्रतिभा का परिचय दिया है। अनेक पात्रों के भाषण अति उच्च श्रेणी के हैं व उनमें काव्यगत गुणों तथा भाषण संबंधी विशेषताओं का पूर्ण नियोजन है। बिभीषण के राजनीतिक भाषण में कवि के राजनीतिशास्त्र विषयक ज्ञान का पता चलता है तथा रावण की सभा में उपस्थित होकर भाषण करने वाली शूर्पणखा के कथन में वक्तृत्व कला की उत्कृष्टता परिलक्षित होती है। (पंचम सर्ग में)। 12 वें सर्ग का 'प्रभातवर्णन" प्राकृतिक दृश्यों के मोहक वर्णन के लिये संस्कृत साहित्य में विशिष्ट स्थान का अधिकारी है। तृतीय सर्ग में शरद् ऋतु का भी मनोरम वर्णन है। फिर भी सीता-परिणय व राम वन-गमन जैसे मार्मिक प्रसंगों की ओर कवि की उदासीनता, उसके महाकवित्व पर प्रश्नवाचक चिन्ह अंकित करती है। राम-विवाह का केवल एक ही श्लोक में संकेत किया गया है। रावण द्वारा हरण किये जाने पर सीता-विलाप का वर्णन अत्यल्प है। अतः न उससे रावण की दुष्टता व्यक्त हो पाई है और न ही सीता की असमर्थता। रावणवधम् - ले.- कवीन्द्र परमानंद शर्मा। ई. 19-20 वीं शती। लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल के निवासी। इन्होंने संपूर्ण रामचरित्र काव्य में ग्रथित किया है। उसका यह भाग है। शेष भाग अन्यत्र उद्धृत है। रावणार्जुनीयम् (महाकाव्य) - रचयिता भट्टभीम या भौमक। यह संस्कृत के ऐसे महाकाव्यों में है जिनकी रचना व्याकरणीय प्रयोगों के आधार पर हुई है। प्रस्तुत महाकाव्य की रचना भट्टिकाव्य के अनुकरण पर है। इस में रावण व कार्तवीर्य अर्जुन (हैहयराज सहस्रबाहु) के युद्ध का वर्णन है। कवि ने 27 सगों में 'अष्टाध्यायी' के क्रम से पदों का निदर्शन किया है। क्षेमेंद्र के 'सुवृत्ततिलक" में (3/4) इसका उल्लेख है। अतः यह कृति 11 वीं शती के पूर्व की सिद्ध होती है। रावणोडीशडामर-तंत्रसार - गौरी-शंकर संवादरूप। विषयनृपति का आकर्षण, उन्मादन, विद्वेषण, उच्चाटन ग्रामोच्चाटन, जलस्तंभन, अग्निस्तंभन, अन्धीकरण, मूकीकरण, स्तब्धीकरण, इ. के बहुत से प्रयोग। राष्ट्रपतिचरितम् - ले.- वा.आ. लाटकर, काव्यतीर्थ। सुबोध शैली में प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसादजी का चरित्र । राष्ट्रपथप्रदर्शनम् - ले.- दुर्गादत्त शास्त्री। कांगडा जिला (हिमाचल प्रदेश) में नलेटी गाव के निवासी। अठारह अध्यायों में राष्ट्रीय विषयों का विवरण प्रस्तुत ग्रंथ में किया है। राष्ट्रोदवंशम् - ले.-रुद्र कवि। 20 सगों के इस महाकाव्य में बागुल राजवंश का वर्णन किया है। रासकल्पसारतत्त्वम् - कवि-वृन्दावनदास । विषय- कृष्णलीला। रासगीता - श्लोक- 137। विषय- रासोत्सव के अवसर पर श्रीराधा और श्रीकृष्ण की स्तुति । रासयात्राविवेक - ले.- शूलपाणि। रास-रसोदयम् - ले.- म.म. प्रमथनाथ तर्कभूषण (जन्म सन् 1866)। रासलीला - ले.-डॉ. वेंकटराम राघवन् । “अमृतवाणी' पत्रिका में सन 1945 में प्रकाशित प्रेक्षणक (ओपेरा)। मद्रास आकाशवाणी से प्रसारित। चार प्रेक्षणकों में विभाजित रासक्रीडा के प्रसंग । भागवतोक्त श्लोकों के साथ स्वरचित श्लोक ग्रथित हैं। राससङ्गोष्ठी - (अपरनाम विलासरायचरितम् (उपरूपक) ले.- अनादि मिश्र। ई. 18 वीं शती। इसमें सूत्रधार है, अत एवं यह रासक नहीं। संगीतक भी कहलाता है। रासक्रीडा का अभिधा से शृंगारित अनुशीलन चूलिका द्वारा प्रस्तुत । कथावस्तु - कृष्ण की वंशीध्वनि सुन राधा ललिता के साथ वृन्दावन चल पडती है। निकुंज में सुबल के साथ श्रीकृष्ण उन्हें दीखते हैं। दोनों सखियां छिपकर उन्हें प्रणय की भावना सुबल के सम्मुख प्रकट करते देखती हैं। यह सुन राधा और ललिता उनके सामने आती है। ललिता प्रार्थना करती है कि सभी गोपिकाओं को सतुष्ट करें। कृष्ण मान लेते हैं और सभी के साथ रासक्रीडा करते हैं। रासोल्लासतंत्रम् - नारदप्रोक्त। श्लोक- 260। विषय- श्रीकृष्ण का राससंकीर्तन स्तोत्र, रासलीलास्वरूप वर्णन, रासगीताप्रतिपादन संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 309 For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुक्मांगदम् (रूपक) - ले.-कणजयानन्द । ई. 18 वीं शती। कीर्तनिया परम्परा की रचना। गीतों से भरपूर । संस्कृत प्राकृत तथा मैथिली गीतों की प्रचुरता इसमें है। रुक्मांगदचरितम् (नाटक) - ले.- रामानुजाचार्य। रुक्मिणीकल्याणम् - ले.- राजचूडामणि। दस सर्गो का महाकाव्य। रुक्मिणीकल्याणम् - ले.-प्रा. सुब्रह्मण्यसूरि । रुक्मिणीकृष्णविवाहम् - कवि-तंजौर के नायकवंशीय राजा रघुनाथ। रुक्मिणीपरिणयम् - ले.-रमापति उपाध्याय। ई. 18 वीं शती। पल्ली-निवासी। दरभंगा के राजा नरेन्द्रसिंह की कमलेश्वरी स्थान यात्रा के अवसर पर प्रथम अभिनय। अंकसंख्या- छह । प्रस्तावना में आश्रयदाता नरेन्द्रसिंह का विस्तृत वर्णन है। यह एक किरतनिया नाटक है।इसमें निवेदन प्रायः पद्यात्मक मैथिली बोली में है। उच्च पात्रों का निवेदन संस्कृत तथा मैथिली एकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग है। नाट्योचित शब्दावली, छोटे छोटे वाक्य, गद्यात्मक संवादों में मैथिली का प्रयोग नहीं। स्त्रियों के संवाद शौरसेनी प्राकृत में और कहीं कहीं संस्कृत में भी है। रुक्मिणी के स्वयंवर तथा विवाह की कथा अंकित की है। तीरभुक्ति 1, एलेनगंज रोड, इलाहाबाद से प्रकाशित। अन्य विशेषताएं- नयो पारिभाषिक शब्दावली। प्रवेशक के स्थान पर "प्रस्तावना", अङ्क समाप्ति के स्थान पर "अङ्कस्थान", भूमिका के स्थान पर "विष्कभक" शब्दों का प्रयोग। पंचम अङ्क में लक्ष्मी का प्रवेश मूक पात्र के रूप में है। जो संवादों द्वारा नहीं अपि तु नेपथ्य से सूचना पाकर चलते हैं ऐसे दृश्य रंगपीठ पर लाये हैं। सूत्रधार तथा नटी के निर्गमन के पश्चात् उनके द्वारा प्रवर्तित प्रियवंद तथा उसकी पत्नी मंजु के संवादों में भूमिका प्रस्तुत है। ये सूत्रधार के सहकर्मी, परन्तु नाटक कथा के पात्र नहीं हैं। द्वितीय अंक में केवल वर्णन, दृश्य का सर्वथा अभाव है (2) लेरामवर्मा। 1757-1765 ई.। श्रीकृष्ण -रुक्मिणी के विवाह की कथा निबद्ध। अंकसंख्या पांच। रूपक तथा उत्प्रेक्षाओं का प्रचुर प्रयोग। अनुप्रास का विशेष प्रयोग। 3) ले.- विश्वेश्वर पांडे। 4) ले.- लक्ष्मण गोविंद। 5) ले.- आत्रेय वरद। ई. 19 वीं शती। रुक्मिणीपरिणयचंपू - रचयिता अम्मल (या अमलानंद) और वेंकटाचार्य। ये दोनों प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य थे। इस चंपू-काव्य में रुक्मिणी के विवाह की कथा अत्यंत प्रांजल भाषा में वर्णित है जिसका आधार “हरिवंशपुराण" एवं "श्रीमद्भागवत" की तत्संबंधी कथा है। (2) कवि- रत्नखेट श्रीनिवास दीक्षित । ई. 16-17 वीं शती। 3) ले.- चक्र कवि, अम्बालोकनाथ के पुत्र। 4) ले.- गोवर्धन । घनश्याम के पुत्र । रुक्मिणीपाणिग्रहणम् • ले.- गोविन्द रत्रवाणी। रुक्मिणीवल्लभपरिणयचम्पू - ले.- नरसिंह तात। रुक्मिणीविजयम् - ले.- वादिराज। कर्नाटक निवासी। रुक्मिणीस्वयंवरम् (नाटक) - ले.- रामकिशोर। ई. 19 वीं शती। अंकसंख्या- सात। रुक्मिणीस्वयंवर-प्रबन्ध - ले.- कवि-येडवाथि कोडमानीय नम्बुद्रिपाद। रुक्मिणीहरणम् (महाकाव्य) - ले.-पं. काशीनाथ शर्मा द्विवेदी। बीसवीं शती के प्रसिद्ध महाकाव्यों में से एक । प्रस्तुत महाकाव्य का प्रकाशन 1966 ई. में हुआ है। इसमें श्रीमद्भागवत की प्रसिद्ध कथा के आधार पर श्रीकृष्ण व रुक्मिणी के परिणयन का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत महाकाव्य की रचना शास्त्रीय परिपाटी के अनुसार हुई है और इसमें विविध छंदों का प्रयोग किया गया है। इस में कुंडिनपुरनरेश राजा भीष्मक का वर्णन, रुक्मिणीजन्म, नारदजी का कुंडिनपुर जाना, रुक्मिणी के पूर्वराग का वर्णन, कुंडिनपुर में शिशुपाल का जाना, रुक्मिणी का हरण करना आदि घटनाओं का वर्णन है। इस महाकाव्य में 21 सर्ग हैं तथा वस्तु-व्यंजना के अंतर्गत समुद्र, प्रभात व षऋतुओं का मनोरम वर्णन किया गया है। 2) काव्य ले.- म.म. हरिदास सिद्धान्तवागीश। ई. 19-20 वीं शती। 3) रुक्मिणीहरणम् (काव्य)- ले.- हेमचन्द्र राय कविभूषण (जन्म 1881) 4) रुक्मिणीहरणम् (नाटक)- ले.- चिन्तामणि। ई. 16 वीं शती। इस नाटक का गुजराती पद्यानुवाद 1873 ई. में मुंबई से प्रकाशित । ब्रिटिश म्यूजियम में इसकी प्रति प्राप्त है। रुक्मिणीमाधवम् (एकांकी रूपक) - ले.- प्रधान वेंकप्प श्रीरामपुर के निवासी। ई. 18 वीं शती।। रुग्विनिश्चय (अपरनाम- निदान) - ले.- माधव। (या माधवकर) ई. 7 वीं शती। पॅथोलॉजी विषयक ग्रंथ। अरबस्तान के खलीफा मन्सूर (ई. 753-774) तथा खलीफा हारुन (786-708) द्वारा इसके अरबी संस्करण हुए। "विजयरक्षित" द्वारा लिखित इसका भाष्य सुविख्यात है। अन्य कतिपय भाष्य उपलब्ध हैं। रुद्रकलशस्थापनविधि - ले.- रामकृष्ण। नारायण के पुत्र । रुद्रकल्पदुम (या महारुद्रपद्धति) - ले.- अनन्त देव। काशी-निवासी। पिता- उद्धव द्विवेदी। रुद्रचण्डी (या रुद्रचण्डिका) - रुद्रयामल के अन्तर्गत हरगौरी-संवादरूप। श्लोक- लगभग 701 विषय- शिवकार्तिकेय के संवादरूप में रुद्रचण्डिका कवच, हर-गौरी संवाद में चण्डीरहस्य, शिव-दुर्गा के संवाद में साधनरहस्य। हर-गौरी संवाद में भिन्नभिन्न वारों में रुद्रचण्डिका की 'भैरवी आदि विभिन्न मूर्तियों के पूजन से भिन्न भिन्न फलों का प्राप्ति इ. । रुद्रचिन्तामणि (या रुद्रपद्धति) - ले.- शिवराम। पिता 310 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्राम। छन्दोगों के लिए। रुद्रजपसिद्धान्तशिरोमणि - ले.- राम अग्निहोत्री। श्लोक64001 रुद्रपद्धति (या रुद्रकारिका) - 1) ले.- परशुराम जो औदीच्य ब्राह्मण थे। महारुद्र के रूप में शिवपूजा का वर्णन है। रुद्रजपप्रशंसा, कृण्डमण्डप लक्षण, पीठपूजाविधि, न्यासविधि पर कुल 1028 श्लोक हैं। 1458 ई. में प्रणीत। 2) इसी विषय पर एक अन्य छोटा निबंध। दोनों की भूमिका कुछ अंश में समान है। 1478-1643 ई. के बीच प्रणीत । 3) ले.- विश्वनाथ के पुत्र अनन्त दीक्षित, बडौदा। 1752-3 ई.। 4) ले.- नारायणभट्ट। पिता- रामेश्वरभट्ट । 5) ले.- आपदेव। 6) ले.- काशी दीक्षित । पिता- सदाशिव। (अपरनाम-रुद्रानुष्ठान पद्धति तथा महारुद्रपद्धति । 7) ले.- भास्कर दीक्षित । रामकृष्ण के पुत्र । शांखायनगृह्य के अनुसार। 8) ले.- विश्वनाथ । पिता- शम्भुदेव । माध्यन्दिन शाखियों के लिए। 9) ले.- रेणुक। ई. 1682 में प्रणीत । रुद्रयामलम् (रुद्रयामलतन्त्रम्) - भैरव-भैरवी (उमा-महेश्वर) संवादरूप। भैरव प्रश्न कर्ता और भैरवी उत्तर देने वाली है। यह अनुत्तर तन्त्र और उत्तरतन्त्र भेद से दो भागों में विभक्त है। दोनों में कुल मिलाकर 54 पटल हैं- श्रीयामल, विष्णु यामल, भक्तियामल, ब्रह्मयामल इत्यादि इन सब यामलों का उत्तरकाण्ड रूप रुद्रायमल है। रुद्रयामल (उत्तरषट्क) - रुद्रयामल तन्त्र । उमा- महादेव संवादरूप। अनुत्तर और उत्तर नामक दो षट्कों में विभक्त है। उत्तर षट्क छह पटलों में पूर्ण है। धातुकल्पों का प्रतिपादक तंत्र। इसके अन्त में सुवर्ण की प्रशंसा दी गई है। विषयषट्चक्र ध्यान, त्रिपुरा के मन्त्रों का निर्णय, कामतत्त्वसाधन, त्रिपुरा का ध्यान सिद्धियां और विद्याकोष। श्लोक- संभवतः सवा लाख। रुद्रविधानम् - ले.- कात्यायन । विषय- कर्मकाण्ड। . रुद्रविधानपद्धति - ले.- काशीनाथ दीक्षित । सदाशिव दीक्षित के पुत्र। 2) ले- चन्द्रचूड। रुद्रविधि - विषय- न्यासपूर्वक रुद्र की जप, होम, पूजा विधि । रुद्रविलासनिबन्ध- ले. नन्दन मिश्र । रुद्रव्याख्यानम् - ले.- श्लोक- 427। रुद्रसूत्रम् (नामान्तर-रुद्रयोग) - ले.- अनन्त देव। पिता -उध्दव। काशी-निवासी। रुद्रस्नानविधि - (या रुद्रस्नानपद्धति) - ले.- रामकृष्ण। नारायण के पुत्र। ई. 16 वीं शती। रुद्रहृदयोपनिषद् - ले.- एक शैव उपनिषद् जो कृष्ण यजुर्वेद में है। इस में अनुष्टुभ् छंद के 52 श्लोक हैं। रुद्र को सभी देवताओं की आत्मा बताया गया है। अतः रुद्र की उपासना से सभी देवता सन्तुष्ट होते हैं। इस उपनिषद् में शैव और वैष्णव सम्प्रदायों की एकता प्रस्थापित की गई है। रुद्राक्षकल्प - शिव-पार्वती संवादरूप। विषय- रुद्राक्ष की उत्पत्ति, उसके धारण का फल आदि। रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् - सामवेद से सम्बद्ध एक शैव उपनिषद्। भूखंड मुनि द्वारा कालाग्निरुद्र को रुद्राक्ष की उत्पत्ति विषयक जानकारी बतलायी गई। इस में रुद्राक्ष निर्मिति, रुद्राक्ष प्रभाव आदि का विवेचन है। रुद्राक्ष की उत्पत्ति विषयक गाथा इस प्रकार बताई जाती हैं : त्रिपुरासुर को मारने के लिये जब कालाग्निरुद्र ने ध्यानार्थ अपनी आखें बंद की तब उन आखों से जो आंसू बाहर निकले वही रुद्राक्ष बने और जब आंखे खोली तब निकले हुए आंसूओं से रुद्राक्ष के वृक्ष पैदा हुए। रुद्राक्ष धारण तथा इस उपनिषद् के पठन की फलश्रुति विषयक जानकारी भी इसमें दी गई है। रुद्राक्षफलम् - शिव-गौरी संवादरूप। विषय- रुद्राक्ष धारण से होने वाले फल आदि का कथन । रुद्रागम - 1) किरण के मतानुसार अष्टादश (18) रुद्रागम :विजय, पारमेश, निःश्वास, प्रोद्गीत, मुखबिम्ब, सिद्धमत, सन्तान, नारसिंह, चन्द्रहास, भद्र स्वायंभुव, विरज, कौरव्य, मुकुट, किरण, कलित, आग्नेय और पर। 2) श्रीकण्ठी के अनुसार अष्टादश (18) रुद्रागमः- विजय, निःश्वास, मद्गीत, मुखबिम्ब, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह, चन्द्रांशु, वीरभद्र, आग्नेय, स्वायंभुव, विसर, रौरव, विमल, किरण, ललिता और सौरभेय। रुद्राध्याय - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के चौथे कांड में यह मंत्रसमूह आया है जिसे रुद्र अथवा शतरुद्रीय भी कहा जाता है। इसके नमक और चमक दो भाग हैं। प्रत्येक भाग में 11 अनुवाक हैं। प्रथम भाग में "नमः" शब्द बार बार आने से उसे “नमक' और दूसरे भाग में “च में" शब्द के बार बार प्रयोग से उसे "चमक" कहा गया है। शुक्ल यजुर्वेद में भी यह अध्याय आया है। रुद्र के विविध नाम. रूपों, गुणों और व्याप्ति का विवेचन इसमें है। रुद्रसूक्त को कर्म और ज्ञान- दोनों मार्गों के लिये उपयोगी निरूपित किया गया है। शंख, याज्ञवल्क्य, अत्रि व अंगिरस् के मतानुसार रुद्राध्याय के पठन से सकल पातकों का नाश होता है। शैवों के साथ वैष्णव सम्प्रदायों ने भी रुद्राध्याय की महत्ता स्वीकार की है। रुद्रानुष्ठानपद्धति - ले.- सर्वज्ञ कुल के मंगलनाथ। यह प्रधान रूप से महार्णव पर आधारित है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 311 For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2) ले.- नारायण। पिता- रामेश्वर । 3) ले.- शंकर । पिता- बल्लालसूरि । ई. 18 वीं शती। रुद्रानुष्ठानप्रयोग- ले.- खण्डभट्ट अयाचित । पिता - मयूरेश्वर । रुद्रार्चनचन्द्रिका- ले.- शिवराम। रुद्रार्चनमंजरी- ले.- वंदारूराय। रुद्रोपनिषद्- इस शैव उपनिषद् में शिवोपासना की ऐसी महिमा बतायी गयी है कि शिवलिंग की पूजा करने वाला चांडाल, पूजा न करने वाले ब्राह्मण से श्रेष्ठ है। शिव को विश्वव्यापी पुरुष, प्राण, गुरु और संरक्षक बताया गया है। रूपनारायणीय-पद्धति - ले.- उदयसिंह रूपनारायण । शक्तिसिंह के पुत्र। ई. 15-16 वीं शती। इसमें तुलापुरुष आदि षोडश महादानों, कूप, वापी, तडाग, विविध नवग्रहहोम, अयुतहोम, लक्षहोम, दुर्गोत्सव का वर्णन है। रूपनिर्झर काव्यम्- ले.- हरिचरण भट्टाचार्य । जन्म- 1878।। रूपमाला - ले.- विमल सरस्वती। विषय-व्याकरण। ई. 15 वीं शती। रूपसिद्धि - ले.- मुनि दयालपाल। शाकटायन व्याकरण सूत्रों के आधार पर रचित एक ग्रंथ। समय वि. सं. 1082 के लगभग। इसके अतिरिक्त शाकटायन टीका (भावसेन विद्यदेव कृत) तथा प्रक्रियासंग्रह (अभयचन्द्राचार्य कृत) ये दो प्रक्रिया ग्रंथ अप्राप्य हैं। रूपावतार - ले.- धर्मकीर्ति । विषय - पणिनीय व्याकरण।। रुबायत ऑफ उमरख्ययाम् - संस्कृत अनुवाद कर्ता- हरिचरण भट्टाचार्य। 2) ले.- प्रा. एस. आर. राजगोपाल । 1940 में लिखित । रेखागणितम् - ले.- नृसिंह (बापूदेव) शास्त्री । ई. 19 वीं शती। रोगनिदानम्- ले.- धन्वतरि।। रोगशान्ति - बोध्यायन कथित । श्लोक 198 | विषय- प्रतिपद् आदि तिथियों और भिन्न नक्षत्रों के दिन आदि की उत्पत्ति होने पर कितने दिनों तक रोग भोग करना पड़ता है इसका प्रतिपादन किया गया है और प्रत्येक रोग की शान्ति का प्रकार भी बतलाया गया है। रोगहरचिन्तामणि - इस में वे मन्त्र प्रतिपादित हैं जिनके जप से रोगों की निवृत्ति होती है। ये मन्त्र वामकेश्वर तन्त्र से गृहीत हैं। रोचनानन्दम् (रूपक)- ले.- वल्लीसहाय। ई. 19 वीं शती। इसमें रूक्मवान् (कृष्ण के श्यालक) की कन्या रोचना तथा कृष्णपौत्र अनिरुद्ध की प्रणयकथा वर्णित है। रुक्मवान् कृष्ण का वैरी होने का कारण विवाह में बाधा डालता है, इसके अनन्तर का अंश अप्राप्य । संस्कृत के साथ प्राकृत का यथोचित प्रयोग किया है। रोमावलीशतकम् - ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती। पूर्वार्ध काव्यमाला में प्रकाशित। लंकावतारसूत्रम् (सद्धर्मलंकावतारसूत्रम्) - ले.- अज्ञात । दूसरे परिवर्त की पुष्पिका में इसे “षट्त्रिंशत्साहस्र" कहा है अर्थात् इसमें 36000 श्लोक हैं। यह सूत्र विज्ञानवादी महायान सिध्दान्तों का प्रकाशक तथा मौलिक महत्त्वपूर्ण रचना है। विज्ञानवाद का प्रादुर्भाव शून्यवाद की आत्यंतिकता का खण्डन करने हेतु हुआ। उसके विविध रूपों का व्याख्यान इसमें है। ___10 परिवों में विभक्त, इस ग्रथं में रावण को सध्दर्म का उपदेश स्वयं तथागत बुध्द ने उसके अन्यान्य प्रश्नों के उत्तर रूप में किया है। 108 विषय प्रश्नोत्तर रूप में चर्चित हैं। मासांशन निषेध यहीं सर्वप्रथम चर्चित है तथा सर्प, प्रेत, राक्षसादि से रक्षण का भी निर्देश है। दशम परिवर्त में 884 गाथाओं में विज्ञानवाद का शिलान्यास है जिसका पल्लवित तथा परिष्कृत रूप मैत्रयनाथ के सूत्रबद्ध सिद्धान्तों में दीखाता है। इसके समीक्षणादि कार्य अनेक विद्वानों ने (विशेषतः जपानी) किये। 1,9 तथा 10 परिवर्त संभवतः बाद में जुड़े हैं, मूल संस्कृत प्रति तीसरे चीनी अनुवाद पर आधारित है जो 700-704 ई. में शिक्षानन्द ने किया है, इसके पूर्व दो अनुवाद हुए थे। यह संभवतः चतुर्थ शती की रचना है। अनेक भारतीय दार्शनिक तथा विद्वानों का भविष्य कथन के रूप में उल्लेख महत्त्वपूर्ण है, तृतीय परिवर्त में आत्मविरुद्ध वचनों पर विचार है, तदनुसार समस्त गोचर पदार्थ स्वप्नवत् भ्रान्ति मात्र है, चित्त मात्र सत्य तथा निराभास तथा निर्विकल्प है। यह रचना गद्यपद्यमय तथा सरल शैली में नाटकीय रूप में विवेचनात्मक है। लक्षणदीपिका - ले.- गौरनाथ। ई. 15 वीं शती (पूर्वार्ध)। विषय- साहित्य, संगीत तथा नृत्य। लक्षणप्रकाश - ले.- मित्रमिश्र। यह वीरमित्रोदय ग्रंथ का एक भाग है। चौखम्भा संस्कृत सीरीज में प्रकाशित। विषयधर्मशास्त्र। लक्षणरत्नमालिका - ले.- नारोजि पण्डित । विश्वनाथ के पुत्र । वर्णाश्रमाचार, दैव, राज, उद्योग, शरीर पर पांच पद्धतियों में प्रतिपादन। लगता है, यह लेखक के स्वकृत, लक्षणशतक की एक टीका है। लक्षणव्यायोग - ले.- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । जन्म-1917 । विषय- नक्सलवादी आंदोलन की चर्चा । लक्षणशतकम् - ले.- नारोजि पंडित । लक्षणसमुच्चय - ले.- हेमाद्रि। लक्षणसारसमुच्चय - विषय- शिवलिंग के निर्माण के नियम। 32 प्रकरणों में पूर्ण। लक्षहोम-पद्धति - (1) ले.- काशीनाथ दीक्षित। पिता 312 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदाशिव दीक्षित। 2) गोविंद। पिता- पुरुषोत्तम । 3) ले.- नारायणभट्ट । पिता- रामेश्वर । ई. 16 वीं शती। लक्ष्मणाभ्युदयम् - ले.- गणेशराम शर्मा । झालवाडा (राजस्थान) स्थित राजेन्द्र महाविद्यालय में संस्कृत के प्राध्यापक। डुंगरपुर के राजा लक्ष्मणसिंह का चरित्र-वर्णन इस काव्य का विषय है। लक्ष्मीकल्याणम् (समवकार)- ले.- रामानुजाचार्य । लक्ष्मीकल्याणम् (नाटिका)- ले.- सदाशिव दीक्षित। 18 वीं शती। विषय- पृथ्वी पर कन्या के रूप में अवतार लेकर लक्ष्मी का विष्णु के साथ विवाह। अंकसंख्या- चार। यह रचना कुमारसम्भव से प्रभावित है। लक्ष्मीकुमारोदयम् - कवि- रंगनाथ। कुम्भकोणम् के लक्ष्मीकुमार ताताचार्य नामक सत्पुरुष का चरित्र इसमें वर्णित है। लक्ष्मीतन्त्रम् - नारदपंचरात्र के अन्तर्गत। श्लोक - 3000। अध्याय 50। विषय - विष्णु की शक्ति लक्ष्मी की सविस्तर पूजा और स्तुति । लक्ष्मी-देवनारायणीयम् - ले.- श्रीधर। अठाहवीं शती का पूर्वार्ध। अम्पलप्पुल (त्रावणकोर) के राजा देवनारायण को नायक बनाकर की हुई रचना। अंकसंख्या-पांच। देवनारायण द्वारा आयोजित विचित्र-यात्रा के उत्सव में अभिनीत । रूपगोस्वामी के नाटकों से प्रभावित। प्रस्तावना के स्थान पर "स्थापन" शब्द का प्रयोग। प्राकृतिक वर्णनों की बहुलता। कथासारनन्दपुर निवासी दिनराज की पुत्री लक्ष्मी पर नायक देवनारायण लुब्ध हैं। वारिभद्रा नदी के तट पर स्थित वासुदेव के मन्दिर में नायक नायिका को प्रेमपत्र भेजती है। नायक उसे भद्रनन्दन प्रदेश में बुलाता है। नायक भद्रनन्दन से राक्षसराज को निष्कासित करता है। राक्षसराज प्रतिज्ञा करता है कि वह नायक की पत्नी का हरण करेगा। लक्ष्मी नायक से मिलने वहां पहुंचती है। राक्षस वनगज का रूप धारण कर पूरी भूमि उजाड डालता है। ज्यों ही नायक उसे मारने दौडता है, राक्षस लक्ष्मी का अपहरण करता है। राक्षक तथा नायक में युद्ध होता है जिसमें राक्षस मारा जाता है परंतु प्रेमिका के वियोग में नायक विह्वल होता है। तब आकाशवाणी होती है कि नायिका अपने पिता के पास सकुशल है। अन्ततो गत्वा नायक देवनारायण नायिका लक्ष्मी के साथ विवाहबद्ध होता है। लक्ष्मीधरप्रतापम् - ले.- शिवकुमार शास्त्री। काशीनिवासी। जन्म इ. स. 1848। मृत्यु 1919। दरभंगा राजवंश का समग्र वर्णन इस काव्य में किया है। लक्ष्मीनारायणचरितम् - ले.- वरदादेशिक । पिता - श्रीनिवास । ई. 17 वीं शती। लक्ष्मीनारायणपंचांगम्- रुद्रयामल के अन्तर्गत । श्लोक- 500। लक्ष्मीनारायणा_कौमुदी- ले.- शिवानन्द गोस्वामी। 15 प्रकाशों में पूर्ण। लक्ष्मीनृसिंहविधानम् (सटीक) - श्लोक - लगभग 586 । लक्ष्मीनृसिंहशतकम् - ले.- पारिथीयूर कृष्ण। 19 वीं शती । लक्ष्मीनृसिंहसहस्राक्षरीमहाविद्या - श्लोक-100। लक्ष्मीपंचागंम् - ईश्वरतन्त्रम् में उक्त। श्लोक-658 । लक्ष्मीपटलम् - श्लोक- 1401 लक्ष्मीपद्धति - डामरतन्त्रान्तर्गत। श्लोक-751 लक्ष्मीपूजनम् - श्लोक - 701 (लक्ष्मीयन्त्रसहित) लक्ष्मीलहरी - ले.- जगन्नाथ पण्डितराज। ई. 16-17 वीं शती। 41 श्लोकों का स्तोत्रकाव्य। लक्ष्मीविलासम् - ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पाटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। लक्ष्मीवासुदेवपूजापद्धति - श्लोक- 200। लक्ष्मीव्रतम् (लक्ष्मीचरितम्) - ले.-श्रीराम कविराज । अध्याय51 लक्ष्मीश्वरचम्पू - ले.- अनन्तसूरि । लक्ष्मीसपर्यासार - ले.- श्रीनिवास। लक्ष्मीसहस्रम् - ले.-वेंकटाध्वरी। ई. 17 वीं शती। (विश्वगुणादर्शचंपूकार) एक रात्रि में रचित, अलंकारयुक्त और भक्तिरसपूर्ण स्तोत्रकाव्य। 2) लेखिका- त्रिवेणी। प्रतिवादिभयंकराचार्य की पत्नी। लक्ष्मीस्वयंवरम् (अपरनाम विबुधानन्दम्) - ले.-प्रधान वेङ्कप्प। ई. अठारहवीं शती। श्रीरामपूर के निवासी। प्रथम अभिनय श्रीरामपूर में तिरुवेङ्गलनाथ के महोत्सव में। अंकसंख्यातीन। प्रत्येक अंक के पहले विष्कम्भक है। प्रधान रस शृङ्गार। कथासार - प्रणयकलह के कारण लक्ष्मी ने समुद्रकन्या के रूप में पुनर्जन्म लिया है। समुद्र उसका स्वयंवर कराते हैं। राक्षस, विद्याधर, इन्द्र, अग्नि, यम, निक्रति, वायु तथा कुबेर को नकार कर लक्ष्मी विष्णु के गले वरमाला डालती है। विष्णु सभी देवों को पारितोषिक देते हैं और नवदम्पती को सभी अमरता का आशीर्वाद देते हैं। लक्ष्मीस्वयंवरम् - ले.-डॉ. वेंकटराम राघवन्। सन 1959 में लक्ष्मीव्रत के अवसर पर आकाशवाणी मद्रास से प्रसारित । प्रेक्षणक (ओपेरा)। समुद्र-मंथन से लेकर लक्ष्मी के विष्णु से विवाह तक की कथावस्तु । लक्ष्मीहृदयम् (लक्ष्मीहृदयस्तोत्रम्)- अथर्वरहस्य से गृहीत । श्लोक 1061 लक्ष्यसंगीतम् ( श्रीमल्लक्ष्यसंगीतम्)- ले.-विष्णु नारायण भातखण्डे। लग्नसारिणी - ले.- दिनकर । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 313 For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लघीयस्त्रयम् (स्वोपज्ञपवृत्ति सहित) - ले.-अकलंकदेव।। शती। जयपुरनिवासी। ई. 8 वीं शती। जैनाचार्य। लघुवृत्ति (या अनुत्तरत्रिंशिकाविमर्शिनी) - यह लघुकालनिर्णय - ले.-माधवाचार्य। अनुत्तरत्रिंशिका की लघु व्याख्या है। रचयिता का नाम अज्ञात लघुचक्रपद्धति - विषय- श्रीचक्रनिर्माण की विधि । है। श्लोक- 3001 लघुचन्द्रिका - ले.-सच्चिदानन्द। ग्रंथकार ने स्वकृत । लघु-वृत्तिविमर्शिनी (अनुत्तरत्रिशिंका की व्याख्या) - ललितार्चनचन्द्रिका का संक्षेप श्रीविद्याक्रम-पूजन-लघुचन्द्रिका के ले.-श्रीकृष्णदास । श्लोक- 600। नाम से प्रस्तुत किया है। प्रकाश- 51 श्लोक- 800। विषय- लघुशातातपस्मृति - आनन्दाश्रम द्वारा प्रकाशित । उपासक के आह्निक कृत्य, न्यासविधि, अर्घ्यसाधनादि विधि, लघुशब्देंदुशेखर - ले.-नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट। माताआवरण पूजा से लेकर विसर्जनान्त पूजन का विधान, सती। ई. 18 वीं शती। विषय- व्याकरणशास्त्र। इस पर आसनोत्थापनविधि ई. टीकाएं (1) वैद्यनाथ पायगुंडे कृत चिदस्थिमाला। (2) लघुचिन्तामणि - ले.-वीरेश्वरभट्ट गोडबोले। उदयशंकर पाठककृत ज्योत्स्रा। (3) सदाशिव शास्त्री घुले, लघुदीपिका - ले.- गदाधर । आनन्दवन विरचित रामार्चनचन्द्रिका (नागपुरनिवासी) कृत सदाशिवभट्टी (या भट्टी) (4) की टीका। श्रीधरकृत-श्रीधरी। (5) राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगडकरकृत विषमा लघुद्रव्यसंग्रह - ले.- नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव। जैनाचार्य। ई. और (6) इन्दिरापतिकृत- परीक्षा। 12 वीं शती। लघुसप्तशतिका-स्तोत्रम् - ले.-प्रभाकर। ई. 16 वीं शती। लघुनयचक्रम् - ले.- देवसेन । जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती। विषय- देवीमहिमा। लघुनिबन्धमणिमाला - ले.-प्रा. श्रुतिकान्त । लघुसर्वज्ञसिद्धि - ले.-अनन्तकीर्ति । जैनाचार्य । ई. 8-9 वीं शती। लघुपद्धति (या कर्मतत्त्वप्रदीपिका) - ले.-कृष्णभट्ट। पिता लघुसूत्र पूजापद्धति • ले.-उमानन्दनाथ। श्लोक- 700। पुरुषोत्तम। समय- ई. 14 वीं शती। विषय- आचार एवं लघुहारीतस्मृति - अपरार्कद्वारा वर्णित। आनन्दाश्रम (पुणे) व्यवहार का विवेचन। एवं जीवानन्द द्वारा प्रकाशित । 2) ले.- विद्यानन्दनाथ। श्लोक- 1000। लघुस्तवराज - ले.-श्रीनिवासाचार्य। निंबार्काचार्य के शिष्य । लघुपाणिनीयम् - ले.-राजराजवर्मा । लघ्वत्रिस्मृति - ले.- जीवानन्द । लघुपूजापद्धति - ले.- विद्यानन्दनाथ । श्लोक- लगभग- 220 । लघ्वी (विवरण) - ले.- प्रभाकर मिश्र । ई. 7 वीं शती। लघुभागवतामृतम् - ले.-रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती।। लब्धिसार - ले.- नेमिचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। चैतन्य मत के प्रमुख आचार्य तथा षट् गोस्वामियों में एक।। लब्धिविधानकथा - ले.-श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं लघुभारतम्- (महाकाव्य) - ले.-गोविन्दकान्त विद्याभूषण । ऐतिहासिक काव्य। सन 1857 के स्वातंत्र्ययुद्ध तक की घटनाएं लम्बोदर (प्रहसन) - ले.- वेंकटेश। ई. अठारहवीं शती। वर्णित। ललितगीतलहरी - ले.-ओगेटी परीक्षित शर्मा। आन्ध्र के लघुमंजूषा- ले.- नागेशभट्ट । व्याकरण ग्रंथ। निवासी। पुणे में सेवारत। शारदा प्रकाशन, पुणे-30। संस्कृत लघुमानसम् - ले.- मुंजाल ( या मंजुल) ज्योतिष विषयक गीतकाव्यों का संग्रह। सुप्रसिद्ध ग्रंथ। समय- 932 ई.। "लघुमानस" में 8 प्रकरण ललितमाधवम् (श्रीकृष्णविषयक प्रख्यात नाटक) - हैं। इनमें वर्णित विषयों के अनुसार प्रत्येक प्रकरण का नामकरण ले.-रूपगोस्वामी। ई. 1537 में रचित । इसका प्रयोग राधाकुण्ड किया गया है। मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, तिथ्यधिकार, के तट पर माधव मन्दिर के सामने हुआ था। दस अंकों के त्रिप्रश्नाधिकार, ग्रहयुत्यधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, चंद्रग्रहणाधिकार इस नाटक में प्रमुख रस शृंगार है। चन्द्रावली, राधा आदि तथा शूगोन्नत्यधिकार। ज्योतिषशास्त्र के इतिहास में इस ग्रंथ नायिकाओं के साथ कृष्ण की प्रणयलीलाओं का कलापूर्ण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। अंकन इसमें है। राधा के गद्य संवाद प्राकृत में, परन्तु पद्य परमेश्वर कृत संस्कृत टीका के साथ "लघुमानस" का भाग संस्कृत में हैं। भारुण्डा (चन्द्रावली की सास) तथा प्रकाशन 1944 ई. में हो चुका है। इसी प्रकार एन.के. जटिला (राधा की सास) खलनायिकाओं के रूप में चित्रित हैं। मजूमदार कृत इसका अंग्रेजी अनुवाद कलकत्ता से 1951 ई. संक्षिप्त कथा- इस नाटक के प्रथम अंक में श्रीकृष्ण वन में प्रकाशित हुआ है। से घर लौटने पर अपनी प्रेमिकाओं -राधिका और चंद्रावली लघुरघुकाव्यम् • ले.-सीताराम पर्वणीकर। ई. 18-19 वीं से मिलने का प्रयास करते हैं किन्तु उन दोनों की सासों शती। 314/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जटिला और भारुण्डा द्वारा विघ्न डालने से वे असफल हो है। यह ग्रंथ बुद्धकथाओं के विस्तार का संक्षिप्त इतिहास ही है। जाते हैं। द्वितीय अंक में कंस के द्वारा प्रेषित शंखचूड राधा इसके तीसरे अध्याय में बुद्ध के काल, देश, स्थान और का अपहरण करता है। श्रीकृष्ण शंखचूड को मार कर राधा जाति में अवतारवरद के उदय पर विशेष रूप से प्रकाश की रक्षा करते हैं। तृतीय अंक में कंस के आदेश से अक्रूर डाला गया है। इसमें बताया गया है बुद्ध सृष्टि के हर एक श्रीकृष्ण और बलराम को लेकर मथुरा जाते हैं। कृष्ण के परिवर्तनकाल में केवल जम्बुद्वीप में ही अवतार लेते हैं। विरह से गोपियां रोने लगती हैं। विरहाकुल राधा विशाखा के मध्यदेश उसके अवतार हेतु उपयुक्त स्थान है। वहां वे ब्राह्मण साथ यमुना में कूद कर प्राण त्याग करती है और सूर्यलोक अथवा क्षत्रिय कुल में वे अवतीर्ण होते हैं। वैकुंठ से अवतीर्ण में चली जाती है। चतुर्थ अंक में कृष्ण कंसवध करके द्वारका होने के पूर्व जिस प्रकार विष्णु स्वर्गीय देवताओं से विचार जाते हैं। इधर गोकुल से चन्द्रावली को उसका भाई रुक्मी विमर्श करते हैं, उसी प्रकार बुद्ध भी अवतीर्ण होने के पूर्व कुण्डनीपुर ले जाते है। तभी नरकासुर सोलह हजार गोपियों तृषित लोक में सभी देवी-देवताओं, नाग, बोधिसत्व, अप्सरा का अपहरण करके उन्हें कारागार में डाल देता है। पंचम आदि गणों से विमर्श कर अपने अवतार की सिद्धता उन्हें अंक में श्रीकृष्ण चन्द्रावली का अपहरण करके उससे विवाह देते हैं। विष्णु की भांति ही बुद्ध के अवतार ग्रहण करने पर करते हैं। षष्ठ अंक में भगवान् सूर्य राधा को सत्यभामा के ___ भूतल पर मनोरम, चैतन्यमय व सुख का वातावरण छा जाता है। रूप में सत्राजित को देते हैं। सत्राजित् उसे रुक्मिणी (चन्द्रावली) ___ "ललितविस्तर" में अनेक स्थानों पर बुद्ध को नारायण का के पास रख देते हैं और उसे स्यमंतक मणि की प्राप्ति तक अवतार बताया गया है। इस ग्रंथ की गाथाओं और कथाओं गुप्त रूप में रहने को कहते है। सप्तम अंक में सूर्य के के आधार पण ही अश्वघोष ने बुद्धचरित नामक प्रख्यात श्वसुर विश्वकर्मा द्वारका में नववृन्दावन का निर्माण कर राधा महाकाव्य की रचना की है। की प्रतिमा बनाते हैं जिसे देख कृष्ण मुग्ध हो जाते हैं। अष्टम ललितविस्तर - ले.-हरिभद्रसूरि । ई. 8 वीं शती। अंक में रुक्मिणी, सत्यभामा और कृष्ण के प्रेम को देखकर ललिता - ले.- वेंकटकृष्ण तम्पी। सन 1924 में प्रकाशित । सत्यभामा से ईर्ष्या करने लगती है। श्रीकृष्ण द्वारा स्यमन्तक इस आख्यायिका में राजपूत व इस्लामी युग का अंकन आधुनिक मणि के प्राप्त होने पर सत्यभामा अपने भेद को खोलकर शैली में किया है। स्वयं को राधा बताती है। चन्द्रावली यह जानकर प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण के साथ उसका विवाह कर देती है। नंद, यशोदा ललिताक्रम (नामान्तर -ललितापद्धति) - श्लोक- लगभगऔर देवता भी आकर इन दोनों को आशीर्वाद देते हैं। 7801 __ललितमाधव में कुल 42 अर्थोपक्षेपबक हैं। इनमें 8 ललिताक्रमदीपिका - ले.- योगीश । श्लोक- लगभग- 1080 । लिपिकाल 18171 वि. विषय- ललिता देवी की पूजाविधि विष्कम्भक और 34 चूलिकाएं हैं। का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन । ललितराघवम् - कवि- श्रीनिवास रथ । ललितातिलकम् (सटीक) - ले. काशीनाथ । श्लोक- लगभगललितविग्रहराज - ले.-सोमदेव । पिता- राम । ई. 11 वीं शती।। 17951 ललितविस्तरम् (अपरनाम वैपुल्यसूत्रः महानिदान, महाव्यूह) ललितात्रिशती - श्रीशंकराचार्यकृत टीका सहित। - लेखक- अज्ञात। रचनाकाल सम्भवतः ई. पू. प्रथम शती। ललितानित्यपूजाविधि - ले.-सहजानन्दनाथ। श्लोक 500। चीनी तथा तिब्बती भाषा में अनेक रूपान्तर उपलब्ध हैं। प्रथम ललितानित्योत्सवनिबन्ध - ले.- उमानन्दनाथ। भारतीय संस्करण राजेन्द्रलाल मित्र द्वारा कलकत्ता से। द्वितीय एफ, लेफमेन द्वारा दो भागों में। यह महायान सम्प्रदाय की ललितापरिशिष्टम् - त्रिपुरा के मन्त्र और उनके ऋषि, देवता, श्रेष्ठ कृति है। वर्ण्य विषय- लोकोत्तर जीव के रूप में बुद्ध विनियोग आदि का प्रतिपादन करते हुए मन्त्रों के नाम दिये गये हैं। जीवन का वृत्तान्त । गद्यपद्यमय रचना। इसमें प्राचीन तथा ललितापूजनपद्धति (कादिमतानुसार) - श्लोक- 400। नवीन अंशों का संयोजन होने से यह एक लेखक की कृति ललितापूजनविधि - श्लोक- 500। नहीं मानी जाती। यह विशद संग्रह के रूप में है। आचार्य ललितापूजा - ले.-उमानन्दनाथ। श्लोक - लगभग 400। नरेंद्रदेव के मतानुसार यह ग्रंथ हीनयानीयों के किसी प्राचीन ललितार्चनचन्द्रिका - ले.-सच्चिदानन्दनाथ (अथवा सुन्दराचार्य) ग्रंथ का रूपांतर है। इस ग्रंथ से बुद्ध के जीवन के क्रमिक 25 प्रकाशों में पूर्ण। श्लोक- 5000। विषय- प्रातःकाल विकास का पता चलता है। गौतम बुद्ध के जन्म से लेकर निष्क्रमण विधि, तान्त्रिक स्नान, संध्यावन्दन, सूर्यार्थ्यदान द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन की घटनाओं का इसमें समावेश है। इसमें पूजा आदि की विधि, पूजा प्रारंभ, भूतशुद्धि, परिवर्त नामक 27 अध्याय हैं। बुद्ध को अवतारी पुरुष माना प्राण-प्रतिष्ठा,मातृकान्यास, श्रीचक्रन्यास आदि न्यासविधियाँ, गया है। इस ग्रंथ पर वैष्णव अवतारवाद का पर्याप्त प्रभाव करशुद्धि, मूलविद्या, महाषोढान्यास, मुद्राविचार, पात्रासादन, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 315 For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मपूजा, पंचायतन-पूजा इ.। अनुवादक- आप्पाशास्त्री राशिवडेकर। ललितार्चनचन्द्रिका-रहस्यम् - श्लोक- 25001 लिखितस्मृति - ले.-जीवानन्द । आनन्दाश्रम द्वारा प्रकाशित । ललितार्चनपद्धति - ले.- चिदानन्दनाथ । गुरु- प्रकाशानन्दनाथ । इसमें वसिष्ठ एवं अन्य ऋषि, लिखित ऋषि से चातुवर्ण्यधर्म पूर्व और उत्तर दो परिच्छेदों में विभक्त है। एवं प्रायश्चित्तों के प्रश्न पूछते हुए उल्लिखित हैं। ललितार्चनविधि - ले.-निरंजनानन्दनाथ। श्लोक- 1325 । लिंगपुराणम् - पारंपारिक क्रमानुसार 11 वां पुराण। इसका 2) ले.- भासुरानन्दनाथ। श्लोक- 2800 । प्रतिपाद्य विषय है विविध प्रकार से शिवपूजा के विधान का ललितासहस्रनाम (सटीक) - ब्रह्मपुराण के अन्तर्गत। प्रतिपादन व लिंगोपासना का रहस्योद्घाटन। इस पुराण से श्लोक- 231। इसका एक संस्करण, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई विदित होता है कि भगवान् शंकर की लिंग रूप में से पूजा से प्रकाशित हो चुका है। इस पर भास्करराय की व्याख्या उपासना करने पर ही अग्निकल्प में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष है। डॉ. इलपावलूरी पांडुरंगरावकृत हिंदी विवेचन के साथ की प्राप्ति होती है। अक्षरभारती (मोतीबाग नई दिल्ली) से इसका प्रकाशन हुआ है। _इस पुराण में श्लोकों की संख्या 11 सहस्र तथा अध्यायों ललितासहस्त्राक्षरीमन्त्र - श्रीपुराण से गृहीत । श्लोक- 100 । की संख्या 163 है। इसके 2 विभाग किये गये हैं- पूर्व ललितास्तवरत्नम् - ले.-दुर्वासा । (अध्याय 108) व उत्तर (अध्याय- 55)। पूर्व भाग में शिव द्वारा ही सृष्टि की उत्पत्ति का कथन किया गया है तथा ललितोपाख्यानम् - महालक्ष्मीतन्त्रान्तर्गत। श्लोक- 540।। वैवस्वत मन्वंतर से लेकर कृष्ण की उत्पत्ति का एवं कृष्ण के लवणमन्त्रप्रयोगविधि - ले.-सदाशिव दशपुत्र। पितामह समय तक के राजवंशों का वर्णन है। शिवोपासना की प्रधानता विष्णु। पिता- गदाधर। श्लोक- 3332 | विषय- प्रमाणों द्वारा होने के कारण इस में विभिन्न स्थानों पर उन्हें विष्णु से महान् शिवजी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन । मूर्ति के भेद से देवता की सिद्ध किया गया है। प्रस्तुत पुराण में भगवान् शंकर के 28 मन्त्रव्यवस्था, शिव के अतिरिक्त अन्य देवताओं के भजन में अवतार वर्णित हैं तथा शैव तंत्रों के अनुसार ही पशु, पाश दोष। शिव-पूजा का माहात्य, लिंगमाहात्य, पद्मराग, काश्मीरज, और पशपति का वर्णन है। इस में लिंगोपासना के संबंध में पुष्पराग, तथा विद्रुमादिमय लिंगों की पूजा का भिन्न भिन्न एक कथा भी दी गई है कि किस प्रकार शिव के वनवास फल, पारद, बाण, हेम आदि लिंगों की क्रमशः ब्राह्मण आदि करते समय मुनि-पत्नियां उनसे प्रेम करने लगी और मुनियों के लिए मंगलप्रदता, अधिकारी भेद से अन्य प्रकार के लिंगों ने उन्हें शाप दिया। इसके 92 वें अध्याय में काशी का की आवश्यकता, कलियुग में पार्थिव लिंग की प्रधानता, विशद विवेचन है तथा उससे संबद्ध अनेक तीर्थों के विवरण भिन्न-भिन्न कामनाओं से लिंगपूजा मे विशेष इ.। दिये गये हैं। इसमें उत्तरार्थ के अनेक अध्याय गद्य में ही लवणश्राद्धम् - विषय- मृत्यु के उपरान्त चौथे दिन मृत को । लिखित हैं और 13 वें अध्याय में शिव की प्रसिद्ध अष्ट लवण की रोटियों का अर्पण। मूर्तियों के वैदिक नाम उल्लिखित हैं। लांगूलोपनिषद् - अथर्ववेद से सम्बन्धित गद्यात्मक उपनिषद् । इसमें तंत्रविद्या का विवेचन है। इसमें हनुमान् के अनेक इसकी रचना समय के बारे में अभी तक कोई सुनिश्चित मत स्थिर नहीं हो सका हैं। कतिपय विद्वान इसका रचनाकाल पराक्रमों का वर्णन देकर शत्रुनाश, स्वास्थ्यलाभ, दुःखनिवारण, विष-नाश, भूतप्रेतबाधा से मुक्ति के लिये हनुमान की आराधना 7 वीं या 8 वीं शती मानते हैं। इसमें कल्कि और बौद्ध की विधि बताई गयी है। अवतारों के भी नाम हैं तथा 9 वें अध्याय में योगांतरायों का जो वर्णन किया गया है वह योगसूत्र के "व्यासभाष्य" लाट्यायनसूत्रम् - सामवेद की कौथुम शाखा का एक श्रौतसूत्र । से अक्षरशः मिलता जुलता है। "व्यासभाष्य" का रचनाकाल इसके कुल दस अध्याय हैं जिनमें सोमयाग के सामान्य नियमों, षष्ठ शतक है। इससे भी लिंग पुराण के समय पर प्रकाश एकाहयाग, विविध यज्ञों तथा सत्रों का विवेचन है। रामकृष्ण पडता है। इसका निर्देश अलबेरुनी के ग्रंथ में तथा उसके दीक्षित, सायण व अग्निस्वामी ने इस पर भाष्य लिखे हैं। परवर्ती लक्ष्मीधर भट्ट के "कल्पतरु" में भी प्राप्त होता है। लालावैद्यम् - ले.-स्कन्द शंकर खोत। नागपुर से प्रकाशित । अलबेरुनी का समय 1030 ई. है। "कल्पतरु" में "लिंगपुराण' अंकसंख्या- तीन । प्रहसनात्मक रचना। कथासार- नायक लाला के अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये गए हैं। इन्हीं आधारों पर वैद्य, पिता के पंजीयन प्रमाणपत्र से ही काम चलाता है। कतिपय विद्वानों ने "लिंगपुराण" का रचनाकाल 8 वीं और उसके साथी डुण्डुम वैद्य, जलवैद्य तथा भस्मवैद्य भी झूठी 9 वीं शती का मध्य स्वीकार किया है किंतु यह समय अभी दवाएं देकर पैसा बटोरते हैं। उनके अनेक हास्योत्पादक कृत्यों प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। इस बारे में सम्यक् अनुलशीलन के पश्चात् अन्त में लाला वैद्य दण्डित होता है। अपेक्षित है। प्रस्तुत ग्रंथ शैव व्रतों व अनुष्ठानों का प्रतिपादन लावण्यमयी - बंकिमचंद्र कृत बंगाली उपन्यास का अनुवाद।। करने वाला अत्यंत महनीय पुसण है। इसमें शैवदर्शन के 316 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेक तत्त्व भरे हुए हैं। लिंगायत संप्रदाय का यह प्रमुख प्रमाणग्रंथ है। लिङ्गलीलाविलासचरितम् - कवि- महालिङ्ग। लिंगार्चनप्रतिष्ठाविधि - ले.-नारायणभट्ट । पिता- रामेश्वर भट्ट। लिंगादिसंग्रह - ले.-भरत मल्लिक। ई. 17 वीं शती। एक शब्दकोश। लिंगानुशासनवृत्ति - ले.- भट्टोजी दीक्षित । विषय- व्याकरण। लिंगार्चनचन्द्रिका - ले.-सदाशिव दशपुत्र। पिता- गदाधर । ई. 18 वीं शती। आश्रयदाता जयसिंह के आदेशानुसार लिखित । इसी लेखक ने अशौचचन्द्रिका नामक ग्रंथ लिखा है। लिंगार्चनतन्त्रम् (नामान्तर ज्ञानप्रकाश) - शिव-पार्वती संवादरूप। यह मूलतन्त्र 18 पटलों में पूर्ण है। श्लोक लगभग 6601 विषय- शिवलिंग की महिमा, पूजा फल, पूजा न करने में प्रत्यवाय आदि तथा पार्थिव लिंग के भेद इ.। लीलालहरी - ले.-विद्याधर शास्त्री। लीलावती - ले.- भास्कराचार्य। ई. 1114-1223 | महाराष्ट्र में विजलवीड नामक ग्राम के निवासी। इसके "सिद्धांत शिरोमणि" नामक गणितशास्त्र विषयक ग्रंथ में लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित, और गोल नामक चार खंड हैं। प्रत्येक खंड गणितशास्त्र की एक शाखा का ग्रंथ है। लीलावती में अंकगणित महत्त्वमापन इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन होने के कारण भारतीय गणितशास्त्र का यह पाठ्यपुस्तक माना गया है। इस पर 20 टीकाएं लिखी गई हैं। सन 1583 में अबुल फैजी ने लीलावती का फारसी अनुवाद किया। भास्कराचार्य की कन्या लीलावती को अकाल वैधव्य प्राप्त होने पर उन्होंने कन्या को जो गणितशास्त्र पढाया वही इस ग्रंथ के रूप में व्यक्त माना जाता है। लीलावती (वीथी) -ले.- रामपाणिवाद (अठारहवीं शती) । अम्पल्लपुल के राजा देवनारायण के आदेशानुसार रचित । इसमें विष्कम्भक का प्रयोग है जो वीथी में वर्जित है। कथासार- कर्णाटक के राजा अपनी कन्या लीलावती के अपहरण के भय से उसे राजमहिषी कलावती के संरक्षण में रखते हैं। राजा उसे चाहता है परन्तु पटरानी का मन दुखा कर नहीं। विदूषक राजा और लीलावती के मिलन के लिए सिद्धिमती नामक योगीश्वरी से सहायता लेता है। योग की माया से रानी कलावती को सर्प काटता है। वह मूर्च्छित होती है। विदूषक सपेरा बन रानी को स्वास्थ्यलाभ करता है। रानी पूछती है कि क्या पारितोषिक चाहिए। विदूषक लीलावती का परिणय राजा के साथ करने की अनुमति मांगता है। विवश रानी विवाह कराती है। नवदम्पती देवतार्चन के लिए निकलते हैं, इतने मैं ताम्राक्ष असुर लीलावती का अपहरण करता है। राजा उसे परास्त कर लीलावती को पुनः प्राप्त करता है। लीलाविलासम् (प्रहसन) - ले.- को. ला. व्यासराज शास्त्री। पालघाट (केरल) से सन 1935 में प्रकाशित । अंकसंख्या-सात । कथासार - गौतम नामक ब्राह्मण अपनी पुत्री लीला का विवाह वेदान्त भट्ट से कराना चाहता है तो उसकी पत्नी (चन्द्रिका) मिल नामक मद्यपी के साथ। लीला दोनों को नहीं चाहती। लीला का भाई सत्यव्रत बहन का मन जानकर विलास के साथ उसका विवाह निश्चित करता है। विवाह के पहले दस्यु द्वारा लीला अपहृत होती है। विलास उसकी रक्षा करता है अन्त में लीला का विवाह विलास के साथ होता है। लीलाविलासम् - ले.- एल.बी.शास्त्री, मद्रास। हास्यप्रधान नाटक। लूकलिखितसुसंवाद - ले.- बाइबल का अनुवाद। बैप्टिस्ट मिशन (कलकत्ता) द्वारा सन 1879 में प्रकाशित।। लेखमुक्तामणि- ले.- हरिदास। पिता- वत्सराज। सर्ग-4 | श्लोक-4641 विषय- लिपिक या मुहरीर के लिखने की कला । ई. 17 वीं शती। लेनिनविजयम् - (रूपक) - ले.- डॉ. रमा चौधुरी। रूस के महापुरुष लेनिन का चरित्र वर्णित । लेनिन शताब्दी पर अभिनीत । लोकप्रकाश - ले.- क्षेमेन्द्र। 11 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इसमें लेख्या प्रमाणों, बन्धक-पत्रों आदि के आदर्श-रूप वर्णित है। लोकमान्यालंकार - ले.- ग. रा. करमरकर। होलकर महाविद्यालय, इन्दौर, के भूतपूर्व प्राध्यापक। लोकमान्य तिलक का स्तवन तथा छात्रोपयोगी अलंकारों के उदाहरणों का संग्रह। लोकानन्दम् (नाटक) - ले.- चन्द्रगोमिन् । ई. 5 वीं शती। इसका तिब्बती अनुवाद मात्र प्राप्य है। नायक मणिचूड द्वारा किसी ब्राह्मण को अपनी पत्नी तथा संतान दान देने की कथा इसमें अंकित है। लोकानन्ददीपिका - सन 1887 में मद्रास से संस्कृत तथा तामिल भाषा की यह मासिक पत्रिका लोकानन्द समाज की ओर से प्रकाशित किया जाता था। लोकालोक-पुरुषीयम् (काव्य) - ले.- गंगाधर कविराज । सन 1798-18851 लोकेश्वरशतकम् - ले.- वज्रदत्त । 100 अलंकारयुक्त स्रग्धरा छन्द में निबद्ध बुद्ध की प्रार्थना। सुज्ञानी कालिस द्वारा प्रकाशित तथा फ्रेंच मे अनूदित। किंवदन्ती है कि कवि का कुष्ठरोग तीन माह में इस रचना के पश्चात् अवलोकितेश्वर बोधिसत्व में दर्शन देकर निवारण किया। यह नखाशिखान्तवर्णन युक्त स्तवन है। लोचन-रोचनी- जीव गोस्वामी। ई. 15-16 की शती। रूप गोस्वामी लिखित "उज्ज्वल-नीलमणि" की यह टीका है। लोहपद्धति - ले.- सुरेश्वर (सुरपाल) ई. 11 वीं शती। विषय - आयुर्वेद। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 317 For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वक्रतुण्डपंचांगम् - (या गणेशपचांग)। विश्वसार तन्त्र के के सिद्धान्त विद्यालय से सन् 1944 में प्रकाशित । अन्तर्गत। श्लोक 3941 अंकसंख्या-आठ। ऐतिहासिक सामग्री से भरपूर । सूक्तियों तथा वक्रोक्तिजीवितम् - ले.- आचार्य कुंतक। साहित्यशास्त्र के लोकोक्तियों का सुचारु प्रयोग, बहुविध छायातत्त्व, भारतीय वक्रोक्ति-सिद्धांत का प्रस्थान-ग्रंथ। प्रस्तुत ग्रंथ 4 उन्मेषों में दुर्दशा की सूक्ष्म रचना, गीतों का बाहुल्य (कतिपय गीत विभक्त है और उसके 3 भाग हैं- कारिका, वृत्ति व उदाहरण । प्राकृत में), संगीत द्वारा भावी घटना की सूचना। लम्बी कारिका व वृत्ति की रचना स्वयं कुंतक ने की है, और एकोक्तियां। परिष्कृत हास्य गालीगलौज, धीवरों का प्राकृत उदाहरण विभिन्न पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं से लिये गये समूहगीत, दूरवीक्षण (दूरबीन) द्वारा युद्ध देखकर नबाब ने हैं। इसमें कारिकाओं की संख्या 165 हैं (58 + 35 + 46 युद्ध का वर्णन करना आदि अन्य विशेषताएं भी हैं। कथासार+ 26)। प्रथम उन्मेष में काव्य के प्रयोजन, काव्य-लक्षण, नवाब शेरखां द्वारा प्रपीडित जनता का पक्षधर शंकर चक्रवर्ती, वक्रोक्ति की कल्पना, उसका स्वरूप व 6 भेदों का वर्णन है। दण्ड से बचने हेतु वन में भागता है। वहां प्रतापादित्य से इसी उन्मेष में ओज, प्रसाद, माधुर्य, लावण्य एवं आभिजात्य भेंट होती है। दोनों देशरक्षण की प्रतिज्ञा करते हैं। यशोर गुणों का निरूपण है। द्वितीय उन्मेष में षड्विध वक्रता का नरपति विक्रमादित्य वृद्धावस्था के कारण राज्य "वसन्त" पर विस्तारपूर्वक वर्णन है। वे हैं - रूढिवक्रता, पर्यायवक्रता, छोड काशीवास करना चाहते हैं। वसन्त उन्हें बताता है कि उपचारवक्रता, विशेषणवक्रता, संवृतिवक्रता एवं वृत्तिवैचित्र्यवक्रता । कुमार प्रतापादित्य शंकर चक्रवर्ती के साथ बिगडता जा रहा इन वक्रताओं के अनेक अवांतर भेद भी इसी उन्मेष में वर्णित है। अत एव प्रतापादित्य को दिल्ली भेजने की योजना द्वितीय हैं। इस उन्मेष में वर्णविन्यासवक्रता, पदपूर्वार्धवक्रता एवं ___अंक में बनती है। तृतीय अंक में नवाब अपने सेनापति प्रत्ययवक्रता का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए इनके अवांतर सुरेन्द्रनाथ घोषाल को शंकर को सपरिवार पकडने का आदेश भेद भी वर्णित हैं। कुंतक के अनुसार वक्रोक्ति के मुख्य 6 देता है। शंकर, सूर्यकान्त गुह पर घर का दायित्व सौंप कर भेद हैं- वर्णविन्यासवक्रता, पदपूर्वार्धवक्रता, पदपरार्धवक्रता, भागता है। सूर्यकान्त प्राणपण से शंकर के घर की रक्षा करता वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता व प्रबंधवक्रता। इनका निर्देश प्रथम है परन्तु तुमुल युद्ध में शंकर के पक्षधर परास्त होते हैं और उन्मेष में है। तृतीय उन्मेष में वाक्यवक्रता का विवेचन है सुरेन्द्र, शंकर की पत्नी के पास जाता है। वह उसे नवाब के और चतुर्थ उन्मेष में प्रकरणवक्रता व प्रबंधवक्रता का निरूपण अन्तःपुर हेतु पकडने वाला है कि शंकर और प्रतापादित्य किया गया है। "वक्रोक्तिजीवित" में ध्वनिसिद्धान्त का खंडन आकर सुरेन्द्र को मार, कल्याणी (शंकर की पत्नी) को लेकर कर, उसके भेदों को वक्रोक्ति में ही अंतर्भत किया गया है यशोर की ओर चलते हैं। चतुर्थ अंक - सम्राट अकबर की और वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा के रूप में मान्यता राजसभा दर्शाता है। प्रताप अकबर से मिलकर प्रभाव डालता प्रदान की गई है। इस ग्रंथ का सर्वप्रथम संपादन डॉ. एस. है और अकबर उसे सेना द्वारा सहायता करता है। बाद में के. डे ने किया था जिसका तृतीय संस्करण प्रकाशित हो नवाब यशोर पर आक्रमण करता है। परंतु शंकर उसे बन्दी चुका है। तपश्चात् आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि ने हिंदी बनाता है। यशोर स्वाधीन होता है। प्रताप का विवाह और भाष्य के साथ, इसें 1955 ई. में प्रकाशित किया। इसका राज्याभिषेक होता है परन्तु राज्य का बंटवारा वसंत तथा प्रताप अन्य हिंदी भाष्य चौखंबा विद्याभवन से निकला है। भाष्यकर्ता में होता है। वसन्त का मंत्री मानसिंह से मिलकर प्रताप के पं. राधेश्याम मिश्र हैं। विरुद्ध षडयंत्र करता है, परन्तु मुंह की खाकर यवनों की वक्षोजशतकम् - ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पाटिया (अलमोडा शरण में जाता है। अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहांगीर यशोर जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। पर धावा बोलता है। भवानन्द और मानसिंह उसका साथ काव्यमाला में प्रकाशित। देते है। अन्त में प्रताप जीतता है। वंगवीरः प्रतापादित्यः - ले.- देवेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय । वचनसारसंग्रह - ले.- श्रीशैल ताताचार्य । सुन्दराचार्य के पुत्र । ऐतिहासिक उपन्यास। . वचनामृतम् - ले.- स्वामी नारायण। वैष्णव धर्म के अंतर्गत वंगिपुरेश्वरकारिका - ले.- वंगिरपुरेश्वर । श्री स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रवर्तक। इस ग्रंथ में सांख्य, वंगीयदूतकाव्येतिहास - ले.- डॉ. जतीन्द्रविमल चौधरी। योग तथा वेदान्त के सिद्धान्तों का समन्वय है। इस संप्रदाय 1953 में कलकत्ता से प्रकाशित। बंगाल के 25 दूत काव्यों का संबंध विशिष्टाद्वैत मत से है। का परिचय इसमें दिया है। श्री स्वामी नारायण के उपदेशों के संग्रह के रूप में प्रख्यात वङ्गीयप्रताप (नाटक)- ले.- हरिदास सिद्धान्तवागीश। "वचनामृत' में समाविष्ट उपदेशों में से कुछ उपदेश निम्नांकित रचनाकाल सन् 1917। उसी वर्ष उदयन समिती के सदस्यों हैं- मनुष्य को चाहिये कि वह 11 दोषों का सर्वथा परित्याग द्वारा उनशिया ग्राम (कोटालिपाडा) में अभिनीत । कलकत्ता करे। ये दोष हैं-हिंसा, मांस, मदिरा, आत्मघात, विधवा-स्पर्श, 318 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी पर कलंक लगाना, व्यभिचार, देव-निंदा, भक्ति-हीन व्यक्ति से श्रीकृष्ण की कथा सुनना, चोरी और जिनका अन्न-जल वर्जित है उनका अन्न-जल ग्रहण करना। इन दोषों का त्याग कर भगवान् की शरण में जाने पर भगवत्-प्राप्ति होती है। उसी को भक्ति कहते हैं। भगवान् से रहित अन्यान्य पदार्थो में प्रीति का जो अभाव होता है, उसी का नाम वैराग्य है। वज्रच्छेदिका-प्रज्ञापारमिता टीका- ले.- वसुबन्धु । 386-534 ई. में चीनी भाषा में अनूदित। वज्रपंजर-उपनिषद् -एक नव्य शैव उपनिषद्। इसमें भस्म धारण का मंत्र व नवदुर्गा की प्रार्थना है। यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति वज्रपंजर नाम का उच्चार कर भस्म धारण करता है, वह सभी प्रकार के भयों से मुक्त होकर शिवमय बनता है। वज्रमुकुटविलासचम्पू - ले.- योगानन्द । (2) ले.- अलसिंग। वज्रसूची-उपनिषद् - ले.- नेपाल की परम्परागत मान्यतानुसार अश्वघोष (ई. 2 री शती) इसके रचयिता हैं, जब कि महाराष्ट्र में यह मान्यता है कि आद्यशंकराचार्य ने इस उपनिषद् की रचना की है। इसे सामवेद से सम्बध्द एक नव्य उपनिषद् मानते हैं। उस उपनिषद् में वज्रसूची जैसे अज्ञानभेदक तीष्ण ज्ञान का विवेचन है। ब्राह्मण शब्द की व्याख्या और उसका वास्तविक अर्थ भी इसमें बताया गया है। जन्म, जाति, वर्ण, उसका वास्तविक अर्थ है। श्रुतिस्मृति-पुराणों तथा इतिहास में वर्णित ब्राह्मण शब्द से यही अभिप्राय है कि जो व्यक्ति जातिगुणक्रियाहीन, षडूमि षड्भाव-सर्वदोषरहित, सत्यज्ञानानंदरूप आत्मा, मैं स्वयं हूं, यह जानता है और जिसे कामरागज दंभ-अहंकार, तृष्णा-आशा-मोह आदि नहीं छू पाते- वही वास्तविक अर्थ में ब्राह्मण है। जाति और वर्ण भेद के विरोध में युक्तिसंगत और बुद्धिनिष्ठ विवेचन प्रस्तुत करने वाला यह ग्रंथ जातिभेद सम्बन्धी तत्कालीन मतमतान्तरों पर प्रकाश डालता है। जाति-वर्ण की कल्पना को भ्रामक और असत्य बताकर यह प्रतिपादित किया गया है कि सभी मानवों की जाति एक है। वडवानलहनुमन्मालामन्त्र - श्लोक-401 वणिक्सुता- ले.- सुरेन्द्रमोहन बालाजित। एकांकी रूपक। हिन्दुधर्म की परम्पराओं का समर्थन करने वाली युवती विधवा की कहानी। “मंजूषा" पत्रिका में प्रकाशित । वत्स (या वात्स्य)- (यजुर्वेद की एक शाखा) स्मृतिचन्द्रिका के श्राद्ध-काण्ड में वत्स-सूत्र का निर्देश मिलता है। संस्कार काण्ड में भी वत्स-नामक धर्मसूत्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। कात्यायन श्रौतसूत्र के परिभाषा-अध्याय में वात्स्य नामक आचार्य का स्मरण किया गया है। वत्सला - ले.- दुर्गादत्त शास्त्री। कांगडा (हिमाचल प्रदेश) जिले में नलेटी नामक गांव के निवासी। यह एक सामाजिक छह अंकी नाटक है। वत्सस्मृति- ले.- मस्करी। वनज्योत्स्ना - ले.- वेंकटकृष्ण तम्पी (श 20)। एकांकी रूपक। प्रातः सायं तथा नक्तम में यवनिकापात द्वारा विभाजित। इसमें प्रस्तावना, भरतवाक्य नहीं हैं। वनदुर्गा-उपनिषद् - ले.- एक गद्य-पद्य मिश्रित शाक्त उपनिषद् । इसका स्वरूप तांत्रिक है। इसमें सभी नक्षत्रों के नाम, रुद्र की प्रदीर्घ प्रार्थना, लक्ष्मी, सिद्धलक्ष्मी, गणपति के स्वरूप, कामदेव आदि के मंत्र दिये गये हैं। इसका प्रारंभ नवदुर्गामहामंत्र से होता है। बाद के सात श्लोकों में उसका वर्णन है। सर्वभूतों को वश में करने वाली मोहिनी महाविद्या के विवेचन के साथ ही रहस्य को बनाये रखने के लिये उलटे अक्षरक्रमों वाला एक मंत्र भी दिया गया है। अंत में ऐहिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति के लिये ब्रह्मविद्या की नित्य सेवा का उपदेश दिया गया है। इस तांत्रिक उपनिषद् में ज्वर को देवता मानकर उसकी निम्नलिखित मंत्र से स्तुति की गई हैभस्मायुधाय विद्महे। तीक्षणदंष्ट्राय धीमहि । तन्नो ज्वरः प्रचोदयात्।। वनदुर्गाकल्प - गुह - अगस्त्य संवादरूप। श्लोक- 1100। पटल -16। विषय- वनदुर्गा के यन्त्र, मन्त्र, मन्त्रोध्दार, पूजाविधि इ. का प्रतिपादन। वनदुर्गाप्रयोग- श्लोक- 797 । वनभोजनम् (प्रहसन) - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) "प्रणव-पारिजात" पत्रिका में प्रकाशित। "ऋषि बंकिमचन्द्र महाविद्यालय" में अभिनीत । इसम दो मुखसन्धिया हैं। वनभोजन करने निकले छ: मित्रों की हास्योत्पादक गतिविधियों का चित्रण इसका विषय है। वनभोजनविधि - भारद्वाजसंहिता के अन्तर्गत। भारद्वाज संहिता का 35 वां अध्याय पूरा वनभोजन-विधि रूप ही है। इसमें विशेष तिथियों में स्त्री, बालक और वृद्धों के साथ गृहस्थ को आंवले, आम, बेल, पीपल, कदम्ब, वट आदि वृक्षों से परिवृत्त वन में प्रवेश कर पुण्याहवाचन पूर्वक आवंले के तले ब्राह्मणभोजन के अनंतर भोजन करने की विधि वर्णित है। वनवेणु - ले.- विश्वेश्वर विद्याभूषण। गीतों का संकलन। वयोनिर्णय - ले.- पी. गणपतिशास्त्री। विषय- विवाह की वयोमर्यादा। वरदगणेशपंचांगम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत । श्लोक- लगभग 4001 वरदराजाष्टकम् - ले.- अप्पय दीक्षित । वरदातन्त्रम् - पार्वती- ईश्वर संवादरूप। पटल-8| विषय(1) काली-मन्त्र और दक्षिण विद्या के मन्त्रों का वर्णन, (2) शाक्तों की दैनिक चर्या, (3) कलियुग में कालीपुरश्चरण की प्रशंसा, 4) काली-पुरश्चरण का समय, (5) राज्यलाभ के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 319 For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिए कालिका के त्र्यक्षर मंत्र का साधन, (6) योनिमुद्रा, (7) गुरु-पूजादि विधि, (8) कालिकामन्त्र का काल और मन्त्रगुण। वरदांबिका-परिणयचम्पू- लेखिका- तिरुमलांबा जो विजयनगर के महाराज अच्युतराय की राजमहिषी थीं। रचना-काल 1540 ई. के आसपास है। इस काव्य की कथा विजयनगर के राज-परिवार से संबद्ध है, और अच्युतराय के पुत्र चिन वेंकटाद्रि के युवराज-पद पर अधिष्ठित होने तक है। कवयित्री ने इतिहास व कल्पना का समन्वय करते हुए प्रस्तुत काव्य की रचना की है। इसकी कथा प्रेम-प्रधान है। भाषा पर कवयित्री का प्रगाढ प्रभुत्व परिलक्षित होता है। इसमें संस्कृत गद्य है समास-बहुल व दीर्घ समासों की पदावली प्रयुक्त हुई है। गद्य-भाग की अपेक्षा इसका पद्य भाग अधिक सरस व कमनीय है और उसमें कवयित्री का कल्पना वैभव प्रदर्शित होता है। भावानुरूप भाषाप्रयोग स्तुत्य है। डॉ. लक्ष्मणस्वरूप द्वारा संपादित होकर यह चंपू-काव्य लाहौर से प्रकाशित हुआ है। इसका मूल हस्तलेख तंजौर-पुस्तकालय में है। वरदाभ्युदय- (हस्तगिरि) चंपू- ले.- वेंकटाध्वरी । रचना-काल 1627 ई.। इस प्रसिद्ध व लोकप्रिय चंपूकाव्य का प्रकाशन संस्कृत सीराज मैसूर से 1908 ई. में हुआ है। प्रस्तुत चंपू में लक्ष्मी व नारायण के विवाह का वर्णन है जो 5 विलासों मे विभक्त है। काव्य-कृति के अंत में कवि ने अपना परिचय दिया है। वेंकटाध्वरी रामानुज के मतानुयायी तथा लक्ष्मी के भक्त थे। वररुचि- ले.- आर. कृष्णम्माचार्य। पिता- रंगाचार्य । वरांगचरितम् (महाकाव्य)- ले.- वर्धमान। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। सर्गसंख्या- 13 । है। पांचवे अध्याय में हठयोग व अष्टांगयोग का विवरण दिया गया है। वराहचम्पू - ले.- कवि- श्रीनिवास । श्रीमुष्णग्रामवासी वरदवल्ली वंशीय वरद पण्डित के पुत्र। वराहपुराणम् - पारंपारिक क्रमानुसार यह 12 वां पुराण है। इस पुराण में भगवान् विष्णु के वराह अवतार का वर्णन है। विष्णु द्वारा वराह का रूप धारण कर पाताल लोक से पृथ्वी का उद्धार करने पर इस पुराण का प्रवचन किया था। यह वैष्णव पुराण है। नारदपुराण व मत्स्यपुराण के अनुसार इसकी श्लोक संध्या- 24 सहस्र है, किंतु कलकत्ता की एशियाटिक सोयाइटी द्वारा प्रकाशित संस्करण में केवल 10,700 श्लोक हैं। इसके अध्यायों की संख्या 217 है तथा गौडीय और दाक्षिणात्य नामक दो पाठ-भेद उपलब्ध होते हैं जिनके अध्यायों की संख्या में भी अंतर दिखाई देता है। एक ही विषय के वर्णन में श्लोकों में भी अंतर आ गया है। इस पुराण में सृष्टि व राज-वंशावलियों की संक्षिप्त चर्चा है, पर पुराणोक्त विषयों की पूर्ण संगति नहीं दीख पाती। ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुराण, विष्णु-भक्तों के निमित्त प्रणीत स्तोत्रों एवं पूजा-विधियों का संग्रह है। यद्यपि यह वैष्णव पुराण है तथापि इसमें शिव व दुर्गा से संबद्ध कई कथाओं का वर्णन विभिन्न अध्यायों में है। इसमें मातृ-पूजा एवं देवियों की पूजा का भी वर्णन 90 से 95 अध्याय तक किया गया है, तथा गणेशजन्म की कथा व गणेश-स्तोत्र भी इसमें दिया गया है। इस पुराण में श्राद्ध, प्रायश्चित्त, देवप्रतिमा की निर्माण-विधि आदि का भी कई अध्यायों में वर्णन है, तथा कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा के माहात्म्य का वर्णन 152 से 168 तक के 17 अध्यायों में है। मथुरामाहात्म्य में मथुरा का भूगोल दिया गया है तथा उसकी उपादेयता इसी दृष्टि से है। इसमें नचिकेता का उपाख्यान भी विस्तारपूर्वक वर्णित है जिसमें स्वर्ग और नरक का वर्णन है। विष्णु-संबंधी विविध व्रतों के वर्णन पर इसमें विशेष बल दिया गया है, तथा द्वादशी-व्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए विभिन्न मासों में होने वाली द्वादशियों का कथन किया गया है। प्रस्तुत पुराण के अनेक अध्याय पूर्णतया गद्य में निबद्ध हैं (81 से 83, 86-87, 74) तथा कतिपय अध्यायों में गद्य व पद्य दोनों का मिश्रण है। "भविष्यपुराण" के दो वचनों को उद्धृत किये जाने के कारण यह पुराण उससे अर्वाचीन सिद्ध होता है। (177-51)। इस पुराण में रामानुजाचार्य के मत का विशद रूप से वर्णन है। इन्हीं आधारों पर विद्वानों ने इसका रचनाकाल नवम-दशम शती के बीच निश्चित किया है। वराहशतकम् - ले.-वरदादेशिक। पिता- श्रीनिवास। ई. 17 वीं शती। वरिवस्यातिरहस्यम् (सटीक) - ले.- सुरा (भासुरा) नन्दनाथ । श्लोक- लगभग 12601 वराह-उपनिषद्- कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद्। इसमें कुल 5 अध्याय हैं जिनमें कुछ श्लोकबद्ध तथा कुछ गद्यात्मक हैं। वेदान्त विषयक चर्चा में वराहरूपी विष्णु द्वारा भूमि को बताई गई ब्रह्मविद्या का निरूपण है। प्रथम अध्याय में 96 तत्त्वों का विवेचन, दूसरे में ब्रह्मविद्या के विविध साधनों की जानकारी और समाधि के लक्षण बताये गये हैं। इस सम्बद्ध में यह श्लोक देखिये सलिले सैन्धवं यत् सात्म्यं भजति योगतः । तथात्ममनसोक्यं समाधिरिति कथ्यते ।। अर्थात्- पानी में नमक मिलाने पर दोनों पदार्थ एकजीव हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा व मन जब एक रूप हो जाते हैं तब उसे समाधि की अवस्था कहते हैं। तीसरे अध्याय में "सत्यं ज्ञानमनमन्तं ब्रह्म" का स्पष्टीकरण किया गया है। चौथे अध्याय में जीवनमुक्ति के लक्षण बताये गये है। मुक्ति के दो मार्ग- (विहंगम व पिपीलिका) बताये गये 320/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 वरिवस्याप्रकाश ले. भास्करराय । वरिवस्यारहस्यम् ले. भास्करराय ( भासुरानन्दनाथ गुरुनरसिंहानन्दनाथ । इस ग्रंथ पर प्रकाश नामक टीका भी उन्हीं की रची हुई है। इसमें वामकेश्वर तंत्र योगिनीहृदय आदि अनेक तंत्रों से वाक्य उद्धृत किये गये हैं । वरुणापद्धति (नामान्तर- सिद्धान्तदीप ) उत्त्सवों की प्रतिपादक पद्धति । विषय- तान्त्रिक वरूथिनीचम्पू - ले. गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य । राखालदास भट्टाचार्य के पुत्र । ढाका तथा वाराणसी में संस्कृताध्यापक । वर्ज्याहारविवेक ले. वेंकटनाथ । - वर्णकोष ले- गोविन्द भट्ट । श्लोक - 115। मन्त्रोद्धार के लिए अकार आदि 50 वर्णों का यह कोष है। वर्णकोषवर्णनम् भैरवयामल- पूर्वखण्डान्तर्गत । श्लोक 21 लगभग 208 1 वर्णदेशना - ले. पुरुषोत्तम । ई. 12 वीं शती । शब्दों की शुद्धवर्तनी (स्पेलिंग) दशनिवाला ग्रंथ । वर्णप्रकाशकोषले कर्णपूर कांचनपाडा (बंगाल) के । निवासी । ई. 16 वीं शती । - - www.kobatirth.org - वर्णभैरवतंत्रम् - ले. रामगोपाल पंचानन । पिता रामनाथ । श्लोक- 390 विषय- अकार से क्षकार तक के प्रत्येक वर्ण की उत्पत्ति, स्वरूप और माहात्म्य । वर्णमातृकान्यास श्लोक- 100। वर्णलघुव्याख्यान ले. राम । ले. भार्गवराम । वर्णसंकरजातिमाला वर्णसारमणि ले. वैद्यनाथ दीक्षित - वर्णाभिधानम् - ले.- यदुनन्दन ( श्रीनन्दन) भट्टाचार्य। इसके कई संस्करण हो गये हैं। श्लोक- 178 | विषय - अकारादि वर्णों के अभिधान एवं अकार से क्षकार पर्यंत वर्णों के विविध अर्थो का प्रतिपादन । वर्णाभिधानम् - ले. श्री विनायक शर्मा। श्लोक - 1121 विषय- अकारादि वनों (अक्षरों) के तांत्रिक अर्थ, तथा बहुत से बीजमंत्रों के नामों का कथन । वर्णाश्रमधर्म ले वैद्यनाथ दीक्षित। वर्णाश्रमधर्मदीप ले. कृष्ण । पिता गोविन्द | महाराष्ट्र निवासी । विषय- संस्कार, गोत्रप्रवर निर्णय, लक्षहोम, तुलापुरुष, वास्तुविधि, मूर्तिप्रतिष्ठा आदि इस का लेखन वाराणसी में हुआ। वर्णिशतकम् - ले. विमल कुमार जैन। कलकत्ता निवासी । वर्धमानचरितम् ले. पद्मनन्दी । जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती। 300 पद्म। (2) ले. असंग। जैनाचार्य। ई. 17 वीं शती । वर्षकृत्यम्ले विद्यापति ई. 15 वीं शती (2) ले.रावणशर्मा चम्पट्टी । विषय- संक्राति एवं 12 मासों के व्रत - - - एवं उत्त्सव। (3) ले हरिनारायण । (4) ले रुद्रधर । पिता - लक्ष्मीधर । सन् 1903 में वाराणसी में प्रकाशित । (5) ले. शंकर । (ग्रंथ का अपर नाम है स्मृतिसुधाकर । वर्षकृत्यप्रयोगमाला ले. मानेश्वर शर्मा ई. 15 वीं शती । वर्षकौमुदी ( वर्षकृत्यकौमुदी) - ले- गोविन्दानन्द । पिता गणपतिभट्ट | वर्षभास्कर ले. शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश राजा धर्मदेव की आज्ञा से लिखित । वल्लभ दिग्विजयम् ले. बाबू सीताराम शास्त्री । विषयवल्लभाचार्य का सुबोध गद्यात्मक चरित्र । वल्लभाचार्यचरितम् ले. श्रीपादशास्त्री हसूरकर । इन्दौरनिवासी । वल्लभाचार्य का सुबोध गद्यात्मक चरित्र । वल्लभाख्यानम् - ले. गोपालदास । विषय- वल्लभाचार्य का चरित्र । - - - वल्लरी सन् 1935 में वाराणसी से केशवदत्त पाण्डे और तारादत्त पन्त के संपादकत्व में इस सचित्र पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह केवल एक वर्ष तक प्रकाशित हुई। इसमें काव्य, समस्या, व्यंग, समाचार, और वैज्ञानिक निबंध आदि का प्रकाशन होता था । For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - वल्लीपरिणयम् (नाटक) ले. वीरराधव (जन्म 1820, मृत्यु 1882 ईसवी) अंकसंख्या पांच अभिनयोचित संवाद | अमात्य, सेवाधिप तथा कंचुकी के संवाद प्राकृत में। प्रमुख रस शृंगार, हास्य रस का पुट मंच पर युद्ध, आलिंगन इ. वर्ज्य प्रसंग प्रदर्शित विषय मुनि रोमश के आश्रम से एक कोस पर रहने वाले व्याधराज की पोषित कन्या वल्ली तथा शिवपुत्र षडानन के विवाह की कथा । 1 - - वल्लीपरिणयम् ले. भास्कर यज्वा । ई. 16 वीं शती का प्रथम चरण संवत्सर के आरम्भ में श्रीजम्बुनाथ के फाल्गुनोत्सव में प्रथम अभिनय । प्रमुख रस शृंगार तथा वीर। पांच अंकों वाला नाटक । द्वितीय अंक में स्त्रीपात्र तथा विदूषक द्वारा महत्त्वपूर्ण बातें प्राकृत के बदले संस्कृत में तृतीय अंक के पूर्व के विष्कम्भक में आकाशयान से विद्याधर के उतरने का अभिनय । कथा- विष्णु का तेज किसी मृगी में समाहित होकर एक कन्या का जन्म होता है। शबरराज उसे अपनी पुत्री बनाता है। युवा होने पर शूरपय दानव और शिवपुत्र कुमार उसे चाहने लगते हैं नायिका वल्ली, कुमार पर मोहित है, परन्तु दानव शूरपद्म उसे बलपूर्वक अपनाना चाहता है । वल्ली को तिरस्करिणी द्वारा शची के पास पहुंचाया जाता है, वहां से वे दोनों (कुमार और शूरपद्म) का युद्ध देखती है। युद्ध में कुमार जीतते हैं और आत्मरक्षा के लिए कुक्कुट और मयूर का रूप धारण कर शूरपद्म कुमार की शरण में आता है। देवगण वल्ली को शिव के पास ले चलते हैं । इन्द्र- शची संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 321 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विधिपूर्वक वल्ली का विवाह कुमार के साथ कराते हैं। वल्लीपरिणयम् ले. टी. ए. विश्वनाथ कुम्भकोणम् से प्रकाशित। अंकसंख्या पांच में विभाजन । प्राकृत का प्रयोग । किरातराज के कार्तिकेय के साथ विवाह की कथा । वल्ली - परिणयम-चप ले. यज्ञ सुब्रह्मण्य और स्वामी दीक्षित । तिनवेल्ली के निवासी। ई. 19 वीं शती । - - - वल्ली - बाहुलेयम् (नाटक) ले. सुब्रह्मण्य सूरि । जन्म 1850 सन् 1929 में मद्रास से प्रकाशित। अंकसंख्या सात । छायातत्त्व का प्राधान्य । विष्णु और लक्ष्मी की कन्या वल्ली के शिवपुत्र बाहुलेय के साथ विवाह की कथा । वल्ली - परिणय- चम्पू ले. यज्ञ सुब्रह्मणय और स्वामी दीक्षित । तिनवेल्ली के निवासी। ई. 19वीं शती । वल्ली - बाहुलेयम् (नाटक) ले. सुब्रह्मण्य सूरि जन्म 1850 सन् 1929 में मद्रास सेप्रकाशित। अंकसंख्या सात । छायातत्त्व का प्राधान्य । विष्णु और लक्ष्मी की कन्या वल्ली के, शिवपुत्र बाहुलेय के साथ विवाह की कथा । वशकार्यमंजरी (नामान्तर षट्कर्ममंजरी ) ले. राजाराम तर्कवागीश भट्टाचार्य । विषय- मन्त्रों की सहायता से शान्ति, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण आदि षट्कर्मविधि । वंश ब्राह्मणम् ( सामवेदीय) कुल तीन खण्डों का ग्रंथ । शतपथ और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण के समान इस ब्राह्मण में आचार्यों की (अर्थात् सामवेदीय) परम्परा दी गई है। संपादन - सायण-भाष्यसहित सम्पादक - सत्यव्रत सामश्रमी । वशलता ले. - उदयनाचार्य । विषय- कुछ पौराणिक तथा ऐतिहासिक राजवंशों का वर्णन वशीकरणप्रबन्ध ले. श्रीकण्ठ भट्ट । 16 अध्याय । इसमें रत्यर्थ वशीकरण के तंत्रों का वर्णन है । वशीकरणस्तोत्रम् श्लोक 25 यह वशीकरणोपायभूत स्तोत्र वाराही देवी के उद्देश्य से कहा गया है। वशीकरणादिविधि श्लोक 1391 विषय- तंत्रोक्त विधि से वशीकरण, उच्चाटन, मारण, स्तंभन, मोहन विद्वेषण आदि के प्रकार । वसन्ततिलकभाण ले. वरदाचार्य (अम्मल आचार्य) रचनाकाल - सन् 1698। पिता- सुदर्शनाचार्य । रामभद्र दीक्षित के शृंगारतिलक भाण से स्पर्धा के निमित्त लिखित । प्रस्तावना सूत्रधार द्वारा। सन् 1872 ईसवी में कलकत्ता से प्रकाशित । सुबोध, भाणोचित भाषा । लोकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग । नायक शृंगारशेखर की प्रणयव्यापारपूर्ण गतिविधयां इस भाण में वर्णित हैं। वसन्तमित्रभाण - मंगलगिरि कृष्ण द्वैपायनाचार्य । ई. 20 वीं शती । प्रकाशन विजयनगर से। विषय- देवदासी, नर्तकी, कुट्टनी, विषम परिस्थिति में पडी गृहिणी, विधवा आदि 322 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - www.kobatirth.org - सन् 1921 में अंकों का दृश्यों की कन्या वल्ली भिन्न स्तरों पर की स्त्रियों के पतन की चर्चा । विधवाविवाह का पुरस्कार । कांची के गारुड उत्सव का वर्णन। अंग्रेज महिला के मुख से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग । कुक्कुट युद्ध तथा मेष-युद्ध के वर्णन । भिन्न प्रदेशों की वेषभूषा का प्रदर्शन । वसन्तराजीयम् (नामान्तर- शकुनार्णव) - ले. वसन्तराज भट्ट । पिता- शिवराज । मिथिला नरेश चन्द्रदेव के आदेश पर लिखित । वसन्तोत्त्सव - ले. जगद्धर । वसिष्ठधर्मसूत्रम् इस धर्मसूत्र में सभी वेदों व अनेक प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण प्राप्त होते हैं। इसके मूल रूप में परिबृंहण, परिवर्धन व परिवर्तन होता रहा है। संप्रति इसमें 30 अध्याय पाये जाते हैं। इसमें "मनुस्मृति" के लगभग 40 श्लोक मिलते हैं, तथा " गौतम - धर्मसूत्र" के 19 वें अध्याय एवं " वसिष्ठ धर्मसूत्र” के 22 वें अध्याय में अक्षरशः साम्य दिखाई पडता है। प्रमाणों के अभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा धर्मसूत्र पूर्ववर्ती और कौनसा परवर्ती है। इस ग्रंथ में धर्म की व्याख्या, आर्यावर्त की सीमाएं, पंचमहापातक, छह विवाह प्रकार, चार वर्ण, उनके अधिकार एवं कर्तव्य वेदपठन की महत्ता, अशिक्षित ब्राह्मण की निंदा, गुप्तधन मिलने पर उसके उपयोग के नियम, अतिथि सत्कार, मधुपर्क जनन-मरणाशीच स्त्रियों के कर्तव्य, सदाचार के संस्कार, दत्तकपुत्र सम्बन्धी विधि-नियम, उत्तराधिकार, राजधर्म, पुरोहित के कर्तव्य, दान-दक्षिणा आदि विभिन्न विषयों का विवेचन है। धर्मसूत्र गद्यपद्यमय है जिनमें ऋग्वेद, ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, मैत्रायणी, तैत्तिरीय व काठक संहिता से उद्धरित वचन मिलते है। शंकरचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद् पर लिखे अपने भाष्य में वसिष्ठ धर्मसूत्र के अनेक सूत्र उद्धृत किये हैं। धर्मसूत्र की प्रकाशित व हस्तलिखित प्रति में काफी अंतर है। इस धर्मसूत्र का कालखण्ड ईसा पूर्व 300 से 1000 माना जाता है । इस पर यज्ञस्वामी की टीका है। For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - । वसिष्ठस्मृति वसिष्ठ द्वारा लिखित स्मृतिग्रंथ इसमें कुल 21 अध्याय हैं। जिनमें मानव की मुक्ति हेतु धर्म जिज्ञासा, आर्यावर्त की महत्ता, त्रैवर्णिक द्विजों के अध्ययन की आवश्यकता, वेदाध्ययन न करनेवाला द्विज शूद्र के समान है, तथा ब्राह्मणों का वध निंदनीय है, संस्कार, स्त्रियों की पराधीनता, आचारप्रशंसा, ब्रह्मचर्य विवाहित स्त्री के कर्तव्य, वानप्रस्थी व संन्यासी के कर्त्तव्य, स्नातक व्रत, राजव्यवहार, भक्ष्याभक्ष्य विचार, राजधर्म, पापप्रक्षालन के विधि-नियम, आदि का विवेचन है। वसुचरित्रचंपू ले. कवि कालहस्ती। प्रस्तुत चंपू-काव्य की रचना का आधार, तेलगु भाषा में रचित श्रीनाथ कवि का "वसुचरित्र" है। ग्रंथ की समाप्ति कामाक्षी देवी की स्तुति से हुई है। इस चंपू में 6 आश्वास हैं। वसुमंगलम् (नाटक) - ले. पेरुसूरि (ई. 18 वीं शती) अंकसंख्या- पांच । नायक- उपरिचर वसु । नायिका - कोलाहल Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्वत की कन्या गिरिका। वसुमती-चित्रसेनीयम् (नाटक) - ले.- अप्पयदीक्षित (तृतीय)। ई. 17 वीं शती। कथावस्तु उत्पाद्य। वैदर्भी रीति । सूक्तियों तथा अन्योक्तियों का बहुल प्रयोग। केरल विश्वविद्यालय से संस्कृत सीरीज 217 में प्रकाशित । कथासार- कलिंगराज शान्तिमान् अपनी कन्या वसुमती के कल्याणार्थ प्रयाग में तप करता रहता है, तथी निषादराज उसकी राजधानी पर आक्रमण कर अन्तःपुर के सदस्यों को बन्दी बना लेता है। महाराज चित्रसेन निषादराज के साथ युद्ध कर उसे परास्त करते हैं, तभी वसुमती उनके दृष्टिपथ में आ जाती है। दोनों गान्धर्व विवाह कर लेते हैं। चित्रसेन की महारानी पद्मावती उनके मिलन में बाधाएं उत्पन्न करती है, परन्तु सखी चतुरिका की सहायता से दोनों का मिलन होता है। इतने में समाचार मिलता है कि राजपुत्र ने युद्ध में दानवों पर विजय पायी। इस शुभ समाचार से प्रसन्न होकर महारानी स्वयं ही राजा का विवाह वसुमती के साथ करा देने का निश्चय करती है। वसुमतीपरिणयम् (नाटक) - ले.- जगन्नाथ । तंजौर निवासी। ई. 18 वीं शती। प्रथम अभिनय पुणे के बालाजी बाजीराव पेशवा की उपस्थिति में हुआ। अंकसंख्या- पांच। राजाओं के हेय तथा उपादेय गुणों के वर्णन से उन्हें सत्पथ पर लाने हेतु रचित। लेखक द्वारा “अखिलगुणशृङ्गाटक" विशेषण प्रदत्त । महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक चर्चाएं। प्रधान रस शृङ्गार, हास्य रस से संवलित। बालाजी बाजीराव को नायक “गुणभूषण' बनाकर लिखा नाटक। राजनीति तथा अर्थशास्त्र की योजना। यवनों से राष्ट्र को बचाने हेतु हिन्दु राजाओं में एकता होने के उद्देश्य से नाटक लिखा गया है। वसुलक्ष्मीकल्याणम् (नाटक) - ले.- सदाशिव दीक्षित। ई. अठारहवीं शती। अंकसंख्या- पांच। प्रथम अभिनय पद्मनाभदेव के वसन्तमहोत्सव में। नायक बालराम ऐतिहासिक परन्तु कथावस्तु कल्पित है। कथासार- पिता के द्वारा कई राजाओं के चित्र देखने के पश्चात् नायिका वसुलक्ष्मी बालवर्मा को चुनती है। परन्तु महारानी उसका विवाह सिंहल के राजकुमार के साथ कराना चाहती है, तथा बहाना गढकर उसे सिंहल भेजती है। योगिनी बोधिका बालवर्मा को वसुलक्ष्मी के प्रति आकृष्ट करती है। उधर उसकी महारानी वसुमती के पास नौका से प्राप्त एक सुन्दरी पहुंचायी जाती है। वही वस्तुतः वसुलक्ष्मी है। वसुमती उसका विवाह पाण्ड्य नरेश से कराना चाहती है परन्तु उसके वेश में उपस्थित बालराम ही उसका पाणिग्रहण करता है। वसुलक्ष्मीकल्याण (नाटक) - ले.- वेंकटसुब्रह्मण्याध्वरी । सन्1785 ई. में लिखित । त्रिवेंद्रम संस्कृत सीरीज में प्रकाशित । प्रधान रस शृंगार। आलिंगनादि के दृश्य। पात्र ऐतिहासिक, परंतु घटनाएं कल्पित। पद्यों का प्राचुर्य। अंक-संख्या पांच। कथासार- सिन्धुराज वसुनिधि की पुत्री वसुलक्ष्मी त्रावणकोर के राजा बालराम वर्मा पर अनुरक्त है। पिता उसे बालराम को देना चाहते हैं किन्तु माता सिंहलराज को। माता उसे सिंहलदेश भेजती है, किन्तु केरल में समुद्रतट पर उसे रोककर बुद्धिसागर मंत्री त्रावणकोर भेजता है। बालराम वर्मा की रानी वसुमती उसका विवाह चेरदेश नरेश वसुवर्मा के साथ कराना चाहती है। वसुवर्मा के वेश में नायक बालराम वर्मा उसका पाणिग्रहण करते हैं। वाक्यतत्त्वम् - ले.- सिद्धान्तपंचानन । विषय- धार्मिक कृत्यों के लिए उपयुक्त काल । यह ग्रंथ द्वैततत्त्व का एक भाग है। वाक्यपदीयम् - ले.- भर्तृहरि । यह व्याकरण शास्त्र का एक अत्यंत प्रौढ एवं दर्शनात्मक ग्रंथ है। इसमें 3 कांड हैं- 1) आगम (या ब्रह्म) कांड, 2) वाक्यकांड व (3) पदकांड। आगम कांड में अखंडवाक्य-स्वरूप स्फोट का विवेचन है। संप्रति प्रस्तुत ग्रंथ का यह प्रथम कांड ही उपलब्ध है। इस ग्रंथ पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई हैं। स्वयं भर्तृहरि ने भी इसकी स्वोपज्ञ टीका लिखी है। इसके अन्य टीकाकारों में वृषभदेव व धनपाल की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। पुण्यराज (ई. 11 वीं शती) ने द्वितीय कांड पर स्फुटार्थक टीका लिखी है। हेलाराज (ई. 11 वीं शती) ने इसके तीनों कांडों पर विस्तृत व्याख्या लिखी थी, किन्तु इस समय केवल उसका तृतीय कांड ही उपलब्ध है। इनकी व्याख्या का नाम है "प्रकीर्ण-प्रकाश"। "वाक्यपदीय" में भाषा शास्त्र व व्याकरण-दर्शन से संबद्ध कतिपय मौलिक प्रश्न उठाये गये हैं, और उनका समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। इनमें वाक् वाणी) का स्वरूप निर्धारित कर व्याकरण की महनीयता सिद्ध की गई है। इसकी रचना श्लोकबद्ध है तथा कुल श्लोक 1964 है। प्रथम कांड में 156, द्वितीय में 493 व तृतीय में 1325 श्लोक हैं। वाक्यपदीय का प्रकरणशः संक्षिप्त परिचय :(1) ब्रह्मकांड - इसमें शब्द-ब्रह्म-विषयक सिद्धांत का विवेचन है। भर्तृहरि शब्द को ब्रह्म मानते हैं। उनके मतानुसार शब्दतत्त्व अनादि और अनंत है। उन्होंने भाषा को ही व्याकरण प्रतिपाद्य स्वीकार किया है और बताया है कि प्रकृति प्रत्यय के संयोग-विभाग पर ही भाषा का यह रूप आश्रित है। पश्यंती, मध्यमा एवं वैखरी को वाणी के 3 चरण मानते हुए इन्हीं के रूप में व्याकरण का क्षेत्र स्वीकार किया गया है। (2) वाक्यकांड - इसमें भाषा की इकाई वाक्य को मानते हुए उस पर विचार किया गया है। भर्तृहरि कहते हैं कि "नादों द्वारा अभिव्यज्यमान आंतरिक शब्द ही बाह्य रूप से श्रूयमाण शब्द कहलाता है"। अतः उनके अनुसार संपूर्ण वाक्य ही शब्द है (2/30, 2/2) वे शब्द-शक्तियों की बहमान्य धारणाओं को स्वीकार नहीं करते और किसी भी अर्थ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 323 For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra को मुख्य या गौण नहीं मानते। भर्तृहरि के अनुसार अर्थविनिश्चय के आधार हैं- वाक्य, प्रकरण, अर्थ, साहचर्य आदि । (3) पदकांड इसमें पद से संबद्ध नाम या सुबंत के साथ विभक्ति, संख्या, लिंग, द्रव्य, वृत्ति, जाति पर भी विचार किया गया है। इसमें 14 उद्देश हैं जिनमें क्रमशः जाति, गुण, साधन, क्रिया, काल, संख्या, लिंग, पुरुष, उपग्रह एवं वृत्ति के संबंध में मौलिक विचार व्यक्त किये गये हैं। वाक्यप्रकाश विवरणम् ले. गोकुलनाथ ई. 17 वीं शती । वाक्यसुधा ले. भारती कृष्णतीर्थ ई. 14 वीं शती ग्रंथ की विषयवस्तु के आधार पर इसे दृग्दृश्यविवेक नाम भी दिया गया है। इस छोटे से ग्रंथ में दृग् (आत्मा) तथा दृश्य (जगत्) का मार्मिक विवेचन है। ब्रह्मानंद भारती तथा आनंदज्ञान ( आनंदगिरि) ने इस पर टीकाएं लिखी हैं। - - 1 वागीश्वरीकल्प श्लोक- 1301 - www.kobatirth.org वाग्भटालंकार ले. वाग्भट ( प्रथम ) । जैनाचार्य । प्रस्तुत काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना 5 परिच्छेदों में हुई है। इसमें 260 पद्य हैं जिनमें काव्य-शास्त्र के सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन है। प्रथम परिच्छेद में काव्य के स्वरूप व हेतु का वर्णन है। द्वितीय में काव्य के विविध भेद, पद, वाक्य एवं अर्थदोष तथा तृतीय में 10 गुणों का विवेचन है। चतुर्थ परिच्छेद में 4 शब्दालंकारों व 35 अर्थालंकारों तथा गौडी एवं वैदर्भी रोति का विवरण है। पंचम परिच्छेद में 9 रसों व नायक-नायिका भेद का निरूपण है। इस ग्रंथ में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों ही भाषाओं के उदाहरण दिये गये हैं । ग्रंथ में राजा जयसिंह तथा राजधानी अनहिलवाड का उल्लेख है । वाग्भटालंकार के टीकाकार- 1) आदिनाथ या मुनिवर्धनसूरि ई 5 वीं शती (2) सिंहदेवगण, (3) मूर्तिधर, (4) क्षेमहंसगणि, (5) समयसुन्दर, (6) अनन्तभट्ट के पुत्र गणेश, (7) राजहंस, (8) वाचनाचार्य तथा अज्ञात लेखकों की टीकाएं। हिंदी अनुवादक डॉ. सत्यव्रतसिंह । वाग्वतीतीर्थयात्राप्रकाश ले. गौरीदत्त । रामभद्र के पुत्र । बालवृत्तिरहस्यम् (या वाघुलगृह्यागमवृत्तिरहस्य) ले. - सगमग्रामवासी मिश्र । विषय ऋणत्रय - अपाकरण, ब्रह्मचर्य, संस्कार, आह्निक, श्राद्ध एवं स्त्रीधर्म । वाघुलशाखा (कृष्णयजुर्वेदीय) - तैत्तिरीय संहिता से संबन्ध रखने वाली, केरल- देश में प्रसिद्ध यह सौत्र शाखा है। इस का कल्प प्राप्त हुआ है। - - वाङ्मयम् - सन् 1940 में वाराणसी से इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्र शीघ्र ही बंद हो गया। वाचकस्तव ( काव्य ) ले. म.म. कृष्णशास्त्री घुले नागपुर निवासी । - वाजसनेय-संहिता ले. शुक्ल यजुर्वेद की एक संहिता 324 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाजि का अर्थ है घोडा घोडे का रूप लेकर सूर्य ने याज्ञवल्क्य को यह संहिता दी, इस लिये इसे "वाजसनेय" संहिता कहा गया है। मध्याह्न में दिये जाने के अथवा याज्ञवल्क्य के शिष्य मध्यंदिन द्वारा प्रचारित किये जाने के कारण इसे 'माध्यंदिन' भी कहा जाता है। इस मतानुसार इस संहिता के अंतिम 15 अध्याय विभिन्न विषयों के अनुसार बाद में जोड़े गये हैं। इस संहिता के कुछ मंत्र पद्यात्मक और कुछ गद्यात्मक हैं। गद्यमंत्रों को यजुस् कहा गया है:इस कारण यह यजुर्वेद का ही भाग माना गया। इसका अंतिम अध्याय ही सुप्रसिद्ध ईशावास्य उपनिषद् है। इस संहिता के मंत्रों का प्रतिपाद्य विषय मुख्यतया यज्ञसंस्था है । श्रौताचार्य धुंडिराज शास्त्री बापट के मतानुसार यजुः संहिता के मंत्रवाड्मय का महत्त्वपूर्ण उपयोग ऐतिहासिक ज्ञानप्राप्ति में है। वैदिक वाङ्मय में पुरोहित शब्द को विशेष स्थान प्राप्त है- अहोरात्र राष्ट्र के हितसंवर्धन और कल्याण की चिंता करना तत्कालीन पुरोहितों का काम था। वे उचित समय पर राजा को उचित सलाह दिया करते थे । इस संहिता का एक मंत्र इस प्रकार है : संशितं में ब्रह्म संशितं वीर्यं बलम् । संशित क्षत्र जितु यस्याहमस्मि पुरोहितः ।। अर्थात् शास्त्रशुद्ध आचरण से मैने अपना ब्रह्मतेज सुरक्षित रखा है। मैने अपने शरीर सामर्थ्य व इन्द्रियों की समस्त शक्तियां कार्यक्षम रखी हैं। इतना ही नहीं तो जिस राजा का मैं पुरोहित हूँ, उस राजा के विजय-शाली आप्रतेज को भी सदा तीव्रता से वृद्धिंगत करता रहा हूं। इस संहिता में कुछ प्रार्थना मंत्र भी हैं जिनसे तत्कालीन राष्ट्रीय वृत्ति का परिचय मिलता है। वाजसनेय शाखाएं- याज्ञवल्क्य-प्रणीत शुक्ल यजुर्वेद की पन्द्रह वाजसनेय शाखाएं निम्रप्रकार हैं 1) काव्य, 2) माध्यन्दिन, 3 ) शाषीय, 4) तापायनीय, 5) कापाल, 6) पौण्डरवत्स, 7) आवटिक, 9 पाराशर्य, 10 वैधेय, 11 नैत्रेय, 12 गालव, 13 औधेय, 14 बैजव और 15 कात्यायनीय । वाजसनेय शाखा के ब्राह्मण "ष" का उच्चारण “ख” करते हैं यथा सहस्रशीर्षा पुरुषः को वे सहस्रशीर्खा पुरुखः " कहेंगे । इस संहिता पर उव्वट, महीधर, माधव, अनंतदेव व आनंदभट्ट ने भाष्य लिखे हैं । वाजसनेयि प्रातिशाख्यम् - ले. कात्यायन मुनि । वार्तिककार कात्यायन से भिन्न तथा पाणिनि के पूर्ववर्ती। यह "शुक्ल यजुर्वेद" का प्रातिशाख्य है इसमें 8 अध्याय हैं जिनका मुख्य प्रतिपाद्य है परिभाषा, स्वर व संस्कार का विस्तारपूर्वक विवेचन | प्रथम अध्याय में पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिये गए हैं एवं द्वितीय में 3 प्रकार के स्वरों का लक्षण व विशिष्टता का प्रतिपादन है। तृतीय से लेकर सप्तम अध्यायों में संधि का विस्तृत विवेचन है। इनमें संधि, पद-पाठ बनाने For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के नियम व स्वर-विधान का वर्णन है। अंतिम अध्याय में वर्णो की गणना एवं स्वरूप का विवेचन है। पाणिनि-व्याकरण में इसके अनेक सूत्र ग्रहण कर लिये गए हैं। इससे प्रस्तुत प्रातिशाख्य के प्रणेता कात्यायन, पाणिनि के पूर्ववर्ती (ई.पू. 7-8 वीं शती) सिद्ध होते हैं। इसके अनेक शब्द ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य की भांति प्राचीनतर अर्थों में प्रयुक्त हैं। इस प्रातिशाख्य की दो शाखाएं है जो प्रकाशित हो चुकी हैं। उव्वट का भाष्य व अनंत भट्ट की व्याख्या केवल मद्रास विश्वविद्यालय से प्रकाशित है और केवल उव्वट भाष्य का प्रकाशन अनेक स्थानों से हो चुका है। वांछाकल्पलता-प्रयोग - ले.- बुद्धिराज। पिता- व्रजराज । श्लोक 2001 वांछाकल्पलताविधि - श्लोक- 200 । वांछाकल्पलतोपस्थान-प्रयोग - ले.- बुद्धिराज । पिता- व्रजराज । श्लोक- 72 पूर्ण। वाणीपाणिग्रहणम् (लाक्षणिक नाटक) - ले.- व्ही. रामानुजाचार्य। वाणीभूषणम् - ले.-दामोदर। विषय- छंदःशास्त्र । वाणीविलसितम् - ले.-राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान तथा गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ द्वारा संस्कृत संस्कृतिवर्षनिमित्त सन 1981 में नागपुर निवासी महाकवि डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर की अध्यक्षता में अखिल भारतीय संस्कृत कवि सम्मेलन प्रयाग में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में भारत के सुप्रसिद्ध संस्कृत कवि उपस्थित थे। गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ ग्रंथमाला के प्रधान संपादक डॉ. गयाचरण त्रिपाठी और डॉ.जगन्नाथ पाठक ने इस अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में पढी हुई सभी कविताओं का संग्रह "वाणी-विलसितम्' नाम से 1981 में प्रकाशित किया। 1978 में वाणी-विलसितम् का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था जिसमें वाराणसी और प्रयाग के निवासी संस्कृत कवियों के काव्य संगृहीत किए है। वात-दूतम् - ले.-कृष्णनाथ न्यायपंचानन। दूतकाव्य। ई. 17 वीं शती। वातुलनाथसूत्रम् (सवृत्ति)- मूल रचयिता- वातुलनाथ । वृत्तिकार- अनन्तशक्तिपाद । श्लोक- 200। वातुलशुद्धागमसंहिता (या वातुलशुद्धागम - (श्लोक400)। वातुलसूत्रम् (सवृत्ति) - वृत्तिकार नूतनशंकर स्वामी। वृत्ति का नाम- विद्यापारिजात । श्लोक- 1501 वात्सल्यरसायनम् (खंडकाव्य) - कवि डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर । नागपुर निवासी। इस वसन्ततिलका छन्दोबद्ध खण्डकाव्य में भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म से कंसवध तक की अन्यान्य बाललीलाओं का वात्सल्य एवं भक्ति-रसपूर्ण वर्णन है। शारदा प्रकाशन, पुणे द्वारा सन 1956 में प्रकाशित। वात्स्य-शाखा - ऋग्वेद की इस शाखा के संहिता-ब्राह्मण-सूत्रादि अप्राप्त हैं। शुक्ल यजुओं में भी एक वत्स पौण्डरवत्स शाखा मानी गई हह। इस नामसादृश्य के अतिरिक्त और शांखायन आरण्यक के कुछ हस्तलेख में उल्लिखित "वात्स्य" नाम के अतिरिक्त इस शाखा के विषय में जानकारी नहीं है। वात्स्यायन-कामसूत्रम् - ले.-वात्स्यायन ऋषि । भारतीय कामशास्त्र या काम-कला-विज्ञान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण व विश्व-विश्रुत ग्रंथ। इसके प्रणेता वात्स्यायन के नाम पर ही इसे "वात्स्यायन कामसूत्र कहा जाता है। वात्स्यायन के नामकरण व उनके स्थिति-काल दोनों के ही संबंध में विविध मतवाद प्रचलित हैं जिनका निराकरण अभी तक नहीं हो सका है। प्रस्तुत "कामसूत्र" का विभाजन अधिकरण, अध्याय तथा प्रकरण में किया गया है। इसके प्रथम अधिकरण का नाम “साधारण" है और उसके अंतर्गत ग्रंथविषयक सामान्य विषयों का परिचय दिया गया है। इस अधिकरण में अध्यायों की संख्या 5 है तथा 5 प्रकरण हैं- शास्त्र-संग्रह, त्रिवर्ग-प्रतिपत्ति, विद्यासमुद्देश, नागरवृत्त तथा नायक सहाय दूतीकर्म विमर्श प्रकरण । प्रथम प्रकरण का प्रतिपाद्य विषय धर्म, अर्थ व काम की प्राप्ति है। इसमें कहा गया है कि मनुष्य श्रुति आदि विभिन्न विद्याओं के साथ अनिवार्य रूप से कामशास्त्र का भी अध्ययन करे। कामसूत्रकार के अनुसार मनुष्य विद्या का अध्ययन कर अर्थोपार्जन में प्रवृत्त हो और फिर विवाह करके गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करे। किसी दूती या दूत की सहायता से उसे किसी नायिका से संपर्क स्थापित कर प्रेम संबंध बढाना चाहिये। तदुपरांत उसी से विवाह करना चाहिये जिससे गार्हस्थ्य जीवन सदा के लिये सुखी बने। द्वितीय अधिकरण का नाम है सांप्रयोगिक जिसका अर्थ है संभोग। इस अधिकरण में 10 अध्याय या 17 प्रकरण हैं जिनमें नाना प्रकार से स्त्री-पुरुष के संभोग का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि जब तक मनुष्य संभोग कला का सम्यक् ज्ञान प्राप्त नहीं करता, तब तक उसे वास्तविक आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता। तृतीय अधिकरण को कन्या-संप्रयुक्तक कहा गया है। इसमें 5 अध्याय व 9 प्रकरण हैं। इस प्रकरण में विवाह के योग्य कन्या का वर्णन किया गया है। कामसूत्रकार ने विवाह को धार्मिक बंधन माना है। चतुर्थ अधिकरण को "भार्याधिकरण" कहते हैं। इसमें 2 अध्याय व 8 अधिकरण हैं तथा भार्या (विवाह होने पश्चात् कन्या को भार्या कहते हैं) के दो प्रकार वर्णित हैं(1) धारिणी व (2) सपत्नी। इस अधिकरण में दोनों प्रकार की भार्याओं के प्रति पति का तथा पति के प्रति उनके कर्तव्यों का वर्णन है। पांचवें अधिकरण की संज्ञा “पारदारिक" है। इस प्रकरण में संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड 325 For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अध्यायों की संख्या 6 तथा प्रकरणों की संख्या 10 है। इसका विषय परस्त्री तथा परपुरुष के प्रेम का वर्णन है। किन परिस्थितियों में प्रेम उत्पन्न होता है, बढता है और टूट जाता है, किस प्रकार परदारेच्छा की पूर्ति होती है, व स्त्रियों की व्यभिचार से कैसे रक्षा हो सकती है, आदि विषयों का यहां विस्तारपूर्वक वर्णन है। छठे प्रकरण को "वैशिक" कहा गया है। इसमें 6 अध्याय व 12 प्रकरण हैं। वेश्याओं के चरित तथा उनसे समागम के उपायों का वर्णन ही इस अधिकरण का प्रमुख विषय है। कामसूत्रकार ने वेश्यागमन को दुर्व्यसन माना है। 7 वें अधिकरण की संज्ञा "औपनिषदिक" है। इसमें 2 अध्याय व 6 प्रकरण हैं तथा तंत्र, मंत्र, औषधि यंत्र आदि के द्वारा नायक-नायिकाओं को वशीभूत करने की विधियां दी गई हैं। रूप लावण्य को बढाने के उपाय, नष्टराग की पुनःप्राप्ति तथा वाजीकरण के प्रयोग की विधि भी इसमें वर्णित है। औपनिषदिक का अर्थ "टोटका" (टोना) होता है। प्रस्तुत ग्रंथ में कुल 7 अधिकरण 36 अध्याय 64 प्रकरण व 1250 सूत्र (श्लोक) हैं। इसमें बताया गया है कि इस शास्त्र का प्रवचन सर्व प्रथम ब्रह्मा ने किया था जिसे नंदी ने एक सहस्र अध्यायों में विभाजित किया। उसने अपनी ओर से कोई घटाव नहीं किया। फिर श्वेतकेतु ने नंदी के कामशास्त्र को संपादित कर उसका संक्षिप्तीकरण किया। प्रस्तुत कामसूत्र में मैथुन का चरम सुख 3 प्रकार का माना गया है- (1) संभोग, संतानोत्पत्ति, जननेन्द्रिय तथा कामसंबंधी समस्याओं के प्रति आदर्शमय भाव। (2) मनुष्य जाति का उत्तरदायित्व । (3) अपने सहचर या सहचरी के प्रति उच्च भाव, अनुराग, श्रद्धा और हितकामना । वात्स्यायन ने इसमें धर्म, अर्थ व काम तीनों की व्याख्या की है। इस ग्रंथ में वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने के लिये तथा प्रेमी-प्रेमिकाओं के परस्पर कलह, अनबन, संबंध विच्छेद, गुप्त व्यभिचार, वेश्यावृत्ति नारी अपहरण तथा अप्राकृतिक व्यभिचारों आदि के दुष्परिणामों का वर्णन कर अध्येता को शिक्षा दी गई है, जिससे वह अपने जीवन को सुखी बना सके । प्रस्तुत "कामसूत्र" के आधार पर संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। इनके प्रणेताओं ने "कामसूत्र " के कतिपय विषयों को लेकर स्वतंत्र रूप से अपने ग्रंथों की रचना की है जिन पर प्रस्तुत "कामसूत्र" के कर्ता वात्स्यायन का प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित होता है। कोक पंडित ने "रतिरहस्य", भिक्षु पद्मश्री ने "नागरसर्वस्व" तथा ज्योतिरीश्वर ने "पंचासायक" नामक ग्रंथ लिखे हैं। इसके आधार पर "अनंगरंग", "कोकसार", "कामरत्न" आदि ग्रंथों का भी प्रणयन हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ की हिंदी व्याख्याएं भी प्रकाशित हो चुकी हैं। वादकुतूहलम् मीमांसाशास्त्र । - www.kobatirth.org C 326 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड ले. भास्करराय । ई. 18 वीं शती विषय वादचूडामणि ले. कृष्णमित्र (कृष्णाचार्य) वादन्याय ले. धर्मकीर्ति । ई. 7 वीं शती। वाद विषय पर दार्शनिक रचना | वादपरिच्छेद ले. रुद्रराम । - वादभयंकर ले. - विज्ञानेश्वर के अनुयायी। ई. 11 वीं शती । वादविधि - ले. वसुबन्धु । प्रामाणिक रचना । इसका उल्लेख शान्तरक्षित ने धर्मकीर्ति के वादन्याय की व्याख्या में अनेक बार किया है। वाचस्पति मिश्र ने अपनी न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका में इस पर पूर्ण प्रकाश डाला है। यह रचना प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाणों के लक्षणों से संवलित है। धर्मकीर्ति के समान केवल निग्रह स्थान का ही वर्णन नहीं है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वादसुधाकरले कृष्णमित्र (कृष्णाचार्य) जम्मू में सुरक्षित । वादावली (वेदांत खादावली) ले. जयतीर्थ । माध्व-मत की गुरु परंपरा में 6 वें गुरु । द्वैत तर्क की दिशा तथा स्वरूप का निर्देशक ग्रंथ । इसमें अद्वैत वेदांत के मिथ्यात्व - सिद्धांत का विस्तृत तथा प्रबल खंडन है। वित्सुख का तो नामनिर्देशपूर्वक खंडन किया गया है। इस ग्रंथ से द्वैत - दर्शन की शास्त्रीय मर्यादा की प्रतिष्ठा वृद्धिंगत हुई और आगे के दार्शनिकों के लिये समुचित मार्गदर्शन किया गया है। वादिराजवृत्तरत्नसंग्रह ले. रघुनाथ। इस काव्य में विजयनगर साम्राज्य के अन्तिम दिनों में हुए कर्नाटकीय महाकवि वादिराज का चरित्र वर्णन है। इस वादिराज ने अनेक काव्य लिखे हैं। (वे सब मुद्रित हैं) उनके नाम (1) रुक्मिणीशविजयम्, (2) सरसभारतीविलासम्, (3) तीर्थप्रबन्धः ( 4 ) एकीभावस्तोत्रम्, (5) दशावतारस्तुति: आदि। वादिविनोद ले. शंकर मिश्र । ई. 15 वीं शती । वामेश्वर पंचागम् विश्वसारतत्त्वान्तर्गत श्लोक 650 1 वामकेश्वरीमतटिप्पनम् विस्मृति हो जाने के भय या आशंका से वामकेश्वरीमत पर यह टिप्पणी लिखी गयी है जो 5 पटलों तक है। विषय- त्रिपुराप्रयोग मुद्रापटल, बीजत्रयसाधन, त्रिपुराहोमविधि इ. वामकेश्वरीस्तुति-न्यास-पूजाविधि (1) वामकेश्वरी स्तुतिइसके कर्ता महाराजाधिराज विद्याधर चक्रवर्ती वत्सराज माने जाते हैं (2) न्यासविधि । (3) पूजाविधि । वामकेश्वरतन्त्रम् भैरव-भैरवी संवादरूप । इसके नित्याषोडशिकार्णव और योगिनीहृदय नामक दो भाग हैं। योगिनीह्रदय पर पुण्यानन्द शिष्य अमृतानन्दनाथ की (दीपिका) टीका है। यह प्रिंस ऑफ वेल्स सरस्वती भवन सीरीज से पृथक् ( दीपिका के साथ) छप चुका है। नित्याषोडशिकार्णव भी भास्करराय की टीका के साथ आनन्दाश्रम सं. सीरीज में छप गया है। इसमें चक्रसंकेत, मन्त्रसंकेत, पूजासंकेत, अभिषेक, पूर्णाभिषेक, यन्त्र आदि विविध विषयों का कथन है । For Private and Personal Use Only - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वामकेश्वरतन्त्र टिप्पणी - टिप्पणी का नाम है अर्थरत्नावली, और लेखक हैं, विद्यानन्द। श्लोक 1600। वामकेश्वर-तन्त्र-दर्पणः - ले.- विद्यानन्दनाथ । वामकेश्वर तन्त्र टीका - ले.- मुकुन्दलाल। वामकेश्वर तन्त्र टीका - ले. - सदानन्द। वामकेश्वर तन्त्र विवरणम् - ले.- जयद्रथ । श्लोक- 725 । वामनकारिका - स्वादिरगृह्यसूत्र पर आधारित एक श्लोकबद्ध विशाल ग्रंथ। वामनपुराणम् - अठारह महापुराणों में से परंपरानुसार 14 वां पुराण। पुलस्त्य ऋषि ने यह सर्व प्रथम नारद को सुनाया। बाद में नारद ने नैमिषारण्य में अन्य ऋषियों को सुनाया। विद्वानों के मतानुसार इसका निर्माणकाल इ.स. 100-200 वर्ष रहा होगा किन्तु डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल इसका निर्माण काल इ.स. सातवीं शती मानते हैं। उनके मतानुसार हर्षवर्धन के काल देश के विभिन्न सम्प्रदायों की स्थिति का वर्णन तथा गुप्तकालीन भौगोलिक व धार्मिक स्थिति एवं सामाजिक रीति-रिवाजों का इस पुराण में विशेष विवेचन किया गया है। इसकी रचना प्रायः कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई होगी क्योंकि इसमें उस प्रदेश के अनेक तीर्थ-स्थलों की महत्ता भी बताई गई है। प्रस्तुत पुराण में 10 सहस्र श्लोक एवं 92 अध्याय हैं, तथा पूर्व व उत्तर भाग के नाम से दो विभाग किये गए है। इस पुराण में 4 संहिताए हैं : माहेश्वरी संहिता, भागवती संहिता, सौरी संहिता और गाणेश्वरी संहिता। इसका प्रारंभ वामनावतार से होता है, तथा कई अध्यायों में विष्णु के अन्य अवतारों का वर्णन है। विष्णुपरक पुराण होते हुए भी इसमें साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं है। इसी लिये विष्णु की अवतार गाथा के अतिरिक्त इसमें शिव-माहात्म्य, शैवतीर्थ, उमा-शिव विवाह, गणेश का जन्म तथा कार्तिकेय की उत्पत्ति की कथाएं दी गई है। इस पुराण में वर्णित शिव-पार्वती आख्यान का "कुमारसंभव" के साथ विस्मयजनक साम्य है, अतःकुछ विद्वानों का कहना है कि कालिदास के कुमारसंभव से प्रभावित होने के कारण इसका रचनाकाल कालिदासोत्तर युग है। वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित प्रति में नारदपुराणोक्त विषयों की पूर्ण संगति नहीं दीखती। पूर्वार्ध के विषय तो पूर्णतः मिल जाते हैं, किन्तु उत्तरार्ध की 4 संहिताएं इस प्रति में नहीं हैं। इन संहिताओं की श्लोकसंख्या 4 सहस्र है। प्रस्तुत पुराण की विषय सूचि इस प्रकार है :- कूर्मकल्प के वृत्तांत का वर्णन, ब्रह्माजी के शिरश्छेद की कथा, कपाल-मोचन-आख्यान, दक्ष-यज्ञ-विध्वंस, मदन-दहन, प्रह्लाद-नारायण युद्ध, देवासुर संग्राम, सुकेशी तथा सूर्य की कथा, काम्यव्रत का वर्णन, दुर्गाचरित्र, तपतीचरित्र, कुरुक्षेत्र का वर्णन, पार्वती की कथा, जन्म व विवाह, कौशिकी उपाख्यान, कुमारचरित, अंधक-वध, सांध्योपाख्यान, जाबालिचरित, अंधक एवं शंकर का युद्ध, राजा बलि की कथा, लक्ष्मीचरित्र, त्रिविक्रम चरित्र, प्रह्लाद की तीर्थयात्रा, धुंधु-चरित, प्रेतोपाख्यान, नक्षत्रपुरुष की कथा, श्रीदामाचरित- उत्तरभाग-माहेश्वरी संहिता, श्रीकृष्ण व उनके भक्तों का चरित्र। भागवती संहिता- जगदंबा के अवतार की कथा। सौरी संहिता- सूर्य की पापनाशक महिमा का वर्णन । गाणेश्वरी संहिता- शिव एवं गणेश का चरित्र । वामनशतकम् - मूल तेलगु काव्य का अनुवाद। अनुवादकचिट्टीगुडुर वरदाचारियर। वामाचारमतखण्डनम् - ले.-भडोपनामक काशीनाथभट्ट। पिता जयराम भट्ट। श्लोक- 206 | विषय- द्विजों के किए वामाचार कदापि पालनीय नहीं है, अपितु शूद्रों को ही इसका पालन करना चाहिये, यह सिद्ध करने के लिए आकर ग्रंथों के प्रमाण वचन इसमें उद्धृत किये गये हैं। वामाचारसिद्धान्त- ले.-महेश्वराचार्य। पिता- विश्वेश्वर। विषयकुलधर्मों के अनभिज्ञ शिष्य के लिए कुलधर्म-पद्धति प्रदर्शित की गई है। वामाचार-सिद्धान्तसंग्रह - ले.-ब्रह्मानन्दनाथ। भडोपनामक काशीनाथ ने वामाचारमतखण्डन नाम का जो ग्रंथ वामाचार खण्डन के विषय में लिखा है, उसका खण्डन करते हुए वामाचार-सिद्धान्त की पुष्टि इसमें की गई है। वायुपुराणम् - कुछ विद्वान् इसकी गणना अठारह महापुराणों में नहीं करते। विष्णुपुराण में दी गई पुराणों की सूची के अनुसार इसका चौथा क्रमांक है, जब कि कुछ विद्वानों के अनुसार शिवपुराण का क्रमांक चौथा है। मतभेदों के बावजूद यह निर्विवाद है कि शिव तथा वायु दोनों पुराण अलग हैं तथा दोनों के प्रतिपाद्य विषय भी अलग हैं। वायु द्वारा कथन किये जाने के कारण इसका नाम वायुपुराण पडा किन्तु शैवतत्त्वों का प्रतिपादन होने से इसका अन्तर्भाव शैव पुराणों में होता है। इसमें 24 हजार श्लोक हैं। वायुपुराण का उल्लेख "द्वादश साहस्री संहिता" के रूप में भी किया गया है। तात्पर्य यही है कि मूल ग्रंथ में 12 हजार श्लोक रहे होंगे और बाद में अनेक अध्याय इसमें जोडे गये। इसमें 112 अध्याय चार खंडों में विभाजित हैं जिन्हें (1) प्रक्रिया (2) अनुषंग (3) उपोद्धात व (4) उपसंहार-पाद कहते हैं। अन्य पुराणों की भांति इसमें भी सृष्टि क्रम के विस्तारपूर्वक वर्णन के पश्चात् भौगोलिक वर्णन है, जिनमें जंबू द्वीप का विशेष रूप से विवरण तथा अन्य द्वीपों का कथन किया गया है। तदनंतर अनेक अध्यायों में खगोल, युग, ऋषि, तीर्थ तथा यज्ञ इत्यादि विषयों का वर्णन है। इसके 60 वें अध्याय में वेद की शाखाओं का विवरण है, और 86 व 87 वें अध्यायों में संगीत का विशद विवेचन किया गया है। इसमें कई राजाओं के वंशों का वर्णन है तथा प्रजापति वंश-वर्णन, कश्यपीय, प्रजासर्ग व ऋषिवंशों के अंतर्गत प्राचीन बाह्य वंशों का इतिहास दिया गया है। इसके संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/327 For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 99 वें अध्याय में प्राचीन राजाओं की विस्तृत वंशावलियां प्रस्तुत की गई हैं। इस पुराण के अनेक अध्यायों में श्राद्ध का भी वर्णन किया गया है, तथा अंत में प्रलय का वर्णन है । "वायुपुराण" का मुख्य प्रतिपाद्य है शिव भक्ति व उसकी महत्ता का निदर्शन । इसके सारे आख्यान भी शिव भक्तिपरक हैं। यह शिव भक्तिप्रधान पुराण होते हुए भी कट्टरता रहित है, व इसमें अन्य देवताओं का भी वर्णन किया गया है तथा अध्याओं में विष्णु व उनके अवतारों की भी गाथा प्रस्तुत की गई है। इसके 11 वें से 15 वें अध्यायों में योगिक प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक वर्णन है, तथा शिव के ध्यान में लीन योगियों द्वारा शिव लोक की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए इसकी समाप्ति की गई है। रचना कौशल की विशिष्टता, सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर व वंशानुचरित के समावेश के कारण इस पुराण की महनीयता असंदिग्ध है। इस पुराण के 104 वें से 112 वें अध्यायों में विष्णु भक्ति व वैष्णव मत का पुष्टिकरण है, जो प्रक्षिप्त माना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी वैष्णव भक्त ने इसे पीछे से जोड़ दिया है। इसके 104 वें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण की ललित लीला का गान किया गया है जिसमें राधा का नामोल्लेख है। इसके अंतिम 8 अध्यायों ( 105-112) में गया का विस्तारपूर्वक माहात्म्य प्रतिपादन है, तथा उसके तीर्थदेवता " गदाधर" नामक विष्णु ही बताये गये हैं । प्रस्तुत पुराण के 4 भागों की अध्याय संख्या इस प्रकार है- प्रक्रियापाद 1-6, उपोद्घातपाद 7-64, अनुषंगपाद 65-99, तथा उपसंहारपाद 100-112। इस पुराण की लोकप्रियता, बाणभट्ट के समय तक लक्षणीय हो चुकी थी। बाण ने अपनी "कादंबरी" में इसका उल्लेख किया है(पुराणे वायुप्रलपितम्) शंकराचार्य के "ब्रह्मसूत्रभाष्य" में भी इसका उल्लेख है। (1/3/28, 1/3/30) तथा उसमें "वायुपुराण" के श्लोक उद्धृत हैं ( 8/32, 33 ) । “महाभारत के वनपर्व में भी “वायुपुराण" का स्पष्ट निर्देश है (191/16 ) | इससे प्रस्तुत पुराण की प्राचीनता सिद्ध होती है। किन्तु डॉ. भांडारकर के मतानुसार इस पुराण का काल इ.स. 300 के लगभग रहा होगा क्योंकि इसमें समुद्रगुप्त के काल में तत्कालीन गुप्त राज्य की प्रारंभिक सीमाओं का वर्णन है। उसके विस्तार का इतिहास इसमें नहीं है। वाराणसीदर्पण ले सुन्दर पिता । वाराणसीशतकम् ले बानेश्वर विषय काशी क्षेत्र का राघव । - - - स्तवन । वारायणीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) चरणव्यूह में वारायणी नाम मिलता है किन्तु इस विषय में और कुछ ज्ञात नहीं। कदाचित् चारायणीय से ही यह नाम बन गया हो। वाराहगृह्यम् गायकवाड सीरीज में 21 खण्डों में प्रकाशित । विषय- जातकर्म, नामकरण से पुसंवन तक के संस्कार एवं www.kobatirth.org 328 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड -- वैश्वदेव तथा पाकयज्ञ । F वाराह गृह्यसूत्रम् - यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा की वाराह नामक उपशाखा के सूत्र । इनमें लगभग आधे गृह्यसंस्कारों का वर्णन है। इन सूत्रों के अनुसार संस्कार ग्रहण करने वाले लोग महाराष्ट्र के धुलिया जिले मे पाये जाते हैं। ये सूत्र मानव व काठक गृह्यसूत्रों से लिये गये हैं। डॉ. रघुवीर ने इन्हें संपादित कर प्रकाशित किया है। डॉ. रोलॅण्ड ने इनका फ्रेन्च भाषा में अनुवाद किया है। वाराह शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) व गृह्यसूत्र मुद्रित हुआ है। वाराह - श्रौतसूत्रम् - यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा के श्रौत सूत्र । मानव श्रौतसूत्रों से इनकी काफी समानता है । इ.स. 1933 में डॉ. रघुवीर व डॉ. कलान्द ने इन सूत्रों को सम्पादित कर प्रकाशित किया। इनमें श्रौत यज्ञों का ब्योरेवार विवरण दिया गया है। इस शाखा का श्रौत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाराहीतन्त्र (1) कालिकाण्डभैरव संवादरूप 36 पटलों में पूर्ण । यह तन्त्र दक्षिणाम्नाय से संबद्ध है । विषयवाराही, महाकाली आदि देवी देवताओं के ध्यान, जप, पूजन, होम, आसन, साधन इ. । (2) मूलभूत तन्त्रों में अन्यतम है। 50 पटलों में पूर्ण । श्लोक - 2545। विषय- आगम, यामल, कल्प और तन्त्रों की संख्या और उनके अवान्तर भेद, प्रत्येक की श्लोकसंख्या, आगम, यामल, कल्प और तन्त्रों के लक्षण, दीक्षाविधि, अकडमहर चक्र, कौलचक्र, भिन्न-भिन्न देवताओं के मंत्र जाप, कलियुग में शक्तिमन्त्र में प्रणव आदि जोड़ने का नियम, मन्त्रों की बाल्य, यौवन आदि अवस्थाओं का निरूपण, गृहस्थ और यतियों के लिए मन्त्रों की विशेष व्यवस्था, उपांशु और मानस के भेद से जप के दो प्रकार, जपविधि, स्तोत्र आदि के पाठ की विधि, विविध देव-देवियों की पूजा के मन्त्र, न्यास, स्तोत्र आदि, पीठ और उपपीठों के माहात्म्य । (3) श्रीकृष्ण - राधिका संवाद रूप। श्लोक - 500 पटल 8 । विषय- श्रीकृष्ण से राधा के गोपकुलवास आदि के विषय में विविध प्रश्न और उनका उत्तर, ब्रह्मशिला ब्रह्मलिंग आदि का तत्त्वकथन, सिद्धि के स्थान आदि विशेष रूप से निर्णय, पंच कुण्डों से युक्त स्थान आदि का कथन, चंद्रशेखर, महादेव की अवस्था आदि का निरूपण, चम्पकारण्य आदि का वर्णन. चण्डीस्तोत्र का एकावृत्ति पाठ आदि का कथन । वाराहीसहस्रनाम - ले. उड्डामर तन्त्र के अन्तर्गत। श्लोक- 114 वार्तिकपाठ ले. कात्यायन । विषय-व्याकरण । ले. यतीश । टेकचन्द्र के पुत्र । 1785 ई. में वार्तिकसार लिखित । वार्षगण्य शाखा (सामवेदीय) इस शाखा की संहिता और ब्राह्मण कभी अवश्य रहे होंगे। सांख्यशास्त्र के प्रवर्तकों For Private and Personal Use Only - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में भी वार्षगण्य नामक प्रसिद्ध आचार्य थे। सांख्यकार वार्षगण्य और सामसंहिताकार वार्षगण्य एक थे अथवा भिन्न यह गवेषणा का विषय है। वाल्मीकशाखा - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के (5-36) महिषेय टीकाकार ने इसका निर्देश किया है। इस नाम की कोई वेदशाखा मानी जाती है जो आज उपलब्ध नहीं है। वाल्मीकिचरितम् -ले.- रघुनाथ नायक। तंजौर के निवासी। वाल्मीकि के चरित्र पर आधारित यह एकमेव काव्य संस्कृत । साहित्य में विद्यमान है। वाल्मीकिरामायणम् - (देखिए- रामायण) वाल्मीकिसंवर्धनम् (रूपक)- ले.-विश्वेश्वर विद्याभूषण (ई. 20 वीं शती) "रूपकमंजरी ग्रंथमाला" में सन् 1966 में कलकत्ता से प्रकाशित। आकाशवाणी से भी प्रसारित । अंकसंख्या-पांच। सांस्कृतिक महत्ता की चर्चा से परिप्लुत।। प्रकृति वर्णन, नृत्य, गीतादि से भरपूर। कथासार- "दस्यु" । रत्नाकर को ब्रह्मा पूछते हैं कि "तुम्हारी दस्युता के पाप में कौन भागी बनेगा।" कुटुम्बीजनों से यह जानकर कि पाप का भागी कोई नहीं, सभी केवल सम्पत्ति में ही भागी बनते हैं, वह विरक्त होकर तपश्चरण में लीन होता है। अन्त में उसी के द्वारा रामायण लिखा जाता है और "वाल्मीकि" के नाम से वह सुविख्यात होता है। 2) वाल्मीकिहृदयम्- ले. कांचीववरम् के आत्रेयगोत्री अहोबिल मठाधीश (क्र. 6) पराकुंश के शिष्य। इ. 16 वीं शती। इसके शिष्य ब्रह्मविद्याध्वरीण ने कुछ पद्यों पर “विरोध- भंजनी" टीका लिखी है। वाल्मीकीय-भावप्रदीप (प्रबन्ध) - ले.- अनन्ताचार्य । प्रतिवादिभयंकर-मठाधिपति। वाल्मीकि रामायण के आध्यात्मिक भाव का प्रतिपादन किया है। वासनाभाष्यम् (टीकाग्रंथ)- ले.- भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। वासनावार्तिकम् (वासनाकल्पलता) - ले.- नृसिंह। ई. 16 वीं शती। वासन्तिकापरिणयम् (नाटक) - ले.- शठकोप यति। ई. 16 वीं शती। इसमे अहोबिल नरसिंह के साथ वासन्तिका नामक वनदेवी का विवाह पांच अंकों में वर्णित है। सन् 1892 में मैसूर से प्रकाशित । वासन्तिकास्वप्न - मूल शेक्सपियर का मिड समर नाइटस् ड्रीम। अनुवादकर्ता- आर. कृष्णम्माचार्य । वासरसरस्वती-सुप्रभातम् - ले.- श्रीभाष्यम् विजयसारथि। वरंगल (आंध) के महाविद्यालय में संस्कृत प्राध्यापक। इस स्तोत्र में आंध की प्रसिद्ध देवता वासरसरस्वती का प्रबोधन "ब्रह्माणि वासरसरस्वती सुप्रभातम्" इस प्रतिश्लोक अंतिम पंक्ति के साथ स्तवन किया है। इस कवि के भारतभारती और भारती-सुप्रभातम् नाम दो खण्डकाव्य सुधालहरी नामक संस्कृत काव्यसंग्रह में प्रसिद्ध हुए हैं। वासवदत्ता - ले.- सुबन्धु । इसका काल अनुमान से 8 वीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है। इसकी कथा वत्सराज उदयन तथा महाचण्डसेन की कन्या वासवदत्ता की कथा से भिन्न है। राजा चिन्तामणि का पुत्र कन्दर्पकेतु स्वप्न में एक कन्या को देखकर उसके प्रेम में पडता है। अपने मित्र मकरन्द के साथ वह उसकी खोज में निकलता है। रास्ते में तोता-दम्पती की बातों से उसे एक राजकन्या स्वप्रदृष्ट राजकुमार के प्रति प्रेम से व्याकुल होने की बात ज्ञात होती है। वह वहां पहुंचकर, वासवदत्ता के विवाह पूर्व ही दोनों भाग निकलते है। उसे खोजने वाले किरातसैन्य का आपस में युद्ध होने से वहां के मुनि, इस गडबडी के मूल कारण वासवदत्ता को शाप देकर पुतला बनाते हैं। कन्दर्पकेतु उसकी खोज में मुनि के आश्रम में आता है तथा वासवदत्ता के समान रूप का पुतला देखकर उसे आलिंगन देता है। वासवदत्ता जीवित हो उठती है और दोनों का मिलन होता है। सुबन्धु की प्रशंसा मंखक, राजशेखर, वामन भट्टबाण आदि ने अनन्तर काल में की है। वक्रोक्तिमार्ग में उसके जैसा नैपुण्य केवल बाणभट्ट तथा वाक्पतिराज ने ही प्रदर्शित किया है। भाषा में शब्दगरिमा, संवादचातुरी आदि के प्रदर्शन में सुबन्धु को कथाविस्तार तथा उसकी मौलिकता गौण लगते हैं। अनुप्रास, श्लेष आदि का प्रभूत मात्रा में प्रयोग होते हुए भी पाठक को गीतमाधुरी की अनुभूति होती है। सुबंधु का अन्यान्य शास्त्रों तथा विशेषतः व्याकरण से पूर्ण परिचय रचना से ज्ञात होता है। वासवदत्ता के टीकाकार - (1) जगद्धर, (2) त्रिविक्रम, (3) तिम्मयसूरि, (4) रामदेव मिश्र, (5) सिद्धचन्द्रगणि, (6) नरसिंह सेन, (7) नारायण और शृंगारगुप्त, । वासवीपाराशरीयम् (रूपक) - ले.- नरसिंहाचार्य स्वामी (जन्म-1842 ईसवी) विजयनगर से सन् 1902 में तेलगु लिपि में प्रकाशित । अंकसंख्या-बारह । प्रथम अभिनय विजयनगर में गजपतिनाथ की उपस्थिति में। धर्मप्रचारात्मक। जैन, बौद्ध, चार्वाक आदि के आख्यानों में साम्प्रदायिक उद्बोधनों की लम्बी चर्चाएं। प्राकृत का अभाव। दूध पिलाती माता, नौकावहन इ. असाधारण संविधान। शृंगार कहीं कहीं अश्लीलता को छूता है। कथासार- अकाल की स्थिति में सभी ब्राह्मण गौतम द्वारा आर्ष कृषि से उत्पन्न भोजन करते रहे। ब्राह्मणों की अनुपस्थिति में गृहस्थों के यज्ञकृत्य बन्द हो जाते हैं। देवताओं को हविर्भाग नहीं मिलता। वे मायाबल से एक गाय गौतम के खेत में भेजते है, जिसे हांकने पर वह मर जाती है। गौतम गोवध के पापी बनते हैं, ब्राह्मण उन्हें छोड चले जाते हैं। अतः गौतम देवताओं को शाप देते हैं। इस संकट संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 329 For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से बचने हेतु स्वयं विष्णु पराशर के पुत्र बन अवतार लेने का निश्चिय करते हैं। दाशराज की कन्या वासवी पर पराशर लुब्ध होते हैं और उसे वर देते हैं कि उनके पुत्र को जन्म देकर वह फिर कन्या बनकर चक्रवर्ती वर प्राप्त करेगी। वासवी पुत्र को जन्म देती है, और कुछ दिन बाद आकाशवाणी होती है कि पराशर तथा वासवी के पुत्र व्यास ने देवताओं को गौतम के शाप से मुक्त किया है। वासवीपाराशरीयप्रकरणम्- ले.- मुडम्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य। वासिष्ठचरितम् - ले.- अनन्ताचार्य। प्रतिवादि-भयंकर मठ के अधिपति । मंजुभाषिणी में क्रमशः प्रकाशित। वासिष्ठवैभवम् - ले.- ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री। लेखक के विद्वान् गुरु योगी वासिष्ठ गणपतिमुनि का आधुनिक तन्त्रानुसार चरित्र। वासुदेव-उपनिषद् - एक लघु गद्य वैष्णव उपनिषद् जो सामवेद से सम्बध्द माना जाता है। वासुदेव द्वारा नारद को बताये गये इस उपनिषद् में ऊर्ध्वपुंड्र लगाने के बारे में जानकारी दी गई है। इस सम्बन्ध में एक मंत्र इस प्रकार है गोपीचंदन पापघ्न विष्णुदेहसमुद्भव। चक्रांकित नमस्तुभ्यं धारणन्मुक्तिदो भव ।। इस पीतवर्ण गोपीचन्दन के धारण करने पर मुक्ति प्राप्त होती है। गीपीचन्दन न मिलने पर तुलसी की जडों को पीस कर मिट्टी व पानी में भिगोकर ऊर्ध्व पुंड लगाने का परामर्श भी दिया गया है। वासुदेवचरितम्- ले.- वेणीदत्त । वास्तुप्रबंध- प्राप्तिस्थान- खेलाडीलाल संस्कृत बुकडेपो, कचौडी गल्ली, वाराणसी। वास्तुमाणिक्यरत्नाकर - प्राप्तिस्थान- खेलाडीलाल संस्कृत बुकडेपो, कचौडी गल्ली, वाराणसी। वास्तुमुक्तावली- हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित । प्राप्तिस्थान-भार्गव पुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी। वास्तुयागतत्त्व - ले.- रघुनन्दन । वाराणसी (सन् 1883) एवं कलकत्ता (1885) में प्रकाशित । वास्तुरत्नाकर - हिन्दी अनुवादसहित प्रकाशित। प्राप्तिस्थानचौखंबा संस्कृत सिरीज, वाराणसी। वास्तुरत्नावली- हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित । प्राप्तिस्थानचौखंबा संस्कृत सिरीज, वाराणसी। वास्तुराजवल्लभ - विषय- शिल्पशास्त्र । ई. 1881 में गुजरात में प्रकाशित। हिन्दी अनुवाद सहित वाराणसी में प्रकाशित । प्राप्तिस्थान- भार्गव पुस्तकालय, गायघाट, वाराणसी। वास्तुविद्या- ले.- विश्वकर्मा। त्रिवेंद्रम संस्कृत सिरीज द्वारा सन् 1940 में प्रकाशित। वास्तुवेधटीका- ले.- श्रीकण्ठाचार्य। श्लोक-700।। वास्तुशान्ति- श्लोक- 1100। वासनाविधिपर्यंत। वास्तुशान्ति- ले.- रामकृष्ण । नारायणभट्ट के पुत्र । आश्वलायनगृह्य के अनुसार कमलाकरभट्ट के शान्तिरत्न में वर्णित । वास्तुशान्तिप्रयोग - शाकलोक्त। वास्तुशिरोमणि - ले.- शंकर। माननरेंद्र के पुत्र श्यामशाह के आदेश से लिखित। वास्तुसर्वस्वम् - मद्रास के श्री. व्ही. रामस्वामी शास्त्री एण्ड सन्स द्वारा तेलगु अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हुआ है। वास्तुसार - ले.- सूत्रधार मंडन । प्रकाशक- मगनलाल करमचंद, अहमदाबाद। वास्तुसर्वस्वसंग्रह - बंगलोर में सन् 1884 में प्रकाशित । वास्तुसारणी - हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित। प्राप्तिस्थानचौखंबा संस्कृत सीरिज, वाराणसी। वास्तुसार-प्रकरणम्- विषय-शिल्पशास्त्र । गुजरात में प्रकाशित। विचक्षणा- सन् 1905 में पेरम्बेदूर (मद्रास) से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके सम्पादक थे- क, क. शुद्धसत्त्व दोड्याचार्य। इस पत्रिका के केवल दो-तीन अंक ही प्रकाशित हुए। विचारनिर्णय - ले.- गोपाल न्यायपंचानन भट्टाचार्य । विचित्रकर्णिकावदानम् - 32 कथाओं का संग्रह। अतिविचित्र विषयसूची तथा परिवर्तित स्वरूप। कुछ कथाएं अवदानशतक से तथा अन्य व्रतावदान से ली गई है, यत्र तत्र भ्रष्ट तथा शुद्ध संस्कृत गाथाएं है कहीं तो पालिभाषा का भी दर्शन वासुदेवनन्दिनीचम्पू - ले.- गोपालकृष्ण । वासुदेवविजयम् (महाकाव्य) - ले.- वासुदेव। केरलीय कवि। इस महाकाव्य में भगवान् श्रीकृष्ण (वासुदेव) का चरित्र वर्णित है। यह काव्य अधूरा प्राप्त है जिसमें केवल 3 सर्ग है। कवि ने पाणिनि-सूत्रों के दृष्टांत प्रस्तुत किये हैं। इस अपूर्ण महाकाव्य की पूर्ति नारायण नामक कवि ने “धातुकाव्य" लिखकर की है। इसके कथानक का अंत कंस-वध में होता है। वासुदेवी (या प्रयोगरत्नमाला)- मुंबई में सन् 1884 ई. में प्रकाशित । विषय- मूर्तिनिर्माणप्रकार, मण्डपप्रकार, विष्णुप्रतिष्ठा, जलाधिवास, शान्तिहोमप्रयोग, नूतनपिण्डिकास्थापन, जीर्णपिण्डिका में देवस्थापनप्रयोग इत्यादि। वास्तुचन्द्रिका - 1. ले.- करुणाशंकर। 2. ले.- कृपाराम। वास्तुतत्त्वम् - ले.- गणपतिशिष्य। सन् 1853 में लाहौर में प्रकाशित। वास्तुपूजनम् - श्लोक- 100। वास्तुपूजनपद्धति- 1. ले.- याज्ञिकदेव । 2. ले.- परमाचार्य। वास्तुप्रदीप - ले.- वासुदेव । 330/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होता है। अवदान कृतियां कुछ तो मूल रूप में प्रकाशित है। अन्य अनेक चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से ज्ञात होती है। इनमें सुमागधावदान ऐसी ही आदर्श रचना है जिसमें अनाथपिंडद की कन्या सुमागधा की कथा वर्णित है। विजयविक्रम (व्यायोग)- ले.- कविराज सूर्य। ई. 19 वीं . शती। जयद्रथ-वध का कथानक इसमें अंकित है। विजयदेवमाहात्म्यम्- ले.- श्रीवल्लभ पाठक। ई. 17 वीं शती। प्रस्तुत 21 सर्गो के महाकाव्य में कवि ने जैनमुनि विजयदेव सूरि का चरित्र वर्णन किया है। विजयनगर-संस्कृत-ग्रंथमाला - यह पत्रिका रामनगर (वाराणसी) से प्रकाशित हो रही है। विजयपारिजातम् (नाटक) - ले.- हरिजीवन मिश्र । ई. 17 वीं शती। विजयपुरकथा - ले.- पांडुरंग। 19 वीं शती। विषय- बिजापुर के यवन बादशाहों का चरित्र । विजय-प्रकाशम् (काव्य) - ले.- म. म. प्रमथनाथ तर्कभूषण (जन्म 1866)। विजयबलिकल्प - श्लोक- 1075| विषय- भगवान् शिव के लिए बलि देने की विधि। विजयविजयचम्पू -ले.- व्रजकान्त लक्ष्मीनारायण । विजयविलास - ले.- रामकृष्ण। विषय- शौच, स्नान, संध्या, ब्रह्मयज्ञ, तिथिनिर्णय, आदि। कर्क, हरिहर एवं गदाधर के भाष्यों पर आधारित। विजया -ले.- श्रीमानशर्मा (सन् 1557-1607) सीरदेव कृत परिभाषावृत्ति पर टीका। (2) ले.- अनन्तनारायण मिश्र । ई. 13 वीं शती। विजयाकल्प - विषय- विद्याधिष्ठात्री सरस्वती देवी, (जो दुर्गाजी की पुत्री कही गई है) की पूजा-अर्चा के सांगोपांग मंत्र, जप, ध्यान आदि। विजयायन्त्रकल्प - आदिपुराण से गृहीत । श्लोक - 360। विजयांका (प्रेक्षणक) - ले.- डॉ. वेंकटराम राघवन् । क्वीन्स मेरी कॉलेज, मद्रास तथा संस्कृत एकेडेमी मद्रास में अभिनीत ओपेरा। ऑल इण्डिया रेडियो, मद्रास द्वारा प्रसारित। विषयकर्णाटक के शासक महाराज चन्द्रादित्य की पत्नी विजयांका (सातवीं शती, उत्तरार्ध) का चरित्रचित्रण। विजयिनी-काव्य- ले.- श्रीश्वर विद्यालंकार । कलकत्ता निवासी। सर्गसंख्या-बारह। सन् 1902 में प्रकाशित। विषय- इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया का चरित्र । विज्ञप्ति - ले. गोसाई विठ्ठलनाथ। आध्यात्मिक काव्य की दृष्टि से यह एक नितांत सुंदर स्तोत्र है। अपने ज्येष्ठ बंधु के गो-लोक-वास के पश्चात् गद्दी के उत्तराधिकारी संबंधी मतभेद के कारण, श्रीनाथजी का ड्योढी-दर्शन, आपके लिये बंद हो गया। तब दुखी होकर आप पारसोली चले गए और वहीं से नाथद्वारा के मंदिर में झरोखे की ओर देखा करते थे। इसी वियोग-काल में आपने प्रस्तुत "विज्ञप्ति" की रचना की थी। विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि - ले.-वसुबन्धु । विषय- बौद्धों के विज्ञानवाद की दार्शनिक समीक्षा। सम्प्रति इस के दो पाठ उपलब्ध हैं(1) विंशिका (20 कारिकाएं) जिन पर वसुबन्धु ने भाष्य लिखा है, (2) त्रिशिका (30 कारिकाएं) जिन पर स्थिरमति ने भाष्य लिखा था। व्हेन सांग कृत इसका चीनी अनुवाद उपलब्ध है। इस पर से राहुल सांकृत्यायन ने अंशानुवाद किया हैं। प्रा.एस. मुखर्जी का आंग्लानुवाद तथा डॉ. महेश तिवारी का स्थिरमतिभाष्यसहित हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हैं। विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि-व्याख्या- ले.- धर्मपाल। आर्यदेव की रचना पर भाष्य । सन् 652 में व्हेनसांग ने चीनी अनुवाद किया। यह शून्यवाद से संबंधित महत्त्वपूर्ण रचना है। विज्ञप्तिशतकम् - ले.- श्रीनिवास शास्त्री । ई. 19 वीं शती। विज्ञप्रिया - ले.- महेश्वर न्यायालंकार। (ई. 17 वीं शती)। साहित्यदर्पण पर टीका। विज्ञानचिन्तामणि - 1888 में पट्टाम्बी (मलाबार) से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। संपादक थे पुनशेरि नीलकण्ठ शर्मा। इसका प्रकाशन मास में तीन बार हुआ करता था। बाद में इसका साप्ताहिक प्रकाशन होने लगा। संस्कृत-चन्द्रिका के कई अंकों में विज्ञान-चिन्तामणि के सम्बन्ध में सूचनाएं उपलब्ध होती हैं। प्रारंभ में इसका प्रकाशन ग्रंथ लिपि में होता था। बाद में देवनागरी लिपि में होने लगा। इसमें प्रायः सभी प्रकार के समाचारों के अलावा उच्च कोटि का साहित्य प्रकाशित हुआ करता था। केरल महाराजा से आर्थिक सहायता मिलने के कारण इसके सामने धनाभाव का संकट कभी उपस्थित नहीं हुआ। विज्ञानदीपिका - ले.- पद्मपादाचार्य। ई. 8 वीं शती। विज्ञानभैरव (या विज्ञानभट्टारक)- रुद्रयामल के अन्तर्गत । टीकाकार- शिवोपाध्याय। टीका का नाम- उद्योतसंग्रह । श्लोक14401 विज्ञानललितम् - ले.- हेमाद्रि। विटराजविजयम् (भाण)- ले.- कोच्चुण्णि भूपालक (जन्म, 1858)। त्रिचूर के मंगलोदयम् से प्रकाशित। विषय- बूढी वेश्या से युवा रसिया का हास्यपूर्ण समागम । विटवृत्तम् -ले.- सौमदत्ति। विषय- वेश्या और विट का वैषयिक संबंध। विठ्ठलीयम् - ले.- पुण्डरीक विठ्ठल । विषय- (औदीच्य) (हिंदुस्थानी) संगीत का व्यवस्थापन । विकटनितम्बा - ले.- डॉ. वेंकटराम राघवन् । यह प्रेक्षणक संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 331 For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मद्रास आकाशवाणी से प्रसारित हुआ था। विषय- आचार्य गोविन्द स्वामी की शिष्या, उच्चकोटिक कवयित्री विकटनितम्बा का चरित्रचित्रण, जिस में उसके निरक्षर, प्राकृतभाषी पति का परिहास किया है। विक्रमचरितम् (या सिंहासन-द्वात्रिंशिका) -एक लोकप्रिय कथा-संग्रह। इसके 3 संस्करण उपलब्ध है।:- (1) क्षेमंकर का जैन- संस्करण, (2) दक्षिण भारतीय पाठ और, (3) वररुचि-रचित कहा जाने वाला बंगाल का पाठांतर। इसमें 32 सिंहासनों या 32 पुतलियों की कहानी है। राजा भोज पृथ्वी में गडे हुए महाराज विक्रमादित्य के सिंहासन को उखाडते हैं और ज्योंही उस पर बैठने की तैयारी करते हैं त्योंही बत्तीस पुतलियाँ विक्रम के पराक्रम का वर्णन कर भोज को सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं। वे भोज को उस सिंहासन के अयोग्य सिद्ध करती हैं। इस संग्रह में विक्रम की उदारता व दानशीलता का वर्णन है। राजा अपनी वीरता से जो धन प्राप्त करता था, उसमें से आधा पुरोहित को दान कर देता था। क्षेमंकर वाले जैन संस्करण में प्रत्येक गद्यात्मक कथा के आदि व अंत में पद्य दिये गये हैं, जिनमें संबंधित विषय का संक्षिप्त विवरण है। इसके एक अन्य पाठ में केवल पद्य प्राप्त होते हैं। अंग्रेज विद्वान् एडगर्टन ने इसका संपादन कर इसे रोमन अक्षरों में प्रकाशित कराया था, जो दो भागों में समाप्त हुआ है। इसका प्रकाशन हारवर्ड ओरिएंटल सीरीज से 1926 ई. में हुआ है। प्रस्तुत कथा-संग्रह का हिंदी अनुवाद "सिंहासन बत्तीसी" के नाम से हुआ है। चौखंबा विद्याभवन ने मूल संग्रह को हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। विद्वानों ने इसका रचना-काल 14 वीं शती से प्राचीन नहीं माना है। डॉ. हर्टल की दृष्टि में जैन संस्करण मूल के निकट तथा अधिक प्रामाणिक है। दूसरी और एडगर्टन दक्षिणी वचनिका को ही अधिक प्रामाणिक व प्राचीनतर मानते हैं। दोनों में ही हेमाद्रि के "दानखंड" का विवरण रहने के कारण, इसे 13 वीं शती के बाद की कृति माना गया है। विक्रम-भारतम्- ले.- श्रीश्वर विद्यालंकार (श. 19-20) कलकत्ता में मुद्रित। विक्रमभारतम्- ले.- राजा शम्भुचन्द्र राय (श. 19, पूर्वार्ध) विक्रमादित्य के शासन का पौराणिक शैली में वर्णन । प्रभवादिकल्प तथा शैशवादिकल्प नामक विभागों में विभाजित । विक्रमराघवीयम् - अपने को "नूतनकालिदास" कहने वाले किसी कवि की यह रचना है। विक्रमसेनचंपू- ले.- नारायणराय । पिता- गंगाधर । ई. 17-18 वीं शती। प्रस्तुत चंपू-काव्य में प्रतिष्ठिानपुर के राजा विक्रमसेन की काल्पनिक कथा का वर्णन है। ग्रंथ में कवि ने अपना कुछ परिचय भी दिया है। विक्रमांकदेवचरितम्- ले. काश्मीरीय कवि बिल्हण। यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य है। इसमें 18 सर्ग हैं जिनमें कवि के अश्रयदाता राजा विक्रमादित्य के पूर्वजों के शौर्य व पराक्रम का वर्णन है। चालुक्यवंशीय राजा विक्रमादित्य षष्ठ, दक्षिण के नृपति थे। उनका समय 1076 से 1127 ई.। ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में बिल्हण बडे जागरूक रहे हैं। "विक्रमांकदेवचरित" में वीररस का प्राधान्य है। कतिपय स्थलों पर श्रृंगार व करुण रस का भी सुंदर रूप उपस्थित हुआ हैं। इसके प्रारंभिक 7 सों में मुख्यतः ऐतिहासिक सामग्री भारी पडी है। 8 वें से 11 वें सर्ग तक राजकुमारी चंदलदेवी का नायक से परिणय, प्रणय-प्रसंग, वसंत ऋतू का श्रृंगारी चित्र, नायिका का रूप-सौंदर्य व कामकेलि आदि का वर्णन है। 12 वें, 13 वें और 16 वें सर्ग में जलक्रीडा, मृगया आदि वर्णित हैं। 14 वें सर्ग में चौलों की पराजय तथा 18 वें सर्ग में कविवंश वर्णन व भारत-यात्रा का वृत्तांत प्रस्तुत किया गया है। बिल्हण ने राजाओं के यश को फैलाने और अपकीर्ति के प्रसारण का कारण कवियों को माना है: लंकापतेः संकुचितं यशो यत् यत् कीर्तिपात्रं रघुराजपुत्रः । स सर्व एवादिकवेः प्रभावो न कोपनीया कवयः क्षितीन्द्रैः । । इस महाकाव्य का सर्वप्रथम प्रकाशन बूल्हर द्वारा 1875 ई. में हुआ था। फिर हिंदी अनुवाद सहित चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशन हुआ। विक्रमाश्वस्थामीयम् (व्यायोग)- ले.- डॉ. नारायणराव चिलुकुरी। सन् 1938 में प्रकाशित। अनेक दृश्य, छाया तत्त्व का समावेश, नाट्योचित संवाद, सुबोध भाषा। अनन्तपुर (कर्नाटक) की प्रभुत्व कलाशाला के अध्यक्ष कृष्णमार्य के आदेशानुसार उत्सव दिवस पर अभिनीत । कथासार- मरणासन्न दुर्योधन को अश्वत्थामा भीम का कटा हुआ सिर दिखाता है, जिससे दुर्योधन सन्तुष्ट होकर मर जाता है। कृपाचार्य अश्वत्थामा को बताते हैं कि वह तो कृत्रिम सिर है। विक्रमोर्वशीयम् - ले.-महाकवि कालिदास। पांच अंकों का त्रोटक (उपरूपक का एक प्रकार) इसके नायक-नायिका, मानवी व दैवी दोनों ही कोटियों से संबद्ध हैं। इसमें महाराज पुरुरवा एवं उर्वशी की प्रणयकथा का वर्णन है। कैलाश पर्वत से इन्द्र लोक लौटते समय पुरुरवा को ज्ञात होता है कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को कुबेरभवन से आते समय केशी नामक दैत्य ने पकड़ लिया है। पुरुरवा उस दैत्य से उर्वशी की मुक्तता करते हैं, और उसके अद्भुत सौंदर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। पुरुरवा, उर्वशी को उसके संबन्धियों को सौंप कर अपनी राजधानी लोटते हैं, और उर्वशी विषयक अपनी भावना अपने मित्र विदूषक को सूचित करते हैं। इसी बीच भूर्जपत्र पर लिखा हुआ उर्वशी का एक प्रेमपत्र पुरुरवा को मिलता है, जिसे पढ कर वह आनंदातिरेक से भर उठते हैं। फिर राजकीय प्रमदवन में दोनों की भेंट होती है। पश्चात् भरत मुनि द्वारा 332 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "लक्ष्मी-स्वयंवर" नाटक खेलने का आयोजन होता है, जिसमें उर्वशी को लक्ष्मी का अभिनय करना है। प्रमदवन में ही, संयोगवश, पुरुरवा की पत्नी रानी औशीनरी को उर्वशी का वह प्रेमपत्र मिल जाता है और वह कुपित होकर दासी के साथ लौट जाती है। नाटक में अभिनय करते समय उर्वशी पुरुरवा के प्रेम में मग्न हो जाती है और उसके मुंह से पुरुषोत्तम के स्थान पर, संभ्रमवश, 'पुरुरवा' शब्द निकल पडता है। इस पर भरतमुनि क्रोधित होकर उर्वशी को स्वयं-च्युति का शाप देते है। और आदेश देते हैं कि जब तक पुरुरवा उसके पुत्र का मुंह न देख ले, तब तक उसे मर्त्यलोक में ही रहना पडेगा। इधर अपनी राजधानी को लौटे पुरुरवा, उर्वशी के विरह में व्याकल रहते हैं। उर्वशी मर्त्यलोक आकर परुरवा की विरहदशा को देखती है। उसे अपने प्रति उसके अटूट प्रेम की प्रतीति हो जाती है। तब उर्वशी की सखियां उसे पुरुरवा को सौंप कर स्वर्गलोक को लौट जाती हैं। उर्वशीपुरुरवा उल्लासपूर्वक जीवन बिताने लगते हैं। कुछ कालोपरांत वे दोनों गंधमादन पर्वत पर जाकर विहार करने लगते हैं। एक दिन मंदाकिनी के तट पर खेलती हुई एक विद्याधर कुमारी को पुरुरवा देखने लगता है। इससे कुपित होकर उर्वशी कार्तिकेय के गंधमादन उद्यान में चली जाती है। वहां स्त्री-प्रवेश निषिद्ध था। यदि कोई स्त्री वहां जाती, तो लता बन जाती थी। अतः उर्वशी भी वहां जाकर लता बन गई। पुरुरवा उसके वियोग में उन्मत्त की भांति विलाप करते हुए निर्जीव पदार्थो से उर्वशी का पता पूछते फिरते हैं। तभी आकाशवाणी द्वारा निर्देश प्राप्त होता है कि पुरुरवा संगमनीय मणि को अपने पास रख कर लता बनी हुई उर्वशी का आलिंगन करे तो उर्वशी उसे पूर्ववत् प्राप्त हो जायगी। पुरुरवा वैसा ही करते हैं। दोनों राजधानी लौट कर सुखपूर्वक रहने लगते है। बहुत दिनों बाद एक वनवासिनी स्त्री, एक अल्पवयस्क युवक के साथ वहां आती है और उस युवक को महाराज पुरुरवा का पुत्र घोषित करती है। उसी समय उर्वशी का शाप समाप्त हो जाता है, और वह स्वर्गलोक को लौट जाती है। उर्वशी के वियोग में पुरुरवा व्यथित होते हैं, और पुत्र को अभिषिक्त कर, वन में जाकर विरक्त जीवन बिताने की सोचते हैं। तभी नारदजी आते हैं, और उनसे यह सूचना मिलती है कि इन्द्र की इच्छानुसार उर्वशी जीवन पर्यंत उसकी पत्नी बन कर रहेगी। महाकवि कालिदास ने प्रस्तुत त्रोटक में प्राचीन वैदिक कथा को नये रूप में सजाया है। भरतमुनि का शाप उर्वशी का लता में परिवर्तन तथा पुरुरवा का उन्मत्त विलाप आदि कालिदास की अपनी कल्पना है। प्रस्तुत त्रोटक में विप्रलंभ श्रृंगार का वर्णन अधिक है, तथा इसमें नारीसौंदर्य का अत्यंत मोहक चित्र उपस्थित किया गया है। इसमें 23 अर्थोपक्षेपक हैं जिन में 9 विष्कंभक, 3 प्रवेशक और 19 चूलिकाएं हैं। विक्रमोर्वशीय के टीकाकार- 1) काटयवेम, 2) रंगनाथ, 3) अमयचरण, 4) राममय, 5) तारानाथ, 6) एम.आर. काले। विक्रान्तकौरवम् (नाटक) - ले.- हस्तिमल्ल। पितागोविंदभट्ट। जैनाचार्य ई. 13 वीं शती। अंकसंख्या- छह । विख्यातविजयम् (नाटक) - ले.- लक्ष्मणमाणिक्य देव। ई. 16 वीं शती। अंकसंख्या- छह । विषय- अर्जुन की कर्ण पर विजय तथा नकुल का कौरवों के साथ युद्ध। विग्रहव्यावर्तिनी - ले.- नागार्जुन। तर्कशास्त्र से संबंधित रचना। शून्यवाद का मण्डन तथा विरोधी युक्तियों का खण्डन । प्रथम 20 कारिकाओं में पूर्वपक्ष तथा अन्तिम 52 में उत्तरपक्ष वर्णित है। विघ्नेशजन्मोदयम् (रूपक) - ले.- गौरीकान्त द्विज कविसूर्य । रचनाकाल सन् 1799। भीष्माचलेश्वर उमानन्द के आदेश से लिखित । अंकिया नाट पद्धति। गीत संस्कृत तथा असमी में। संस्कृत पद्य भी असमी भाषा के दुलडी, छबि, लछारी आदि छन्दों में। अंकसंख्या- तीन। कथासार- गणेशजन्म पर बधाई देने आये शनि गणेश की ओर नहीं देखते। पार्वती के अनुरोध पर देखते हैं, तो उनकी दृष्टि पडते ही बालक का सिर धड से अलग होता है। नारायण हाथी का सिर लगाकर बालक को जीवित करते हैं। माहिष्मती के राजा कार्तवीर्यार्जुन मुनि जमदग्नि से युद्ध कर उन्हें मारते हैं। पुत्र परशुराम बदला लेने की ठानते हैं। शिवजी से पाशुपतास्त्र पाकर, वे कीर्तवीर्य को मारते हैं। बाद में शिवदर्शन के लिए आने पर उन्हें गणेश रोकते हैं परशुराम उनके दांत पर परशु से प्रहार कर उसे तोडते है। यह देख पार्वती क्रुद्ध होती है, परन्तु नारायण सबको शांत करते हैं। विदग्धमाधवम् (नाटक) - ले.- रूपगोस्वामी। रचना- सन 1532 में। संक्षिप्त कथा- इस नाटक की कथावस्तु राधा और कृष्ण की प्रेमलीलाओं का वर्णन है। प्रथम अंक में कंस के भय से राधा का विवाह अभिमन्यु नामक गोप से कर दिया जाता है। अभिमन्यु राधा को मथुरा ले जाना चाहता है, इससे पौर्णमासी (नारद की शिष्या) चिंतित हो जाती है। वह नांदीमुखी को कृष्ण और राधा में परस्पर प्रेमभाव बढाने के लिए नियुक्त करती है। द्वितीय अंक में कृष्ण पर आसक्त राधा को विशाखा. कष्ण का चित्रपट दिखाती है. जिससे उनकी दशा और अधिक खराब हो जाती है। विशाखा राधा से श्रीकष्ण के लिए पत्र लिखवाती है और श्रीकष्ण को जाकर देती है। तृतीय अंक में वर्णित है कि चन्द्रावली भी कृष्ण से प्रेम करती है । वह श्रीकृष्ण से गोत्रस्खलन में राधा का नाम सुनकर क्रुद्ध होती है, पर श्रीकृष्ण उसे मना लेते हैं। उधर राधा भी चन्द्रावली और कृष्ण के प्रेम की बात जान कर कृष्ण से रुष्ट होती है। चतुर्थ अंक में राधा कृष्ण की मुरली छुपा लेती है और स्वयं मुरली बजाती है किन्तु उसकी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 333 For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सास जटिला राधा से मुरली छीन लेती है। पर सुबल की। कुवलयमाला का विवाह मृगांकवर्मन् से करना चाहती है। चतुराई से मुरली की पुनः प्राप्ति होती है। पंचम अंक में राजा ने एक दिन मृगांकवर्मन् को उसकी वास्तविक स्थिति वृन्दा और सुबल क्रमशः ललिता और राधा का वेष धारण (लडकी) में क्रीडा करते तथा प्रणय- लेख पढते हुए देखा, कर जटिला को धोखा देकर राधा और कृष्ण का मिलन और उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया। तीसरे अंक में राजा, कराते हैं। षष्ठ अंक में अभिमन्यु राधा को मथुरा ले जाने विदूषक के साथ मृगांकावली (मृगांकवर्मन् अपने प्राकृत स्त्रीवेश के लिए पौर्णमासी से आज्ञा मांगने आता है। किन्तु पौर्णमासी में) से मिला एवं उसके साथ प्रेमालाप करते हुए उस पर कंस का भय दिखा कर उसे रोक लेती है। सप्तम अंक में आसक्त हो गया। चतुर्थ अंक में महारानी ने मूंगाकवर्मन् को राधा गौरीतीर्थ पर जाती है। वहां मान करने पर कृष्ण स्त्री अपने प्रेम का प्रतिद्वंद्वी समझकर, उसे स्त्री-वेष में सुसज्जित वेष में उसे मनाते हैं। तभी राधा को ढूंढते हुए जटिला और कर उसका विवाह राजा के साथ करा दिया। महारानी को अभिमन्यु स्त्री वेषधारी कृष्ण को ही गौरी मानते हैं। कृष्ण अपनी असफलता पर बहुत बड़ा आघात पहुंचता है, और भी चालाकी से अभिमन्यु को उसके अनिष्ट की बात बताकर, वह बाध्य होकर कुवलयमाला का विवाह राजा विद्याधर के निवारण का उपाय राधा द्वारा वृन्दावन में ही रहकर गौरी साथ करा देती है। विद्धशालभंजिका के टीकाकार (1) पूजन करना बताते हैं। अभिमन्यु के चले जाने पर पौर्णमासी नारायण, (2) घनश्याम तथा उसकी दो पत्नियां - कमला कृष्ण से सदा गोकुल में रहकर राधा से विहार करने की और सुन्दरी, (3) सत्यव्रत, (4) जे. विद्यासागर, (5) प्रार्थना करते हैं। वासुदेव, (6) करुणाकरशिष्य। विदग्ध माधव में कुल सत्ताईस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें एक विद्धशालमंजिका में कुल सोलह अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें से विष्कम्भक है। अन्यविशेष प्रातिनायिका चन्द्रावली है। कुल ___एक विष्कम्भक तीन प्रवेशक तथा बारह चूलिकाएं हैं। पात्रसंख्या- 19। प्रथम प्रयोग केशितीर्थ में, खुले आकाश विद्या - सन 1956 में बेलगाव से पण्डित वरखेडी नरसिंहाचार्य वाले रंगमंच पर। प्रथम प्रयोग के सूत्रधार स्वयं कवि थे। तथा गलगली रामाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का सात अंकों का नाटक, जिसमें विदग्ध राधा की स्त्रियों तथा प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो तीन वर्षों तक चला। यह सत्यध्यान विदूषकादि के संवादों का पद्यभाग संस्कृत में, और गद्य भाग विद्यापीठ की मुखपत्रिका थी। इसमें स्तुतियां, अष्टक, प्राकृत में हैं। मासावतरणिका, विमर्श, माध्वतत्त्व विषयक निबन्धों के अलावा द्विदग्ध-मुख-मण्डनम् - ले.- धर्मदास। 10 वीं शती। उद्बोधन, महात्माओं के चरित्र, पौराणिक कथाएं, ऐतिहासिक विदग्धमुखमण्डनवीटिका - ले.- गौरीकान्त सार्वभौम। घटनाएं आदि का प्रकाशन होता था। विदुरनीति - महाभारत के उद्योगपर्व के आठ अध्याय (2) वाराणसी से 1913 से प्रकाशित पत्रिका । (33-40) (मुंबई संस्करण में)। गुजराती प्रेस द्वारा मुद्रित। विद्याकल्पसूत्रम् - भगवत्परशुराम मुनि प्रोक्त । श्लोक- 1126 । विद्धशालभंजिका (नाटिका) - ले.- राजशेखर । विषय- श्रीविद्यादीक्षा पूजन आदि । इसमें 4 अंक हैं। इसकी रचना "मालविकाग्निमित्र" , विद्यागणेशपद्धति- ले.- प्रकाशानन्दनाथ। श्लोक- 400। "रत्नावली" व "स्वप्रवासवदत्तम्" के आधार पर हुई है। इसमें विद्याधरनीतिशतकम् - ले.- विद्याधरशास्त्री। राजकुमार विद्याधरमल्ल एवं मृगांकावली और कुवलयमाला विद्यानन्द- महोदयम् - ले.- विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 नामक दो राजकुमारियों की प्रणय कथा का वर्णन है । प्रथम वीं शती। अंक में लाट देश के राजा चंद्रवर्मा ने अपने विदषक को विद्यापरिणयम् - ले.-वेद कवि। ई. 17-18 वीं शती। बताया कि अपनी पुत्री मृगांकावली को मृगांकवर्मन् नामक सरफोजी प्रथम (1711-1728) के समय में भगवती आनन्दवल्ली विद्याधर पुत्र ने स्वप्न में देखा कि जब वह एक सुंदरी को अम्बा के महोत्सव के अवसर पर अभिनीत। अंकसंख्यापकडना चाहता है तो वह मोतियों की माला वहा छोड कर सात । प्रतीक नाटक। भावात्मक पात्र । प्राकृत को स्थान नहीं। भाग जाती है। विद्याधर का मंत्री इस बात को जानता था कि मृगांकवर्मन् लडकी है और ज्योतिषियों ने उसके बारे में कथासार- अविद्या तथा उसकी प्रवृत्ति, विषयवासना आदि भविष्यवाणी की है, कि जिसके साथ उसका विवाह होगा, सखियों से जीव प्रभावित है। जीव का सचिव है चित्तशर्मा । वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। इसी कारण उसने मृगांकवर्मन् को, वह विवेक के साथ जीव को अविद्या से मुक्त करने की राजा विद्याधर के निकट रखा। जिस समय मृगांकवर्मन् राजा योजना बनाता है। वह जीव को निवृत्ति से मिलाता है जो के पास आया,उसने देखा कि अपनी प्रेयसी विद्धशालभजिका अपना आवास आनन्दमय वेदारण्य बताती है। जीव उससे के गले में मोतियों की माला डाल रही है राजा को मृगांकवर्मन् प्रभावित होता है। इससे अविद्या संतप्त होती है और वह की स्थिति का पता नहीं था। द्वितीय अंक में कुंतलराजकुमारी, जीव को भक्ति, विरक्ति, निवृत्ति आदि के चक्कर से छुडाने के 334 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उद्देश्य से काम्यक्रिया को नियुक्त करती है। I यहां जीव विद्या पर लुब्ध हो जाता है। वित्तशर्मा अविद्या को परामर्श देता है कि वह जीव का पिण्ड न छोडे । अविद्या सखियों के साथ जीव से मिलने वेदारण्य में पहुंचती है। वहां देखती है कि लोकायतिक, बौद्ध सिद्धान्त विवसन सोमसिद्धान्त, पांचरात्र, कलि, तान्त्रिक श्री आदि सभी जीव से हार कर भाग गये हैं। फिर वह अपनी सहायता के लिए षड्रिपुओं को बुला लेती है। जीव उनके वश में आने लगता है परंतु चित्तशर्मा उसे संभाल लेता है। वह अविद्या को परामर्श देता है कि वह कोपभवन में मान करती बैठे। जीव यह देखकर सोचता है कि जब अविद्या नहीं प्रसन्न होती तो वेदारण्य ही चलें । वहां चित्तशर्मा उसे अष्टांग योग की महिमा बताता है। विवेक और मोह में युद्ध होता है जिसमें मोह पक्ष हारता है । फिर पुण्डरीक भवन में विद्या के विवाह की तैयारी होती है। फिर साम्ब शिव की उपस्थिति में निदिध्यासन विद्या का कन्यादान कर जीव-विद्या का विवाह कराते हैं। यह देख अविद्या निकल जाती है। लेखक वेद कवि ने यह नाटक तंजौर के आनंदराय मखी को समर्पित किया है। अतः कुछ लोग आनंदराय को ही इसका लेखक मानते हैं। www.kobatirth.org विद्यापीठम् गुरावाली के विषय में 3 परिच्छेदों का ग्रंथ विद्याप्रकाशचिकित्सा - ले. धन्वंतरि । विद्यामार्तण्ड सन 1888 में प्रयाग से ज्वालाप्रसाद शर्मा के सम्पादकत्व में इस पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें व्याकरण सम्बन्धी श्रेष्ठ संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद प्रकाशित हुआ करते थे। विद्यारत्नसूत्रम् ले गौडपाद । विद्यारत्नसूत्रदीपिका - ले. विद्यारण्यं । श्लोक - 3801 | विद्यार्चनचन्द्रिका ले. नृसिंह ठक्कुर । श्लोक - 2000 1 विद्यार्णव ले. प्रगल्भाचार्य श्रीशंकराचार्यजी के चार शिष्यों में अन्यतम विष्णुशर्मा के शिष्य । देवभूपाल की प्रार्थना पर निर्मित। श्लोक 858 आश्वास (अध्याय) 11 विषयबहुत सी शक्ति देवियों की पूजाविधियां । विद्यार्णवतंत्रम् - ले. विद्यारण्यपति । दो भागों में विभाजित । विद्यार्थी 1878 में मासिक रूप में पटना में प्रारंभ। यह पत्र 1880 के बाद पाक्षिक के रूप में उदयपुर से प्रकाशित होने लगा। यह प्रथम संस्कृत में था । इसका उद्देश्य " अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख" था। कुछ समय पश्चात् यह पत्र श्रीनाथद्वारा में प्रकाशित किया जाने लगा और अन्ततोगत्वा हिन्दी की हरिचन्द्रचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका पत्रिकाओं में मिल कर प्रकाशित होने लगा। इसका प्रकाशन 1908 तक चला। - - इसके सम्पादक थे पण्डित दामोदर शास्त्री (1848-1909) 1 मुख्य रूप से इसमें विद्यार्थियों की आवश्यकतानुकूल सामग्री होती थी। कुछ अंकों में अर्वाचीन नाटक, गीतिकाव्य आदि भी प्रकाशित किये गये। विद्यार्थिविद्योतनम् - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रवासी । विद्यावती सन 1906 में मद्रास से सी. दोरास्वामी के सम्पादकत्व में संस्कृत और तेलगु भाषा में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह 1914 तक प्रकाशित हुई। विद्या-वित्त-विवाद ले. म.म. हरिदास सिद्धान्त-वागीश (1876-1961) I । - - 1 विद्या-शतकम् ले रजनीकान्त साहित्याचार्य दश विद्याओं के माहात्म्य पर रचित स्फुट श्लोक । विद्यासुन्दरम् ले भारतचन्द्र राय । ई. 18 वीं शती । विद्युन्माला (रूपक) ले. को. ला. व्यासराज शास्त्री। सन 1955 में विद्यासागर प्रकाशनालय, राजा अण्णरानलैपुरम्, मद्रास से प्रकाशित। अनेक दृश्यों में विभाजित गीतों का बाहुल्य । नाट्योचित लघुमात्र संवाद । वैदर्भी रीति । श्रीवृत्त, विद्युन्माला, रुक्मवती आदि छन्दों का प्रयोग । कथासार - राम के राज्याभिषेक पर मंथरा के उकसाने पर भी कैकैयी शान्त रहती है। तब बृहस्पति विद्युाला नामक पिशाचिनी द्वारा कैकेयी को भड़काते हैं, क्योंकि राक्षसों के उच्छेद हेतु राम का राज्यकार्य में व्यस्त रहना उन्हें उचित नहीं लगता। अन्त में विद्युन्माला से प्रभावित कैकेयी राम को वनवास भिजवाती है। विद्युल्लता ( मेघदूत पर टीका ) वीं शती (पूर्वार्ध) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - विद्योत्पत्ति - श्लोक- 138 विषय- कलिका, छिन्नमस्ता आदि विद्याओं की उत्पत्ति । For Private and Personal Use Only ले. - पूर्णसरस्वती । ई. 14 विद्योदयम् भरतपुर (राजस्थान) से प्रकाशित मासिक पत्रिका । प्रकाशन बंद । विद्योदय इस मासिक पत्रिका का शुभारंभ सन 1871 में लाहोर से हुआ। इसके सम्पादक हृषीकेश भट्टाचार्य. (1850-1913) थे। इस पत्रिका को पंजाब विश्वविद्यालय से अनुदान मिलता था किन्तु अनुदान बन्द होते ही इसकी आर्थिक स्थिति बिगड गई। अतः इसका प्रकाशन 1887 से कलकत्ता में होने लगा। इस पत्रिका में प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों, अनुवाद, टीकाओं, निबन्धों आदि का प्रकाशन होता था । भट्टाचार्य ने सामायिक विषयों पर निबन्ध लिखकर एक नूतन मौलिक प्रणाली को विकसित किया। इसमें व्यंग्यात्मक निबन्धों का प्राबल्य रहता था। 1883 के बाद यह पत्रिका हिन्दी में भी प्रकाशित होने लगी। इसमें प्रकाशित अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में विनोद, विहारी का कादम्बरी नाटक (19-5), हामलेटचरितम् (1888), कोकिलदूतं (1887), संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 335 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राममयविद्याभूषण का कविविलास-प्रहसन 1892,कलिमाहात्म्यप्रहसन 1982, शिवाजीचरितम् -नाटक 1887, तथा शिखपुराणम् 1887 विशेष उल्लेखनीय हैं। "विद्योदय" मासिक पत्रिका का उद्देश्य था- "केवल संस्कृत भाषायाः बहुलप्रचार एवास्य मुख्यप्रयोजनमस्ति । न केवलं संस्कृत भाषायाः किन्तु तद्भाषारचितानां तत्तदर्शनेतिहासादिविषयाणामणि प्रचारश्चास्य प्रयोजनपक्षे वर्तते"। सन 1919 में इसका प्रकाशन बंद हुआ। 2. विद्योपास्तिमहानिधि- यह शिवरामप्रकाश कृत तंत्रराज की भिन्न टीका है। विषय- प्रतिष्ठानिधि, नाथपूजानिधि, विद्यानित्यक्रमनिधि, संक्षेपपूजानिधि, महाचक्रनिधि, नैमित्तिकनिधि, पूर्वाभिषेक निधि, प्रकीर्णनिधि ये इस विद्योपास्ति महानिधि में नौ उपनिधियां हैं। विद्योद्धार केवल नाथों से लभ्य है। इस लिए उसका यहां वर्णन नहीं किया गया। विषय- गुरु-शिष्य का स्वरूप, गुरुसेवा और आचार, राशि आदि का शोधन, सर्वप्रतिष्ठा का काल, वर्णो की यंत्रप्रतिष्ठा, मातृकाचक्र का निर्माण, प्राणविद्या विधि, संपुट आदि का स्वरूप, मूर्तिस्थापन कर्म, दक्षिणा का निर्णय, दीक्षा व विद्या की प्राप्तिविधि, मंत्र के दोषों का परिहार, मंत्रार्थों का निरूपण, चक्र और शिष्यप्रतिष्ठा के प्रयोग, विद्याप्राप्ति के प्रयोग आदि। विद्वत्कला - सन 1900 में लष्कर (ग्वालियर) से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ किन्तु इसके केवल दो-तीन अंक ही प्रकाशित हुए। इसमें केवल समस्यापूर्ति श्लोक ही प्रकाशित किये जाते। विद्वद्गोष्टी - सन 1904 में वाराणसी में इस पत्रिका का प्रारंभ हुआ। विद्वच्चरित्रपंचकम् - ले.- नारायणशास्त्री खिस्ते। वाराणसी स्थित सरस्वती ग्रन्थालय के भूतपर्व अध्यक्ष। काशी के पांच पण्डितों का चरित्र इस में ग्रंथित है। विद्वन्मण्डनम् - ले.- गोसाई विठ्ठलनाथ। आचार्य वल्लभ के पुत्र तथा वल्लभ-संप्रदाय के यशस्वी आचार्य। विठ्ठलनाथजी से लगभग सौ वर्षा के उपरात पुरुषोत्तमजी ने “विद्वन्मण्डन" की "सुवर्ण-सूत्र" नामक पांडित्यपूर्ण विवृत्ति लिखी। विद्वन्मनोरंजिनी - 1907 में कांची से वैजयंती पाठशाला के प्राचार्य के सम्पादकत्व में इस पाक्षिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें धार्मिक विषयों की बहुलता रहती थी। विद्वन्मनोहरा - ले.- नन्दपण्डित। ई. 16-17 वीं शती। पराशरस्मृति की टीका। विद्वन्मुखभूषणम् (या विद्यन्मुखमण्डनम्) - ले.- प्रयाग वेंकटाद्रि। यह महाभाष्य की टिप्पणी है। विद्वन्मोद-तरंगिणी (चम्पू) - ले.- रामदेव चिरंजीव भट्टाचार्य । ई. 16 वीं शती। यह चंपूकाव्य 8 तरंगों में विभक्त है। प्रथम तरंग में कवि ने अपने वंश का वर्णन किया है। द्वितीय में वैष्णव, शाक्त, शैव, अद्वैतवादी, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा वेदांत, सांख्य व पातंजल योग के ज्ञाता, पौराणिक, ज्योतिषी, आयुर्वेद, वैयाकरण, आलंकारिक व नास्तिकों का समागम वर्णित है। तृतीय से अष्टम तरंग तक प्रत्येक मत के अनुयायी अपने मत का प्रतिपादन व पर-पक्ष का खंडन करते हैं। अंतिम तरंग में समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया गया है। इस में पद्यों का बाहुल्य व गद्य की अल्पता है। उपसंहार में समन्वयवादी विचार हैं : शिवे तु भक्तिः प्रचुरा यदि स्याद् भजेच्छिवत्वेन हरि तथापि । हरौ तु भक्तिः प्रचुरा यदि स्याद् भजेद्धरित्वेन शिवं तथापि ।। (8-133) ___ संवादों के माध्यम से दार्शनिकविचारों का प्रतिपादन इस ग्रंथ की अपूर्वता है। विधवाविवाह-विचार - ले.- हरिमिश्र। विधवाशतकम् - ले.- वरद कृष्णम्माचार्य । विधानपारिजातम् - ले.- अनन्तभट्ट । नागदेव के पुत्र। 1625 ई. में वाराणसी में प्रणीत । लेखक अपने को "काण्वशाखाविदा प्रियः" कहता है। विषय- स्वस्तिवाचन, शान्तिकर्म, आह्निक, संस्कार, तीर्थ, दान, प्रकीर्ण विधान आदि । पांच स्तबकों में पूर्ण । विधानमाला (या शुद्धार्थविधानमाला) - ले.-अत्रि गोत्र के नृसिंहभट्ट। वैराट देश में चन्दनगिरि के पास वसुमति के निवासी। ई. 16 वीं शती। हरि के पुत्र विश्वनाथ ने इस पर टीका लिखी है। (2) ले.- लल्ल। (3) ले.- विश्वकर्मा । विधानरत्नम् - ले.- नारायणभट्ट । विधिप्रदीप (या निधिप्रदीप) - विषय- वास्तुशास्त्र। इस ग्रंथ में मंदिर की मूर्ति के नीचे कितना निधि रखना चाहिए इस विधि का प्रतिपादन किया है। विधिरत्नम् - ले.- गंगाधर । विधिरसायनम् - ले.- शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र। विधिरसायनदूषणम् - ले.-नीलकंठ। ई. 17 वीं शती। पिताशंकरभट्ट। विधिवाद - ले.-गदाधर भट्टाचार्य। विधिविपर्यास (प्रहसन)- ले.-जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894)। आचार्य पंचानन स्मृति ग्रंथमाला में प्रकाशित। सन 1944 में हिंदू कोड बिल पर विमर्श करने हेतु पुणे में वल्लभाचार्य गोकुलनाथ महाराज द्वारा बुलाई गई सभा की स्मृति प्रीत्यर्थ रचित। विधि-विपर्यास का अभिप्राय है कानून या ब्रह्मा का व्यतिक्रमण। कथासार- नायक विनोद स्त्रीपुरुष समानता का पक्षपाती है और विवाह विधि का विरोधक। वह घोषणा करता है कि अपनी सम्पत्ति पुत्रपुत्रियों को समानांश में देगा। नायिका 336/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घर्घरकण्ठी पूछती है कि विवाह के बिना सन्तानोत्पत्ति कैसी। विनोद विज्ञान का हवाला देता है। दोनों के विवाद में घर्घरकण्ठी की सहायता हेतु महिला परिषद् की नेत्री जम्बालजिनी आकर अपनी दशसूत्री योजना सुनाती है। विनोद तथा घर्घरकण्ठी में गर्भधारण और सन्तान-पालन के प्रश्न को लेकर विवाद छिडता है। दोनों ही उसके लिए अनुत्सुक हैं। इतने में एक नपुंसक को शल्यक्रिया से सन्तानोत्पादन योग्य बनाने वाले डाक्टर से भेंट होती है यह जानकर कि ये दोनों गर्भधारण नही चाहते, डाक्टर प्रस्ताव रखता है कि दोनों में से किसी एक का प्रजनन अंग निकालकर उस नपंसक के शरीर में लगाया जायें। फिर दोनों डरके मारे कहते हैं कि उनका विवाह निश्चित हुआ है। ऑपरेशन से भयभीत नपुंसक भी उन्हीं के पक्ष में साक्षी देता है। डाक्टर प्रशासनिक विज्ञान अभ्युदय विभाग से आया है, अतः असत्य शीघ्र ही खुल जायेगा, इस भय से दोनों आपस में ही विवाह पक्का कर लेते हैं। नपुंसक उन्हें बधाई देता है। अन्त में भेद खुलता है कि विवाह योजक घटक ने नपुंसक वाली घटना झूठी गढी थी। विधिविवेक - ले.-मंडन मिश्र। ई. 7 वीं शती (उत्तरार्ध) विषय- मीमांसा दर्शन। 2) ले.- रामेश्वर। विधुराधानविचार - ले.-नीलकण्ठ चतुर्धर। पिता- गोविन्द । माता- फुल्लांबिका। विनायकपूजा - ले.-रामकृष्ण विनायक शौचे। रचना- ई. 1702 में। विनायक-वीरगाथा - ले.-डॉ. गजानन बालकृष्ण पळसुले। पुणे विश्वविद्यालय में संस्कृत प्राध्यापक। प्रस्तुत पुस्तक में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के जीवन की वीरतापूर्ण कथाओं का संग्रह है। शारदा प्रकाशन, पुणे-301 विनायकवैजयन्ती (अपरनाम- स्वातंत्र्यवीरशतकम्) - ले.डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। नागपुर निवासी। स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी की 75 वीं वर्षगांठ के महोत्सव प्रीत्यर्थ विरचित खंडकाव्य। मराठी अनुवाद सहित स्वाध्याय मंडल किलापारडी (गुजरात) द्वारा सन 1956 में प्रकाशित । विनायकशान्ति पद्धति - श्लोक- 1000। विनायकसंहिता - भार्गव-ईश्वर संवादरूप। आठ पटलों में पूर्ण। विषय- विनायक मंत्रों द्वारा स्तभंन , मोहन, मारण, उच्चाटन आदि तांत्रिक षट्कर्म । विनोदलहरी - कवि- माधव नारायण डाउ। विदर्भ में दिग्रस गांव के निवासी वकील। हरि-हर तथा उमा-रमा का परिहास गर्भ संवाद। सामान्य व्यक्ति के जीवन के सुख दुखों की गहराई का हृदयस्पर्शी चित्रण तथा सांसरिक जीवन सुखी करने का परस्पर आचारात्मक उपाय का वर्णन इसका विषय है। काव्य के 5 तरंग हैं। सुहृत्प्रलाप, दर्पदलन, अनुताप, प्रियसंगम तथा उपशम। 300 श्लोक। शब्दालंकार नैपुण्य तथा उच्च कोटि का विनोद इसकी विशेषता। कवि के चचेरे भाई ने इस काव्य पर टीका लिखी है। विन्स्टन चर्चिल - ले.-श्री.वा.ना. औदुंबरकर शास्त्री। सुबोध संस्कृत गद्य में श्रीमान् विन्स्टन चर्चिल, जो द्वितीय महायुद्ध मे इंग्लैंड के प्रधानमंत्री थे, का चरित्र । शारदा प्रकाशन, पुणे- 30। विपरीतप्रत्यङ्गिरा - श्रीमहादेव वेदान्तवागीश द्वारा संगृहीत । विषय- कालिका की प्रलयकालीन मूर्ति के ध्यान, पूजापद्धति इ.। विप्रपंचदशी - ले.-पं. तेजोभानु । विबुधकण्ठभूषणम्- ले.-वेंकटनाथ । यह गृह्यरत्न पर टीका है। विबुधमोहनम् (प्रहसन)- ले.-हरिजीवन मिश्र। ई. 17 वीं शती। कथासार- सकलागमाचार्य की कन्या साहित्यमाला का विवाह अखण्डानन्द से निश्चित होता है। नायिका का भाई पिता की आज्ञानुसार राजसभा में उपस्थित होता है। वहां शास्त्रचर्चा में सभी दार्शनिकों को अखण्डानन्द परास्त करता है। विबुधानंदप्रबंध-चंपू- ले.-वेंकट कवि। पिता- वीरराघव । समय- 18 वीं शती के आसपास। ये वैष्णव थे। इन्होंने प्रस्तुत काव्य के आरंभ में श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन करने वाले महाकवि वेदांतदेशिक की वंदना की है। इस चंपूकाव्य की कथा काल्पनिक है जिसमें बालप्रिय व प्रियवंद नामक व्यक्तियों की बादरिकाश्रम- यात्रा का वर्णन है जो मकरंद व शीलवती के विवाह में सम्मिलित होने जा रहे हैं। दोनों ही यात्री शुक हैं। विभागतत्त्वम् (या तत्वविहार)- ले.-रामकृष्ण। पितानारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती। विषय- अप्रतिबंध एवं सप्रतिबंध दाय, विभागकाल, अपुत्रदायादक्रम, उत्तराधिकार इत्यादि । विवेचन इसमें मिताक्षरा पर आधारित है। विभागरत्नमालिका - ले.-गुरुराम। मूलेन्द्र। (उत्तर अर्काट जिला) के निवासी। ई. 16 वीं शती। विभागसार - ले.-विद्यापति । भवेश के पुत्र कंदर्पनारायण के आदेश से प्रणीत । विषय- दायलक्षण, विभागस्वरूप, दायानर्ह, अविभाज्य, स्त्रीधन, द्वादशविध पुत्र, अपुत्रधनाधिकार, संसृष्टिविभाग इत्यादि। विभूतिदर्पण - श्लोक- 500। विभूतिमाहात्म्यम् - ले.-प्रा. सुब्रह्मण्य सूरि। विमतभंजनम् - ले.-अप्पय्य दीक्षित । एदैय्यातुमंगलम् निवासी। विषय- वैष्णव दर्शन का खण्डन और शैवमत की स्थापना । विमर्शदीपिका- ले.-शिव उपाध्याय। यह विज्ञान भैरव की टीका है। विमर्शिनी - तन्त्रसमुच्चय की व्याख्या। श्लोक- 1500। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /337 For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विमलयतीन्द्रम् (नाटक) - ले.-यतीन्द्रविमल चौधुरी। 1961 में अखिल भारतीय वैष्णव सम्मेलन में प्रथम अभिनय । अंकसंख्या सत्रह। रामानुजाचार्य का चरित्र वर्णित । कथासारकांचीपुर के यादव प्रकाश ने किसी शिष्य को उपनिषद् के मंत्र का अर्थ गलत बताया। लक्ष्मण (रामानुजाचार्य) के सही अर्थ बताने पर ईर्ष्यावश यादवप्रकाश उसका वध करने की योजना बनाते हैं। परंतु वे बाद में ब्रह्मसूत्र का वैष्णव भाष्य लिखने की तथा द्राविडाम्नाय के प्रचार की प्रतिज्ञा करते हैं। परन्तु अनादर होने से वे संन्यास लेकर "विमलयतीन्द्र" नाम धारण करते है। फिर यादव प्रकाश उनका शिष्यत्व स्वीकारते हैं। यज्ञमूर्ति और गोष्ठीपूर्ण भी उनके शिष्य बनते हैं। फिर रामानुज दिग्विजय हेतु शिष्य कूरेश के साथ निकलते हैं। चोल-नरेश शैव होने के कारण उन पर अत्याचार करते है। फिर भी उनका कार्य चलते रहता है। विमलातन्त्रम् - हर गौरी संवादरूप। 7 पटलों में पूर्ण । विषय- वीरों का नित्य कृत्य। 7 पटलों के विषय (1) ग्राम्यव्यवहार से स्वकीय स्त्री द्वारा शक्तिसाधना, (2) परकीय स्त्री द्वारा साधना, (3) योगाचार कथन, (4) गौरी-स्तवक्रम के संबंध में प्रश्न और उत्तर। (5) प्रचण्डचण्डिका कवच, (6) कुलाचार के विषय में प्रश्नोत्तर, (7) कुलाचारविवेक। विमलावती - विषय- पूजा, पवित्र, दान, दीक्षा, प्रतिष्ठा इत्यादि विदि। विमलोदयमाला - (या विमलोदय-जयन्तमाला) - यह आश्वलायनगृह्यसूत्र की टीका है। विमानपंक्तिकथा - ले.-श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। विमुक्ति (प्रहसन)- ले.- डॉ. वेंकटराम राघवन्। रचना सन 1931 में। प्रथम अभिनय मद्रास के धर्मप्रकाश थियेटर में "संस्कृतरंग" के चतुर्थ स्थापना दिवस पर, सन 1963 में। अंकसंख्या- दो। कथासार- पुरुष को पंच तत्त्व, मन, इन्द्रियां तथा आशापाश के द्वारा प्रकृति परवश बनाती है, यही तत्त्व मानवोचित प्रतीकों द्वारा दर्शाया गया है। “विमुक्ति" से आशय है पुरुष का प्रकृति से विमुक्त होना। नायक है ब्राह्मण आत्मनाथ। अन्य पात्र- उसके छह दुःशील पुत्र उलूकाक्ष, कण्डूल, शुण्डाल, चलप्रोथ, दीर्घश्रवा और लटकेश्वर । भरतवाक्यों में प्रतीकों का रहस्योद्घाटन किया है। वियोग-वैभवम् - ले.-म.म. हरिदास सिद्धान्त-वागीश। ई.1876-1961। खण्डकाव्य । विरहवैक्लव्यम् - मूल शेक्सपियर का सानेट क्र. 73 1 अनुवादक महालिंगशास्त्री। विरहिमनोविनोदम् - कवि विनायक। विराविवरणम् - ले.-रामानंद। ई. 17 वीं शती। विराज-सरोजिनी (नाटिका) - ले.-हरिदास सिद्धान्तवागीश । (1876-1961)। रचनाकाल- सन 1900। कलकत्ता से (बंगाब्द 1317 में) प्रकाशित। प्रमुख रस-शृंगार। सरल, नाट्योचित भाषा। सूक्तियों तथा लोकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग । "विक्रमोर्वशीय" से प्रभावित। नृत्य-संगीत का बाहुल्य, सभी गीत संस्कृत में। कथासार- मालव-नरेश हरिदश्व, गंधर्वकन्या सरोजिनी पर मोहित है। दानव राजा सुबाह् उससे प्रणय निवेदन करता है। नायिका भयभीत है, इतने में हरिदश्व का सेनापति वीरसिंह पहुंचता है। सुबाहु डरकर भागता है और हरिदश्व का सरोजिनी से समागम होता है। विरुद्धविधिविध्वंस - ले.-लक्ष्मीधर । पिता- मल्लदेव। माताश्रीदेवी। गुरु- भगवद्बोधभारती। गोत्र- काश्यप। सन 1526 में लिखित । ग्रंथ अनेक अधिकरणों में विभाजित है। विषयश्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि धार्मिक नियमों के संबंध में विवाद । विरूपाक्षपंचाशिका - श्लोक- 69। विरूपाक्षवसंतोत्सवचंपू • ले.-अहोबल सूरि। ई. 14 वीं शती (उत्तरार्ध)। इन्होंने रामानुजाचार्य के जीवन पर 16 उल्लासों के “यतिराजविजयचंपू' की रचना की थी। प्रस्तुत चंपूकाव्य खंडित रूप में प्राप्त है, और आर.एस. पंचमुखी द्वारा संपादित होकर मद्रास से प्रकाशित हुआ है। ग्रंथ के अंतिम परिच्छेद के अनुसार इसकी रचना पामुडिपट्टन के प्रधानमंत्री के आग्रह पर हुई थी। प्रस्तुत चंपू काव्य 4 कांडों में विभक्त है। इसमें विरूपाक्ष महादेव के वसंतोत्त्सव का वर्णन है। प्रथमतः विद्यारण्य यति (स्वामी) का वर्णन किया गया है, जो विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक थे। फिर काश्मीर के भूपाल एवं प्रधान पुरुष राशिदेशाधिपति का वर्णन है। कवि माधव नवरात्र में संपन्न होने वाले विरूपाक्ष महादेव के वसंतोत्सव का वर्णन करता है। प्रारंभिक 3 कांडों में रथयात्रा तथा चतुर्थ कांड में मृगया व माधवोत्सव वर्णित है। अवांतर कथा के रूप में एक लोभी व कृपण ब्राह्मण की रोचक कथा का वर्णन है। इस काव्य में स्थान स्थान पर बाणभट्ट की शैली का अनुकरण किया गया है, किंतु इसमें स्वाभाविकता व सरलता के भी दर्शन होते हैं। नगरों का वर्णन प्रत्यक्षदर्शी के रूप में किया गया है। व्यंगात्मकता एवं वस्तुओं का सूक्ष्म वर्णन इस काव्य की अपनी विशेषता है। विलापकुसुमांजलि - ले.-यदुनंदनदास। विषय- कृष्णकथा। विलापतरंगिणी- ले.- कृष्णम्माचार्य। पिता- रंगनाथ । विलास - ले.-लक्ष्मीनृसिंह। सिद्धान्तकौमुदी पर टीका। विलासकुमारी - ले.-चक्रवर्ती राजगोपाल। एक दीर्घकथा । विलासगुच्छ - ले.- गंगाधरशास्त्री मंगरुलकर, नागपुर निवासी। विवरणम् - ले.-वरदराजाचार्य। प्रक्रियाकौमुदी की टीका। विवरणटीका - ले.-पद्मपादाचार्य। ई. 8 वीं शती। 338 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवर्णादि-विष्णुसहस्र-नामावली (सव्याख्या) ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। विवादकौमुदी - ले.-पितांबर सिद्धान्तवागीश। सन 1604 में प्रणीत। लेखक असम प्रदेश के राजा का आश्रित थे। विवादचन्द्र - ले.-मिसरु मिश्र। विवादचन्द्रिका - ले.- रुद्रधर महामहोपाध्याय। गुरु- चण्डेश्वर।। ई. 15 वीं शती। विषय- व्यवहार के 18 विषय । विवादचिन्तामणि - ले.-वाचस्पति मिश्र। मुंबई में मुद्रित । विवादताण्डवम् - ले.-कमलाकर भट्ट। विवादनिर्णय - ले.- गोपाल । 2) ले.- श्रीकर। विवादभंगार्णव - ले.-जगन्नाथ तर्कपंचानन । ई. 18 वीं शती। विषय- न्यायविधान। विवादरत्नाकर - ले.-चण्डेश्वर । विवादवारिधि - ले.- रमापति उपाध्याय सन्मिश्र। विषयव्यवहार के 18 नियम। विवादव्यवहार - ले.- गोपाल सिद्धान्तवागीश । विवादसागर - ले.- कुल्लूकभट्ट। ई. 12 वीं शती। विषयधर्मशास्त्र । विवादसार - ले.- कुल्लूकभट्ट । लेखक के श्रद्धासार में विर्णित । विवादसारार्णव - ले.-सर्वोरु शर्मा, त्रिवेदी। सर विलियम् जोन्स की प्रेरणा से सन 1789 में लिखित। 9 तरंगों में संपूर्ण। “सर विल्यम् मिस्तर श्रीजोन्स महीपाज्ञप्त" इन शब्दों में लेखक ने आत्मनिर्देश किया है। विवादार्णवभंजनम् (या भंग) - गौरीकान्त एवं अन्य पण्डितों द्वारा सन 1875-76 में संगृहीत ग्रंथ। विवादार्णवसेतु - बाणेश्वर एवं अन्य पण्डितों द्वारा वारेन हेस्टिंग्स के लिए संगृहीत एवं हल्हेड द्वारा अंग्रेजी में अनूदित । (1774 ई. में प्रकाशित) ऋणादान एवं अन्य व्यवहारपदों पर 21 ऊर्मियों (लहरियों अर्थात प्रकरणों) में विभाजित। मुंबई के वेंकटेश्वर प्रेस में मुद्रित। इस संस्करण से पता चलाता है कि यह ग्रंथ रणजितसिंह (लाहोर) की कचहरी में प्रणीत हुआ था। अन्त में प्रणेता पंडितों के नाम आये हैं। विवाहकर्म - ले.-विष्णु । मथुरानिवासी अग्निहोत्री। विवाहतत्त्व (या उद्वाहतत्त्व) - ले.- रघु। टीकाकार-- काशीराम। विवाहदिग्दर्शनम् - ले.- पं. शिवदत्त त्रिपाठी। विवाहधर्मसूत्र - ले.-गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंह शास्त्री। माता- नरसांबा। विवाहनिरूपणम् - ले.-नन्दभट्ट । (2) ले.-वैद्यनाथ। विवाहपटलम् - ले.-हरिदेवसूरि । (2) ले.- ब्रह्मदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। (3) ले.- सारंगपाणि (शाङ्गपाणि) पिता- मुकुन्द । विषयमुहूर्त-विवेक। (4) ले. शाङ्गधर। विषय- ज्योतिषशास्त्र । विवाहपटलस्तबक - ले.-सोमसुन्दरशिष्य। विवाहपद्धति - (1) ले.-चतुर्भुज। (2) ले.- जगन्नाथ । (3) ले.- नरहरि। (4) ले.- नारायणभट्ट। (5) रामचंद्र। (6) ले.- रामदत्त राजपंडित। पिता- गणेश्वर। ई. 14 वीं शती। विषय- वाजसनेयी ब्रह्मणों के लिए - विवाह, पुंसवन श्राद्ध आदि। (7) ले.- गौरीशंकर। (8) (नामान्तर -विवाहपद्धतिः) गोभिल शाखियों के लिए। विवाहपद्धतिव्याख्या - ले.-गूदडमल्ल । विवाहरत्नम् - ले.- हरिभट्ट। 122 अध्यायों में पूर्ण। विवाहरत्नसंक्षेप - ले.- क्षेमंकर । विवाहविडम्बनम् (प्रहसन) - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) "संस्कृतप्रतिभा' में प्रकाशित । हिन्दुस्तानी- विशेषकर बंगाली कुरीतियों पर व्यंग। कथासार- 60 वर्ष का विधुर रतिकान्त विवाहार्थी है। चन्द्रलेखा नामक सुन्दरी युवती के पिता का ऋण चुकाने के बहाने घटक उससे 2000 रु. ऐंठता है और चाहता है कि कन्या को एक तरुण वर दिखायेंगे, और प्रत्यक्ष विवाह रतिकान्त के साथ करेंगे। मुहल्ले के तरुणों का विरोध दबाने हेतु रतिकान्त उन्हे भी घूस देता है। युवा बनाने वाले डॉक्टर भी उससे रुपये ऐंठते हैं। चन्द्रलेखा के गहने के लिए भी डेढ हजार रु. व्यय होते हैं। 1000 रु. विवाह व्यय। ऋणशोध के रु. 2000 घटक लेता है और पोलिसप्रबंध के नाम पर भी पैसे लेता है। जब वरवेष मे सजे वृद्ध रतिकान्त प्रस्थान करते हैं, तब दीखता है कि उन्हीं के व्यय से चन्द्रलेखा का विवाह युवा भास्कर के साथ हो गया है। विवाहवृन्दावनम् - ले.-केशवाचार्य। पिता- राणग या राणिग। ई. 14 वीं शती। विषय- शुभमुहूर्त। अध्याय- 17। इस पर गणेश दैवज्ञ (पिता- केशव) की दीपिका टीका है। समयसन 1554-55। दूसरी टीका कल्याणवर्मा की है। विवाहसमयमीमांसा - ले.-एन.एस. वेंकटकृष्णशास्त्री। विवाहसौख्यम् - ले.-नीलकण्ठ। यह टोडरानन्द का एक अंश माना जाता है। विवाहादिकर्मानुष्ठानपद्धति - ले.-भवदेव । विवाह्यकन्यास्वरूपनिर्णय - ले.- अनन्तराम शास्त्री। विविधविद्याविचारचतुरा - ले.- भोज । क्रुद्ध देवों को प्रसन्न करने वापी कूप आदि के निर्माण के विषय में सन 480-91 में लिखित । यह धाराधिपति भोज से भिन्न व्यक्ति हैं। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 339 For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवृत्ति - ले.-सोमानंद। ई. 9 वीं शती (उत्तरार्ध)। (2) ले.- विठ्ठलनाथजी। विवेककौमुदी - ले. रामकृष्ण । विषय- शिखा एवं यज्ञोपवीत धारण, विधि, नियम, परिसंख्या, स्नान, तिलकधारण, तर्पण, शिवपूजा, त्रिपुण्ड, प्रतिष्ठोत्सर्गभेद का विवेचन। विवेकचन्द्रोदयम्(नाटिका) - ले.-शिव। सन 1763 में लिखित। विश्वेश्वरानंद इन्स्टिट्यूट, होशियारपूर से सन 1966 में प्रकाशित । अंकसंख्या चार। पात्र प्रायः प्रतीकात्मक । कथासारअपने योग्य कन्या ढूंढने हेतु श्रीकृष्ण उद्धव को भेजते हैं। परिभ्रमण के पश्चात् उद्धव रुक्मिणी को कृष्ण के योग्य पाते हैं और कृष्ण से कहते हैं कि रुक्मिणी के कृष्ण को चाहने पर भी रुक्मी उसे शिशुपाल को देना चाहता है। रुक्मिणी वृद्धश्रवा के हाथों कृष्ण को संदेश भेजती है, जिसे पढ कृष्ण कुण्डिनपर पहुंचते हैं और वरदा के तट वर रुक्मिणी का हरण करते हैं। द्वारका में उनका विधिवत् पाणिग्रहण होता है। विवेकदीपक - ले.-दामोदर। विषय- महादान । संग्रामशाह के आदेशानुसार सन 1582 ई. में संगृहीत ग्रंथ । विवेकमिहिरम् (नाटक) - ले.-हीरयज्वा। रचनाकाल- सन 1785। प्रथम अभिनय नृसिंह महोत्सव के अवसर पर अंकसंख्या पांच। यह प्रतीकात्मक नाटक वेदान्त प्रतिपादित जीवन-दर्शन को सरल पदावली में समझाने के उद्देश्य से लिखा गया। नटी की भाषा संस्कृत। सूत्रधार प्रस्तावना के अन्त में जाकर फिर से भरत वाक्य में प्रविष्ट होकर श्रोताओं को आशीर्वाद देता है। इसमें प्रहसन तत्त्व का समावेश है। कथासार- मोह की राजसभा में कामक्रोधादि आकर अपना । महत्त्व बताते हैं। द्वितीय अंक में राजसभा में विवेक का आगमन। आचार्य की आज्ञा से विवेक मोह पर आक्रमण करता है। तृतीय अंक में भक्ति, श्रद्धा, धृति और शम, विवेक के साथ मोह से लडते हैं। चौथे अंक में आचार्य द्वारा हरिभक्ति का तथा ब्रह्मात्मैक्य का उपदेश। अन्त में मोह परास्त होता है और विवेकादि आचार्य के सामने नतमस्तक होते हैं। विवेकविषयम् - ले.-रामानुज। विवेकानन्द-चरितम् (नाटक) - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) विवेकानन्द शतदीपायन में प्रकाशित । अंकसंख्या - तीन । स्वामी विवेकानन्दजी के जीवन तथा प्रमुख उपलब्धियों का रसमय वर्णन। विवेकानन्द-चरितम् - ले.-के. नागराजन । बंगलोर निवासी। इ. 1947 में लिखित। विवेकानंदचरित - ले.-डॉ. गजानन बालकृष्ण पळसुले। पुणे विश्वविद्यालय में प्राध्यापक । सुबोध भाषा में स्वामी विवेकानंद का सविस्तर चरित्र । शारदा प्रकाशन पुणे-301 विवेकानन्दविजयम् (महानाटक) - ले.-डॉ. श्रीधर भास्कर वणेकर। विवेकानन्द शिलास्मारक समिति (मद्रास) द्वारा सन 1972 में प्रकाशित। अंकसंख्या दस। प्रथम प्रयोग नागपुर में सोमयाग महोत्सव के मंडप में। विपन्नपरित्राणं नामक प्रथम अंक में नरेन्द्र (विवेकानन्द का मूल नाम) द्वारा शेफालिका नाम विधवा युवती का विल्यम्, रहमान और वामाचरण नामक तीन दुष्ट छात्रों से संरक्षण । द्वितीय अंक में होलिकाचार्य नामक दुष्ट दांभिक के आश्रम में भ्रमवश प्रविष्ट अंधे को नरेंद्र द्वारा मार्गदर्शन। रामकृष्ण कथाश्रवणम् नामक तीसरे अंक में नरेंद्र अपने पिता के माता के संवाद में रामकृष्ण परमहंस का चरित्र सुनता है। चौथे अंक का नाम श्रीरामकृष्णदर्शन है। नरेद्र और सिद्धपुरुष रामकृष्ण परमहंस की प्रथम भेंट की घटना इसमें चित्रित है। तीर्थयात्रा नामक पंचम अंक में संन्यासी नरेन्द्र की तीर्थयात्रा में घटित विविध घटनाओं का दर्शन है। राजसभा नामक छठे अंक में मानसिंह नामक राजा की सभा में मूर्तिपूजा के विषय में चर्चा तथा विवेकानन्द द्वारा मूर्तिपूजा का औचित्य प्रतिपादन। श्रीपादशिला नामक सातवें अंक में कन्याकुमारी क्षेत्र में श्रीपाद-शिलापर समाधि से व्युत्थान होने के बाद स्वामी विवेकानन्द भारतभूमि का गुणगान करते हैं। यह प्रदीर्घ स्तोत्र शिखरिणी छंद में 85 श्लोकों में है। अमेरिका प्रवेश नामक आठवें और धर्मविषय नाम नौवें अंक में अमेरिका की घटनाओं का वर्णन है। दसवें प्रत्यागनम नामक अंक में उपसंहार है। दि. 4 जुलाई 1971 को नाटक का लेखन समाप्त हुआ। इस नाटक में प्राकृत भाषा का प्रयोग नहीं है। विवेकार्णव - ले.-श्रीनाथ। 1475-1525 ई.। लेखक के कृत्यतत्त्वार्णव में वर्णित। विशाखकीर्ति-विलास-चम्पू - ले.-रामस्वामी शास्त्री। विषयत्रावणकोर के अधिपति विशाख का चरित्र। विशाखतलाप्रबन्धचम्पू - ले.- राजरामवर्मा। विषय- त्रावणकोर के अधिपति विशाख का चरित्र । विशाखराजमहाकाव्यम् - ले.-त्रावणकोर नरेश केरल वर्मा । विशाखसेतु-यात्रा-वर्णन-चम्पू - ले.-गणपति शास्त्री। विषयत्रावणकोर के अधिपति विशाख का चरित्र । विशिष्टाद्वैतिनी - 1905 में श्रीरंगम् से ए. गोविन्दाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त का प्रचार-प्रसार करने वाली पत्रिका थी। विशुद्धरसदीपिका - ले.-किशोरीप्रसाद । रासपंचाध्यायी भागवत का हृदय है। इस पर टीका लिखने का कार्य अनेक विद्वानों ने किया है। उनमें विशुद्ध रस-दीपिका के लेखक किशोरी प्रसाद का अपना विशेष स्थान है। यह टीका अत्यंत सरस-सुबोध है। इसमें व्रजेश्वरी राधाजी का विशेष वर्णन है एवं उनकी सत्ता, रसवत्ता तथा विशुद्ध रस-भवन की सिद्धि के लिये लेखक ने विशेष जागरूकता रखी है। रास के गंभीर रस को 340/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकट करने में प्रस्तुत व्याख्या अनुपम है। व्याख्या में विस्तार काल्पनिक गंधर्वो का संवाद वर्णन किया है। संपूर्ण काव्य-कृति अधिक है। टीका में भक्ति-मंजूषा, भक्तिभाव-प्रदीप, कृष्णयामल कथोपकथन की शैली में निर्मित है। इसमें 254 खंड तथा एवं राघवेन्द्र सरस्वतीरचित पद्य उद्धृत हैं। श्रीमद्भागवत में 597 श्लोक हैं। दोनों गन्धर्व अपने आकाशयान में परिभ्रमण राधा का नाम-निर्देश प्रत्यक्ष रूप में क्यों नहीं, इस संबंध में कर सब देश देखते हैं। विश्वावसु इन देशों का वर्णन करते प्रस्तुत टीका का उत्तर बडा ही गंभीर एवं रसानुसारी है। हुए केवल गुणगान करता है, तथा कृशानु केवल दोषों का विशुद्धिदर्पण - ले.-रघु। विषय- अशौच के दो प्रकारों दर्शन करता है। (जननाशौच एवं शवाशौच) का विवेचन।।। विश्वगुणादर्श के टीकाकार - (1) कुरवीराम, (19 वीं विश्रान्तविद्याधरम् - ले.-वामन (साहित्यशास्त्र तथा काशिकाकार शती के लेखक तथा करवतेनगर के जमीनदार के अश्रित) से भिन्न) विषय- व्याकरण- शास्त्र। इस ग्रंथ पर मल्लवादी (2) लक्ष्मीधर के पुत्र प्रभाकर । (जो "तार्किकाशिरोमणि" उपाधि से प्रसिद्ध थे) ने न्यास ग्रंथ विश्वकर्मप्रकाशशास्त्रम्- संपादक-ब्रह्मा। अनुवादकलिखा है। स्वयं वामन ने इस पर लघु और बृहद्वृत्ति लिखी शक्तिधर्म-शर्मा शुक्ल। प्रकाशक- पालाराम खाती रामपुरवाला, है। आचार्य हेमचंद्र तथा वर्धमान सूरि की रचनाओं में इस जिला- जालंधर । सन 1896 में प्रकाशित । विषय- शिल्पशास्त्र । ग्रंथ से अनेक उद्धरण दिये गये हैं। लेखक का समय ई.. विश्वतत्त्वप्रकाश - ले.- भावसेन त्रैविद्य। जैनाचार्य। ई. 13 6 वीं शती माना जाता है। वीं शती। विश्रामोपनिषद्- एक छोटा सा पद्यमय उपनिषद्। इसमें विश्वप्रकाशकोश - ले.- महेश्वर । हृदयकमल की आठ पंखुड़ियों में किस पंखुडी पर ध्यान विश्वप्रकाशिका पद्धति- ले.- विश्वनाथ। पिता- पुरुषोत्तम । केन्द्रित करने से क्या परिणाम होता है, इसका वर्णन है। गोत्र- पराशर । सन- 1544 में लिखित । विषय- कतिपय कृत्य इसके अनुसार आठ दिशाओं की आठ पंखुडियां विविध रंगों एवं प्रायश्चित्त। आपस्तम्ब धर्मसूत्र पर आधारित । वाली हैं तथा वे मन में विविध विकारों तथा विविध भावनाओं विश्वप्रियगुणविलास काव्य - ले.- सेतुमाधव। विषय - का निर्माण करती हैं। अतः उन सभी को हटाकर मध्यदल मध्वाचार्य का चरित्र। पर मन को केन्द्रित करना चाहिये। इससे चैतन्य की अनुभूति विश्वभाषा- (त्रैमासिक पत्रिका) संपादक - पंडित गुलाम होती है और उसके स्मरण से पापों का नाश होता है। दस्तगीर अब्बास अली बिराजदार, जंगलीपीर दरगाह, वरली, विश्वकर्मप्रकाश - संपादक-मिहिरचंद्र । एक वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ। मुंबई । प्रकाशिका -श्रीमती भगिनी निरंजना । कार्यालय- विश्वसंस्कृत श्री तारापद भट्टाचार्य के अनुसार इसके रचयिता वासुदेव हैं। प्रतिष्ठान, वेदपुरी, पांडिचेरी। पांडिचेरी के श्री अरविंद आश्रम वासुदेव के गुरु विश्वकर्मा थे। विश्वकर्मा देवताओं के वास्तुविशारद की संचालिका श्रद्धेय श्रीमताजी जन्मना फ्रेंच थी। भारत की थे। कालान्तर से विश्वकर्मा नाम ने उपाधि का रूप ग्रहण राष्ट्रभाषा संस्कृत ही हो सकती है यह उनका निश्चित मत था। किया। विश्वकर्मप्रकाश के कुल 13 अध्याय हैं जिनमें प्रमुख 1980 में उनकी जन्मशताब्दी निमित्त एक सौ संस्कृत सम्मेलन रूप से भवनरचना विषयक नागर-पद्धति का वर्णन है। देश भर में आयोजित किए गए थे। इस महान् आयोजन की "विश्वकर्मा शिल्प" इसका पूरक ग्रंथ है जिसमें मूर्ति-कला का समाप्ति प्रयाग में कुम्भ मेले के अवसर पर एक विशाल विवेचन है। प्राप्तिस्थान-खेलाडीलाल संस्कृत बुक डेपो, कचोडी ___जागतिक संस्कृत अधिवेशन द्वारा हुई। इस अधिवेशन में विश्व गली, वाराणसी। संस्कृत प्रतिष्ठानम् की स्थापना काशी-नरेश श्री विभूतिनारायण विश्वकर्माकृत वास्तुशास्त्र विषयक ग्रंथ- वास्तुप्रकाश, सिंह की अध्यक्षता में हुई। विश्वभाषा त्रैमासिकी पत्रिका इस वास्तुविधि, वास्तुसमुच्चय, विश्वकर्मीय, विश्वकर्माशिल्पम्, विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान की मुखपत्रिका है। कुछ वर्षों के बाद विश्वकर्मसंहिता (अपराजितप्रभा) विश्वकर्म-संप्रदाय । इसका प्रकाशन वाराणसी से होने लगा। विश्वकर्मवास्तुशास्त्रम् - ले.- विश्वकर्मा । तंजौर ग्रंथालय से विश्वमीमांसा - ले.- गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। प्रकाशित। प्रमाणबोधिनी- टीका सहित । पिता- नरसिंहशास्त्री। माता- नरसांबा । विश्वकर्मविद्याप्रकाश - संपादक-रविदत्त शास्त्री। विश्वमोहनम् - मूल जर्मन कवि गेटे का नाटक "फाऊस्ट"। विश्वगर्भस्तव - ले.- रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोण-निवासी। अनुवादक-ताडपत्रीकर, पुणे निवासी। विश्वगुणादर्शचंपू - ले.- वेंकटाध्वरी। रचना- 1637 ई. में। विश्वंभरोपनिषद् - रामोपासना का एक आकर ग्रंथ। इसे इस प्रसिद्ध व लोकप्रिय चंपूकाव्य का प्रकाशन, निर्णयसागर अथर्ववेद का एक अंग माना जाता है। इसमें शांडिल्य मुनि प्रेस मुंबई से 1923 ई. में हुआ। इस चंपू में कवि ने ने महाशंभु से कुछ प्रश्न पूछे हैं तथा सभी देवताओं में श्रेष्ठ, विश्व-दर्शन के लिये उत्सुक कृशानु व विश्वावसु नामक दो वाणी मन बुद्धि के लिये अगोचर तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 341 For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी सर्वेश्वर, कौन है यह भी पूछा है। इस प्रश्न के उत्तर में महाशंभु कहते हैं कि राम ही सगुण-निर्गुण ब्रह्म से परे हैं, जो अयोध्या में रासलीला करते हैं। उनके अनेक मंत्र हैं जिनमें “रां रामाय नमः", "श्रीमद्रामचन्द्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये", "श्रीमते रामचन्द्राय नमः" तथा "ओम् नमः सीतारामाभ्याम्" ये मंत्र श्रेष्ठ हैं। राम ही जगत् की उत्पत्ति के कारण हैं। सभी अवतार रामचंद्र के चरणों से उत्पन्न होते हैं। यह उपनिषद् अयोध्या में प्रकाशित किया गया तथा इस पर "रामतत्त्व प्रकाशिका" नामक टीका भी लिखी गई है। विश्वसंस्कृतम् • होशियारपुर से विश्वबन्धु के सम्पादकत्व में यह शोध-प्रधान त्रैमासिकी पत्रिका प्रकाशित हो रही है। विश्वसारतन्त्रम् - ले.- महाकाल। सब तन्त्रों का सारभूत महातन्त्र । श्लोक- 51081 8 पटलों में पूर्ण। विषय- आगम नामनिरुक्ति, माया (मूल प्रकृति) का माहात्म्य, सृष्टि, महामाया की प्रसन्नता से हरि, हर आदि सब की प्रसन्नता, बिन्दु और नाद का स्वरूप, पीठपूजा का प्रकार, योगलक्षण, गुरुशिष्य-लक्षण, षोडश मातृकाएं, विविध चक्रों का वर्णन, दीक्षा-भेद वर्णन पूर्वक दीक्षाविधि, गुरु और शिष्य के कर्तव्य, पुरश्चरण, छिन्नमस्तामन्त्र, प्रचण्डचण्डिकास्तोत्र, मद्य, मांस आदि का बलिदान पूर्वक रजस्वला की नानाविध साधनाओं का विधान, कालिकार्चनविधि, दुर्गामन्त्र, गुह्यकालिका के बीजमन्त्र, महिषमर्दिनी, त्रिपुरसुन्दरी के बीजमंत्र तथा पूजोपयोगी द्रव्यों का निरूपण इ.। विश्वश्रितम् - सन 1906 में मद्रास से ही एम.वीर भद्राचार्य के सम्पादकत्व में यह धार्मिक पत्रिका प्रकाशित होने लगी। विश्वादर्श- ले.- कविकान्त सरस्वती। पिता - आदित्याचार्य । काशीनिवासी। विषय- आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त एवं ज्ञान नामक चार काण्डों में विभाजित । प्रथम काण्ड में 42 स्रग्धरा श्लोकों एवं एक अनुष्टुप् छन्द में शौच, दन्तधावन, कुशविधि, स्नान, संध्या, होम, देवतार्चन, दान के आह्निक कृत्यों पर, विवेचन दूसरे काण्ड (व्यवहार) में 44 श्लोक विभिन्न छन्दों (मालिनी, अनुष्टप् मन्दाक्रान्ता आदि); में तीसरे काण्ड (प्रायश्चित्त) में 53 श्लोकों (सभी स्रग्धरा, केवल अन्तिम मालिनी) में एवं चौथे काण्ड (ज्ञानकाण्ड) 53 श्लोकों (शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, अनुष्टुप् आदि छन्दों) में वानप्रस्थ, संन्यास, त्वंपदार्थ, काशीमाहात्म्य पर विवेचन है। लेखक के आश्रयदाता काशीस्थ नागार्जुन के पुत्र धन्य या धन्यराज थे। विश्वामित्रकल्प - श्लोक- 1600। विषय- द्विजों के दैनिक कृत्यों का वर्णन- प्रातःकाल उठकर आत्मचिन्तन का प्रकार, देवताध्यान की रीति, दन्तधावनादि प्रातःकृत्य, स्नानविधि, रुद्राक्षधारण, भूतशुद्धि आदि का प्रकार, त्रिकाल सन्ध्याविधि, वेदादि मन्त्रपाठरूप ब्रह्मयज्ञविधि, अन्नशुद्धि आदि के प्रकार, प्रस्तुतात्र होम प्रकार रूप वैश्वदेव विधि, गोग्रास आदि भोजनविधि, भक्ष्य पदार्थों की विधि, अभक्ष्य पदार्थों का निषेध, दीक्षा के लिए वेदी का निर्माण, दीक्षा-प्रकार, गायत्री के पुरश्चरण की विधि, नित्य कर्त्तव्य कर्मों की विधियां, गायत्री मन्त्र से होमविधि का कथन इ.। विश्वामित्रयागम् - ले.- प्रा. सुब्रह्मण्य सूरि । विश्वामित्रसंहिता - ले.- श्रीधर। श्लोक- 2800। यह गायत्री-मन्त्र-प्रयोग और माहात्म्य का प्रतिपादक ग्रन्थ है। विश्वावसुगन्धर्वराजतन्त्रम्- रुद्रयामलान्तर्गत । श्लोक - 4251 विश्वेश्वरपद्धति- ले.- विश्वेश्वर। विषय - संन्यासधर्म । संस्कारमयूख में वर्णित । विश्वेश्वरीपद्धति- (या यतिधर्मसंग्रह) - ले.- अच्युताश्रम । चिदानन्दाश्रम के शिष्य। विश्वेश्वरीस्मृति- ले.- अच्युताश्रम । विषघटिकाजननशान्ति - (या विषनाडीजननशान्ति) वृद्धगार्यसंहिता से संगृहीत । विषय- "विषघटिका' नामक चार अशुभ कालों में जन्म होने से उत्पन्न दुष्ट प्रतिफलों के निवारणार्थ धार्मिक कृत्य। विषमबाणलीला - ले.- आनंदवर्धन। ई. 9 वीं शती उत्तरार्ध । पिता- नोण। विषयतावाद - ले.- गदाधर भट्टाचार्य । विषहरमन्त्रम् - ले.- गणेश पण्डित। जम्मू निवासी। विषय आयुर्वेद । विषापहारपूजा - ले.- देवेन्द्रकीर्ति । कारंजा के बलात्कार गण के जैन आचार्य। विषापहारस्तोत्रम्- ले.- धनंजय। ई. 7-8 वीं शती। विष्णुगीता - वैष्णवसम्प्रदाय का मान्यताप्राप्त ग्रंथ। परंपरा के अनुसार यह गीता देवलोक में विष्णु ने देवताओं को सुनाई और बाद में व्यास ने उसे सतों को सुनाई। इसके कुल 7 अध्याय हैं, तथा इस पर भगवद्गीता का काफी प्रभाव है। भगवद्गीता के अनेक श्लोक ज्यो के त्यों इसमें उद्धृत हैं। इसमें देवासुरों का युद्ध, भोगवृद्धि के कारण देवों का तपःक्षय, विष्णु द्वारा देवताओं को सदाचार का परामर्श, महाविष्णु का सगुण स्वरूप, शक्ति व मूल प्रकृति का तादात्म्य सृष्टि, स्थिति, लय आदि प्रकृति के कार्य, सृष्टि के आधारभूत धर्म-तत्त्व, त्रिगुणों का स्वरूप, चातुवर्ण्य की सृष्टि, कर्मयोग, ज्ञान-योग, लोकसंग्रह के लिये कर्मयोग की आवश्यकता, योग-भ्रष्ट की गति, भक्तियोग, सगुणोपासना, अवतारों का प्रयोजन, त्रिविध ज्ञान, विश्वरूप दर्शन विभूतियोग आदि विषयों का विवेचन है। विष्णुतत्त्व-निर्णय- ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। इसमें 3 परिच्छेद हैं। श्रुति की अद्वैतपरक व्याख्या का इसमें विस्तृत एवं निर्मम खंडन किया गया है। मध्वाचार्य की 342 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मान्यता है कि सब प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण श्रुति का तात्पर्य अद्वैत में नहीं है, प्रत्युत विष्णु के सर्वोत्तम होने में ही सब आगमों का तात्पर्य है । इस निबंध में प्रधानतया यही सिद्ध किया गया है कि सिद्धांतरूपेण भेद श्रुतिपुराणों द्वारा ही गम्य है। इसमें श्रुति प्रतिपादित कर्मकांड के अंतर्गत "कर्म" के स्वरूप का गंभीर विवेचन किया गया है। मध्वाचार्य के मतानुसार श्रुति का कर्मकाण्ड भाग भी भगवान् की ही स्तुति करता है। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये श्रुति-मंत्रों तथा ब्राह्मण वचनों का इस निबंध में आध्यात्मिक दृष्टि से गंभीर अर्थ प्रतिपादित किया गया है। लेखक के ऋग्भाष्य में भी इसी विषय का प्रतिपादन है। विष्णुतत्त्वप्रकाश ले. वनमाली माध्य अनुयायियों के लिए स्मार्त कृत्यों पर एक निबंध । विष्णुतत्त्वविनिर्णय ले आनन्दतीर्थ | विष्णुतत्त्व संहिता पांचरात्र साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता इसमें मूर्तिपूजा, भोग, वैष्णव-मुद्राओं का अंकन, पवित्रीकरण आदि विषयों का विवरण है। इस संहिता पर सांख्यदर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। विष्णुतीर्थीयव्याख्यानम् - ले. सुरोत्तमाचार्य । विष्णुधर्मपुराणम् - यह एक उपपुराण हे, किन्तु इसका स्वरूप धर्म शास्त्र जैसा है। इसमें वैष्णव संप्रदाय के धार्मिक आचार व कर्त्तव्य बताये गये हैं- इसकी रचना भारत के वायव्य प्रदेश में हुई होगी क्योंकि इसमें इसी प्रदेश के पुण्यक्षेत्रों का विशेष रूप से वर्णन है। इसका रचनाकाल इ. स. 200-300 वर्ष में हुआ होगा, क्योंकि उस समय बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हो रहा था और इसमें बौद्धों को पाखंडी, दुराचारी कहा गया है। वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठापना तथा विस्तार हेतु ही इसकी रचना की गई। इसमें क्रियायोग से कैवल्यपद की प्राप्ति, विष्णु के अनेक स्तोत्र, आत्मा-परमात्मा का मिलन, ज्ञानयोग की महत्ता, वर्णाश्रमधर्म पालन का महत्त्व, द्वैताद्वैत तत्त्व आदि का विवेचन है "ओम् नमो वासुदेवाय" मंत्र की महत्ता भी प्रतिपादित की गई है। विष्णुधर्ममीमांसा - ले. नृसिंह भट्ट । सोमभट्ट के पुत्र । विष्णुधर्मसूत्रम् इस धर्मसूत्र के कुल 100 प्रकरण हैं। कुछ प्रकरण केवल एक सूत्र या एक श्लोक वाले हैं। प्रथम और अंतिम दो प्रकरण पद्यमय हैं तथा शेष प्रकरण गद्यापद्यात्मक हैं। इन सूत्रों का यजुर्वेद की काठक शाखा से निकट सम्बन्ध है। इसमें वर्णाश्रम धर्म, राजधर्म, व्यवहार, दिव्य, 12 प्रकार के पुत्र, युग मन्वंतर, अशौच, शुद्ध, विवाह, स्त्री - धर्म, प्रायश्चित्त, श्राध्द, दान, इष्टापूर्त के कर्म आदि विषयों का विवेचन है। इसकी रचना विभिन्न कालखण्डों में, सन पूर्व 300 से 100 वर्ष के बीच तथा इ. स. तीसरी शताब्दी के बाद होने का अनुमान है। इसमें काठक शाखा के मंत्र और काठक गृह्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्र के उद्धरण भी हैं। इस शाखा के लोग प्राचीन काल में पंजाब व काश्मीर में ही अधिकतर थे। अतः इसकी रचना भी संभवतः इसी क्षेत्र में हुई होगी। इस पर नन्द पंडित कृत वैजयन्ती नामक दीका है। विष्णुधर्मोत्तरपुराणम् - विष्णु धर्मपुराण का ही यह उत्तरार्ध है। इसके कुल तीन खण्ड हैं, प्रथम खण्ड में 269, दूसरे में 183 व तीसरे खंड में 355 अध्याय हैं। इसमें वैष्णवों का आचार- धर्म, विष्णुपूजा की पांचरात्र पद्धति तथा सम्प्रदाय के व्यूह - सिद्धान्त का विवेचन है। इसकी गणना 18 उपपुराणों में होती है। यह भारतीय कला का विश्वकोश है जिसमें वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला एवं अलंकार - शास्त्र का वर्णन किया गया है। इसमें नाट्य शास्त्र तथा काव्यालंकार विषयक 1 सहस्र श्लोक हैं। इसके अध्याय क्रमांक 18, 19, 32 व 36 गद्य में लिखे गए हैं जिनमें गीत, आतोय, हस्तमुद्रा व प्रत्यंग विभाग का वर्णन है। इसके जिस अंश में चित्रकला, मूर्तिकला, नाट्यकला एवं काव्यशास्त्र का वर्णन है, उसे चित्रसूत्र कहा जाता है। इस पुराण का प्रारंभ श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र से मार्कडेय के संवाद से होता है। मार्कंडेय के अनुसार "देवता की उसी मूर्ति में देवत्व रहता है, जिसकी रचना चित्रसूत्र के आदेशानुसार हुई हो और जो प्रसन्नमुख हो" । इसके द्वितीय अध्याय में यह भी विचार व्यक्त किया गया है कि चित्रसूत्र के ज्ञान बिना "प्रतिमा-लक्षण" या मूर्तिकला समझ में नहीं आ सकती, तथा बिना नृत्यशास्त्र के परिज्ञान के, चित्रसूत्र समझ में नहीं आ सकता। नृत्य, वाद्य के बिना संभव नहीं, तथा गीत के बिना वाद्य में भी पढ़ता नहीं आ सकती। तृतीय अध्याय में छंद वर्णन तथा चतुर्थ अध्याय में वाक्य- परीक्षण की चर्चा की गई है। पंचम अध्याय के विषय हैं :- अनुमान के 5 अवयव, सूत्र की 6 व्याख्याएं, 3 प्रमाण (प्रत्यक्षानुमानातवाक्यानि एवं इनकी परिभाषाएं, स्मृति, उपमान व अर्थापत्ति। षष्ठ अध्याय में "तंत्रयुक्ति" का वर्णन है तथा सप्तम अध्याय में विभिन्न प्राकृतों का वर्णन 11 श्लोकों में किया गया है। अष्टम अध्याय में देवताओं के पर्यायवाची शब्द दिये गए हैं, तथा नवम व दशम अध्यायों में शब्दकोष है 11 वे 12 वे व 13 वे अध्यायों में लिंगानुशासन है, और प्रत्येक अध्याय में 15 श्लोक हैं। 14 वें अध्याय में 17 अलंकारों का वर्णन है। 15 वें अध्याय में काव्य का निरूपण है जिसमें काव्य व शास्त्र के साथ अंतर स्थापित किया गया है। इसमें काव्य में 9 रसों की स्थिति मान्य है । 16 वें अध्याय में केवल 15 श्लोक हैं, जिनमें 21 प्रहेलिकाओं का विवेचन है। 17 वें अध्याय में रूपक (नाट्य) वर्णन है। तथा उनकी संख्या 12 कही गई है। इसमें यह भी कहा गया है कि नायक की मृत्यु, राज्य का पतन, नगर का अवरोध एवं युद्ध का रंगमंच पर साक्षात् प्रदर्शन नहीं होना चाहिये- इन्हें प्रवेशक द्वारा वार्तालाप के ही रूप में प्रकट संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 343 For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर देना चाहिये। इसी अध्याय में 8 प्रकार की नायिकाओं का विवेचन किया गया है (श्लोक संख्या 56-59) प्रस्तुत पुराण के 18 वें अध्याय में गीत, स्वर, ग्राम तथा मूर्छनाओं का वर्णन है, जो गद्य में प्रस्तुत किया गया है। 19 वां अध्याय भी गद्य में है, जिसमें 4 प्रकार के वाद्य, 20 मंडल एवं प्रत्येक के दो प्रकार से 10-10 भेद तथा 36 अंगहार वर्णित हैं। 20 वें अध्याय में अभिनय का वर्णन है। इस अध्याय में दूसरे के अनुकरण को नाट्य कहा गया है, जिसे नृत्य द्वारा शोभान्वित किया जाता है। __ अध्याय 21 वें से 23 वें तक शय्या, आसन व स्थानक का प्रतिपादन एवं 24 वें व 25 वें में आंगिक अभिनय वर्णित है। 26 वें अध्याय में 13 प्रकार के संकेत तथा 27 वें में आहार्य अभिनय का प्रतिपादन है। आहार्य अभिनय के 4 प्रकार माने गये हैं (प्रस्त, अलंकार, अंगरचना व संजीव)। 29 वें अध्याय में पात्रों की गति का वर्णन व 30 वें में, 28 श्लोकों में रस-निरूपण है। 31 वें अध्याय के 58 श्लोकों में 49 भावों का वर्णन तथा 32 वें में हस्त-मुद्राओं का विवेचन है। 33 वें अध्याय में नृत्य विषयक मुद्रायें 124 श्लोकों में वर्णित हैं, तथा 34 वें अध्याय में नृत्य का वर्णन है। 35 वें से 43 वें अध्यायों में चित्रकला, 44 वें से 85 वें अध्यायो में मूर्ति व स्थापत्य-कला का वर्णन है। डॉ. काणे के अनुसार इसका रचना काल 5 वीं शती के पर्व का नहीं है। डॉ. हाजरा के मतानुसार यह पुराण ई.5 वीं शताब्दी में काश्मीर अथवा पंजाब के उत्तरी क्षेत्र में लिखा गया होगा। प्रस्तत पुराण के काव्यशास्त्रीय अंशों पर भरत मुनि के "नाट्य-शास्त्र" का प्रभाव है, किंतु रूपक व रसों के संबंध में कुछ अंतर भी है। प्रस्तुत पुराण का प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से शके सं. 1834 में हुआ है, और चित्रकला वाले अंश का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की सम्मेलन-पत्रिका के "कला-अंक" मे किया गया है। विष्णुपुराणम्- पारंपारिक क्रमानुसार तृतीय पुराण। इस पुराण में विष्णु की महिमा का आख्यान करते हुए, उन्हें एकमात्र सर्वोच्च देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पुराण 6 खंडों में विभक्त है, इस में कुल 126 अध्याय व 6 सहस्र श्लोक हैं। इसकी श्लोकसंख्या के बारे में "नारदीय पुराण" तथा "मत्स्यपुराण" में मतैक्य नहीं है। प्रथम के अनुसार इसकी श्लोकसंख्या 24 तथा द्वितीय के अनुसार 23 सहस्र मानी गई है। - इस महापुराण की रचना के सम्बन्ध में इसी पुराण में दी गई कथा इस प्रकार है- वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को विश्वामित्र की प्रेरणा से किसी राक्षस ने मार कर खा लिया। जब इस घटना की जानकारी शक्ति के पुत्र पराशर को मिली तो क्रोधित होकर उसने समस्त राक्षसों के वध हेतु यज्ञ किया। इस यज्ञ में सैकडों राक्षस जलकर भस्म होने लगे। वसिष्ठ ने जब यह देखा तो दुःखित होकर उन्होंने अपने पोते से कहा- “पिता की हत्या के लिये सभी राक्षसों को दोषी ठहराना उनके प्रति अन्याय होगा और क्रोधवश किये गये इस कृत्य से, वह अत्यंत काष्ट और तप से अर्जित अपने पुण्य और यश को खो बैठेगा। अपने पितामह के उपदेशों को मानकर पराशर ने राक्षसों के वध का यज्ञ तुरन्त बंद कर दिया। इससे राक्षसों के पूर्वज महर्षि पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर पराशर को यह वरदान दिया कि वह एक पुराण संहिता की रचना करेगा। आगे चलकर मैत्रेय के प्रश्नों के समाधान में पराशर ने उन्हें विष्णुपुराण सुनाया और कहा पुराणं वैष्णवं चैतत् सर्वकिल्बिषनाशनम्। विशिष्टं सर्वशास्त्रेभ्यः पुरुषार्थोपपादकम्।। अर्थात्- यह विष्णु पुराण सर्व पापों का नाश करने वाला तथा सर्व शास्त्रों में विशिष्ट एवं पुरुषार्थ सिद्ध करा देने वाला है। एक कथा यह भी बताई जाती है की वेदव्यास ने अपने शिष्य लोमहर्षण को पुराणसंहिता सुनाई। इसके छह शिष्यों में से तीन शिष्यों ने अकृतव्रण, सावर्ण्य और शांशपायन ने अपने गुण से प्राप्त पुराण संहिता का अध्ययन किया। विष्णुपुराण उपर्युक्त चार संहिताओं का संग्रहरूप ही है। वैष्णव पुराणों में भागवत के पश्चात् इसी पुराण की गणना की जाती है। परिमाण में यह पराण जितना स्वल्प है. तत्त्वोन्मीलन में उतना ही महान है। इसमें 6 अंश (अर्थात खंड) तथा 126 अध्याय हैं। इस प्रकार भागवत की अपेक्षा इसका परिमाण तृतीयांश होते हुए भी, रामानुज संप्रदाय में इसे भागवत से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक माना जाता है। अवांतर काल में विवेचित वैष्णव सिद्धांतों का मूलरूप, इस पुराण में उपलब्ध होता है। इसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन बडी ही सरलता से किया गया है। पंचम अंश (खंड) में श्रीकृष्ण की लीलाओं का विशेष वर्णन है, किंतु यह अंश श्रीमद्भागवत की अपेक्षा कवित्व की दृष्टि से न्यून है। षष्ठ अंश के पंचम अध्याय में भी अध्यात्म तत्त्वों का बडा ही विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसके अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि "परं धाम" नाम से विख्यात परब्रह्म की ही अपर संज्ञा "भगवान्" है (6-5-68-69)। वही वासुदेव नाम से भी अभिहित किया जाता है। उसकी प्राप्ति का उपाय है- स्वाध्याय तथा योग। योग के साथ भगवान् के नाम का स्मरण तथा कीर्तन भी मुक्ति में सहाय्यक होता है। अतः इस पुराण की दृष्टि में, योग तथा भक्ति का समुच्चय, मुक्ति की साधना का प्रमुख उपाय है। इस पुराण के प्रथम अंश में सृष्टि-वर्णन, ध्रुव व प्रह्लाद 344 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का चरित्र तथा देवों, दैत्यों, वीरों व मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही-साथ अनेक काल्पनिक कथाओं का वर्णन है। द्वितीय अंश में भोगोलिक विवरण है, जिसके अंतर्गत 7 द्वीपों, 7 समुद्रों एवं सुमेरु पर्वत का विवरण है। पृथ्वी-वर्णन के पश्चात् पाताल लोक का भी विवरण है, तथा उसके नीचे स्थित नरकों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् धुलोक का वर्णन है जिसमें सूर्य, उसका रथ, रथ के घोडे, उनकी गति एवं ग्रहों के साथ चंद्रमा व चंद-मंडल का वर्णन है। इसमें "भारतवर्ष' नामक प्रसंग में राजा भरत की कथा कही गई है। तृतीय अंश में आश्रम विषयक कर्तव्यों का निर्देश एवं 3 अध्यायों में वैदिक शाखाओं का विस्तृत विवरण है। इसी अंश में व्यास व उनके शिष्यों द्वारा किये वैदिक विभागों का तथा कई वैदिक संप्रदायों की उत्पत्ति का भी वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् 18 पुराणों की गणना व समस्त शास्त्रों एवं कलाओं की सूची प्रस्तुत की गई है। चतुर्थ अंश में ऐतिहासिक सामग्री का संकलन है जिसके अंतर्गत सूर्यवंशी व चंद्रवंशी राजाओं की वंशावलियां हैं। इसमें पुरुरवा-उर्वशी, राजा ययाति, पांडवों व कृष्ण की उत्पत्ति, महाभारत की कथा तथा राम-कथा का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इसी अंश में भविष्य में होने वाले राजाओं - मगध, शैशुनाग, नंद, मौर्य, शुंग, काण्वायन तथा आंध्रभृत्य के संबंध में भविष्यवाणियां की गई हैं। ___ पंचम अंश में "श्रीमद्भागवत" की भांति भगवान् श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र का वर्णन किया गया है। षष्ठ अंश अधिक छोटा है। इसमें केवल 8 अध्याय हैं। इस खंड में कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापर व कलियुग का वर्णन है, और कलि के दोषों को भविष्यवाणी के रूप में दर्शाया गया है। प्रस्तुत पुराण की 3 टीकाएं प्राप्त होती हैं- श्रीधरस्वामी कृत टीका, विष्णुचित्त कृत "विष्णुचित्तीय" टीका तथा रत्नगर्भ भट्टाचार्य कृत "वैष्णवाकूत-चंद्रिका"। इसके वक्ता एवं श्रोता, पराशर और मैत्रेय हैं। इसकी रचना का काल ईसवी सन के पूर्व दूसरी से पांचवी शती माना गया है। यह पुराण, हिन्दी अनुवाद सहित, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हुआ है। इसका अंग्रेजी अनुवाद एच.एच. विल्सन ने किया है। विष्णु पुराण में भारत की अद्भुत महिमा इस प्रकार गायी गई है - अत्रापि भारत श्रेष्ठे जम्बुद्वीपे महामुने । यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः।। अत्र जन्मसहस्रणां सहस्रैरपि सत्तम । कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसंचयात्।। गायन्ति देवाः किल गीतकानि । धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते। भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ।। कर्माण्यसंकल्पिततत्फलानि । संन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते ।। अवाप्यतां कर्ममहीमनन्ते। तस्मिल्लयं ये त्वमलाः प्रयान्ति ।। इसका भावार्थ इस प्रकार है- हे मैत्रेय महामने जम्बद्वीप में भारत सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह मानव की कर्मभूमि है, अन्य केवल भोग-भूमियां हैं। जन्म-मरण के हजारों फेरों के बाद यदि पुण्य संचित किया हो तो जीव को इस देश में मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। यह देश स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। यहां जन्मे जो व्यक्ति फलासक्ति त्याग कर कर्म करते हैं तथा कर्मफल भगवान् के चरणों में अर्पित करते हैं और इस प्रकार मलरहित होकर ईश्वर में लीन हो जाते हैं, वे पुरुष हमसे (स्वर्ग की देवताओं से) भी अधिक भाग्यवान् हैं। विष्णुपूजाक्रमदीपिका - ले.- शिवशंकर । टीकाकार सदानन्द । विष्णुपूजा-पद्धति - ले.- चैतन्यगिरि । विष्णुपूजाविधि - ले.- शुकदेव । रचना सन 1635-6 ई. में। विष्णुप्रतिष्ठाविधिदर्पण - ले.- नरसिंह सोमयाजी। माधवाचार्य के पुत्र । विष्णुभक्तिचंद्रोदय - ले.- नृसिंहारण्य या नृसिंहाचार्य। 19 कलाओं में विभाजित। द्रव्यशुद्धिदीपिका में पुरुषोत्तम द्वारा वर्णित । विषय- मुख्य वैष्णव व्रतों, उत्सवों, कृत्यों को प्रतिपादन । विष्णुमूर्तिप्रतिष्ठाविधि - ले.- कृष्णदेव। रामाचार्य के पुत्र । वैष्णवधर्मानुष्ठानपद्धति या नृसिंह परिचर्यापद्धति नामक बृहद् ग्रंथ का यह एक अंश है। विष्णुयागपद्धति - ले.- अनन्तदेव। पिता- आपदेव। विषय पुत्रकामना की पूर्ति के लिए धार्मिक कृत्य।। विष्णुरहस्यम् - सूत-शौनक संवादरूप। श्लोक- 3828 | अध्याय- 601 विष्णुविलसितम् - ले.- कुंजुनी नाम्बियार रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। आठ सर्गो में विष्णु के दस अवतारों का चरित्र कथन। विष्णुश्राद्धपद्धति - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पितारामेश्वरभट्ट। विष्णुसहस्रनाम - कुलानन्द-संहिता में भैरव-भैरवी संवाद रूप। यह प्रसिद्ध विष्णुसहस्रनाम, (जो महाभारतान्तर्गत है) से भिन्न है। विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् - वैष्णव सम्प्रदाय के आधारभूत ग्रंथ पंचरत्नों में से एक। कुल 107 श्लोकों वाला यह स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में समाविष्ट है, जिसमें विष्णु के एक सहस्र नाम दिये गये हैं। इसका प्रास्ताविक श्लोक इस संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/345 For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः । ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये।। अर्थात- महापुरुष विष्णु के जिन गुण-श्रेष्ठ नामों की ऋषियों ने सर्वत्र महिमा गायी, अपने ऐश्वर्य-प्राप्ति के लिये मैं उन नामों को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। ___ श्री वासुदेवशरण अग्रवाल के मतानुसार इसकी रचना ई.स. की प्रथम शताब्दी में हुई होगी। किन्तु बौधायन गृह्यसूत्र में इस स्तोत्र का उल्लेख आया है। इस गृह्यसूत्र का काल ई.पू. 500 से 200 माना जाता है। अतः विष्णुसहस्रनाम इसके पूर्व ही रचा गया होगा। धर्म, अर्थ, काम- इन तीन पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिये इसके नित्य पाठ की आवश्यकता महाभारत में बताई गई है। आद्यशंकराचार्य, रामानुजाचार्य व कूरेशपुत्र पराशर ने इस पर भाष्य लिखे हैं। पं. सातवलेकर का भाष्य हिंदी में है। विष्णुस्तव-षोडशी - ले.- लक्ष्मण शास्त्री, नागौर (राजस्थान) निवासी। विष्णुवर्धापनम् - ले.- श्री. भि. वेलणकर। मुंबई-निवासी। विषय- लेखक के गुरु की स्तुति। विस्तारिका - ले.- परमानन्द चक्रवर्ती । मम्मट कृत काव्यप्रकाश पर टीका। इ. 15 वीं शती। वीतवृतम् - ले.- भर्तृहरि। यह एक लघुकाव्य है। इसका उल्लेख माधवकृत जडवृत्त में है। इसमें मूर्ख प्रेमियों की उच्छृखलता का वर्णन है। वीरकाम्यार्चनविधि - श्लोक- 75। वीरचम्पू - कवि- पद्मानन्द। वीरचूडामणि - श्लोक- 800। पटल- 11 । वीरतन्त्रम् - 15 पटलों में पूर्ण। ब्रह्मा-विष्णु संवादरूप । विषय- गुरूरहस्य, ताराप्रकरण, मन्त्रोद्धार, पूजा-क्रम, पुरश्चरणविधि, काम्यकर्म का निर्णय, दक्षिणकालिका प्रकरण, गुप्तविद्यारहस्य । व्यस्तसमस्तादि कथन, निग्रहकथन, महावीरक्रम, महाविद्यानुष्ठान, उग्रचण्डा प्रकरण, मन्त्रकोषादि कथन तथा रोग आदि का प्रतिकार। वीरतन्त्र (2) - हर-गौरी संवादरूप। श्लोक- 420| विषयवशीकरण, उच्चाटन, मोहन, स्तंभन, शान्तिक, पौष्टिकादि विविध उपाय। (3) - ब्रह्म-विष्णु संवादरूप। विषय- छिन्नमस्ता देवी की भोगमोक्षप्रद पूजाविधि, छिन्नमस्तामंत्र, मन्त्रोद्धार, ध्यान, आवाहन तथा कवच आदि। वीरधर्म-दर्पणम् (नाटक) - ले.- परशुराम नारायण पाटणकर । रचना सन 1905 में। 1907 में काशी से प्रकाशित। शृंगार का सर्वथा अभाव । प्रधान रस-वीर । पात्र प्रायःपुरुष । अंकसंख्यासात। भीष्म की शरशय्या से जयद्रथ-वध तक की कथावस्तु निबद्ध है। वीरनारायणचरितम् - ले.- वामन (अभिनवबाण भट्ट)। ई. 15 वीं शती। वीरपंचाशत्का - ले.- विमलकुमार जैन । कलकत्ता निवासी। वीरपृथ्वीराजम् (नाटक) - ले.- मथुराप्रसाद दीक्षित । रचना सन् 1940 में। प्रथम अभिनय सोलन के दुर्गा भगवती महोत्सव पर। देशोत्थान तथा लोकप्रबोधन हेतु लिखित। मंच पर धनुर्विद्या की अत्युच्च उपलब्धियां दर्शित। अंकसंख्या- छः। जयचन्द्र राठोड की देशद्रोहिता तथा पृथ्वीराज चौहान की उदात्तता दर्शित। अन्त में महंमद घोरी का पृथ्वीराज द्वारा वध और आत्मघात। वीरप्रतापम् (नाटक) - ले.-मथुराप्रसाद दीक्षित । रचना सन 1935 में। प्रकाशित अंकसंख्या- सात। भारतीय स्वतंत्रता संग्रम में युवकों को प्रोत्साहित करने हेतु लिखित। राणा प्रताप की जीवनगाथा वर्णित । कथाबन्ध शिथिल है। एकोक्तियों की प्रयोग इस की विशेषता है। वीरभद्रतन्त्रम् - (नामान्तर- उड्डीशकोषशास्त्र तथा उड्डीशमन्त्रसार) शिव-पार्वती संवादरूप। वीरभद्रमहातन्त्रम् - श्लोक- 336। वीरभद्र-विजयम् - ले.- कविराज अरुणागिरिनाथ (द्वितीय) ई. 16 वीं शती। पारेन्द्र अग्रहार के निवासी। डिम कोटि का रूपक जिसमें चार अंक हैं। वीरभद्र द्वारा दक्ष के यज्ञ का विनाश इसकी कथावस्तु है। प्रथम अभिनय भूपतिरायपुरम् में राजनाथ के महोत्सव में हुआ। वीरभद्रविजयचम्पू - ले.- एकामरनाथ (2) ले.- मल्लिकार्जुन । वीरभद्रसेनचंपू - ले.- पद्मनाथ मिश्र। रचना- 1577 ई. में। यह चम्पू-काव्य 7 उच्छवासों में विभक्त है, जिसे कवि ने महाराज रीवा-नरेश रामचंद्र के पुत्र वीरभद्रदेव के आग्रह पर रचा था। इसमें वीरभद्रदेव का चरित्र वर्णित है और कथा के क्रम में मंदोदरी व बिभीषण का भी प्रसंग उपनिबद्ध किया गया है। इसमें वीर भद्रदेव की समृद्धि का अतिसुंदर वर्णन है। इसका प्रकाशन, प्राच्यवाणी-मंदिर, 3 फेडरेशन स्ट्रीट, कलकत्ता-9 से हो चुका है। वीरभा . लेखिका- लीला राव दयाल। एकांकिका। विषययुवावस्था में सर्वस्व त्याग कर देशहितार्थ जीवन अर्पित करने वाली वीरभा नामक सत्याग्रह आन्दोलन की अग्रणी नायिका का चरित्र। वीरभानूदयकाव्यम् - ले.- माधव। पिता- अभयचंद्र ऊरव्य । माता- दुर्गा। बघेलखण्ड के नरेश वीरभानु के चरित्रवर्णन के रूप में काव्य लिखा गया है। काव्य में गहोरा राजधानी एवं निकटवरर्ती क्षेत्रों का सजीव वर्णन किया गया है। इसका काल 16वीं सदी के बीच माना जाता है। 346/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीरभानूदय द्वादश-सर्गात्मक काव्य है जिसमें कुल 881 श्लोक हैं। प्रथम सर्ग में कवि ने बघेलों का वंश-वर्णन किया है। द्वितीय सर्ग में वीरसिंह के राज्य-संचालन और उनके दिग्विजयों का वर्णन है। तृतीय सर्ग में कथानायक वीरभानु की कथा प्रारंभ होती है। चतुर्थ में गहोरा की यात्रा, पांचवे में वीरभानु का अभिषेक, छठे में वीरभानु के नीतिपालन, सातवें में उनकी प्रिय रानी की गर्भावस्था, राजकुमार रामचंद्र का जन्मोत्सव, आठवें में रामचंद्र का विद्याभ्यास, नवम में रामचंद्र का विवाह, यौवराज्याभिषेक, दसवें में रामचंद्र का शासनारंभ, एकादश में रामचंद्र की आखेट यात्रा और द्वादश में रामचंद्र पुत्र वीरभद्र का जन्मोत्त्सव का वर्णन है। वीरमित्रोदय - ले.- मित्र मिश्र। ओरछानरेश वीरसिंह देव की प्रेरणा से लिखित ग्रंथ। रचना-काल। सं. 1605 से 1627 के बीच। इस बृहद् निबंध-ग्रंथ में धर्मशास्त्र के सभी विषयों के अतिरिक्त राजनीतिशास्त्र का भी निरूपण है। यह चार भागों एवं 22 प्रकाशों में विभाजित है जिनके नाम हैं- परिभाषा, संस्कार, आह्निक, पूजा, प्रतिष्ठा, राजनीति, व्यवहार, शुद्धि, श्राद्ध, तीर्थ, दान, व्रत, समय, ज्योतिष, शांति, कर्मविपाक, चिकित्सा, प्रायश्चित्त, प्रकीर्ण, लक्षण, भक्ति तथा मोक्ष। इस ग्रंथ की रचना पद्यों में हुई है और सभी प्रकाश अपने में विशाल ग्रंथ हैं। उदाहरणार्थ व्रत-प्रकाश के श्लोकों की संख्या 22,650 है, और संस्कार-प्रकाश के श्लोकों की संख्या 17, 415 है। राजनीति प्रकाश में राजशास्त्र के सभी विषयों का वर्णन है। इसके वर्ण्य विषय हैं-राजशब्दार्थ-विचार, राजप्रशंसा, राज्याभिषेक- विहितकाल, राज्याभिषेक- निषिद्धकाल, राज्याधिकारनिर्णय, राज्याभिषेक, राज्याभिषेककृत्य, प्रतिमास, प्रतिसंवत्सराभिषेक, राजगुण, विहित राजधर्म, प्रतिषिद्ध राजधर्म, अनुजीविवृत्त, दुर्ग-लक्षण, दुर्गगृह-निर्माण, राष्ट्र, कोष, दंड, मित्र, षाड्गुण्यनीति, युद्ध, युद्धोपरांत व्यवस्था, देवयात्रा, इंद्रध्वजोछराय-विधि, नीराजशांति, देवपूजा, आदि। मित्रमिश्र का प्रस्तुत ग्रंथ याज्ञवल्क्यस्मृति पर लिखित विशालकाय टीका है। चौखम्बा सीरीज द्वारा मुद्रित । वीरराघवम् (व्यायोग) - ले.- प्रधान वेंकण। ई. 18 वीं शती। श्रीरामपुरी में राम-महोत्सव के अवसर पर अभिनीत । आरम्भ में मिश्र विष्कम्भक जो व्यायोग में वर्जित है। नाट्योचित, सरल भाषा, संगीतमयी शैली। प्रधानरस-वीर। कथा- प्रभुरामचंद्र द्वारा विराध,खर, दूषण, त्रिशिरा राक्षसों के वध । वीरराघवस्तुति - ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय। आंध्रवासी। वीरलब्ध पारितोषिकम् - ले.- आर. राममूर्ति । चोलवंश के । इतिहास पर आधारित उपन्यास । वीरसाधनाविधि - ले.- नृसिंह ठक्कुर। श्लोक- 148। वीरसिंहावलोक - ले.- वीरसिंह तोमर। पिता-देवशर्मा। ग्वालियर के तोमर वंश के संस्थापक । धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र से संबंधित यह आयुर्वेद का ग्रंथ है। इसमें पूर्वजन्मकर्मपारिपाक, ग्रहस्थिति तथा त्रिदोष इन रोगोत्पत्ति के कारणों की चर्चा की है तथा तदनुसार ही पौराणिक मंत्र, तंत्र, उपवास, जप दानादि के तथा औषधियों के उपायों की चर्चा की है। अब तक इस के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। (1) गंगाविष्णु कृष्णदास के मुम्बई स्थित वेंकटेश्वर प्रेस से प्रथम बार वि.सं. 1939 में तथा संवत 1981 में दूसरी बार इस रचना का प्रकाशन हुआ है। वीरांजनेयशतकम् - ले.- श्रीशैल दीक्षित। ई. 19 वीं शती। (2) ले.- विट्ठलदेवुनि सुंदरशर्मा । हैदराबाद (आन्ध्र) के निवासी । वृक्षायुर्वेद - ले.- सुरेश्वर (या सुरपाल) ई. 11 वीं शती। मद्रास के श्री. के. व्ही. रामस्वामी शास्त्री एण्ड सन्स द्वारा तेलगु अनुवाद सहित इर. का प्रकाशन हुआ है। इसके हिन्दी, मराठी और अग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हुए हैं। मराठी अनुवाद का नाम है 'उपवनविनोद' और हिन्दी अनुवाद का नाम है 'उपवनरहस्य'। वृतकल्पदुम - ले.-जयगोविंद । वृत्तकारिका - ले.- नारायण पुरोहित । वृत्तकौतुकम् - ले.- विश्वनाथ ।। वृत्तकौमुदी - ले.- जगद्गुरु। (2) रामचरण । वृत्तचन्द्रिका - ले.- रामदयालु । वृत्तचन्द्रोदय - ले.- भास्कराध्वरी। वृत्तचिन्तारत्नम् - ले.- शान्ताराम पंडित । वृत्तदर्पण - ले.- भीष्मचन्द्र। (2) ले- सीताराम । वृत्त-दशकुमार- चरितम् - ले.- सोमनाथ वाडीकर। इस रचना का प्रकाशन स्वयं कवि ने ने,इ.स. 1938 में मास्टर प्रिटींग वर्क्स, वाराणसी से किया था। कवि मूलतः महाराष्ट्र के वाडीगाव के निवासी थे। उपजीविका के निमित्त ग्वालियर के निवासी हुए। कवि ने छात्रों के लिये उक्त रचना की है। दण्डी के दशकुमारचरितम् का यह एक अत्यंत सफल पद्यात्मक रूपान्तर है। इस रचना में पूर्वपीठिका तथा उत्तरपीठिका मिलकर 982 पद्य है। सप्तम उच्छ्वास के सभी पद्य, मूल रचना के अनुसार निरोष्ठ्य वर्गों में ही किये है। यह इस रचना की विशेषता है। वृत्तदीपिका - ले.- कृष्ण। वृत्तधुमणि- ले.- यशवन्त। (2) ले.- गंगाधर । वृत्तप्रत्यय • ले.- शंकरदयालु। वृत्तप्रदीप - ले.- जनार्दन। (2) ले.- बदरीनाथ । वृत्तमंजरी - ले.- वसन्त त्र्यंबक शेवडे। नागपूर निवासी । वृत्तलक्षणों के उदाहरण में भगवती स्तोत्र की रचना की है। वृत्तमणिकोश - ले.- श्रीनिवास। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 347 For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृत्तमणिमालिका - ले.- श्रीनिवास । वृत्तमाला - ले.- कवि कर्णपूर। ई. 16 वीं शती। (2) ले.- रामचंद्र कविभारती। ई. 15 वीं शती। (3) ले.विरूपाक्षयज्चा। (4) ले.- वल्लभजी। वृत्तमुक्तावली - ले,- गंगादास (छंदोमंजरीकार से भिन्न) (2) ले. हरिशंकर। वृत्तमौक्तिकम् - ले.- चन्द्रशेखर भट्ट। ई. 16 वीं शती। वृत्तरत्नप्रदीपिका - ले.- वात्स्य वेदान्तदास। विषय- द्वादशी को उपवास तोड़ने का उचित काल। वृत्तरत्नाकर - ले.- रामवर्म महाराज। त्रावणकोर नरेश। (2) ले.- केदारभट्ट। ई. 11 वीं शती। रचना छह अध्यायों में पूर्ण। मल्लिनाथ शिवशर्मा आदि टीकाकारोंने इसी वृत्तरन्ताकर के अवसरण उद्धृत किये है। इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ निर्दिष्ट हैटीकाकार :- (1) पण्डित चिन्तामणि (2) रामेश्वरसुत नारायण (3) श्रीनाथ (4) हरिभास्कर (5) जनार्दनविबुध (6) महादेवसुत दिवाकर (7) अयोध्याप्रसाद (8) आत्माराम (9) कृष्णवर्मा (10) गोविन्दभट्ट (11) चूडामणि दीक्षित (12) नरसिंहसूरि (13) रघुनाथ (14) विश्वनाथ कवि (15) श्रीकण्ठ (16) सोमसुन्दरगणी (17) भास्कर (18) सोमपण्डित (19) सारस्वत सदाशिव मुनि, (20) सोमचन्द्र गणी (21) कविशार्दूल (22) रघुसूरि का पुत्र त्रिविक्रम (23) नारायणभट्ट (24) नृसिंह, (25) कृष्णसार (26) तारानाथ (27) भास्करराय (28) प्रभावल्लभ, (29) देवराज (30) इत्यादि। भास्कर के अभिनव वृत्तरत्नाकर पर श्रीनिवास की टीका है। रघुसूरिपुत्र त्रिविक्रम ने वृत्तरत्नाकरसूत्र की टीका लिखी है। वृत्तरत्नाकरपंजिका - ले.- रामचंद्र कविभारती। यह केदारभट्ट प्रणीत "वृत्तरत्नाकर" पर भाष्य है। ई. 15 वीं शती। वृत्तरत्नार्णव - ले.- नृसिंह भागवत । वृत्तरत्नावली - ले.- चिरंजीव शर्मा (ई. 18 वीं शती) ढाक्का के दीवान यशवन्तसिंह की प्रशस्तिपर श्लोकों का उदाहरणों के रूप में प्रयोग। (2) ले.-रामदेव। रायपुर (बंगाल) के निवासी। ई. 18 वीं शती । वृत्तों के उदाहरणों में आश्रयदाता यशवन्तसिंह की स्तुति है। (3) ले.- दुर्गादत्त (4) नारायण (5) रविकर (6) रामदेव। (7) वेंकटेश, पिता अवधानसरस्वती (8) रामस्वामी शास्त्री (9) कृष्णाराम (10) मल्लारि (11) दुर्गादास (12) गंगादास (13) हरिव्यास मिश्र (ई. 16 वीं शती)। (14) यशवंतसिंह (15) सदाशिव मुनि (16) कालिदास (17) कृष्णराज (18) मिश्र सामन्त। वृत्तरागास्पदम् - ले.- क्षेमकरण मिश्र। विषय- वृत्त और रागों के संबंध का प्रतिपादन। वृत्तवार्तिकम् - ले.- रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। (2) ले.- उमापति। (3) ले.- वैद्यनाथ। वृत्तविनोद - ले.- फत्तेहगिरि । वृत्तविवेचनम् - ले.- दुर्गासहाय । वृत्तसंग्रह- ले.- महेश्वर। पिता- मनोरथ। ई. 12 वीं शती। ग्याहर प्रकारणों में यागविधि, नक्षत्रविधि, राजाभिषेक, यात्रा, गोचरविधि संक्रांति, देवप्रतिष्ठा आदि विषयों का ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से विवेचन किया है। वृत्तशंसिच्छत्रम् (रूपक) - ले.-लीला राव दयाल । कथासार12 वर्ष की मीरा का 28 वर्षीय पति अपनी 26 वर्षीय सास पर मोहित होता है। सास के फटकारने पर गांव छोड देता है। घूमते घूमते रेलदुर्घटना से स्मृति खो बैठता है और फलमूल खाकर "त्यागीबाबा' के नाम से विख्यात होता है। एक दिन रामी नामक विधवा को डूबने से बचाता है और उस पर लुब्ध होता है। वह वास्तव में विधवा नहीं, अपि तु उसकी पत्नी ही है। उसके साथ विवाह का प्रस्ताव लेकर त्यागीबाबा उसके घर आते है। वस्तुतः रामी मीरा ही है। मीरा की मां उसे पहचानकर दोनो का पुनर्मिलन करा देती है। वृत्तसार - ले.- भारद्वाज। वृत्तसिद्धान्तमंजरी - ले.- रघुनाथ । वृत्तसुधोदय - ले.-मथुरानाथ शुक्ल। (2) वेणीविलास । वृत्रवधम् - ले.- कृष्णप्रसाद शर्मा धिमिरे । काठमांडु (नेपाल) के निवासी। आप कविरत्न एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों से विभूिषित है। आपकी 12 रचनाएं प्रकाशित हुई है। वृत्ताभिरामम् - ले.- रामचंद्र । वृत्ति - ले.- रामचरण। तर्कवागीश। ई. 18 वीं शती। यह साहित्यदर्पण पर टीका है। वृत्तिप्रदीप - ले.- रामदेव मिश्र । यह काशिका की व्याख्या है। वृत्तवार्तिकम् - ले.- अप्पय दीक्षित। ई. 16 वीं शती। पिता- नारायण दीक्षित। विषय- साहित्य-विषयक विवेचन । वृद्धगौतमतंत्रम् - श्लोक- 1400। वृद्धगौतमसंहिता - ले.- जीवानन्द।। वृद्धन्यास - ले.- राममुकुट। ई. 14 वीं शती । वृद्धपाराशरी संहिता - ले.- 12 अध्यायों में पूर्ण। वृद्धशातातपस्मृति - आनन्दाश्रम द्वारा मुद्रित । वृद्धहारीतिस्मृति - जीवानन्द एवं आनंदाश्रम द्वारा मुद्रित। वृद्धात्रिस्मृति - जीवानन्द द्वारा मुद्रित । वृद्धिश्राद्धदीपिका - ले.- अनन्तदेव। उद्धव द्विवेदी के पुत्र । वाराणसी वासी। वृद्धिश्राद्धपद्धति - ले.- अनन्तदेव। उद्धवद्विवेदी के पुत्र । 348/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ले. माध्यन्दिनीय ले अनन्तदेव वृद्धिश्राद्धप्रयोग ले. नारायणभट्ट (प्रयोगरत्न का एक अंश) । वृद्धिश्राद्धविधि - ले.- करुणाशंकर । वृद्धिश्राद्धविनिर्णय उद्धव के पुत्र । वृन्दावनपद्धति बल्लभाचार्य सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए। वृन्दावनमंजरी - ले. मानसिंह । विषय कृष्णकथा । वृन्दावनमहिमामृतम् - ले. प्रबोधानन्दसरस्वती । ई. 16 वीं शती । कृष्णचरितपर काव्य । - ले. मानांक ई. 10 वीं शती। यह - वृन्दावनयमकम् चित्रकाव्य है। - · वृन्दावनविनोदम् ले रुद्रा न्यायवाचस्पति । ई. 16 वीं शती 2) ले जयराम न्यायपंचानन । वृषभदेव चरितम् ले पं. शिवदत्त त्रिपाठी। वृषाभानुचरितम् ले. सकलकीर्ति जैन मुनि का चरित्र । वृषोत्सर्गकौमुदी - ले. रामकृष्ण। L वृषोत्सर्गपद्धति - ले. नारायण। रामेश्वर के पुत्र । ई. 16 वीं शती । वृषोत्सर्गप्रयोग (या नीलवृषोत्सर्गप्रयोग ) - ले. अनन्तभट्ट । नागदेव के पुत्र । वृषोत्सर्गप्रयोग (वाचस्पतिसंग्रह) यजुर्वेद के अनुयायियों के लिए। - - - www.kobatirth.org वृषोत्सर्गविधि - ले. मधुसूदन गोस्वामी । वृषोत्सर्गादिपद्धति कात्यायनकृत 307 श्लोकों में पूर्ण वेंकटेश (प्रहसन) ले वेंकटेश्वर ई. अठारहवी शती । वेंकटेशचम्पू ले. धर्मराज कवि ई. 17 वीं शती। इस चंपू काव्य में तिरुपति क्षेत्र के देवता वेंकटेश की कथा वर्णित है। प्रारंभ में मंगलाचरण, सज्जनप्रशंसा तथा खलनिंदा है इसके गद्य भाग में "कांदबरी" एवं "दशकुमारचरित" की भांति रचना सौंदर्य परिलक्षित होता है। 1 - वेंकटेशचरितम् - ले. घनश्याम । ई. 16 वीं शती । विषयतिरुपति के वेंकटेशवर की कथा । - - वेंकटेश्वरपत्रिका ले. मद्रास से इसका प्रकाशन होता था। वेंकटगिरिमाहात्म्यम् ले देवदास । विषय- वेंकटगिरि के निवास का माहात्म्य । वेगराजसंहिता ले. वेगराज। सन् 1503 में रचित । वेणी विषय - यात्रा के पूर्व वरुणपूजा की विधि । वेणीसंहार एक प्रसिद्ध नाटक । ले भट्टनारायण। इनका दूसरा नाम निशानारायण और उपाधि "मृगराजलक्ष्म" थी । "वेणीसंहार" में महाभारत में युद्ध को वर्ण्य विषय बनाकर उसे नाटक का रूप दिया गया है। इसमें कवि ने मुख्यतः द्रौपदी की प्रतिज्ञा को महत्त्व दिया है। जिसके अनुसार उसने - दुर्योधन के रुधिर से अपनी वेणी के केश बांधने का निश्चय किया था। अंत में गदायुद्ध में भीमसेन दुर्योधन को मार कर उसके रक्त से रंजित अपने हाथों से द्रौपदी की वेणी का संहार ( गूंथना) करता है। इसी कथानक की प्रधानता के कारण इस नाटक का नाम "वेणीसंहार" है 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 कथासार - इस नाटक के प्रथम अंक में भीम - युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन को संधि प्रस्ताव भेजे जाने से बहुत नाराज होते है भानुमतीकृत द्रौपदी के अपमान से उनका क्रोध उद्दीप्त होता है, किन्तु युधिष्ठिर द्वारा युद्ध की घोषणा कर देने पर भीम प्रसन्न होकर युद्ध करने जाते है। द्वितीय अंक में दुर्योधन और भानुमती का प्रणयालाप है। अर्जुन की जयद्रथवध संबंधी प्रतिज्ञा सुन दुर्योधन जयद्रथ की माता और पत्नी दुःशला को आश्वस्त करता है. तृतीय अंक में द्रोणवध होने से अश्वत्थामा विलाप करने लगता है। सेनापति पद के लिए अश्वत्थामा और कर्ण का विवाद होता है, जिसके कारण अश्वत्थामा शस्त्रत्याग करता है। चतुर्थ अंक में सुन्दरक द्वारा दुर्योधन के सामने कर्ण के पुत्र की वीरता और कर्ण के अंतिम संदेश का वर्णन है। पंचम अंक में धृतराष्ट्र और गांधारी पुत्रशोक से व्याकुल होकर दुर्योधन को युद्ध समाप्त करने को कहते है, पर दुर्योधन अपने निश्चय पर दृढ रहता है। षष्ठ अंक में भीम और दुर्योधन के गदायुद्ध का वर्णन है। कृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर के राज्याभिषेक की तैयारियाँ की जाती है। किन्तु चार्वाक के द्वारा भीम के - - For Private and Personal Use Only - मारे जाने की मिथ्या सूचना पाकर युधिष्ठिर और द्रौपदी अग्निप्रवेश के लिए उद्यत होते है। तभी भीम दुर्योधन को मार कर उसके रक्त से लथपथ होकर द्रौपदी के केश बांधने के लिए आते है, किन्तु युधिष्ठिर उसे दुर्योधन मानते है । तब भीम उन्हें वस्तुस्थिति का ज्ञान करा कर द्रौपदी की वेणी बांधते है । वेणीसंहार में कुल 19 अर्थोपक्षेपक है। जिनमें विष्कम्भक, 1 प्रवेशक 17 चूलिकाएं और 1 अंकास्य है। पात्र व चरित्रचित्रण :- कवि ने पात्रों के शील निरूपण में अपूर्व सफलता प्राप्त की है। यद्यपि महाभारत से कथावस्तु लेने के कारण कवि पात्रों के चरित्र चित्रण में पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे, फिर भी उन्होंने यथासंभव उन्हें प्राणवंत व वैविध्यपूर्ण चित्रित किया है। प्रस्तुत नाटक के प्रमुख पात्र है- भीम, दुर्योधन, युधिष्ठिर, कृष्ण, अश्वत्थामा, कर्ण व धृतराष्ट्र । नारी पात्रों में द्रौपदी, भानुमती एवं गांधारी प्रमुख है प्रस्तुत नाटक में वीर रस प्रधान है। इसके प्रथम अंक में ही वीर रस की जो अजस्र धारा प्रवाहित होती है, वह अप्रतिहत गति से अंत तक चलती है। बीच बीच में श्रृंगार, करुण, रौद्र, बीभत्स आदि रसों का भी समावेश किया गया है । कतिपय विद्वान् इस नाटक को दुःखांत मानते हुए, इसमें करुण रस का ही प्राधान्य मानते है । किन्तु संपूर्ण नाटक में संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 349 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीर रस की ही प्रधानता स्पष्ट है, तथा अन्य रस उसके सहाय्यक के रूप में प्रयुक्त हुए है। इस नाटक का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन, चौखंबा प्रकाशन ने किया है। इस पर ए.बी. गजेंद्रगडकर ने अंग्रेजी में "वेणीसंहार" क्रिटिकल स्टडी' नामक विद्वतापूर्ण शोधनिबंध लिखा है। नाट्य कला की दृष्टि से कुछ आलोचकों ने इस नाटक को दोषपूर्ण माना है, किन्तु इसका कलापक्ष या काव्यतत्त्व सशक्त है। इस नाटक में भट्टनारायण एक उच्च कोटी के कवि के रूप में दिखाई पडते है। इनकी शैली भी नाटक के अनुरुप न होकर काव्य के अनुकूल है। उसपर कालिदास, माघ व बाण का प्रभाव है। "वेणीसंहार" में वीररस का प्राधान्य होने के कारण, कविने तद्नुरूप गौडी रीति का आश्रय लिया है और लंबे-लंबे समास तथा गंभीर ध्वनि वाले शब्द प्रयुक्त किये है। अलंकारों के प्रयोग में कवि पर्याप्त सचेत रहे है। उन्होंने 18 प्रकार के छंदों का प्रयोग कर अपनी विदग्धता प्रदर्शित की है। इस नाटक में शौरसेनी व मागधी दो प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग किया है। वेणीसंहार के टीकाकार . १) जगद्धर 2) जगन्मोहन तर्कालंकार 3) तर्कवाचस्पति 4) सी.आर.तिवारी 5) घनश्याम 6) लक्ष्मणसूरि। अनन्ताचार्य द्वारा लिखित नाट्यकथा संक्षिप्त गद्य) नाटक लेखन के बाद शीघ्र ही जावा द्वीप को पहंच गया था ऐसा उल्लेख सिल्वाँ लेवी ने अपने 'इन्ट्रोडक्शन टू संस्कृत टेक्सटस् फ्राम बाली' की प्रस्तावना में किया है। भाष्य का संक्षेप है। वेदवृत्ति - ले.-धर्मपाल। ई. 7 वीं शती । वेदव्यासस्मृति - आनंदाश्रम पुणे द्वारा मुद्रित । वेदांगज्योतिष - ले.-लगधाचार्य। भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ। भाषा वा शैली के परीक्षण के आधार पर, विद्वानों ने इसका रचनाकाल ई. पू. 500 माना है। इसके दो पाठ प्राप्त होते है। "ऋग्वेद-ज्योतिष" व "यजुर्वेद-ज्योतिष" प्रथम में 36 श्लोक है और द्वितीय में 44। दोनों के श्लोक अधिकांश मिलते जुलते है, पर उमके क्रम में भिन्नता दिखाई देती है। प्रस्तुत ग्रंथ में पंचांग बनाने के आरंभिक नियमों का वर्णन है। इसमें महिनों का क्रम चंद्रमा के अनुसार है और एक मास को 30 भागों में विभक्त कर, प्रत्येक भाग को तिथि कहा गया है। इसके प्रणेता का पता नही चलता, पर ग्रंथ के अनुसार किसी लगध नामक विद्वान् से ज्ञान प्राप्त कर इसके कर्ता ने ग्रंथ प्रणयन किया था। ग्रंथारंभ में श्लोक (1-2)। इसमें वर्णित विषयों की सूचि दी गयी है। वेदान्तकल्पतरु - ले.-अमलानंद। ई. 13 वीं शती। वेदान्तकल्पतरुमंजरी - ले. वैद्यनाथ पायगुंडे । ई. 18 वीं शती। वेदान्तकल्पललिका - ले. मधुसूदन सरस्वती। कोटलापाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती । वेदान्तकौस्तुभ - ले.- श्रीनिवासाचार्य। आचार्य निंबार्क के शिष्य। यह ब्रह्मसूत्र की व्याख्या है। __ 2) ले.- बेल्लकोण्ड रामराय। आन्ध्रनिवासी। वेदान्ततत्त्वविवेक - ले.-नृसिंहाश्रम। ई. 16 वीं शती। वेदान्तदीप - ले.- रामानुजाचार्य (ई. 1017-1137) कृत ब्रह्मसूत्र की विस्तृत व्याख्या। वेदान्तदेशिकम् (नाटक) - ले.-श्रीशैल ताताचार्य। वेदांतपरिभाषा - ले.-धर्मराजाध्वरीन्द्र । वेदांत विषयक सिद्धान्तों को समझने की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी माना जाता है। वेदांतपारिजात -सौरभ (वेदांतभाष्य) - ले.-निंबार्काचार्य । ब्रह्मसूत्र पर स्वल्पकाय वृत्ति। इसमें किसी अन्य मत का खंडन नही है। केवल द्वैताद्वैत सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य का यह रूप, इसकी प्राचीनता का द्योतक है। यह संप्रदाय स्वभावतः मंडनप्राय होने के कारण किसी से शास्त्रार्थ में नहीं उलझता। वेदांतरत्नमंजूषा - ले.-पुरुषोत्तम। आचार्य निंबार्क से 7 वीं पीढी में पैदा हुये आचार्य। यह निंबार्काचार्य कृत दशश्लोकी का बृहद्भाष्य है। वेदांतविद्वद्वगोष्ठी - संपादक- सच्चिदानन्द सरस्वती । होलेनरसीपुर (कर्नाटक) के अध्यात्मप्रकाश कार्यालय द्वारा शंकरवेदान्त के वेताल-पंचविशति - ले.- शिवदास। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् हर्टेल के अनुसार, इस कथासंग्रह की रचना 1487 ई. के पूर्व हुई थी। इसका प्राचीनतम हस्तलेख इसी समय का प्राप्त होता है। जर्मन विद्वान् हाइनरिश ने 1884 ई. में. लाइपजिग् से इसका प्रकाशन कराया था। डॉ. कीथ के अनुसार शिवदासकृत संस्करण 12 वीं शती के पूर्व का नहीं है। इसका द्वितीय संस्करण जंभलदास कृत है। तथा इसमें पद्यात्मक नीति वचनों का अभाव है। शिवदास कृत संस्करण के क्षेमेंद्र-रचित "बृहत्कथामंजरी" के भी पद्य प्राप्त होते है। इसका हिंदी अनुवाद पं. दामोदर झा ने किया है, जो मूल कथासंग्रह के साथ चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित है। पचीस रोचक कथाओं के इस संग्रह में गद्य की प्रधानता है। बीच बीच में श्लोक भी दीये गये है। वेदनिवेदनस्तोत्रम् - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। सटीक प्रकाशित । ई. 20 वीं शती।। वेदपारायण विधि- महार्णव से गृहीत। श्लोक- 301 वेदभाष्यम् - स्वामी दयानन्द सरस्वती। आर्य समाज के संस्थापक । वेदभाष्यसार - ले.-भट्टोजी दीक्षित। प्रथम अध्याय में सायण 350 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय में एक विद्वत्सभा का आयोजन 1960 में हुआ था। वैकुण्ठविजय चम्पू - ले.-राघवाचार्य । श्रीनिवासाचार्य के पुत्र । इस विद्वत्सभा में दक्षिण भारत के ख्यातिप्राप्त 11 विद्वानों ने विषय- अनेक तीर्थक्षेत्रों तथा मन्दिरों का वर्णन । शंकरवेदान्त से संबंधित विविध विषयों पर पढे हुए संस्कृत वैकुण्ठविजयम् (नाटक) - ले.-अमरमाणिक्य। ई. 16 वीं निबंधों का चयन ग्रंथ रूप में किया गया। 1962 में प्रस्तुत शती। विषय- उषा-अनिरुद्ध की प्रणयकथा। निबंधसंग्रह प्रकाशित हुआ। अध्यात्म-प्रकाश कार्यालय द्वारा वैखानसगृह्यसूत्रम् यह सूत्र कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा मूलाविद्यानिरास (अथवा शंकरहृदयम्) इत्यादि वेदान्तविषयक का है। विवाहादि संस्कार एवं पाकयज्ञ की जानकारी दी गई है। विविध ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है। वैखानसतन्त्रम् - ले.-मरीचि। पटल- 50। वेदांतविलासम् (नाटक) ( या यतिराजविजयम्) - वैखानसधर्मप्रश्न - ले.-महादेव। अपने सत्याषाढ श्रौतसूत्र पर ले.-वरदाचार्य। ई. 17 वीं शती। प्रथम अभिनय श्रीरंगपटनम लिखे गये वैजयंती नामक भाष्य में कृष्ण-यजुर्वेद के छह में विष्णु की चैत्रोत्सव यात्रा में। छ: अंकों का नाटक, जिसमें श्रौतसूत्रों का उल्लेख कर, उसे वैखानस कहा है। प्रस्तुत ग्रंथ रामानुज की जीवनी का चित्रण है। में तीन तीन प्रश्नों के तीन भाग है। प्रत्येक के खंड है।कुल कुल पात्रसंख्या- 38, जिसमें 15 पात्र प्रतीकात्मक है। 41 खंड है। विषय -चार वर्ण, उनके अधिकार, चार आश्रम, नायक "वेदान्त उनके, नारद, भरत आदि प्रमुख पात्र शंकर, ब्रह्मचारी के चार प्रकार, कर्तव्य, वानप्रस्थ, भिक्षु, योगी, संध्या, भास्कर, यादव चार्वाक आदि अन्य चरित्र नायक। मानव पात्र अभिवादन, आचमन, अनध्याय, ब्रह्मयज्ञ,अन्नग्रहण के नियम, तथा प्रतीक पात्रों का रंगमंच पर वार्तालाप। साम्प्रदायिक दृष्टि से प्रेतसंस्कार आदि की चर्चा । महत्त्वपूर्ण चार्वाक, बौद्ध, जैन, पाशुपत, मायावादी, भास्करीय, वैखानसधर्मसूत्रम् - यह कृष्ण-यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा यादवीय, द्वैती आदि सम्प्रदायों की प्रमुख मान्यताओं की झलक । से सम्बद्ध है। इसमें वर्णाश्रम के कर्तव्यों का प्रमुखतः वर्णन कथासार- राजा मायावाद से प्रभावित होकर, नायक वेदान्त है। आश्रमों का वर्गीकरण परिपूर्ण है। मिश्रजाति की सूचि अपनी पत्नी सुमति का तिरस्कार करके, भ्रष्टाचारी मिथ्यादृष्टि भी है जो अन्यन्त्र नहीं मिलती। धर्मनियम मनुस्मृति के अनुसार से विवाह करता है। बौद्ध और चार्वाक उसे प्रोत्साहित करते है। जब यतिराज के ज्ञानप्रकाश से नायक को पश्चाताप होता वैखानसमन्त्रप्रश्न- इस पर नसिंह वाजपेयी (पिता- माधवाचार्य) है, तब परित्यक्ता सुमति को वह पुनः आदरणीय स्थान देता। की टीका है। है। सन 1956 ई.में तिरुपति देवस्थान द्वारा प्रकाशित । वैखानसशाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - यह सौत्र शाखा ही वेदांतशतकम् - ले.-नीलकण्ठ चतुर्धर । पिता गोविंद। माता- है। इस का कल्प उपलब्ध है। फुल्लांबिका। ई. 17वीं शती। वैखानस श्रौतसूत्रम् - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का वेदान्तसार - ले.- यामुनाचार्य (आलंवदार) ब्रह्मसूत्र की एक सूत्र । बोधायन, आपस्तंब सत्याषाढ के बाद इसका उल्लेख लघ्वक्षरा टीका। आता है । दशपूर्ण मास, सोमयाग आदि की जानकारी दी गई है। वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली - ले.-प्रकाशानंद । ई. 15 वीं शती। वैखानससूत्रदर्पण - ले.-नृसिंह । माधवाचार्य वाजपेययाजी के वेदान्तसिद्धान्तसूक्तिमंजरी - ले.-गंगाधरेन्द्र सरस्वती। पुत्र । वैखानसगृह्य के अनुसार घरेलू कृत्यों पर एक लघुपुस्तिका । वेदांतसंग्रह - ले.-रामानुजाचार्य। ई. 1017-1137। शंकर मत इल्लौर में सन 1915 में मुद्रित।। तथा भेदाभेदवादी भास्कर मत का खंडन करनेवाला सशक्त वैखानससूत्रानुक्रमणिका - ले.-वेंकटयोगी। कोण्डपाचार्य के ग्रंथ। रामानुजाचार्य के जिन प्रसिद्ध ग्रंथों पर श्रीवैष्णव संप्रदाय पुत्र। के सिद्धान्त आधारित है, उनमें यह एक प्रमुख ग्रंथ है। वैखानसागम - ले.-भृगु द्वारा प्रोक्त यह ग्रंथ चार अधिकारों वैरणाविति पाणिनीयसूत्रस्य व्याख्यानम् - ले.-शिवरामेन्द्र में विभाजित है। (क) यज्ञाधिकार। श्लोक 2400। अध्याय सरस्वती। 49 में पूर्ण। विषय- भगवान् विष्णु के यज्ञ, पूजन आदि का वेष्टनव्यायोग - ले.-वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य। आधुनिक दैनंदिन विशद रूप से प्रतिपादन (ख) क्रियाधिकार। श्लोक 3690 । जीवन का चित्रण। नायक कल्कि भगवान, जिनका आयुध है अध्याय- 35। विषय- भगवान् की प्रतिमा प्रतिष्ठा तथा पूजा "वेष्टन' अर्थात् (घेराव)। कथासार - संजय के नेतृत्व में की विधि। (ग) यज्ञाधिकार, नित्याग्निकार्य विशेष। श्लोक पाच श्रमिक शिल्पाध्यक्ष तथा श्रमाध्यक्ष के पास अपनी मांगे 6280। अध्याय- 48। (घ) अर्चनाधिकार। श्लोक- 2360 । लेकर आते है और उन्हें घेराव करते है। अन्त में श्रमिकों अध्याय 381 की विजय होती है और नेता के रूप में कल्कि भगवान् वैजयंती - महादेवभट्ट। हिरण्यकेशि श्रौतसूत्र की टीका। प्रवेश कर सब का अभिनन्दन करते है। वैजयन्ती - ले. नन्दपण्डित। विष्णुधर्मसूत्र की टीका। सन संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/351 For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1623 में लिखित | वैजयन्ती - ले. - व्यंकटेश बापूजी केतकर विषय- गणितशास्त्र । 1 वैजयन्ती - सन 1953 में बागलकोट से पंढरीनाथाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसके संचालक थे गलगली रामाचार्य। यह प्रति मंगलवार को प्रकाशित होती भी इसका वार्षिक मूल्य पाच रु. था। इस पत्रिका में महाभारत की कथाओं का गद्य रूप, अर्वाचीन संस्कृत पुस्तकों की समालोचना और बालकों के लिये सामग्री भी प्रकाशित की जाती थी। धनाभाव के कारण कुछ समय के पश्चात् इस पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हो गया । वैतरणीदानम् - विषय वैतरणी पार करने के लिए काली गाय का दान | बैतानश्रौतसूत्रम् अथर्ववेद से संबंधित श्रीतसूत्र इसमें दर्शपूर्णमासादि इष्टि के चार ऋत्विजों के कर्तव्य दिये गये है। वैदर्भीवासुदेवम् (नाटक) मृत्यु- 1905 ई. सन 1888 में। तिन्नेवेल्ली जनपद, कैलासपुर से प्रकाशित। अंकसंख्या पांच शृंगार, वीर तथा हास्य रस का सामजस्य । अभिनयोचित सुबोध संवाद। उन्नसवीं शती के भारतीय समाज के संबंध में महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सूचनाएं । विषयकृष्ण-रुक्मिणी के विवाह की कथा । वैदिकतांत्रिकाधिकारनिर्णयले. भडोपनामक दक्षिणाचारमतप्रवर्तक काशिनाथ । विषय- उपासकों की रुचि के अनुसार उनके वैदिक, तान्त्रिक, वैदिकतान्त्रिक, तान्त्रिकवैदिक आदि विभिन्न भेद दिखलाये गये है । www.kobatirth.org वैदिक धर्मवर्धिनी सन 1947 में श्रियाली (मद्रास) से सोमदेव शर्मा के संपादकत्व में संस्कृत और तामिल भाषा में इस पत्रिका आरंभ हुआ। इसी प्रकार 1960 में मद्रास से बालसुब्रह्मण्यम के संपादकत्व में "श्रीकामकोटिप्रदीप" और 1956 में कोयम्बतूर से के. व्ही. नरसिंहाचार्य के सम्पादकत्व में "आनन्दकल्पतरुः नामक द्विभाषी पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। वैदिकमनोहरा सन 1950 में कांचीवरम् से पी.बी. अण्णंगराचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। वह वैष्णवों की पत्रिका है। इसमें रामानुजीय दर्शन संबंधी लेख प्रकाशित होते है। इसके कुछ अंकों में द्रविड तथा हिंदी भाषा में रचनाएं भी प्रकाशित की गयी है। वैदिकवैष्णव सदाचार ले. - हरिकृष्ण । इसमें आगे व्रजनाथ ने सुधार किया। - - - वैदिकसर्वस्वम् ले कृष्णानन्द श्लोक 1000 1 वैदिकाचारनिर्णय सच्चिदानन्द । वैद्यकशब्दसिन्ध कवि काशिनाथ ई. 19-20 वीं शती वैद्यकशब्दसिन्ध्य ले. उमेश गुप्त ई. 19 वीं शती 352 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड वैद्य भाकरोदय ले. - सुन्दरराज । जन्म - 1841, आयुर्वेदिक शब्दावली का कोश वैद्यकसारोद्धारले. हर्षकीर्ति ई. 17 वीं शती । वैद्यचिंतामणि ले. धन्वंतरि । 1 वैद्यकशास्त्रम् ले. देवानन्द पूज्यपाद जैनाचार्य ई. 5-6 वीं शती। माता- श्रीदेवी पिता माधवभट्ट । वैद्यजीवनम् ले लोलिंबराज ई. 17 वीं शती आयुर्वेद शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ इस ग्रंथ की रचना, सरस और मनोहर ललित शैली में हुई है। और रोग तथा औषधि का वर्णन, ग्रंथकार ने अपनी प्रिया के संबोधित करते हुए किया है। इसका हिन्दी अनुवाद (अभिनव सुधा-हिंदी टीका) कालीचरण शास्त्री ने किया है। वैद्यहम् ले. सुरेन्द्रमोहन बालचित लघुनाटक किसी अंध वृद्धा ने नेत्रों की चिकित्सा के बहाने उसकी वस्तुएं चुरानेवाले वैद्य की कथा "मंजूषा" में प्रकाशित । ले. धन्वंतरि । वैद्यमहोत्सव - ले. श्रीधर मिश्र । वैद्यवल्लभ ले. श्रीकान्त दास । - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वैजवाप यजुर्वेद की लुप्त शाखा इस शाखा की संहिता या ब्राह्मण दोनों उपलब्ध नहीं। वैजवाप श्रौतसूत्र के कई उद्धरण इधरउधर मिलते है। वैजबाप-: - गृह्यसूत्र प्रकाशित है। यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । वैधेय वैनतेय यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा । वैनायक - संहिता - महेश्वर भार्गव संवादरूप । श्लोक 220 | विषय- हरिद्रागणपति प्रयोग तत्सम्बन्धी मन्त्र तथा मन्त्रों के निर्माण का प्रकार यह सम्पूर्ण ग्रंथ 8 पटलों में विभक्त है। वैभाष्यम् - ले. स्थिरमति । ई. 4 थी शती । वैयाकरणसिद्धान्तकारिका ले-भट्टोजी दीक्षित । व्याकरण शास्त्रीय महत्त्वपूर्ण ग्रंथ । लेखक के भतीजे (रंगोजी भट्टके पुत्र) कोण्डभट्ट द्वारा ग्रंथ वैयाकरणभूषणम् तथा वैयाकरण भूषणसार नामक टीकाये लिखी गयी है। वैयाकरणभूषणम् की क्लिष्टता दूर करनेवाली शंकरशास्त्री मारुलकर द्वारा शांकरी टीका लिखी हुई है। For Private and Personal Use Only वैयाकरणसिद्धान्तमंजरी - ले. नागोजी भट्ट। पिता शिवभट्ट | माता सती ई. 18 वीं शती। वैयासिकन्यायमाला ले. भारती कृष्णतीर्थ । ई. 14 वीं शती । इसमें ब्रह्मसूत्र के सभी अधिकरणों का सार है। प्रत्येक . अधिकरण का संक्षेप दो श्लोकों में है। प्रथम श्लोक में पूर्वपक्ष का प्रतिपादन तथा दुसरे में सिद्धान्त निरूपण है। वैराग्यनीति-शृंगारशतकम् ले. पं. तेजोभानु रावलपिण्डी के निवासी अभिनवभर्तहरि उपाधि तीन शतकों के लेखन निमित्त प्राप्त । 1 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वैराग्यशतकम् वीं शती । ले. नीलकण्ठ (अय्या दीक्षित ) ई. 17 2) ले. अप्पय दीक्षित । वैशेषिकशास्त्रीय पदार्थनिरूपणम् ले रुद्रराम। वैशेषिकसूत्राणि ले. कणाद, जो वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाते है। वैशेषिक दर्शन का यह मूल ग्रंथ है। यह 10 अध्यायों में है। इसमें कुल 370 सूत्र है। इसका प्रत्येक अध्याय दो आह्निकों में विभक्त है। इसके प्रथम अध्याय में द्रव्य, गुण व कर्म के लक्षण एवं विभाग वर्णित है। द्वितीय अध्याय में विभिन्न द्रव्यों व तृतीय में 9 द्रव्यों का विवेचन है । चतुर्थ अध्याय में परमाणुवाद का तथा पंचम में कर्म के स्वरूप व प्रकार का वर्णन है। षष्ठ अध्याय मे नैतिक समस्याएं व धर्माधर्म विचार है, तो सप्तम का विषय है गुण- विवेचन । अष्टम नवम व दशम अध्यायों में तर्क, अभाव, ज्ञान और सुख-दुःख विभेद का निरूपण है। वैशेषिक सूत्रों की रचना, न्यायसूत्रों से पूर्व हो चुकी थी इसकी रचनाका काल ई. पू. तीसरा शतक माना जाता है। वैशेषिक सूत्र पर सर्वाधिक प्राचीन भाष्य " रावणभाष्य" था, पर यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता और इसकी सूचना ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य की टीका "रत्नप्रभा" में प्राप्त होती है। भारद्वाज ने भी इस पर वृत्ति की रचना की थी, किंतु वह भी नहीं मिलती। "वैशेषिक सूत्र" का हिंदी भाष्य पं. श्रीराम शर्मा ने किया है। इस पर म.म. चंद्रकांत तर्कालंकार कृत अत्यंत उपयोगी भाष्य है, जिसमें सूत्रों की स्पष्ट व्याख्या है। वैशम्पायन धनुर्वेद मद्रास मैन्युस्किए लाईब्रेरी में सुरक्षित वैशम्पायनस्मृति मिताक्षरा एवं अपरार्क द्वारा उल्लिखित । वैषम्योद्धारणी लेकमा कविराज ई. 17 वीं शती । किरातार्जुनीयम् महाकाव्य की व्याख्या । वैष्णवकरणम् - ले. शंकर । विषय- ज्योतिष शास्त्र । वैष्णवचन्द्रिका ले. - रामानन्द न्यायवागीश । वैष्णवतोषिणी ले. जीव गोस्वामी । रचना सन 1583 में । श्रीमद्भागवत की यह टीका, भागवत के केवल दशम स्कंध पर है। इसका उद्देश्य है सनातन गोस्वामी की बृहत्तोषिणी का सार प्रस्तुत करना । उपलब्ध बृहत्तोषिणी तथा प्रस्तुत वैष्णवतोषिणी का तुलनात्मक अनुशीलन करने से, यह तथ्य ध्यान में आ सकता है। यह टीका, श्रीकृष्णचन्द्र की लीला को विस्तार के साथ समझने एवं उसका आस्वादन करने के उद्देश्य से लिखी गयी है। टीकाकार के कथनानुसार श्रीधर स्वामी की भावार्थदीपिका (श्रीधरी) के अव्यक्त एवं अस्फुट भावों का प्रकाशन ही वैष्णवतोषिणी का उद्देश्य है । टीका के विस्तृत उपोद्घात में, पूर्वाचार्यों का नामनिर्देशपूर्वक एवं आदरभाव से स्मरण किया गया है। टीकाकार के सहायक के रूप में, 23 www.kobatirth.org - - गोपाल भट्ट और रघुनाथ का उल्लेख भी प्रस्तुत टीका में है। जीव गोस्वामी, पाठभेद के लिये बड़े जागरूक टीकाकार थे। पूर्व भाग में प्रस्तुत व्याख्या के पूर्वपक्ष का निर्देश है, तथा सबसे अंतिम भाग में अपना सिद्धान्त प्रतिपादित है । आद्यपाठ गौडीयो का है और द्वितीय पाठ काशी का। इनके नाना देशीय मूल का भी अनुसंधान किया गया है। फलतः दशम स्कंध की यह विशिष्ट टीका, गौडीय वैष्णवों के अभिमत दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण बड़े ही प्रमाणपूर्वक करती है। यही इसका सांम्प्रदायिक वैशिष्ट्य है। वैष्णव धर्मपद्धति ले कृष्णदेव वैष्णव धर्ममीमांसा ले. - अनन्तराम । वैष्णव-धर्म-शास्त्रम् विषय- संस्कार, गृहस्थधर्म, आश्रम, पारिव्राज्य, राजधर्म अध्यायसंख्या पांच। श्लोक 109। वैष्णवधर्म-सुरद्रममंजरी ले. संकर्षण शरणदेव गुरु केशव काश्मीरी, जो निवार्क मतानुयायी विद्वान् थे विषय मत की श्रेष्ठता । - वैष्णव धर्मानुष्ठानपद्धति - ले. कृष्णदेव । पिता- रामाचार्य । वैष्णवपूजाध्यानादि श्लोक 6750 विषय वैष्णव और | - शैव पूजापद्धतियों का स्पष्टीकरण वैष्णवमताब्ज - भास्कर ले. स्वामी रामानंदजी रामानंदी वैष्णवसिद्धान्तों का एकमात्र विवेचक महनीय ग्रंथ श्री. रामानुजाचार्य द्वारा व्याख्यात विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त ही रामानंदजी को सर्वथा मान्य है। अंतर इतना ही है कि श्रीवैष्णवों के द्वादशाक्षर मंत्र के स्थानपर रामानंदी वैष्णवों को रामषडक्षर मंत्र (ओम् रां रामाय नमः) ही अभीष्ट है। इसी पार्थक्य के कारण रामानंदी वैष्णव स्वयं को "बैरागी वैष्णव' के नाम से अभिहित करते है। - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामानंदजी के अन्यतम शिष्य सुरसुरानंद ने उनसे तत्त्व श्रेष्ठ जप, उत्तम ध्यान, मुक्तिसाधन, श्रेष्ठ धर्म, वैष्णवलक्षण तथा प्रकार, वैष्णवों के निवास स्थल, कालक्षेप के प्रकार तथा प्राप्य वस्तु की जिज्ञासा के लिये 10 प्रश्न पूछे थे। उन्हीं प्रश्नों के उत्तरों के अवसर पर प्रस्तुत ग्रंथ रत्न की रचना हुई। रामानंदजी को श्रीवैष्णवों का तत्त्वत्रय सर्वथा मान्य है। रामानंदजी ने भगवान् श्रीरामचंद्र को परम पुरुष मान कर उनकी उपासना का प्रवर्तन बडे ही आग्रह तथा निष्ठा के साथ किया । इसीलिये उनके अनुयायी वैष्णवगण, रामावत सम्प्रदाय के अंतर्गत माने जाते है । - वैष्णावरहस्वम् - चार प्रकाशों में पूर्ण विषय नामोपदेश, गुरुपद का आश्रय, आराध्य का निर्णय, साध्य के साधन का निरूपण ई. वैष्णवलक्षणम् ले. कृष्ण ताताचार्य । वैष्णवसन्दर्भ सन 1903 में वृन्दावन से नित्यसखा संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 353 - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुक्तोपाध्याय के सम्पादकत्व में वैष्णव साहित्य के प्रकाशन हेतु इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह 1914 तक प्रकाशित होती रही। वैष्णवसर्वस्वम् - ले.-हलायध। ई. 12 वीं शती। पिताधनंजय। ब्राह्मणसर्वस्व में उल्लिखित । वैष्णवसिद्धान्त-दीपिका- ले.-रामचंद्र । पिता- कृष्ण । टीकाकारविठ्ठल। वैष्णवानंदिनी ले.- बलदेव विद्याभूषण। यह भागवत की महत्त्वपूर्ण टीका है। इसमें अद्वैतवादियों के मायावाद का तथा रामानुज के विशिष्टाद्वैती सिध्दान्तों का बड़े आवेश के साथ खंडन किया गया है। इस टीका से भागवत का तत्त्व सर्वसाधारण जनों के लिये सरल सुबोध एवं सरस बना है। वैष्णवामृतम् - ले.-भोलानाथ शर्मा। श्लोक: 1572। विषयसद्गुरु का लक्षण, निषिद्ध गुरु का लक्षण, शिष्य का लक्षण, दीक्षा के अधिकारी निर्णय, मन्त्र तथा दीक्षा, शब्द की व्युत्पत्ति, आगम शब्द का अर्थ, नक्षत्र, राशिचक्र आदि का विचार, वैरी मन्त्र के परित्याग का प्रकार, दीक्षा में मास, तिथि, वास आदि का कथन , जपमाला का निर्णय, जपसंख्या गणना करने में विहित और अविहित द्रव्य आदि का निर्देश, विष्णुपूजा विधि, विष्णुपूजा में दिशा का निर्णय माला के संस्कार की विधि, आसनभेद, हरिनाम ग्रहण की विधि विष्णु मन्त्रोपदेश, वैष्णवों की षट्कर्मविधि का निर्देश इ.। वैष्णवामृतसंग्रह - ले.-प्राणकृष्ण। श्लोक 21101 व्रजभक्तिविलास - ले.नारायण। ई. 16 वीं शती। व्रजविहारम् - ले.-श्रीधर स्वामी। कृष्णचरित्रविषयक काव्य । व्रजेन्द्रचरितम् - ले.-सदानन्द कवि।। व्रजोत्सवचंद्रिका - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती । व्रजोत्सवाहलादिनी - ले.-नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। व्रतकथाकोश - ले.-सकलकीर्ति । जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- कर्णसिंह। माता- शोभा। व्रतकमलाकर - ले.-कमलाकरभट्ट । व्रतकालनिर्णय - ले.-भारतीतीर्थ । 2) ले.- आदित्यभट्ट। व्रतकालनिष्कर्ष - ले.- मधुसूदन वाचस्पति । व्रतकालविवेक - ले.-शूलपाणि । व्रतकौमुदी - ले.- शंकरभट्ट । ई. 17वीं शती। विषय- धर्मशास्त्र । 2) ले.- रामकृष्णभट्ट । व्रतखण्ड - हेमाद्रिकृत चतुर्वगचिन्तामणि का प्रथम भाग। व्रततत्त्वम् - ले.- रघु। व्रतनिर्णय - ले.- औदुम्बरर्षि । व्रतपंजी - नवराज। पिता- द्रोणकुल के देवसिंह। व्रतबन्धपद्धति- ले.- रामदत्त मंत्री। पिता- गणेश्वर । यह पद्धति वाजसनेयी शाखा के लिए है। व्रतपद्धति - ले.- रुद्रधर महामहोपाध्याय । व्रतप्रकाश - ले.- अनन्तदेव । यह वीरमित्रोदय का एक अंश है। 2) ले.- विश्वनाथ। पिता- गोपाल । सन् 1636 में वाराणसी में लिखित। लेखक शाण्डिल्य गोत्री चित्तपावन ब्राह्मण थे। रन्तागिरि जिल्हे से काशी में जाकर बसे थे। व्रतप्रतिष्ठातत्त्वम् - ले.- रघु। (देखिए "व्रततत्व") व्रतबोधविवृति-(या व्रतबोधिनीसंग्रह):- तिथिनिरूपण, व्रतमहाद्वादशी, रामनवम्यादिव्रत, मासानिरूपण, वैशाखादिचैत्रान्त मासकृत्यनिरूपण । ग्रंथ वैष्णवों के लिए है। पांच परिच्छेदों में पूर्ण । व्रतमयूख : ले.- शंकरभट्ट । ई. 17 वीं शती । विषय- धर्मशास्त्र । व्रतमौक्तिक - ले.- चंद्रशेखर भट्ट। ई. 16 वीं शती। व्रतरत्नाकर - ले. - सामराज। सोलापूर (महाराष्ट्र) में, सन 1871 में मुद्रित। व्रतोद्यापनकौमुदी- ले.-रामकृष्ण । हेमाद्रि पर आधृत। विषयगौड वैष्णवों के व्रत। व्रतावदानमाला- उपगुप्त-अशोक संवादरूप। महायान सम्प्रदाय से सम्बध्द ग्रंथ। विषय- धार्मिक क्रियाओं तथा व्रतों का माहात्म्य दर्शानवाली कथाएँ। व्रतराज - ले.-कोण्डभट्ट । व्रतविवेकभास्कर- ले.- कृष्णचंद्र। व्रतसंग्रह - कर्णाटवंश के राजा हरिसिंह के आदेश से रचित । ई. 14 वीं शती। व्रतसार- ले.- उपाध्याय। इ. 13-14 वीं शती। 2) ले.- रत्नपाणि शर्मा गंगोली। संजीवेश्वर शर्मा के पुत्र । खण्डबल कुल के मिथिला नरेश महेश्वरसिंह की आज्ञा से लिखित । 3) ले.- दलपति (नृसिंहप्रसाद ग्रंथ का एक अंश) 4) ले.- गदाधर। व्रतार्क - ले.- शंकरभट्ट । नीलकण्ठ के पुत्र। ई. 17 वीं शती। इन्होंने कुण्डभास्कर सन 1671 में लिखा है। सन 1877 में लखनऊ में मुद्रित । 2) गदाधर दीक्षित। व्रतोद्यापनकौमुदी - ले.- शंकर। बल्लालसूरि के पुत्र। "घोर" उपाधिधारी एवं महाराष्ट्रीय चित्तपावन शाखा के ब्राह्मण सन 1703-4 में प्रणीत। व्रतोद्योत - दिनकरोद्योत का एक अंश । व्रतोपवासंग्रह-ले.- निर्भयराम भट्ट । व्रात्यताप्रायश्चित्तनिर्णय- (नागोजीभट्ट के प्रायश्चित्तेन्दुशेखर से 354 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उध्दृत) इसमें निर्णय हुआ है कि आधुनिक राजकुमार उपनयन सम्पादन के अधिकारी नहीं है। चौखम्भा संस्कृत सीरीज द्वारा प्रकाशित । व्रात्यस्तोमपद्धति - ले. माधवाचार्य। इसमें 'व्रात्य' का अर्थ है "पतितसावित्रीकः" कहा है। व्यक्तिविवेक ले. आचार्य महिमभट्ट । रचना का उद्देश्य आनंदवर्धन के "ध्वन्यालोक" में प्रतिपादित ध्वनिसिद्धांत का खंडन ग्रंथ के मंगलाचरण में ही भट्टी ने अपने विमर्श में ध्वनि की परीक्षा करते हुए "ध्वन्यालोक" के प्रतिपादन में 10 दोष प्रदर्शित किये गए है। ग्रंथकर्ता ने वाच्य तथा प्रतीयमान अर्थ का उल्लेख कर प्रतीयमान अर्ध को अनुमितिग्राहा सिद्ध किया है। महिमभट्ट ने ध्वनि की तरह अनुमिति के भी 3 भेद किये है- वस्तु, अलंकार व रस। द्वितीय विर्मश में शब्ददोषों पर विचार कर ध्वनि के लक्षण में प्रक्रमभेद तथा पुनरुक्ति आदि दोष दिखाये गए हैं। तृतीय विर्मश में ध्वन्यालोक के उन उदाहरणों को अनुमान में गतार्थ किया है जिन्हें "ध्वन्यालोककार ने ध्वनि का विशिष्ट उदाहरण माना है । प्रस्तुत ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य है- "ध्वनि या व्यंग्यार्थ का खंडन कर परार्थानुमान में उसका अंतर्भाव करना" । "व्यक्तिविवेक" संस्कृत काव्यशास्त्र का अत्यंत प्रौढ ग्रंथ है, जिसके पद पद पर उसके रचयिताका प्रगाढ अध्ययन एवं अद्भुत पांडित्य दिखाई देता है। इस पर राजानक रूय्यक कृत "व्यक्तिविवेकव्याख्यान" नामक टीका प्राप्त होती है, जो द्वितीय विमर्श तक ही है। इस पर पं. मधुसूदन शास्त्री ने "मधुसूदनी" विवृति लिखी है, जो चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित हुई है। इसका हिंदी अनुवाद डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी ने किया है, जिसका प्रकाशन 1964 ई. में चौखंबा विद्याभवन से हुआ है। व्यंजनानिर्णय ले. नागेशभट्ट - व्यतिषंगनिर्णय ले. रघुनाथभट्ट । व्यतिपातजननशांति www.kobatirth.org ले. कमलाकरभट्ट । व्यवस्थादर्पण ले. आनन्दशर्मा। रामशर्मा के पुत्र । विषयतिथिस्वरूप, मलमास, संक्राति आशौच, श्राद्ध, दायानधिकारी, दायविभाग आदि । - - - व्यवस्थादीपिका ले. राधानाथ शर्मा विषय आशौच । व्यवस्थानिर्णय विषय तिथि, संक्रान्ति, आशौच द्रव्यशुद्धि. प्रायश्चित्त, विवाह, दाय इत्यादि । - व्यवस्थारत्नमाला के पुत्र । विषय- दायभाग, स्त्रीधन, दत्तकव्यवस्था इत्यादि । 10 गुच्छों में पूर्ण । इसमें मिताक्षरा एवं विधानमाला का उल्लेख है । व्यवस्थार्णव ले. रघुनन्दन। विषय पूर्वक्रय । राय राघव के आदेश पर लिखित । ले. लक्ष्मीनारायण न्यायालंकार। गदाधर व्यवस्थासंक्षेप ले. गणेशभट्ट । व्यवस्थासंग्रह - गणेश भट्ट । विषय- प्रायश्चित्त, उत्तराधिकारी आदि । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 2) ले. महेश विषय आशौच, सपिण्डीकरण, संक्रातिविधि, दुर्गोत्सव, जन्माष्टमी, आह्निक, देवप्रतिष्ठा, दिव्य, दायभाग, प्रायश्चित्त इत्यादि । व्यवस्थासारसंग्रह- ( नामान्तर व्यवस्थासारसंचय) ले.नारायणशर्मा। विषय- आशौच, दायभाग, दत्तक, श्राद्ध, इत्यादि । 2) ले रामगोविंद चक्रवर्ती मुकुन्द के पुत्र विषयतिथिसंक्रांति अन्येष्टि, आशौच आदि । 3) ले. महेश व्यवस्थासेतु ले ईश्वरचंद्र शर्मा व्यवहारकल्पतरु - ले.- लक्ष्मीधर । (कल्पतरु ग्रंथ का अंश) । व्यवहारचन्द्रोदय- कीर्तिचन्द्रोदय का भाग। न्यायसंबंधी विधि एवं विवादपदों पर विवेचन । व्यवहारचमत्कार- ले. रूपनारायण। पिता भवानीदास । विषय- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन आदि संस्कार, विवाह यात्रा, मलमासनिर्णय से संबंधित फलित ज्योतिष । व्यवहारचिन्तामणि- ले. वाचस्पति । व्यवहारतत्त्वम्- ले. नीलकण्ठ। ई. 17 वीं शती । पिताशंकरभट्ट । यह ग्रंथ व्यवहारमयूख और दत्तकनिर्णय नामक प्रस्तुत लेखक के ग्रंथों की संक्षिप्त आवृत्ति ही माना जाता है। 2) ले. रघुनंदन 3) ले. भवदेव भट्ट । व्यवहारदर्पण ले रामकृष्णभट्ट विषय राजधर्म, साक्षी, जयपत्र आदि । 2) ले अनन्तदेव याज्ञिक विषय व्यवहार, विवादपद, प्रतिवाद, साक्षिसाधन, स्वामित्व आदि । व्यवहारकमलाकर ले. कमलाकर । रामकृष्ण के पुत्र । यह धर्मतत्त्व ग्रंथ का सातवां प्रकरण है। - For Private and Personal Use Only व्यवहारकोश ले. वर्धमान तत्वामृतसारोद्धार का एक भाग । मिथिला के राजा राम के आदेश से ई. 15 वीं शताब्दी . उत्तरार्ध में प्रणीत । - व्यवहारकौमुदी - ले. सिद्धान्तवागीश भट्टाचार्य । व्यवहारदशलोकी (या दायदशक) ले. श्रीधरभट्ट । व्यवहारदीधिति - राजधर्मकौस्तुभ का एक अंश । व्यवहारनिर्णय ले. मयाराम मिश्र गौड । काशीनिवासी । जयसिंह के आदेश से लिखित न्यायविधि एवं व्यवहारपदों पर विवेचन । 2) ले. वरदराज । बर्नेल द्वारा अनुवादित | संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 355 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यवहारपदन्यास- इस ग्रंथ में व्यवहारावलोकनधर्म, प्राड्विवाकधर्म, सभालक्षण, सभ्यलक्षण, सभ्योपदेश, व्यवहारस्वरूप, विचारविधि एवं भाषानिरूपण नामक 8 विषयों पर विवेचन है। व्यवहारपरिभाषा- हरिदत्त मिश्र। व्यवहारप्रकाश- ले.- हरिराम । 2) ले.- मित्रमिश्र (लेखक के वीरमित्रोदय का अंश) 3) ले.- शरभोजी, तंजौर के राजा। ई. 1798-1833 । व्यवहारप्रदीप- ले.- पद्मनाभ । विषय- मुहूर्तशास्त्र । 2) ले.- कृष्ण। विषय-धर्मशास्त्र से संबंधित ज्योतिष । व्यवहारप्रदीपिका- ले.- हरपति। ई. 15 वीं शती। पिताविद्यापति। व्यासप्रभाकर- ले.- कपिल । (सांख्यसूत्रकार से भिन्न व्यक्तित्व) व्यवहारमयूख- (या न्यायमातृका) ले.- जीमूतवाहन। व्यवहारमाधव- पराशरमाधवीय का तृतीय भाग। व्यवहारमाला- ले. वरदराज। ई. 18 वीं शती। यह ग्रंथ मलबार में अधिक प्रयुक्त था। व्यवहाररत्नम्- ले.- भानुनाथ देवज्ञ। भोआलवंशज चन्दनानन्द के पुत्र । व्यवहाररत्नाकर - ले.- चण्डेश्वर । व्यवहारशिरोमणि - ले.- नारायण। विज्ञानेश्वर के शिष्य । व्यवहारसमुच्चय - ले.- हरिगण। व्यवहारसर्वस्वम् - ले.-सर्वेश्वर। विश्वेश्वर दीक्षित के पुत्र । व्यवहारसार - ले.- मयाराम मिश्र। व्यवहारसारसंग्रह - ले.- नारायणशर्मा । 2) ले.- रामनाथ। व्यवहारसारोद्धार - ले.-मधुसूदन गोस्वामी। लाहोर के रणजितसिंह के राज्यकाल में प्रणीत (सन् 1799 ई. में) व्यवहारसिद्धान्तपीयूषम्- ले.- चित्रपति । पिता- नन्दीपति । सन् 1804 में कोलबुक के अनुरोध पर लिखित । इस पर लेखक की टीका भी है। व्यवहारसौख्यम्- टोडरानन्द का एक अंश। व्यवहारांगस्मृतिसर्वस्वम् - ले.- मयाराम मिश्र गौड । वाराणसी-निवासी। विषय- न्यायाविधि एवं व्यवहारपद । जयसिंह के आदेशपर लिखित। व्यवहारादर्श - ले.- चक्रपाणि मिश्र। ई. 19 वीं शती। विषय- भोजनविधि, अभोज्यान आदि। व्यवहारालोक- ले.- गोपाल सिद्धान्तवागीश। व्यवहारार्थ-स्मृति-सारसमुच्चय- ले.- शरभोजी। तंजौर के अधिपति। ई. 18-19 वीं शती । व्यवहारोच्चय- ले.- सुरेश्वर उपाध्याय। ई. 15 वीं शती। व्याकरणकौमुदी-ले.- बलदेव विद्याभूषण । ई. 18 वीं शती। व्याकरणग्रंथावली- सन 1914 में तंजौर से श्रीवत्स चक्रवर्ती रायपेट्टे कृष्णंमाचार्य (अभिनव भट्टबाण) के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस का वार्षिक मूल्य पांच रु, था। प्रकाशन स्थल- श्री मुनित्रय मंदिर, 66, वेल्लाल स्ट्रीट वेलूर था। व्याकरणदीपिका-ले.- गौरभट्ट । यह अष्टाध्यायी की वृत्ति है। व्याकरणसर्वस्वम्- ले.- धरणीधर । ई. 11 वीं शती। व्याकरणसिद्धांतसुधानिधि- ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पटिया। (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 14 वीं शती। यह अष्टाध्यायी की टीका है, जिसके केवल प्रथम तीन अध्याय उपलब्ध है। व्याख्यानम्- ले.- नृसिंह । वरदराज कृत प्रक्रियाकौमुदी-विवरण पर यह टीका है। व्याख्यानन्दम्- -ले.- रामचंद्र शर्मा । भट्टिकाव्य पर व्याख्या। व्याख्याप्रज्ञप्ति-ले.- अमितगति । जैनाचार्य । ई. 10 वीं शती। व्याख्याबृहस्पति- ले.- बृहस्पति मिश्र। (रायमुकुट) ई. 15 वीं शती। रघुवंश की व्याख्या । 2) इसी लेखक की कुमारसंभवपर टीका। व्याख्या- मधुकोश- ले.- विजयरक्षित । ई. 13 वीं शती। माधवकृत निदानग्रंथ पर व्याख्या। विषय- आयुर्वेद । व्याख्याव्यूह - ले.- रुद्रराम। व्याघ्रस्मृति (या व्याघ्रपादस्मृति- मिताक्षरा (याज्ञ. 3/30) अपरार्क, हरदत्त द्वारा उल्लिखित ! व्याघ्रालयेशशतकम् - ले.-त्रावणकोर नरेश केरलवर्मा । व्याप्तिचर्चा - ले.- ज्ञानश्री। ई. 14 वीं शती। बौद्धाचार्य । व्याप्तिरहस्यटीका - ले.- महादेव उत्तमकर। महाराष्ट्रीय । व्याप्तिवादव्याख्या - ले.-रामरुद्र तर्कवागीश। व्यासतात्पर्यनिर्णय - ले.- वाणी अण्णय्या। आन्ध्रवासी। व्यासस्मृति - ले.- जीवानन्द । आनन्दाश्रम द्वारा मुद्रित । लगभग 248 श्लोक। टीका-कृष्णनाथ द्वारा । व्युत्पत्तिवाद - ले.-गदाधर भट्टाचार्य । व्योमवती- टीकाग्रंथ । ले.- व्योमशिवाचार्य । ई. 17 वीं शती। व्हिक्टोरिया-चरितसंग्रह- ले.- केरलवर्म वलियक्वैल । व्हिक्टोरिया विजयपत्रम्- ले.- बलदेवसिंह । वाराणसी-निवासी। सन् 1889 में लिखित। व्हिोक्टोरियाप्रशस्ति - ले.- वज्रनाथ शास्त्री । पुणे- निवासी। 2) ले.- मुडुम्बी नरसिंहचार्य। व्हिक्टोरिया-महात्म्यम् - ले.- राजा सर सुरेन्द्रमोहन टैगोर। सन् 356/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1898 में प्रकाशित। व्हिक्टोरिया षटकम्- ले.- श्रीपति ठक्कुर । शकुनार्णव (या शकुनशास्त्र) - ले.-वसन्तराज। इस पर भानुचन्द्रगणि द्वारा लिखित टीका है।। शंकरगीति - ले.- शाङ्गदेव । शंकरगुरुचरितसंग्रह - ले.- पंचपागेश शास्त्री। कुम्भकोणम् के शांकरमठ के अध्यापक। शंकरचेतोविलास (चम्पू) - ले.- शंकर दीक्षित (शंकर मिश्र) पिता- बालकृष्ण। काशी-निवासी। ई. 18 वीं शती। इसमें काशी नगरी का वर्णन उल्लेखनीय है। रचना काशीनरेश चेतसिंह के शासनकाल में हुई जो अपूर्ण है। शंकरजीवनाख्यानम् - लेखिका.- क्षमादेवी राव। इसमें कवयित्री ने अपने विद्वान् पिता शंकर पाण्डुरंग पण्डित का चरित्र वर्णन किया है। स्वयंकृत अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित । शंकरदिग्विजयसार - ले.- सदानन्द । शंकरविजय (श्रीशंकराचार्य का चरित्र) - (1) ले.अनन्तानन्द गिरि (आनन्दगिरि) (2) ले.- विद्याशंकर (या शंकरानन्द) शंकरविजयम् (नाटक) - ले.-मथुराप्रसाद दीक्षित। ई. 20 वीं शती। प्रत्येक अंक में शंकराचार्य के एक प्रतिपक्षी का वर्णन है। क्रमशः मण्डनमिश्र, चार्वाक, जैनसूरि, बौद्ध आचार्य तथा कोलाचार्य पर विजय का वर्णन है। अन्त में व्यासादि द्वारा शंकराचार्य का अभिनन्दन किया गया है। शंकरशंकरम् (नाटक) - ले.- डा. रमा चौधुरी (श. 20)। प्रथम प्रयोग सन 1965 में, “प्राच्यवाणी के 22 वें प्रतिष्ठा-दिवस के उपलक्ष्य में। विषय- आदि शंकराचार्य की जीवन-गाथा । अंकों के स्थान पर "दृश्य" तथा पट-परिवर्तन। दृश्यसंख्याचौदह । प्रत्येक दृश्य में संगीत । एकोक्तियों का बाहुल्य । रंगमंच पर शिरश्छेद का अपवादात्मक दृश्य आता है। शंकर-सम्भवम् (काव्य) - ले.- म.म. हरिदास सिद्धान्त-वागीश (ई. 1876-1961)। शंकरहृदयंगमा - ले.- कृष्णलीलाशुक मुनि। ई. 13-14 वीं शती। केनोपनिषद् की व्याख्या। शंकराचार्यचरितम् - ले.- गोविंदनाथ । शंकराचार्यदिग्विजयम् - ले.. वल्लीसहाय । शंकराचार्य-वैभवम् - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म- सन 1894 में)। सन 1968 में वाराणसी में सरस्वती महोत्सव पर अभिनीत। अंकसंख्या- दो। इसमें शंकराचार्य के रूप में अवतरित शिवजी द्वारा वेदान्त के ज्ञानकांड का उपदेश वर्णित है। सभी पात्रों की भाषा संस्कृत है। शंकरानन्दचम्पू - ले.- गुरुराम। विषय- किरात-अर्जुन के युद्ध की कथा। शंकराभ्युदयम् - राजचूडामणि। रत्नखेट कवि के पुत्र । सर्गसंख्या- छह। ई. 17 वीं शती। विषय- जगद्गुरु शंकराचार्य का चरित्र। शंकराशंकरभाष्यविमर्श - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। विषयशांकरमत विरोधी आक्षेपों का खंडन। शंकरीगीतम् - ले.- जयनारायण। पिता- कृष्णचंद्र। शंकुप्रतिष्ठा - विषय- गृह की नींव रखते समय आवश्यक कृत्य। शक्तितंत्र - पार्वती-ईश्वर संवाद रूप। 13 पटलों में पूर्ण । विषय- सिद्धियोग, आकर्षण, स्तंभन आदि कर्मों में ऋतुभेद, दिशा आदि का नियम, मारण आदि में मालाविधान कथन पूर्वक जपविधि, आसनादिविधि, शवसाधनविधि, कुलवृक्षादिविधि, दूतीयागविधि, संवित् और आसव आदि के शोधन के विधि, पंचमकारविधि, शक्ति का निरूपण, कुलीनों की पुरश्चरणविधि, कुमारीपूजन, पंच-मकार से अन्तर्यजन, शाक्ताभिषेक विधि इ. । शक्तिपूजाविधि - देवीपूजाविधि आदि 7 पुस्तकें इस ग्रंथ सन्निविष्ट हैं। सबकी संमिलित श्लोक संख्या- 6401 शक्तिरत्नाकर - ले.- राजकिशोर। 5 उल्लासों में पूर्ण । विषयशक्ति की महिमा, महाविद्याओं की सूची (तालिका) ई.। शक्तिरहस्यम् (व्याख्यासहित) - व्याख्या का नाम- अर्थदीपिनी । व्याख्याकार- अरुणाचार्य । श्लोक- 5000 (2000 + 3000) इसमें वैराग्यखण्ड और ज्ञानखण्ड नाम दो खंड हैं। शक्तिवाद - ले.- गदाधर भट्टाचार्य। ई. 17 वीं शती। शक्तिवाद-टीका - ले.- जयराम तर्कालंकार । शक्तिशतकम् (अपर नाम देवीशतक)- ले.- श्रीश्वर विद्यालंकार। भक्तिकाव्य। शक्तिन्यास - योगिनीमत से गृहीत। श्लोक- 1601 विषयदेवी के मूल तंत्र के पदों का उच्चारण करते हुए शरीर के विशेष अवयवों की स्पर्शक्रिया जो "अंगन्यास' नाम से प्रसिद्ध है। शक्तिसंगमतन्त्रम् - यह अक्षोभ्य-महोग्रतारा (शिव-पार्वती) संवादरूप है। चार खण्ड- (1) कालीखण्ड ,(2) ताराखण्ड, (3) सुन्दरीखण्ड, (4) छिन्नमस्ताखण्ड। श्लोक- (पूर्ण तंत्र में) 60000। इसके प्रथम और तृतीय खंड में 20-20 पटल हैं एवं 4 थे खण्ड में 11 पटल और द्वितीय खण्ड में 65 पटलों का उल्लेख मिलता है। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध भेद से इसके दो भाग हैं। पूर्वार्ध का नाम कादि और उत्तरार्ध का नाम हादि है। कादि में 4 खण्ड और हादि में 4 खण्ड, इस प्रकार इसके 8 खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड में तीन हजार छह सौ श्लोक हैं। शक्तिसंगमतन्त्रराज - श्लोक- लगभग 25251 शक्तिसंस्कारवाद - ले.- गदाधर भट्टाचार्य । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 357 For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्तिसारदम् (रूपक) - ले.- यतीन्द्रविमल चौधुरी। प्रथम निवासी। ई. 17 वीं शती। अलंकार शास्त्र पर लिखित इस अभिनय (20-6-58 को) पुरी की अखिल भारतीय संस्कृत काव्य में शठगोपनम्म आलवार साधु की स्तुति की है। परिषद के अधिवेशन में हुआ। बाद में कई स्थानों पर अनेक शतचण्डी-पद्धति - ले.- गोविन्द दशपुत्र । श्लोक- 1100। बार अभिनीत। अंकसंख्या- 4:। भाषा नाट्योचित, सरल। दो खंडों में विभाजित। संवाद- पात्रानुसारी। गीतों से भरपूर। रामकृष्ण परमहंस की शतचण्डीपूजन - श्लोक- 320। पत्नी सारदामणि की प्रेरणाप्रद जीवनगाथा का चित्रण। शतचण्डीप्रयोग (1) - ले.- चित्पावनकर श्रीकृष्ण भट्ट । शक्तिसिद्धान्तमंजरी - श्लोक- लगभग- 2001 पितामह- नृसिंहभट्ट। पिता-नारायणभट्ट। यह मन्त्रमहोदधि के शक्तिसूत्रम् - ले.- अगस्त्य । श्लोक- 544 | 18 वें तरंग से आरंभ होता है। शक्रलोकयात्रा - ले.- वंशगोपाल शास्त्री। यह एक गल्प है। शतचण्डीसहस्रचण्डी-पद्धति - ले.-सामराज। पिता- नरहरि । शक्रोपासितमृतसंजीवनी - श्लोक- 103 । श्लोक- 12001 शंखस्मृति - शंखलिखित । विषय- इसमें चारों वर्गों के कर्म, शतचण्डीसहस्रचण्डीप्रयोग - ले.- कमलाकर। उनके शांतिरत्न निषेकादि संस्कारों का काल, यज्ञोपवीत धारण करने के उपरान्त से संग्रहीत।। ब्रह्मचारी के नियम, ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों का शतचण्ड्यादिप्रदीप - ले.- भारद्वाज दिवाकरसूरि। पितानिरूपण, पांच हत्याओं के दोषों की निवृत्ति हेतु पंच महायज्ञों महादेव। विषय- शतचण्डी तथा सहस्रचण्डी आदि के संबंध का कथन, अग्निसेवा, अग्निपूजा, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, में प्रमाण और प्रमेय का प्रतिपादन, एवं रुद्रयामल आदि के संन्यासाश्रम, अष्टांग योग आदि। अनुसार शतचण्डी के नियम । शंखचक्रधारणवाद - ले.- पुरुषोत्तम। पीताम्बर के पुत्र । शतचण्डीविधानम् - श्लोक- 5001 विषय- चण्डिकातर्पण, शंखचूडवधम् (रूपक) - ले.- दीनद्विज । रचनाकाल 1803 सूर्यार्घ्यदान, वरुण-कलश-स्थापना, प्राणप्रतिष्ठा,अन्तर्मातृका, ईसवी। सन 1962 में असम साहित्य सभा, जोरहट (असम) बहिर्मातृका, एकादशन्यास, गणपतिपीठ-स्थापना, पूजन, बलिदान, से प्रकाशित ।आंकियानाट्य। गीत संस्कृत तथा संस्कृतनिष्ठ ग्रहपूजन, योगिनीपूजन, स्वस्तिपूजन इ. असमी भाषा में। चालेगी, वररी, लेछारी, कफिर, मुक्तावली, शतचण्डीविधानपद्धति - ले.- जयरामभट्ट। तुर देशाख, श्री, मालची कल्याण आदि रागों का प्रयोग। शतचण्डीविधानपूजा-पद्धति- श्लोक- 385 । कतिपय गीतों में कवि का नाम भी पिरोया हुआ है। अर्थोपक्षेपक शतदूषणी - ले.- वेदान्तदेशिक । के रूप में देववाणी का प्रयोग। भाषा सरल, संवादोचित । शतद्वयी - विषय- प्रायश्चित्त। इस की टीका का नाम है रंगमंच पर अकेला सूत्रधार सभी पात्रों के संवाद बोलता है। अंक संख्या- तीन। कथासार- शिवभक्त वृषभध्वज के वंशज प्रायश्चित्तप्रदीपिका। धर्मध्वज की कन्या तुलसी अनुपम सुन्दरी है। योग्य वर पाने शन्तनुचरितम् - ले.-सुब्रह्मण्य सूरि। गद्य ग्रन्थ । हेतु वह बदरिकाश्रम में एक लाख वर्ष तक तप करती है। शतपथब्राह्मण - शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ। इस की उस पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा कहते हैं, "कृष्णजी का पार्षद दोनों शाखाओं का (माध्यंदिन तथा कण्व का) नाम शतपथ सुदामा, राधा के शाप से दानव शंखचूड बना है, उससे ही है। सौ अध्याय होने से इसे शतपथ कहा गया है। विवाह कर लो। फिर दोनों शापमुक्त हो श्रीकृष्ण को प्राप्त करोगे। माध्यंदिन शतपथ में 14 कांड, सौ अध्याय, 68 प्रपाठक, द्वितीय अंक में तुलसी और शंखचूड का प्रणय-प्रसंग तथा 438 ब्राह्मण, 7624 कंडिकाएं हैं। कण्व में 17 कांड, 104 विवाह है। तुलसी के दैववशात् शंखचूड वैभवशाली तथा अध्याय, 435 ब्राह्मण एवं 6806 कंडिकाएं हैं। दोनों में बहुत उन्मत्त बनता है। शिव उस पर हमला बोलते हैं, परन्तु तुलसी कुछ साम्य है। दशपूर्णमास, आधान, अग्निहोत्र, पिंडपितृयज्ञ, के पातिव्रत्य के कारण शंखचूड अजेय बना रहता है। विष्णुजी चातुर्मास्ययाग आदि विषय इनमें हैं। अग्नि की उपासना भी छद्मवेश में तुलसी के पास जाकर उसका पातिव्रत्य नष्ट करते बताई गई है। अश्वमेध, सर्वमेध, पितृमेध की चर्चा की गई हैं। तुलसी यह कपट जान कर क्षुब्ध हो विष्णु को शिलारूप है। चौदहवें काण्ड को आरण्यक नाम दिया गया है। उसके (शालिग्राम) होने का शाप देती है परन्तु उसका शील भंग अंतिम भाग को बृहदारण्यकोपनिषद् कहा जाता है। होते ही शंखचूड मारा जाता है। शिव उसकी अस्थियां समुद्र ___ महाभारत की अनेक कथाओं का सार इसमें है। उपलब्ध में फेंक देते हैं जो आज शंख के रूप में विद्यमान हैं। सभी ब्राह्मण ग्रंथों में शतपथ ब्राह्मण सबसे प्राचीन है। इसमें तुलसी पौधे के रूप में जन्म लेती है। स्त्रियों का उत्तराधिकार नहीं माना गया है। वैदिक वाङ्मय में शठगोपगुणालंकारपरिचर्या - ले.- भट्ट-कुलोत्पन्न। श्रीरंगम्। इसका महत्त्व अनेक दृष्टियों से है। विभिन्न विद्याओं में प्रवीण 358 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यों के नाम इसमें दिये गये हैं। 6 से 10 कांड में यज्ञ वेदी की रचना संबंधी विचार किया गया है। उसमें शांडिल्य के मतों को महत्त्व दिया गया है, अन्य भागों में याज्ञवल्क्य को। गांधार, केकय, कुरु, पांचाल, कोसल, विदेह, संजय प्रदेश के लोगों का उल्लेख प्रमुखता से है। इससे यह पता लगता है कि वैदिक संस्कृति का केंद्र पंजाब से पूर्व भारत की ओर बढा था। हरिस्वामी, सायण व कवींद्रचार्य सरस्वती के भाष्य इस पर हैं। शतपथ ब्राह्मण का प्रचार अंग, बंगाल, उड़ीसा, कानीन और गुजरात में विशेष है। अंग-वंग-कलिंगश्च कानीनो गुर्जरस्तथा । वाजसनेयी शाखा च माध्यन्दिनी प्रतिष्ठिता ।। इस प्रकार का निर्देश चरणव्यूह की टीका में मिलता है। फिर भी यह शाखा पंजाब और उत्तर प्रदेश में पढी जाती है। उज्जैन के हरिस्वामी, उव्वट जैसे बडे बडे यजुर्वेदी विद्वानों की यही (वायसनेयी) शाखा थी। संपादन - क) शतपथब्राह्मणम्- सम्पादक- वेबर, सन 1924 में ख) शतपथब्राह्मणम्- अजमेर, 1956 में ग) शतपथब्राह्मणम्- सायणभाष्यसहितम्। काण्ड 1-3, 5, 7, 6 सम्पादक- सत्यव्रत सामाश्रमी। सन 1903 1 1911 एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता। भाग- 1-71 शतपथब्राह्मणभाष्यम्-ले.- अनंताचार्य । ई. 18 वीं शती। शतरत्नसंग्रह - ले.- उमापति- शिवाचार्य । चिदम्बर के निवासी।। यह मतंग, मृगेन्द्र, किरण, देवीकालोत्तर, विश्वसार और ज्ञानोत्तर आगमों का सारसंग्रह रूप ग्रंथ है। इस पर सद्योज्योति, रामकण्ठ, नारायण और अघोर शिवाचार्य की टीकाएं हैं। शतवार्षिकम् (रूपक) - ले.- जीव न्यायतीर्थ। जन्म सन 1894। कलकत्ता वि.वि. के शतसांवत्सरिक महोत्सव हेतु लिखित तथा अभिनीत। "रूपक-चक्रम्" संग्रह में प्रकाशित । कथासार - शरीर पर राकेटयन्त्र चिपकाए हुए मर्त्यमणि की ब्रह्मलोक पहुंचने पर स्वर्ग के द्वारपाल से मुठभेड होती है, परंतु राकेटयंत्र को देख द्वारपाल डरता है। मर्त्यमणि कहता है कि तुम्हारे (मंगल) के पश्चात् शुक्र तथा बुध पर भी राकेट छोडा जायेगा। चन्द्र भी अपनी दुर्गति सुनाता है। यह सुन राहु मर्त्यमणि से भिडता है और सभी ग्रह मर्त्यमणि पर चढ ब्रह्मा के पास जाते है। ब्रह्मा सब को ढाढस बंधाते हैं। अन्त में संदेश है कि यन्त्रीय विज्ञान का नियंत्रण किया जाये, नहीं तो सौ वर्ष पश्चात् पृथ्वी ध्वस्त हो जायेगी। शतलोकी- ले.-वेंकटेश। (2) ले.- यल्लंभट्ट। शतांगम् (नामान्तर- मंत्रालोक- व्याख्या) - ले.- श्रीहर्ष । श्लोक- 1501 शबरीतंत्रम् - श्लोक- 832। शब्दकल्पद्रुम - ले.- राजा राधाकान्त देव। शब्दकोश । शब्दकौस्तुभ - ले.- भट्टोजी दीक्षित । पाणिनीय सूत्रों का पातंजल महाभाष्य की पद्धति से विवरण। महाभाष्य के पश्चात् लिखित अन्य ग्रन्थों की आधारभूत पाणिनीय अष्टाध्यायी की यह महती टीका है। केवल प्रथम अढाई अध्याय तथा चौथा अध्याय उपलब्ध है। प्रथम पाद विस्तृत है। शेष भाग संक्षिप्त हैं। शब्दकौस्तुभ पर टीकाएं- (1) नागेशभट्ट कृत विषमपदी, (2) वैद्यनाथ पायगुण्डे कृत प्रभा, (3) विद्यानाथ शुक्ल कृत उद्योत, (4) राघवेन्द्राचार्य कृत प्रभा, (5) कृष्णमित्र (कृष्णाचार्य) कृत भावप्रदीप, (6) भास्कर दीक्षित कृत शब्दकौस्तुभदूषण और (7) पण्डितराज जगन्नाथ कृत कौस्तुभखण्डनम्। शब्दचन्द्रिका - ले.- चक्रपाणि दत्त। ई. 11 वीं शती। वैद्यकीय शब्दकोष। शब्दतरंगिणी - ले.-व्ही. सब्रह्मण्यम् शास्त्री। व्याकरण विषयक प्रस्तुत प्रबन्ध को 1970 का साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। शब्दनिर्णय - ले.-प्रकाशात्म यति। ई. 13 वीं शती। शब्दप्रकाश (या दीपप्रकाश-टिप्पन) - ले.- प्रेमनिधि शर्मा। श्लोक- 32101 यह ग्रन्थकार द्वारा रचित स्वग्रन्थ दीपप्रकाश की टीका है। शब्द-प्रदीप - ले.- सुरेश्वर। (अपरनाम सुरपाल)। ई. 11 वीं शती (उत्तरार्ध)। आयुर्वेदिक वनस्पति-कोश । शब्दप्रमाणचर्चा - ले.- गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती। पिता- नरसिंहशास्त्री, माता- नरसांबा। शब्दप्रामाण्यवादरहस्यम् - ले.- गदाधर भट्टाचार्य । शब्दबृहती - ले.- राजनसिंह । व्याकरणमहाभाष्य की व्याख्या । शब्द-भेद-निरूपणम् - ले.-रामभद्र दीक्षित । कुम्भकोणम्-निवासी । ई. 17 वीं शती । विषय- व्याकरणशास्त्र । शब्दरत्नम् - ले.- नागोजी भट्ट। पिता- शिवभट्ट। मातासती। ई. 18 वीं शती। विषय- व्याकरणशास्त्र । शब्दरत्नावली - ले.- माथुरेश विद्यालंकार । ई. 17 वीं शती। कोशात्मक ग्रंथ। शब्दव्यापारविचार - ले.- मम्मट। ई. 12 वीं शती। शब्दव्युत्पत्तिसंग्रह - ले.- गंगाधर कविराज । ई. 1708-18251 विषय- व्युत्पत्तिशास्त्र। शब्दशक्तिप्रकाशिका - ले.- जगदीश तर्कालंकार भट्टाचार्य । ई. 17 वीं शती। (2) ले.- कृष्णकान्तविद्यावागीश। शब्दशोभा - ले.- नीलकण्ठ। व्याकरण विषयक लघुग्रंथ । शब्दसिद्धि - ले.- महादेव। ई. 13 वीं शती। शब्दानुशासनम् - ले.- चन्द्रगोमी। बौद्ध वैयाकरण। इसके सूत्रपाठ में पाणिनीय सूत्रपाठ का अनुसरण है, परंतु धातुपाठ में नहीं। धातुपाठ के प्रत्येक गण में परस्मैपदी, आत्मनेपदी संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/359 For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और उभयपदी यह क्रम रखा है। यह क्रम काशकृत्स्र धातुपाठ के अनुसार है। शब्दाम्भोजभाकर (जैनेन्द्र- व्याकरण) - ले.- प्रभाचन्द्र (जैनाचार्य)। समय- दो मान्यताएं। 1) 8 वीं शती। (2) ई. 11 वीं शती। शब्दभोजभास्करन्यास - ले.- देवनंदी। ई. 5 वीं शती। शब्दार्णव - ले.- आचार्य गुणनन्दी। ई. 10 वीं शती। जैनेन्द्रव्याकरण का व्याख्या ग्रंथ। शब्दार्थ-चिन्तामणि - कवि- चिदम्बर। रामायण- महाभारत कथापरक व्यर्थी काव्य। शब्दार्थ-रत्नम् - ले.- तारानाथ तर्कवाचस्पति (1822-1825 ई.) । इसमें व्याकरण के कतिपय सिद्धान्तों की चर्चा की गई है। शब्दार्थ-सन्दीपिका - ले.- नारायण विद्याविनोद । ई. 16 वीं शरणागति - ले.-श्रीनिवास राघवाचार्य । शरणार्थि-संवाद - ले.- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । बंगला देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् का वातावरण चित्रित । पाकिस्तानियों की क्रूरता तथा भारतीयों की सहृदयता की चर्चा । हर्ष, दुःख, द्वेष, क्रूरता, उदारता, कृतज्ञता, व्यंग आदि भावनाओं का चित्रण। शरभ-उपनिषद् - पिप्पलाद-ब्रह्मदेव संवादरूप। यह उपनिषद्, पिप्पलाद का महाशास्त्र माना जाता है जो 108 उपनिषदों में समाविष्ट है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की एकरूपता प्रतिपादित की गई है। शरभकल्प - श्लोक- 450 । शरभतन्त्रम् - श्लोक- 450 । शरभपंचांगम्- आकाश-भैरवकल्पान्तर्गत। श्लोक- 2421 । विषय- 1) शरभपटल, 2) शरभकवच, 3) शरभपद्धति, 4) शरभहृदय, 5) शरभ-सहस्रनामस्तोत्र, इ. शरभपूजा (पद्धति) - ले.-मल्लारि। श्लोक 800। 2) आकाशभैरवतंत्रार्गत। उमामहेश्वर संवादरूप। लगभग 325 श्लोकात्मक ग्रंथ। विषय- पक्षिराज शरभ के पूजा प्रकारों का वर्णन। शती। शब्दालोकरहस्यम् - ले.- गोपीनाथ मौनी। शब्दालोकविवेक - ले.- गुणानन्द विद्यावागीश । शब्दावतारन्यास - ले.- देवनन्दी । जैनेन्द्र धातुपाठ की वृत्ति । शरभारासुरविजयचम्पू - ले.-सोंठी भद्रादि रामशास्त्री। ई. 1856 से 1915। पीठापुरम् (आन्ध्र) के निवासी। शम्भुचयोपदेश - मूल तामील ले.- के.एस.वेङ्कटरमण । अनुवाद- महालिंगशास्त्री। शम्भुराजचरितम् - ले.-हरिकवि। सूरत-निवासी महाराष्ट्रीय पण्डित। कविकलश के आदेश से लिखित छत्रपति सम्भाजी का चरित्र। शम्भुलिंगेश्वरविजयचम्पू - ले.-पं. पंढरीनाथाचार्य गलगली। न्यायवेदान्तविद्वान् तथा प्रवचनकेसरी इन उपाधियों से विभूषित और मधुरवाणी, पंचामृत, तत्त्ववाद तथा वेदपुराणसाहित्यग्रंथमाला के संपादक। 1982 में इस ग्रंथ का प्रथम प्रकाशन हुबली (कर्नाटक) से हुआ। 12 तरंगों में (पृष्ठसंख्या 300 ) कर्नाटक के महान् सत्पुरुष विद्यावाचस्पति श्री. शम्भुलिंगेश्वर स्वामीजी का चरित्र इस पांडित्यपूर्ण चम्पू में लेखक ने वर्णन किया है। इस ग्रंथ को 1984 का साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। बाणभट्ट अथवा त्रिविक्रमभट्ट जैसे प्राचीन साहित्यिकों का इस चंपू में सर्वत्र अनुकरण दिखाई देता है। शम्भुविलासम् (काव्य) - ले.-विश्वनाथ भट्ट रागडे। ई. 17 वीं शती। शम्भुशतकम् - ले.-विठ्ठलदेवुनि सुंदरशर्मा । हैद्राबाद (आन्ध्र) । के निवासी। "शम्भो गिरीश गिरीराजसुताकलत्र। "इस पंक्ति का आरंभ से अंत तक चतुर्थ पंक्ति में उपयोग किया है। इस पद्धति को मकुटनियम कहते हैं।” (2) ले.- रघुराजसिंह।। बघेलखंड के अधिपति। मृत्युंजय शंकर भगवान् की स्तुति। शरभराजविलासम् (काव्य) - ले.-कावलवंशीय जगन्नाथ। ई. 1722। पिता- श्रीनिवास। तंजावर के भोसले वंश के तथा सरफोजी राजा का चरित्र। शरफोजी भोसले एक महान् विद्यारसिक नृपति एवं "सरस्वतीमहाल" नामक प्रख्यात ग्रंथालय के संस्थापक थे। शरभार्चन-चन्द्रिका - ले.-सदाशिव। शरभा पारिजात - ले.- रामकृष्ण दैवज्ञ। पिता- आपदेव । माता- भवानी । 2) श्लोक- 2174 । तन्त्रसारोद्धार से संकलित। शरभेशकवचम् (या शरभेश्वरकवचम्) - आकाशभैरवकल्पान्तर्गत, उमा-महेश्वर संवादरूप। यह शरभेशकवच भूत प्रेत आदि के भय की निवृत्ति के लिए धारण किया जाता है।। शरभेश्वरमन्त्रप्रकाश - श्लोक- लगभग 190। इसमें शरभेश्वराष्टक भी संनिविष्ट है। शरभोपनिषद् - 108 उपनिषदों में से एक। ब्रह्मा, विष्णु महेश में श्रेष्ठ कौन इस पर ब्रह्मदेव एवं पैप्पलाद के बीच जो संवाद हुआ उसका वर्णन इसमें है। शिव को श्रेष्ठ माना गया है। शरावती-जलपातवर्णनचम्पू - ले.-कुक्के सुब्रह्ममण्य शर्मा। शरीर-निश्चयाधिकार - ले.- गंगारामदास । विषय- स्त्रियों के स्वास्थ्य की चिकित्सा। शर्मिष्ठा-विजयम् (नाटिका) - ले.-नारायण शास्त्री (1860-1911 ई.) चेन्नानगरी के गीर्वाण भाषा रत्नाकर प्रेस से सन 1884 में प्रकाशित। प्रधान रस- उत्तान शृंगार, हास्य 360/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का पुट । लोकोक्तियों से भरपूर । ययाति-शर्मिष्ठा की प्रणय-कथा निबद्ध । विशेष-विष्कम्भक में शुक्रादि बड़े लोग, नायक और विदूषक का सहगान, मदिरामत्त चेट का विदूषक को प्रेयसी समझना आदि। शल्यतंत्रम् - उमा-महेश्वर संवादरूप। श्लोक- 387| विषयविष, अपस्मार (मृगी) आदि की शान्ति के लिए विविध दैवी उपाय । भूतबाधा और ग्रहबाधा दूर करने के उपाय भी निर्दिष्ट । शशिकला-परिणयम् (अपरनाम यज्ञोपवित) - ले. -ऋद्धिनाथ झा। मिथिलानरेश कामेश्वरसिंह के भतीजे जीवेश्वरसिंह के यज्ञोपवीत समारोह के उपलक्ष्य में अभिनीत । दरभंगा से सन 1947 में प्रकाशित। रचना सन 1941 में। अंकसंख्या- पांच। विषय- भक्त सुदर्शन के शशिकला के साथ विवाह की कथा। शहाजीराजीयम्- ले.- काशी लक्ष्मण। शहाजीविलासगीतम् - ले.-ढुण्डिराज। शाकटायन-व्याकरणटीका - ले.- भावसेन त्रैविद्य। जैनाचार्य । ई. 13 वीं शती। शाकटायनन्यासः (शाकटायन व्याकरण की व्याख्या) - ले.-प्रभाचन्द्र। जैनाचार्य। दो मान्यताएं। ई. 8 वीं शती या ई. 11 वीं शती। शाकटायनशब्दानुशासनम् - ले.-शाकटायन पाल्यकीर्ति । दाक्षिणात्य जैनाचार्य। गुरु- अर्ककीर्ति। ई. 9 वीं शती। इस ग्रंथ पर प्रभाचंद्र, यक्षवर्मा, अजितसेन, अभयचंद्र, भावसेन, दयापाल आदि विद्वानों की टीकाएं हैं। शाकलसंहिता (ऋग्वेद)- ऋग्वेद की शाखाओं में सम्प्रति शाकलसंहिता ही प्रचलित और मुद्रित है। इसका वर्गीकरण 3 प्रकार से किया गया है। 1) अष्टक, वर्ग और मन्त्र । 2) मण्डल, सूक्त और मन्त्र 3) मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र । ऋप्रातिशाख्य के अनुसार वर्गीकरण का चतुर्थ प्रकार भी प्रश्नरूपविच्छेद है। इनमें सम्प्रति द्वितीय वर्गीकरण (10 मंडलों का) ही प्रचलित और उपयुक्त है। इसीलिए इस संहिता को 'दशतमी' भी कहते हैं। संपूर्ण संहिता के 8 अष्टक, 64 अध्याय और (वालखिल्य के 18 वर्ग मिला कर) 2024 वर्ग हैं। अथवा 10 मण्डल और (वालखिल्य के 11 सूक्त मिला कर) 1028 सूक्त हैं। (देखिये ऋग्वेद) यह संहिता विश्व की सबसे प्राचीन ग्रंथ-सम्पदा मानी जाती है। इस पर अनेक प्राचीन, अर्वाचीन, देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा भाष्य, टीका और व्याकरण लिखे गये हैं। अन्तर साक्ष्य है कि इसमें वालखिल्य सूत्र बाद में मिलाये गये। ये मूल ऋग्वेद-शाकलसंहिता के नहीं हैं। बाष्कल के हैं ऐसा कहा जाता है। निरुक्तकार यास्क और ऐतरेय आरण्यकम् के बहुत पूर्व इसके पदपाठ की रचना ही चुकी थी। इसी के आधार पर "क्रम'' पूर्वक जटा आदि आठ विकृतियाँ आविष्कृत हुई। "स्वतःप्रमाण माने गये ऋग्वेद की मंत्रसंख्या, अक्षर, स्वर, उच्चारणादि की सर्वाङ्गीण शुद्धता और अपरि नीयता बताने के लिए ही इसका आविष्कार हुआ है। ऋग्वेद का विपुलसाहित्यप्रातिशाख्य, अनुक्रमणियों, बृहद्देवता, शिक्षाकल्पादि छह वेदाङ्ग भी इसी अभिप्राय से निर्मित हैं। ब्राह्मण और निरुक्त के साथ वेदार्थज्ञान के लिए भी ये आत्यांतिक सहाय्यक होते हैं। ऋषिः- "अग्निमीळे' से प्रारंभ होने वाली इस उपलब्ध संहिता में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तीन स्वर हैं। इसके द्रष्टा या स्मर्ता माने जाने वाले ऋषि निम्नलिखित हैं- प्रथम मण्डल 23 ऋषि विभिन्न, द्वितीय के गृत्समद, तृतीय के विश्वामित्र, चतुर्थ के वामदेव, पंचम के अत्रि, षष्ठ के भारद्वाज सप्तम के सपरिवार वसिष्ठ, अष्टम के वरंजि-गोत्रज सहित कण्व (आश्वलायन के अनुसार-प्रगाथ), नवम के अनेक ऋषि और दशम के भी अनेक ऋषि। मण्डल 2 से 7 तक एक विशेष प्रकार की परिवारिकता तथा समाबद्धता पायी जाती है; जबकी 1, 8 और 10 मण्डलों पर यह बात लागू नहीं होती। होम और पवमान देवता से सम्बद्ध नवम मण्डल के सूत्रों में छन्दों की क्रमबद्धता है। ये सभी बातें देखकर आधुनिकों की धारणा है कि द्वितीय से सप्तम मण्डल तक सभी सूक्त मौलिक अर्थात् ऋग्वेद के बीच हैं। अन्य मंडलों का क्रमिक विकास हुआ है। कुछ विद्वान् 2 से 7 मण्डलों के तथा 1,4,9,10 मण्डल के भिन्न भिन्न सार सिद्ध करने का प्रयास करते है, क्योंकि इनमें मूल में कुछ भिन्न भिन्न नये विषय आ गये हैं यथा-सृष्टि, दर्शन, विवाह. अन्तेष्टि मंत्र-तंत्र आदि। देवता- यास्क आदि वेदज्ञों के मतानुसार प्रत्येक मंत्र का कोई न कोई देवता अवश्य है। इन देवों की संख्या 33 है। इनका वर्गीकरण विविध प्रकार से किया गया है (क) 11 पृथिवीस्थानीय, 11 आन्तरिक्ष और 11 घुस्थानीय। (ख) 8 वसु 11 रुद्र, 12 आदित्य, 1 आकाश, 1 पृथिवी। (ग) 11 रुद्र, 12 आदित्य, 8 वसु. 1 प्रजापति, 1 वषट्कार । सायण के अनुसार देवता तो 33 ही हैं, किन्तु देवों की विशाल संख्या बताने के लिए 33-39 देवों का उल्लेख किया गया है। छंद- मनुष्यों को प्रसन्न और यज्ञादिकी रक्षा करनेवाले बताये गये है। ऋग्वेद में मुख्य छन्द 21 है जो 24 अक्षरों से लेकर 104 अक्षरों तक होते है। ऋग्वेद में अधिकतर सूक्त स्तुति सम्बद्ध हैं। यज्ञ में इनका प्रयोग होतृगण के ऋत्विज करते हैं। सर्वाधिक मन्त्र इन्द्र के हैं, तत्पश्चात् अग्नि और वरुण के मंत्र पाये जाते हैं। सूक्तों के विषय - ऋग्वेद के सूक्तों में 20 संवाद सूक्त; 12 तन्त्रसंबंधी, 20 धर्मनिरपेक्ष, 5 अन्त्येष्टि, छूत, 3 उपदेश. संम्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /361 For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6-7 सृष्टि विषयक सूक्त हैं। पुरुष सूक्त, नासदीय सूक्त, दशराज्ञ सूक्त आदि सूक्तों में तत्त्वज्ञान का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त समाज, राजनीति, विवाह, गृहस्थाश्रम और उसके विविध व्यवहार भी इन सूक्तों में पाये जाते हैं । उदाहरणार्थ कुछ विषय ये हैं :- रथ को ढलाना, चमडे का उपयोग, ऊन का उपयोग, कपडा बुनना, वस्त्रदान, सोना आदि धातुओं का उपयोग, कारीगर, पहरेदार, दोतल्ला मकान, घुडदौड, धनुर्बाण, तलवार, आदि शस्त्र । गाय, हाथी, गदहा, बैल, पुनर्जन्म, नदी, पर्वत, समुद्र, आदि के भी अनेक उल्लेख हैं। सर्वप्रथम व्हिटनी ने इस का अंग्रेजी अनुवाद किया है। शाकल कोई व्यक्ति का नाम नहीं । व्यक्ति-विशेष के शिष्य समूह का नाम शाकल समझना चाहिये। इस दृष्टि से शाकल नाम की पांच शाखाएं होती हैं- मुद्गल गालव - गार्ग्य- शाकल्य और शैशिरी । इन पांच शाकल शाखाओं में मूल शाकल्य, शाकलक या शाकलेयक संहिता थी। वैदिक संप्रदाय में इस संहिता का बड़ा आदर रहा है। शाकल्यप्रणीत पदपाठ भी इसी मूल संहिता पर है। - शाक्तक्रम शांकरभाष्यगाम्भीर्यनिर्णयखण्डनम् ले गौरीनाथ शास्त्री। शांकरपदभूषणम् - ले. रघुनाथशास्त्री पर्वते । । ले. - पूर्णानन्द गिरि । श्लोक - 1503 अंश - 7। विषय एकलिंगस्थान चूर्मचक्र, कोमलचूडादि शव का लक्षण, अन्तर्वाग महायज्ञविधि, दिव्यादि भावों का निरूपण दिव्यभाव आदि के लक्षण, श्रवण, मनन आदि के लक्षण, आत्मसाक्षात्कार का उपाय, चीनाचार आदि का निरूपण, कौलिक के कर्तव्य, पंचमकार साधन, कुमारीपूजा ई. शाक्तानन्दतरंगिणी ले (1) ब्रह्मानन्दगिरि पूर्णानन्द परमहंस के गुरु | इस ग्रंथ में 18 तरंग हैं। (2) 18 उल्लास। श्लोक 2838 विषय प्रकृति-पुरुष का अभेद, गर्भस्थ जीव की चिंतन रीति, दीक्षा की आवश्यकता, दीक्षासंबंधी अन्यान्य विषय प्रातः कृत्य, आसन नियम, नित्यपूजा विधि आदि, करमाला जपविधि महासेतु पुरश्चरण, मंत्रप्रकरण, अष्टादश उपचार, समयाचार, अग्निउत्पादन, कुण्डनिर्माण इ. - 2 शाक्ताभिषेक - राजराजेश्वरी के तन्त्र अन्तर्गत देवी-ईश्वर संवादरूप | श्लोक लगभग 2520। विषय- शाक्त धर्म में दीक्षित होते समय आवश्यक विधियों का प्रतिपादन । शाक्तामोद ले. शंकर द्रविताचार्य विषय शक्तिपूजाविधि, पंचशुद्धिपूजासूत्र जपसूत्र, मंत्र, चौरमंत्र तथा दीपनीमन्त्र, मन्त्रसिद्धि-लक्षण, पूजाप्रयोग, जपादि नियम, मंत्रों के स्वापकाल आदि, ब्राह्मण आदि वर्णों के भेद से सेतुकथन, महासेतु, कामकला, मंत्रसंकेत कथन, मंत्र का स्थान, भूतलिपि, घोर मंत्र के जप का स्थान, मंत्र और साधक की एकता, जीवतत्त्व मंत्रों के शिखादि अंग, पुरक्षरणविधि, पुरक्षरण का स्थान निर्देश, भक्ष्याभक्ष्य वर्ज्यावर्ण्य इ. । 362 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड शांखायन शाखाएं (ऋग्वेद की ) शांखायनों का ब्राह्मण और आरण्यक उपलब्ध हैं। उससे अनुमान हैं कि शांखायनों की कोई स्वतन्त्र संहिता होगी। शांखायनों के चार भेद हैंशांखायन, कौषीतकी, महाकौषीतकी और शाम्बव्य । शांखायन आरण्यक (ऋग्वेदीय) कुल अध्याय पन्द्रह और कुल खण्ड 137 हैं। यह आरण्यक प्रायः सभी विषयों में ऐतरेय आरण्यक से मिलता जुलता है। इसके तीसरे अध्याय से छठे अध्याय के अन्त तक कौषीतकी उपनिषद् वर्णित है। गुणाख्य शांखायन और उसके प्रमुख शिष्यों ने इसका संकलन किया होगा ऐसा तर्क है। - क- शांखायन आरण्यक - अध्याय 1-2 सम्पादक वाल्टर फ्रॉईड लण्डर, बर्लिन सन 1900। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ख- शांखायन आरण्यक 7-5 सम्पादक डा. कीथ, सन 1909 । ग- शांखायनारण्यकम् - आनन्दाश्रम पुणे। सम्पादक पं. श्रीधरशास्त्री पाठक, सन 1922 शांखायन गृह्यसंस्कार - ले. वासुदेव । ईजट के पुत्र । वाराणसी में प्रकाशित । शांखायन गृह्यसंस्कार पद्धतिले. विश्वनाथ । शांखायन गृह्यसूत्रम्- आठ अध्याय । विषय- पार्वण, विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, गर्भरक्षण, सीमंतोन्त्रयन, जातकर्म, अत्रप्राशान, चूडाकरण गोदान, उपनयन, ब्रह्मचर्याश्रम, स्नान, गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, वृषोत्सर्ग आदि । इस ग्रंथ का संपादन जर्मन विद्वान् ओल्डेनबर्ग द्वारा इण्डिचे स्टुडिएन में हुआ। इस पर निम्नलिखित टीकाएं लिखी गई हैं। (1) हरदत्तकृत भाष्य । (2) दयाशंकर (पिता- धरणीधर) कृत प्रयोगदीप (3) रघुनाथकृत अर्थदर्पण | (4) रामचंद्र (पिता सूर्यदास) कृत गृह्यसूत्रपद्धतिः (या आधानस्मृति) (5) नारायण द्विवेदी (पिता कृष्णाजी) कृत गृह्यप्रदीपक। (6) बालावबोधपद्धति । शांखायनतन्त्रम् विद्यान्तर्गत श्लोक 766 | शांखायन श्रौतसूत्रम् इस में अठारह अध्याय हैं विषयदशपूर्णमासादि वैदिकयज्ञों का विवरण, वाजपेय, राजसूय अश्वमेध, पुरुषमेथ, सर्वमेध यज्ञों का सविस्तर वर्णन । शांखायनाह्निकम् (आह्निकदीपिका) ले. - अचल । पितावत्सराज । ई. 16 वीं शती । - For Private and Personal Use Only - शाट्यायनी (सामवेद की एक शाखा ) इस शाखा के कल्प, ब्राह्मण, उपनिषद्, संहिता इ. विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं शाट्यायनी आचार्य का मत जैमिनि उपनिषद् ब्राह्मण में बहुधा उद्धृत मिलता है । शाण्डिल्यधर्मशास्त्रम् (पद्यबद्ध विषय- गर्भाधानादिसंस्कार, ब्रह्मचारी के नियम, गृहस्थ, विहितधर्म, गृहस्थानिषिद्धधर्म, वर्णधर्म, देहशोधन, सावित्रीजप इत्यादि । शाण्डिल्यस्मृति विषय भागवतों का आचार 5 अध्यायों । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में पूर्ण। शातातपस्मृति - (गद्यपद्य-मिश्रित। 47 अध्यायों एवं 2376 श्लोकों में पूर्ण। विषय- शुद्धि एवं आचार। आनंदाश्रम, पुणे द्वारा प्रकाशित। शान्तिकमलाकर (या शान्तिरत्न) - ले.- कमलाकर भट्ट।। विषय- अपशकुनों की शान्ति । मुंबई में मुद्रित। शान्तिकल्पदीपिका - विषय- गृह्याग्नि में मेंढक पडना पल्लीपतन, मूल या आश्लेषा नक्षत्र में पुत्रोत्पत्ति आदि पर शान्ति के कृत्य। शान्तिकविधि - ले.-वसिष्ठ । 213 श्लोकों में पूर्ण। विषयविपरीत नक्षत्रों के कारण पीडित होना तथा अयतहोम, लक्षहोम, कोटिहोम, नवग्रहहोम आदि का विवेचन। माध्यन्दिनीय शाखा से मन्त्र लिये गये हैं। रचना सन 1871-72 में। शान्तिकौमुदी - ले.-कमलाकरभट्ट । रामकृष्ण के पुत्र। शान्तिगणपति - ले.गणपति रावल । रचना लगभग 1685 ई. में। शान्तिचंद्रिका - ले.-कवीन्द्र। प्रस्तुत लेखक की काव्यचंद्रिका में वर्णित। शान्तिचिन्तामणि - ले.- कुलमुनि। लेखक के नीतिप्रकाश में वर्णित । शान्तिचिन्तामणि - ले.-शिवराम। पिता- विश्राम । शान्तितत्त्वामृतम् (या शान्तिकतत्त्वामृतम्) - ले.-नारायण चक्रवर्ती। शान्ति की परिभाषा यों है- "यथा शस्त्रोपघातानां कवचं विनिवारणम्। तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् 11 एतेन अदृष्टद्वारा ऐहिकमात्रानिष्टनिवारणं शान्तिः ।" अर्थात् जिस प्रकार शस्त्राघात निवारण कवच द्वारा होता है, उसी प्रकार । दैवी आघातों का निवारण शान्ति विधि द्वारा होता है। अदृष्ट उपायों से ऐहिक अनिष्टों के निवारण को ही शान्ति समझना चाहिए। इसमें अद्भुतसागर का उल्लेख है। मुद्रित। (2) ले.- शिवराम। विश्राम के पत्र । विषय- सामवेद के अनुसार नवग्रहों की शान्ति के कृत्य । लेखक ने छन्दोगानीयाह्निक भी लिखा है। रचना - इ. 1749-50 ई. में। शान्तिपारिजात - ले.-अनन्तभट्ट । शान्तिपौष्टिकम् - ले.- वर्धमान । शान्तिप्रकार - ले. - गोभिल । कर्मप्रदीप के प्रथम 7 अध्याय । शान्तिकल्पप्रदीप (या कृत्यापल्लवदीपिका) ले.-कृष्णवागीश। विषय- विरोधियों को मोहित करने, वश में करने या मारने के मंत्र। शान्तिभाष्यम्- नीलकण्ठ द्वारा। मुम्बई में जे. आर. घारपुरे द्वारा प्रकाशित । शान्तिरत्नम् (या शान्तिरत्नाकर) - ले.-कमलाकरभट्ट । शान्तिरसम् - ले.-वैकुण्ठपुरी । शान्तिविलासम् (खण्डकाव्य) - ले.- नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती। शान्तिविवेक - ले.- विश्वनाथ। विषय- ग्रहों की शान्ति के कृत्य। यह मदनरत्न का एक अंश है। शान्तिसार - ले.- दलपतिराज । नृसिंहप्रसाद नामक ग्रंथ का अंश। शान्तिसार- ले.-दिनकरभट्ट। पिता- रामकृष्ण। ई. 17 वीं शती। विषय- अयुतहोम, कोटिहोम, लक्षहोम, ग्रहशान्ति, वैनायिकी शान्ति इ.। मुंबई में मुद्रित । शान्तिस्तव- ले.-अप्पय्य दीक्षित। शान्तिहोम- ले.-माधव। शान्त्यष्टकम् - ले.-देवनन्दी पूज्यपाद। जैनाचार्य। ई. 5-6 शती। माता- श्रीदेवी। पिता- माधवभट्ट । शाबरचिन्तामणि - ले.-आदिनाथ। माता- पार्वती। विषयषट्कर्म, देवताओं (रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली) के ध्यानों और मंत्रों का प्रतिपादन । तदनन्तर शान्ति वशीकरण आदि षट्कर्म कहे गये हैं। शाबरतन्त्रम् - ले.-गोरखनाथ। श्लोक- 5801 3 प्रकरणों में पूर्ण। आदिनाथ, अनादि, काल, अतिकाल, कराल, विकराल, महाकाल, कालभैरवनाथ, बटुकनाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकण्ठ ये बारह कापालिक हैं। इनके शिष्य भी बारह हैं। - नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, मीननाथ, गोरक्षनाथ, चर्पटनाथ, अवघटनाथ, वैरागी, कन्थाधारी, धन्वन्तरि और मलयार्जुन। ये सब शाबर मन्त्रों के प्रवर्तक हैं। इस ग्रंथ के मुख्य दो विषय हैं- शाबर-सिद्धि विधि और सब विपत्तियों को दूर करने वाले सिद्ध, मंत्र आदि । योगिनीमंत्र, क्षेत्रपालमंत्र, गणेशमंत्र, कालीमंत्र, बगलामंत्र, भैरवीमंत्र, त्रिपुरसुन्दरीमंत्र, हेलकीमंत्र, मातंगीमन्त्र, डाकिनी, शाकिनी, भूत सर्प आदि के भय निवारक मंत्र, उच्चाटन, वशीकरण आदि के मन्त्र । शान्तिनाथचरित- ले.-सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई.14 वीं श.। पिता- कर्णसिंह । माता- शोभा। 16 अधिकार व 3475 पद्म। (2) शान्तिनाथचरित - ले.- मेघविजयगगणी। इसमें तथा देवनन्दाभ्युदयम् में शिशुपालवधम् और नैषध काव्य की पंक्तियों का समस्या के समान प्रयोग किया गया है। यह काव्य समस्यापूर्तिस्वरूप है। शान्तिनाथपुराणम् - तीर्थंकर शान्तिनाथ के चरित्र का वर्णन करने वाला एक जैन पुराण। 4375 श्लोक के इस ग्रंथ की रचना 17 वीं सदी में गुजरात में हुई। भट्टारक श्रीभूषण ने भी एक शांतिनाथ पुराण लिखा है । वह भी इसी काल का है। शान्तिनाथस्तवनम् - ले.-श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। शान्तिपद्धति - ले.-भर्तृहरि । यह शतक काव्य है। मुंबई में संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड 363 For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शाम्बव्यशाखा (ऋग्वेद की ) शाम्बव्य शाखा की कोई स्वतन्त्र संहिता या ब्राह्मण थे या नहीं इस विषय में निश्चित रूप से कहना असंभव है किन्तु आश्वलायन गृह्यसूत्र में शाम्बव्य आचार्य के मत का उद्धरण होने के कारण शाम्बव्य शाखा का कल्प हो सकता है । जैमिनीय श्रौतभाष्य में भी शाम्बव्यकल्प का निर्देश मिलता है। वहीं पर कल्प के 25 पटलों का निर्देश किया है। इस 24 पटलों में गृह्यसूत्र और श्रौतसूत्रों का विभाजन किस प्रकार था यह निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। महाभारतीय आश्रमवासिक पर्व के आधार पण शाम्बव्य कुरु देशवासी हो सकते हैं। शाब्दिकाभरणम् ले. - हरियोगी ( नामान्तर- प्रोलनाचार्य, शैवलाचार्य) । पाणिनीय धातुपाठ की व्याख्या। ई. 12 वीं शती । शाम्भवम् - श्लोक 200। विषय- शैवमतानुसार आह्निक क्रिया का स्पष्टीकरण । शाम्भवकल्पद्रुम ले. - माधवानन्द । शाम्भवाचारकौमुदी - ले. भडोपनामक काशीनाथ। पिताजयराम भट्ट । श्लोक- लगभग 185, पूर्ण । विषय- शिवपूजा का विस्तार से प्रतिपादन । शांभवीतन्त्रम् (ज्ञानसंकुलामात्र) श्लोक 2001 शारदा (पत्रिका) में प्रारंभ। www.kobatirth.org · - कार्यालय- शृंगेरी मठ, मैसूर। 1924 शारदा शारदा निकेतन, दारागंज, प्रयाग से 1913 में चन्द्रशेखर शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका का मूल्य विद्यार्थियों के लिए तीन रु. और अन्यों के लिये चार रु. था । पचास पृष्ठों वाली इस पत्रिका में विज्ञान, शिल्प, इतिहास, दर्शन, साहित्य आदि विषयों के निबंधों का प्रकाशन होता था । 364 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड उमा-महेश्वर संवादरूप । शारदा सन 1959 में पुणे से वसन्त अनंत गाडगील के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य 5 रु. था । इस पत्रिका में बालभारती, आन्तरभारती, शिशुभारती आदि स्तम्भों में बालकों के लिये सामग्री प्रकाशित की जाती है। इसकी भाषा अत्यंत सरल है। इसमें समाचार, नाटक उत्त्सवों के विवरण, जीवनचरित, संस्कृत विश्ववार्ता भी प्रकाशित होती है। श्री अप्पाशास्त्री से संबधित दो विशेषांक तथा इसमें प्रकाशित डॉ. श्री. भा. वर्णेकर कृत शिवराज्योदयं महाकाव्य विशेष उल्लेखनीय हैं। प्राप्ति स्थल है- झेलम, पत्रकारनगर, पुणे । शारदागम ( या शरदागम) ले पद्मनाभ मिश्र । ई. 16 वीं शती । जयदेव के "चन्द्रालोक" पर टीका । शारदातिलक- ले.- लक्ष्मण देशिकेन्द्र । पिता- वारेन्द्रकुलोत्पन्न श्रीकृष्ण रचना ई. 1300 के पूर्व । यह तान्त्रिक ग्रन्थ है, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परंतु धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में बहुधा उध्दृत हुआ है। 25 पटलों में पूर्ण विषय विभिन्न देवियों के बीजमंत्र, देवीदेवता तथा उनकी शक्तियां, दीक्षा, 18 संस्कार, वर्णमाला के अक्षर, तांत्रिक मंत्रों से पूजा, जगद्धात्री, खरिता, दुर्गा, त्रिपुरा, गणेश आदि देवताओं के मंत्र टीकाएँ (1) महाराजाधिराज पुण्यपालदेव कृत शारदातिलकप्रकाश। 2) सीरपाणिकृत मंत्रप्रकाशिका । (3) पूर्णानन्द कृत (4) । त्रिविक्रमकृत गूढार्थदीपिका (5 ( कामरूपपतिकृत गृहार्थप्रकाशिका (6) लक्ष्मण देशिककृत तंत्रप्रदीप (7) विक्रमभट्टकृत गूढार्थसार शारदातिलक- ले. गदाधर । पिता राघवेन्द्र मिथिला के राजा (भैरवेन्द्र के पुत्र) रामभद्र के शासनकाल में लगभग 1450 ई. में प्रणीत टीकाएं (1) मथुरानाथ शुक्ल कृत प्रेमनिधि प्रकाशः । ( 2 ) राघवभट्ट कृत पदार्थादर्श (3) पन्तकृत शब्दार्थचिन्तामणि । (4) हर्षदीक्षितकृत हर्षकौमुदी । इनके अतिरिक्त नारायण और भट्टाचार्य सिद्धान्त वागीश कृत टीकाएं भी हैं। शारदातिलक (भाण) ले. शेषगिरि। ई. 18 वीं शती । श्रीरंगपत्तन में अभिनीत । शारदानवरात्रविधि विषय- युद्ध-विजय के लिए यात्रार्थ आवश्यक विधि | शारदार्चाप्रयोग ले. रामचंद्र । शारदाशतकम् - ले. श्रीनिवास शास्त्री। ई. 19 वीं शती । तंजौर के निवासी। - शारदीयाख्यानम् - ले. हर्षकीर्ति । ई. 17 वीं शती। 5 सर्ग श्लोकसंध्या 465 I शारिपुत्रप्रकरणम् महाकवि अश्वघोष रचित एक रूपक जो खंडित रूप में प्राप्त है। मध्य एशिया के तुर्फान नामक क्षेत्र में प्रो. ल्यूडर्स को तालपत्रों पर 3 बौद्ध नाटकों की प्रतियां प्राप्त हुई थीं, जिनमें प्रस्तुत शारिपुत्र प्रकरण भी था। इसकी खंडित प्रति में कहा गया है कि इसकी रचना सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष ने की थी। इसी खंडित प्रति से ज्ञात होता है। कि यह "प्रकरण" कोटि का रूपक रहा होगा और उसमें 9 अंक रहे होंगे। इस "प्रकरण" में मौद्गल्यायन व शारीपुत्र को बुद्ध द्वारा दीक्षित किये जाने का वर्णन है। इसका प्रकाशन प्रो. ल्यूडर्स द्वारा बर्लिन से हुआ है। इसमें अन्य संस्कृत नाटकों की भांति नांदी, प्रस्तावना, सूत्रधार, गद्य-पद्य का मिश्रण, संस्कृत एवं विविध प्रकार के प्राकृतों के प्रयोग, भरत वाक्य आदि सभी नाटकीय तत्त्वों को समावेश है। इस नाटक में बुद्धि, कीर्ति, धृति आदि अमूर्त कल्पनाएं रूप धारण कर मंच पर आती हैं और आपस में वार्तालाप करती हैं। संस्कृत साहित्य के प्रतीक नाटकों की यह परंपरा प्रस्तुत नाटक के पश्चात् ई. 11 वीं शती के उत्तरार्थ तक खंडित रही । For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरक-चतुःसूत्रीविचार- ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय। शारीरं तत्त्वदर्शनम्- ले.- वैद्य पुरुषोत्तम सखाराम हेर्लेकर। अमरावती (विदर्भ) निवासी। अनुष्टुभ् छन्दोबद्ध शरीरविज्ञान विषयक ग्रंथ। वैद्यसम्मेलन द्वारा मैसूर में स्वर्णपदक तथा प्रशस्तिपत्रक से सत्कृत। पाश्चात्य प्रणाली के भिषजों के भी उत्कृष्ट अभिप्राय इस ग्रंथ पर मिले हैं। शारीर-निश्चयाधिकार- ले.- गंगाराम दास। विषय स्त्रियों के स्वास्थ्य का विचार। शार्दुलशकटम्- ले.-डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य । संस्कृत साहित्य परिषद्, कलकत्ता से सन 1969 में प्रकाशित। इस युग की समस्याएं, हडताल आदि का वातावरण । टेलिफोन आदि साधनों का रंगमंच पर प्रयोग। अंकसंख्या- पांच। एकोक्तियों द्वारा भावसम्प्रेषण। पुलिसों का श्रमिकों के प्रति व्यवहार, दरिद्र कर्मचारियों का मदिरापान में दुख भूलना आदि का वास्तव चित्रण। नायक आदिशूर, राष्ट्रीय परिवहन संस्था के सर्वाध्यक्ष हैं। कथासार- परिवहन संस्था के कर्मचारी हडताल करते हैं। सर्वाध्यक्ष श्रमिक नेताओं से बात करके बसें शुरू करते हैं। कलकत्ता, दुर्गापूर और उत्तर बंगाल के परिवहन-अध्यक्ष को सूचना मिलती है कि फिर हडताल हुई है। यहां जिलाधीश और राज्यपाल बस-कर्मचारियों को संबोधित करने वाले हैं, निमंत्रण पत्र बंट चुके हैं। अब हडताल में यह सब विफल होगा, इस चिन्ता में सर्वाध्यक्ष आदिशूर चिन्तित हैं। हडताल में एक कर्मचारी मारा जाता है। श्रमिकों का मोर्चा राज्यपालभवन की और जाता है, परन्तु आदिशूर श्रमिकों को सुविधाएं प्रदान करने का आश्वासन देकर उनको शान्त करते हैं। अन्त में आदिशूर-विरचित संस्थागीत कर्मियों द्वारा गाया जाता है। शास्त्रदीपिका- ले.- पार्थसारथी मिश्र । ई. 10-11 वीं। पितायज्ञात्मा। यह एक स्वतंत्र व सर्वाधिक प्रौढ कृति है। इसी के कारण इन्हें "मीमांसाकेसरी" की उपाधि प्राप्त हुई है। इस में बौद्ध, न्याय, जैन, वैशेषिक, अद्वैत, वेदांत व प्रभाकार-मत (मीमांसा-दर्शन का एक विभाग) विद्वत्तापूर्ण खंडन करते हुए, आत्मवाद, मोक्षवाद, सृष्टि व ईश्वर प्रभृति विषयों का विवेचन किया गया है। इस पर 14 टीकाएं उपलब्ध होती हैं जिनमें सोमनाथ की मयूखमालिका व अप्पय्य दीक्षित की मयूखावली नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं। [शास्त्रनिष्ठकाव्यानि- अनेक पंडित कवियों ने अपने काव्यों में प्रस्तुत कथावस्तु का वर्णन करते हुए जिस शब्दावली का प्रयोग किया उसमें व्याकरण तथा अलंकारशास्त्र के उदाहरण भी प्रस्तुत किये। भट्टिकाव्य से इस पद्धति को चालना मिली। इस पद्धति का अनुसरण करने वाले कतिपय काव्य ग्रंथ(1) दशाननवध - ले.- योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि, व्याकरण के उदाहरण (2) रावणार्जुनीयम्, 27 सर्गो का काव्य, ले.भूम या भौमक, रावण तथा कार्तवीर्य कथा, पाणिनि की संपूर्ण अष्टाध्यायी के उदाहरण प्रयुक्त। जयादित्य की काशिका में तथा क्षेमेन्द्र के सुवृत्ततिलक में उल्लेख, 7 वीं शती, इस काव्य पर परमेश्वर की टीका है। (3) लक्षणादर्श - ले.म. म. दिवाकर, 14 सर्ग, महाभारत कथा तथा पाणिनीय नियमों के उदाहरण (4) यदुवंश- ले.- काशीनाथ, यदुवंश इतिहास तथा पाणिनीय नियमों के उदाहरण (5) पाणिनीसूत्रोदाहरणम्- ले.- अज्ञात, भागवत कथा तथा पाणिनि के नियमों के उदाहरण प्रयुक्त। (6) समुद्राहरण- ले.- नारायण । 20 सर्ग। मलबार के ब्रह्मदत्त के पुत्र। (7) वासुदेवविजय - ले.- वासुदेव। (8) धातुकाव्यम्- ले.- नारायण, भीमसेन के धातुपाठ तथा माधव की धातुवृत्ति के उदाहरण। (9) वाक्यावली- ले.- अज्ञात, 4 सर्ग, व्याकरण, अलंकार, छन्द तथा अन्य प्रकारों के उदाहरण। (10) श्रीचिह्नकाव्यम्कृष्णकथा, 12 सर्ग, प्रथम, 8 सर्गों के लेखक- कृष्णलीलाशुक। वररुचि के प्राकृत प्रकाश के उदाहरण, शेष सगों के लेखक शिष्य दुर्गाप्रसाद यति, त्रिविक्रम के प्राकृत व्याकरण के उदाहरण ।] शास्त्रमंडलपूजा - ले.- ज्ञानभूषण । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती। शास्त्रसारसमुच्चय टीका- ले.-माधवनन्दी। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती। शास्त्रसमन्वय- ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भ निवासी। 20 वीं शती (पूर्वार्ध) शास्त्रसारावलि- ले.- हरिभानु शुक्ल । शास्त्रसारोद्धार- ले.- कृष्णशास्त्री होशिंग । ई. 15 वीं शती। शहाजी-प्रशस्ति- ले.- भास्कर कवि। शाहराजाष्टपदी- ले.- श्रीनिवास । शार्दूलशाखा (सामवेदीय)- शार्दूल-संहिता का ग्रंथ पहले कभी उपलब्ध रहा होगा, परन्तु अब उपलब्ध नहीं है। शार्दूलसम्पात (व्यायोग) - ले.- को. ला. व्यासराजशास्त्री। विषय- विश्वामित्र द्वारा यज्ञरक्षा के लिए दशरथ के पास पुत्र राम की मांग। शालकर्मपद्धति- पशुपति कृत दशकर्मदीपिका का एक अंश । शालग्रामदानपद्धति- ले.- बाबा देव। ई. 19 वीं शती। शालग्रामपरीक्षा- ले.- शंकर दैवज्ञ।। शालग्रामलक्षण- ले.- सदाशिव द्विवेदी। शालीय शाखा (ऋग्वेद)- इस शाखा के संहिता, ब्राह्मण और सूत्रादि ग्रंथ अभी तक अप्राप्त हैं। काशिकावृत्ति में शाखाकार ऋषियों के साथ इनका स्मरण किया है। शास्त्रदर्पण- ले.- अमलानंद। ई. 13 वीं शती। शास्त्रदीप - ले.- अग्निहोत्री नृहरि । ई. 17 वीं शती। विषयप्रायश्चित्त। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 365 For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाहराजनक्षत्रमाला- ले.- नारायण। 27 श्लोक । शाहराजसभा-सरोवर्णिनी- ले.- लक्ष्मण। माता- भवानी। पिता- विश्वेश्वर। शाहराजीयम्- ले.- लक्ष्मण। माता- भवानी। पिता विश्वेश्वर। काशी के निवासी। बाद में तंजौरनरेश शाहाजी का सभापण्डित बने। विद्यानाथ के प्रतापरुद्रीयम् का अनुकरण कर साहित्य शास्त्रीय सिद्धान्तों के उदाहरण इस स्तुतिकाव्य में प्रस्तुत किये हैं। शाहविलास - ले.. ढद्धिराज व्यास यज्वा । प्रस्तत संगीतप्रधान काव्य में तंजौरनरेश शाहाजी राज का चरित्र वर्णन किया है। शाहुचरितम्- ले.- वासुदेव आत्माराम लाटकर,। विषयकोल्हापुर के शाहु छत्रपति का गद्यमय तथा छात्रोपयोगी सुबोध चरित्र। शाहेन्द्रविलास- ले.- श्रीधर वेंकटेश। पिता- लिंगराय। 8 सर्ग। विषय- तंजौर के शाहजी का विलास। शिक्षापत्री- ले.- स्वामी सहजानंद। उद्धव सम्प्रदाय अथवा स्वामीनारायण पंथ के संस्थापक। इसमें 212 श्लोकों में सम्प्रदाय के मार्गदर्शक सहजानंद के उपदेशों का सार का समावेश है। इ. स. 1781 में अयोध्या के निकट छपैया ग्राम के सरयूपारी ब्राह्मण कुल में सहजानंद का जन्म हुआ। स्वामी सहजानंद का मूल नाम हरिकृष्ण था। पिता- धर्मदेव। माता- भक्तिदेवी । स्वामी सहजानंद की मृत्यु इ.स. 1830 में गदरा में हुई। उस समय उनके सम्प्रदाय के अनुयायियों की संख्या 5 लाख के लगभग भी। शिक्षापत्री में जन-कल्याणार्थ धर्म तथा शास्त्रों के सिद्धांतों का विवरण दिया गया है। व्यावहारिक उपदेशों के साथ दार्शनिक विचारों का भी इस ग्रंथ में समावेश है। श्री स्वामी नारायण ने अपने सिद्धांत का स्पष्ट प्रतिपादन, प्रस्तुत शिक्षा- पत्री के निम्न श्लोक में किया है गुणिनां गुणवत्ताया ज्ञेयं ह्येतत् परं फलम्। कृष्णे भक्तिश्च सत्संगोऽन्यथा यांति विदोऽप्यधः ।। ।।4।। अर्थात् गुणीजनों की गुणवत्ता का परम फल यही है कि वे कृष्ण में भक्ति एवं सज्जनों का संग करते हैं, क्योंकि जो भक्ति और सत्संग नहीं करते, वे विद्वान् होने पर भी अधोगति प्राप्त करते हैं। इसी भक्ति को स्वामी नारायण “पतिव्रता की भक्ति" कहते हैं। स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा माहात्य-ज्ञान की भक्ति की प्राप्ति में विशेष उपयोगिता है। अतः प्रस्तुत शिक्षा-पत्री में स्वामी नारायण का वचन है "माहात्म्य-ज्ञान-युग भूरि स्नेहो भक्तिश्च माधवे" और सत्संगी जीवन में उनका कथन है "स्वधर्म-ज्ञान-वैराग्य-युजा भक्त्या स सेव्यताम्।" श्री स्वामी नारायण की सम्मति में भगवत्सेवा ही परम मुक्ति है। शिक्षात्रयम् - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। ई. 20 वीं शती। इसमें कुमार, युवा तथा वृद्ध के लिये धर्मोपदेश है। साथ में स्वतः स्वामीजी की विद्वत्तापूर्ण संस्कृत टीका और पं. राजेश्वर शास्त्री द्रविड की प्रस्तावना है।। शिक्षाष्टकम्- चैतन्य (गौरांग) महाप्रभु का कोई भी ग्रंथ प्राप्त नहीं होता। केवल 8 पद्यों का एक ललित संग्रह ही उपलब्ध है जो भक्तों में “शिक्षाष्टक" के नाम से विश्रूत है। ये 8 पद्य चैतन्य द्वारा समय-समय पर भक्तों से कहे गए थे। शिक्षाष्टक में भक्ति-मार्ग की उदात्त भावना का यथष्ट निर्देश है। इन पद्यों को चैतन्य ने अपने जीवन का दर्शन ही बना डाला था। ये पद्य उनके लिये मार्गदर्शन का कार्य करते थे और अन्य साधकों के जीवन का भी वे मार्गदर्शन करें यही चैतन्य का उद्देश्य था। सनातन गोस्वामी को काशी में दो मास तक उपदेश देने के पश्चात् चैतन्य ने निम्न पद को सबका सार बताया था जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवन, इहा इते धर्म नाई, सुनो सनातन । शिक्षाष्टक का भी यही सार है। शिक्षासमुच्चय- ले.- शान्तिदेव। इसमें महायान पंथ का आचार तथा बोधिसत्त्व के आदर्शों का पूर्ण विवरण होने से यह बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध है। इसमें 27 कारिकाएं रचयिता की विस्तृत व्याख्या सहित हैं। महायान के अनेक विलुप्त ग्रंथों के उध्दरण भी समाविष्ट हैं। 19 परिच्छेदों में बोधिसत्त्व के आचार, लक्षण, विनय तथा स्वरूप का विस्तृत विवेचन । लेखक द्वारा स्वान्तःसुखाय रचना करने का उल्लेख है। सी. वेण्डल द्वारा सम्पादित अंग्रेजी अनुवाद भी संपन्न। तिब्बती अनुवाद इ. 816 से 838 के मध्य में सम्पन्न । शितिकण्ठरामायणम्-ले.- शितिकण्ठकवि । शितिकण्ठविजयम्- ले.- अभिनव भवभूति नाम से प्रसिद्ध "रत्नखेट" श्रीनिवास दीक्षित । सर्ग संख्या 17 । ई. 17 वीं शती। शिन्दे-विजय-विलासचम्पू- ले.- श्री सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर । ग्वालियर निवासी। इसमें कवि ने ग्वालियर-नरेशों के कुल की परम्परा का इतिहास संकलित किया है। ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य सिंधिया कुल की क्षत्रियता सिद्ध करना है। इसकी पाण्डुलिपि डॉ. गजानन शास्त्री मुसलगावंकर (वाराणसी) के पास उपलब्ध है। रचना अप्रकाशित है। शिबिवैभवम्- ले.- जगू शिंप्रैया (सन 1902-1960)। संस्कृत प्रतिभा में सन 1961 में प्रकाशित। स्वातंत्र्य-दिन के स्मरण-महोत्सव पर अभिनीत । अंकसंख्या-तीन। प्रथम अंक के पश्चात् शुद्ध विष्कम्भक, तदनंतर उपविष्कम्भक का प्रयोग, अति-दीर्घ संवाद तथा नाट्यनिर्देश। विषय-शिबि-कपोत की पौराणिक कथा। शिल्पदीपक-ले.- गंगाधर । काशी तथा गुजरात में प्रकाशित । 366 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिवगीतिमालिका - ले.- चन्द्रशेखर सरस्वती । कांची-कामकोटी के आचार्य। 12 सर्ग। शिवचन्द्रिका - ले.- वासुदेव दीक्षित। श्लोक- 3500। 11 पटलों में पूर्ण। शिवचम्पू - ले.- विरूपाक्ष । शिवचरित्रम् - ले.- वादिशेखर । शिवचूडामणि - दामोदर समाधि द्वारा संगृहीत। उमा-महेश्वर संवाद रूप। 12 उल्लासों में पूर्ण।। शिवत्त्वरत्नाकर - एक श्लोकबद्ध धर्मकोश। वासवभूपाल (या बसवप्प नायक) नामक राजा ने इसकी रचना की। 1694 से 1794। केलादी प्रदेश के अधिपति। अपने पुत्र सोमेश्वर के प्रश्नों के उत्तर में प्रस्तुत ग्रंथ की रचना बसवप्प ने की। ग्रंथ में अनेक स्मृति, शैवग्रंथ, राज्यशास्त्र, संगीतशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, पाकशास्त्र, कामशास्त्र आदि विषयों के ग्रंथों की जानकारी संकलित है। ग्रंथ के कल्लोल नामक नौ भाग हैं। ये 9 कल्लोल तरंगों में विभाजित हैं जिनकी संख्या 108 है। श्लोकसंख्या- 30 हजार है। मद्रास में वी.एस.नाथ एण्ड कं. द्वारा प्रकाशित। शिवतत्त्व-रहस्यम् - ले.- नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। विषय- दर्शन। शिल्पशास्त्रविधानम्- ले.- मय। शिल्पशास्त्र विषयक ग्रंथ। शिल्पशास्त्र के उपदेशक - मत्स्य पुराण में प्राचीन भारत के अठारह शिल्प शास्त्रोपदेशक बताए हैं : भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः । ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती। अष्टादशैते विख्याताः शिल्पशास्त्रोपदेशकाः ।। इन अठारह में से आज केवल भृगु, अत्रि, विश्वकर्मा, मय, नारद, गर्ग, और शुक्र के ग्रंथ मुद्रित और हस्तलिखित रूप में उपलब्ध हैं जिनके सहारे प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र की जानकारी मिलती है। शिल्पशास्त्र के संदर्भ ग्रंथ - विश्वकोश, मेदिनीकोश, तैत्तिरीय आरण्यक, शतपथ-ब्राह्मण, मत्स्यपुराण, महाभारत, शेषस्मृति, अमरकोश, शिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमत, काश्यपसंहिता, शिल्पदीपक, कौटिलीय अर्थशास्त्र, योगवासिष्ठ, बृहत्पाराशरीयकृषि, आरामरचना, मनुष्यालयचंद्रिका, मनुष्यविद्या, ऋग्वेद, अथर्ववेद, वास्तुज्योतिष, राजरत्न, राजगृहनिर्माण, शिल्परत्न, रसरत्नसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, बोधायन-धर्मसूत्र, अब्धियान, वराहपुराण, मार्कण्डेय, ज्योतिश्चक्र, नौकानयन, मनुस्मृति, मानसार, धर्मसूत्र, अगस्त्यसंहिता, भरद्वाज-वैमानिक-प्रकरण, अगस्त्यमत गोभिलगृह्यसूत्र, वास्तुविद्या तैत्तिरीयब्राह्मण, युद्धजयार्णव, और वसिष्ठसंहिता। शिवकामिस्तवरत्नम् - ले.- अप्पय्य दीक्षित । शिवकाव्यम् - कवि- श्री पुरुषोत्तम बंदिष्टे। ई. 17 वीं शती। मूलतः महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के पेडगांव के निवासी। कवि ने श्री दौलतराव शिन्दे की छावनी (लष्कर) में रहकर प्रस्तुत महाकाव्य की टीका पूर्ण की। (1) काव्येतिहास संग्रह, पुणे से ई.सं. 1885 में इस रचना के प्रथम भाग का (7 चमत्कारों का) प्रकाशन हुआ। इस का संपादन श्री नारायण काशीनाथ साने ने किया है। (2) दूसरे भाग का (शेष 8 चमत्कारों का) प्रकाशन ई. 1887 में काव्येतिहास संग्रह पुणे के द्वारा ही किया गया है। इसका संपादन श्री जनार्दन बल्लळ मोडक ने किया है। इसमें 20 सर्ग तथा 1192 पद्य हैं। इस में शिवाजी महाराज से दूसरे बाजीराव पेशवा तक मराठा साम्राज्य का इतिहास संगृहीत है। शिवकैवल्यचरितम् - ले.-मुम्बई के प्रसिद्ध डाक्टर श्री व्यंकटराव मंजुनाथ कैकिणी, (एफ.आर.सी.एस.)। कवि ने अपने पूर्वज साधु, करवार जिले के कैकिणी-ग्रामवासी, शिवकैवल्य का चरित्र इस काव्य में 6 उल्लासों में वर्णित किया है। शिवगीतमालिका - ले.-चण्डशिखामणि। शिवताण्डवम् - पार्वती-ईश्वरसंवादरूप। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभक्त। पूर्वार्ध में 14 और उत्तरार्ध में 15 पटल हैं। राजा अनूपसिंह की प्रेरणा से नीलकण्ठ (पिता- गोविंदराज) ने इस पर "अनूपाराम" नामक टीका लिखी है तथा प्रेमनिधि पन्त द्वारा रचित "मल्लादर्श' और नीलकण्ठ चतुर्धर कृत टीका है। शिवताण्डवतन्त्रम् - ले.- श्रीनाथ। श्लोक- 1500। शिवताण्डवाभिनय - ले.- कामराज । शिवताण्डव पर टीका। श्लोक 3501 शिवदर्शनार्चनपद्धति - अलवर के राजा विनयसिंह के लिए प्रणीत। शिवदयासहस्रम् - ले.-नृसिंह । शिवद्युमणिदीपिका - यह दिनकरोद्योत ही है। शिवदृष्टि - ले.- शमानन्द। श्लोक- 700। अध्याय- 71 इस पर लेखक की विवृत्ति नामक टीका है। शिवधर्मशास्त्रम् - नन्दिकेश्वर प्रोक्त। विषय- दुष्ट ग्रह आदि की शान्ति करने वाले विविध देवों के स्तवों का संग्रह। शिवधर्मोत्तरम् - शैव सम्प्रदाय का ग्रंथ। श्लोक- 9400 । शिवनारायण-भंज-महोदयम् (नाटक) - ले.- नरसिंह मिश्र । पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथपुरी) में प्रथम अभिनीत । "अंक' के स्थान पर “लोक" शब्द का प्रयोग। लोकसंख्या- पांच। यह तत्त्वचिन्तनात्मक नाटक कवोंझर के राजा शिव नारायण के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/367 For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्मान में लिखा है। शिवनृत्यतंत्रम् - दक्षिणामूर्ति -पार्वती संवादरूप। श्लोक- 124। पटल-9, विषय- तांत्रिक पूज, संबंधी विविध मंत्रों का प्रतिपादन। शिवपंचाक्षरीमन्त्रपूजाविधि - ले.- नृसिंह। श्लोक- 400। शिवपंचांगम् - रुद्रयामल तन्त्रान्तर्गत। श्लोक- 509 । शिवपादकमलरेणुसहस्रम् - ले.- सुन्दरेश्वर। शिवपादस्तुति - ले.- कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री। शिवपुष्पांजलि - ले.- विद्याधरशास्त्री । शिवपूजनपद्धति - ले.- हरिराय । शिवपूजातंरगिणी - ले.- काशीनाथ जयराम जडे । श्लोक- 200। शिवपूजानुक्रमणी - श्लोक- 700। शिवपूजापद्धति - ले.- राघवानंदनाथ। श्लोक- 1400। शिवपूजासंग्रह - ले.- वल्लभेन्द्र सरस्वती । शिवपूजासूत्रव्याख्यानम् - ले.. रामचंद्र। पिता- पांडुरंग । गोत्र-अत्रि। विषय- बोधायन सूत्र की शिवपरक व्याख्या । शिवप्रतिष्ठा - ले.- कमलाकर। शिवप्रसादसुन्दरस्तव - ले.- शंकरकण्ठ। श्लोक- 108 । शिवबोधज्ञानदीपिका - ले.- नवगुप्तानन्दनाथ । श्लोक- 38 । शिवभक्तानन्दम् - ले.- बालकवि। शिवभक्तिरसायनम् - ले.- भडोपनायक काशीनाथ। पिताजयराम। विषय- आदि के दो उल्लासों में शिवपूजा की विधि वर्णित। तीसरे उल्लास में देवी की पूजापद्धति वर्णित । आरम्भ । में पूजक के प्रातःकृत्य निर्दिष्ट । अन्त के दो उल्लासों में देव की नैमित्तिक पूजा का वर्णन । शिवभारतम् - ले. कवीन्द्र परमानन्द। छत्रपति श्री. शिवाजी महाराज के जीवनकार्य पर रचित इस महाकाव्य के कर्ता हैं नेवासा (महाराष्ट्र) के निवासी श्री. गोविंद निधिवासकर अर्थात् नेवासकर, (उपाख्य श्री. परमानंद कवीन्द्र)। आप शिवाजी के समकालीन थे। सन 1674 में अपने राज्याभिषेक प्रसंग पर उपस्थित कवि परमानंद को शिवाजी ने कहा कि वे उनके जीवन पर एक बृहत् काव्य की रचना करें। तब श्री. परमानंद ने 100 अध्यायों की योजना करते हुए श्री. शिवाजी के चरित्र पर एक महाकाव्य की रचना करने का निश्चय किया किन्तु "सूर्यवंश" नामक इस नियोजित अनुपुराण ग्रंथ के 31 अध्याय एवं 32 वें अध्याय के केवल 9 श्लोक ही रचे जा सके। इस अपूर्ण ग्रंथ में शिवाजी द्वारा सन् 1661 में श्रृंगारपुर पर की गई चढाई तक का शिव-चरित्र गुंफित है। इस काव्यकृति पर शिवाजी ने श्री. परमानंद को कवीन्द्र की पदवी प्रदान की। श्री. परमानंद इस ग्रंथ को लेकर काशी गए थे। उन्होंने ग्रंथ के पहले ही अध्याय में कहा है कि काशी के पंडितों की प्रार्थना पर उन्होंने गंगाजी के तट पर इस महाकाव्य का पाठ किया। शिव-भारत की अधिकांश रचना अनुष्टुभ् छंद में है, किन्तु प्रत्येक अध्याय के अंतिम कुछ श्लोक, अन्य बड़े छंदों में भी आबद्ध हैं। इस वीर रस-प्रधान महाकाव्य में ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि काव्यगुणों का दर्शन होता है। श्री. शिवाजी द्वारा किये गये अफजलखान के वध का प्रसंग शिवभारतकार परमानंद ने पर्याप्त विस्तार के साथ चित्रित किया है। एक जनश्रुति के अनुसार अफजलखान के वध के लिये शिवाजी ने बाघ-नखों के प्रयोग की बात बताई है। तदनुसार अफजलखान के वध के पहले स्वयं देवी भवानी ने प्रकट होकर शिवाजी से कहा था विधिना विहितोऽस्त्यस्य मृत्युस्त्वत्पाणिनामुना । अतस्तिष्ठामि भूत्वाहं कृपाणी भूमणे तव।। अर्थ- (हे शिव नप) ब्रह्मदेव की ऐसी योजना है कि तेरे इन हाथों से अफजलखान की मृत्यु हो। इसी लिये हे राजा, में तेरी तलवार बनी हुई हूं। श्री. शिवाजी महाराज के जीवन-कार्यों तथा उनकी शासनव्यवस्था आदि का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए ही कवीन्द्र परमानंद ने इस महाकाव्य की रचना की थी। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से भी प्रस्तुत शिवभारत को बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सन 1687 में कवीन्द्र परमानंद का देहावसान हुआ। शिवमहिमकलिकास्तव - ले.- अप्पय्य दीक्षित। शिवमहिम्नः स्तोत्रम् - पुष्पदंत नामक कवि ने इसकी रचना की। इसका मूल नाम धूर्जटिस्तोत्र है। स्तोत्र का प्रारंभ "महिम्नः" शब्द से हुआ है, इसी कारण इसे महिम्नः स्तोत्र कहा गया है। मध्यप्रदेश में ओंकारमांधाता में अमलेश्वर के मंदिर में एक दीवार पर यह स्तोत्र खुदा है। 31 वें श्लोक के बाद "इति महिम्नःस्तवनं समाप्तमिति" ऐसा उल्लेख है। इसका काल 1063 दिया गया है। __ आज उपलब्ध स्तोत्र में 43 श्लोक हैं। अर्थात् 11 श्लोकों की रचना बाद में किसी ने की है। मधुसूदन सरस्वती ने इसकी व्याख्या की है जिसमें शिव विष्णु का अभेद स्पष्ट किया है। शिवमाला - ले.- राजानक गोपाल। शिवमुक्तिप्रबोधिनी - ले.-काशीनाथ। भडोपनामक जयराम भट्ट के पुत्र। मुख्य उद्देश्य यह है कि मुक्ति ज्ञान से होती है और शिवपूजा से साधक को शक्ति प्राप्त होती है। शिवार्चनचन्द्रिका - ले.- अप्पय्य दीक्षित। शिवरत्नावली - ले.- उत्पलदेव । काश्मीरी शैवाचार्य । शिवभक्ति परक 21 स्तोत्रों का संग्रह। शिवरहस्यम् - स्कन्द-सदाशिव संवादरूप शैव तंत्र का ग्रंथ । अंश-12। विषय- शिवसहस्रनाम, काशीप्रशंसा, 368 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काशी-माहात्म्य,काशीवासनियमविधि, ज्ञानवापी की प्रशंसा मुक्तिमण्डपाख्यान, वीरेश्वर का इतिहास, पशुपतीश्वर का इतिहास, दक्षिण-कैलास का वर्णन, वृद्धाचल की महिमा इ.। शिवराजविजयम् - ले.- अम्बिकादत्त व्यास। समय1858-1900 ई.। प्रौढ, प्रगल्भ तथा समासप्रचुर गद्य शैली में लिखित शिवाजी महाराज का उपन्यासात्मक चरित्र । प्रस्तुत ग्रंथ का संशोधन तथा मुद्रण पं. जितेन्द्रियाचार्य ने किया। 16 आवृत्तियां प्रकाशित। शिवराज्याभिषेकम् (नाटक) - ले.-डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक त्रिशताब्दी महोत्सव निमित्त महाराष्ट्र शासन के अनुदान से प्रकाशित सात अंकी नाटक। राज्याभिषेक की महत्वपूर्ण घटना को इसमें प्राधान्य से चित्रित किया है। प्रकाशक- वसंत गाडगील, पुणे। शिवराज्याभिषेक प्रयोग - ले.- गागाभट्ट काशीकर । ई. 17 वीं शती। छत्रपति शिवाजी महाराज के वैदिक राज्याभिषेक महोत्त्सव निमित्त लिखित । पुणे में प्रकाशित। मराठी अनुवादश्रीधर भास्कर वर्णेकर द्वारा । मुंबई विद्यापीठ के शिवराज्याभिषेक ग्रंथ (कॉरोनेशन व्हॉल्यूम) में प्रकाशित । शिवराज्योदयम् - ले.- डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। नागपुर निवासी। छत्रपति शिवाजी महाराज का प्रारंभ से उनके राज्याभिषेक महोत्सव तक का चरित्र 68 सों के प्रस्तुत महाकाव्य में प्राचीन महाकाव्य की परम्परानुसार वर्णित किया है। समग्र श्लोकसंख्या 4 हजार। अनुष्टुप्, उपजाति वृत्तों के अतिरिक्त रथोद्धता, वियोगिनी, शार्दूलविक्रीडित आदि विविध वृत्तों का भी उपयोग प्रस्तुत महाकाव्य में हुआ है। पुणे की शारदा पत्रिका में यह महाकाव्य क्रमशः प्रकाशित हुआ। इस महाकाव्य को सन 1973 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। डॉ. गजानन बालकृष्ण पलसुले ने प्रस्तुत महाकाव्य की विस्तृत प्रस्तावना लिखी है। शिवाराधनदीपिका - ले.- हरि। शिवलिंगप्रतिष्ठाविधि - ले.- अनन्त । (2) ले.- रामकृष्णभट्ट । पिता- नारायणभट्ट। शिवलिंगसूर्योदयम् - ले.- मल्लारि आराध्य। ई. 18 वीं । शती। विषय- वीरशैव सम्प्रदाय का श्रेष्ठत्व। शिवलीलार्णव- रचयिता- नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। 22 सर्ग के इस महाकाव्य का वर्ण्य विषय है मदुरै के हालास्यनाथ का आख्यान । शिववाक्यावली - ले.- चण्डेश्वर। पिता- वीरेश्वर। शिवविद्याप्रकाश - श्लोक- 350। प्रकाश- 3| विषयभगवान् शिव का श्रेष्ठत्व। शिवविलासचम्पू - ले.- विरूपाक्ष । शिवविवाहम् - ले.- पं. अम्बिकादत्त व्यास । ई. 19 वीं शती। शिवशतकम् - ले.- बाणेश्वर विद्यालंकार। ई. 17-18 वीं शती। (2) ले.- राम पाणिवाद । ई. 18 वीं शती। (3) ले.- राजशेखर। (4) ले. वासिष्ठ गणपति मुनि। ई. 19-20 वीं शती । कर्नाटक निवासी । पिता- नरसिंह । माता- नरसांबा । शिवशान्तस्तोत्रतिलकम् - ले.- श्रीधर स्वामी। 1908-1973 । रामदासी संप्रदाय के महाराष्ट्रीय तपस्वी । शिवसमयांकमातृका - ले.- श्रीशिंगक्षितिपति । विषय- शक्ति की पूजा से संबद्ध आवश्यक विविध विषयों का प्रतिपादन । शिवसहस्रनाम - स्कंद-सदाशिव संवादात्मक। शिवरहस्य के सप्तमांशान्तार्गत। शिवसहस्रनाम - 125 श्लोक। महाभारत के अनुशासन पर्व एवं शांतिपर्व में ये सहस्रनाम हैं। शिव, लिंग एवं वामन पुराण में भी शिवसहस्रनाम हैं। ये शिवसहस्रनाम शिवोपासना पर साहित्यिक निधि ही हैं। विष्णु सहस्रनाम के उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलते हैं। उस तुलना में यह बाद में निर्मित लगता है। शिवसहस्रनामस्तोत्रम् - (नामान्तर- परमशिवसहस्रनाम । रुद्रयामलान्तर्गत, हर-गौरी संवादरूप। शिवसहस्रनामावलि - रुद्रयामलान्तर्गत यह स्तोत्र गद्यमय है। इसमें चतुर्थ्यन्त शिव नाम “नमः' शब्द के कारण कहे गये हैं। शिवसंहिता - रामभक्तिशाखा का एक ग्रंथ। इस ग्रंथ में बीस अध्याय हैं। शिवपार्वती तथा अगस्त्य-हनुमान् संवादों में संतसमागम की महिमा, श्रीरामचंद्रजी के अनेक गुणों एवं विभूति का वर्णन, वनदर्शन, वनक्रीडा आदि का वर्णन है। भागवत की रासलीला के आधार पर राम-सीता की विलास लीला का वर्णन किया गया है। अंतर्दृष्टि खुलने पर ब्रह्मांड ही अयोध्यारूप दिखाई देने लगता है, इस भांति वर्णन है। शिवसंहिता - शिव-नन्दी संवादरूप । श्लोक-2511 । परिच्छेद41। विषय- प्रकृति, पुरुष, आदि का निरूपण। विष्णु, महादेव आदि के शरीर पदार्थो का निरूपण। प्राकृत जीवों के देह में स्थित प्राण आदि का वर्णन। ब्रह्मचर्य आदि आश्रम और उनके धर्मों का प्रतिपादन। जीवात्मा और परमात्मा का परस्पर तादात्म्य इ.। शिवसिद्धान्तमंजरी - ले.- भडोपनामक काशीनाथ। पिताजयरामभट्ट। विषय- विविध ग्रंथों तथा मुख्यतया पुराणों के उद्धरणों द्वारा शिवाजी की श्रेष्ठता। शिवसूत्रम् (या स्पन्दसूत्रम्) - ले.- वसुगुप्त । शिवसूत्रवार्तिकम् - ले.- भास्कराचार्य । शिवसूत्रविमर्शिनी - ले.- क्षेमराज। शिवसूत्र का व्याख्यान । श्लोक लगभग 898।। शिवस्वरोदय - प्राणशक्ति के निरोध पर आधारित स्वरोदय . संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 369 २० For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामक शास्त्र शिव ने पार्वती को सुनाया, अतः इसे शिवस्वरोदय कहते हैं। इसमें 395 श्लोक हैं। स्वास्थ्य कैसे रखा जाये, रोग निर्मूलन, किसी प्रश्न का उत्तर कैसे ढूंढा जाये आदि अनेक गूढ विषय इस शास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होते हैं। शिवस्वामिप्रोक्तं व्याकरणम् - ले.- शिवस्वामी वर्धमान । इसका निर्देश पतंजलि, कात्यायन के साथ करते हैं। यह उच्च कोटि का व्याकरण है। शिवाग्निपद्धति - श्लोक- 2001 शिवाजि-चरितम् (नाटक)- ले.- हरिदास सिद्धान्तवागीश। रचनाकाल-सन 1945 । अंकसंख्या- दस । उच्चस्तरीय छायातत्त्व, गीतों का बाहुल्य, लम्बी एकोक्तियों द्वारा अर्थोपक्षेपण, सूक्तियों तथा लोकोक्तियों का सुचारु प्रयोग, मंच पर शवयात्रा दिखाना, प्रस्तावना में पारिपार्श्वक का तिरंगा झंडा लेकर आना, मंच पर सर्कस दिखाना, जयन्तीदेवी द्वारा स्त्रियों की सेना की योजना आदि इसकी विशेषताएं हैं। जनता में देशप्रेम जगाना इस का उद्देश्य है। शिवाजीचरितम् (काव्य)- ले.- कालिदास विद्याविनोद । प्रस्तुत काव्य कलकत्तासंस्कृत साहित्य पत्रिका के 11 वें अंक में प्रकाशित हुआ है। शिवाजिविजयम् (प्रेक्षणक) - ले.- रंगाचार्य। संस्कृत साहित्य परिषत्पत्रिका (कलकत्ता) से सन 1938 में प्रकाशित । अंकसंख्या- दो। नांदी, प्रस्तावना, भरतवाक्य का अभाव । संवाद अत्यंत लम्बे। पद्य नहीं। शिवाजी के आगरे में बन्दी होने से साधुवेष में राजधानी पहुंचने तक का कथाभाग वर्णित। शिवाद्वैत-प्रकाशिका- ले.- भडोपनामक काशीनाथभट्ट । पिताजयरामभट्ट। विषय- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप। चतुर्विध पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम श्रेष्ठ पुरुषार्थ है और वह आत्म-तत्त्वज्ञान के अधीन है, तथा आत्मतत्त्व का ज्ञान शिवाधीन हैं, एवं महाशक्ति की आत्मा शिव है, जिनकी पूजा मोक्ष की ओर अग्रेसर करती है। इसमें पूजा का वैदिक आकार-प्रकार निर्दिष्ट है जो तान्त्रिक पूजा के आकार प्रकार से विशिष्ट है। शिवाद्वैतसिद्धान्त - वीरशैव सम्प्रदाय का ग्रंथ। पटल-33 । पार्वती-परमेश्वर संवादरूप। विषय- लिंगधारण, शिवाग्निजनन, दीक्षाविधान, पंचाक्षरविधान, लिंगलक्षण, वीरशैव का वैशिष्ट्य आदि। शिवानन्दलहरी - ले.- प्रा. कस्तूरी श्रीनिवासशास्त्री। शिवापराधभंजन-स्तोत्रम्- ले.- शंकराचार्य । शिवाम्बुकल्प - रुद्रायामलान्तर्गत। ईश्वर-पार्वती संवादरूप। श्लोक-125 | विषय- स्वमूत्र का पान के रूप में तान्त्रिक उपयोग, जिससे सर्वविध रोगों का विनाश कहा गया है। शिवाम्बुविधिकल्प - श्लोक-1801 विषय- स्वमूत्रपान का महत्त्व। शिवाराधनदीपिका - ले.- हरि। श्लोक-1500 । शिवार्कोदय - ले.- गागाभट्ट। ई. 17 वीं शती। पितादिनकर भट्ट। जैमिनीय पूर्वमीमांसा पर शबरस्वामी के भाष्य का कुमारिलभट्ट द्वारा छन्दोबद्ध विवरण अपूर्ण (केवल प्रथम अध्याय का प्रथम पाद) होने से शिवाजी महाराज की सूचना पर लेखक द्वारा विवरण कार्य प्रस्तुत ग्रंथ के रूप में पूर्ण किया गया। शिवार्चनचन्द्रिका - ले.- श्रीनिवासभट्ट। पिता- श्रीनिकेतन । गुरु-सुन्दरराज। श्लोक-5840। प्रकाश-16। विषय- दैनिक पूजा, पुरश्चरण, तथा गणेश, शक्ति, विष्णु, सूर्य, शिव आदि की उपासना। गुरु लक्षण, सत् और असत् शिष्यों के लक्षण । गुरु और शिष्य की परीक्षा । दीक्षा के काल आदि का निरूपण। दीक्षा के अधिकारी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के विभिन्न मंत्र, वर्णसंकरों के दीक्षाधिकार का विवेचन, मंत्रों के पुल्लिंग, स्त्रीलिंग आदि लिंगों का कथन इ. । शिवार्चनदीपिका- ले.- अद्वैतानन्दनाथ। श्लोक-2000। शिवार्चनपद्धति - ले.- अमरेश्वर । शिवार्चनमहोदधि - ले.- भद्रनन्द। श्लोक-4200। शिवार्चनशिरोमणि - ले.- ब्रह्मानन्दनाथ। गुरु- लोकानन्दनाथ । श्लोक- 40001 उल्लास- 201 2) ले.- नारायणानंदनाथ । शिवालयप्रतिष्ठा-ले.- राधाकृष्ण । शिवावतारप्रबंध - ले.-व्यंकटेश वामन सोवनी। समय इ.स. 1882 से 1925 | विषय- शिवाजी महाराज का चरित्र । शिवाष्टपदी - ले.- वेङ्कप्पा नायक। मैसूरधिपति। ई. 17 वीं शती। शिवाष्टमूर्तितत्त्वप्रकाश - ले.- रामेश्वर । सदाशिवेन्द्र सरस्वती के शिष्य। शिवोत्कर्षमंजरी - ले.- नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती । शैव काव्य। शिशुगीतम् - ले.- डॉ. सुभाष वेदालंकार । अलंकार प्रकाशन, आदर्शनगर, जयपुर-4। शिशुगेय 30 गीतों का संग्रह । विषयराष्ट्रभक्ति। शिशुपालवधम् - गुजरात निवासी महाकवि माघ द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य । ई. 7 वीं सदी (उत्तरार्ध)। इस महाकाव्य में 20 सर्ग और श्लोकसंख्या-1645 है। पंद्रहवें सर्ग के प्रक्षिप्त 34 श्लोक एवं कविवंश वर्णन के 5 श्लोक मिलाकर यह संख्या 1684 होती है। युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ के समय भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र से चेदिराज शिशुपाल का वध किया था, यही कथा इसमें है। संस्कृत साहित्य के पंच महाकाव्यों में इसकी गणना होती है। माघ में कवित्व की अपेक्षा पांडित्य-भरपूर था। अंगभूत रस "वीर" है। परंतु शंगार को महाकाव्य के मध्य-भाग में 370/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशेष महत्त्व दिया है। "श्रियः पतिः श्रीमती शासितुं जगत्" यह शिशुपाल वध का प्रथम श्लोक है तथा उसके प्रत्येक सर्ग की समाप्ति" श्री शब्द से होती है अतः इसे "थ्रयंक" महाकाव्य कहते है। "नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते'यह इस महाकाव्य की अपूर्वता मानी जाती है। शिशुपालवधम् के टीकाकार- (1) मल्लिनाथ, (2) पेद्दाभट्ट, (3) चित्रवर्धन, (4) देवराज, (5) हरिदास, (6) श्रीरंगदेव, (7) श्रीकण्ठ, (8) भरतसेन, (9) चन्द्रशेखर, (10) कविवल्लभचक्रवर्ती, (11) लक्ष्मीनाथ, (12) भगवद्दत्त, (13) वल्लभदेव, (14) महेश्वरपंचानन, (15) भगीरथ, (16) जीवानन्द विद्यासागर, (17) गरुड, (18) आनन्ददेवयाजी, (19) दिवाकर, (20) बृहस्पति, (21) राजकुन्द, (22) जयसिंहाचार्य, (23) श्रीरंगदेव, और पद्मनाभदत्त, (24) वृषाकर, (25) रंगराज, (26) एकनाथ, (27) भरतमल्लिक, (28) गोपाल, और (29) अनामिक । शिशुबोधव्याकरणम् - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलबाराव महाराज। विदर्भनिवासी। शिष्यधीवृद्धिदतंत्रम्- ले.- लल्ल। प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ। लल्ल ने ग्रंथ-रचना का कारण देते हुए अपने इस ग्रंथ में बताया है कि आर्यभट्ट अथवा उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए ग्रंथों की दुरूहता के कारण, उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की है। "शिष्यधीवृद्धिदतंत्र" मूलतः ज्योतिष शास्त्र का ही ग्रंथ है। इसमें अंकगणित या बीजगणित को स्थान नहीं दिया गया। इसमें एक सहस्र श्लोक व 13 अध्याय हैं। सुधाकर द्विवेदी द्वारा संपादित इस ग्रंथ का प्रकाशन वाराणसी से 1886 ई. में हो चुका है। शिष्यलेखधर्मकाव्यम् - ले.- चन्द्रगोमिन् । विषय- बौद्धसिद्धान्तों का काव्यशैली में गुरु द्वारा शिष्यों को उपदेश। शिष्यों को गुरु के उपदेश के रूप में मिनायेफ, वेंफल आदि द्वारा प्रकाशित। शीखगुरुचरितामृतम् - ले.- श्रीपाद शास्त्री हसूरकर। इन्दौर निवासी। विषय- सिक्ख संप्रदाय के पूज्य गुरुओं का गद्यात्मक चरित्र। शीघ्रबोध - ले.- शिवप्रसाद । शीलदूतम् - ले.-चरित्रसुन्दरगणी। विषय- मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति द्वारा तत्त्वोपदेश। शुकपक्षीयम् - श्रीमद्भागवत की टीका । टीकाकार श्री. सुदर्शन सरि । ई. 14 वीं शती। यह टीका शुकदेवजी के विशिष्ट मत का प्रतिपादन करती है। टीका बहुत ही संक्षिप्त है। कहीं-कहीं दार्शनिक स्थलों पर विस्तृत भी है। इसमें विशिष्टाद्वैत के सिद्धान्तों की दृष्टि से भागवत तत्त्व का निरूपण है। अष्टटीकासंवलित भागवत के संस्करण में यह केवल दशम, एकादश एवं द्वादश स्कंधों पर ही उपल्बध है। शुकसूक्तिसुधारसायनम् (काव्य) - ले.- सुब्रह्मण्य सूरि । शुक्रनीति - भारतीय राजनीतिशास्त्र का एक मान्यता प्राप्त ग्रंथ। इसके चार अध्याय हैं। शुक्र इसके कर्ता हैं। वे उशना, भार्गव, कवि, योगाचार्य तथा दैत्यगुरु नाम से भी परिचित हैं। शुक्रनीति में भारतीय समाज का जो चित्रण किया गया है, वह एक विकसित समाज का है। उस समय वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था में परिणत हो गई थी। यह समाज चंद्रगुप्तकाल का है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह गुप्तकाल में रचा गया है। सम्राट् हर्ष के पूर्व का यह काल (400 से 600 वर्ष के बीच में) होगा। राजा के कर्तव्य, भूमिमापन, नगर बसाना, आवास निर्माण, युवराज व मंत्रियों के कार्य, गोलाबारूद निर्माण, कापट्यकरण आदि का उल्लेख है। शुक्र का यह मत है कि नीतिशास्त्र, शास्त्रों का शास्त्र है। त्रैलोक्य में उत्तम मार्गदर्शक है। नीति की प्रस्थापना के लिये उन्होंने राज्याविस्तार का सिद्धान्त रखा है। कौटिल्य के पश्चात् राज्यकार्य के बारे में सविस्तर जानकारी देने वाला यह प्रमुख ग्रंथ है। शुक्रनीतिसार- ओपर्ट द्वारा मद्रास में सन् 1892 ई.में, एवं जीवानन्द द्वारा 1892 में प्रकाशित तथा प्रा. विनयकुमार सरकार द्वारा "सेक्रेड बुक्स ऑफ दि हिन्दू-सीरीज' में अनूदित। चार अध्यायों में एवं 2500 श्लोकों में पूर्ण। इसमें राजधर्म, अस्त्रशस्त्रों एवं बारूद (आग्नेयचूर्ण) आदि का वर्णन है। शुक्लयजुःप्रतिशाख्यम् - ले.- कात्यायन । शुक्लयजुर्वेद - यजुर्वेद का एका भेद। शुक्ल यजुर्वेद की संहिता "वाजसनेयी संहिता" नाम से प्रसिद्ध है। इसके चालीम अध्याय हैं। अंतिम पंद्रह खिलरूप हैं। इस संहिता में दर्शपौर्णमासेष्टी, अग्निहोत्र, राजपय वाजपेय आदि यज्ञयाग के मंत्र दिये गये हैं। (देखिये वाजसनेयी संहिता ।) शुक्लयजुः सर्वानुक्रमसूत्रम्- इस ग्रंथ के रचयिता कात्यायन माने जाते हैं। पांच अध्याय। माध्यंदिन संहिता के देवता, ऋषि, छंद का विस्तत वर्णन है। महायाज्ञिक श्रीदेव ने इस पर भाष्य लिखा है। शुद्धकारिका- ले.- रामभद्र न्यायालंकार। रघु के शुद्धितत्त्व पर आधृत। 2) ले.- नारायण वंद्योपाध्याय। शुद्धविद्याम्बापूजापद्धति - श्लोक - 472 । शुद्धशक्तिमालास्तोत्रम्- श्लोक- 1201 शुद्धसत्त्वम् (नाटक) - ले.- मदहषी वेंकटाचार्य, ई. 19 वीं शती। विशिष्टाद्वैत मत के प्रचारार्थ लिखित । शुद्धाद्वैतमार्तण्ड- ले.- गोस्वामी गिरिधरलालजी। ई. 18 वीं शती। शुद्धिकारिकावलि - ले.- मोहनचंद्र वाचस्पति । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/371 For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धिकौमुदी- ले.- गोविन्दानन्द। 2) ले.- सिद्धान्तवागीश भट्टाचार्य । शुद्धिकौमुदी- ले.- महेश्वर। विषय- सहगमन, अशौच, सपिण्डतानिरूपण, गर्भस्रावाशौच सद्यःशौच, शवानुगमनाशौच, अन्त्येष्टिविधि, मुमूर्षकृत्य, अस्थिसंचयन, उदकादिदान, पिण्डोदकदान, वृषोत्सर्ग, प्रेतक्रियाधिकारी, द्रव्यशुद्धि । शुद्धिचन्द्रिका - 1) ले.- कालिदास। 2) ले.- नन्दपण्डित । ई. 16-17 वीं शती। यह कौशिकादित्यकृत षडशीति या अशौचनिर्णय नामक ग्रंथ पर टीका है। शुद्धिचिन्तामणि- ले.- वाचस्पति मिश्र। शुद्धितत्त्वम् - ले.- रघु। जीवानन्द द्वारा प्रकाशित । टीका1) बांकुडा में विष्णुपुर के निवासी राधावल्लभ के पुत्र काशीराम वाचस्पति द्वारा, कलकत्ता में 1884 एवं 1907 ई. में मुद्रित। 2) ले.- गुरुप्रसाद न्यायभूषण भट्टाचार्य । 3) राधामोहन शर्मा द्वारा कलकत्ता में 1884 एवं 1907 में मुद्रित । शुद्धितत्त्वकारिका - ले.- हरिनारायण। रघु के शुद्धितत्त्व पर आधृत ग्रंथ। शुद्धितत्त्वार्णव - ले.- श्रीनाथ । समय - 1475-1525 ई.। शुद्धिदर्पण - ले.- अनन्तदेव याज्ञिक। इसमें शुद्धि की परिभाषा यह दी हुई है- "विहितकर्हित्वप्रयोजको धर्मविशेषः शुद्धिः"। गोविन्दानन्द की शुद्धिकौमुदी के ही विषय इसमें प्रतिपादित है। 4) ले.- वाचस्पति मिश्र। शुद्धिप्रकाश - ले.- भास्कर । पिता- आप्पाजी भट्ट । त्र्यम्बकेश्वर के निवासी। ई. 1695-96 में प्रणीत । 2) ले.- कृष्ण शर्मा। पिता- नरसिंह। घोटराय के आदेश से लिखित। शुद्धिप्रदिप - ले.- केशवभट्ट। शुद्धिप्रदीपिका- ले.- कृष्णदेव स्मार्तवागीश। शुद्धिप्रभा- वाचस्पति द्वारा। शुद्धिमकरन्द- ले.- सिद्धान्त वाचस्पति। शुद्धिमयूख- ले.- नीलकण्ठ। आर. घारपुरे द्वारा मुंबई में प्रकाशित। शुद्धिमुक्तावली - ले. म.म. भीम। बंगाल के कांजीवल्लीयकुलोत्पन्न । विषय- अशौच। शुद्धिवचोमुक्तागुच्छक- ले.- माणिक्यदेव। (अग्निचित् एवं पण्डिताचार्य उपाधिधारी) विषय- अशौच, आपद्धर्म, प्रायश्चित्त आदि। शुद्धिविवेक - ले.- 1) रुद्रधर लक्ष्मीधर के पुत्र एवं हलधर के अनुज। 2) ले.- श्रीनाथ। श्रीशंकराचार्य के पुत्र। 1475-1525 ई.। 3) अनिरुद्ध की हारलता का एक अंश । 4) ले.- शूलपाणि । शुद्धिव्यवस्थासंक्षेप- ले.- गौडवासी चिन्तामणि न्यायवागीश। स्मृति व्यवस्थासंक्षेप का एक अंश। (1688-89 ई.) लेखक ने तिथि, प्रायश्चित्त, उद्वाह, श्राद्ध एवं दाय पर भी ग्रंथ लिखे हैं। शुद्धिरत्नम्- ले.- दयाशंकर। अनूपविलास से उद्धृत । 2) ले.- मणिराम। पिता- गंगाराम । शुद्धिरत्नाकर- ले.- मथुरानाथ चक्रवर्ती । शुद्धिदीप- (या प्रदीप) ले.- केशवभट्ट। गोविन्दानन्द की शुद्धिकौमुदी के विषयों का ही विवेचन है। शुद्धिदीपिका- ले.- दुर्गादत्त। प्रयोगसार से संगृहीत। शुद्धिदीपिका - ले.- श्रीनिवास महीन्तापनीय। ई. 12 वीं शती। विषय- ज्योतिःशास्त्र की प्रशंसा एवं राशिनिर्णय, ताराशुद्धिनिर्णय, विवाहनिर्णय, जातकनिर्णय, नामादिनिर्णय और यात्रानिर्णय नामक आठ अध्यायों में प्रतिपादित। लगभग 1159-60 ई. में प्रणीत। टीका- 1) प्रभा-कृष्णाचार्य द्वारा। (2) प्रकाश-राघवाचार्य द्वारा। कलकत्ता में सन 19011 में मुद्रित। (3) अर्थकौमुदी-गणपतिभट्ट के पुत्र गोविन्दानन्द कविकंकणाचार्य द्वारा। कलकत्ता में सन 1901 में मुद्रित । (4) दुर्गादत्त द्वारा। (5) नारायण सर्वज्ञ द्वारा। (6) केशव भट्ट कृत (7) मथुरानाथ शर्मा द्वारा। शुद्धिनिबंध- ले.- मुरारि । रुद्रशर्मा के पुत्र । ई. 15 वीं शती। लेखक- के पितामह हरिहर मिथिला के भवेश के ज्येष्ठ पुत्र देवसिंह के मुख्यन्यायाधीश थे। शुद्धिनिर्णय- 1) ले.- गोपाल। 2) ले.- उमापति। 3) ले.- दत्त उपाध्याय। ई. 13-14 वीं शती। शुद्धिसार - ले.- कृष्णदेव स्मार्तवागीश । 2) ले.- गदाधर। 3) ले.- श्रीकण्ठ शर्मा। शुद्धिसेतु-ले.- उमाशंकर। शुभकर्मनिर्णय- ले.- मुरारि मिश्र। विषय- गोभिल के अनुसार गृह्य कृत्य। ई. 15 वीं शती। शुल्बसूत्रम् - कल्पसूत्र (वेदांग) का एक भाग। वैदिक कर्मकांड कल्पसूत्रों का मुख्य विषय है जिसके तीन प्रकार हैंगृह्यसूत्र, श्रौतसूत्र एवं धर्मसूत्र । कर्मकांड से संबंधित रहने से यजुर्वेद की शाखाओं में ये उपलब्ध हैं। कात्यायन शुल्बसूत्र शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध है। बौधायन, आपस्तंब, सत्याषाढ, मानव, वाराह एवं वाघूल शुल्बसूत्र कृष्णयजुर्वेद से सम्बद्ध है। बोधायन सबसे बड़ा एवं सबसे प्राचीन है। इसमें 525 सूत्र हैं। विविध परिमाण, वेदी की निर्मिति के लिये आवश्यक रेखागणित के नियम आदि विषय इसमें हैं। 372/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शूद्रकमलाकर - (या शूद्रधर्मतत्त्व) ले. कमलाकरभट्ट। संविधान। छोटे छोटे गेय छन्द। अनुप्रासों का प्रचुर प्रयोग। शूद्रकुलदीपिका - ले.- रामानन्द शर्मा । विषय- बंगाल के भव्य चरित्र-चित्रण। विदूषक नहीं, फिर भी हास्य रस का पुट कायस्थों के इतिहास एवं वंशावली का विवेचन । है। कथासार- शिवपुत्र स्कन्द देवताओं का नेतृत्व करते हुए शूद्रकृत्यम् - (अपर नाम -श्रुतिकौमुदी) ले.- मदन पाल। असुरों को परास्त कर दानव-राज शूर को मयूररूप में वाहन शूद्रधमोद्योत- ले.- दिनकरभट्ट। लेखक के दिनकरोद्योत का बनाते हैं और इन्द्र की कन्या देवसेना से विवाह करते हैं। यह एक अंश है। पुत्र गागाभट्ट ने ग्रंथ पूर्ण किया। "शूरमयूर" का अभिप्राय- शूर नामक दानव का मयूर बन जाना। शूद्रपंचसंस्कारविधि - ले.- कश्यप। शूर्पणखाप्रलाप-चम्पू - ले.- नारायण भट्टपाद । शूद्रपध्दति . ले.- कृष्णतनय गोपाल (उदास विरुदधारी) शूर्पणखाभिसार - ले.- डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य। संस्कृत विषय- शूद्रों के 10 संस्कार। इस बृहत् ग्रंथ में- गर्भाधान, प्रतिभा में प्रकाशित गीतिनाटय। दृश्यसंख्या- पांच। गद्य तथा पुंसवन, अनवलोभन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, प्राकृत का अभाव। नृत्यगीतों से भरपूर। शूर्पणखा की राम अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विवाह एवं पंचमहायज्ञों का विवरण किया तथा लक्ष्मण से प्रणययाचना और लक्ष्मण द्वारा छल से उसे है। मयूख एवं शुद्धितत्त्व का उल्लेख है। विरूप करना वर्णित है। कहीं कहीं उत्तान वर्णन है। 2) अविपाल। पिता-देहणपाल। ई. 15 वीं शती। यह ग्रंथ शूलपाणि शतकम् - ले.- कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री। राजमहेन्द्री सोम मिश्र के ग्रंथ पर आधारित है। में प्राध्यापक। शूद्रविवेक- ले.- रामशंकर। शूलिनीकल्प - श्लोक- संख्या- 200। शूलिनीस्तोत्रम् - आकाशभैरव कल्प के अन्तर्गत, उमाशूद्र-श्राद्धपद्धति- ले.- रामदत्त ठक्कुर । महेश्वर संवाद रूप। श्लोक- 28401 29 अध्यायों में पूर्ण । शूद्रसंस्कारदीपिका- ले.- गोपालभट्ट। कृष्णभट्ट के पुत्र । विषय शूलिनी देवी का मंत्र, प्राणबीज, शक्तिबीज, नेत्रबीज, शूद्राचार - केवल पुराणों के उद्धरणों का संग्रह। श्रोत्रबीज, जिह्वाबीज, महावाक्य, मंत्रगायत्री, अकारादि 50 वर्ण, शूद्राचारचिन्तामणि- ले.- मिथिला नरेश हरिनारायण के दिक्पालबीज आदि मंत्रों के 10 अंग, जपमन्त्र, स्तोत्र पूजाविधि सभापंडित। आदि। शूद्राचारपद्धिति - ले.- रामदत्त ठक्कुर । शृंगारकलिका (खंडकाव्य) - ले.- राय भट्ट । शूद्राचारविवेकपद्धति - ले.- गौडमिश्र । शृंगारकुतूहलम् - ले.- कौतुकदेव। विषय- कामशास्त्र । शूद्राचारशिरोमणि - ले.- कृष्ण शेष। पिता- नृसिंह शेष । शृंगारकोश (भाण) - ले.- गीर्वाणेन्द्र दीक्षित । ई. 17 वीं (गोविंदार्णव के लेखक) पिलानी नरेश के अनुरोध से लिखित । शती (उत्तरार्ध)। रचना काशी में। प्रथम अभिनय वरदराज के वसन्तोत्सव यात्रा के अवसर पर। उद्देश वेश्याप्रेमियों की शूद्राचारसंग्रह - ले.- नवरंग सौन्दर्यभट्ट। पतनोन्मुख प्रवृत्ति का प्रदर्शन। इसका नायक शृंगारशेखर अपने शूद्राह्निकाचार - ले.- श्रीगर्भ । सन् 1540-41 में लिखित । पूरे दिन की वैशिक चर्चा का प्रस्तुतीकरण करता है। शूद्राह्निकाचारसार - ले.- यादवेन्द्र शर्मा। पिता- वासुदेव।। शृंगारकोश - ले.- रमणपति। गौड के राजकुमार रघुदेव की आज्ञा से लिखित । शृंगारकौतूहल - कवि- लालामणि। शूद्रोत्पत्ति - कृष्ण-शेष कृत शूद्राचारशिरोमणि में उल्लिखित । शृंगारतटिनी - ले.- भट्टाचार्य। (2) ले. रामदेव। शून्यतासप्तति - ले.- नागार्जुन। विषय- माध्यमिक कारिका शृंगारतरंगिणी (भाण) - ले.- श्रीनिवासाचार्य। ई. 19 वीं के सिद्धान्तों का समर्थन । कारिका-70। वसुबन्धु की परमार्थसप्तति शती। तथा ईश्वरकृष्ण की सांख्यसप्तति के लिये यह आदर्श प्रतीत शृंगारतिलकम् - ले.- रुद्रट। तीन भागों में। इस में श्रव्य होती है। काव्य में रस प्रादुर्भाव कैसा होता है यह स्पष्ट किया है। शूरजनचरितम् - ले.-चन्द्रशेखर। ई. 17 वीं शती (प्रथम इसके बाद के लेखकों ने इसका प्रभूत मात्रा में तथा सादर चरण) अकबर के समकालीन युवराज शूरजन की जीवनी का उल्लेख किया है। इस पर हरिवंशभट्ट के पुत्र गोपालभट्ट ने चित्रण । सर्गसंख्या -बीस । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण काव्य। रसतरंगिणी नामक टीका लिखी है। शूरमयूरम् (रूपक) - ले.- नारायण शास्त्री। 1860-1911। शंगारतिलकम् (भाण) - ले.- रामभद्र दीक्षित। ई. 17 सन 1888 ई. में प्रकाशित। प्रथम अभिनय कुम्भेश्वर मन्दिर वीं शती। कम्भकोणम निवासी। प्रथम अभिनय मदरै में कृत्तिका महोत्सव के अवसर पर। अंकसंख्या- सात। परिणय के महोत्सव के अवसर पर । नायक भुजंगशेखर का कथावस्तु शंकर संहिता से गृहीत। प्रधान रस वीर। कुशल कतिपय वेश्याओं के साथ अनंगव्यापार इस भाण में दिखाया संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/373 For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गया है। कुलागंनाओं के साथ भी प्रणयव्यापार वर्णित है जो पूर्ववर्ती भाणों में नहीं पाया जाता। कहते हैं कि वरदाचार्य के शंगारतिलक भाण की प्रतिद्वन्दिता में यह भाण सन 1693 में लिखा गया। 2) ले. अविनाशी स्वामी। ई. 19 वीं शती। 3) ले. कालिदास । लघुकाव्य। 4) ले. गागाभट्ट । शृंगारदर्पण - ले.- पद्मसुन्दर । शृंगारदीपक (भाण) - ले.-विज्ञमूरि राघवाचार्य। ई. 19 वीं शती। (उत्तरार्ध)। कांचीपुरी में श्रीदेवराज की यात्रा के अवसर पर अभिनीत । नायिका शृंगारचन्द्रिका का विट रसिकशेखर के साथ, अनंगशेखर की सहायता से समागम वर्णित । कांजीवरम् और श्रीरंगम् का समसामयमिक वर्णन इसमें है। शृंगारदीपिका (भाण)- ले.- वेंकटाध्वरी। शृंगारनायिकातिलकम् - ले.- रंगनाथाचार्य । शंगारनारदीयम् (प्रसहन) - ले.- महालिंगशास्त्री। रचना1938 में। लम्बे गीत तथा एकोक्तियां। देवीभागवत की नारदकथा पर आधारित। मूल कथा में नाट्योचित परिवर्तन किया है। शृंगारप्रकाश - ले.- भोजदेव। अलंकार शास्त्र की बृहत् रचना। इस रचना का हेमचन्द्र शारदातनय ने बडा आधार लिया है। 36 अध्याय (प्रकाश)। प्रथम आठ अध्यायों में व्याकरण के वैशिष्ट्य तथा वृत्ति का विवेचन है, नौ और दस वें अध्याय में काव्य के गुण, दोष (भाषा तथा कल्पना पर आधारित)। ग्यारहवां अध्याय महाकाव्य की तथा बारहवां नाटक की चर्चा करता है। शेष चौबीस भागों में रस की निष्पति, परिपोष आदि की चर्चा है रसों में शृंगार को प्राधान्य दिया है। शृंगारमंजरी - ले.- शाहजी। तंजौर नरेश। विषय- साहित्य और रति शास्त्र। 2) ले.- राममनोहर। 3) ले.- मानकवि। 4) ले.- केरलवर्मा। ई. 19 वीं शती। त्रावणकोर नरेश। यह भाण है। 5) शृंगारमंजरी (सट्टक) - ले.-विश्वेश्वर पांडेय। ई. 18 वीं शती। पाटिया ग्राम (जि. अल्मोडा) के निवासी। बाबूलाल शुक्ल द्वारा वाराणसी में प्रकाशित। शृंगारमंजरी शाहराजीयम् (नाटक) - ले.- पेरिय अप्पा दीक्षित । ई. 17 वीं शती। (उत्तरार्ध)। प्रथम अभिनय तिरुवायूर में भगवान् पंचनदीश्वर के चैत्रमहोत्सव के अवसर पर। दस अंक, प्रधान रस-शृंगार। शिखरिणी वृत्त का बहुल प्रयोग। कथासार- शाहजी स्वप्न में देखी हुई सुन्दरी का चित्र बनाते हैं। ज्योतिषी बताते हैं कि यह सिंहल की राजकुमारी शृंगारमंजरी है। सिंहल प्रदेश पर सिन्धुद्वीप का राजा आक्रमण करता है, तो शाहजी सिंहल की सहायतार्थ वहां पहुंचते हैं। वहा नायकनायिका में प्रेम पनपता है, परंतु महारानी इसमें रोडा अटकाती है। अन्त में महारानी को मनाकर राजा उससे अनुमति पा लेता है और शृंगारमंजरी के साथ राजा का विवाह हो जाता है। शृंगारमाला - ले.- सुकाल मिश्र। ई. 18 वीं शती। शृंगारसौंदर्य - ले.- राम। पिता- रामकृष्ण। शृंगारशतकम् (खण्डकाव्य) - ले.- भर्तृहरि। इनके तीनों शतक बहुत समय से जनता में समादृत हैं। इनमें मनुष्य मात्र को सुचारु रूप से जीवन यापन करने लिये उपदेश परक मार्गदर्शन है। भाषा ओघवती, मधुर तथा प्रसादमयी है। प्रत्येक श्लोक स्वतंत्र कल्पना है। कीथ जैसे पाश्चात्य विद्वानों को विश्वास नहीं होता कि ये तीनों शतक एक ही व्यक्ति लिख सकता है। उनका मत यह है कि इसमें भर्तृहरि ने अपने श्लोकों के साथ विशेषकर शृंगारशतक में अन्य रचनाओं का संकलन किया है। वर्तमान प्रतियों में प्रक्षेप अवश्य पाए जाते हैं, पर वह सहजता से पहचाने जाते हैं। तीनों शतकों के अधिकांश श्लोक भर्तृहरि के ही हैं। 2) ले.- व्रजलाल। 3) ले.- जर्नादन। 4) ले.- नरहरि । 5) ले.- तेनोभानु। 6) ले.- नीलकण्ठ।। शृंगारशेखर (भाण) - ले.- सुन्दरेश शर्मा । प्रथम अभिनय तंजौर में बृहदीश्वर के वसन्तोत्सव के अवसर पर। हास्य प्रधान रचना। शृंगार-सप्तशती - ले.-परमानंद। पिता- व्रजचन्द्र। रचना ई. 1869 में। शृंगारसरसी - ले.- भावमिश्र । शृंगारसर्वस्वम् (भाण) - ले.- अनन्त नारायण। श. 18 वीं शती। प्रथम अभिनय केरल के जमोरिन मानविक्रम की अध्यक्षता में मायक महोत्सव में, सन 1743 ई. में। शृंगारसर्वस्वम् - रचयिता- नल्ला दीक्षित (भूमिनाथ) भाण कोटि की रचना। लेखक द्वारा बीस वर्ष से कम अवस्था में रचित। भाणोचित वैदर्भी शैली। अनंगशेखर नामक विट की एक दिन की चरितगाथा वर्णित । वेश्याओं के साथ कुलवधूओं के जारकर्म भी वर्णित। शृंगारसार - ले.-चित्रधर। 7 पद्धति (अध्याय)। नृत्य और संगीत के साथ कामशास्त्रीय विषय की चर्चा । 2) ले.- कालिदास। शृंगारसारसंग्रह - शम्भुदास । शृंगारसुधाकर (भाण) - ले.- रामवर्मा। 1757-1765 ई. । त्रिवेंद्रम में पद्मनाम के चैत्रौत्सव में प्रथम अभिनीत। मित्रों के अनुरोध पर रचना हुई है। कथासार - नायक माधव नामक विट की भेंट शृंगारशेखर से होती है, जो रतिरत्नमालिका नामक वेश्या पर आसक्त है। उन दोनों का मिलन कराने का 374/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आश्वासन दे माधव आगे बढ़ता है, जहां पुरोहित विशाखशर्मा राजसभा की कविगोष्ठी का अंकन है जिसमें कवि समस्यापूर्ति उसे मिलता है। वह मन्दारवल्लरी वेश्या से प्रताडित है, में भाग लेते हैं। यह रचना ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जीवन क्योंकि उसकी 10 सहस्र मुद्राओं की मांग वह पूरी नहीं कर के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। सकता। आगे वह चम्पकलता गणिका के साथ विलास कर शृंगारविलास - ले.-वाग्भट। निष्कुटवन में दोपहर बिताता है। वहा पर कई गणिकाओं का शृंगारविलास (भाण) - ले.- साम्बशिव। ई. 18 वीं शती। नामोल्लेख युक्त वर्णन है। वहां के वेदपाठी ब्रह्मचारी यह सुन देशकालानुरूप प्रस्तावना। मैसूर प्रति में आश्रयदाता का नाम भाग जाते हैं। फिर कामदेवायतन जाती हुई सुमनोवती से वह महाराज कृष्ण, तो मद्रास प्रति में जमोरिन मानविक्रम है। कहता है कि अर्धरात्रि में मैं तुम्हें मिलूंगा। सीमन्तिनी और शंगारामृतलहरी - ले.- सामराज दीक्षित। मथुरा-निवासी। ई: शिरीष की प्रणयक्रीडा देखता हुआ नायक आगे बढ़ता है। 17 वीं शती। नाट्य-शिक्षा गृह पहुंच कर बकुलमंजरी का नृत्य देखता है और वहीं पर शृंगारशेखर को रतिरत्नमालिका से मिला देता है। शेक्सपियर-नाटककथावली - अनुवादकर्ता- मेडपल्ली वेङ्कटाचार्य । चार्ल्स लैम्ब की शेक्सपियर नाटक कथाओं का शृंगारसुधार्णव (भाण) - ले.- रामचंद्र कोराड। सन अनुवाद। 1816-1900। प्रथम अभिनय भद्राचल में राममंदिर के शेषसमुच्चय - श्लोक- 2000। पटल- 101 विषय- देवताओं वसन्तोत्सव के अवसरपर विट भुजगशेखर की दिनचर्या का की प्रतिष्ठा, पूजा इ.। आंखों देखा वर्णन। शेष-समुच्चयविमर्शिनी - शेषसमुच्चय की व्याख्या। श्लोकशृंगारसुन्दर (भाण) - ले.- ईश्वर शर्मा। ई. 18 वीं शती। 500। पटल- 10। शेषार्या (सव्याख्या) मूलकार, शेषनाग। नायक भ्रमरक, नायिका केसरमालिका। कोचीन के विट अभिराम द्वारा दोनों का मिलन प्रस्तुत भाण का विषय है। व्याख्याकार- राघवानन्द मुनि। नामान्तर परमार्थसार। श्लोक 11501 श्रृंगेरीयात्रा - ले.- म.म. रघुपति शास्त्री वाजपेयी। ग्वालियर निवासी। इसमें श्रीनिवास तथा पद्मावती के परिणय की कथा शैवकल्पद्रुम - ले.-अप्पय्य दीक्षित । चित्रित की गई है। प्रकाशित रचना के कुल 7 स्तबक हुए. 2) ले.- लक्ष्मीचंद्र मिश्र । हैं। उपलब्ध अंश में 276 पद्य हैं। यह एक अत्यन्त प्रौढ रचना है। शैवकल्पदुम - ले.- लक्ष्मीधर। पितामह- प्रद्युम्न। पिताशृंगार-रत्नाकर (काव्य) - ले.- ताराचन्द्र । ई. 17-18 वीं शती। रामकृष्ण। 8 काण्डों में पूर्ण। श्लोक- लगभग 33001 विषयशृंगाररस-मंडनम् - ले.- विट्ठलनाथ। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आरम्भ में जगत्कारणादि का निरूपण। मण्डप आदि के लक्षण । आचार्य वल्लभ के पुत्र एवं वल्लभ-संप्रदाय की सर्वांगीण श्री गार्हस्थ्यविधि। प्रातःकृत्य, न्यासविधि, पार्थिव लिंगार्चनविधि । वृद्धि करनेवाले गोसाई। भस्म-स्नान, व्रतविधि, शिवस्तोत्र, शिवमाहात्म्य आदि । शृंगाररसोदयम् (काव्य) - ले.- राम कवि । ई. 16 वीं शती। शैवचिन्तामणि - 8 पटलों में पूर्ण विषय- शिवजी की पूजा, रुद्राक्षधारण, मातृकान्यास, पंचाक्षरोद्धार, अन्तर्याग, मुद्रा, ध्यान, शंगारलीलातिलक (भाण) - ले.- भास्कर। 1805-1837 आसन, उपचार, उपवासनान्त शिवरात्रिव्रत वर्णन ई। ई. कलकत्ता से सन 1935 में प्रकाशित । कथासार- पुरारातिपुर शैवपरिभाषामंजरी - ले.- निगमज्ञान देव। गुरु-शिवयोगी। की सुन्दरी सारसिका पर विट सत्यकेतु लुब्ध है। कुलिश श्लोक- 1116। 10 पटलों में पूर्ण। नामक विट सारसिका का पहले से ही प्रेमी है। उसे दूर हटा कर चित्रसेन नामक विट सत्यकेतु और सारसिका का मिलन शैवभूषणम् - श्लोक- 400। विषय- शैव सिद्धान्त के करा देता है। अनुसार पूजाविधि । विषय- 7 प्रकार के शैवों का निर्देश करते शृंगारवापिका (नाटिका) - ले.- विश्वनाथभट्ट रानडे। ई. हुए शिवपूजा का वर्णन। 17 वीं शती। आमेर के महाराज रामसिंह (1667-1675 शैवरत्नाकर - ले.- ज्योति थ । श्लोक-लगभग - 1925 । इसवी) की राजसभा में प्रथम अभिनय। छन्दों व अलंकारों शैवसर्वस्वम् - ले.- हलायुध । पिता- धनंजय । ई. 12 वीं शती। की विविधता में आश्रय दाता रामसिंह की प्रशस्ति है। शैवसर्वस्वसार - ले.- विद्यापति। मथिलानरेश पद्मसिंह की कथासार - चम्पावती के राजा रत्नपाल की कन्या कान्तिमती रानी विश्वासदेवी के आदेश से प्रणीत। ई. 15 वीं शती। तथा उज्जयिनी के राजा चन्द्रकेतु एक दूसरे को स्वप्न में देख शैवसिद्धान्तमंजरी-ले.- काशीनाथ । श्लोक- लगभग- 1901 प्रेमविह्वल होते हैं। नायक सिद्ध योगिनी मुण्डमाला को चम्पावती शैवसिद्धान्तमण्डन - ले.- भडोपनामक काशीनाथ। पिताभेजता है। उससे मिलने के बहाने स्वयं भी चम्पावती जा जयराम भट्ट। विषय- प्रधानतः पौराणिक वाङ्मय के उद्धरणों कर नायिका से नायक विवाह बद्ध होता है। चतुर्थ अंक में द्वारा भगवान् शिव की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने का यत्न। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 375 For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शैवागमनिबन्धनम् - ले. मुरारिदत्त । श्लोक 47001 27 पटलों में पूर्ण वियम मंत्रप्रयोग मंत्रसिद्धि, मुद्रा, दीक्षा, अभिषेक, शैवमण्डल, प्रतिष्ठा, जीर्णसंस्कार, सब प्रकार के स्थानों का निरूपण, उनके अंगभूत अन्यान्य कर्मों के साथ इस में संक्षेपतः वर्णित हैं 1 शैवानुष्ठानकलापसंगह ले गर्तवनशंकर । श्लोक - 105001 इसमें शैवानुष्ठान संग्रह वर्णित हैं। अति गोपनीय ग्रंथ । विषय - देवविग्रह की यथाविधि पूजा, अन्य दान आदि से सब की परितुष्टि, नवें दिन रात्रि में निशाहोम, विधिपूर्वक भूतबलि का विकिरण कर देवताओं को नमस्कार करना और मांगना, तदुपरान्त उत्त्सवविधि आदि । शैवालिनी (उपन्यास) विभागाध्यक्ष, वाराणसी वि.वि. ले. चक्रवर्ती राजगोपाल । संस्कृत ले. - शैशवसाधनकाव्यम् (1888-1972) शैशिरी शाखा ऋग्वेद की इस शाखा के संहिता ब्राह्मणादि ग्रंथ अप्राप्त हैं। अनुवाकानुक्रमणी, ऋक्प्रातिशाख्य और विकृतिवल्ली ग्रंथों में इस संहिता की अष्ट विकृतियों का स्पष्ट उल्लेख किया है । सायण का भाष्य जिस शाखा पर है वह अधिकाश में शैशिरी ही है। - - www.kobatirth.org शोकमहोर्मि ले. कुलचन्द्र शर्मा । काशीनिवासी। रानी व्हिक्टोरिया के निधन पर संवादात्मक गद्यमय शोककाव्य । सन 1901 में प्रकाशित । शौचसंग्रहविवृत्ति ले. भट्टाचार्य । शौनककारिका ले. 20 अध्यायों में गुहा कृत्यों का विवरण। आश्वलायनाचार्य, ऋग्वेद की पांच शाखाओं तथा सर्वानुक्रमणी का उल्लेख इसमें है। - - म.म. कालीपद तर्काचार्य शौनकसंहिता (अथर्ववेद) अथर्ववेद की प्रसिद्ध शौनक संहिता में प्रायः 20 काण्ड, 34 प्रपाठक 111 अनुवाक, 773 वर्ग, 760 सूत्र, 6000 मंत्र और 73826 शब्दों का विभाजन पाया जाता है किन्तु इस वर्गीकरण में अनेक मतभेद हैं। सूत्रों के विषय में व्हिटनी के मत से 598, ब्लूमफील्ड के मत से 730, एस.पी. पण्डित के मत से 759, तो अजमेर संस्करण से 731 सूत्र हैं। मंत्रसंख्या के विषय में व्हिटनी के मत से 5038, ब्लूमफील्ड के मत से 6000, एस.पी. पण्डित के मत से 6015, गुजरात संस्करण में 6680, सातवलेकर के मत से 5977 मंत्र हैं। संहिता में पाठभेद भी पर्याप्त हैं । लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद की "शाकलसंहिता" के प्रथम, अष्टम और दशम मण्डल में पाये जाते हैं। बीसवां काण्ड कुन्तापसूक्त और अन्य मंत्रों को छोड समग्र रूप में ऋग्वेद मंत्रों से ही भरा है। इस प्रकार ऋग्वेद के मंत्रों की पुनरावृत्ति होते हुए भी 376 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड आधुनिकों के मतानुसार सभ्यता के ऐतिहासिक स्रोत के रूप में अथर्ववेद का महत्त्व ऋग्वेद से कम नहीं। पाश्चात्यों के मतानुसार संहिता में जनता के पिछडे विचार प्रस्तुत हैं । इसकी तांत्रिक सामग्री ॠग्वेद से भी प्राचीन है। वह प्रतिहासिक काल की मानी जाती है। अर्थववेद के शान्ति-पुष्टिकारक, सम्मोहन, मारण, उच्चाटन आदि तामस विषयोंके मंत्र इसमें माने जाते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके प्रमुख ऋषि कण्य, तांदायण, कश्यप, आथर्वण, आंगिरस, कक्षिवान्, चालन, विश्वामित्र,, अगस्त्य, जमदग्नि, कामदेव आदि हैं। पृथ्वीसूक्त इसकी अपनी विशेषता है। विवाह, पुत्र रोगनिवारण-सूक्त नक्षत्रसूक्त, शान्तिसूक्त आदि सूक्त भी महत्त्व के हैं। राजनीति, समाजशास्त्र, वनस्पतियों के विविध प्रयोग तथा आभिचारिक सामग्री भी पर्याप्त पाई जाती है। इनके अतिरिक्त आध्यत्मिक ब्रह्मवाद की सामग्री इस संहिता में है। इसमें अधिकांश पद्य और कुछ गद्य भी है। मंत्रों का संकलन विशिष्ट उद्देश्य रखकर किया जाने से रचना कृत्रिम व शिथिल लगती है। ऋग्वेद के समान मंडल रचना, देवताओं का क्रम, ऋषियों का निर्देश सुबद्ध नहीं है। 1 से 5 कांडों के सूक्तों में 4 से 8 मंत्र हैं। 6 वें कांड में एक या दो । 8 से 12 बड़े है। उनमें विषयों का वैचित्र्य है। 13 से 18 में विषयों की एकरूपता है। 15-16 गद्यमय हैं। अंतिम दो खिल कांड के रूप में परिचित हैं। वे बाद में जोड़े गये हैं। अंतिम कांड की मंत्रसंख्या एक हजार के आसपास है। ये मंत्र सोमयाग के लिये हैं। अथर्ववेद का पंचमांश भाग ॠवेद से लिया है। वर्तमान ऋग्वेद में जो नहीं परंतु उसकी किसी शाखा से ग्रहण किये गये कुन्ताप नाम के दस सूक्त अंतिम कांड में हैं। कौषीतकी ब्राह्मण के अनुसार ( 30.5) इनका उपयोग यज्ञ विधान में आवश्यक था। इन सूक्तों में राजा परीक्षित और उनके राष्ट्र का वर्णन है। पैप्पलाद शाखा के उपग्रंथ नहीं मिलते पर शौनक शाखा के हैं । गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद का एकमेव ब्राह्मण और प्रश्न, मुंडक, मांडुक्य ये तीन उपनिषद् अथर्ववेद के हैं। वैतान एवं पैठीनसी श्रौतसूत्र, समन्त धर्मसूत्र एवं कौशिक गृह्यसूत्र इसके हैं। इसका प्रातिशाख्य है । नक्षत्रशांति, अंगिरस समान कल्प परिशिष्ट में है। - प्राचीन मानव समाज के अध्ययन की दृष्टि से अथर्ववेद बहुमूल्य समृद्ध साहित्यनिधि है। वैद्यक शास्त्र की प्रगति, राष्ट्र विषयक विचार एवं व्यवहार, स्त्री-पुरुष संबंध, लेनदेन, लोकभ्रम, संकेत, अध्यात्म आदि अनेक विषयों का ज्ञान इसके अध्ययन से मिलता है। For Private and Personal Use Only अथर्ववेद में 144 सूक्त आयुर्वेद 215 राजधर्म, 75 समाजव्यवस्था, 83 आध्यात्मिक एवं 213 विभिन्न विषयों से सम्बन्धित हैं । दीर्घायु की कामना करने वाले अनेक सूक्त हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिवारिक उत्सव या दुःखद प्रसंगों पर ये सूक्त कहे जाते हैं। निम्न सूक्त ऐसा ही है पश्येम शरदः शतम्। जीवेम शरदः शतम्। बुध्येम शरदः शतम्। रोहेम शरदः शतम् पूषेम शरदः शतम्। भवेम शरदः शतम् भूयेम् शरदः शतम्। (हम सौ वर्ष देखेंगे, सौ वर्ष जीयेंगे, ज्ञान प्राप्त करेंगे, बढ़ेंगे पुष्ट होंगें, अस्तित्व रखेंगे, सौ वर्ष से भी अधिक वर्षो तक यश प्राप्त करेंगें।) उस काल में प्रजा, राजा का चुनाव करती थी, इसका उल्लेख "त्वां विशे। वृणतां राज्याय"। "तुझे प्रजा राज्य के लिए मान्य करेगी" इस मंत्र में (3.4.2) मिलता है। 4 थे कांड का 8 वां सूक्त राज्याभिषेक के संबंध में है। राजा पर पवित्र जल का सिंचन एवं राजा को व्याघ्र या बैल की खाल पर बैठना चाहिये, इन दो महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है।। इस वेद में अध्यात्म का भी प्रतिपादन है। "अयवासीय" यह ऋग्वेद का अध्यात्म विद्यासंबंधी सूक्त भी अथर्ववेद में है। जीव, ईश्वर और प्रकृति को अथर्ववेद ने मान्य किया है। इनका स्वरूप और संबंध आलंकारिक भाषा में विशद किया है। प्रजापति सभी प्राणिमात्र का प्रभु है। वही सभी प्रजा को जन्म देता है। 10.1 प्रजोत्पादन उसका मुख्य कार्य है। प्रजा का पालन पोषण विराज याने विश्व या पृथ्वी करती है। उपनिषद् में (श्वेता. 1.3) जिस भांति “काल" मूल तत्त्व माना गया है, अथर्ववेदने भी माना है किन्तु इसके अनुसार ब्रह्म एवं काल अभिन्न हैं। अथर्ववेद के अध्यात्मक विषयक विचारों से यह स्पष्ट है कि वह वेदकालीन यज्ञधर्म तथा उपनिषदों की ब्रह्मविद्या के बीच सेतु है। ___ "भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः" यह शांतिपाठ जिनके प्रारंभ में है- तथा "इत्यर्थवेदे उपनिषत्समाप्ताः" यह वाक्य अंत में है, ऐसे 68 उपनिषद् इस वेद से निश्चित रूप से सम्बन्धित हैं। अन्य तीनों वेदों की अपेक्षा इसमें सम्बन्धित उपनिषदों की संख्या अधिक है। यज्ञधर्म के प्रति जब अश्रद्धा बढ़ने लगी तो उस पर रोक लगाने आथर्वण ब्राह्मणों ने भक्ति को महत्त्व दिया। अवतारवाद स्वीकार किया। कृष्ण, रुद्र, शिव आदि देवताओं की उपासना कर ब्रह्मप्राप्ति संभव है, इस विचार को बल देने के लिये आथर्वण उपनिषदों की रचना की गई। इससे सनातन धर्म का -हास रूका। इसके पांच वर्ग हैं : 1) शुद्ध वेदान्त प्रतिपादक, 2) योगमार्ग का पुरस्कार करने वाला, 3) संन्यास धर्म का प्रतिपादन करने वाला, 4) शैवमत प्रतिपादक एवं 5) वैष्णवमत प्रतिपादक। त्रिमूर्ति कल्पना, पंचायतन पूजा का उगम यहीं से हुआ। शैव एवं वैष्णव उपासना का समन्वय हो कर स्मार्त धर्म का उदय हुआ। भगवद्गीता की अनेक कल्पनाएं अंगिरस ऋषि की विचारप्रणाली से समान हैं। जादूटोना अथर्ववेद का प्रमुख विषय है। इसे “यातुविद्या" कहते हैं। निम्नवर्ग के लोगों के देवताओं का इसमें स्थान है। अथर्ववेद के देवताओं को भूत राक्षस आदि का नाश करने का काम करना पडता है। संभाव्य शत्रु को पहले ही समाप्त करने के मंत्रतंत्र दिये गये हैं। बुरे स्वप्नों से बचने के लिये अथर्ववेद के 16 वें कांड का पाठ करने की प्रथा थी। पिशाच, राक्षस, गंधर्व अप्सरा से बचने हेतु दुसरे सूक्त का उपयोग किया जाता था। कृषि और पशु की समृद्धि हेतु हल चलाते समय शुनासीर देवता की प्रार्थना, बुआई के समय छठे कांड के 142 वें सूक्त का पाठ, फसल अच्छी हो, इसलिये पर्जन्य देवता की प्रार्थना भी की जाती थी। गोधन की वृद्धि के हेतु दूसरे कांड का 26 वां सूक्त उपयोग में लाया जाता। भूमिसक्त अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उसका प्रत्येक मंत्र भूमिभक्ति से ओतप्रोत है। यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् । गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ।।15 ।। (अर्थ- जहां हमारे पूर्वजों ने अद्भुत कार्य किये, जहां देवताओं ने असुरों को मारा, जो गायों, घोडों और पक्षियों की भी माता है, वह भूमि हमें तेज एवं ऐश्वर्य दे)। पाश्चात्यों के मतानुसार अथर्ववेद के आर्य सप्तसिंधु से आगे बढकर, पूर्व और दक्षिण में बहुत दूर तक पहुंचे हैं। ऋग्वेद में चातुर्वर्ण्य का उल्लेख ही है, परंतु अथर्ववेद में चातुर्वर्ण्य प्रतिष्ठित है। अथर्ववेद की मूर्ति का स्वरूप हेमाद्री ने निम्नानुसार व्यक्त किया है अथर्वणाभिधो वेदो धवलो मर्कटाननः । अक्षसूत्रं च खट्वाङ्गं विभ्राणोऽयं जनप्रियः ।। अर्थ- अथर्ववेद शुभ्र वर्ण का, बंदर के मुख का, यज्ञोपवीत तथा खट्वांग धारण करने वाला लोकप्रिय वेद है। शौनक स्मृति - ले.-शौनक । विषय- पुण्याहवाचन, नान्दीश्राद्ध, स्थालीपाक, ग्रहशान्ति गर्भाधानादि संस्कार, उत्सर्जनोपाकर्म, बृहस्पतिशान्ति, मधुपर्क, पिण्डपितृयज्ञ, पार्वणश्राद्ध, आग्रयण, प्रायश्चित्त आदि। आचारस्मृति, प्रयोगपारिजात, बृहस्पति और मनु का इसमें उल्लेख है। शौनक- विषय - सूर्य चंद्रादि नवग्रहों की पूजा। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 377 For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शौनककोपनिषद् - प्रणव का माहात्म्य इसमें प्रतिपादित है। शौनक ऋषि ने "चत्वारि शृंगा' इस ऋग्वेद की ऋचा को लेकर इस माहात्य का प्रतिपादन किया है। ओंकार की उपासना ही इसका प्रमुख विषय है। भाषा ब्राह्मण ग्रंथों से मिलती जुलती है। श्मशानकालीमन्त्र - शलोक -119। विषय- श्मशान काली देवता के बीजमन्त्र, पूजादि की पद्धति तथा प्रसंगतः बगलामुखी देवी का ध्यान है। श्मशानार्चन-पद्धति - श्लोक- 60।। श्यामरहस्यम् - ले.-प्रियवंदा। ई. 17 वीं शती। कृष्णचरित्र परक काव्य। श्यामाकल्पकता - ले.-रामचंद्र कविचक्रवर्ती। पिता- माधव । श्लोक 3240। स्तबक- 11, विषय विद्यामाहात्म्य, दीक्षाप्रकरण का उपदेश, नित्यपूजा के प्रमाण, श्मामा की स्तुति, श्यामाकवच, पुरश्चरण विधि, विशेष प्रकार की साधना, रहस्यसाधन विधि, होमविधान आदि। श्यामाकल्पलतिका - ले.-मथुरानाथ। श्लोक 279। इसके संस्करण बंगाली लिपि में अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुके हैं। रचनाकार- 1592 ई.। विषय- श्यामास्तोत्र । श्यामापद्धति - ले.-स्वप्रकाश। श्लोक- 1000। श्यामापूजा-पद्धति- ले. चक्रवर्ती। विषय- उपासक के प्रातः । कृत्य आदि तथा कालीपूजा । श्यामामन्त्र - श्लोक- 432। विषय-दश महाविद्याओं के मंत्र और बीजमन्त्र संगृहीत हैं तथा देवी की पूजापद्धति भी सप्रमाण वर्णित है। जो मन्त्रवान् पुरुष काली का चिन्तन करता है, उसे सब ऋद्धिसिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। उसके मुंह से सभा में गद्यपद्यमयी वाणी अनायास अप्रतिहत रूप से प्रादुर्भूत होती है। उसके दर्शन मात्र से वादी हतप्रभ हो जाते हैं राजा दासवत् उसकी सेवा करते हैं। शयामा-मानसार्चन-विधि - ले.-शंकराचार्य । श्लोक- 1421 परिच्छेद- 22। विषय- न्यासविवरण, साधक का कुलवेष, रहस्यमाला, मंत्रसिद्धार्थ-विवरण, भिन्न भिन्न मंत्रों का विवरण कालीतत्त्व, पुरुषार्थ साधन, वीर्यमोचन, सामान्य साधन, पुरश्चरण के बिना मन्त्रसिद्धि के उपाय, पीठजाप, कुलाचार, महानीलक्रम वर्णन, पुरश्चरण आदि। श्यामार्चनचन्द्रिका - ले.- स्वर्णग्रामनिवासी गौडमहागमिक रत्नगर्भ सार्वभौम । श्लोक- 5250। पटल 6। विषय :- शक्तिमाहात्म्य, विद्यामाहात्म्य, सामान्य और विशेष पूजा , उनके अंगभूतन्यास, भूतशुद्धि, पुरश्चरण, शाक्तों के आचार, वीरसाधन साधनभेद इत्यादि। श्यामार्चनतरंगिणी - ले.-श्रीविश्वनाथ सोमयाजी। श्लोक लगभग 3500। वीचियाँ 11 | विषय- प्रातःकृत्य, स्थान-शुद्धि, द्वारपाल पूजन का क्रम, अवरोह, संहार और आरोह रूपिणी भूतशुद्धि तथा प्राणायाम, अन्तर्याग, मधुदान, निषेध, द्रव्यशुद्धि, उपचार पूजाक्रम कुण्ड के 18 संस्कारों का विचार, होमप्रकार तथा पशुप्रोक्षण विधि इ. श्यामार्चनमंजरी - ले.-लालभट्ट। गुरु- अनारगिरि । श्यामार्चनपद्धति - श्लोक- 1500। श्यामासंतोषण-स्तोत्रम् - ले. काशीनाथ तर्कपंचानन । रचनाकाल- 1756 शकाब्द। 4 उल्लासों में पूर्ण। प्रथम उल्लास में देवी की पूजा के नियम और अन्तिम 3 उल्लासों में देवीमाहात्म्य का वर्णन। श्यामासपर्यापद्धति - ले.-विमलानन्दनाथ। श्लोक- 700। श्यामासपर्याविधि - ले. काशीनाथ तर्कालंकार । श्लोक 5000। इस ग्रंथ की रचना शकाब्द 1691 रविवार मार्ग कृष्ण 4 को काशी में पूर्ण हुई। 7 विभागों में पूर्ण। विषय- प्रातःकृत्य, अन्तर्याग, बहिर्याग, महापीठपूजा, कुलाचारादि कथन, नैमित्तिक पूजन, काम्यसाधन, विद्यामाहात्म्य कथन इ.। श्यामास्तोत्रम् - रुद्रयामलान्तर्गत भैरवतन्त्र से गृहीत। यह स्तोत्र "महत्" विशेषण से विशिष्ट नामों का संग्रह है। यह अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र कहा गया है। श्येनवी-जातिनिर्णय - ले.-विश्वेश्वर शास्त्री (गागाभट्ट)। शिवाजी महाराज के आदेश से इसकी रचना हुई। श्येनवी जाति के धर्माधिकारों का अधिकृत निर्णय इसका विषय है। श्लेषचिन्तामणि (काव्य) - ले.-चिदम्बर।। श्लोकचतुर्दशी - ले.-कृष्णशेष। विषय- धर्मप्रतिपादन। टीकाकार- रामपंडित शेष। सरस्वतीभवन-माला द्वारा मुद्रित । श्लोकतर्पणम् - ले.-लौगाक्षि। श्लोकसंग्रह - विषय- श्राद्धों के 96 प्रकार। श्वश्रूस्नुषा-धनसंवाद - इसमें निर्णय किया है कि जब कोई व्यक्ति पुत्रहीन मर जाता है तो उसकी विधवा पत्नी एवं माता समप्रमाण पाती हैं। श्यामोदतरंगिणी - पार्वती-महाभूत संवादरूप। श्लोक- 275। पटल-12, विषय-ककार मंत्र, अकार मंत्र, लकार मन्त्र, ईकार मन्त्र इत्यादि रूप से काली के विभिन्न मंत्रों का प्रतिपादक ग्रंथ । अतिसूक्ष्म रूप से काली-पूजाविधि भी इसमें वर्णित है। श्यामायनशाखा - कृष्ण यजुर्वेद की एक लुप्त शाखा। पुराणों के अनुसार वैशम्पायन के प्रधान शिष्यों में से एक श्यामायन है परंतु चरणव्यूह में श्यामायनीय लोग मैत्रायणीयों का अवान्तर भेद कहे गए हैं। श्यामारत्नम्- ले.-यादवेन्द्र विद्यालंकार । श्लोक 1200 । विषयदशमहाविद्याओं के मंत्रोद्धार, पुरश्चरण, जप, होम दक्षिणा इ.। श्यामारहस्यम् - ले.- पूर्णानन्द परमहंस। श्लोक- 2500। 378 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्वेताश्वदानविधि - ले.- कमलाकर । श्रमगीता - ले.. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। इसमें महात्मा गांधी और उनके सहयोगी जवाहरलाल नेहरु, वल्लभभाई पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और राजगोपालाचारियर के बीच संवाद में गांधीजी के भाषण में शरीरश्रम का महत्त्व प्रतिपादन किया है। अध्यात्मकेंद्र, ब्रह्मपुरी (विदर्भ) द्वारा सन 1984 में द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित। श्लोक संख्या- 118 । श्रवणद्वादशीनिर्णय - ले.-गोपालदेशिक । श्रवणरामायणम् - इंद्र-जनक संवादात्मक। परंपरा के अनुसार इसकी श्लोकसंख्या- सवालाख कहीं जाती है। श्रवणानन्दम् - वेंकटाध्वरी। श्राद्धकर्म - ले.- याज्ञिकदेव। महादेव के पुत्र । श्राद्धकला - भवदेव शर्मा के स्मृतिचंद्र का पाचवां भाग। कल्पतरु द्वारा उपस्थापित श्राद्ध की परिभाषा दी हुई है। "पितृतुष्टिम् उद्दिश्य द्रव्यत्यागो ब्राह्मण स्वीकारपर्यन्तम् श्राद्धम्"। यह श्राद्ध की व्याख्या दी है। श्राद्धकलिका (या श्राद्धपद्धति) - ले. रघुनाथ ।। इसमें भट्टनारायण को नमस्कार किया गया है। कालादर्श, धर्मप्रवृत्ति, निर्णयामृत, जयन्तस्वामी, हेमाद्रि, हरदत्त एवं स्मृतिरत्नाकर के उद्धरण पाये जाते हैं। श्राद्धकलिकाविवरणम् - ले.- विश्वरूपाचार्य । श्राद्धकल्प - ले.- दत्त उपाध्याय। ई. 13-14 वीं शती। श्राद्धकल्प - 1) काशीनाथ कृत 1, 2) भर्तृयज्ञ कृत 1, 3) वाचस्पतिकृत (अपर नाम पितृभक्तितरंगिणी। 4) श्रीदत्त कृत (छन्दोगश्राद्ध नाम भी है) हेमाद्रि द्वारा रचित चतुवर्गचिन्तामणि की इसमें चर्चा है। श्राद्धकल्प - कात्यायनीय या श्राद्धकल्पसूत्र या नवकण्डिकाश्राद्धसूत्र। 9 अध्यायों में कई टीकाओं के साथ गुजराती प्रेस में मुद्रित। टीका 1) प्रयोग- पद्धति, 2) श्राद्ध विधिभाष्य कर्कद्वारा गुजराती प्रेस 3) श्राद्धकाशिक विष्णुमिश्रसुत कृष्णमिश्र द्वारा। 4) श्राद्धसूत्रार्थमंजरी, वामनपुत्र गदाधर द्वारा 5) संकर्षण के पुत्र नीलासुर द्वारा, गोविन्दराज एवं शंखधर का उल्लेख है, श्राद्धकाशिका द्वारा वर्णित । 2) मानवगृह्य का एक परिशिष्ट। 3) गोभिलीय, टीका महायश द्वारा 4) मैत्रायणीय । 5) अथर्ववेद का 44 वां परिशिष्ट । श्राद्धकल्पदीप - ले.- होरिल त्रिपाठी। श्राद्धकल्पलता - ले.- नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। 2) ले.- गोविन्द पंडित (नंदपंडित द्वारा उल्लिखित)। श्राद्धकल्पसार - ले.-शंकरभट्ट। ई. 17 वीं शती।। पिता-नारायणभट्ट। टीका- लेखक द्वारा। श्राद्धकल्पसूत्रम् - ले. कात्यायन । श्राद्धकृत्यप्रदीप - ले.- होरिल । श्राद्धकाण्डम् - ले.-भट्टोजी। श्राद्धकाण्डम् - ले. वैद्यनाथ दीक्षित। स्मृतिमुक्ताफल का एक भाग। श्राद्धकारिका - ले.- केशव जीवानन्द शर्मा । श्राद्धकाशिका - ले.-कृष्ण। पिता- विष्णु मिश्र। ई. 14-15 वीं शती। श्राद्धकौमुदी (या श्राद्धक्रियाकौमुदी) - ले.-गोविन्दानन्द । श्राद्धगणपति (या श्राद्धसंग्रह) - ले. रामकृष्ण। कोण्डभट्ट के पुत्र। श्राद्धचंद्रिका - ले.-1) भारद्वाज गोत्रज महादेवात्मज दिवाकर । लेखक के धर्मशास्त्र-सुधानिधि का एक अंश। उसके पुत्र वैद्यनाथ द्वारा एक अनुक्रमणिका प्रस्तुत की गई है। 1680 ई. । 2) ले. नन्दन। 3) ले. रामचंद्र भट्ट। 4) ले. चण्डेश्वर के शिष्य रुद्रधर । 5) श्रीनाथ आचार्य चूडामणि श्रीकराचार्य के पुत्र । श्राद्धचिन्तामणि - ले.-शिवराम। श्रीविश्राम शुक्ल के पुत्र । प्रयोगपद्धति या सुबोधिनी भी नाम है। लेखक के कृत्यचिन्तामणि में श्राद्ध के भाग का निष्कर्ष भी इसमें दिया हुआ है। श्राद्धचिन्तामणि - ले.-वाचस्पति मिश्र। वाराणसी में शक 1814 में मुद्रित। इस पर महामहोपाध्याय वामदेव द्वारा भावदीपिका नामक टीका लिखी है। श्राद्धतत्त्वम् - ले.- रघु। टीका- 1) विवृति, राधावल्लभ के पुत्र काशीराम वाचस्पति द्वारा कलकत्ता में बंगला लिपि में मुद्रित 2) भावार्थदीपिका गंगाधर चक्रवर्ती द्वारा । 3) श्राद्धतत्त्वार्थ, जयदेव विद्यावागीश के पुत्र विष्णुराम सिद्धान्तवागीश द्वारा । उन्होंने प्रायश्चित्त तत्त्व पर भी टीका लिखी है। श्राद्धदर्पण - ले.- मधुसूदन । श्राध्ददीधिति - ले.-कृष्णभट्ट। श्राद्धदीप - ले.-दिव्यसिंह। श्राद्धदीप (या प्रदीप) - ले.-जयकृष्ण भट्टाचार्य। इसके कल्पतरु की आलोचना भी है। श्राद्धदीपकलिका - ले.-शूलपाणि। श्राद्धदीपिका - ले.- श्रीभीम जिन्हे कांचिविल्लीय अर्थात् राढीय ब्राह्मण कहा गया है। सामवेद के अनुयायियों के लिए। 2) ले.- गोविन्द पंडित। 3) ले.- काशी दीक्षित याज्ञिक। पिता- सदाशिव। कात्यायन सूत्र एवं कर्कभाष्य पर आधारित । 4) ले.- श्रीनाथ आचार्य चूडामणि। पिता- श्रीकराचार्य। ई. 1475-1525। सामवेद अनुयायियों के लिए। श्राद्धनिर्णय - ले.-चंद्रचूड। 2) ले.- सुदर्शन। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 379 For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्राद्धनिर्णयदीपिका - ले. पराशरगोत्री तिरुमल कवि । श्रद्धनसिंह ले. नृसिंह। श्राद्धपद्धति ले क्षेमराज पिता कुलमणि । सन 1748 में लिखित । - 2) ले. नीलकण्ठ | 3) ले. शंकर । पिता रत्नाकर। शांडिल्यगोत्री । 4) ले. दयाशंकर । 5) ले - विश्वनाथभट्ट । 6 ) 7) ले पशुपति । ब्राह्मणसर्वस्वकार हलायुध भाई) ने इस पर टीका लिखी है। 9 ) ले. हेमाद्रि (चतुवर्ग चिन्तामणिकार) । 10 ) ले. - गोविन्द पंडित । पिता राम पंडित । 11) ले. नारायण भट्ट आर्डे । 8) ले. रघुनाथ। पिता माधव । ग्रंथ का अपरनाम श्राद्धादर्शपद्धति भी है। यह ग्रंथ हेमाद्रि के ग्रंथ पर आधारित है। श्राद्धप्रकरणम् - ले. -लोल्लट । 2) ले. नरोत्तमदेव । www.kobatirth.org - श्राद्धप्रदीप - ले. धनराज पिता- गोवर्धन। ई. 18 वीं शती । ले. वर्धमान । 2) ले. - कृष्णमित्राचार्य । 3) 4) ले. प्रद्युतशर्मा (श्रीदेशीय हाकादिदी का स्वामी) पिता श्रीधर शर्मा 5) ले. म.म. मदनमनोहर पिता मधुसूदन। यजुर्वेदियों के लिये । 6 ) ले. - रुद्रधर । 7 ) ले. शंकर मिश्र । पिता- भवनाथ सन्मिश्र । श्राद्धप्रभा . - रामकृष्ण । ले. - श्राद्धप्रयोग ले. रामभट्ट पिता विनाथ - - 2) ले. गोपालसूरि 3) ले कमलावर अ) आपस्तंवीय आ) बोधायनीय, इ) भारद्वाजीय ई) मैत्रायणीय, ड) सत्याषाढीय, उ) आश्वलायनीय । ले. - दामोदर । (लेखक के 4) ले. - नारायणभट्ट । लेखक के प्रयोगरत्न का एक अंश । 5) ले. दयाशंकर । श्राद्धप्रयोगचिन्तामणि ले. अनुपसिंह । श्राद्धप्रयोगपद्धति (कात्यायनीया ) श्राद्धमंजरी - ले. मुकुन्दलाल । 2) ले. बापूभट्ट केळकर फणशी (जि. रत्नागिरि- महाराष्ट्र) के निवासी । आनंदाश्रम ( पुणे ) द्वारा मुद्रित । सन 1810 में लिखित । - - नीलकण्ठ । आर. घारपुरे द्वारा मुद्रित । नन्द पण्डित | श्राद्धमयूख ले. श्राद्धमीमांसा ले. श्राद्धरत्न- महोदधि ले. विष्णुशर्मा यज्ञदत्त के पुत्र । श्राद्धवर्णनम् ले हरिराम । श्राद्धविधिले कोकिल इसमें वृद्धि श्राद्ध आणि विविध 1 380 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - ले. काशी दीक्षित | श्राद्धों का विवेचन है। - 2) माध्यन्दिनीय । ले दुण्ढि । श्राद्धविवेक ले. ढोंदू मिश्र । पिता- प्राणकृष्ण । 1 2) ले. - रुद्रधर । पिता- लक्ष्मीधर । वाराणसी में मुद्रित । श्राद्धविवेक ले. - शूलपाणि । मधुसूदन स्मृतिरत्न ( महामहोपाध्याय) द्वारा कलकत्ता में मुद्रित । टीका (1) टिप्पनी अच्युत चक्रवर्ती द्वारा (2) अर्थकौमुदी गोविन्दानन्द द्वारा (3) भावार्थदीप - जगदीश द्वारा (4) श्रीकृष्ण द्वारा बंगला लिपि में कलकत्ता में सन 1880 ई. में मुद्रित । ( 5 ) नीलकण्ठ द्वारा (6) श्रीधर के पुत्र श्रीनाथ (आचार्य चूडामणि) द्वारा । (7) श्रद्धादिकौमुदी, महामहोपाध्याय रामकृष्ण न्यायालंकार द्वारा । श्राद्धव्यवस्था संक्षेप- ले. चिन्तामणि । श्राद्धसागर - ले. कुल्लूकभट्ट । ई. 12 वीं शती ! 2) ले. नारायण आर्डे ई. 17 वीं शती । श्राद्धवार ले. कमलाकर । - 2) नृसिंहप्रसाद का एक अंश । श्राद्धसौख्यम् - टोडरानन्द का अंश । श्राद्धहेमाद्रि - चतुवर्गचिन्तामणि का श्राद्ध विषयक प्रकरण । श्रद्धांगतर्पणनिर्णय ले रामकृष्ण। श्राद्धांग भास्कर आधृत। माध्यन्दिनी शाखा के लिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · For Private and Personal Use Only - । श्रद्धादर्श ले महेश्वर मिश्र श्राद्धादिविवेककौमुदी - ले. रामकृष्ण । श्राद्धाधिकार - ले. विष्णुदत्त । श्राद्धाधिकारिनिर्णयले गोपाल न्यायपंचानन । श्राद्धाशौचीयदर्पण ले. नागोजी भट्ट । काले उपनाम । श्रद्धोपयोगिवचनम् ले अनन्तभट्ट श्रावकाचार ले. अमितगति। ई. 11 वीं शती। जैनाचार्य । श्रावणद्वादशीकथा ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य इ. 16 वीं शती । - श्रावणीकर्म ले. हिरण्यकेशीय। ले. गोपीनाथ दीक्षित । श्रावकाचार - सारोद्धार ले. पद्मनन्दी । जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती । ले. विष्णुशर्मा । यज्ञदत्त के पुत्र । कर्क पर - श्री- यह पत्रिका सन 1932 में श्रीनगर काश्मीर से पण्डित नित्यानन्द शास्त्री के सम्पादकत्व में संस्कृत परिषद् की ओर से प्रकाशित की गई। यह पत्रिका चैत्र, आषाढ, आश्विन और पौष मास में प्रकाशित की जाती थी। इसका प्रकाशन 12 वर्षो तक होता रहा। कुल 32 पृष्ठों वाली इस पत्रिका में आर्य संस्कृति की रक्षा और संस्कृत विद्या के प्रचार की दृष्टि Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से उपयोगी सामग्री प्रकाशित होती थी। इसका वार्षिक मूल्य केवल एक रु. था। श्रीकंठचरितम् - (महाकाव्य) ले.- मंखक। ई. 12 वीं शती। काश्मीर निवासी। श्रीकृष्ण-कौतुकम् - ले.- जीव न्यायतीर्थ । जन्म- 1894 । कीर्तनिया परम्परा का रूपक। "प्रतिभा" 8-1- में प्रकाशित। सारस्वत उत्त्सव पर अभिनीत। गद्यांश अल्प, गीतितत्त्व का बाहुल्य। कथासार- राधा की ननदें जटिला तथा कुटिला राधा-कृष्ण के संबंध को लेकर राधा पर आरोप लगाती हैं। अन्त में राधा कृष्णरहस्य का उद्घाटन करती है कि कृष्णजी बाहर नहीं, हृदय में मिलते हैं। श्रीकृष्ण-गद्यसंग्रह - ले.- पं.- कृष्णप्रसाद शर्मा घिमरे।। काठमांडू, नेपाल के निवासी। समय- 20 वीं शती। श्रीकृष्ण पद्यसंग्रह भी आपने लिखा है। श्रीकृष्णचरितामृतम् नामक आपका महाकाव्य दो खंडों में प्रकाशित हुआ है। आपकी कुल 12 रचनाएं प्रकाशित हैं और आप कविरत्न एवं विद्यावारिधि उपाधियों से विभूषित हैं। श्रीकृष्णचन्द्राभ्युदयम् (नाटक)- ले.- म.म.शंकरलाल। रचनाकाल- सन 1912। प्रथम प्रयोग मोरवीनरेश व्याघ्रजित् की आज्ञा से। अंकसंख्या-पांच। कृष्ण की शिवभक्ति दर्शाना प्रमुख उद्देश्य है। छायातत्त्व का प्राधान्य । अनेक घटनाएं परंतु उनमें सुसूत्रता नहीं है। गायन तथा वादन का प्रचुर प्रयोग। कौटुंबिक शिष्टाचार तथा कुटुम्ब-स्त्रियों में परस्पर सौहार्द की शिक्षा इसमें दी गई है। कथासार- कृष्ण की पत्नी जाम्बवती इच्छा प्रकट करती है कि सभी पत्नियों को समान संख्या में पुत्रोत्पत्ति हो। अतः कृष्ण शिव की आराधना करते हैं। शिवजी प्रत्येक पत्नी को दस पुत्र तथा एक कन्या पाने का वर देते हैं। पुत्रोत्पत्ति का उत्सव मनाया जाता है, परंतु रुक्मिणी के पुत्र को शम्बरासुर हरण कर ले जाता है। जाम्बवती का पुत्र साम्ब के विवाह पर भी जाम्बवती म्लान है, क्यों कि रुक्मिणी का खोया हुआ पुत्र मिलने तक वह प्रसन्न नहीं हो सकती। अन्त में शिव प्रकट होकर कामदहन की घटना बताते हैं और रति ने किस प्रकार काम को पुनः प्राप्त किया वह प्रसंग सुनाते हैं। रहस्योद्घाटन होता है कि यही कामदेव रुक्मिणी का खोया पुत्र है। शंकरजी कृष्ण को चक्र प्रदान करते हैं। श्रीकृष्णचरितम् - गद्य रचना। ले.- कविशेखर राधाकृष्ण तिवारी। सोलापुर (महाराष्ट्र) के निवासी। श्रीकृष्णचरितम्- ले.- पं.- शिवदत्त त्रिपाठी। ई. 19-20 वीं शती। भागवत के आधार पर 134 स्तबकों का ग्रंथ है। दण्डी आदि पूर्वसूरियों का अनुकरण, इसमें दीखता है। श्रीकृष्णचरितामृतम् - ले.- पं. कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे। ई. 20 वीं शती। काठमांडू (नेपाल) के निवासी। यह बृहत्काय महाकाव्य दो खंडों में प्रकाशित हुआ है। इसके रचयिता कविरत्न और विद्यावारिधि उपाधियों से विभूषित हैं। आपकी 12 रचनाएं प्रकाशित हैं। श्रीकृष्ण-चैतन्यम्-ले.- अमियनाथ चक्रवर्ती । ई. 20 वीं शती। श्रीकृष्णजन्म-रहस्यम् (रूपक) ले.- श्रीकान्त गण। ई. 18 वीं शती। अंकसंख्या-दो। गीतात्मक संवादों द्वारा कृष्णजन्म की कथा प्रस्तुत। प्रयाग से प्रकाशित । श्रीकृष्णतन्त्रम् - गोशालाकल्पान्तर्गत, श्लोक-59201 विषयज्येष्ठातंत्र, नागबलिकल्प, तृणगर्भाविधि, शक्तिदण्डबलि । सर्पबलि, कुबेरकल्प और श्रीकृष्णतन्त्र इ. । श्रीकृष्ण-दौत्यम् - ले.- भास्कर केशव ढोक। "भारती" पत्रिका में प्रकाशित लघु नाटक। नान्दी है, किन्तु प्रस्तावना तथा भरतवाक्य का अभाव। श्रीकृष्णद्वारा पाण्डवों के दौत्य की कथावस्तु। श्रीकृष्णनृपोदयप्रबन्धचम्पू - ले.- कुक्के सुब्रह्मण्य शर्मा। मैसूरनरेश का चरित्र। श्रीकृष्णप्रयाणम् - ले.- विद्यावागीश। ई. 18 वीं शती । कृष्णदौत्य की कथा। संवाद संस्कृत में, गीत असमी में रागनिविष्ट। अंकिया नाट कोटि की रचना । श्रीकृष्णभक्तिचंद्रिका - ले.- अनन्तदेव। ई. 16 वीं शती। प्रथम अभिनय पण्डितों की सभा में। समाज को रोचक ढंग से उपदेश देने वाली नाट्यकृति। लेखक ने इस कृति को नाटक कहा है, परंतु पंच सन्धियां, पंच अवस्थाएं तथा कम से कम पांच अंक आदि नियमों का पालन इसमें नहीं हुआ है। अंत में भरतवाक्य भी नहीं। प्रारम्भ में शैव तथा वैष्णव अपने अपने देवता की महत्ता प्रतिपादन करते हुए, दूसरे की निन्दा करते हैं। दोनों का शास्त्रार्थ चलता है, इतने में अभेददर्शी महावैष्णव वहां आकर युक्तियों से उन्हें उपदेश देता है कि, वस्तुतः वे दोनों (शिव-विष्णु) एक ही हैं। फिर मंच पर शाब्दिक एवं तार्किक आते हैं। उनमें वाद-प्रतिवाद चलता है जिसे सुनकर एक मीमांसक वहां आकर कहता है कि तुम दोनों से तो हम मीमांसक श्रेष्ठ हैं। तीनों में ठन जाती है, इतने में एक श्रीकृष्ण-भक्त आकर उन्हें समझाता है कि कृष्ण ही परब्रह्म है। तभी वेदान्ती भी वहीं उपस्थित होता है। परंतु श्रीकृष्णभक्त उन सब को समझाकर भक्ति की महिमा को मनवाने में सफल होता है। कृष्ण की विश्वात्मकता से प्रभावित होकर अभक्त भी भक्त बन जाते हैं। श्रीकृष्णलीला - (नाटिका) ले.-बैद्यनाथ। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध)। महाजनक देव के आदेश से लक्ष्मीयात्रोत्सव में अभिनीत। राधा-कृष्ण तथा विजयनन्दन और चन्द्रप्रभा का परिणय वर्णित। श्रीकृष्णलीला-तरंगिणी (संगीत-काव्य) - ले.- श्री. संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 381 For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारायणतीर्थ । उनका यह नाम संन्यास लेने के बाद का है। प्रस्तुत काव्य में उन्होंने स्वयं का निर्देश शिवरामानन्दतीर्थ पादसेवक कहकर किया है क्योंकि वे उनके गुरु थे। ई. 17 वीं शती में हुए नारायणतीर्थ के इस काव्य में 12 तरंग हैं। यह, भागवत के दशमस्कंध पर आधारित है। इसमें कृष्ण के जन्म से लेकर कृष्ण-रुक्मिणी विवाह तक का कथा-भाग गुंफित है। प्रासादिक भाषा को संगीत का साथ मिलने से सोने में सुहागा वाली उक्ति इस गेय काव्य में चरितार्थ हुई है। इस काव्य ग्रंथ में 36 राग मिलते हैं जिनमें मंगलकाफी सर्वथा नवीन राग है। श्रीकृष्णविजम् (व्यायोग) • ले.- रामचंद्र बल्लाल। ई. 18 वीं शती। श्रीरंगनायक के शारदोत्सव में अभिनीत । कृष्ण के रुक्मिणी को युद्ध द्वारा प्राप्त करने की कथा। श्रीकृष्णविजयम् (डिम) - ले.- वेङ्कवरद। ई. 18 वीं शती। (पूर्वार्ध) प्रथम अभिनय श्रीमुष्णपुर- नायक वेङ्कटेश भगवान् की सभा में यज्ञ के अवसर पर। पंचम यवनिका के बाद के कुछ अंश तक उपलब्ध । पुरानी परम्परा से किंचित् भिन्न प्रकार का यह डिम है। पात्रसंख्या- सोलह । तृतीय यवनिका में आद्यन्त केवल सूचनाएं हैं। कथासार- अर्जुनसुभद्रा परिणय की कथा। कृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि वे उसका सुभद्रा के साथ विवाह अवश्य करा देंगे। वे अर्जुन को त्रिदण्डी संन्यास दिलवाकर यतिवेष में प्रस्तुत करते हैं। बलराम यति को प्रमदवन में ठहराकर सुभद्रा को उसकी सेवा हेतु नियुक्त करते हैं। उनका गान्धर्व विवाह होता है। बाद में देवदेवता सम्मिलित होकर विधिवत् उनका पाणिग्रहण कराते हैं। प्रमुख रस शृंगार है जो डिम रूपक में वर्जित है। डिम की कथावस्तु में रौद्ररस आवश्यक है जिसका इस कति में अभाव है। चार के स्थान पर पांच अंक (यवनिका) है। डिम में वर्जित विष्कम्भक और प्रवेशकों की भी प्रचुरता है। श्रीकृष्णशृंगार-तरंगिणी (नाटक) - ले.- वेंकटाचार्य। ई. 18 वीं शती। वर्णनपरक पद्यों का बाहुल्य । अंकसंख्या- पांच । चुम्बन, आलिंगन इ. का प्रयोग। प्रधान रस शृंगार। कथासारनारद से प्राप्त पारिजात पुष्प, कृष्ण रुक्मिणी को देते हैं। यह देख सत्यभामा रुष्ट होती है। उसे मनाने कृष्ण कहते हैं कि कल मैं इन्द्रालय से पारिजात लाकर तुम्हें दूंगा। विश्वावसु यह वार्ता इन्द्र को बताता है। नारद कृष्ण से कहते हैं कि इन्द्र आप पर क्रुद्ध हैं। इन्द्र और कृष्ण में युद्ध होता है जिसमें कृष्ण की जय होती है। अंतिम अंक में कृष्ण तथा सत्यभामा का प्रणय प्रसंग है। श्रीकृष्णसंगीतिका - ले.- श्रीधर भास्कर वर्णेकर। नागपुर-निवासी। भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन की प्रमुख घटनाएं गीतिनाट्य की पद्धति से चित्रित की हैं। अंत में भगवद्गीता अठारह गीतों में निवेदित है। कुल गीतसंख्या-1501 श्रीकृष्ण-स्तवराज - ले.- निंबार्क। द्वैताद्वैत मत के प्रतिपादक 25 श्लोकों का कृष्ण-स्तुति-परक ग्रंथ। इसकी 3 व्याख्याएं प्रकाशित हैं। (1) श्रुत्यंत-सुरद्रुम, (2) श्रुति-सिद्धांत-मंजरी और (3) श्रुत्यंत-कल्पवल्ली । श्रीकृष्णाभ्युदयम् - ले.- श्रीशैल दीक्षित। "श्रीभाष्यं तिरुमलाचार्य' तथा 'कादम्बरी-तिरुमलाचार्य' उपाधियां प्राप्त । श्रीक्रमचन्द्रिका - ले.- रामभट्ट सभारंजक। श्लोक- 1000, परिच्छेद-41 श्रीक्रमसंहिता - ले.- पूर्णानन्द परमहंस। प्रकाश-25 1 श्रीक्रमोत्तम - ले.- निजानन्द प्रकाशानन्द मल्लिकार्जुन योगीन्द्र । अध्याय-41 श्रीगुरुकवचम् - पार्वती-महादेव संवादरूप। निगमसार के अंतर्गत। विषय- कौलिकों के कुलाचार और योगियों के योगसाधन। श्रीगुरुचरित्रत्रिशती (काव्य) - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। ई. 19 वीं शती । विषय- भगवान् दत्तात्रेय के अवतारों का चरित्र । श्रीगुरुचरित्रसाहस्री - ले.- वासुदेवानन्द सरस्वती। विषयदत्तात्रेय के अवतारों की कथा । श्रीगुरुसंहिता - गंगाधर सरस्वती द्वारा लिखित मंत्रसिद्ध मराठी ग्रन्थ का संस्कृत अनुवाद। लेखक- वासुदेवानन्द सरस्वती। विषय- दत्तात्रेय के अवतारों का चरित्र। श्रीचक्रपूजनम् - ले.- कमलजानन्दनाथ। श्लोक- 1200 । श्रीचक्रक्रमदर्पण - ले.- प्रकाशानन्दनाथ। श्लोक- 5400। विषय- कमलमंत्र,लीलानिघण्टु और दारकरण मंत्र। श्रीचक्रार्चनलघुपद्धति - यह पद्धति परशुरामकल्पसूत्रानुसारिणी है। श्लोक- 4201 श्रीचक्रार्चनविधि - ले.- पृथ्वीधर मिश्र। हरपुर निवासी। पिता- जगन्नाथ । श्लोक- 240 । परशुरामकल्पसूत्र के अनुसार । श्रीचन्द्रचरितम् - ले.- पं. तेजोभानुजी।। श्रीचित्रा - सन 1930 में एस. नीलकण्ठ शास्त्री के सम्पादकत्व में त्रावणकोर विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्यालय द्वारा इसका प्रकाशन प्रारंभ किया गया। इसे त्रिवेन्द्रम के महाराजा से अनुदान प्राप्त था। प्रत्येक अंक 36 पृष्ठों का होता था जिसमें विविधि साहित्य प्रकाशित होता। एन.गोपाल पिल्ले इस पत्रिका के प्रबन्धक थे। प्राप्तिस्थल अनन्तशयनस्थ संस्कृत कलाशाला, त्रिवेन्द्रम। इसका प्रकाशन सात वर्षों तक हुआ। श्रीचिह्नकाव्यम् - ले.- कृष्णलीलाशुक्र। 12 सर्ग। प्रथम आठ सर्गो में वररुचि के प्राकृत व्याकरण के उदाहरण। अन्तिम चार सर्ग शिष्य दुर्गाप्रसाद ने लिखे जिनमें त्रिविक्रमकृत व्याकरण के उदाहरण हैं। श्रीजानकी-गीतम् - ले.- गालवाश्रम। (गलता-गद्दी) के 382 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पीठाधीश्वर श्री हर्याचार्य कृष्णभक्ति शाखा में जो स्थान जयदेव के गीत-गोविंद को है, वही स्थान राम मधुरा भक्ति शाखा में प्रस्तुत गीति-ग्रंथ को प्राप्त है। इस ग्रंथ के 6 सर्ग हैं। ग्रंथ में वर्णन है श्रीराम के महारास का वर्णन है । दृष्टांत के लिये निम्न पद पर्याप्त होगा क्रीडति रघुमणिरिह मधुसमये पश्य कुशोदरि भूपति- तनये । जानकि हे वर्धितयौवन-मानमये ।। कापि क्चुिम्बति तं कुल-बाला गायति काचिदमुं धृतताला कामपि सोऽपि करोति सहासां कलयति कांचन कामविकासाम् ।। हरि-वर्णितमिदमनुरघुवीर निवसतु चेतसि सरसगभीरम् ।। श्रीतत्त्वचिन्तामणि श्लोक- 2001 श्रीतत्त्वबोधिनी ले. कृष्णानन्द । गुरु- श्रीनाथ। श्लोक2500 I पटल 15 1 विषय- गुरुस्तोत्र, कवच आदि. नित्यकर्मानुष्ठान, शिवपूजा-विधि, पूजा के आधार तथा न्यासों का विवरण साधारण पूजा, जपरहस्य, पंचांग, पुरश्चरण, ग्रहणावसर के पुरश्चरण का विवरण, होम, कुमारीपूजा, षट्चक्रविधि, शान्ति, पुष्टि, वश्य आदि पट्कर्म, शान्तिकल्पविधि, आथर्वणोक्त ज्वरशान्ति इ । श्रीतन्त्रम् देवी महादेव संवादरूप छह पटलों में पूर्ण श्लोक- 4251 ले. पूर्णानन्द परमहंस । गुरु- ब्रह्मानन्द । श्रीदामचरित (नाटक) ले. सामराज दीक्षित । मथुरा के निवासी। ई. 17 वीं शती। अंकसंख्या- पांच कथासारनायक सुदामा है। प्रमुख पात्र है दारिद्र्य तथा उसकी पत्नी दुर्मति । ये दोनों सुदाम के घर पर आतिथ्य लाभ करते हैं। पत्नी वसुमती सुदामा को कृष्ण के पास जाने के लिए बाध्य करती है। लौटने पर लक्ष्मी मिलती है। सत्यभामा और विदूषक भी श्रीकृष्ण के साथ श्रीदामपुरी आते हैं। श्रीदिव्यदम्पतिवरस्तव ले. वेंकटवरद। श्रीमुष्णग्राम (मद्रास) के निवासी। ई. 18 वीं शती । - श्रीधरोच्छिष्टपुष्टि ले. - प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । विदर्भ-निवासी । श्रीनाथादिषडानायंक्रम - ले. स्वयंप्रकाशेन्द्र सरस्वती । श्लोक 321 I श्रीनिवासकर्णामृत ले. सिद्धान्ती सुब्रह्मण्य कवि । श्रीनिवासकाव्यम् - ले. त्र्यंबक । पिता- पद्मनाभ (क्वचित् श्रीधर निर्दिष्ट ) | श्रीनिवास कुलाब्धि - चन्द्रिका - ले. वेंकटवरद श्रीमुष्ण ग्राम, मद्रास के निवासी ई. 18 वीं शती । श्रीनिवासगुणाकरकाव्यम् ले. अभिनवरामानुजाचार्य पितावेंकटराव कांवेंट निवासी वादिभास्करवंशीय सर्गसंख्या17। इसके प्रथम आठ सर्गो की टीका कवि ने स्वयं लिखी है तथा शेष ग्यारह सर्गों की बन्धु वरदराज ने । | | श्रीनिवासचम्पू ले श्रीनिवास वेंकटेश के पुत्र विषय। । तिरुपति क्षेत्र के माहात्म्य का वर्णन । श्रीनिवासचरित्रम् ले वेकटवरद श्रीमुष्ण ग्राम, मद्रास । के निवासी। ई. 18 वीं शती । श्रीनिवासदीक्षितीयम् - ले. गोविन्ददास तथा श्रीनिवास । विषय रामानुजी वैष्णव आचार्य श्रनिवास मुनि की तीर्थयात्रा का वर्णन । - श्रीनिवासविलास (भाण) ले. व्ही. रामानुजाचार्य । श्रीनिवासविलास (चम्पू) ले. श्रीनिवास ई. 19 वीं शती । (2) ले. वेंकटेश । (3) ले. श्रीकृष्ण । श्रीनिवास-शतकम् लेवल सुंदरशर्मा हैदराबाद (आन्ध्र) के निवासी इस भक्तिप्रधान शतक काव्य में "मकुटनियम" का पालन करते हुए तिरुपति के देवता की स्तुति है। काव्य में सर्वत्र एक ही चतुर्थपंक्ति रखना यह मकुटनियम की विशेषता है। - For Private and Personal Use Only - 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - श्रीनिवासामृतार्णव ले. वेंकटवरद श्रीमुष्ण ग्राम (मद्रास) । के निवासी। ई. 18 वीं शती । - श्रीनिवासार्चन - महारत्नम् ले शंकराचार्य गौडभूमिनिवासी श्लोक- 7771 प्रकाश-7। विषय- शिवपूजा के काल और अकाल, न्यास आदि का निरूपण करते हुए शिवपूजाविधि का प्रतिपादन । श्रीपण्डित सन् 1967 से वाराणसी में यह मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई। काशी के प्रख्यात विद्वान् आचार्य मधुसूदन शास्त्री इसके संपादक एवं चन्द्रोदय मिश्र सहकारी संपादक थे । मधुसूदन प्रेस भदैनी, वाराणसी में इसका मुद्रण होता था। इस में मुख्यतः शास्त्रीय विषयों पर लेख प्रकाशित होते थे। - । श्रीपरापूजनम् ले. शिवयोगी चिडूपानन्द श्लोक- 9691 श्रीपालचरितम् - ले. सकलकीर्ति जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता कर्णसिंह। माता शोभा। 7 सर्ग (2) ले. - श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 17 वीं शती श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्रम् ले. विद्यानन्द जैनाचार्य ई. 8-9 वीं शती । I - श्रीपुष्टिमार्गप्रकाश सन् 1893 में मुंबई से प्रकाशित वल्लभ सम्प्रदाय के इस मासिक पत्र में उक्त सम्प्रदाय के नियम और सिद्धातों का विवेचन संस्कृत- गुजराती में प्रकाशित किया जाता था। श्रीपूजारत्नमख से सत्यानन्द श्लोक 8801 संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 383 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीबोधिसत्त्वचरितम् - ले.- डा. सत्यव्रतशास्त्री । दिल्ली-निवासी। 1000 श्लोक। 11 सर्ग। विषय- जातक कथान्तर्गत भगवान् बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं। श्री-भाष्यम् - ले.- रामानुजाचार्य। ई. 1017-1137। ब्रह्मसूत्र (या शारीरकसूत्र) का अति उत्कृष्ट एवं पांडित्यपूर्ण भाष्य। इस भाष्य से आचार्य रामानुज की समग्र प्रतिभा तथा विद्वत्ता अपने पूर्ण रूप में प्रस्फुटित हुई है। श्रीभाष्यकारचरितम् - ले.- कौशिक वेंकटेश। रामानुजाचार्य का चरित्र। श्रीमतसारटिप्पनम् - श्रीमतसार पर किये गये टिप्पणों का यह संग्रह है। पटल-8। विषय- नौ सिद्ध, प्रत्येक सिद्ध की दो-दो शक्तियां तथा परमात्मा के शरीर की अकारादि वर्गों से रचना इ.। श्रीमतोत्तरतंत्रम् - ले.- श्रीकण्ठनाथ । श्लोक- 24000। पटल25 में पूर्ण। श्रीमन्त्रचिन्तामणि - ले.- दामोदर। श्लोक- 1020 । श्रीमन्महाराज-संस्कृत कॉलेज पत्रिका- सन 1925 में महाराज संस्कृत विद्यालय (मैसूर) से पण्डितरत्न लक्ष्मीपुर श्रीनिवासाचार्य के सम्पादकत्व में यह पत्रिका दस वर्षों तक प्रकाशित हुई। बाद में एस.बी. कृष्णमूर्ति ने इसका संपादन दस वर्षों तक किया। इसे मैसूर के महाराजा से अनुदान प्राप्त था। इसमें काव्य, नाटक, चम्पू आदि का प्रकाशन होता था। यह मूलतया साहित्यिक पत्रिका थी जिसमें अनेक चित्र-काव्यों का भी प्रकाशन हुआ। श्रीमल्लक्ष्यसंगीतम् - ले.- विष्णु नारायण भातखंडे। इ. 19-20 शती। श्रीमातुःसूक्तिसुधा - ले.- जगन्नाथ। पांडिचेरी अरविन्दाश्रम के निवासी। आश्रम की माताजी द्वारा लिखित फ्रेंच सुभाषितों का संस्कृत अनुवाद। श्रीमूलचरितम् - ले.- म.म. गणपतिशास्त्री। विषय- त्रावणकोर के राजवंश का वर्णन। श्रीरामकृष्ण-चरित्रम् - ले.- वेंकटकृष्ण तम्पी। श्रीरामचन्द्रोदयम् - ले.- वेंकटकृष्ण दीक्षित । श्रीरामचरितम् (गद्यात्मक ग्रंथ) - ले.- राधाकृष्ण तिवारी। सोलापुर निवासी। श्रीरामपद्धति - ले.- सहजानन्द शिष्य। श्लोक- 259 विषयश्रीरामचन्द्र की पूजाविधि। श्रीरामपादयुगुलीस्तव - ले.- स्वामी. लक्ष्मणशास्त्री। नागौर (राजस्थान) निवासी। श्रीरामविजयम् (नाटक) - ले.- रमानाथ मिश्र । रचना- सन 1940 में। अंकसंख्या- पांच। विषय- ताडका-वध से रावणवध तक की घटनाओं का चित्रण। मूल रामायण की कथा में पर्याप्त परिवर्तन। बालेश्वर मण्डल संस्कृत नाट्यसंघ, बालेश्वर (उडीसा) से सन 1954 में प्रकाशित। (2) काव्य- ले.-सोंठी भद्रादि रामशास्त्री। समय- इ.स. 1856 से 1915। पीठापुरम् के निवासी। (3) ले.- अरुणाचलनाथ शिष्य। श्रीरामविलाप - ले.- पं.कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे। काठमांडू (नेपाल) के निवासी। एक खंड काव्य। श्रीकृष्णचरितामृत महाकाव्य आदि आपकी 12 कृतियां प्रकाशित हुई हैं। कविरत्न एवं विद्यावारिधि उपाधियों से आप विभूषित हैं। 20 वीं शती के आप प्रथितयश संस्कृत साहित्योपासक हैं। श्रीरामविवाह - ले.- स्वामी लक्ष्मणशास्त्री । नागौर- (राजस्थान) निवासी। श्रीराममहाकाव्यम् - ले.-गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य। ढाका विश्वविद्यालय तथा वाराणसी हिन्दु विश्वविद्यालय में संस्कृत प्राध्यापक । जन्म- सन 1882। श्रीलोकमान्यस्मृति (रूपक) - ले.- श्रीराम वेलणकर । प्रकाशन तथा अभिनय "तिलक स्मारक मन्दिर, पुणे' में सन 1970 में। अंकसंख्या- दो। लोकमान्य तिलक के केवल अन्तिम दृष्य इसमें हैं। श्रीविद्यागोपालचरणार्चनपद्धति - ले.-चिदानन्दनाथ। विषयपूजक के दैनिक कृत्यों से आरंभ कर त्रिपुरा और गोपाल इन दो देवताओं की सुयुक्त पूजापद्धति । श्रीविद्याटीका - ले.-अगस्त्य मुनि। श्लोक 144 । श्रीविद्यानित्यपूजापद्धति - ले.- साहिब कौलानन्दनाथ । श्रीविद्यान्यासदीपिका - ले.-काशीनाथ। श्लोक- 248 । श्रीविद्यापद्धति - ले.-प्रकाशानन्द। इ. 15 वीं शती । श्रीविद्यापद्धति - ले.-श्री निजात्मप्रकाशानन्द योगीन्द्र। गुरुज्ञानानन्द । श्लोक- 554। दो खण्डों में पूर्ण । विषय- षट्चक्रों में देवीपूजा के लिए निर्देश। श्रीविद्यापूजापद्धति - ले.-रामानन्द। श्लोक- 621 । 2) ले.- श्रीकर। श्लोक 3000। पटल- 81 श्रीविद्या और भैरवप्रयोग श्लोक- 4371 श्रीविद्यामन्त्रदीपिका - ले.-भडोपनामक काशीनाथ। पिताजयरामभट्ट। विषय- त्रिपुरामन्त्र का अर्थ तथा देवता के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक वाक्य, विविध मूल मन्त्रों से इसमें उद्धृत हैं। श्रीविद्यामन्त्ररत्नसूत्रम् - ले.-श्रीगौडपादाचार्य। गुरुश्रीशुकयोगीन्द्र । विषय- श्रीविद्यामन्त्र के प्रत्येक वर्ण का तान्त्रिक तात्पर्य उन वर्णो की प्रतिनिधी देवियां तथा शाक्त सम्प्रदाय के सिद्धान्त। श्रीविद्यामन्त्ररत्नसूत्रव्याख्या - श्लोक- 5001 श्रीविद्यारत्नदीपिका - ले.-शंकरारण्य। श्लोक- 1104 । 384/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीविद्यार्थदीपिका - ले.-विद्यारण्य । श्रीविद्यारत्नसूत्रदीपिका - ले.-परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीविद्यारण्य विरचित श्रीविद्यारत्नसूत्र की दीपिका नाम की व्याख्या। श्रीविद्यार्चनपद्धति - श्लोक- 500। श्रीविद्या-लघुपद्धति - श्लोक- 500। प्रकाश- 4। श्रीविद्याविलास - ले.-गगनानन्दनाथ। गुरु- श्रीशंकराचार्य । उल्लास- 71 विषय- श्रीविद्या के उपासक की दिनचर्या, सुन्दरीपूजा, प्राणायाम, श्रीचक्रपूजा आवरणपूजा, पारायणाक्रम, पुरश्चरणविधि इ.। श्रीविद्याविशेषपूजापद्धति - श्लोक- 5251 श्रीविद्योपासनापद्धति- - श्लोक- 518 | श्रीविष्णुचतुर्विंशत्यवतारस्तोत्रम्- ले.- स्वामी लक्ष्मणशास्त्री। नागौर (राजस्थान) निवासी। चित्रकाव्य। विष्णु के भागवतोक्त (2-7) 24 अवतारों का स्तवन । श्रीविष्णुचरित्रामृतम् - ले.-स्वामी लक्ष्मणशास्त्री, नागौर (राजस्थान)। श्रीशंकरगुरुकुलम् . सन 1939 में श्रीरंगम् से टी.के.बालसुब्रह्मण्यम् के सम्पादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्र पांच वर्षों तक प्रकाशित हुआ। अप्रकाशित संस्कृत वाङ्मय प्रकाशित करना इसका उद्देश्य था। इस पत्र के कुल छह विभागों में वेदान्त, मीमांसा, काव्य, चम्पू, नाटक और अलंकार विषयक सामग्री प्रकाशित की जाती थी। अन्य प्रमों की पावर टीकाएं और शोध निबन्धों के साथ ही अनेक उच्चकोटि के ग्रंथों का प्रकाशन इस पत्रिका में हुआ। श्रीशिवकर्मदीपिका - सन 1915 में कुम्भकोणम् से श्री चन्द्रशेखर शास्त्री के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस में धार्मिक साहित्य का ही प्रकाशन हुआ। श्रीशैलकुलवैभवम् - ले.-नृसिंहसूरि। विषय- रामानुजाचार्य का चरित्र। श्रीसिद्धसूक्ति - श्रीसिद्धशाम्भव- तन्त्रान्तर्गत । श्लोक- 6501 पटल- 13 | विषय- रसायनविधि। पारद के 18 संस्कार इसमें प्रतिपादित हैं। श्रीसूक्तम् - 25 ऋचाओं का एक लोकप्रिय वैदिक सूक्त। ऋग्वेद के पांचवे मंडल के अंत में यह जोडा गया है। फिर भी यह तीन हजार वर्ष पूर्व का होना चाहिये। यास्क व शौनक ने इसका उल्लेख किया है। पहली ऋचा लक्ष्मी के नाम पर है। अक्षय टिकने वाली लक्ष्मी की महिमा इसमें वर्णित है। श्रीसूक्त पर विद्यारण्य, पृथ्वीधर, श्रीकंठ के भाष्य हैं। श्रीसूक्तपद्धति - श्लोक- 225 । श्रीसूक्तविधानकारिका - ले.-श्रीवैद्यनाथ पायगुण्डे। श्लोक7861 श्रीसूक्तविद्याचन्द्रिका - ले.-भासुरानन्द। श्लोक- 5271 श्रीहरिद्वादशाक्षरीस्तोत्रम् - ले.-स्वामी लक्ष्मणशास्त्री। नागौर (राजस्थान) निवासी। श्रुतकीर्तिविलासचम्पू - ले.-सूर्यनारायण। श्रुतपूजा - ले.-ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। श्रुतप्रकाशिका - ले.-सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- विश्वजयी। श्रुतदीपिका - ले.-सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- विश्वजयी। श्रुतबोध - ले.- कालिदास। यह एक उत्कृष्ट छन्दःशास्त्रीय रचना है। टीकाकार : (1) हर्ष-कीर्ति उपाध्याय, (2) मनोहर शर्मा, (3) ताराचन्द्र, (4) हंसराज, (5) गोविन्दपुत्र माधव, (इ. 1640 में रचित) (6) लक्ष्मीनारायण, (7) वासुदेव, (8) शुकदेव, (9) मेघचन्द्र शिष्य, (10) चतुर्भुज, (11) नागाजी (पिता- हरजी)। श्रुतस्कन्धपूजा - ले.-श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती। श्रुतपरीक्षा - ले.- कल्याणरक्षित। ई.9 वीं शती। विषयबौद्धमत। तिब्बती अनुवाद उपलब्ध । श्रुतिप्रकाशिका :- 1886 में ब्राह्मसमाज कलकत्ता द्वारा इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। संपादक गौर गोविन्दराय थे। इसमें वैदिक धर्मसंस्कृति विषयक चर्चाएं प्रकाशित होती थीं। इसका दूसरा नाम था "श्रुतप्रकाशः" ।। अतिप्रकाशिका (टीका) - ले.-श्री सदर्शन सरि । ई.14 वा शती। श्रुतिभास्कर - ले.- भीमदेव। श्रुतिमतोद्योत - ले.- त्र्यम्बकशास्त्री। श्रुतिमीमांसा - ले.-नृसिंह वाजपेयी। श्रुतिसारसमुद्धरणम् - ले.-तोटकाचार्य। ई. 8 वीं शती। श्लोकसंख्या- 179। श्रुतिसारसमुद्धरण-प्रकरणम् - ले.-तोटकाचार्य। विषय- देवी की तान्त्रिक पूजा। श्रुत्यन्त-सुरद्रुम - ले. पुरुषोत्तमाचार्य। आचार्य निबार्क से 7 वीं पीढी के आचार्य। ई. 13 वीं शती। यह निंबार्ककृत श्रीकृष्णस्तवराज की पांडित्यपूर्ण व्याख्या है। श्रेणिकचरितम् - ले.-शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 वीं शती। श्रौतस्मातकर्मप्रयोग - ले.-नृसिंह । श्रौतस्मातविधि - ले.-बालकृष्ण । श्वेतकालीस्तोत्रम् - वाडवानलीयतन्त्रान्तर्गत। विषयश्वेतकाली-कवच, श्वेतकाली- सहस्रनाम, श्वेतकालीस्तवराज, श्वेतकाली-मातृकास्तोत्र। श्वेताश्वतर उपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद की श्वेताश्वतर शाखा का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 385 For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीकाओं के साथ प्रकाशित हो चुका है। षट्चक्रप्रकाश - ले.- पूर्णानन्द। श्लोक- 160। षट्चक्रप्रभेद - ले.- पूर्णानन्द। विषय मूलाधारादि षटचक्रों के विवरण के साथ तन्त्रानुसार षट्चक्रादि के क्रम से निःसृत परमानन्द का निरूपण। षट्चक्रभेदटिप्पणी- ले.- गौडभूमिनिवासी श्रीशंकराचार्य । इन्होंने विविध तन्त्र ग्रंथ रचे हैं। श्लोक 330, विषय- शरीरस्थित मूलाधारादि षट्चक्र, उनके अधिष्ठाता देवता आदि का निरूपण करने वाले षट्चक्रभेद नामक ग्रंथ का अर्थ विषद किया गया है। षट्चक्रविचार - श्लोक- 175। अकथहचक्र इसके आदि में और अकडमचक्र अन्त में है। षट्चक्रविवरणम् - ले.- पूर्णानन्द । श्लोक- 1401 षट्चक्रविवृत्ति-टीका - ले.- श्री विश्वनाथ भट्टाचार्य। पितावामदेव भट्टाचार्य। श्लोक- 468। यह षटचक्रविवृत्ति नामक ग्रंथ की टीका है। विषय- शरीरस्थित स्वाधिष्ठान आदि षट्चक्रों का विवरण। षट्संदर्भ- ले.- जीव गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। षट्तंत्रीसार - ले.- नीलकंठ चतुर्धर । पिता- गोविंद। माताफुल्तांबा। ई. 17 वीं शती। सुप्रसिद्ध उपनिषद्। इसके छह अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये अन्य मतों व आत्मवाद की आलोचना कैसे की जाये, इसके नियम दिये गये हैं। दूसरे में योग का सुन्दर वर्णन है। तीन से पांच अध्यायों में सांख्य व शैव दर्शन का विवेचन है। पांचवें अध्याय के दूसरे श्लोक में कपिल शब्द की व्युत्पत्ति दी गई है। छठे में ईश्वर के सगुण रूप का वर्णन है। इस पर शंकराचार्य तथा विश्वास भिक्षु का भाष्य है। श्वेताश्वतरशाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय)- श्वेताश्वतरों का मन्त्रोपनिषद् प्रसिद्ध है।इसके अतिरिक्त दूसरा मन्त्रोपनिषद् भी था। उसका एक मन्त्र “अस्य वामीय" सूक्त के भाष्यकार आत्मानन्द ने 16 वें मन्त्र के भाष्य में उद्भत किया है। षट्कर्मचन्द्रिका - ले.- चरुकूरि तिम्मयज्वा। लक्ष्मणभट्ट के पुत्र । संन्यासी हो जाने पर रामचन्द्राश्रम नाम हुआ। षट्कर्मदीपिका - ले.- मुकुन्दलाल। (2) श्रीकृष्ण विद्यावागीश भट्टाचार्य । श्लोक 1000। उद्देश-91 षट्कर्मविवेक - ले.- हरिराम। षट्कर्मव्याख्यानचिन्तामणि - ले.- नित्यानंद। यजुर्वेद के पाठकों के लिए विवाह एवं अन्य पंचकर्मो के समय प्रयुक्त वाक्यों के विषय में निरूपण। षट्कर्मोल्लास - ले.- पूर्णानन्द परमहंस। गुरु- ब्रह्मानन्द ।। उल्लास 12। विषय- विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन, मारण, मोहन, इन षट्कर्मों के विषय में तिथि, नक्षत्र तथा आसनों के नियम । माला का नियम, कुण्डनिर्णय, नायिकासिद्धि, वीरसाधना, शान्तिविधान और षक्रियाओं की पृथक्-पृथक दक्षिणा। षट्कर्म - उड्डीशमतान्तर्गत। पटल- लगभग 24। विषयमारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण स्तम्भन, संमोहन ये छह तान्त्रिक क्रूर कर्म नहीं कहे गये हैं। जलस्तम्भन, अग्निस्तम्भन, पादप्रचार, केशरंजन, रसायनाधिकार, राज्यकरणयोग, स्त्रीयोगमाला इ. विविध विषयों का विवरण। षट्चक्रकर्मदीपिका - ले.- रामभद्र सार्वभौम। षट्चक्रदीपिका (श्रीतन्त्रचिन्तामणि के अन्तर्गत) - ले.पूर्णानन्द। इस पर नन्दराम तर्कवागीश की टीका है। षट्चक्रदीपिका- ले.- रत्नेश्वर तर्कवागीश। श्लोक 4701 षट्चक्रदीपिका (टीका) - पूर्णानन्द विरचित षट्चक्र पर यह रामनाथ सिद्धान्त कृत टीका है। यह कौलोपासना से सम्बद्ध तन्त्र ग्रंथ है। षट्चक्रनिरूपणम् - ले.- पूर्णानन्द। ये श्रीतत्त्वचिन्तामणि के आरम्भिक छह अध्याय हैं। इस पर दो टीकाएं हैं। (1) चक्रदीपिका, रामवल्लभ (नाथ)कृत, (2) षट्चक्रक्रमदीपिनी, श्रीनन्दरामकृत। यह कालीचरण, शंकर, और विश्वनाथ विरचित षट्पदी - ले.- विट्ठल दीक्षित । षट्पद्यमाला - ले.-श्रीरामराम भट्टाचार्य। विषय- 108 शार्दूलविक्रीडित छन्दों से नाडियों के नाम, स्थान और वर्ण आदि का वर्णन। षट्शाम्भवरहस्यम् - श्लोक- लगभग 2210। षट्संदर्भ - ले.-जीव गोस्वामी। चैतन्य मत के एक मूर्धन्य आचार्य। भक्ति-शास्त्र के मौलिक तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाला एक उत्कृष्ट कोटि का यह ग्रंथ है। भागवत विषयक 6 प्रौढ निबंधों का यह अति उत्कृष्ट समुच्चय है। इस पर स्वयं ग्रंथकार (जीव गोस्वामी) ने ही "सर्वसंवादिनी" नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्या लिखी है। षडशीति (या आशौचनिर्णय) - ले.-कौशिकादित्य यल्लंभट्ट । जनन-मृत्यु के अशौच पर 86 श्लोक एवं सूतक, सगोत्राशौच, असगोत्राशौच, संस्काराशौच एवं अशौचापवाद पर 5 प्रकरण । टीका- अघशोधिनी, लक्ष्मीनृसिंह द्वारा। (2) शुद्धिचन्द्रिका, नन्दपण्डित द्वारा। षडाम्नायमंजरी - श्लोक- 1500। षऋतुवर्णनम् - ले.-विश्वेश्वर । षड्दर्शनचिन्तनिका - यह पत्रिका संस्कृत-मराठी में मुंबई-पुणे से सन 1877 से प्रकाशित की जाती थी। इस पत्रिका का प्रचार पाश्चात्य देशों में भी था। इसमें प्राचीन दार्शनिक पद्धतियों का विवेचन प्रकाशित किया जाता था। 386/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षड्दर्शनलेशसंग्रह - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। विदर्भवासी। षड्दर्शनसमुच्चय - ले.- हरिभद्रसूरि। ई. 8 वीं शती । षड्दर्शन-सिद्धान्तसंग्रह . ले. -रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोण-निवासी । ई. 17 वीं शती। षड्दर्शिनी - श्रीरंगम से वासुदेव दीक्षित के संपादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। षड्विद्यागमसांख्यायन- तन्त्रम् श्लोक- 1000। पटल- 331 विषय- विविध तन्त्र-क्रियाएं तथा उनकी सिद्धि में उपयोगी मन्त्र । षड्विंशब्राह्मणम् (सामवेदीय)- इस ब्राह्मण में पांच प्रपाठक (अध्याय) हैं। पांचवे प्रपाठक को अद्भुत ब्राह्मण कहते हैं। कई विद्वानों के मतानुसार यह प्रक्षिप्त है। प्रपाठकों का विभाजन खण्डों में है। कुल मिलाकर 48 खण्ड हैं। सायण के अनुसार सारे खण्ड 46 हैं। यह ब्राह्मण सामवेदीय नाण्ड्य अर्थात् पंचविंश ब्राह्मण का भाग मात्र है। इस ब्राह्मण में ऋविजों के वेप के संबंध में जानकारी मिलती है। जैसा कि कहा गया है, 'लोहितोष्णीषा लोहितवासोनिवीता ऋत्विजः प्रचरन्ति ।' (3-8-22) लाल पगड़ियों वाले और लाल कपडों वाले लाल-किनार की धातियों वाले ऋत्विज होते हैं। युगों के प्राचीन नाम भी यहां मिलते हैं। तण्डि' अथवा उसी के निकटवर्ती शिष्यों ने इसका संकलन और प्रवचन किया है। संपादन - (क) घडविंश-ब्राह्मणम् -सायणभाष्यसहितम्। सम्पादक- जीवानन्द-विद्यासागर, कलकत्ता 1881 (ख) षड्विंश-ब्राह्मणम्- विज्ञापन - भाष्यसहितम् । सम्पादक- एच.एफ. ईलासिंह लाईडन्। सन 1908 । षण्णवतिश्राद्धनिर्णय - ले.-शिवभट्ट। ले. गोविंदसूरि। इस के एक श्लोक में 96 श्राद्धों का संक्षेप में कथन है। वह श्लोकः- "अमायुगमनक्रान्ति-धृतिपातमहालयाः। आन्वष्टक्यं च पूर्वेयुः षण्णवत्यः प्रकीर्तिताः ।।" रचना ई. 17 वीं शती। कमलाकर भट्ट. नीलकण्ठ भट्ट, दीपिकाविवरण, प्रयोगरत्न, श्राद्धकलिका आदि श्रेष्ठ ग्रंथकारों एवं ग्रंथों का निर्देश है। षण्णवतिश्राद्धपद्धति - ले.-माधवात्मज रघुनाथ। ई. 16-17 वीं शती। षण्मतिमण्डनम् - (काव्य) - ले.-घनश्याम । ई. 18 वीं शती। षष्टितंत्रम् - ले.-डॉ. क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय। मौलिक तथा अनूदित कथाओं का संकलन। ई. 20 वीं शती। षष्टिपूर्तिशान्ति - जीवन के 60 वर्ष पूर्ण होने पर विहित कृत्य। षष्ठीविद्याप्रशंसा - रुद्रयामलान्तर्गत। रुद्रयामल- 125060 श्लोकात्मक है। यह उसका एक अंश 12 पटलों में पूर्ण है, ऐसा पुष्पिका से ज्ञात होता है। षोडशकर्मपद्धति - ले.-गंगाधर । षोडशकर्मपद्धति - ले.- ऋषिभट्ट। घोडशकर्मप्रयोग - विषय- सोलह संस्कार, तथा स्थालीपाक, पुंसवन, अनवलोभन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, षष्ठीपूजा, पचगव्य, नामकरण, निष्क्रमाग, कर्णवेध, अन्नप्राशन, चौलकर्म, उपनयन, गोदान, समावर्तन, विवाह । रचना 1500 ई. के उपरान्त । षोडषकारणकथा - ले.-श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शतो। षोडशनित्यातन्त्रम् - गणेश-शिव संवादरूप। अध्याय- 36 । प्रत्येक अध्याय में 100 श्लोक है। कुल श्लोक - 3600। कुछ लोगों के मतानुसार 4000 श्लोक। 16 नित्यातन्त्र हैं :(1) नित्यातन्त्र, (2) ललिता, (3) कामेश्वरी, (4) भगमालिनी, (5) नित्याक्लिन्ना, (6) भेरुण्डा, (7) वज्रेश्वरी, (8) दूती, (9) त्वरिता, (10) कुलसुन्दरी, (11) नित्यानित्या, (12) नीलपताका, (13) विजया, (14) चित्रा, (15) कुरुकुल्ला और (16) वाराही। काली नाम 'क' से आरंभ होता है इसोलिए काली विषयक तन्त्र कादि कहे जाते है। षोडशनित्यातन्त्रख्याख्या - (मनोरमा) - ले.-सुभगानन्दनाथ । श्लोक- 10,000। ग्रंथ की पूरी श्लोक संख्या 19951 बतलायी गई है। काश्मीर राजगुरु श्री कण्ठेश एक बार रामसेतु के दर्शनों के निमित्त दक्षिण देश में गये। वहां जाते हुए मार्ग में उन्होंने नृसिंहराज पर अनुग्रह किया। नृसिंहराज ने उनसे तन्त्र ग्रंथ पढे। वहीं पर सुभगानन्दनाथ ने उक्त कादिमत पर 22 पटलों तक मनोरमा टीका रची। शेष पटलों की टीका उनके शिष्य प्रकाशानन्द देशिक ने उनकी आज्ञा से रची। षोडशानित्यातन्त्र कादिमत- व्याख्या - ले.- सुभगानन्दनाथ । श्लोक- 700। षोडशमहादानपद्धति (या दानपद्धति) - ले.-रामदत्त । कार्णाट वंश के मिथिलेश नृसिंह के मंत्री (खोपालवंशज) कुलपुरोहित भववर्मा की सहायता से प्रणीत। लेखक चण्डेश्वर के चचेरा भाई थे। अतः वह 14 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में थे। षोडशमहादानविधि - ले. कमलाकर। पिता- रामकृष्ण। षोडशसंस्कार - ले. कमलाकर । 2) ले. चंद्रचूड । लेखक के संस्कारनिर्णय का संक्षेप मात्र । षोडशसंस्कारपद्धति - (या संस्कारपद्धति) ले.-आनन्दराम दीक्षित। षोडशसंस्कारसेतु - ले.-रामेश्वर । षोडशीत्रिपुरसुन्दरीविधानम् श्लोक- 6001 षोडशीपद्धति - श्लोक- लगभग 8751 षोढान्यास - रुद्रयामल से गृहीत 400 श्लोक। सकलविद्याभिवर्धिनी - सन 1892 में विजगापट्टनम से संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 387 For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संस्कृत - तेलगु में प्रकाशित इस मासिक पत्र में वैज्ञानिक और दार्शनिक निबंधों का प्रकाशन किया जाता था। सकलागमसारसंग्रह श्लोक- 16001 सकलाधिकार- ले. अगस्त्य । विषय- वास्तुशास्त्र । सच्चरितपरित्राणम् ले. वीरराघव । गोत्र- वाघुल। विषयवैष्णवों के कर्तव्य स्मृतिरलाकर का उल्लेख हुआ है। सच्चरितरक्षा - ले. -रामानुजाचार्य। इस पर सच्चरितसारदीपिका, नामक टीका लेखक ने लिखी है। इस ग्रंथ में शंखचक्रधारण, ऊर्ध्वपुधारण और भगवदभवेदितोपयोग नामक 3 प्रकरण है। सच्चरितसुधानिधि - ले. वीरराघव । ( नैधृव ) । सच्चिन्निर्णय ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । विदर्भनिवासी । लक्ष्मण माणिक्य ( ई. 17वीं शती) द्वारा - - - 1 सत्काव्य- रत्नाकर संकलित काव्य । सत्काव्य-रत्नाकर ले-गोविन्ददास ई. 17 वीं शती सत्क्रियासारदीपिका ले. गोपाल भट्ट । वैष्णों के लिए आचारधर्म । लेखक ने हरिभक्तिविलास भी लिखा है। समय1500-1565 ई. सत्तर्करत्नाकर ले. - अद्वदयानन्दनाथ । पिता - कृष्ण । विषयकालरात्रि की पूजा का विधान । सत्यचरितम् (नाटक) ले पं. सुदर्शनपति । - सत्यधर्मशास्त्रम् मार्कलिखित सुसंवाद: अर्थतो येशुख्रिस्तीयचरितदर्पणम्- बैप्टिस्ट मिशन मुद्रणालय कलकत्ता द्वारा सन 1884 में प्रकाशित । सत्यध्यानविजयम् ले केशव श्रीनिवास पुत्र 5 सर्ग श्लोक 290 | सत्यध्यान मुनि का चरित्र । धारवाड से मनोरंजन प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित ग्रंथ में कवि के भाई द्वारा टीका, सत्यध्यानाष्टक स्तोत्र तथा संस्कृतसभा, कुम्भकोणम् इतिवृत्त भी प्रकाशित है। सत्यनाथ - विलासितम् - ले. श्रीनिवास। इस काव्य में माध्व सम्प्रदायी, द्वैतसिद्धान्ती सत्यनाथतीर्थ का चरित्र वर्णित है। चरित्रनायक ई. 1674 में दिवंगत हुए। सत्यनाथाभ्युदयम् ले. शेषाचार्य। पिता- संकर्षण। विषयमाध्वसम्प्रदायी, द्वैतसिद्धान्ती सत्यनाथतीर्थ का चरित्र । चरित्रनायक ई. 1674 में दिवंगत हुए। सत्यनिधिविलासम्ले. श्रीनिवास विषय- माध्य आचार्य सत्यनाथतीर्थ का चरित्र । सत्यपराक्रम (निबन्ध) ले. के. आर. विश्वनाथशास्त्री । सत्यबोधविजयम्ले कृष्णकवि माध्य आचार्य सत्यनाथतीर्थ का चरित्र । - www.kobatirth.org - - सत्यभामा-कृष्णसंवाद ले. धोयी । ई. 12 वीं शती। सत्यभामा - परिग्रहम् ( काव्य ) ले. हेमचन्द्र राय जन्म 388 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - 1882 I सत्यभामापरिणय ले. - स्फुलिङ्ग । इ. 16 वीं शती। पांच अंकों में कृष्ण-सत्यभामा के विवाह का कथानक निबद्ध । (2) ले.- रामाचार्य। (3) (रूपक)- ले. शेषकृष्ण । ई. 16 वीं शती । | सत्यभामाविलासचम्पू ले शेषण ई, 16 वीं शती सत्यव्यसनकथा ले. सोमकीर्ति जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । सत्यशासनपरीक्षा ले. विद्यानन्द जैनाचार्य ई. 8-9 वीं शती । सत्सन्दोहिनी ले. विद्याधरशास्त्री सत्यसन्धचरितचम्पू ले. कल्पल्ली। 1 सत्याग्रहकथा ले. सी. पांडुरंगशास्त्री । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यानुभव- ले. म.म. कालीपद तर्काचार्य (1888-1972)। काव्य । शती । सत्यापीड ले. भारतचंद्र राय । ई. 18 वीं सत्यारोहणम् ले श्रीमाता (पाण्डिचेरी) 1958 में अनुवादरूप में प्रकाशित । पात्र - लोकोपकारी, दुःखान्तवादी, शिल्पी, प्रणयी, यति इ । अन्त में सभी सत्यारोहण में सफल होते हैं। अरविन्दाश्रम से अंकसंख्या सात । सत्यार्थप्रकाश ले. - स्वामी दयानन्द सरस्वती, आर्यसामज के संस्थापक आर्यसमाज के अनुयायियों का प्रमाणभूत ग्रंथ मूल हिंदी भाषा में । सत्याषाढसूत्रविषयसूची ले. केवलानंद सरस्वती ई. 19-20 वीं शती वाई (महाराष्ट्र) के निवासी। 1 - 1 सत्यदीपक- ले. ब्रह्मदेव जैनाचार्य इ. 12 वीं शती । सत्संगविजयम् (प्रतीक नाटक) ले वैद्यनाथ ई. 19 वीं शती । नायिका कीर्ति । प्रतिनायक दुःसंग । अन्य पात्र - व्यभिचार, कुमति, पिशुन, समय, प्रकाश, मिथ्याभिशाप, विद्या, प्रतिष्ठा, सत्य, अविचार, आर्जव तत्वविचार आदि अंक पांच पाखण्डियों तथा गुर्जर प्रदेश में प्रचलित नारायणीय सम्प्रदाय की निन्दा इस नाटक का विषय हैं। सत्सम्प्रदायप्रदीपिका (या सम्प्रदायप्रदीप) ले गदाधर । विषय- प्रमुख वैष्णव आचार्यो का परिचय । सत्स्तुतिकुसुमांजलि ले. पं. कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे । काठमांडू (नेपाल) के निवासी । कविरत्न तथा विद्यावारिधि इन उपाधियों से विभूषित। कृष्णचरितामृत महाकाव्य आदि 12 ग्रंथों के लेखक । सत्स्मृतिसार ले जानकीराम सार्वभौम विषय तिथि, प्रायश्चित्त इत्यादि । - I सदर्पकन्दर्पम् ले भवानन्द ठकुर सदाचारक्रम- ले. रमापति। सदाचारनिर्णय ले.- अनन्तभट्ट । For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदाचारप्रकरणम् ले.- शंकराचार्य । योगियों के लिए लिखित । सदाचाररहस्यम् - ले.- अन्नंभट्ट मीमांसक । वाराणसी निवासी। सदाचाररहस्यम्- ले.- अनन्तभट्ट । दाईभट्ट के पुत्र । अमरेशात्मज संग्रामसिंह की इच्छा से बनारस में प्रणीत । लगभग 1715 ई. में। सदाचारविवरणम्- ले.- शंकर। सदाचारसंग्रह -ले.- गोपाल न्यायपंचानन । (2) ले.- श्रीनिवास पण्डित। आचार, व्यवहार एवं प्रायश्चित्त नामक तीन काण्डों में विभाजित। (3) ले.- शंकरभट्ट। पिता- नीलकंठ। ई. 17 वीं शती। (4) ले.- वेंकटनाथ। सदाचार-स्मृति- ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत-मत के प्रतिष्ठापक। इसमें वर्णाश्रम-धर्मानुसार आह्निक-विधि का काव्यात्मक वर्णन है। सदाचारस्मृति- ले.- नारायण पण्डित। विश्वनाथ-पुत्र। (2) ले.- श्रीनिवास। (3) ले.- आनंदतीर्थ। श्लोक- 40। इस पर मध्वशिष्य नृहरि और रामाचार्य की टीकाएं हैं। (4) ले.-. राघवेन्द्रयति। सदाशिवनित्यार्चनपद्धति- श्लोक - 600। सदुक्तिकर्णामृतम्- श्रीधरदास। (ई. 12 वीं शती) द्वारा । संकलित। लक्ष्मणसेन, उसका पुत्र केशवसेन आदि अप्रसिद्ध बंगाली कवियों के श्लोक भी इसमें समाविष्ट हैं। सदुक्तिमुक्तावली - ले.- गौरीकान्त सार्वभौम । सध्दर्म - सन् 1906 में श्री वामनाचार्य के सम्पादकत्व में मथुरा के वेणीमाधव मंदिर से इस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इस का वार्षिक मूल्य 1 रु. था। कुल 20 पृष्ठों वाली इस मासिक पत्रिका में विविध विषयों से संबधित सामग्री का प्रकाशन किया जाता था। सध्दर्मतत्त्वाख्याह्निकम्- ले.- हरिप्रसाद। पिता- गंगेश। मथुरानिवासी। श्लोक-621 सद्धर्मपुण्डरीकम् (अन्यनाम-वैपुल्यराजसूत्रम्) - महायानी बौद्धों की भक्तिमयी विचारधारा एवं गुणावगुण के ज्ञान हेतु महत्त्वपूर्ण रचना । जागतिक प्रपंच से पीडित प्राणिवर्ग को पवित्रता का संदेश देने में समर्थ कृति। महायान पंथ के विशिष्ट बौद्ध सिद्धान्तों का इसमें निदर्शन मिलता है। 27 परिवर्तों में विभक्त इस ग्रंथ में सुगत-शारिपुत्र संवादरूप में सुगत का उपदेश है। निदान-परिवर्त, उपायकौशल्यपरिवर्त औपम्यपरिवर्त आदि 27 परिवर्तों के भिन्न नाम हैं। यह ग्रंथ भारत तथा नेपाल, तिब्बत, आदि बाह्य देशों में लोकप्रिय है तथा गिलगिट, फारमोसा, तुरफान आदि स्थानों से इसके अनेक हस्तलेख प्राप्त हुए और इनके अनेक संस्करण भी देवनागरी तथा रोमन लिपि में किये गए हैं। इस ग्रंथ के अनुवाद भी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, तिब्बती, चीनी हिन्दी, जापानी भाषाओं में हुए हैं। प्राचीनतम चीनी अनुवाद ई. 286 में धर्मरक्ष द्वारा संपन्न हुआ। समय- प्रायः सभी विद्वानों को संमत ईसा की प्रथम शती। पाली सुत्तों के उपदेष्टा बुद्ध जहां संन्यासी रूप में नाना स्थानों का परिभ्रमण कर उपदेश करते हैं, वहां सध्दर्मपुण्डरीक के सुगत बुद्ध गृध्रकूटगिरि पर असंख्य मामयों से परिवृत् हैं। भक्तों के अनुरोध पर उपदेश प्रारम्भ करने पर अन्तरिक्ष से अजस्त्र पुष्पवृष्टि होती है। चीन के कुछ बौद्ध पंथ, जपान के तेनदाई एवं निचिरेन पथ का यह धर्मग्रंथ है। झेन पंथ के मंदिर में इसका पठन किया जाता है। "नमोऽस्तु बुद्धाय" इस मंत्र के उच्चार से मृढ पुरुष को अग्र बोधी प्राप्त होती है, ऐसा कहा गया है। इस महायानसूत्र ग्रंथ पर आचार्य वसुबन्धु की टीका है, जिसका चीनी अनुवाद 508-535 में हुआ। सद्धर्मामृतवर्षिणी- 1875 में आगरा से ज्वालाप्रसाद भार्गव के सम्पादकत्व में इस संस्कृत-हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें धार्मिक निबन्धों को प्रमुख स्थान दिया जाता था। सद्भाषितावली - ले.- सकलकीर्ति । जैनाचार्य । पिता-कर्णसिंह। माता-शोभा। ई. 14 वीं शती। 389 पद्यों में पूर्ण। सद्राग-चंद्रोदय - ले.- पुंडरीक विठ्ठल। ई. 16 वीं शती। इनके समय उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत-पद्धति में बडी अव्यवस्था फैली हई थी। अतः इनके आश्रयदाता बुरहानपुर के राजा बुरहानखान ने इनसे कहा कि वे उस संगीत-पद्धति को सुव्यवस्थित रूप दें। पुंडरीक मूलतः मैसूर के निवासी तथा दाक्षिणात्य पद्धति के प्रसिद्ध गायक तथा संगीतज्ञ थे। अतः उन्होंने उत्तर व दक्षिण की संगीत-पद्धतियों का तौलनिक अध्ययन करने के पश्चात् प्रस्तुत ग्रंथ लिखा। पश्चात् राजा मानसिंग के आश्रय में रहते हुए पुंडरीक ने राग-मंजरी तथा बादशाह अकबर के आश्रय में रागमाला व नृत्यनिर्णय नामक ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों को विद्वत्समाज में विपुल सम्मान प्राप्त हुआ। सरतकुमारगृहवास्तु- सनत्कुमार-पुलस्त्य-संवादरूप । श्लोक-504। 11 पटलों में पूर्ण। विषय- विष्णुमन्त्र, गोपाल पूजा, होमादि-निर्णय, त्रैलोक्य-मंगल कवच, पुरश्चरणविधि और दीक्षाविधि। सनातन-भौतिकविज्ञानम्- ले.- सी.सी. वेंकटरमणाचार्य । मैसूरनिवासी। विषय- प्राचीन विज्ञान विषयक साहित्य का सिंहावलोकन। सनातनशास्त्रम्- कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली धार्मिक पत्रिका। सन्पतिसूत्रम् - ले.- सिद्धसेन । जैनाचार्य। माता-देवश्री। समयप्रथम मान्यता- ई. प्रथम शती। द्वितीय मान्यता ई. 5 वीं शती। तृतीय मान्यता- ई. 8 वीं शती। सन्मार्गकण्टकोध्दार- ले.- कृष्णतात। विषय- प्रपन्न के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 389 For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सपिण्डीकरण की आवश्यकता। सपर्याक्रमकल्पवल्ली- ले. - श्रीनिवास। श्लोक 1000 5 स्तबकों में पूर्ण विषय श्रीचण्डिका देवी की पूजा का क्रम । सपर्यासार ले. काशीनाथ भट्टाचार्य। श्लोक-लगभग 1130 | सपिण्डीकरणनिरासम्- ले. घट्टशेषाचार्य । धर्मशास्त्रीय विषय पर एक ललित नाटक । सपिण्डाले www.kobatirth.org तर सप्तपदार्थी ले. शिवादित्य। ई. 10 वीं शती। इस ग्रंथ में वैशेषिक और नैयायिक सिद्धान्तों का समन्वय करने का प्रयास लेखक ने किया है। लक्षणमाला नामक अन्य ग्रंथ भी शिवादित्य ने लिखा हैं। 1 1 सप्तपदार्थी टीका ले भावसेन द्यि जैन ई. 13 वीं श सप्तपरमस्थानकथा - ले. श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य । सप्तपाकयज्ञशेष- ले. चार प्रश्नों में विभक्त । प्रत्येक प्रश्न अध्यायों में विभक्त है। सप्तपाकसंस्थाविधि ले. दिवाकर महादेव के पुत्र । विषय- श्रवणाकर्म, सर्पबलि, आजी, आपण अटका एवं पार्वणश्राद्ध । सप्तपारायणविषय उत्तरशनार्णव से गृहीत श्लोक 180 नाथपारायण, घटिकापारायण, तत्वपारायण, नित्यपारायण, मंत्रपारायण, नामपारायण, अंगपारायण, ये 7 पारायण हैं। विषयनौ गफ शक्ति का आविर्भाव तत्व, देवीमन्त्र शक्ति के नाम और सहायक मन्त्र, इन सातों की पारायण विधि इसमें प्रतिपादित है। सप्तर्षिपूजा - ले. ब्रह्मजिनदास जैनाचार्य। ई. 15 व 16 वीं शती । सप्तर्षिसंमतस्मृति 36 पदों में पूर्ण सात ऋषि वसिष्ठ, कौशिक, पैंगल, गर्ग, कश्यप एवं कण्व । सप्तव्यसनकथासमुच्चय- ले. आचार्य सोमकीर्ति । सप्तशती (अपरनाम, दुर्गासप्तशती, चण्डी, देवीमाहात्म्य) मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत अध्याय 81.93 इसमे 567 श्लोकों का 700 श्लोकों में तथा 13 अध्यायों में विभाजन किया है। विषय- महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी का चरित्र वर्णन। देवी के उपासक नवरात्रादि पर्वों पर इस ग्रंथ का पारायण करते हैं। सप्तशती ले कुमारमणि भट्ट ई. 18 वीं शती । सप्तशतीकवचविवरणम्- ले. नीलकण्ठ भट्ट । पिता- रंगभट्ट । सप्तशतिकाविधानम्- ताराभक्ति-तरंगिणी के अंतर्गत श्लोक 1 1781 I सप्तशतीगुरुचरित्रम् दत्तात्रेय कथा | 390 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - ले. वासुदेवानन्द सरस्वती। विषय सप्तशती चण्डीस्तोत्रव्याख्यानम् (चण्डीस्तोत्रप्रयोगविधि) ले. नागोजी भट्ट । पिता शिवभट्ट । श्लोक- 5921 सप्तशतीध्यानम् ले श्लोक 13601 सप्तशतीपाठादिविधि - श्लोक- 1001 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 प्रारंभ में एक निर्दिष्ट है। के पुत्र | सतप्रयोग ले. विमलन्दनाथ श्लोक 3701 सप्तमीपत्र प्रयोगविधि- ले. नागोजी भइ श्लोक 3001 सप्तशती मन्त्रविभाग- ले. नागोजी भट्ट । श्लोक- लगभग 565। लिपिकाल 1764 शकाब्द | सप्तशतीमन्त-व्याख्या - शिवराम श्लोक- 300 । सप्तशतीमन्त्रहोम-विभागकारिका- ले. कण्व गोविन्द । सप्तशत्यंगपदक- व्याख्यानम्- ले. शैव नीलकण्ठभट्ट। पिताभट्ट वनाथ विषय- सप्तशती के छह अंग कवच, अर्गला कीलक तथा रहस्यत्रय की नास्ता प्रस्तावना है जिस में शक्ति की पूजा का वासविक सप्तसंस्थाप्रयोग- ले. अनन्त दीक्षित । विश्व (2) ते. बालकृष्ण पिता महादेव! सप्तसुसंन्यासपद्धति संन्यास करने एवं तीर्थ आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती एवं पुरी) संन्यासियों एवं ब्रह्मा से शंकराचार्य तक के 10 महापुरुषों के विषय में प्रतिपादन सप्तसन्धान-महाकाव्यम् ले. जैन मनि विजय गणी। इस सप्तार्थक काव्य में पांच जैन तीर्थकर, कृष्ण तथा बलराम के चरित्रवर्णन हैं। पूर्व कवि हेमचन्द्र सूरि की सप्तार्थक रचना विलुप्त होने से इसकी रचना करने की प्रेरणा लेखक को मिली। सभापति- विलासम् (नाटक) ले. वेइकटेश्वर ई. 18 वीं | शती । प्रथम अभिनय चिदम्बरपुर के कनकसभापति (शिव) की यात्रा के महोत्सव में इस रचना पर कवि को "चिदम्बर- कवि " की उपाधि प्राप्त हुई। अंकसंख्या पांच प्रधान नायक व्याघ्रपाद, उपनायक पतंजलि प्रधान रस- शृंगार | 1 - सभारंजनम् (खण्डकाव्य) ले नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती । समयकमलाकर ले. कमलाकर । समयकल्पतरु ले पत्तोजी भट्ट लक्ष्मणभट्ट के पुत्र । समयनय-ले. गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती । पितादिनकर भट्ट | यह ग्रंथ लेखक ने छत्रपति संभाजी राजा के लिये सन् 1681 में लिखा । समयनिर्णय ले. अनन्तभट्ट । सन् 680-81 में लिखित । (2) ले. रामकृष्ण । पिता- माधव। ई. 16 वीं शती । यह ग्रंथ प्रतापरुद्रदेव के आदेश से लिखित प्रतापमार्तण्ड का पांचवा भाग है। समयप्रकाश ले. विष्णुशर्मा इन्हें "स्वाग्नि For Private and Personal Use Only - Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चित्- स्थपतिमहायाज्ञिक" कहा गया है। यह "कीर्ति प्रकाश" नामक निबन्ध का एक अंश है। गौर कुल में उत्पन्न कनकसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के आदेश से प्रणीत । इसका विरुद्ध है। "कोदण्डपरशुराममानोन्नत", जो मदनसिंह देव के समान है, जिसके आदेश से मदनरत्न का प्रणयन हुआ। (2) ले.मुकुन्दलाल । (3) ले. रामचन्द्रयज्वा । समय प्रदीप- ले. दत्त उपाध्याय । ई. 13-14 वीं शती (2) ले. विठ्ठल दीक्षित (3) ले. हरिहर भट्टाचार्य विषयधार्मिक कृत्यों के मुहूर्त । (4) ले ठक्कुर कृत जीर्णोद्वार । श्रीदत्त टीका- मधुसूदन 1 समयमयूख (या कालमयूख) द्वारा मुद्रित। (2) ले.- कृष्णभट्ट । समयरत्नम् ले मणिराम । - - www.kobatirth.org - समयसार ले. रामचन्द्र । सूर्यदास के पुत्र । टीका- (1) लेखक के भाई भरत द्वारा टीका (2) सूर्यदास एवं शिवदास । विशालाक्ष के पुत्र द्वारा । 3) इसने लेखक को अपना गुरु माना है। समयसारकलश ले. अमृतचन्द्रसूरि । जैनाचार्य। ई. 10-11 वीं शती। समयसारटीका ले. अमृतचन्द्रसूरि जैनाचार्य ई. 10-11 वीं शती । - · ले. नीलकण्ठ । घारपुरे उमा-महेश्वर संवादरूप। श्लोक- 300 1 समयाचारतन्त्रम् विषय- समयाचार शब्द का अर्थ, वाग्वादिनी मंत्र, विजयास्तोत्र, तन्त्रोक्त कर्म में समय का महत्त्व । खीर, दही, मट्ठा आदि 14 पदार्थ, उनके शोधन के प्रकार। प्रातःकाल, मध्याह्न आदि पांच जपकाल । शान्तिक, वश्य, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण आदि षट्कर्मों के अनुरूप मुद्रादि । पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तरादि आम्नाय पूर्व आदि आम्नायों के देवता । उक्त आम्नायों की भिन्न-भिन्न मालाएं। शान्तिक आदि में आसनभेद, जपस्थान, मंत्रों के पुल्लिंग, नपुंसक आदि कथन । वामाचार, दक्षिणाचार आदि, तंत्र, यामल आदि की संख्या । मत्स्य, मांस, मुद्रा, मैथुन मद्यादि पंच मकारों का कथन शक्तिसाधन इत्यादि । समयाचारसंकेत श्लोक- 2881 समयातन्त्रम् - देवी-ईश्वर संवाद रूप। पटल 10 श्लोक1200। विषय- गुरुक्रमवर्णन, तारा प्रकरण, दक्षिणकालिका प्रकरण, नित्यपूजा, शवसाधन, उच्छिष्ट चाण्डालिनीसिद्धि साधन, प्रचण्डासिद्धि, षट्कर्मविचरण। समयालोक - ले. पद्मनाभ भट्ट । समरशान्तिमहोत्सव ले. पी. व्ही. रामचन्द्राचार्य मद्रास राज्य के शिक्षाधिकारी । समरांगणसूत्रधार ले धारानगरी के अधिपति भोज विषयवास्तुशास्त्र । श्री द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल के अनुसार इसके कुल 83 अध्याय है जिनमें पुरनिवेश, भवननिवेश, प्रासादनिवेश, प्रतिमानिर्माण व यंत्रघटना- इन पांच विषयों का विस्तृत विवेचन है। इनके अलावा अगस्त्य के सकलाधिकार तथा काश्यप के अंशुमभेद में भी प्रतिमानिर्माण का व्यापक विवेचन है । समवृत्तसार ले. नीलकण्ठाचार्य । समस्या- कुसुमाकर (पत्रिका) कार्यालय वाराणसी में । 1924 में प्रारंभ। समस्यापूर्ति ई.स. 1900 में कोल्हापुर से आप्पाशास्त्री राशिवडेकर के सम्पादकत्व में समस्यापूर्ति करने वाली इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। जिन प्रतिभावान् संस्कृत कवियों की रचनाएं धनाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो पाती थीं, उनकी रचनाओं को इसमें स्थान दिया जाता था। समातंत्रम् (वर्षतंत्र अथवा ताजिक-नीलकंठी)- ले. - नीलकंठ । ई. 16 वीं शती । विषय ज्योतिषशास्त्र । समाधानम् (नाटक) ले. रमानाथ मिश्र । रचना सन् 1945 में । विषय- छात्र तथा छात्राओं के युरोपीय पद्धति के गान्धर्व विवाह से उत्पन्न वैवाहिक समस्याओं के समाधान की चर्चा | अंकसंख्या पांच । समाधितंत्रटीका ले. प्रभाचन्द्र जैनाचार्य समय दो मान्यताएं । (1) ई. 8 वीं शती । (2) 11 वीं शती । समाधिराज परवर्ती महायान सूत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रधान वक्ता के रूप में चन्द्रप्रदीप (चन्द्रप्रभू होने से इसे "चन्द्रप्रदीपसूत्र" कहा है। चन्द्रप्रदीप एवं तथागत के संवाद का वर्णन है। 16 परिवर्त । समाधियों की सहायता से प्रारंभिक अवस्था से (जैसे पूजा, परित्याग, दयालुता आदि ) शून्यता की अवि तक जाने का मार्ग विशद किया है। प्रथम यह रचना अल्पकाय थी, कालान्तर में विशद तथा बृहत् हुई। आंशिक संस्करण काश्मीर महाराज की सहायता से हुआ। कलकत्ता से संपादित प्रथम चीनी अनुवाद ई 148 में संपन्न हुआ । यह प्रथम तथा द्वितीय शती के मध्य की रचना मानी जाती है। समाधितत्त्वम्ले देवनन्दी पूज्यपाद जैनाचार्य ई. 5-6 वीं शती माता श्रीदेवी पिता माधव भट्ट । समान्तरसिद्धि - ले. धर्मकीर्ति । ई. 7 वीं शती । समावर्तनप्रयोग ले. श्यामसुन्दर । समासवाद ले. - गोविन्द न्यायवागीश । समुदायप्रकरणम् ले. जगन्नाथ सूरि । समुद्रमन्थनम् (समवकार) ले. वत्सराज ( या पितामह) संक्षिप्तकथा इस में देव और दानवों द्वारा अमृतप्राप्ति के लिये किये गये समुद्रमंथन की कथा है। प्रथम अंक में देव और दानव क्षीरसागर को मथते हैं। जिसमें चन्द्रमा, उच्चैःश्रवा, अमृत आदि निकलते हैं, किन्तु दैत्यराज बलि चतुराई से अमृतकलश ले लेता है। समुद्र से विष निकलने पर शंकर उसे ग्रहण करते हैं । द्वितीय अंक में मोहिनी के वेश में विष्णु For Private and Personal Use Only -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 391 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बलि से अमृतकलश ले लेते हैं। तृतीय अंक में दैत्यों के भय से समुद्र से निकली हुई सारी वस्तुएं वापस लौटने लगती हैं तो समुद्र स्वयं प्रकट होकर उन्हें रोकता है। देवतागण उन्हें अभय देते हैं समुद्रमंथन में सात चूलिकाएं हैं। समुद्रमन्थनचम्पू ले. बेल्लमकोण्ड रामराय। आंध्र निवासी । सरला भागवत के वेद-स्तुति-स्थल ( भाग 10-87) की टीका । टीकाकार- योगी रामानुजाचार्य । टीका बडी विस्तृत है। और रामानुज के मान्य सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर विरचित है। इसमें श्रुति वाक्यों का तथा तदनुसारी भागवत पद्यों का अर्थ बड़ी गंभीरता के साथ स्वमतानुसार दिखलाया गया है। इसमें पद्यों का अन्वय भी दिया गया है। इसका रचना - काल श्रीनिवास सूरि (19 वीं शती का पूर्वार्ध) के बाद का है। अतः यह कृति आधुनिक । सरला ले. म.म. हरिदास सिद्धान्तवागीश। सन् 18761961, आधुनिक उपन्यास तंत्र के अनुसार लिखित कथा । सरसकविकुलानन्द (भाग) ले रामचन्द्र लाल ई. वेल्लाल । 18 वीं शती कीपुरनायक की चैत्रयात्रा महोत्सव में अभिनीत नायक- भुजंगशेखर । सरस्वती सन् 1923 में मुक्त्याला (मद्रास) से राजावासी रेड्डी तथा सदा विश्वेश्वरप्रसाद बहादुर के सम्पादकत्व में इस साहित्यिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। सरस्वतीकण्ठाभरणम् ले. महाराज भोज। इस बृहत् शब्दानुशासन में आठ बडे अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में चार पाद है कुल सूत्र 6411 गणपाठ, उणादिसूत्र लिंगानुशासन, परिभाषा मूलसूत्रों में समाविष्ट है। प्रथम सात अध्यायों में लौकिक शब्द सन्निविष्ट है। आठवें में वैदिक शब्दों का अन्वाख्यान हैं। ग्रंथ का मुख्य आधार पाणिनीय तथा चान्द्र व्याकरण हैं किन्तु चान्द्र का आधार अधिकतर है। सरस्वतीकण्ठाभरण - व्याख्यान नाम से स्वयं भोज ने अपनी कृति पर व्याख्या लिखी यह सप्रमाण सिद्ध है। अन्य टीकाकार(1) दण्डनाथ नारायणभट्ट (ई. 12 वीं शती) कृत हृदयहारिणी । (2) कृष्णलीलाशुकमुनि (इ. 13 वीं शती) कृत पुरुषकार (3) रामसिंह देवकृत रत्नदर्पण | सरस्वतीकण्ठाभरणम् - ले. महाराज भोज। इस में 5 बृहत् अध्याय हैं जिनमें काव्यगुणदोषविवेचन, अलंकार तथा रस का विवेचन है । साहित्य की साधारण संकल्पनाएं प्रभृत उदाहरणों सहित समझाई गई हैं। उदाहरण प्रथितयश कविओं की रचनाओं से हैं, इस कारण यह रचना वैशिष्ट्यपूर्ण है। टीकाकार - (1) रत्नेश्वर मिश्र (2) भट्ट नरसिंह, (3) लक्ष्मीनाथ भट्ट (4) जगदूधर । सरस्वतीतंत्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप । पटल 71 विषयतंत्रानुसार - योनिमुद्रा का विधान है। मंत्र का चैतन्य, योनिमुद्रा, 392 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड कुल्लुकामहासेतु मुखशोधन विधि प्राणयोग इ. सरस्वतीपंचांगम् श्लोक- 4161 सरस्वतीपूजा - ले. ज्ञानभूषण। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती । सरस्वती-भवनानुशीलनम् सरखती-भवन वाराणसी से डॉ. गंगाधर झा की संरक्षकता में अनुसंधानात्मक निबंधों के प्रकाशन हेतु 1920 में अनुशीलन नामक पत्रिका प्रारंभ की गई। इसमें वाराणसेय और संस्कृत विद्यालय के विद्वानों के उच्च कोटि के निबंध प्रकाशित किये गये। सन् 1920 में सरस्वती पुस्तकालय भवन में विद्यमान अप्रकाशित ग्रंथों को प्रकाशित करने के लिये "सरस्वती ग्रंथमाला' का प्रकाशन किया गया। सरस्वती- विलास ले. कटक के राजा श्री प्रतापरुद्रदेव । 16 वीं श । अपनी राजधानी में पंडितों की सभा का आयोजन व उनसे चर्चा करने के पश्चात् आपने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में आर्थिक विधान ( दीवानी कानून) तथा धर्मशास्त्र के नियमों का समन्वय किया गया है। बाद में इस ग्रंथ को विधान (कानून) का स्वरूप प्राप्त हुआ । सरस्वतीमंत्रकल्प ले. मल्लिषेण । जैनाचार्य इ. 7 वीं या 11 वीं शती । इसमें 75 पद्य और अल्पमात्र गद्य है। सरस्वतीसौरभम् सन 1960 में बडोदा से जयनारायण रामकृष्ण पाठक के सम्पादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह बडोदा- स्थित विद्वत्सभा का प्रमुख पत्र होने से सभा का विवरण और फुटकर रचनाओं का इसमें प्रकाशन होता था । सरस्वतीहृदयभूषणम् (या सरस्वती हृदयालंकारहार) ले नान्यदेव 12 वीं शती का पूर्वार्ध तिरहुत (मिथिला) के राजा । सतरा अध्याय 10,000 पद्य। इसकी पाण्डुलिपि भाण्डारकर प्राच्य विद्यासंस्थान, पुणे में विद्यमान है। अन्य रचनाएं- मालतीमाधव- टीका, भरतनाट्य- शास्त्रभाष्य ( भरतवार्तिक) इसमें संगीत विषयक प्रगति का मूल वैदिक काल में बताया है, प्रत्येक उपकरण की तुलना पवित्र ऋषियों द्वारा यज्ञविधि में उपयोग में लाए जाने वाले उपकरणों से ही है। बांसरी को छोड़ प्रत्येक विषय पर विस्तृत विवेचन है। बांसरी पर कुम्भकर्ण की विस्तृत चर्चा है। सप्तगीती, देशी गीत, प्राचीन ताल (जो अब उपयोग में नहीं) पर विस्तृत विवचन है, वीणावादन (एकतंत्री, पिनाकी, जिरी) जो ऋषियों द्वारा सप्त स्वरों में तल्लीनता के लिए होता था, उसका वर्णन है 140 रागों की सूचि दी है और शाइंगदेव ने 260 राग कहे हैं।) उनके निर्माता काश्यप तथा मतंग का निर्देश है। सरःकालिका 1 ले. भास्वत्कविरल विषय श्राद्ध, आशीच, शुद्धि, तथा गोत्र आदि । सरोजसुन्दरम् (या स्मृतिसार) - ले. कृष्णभट्ट । सर्वकालिकागम शिव-पार्वती संवाद रूप। विषय- श्री काली का देवी का माहात्म्य, यंत्र, कवच आदि जिनसे For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपत्तियां, संकट आदि निवृत्त होते हैं। विशेष प्रसिद्ध है। सर्वगन्धा - प्रारम्भ सन् 1977 में। संपादक- डा. वीरभद्र सर्वपुराणार्थसंग्रह - ले.- वेंकटराय। मिश्र। सहायिका- श्रीमती अनीता। कार्यालय- माईजी का मंदिर सर्वपुराणमार - ले.-शंकरानन्द । अशरफाबाद, लक्ष्मणपुर (लखनऊ)। उपहासपूर्ण लेख तथा सर्वप्रायश्चित्तप्रयोग - ले.- बालशास्त्री (या बालसूरि) । पिताकविताएं इस मासिक पत्रिका की विशेषताएं हैं। शेषभट्ट कागलकर। तंजौरराज शरभोजी भोसले के आदेश पर सर्वसिद्धिकारिका - ले.- कल्याणरक्षित। ई. 9 वीं शती। लिखा गया ग्रंथ। (2) ले.- अनन्तदेव। विषय- बौद्ध दर्शन । तिब्बती अनुवाद उपलब्ध। सर्व-मंगलमन्त्रपटलम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत । सर्वज्ञसूक्तम् - ले.- विष्णुस्वामी। वैष्णव संप्रदाय-चतुष्टयी में चण्डीसर्वस्वान्तर्गत भी कहा गया है। श्लोक- 168 । समाविष्ट रुद्र-संप्रदाय के एकमात्र मुख्य प्रवर्तक। विष्णुस्वामी सर्वमन्त्रोत्कीलन-शापविमोचनस्तोत्रम् - शिवरहस्यान्तर्गत । की विपुल ग्रंथसंपदा में "सर्वज्ञसूक्त" ही ऐसी रचना है जो श्लोक- 162। प्रमाण-कोटि में स्वीकृत की गई है। श्रीधरस्वामी ने अपनी सर्वमन्त्रोपयुक्त-परिभाषा - ले.- स्वामिशास्त्री। प्रपंचसारसंग्रह रचनाओं में इस प्रथ का अत्यधिक उपयोग किया है। भागवत से नवीन संग्रह । श्लोकसंख्या- Acco: की श्रीधरी टीका में विष्णुस्वामी के कतिपय सिद्धांतों का भी आभास मिलता है। विष्णु स्वामी के ईश्वर सच्चिदानंद-स्वरूप सर्वशास्त्रार्थनिर्णय - ले.- कमलाकर । हैं और वे अपनी लादिनीसंवित्" के द्वारा आश्लिष्ट हैं तथा सर्वसंमोहिनीतंत्रम् - श्लोक- 288 । भाया उन्हीं के आधीन रहती है। सर्वसंवादिनी - ले.- जीव गोस्वामी। चैतन्य मत के एक सर्वज्ञानोत्तरम् . विषय- तंत्रशास्त्र। ग्रन्थ के विद्यापाद में । मूर्धन्य आचार्य। 16 वीं शती। लेखक ने अपने ही षट्संदर्भ निम्नलिखित प्रकरण हैं : त्रिपदार्थविचार-शिवानन्द, साक्षात्कार नामक ग्रंथ पर लिखी हुई यह पांडित्यपूर्ण व्याख्या है। षट्संदर्भ, प्रकरण, भूतात्मप्रकरण, अन्तरात्मप्रकरण, तत्त्वात्मप्रकरण, भागवत-विषयक 6 प्रौढ निबंधों का उत्कृष्ट समुच्चय है। मन्त्रात्मप्रकरण, परमात्मप्रकरण। इस पर शिवाग्रयोगीन्द्र शैवाचार्य सर्वसाम्राज्यमेधानाम-सहस्त्रकम् - यह कालीरूप नकारात्मक की टीका है। सहस्रनाम स्तोत्र है। श्लोक- 1831 सर्वज्वरविपाक - रुद्रयामलान्तर्गत। शिव-पार्वती संवाद रूप। सर्वसार - ले.- विष्णुचन्द्र। पुराण और तन्त्रों से उद्धरण पटल-8। विषय- विविध प्रकार के ज्वरों की चिकित्सा और लेकर इस ग्रन्थ का निर्माण हुआ है। श्लोक- 52672 । निवृत्ति के उपाय निर्दिष्ट हैं। विषय- रुक्मिणी-श्रीकृष्ण के अष्टोत्तर सहस्रनाम, युगलस्तोत्र, सर्वतीर्थयात्राविधि - ले.- कमलाकर । सरस्वतीस्तोत्र, पंचवक्रशिवस्तोत्र, बगलामुखी-शतनाम, सर्वतोभद्रचक्र-टीका - ले.- गौरीकान्त चक्रवर्ती। विषय- प्रतिमालक्षण, नृत्येश्वररूपवर्णन, अर्धनारीश्वररूपवर्णन, तन्त्रोक्त सर्वतोभद्रचक्र आदि की व्याख्या । उमा-महेश्वररूप वर्णन, शिवनारायण, नृसिंह तथा त्रिविक्रम का सर्वधर्मप्रकाश - ले.- नीलकंठ। ई. 17 वीं शती। पिता- रूपवर्णन, ब्रह्मा, कार्तिकेय, गणेश,दशभुजादेवी, इन्द्र, प्रभाकर, शंकरभट्ट। (2) ले.. शंकरभट्ट। पिता- नारायणभट्ट। वह्नि, यम, वरुण, वायु, कुबेर आदि का रूपवर्णन, ब्राह्मी सर्वधर्मप्रकाशिका - ले.- वल्लभकष्ण। ई. 19 वीं शती। आदि मातृकाओं तथा लक्ष्मी का रूप वर्णन इ. रामभक्ति पर ग्रंथ। 42 श्लोकों में पूर्ण । विषय- विभिन्न मासों . सर्वसारनिर्णय - श्लोक- 2001 एवं तिथियों में मदनोत्सव (चैत्र द्वादशी) (आषाढ शुक्ल सर्वसारसंग्रह - ले.- भट्टोजी। द्वादशी पर) क्षीराधिशयनोत्सव, मुद्राधारणविधि, सर्वस्मृतिसंग्रह - ले.- ले. सर्वऋतु वाजपेययाजी। चातुर्मास्यव्रतविधि जैसे उत्सव। सर्वस्व - ले.- सर्वानन्द। अमरकोश की व्याख्या । सर्वदर्शनभाष्यम् - ले.- कपाली शास्त्री। गुरु-गणपति मुनि सर्वागमसार - विषय- गुरु-शिष्य के लक्षण के साथ दीक्षा के ग्रंथ पर भाष्य। का प्रतिपादन तथा साथ ही मन्त्रों के 10 संस्कार, न्यास, सर्वदेवप्रतिष्ठा - ले.- पद्मनाभ । श्लोक- 11201 जप, होम और मुद्राओं का वर्णन इ. भी प्रतिपादित हैं। सर्वदेवप्रतिष्ठा-पद्धति - ले.- त्रिविक्रम । श्लोक- 25001 सर्वागसुन्दरम् - ले.- अरुण दत्त (इ. 12 वीं शती) वाग्भट सर्वदेवप्रतिष्ठाप्रयोग - ले.- माधवाचार्य । कृत "अष्टांगहृदय" पर भाष्य। विजयरक्षित (श. 13) द्वारा सर्वदेवप्रतिष्ठाविधि - ले.- रामचन्द्र दीक्षित के एक पुत्र । अरुण दत्त के मतों का खण्डन किया गया है। सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह - ले.- महेश ठक्कुर । अकबर बादशाह सर्वांगसुन्दरी (प्रयोगसार की व्याख्या) - ले.- देवराजगिरि। के आश्रित मिथिलानरेश। यह ग्रंथ "अकबरनामा' नाम से श्लोक - 18751 पटल- 541 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 393 For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वानन्द-तरंगिणी - ले.- शिवनाथ भट्टाचार्य। पिता एवं गुरुसर्वानन्दनाथ। श्लोक-- 500। कहते हैं श्रीसर्वानन्दनाथ को भवानी-चरणयुगल का साक्षात्कार था। वे जिला कुमिल्ला के अन्तर्गत मेहार राज्य के निवासी थे। उनकी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं किन्तु जब दास नामक राजा मेहार का शासन करते थे तब सर्वानन्दनाथ विद्यमान थे। सर्वार्थसार - ले.- वेंकटेश्वर। यह रामायण की टीका है। सर्वार्थसिद्धि - ले.- देवनंदी। ई. 5 वीं शती । सहगमनविधि (या सतीविधानम्) - ले.- गोविन्दराज। 66 श्लोकों में पूर्ण। सहचारविधि - विषय- पति की चिता पर भस्म होती हुई सती के विषय के कृत्य। सहृदय - ले.- हरि। विषय- आचारधर्म । सहदया - ले.- दक्षिण भारत के श्रीरंगम् से 1895 में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। बाद में यह मद्रास से प्रकाशित होने लगी। आर. कृष्णमाचारियार तथा आर.व्ही. कृष्णमाचारियार के संपादकत्व में इस पत्रिका ने अपने उच्चस्तर के कारण सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। इसमें अधिकांश चित्र कृष्ण और सरस्वती के रहते थे। इसका वार्षिक मूल्य 3 रु. था। कुल 32 पृष्ठों वाली इस पत्रिका में सरस कविता, गद्य, निबन्ध, अनुवाद, रूपान्तर के अलावा पाश्चात्य ढंग की आलोचना को विशेष महत्त्व दिया जाता था। इसके सम्पादकों की यह धारणा थी कि संस्कृत भाषा में आधुनिक और वैज्ञानिक विषयों पर प्रकाश डालने की अपूर्व क्षमता है। इस पत्रिका में भाषा - विज्ञान और तुलानात्मक अध्ययन सम्बन्धी निबन्धों का प्राचुर्य था तथा अर्वाचीन विषयों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इसने शोध-पत्रिका के रूप में विशेष ख्याति अर्जित की। 25 वर्षों के बाद बंद हुई। (2) सहृदयायह पत्रिका संभवतः 1906 में त्रिचनापल्ली से प्रकाशित हुई। संस्कृतचन्द्रिका के अनुसार 'अचिरादेव त्रिचनापल्लीतः सहृदयाख्या कापि संस्कृतमासिकपत्रिका कैश्चिद्विद्वत्तमैः संपाद्यमाना प्रादुर्भविष्यतीत्यवबुध्यमाना एकान्ततः प्रणन्दामः" । इन शब्दों में । इस पत्रिका का निर्देश हुआ है। सहृदयानन्दम् (या सहजानन्दम्) प्रहसन - ले.- हरिजीवन मिश्र। 17 वीं शती। इसमें शब्द-शक्ति, नायिकाभेद आदि साहित्यिक विषयों का विवेचन हास्योत्पादक ढंग से किया है। ब्रह्मज्ञान की प्रप्ति के लिए साधना की आवश्यकता है, जब कि काव्य-रसानन्द श्रवणमात्र से प्रकाशित होता है। अखण्डानन्द या काव्यरसास्वाद सर्वोपरि माना जाता है, और राजा प्रसन्न हो उसे प्रचुर धन देता है। नायिका के भाई कहते हैं कि हम हीनदीन रहकर इस धनवान वर का स्वागत कैसे करेंगे, तब राजा उन्हें भी यथेष्ट धन देता है और विवाह संपन्न होता है। सहस्रकिरणी - ले.- आन्दान श्रीनिवास। यह शतदूषणी का खण्डन है। सहस्र-गीति - ले.-शठकोपमुनि। वैष्णवों के श्रीसंप्रदाय के प्रधान आलवार सन्त। एक गंभीर रस-भावापन्न ग्रंथ। यह 7 वीं शती की रचना मानी जाती है। इसमें 10 शतक हैं और प्रत्येक शतक में 10 दशक और प्रत्येक दशक में प्रायः 11 गाथाएं हैं। नाम "सहस्रगीति" होते हुए भी इस ग्रंथ में समाविष्ट गाथाओं की संख्या 1,113 है। इनमें मुख्यतः नारायण, कृष्ण और गोविंद को ही संबोधित करते हुए प्रार्थना एवं उपलंभ हैं। श्रीराम से संबद्ध 2 ही भावापन्न गाथाएं इस ग्रंथ में हैं। 2) सहस्र-गीति - ले.-शठकोपाचार्य। आलवारों की श्रीराम के प्रति मधुर भावना का एक प्रातिनिधिक ग्रंथ। प्रस्तुत सहस्र-गीति में राम के प्रति माधुर्यमयी प्रार्थना की गई है यथा-हे प्रभो,, आपका वियोग-कष्ट इतना बढ़ गया है कि उसने शरीर को लाख की तरह गला कर पतला कर दिया है। आप इतने निर्दयी बन बैठे हैं कि उसकी खबर भी नहीं लेते। आपने राक्षसों की लंकापुरी का समूल नाश करते हुए शरणागत-वत्सल की प्रसिद्धि पाई है परंतु आपकी इस निर्दयता को आज क्या कहूं क्लेशादियं मनसि हन्त विभाति चाग्नौ लाक्षादिवत् द्रुततनुर्बत निर्दयोऽसि । लङ्कां तु राक्षसपुरीं नितरां प्रणाश्य प्रख्यातवान् किल भवान् किमु तेऽद्य कुर्याम् (सहस्र-गीति 2, 1, 4, 3,) भगवान राम की मधुर भाव से उपासना करने वाले भक्तों को "रसिक" कहते हैं। इस साधना में रसिक शब्द इसी अर्थ में रूढ हो गया है। सहस्रचण्डीविधानम् - ले.-कमलाकर। पिता- रामकृष्ण। ई. 17 वीं शती। सहस्रनाम-कला - ले.-तीर्थस्वामी। सहस्रनाममाला स्तोत्र तथा कला नामक उसकी व्याख्या है। तीर्थस्वामी ने स्वयं संकलित 40 सहस्रनामों में गूढार्थ नामों की कला नामक व्याख्या लिखी है। विषय- भुवनेश्वरी का 1, अन्नपूर्णा के 2, महालक्ष्मी का 1, दुर्गा के 7, काला के 4, तारा के 5, त्रिपुरा के 3, भैरवी के 2, छिन्नमस्ता का 1, मातंगी का 1, सुमुखी का 1, सीता के 2, शिव के 7, राम के 2 और कृष्ण के 2 सहस्र नाम हैं। सहस्रभोजनसूत्रव्याख्या - ले.-भास्कराय। गम्भीरराय दीक्षित के पुत्र । सूत्र बोधायन के हैं। सहस्रांशु - सन 1926 में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन वाराणसी से आरंभ हुआ। इसके सम्पादक और प्रकाशक गौरीनाथ पाठक थे। इसका वार्षिक मूल्य डेढ रुपिया तथा एक अंक का मूल्य दो पैसा था। इस पत्र की भाषा सरल थी। इस में विज्ञान, साहित्य, धर्म, जीवनचरित तथा समाजसंबंधी निबन्धों का प्रकाशन होता था। पत्र में बालकों के लिये भी 394 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुचिकर सामग्री प्रकाशित होती थी। अर्थाभाव के कारण यह पत्रिका दूसरे वर्ष बन्द हो गई। सहायमाधवम् - ले.-म.म. रघुपतिशास्त्री वाजपेयी। ग्वालियर निवासी। यह एक कूट-या शास्त्रीय काव्य है। इस रचना के दो भाग हैं। वाजपेयी कृत हेमन्तो वसन्तः, समयडिंडिमः कौमुदीकुसुमम् और कलिकलकलः यह रचनाएं भी ग्वालियर में प्रकाशित हुई हैं। हेमन्तो वसन्तः में श्री माधवराव सिंधिया को ई.स. 30 जून 1886 में राज्याधिकार प्राप्त हुए, उस अवसर पर आयोजित खास राजदरबार का वर्णन किया गया है। रचना का समय है 15 दिसम्बर सन 1894। संकटासहस्रनामाख्यानम् - पद्मपुराणान्तर्गत। इसमें प्रत्येक श्लोक में देवी के आठ नाम है। संकर्षणचम्यू - ले.-लक्ष्मीपति । संकल्प-कल्पद्रुमम् (काव्य) - ले.- जीव गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। संकल्पचन्द्रिका - ले -रघुनन्दन। संकल्प-सूर्योदयम् (प्रतीक नाटक) - ले.- आचार्य वेदांतदेशिक वेंकटनाथ। ई. 13 वीं शती। विशिष्टद्वैत मत के इस आचार्य ने अपने इस नाटक में शांत रस को सर्वश्रेष्ठ बतलाते हुए मोह की पराजय व विवेक की उन्नति दिखाई है। कृष्ण मिश्र द्वारा प्रबोधचंद्रोदय में प्रतिपादित सिद्धान्त का खंडन करने का प्रयास इस नाटक में हुआ है। संकल्पस्मृतिदुर्गभंजनम् - ले.-नवद्वीप के चन्द्रशेखर शर्मा। विषय- सभी काम्य कृत्यों के आरम्भ में किये जाने वाले संकल्प। तिथि, मास, काम्यकर्मणि संकल्प, व्रत नामक चार भागों में यह ग्रंथ विभाजित है। संकेतकौमुदी - ले.-हरिनाथाचार्य । (2) ले.- शिव। संकेतयामलम् - विषय- मारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, स्तंभन आदि तांत्रिक षट्कर्मो की सिद्धि के उपायों का प्रतिपादन। संकोचक्रियाविधि - श्लोक- 2200। संक्रान्तिनिर्णय - ले.-गोपाल न्यायपंचानन। 3 भागों में पूर्ण। (2) ले. बालकृष्ण। संक्षिप्तनिर्णयसिन्धु - चैत्र से फाल्गुन तक के धार्मिक कृत्यों का संक्षिप्त विवेचन। यह निर्णयसिंधु पर आधृत है। संक्रान्तिविवेक - ले.-शूलपाणि । संक्षिप्तकादम्बरी - ले. काशीनाथ। बाणभट्ट की कादम्बरी का संक्षेप। संक्षिप्ततृचार्घ्यपद्धति - ले.- भास्करराय। श्लोक 150 । संक्षिप्तभागवतामृतम् - ले.-रूपगोस्वामी। ई. 16 वीं शती। श्रीकृष्ण विषयक काव्य। संक्षेपशंकरविजयम् - ले.-माधवाचार्य, (विद्यारण्य स्वामी)। संक्षिप्तश्यामापूजापद्धति - ले.- पूर्णानंद । संक्षिप्त-सारव्याकरणम् - ले.- क्रमदीश्वर । ई. 14 वीं शती। इस का परिष्कार जुमरनन्दी ने किया है। संक्षिप्तहोमप्रकार - ले.-रामभट्ट । संक्षिप्ताहिकपद्धति - ले.-गोकुलजित्। दुर्गादत्त के पुत्र। सन 1633 ई. में रचित। संक्षेपशारीरक-व्याख्या - ले.-मधुसूदन सरस्वती। काटोलपाडा (या कोटलापाडा) बंगाल के निवासी। ई. 16 वीं शती विषय- अद्वैत वेदान्त। संक्षेपार्चन विधि - श्लोक- 5871 संक्षेपार्चा - विषय- सब देवी-देवताओं की संक्षेप में नित्य पूजाविधि तथा श्रीविद्या की संक्षेप में नित्य पूजाविधि भी उसके लिए निर्दिष्ट है, जो विस्तारपूर्वक उसका अनुष्ठान कराने में अक्षम हैं। अन्यथा श्रीविद्या का संक्षेपार्चन अनिष्टकारी होता है। संक्षेपाह्निकचन्द्रिका . ले.-दिवाकरभट्ट दिवाकर की आह्निकचन्द्रिका के समान ही इसका प्रतिपादन है। संख्यापरिमाणसंग्रह - ले.-केशवकवीन्द्र । वाराणसी में लिखित । ले. तीरभुक्ति (आधुनिक तिरहुत) के राजा की परिषद् के मुख्य पण्डित थे। स्मृतिनियमों के लिए तोल, संख्या एवं मात्राओं (यथा दातुन की लम्बाई , ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत के सूतों की संख्या इ.) के विषय में इसमें चर्चा है। संगता (मेघदूत की व्याख्या)- ले.-हरगोविंद वाचस्पति । संगमनी - प्रयाग से प्रभातशास्त्री के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित हो रही है। इसमें कतिपय पुस्तकों का प्रकाशन भी किया गया। संगरम् (दीर्घकथा)- ले.-चक्रवर्ती राजगोपाल। संगीत-कलानिधि - ले.-हरिभट्ट । संगीतकलिका - ले.-भीमनरेन्द्र। संगीतकल्पदुम - ले.-कृष्णानन्द व्यास। संगीतगंगाधर - ले.- काशीपति। संगीतगंगाधरम् (गेय काव्य) - ले.- नंजराज। मैसूर के द्वितीय कृष्णराज का सर्वाधिकारी। इसने शैव दर्शन पर 18 ग्रंथ लिखे हैं। संगीतचिन्तामणि - ले.-कमललोचन। संगीतचिन्तामणि - ले.- सन्मुख। पुराणों की पद्धति की रचना। शिव का पार्वती, नारद तथा अन्यों से संवाद । विषयसामगान का विवरण। संगीत-चूडामणि - ले.-जगदेकमल्ल (प्रतापचक्रवर्ती) शाङ्गदेव द्वारा उल्लिखित अभिनवगुप्त का अनुसरण करने वाला 5 अध्यायों की नृत्य-गीत विषयक ग्रंथ। संगीततरंग - ले.- राधामोहन सेन । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 395 For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संगीतदर्पण ले. चतुर दामोदर सोमनाथ के रागविबोध पर आधारित ग्रंथ । इसमें नृत्य का भी विवरण है। (2) ले भट्ट। - संगीतदामोदर - ले. शुभंकर। ई. 15 वीं शती। 7 अध्याय । नृत्य संगीत का रस तथा नायिका की दृष्टि से विचार । संगीतनारायण में उद्धृत । नारदीय शिक्षा के लेखक ने टीका लिखी है । भरतप्रणीत सिद्धान्तों से भिन्न । पूर्वदेशीय परम्परा के नाट्य तत्त्वों का प्रस्तुतीकरण इसमें है। www.kobatirth.org संगीतनारायण ले. गजपति वीर श्री नारायण देव । ई.स. 1700 में रचित चार अध्याय, संगीत, नृत्य, वाद्य तथा गीत प्रबन्ध । इसके उदाहरणों में रचयिता की प्रशंसा है। विद्यारण्य स्वामी कृत संगीतसार का उल्लेख इस ग्रंथ में है । संगीतप्रकाश ले. रघुनाथ । संगीतपारिजात ले. अहोबिल । ई.स. 17 वीं शती । फारसी में अनुवाद। रामामात्य के मत का पुरस्कार। वीणा के तार की लम्बाई से 12 स्वरों का वर्णन इस ग्रंथ में प्रथम किया है। संगीतमकरन्द ले. नारद । ई. 11 वीं शती में रचित । संगीत तथा नृत्य दो भाग । प्रत्येक के चार अध्याय । रागों का वर्गीकरण, और मुख्य रागरागिनियों का विवेचन इसमें है । इस में अभिनवगुप्त का 'महामहेश्वर' उपाधि से उल्लेख किया है। संगीतमकरन्द ले. वेद शहाजी (शिवाजी के पिता) के सभाकवि विषय संगीत तथा नृत्य पाश्चात्य तथा यावनी कला से प्रभावित नृत्य प्रकार इसमें भी दर्शित हैं। शहाजी (शिवाजी के पिता) मकरन्दभूग नाम से निर्दिष्ट समय ई. 17 वीं शती पूर्वार्ध लेखक की अन्य रचना है- संगीतपुष्पांजलि। संगीतमाधवम् ले.- गोविन्ददास वंगप्रान्तीय संगीतज्ञ कवि । ई. 17 वीं शती । गीत-गोविंद की शैली में रचित गीतिकाव्य । संगीतमाधवम् ले प्रयोधानन्द सरस्वती ई. 16 वीं शती। कृष्णचरित विषयक गीतिकाव्य । 1 - - संगीतमुक्तावली ले. देवेन्द्र। ई. 15 या 16 वीं शती । (2) ले. देवनाचार्य। इसमें राजस्तुतिपर गीत हैं। संगीतरघुनन्दनम् ले. बघेलखण्ड के अधिपति विश्वनाथसिंह । इसे गीतगोविंद की पूर्णतः अनुकृति कहा जा सकता है। यह 16 सर्गों में विभाजित है। कथा का तत्त्व रामकथा है। शैली की दृष्टि से यह मधुर गीतिनाट्य है । (2) ले.- प्रियदास । सर्ग - 16 । ई. 19 वीं शती । संगीतरत्व ले. राधामोहन सेन। 1 संगीतरत्नाकर - ले. शाङ्गदेव (निःशंक शाङ्गदेव) ई. 12 वीं शती देवगिरि (दौलताबाद- महाराष्ट्र) के निवासी भूपति सिंहल (इ.स. 1123-1169) के लेखापाल । संगीत के पूर्वसूरियों के मतों का विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ में है । संगीत के क्षेत्र में यह प्रथम क्रमांक की रचना मानी जाती है। यह 396 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवल पूर्वाचायों के मतों का संक्षेप ही नहीं है। लेखक ने अनेक प्रश्नों की मौलिक चर्चा तथा परिभाषाएं भी की है। इसमें लिखित विस्तृत राग-ताल- विवेचन लेखक के समय का है। वर्तमान पद्धति में बहुत परिवर्तन हो गए हैं। यह रचना शास्त्रीय इतिहास की दृष्टि से उपयुक्त है। नाट्य तथा काव्य के शास्त्रकारों में जो स्थान आचार्य अभिनवगुप्त को है, वही स्थान संगीत के शास्त्रकारों में आचार्य शागदेव को है। संगीत के विविध पक्षों का सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करने वाला उनका बृहदाकर ग्रंथ संगीतशास्त्र का आकर ग्रंथ है। इस ग्रंथ का नाम संगीतरत्नाकर इस कारण है कि इसमें प्राचीन संगीत विशारद आचायों के मतसागर का मन्थन करके शार्ङ्गगदेव ने सारोद्धार रूप इस ग्रन्थ की रचना की है। लेखक ने अपना परिचय दिया है। उनके पूर्वज वृषणऋषि के कुल के थे। वे काश्मीर के निवासी थे। उनमें एक पं. भास्कर दक्षिण चले गये। उनके पुत्र सोढल हुए और उनके पुत्र शाईगदेव ने यादववंशीय सिंगणदेव के शासनकाल में पद, प्रतिष्ठा तथा समृद्धि अर्जित की। सिंगण का काल 1230 ई. के आसपास माना गया है। शाईगदेव ने परिचय पद्यों में दर्शन, संगीत, आयुर्वेद आदि शास्त्रों में अपने पांडित्य की चर्चा की है। वे अपने को भ्रमणश्रांता सरस्वती का विश्राम स्थान भी घोषित करते हैं। "नानास्थानेषु संभ्रांता परिश्रांता सरस्वती । सहवासप्रिया शश्वद् विश्राम्यति तदालये " । संगीतरत्नाकर के विषय के सामान्य परिचय से ही विविध शास्त्रों में उनकी अप्रतिहत गति का बोध होता है। संगीतरत्नाकर में सात अध्याय हैं। क्रमशः उनके शीर्षक हैं : (1) स्वर, (2) राग, (3) प्रकीर्णक, (4) प्रबंध, (5) ताल, (6) वाद्य, (7) नृत्य प्रथम अध्याय में संगीत का सामान्य लक्षण बता कर अध्यायों की विषयवस्तु का संग्रह है । पिंडोत्पत्ति, नाद, स्थान, श्रुति, आदि के देवता, ऋषि, छंद तथा रसों का विवरण आदि विषय हैं। सप्तम अध्याय के अन्तर्गत नाट्यशास्त्र के आधार पर रसविषयक निरूपण किया गया है। पूर्ववर्ती आचायों में उन्होंने मातृगुप्त, नंदिकेश्वर, रुद्रट, नान्य- भूपाल, भोज तथा भरत के व्याख्याकार लोल्लट, उद्भट, शंकुक कीर्तिधर तथा अभिनवगुप्त का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ पर नाट्यशास्त्र के समान अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। श्री कृष्णमाचारियर ने संस्कृत की पांच तथा ब्रजभाषा में एक टीका प्राप्त होने का उल्लेख किया है। संस्कृत टीकाकारों में उल्लेखनीय है (1) सिंहभूपाल (2) केशव, (3) कल्लिनाथ, ( 4 ) हंसभूपाल तथा (5) कुंभकर्ण । ब्रजभाषा के पं. गंगाराम ने सेतु नामक टीका लिखी है। इनमें से हंसभूपाल तो सिंहभूपाल का ही रूप है केशन, कौस्तुभ तथा अज्ञात लेखक की चन्द्रिका नामक टीकाओं का उल्लेखमात्र मिलता है चतुर कल्लिनाथ की टीका सुप्रसिद्ध है तथा अधार : For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न से प्रकाशित संगीतरत्नाकर के संस्करण में संगीत-सुधाकर साथ ही मुद्रित है। शिंगभूपाल की संगीतसुधाकर टीका कालक्रम में प्राचीनतम टीका हैं। इनकी टीका विशद तथा स्पष्ट हैं। कल्लिनाथ की टीका लिए भी यह टीका उपजीव्य रही है। परंतु आश्चर्य का विषय यह है कि संगीतरत्नाकर के नर्तन अध्याय के अन्तर्गत प्रस्तुत रसविषयक अंश को शिंगभूपाल ने विशेष विवेचन के योग्य नहीं समझा है। यह विवेचन प्रायः 320 कारिकाओं में किया गया है। शिंगभूपाल दस कारिकाओं पर संक्षेप में एक साथ व्याख्या करते हैं। कहीं कहीं तो केवल विषय निर्देश मात्र करते हैं। अंतिम तीस कारिकाओं पर इस व्याख्या का अंश उपलब्ध नहीं है। संगीतरत्नाकर में रसस्वरूप तथा रसनिष्पत्ति का सुंदर विवरण हुआ है। इनकी कारिकाओं की छाया रसाणवसुधाकर की कारिकाओं में दृष्टिगोचर होती है। यह संभव है कि यह किसी समान स्रोत के कारण हो। शाङ्गिदेव की कुछ मान्यताएं शिंगभूपाल की मान्यताओं के विरुद्ध हैं। शाङ्गदेव शांतरस के समर्थक हैं। करुणविप्रलंभ का वे उल्लेख नहीं करते। विप्रलंभ तभा करुण के भेद को उन्होंने सयुक्तिक निरूपित किया है। बीभत्स तथा भयानक के निरूपण में वे भरतमत का ही अनुसरण करते हैं। इन प्रकरणों की व्याख्या में शिंगभूपाल ने कहीं भी अपनी विमति प्रकट नहीं की है। रसार्णवसुधाकर में शांतरस, करुणविप्रलंभ जैसे अधिक महत्त्व के विषयों के संबंध में रत्नाकर का उल्लेख नहीं हुआ है। उभय के भेद के संबंध में वे सोढलसूनु (शाङ्गदेव) का उल्लेख कर अपने मतांतर को लेखबद्ध करते है। शाङ्गदेव का यह वर्गीकरण भरत के अनुरूप ही है। बीभत्स भेद के प्रसंग में अपने भिन्न मत को शिंगभूपाल ने दशरुपक के विवेचन के सन्दर्भ में व्यक्त किया है। रत्नाकर के रसनिरूपण की व्याख्या में अपेक्षाकृत अनवधान का कारण यह हो सकता है कि इस विषय का विषद विवेचन अन्यत्र उपलब्ध था। संगीतशास्त्र का व्यवस्थित तथा व्यापक ग्रंथ होने के कारण व्याख्या भी तदनुरूप गंभीर है। शारंगदेव अभिनवगुप्त के अनुयायी हैं परंतु शिंगभूपाल कहीं भी उनका नाम नहीं लेते तथा भिन्न परंपरा का अनुसरण करते हैं। संगीतरत्नावली - ले.- मम्मट । ई. 12 वीं शती। संगीतराघवम् - ले.- गंगाधरशास्त्री मंगरुलकर । नागपुरनिवासी। ई. 19-20 वीं शती। गीतगोविंद के समान गीतिकाव्य। (2) ले.- चिन्नाबोम भूपाल। संगीतराज (या संगीतमीमांसा) - ले.- कुम्भकर्ण (कुम्भ या कुम्भराणा) 16000 श्लोक और संगीत, वाद्य, वेशभूषा, नृत्य तथा हाव-भाव, नायक-नायिका तथा रस विषयक अध्याय हैं : गीतगोविन्द-टीका (रसिकप्रिया) से ज्ञात होता है कि छन्द पर भी एक अध्याय था। रचना इ. 1440 में पूर्ण। गीत तथा वाद्य पर तर्कपूर्ण विवेचन । दत्तिल और अभिनवगुप्त का अनुसरण, वीणा तथा वंशी पर पूर्ण विवेचन। संगीत शास्त्रीय गवेषणा इस रचना के अध्ययन विना अधूरी रहेगी। (2) ले. भीमनरेन्द्र। संगीतलक्षणम् - ले.- चन्द्रशेखर । संगीतविनोद - ले.- भवभट्ट (या भावभट्ट) संगीतवृत्तरत्नाकर - ले.- विट्ठल। संगीतशास्त्रसंक्षेप - ले.- गोविन्द। इसमें वेंकटमखी के मत का खण्डन और अच्युतराय (सन- 1572-1614) की वीणा का उल्लेख है। संगीतशृंगारहार - ले.- हम्मीर। (संभवतः मेवाडनरेश) मृत्य ई. 13941 संगीतसमयसार - ले.- पार्श्वदेव। समय 13 वीं शती। लेखक-अपने को 'अभिनव-भरताचार्य कहलाते हैं। कुल १ अधिकरण- 1 नाद तथा ध्वनि, (2) स्थायी, (3) राग, (4) ढोक्की, (5) वाद्य, (6) अभिनय, (7) ताल, (8) प्रस्तार और (9) आध्वयोग। संगीतसंग्रहचिन्तामणि - ले.- अप्पलाचार्य। संगीतसरणी - ले.- कविरत्न नारायण मिश्र, (अन्य रचनाएं बलभद्र विजय, शंकरविहार, उषाभिलाष, कृष्णविलास, नवनागललित, रामाभ्युदय) इसके अनुसार प्रबन्ध दो प्रकार के शुद्ध और सूत्र। शुद्ध प्रबन्ध में गेय गीत अनेक रागों के होते हैं उदा. गीतगोविन्द, पुरुषोत्तम का रामाभ्युदय इ.। सूत्र प्रबन्ध में एक ही राग के अनेक गेय गीत होते हैं उदा. रामाभ्युदय ले.- नारायण-मिश्र । संगीतसर्वस्वम् - ले.- जगद्धर । ई. 15 वीं शती। संगीतसर्वार्थसंग्रह - ले.- कृष्णराव। संगीतसागर - ले.- प्रतापसिंग। संगीतज्ञों की संसद् नियुक्त कर उसकी सहायता से संगीतकोशरूप प्रस्तुत ग्रंथ निर्माण किया गया। संगीतसार - ले.- विद्यारण्यस्वामी। (2) ले.- नारायण कवि। संगीतसारकलिका - ले.- शुद्धस्वर्णकार भोसदेव। संगीतसारसंग्रह - ले.- सौरीन्द्र मोहन। (2) ले.जगज्ज्येतिर्मल्ल। इनकी अन्य विविध रचनाएं हैं। इनके पुत्रपौत्र भी कवि हुए। संगीतसारामृतम् - ले.-तुलजराज (तुकोजी) तंजौरनरेश। शागदेव द्वारा चर्चित सर्व विषयों का परामर्श इस ग्रंथ में लिया गया है। संगीतसारोद्धार (या रागकौतूहलम्) - ले.- हरिभट्ट । संगीतसिद्धान्त - ले.- रामानन्दतीर्थ । संगीतसुधा - ले.- भीमनरेन्द्र। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 397 For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगीतसुधा - ले.- रघुनाथ नायक। तंजौर-नरेश। वास्तव में इसके रचियता गोविन्द दीक्षित हैं, पर रघुनाथ के नाम पर ही प्रसिद्ध है। इसमें तंजौर राजाओं का और विशेष कर संगीततज्ञ रघुनाथ का इतिहास वर्णित है। पुरातन रचनाओं में प्रत्येक राग का अंश, न्यास तथा ग्रह दिया है, इसमें उनकी श्रुति, स्वर तथा आलापिका भी दी है। ऐसे 50 रागों का विवरण है। प्रत्येक विवरण वीणा वादन के लिये पूर्ण है 'तीसरा और चौथा अध्याय प्रबन्ध तथा उनसे संबन्धित सूक्ष्म बातों की चर्चा से युक्त है। संगीतसुधाकर - ले.- हरिपालदेव। यादववंशीय देवगिरि के नरेश । यह अपने को "विचारचतुर्मुख" तथा "वीणातन्त्र-विशारद" कहते हैं। इन्होंने 100 रचनाएं लिखीं जो चित्ताकर्षक तथा रसप्रचुर हैं। श्रीरंगम् के मन्दिर में गायकनर्तकी के आग्रह पर इन्होंने अपनी यह रचना लिखी। 6 अध्याय। विषय- नाट्य, ताल, वाद्य, रस तथा प्रबन्ध, परिशिष्ट में गायकलक्षण। संगीतसुधाकर - ले.- शिंगभूपाल। इन्होंने साहित्यशास्त्र के अतिरिक्त संगीतशास्त्र के क्षेत्र में संगीतरत्नाकर पर लिखित अपने प्रस्तुत टीका ग्रंथ के कारण पर्याप्त ख्याति अर्जित की है। संगीतरत्नाकर की ज्ञात टीकाओं में यह सर्वाधिक प्राचीन टीका है और यह परवर्ती टीकाकारों की उपजीव्य रही है। रसार्णवसुधाकर तथा संगीतसुधाकर नामकरण में भी स्पष्ट एक-कर्तृत्व देखा जा सकता है। संगीतरत्नाकर की शिंगभूपाल कृत सुधाकर टीका में प्रबन्धांग प्रकरण की कारिका में प्रयुक्त विरुद्धपद की व्याख्या में लिखा है- “गुणनाम-भुजबलभीमादि विरुदशन्देनोच्यते" "भुजबलभीम" शिंगभूपाल का ही बिरुद है और पुष्पिका में इसका प्रयोग है। रसार्णवसुधाकर की पुष्पिका में भी ऐसा ही प्रयोग है। शिंगभूपाल के ग्रंथ तथा टीकाएं उनके विस्तृत एवं गहन शास्त्रज्ञान के परिचायक हैं। संगीत के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन तो उन्होंने किया ही था, साथ ही अपने आचार्यों तथा समकालीन बुधजनों के सान्निध्य एवं विचारविमर्श से उन्होंने संगीत के शास्त्रीय एवं क्रियात्मक पक्षों का ज्ञान भी अर्जित किया था। शिंगभूपाल ने लिखा है कि भरत की सांगीतिक परंपरा उनके समय तक दुर्बोध समझी जाने लगी थी। आचार्य शारंगदेव के उदय से पूर्व संगीतपद्धति बिखर गई थी (खिला संगीतपद्धतिः) जिसे शारंगदेव ने स्फुट किया था। आचार्य ने दुर्बोध ग्रन्थों को समझने के लिए एक पगडण्डी बनाई और शिंगभूपाल ने उस पगडण्डी को सुगम प्रशस्त पथ के रूप में परिणत करने का संकल्प किया। संगीतसुन्दरम् - ले.- सदाशिव दीक्षित । संगीतसूर्योदय - ले.- लक्ष्मीनारायण भण्डारु । विजयनगर के सम्राट् कृष्णदेवराय के सम्मानित वागेयकार। उपाधियांअभिनवभरताचार्य, तोडरमल्ल, सूक्ष्मभरताचार्य। इस रचना के ताल, वृत्त, स्वरगीत, जाति तथा प्रबन्ध नामक पांच अध्याय हैं। संगीतामृतम् - ले.- कमललोचन। संगीतोपनिषद् - ले.- सुधाकलश। ई. 14 वीं शती। नृत्यगीतपरक रचना। 6 अध्याय। इस पर स्वतः लेखक की टीका है। संग्रह - ले.- व्याडि। पाणिनीय तत्र का व्याख्यान परंपरा के अनुसार प्रसिद्ध ग्रंथ। एक लक्ष श्लोक। चौदह हजार वस्तुओं की परीक्षा। अनन्तरकालीन वैयाकरणों द्वारा ग्रंथ की भूरि प्रशंसा की गई। यह अप्राप्य ग्रंथ यत्र तत्र उधृत है। 21 सूत्र व्याडि के संग्रह के निश्चित रूप में ज्ञात हुए हैं। संग्रहचूडामणि - ले.- षण्मुख, (अपर नाम गुह) इसके 3 अध्यायों में संगीत की उत्पत्ति तथा स्वरों का विवरण है। सदानन्द तथा शागदेव का नामोल्लेख होने से यह रचना 14 वीं शती के बाद की है। मूल षण्मुख की रचना लुप्त हो गई है, उपलब्ध रचना किसी ने प्राचीन नाम से ही प्रस्तुत की हो। संभवतः प्राचीन लेखक के मतों का ही इसमें विवरण है। संग्रहवैद्यनाथीयम् - ले.- वैद्यनाथ। संघगीता - ले.- डॉ. श्री. भा. वर्णेकर। (प्रस्तुत कोश के संपादक) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री गुरुजी गोलवलकर और संघस्वयंसेवक के संवाद द्वारा संघटना-सिद्धान्त की विचारधारा एवं उसकी कार्यपद्धति का सुभाषितात्मक श्लोकों में प्रतिपादन इस संघगीता का प्रयोजन है। हिन्दी, कन्नड और मलयालम अनुवादों सहित जयपुर, बंगलोर तथा त्रिवेंद्रम से प्रकाशित । इंग्लैंड में इसका अंग्रजी अनुवाद सन् 1987 में प्रकाशित हुआ। संजीवनी विद्या- ईश्वर-वसिष्ठ संवादरूप । अध्याय-12 | विषयमंत्रोद्धार, अपस्मारहरण, सालम्बयोग, अपूर्व सेवाविधि, होमविधि सन्तानकामेश्वरी-गोप्यविधानम् - श्लोक- 70। इसमें महाराष्ट्र भाषा में विधान हैं। एवं मन्त्र आदि संस्कृत भाषा में है। संतानगोपालकाव्यम् - ले.- कडथानत-येडवालात । ई. 19 वीं शती। सन्तानगोपाल-मन्त्रविधि - श्लोक- 4001 सन्तानदीपिका - ले.- केशव । विषय-संतानहीनता के ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कारण। (2) ले.- महादेव। (3) ले.हरिनाथाचार्य। सन्तानान्तरसिद्धि - ले.- धर्मकीर्ति। 72 सूत्रों की लघु रचना। विषय-अनेक सन्ताने विद्यमान होना। सन्देशद्वयसारास्वादिनी (निबन्ध) - ले.- व्ही. गोपालाचार्य तिरुचिरापल्ली-निवासी। विषय मेघ तथा हंस संदेश की तुलना । सन्निपातकलिका - ले.- धन्वंतरि । विषय-आयुर्वेद । सन्मतनाटकम् - ले.- जयन्तभट्ट । सन्मतिकल्पलता - ले.- रंगनाथाचार्य । 398 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सन्ध्याकारिका सन्ध्यात्रयभाष्यम् परशुराम । - ले. सर्वेश्वर । लीलाधर के पुत्र । (अपरनाम-दिनकल्पलता) ले. रामपण्डित एवं कृष्णपण्डित। सन्ध्यानिर्णयकल्पवल्ली लक्ष्मी के पुत्र चार गुच्छों में पूर्ण । सन्ध्याप्रयोग श्लोक - 132 | विषय - श्रुति और तंत्र द्वारा सम्मत त्रैकालिक सन्ध्याविधि । - सन्ध्यामंत्र व्याख्या ब्रह्मप्रकाशिका ले. वनमाली मिश्र । भट्टोजि के शिष्य । ई. 17 वीं शती । सन्ध्यारत्नप्रदीप- ले. आशाधर भट्ट । तीन किरणों में पूर्ण । सन्ध्यावन्दनभाष्यम् ले. वेंकटाचार्य विषय ऋक्संध्या । (2) ले. शंकराचार्य। (3) ले शत्रुघ्न । (4) ले.श्रीनिवासतीर्थ । (5) ले तिरुमलयज्वा । (6) ले. नारायण पण्डित (प्रस्तुत लेखक ने 60 ग्रंथ लिखे हैं ।) (7) ले.( या सन्ध्याभाष्य ) ले आनन्दतीर्थ (8) ले कृष्णपण्डित। राघवदैवज्ञ के पुत्र । चार अध्यायों में पूर्ण । (9) ले.चौण्डपाये । चिन्नयार्य एवं कामाम्बा के पुत्र । आश्वलायनीयों के लिए। (10) ले. रामाश्रययति । महादेव के शिष्य । वाराणसी में 1652-53 ई. में प्रणीत । (11) ले. विद्यारण्य । विषयऋग्वेदी संध्या एवं तैत्तिरीय संध्या । (12) ले व्यास । नृसिंह के शिष्य । सन्ध्यावन्दनमंत्र से विभिन्न वेदों के अनुयायियों के लिए इस नाम के अनेक ग्रंथ हैं। - सन्ध्याविधिमंत्रसमूहटीका ले. रामानन्द तीर्थ । सन्ध्याविधि - रत्नप्रदीप ले. आशाधर । श्लोक- 5001 सन्ध्यासूत्रप्रवचनम् ले. हलायुध । संन्यासग्रहणपद्धति ले. आनन्दतीर्थ । जनार्दनभट्ट के पुत्र (2) ले शंकराचार्य (3) ले शौनक। संन्यासग्रहणरत्नमाला ले. भीमाशंकर शर्मा । संन्यास ग्राह्यपद्धति (संन्यासप्रयोग सप्तसूत्री) शंकराचार्य । विषय- संन्यासग्रहण के समय के कृत्य । संन्यासदीपिका - ले. सच्चिदानन्दाश्रम । नृसिंहाश्रम के शिष्य । संन्यासदीपिका ले. - अग्निहोत्री गोपीनाथ । ले. संन्यासधर्मसंग्रह ले. अच्युताश्रम - - - www.kobatirth.org - ले. - संन्यासपदमंजरी - ले. वरदराज भट्ट । संन्यासपद्धति ले निम्बार्कशिष्य (2) ले । (3) ले रुद्रदेव (प्रतापनारसिंह से उद्धृत) संन्यासनिर्णय ले पुरुषोत्तम। (2) ले.- वल्लभाचार्य । इस पद्यात्मक ग्रंथ पर लेखक की टीका है। उसके अतिरिक्त पुरुषोत्तम कृत विवरण तथा रघुनाथ की और विट्ठलेश की टीका है। , ब्रह्मानन्दी। (4) ले. शंकराचार्य । (5) ले. शौनक । (6) ले. अच्युताश्रम (7) ले. - आनन्दीतीर्थ । माध्वमत (1119-1119 ई.) के संस्थापक । संन्यासरत्नावली ले. - पद्मनाभ भट्टारक। विषय माध्व सिद्धान्तों के अनुसार संन्यास धर्म का प्रतिपादन । संन्यासवरणम् - ले.- वल्लभाचार्य । संन्यासविधि ले. विष्णुतीर्थं । संन्यासविवरणम् ले मध्वाचार्य ई. 12-13 वीं शती संन्यासिपद्धति (वैष्णवों के लिए)। संन्यासिसापिण्ड्यविधिले. वेदान्त रामानुजतातदास विषयसंन्यासी के पुत्र द्वारा अपने पिता का सपिण्डीकरण । सम्पत्करीसंवित्स्तुतिचर्चा श्लोक 750 । सम्पत्कुमारविलास-चम्पू ले. रंगनाथ मेलको (कर्नाटक) नगर के देवताओं का महोत्सव वर्णित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सम्पद्विमर्शिनी - ले. शम्भुदेवानन्दनाथ । गुरु प्रसन्न विश्वात्मा देशिकेन्द्र विषय त्रिपुरा देवी की पूजापद्धति । संपातिसंदेश ले. पं. कृष्णप्रसादशर्मा घिमिरे काठमांडू (नेपाल) के निवासी इन के 12 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं 1 लेखक, कविरल एवं विद्यावारिधि इन उपाधियों से विभूषित, 20 वीं शती के श्रेष्ठ साहित्यिक माने गए हैं । सम्प्रदायदीपिका - ले. भट्टनाग। श्लोक- 400 10 पटलों में पूर्ण । विषय- मंत्रों के प्रतीक देकर उनकी व्याख्या की गई है। अन्त में स्तुति के मंत्र संनिविष्ट किये गये हैं। सम्प्रदायप्रदीप ले. गद द्विवेदी । 1553-4 ई. में वृन्दावन में प्रणीत । पांच प्रकरणों में पूर्ण पुरुषोत्तम, ब्रह्मा, नारद, कृष्णद्वैपायन, शुक से प्रचलित विष्णुभक्ति की परम्परा दी हुई है। इसमें मार्ग के तिरोधान का वर्णन है और तब वल्लभ, उनके पुत्र विट्ठल, गिरिधर आदि का उल्लेख है, जो पुस्तक लेखन के समय जीवित थे। इसमें पांच बातों का उल्लेख है जिन्हें "वस्तुपंचक" कहा जाता है जिन पर वल्लभ विश्वास करते थे, यथा- गुरुसेवा, भागवतार्थ, भगवत्स्वरूपनिर्णय, भगवत्सेवा, नैरपेक्ष्य। इसमें कुमारपाल, हेमचन्द्र, शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य, मध्वाचार्य, रामानुज एवं निम्बादित्य तथा वल्लभ का, (जब उनके माता-पिता काशी को त्याग रहे थे ।) उल्लेख है। सम्प्रदायसारोल्लास - कुलार्णव तंत्रान्तर्गत । श्लोक - 600 1 संप्रोक्षणकुंभाभिषेक विधि विविध आगमों से संगृहीत श्लोक- 7001 T सम्बन्धगणपति- ले. गणपति रावल । हरिशंकर सूरि के पुत्र । ई. 17 वीं शती। इसमें विवाह के मुहूर्त, विवाह प्रकारों आदि का वर्णन है। For Private and Personal Use Only सम्बन्धनिर्णय ले. गोपालन्यायपंचानन भट्टाचार्य विषयसपिण्ड, समानोदक, सगोत्र, समानप्रवर, बान्धव से संबंधित संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 399 - Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (विहित एवं अविहित) विवाह । सम्बधपरीक्षा - ले.- धर्मकीर्ति। ई. 7 वीं शती। लेखक की वृत्तिसहित लघु रचना तिब्बतीय अनुवाद में सुरक्षित। सम्बन्धविवेक - ले.- भवदेव भट्ट। उद्वाहतत्त्व एवं संस्कारतत्त्व में उल्लिखित! सम्बन्धविवेक - ले.- शूलपाणि। सम्भवतः यह परिशिष्ट भवदेव के ग्रंथ का ही है। सम्भवामि युगे युगे - ले.- अमियनाथ चक्रवर्ती। ई. 20 वीं शती। संमोहनतन्त्रम् - शिवपार्वती संवादरूप। पुष्पिका में लिखा "इति श्रीमदक्षाभ्य-महोग्रतारासंवाद। इसके अनुसार (अक्षोभ्य-महोग्रतारा। संवादे रूप) यह 10 पटलों में पूर्ण है। श्लोकसंख्या- 1700 कही गई है। यह द्वितीय खण्ड का परिमाण है। इसके और भी खण्ड हैं ऐसा इससे ज्ञात होता है। विषय- 40 प्रकार की भूत, ब्रह्मराक्षस आदि जातियों को तान्त्रिक मन्त्रों से वश में कर उनसे दुष्टों का विनाश करना । संयोगितास्वयंवरम् - ले.- मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक । (1886-1965) रचनाकाल- 1927। 1928 में प्रकाशित । अंकसंख्या- सात । पृथ्वीराज के साथ संयोगिता के विवाह की कथा। अंगी रस- शृंगार, अंग-वीर। गीतों का बाहुल्य । राग तथा ताल का निर्देश। तृतीय अंक में छायातत्त्व । संसारचक्रम् - अनुवादक- अनन्ताचार्य। मूल लेखक जनन्नाथप्रसाद। संसारामृतम् - लेखिका- डॉ. रमा चौधुरी। (श. 20) दृश्यसंख्या- सात। कथासार- दरिद्र परिवार की कन्या केलि को प्रतिनायक धोका देता है। अन्त में उसका प्रेमी मयूर उसे अपनाता है। संस्कर्तृक्रम- ले.- बैद्यनाथ। (सम्भवतः स्मृतिमुक्ताफल का एक अंश)। संस्कारकमलाकर (या संस्कारपद्धति) - ले.- कमलाकर । संस्कारकल्पद्रुम - ले.-जगन्नाथ शुक्ल। सुखशंकर शुक्ल के पुत्र । गणेशपूजन, संस्कार एवं स्मार्ताधान नामक तीन काण्डों में विभक्त । इसमें 25 संस्कारों के नाम आये हैं। संस्कारकौमुदी - ले.-गिरिभट्ट। पिता- यल्लभट्ट। संस्कारकौस्तुभ - ले.-अनंतदेव। ई. 17 वीं शती। पिताआपदेव। संस्कारकौस्तुभ (या संस्कारदीधिति) - अनन्तदेव के स्मृतिकौस्तुभ का अंश 1, मराठी अनुवाद के साथ निर्णयसागर एवं बडौदा में प्रकाशित। संस्कार-गंगाधर (या गंगाधरी) - ले.-गंगाधर दीक्षित । विषय- गर्भाधान, चौल, व्रतबन्ध, वेदव्रतचतुष्टय, केशान्त, व्रतविसर्ग, विवाहसंस्कार इ.। संस्कारगणपति - पारस्करगृह्यसूत्र पर रामकृष्ण द्वारा टीका। संस्कारचन्द्रचूडी- ले.-चन्द्रचूड । संस्कारचिन्तामणि - ले.-रामकृष्ण। काशीनिवासी। संस्कारतत्त्वम् - ले.-रघु। टीका- कृष्णनाथ कृत। संस्कारनिर्णय - ले.-चन्द्रचूड । पिता उम्माणभट्ट । इसमें गर्भाधान से आगे के संस्कारों का वर्णन है। रचना- 1575-1650 ई. के बीच। 2) ले.- रामभट्ट के पुत्र। 2) ले.- तिप्पाभट्ट। (गह्वर उपाधिधारी) यह ग्रंथ आश्वलायनों के लिये है। सन 1776 में लेखक ने आश्वलायन श्रौत-सूत्रों पर संग्रहदीपिका टीका लिखी। 3) ले.- नन्दपंडित। यह स्मृतिसिंधु का एक अंश है। संस्कारनृसिंह - ले.-नरहरि । वाराणसी में सन 1894 में मुद्रित । संस्कारपद्धति - ले.-भवदेव। यह छन्दोगकर्मानुष्ठान पद्धति ही है। टीका- रहस्यम्, ले.- रामनाथ। सन 1622-23 । 2) ले.- अमृत पाठक। सखाराम के पुत्र। माध्यन्दिनीयों के लिए) इसमें धर्माब्धिसार, प्रयोगदर्पण, प्रयोगरत्न, कौस्तुभ, कृष्णभट्टी और गदाधर का उल्लेख है। 3) ले.- गंगाधरभट्ट। पिता राम। 4) ले.- शिंगय्या। संस्कारप्रकाश - 1) प्रतापनारसिंह का एक भाग। 2) मित्रमिश्ररचित वीरमित्रोदय का एक भाग। संस्कारप्रदीपिका - ले.- विष्णुशर्मा दीक्षित । संस्कारभास्कर - 1) ले.- खण्डभट्ट। मयूरेश्वर अयाचित के पुत्र । कर्क एवं गंगाधर पर आधृत । संस्कारों को ब्राह्म (गर्भाधान आदि) एवं दैव (पाकयज्ञ आदि) में बांटा गया है। रचना सन 1882-83 में 2) ले.- ऋषिभट्ट। विश्वनाथ के पुत्र । उपनाम शौचे। वेंकटेश्वर प्रेस द्वारा मुद्रित। कर्क, वासुदेव, हरिहर (पारस्करगृह्यपर) पर आधृत । प्रयोगदर्पण का उल्लेख है। संस्कारमंजरी - ले. नारायण (यह ब्रह्मसंस्कारमंजरी ही है) संस्कारमार्तण्ड - ले.-मार्तण्ड सोमयाजी। इसमें स्थालीपाक एवं नवग्रह पर दो अध्याय हैं। मद्रास में मुद्रित । संस्कारमुक्तावली - ले.-तान पाठक। संस्काररत्नम् - ले.- खण्डेराय। पिता- हरिभट्ट । रचना 1400 ई. के पश्चात् । विदर्भराज लेखक के वंश के आश्रयदाता थे। संस्काररत्नमाला - ले.-1) गोपीनाथभट्ट। आनंदाश्रम प्रेस एवं चौखम्भा द्वारा मुद्रित। 2) ले.- 2) नागेशभट्ट। संस्काररत्नावलि - ले.-नृसिंहभट्ट। पिता- सिद्धभट्ट। कण्वशाखीय। प्रतिष्ठान (पैठण) (महाराष्ट्र) के निवासी। संस्कारविधि ( या गृह्यकारिका) - ले.-रेणुक । 400 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारसागर - ले.-नारायणभट्ट। विषय- स्थालीपाक। संस्कारामृतम् - ले.- सिद्धेश्वर । दामोदर के पुत्र । लेखक ने अपने पिता के व्रतनिर्णयपरिशिष्ट का उल्लेख किया है।। संस्कारोद्योत (दिनकरोद्योत का एक अंश)। संस्कृतम् - सन 1930 में अयोध्या से पं. कालीप्रसाद त्रिपाठी के संपादकत्व में इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका प्रकाशन प्रति मंगलवार होता था। वार्षिक मूल्य सात रुपये था। इस पत्र में समाचारों के अलावा धार्मिक सामाजिक, राजनैतिक और देश-विदेश की गतिविधियों का तथा लघु, निबन्ध और बाल-साहित्य का भी प्रकाशन किया जाता है। इसमें प्रकाशित श्रीकरशास्त्री के प्रकृतिवर्णनात्मक गीत विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके हर अंक के मुखपृष्ठ पर निम्नांकित आदर्श श्लोक प्रकाशित किया जाता था। : "यावत् भारतवर्ष स्याद् यावद् विन्ध्य-हिमाचलौ। यावद् गंगा च गोदा च तावदेव हि संस्कृतम् ।। संस्कृतकामधेनु - "धुंडिराजशास्त्री के सम्पादकत्व में वाराणसी से संस्कृत -हिंदी में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन 1879 में आरंभ हुआ। इसमें कामधेनु नामक धर्मशास्त्र ग्रंथ का प्रकाशन किया गया। संस्कृत-गाथासप्तशती - अनुवादक- भट्ट मथुरानाथ । हालकृत सुप्रसिद्ध महाराष्ट्री प्राकृत काव्य का संस्कृत रूपान्तर । संस्कृतगीतमाला - ले.-वासुदेव द्विवेदी। वाराणसी -निवासी। स्त्रीगीतों का संग्रह। संस्कृत-चन्द्रिका - ले.-1893 में कलकत्ता से सिद्धान्तभूषण जयचन्द्र भट्टाचार्य के संपादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। चार वर्षों के बाद यही पत्रिका आप्पाशास्त्री राशिवडेकर के संपादकत्व में कोल्हापुर से प्रकाशित होने लगी। "संस्कृत चन्द्रिका' की यह विशेषता थी कि इसके प्रथम भाग में गद्य, पद्य और द्वितीय भाग में काव्य ग्रंथों का समालोचन, तृतीय भाग में धार्मिक निबन्धों का आकलन, चतुर्थ में चित्रात्मक कविताएं तथा अन्य सूचनाएं, पंचम भाग में वार्तासंग्रह और षष्ठ भाग में पत्र प्रकाशित होते थे। साहित्य-समालोचना, इतिहास, समाजशास्त्र आदि विविध विषयों के अनुसंधानपूर्ण लेख भी इसमें प्रकाशित होते थे। इस पत्रिका के प्रकाशन से 19 वीं शती में संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं के स्वर्णयुग का प्रारंभ हुआ, ऐसा माना जाता है। अम्बिकादत्त व्यास, कृष्णंमाचारी, अन्नदाचरण तर्कचूडामणि, महेशचन्द्र, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी आदि उच्चकोटि के विख्यात लेखकों की रचनाएं इसमें प्रकाशित होती थीं। संस्कृतटीचर - ले.-सन 1894 में गिरगांव (मुंबई) से संस्कृत-अंग्रेजी में यह पत्र प्रकाशित किया जाता था। संस्कृतरंग- ले.-सन 1958 से डॉ. वे. राघवन् के सम्पादकत्व में यह पत्र प्रकाशित हो रहा है। इसमें डॉ. राघवन् के नाटक और डॉ. कुंजूंनी राजा, सी.एम. सुन्दरम् आदि के लेख प्रकाशित होते रहे। संस्कृत-निबन्धचंद्रिका - ले.-शिवबालक द्विवेदी। कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में प्राध्यापक । छात्रोपयोगी पुस्तक। प्रकाशकग्रंथम्, रामबाग कानपुर । संस्कृतनिबन्धप्रदीप - ले.-प्रा. हंसराज अगरवाल । लुधियाना-निवासी। 400 पृष्ठ । प्रथम प्रदीप प्रबन्धकला- 6 निबन्ध । द्वितीय प्रदीप साहित्यिक, सामाजिक विषय- 32 निबंध । तृतीय प्रदीप वर्णनपर- 8 निबन्ध। चतुर्थ प्रदीप आख्यानात्मक 11 निबन्ध । पंचमप्रदीप विविध विषय- 24 निबन्ध। अन्त में निबन्धोपयुक्त सुभाषित संग्रह । यह छात्रोपयोगी पुस्तक है। संस्कृतनिबन्धमंजूषा - ले.-डॉ. कैलाशनाथ द्विवेदी। विविध विषयों पर लिखे हुए 60 निबंधों का संग्रह । छात्रोपयोगी ग्रंथ । संस्कृतनिबन्धरत्नाकर - ले.-शिवबालक द्विवेदी। कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में प्राध्यापक । दार्शनिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक विषयों पर लिखे हुए निबंधों का संग्रह । प्रकाशक-ग्रन्थम् रामबाग, कानपूर। संस्कृतपत्रिका - 1896 में पदुकोटा (कुम्भकोणम्) से इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसे पदुकोटा के महाराज से अनुदान प्राप्त होता था। इसके सम्पादक आर.कृष्णंमाचारी तथा सह सम्पादक बी.वी. कामेश्वर अय्यर थे। वार्षिक मूल्य 3 रु. था। संस्कृतपद्यगोष्ठी - सन 1926 में कलकत्ता से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह संस्थागत पत्रिका होने के कारण संस्था द्वारा आयोजित कवि सम्मेलनों में पठित रचनाओं का प्रकाशन तथा पत्रिका के नियम, आवेदन आदि सभी पद्य .. में प्रकाशित किये जाते थे। गद्य के लिये इसमें कोई स्थान नहीं था। पत्रिका के सम्पादक कालीपद तर्काचार्य और भुवनमोहन सांख्यतीर्थ थे। संस्कृतपयवाणी - सन 1934 में कलकत्ता से महामहोपाध्याय कालीपद तर्काचार्य से सम्पादकत्व में यह पत्रिका तीन वर्षों तक प्रकाशित हुई। इस पत्रिका में पद्यात्मक निबन्ध, अर्वाचीन साहित्य, चित्रबन्ध, प्रहेलिका, इन्दुमती आदि विविध प्रकार के पद्य-काव्यों का प्रकाशन हुआ। संस्कृतप्रचारकम् - सन 1950 से रामचंद्र भारती के सम्पादकत्व में दिल्ली से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संस्कृतप्रतिभा - सन 1951 में अपारनाथ मठ (वाराणसी) से रामगोविन्द शुक्ल के सम्पादकत्व में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ। कुल दस पृष्ठों वाली इस पत्रिका का प्रकाशन केवल डेढ वर्ष हुआ। इसका वार्षिक मूल्य दो रुपये था। संस्कृतप्रतिभा (षण्मासिकी पत्रिका) - सन 1959 में संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /401 For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केदारनाथ शर्मा सारस्वत के संपादकत्व में कुछ काल तक प्रकाशित होने के बाद दिल्ली से महामहोपाध्याय परमेश्वरानंद शास्त्री के संपादकत्व में प्रकाशित होने लगा। बाद में यह पत्र दिल्ली से ही गोस्वामी गिरिधारीलाल के सम्पादकत्व में प्रकाशित होता रहा। इसमें विविध विषयों से संबंधित निबंध, कविताएं, सरस कहानियां और संस्कृत शिक्षा विषयक निबन्धों का प्रकाशन होता है। संस्कृतवाक्यप्रबोध - ले.-स्वामी दयानन्द सरस्वती (आर्य समाज के संस्थापक) छात्रों की भाषण क्षमता में वृद्धि हेतु यह बालबोध पुस्तक स्वामीजी ने लिखी थी। संस्कृतवाग्विजयम् (नाटक) - ले.-प्रभुदत्त शास्त्री। सन 1942 में दिल्ली से प्रकाशित। अंकसंख्या- पांच। अनेक दृश्यों में विभाजित। प्राकृत के स्थान में हिन्दी का प्रयोग। विषय- पाणिनिकालीन संस्कृत, भोजकालीन संस्कृत तथा आधुनिक संस्कृत की उच्चावचता का विश्लेषण। विदूषक तथा विदूषिका द्वारा हास्यनिर्मिति। संस्कृतवाणी - सन 1958 में राजमहेंद्री (आंध) से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसकी सम्पादिका श्रीमती एन.सी. जगन्नाथम् थीं। पत्रिका का वार्षिक मूल्य दस रु. था। इसमें तेलगु भाषीय लेख भी प्रकाशित होते थे। साहित्य अकादमी दिल्ली से डॉ. वे. राघवन् के संपादकत्व में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। लगभग 100 पृष्ठों वाली इस पत्रिका में अर्वाचीन खण्डकाव्य, गद्य-प्रबंध, रूपक, अनुवाद तथा शोधनिबन्धों का प्रकाशन होता है। संस्कृतप्रभा - सन 1960 में मेरठ से आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह भारती प्रतिष्ठान की अनुसंन्धान प्रधान पत्रिका थी किन्तु इसका प्रकाशन प्रथम वर्ष में ही स्थगित हो गया। संस्कृतबोधव्याकरणम् - ले.-रजनीकान्त साहित्याचार्य। ई. 19 वीं शती। संस्कृतभवितव्यम् - ले.-संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा नागपुर द्वारा संचालित साप्ताहिक वृत्तपत्र । प्रथम संपादक डॉ. श्री.भा. वर्णेकर। 1950 से नियमित प्रकाशन हो रहा है। इसके कुछ विशेषांक महत्त्वपूर्ण हैं। सन 1954 में यूनेस्को की योजनानुसार हुई अखिल भारतीय संस्कृत कथास्पर्धा संस्कृतभवितव्यम् द्वारा संगठित हुई। इस स्पर्धा में पारितोषिक प्राप्त पांच कथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है। संस्कृतभारती - सन 1918 में वाराणसी से कालीप्रसन्न भट्टाचार्य, रमेशचन्द्र विद्याभूषण और उमाचरण बन्दोपाध्याय के सम्पादकत्व में इस त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें साहित्य, दर्शन, विज्ञान आदि विषयों से सम्बन्धित निबन्ध, समालोचनाएं आदि प्रकाशित होती थीं। इसका वार्षिक मूल्य पांच रुपये था। रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि का संस्कृत अनुवाद इसमें क्रमशः प्रकाशित हुआ। संस्कृतभास्कर - मथुरा से प्रकाशित पत्रिका। संस्कृतमहामण्डलम् - सन 1919 में कलकत्ता से महामहोपाध्याय श्री. लक्ष्मणशास्त्री द्रविड के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। बहुविध विषयों से संबंधित यह पत्रिका एक वर्ष से अधिक काल तक नहीं चल सकी। भुवनमोहन सांख्यतीर्थ इसके सहायक सम्पादक थे। संस्कृतरत्नाकर - सन 1904 से जयपुर से संस्कृत साहित्य सम्मेलन की ओर से इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दो वर्ष बाद इसके सम्पादन का भार भट्ट मथुरानाथशास्त्री पर आया। १ वर्षों बाद संपादन का दायित्व माधवप्रसाद पर आया। दसवे वर्ष इसका प्रकाशन अवरुद्ध हो गया। 1932 में यह पत्र पुनः श्री पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी और महामहोपाध्याय गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में जयपुर से ही प्रकाशित होने लगा। इसमें अनेक उच्च कोटि के विषयों से परिपूर्ण वेद, दर्शन, आयुर्वेद, विषयक विशेषांक प्रकाशित किये गये। कुछ समय पश्चात् पत्र का प्रकाशन पुनः स्थगित हो गया। ___ यह पत्र कुछ समय के लिए वाराणसी से महादेवशास्त्री के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ। इसके बाद कानपुर से संस्कृतशिशुगीतम् - विद्वानों की भाषा होने के कारण संस्कृत के साहित्य में शिशुगीत जैसे वाङ्मय प्रकार नहीं हैं। जयपुरनिवासी डॉ. सुभाष तनेजा ने बालकमंदिर में पढनेवाले शिशुओं पर संस्कृतवाणी के संस्कार करने के उद्देश्य से प्रस्तुत 30 गीतों का संग्रह लिखा है। महाकविःकल्हणःतस्य राजतरंगिणी, कल्हणस्य राजतरंगिण्यां चित्रिता भारतीयसंस्कृतिः, महाराणाप्रतापचरितम् इत्यादि डॉ. सुभाष तनेजा की संस्कृत पुस्तकें, अलंकार प्रकाशन, जयपुर द्वारा, प्रकाशित हुई हैं। वेदालंकार तनेजा भरतपुर के महारानी श्रीजया महाविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष हैं। संस्कृतश्तबोध - ले.-हषीकेश भट्टाचार्य। संस्कृतसंजीवनम् - सन 1940 में पटना से बिहार संस्कृत संजीवन समाज के प्रधान पत्र के रूप में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादक मंडल में केदारनाथ ओझा, भवानीदत्त शर्मा, चन्द्रकान्त पांडे, त्रिगुणानंद शुक्ल, रामपदार्थ शर्मा आदि विद्वान् थे। संस्कृत शिक्षाप्रणाली का परिष्कार करने के उद्देश्य से 1887 में अम्बिकादत्त व्यास द्वारा उक्त संस्था की स्थापना की गई थी। संस्था की इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य छः रु. था। संस्कृतसन्देश - सन 1940 में वाराणसी से रामबालक शास्त्री के सम्पादकत्व में विशेष रूप से छात्रों के लिये इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ किन्तु इसका प्रकाशन तीसरे वर्ष में स्थगित हो गया। 402 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (2) सन 1953 में काठमांडू (नेपाल) से श्री योगी विदेशों के समाचारों के सार प्रकाशित किये जाते थे। नरहरिनाथ और बुद्धिसागर पराजुली के सम्पादकत्व में इसका संवत्सरकल्पलता - ले.-व्रजराज (वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलेश प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो लगभग ढाई वर्षों तक चला। यह के भक्त) विषय- कृष्णजन्माष्टमी से आरम्भ कर साल भर के एक इतिहास प्रधान मासिक पत्र था, अतः इसमें प्राचीन अन्य उत्सवों का विवरण। शिलालेखों का अधिक प्रकाशन हुआ। इसका वार्षिक मूल्य संवत्सरकृत्यम् (सवंत्सरकौस्तुभ या संवत्सरदीधिति)चार रुपये था। अनन्तदेव के स्मृतिकौस्तुभ का एक भाग। संस्कृतसाकेत - सन 1920 में महात्मा गांधी द्वारा संचालित संवत्सरकृत्यप्रकाश - भास्करराय के यशवन्तभास्कर का एक सत्याग्रह आंदोलन की पृष्ठभूमि के अंग्रेजी शासन के विरोध अंश। में अयोध्या से इस पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। प्रथम संवत्सरकौमुदी - ले.-गोविन्दानन्द । दस वर्षों तक इसके सम्पादक हनुमत्प्रसाद त्रिपाठी थे। बाद संवत्सरदीधिति - अनन्तदेवकृत स्मृतिकौस्तुभ का एक अंश। में सन 1931 से 1940 तक रूपनारायण मिश्र ने तथा 1940 से 1958 तक ब्रह्मदेव शास्त्री ने इसका सम्पादन किया। संवत्सरनिर्णयप्रतानम् - ले.-पुरुषोत्तम।। समाचार प्रधान इस पत्र में धार्मिक समाचार, उत्सवों, पर्यों संवत्सरोत्सवकालनिर्णय - ले.-पुरुषोत्तम। यह ग्रंथ ब्रजराज की सूचना, लघु निबन्ध, कविताएं, रामायण, महाभारत के की पद्धति को स्पष्ट करने के लिए प्रणीत हुआ है। ई. 16 वीं शती। अंश प्रकाशित किये जाते थे। 2) ले.- निर्भयराम। संस्कृतसाहित्यपरिषत्पत्रिका - सन 1918 में कलकत्ता से संवत्सरप्रयोगसार - ले.-श्रीकृष्ण भट्टाचार्य। पिता-नारायण । इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका प्रकाशन संस्कृत संवर्तस्मृति - जीवानन्द एवं आनन्दाश्रम द्वारा प्रकाशित । साहित्य परिषत् (168 राजादीनेन्द्र स्ट्रीट कलकत्ता -4) से संवादसूक्त - ऋग्वेद के कुछ सूक्तों का प्रबंध काव्य, नाटक किया जाता है। यह पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित होती से संबध माना जाता है। ऐसे सूक्तों को "संवादसूक्त" कहा आ रही है। प्रारंभ काल में यह पत्रिका वेदान्त-विशारद श्री ____ गया है। ऐसे सूक्तों की संख्या बीस है। इन सूक्तों के स्वरूप अनन्तकृष्णशास्त्री के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई। बाद के पर विद्वानों में अनेक मतभेद हैं। प्रो. ओल्डनबर्ग के अनुसार कालखंड में इसका सम्पादन श्री पशुपतिनाथ शास्त्री, संवादसूक्त के आख्यान प्रथम गद्यपद्यात्मक थे। पद्य-गद्य से महामहोपाध्याय कालीपद तर्काचार्य, क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय अधिक सरस थे। परिणामतः गद्य भाग की बजाय पद्य ही आदि महानुभावों ने किया। प्रधान हो गये। संस्कृतसाहित्यविमर्श - ले.-कविराज द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री। मेरठ ये संवादसूक्त प्राचीन आख्यानों के अवशिष्ट भाग हैं। के निवासी। ई. 1956 में प्रकाशित आधुनिक पद्धति से दूसरी ओर प्रो. सिल्वां लेव्ही, प्रो. हर्टल आदि का मत है। संस्कृत साहित्य का इतिहास इस में ग्रथित किया है। उनके अनुसार प्राचीन नाटकों के अविशिष्ट भाग ही ये सूक्त संस्कृतसाहित्यसुषमा - संपादक- देवनारायण पाण्डे । हैं। संगीत और वाक्यों द्वारा, अभिनय के साथ यज्ञ के समय तुलसी-स्मारक विद्यालय के शास्त्री। राजापुर (बांदा) से प्रकाशित इन्हें प्रस्तुत किया जाता था। प्रो. विंटरनिट्ज के अनुसार ये पत्रिका। प्राचीन लोकगीत के नमुने है। इन सूक्तों में कथात्मक एवं संस्कृतसाहित्येतिहास - ले.-प्रा. हंसराज अगरवाल । लुधियाना। रूपकात्मक इस भांति दो भागों का मिश्रण होने से आगे दो खण्डों में संस्कृत साहित्य का इतिहास । चलकर इनसे महाकाव्य एवं नाटकों का उदय हुआ। भारतीय साहित्य में इस दृष्टि से इन सूक्तों का बहुत महत्त्व है। संस्कृतसौरभम् - सुभाष वेदालंकार। जयपुरवासी। ई. 20 वीं शती। इन संवादसूक्तों में पुरुरवा-उर्वशी (ऋ. 10.95) यम-यमीसंवाद (ऋ 10.11) एवं सरमा पणी संवाद (ऋ. संस्कृतानुशीलन-विवेक (प्रबन्ध) - ले.-ग.श्री. हुपरीकर। 10.108) महत्त्व के हैं। विषय- संस्कृत अध्यापन की पद्धति का सविस्तर विवेचन। संस्कृति - 19 नवम्बर 1961 से पुण्यपत्तन (पुणे) से पं. संवित् - सन् 1965 से जयन्त कृष्ण दवे के सम्पादकत्व में बालाचार्य वरखेडकर के सम्पादकत्व में विजय नामक दैनिक यह पत्रिका भारतीय विद्याभवन द्वारा मुंबई से प्रकाशित हो रही है। पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और पन्द्रह दिनों बाद ही इसका संविकल्प - पार्वती-शिव संवादरूप। विषय- भंग या गांजा नाम बदलकर "संस्कृतिः" रखा गया। इसका वार्षिक मूल्य की उत्पत्ति और उनके तांत्रिक उपयोग। 15 रु. और एक अंक का मूल्य छः पैसे था। दो पृष्ठों वाले संविदुल्लास - ले.- गोरक्ष (अथवा महेश्वरानन्द) इस पत्र में राजनैतिक समाचारों के अतिरिक्त प्रादेशिक एवं संविधाहात्यम् - त्रिपुरासिद्धान्त का 15 वां कल्प। शिव-पार्वती संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 403 For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संवाद रूप। ब्रह्मज्ञानप्रद होने के कारण कलंज संवित् कहलाता है। आचार्य गौडपाद ने इस पर "गौडपाद-भाष्य' की रचना है। "संवित्" के सदृश न कोई धर्म है, न कोई तप और की है जिनका समय 7 वीं शताब्दी है। शंकर ने इस पर न कोई शास्त्र । विषय- कलंज-भक्षण की महिमा प्रतिपादित ___ "जयमंगला" नामक टीका लिखी पर ये शंकर, अद्वैतवादी है। साथ की कौलिक पुरुष, कौल ज्ञान और भागवत तथा शंकर से अभिन्न थे, या अन्य, इस बारे में विद्वानों में मतैक्य शिव की उत्कृष्टता कही गई है। नहीं है। म.म.डॉ. गोपीनाथ कविराज ने "जयमंगला" की संस्थापद्धति- (या संस्थावैद्यनाथ) ले.- रत्नेश्वरात्मज बैद्यनाथ । भूमिका में यह सिद्ध किया है कि यह रचना शंकराचार्य की चार मानों में। विषय- कात्यायनगृह्यसूत्र के मतानुसार आवसथ्य न होकर शंकर नामक किसी बौद्ध विद्वान् की है। वाचस्पति अग्नि में किये जाने वाले कृत्य। मिश्र कृत "सांख्यतत्त्व-कौमुदी", नारायणतीर्थ द्वारा प्रणीत संहिताहोमपद्धति - ले.- भैरवभट्ट। "चंद्रिका' (17 वीं शताब्दी) एवं नरसिंह स्वामी की संहितोपनिषद्-ब्राह्मणम् - (सामवेदीय)- इसमें एक ही । "सांख्यतरु-वसंत" नामक टीकाएं भी प्रसिद्ध हैं। इसमें प्रपाठक में कुल 5 खंड है। सामवेद के आरण्यगान और "सांख्य-तत्त्वकौमुदी' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका है। यह टीका ग्रामगेय गान का नाम लिया गया है। पुराने ब्राह्मण वाक्यों डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र के हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित हो का और श्लोकदिकों का संग्रह मात्र इस में मिलता है। चुकी है। सामवेद के प्रातिशाख्य रूप सामतन्त्र और फुल्ल-सूत्रादिओं सांख्यप्रवचनभाष्यम् - ले.- विश्वास भिक्षु। काशी निवासी। का मूल यही ब्राह्मण है। सम्पादक- ए.सी.बर्नेल, मंगलोर । ई. 14 वीं शती। सन् 1877 में प्रकाशित। इस की गणना उत्तरकालीन वैदिक सांख्यायनगृह्यसंग्रह - ले.- वासुदेव। बनारस संस्कृमाला में वाङ्मय में होती है। पुराने वैदिक शब्दप्रयोग इसमें नहीं मिलते। प्रकाशित। सांख्यायनतन्त्रम् - शिव-कार्तिकेय संवादरूप। श्लोक-11761 साकारसिद्धि - ले.- ज्ञानश्री । ई. 14 वीं शती । बौद्धाचार्य । पटल-24। विषय- ब्रह्मास्त्रविद्या का निरूपण, उसमें अभिषेक सागरिका- सन् 1962 में सागर (म.प्र.) से डॉ. रामजी आदि का निरूपण, एकाक्षरी विधि का निरूपण, महापाशुपत उपाध्याय के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ के प्रसंग में बंगलामुखी आदि का प्रयोग, यन्त्र का प्रयोग, हुआ। प्रथम वर्ष यह षण्मासिकी थी, किन्तु दूसरे वर्ष से शताचार्य आदि का प्रयोग, दूर्वाहोम की विधि, अन्य की विद्या त्रैमासिकी पत्रिका हो गई। इसका प्रकाशन सागर विश्वविद्यालय भक्षण करने आदि की विधि, बगलास्त्रविधि, की सागरिका समिति की ओर से हुआ। संस्कृत भाषा तथा अस्त्रविद्याप्रयोग-विधि, स्तंभिनीविद्या आदि का प्रयोग। शिक्षा के विषय में तर्कसंगत निबन्धों के अलावा संस्कृत सांख्यसार-ले.- विश्वास भिक्षु । काशी-निवासी । ई. 14 वीं शती। मनीषियों की जीवनी, गीत और रूपक आदि का भी प्रकाशन इसमें किया जाता है। शोध-निबन्धों का प्रकाशन इसकी सांख्यसूत्राणि- ले.- कपिलमुनि। सांख्यदर्शन का यह मूल विशेषता है। इसका हर अंक लगभग सौ पृष्ठों का होता है। ग्रंथ है। जुलाई, अक्टूबर, जनवरी और अप्रैल इसके प्रकाशन मास हैं। सात्यमुग्र-शाखा (सामवेदीय)- सामवेद के राणायनीय चरण साग्निकविधि- विषय- अग्निहोत्रियों के अन्त्येष्टि-कृत्यों के की एक शाखा का नाम सात्यमुग्र है। सात्यमुग्र शाखा का नियम। कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। सात्यमुग्र शाखा वाले एकार और सांख्यकारिका - ले.- ईश्वरकृष्ण। सांख्य दर्शन के एक ओकार इन संध्यक्षरों को हस्व पढते हैं, इस तरह का निर्देश पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य में मिलता है- (व्याकरण प्रसिद्ध आचार्य। इसमें 71 कारिकाएं हैं जिन में सांख्यदर्शन के सभी तत्त्वों का निरूपण है। शंकराचार्य ने अपने "शारीरक महाभाष्य 1-1-4) भाष्य" में इसके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। "अनुयोगद्वारसूत्र" सात्राजितीपरिणय-चम्पू- कवि-कृष्णगांगेय। रामेश्वर के पुत्र । नामक जैन-ग्रंथ में "कणगसत्तरी"- नाम आया है जिसे विद्वानों सात्त्वततन्त्रम- शिव-नारद संवाद रूप। श्लोक-781 । पटल-91 ने "सांख्यकारिका" के चीनी नाम "सुवर्ण-सप्तति". से अभिन्न यह शिव प्रोक्त और गणेश लिखित है। विषय-भगवान् श्रीकृष्ण मान कर इसका समय प्रथम शताब्दी के आस-पास निश्चित के विराट रूप का वर्णन, भक्तों की विभिन्न प्रकार की भक्तियां, किया है। "अनुयोगद्वार-सूत्र" का समय 100 ई. है। अतः उनके पृथक् लक्षण, भगवान् की सेवा से युग के अनुरूप "सांख्यकारिका का रचनाकाल इस से पूर्ववर्ती होना निश्चित मोक्षसाधन इत्यादि। है। "सांख्यकारिका" पर अनेक टीकाओं व व्याख्या ग्रंथों की सात्वतसंहिता (पांचरात्र)- श्लोक- 3000। अध्याय-25 । रचना हुई है। कनिष्क के समकालीन (प्रथम शतक) आचार्य विषय- प्रधान रूप से वैष्णव पूजा का प्रतिपादन। माठरद्वारा रचित "माठरवृत्ति", इसकी सर्वाधिक प्राचीन टीका साधकसर्वस्वम् - शिव-पार्वती-संवाद रूप। प्राणनाथ मालवीय 404 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वारा संगृहीत । श्लोक-249। पटल-2| विषय-बटुकजी की वीर साधन विधि, वीरसाधनविधि-प्रयोग, बटुकभैरव-दीपविधि, मुद्राविधि, आसन आदि का निरूपण, पंचशुद्धि कथन इत्यादि । साधकाचार-चन्द्रिका - ले.- वंगनाथ शर्मा । श्लोक- 40001 प्रकाश-14। साधनदीपिका - ले.- नारायण भट्ट। गुरु-शंकर । ई. 16 वीं शती। ये कान्यकुब्ज थे। 7 प्रकाशों में पूर्ण। विषय- विष्णु पूजा का विवरण। साधनमुक्तावली- ले.- नव कविशेखर । श्लोक-1132। विषयवशीकरण, आकर्षण आदि में ऋतु, तिथि, योग, नक्षत्र आदि का विचार। कैसे वृक्ष के मूल आदि ग्राह्य हैं यह निरूपण। वृक्ष- निमन्त्रण के लिए मन्त्र, खोदना, काटना आदि के मन्त्र, वशीकरण तथा उसके साधन चक्र। विजय प्राप्त करने में उपयोगी मंत्रों का निरूपण। पागल हाथी को अपने सामने से हटाना, उसके उपयुक्त चक्र। बाघ को हटाना, उसके उपयोगी चक्र। स्तंभनविधधि, उसमें उपयोगी चक्र। वाजीकरण, वन्ध्या आदि के गर्भधारणा के उपाय, विविध औषधियां, चक्र आदि, शत्रुकुलनाशन, स्त्री- सौभाग्यकरण आदि । साधुवादमंजरी - ले.- मूल अंग्रेजी काव्य ब्राऊनिंग का। अनुवादकर्ता- रामचन्द्राचार्य। सान्द्रकुतूहलम्- ले.- कृष्णदत्त। रचनाकाल ई. सन् 1752 । प्रहसन कोटि की रचना । विभिन्न अंकों में विषयों की विभिन्नता । प्रथम तीन अंकों में प्रहसन-तत्त्व का अभाव। चतुर्थ अंक ही विशुद्ध प्रहसन है। सापिण्ड्यभास्कर -ले.- कृष्णशास्त्री घुले। नागपुर-निवासी। ई. 20 वीं शती। सापिण्ड्यविचार- ले.- विश्वेश्वर (गागाभट्ट काशीकर)। ई.17 वीं शती। सापिण्ड्यविषय - ले.- गोपीनाथ भट्ट । सापिण्ड्य सार - ले.- धरणीधर। रेवाधर के पुत्र । सापिण्डीमंजरी- ले.- नागेश। सामगृह्यवृत्ति-ले.- रुद्रस्कन्द । सामविधान-ब्राह्मणम् (सामवेदीय) - तीन प्रपाठक। कुल 25 खण्ड । इसमें अभिचार कर्मों का बहुत वर्णन है। सम्पादकसत्यव्रत सामश्रमी। कलकत्ता में संवत् 1951 में प्रकाशित । सामवेदीय-दर्शकर्म - ले.- भगदेव। सामगव्रतप्रतिष्ठा - ले.- रघुनन्दन। सामवेद- सामवेद की देवता सूर्य हैं और यज्ञ में उद्गात गण इस वेद का प्रयोग करते हैं। इसके प्रमुख आचार्य जैमिनि हैं। इसे उद्गातृ गण का वेद कहते हैं। "साम'' का अर्थ है प्रीतिकर वचन, गान को भी साम कहते हैं। संगीत शास्त्र के अनुसार “साम" शब्द सात स्वरों को दर्शाता है। शास्त्रों में इस वेद की सहस्र शाखाएं बतायी गई हैं, जब कि मतान्तर से इससे न्यूनाधिक भी शाखाएं हैं। सम्प्रति इसकी तीन ही शाखाएं उपलब्ध हैं- 1) कौथुमी, 2) राणायनीय और 3) जैमिनीय तलवकार। सामवेद की संहिताओं में मुख्यतः दो भाग हैं- आर्चिक और गान। इस वेद के 10 ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शिक्षा आदि साहित्य पाया जाता है। इसका उपवेद गान्धर्ववेद है। कुछ आधुनिकों के अनुसार सामवेद यजुर्वेद से पहले का होना चाहिए। कुछ तो यह भी अनुमान लगाते हैं कि इसके कई मन्त्र ऋग्वेद पूर्व के हैं किन्तु उनका संकलन ऋग्वेद के पश्चात् हुआ। सामवेद की विविध संहिताओं पर सात स्वरों के चिन्ह अवश्य दीखते हैं। साथ ही स्वरों के विविध भेदों एवं संज्ञाओं का भी उल्लेख है। किन्तु कानों को तीन चार स्वरों के अतिरिक्त अन्य स्वरों के भेद सुनाई नहीं पडते। सामवेद की जो तीन शाखाएं उपलब्ध हैं उनमें से कौथुमी और राणायनी शाखा में अंतर नहीं है, इसीलिये उनके ब्राह्मण एक ही हैं। कौथुमी शाखा के आठ ब्राह्मण हैं- 1) तांड्य, 2) षड्विंश, 3) सामविधान, 4) आर्षेय, 5) दैवत, 6) छांदोग्य, 7) संहितोपषिद् तथा वंश। इन सभी ब्राह्मणों पर सायणाचार्य ने भाष्य लिखे हैं। जैमिनीय शाखा का ब्राह्मण तलवकार नाम से भी प्रसिद्ध है। सामसंस्कारभाष्यम्- ले.- स्वामी भगवदाचार्य। अहमदाबादनिवासी। ई. 20 वीं शती। सापिण्ड्यकल्पलता - ले.- सदाशिव देव। पिता- श्रीपति । देवालयपुर के निवासी। गुरु- विट्ठल। ग्रंथ में सपिण्ड का अर्थ-शरीर कणों से संबंध, कहा गया है। लेखक के पौत्र नारायण देव ने इस पर टीका लिखी है। ग्रंथ में नरसिंह सप्तर्षि, वीरमित्रोदय, सापिण्डप्रदीप, द्वैतनिर्णय आदि का उल्लेख, है। सन् 1927 में सरस्वती भवन, वाराणसी से प्रकाशित । सापिण्ड्यतत्त्वप्रकाश- ले.- धरणीधर। रेवाधर के पुत्र। सापिण्ड्यदीपिका- (या सापिण्ड्यनिर्णय)- ले.- श्रीधर भट्ट। लेखक कमलाकर के चचेरा पितामह थे, अतः उनका काल 1520-1580 ई. है। 2) ले.- नागेश । इस ग्रंथ को सापिण्ड्यमंजरी एवं सापिण्ड्यनिर्णय भी कहा है। ई. 18 वीं शती। नंदपण्डित, अनन्तदेव, वासुदेव-भट्ट आदि के निर्देश हैं। सापिण्ड्यनिर्णय- ले.- रामभट्ट । 2) ले.- भट्टोजी। 1880-84 । सापिण्ड्यप्रदीप-ले.- नागेश। सापिण्ड्यकल्पलतिका की टीका में वर्णित । घारपुरे द्वारा प्रकाशित । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /405 For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामामृतसिन्धु- ले.- पं. शिवदत्त त्रिपाठी। साम्बचरितम् - ले.- वृन्दावन शुक्ल । साम्बपंचाशिका-विवरणम् - ले.- क्षेमराज । सांबपुराणम् - एक उपपुराण। यह सौर पुराण है। सूर्योपासना इसका मुख्य विषय है। इसके मुख्यतः दो भाग हैं। ये दोनों भिन्न काल में, भिन्न व्यक्तियों ने, भिन्न प्रदेशों में रचे हैं। प्रथम ई. 500 से 800 के बीच व दूसरा सन 950 के बाद लिखा गया। दूसरे भाग में सांब का उल्लेख भी नहीं है। उडीसा के कोणार्क मंदिर संबंधी जानकारी इस पुराण में है। भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को नारदमुनि का शाप और सूर्योपासना से उसकी मुक्ति की कथा के द्वारा सूर्योपासना की जानकारी दी गई है। साम्बसंहिता- श्लोक-1200। साम्यतीर्थम् (नाटक)- ले.- जीव न्यायतीर्थ। जन्म 1884 । कलकत्ता से सन 1962 में प्रकाशित। रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबन्धों पर आधारित। विषय-राष्ट्रीय एकता का प्रतिपादन । अंकसंख्या-पांच। साम्यसागर-कल्लोलम् - ले.- जीव न्यायतीर्थ । जन्म- 1894 । रूसनिष्ठ साम्यवादी नेताओं की पोल खोलने हेतु रचित । कथासार -साम्यवादी नेता गणनाथ और पुरातनपंथी यति में समाजोन्नति के विषय पर विवाद छिडता है। गणनाथ मिलमजदूरों की हडताल करवाता है और किसानों को उकसाता है। मिल बन्द पड़ने पर मजदूर तथा किसानों में ही आपस में मारपीट होती हैं। उग्र मजदूर दूकाने लूटते हैं। यति के आश्रम पर धावा बोलते हैं परंतु अंत में नौकरी छूट जाने से कुण्ठित होकर गणनाथ को ही मारने को उद्यत होते हैं। ऐसे समय पर यति अपने प्राणों पर खेलकर गणनाथ को बचाता है। सामवतम् (रूपक) -ले.- अम्बिकादत्त व्यास। रचनाकालसन् 1880 ई.। प्रथम प्रकाशन मिथिलानरेश लक्ष्मीश्वरसिंह द्वारा। द्वितीय प्रकाशन सन् 1947 में, व्यास पुस्तकालय, मानमन्दिर, काशी से। अंकसंख्या छः। कथावस्तु- स्कन्दपुराण के ब्रह्मोत्तर खण्ड के सामव्रत प्रकरण से गृहीत। अंगी रस-शृंगार, परन्तु अश्लीलता से दूर। लम्बे, नाट्यहानिकर संवाद तथा एकोक्तियों की भरमार । अन्यविशेष- नाटक में वर्जित वनयात्रा का दृश्य, राजा के स्थान पर नायक का ऋषिपुत्र होना, भूत-प्रेत तथा भगवती की भूमिकाएं, होलिकाक्रीडा, रंगमंच पर नौकावाहन, झंझावात तथा नौका का डूबना, नेपथ्य के पात्र के साथ मंच पर के पात्र का संवाद, स्त्रीरूपधारी नर्तक का नृत्य, धीवरों का मागधी भाषा में समूहगीत, गीतनृत्यों की प्रचुरता आदि। कथासार - अपने विवाह हेतु धन पाने के लिए सुमेधा और सामवान् विदर्भराज के पास जाते हैं। मार्ग में मदालसा नामक अप्सरा का गीत सुन वे इतने तल्लीन होते हैं कि पास खडे दुर्वासा मुनि की आवाज वे सुन नहीं पाते। दुर्वासा सामवान् को शाप देते हैं कि शीघ्र ही स्त्री बन जायेगे परन्तु गीतरस में डूबे सामवान् को यह भी सुनाई नहीं देता। विदर्भ की राजसभा में पहुंचने पर विदूषक वसन्तक उन्हें उकसाता है कि चन्द्रांगद महाराज की रानी प्रति सोमवार ब्राह्मणों को दान देती है, सो सामवान् स्त्रीवेष लेकर, सुमेधा की पत्नी बन दान स्वीकार करें। वे वैसा करते हैं। महारानी श्रद्धापूर्वक उन्हें दान देती है। रानी के भक्तिभाव के प्रभाव से सामवान् स्त्री बन जाता है। सामवान् के पिता सारस्वत कृद्ध होते हैं कि इकलौता कुलाधार पुत्र राजा के परिहास के कारण स्त्री बन गया। राजा क्षमा मांगता है और उसे फिर से पुरुष बनाने के लिए देवी से प्रार्थना करता है। भगवती कहती है कि महारानी ने श्रद्धायुक्त मन से सामवान् को जो समझा, उसे कोई बदल नहीं सकता किन्तु सारस्वत की कुलवृद्धि हेतु उसे दूसरा पुत्र प्राप्त होगा। अन्त में सामवती (सामवान् का स्त्रीरूप) तथा सुमेधा का विवाह होता है और विदर्भराज उस विवाह का व्यय वहन करता है। सायनवाद- ले.- नृसिंह (बापूदेव शास्त्री) ई. 19 वीं शती। विषय- ज्योतिष शास्त्र। सारग्राहकर्मविपाक - ले.- कान्हरदेव। नागर ब्राह्मण । मंगलभूपाल के पुत्र दुर्गसिंह के मन्त्री कर्णसिंह के आश्रम में नन्दपद्रनगर में 1384 ई. में प्रणीत । लेखक का कथन है कि उसने मौलगिनृप (या कौलिनिगृप) के कर्मविपाक ग्रंथ पर अपने ग्रन्थ को आधृत किया है जिससे उसने 1200 श्लोक उदृत किये हैं। इस ग्रन्थ में 4900 श्लोक है। लेखक ने विज्ञानेश एवं बौद्धायन से क्रमशः 276 एवं 500 लिये हैं। ग्रन्थ में 55 प्रकरण एवं 45 अधिकार हैं। सारचिन्तामणि - ले.- भवानीप्रसाद । श्लोक-55441 विषयदीक्षा व्यवस्था, अकडम आदि चक्रों की विधि, नित्यानुष्ठान पूजा, मन्लोद्धार, विविध शक्तिविषयक अनुष्ठान आदि। सारदीपिका- ले.- कालीपद तर्काचार्य (1888-1962 ई.) जयकृष्ण की "सारमंजरी" की यह व्याख्या है। यह व्याकरण विषयक ग्रंथ है। सारबोधिनी- ले.- श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य। काव्यप्रकाश पर टीका। ई. 16 वीं शती। सारशतकम् - ले.- कृष्णराम। जयपुर के सभापण्डित। यह काव्य श्रीहर्ष के "नैषध" महाकाव्य का संक्षेप है। सारसंग्रह- ले.- भट्टारक अकुलेन्द्रनाथ। विषय- अनेक ग्रंथों का सार। इसमें इष्टोपदेश, शिवधर्मोत्तरसार, अकुलनाथ द्वारा उध्दत निर्वाणकारिका तथा निःश्वासकारिका का सार, वेदोत्तरसार, स्मृतिसार, कृष्णयोगसार, कुलपंचाशिकासार, महाज्ञानसार, है। 406 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमत्सार, श्रीमदुत्तरशंखसार, चिंचिणीमतसार, महामायास्तोत्रसार, शंखयोगमहाज्ञानसार, गीतासार आदि। 2) ले.- देवनन्दी पूज्यपाद। जैनाचार्य। ई. 5-6 वीं शती। माता-श्रीदेवी। पिता- माधवभट्ट। 3) ले.- राघवभट्ट। 4) ले.- शम्भुदास। 5) ले.- मुरारिभट्ट । सारसंग्रहदीपिका- ले.- रामप्रसाददेव शर्मा । सारसमुच्चय - ले.- हरिसेवक। निर्माणकाल- संवत् 1770 वि.। 173 ई.। इसका वास्तव नाम है योगसार-समुच्चय। श्लोक-750। पटल-101 सारसमुच्चय-पद्धति- श्लोक-638 । सार-सुन्दरी - ले.- माथुरेश विद्यालंकार। ई. 17 वीं शती। अमरकोश पर भाष्य। सारस्वतदीपिका - ले.- हर्षकीर्ति। ई. 17 वीं शती। सारस्वतप्रक्रिया - ले.- अनुभूतिस्वरूपाचार्य। सारस्वत-रूपान्तरम् - तर्कतिलक-भट्टाचार्य। लेखक ने इस रूपान्तर पर व्याख्या भी लिखी है। सारस्वतशतकम् - ले.- जीव न्यायतीर्थ । सन् 1925 में प्रकाशित । सारस्वती सुषमा- सन् 1942 में वाराणसेय संस्कृत महाविद्यालय से डॉ. मंगलदेव शास्त्री के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। तीन वर्षों बाद नारायणशास्त्री खिस्ते इसके संपादक हुए। पांचवें वर्ष से को.अ.सुब्रह्मण्य तथा बाद में कुबेरनाथ शुक्ल और क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय के सम्पादकत्व में यह पत्रिका प्रकाशित होती रही। शोध-प्रधान निबन्धों का प्रकाशन इस पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य था। इसमें शास्त्र, विज्ञान, राजनीति, शब्द-विज्ञान और समालोचना, अर्वाचीन, कहानियां और कविताएं, निबंध आदि प्रकाशित होते थे। सावित्री- (नाटक)- ले.-श्रीकृष्ण त्रिपाठी। रचना सन 1956 में। एकांकी। सावित्री के पातिव्रत्य की कथा। सावित्रीचरितम् (सात अंकी नाटक) - ले.- जामनगर के आशु कवि शंकरलाल (ई. 1842-1918 ई.) काठियावाड के रावजीराव संस्कृत पाठशाला में अध्यापक। 2) गद्यरचना- ले.- राधाकृष्ण तिवारी। सोलापुर निवासी। साहित्यकौमुदी - ले.- बलदेव विद्याभूषण। काव्यप्रकाश पर टीका। अलंकारों पर एक अतिरिक्त अध्याय। ई. 18 वीं शती। स्वरचित उदाहरण, जिनका आशय कृष्णभक्तिपर है। साहित्यकल्पद्रुम - ले.- येउर ग्रामवासी सोमशेखर । साहित्यशास्त्र विषयक ग्रंथ। 2) ले.- राजशेखर । ई. 18 वीं शती। 81 स्तबकों में पूर्ण। साहित्यकल्पलतिका- ले.- शतलूरी कृष्णसूरि । साहित्य-कल्लोलिनी- ले.- भास्कराचार्य। साहित्यशास्त्र तथा नृत्य पर चर्चा । साहित्यदर्पण - ले.- विश्वनाथ कविराज। ई. 14 वीं शती। कलिंगराज के सांधिविग्रहिक। काव्यप्रकाश के अनुसार साहित्यशास्त्र की विस्तृत रचना। साहित्य क्षेत्र के सर्व प्रकार तथा वाद इसमें समाविष्ट हैं। इसके अनुसार रसात्मक वाक्य ही काव्य है। दस परिच्छेद युक्त। 6 वें परिच्छेद में नाट्यशास्त्र विषयक चर्चा। काव्य हेतु, प्रकार, परिभाषा, उदाहरण, गुण-दोष रसपरिपोष, तथा शब्दार्थालंकार भी विस्तरशः विवेचित है। भाषा धारावाहिनी तथा प्रभावी है। टीकाकार- 1) मथुरानाथ शुक्ल, (2) अनन्तदास, (3) गोपीनाथ, (4) रामचरण तर्कवागीश। अलंकारवादार्थ में साहित्यदर्पण के मतों का परिशीलन होता है। साहित्यनिबन्धादर्श- ले.-वासुदेव द्विवेदी। छात्रोपयुक्त, 31 विविध विषयों पर निबन्ध तथा संस्कृत पत्र लेखन आग्रा से प्रकाशित। साहित्यमंजूषा - ले.- सदाजी। ई. 1815 में रचित इस साहित्य शास्त्रनिष्ठ काव्य में शिवाजी महाराज तथा भोसले वंश के इतिवृत्त का वर्णन है। साहित्यरत्नाकर - ले.- धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती। 2) ले.- यज्ञनारायण दीक्षित। ई. 17 वीं शती। साहित्यवाटिका • सन् 1960 में दिल्ली से श्री यशोदानन्दन भरद्वाज के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। दिल्ली राज्य संस्कृत विश्वपरिषद् 23, ए. कमलानगर, दिल्ली से प्रकाशित होने वाली यह पत्रिका समस्याप्रधान है। साहित्यवैभवम् - ले.- श्रीभट्ट मथुरानाथ शास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर। हिन्दी तथा उर्दू शब्दों का हेतुतः रचना में प्रयोग। रेडियो, मोटर, विमान, जैसे आधुनिक विषय। इस अभिनव उपक्रम को संमिश्र प्रतिसाद मिला। प्रथम भाग जयपुरवैभवम्। इसके विशिष्ट-जनचत्वर नामक प्रकारण में स्थानीय 122 प्रसिद्ध व्यक्तिओं का वर्णन है। दूसरा भाग साहित्य-खण्ड। इसके नवयुग वीथी प्रकरण में समाज की परिस्थिति चित्रित है। कवि की सहचरी-टीका के साथ प्रकाशित । साहित्यकार - ले.- अच्युतराय मोडक। 12 प्रकरण। लेखक का नामनिर्देश नये ढंग से- ऐरावतरत्न, धन्वतरिरत्न आदि किया है। साहित्यसुधा - ले.- गोविन्द दीक्षित । तंजौर के रघुनाथ नायक के मंत्री। वेदान्तादि विविध शास्त्रों में निपुण कवि। इस में कवि ने अपने दो आश्रय दाता अच्युत और रघुनाथ राजाओं का चरित्र वर्णन किया है। सारासारसंग्रह -ले.- रामशंकरराय। श्लोक- 19977। 12 परिच्छेदों में पूर्ण। विषय- शिव और शिव की विभूतियां, अर्धनारीश्वर मूर्ति, अर्धनारीश्वरस्तोत्र, इन्द्र आदि का अभिमान भंजन, जो मुनि नहीं उन्हें मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती। तंत्रों की असंख्यता, ब्रह्मतत्त्व के विषय में ब्रह्मा आदि के सन्देह संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 407 For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 वीं शती। सार्वभौम-प्रचारमाला - (मासिक पुस्तकमाला) संपादकवासुदेव द्विवेदी। वाराणसी- निवासी। सिद्धखण्ड- ले.- नित्यनाथ। श्लोक- 770। सिद्धचक्राष्टकटीका - ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। सिद्धनागार्जुनीयम्- ले.- सिद्धनागार्जुन। श्लोक-1800 । सिद्धपंचाशिका- उमा-महेश्वर-संवादरूप। मूलनाथ द्वारा अवतारित । यह 5 पटलों में पूर्ण कुलालिकाम्नाय का एक अंश है। सिद्धभक्तिटीका-ले.- श्रुतसागरसूरि । जैनाचार्य 16 वीं शती। सिद्धयोगेश्वरीतन्त्रम् - (नामान्तर-सिद्धयोगेश्वरीमत अथवा भैरववीरसंहिता) श्लोक-13001 पटल-32| विषयशक्ति-त्रयोद्धार, विद्यांगोद्धार, लोकपालोद्धार, समयमंडल, विद्याव्रत का निराकरण, दुर्गामाहात्म्य, प्रसिद्ध तन्त्रों के नाम। पीठों का निर्णय, महाविद्या-निरूपण, कुण्डलिनी की अंगभूत मातृकाएं, महाकामिनी के ध्यान, पंच बाणों का निर्णय, वेदोत्पत्ति वर्णन, वर्णमाला-निरूपण, आद्या के एकाक्षर मंत्र के अर्थ, महादुर्गा, तारा, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, वाग्भवी, धूमावती, बगलामुखी, कमला, मातंगी आदि के एकाक्षर मंत्रों के अर्थ, विद्याओं के विशेष नाम। काली, तारा और दुर्गा के एक होने से परस्पर अविशेष, गुरु शिष्य आदि के लक्षण, दीक्षाकाल, विविध देवदेवियों की पूजा आदि। सारार्थचतुष्टयम्- ले.- वरदाचार्य। सारार्थदर्शिनी - (श्रीमद्भागवत की टीका) ले.- विश्वनाथ चक्रवर्ती। इस टीका का निर्माण काल-1704 ई. है। लेखक की प्रौढ अवस्था की रचना है। सारार्थदर्शिनी टीका के नाम की यथार्थता के विषय में लेखक ने लिखा है कि श्रीधरस्वामी, चैतन्य महाप्रभु एवं अपने गुरु के उपदेशों के सार को प्रदर्शित करने का प्रयास है। यह भागवत की रसमयी व्याख्या है। इसमें भागवत का प्रतिपाद्य रसतत्त्व बड़े ही सरस शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। इसकी शैली रोचक होने के कारण, भागवत सरोवर में अवगाहन के लिये सुगम सोपान के समान यह उपादेय है। इसमें भागवत के दार्शनिक तत्त्वों का भी विवेचन बडी ही सहज सरल पद्धति से किया गया है। प्रस्तुत टीका के अंतिम श्लोक में लेखक ने अपनी अतीव विनम्रता व्यक्त की है हे भक्ता द्वारि वश्चंचद्-बालधी रौत्ययं जनः । नाथावशिष्टः श्वेवातः प्रसादं लभतां मनाक् ।। अर्थात् जिस प्रकार कुत्ते को खाने के लिये जूठन दी जाती है, उसी प्रकार भक्तों के द्वार पर रोने वाला यह बालक भी भगवान् के भोग का अवशिष्ट प्रसाद पावे। अपनी तुलना कुत्ते से करना, भावुक भक्त की विनम्रता का चरमोत्कर्ष है। इस टीका में वेद तथा शास्त्र के प्रमाणभूत ग्रंथों एवं श्रीधर स्वामी-सनातन, जीव, मधुसूदन, यामुनाचार्य प्रभृति आचार्यों का उल्लेख टीकाकार की बहुज्ञता का परिचायक है। सारावली - विषय- दीक्षित के अवश्यकरणीय दैनिक कत्यों तथा दीक्षाविधि का वर्णन । दीक्षा संबंध में आकर ग्रंथों के प्रमाणवचनों का प्रतिपादन।। सारीपुत्तप्रकरणम् (नाटक)- ले.- अश्वघोष। इसमें सारीपुत्र तथा मौद्गलायन के बौद्धधर्म में दीक्षित होने की कथा है। सारोद्धार - (त्रिंशच्छ्लोकीविवरण की टीका) ले.- शम्भुभट्ट। सार्धद्वयद्वीपपूजा - ले.- शुभचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 16-17 वीं शती। 2) ले.- ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। सार्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति - ले.- अमितगति (प्रथम) जैनाचार्य। ई. सिद्धलहरीतन्त्रम्- जातुकर्ण्य- नारण संवाद रूप। विषय- मुख्य रूप से काली-पूजाविधि। 50 मातृका वर्णो की महिमा तथा द्वाविंशत्यक्षरी विद्या की महिमा वर्णित है। सिद्धविद्यादीपिका - ले.-शंकराचार्य। गुरु-जगन्नाथ । श्लोक-972। पटल 9। विषय- दक्षिणकालिका-कल्प, दक्षिणकाली-पूजाविधि, उनके साधन, मंत्रोद्धार, पुरश्चरण विधि तथा नैमित्तिकानुष्ठान। सिद्धशबरतन्त्रम्- ईश्वरी-ईश्वरसंवाद रूप तथा महादेव-दत्तात्रेय संवाद रूप। तीन खण्डों में विभक्त- (प्रथम, मध्यम, उत्तम) विषय- मारण, मोहन, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, इन्द्रजाल इ.। सिद्धसन्तानसाधन-सोपानपंक्ति- ले.- यशोराज। पिता-गोप। पटल-18 में पूर्ण। यशोराज का पूरा नाम यशोराजचन्द्र था। वे "बालवागीश्वर" भी कहलाते थे। सिद्धसिद्धांजनम् - विविध प्रकार के तांत्रिक और ऐन्द्रजालिक प्रयोगों का प्रतिपादक ग्रंथ। सिद्धसिद्धान्त-पद्धति- ले.-गोरक्षनाथ। श्लोक-264। छह उपदेशों में पूर्ण। इस निबन्ध में मुख्यतः देवी शक्ति ही प्राधान्येन पूजायोग्य है; उसी में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने की असाधारण शक्ति है, यह निर्दिष्ट है। सिद्धहेमशब्दानुशासनम्- ले.- हेमचंद्र सूरि। प्रसिद्ध जैन आचार्य। वि.सं. 1145-12291 संस्कृत- प्राकृत का व्याकरण। प्रथम 8 अध्यायों में (28 पाद) संस्कृत भाषा का व्याकरण, (3566 सूत्रों में)। आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची आदि भाषाओं का व्याकरण । सूत्रसंख्या 11191 यह प्राकृत भाषाओं का सर्वप्रथम व्याकरण है। कातन्त्र के समान प्रकरणानुसारी रचना । यथाक्रम संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यंजनसंधि, नाम, कारक आदि प्रकरण हैं। 408 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धान्तकौमुदी- ले.- भट्टोजी दीक्षित । पाणिनीय व्याकरण की प्रयोगनुसारी व्याख्या। इसके पूर्व के प्रक्रियाग्रंथों में अष्टाध्यायी का सब सूत्रों का समावेश नहीं था। इस त्रुटि की पूर्ति हेतु इसकी रचना हुई। वर्तमान समय के व्याकरण के अध्ययन-अध्यापन का यही ग्रंथ आधार है। इसके पूर्व, लेखक भट्टोजी दीक्षित ने सूत्रानुसारी विस्तृत व्याख्या शब्दकौस्तुभ नाम से लिखी। सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण क्षेत्र में युगप्रवर्तक, महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। ग्रंथ के विवरण हेतु मार्मिक टीका प्रौढमनोरमा स्वयं लिखी जिसमें गुरुमत का खण्डन किया है। पंडितराज जगन्नाथ की इस टीका पर प्रौढमनोरमा-कुचमर्दिनी टीका है। प्रौढमनोरमा का मराठी अनुवाद नागपुर निवासी, प्रसिद्ध वैयाकरण ना. दा. वाडेगावकर ने किया है जो प्रकाशित हुआ है। सिद्धान्तकौमुदी पर तंजौर के वैयाकरण वासुदेवशास्त्री की लोकप्रिय बालमनोरमा टीका है। 17 वीं शती के अन्त की भट्टोजी के शिष्य वरदराज की लघु-सिद्धान्तकौमुदी तथा रामशर्मा की मध्यम सिद्धान्तकौमुदी, इसी सिद्धान्तकौमुदी के ही लघु और मध्यम रूप हैं। ज्ञानेन्द्रसरस्वती ने सिद्धान्तकौमुदी की टीका तत्त्वबोधिनी लिखी है। भट्टोजी के पोते हरिपन्त ने प्रौढमनोरमाटीका, लघुशब्दरत्न तथा बृहत्शब्दरत्न ये तीन ग्रंथ लिखे हैं। सिद्धान्तकौमुदीप्रकाश - ले.- तोप्पलदीक्षित। सिद्धान्तकौस्तुभ - ले.- जगत्राथ। ई. 18 वीं शती। विषयगणित शास्त्र। सिद्धान्तचक्रम्- (नामान्तर-सिद्धान्तचन्द्रिका) श्लोक- लगभग 1501 सिद्धान्तचन्द्रिका- ले.- वसुगुप्त। विषय- शैव तन्त्र । सिद्धान्तचन्द्रिका- (2) ले.- रामाश्रम। सारस्वत व्याकरण का रूपान्तर। स्वतंत्र व्याकरण के रूप में प्रस्तुत तथा उसी पर यह टीका है। सिद्धान्तचंद्रिका पर लोकशंकर (तत्त्वदीपिका), सदानन्द (सुबोधिनी) और व्युत्पत्तिसार-कार ने टीकाएं लिखी है। सारस्वत व्याकरण पर जिनेन्द्र (सिद्धान्तरत्न), हर्षकीर्ति (तरंगिणी) ज्ञानतीर्थ और मध्व की टीकाएं हैं। अन्तिम तीन का उल्लेख डॉ. बेलवलकर ने किया है। सिद्धान्तचन्द्रिकोदय - ले.- गंगाधरेन्द्र सरस्वती। सिद्धान्तचिन्तामणि - ले.- रघु। मलमासतत्त्व में यह ग्रंथ उल्लिखित है। सिद्धान्तजाह्नवी - ले.- देवाचार्य। निंबार्क- संप्रदाय के प्रसिद्ध कृपाचार्य के शिष्य। यह ब्रह्मसूत्र का विस्तृत समीक्षात्मक भाष्य है। इस ग्रंथ में निंबार्क से 7 वीं पीढी में हुये पुरुषोत्तमाचार्य द्वारा प्रणीत "वेदान्तरत्न-मंजूषा" का उल्लेख है। सिद्धान्तज्योत्स्रा-ले.- धनिराम । सिद्धान्ततत्त्वविवेक - ले.- कमलाकर। सिद्धान्ततिथिनिर्णय- ले.-शिवनन्दन । सिद्धान्तदीपिका - ले.-सर्वात्मशंभु। विषय- शाक्ततंत्र । सिध्दान्तनिदानम्- ले.- कविराज गणनाथ सेन। विषयपैथोलाजी (रोगनिदान-शास्त्र)। सिद्धान्तनिर्णय- ले.- रघुराम । सिद्धान्तप्रदीप - ले.- शुकदेव। ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध । श्रीमद्भागवत की टीका। निबार्क मत में द्वैताद्वैत ही दार्शनिक पक्ष है। जीव तथा ब्रह्म में व्यवहार दशा में भेद है जब कि पारमार्थिक रूप में अभेद। इस भेदाभेद-पक्ष को दृष्टि में रखकर ही यह टीका समग्र ग्रंथ पर उपलब्ध है। यह टीका न तो बहुत विस्तृत है, और न ही बहुत संक्षिप्त है। मूल भागवत के अनायास समझने के लिये यह टीका नितांत उपकारिणी है। निबांर्कीयों का मत भी अन्य वैष्णव संप्रदायों के समान मायावाद के विरुद्ध है। फलतः अद्वैती व्याख्याकार श्रीधर के मत का खंडन अनेक स्थलों पर बडी नोंक झोंक के साथ सिद्धान्तप्रदीप में किया गया है। भागवत 8-24-37 की व्याख्या में शुकदेव ने श्रीधर का खंडन मायावादी कहकर किया है। अष्टम स्कंध में वर्णित प्रलय, श्रीधर के मतानुसार मायिक है (भावार्थ-दीपिका 8-24-46) जब कि शुकदेव के मत से वास्तविक। द्वैताद्वैत का विवेचन टीका में यत्र तत्र उपलब्ध होता है। शुकदेव ने अपनी इस टीका में भागवत की व्याख्या बडी निष्ठा से तथा संप्रदायानुसार की है। इस टीकासंपत्ति के लिये, निंबार्क संप्रदाय प्रस्तुत सिद्धान्तप्रदीप के लेख का चिरऋणी रहेगा। सिद्धान्तप्रदीप के ही कारण विदित होता है कि निबार्क संप्रदाय के महनीय आचार्य केशव काश्मीरी ने भागवत की भी व्याख्या लिखी थी। कितने अंश पर लिखी, यह जानकारी नहीं मिल पाती, क्यों कि उनकी केवल वेदस्तुति की ही टीका सिद्धान्त प्रदीप में अक्षरशः संपूर्णतः उद्धृत की गई है। सिद्धान्तप्रदीप - आचार्य वल्लभ के ब्रह्मसूत्र- अणुभाष्य की मुरलीधरकृत टीका।। सिद्धान्तबिंदु (सिद्धान्ततत्त्वबिंदू)- ले.- मधुसूदन सरस्वती । कोटालपाडा (बंगाल) के निवासी। ई. 16 वीं शती । अद्वैतवेदान्त विषयक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं विद्वन्मान्य ग्रंथ। सिद्धान्तमुक्तावली- टीका- ले.-रामरुद्र तर्कवागीश । सिद्धान्तरहस्यम् - ले.- मथुरानाथ तर्कवागीश। सिद्धान्तराज- ले.- नित्यानन्द। ई. 17 वीं शती। सिद्धान्तशिखामणि- ले.- विश्वेश्वर। विषय- शैव तांत्रिक सिद्धान्त। सिद्धान्तशिरोमणि - ले.- भास्कराचार्य। ई. 12-13 वीं शती। ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथ। ज्योतिष शास्त्र का यह अत्यंत महत्त्व पूर्ण ग्रंथ है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 409 For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 2) ले.- मोहन मिश्र । सिद्धान्तशेखर- ले. विश्वनाथ। भास्कर के पुत्र । सिद्धान्तसम्राट् ले. जगन्नाथ ई. 18 वीं शती विषय - गणित शास्त्र । सिद्धान्तसार ले. जिनचन्द्र ई. 15 वीं शती । । 2) ले भावसेन वैविद्य जैनाचार्य ई. 13 वीं शती सिद्धान्तसारदीपक ले. सकलकीर्ति जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती । पिता - कर्णसिंह । माता- शोभा । 16 अधिकारों मे पूर्ण । सिद्धान्तसार - पद्धति ले. महाराज भोजदेव । विषय- सूर्यपूजा, नित्यकर्म, मुद्रा- लक्षण, प्रायश्चित्त, दीक्षा, साधक का अभिषेक, आचार्य का अभिषेक, पादप्रतिष्ठा, लिंगप्रतिष्ठा, द्वारप्रतिष्ठा, इत्यतिष्ठा, जीर्णोद्धार इत्यादि विधि सिद्धान्तसारसंग्रह ले. नरेन्द्रसेन जैनाचार्य ई. 12 वीं शती । सिद्धान्तसारावली - ले. त्रिलोचन शिवाचार्य । विषय- शैवतन्त्र के सिद्धान्त । - / - - सिद्धार्थचरितम्-ले. डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य रचना1967-69 के बीच। हिंसाप्रमत्त मानवता को गौतम बुद्ध द्वारा प्रचारित दर्शन का बोध कराने हेतु लिखित । अंकसंख्या आठ । नृत्य-गीतों से भरपूर प्राकृत का अभाव कुसुमलता, वैल्लिता, मधुमती, चलोर्मिका, शरागति, नन्दिता, नन्दिनी, वेणुमती, तरस्विनी, सूर्यनाद, नवशशिरुचि, जयन्तिका, यंत्रिणी, मन्दारिका, मंजरिका, काणिनी, रत्नद्युति, कन्दित, मधुक्षरा, नर्तन, सुरंजना, रसवल्लरी, सुलोचना, कुरंगमा आदि असाधारण छन्दों का प्रयोग लेखक ने किया है। विषय- गौतम बुद्ध की बाल्यावस्था से लेकर राहुल को भिक्षुत्व दीक्षा देने तक की कथावस्तु । - www.kobatirth.org सिद्धिखण्ड ले. विनायक । माता श्रीपार्वती। विषयआकर्षिणी, वशीकरण, मोहकारिणी, अमृत-संचारिणी आदि के मंत्र तथा उन मंत्रों के साधक द्रव्य आदि का निरूपण है। आठ उपदेशों (अध्यायों) में पूर्ण । सिद्धियम्ले यामुनाचार्य (तामिल नाम आलवंदार) । आत्मसिद्धि, ईश्वर-सिद्धि एवं संवित्-सिद्धि नामक 3 ग्रंथों का समुच्चय । अंतिम ग्रंथ में माया का खंडन तथा आत्मा के स्वरूप का विवेचन है। सिद्धिप्रियस्तोत्रम् - ले.- देवनन्दी पूज्यपाद । जैनाचार्य । ई. 5-6 वीं शती माता श्रीदेवी। पिता माधवभट्ट । सिद्धिविद्या रजस्वला-स्तोत्रश्यामारहस्य के अंतर्गत । श्लोक-2581 सिद्धिविनिश्चय- ले. अकलंक देव। न्यायशास्त्र का एक प्रकरण ग्रंथ । सिद्धिविनिशयटीका ले अनन्तवीर्य जैनाचार्य ई. 10-11 वीं शती । 410 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड I I सिद्धेश्वरतन्त्रम् - इस तन्त्र में जानकी सहस्रनाम स्तोत्र है । सिद्धेश्वरीपटल- श्लोक - 1531 हरिहरात्मक स्तव तथा वज्रसूचिकोपनिषद् भी इसमें सम्मिलित है। सिंहलविजयम् (नाटक) ले. सुदर्शनपति। 1951 में बेहरामपुर से प्रकाशित अंकसंख्या पांच अंक दृश्यों में विभाजित । उडिया गीतों का समावेश । उडीसा के वीरों द्वारा सिंहल पर विजय की कथा । ले. गोस्वामी शिवानन्द । पितामहसिंहसिद्धान्तसिन्धु गोस्वामी श्रीनिवास भट्ट । पिता गोस्वामी जगन्निवास । श्लोक- 13500। तरंग- 14 विषय प्रातः कृत्य, स्नान, सन्ध्या और तर्पण की विधि, सूर्यार्घ्यदान, शिवपूजा, ध्यान, आसन, पूजा द्रव्यों की शुद्धि, करशुद्धि, दिग्बन्धन, अग्निप्राकार का आश्रय, प्राणायामविधि, भूतशुद्धि प्राणप्रतिष्ठा, मातृकान्यास, उनके विविध भेदों का निर्देश, न्यासों के फल, स्वेष्टदेव के मंत्रों के ऋषि आदि, षडंगन्यास, योगविन्यास, मूलमंत्र के अंगभूत न्यासों का न्यसन, मुद्राप्रदर्शन, मुद्राओं के लक्षण, स्वेष्टदेव का ध्यान, अंतर्याग विधि, पूजा, चक्र और प्रतिमा के निर्माण का निरूपण, शालग्रामशिलाओं के लक्षण, पूजा के फल आदि । सिंहस्थपद्धति विषय बृहस्पति जब सिंह राशि में रहते है, तब गोदावरी में स्नान करने के पुण्य हेमाद्रि के ग्रंथ पर आधृत । सिंहासन द्वात्रिंशिंका संस्कृत कथासाहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रंथ जो सिंहासन द्वात्रिंशिंका, द्वात्रिंशत्पुत्तलिका अथवा विक्रमार्कनरित आदि नामों से विख्यात है। इस ग्रंथ में कुल 32 कथाएं है। इसके रचयिता कौन थे इसकी निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं, किन्तु इसका निर्माणकाल इ.स. 13 वीं शताब्दी या उसके बाद का रहा होगा, ऐसा विद्वानों का मत है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · इसके निर्माण के विषय में कथा इस प्रकार बताई जाती है : विक्रमादित्य राजा को इन्द्र ने एक सिंहासन भेंट किया जिस पर 32 पुतलियां थीं। विक्रमादित्य उस सिंहासन पर ही बैठा करते थे। अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने वह सिंहासन जमीन में गडवा दिया। कालांतर से उत्खनन में राजा भोज को वह सिंहासन मिला। वह उसे अपने उपयोग हेतु राजसभा में ले आया। सिंहासन पर आरूढ होने के लिये राजा भोज ने जैसे ही उसकी प्रथम सीढी पर कदम रखा वैसे ही एक पुतली ने उन्हें विक्रमादित्य की कहानी सुनाते हुए कहा- For Private and Personal Use Only 'यदि विक्रमादित्य जैसा शौर्य- धैर्य तुझमें होगा तो ही तू इस सिंहासन पर चढने का प्रयास कर" । इस प्रकार बत्तीस पुतलियों ने उसे विक्रमादित्य के शौर्य एवं अन्य गुणों को प्रकट करने वाली कथाएं सुनाई और हर पुतली कथा सुनाने के बाद उसे उक्त चेतावनी देती । परिणाम यह हुआ कि राजा भोज आखिर इस सिंहासन पर चढने का साहस नहीं कर Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सका और यह सिंहासन आकाश में उड गया। इस ग्रंथ के तथा सीता पुष्पक विमान में बैठ अयोध्या को प्रस्थान करते उत्तरी व दक्षिणी ऐसे दो भाग हैं। उत्तरी भाग के तीन अध्यायों हैं। अयोध्या में उनका राज्याभिषेक होता है। में एक गद्य रूप में है जिसके रचयिता क्षेमकर मुनि हैं। सीतारामदयालहरी - ले.- सीताराम शास्त्री। खण्ड काव्य । दूसरा बंगाली में है, और तीसरा लघु विवरणात्मक है। सीतारामविहारम् - ले.- लक्ष्मण सोमयाजी। पिता- ओरगंटी ___ हस्तलिखितों के आधार पर इन कथाओं के रचयिता शंकर। आंध्रवासी। कालिदास ही थे, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है किन्तु कुछ। सीतारामाभ्युदयम्-ले.- गोपालशास्त्री। ई. 19-20 वीं शती। विद्वान् नंदीश्वर यागी, सिद्धसेन दिवाकर तथा वररुचि को इसके सीतारामाविर्भावम् - ले.- नित्यानन्द। ई. 20 वीं शती। रचयिता मानते हैं। सीतारामदास ओंकारनाथ देव की जयंती पर अभिनीत । अंकसंख्या __इसकी अनेक कथाएं गुणाढ्य के कथासरित्सागर से ली गई हैं। तीन । प्रत्येक अंक का कथानक स्वतंत्र है। आंतरराष्ट्रीय सभ्यता सीताकल्याणम् (वीथी)- ले.- प्रधान वेंकप्प। ई. 18 वीं । और संस्कृति का आधुनिक नागरिक पर विषम प्रभाव विवेचित । शती। श्रीरामपुर के निवासी। इसकी प्रस्तावना में रूपक का कथासार- प्रथम अंक- षड्रिपुओं के साथ चर्चा करके राजा नाम पहेली द्वारा प्रस्तुत है। प्रारम्भ शुद्ध विष्कम्भक से, जब कलि विवेक को बंदी बनाता है. स्त्रियों को व्यभिचारिणी और कि शास्त्रतः वीथी में विष्कम्भक वर्जित है। विषय- श्रीराम-सीता ब्राह्मणों को लोभी बनने को उद्युक्त करता है। द्वितीय अंकपरिणय की कथा। श्यामलाल और गुणधर नामक नास्तिकों में धर्मविमुक्ति पर 2) ले.- वेंकटरामशास्त्री। सन् 1953 में प्रकाशित । अंकसंख्या- . वार्तालाप होता है, तब तक समाचार मिलता है कि किसी ने पांच। श्रीराम के जन्म से विवाह तक की घटनाएं वर्णित। गुणधर की पत्नी को मार कर सारी सम्पत्ति चुरा ली। तृतीय 3) ले.- प्रा. सुब्रह्मण्य सूरि। अंक - वैकुण्ठ में नारद और धर्म नारायण से कहते हैं कि सीताचम्पू- ले.- गुण्डुस्वामी शास्त्री । पृथ्वी लोक में धर्मग्लानि हो रही है। नारायण आश्वासन देते सीतादिव्यचरितम् - ले.- श्रीनिवास। ई. 17 वीं शती। है कि अब वे शीघ्र ही भारतवर्ष में अवतार ग्रहण करेंगे। सीता नेतृ-स्तुति- ले.- मंडपाक पार्वतीश्वर । ई.- 19 वीं शती। सीताविचारलहरी - अनुवादक- एन. गोपाल पिल्ले। सीतापरिणयम् -ले.- सूर्यनारायणाध्वरी । ई. 19-20 वीं शती। केरल-निवासी। मूल-मलयालम काव्य, (चिन्ताविष्टयाथ सीता) सीताराघवम्- ले.- रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती। कुमारन् आसनकृत। वंची मार्तड की पण्डितपरिषद् में प्रथम अभिनय। सन् सीताविजयचम्पू - ले.- घण्टावतार । 1956 ईसवी में मुख्य उत्सव में पद्मनाभ मन्दिर में अभिनीत। सीतास्वयंवरम् - ले.- कामराज। ई. 19-20 वीं शती। अंकसंख्या-सात। कथासार- विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण सीतोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। मिथिला पहुंचते हैं। एतदर्थ दशरथ से पहले ही अनुमति ले इसमें सीता के स्वरूप की चर्चा की गई है। इसमें बताया ली है। मारीच का शिष्य मायावसु वहां विघ्न डालने के लिए गया है कि सीता की उत्पत्ति ओंकार से हुई तथा वह ब्रह्मा दशरथ का रूप लेकर पहुंचता है। उसका सेवक कर्मम्भक की शक्ति व प्रकृतिस्वरूपा है वही व्यक्त प्रकृति को रूप प्रदान सुमन्त्र का रूप धारण करता है। परन्तु शतानन्द उन दोनों करती है। इस उपनिषद् में सीता शब्द के स.ई.ता इस प्रकार का कपट पहचानता है। धनुभंग के पश्चात् वे दोनों परशुराम तीन भाग बनाये गये हैं। 'स' यह सत्य व अमृत का प्रतीक से सहायता लेने चल देते हैं। रामादि चारों भाइयों का विवाह है, ईकार यह सर्व जगत् की बीजरूप विष्णु की योगमाया होने के पश्चात् राज्याभिषेक की तैयारी होती है। शूर्पणखा द्वारा अथवा अव्यक्त रूप महामाया है। ता अक्षर त् व्यंजन महालक्ष्मी नियोजित राक्षसी अयोमुखी मन्थरा का रूप धारण कर कैकेयी स्वरूप है, जो प्रकाशमय व सृष्टि का विस्तार करने वाले को उकसाती है और कैकेयी उसकी बातों में आ जाती है। शक्तिपुंज से ओतप्रोत है। इस प्रकार सीता के तीन स्वरूप राम-सीता तथा लक्ष्मण के साथ वन चले जाते हैं। फिर माने गये हैं। उसका प्रथम रूप शब्दब्रह्मरूप व बुद्धिरूप है। मारीच का मरण, सीता का हरण, वालि की मृत्यु इ. घटनाओं दूसरा रूप सगण है जिसमें वह राजा सीरध्वज की कन्या के के बाद मायावसु चारण का रूप धारण कर बताता है कि रूप में प्रकट होती है, और तीसरा रूप महामाया का है, रावण ने सीता का वध किया, इन्द्रजित् ने हनुमान् को मार जिस रूप में वह जगत् का विस्तार करती है। डाला और अंगद प्रायोपवेशन करके मर गया। इतने में सुकुमारचरितम् - ले.- सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं दधिमुख आकर सूचनावार्ता देता है कि हनुमान् सफल होकर शती। पिता- कर्णसिंह। माता- शोभा। 9 सर्ग। लौटे हैं। मायावसु लज्जित होकर भाग जाता है। सुकृत्यप्रकाश - ले.- ज्वालानाथ मिश्र। विषय- आचार, बाद में राम-रावण युद्ध में रावण की मृत्यु होती है। राम अशौच, श्राद्ध एवं असत्परिग्रह (दुर्जन लोगों से दान ग्रहण) । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /411 For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सखलेखनम् - ले.- भरत मल्लिक। ई. 17 वीं शती। संस्कृत रचना हेतु सुबोध मार्गदर्शिका । सुखावतीव्यूह - महायानी बौद्धों का एक सूत्र ग्रंथ। इसमें अमिताभ बुद्ध की महिमा गायी गई है। इस सूत्र के दो संस्करण उपलब्ध हैं जिनमें एक बडा व दूसरा छोटा है। दोनों में काफी भिन्नता के बावजूद दोनों संस्करणों में अमिताभ बुद्ध के सुखावती नामक स्वर्ग की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। सुगतिसोपान - ले.- गणेश्वर मंत्री। देवादित्य के पुत्र। यह चण्डेश्वर के चाचा थे। लेखक ने अपने को महाराजाधिराज कहा है और लिखा है कि वह देवादित्य सांधि-विग्रहिक (अपने पिता) से सहायता पाता था। ई. 14 वीं शताब्दी के प्रथम चरण के लगभग प्रणीत ।। सुगन्धदशमीकथा - ले.- श्रुतसागरसूरि। जैनाचार्य। ई. 16 वीं शती। सुग्रीवतंत्रम् (विषतंत्र) - योगरत्नावली का आकर ग्रंथ। सुग्रीववशीकरणविद्या - विषय- मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन आदि के संबंध में सुग्रीव तथा अन्य देवताओं के मंत्र। सुजनमनःकुमुदचन्द्रिका - अनुवादक- तिग्मकवि। मूल रसिकजनमनोभिराम नामक तेलगु कथासंग्रह तिग्मकवि के पितामह द्वारा लिखित। विषय- शिवभक्ति का महत्त्व। सुज्ञानदुर्गोदय - ले.- विश्वेश्वर, (गागाभट्ट)। दिनकर भट्ट के पुत्र । विषय- 16 संस्कार। 1675 ई. के लगभग प्रणीत । सुदर्शनकालप्रभा - ले.- रामेश्वरशास्त्री। सुदर्शनचक्रम् - रुद्रयामलान्तर्गत । श्लोक- 110। सुदर्शनचरितम् - ले.- सकलकीर्ति। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। पिता- कर्णसिंह माता- शोभा। 8 सर्ग। जैनमुनि सुदर्शन का चरित्र। सुदर्शनचरित - ले.- विद्यानन्दी। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। 1362 श्लोक। सुदर्शनभाष्यम् - आपस्तम्ब-गृह्यसूत्र पर सुदर्शनाचार्य की टीका। भट्टोजी के चतुर्विंशति व्याख्यान में तथा निर्णयसिंधु में वर्णित । रचना- 1550 ई. के पूर्व । टीका अनाविला, ब्रह्मविद्यातीर्थ द्वारा लिखित। सुदर्शनमीमांसा - ले.- धानुष्कयज्वा। ई. 13 वीं शती। सुदर्शनसंहिता - उमा-महेश्वर- संवाद रूप। पूर्व और उत्तर खण्डों में विभक्त। उत्तर खण्ड में श्लोक- 2689। पटल-12 विषय-1-2 पटलों में राज्यप्राप्ति, विजयप्राप्ति, वशीकरण आदि के विषय में मंत्रोद्धार आदि का निरूपण। तीसरे में दत्तात्रेय, हनुमान् तथा सुदर्शन के मंत्रों का निरूपण। 4 थे में पूजाविधि, मंत्र, संध्या आदि, अन्तर्यागविधि। 5 वें में विषय रूप से बहिर्याग विधि का प्रतिपादन, 6 वें में वर्ण, चक्र, न्यास आदि का निरूपण। 7 वें पटल में कवच, न्यास आदि का निरूपण। 8 वें में विविध प्रकार के भिन्न-भिन्न मंत्रों का निरूपण, मंत्र सिद्धि का लक्षण तथा उसके उपायों का प्रतिपादन। 9 वें में जप, होम, तर्पण, मार्जन, तथा ब्राह्मणभोजन रूप पंचाग पुरश्चरण का विस्तार। 10 वें पटल में दूसरे के चक्र के निवारण के लिए उपाय कथन। 11 वें में विजयपताका यंत्र निरूपणपूर्वक कवच के परिमाण आदि का निरूपण एवं 12 वें पटल में दीपदान, महादीपदान, रक्षा न्यास आदि की विधियां वर्णित हैं। सुदर्शना (तंत्रराज की व्याख्या) ले.- प्रेमनिधि पंत । श्लोक66821 सुदामचरितम् - ले.-श्रीनिवास । सुधर्मा - संस्कृतभाषा का यह (तीसरा) दैनिक पत्र, जुलाई 1970 से वरदराज अयंगार के सम्पादकत्व में (561, रामचन्द्र अग्रहार) मैसूर से प्रकाशित किया जा रहा है। इसका वार्षिक मूल्य 24 रु. है। इस पत्र में सरल संस्कृत में देश-विदेश के संक्षिप्त समाचारों के अलावा धार्मिक व वैज्ञानिक निबन्ध तथा बाल साहित्य का प्रकाशन किया जाता है। सुधर्माविलास - ले.- बघेलखण्ड के अधिपति रघुराजसिंह । 88 पृष्ठों में प्रकाशित। इसमें 17 उल्लास और 850 श्लोक हैं। यह मूलतः दर्शन-ग्रंथ है। सुधाक्षरी (उपन्यास) - ले.- प्रधान वेंकप्प। श्रीरामपुर के निवासी। सुधातरंगिणी - ले.-शक्तिवल्लभ भट्टाचार्य। सुधालहरी - (पीयूषलहरी या गंगालहरी) ले.- जगन्नाथ पण्डितराज। ई. 16-17 वीं शती। पिता- पेरुभट्ट। विषयगंगास्तुति। अत्यंत लोकप्रिय स्तोत्र । सुधाविलोचनम् - ले.-वैदिकसार्वभौम । सुनीतिकुसुममाला - अनुवादक- अप्पा बाजपेयी। मूल-तमिल कवि तिरुवल्वार का तिरुक्कुरल काव्य। के.व्ही. सुब्रह्मण्य शास्त्री की टीका सहित ई. 1927 में प्रकाशित । सुन्दरदामोदरम् - ले.-लोलम्बराज । सुन्दरप्रकाश शब्दार्णव - ले.- पद्मसुन्दर । यह एक शब्दकोष है। सुन्दरकल्प - सुन्दरी देवी की पूजा पर यह तांत्रिक निबन्ध है। सुन्दरीपद्धति - श्लोक- 612। सुन्दरीपूजारत्नम् - ले.-श्रीबुद्धिराज। पिता- व्रजराज दीक्षित । नानाविध सम्मत तंत्रों का अवगाहन कर यह त्रिपुरार्चन की विधि शकाब्द 1843 में रची गई। सुन्दरीमहोदय (या त्रिपुरसुन्दरीमहोदय) - ले.-शंकरानन्दनाथ कविमण्डल शम्भु। गुरु- रामानन्दनाथ (या रामानन्द सरस्वती) उल्लास- 5) श्लोक 3000। ज्ञानार्णव से संबद्ध विषय दीक्षाविधि, उपोद्धात, न्यासादि खण्ड, नित्य पूजाविधि, विविध 412 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1924 से कुछ समय तक पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने के बाद इसका स्वरूप पुनः मासिक हो गया, और लगभग दस वर्षों तक इसका प्रकाशन होता रहा। इसका वार्षिक मूल्य दो रु. था और प्रकाशन स्थल- सुप्रभात कार्यालय ढेढी नीम काशी था। प्रारंभ में इसके संपादक देवीप्रसाद शुक्ल थे किन्तु उनके निधन के बाद उनके पुत्र गिरीश शर्मा इसका संपादन करने लगे। चार वर्षों बाद संपादन का दायित्व केदारनाथ शर्मा सारस्वत ने निभाया। इसमें उच्च कोटि के विद्वानों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। इसके कुछ उल्लेखनीय विशेषांक भी प्रकाशित हुए। सुप्रभातस्तोत्रम् (उषःकालीन बुद्धस्तोत्र) - ले.- सम्राट हर्षवर्धन । जीवन में बौद्ध मत स्वीकृति के पश्चात् अन्तिम दिनों में रचित भगवान् बुद्ध की 24 श्लोकों में प्रशंसा । तिथियां इ.। सुन्दरीमहोदयार्चनपद्धति - श्लोक- 1000। सुन्दरीयजनक्रम - ले.-सच्चिदानन्दनाथ (रामचंद्र भट्ट) श्लोक30001 सुन्दरीरहस्यवृत्ति - ले.-रत्ननाभागमाचार्य। पितामह- मुकुन्द । पिता- नारायण। पटल- 101 विषय- त्रिपुरा की पूजा का सविस्तर वर्णन। सुन्दरीशक्तिदानस्तोत्रम्- आदिनाथ महाकाल द्वारा विरचित महाकालसंहिता के अन्तर्गत काली-काल संवादरूप यह सुन्दरीशक्तिदान नामक कालीस्वरूप मेघासाम्राज्य स्तोत्र है। श्लोक- 5001 विषय- काली की स्तुति । सुन्दरीशक्तिदानाख्य-कालिकासहस्रनाम - सुन्दरीसपर्या - ले.-सभारंजक रामभट्ट। गुरु-श्रीकृष्ण भट्ट। सुपद्मव्याकरणम् - ले.- हृषीकेश भट्टाचार्य। मैथिल पण्डित । यह पद्मनाभ रचित व्याकरण पर टिप्पणीसहित भाष्य है। इसमें शास्त्रीय और लौकिक व्याकरण पद्धति का समन्वय किया है। इस टीका से सुपद्म व्याकरण को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। सप्रकाश-तत्त्वार्थदीप-निबंध - इस ग्रंथ में पांच लेखकों के निबंधों का संग्रह किया गया है। उनका विषय है भागवत की प्रमाणता तथा महापुराणता के विषय में किए जाने वाले संदेहों का निराकरण। निबंध (1) श्रीमद्भागवतस्वरूप विषयक शंकानिरासवादः लेखक- पुरुषोत्तम गोस्वामी (2) श्रीमद्भागवतप्रमाणभास्कर लेखक- अज्ञात। (3) दुर्जनमुखचपेटिका- लेखक गंगाधरभट्ट । इस पर गंगाधर भट्ट के पुत्र कन्हैयालाल ने प्रहस्तिका नामक व्याख्या लिखी है। दुर्जनमुखचपेटिका नामक अन्य एक निबंध रामचंद्राश्रम ने लिखा है। (4) श्रीमद्भागवतनिर्णयसिद्धान्त- लेखक- दामोदर। (5) श्रीमद्भागवताविजयवाद। लेखक- रामकृष्ण भट्ट। वल्लभ सम्प्रदाय में भागवत की मान्यता अत्यधिक है। अतः उसकी प्रमाणता तथा महापुराणता के विषय में प्रस्तुत किये जाने वाले संदेहों का निराकरण विद्वानों ने बड़ी निष्ठा तथा दृढता से किया है। प्रस्तुत कृति भी इसी विषय के लघुकलेवर ग्रंथों में से एक है। इसके लेखक हैं पुरुषोत्तम गोस्वामी। इसमें भागवत के अष्टादश पुराणों के अंतर्गत होने के मत का प्रतिपादन तथा विरुद्ध मत का निरसन किया गया है। इसी प्रकार के 5 अन्य लघु ग्रंथों के साथ इसका प्रकाशन 'सप्रकाशतत्त्वार्थ-दीप-निबंध' के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट के रूप में किया गया है। प्रकाशन मुंबई में। 1943 ई.। सुप्रभा - ले.-अनन्त। पिता सिद्धेश्वर। विषय- गोविन्द के कुण्डमार्तण्ड नामक ग्रंथ पर एक टीका । 1692 में लिखित । सुप्रभातम् - वाराणसी से सन 1923 में इस पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह अ.भा. साहित्य सम्मेलन का मुख्य पत्र था। सुप्रभातस्वयंवरम्(रूपक) - ले.-डॉ. वीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य। कलकत्ता निवासी। सुप्रभा तथा अष्टावक्र की महाभारतीय प्रणयकथा वर्णित। सुप्रभेदप्रतिष्ठातन्त्रम् - श्लोक- 300। इसके चर्या, ज्ञान और क्रिया नाम के तीन पाद हैं। विषय- बलिस्थापन आदि । सुबर्थतत्त्वालोक- ले.-विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन। विषयव्याकरण शास्त्र। सुबोधसंस्कृत-लोकमान्य-तिलक-चरितम्- ले.-कृष्ण वामन चितले। सुबोधा - ले.- भरत मल्लिक। ई. 17 वीं शती। इसी एक मात्र नाम से लेखक ने रघुवंश, मेघदूत, नैषधीयचरित, शिशुपालवध, कुमारसम्भव, किरातार्जुनीयम् तथा गीतगोविन्द पर सुबोध टीकाएं लिखी हैं। सुबोधिनी- (भागवत की टीका) ले. महाप्रभु वल्लभचार्य। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक। सुबोधिनी संपूर्ण भागवत पर उपलब्ध नहीं। उपलब्ध है केवल प्रथम, द्वितीय, तृतीय, दशम एवं एकादश (पंचम अध्याय के चतुर्थ श्लोक तक) स्कंधों के उपर ही। सुबोधिनी के गंभीर अनुशीलन से ही अन्य स्कंधों पर भी व्याख्या लिखने का संकेत मिल सकता है। यह टीका बडी विशद, विशाल एवं विविध प्रमेय बहुल है। शुद्धाद्वैत के सिद्धान्तों का भागवत के श्लोकों द्वारा समर्थन एवं पुष्टीकरण ही सुबोधिनी का मुख्य उद्देश्य है। यह बड़ी ही गंभीर एवं विवेचनात्मक व्याख्या है। सुबोधिनी की विशिष्टता उसकी अंतरंग परीक्षा से स्पष्ट होती है। श्रीधर ने प्रत्येक स्कंध के आरंभ में उसके मूल विषय का निरूपण किया है, तो वल्लभाचार्य ने किया है उसका विपुल विस्तार। यही नहीं, स्कंधों में निर्दिष्ट अवांतर प्रकरणों का भी बडी गंभीरता से इसमें अध्यायपूर्वक निर्देश किया गया है। सुबोधिनी के अनुसार भागवत के स्कंधों का संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/413 For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ई. 17 वीं शती। यह टीका वल्लभाचार्यजी की सुबोधिनी के भावार्थ को स्पष्ट करने हेतु विरचित है। आचार्य ने सुबोधिनी में श्रीधर के मत का उल्लेख, खंडन के निमित्त केवल संकेत ही से किया है, किन्तु सुबोधिनीप्रकाश के लेखक ने नामोल्लेखपूर्वक बडी कठोरता से किया है। वल्लभाचार्यजी विष्णुस्वामी के संप्रदाय के अंतर्मुख होकर गोपाल के उपासक थे- इसका पता लेखक ने दिया है। श्रीधर “पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽ भिनेदुः" भाग- 2-2) की व्याख्या में "पुत्रेति" पद में संधि आर्ष मानते हैं जब कि पुरुषोत्तमजी का कहना है कि संधि, विरह के कारण कातरता का द्योतक होने से स्वाभाविक है, आर्ष नहीं। फलतः श्रीधर का यह कथन भूल है। (अत्र संधेरार्षत्वं वदतः श्रीधरस्य विरहकातरपद-तात्पर्याज्ञानमित्यर्थः)। इतनी भर्त्सना करने पर भी भागवत के अध्यायों की संख्या के विषय में वे श्रीधर का मत मानते हैं कि भागवत के अध्यायों की संख्या 332 ही है ("द्वात्रिंशत् त्रिशतं") प्रस्तुत टीका बडी पांडित्यपूर्ण है तथा सांप्रदायिक मान्यता की अभिव्यक्ति सर्वथा है। पुरुषोत्तम जी वल्लभाचार्य की 7 वीं पीढी में हुए। तात्पर्य इस प्रकार है- प्रथम स्कंध का विषय है अधिकारी निरूपण, द्वितीय का साधन, तृतीय का सर्ग, चतुर्थ का विसर्ग, पंचम का स्थान (स्थिति), षष्ठ का पोषण (भगवान् का अनुग्रह ("पोषणं तदनुग्रहः" भाग 2-10-4) सप्तम का ऊति (कर्मवासना), अष्टम का मन्वंतर, नवम का ईशानुकथा, दशम का निरोध, एकादश का मुक्ति तथा द्वादशी का आश्रय (परब्रह्म, परमात्मा)। दशम की विशुद्धि के लिये, आदिम नव तत्त्वों का लक्षण किया गया है। (दशमस्य विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् 2-10-2) इन तत्त्वों का बडी गंभीरता से समग्रतया निरूपण करना, सुबोधिनी का वैशिष्ट्य है। प्रतीत होता है कि आचार्य वल्लभ की “सुबोधिनी" मूलतः पूर्ण ही थी, परंतु आचार्य के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी के पश्चात् गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर परिवार में उत्पन्न विवाद और अव्यवस्था के कारण यह ग्रंथ खंडित हो गया। आचार्य वल्लभ के पूर्ववर्ती आचार्यों ने केवल वेद, गीता और ब्रह्मसूत्र पर ही भाष्य लिखे थे। आचार्य ने इस प्रस्थानत्रयी को अपूर्ण समझ कर भागवत पर प्रस्तुत टीका और भागवत को "चतुर्थ प्रस्थान" बताया। सुबोधिनी- ले.-विश्वेश्वर भट्ट (गागाभट्ट) । मिताक्षरा पर टीका। व्यवहार प्रकरण एवं अनुवाद घारपुरे द्वारा प्रकाशित । 2) ले.- महादेव। 3) ले.- संजीवेश्वर के पुत्र रत्नपाणि शर्मा। यह मिथिला के नरेश रुद्रसिंह के आदेश से लिखित। यह दस संस्कारों, श्राद्ध एवं आह्निक पर एक स्मृतिनिबन्ध है। 4) (त्रिंशत्श्लोकी की एक टीका) ले.- कमलाकर के पुत्र अनन्त। 1610-1660 ई.। 5) (होरापद्धति) ले.- अनन्तदेव । विषय- नवग्रहों की शान्ति । 6) (प्रयोगपद्धति) ले.- शिवराम। विश्राम के पुत्र। सामवेद के विद्यार्थियों के लिए अपने कृत्यचिन्तामणि का उल्लेख किया है। लगभग 1640 ई.। 7) ले.- नीलकण्ठ। ई. 16 वीं शती। जैमिनि के मीमांसा सूत्रों की टीका। 8) (शब्दाशक्तिप्रकाश की टीका) ले.- रामभद्र सिद्धान्तवागीश । 9) ले.- अभिनव रामभद्राश्रम । संन्यासी । रघूत्तमाश्रम के शिष्य । सुबोधिनी- टीका ग्रंथ। ले.- श्रीधर स्वामी। ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध)। सुबोधिनी-टिपण्णी - ले.- गोसाई विट्ठलनाथ। वल्लभाचार्य के सुपुत्र । पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ ने "सुबोधिनी" का प्रणयन किया। इसका विषय है श्रीमद्भागवत की टीका एवं कारिकाएं, जो केवल प्रथम, द्वितीय, तृतीय, दशम तथा एकादश स्कंधों पर उपलब्ध होती है। उसी की यह टिप्पणी है। सुबोधिनीप्रकाश- (भागवत की टीका) लेखक- पुरुषोत्तमजी। सुबोधिनी-प्रयोगपद्धति - काशी संस्कृतमाला में प्रकाशित । (कृष्णयजुर्वेदीया एवं सामवेदीया) सुभग-सुलोचनाचरितम् - ले.-वादिचन्द्रसूरि गुजरातनिवासी। ई. 10 वीं शती। सुभगार्चनपद्धति - श्लोक- 1000। सुभगाचरितम् - ले.-रामचंद्र । श्लोक- 500। तरंग-8। सुभगोदय टीका - ले.-लक्ष्मीधर। सुभगोदयदर्पण - ले.- श्रीनिवास राजयोगीश्वर । विषय- शक्ति की पूजा। सुभगोदयस्तुति (टीका) - शंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्यकृत। श्लोक- लगभग 250। सुभद्रा (नाटिका) - ले.-हस्तिमल्ल। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। पिता- गोविन्दभट्ट। चार अंक। सुभद्राधनंजयम् (नाटक) - ले.-गुरुराम। ई. 16 वीं शती। मूलेन्द्र (तमिलनाडू) के निवासी। सुभद्रापरिणयम् (नाटक) - ले.-वेंकटाध्वरी। केवल दो अंक उपलब्ध। सुभद्रापरिणयम् (नाटिका) - ले.- नल्ला दीक्षित (भूमिनाथ) ई. 17 वीं शती। प्रथम अभिनय मध्यार्जुन प्रभु की यात्रा के अवसर पर । पांच अंकों का नाटक। शार्दूलविक्रीडित और वसन्ततिलका वृत्तों की बहुलता। अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण तथा विवाह की कथा। (रघुनाथाचार्य और रामदेव ने भी सुभद्रापरिणय नामक नाटक लिखे हैं। 414 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समखी-पंचागम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत। श्लोक 4401 विषय- इसमें पंच अंगों में सुमुखी स्तोत्र नहीं है। शेष चारसुमुखी कल्प, सुमुखीकवच, सुमुखी सहस्रनाम तथा सुमुखीहृदय सुभद्राहरणम् - ले.-नारायण। पिता- ब्रह्मदत्त। 20 सर्गयुक्त महाकाव्य। अन्य रचना धातुकाव्यम् है जिसमें धातुपाठ के उदाहरण हैं। सुभद्राहरणम् - ले.-माधवभट्ट। ई. 16 वीं शती। श्रीगदित कोटि का उपलब्ध एकमेव एकांकी उपरूपक। प्रथम अभिनय श्रीपर्वत पर श्रीकण्ठ के प्रीत्यर्थ। प्रधान रस शृंगार। हास्य और वीर अंगभूत रस के रूप में। कथासार - वसन्तोत्सव मनाने सखियों के साथ उपवन गई हुई सुभद्रा का अर्जुन हरण करते हैं। राजा उग्रसेन अर्जुन पर आक्रमण करने का आदेश देते हैं परंतु श्रीकृष्ण बात सम्हाल लेते हैं और दोनों का परिणय करा देते हैं। काव्यमाला में 1888 ई. में प्रकाशित । चौखम्बा विद्याभवन से 1962 में पुनः प्रकाशित। सुभद्राहरणम् (एकांकी) - ले.- ताम्पूरन (केरलवासी) ई. 19 वीं शती। सुभद्राहरणम् (काव्य) - ले.-हेमचन्द्रराय कविभूषण। (जन्म 1882 ई.)। सुभद्राहरण-चम्पू - ले.नारायण भट्टपाद । सुभाषचन्द्र बोस चरितम् - ले.-वि.के. छत्रे। कल्याण-निवासी। 16 सर्गयुक्त महाकाव्य। सुभाषचन्द्रोदयम् - ले.- राजनारायण प्रसाद मिश्र (नूतन) दिल्लीनिवासी। अनुवादक- डॉ. शम्भुशरण शुक्ल। 1987 में प्रकाशित। सुभाषसुभाषम् (नाटक) - ले.-यतीन्द्रविमल चौधुरी। नेताजी सुभाष द्वारा विदेश जाकर भारत की स्वतन्त्रता हेतु शक्ति संघटन की कथा। आजाद हिन्द सेना, झांसी-रानी वाहिनी आदि का चित्रण। भारतीय वीरता के गौरव का वर्णन। अंकसंख्या छः। सुभाषितकौस्तुभ - ले.-वेंकटाध्वरी । सुभाषित-रत्न-भाण्डागारम्- संपादक काशीनाथ पाण्डुरंग परबपणशीकर शास्त्री द्वारा सुधारित प्राचीन कवियों के सुभाषितों का बृहत्तम संग्रह। इसकी आठ आवृत्तियां अभी तक प्रकाशित हो चुकी हैं। सुभाषितरत्नसंदोह - ले.-अमितगति (द्वितीय) ई. 10-11 वीं शती। जैनाचार्य। सुभाषितशतकम् - ले. रंगनाथाचार्य। पिता- कृष्णम्माचार्य। सुमुखीपटलम् - रुद्रयामल से उद्धृत। विषय- उच्छिष्टमातंगी, बगलामुखी तथा श्रीविद्या की पूजा । सुमतीन्द्रजयघोषणा - ले.-वेंकटनारायण। इस काव्य में कवि के गुरु, विद्वान् जैन मुनि सुमतीन्द्र भिक्षु का चरित्र वर्णन है। गुरु- तंजावर अधिपति शहाजी राजा की सभा में थे। सुरखोत्सवम्- ले.-सोमेश्वर दत्त। ई. 13 वीं शती। सुरभारती - सन 1959 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालयीन संस्कृत महाविद्यालय की मुखपत्रिका के रूप में इस हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन हुआ। सम्पादक-विश्वनाथ शास्त्री थे। कुल दो सौ पृष्ठों वाली इस पत्रिका में रेखा-चित्र, प्राध्यापकों के निबन्ध एवं छात्रों की रचनाएं प्रकाशित होती थी। इसकी केवल पाच प्रतियाँ ही निकलती थीं। अर्थाभाव के कारण इसका मुद्रण संभव नहीं हो पाया। ___"सुरभारती" नाम से एक अन्य पत्रिका 1962 में बडोदा से प्रकाशित हुई जो वटोदर संस्कृत महाविद्यालय की मुखपत्रिका है। पचास पृष्ठों की इस पत्रिका में छात्रों और प्राध्यापकों की रचनाएं प्रकाशित होती हैं। सुरभारती - 1947 में श्री गोविन्दवल्लभ शास्त्री के सम्पादकत्व में, 116 भुलेश्वर (मुंबई) से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। बत्तीस पृष्ठों वाली इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य चार रुपये था। सुरेन्द्रचरितम् - ले.- शिवराम । इस काव्य का वर्ण्य विषय रामचरित्रान्तर्गत “अहिल्योद्धार" है। सुरेन्द्रसंहिता - उमा-महेश्वर संवादरूप। 14 पटलों में पूर्ण । विषय- श्यामला के विभिन्न मन्त्र और उनकी पूजा का प्रतिपादन । सुलतानचरितम् - ले.-छज्जूरामजी। दिल्ली निवासी। काव्य अनुप्रासयुक्त तथा कल्पकतापूर्ण है। सुवर्णातन्त्रम् - शिव-परशुराम संवादरूप। खण्ड-2। पटल17 में पूर्ण। श्लोक 3681 विषय- तांबे और पारे को सुवर्ण बनाने की विधि। सुवर्णप्रभासूत्रम् - ले.-अज्ञात। यह महायानसूत्र बौद्ध जगत् में भारत तथा बौद्धधर्मी अन्य देशों में विशेष लोकप्रिय है। इस में तथागत के धर्मकाय की प्रतिष्ठापना है, यह ग्रंथ मूल रूप से शरद्शास्त्री तथा शरद्दास बहादुर द्वारा प्रकाशित है। जपान से बी. नांजियों द्वारा 1931 में प्रकाशित। 15 परिवर्त विद्यमान, जब कि राजेन्द्रलाल मित्र ने 21 परिवर्तों की सूची दी है। प्रथम परिवर्त में कौण्डिन्य को सर्वलोकप्रिय प्रियदर्शन का उत्तर है जिसमें बुद्ध धर्मकाय होने की चर्चा है। अन्य सुभाषित-सुधानिधि - ले.-सायणाचार्य। ई. 13 वीं शती । विविध विषयान्तर्गत सुभाषितों का संग्रह। सुमतिशतकम् - अनुवादक- चिट्टीगुडूर वरदाचारियर। मूल तेलगु काव्य। सुमनोंजलि - (सिद्धान्तकौमुदी की टीका) ले. तिरुमल द्वादशाहयाजी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /415 For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिवर्तों में आचारशास्त्र , शून्यतासिद्धान्त आदि विषय चर्चित सूक्तिरत्नावली- अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रतिदिन है। 18 परितो का प्राचीनतम चीनी अनुवाद 415-426 ई. छपने वाले सुभाषितों का संस्कृत अनुवाद। 100 श्लोक। में धर्मरक्ष द्वारा संपन्न हुआ। इसके पश्चात् अनेक अनुवादों अनुवाद कर्ता प्र.दा.पण्डित, वकील जलगांव (महाराष्ट्र)। में ग्रंथ का आकार बृहत् होता गया। इस में महायान सम्प्रदाय सूक्तिसंग्रह - ले.-कुमारमणि भट्ट। ई. 18 वीं शती। के दार्शनिक सिद्धान्त अभिव्यक्त हैं। जापान में अधिपति शोकोतु सूक्तिसुन्दर - सुन्दरदेव कवि द्वारा संकलित सुभाषित संग्रह । ने इस ग्रंथ की प्रतिष्ठापना के लिये एक भव्य बौद्ध मंदिर बनाया है। ई. 17 वीं शती। इस में तत्कालीन कवियों के सुभाषित प्रभूत सुलेमच्चरितम् - ले.-श्रीकल्याणमल्ल तोमर। ग्वालियर के मात्रा में संकलित हैं। अकबर, निजामशाह, शाहजहान जैसे तोमर राजवंशीय राजा कल्याण सिंह से अभिन्न । प्रस्तुत रचना यवन राजाओं के स्तुतिपर श्लोक इनकी विशेषता है। अकबरीय की पाण्डुलिपि- गव्हर्नमेंट ओरिएण्टल मेन्युस्क्रिप्ट लायब्रेरी मद्रास कालिदास नामक कवि की अकबरस्तुति इस में समाविष्ट है में उपलब्ध है। रचना में चार पटल तथा 571 पद्य हैं। कवि जिसमें कही कहीं संस्कृत रचना में उर्दू शब्द प्रयोग भी दिखाई ने इस रचना में हजरत सुलेमान का चरित्र चित्रित किया है। देते हैं। प्रस्तुत काव्य के प्रथम पटल के क्रमांक 2 से 13 तक के सूक्तिसुधा - सन 1903 में वाराणसी से भवानीप्रसाद शर्मा पद्यों में कल्याणमल्ल को अनंगरंग के पश्चात् प्रस्तुत रचना के सम्पादकत्व में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ करने की आज्ञा का विवरण है। इससे अनंगरंग तथा सुलेमच्चरित हुआ। इसके संरक्षक महामहोपाध्याय गंगाधर शास्त्री तैलंग के कर्ता श्रीकल्याणमल्ल सिद्ध होते हैं। श्री हरिहरनिवास द्विवेदी थे। पत्रिका का वार्षिक मूल्य 3 रुपये था। इसका प्रकाशन ने 'ग्वालियर के तोमर' नामक ग्रंथ में उक्त कवि कल्याणमल्ल दो वर्षों तक हुआ। इस पत्रिका में अर्वाचीन काव्य, नाटक, को कल्याणसिंह तोमर से अभिन्न माना है। चम्पू, अष्टक, दशक,शतक, गीति, तथा दार्शनिक निबन्ध एवं सुशीला(उपन्यास) - ले.- आइ. कृष्णम्माचार्य। परवस्तु समस्यापूर्ति का प्रकाशन किया गया। रंगाचार्य के पुत्र । हिन्दु स्त्री का आदर्श जीवन चित्रित। सूतकनिर्णय - ले.-भट्टोजी। लक्ष्मीधर के पुत्र । सुश्रुतम् (या सुश्रुतसंहिता) - ले.-सुश्रुताचार्य । गुरु- दिवोदास।। सूतकसिद्धान्त - ले.-देवयाज्ञिक। पाणिनि ने 'सौश्रुतपार्थिवा' का निर्देश किया है। सुश्रुत शस्त्रवैद्य सूत्रधार मंडन कृत वास्तुशास्त्र विषयक ग्रंथ- (मुद्रित) थे। इस संहिता के पांच भाग (या स्थान) हैं- (1) सूत्रस्थान, देवतामूर्ति-प्रकरण, वास्तुराजवल्लभ, प्रसादमंडन, रूपमंडन (2) निदानस्थान, (3) शारीरस्थान, (4) चिकित्सास्थान और (5) कल्पस्थान । उत्तरस्थान सहित संहिता को वृद्धसुश्रुत कहते (अमुद्रित), वास्तुशास्त्र, वास्तुमंडन, वास्तुसार और वास्तुमंजरी। हैं। लघुसुश्रुत नामक तीसरा पाठ भी प्रचलित है। शल्यतंत्र सूत्रप्रकाश- अप्पय दीक्षित। पाणिनीय सूत्रों की व्याख्या । एवं त्वचारोपण इस ग्रंथ के विशिष्ट विषय हैं। सूत्रभाष्यम् - ले.-मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। द्वैत मत सुश्लोकलाघवम् - ले.- विठोबा अण्णा दप्तरदार। ई. 19 विषयक ग्रंथ। वीं शती। लेखक के श्लेषप्रधान सुभाषितों का संग्रह। महाराष्ट्र सूत्रवाङ्मयदर्शनम् - स्वर्गीय भारतरत्न महामहोपाध्याय डॉ. के कीर्तनकारों में विशेष प्रचलित । पांडुरंग वामन काणेजी के 103 वें जन्मदिन निमित्त भाण्डारकर सुषमा - ले.-गौरीप्रसाद झाला। सेन्ट झेवियर महाविद्यालय, .. प्राच्यविद्या संशोधन मंदिर द्वारा प्रकाशित। इस पुस्तक का (मुंबई) के संस्कृताध्यापक। स्फुट काव्यसंग्रह । संपादन, देववाणी मंदिर (मुंबई) के संचालक श्री. भि. वेलणकर ने किया है। 75 पृष्ठों के इस पुस्तक में महाराष्ट्र के ख्यातनाम सुहल्लेख - ले.-नागार्जुन। मूल संस्कृत विलुप्त। तिब्बती 15 विद्वानों के अन्यान्य विषयों के सूत्रवाङ्मय पर अभ्यासपूर्ण अनुवाद उपलब्ध । लेखक ने अपने सुहद् यज्ञश्री सातवाहन संस्कृत निबंधों का संकलन किया है। सन 1982 में प्रकाशित । को परमार्थ तथा व्यवहार की नैतिक शिक्षा इस पत्र द्वारा दी है। ईत्सिंग द्वारा भूरि प्रशंसित। उनके अनुसार इस रचना का सूत्रालंकारवृत्तिभाष्यम् - ले.- स्थिरमति। ई. 4 थी शती। अध्ययन समूचे भारत में होता था। अश्वघोष के सूत्रालंकार की वृत्ति पर भाष्य । सिल्वां लेवी द्वारा सूक्तिमुक्तावली - पुरुषोत्तम द्वारा संकलित । ई. 12 वीं शती। संपादित तथा प्रकाशित। सूक्तिमुक्तावली - ले.-गोकुलनाथ। ई. 17 वीं शती। सूनृतवादिनी - सन 1906 में विद्यावाचस्पति आप्पाशास्त्री सुक्तिमुक्तावली - ले.-विश्वनाथ सिद्धान्त पंचानन। ई. 18 वीं राशिवडेकर के सम्पादकत्व में कोल्हापुर से इस साप्ताहिक शती। पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका प्रकाशन प्रति शनिवार, सूक्तिरत्नाकर - ले.- शेषनारायण, (व्याकरण- महाभाष्य की संस्कृत चन्द्रिका कार्यालय कोल्हापुर से होता था। 1909 तक प्रौढ व्याख्या)। यह नियमित रूप से प्रकाशित होती रही। चार पृष्ठों के इस 416/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साप्ताहिक पत्रिका का मूल्य वार्षिक तीन रुपये था। समाचारों सूर्यादि-पंचायतन-प्रतिष्ठापद्धति - ले.-दिवाकर। भारद्वाज के अतिरिक्त धार्मिक, सामाजिक और अन्य सामयिक निबधों महादेव के पुत्र। विषय- सूर्य, शिव, गणेश, दुर्गा एवं विष्णु का भी इसमें प्रकाशन होता था। राजनैतिक कुचक्र और की मूर्तियों की स्थापना । धनाभाव के कारण आगे सन 1913 में आप्पाशास्त्री की मृत्यु सूर्यार्घ्यदानपद्धति - ले.-माधव (या महादेव) रामेश्वर के के बाद इसका प्रकाशन स्थगित हो गया। इस पत्रिका का पुत्र । ई. 16 वीं शती। आदर्श श्लोक यह था सूर्योदय- सन 1926 में भारत-धर्ममहामण्डल (वाराणसी) द्वारा "शिवपदसरसीरुहैकभृङ्गी इस मासिक पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। कुछ समय के प्रियतम-भारत-धर्मजीवितेयम् । लिये इसका स्वरूप पाक्षिक था जिसका संपादन गोविन्द नरहरि मदयतु सुधियां मनांसि कामं वैजापुरकर ने दीर्घकाल तक किया। इसका वार्षिक मूल्य 5 चिरमिह सूनृतवादिनी सृवृत्तैः ।। रुपये था। प्रायः 30 वर्षों तक इस का प्रकाशन नियमित सूरसंक्रान्तिदीपिका - ले.-जयनारायण तर्कपंचानन । होता था। विभिन्न कालखण्डों में इसका संपादन विन्ध्येश्वरीप्रसाद सूर्यपंचांगम्- रुद्रयामल के अन्तर्गत भैरव-भैरवी संवाद रूप।। शास्त्री, अन्नदाचरण तर्क-चूडामणि, पंचानन तर्करन भट्टाचार्य श्लोक 612। विषय- श्री सूर्यदेव-पटल, श्रीसूर्यदेव-पूजापद्धति, और शशिभूषण भट्टाचार्य ने किया। इस पत्रिका को काशीनरेश श्रीसूर्यदेव-सहस्रनाम, श्रीसूर्यदेव-कवच तथा श्रीसूर्यदेव-स्तवराज। से आर्थिक सहायता उपलब्ध होती थी। सूर्यपटलम् - रुद्रयामलान्तर्गत । भैरव-भैरवी संवादरूप। श्लोक सूर्योदयकाव्यम् (अपरनाम खंडेश्वरी-लीलाविलासम्) - 110। विषय- कौलमतानुसार सूर्यदेव की पूजा। दो पटल हैं- ले.- हरि कवि। यह एक चम्पूकाव्य है जिसमे ज्ञानराज और प्रथम में सूर्यदेव के मंत्र और उनके विनियोग के नियम हैं अंबिका का पुत्र सूर्यसूरि का परिचय कवि ने दिया है। हरि और दूसरे पटल में (जो गद्यमय है) सूर्यपूजा पद्धति है। के पिता का नाम था अनन्त । सूर्य सूरि के चरित्र से यह सूर्यप्रकाश - ले.-हरिसामन्तराज। पिता- कष्ण। यह धर्मशास्त्र ज्ञात होता है कि उसके दादा विज्ञानेश्वर ही उसके गुरु थे। पर एक बृहत् निबन्ध है।। प्रस्तुत चम्पू में विज्ञानेश्वर और उनकी पत्नी सरस्वती के संवाद सूर्यप्रार्थना - ले.-विद्याधर शास्त्री। जयपुर निवासी। में सूर्यसूरि का चरित्र बताया गया है। बीड (महाराष्ट्र) के सुलतान अहमद के अत्याचार से आत्मरक्षा करने के लिए सूर्यशतकम् - ले.- मयूर। बाणभट्ट के श्यालक तथा मित्र। सूर्य सूरि ने अमावस्या के रात्रि में चंद्रप्रकाश प्रकट किया स्तोत्र में सूर्य की आभा, गोल, किरण, रथ, सारथि आदि था, यह अद्भुत घटना काव्य में बताई गई है। खण्डेश्वरी का वर्णन तथा रोगनिवारण शक्ति का स्तवन है। सूर्य के सूर्यसूरि की उपास्य देवता थी जिसका मंदिर चम्पावती (आधुनिक सर्वोच्च देवता होने का वर्णन है। अभिनवगुप्त तथा मम्मट नाम बीड) नगर में विद्यमान है। उस्मानिया विश्व विद्यालय द्वारा इसका उल्ख किया गया है। मयूराष्टकम् के आठ श्लोकों के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. प्रमोद गणेश लाले ने प्रस्तुत में स्त्रीसौन्दर्य की आभा तथा चित्ताकर्षण का वर्णन है। विद्वानों चम्पू काव्य की पांडुलिपि आंध्र प्रदेश मराठी साहित्य परिषद् "का मत है कि वह स्वयं मयूर की कन्या का वर्णन है। से प्राप्त की और उसका प्रकाशन नवरसमंजरी ग्रंथ के साथ सूर्यशतक के टीकाकार - (1) त्रिभुवन पाल, (2) यज्ञेश्वर एक ही ग्रंथ में सन 1979 में किया। (3) गंगाधर, (4) बालंभट्ट, (5) हरिवंश, (6) गोपीनाथ, सुवर्णसूत्रम्- ले.-पुरुषोत्तमजी। वल्लभाचार्य से 6 वीं पीढी (7) जगन्नाथ, (8) रामभट्ट, (9) रामचन्द्र। कुछ अज्ञात के वैष्णव आचार्य। आचार्य वल्लभ के पुत्र गोसाई विट्ठलनाथ टीकाकार भी हैं। द्वारा लिखित "विद्वन्मण्डन" की यह पांडित्यपूर्ण विवृत्ति है। सूर्यशतक नामक अन्य काव्य - (2) ले.-धर्मसूरि। ई. सेतु- ले.-भट्टाचार्य। निंबार्क सम्प्रदायी देवाचार्य के सर्वश्रेष्ठ 15 वीं शती। (3) ले.- पं. शिवदत्त त्रिपाठी। (4) ले.-प्रधान ग्रंथ "सिद्धान्तजाह्नवी" पर उनके शिष्य का विस्तृत व्याख्यान । वेंकप्प। (5) ले.-म.म. रामावतार शर्मा। वाराणसीनिवासी। इसका प्रथम तरंग चतुःसूत्री तक प्राप्त तथा मुद्रित। शेष भाग (6) ले.- गोपाल शर्मा । (7) ले.-श्रीधर विद्यालंकार । (8) अभी तक अप्राप्य है। ले.-राघवेन्द्र सरस्वती । (9) लिंग कवि। (10) कोदण्डरामय्या। सेतुबन्ध - ले.-भासुरानन्दनाथ दीक्षित (उपनाम भास्करराम) सूर्यसिद्धान्तसारिणी - ले.-चिन्तामणि दीक्षित। पिता- गंभीरराम भारती दीक्षित । वामकेश्वर तंत्रान्तर्गत नित्याषोडसूर्यस्तव - (1) ले.-हनुमान् (2) उपमन्यु (3) (अपरनाम शिका की टीका। श्लोक- 8126। आठ विश्रामों में पूर्ण । साम्बपंचाशिका) ले. साम्बकवि। ई.9 वीं शती। इस पर ग्रंथकार कहते हैं- जो लोग नित्याषोडशिका रूप महासागर को क्षेमराज (या राजानक) की टीका है। क्षेमराज ने नारायण पार करना चाहें, वे आठ विश्रामों से युक्त सेतुबन्ध का सहारा कृत स्तवचिन्तामणि पर भी टीका लिखी है। अवश्य लें। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/417 For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेवन्तिका-परिणयम् (नाटक) -ले.- चोक्कनाथ। ई. 17 वीं शती। बसव भूपाल को उपायन रूप में समर्पित शृंगारप्रधान नाटक। केलदि के राजा बसव भूपाल और सेवन्तिका के प्रणय की कथा। सोमनाथीयम् - सोमनाथ भट्ट। पिता- सुरभट्ट। सोमराजस्तव - ले.- जयन्तकृष्ण हरिकृष्ण दवे। संस्कृत विश्वपरिषद् के कार्यवाह । सोमनाथ प्रतिष्ठापन प्रसंग पर रचित 40 श्लोकों का शिवस्तोत्र । भारतीय विद्याभवन द्वारा आङ्ग्लानुवाद सहित मुद्रित । सौंदरनंदम् (महाकाव्य)- ले.-अश्वघोष। इसमें बुद्ध के बंधु नंद के बौद्धधर्म मे दीक्षित होने की कथा वर्णित है। सौन्दर्यलहरी (या आनन्दलहरी) - सटीक । श्रीशंकराचार्यकृत शक्ति की स्तुती। श्लोक- 101 या 103 । टीका सौभाग्यवर्धिनी कैवल्याश्रम यति कृत। सौन्दर्यलहरी की व्याख्याएं - (क) सुधाविद्योतिनी, अरिजित् विरचित। श्लोक 11501 सुधाद्योतिनीकार ने सौन्दर्यलहरी का कर्ता प्रवरसेन को माना है। अन्य लोगों ने सौन्दर्यलहरी का कर्ता शंकराचार्य को ही माना है। ख) लक्ष्मीधराभिधा) लक्ष्मीधर विरचित) श्लोक- 32751 सौपद्यरामायणम्- परंपरानुसार अत्रि ऋषि ने रैवत मन्वंतर के 16 वें त्रेतायुग में इसकी रचना की। इसमें कुल 62 हजार श्लोक हैं जो सप्तसोपानबद्ध हैं। इनमें जन-वाटिकावर्णन, नगरदर्शन, मैथिली स्त्रियों के प्रेम, बालकप्रेम, सीताविवाह, उसकी बिदाई, रावण द्वारा अपहत किये जाने पर सीता-विलाप, रामविलाप, शबरीचरित्र, सुग्रीव से मित्रता' आदि विषयों का विवेचन है। सौभद्रम् - मूल किर्लोस्कर कृत "संगीत-सौभद्र' नामक मराठी नाटक। अनुवादक श्री.भि.वेलणकर। मुंबई में इसके अनेक लोकप्रिय प्रयोग हुए। सौभाग्यकल्पद्रुम - ले.- अच्युत । (2) ले.- माधवानन्द नाथ। श्लोक-40001 विषय- दैनिक पूजाविधि का सविस्तर वर्णन । सौभाग्यकल्पद्रुम-टीकासौरभम्- ले.- क्षेमानन्द । श्लोक-21501 सौभाग्यकल्पलता- ले.- क्षेमानन्द। श्लोक- 12001 सौभाग्यकल्पलतिका- ले.- क्षेमानन्दनाथ। श्लोक-15001 पटल (स्तबक) 8 में पूर्ण। विषय- प्रातःस्मरण, स्नान, कालिक संध्या, जप, भूतशुद्धि, आदि पांच सामान्य मन्त्रों के न्यास, पाठ, मंत्रजप, देवतापूजन, स्तोत्र, कवच, प्रायश्चित्त देवतात्मैक्यानुसन्धान इ.। सौभाग्यगद्यवल्लरी-ले.- निजात्मप्रकाशानन्द (मल्लिकार्जुन योगीन्द्र)। श्लोक- लगभग- 290। सौभाग्यतन्त्रम्- श्लोक- 300 । पटल-11 | विषय- जपसमय, मंत्र के पारायण का लक्षण, षोडशांग विधान में उक्त बीजतत्त्व कथन आदि। पारायण के भेद, विद्यामन्त्रों के पारायण काल निर्देश, नामपारायण, तन्त्रपारायण, हंसपारायण चक्रपारायण, रमापारायण और आम्नाय पारायण के लक्षण। सौभाग्यतरंगिणी- ले.- मुकुन्द । चार लहरियों में पूर्ण । विषयत्रिपुरसुन्दरीपूजा का प्रतिपादन। सौभाग्यभास्कर- ले.- भास्करराय । ई. 18 वीं शती । तन्त्रविषयक ग्रंथ। यह ललितासहस्रनाम का भाष्य है। सौभाग्यमहोदयनाटकम् - ले.- जगन्नाथ। ई. 17 वीं शती। काठियावाड के आशुकवि। भावनगरनरेश बखतसिंह का सभासदवर्ग इस नाटक में चित्रित किया है। सौभाग्यरत्नाकर- ले.- विद्यानन्दनाथ। गुरु-सच्चिदानन्दनाथ । तरंग 36 में पूर्ण। विषय- त्रिपुरा जापद्धति । सौभाग्यरहस्यम्- ले.- विद्यानन्दनाथ। गुरु- सच्चिदानन्द । ज्ञानार्णव से संकलित। सौभाग्यवर्द्धिनी- ले.- कैवल्याश्रम। गुरु-गोविन्दाश्रम । आनन्दलहरी की व्याख्या। सौभाग्यसुधोदयम्- ले.- विद्यानन्दनाथ। गुरु-सचिदानन्दनाथ। श्लोक-600 (2) ले.- अमृतानन्द योगिप्रवर। गुरु-पुण्यानन्दनाथ । श्लोक-175 | विषय- सौभाग्यलहरी (देवीस्तुति) की यह व्याख्या सौभाग्यसुभगोदयम्- ले.- अमृतानन्दनाथ । सौम्यसोमम् (नाटक)- ले.- श्रीनिवास शास्त्री। ई. 19 वीं शती। प्रथम अभिनय कुम्भकोणम् में शिव-दोलामहोत्सव के अवसर पर। कथावस्तु-दैत्यों के अत्याचारों का दमन करने के लिए षडानन का जन्म और उसके द्वारा उनका विनाश करके इन्द्र का पूर्वैश्वर्य पाना। अंकसंख्या-पांच। लम्बे संवाद, अतिदीर्घ वर्णन तथा लम्बी एकोक्तियां इसमें हैं। सौरकल्पविधि- श्लोक- 5001 सौरपौराणिकतासमर्थनम्- ले.- नीलकंठ चतुर्धर। पितागोविंद। माता-फुल्लाबिका। ई. 17 वीं शती। सौरसंहिता- शिव-कार्तिकेय संवादरूप। मौलिक तन्त्र ग्रंथ । पटल- 10 में पूर्ण। श्लोक-5501 विषय- यह तन्त्र, अन्य ग्रंथों के समान शिव या शक्ति का प्रतिपादन न कर सूर्य का प्रतिपादक है। सौरार्यब्रह्मपक्षीय-तिथिगणितम् । ले.- व्यंकटेश बापूजी केतकर। सौर्यरामायणम्- रूढ परंपरानुसार इसकी रचना वैवस्वत मन्वन्तुर के 20 वें त्रेतायुग में की गई। इसमें कुल 62 हजार श्लोक हैं। इसमें हनुमान्-सूर्य संवाद, हनुमान् का जन्म, शुकचरित्र, शुक रजक होने के कारण, अंजनी-हनुमान्-संवाद, सीतामिलन, 418 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org राममिलन, राम-लक्ष्मण-सोता की प्रशंसा, जाम्बवंत की शौर्य गाथा आदि का समावेश है। सौहार्दरामायणम्- रूढ परंपरानुसार वैवस्वत मन्वंतर के नवम त्रेतायुग में शरभंग नामक ऋषि ने इसकी रचना की। इसमें कुल 40 हजार श्लोक हैं जिनमें दण्डकारण्य की उत्पत्ति, उसे मिला शाप, राम का दण्डकारण्य गमनोद्देश्य, शूर्पणखा का आगमन, खर-दूषण से युद्ध, रावणमारीच संवाद, कांचनमृग के लिये सीता का हठ, सीता हरण, जटायु युद्ध, रामविलाप, पशुपक्षियों वानरों से संवाद आदि विषयों का समावेश है। स्कन्दपुराणम् - अठारह पुराणों में से एक। यह आकार में सबसे बड़ा है। इसकी श्लोक संख्या 81 हजार है। इसके दो संस्करण उपलब्ध हैं। खंड परम्परा में माहेश्वर, वैष्णव, ब्रह्म, काशी, रेवा, तापी व प्रभास ये सात खंड हैं। इस पुराण के निर्माण विषयक जानकारी प्रभासखंड में बताई है। तदनुसार प्राचीन काल में कैलास शिखर पर शंकर ने पार्वती और ब्रह्मादि देवताओं को स्कंद पुराण सुनाया। बाद में पार्वती ने उसे स्कंद को, स्कंद ने नंदी को, नंदी ने दत्त को, दत्त ने व्यास को और व्यास ने सूत को सुनाया। संहिता परम्परा में सनत्कुमार, सूत, शंकर, वैष्णव, बाह्य तथा सौर संहिताएं हैं। इनमें सूतसंहिता, शिवोपासना विषयक स्वतंत्र ग्रंथ ही है । इसके पूर्वार्ध के तांत्रिक विषयक भाग पर माधवाचार्य ने तात्पर्यदीपिका नामक टीका लिखी है। सूतसंहिता के चार खण्ड हैं- (1) शिव-माहात्म्यखंड, (2) ज्ञानयोगखंड, (3) मुक्तिखंड और (4) यज्ञवैभवखंड। इनमें यज्ञवैभवखंड सर्वाधिक बडा है जिसके पूर्व भाग में 47 अध्याय और उत्तर भाग में 20 अध्याय हैं। उत्तर भाग के प्रथम 12 अध्यायों में ब्रह्मगीता का समावेश है। ज्ञानयोग खंड में हठयोग का विशेष निरूपण है । खण्ड परम्परा में माहेश्वर खंड के दो भाग हैं- केदार खंड और कौमारिका खंड केदारखंड में लिंगमाहात्य, समुद्रमंथन, वृत्रासुरवध, शिवगौरीविवाह, कार्तिकेयजन्म, शिवपार्वती की द्यूत-क्रीडा तथा कौमारिका खंड में महीसागर के संगम का महत्त्व, अप्सराओं का उद्धार, पार्वतीजन्म, सोमनाथ की महत्ता, कौरवपाण्डवयुद्ध, महिषासुरवध, सीताहरण, छावारूप सीता आदि कथाएं हैं। वैष्णवखंड में जगन्नाथ क्षेत्र का महत्त्व, बदरिकाश्रम, तुलसीविवाह, एकादशी, भागवत, वैशाख, अयोध्या, लक्ष्मीनारायण वासुदेव आदि की महत्ता बतलायी गई है। ब्रह्मोत्तर खंड में उज्जयिनी के महाकाल, गोकर्ण क्षेत्र एवं शिवरात्रि व्रत का माहात्म्य, सीमंतिनी व भद्रायु के आख्यान हैं। प्रभासखंड में प्रभास व सोमनाथ क्षेत्र का महत्त्व, रेवाखंड में नर्मदा की उत्पत्ति और उसके तटवर्ती तीर्थक्षेत्रों की जानकारी दी गई है। इस पुराण की रचना इ.स. 7 वीं शताब्दी से 9 वीं शताब्दी के बीच होने का अनुमान विद्वानों द्वारा लगाया गया है। इ.स. 17 वीं शताब्दी में शंकरसंहिता का तामिल भाषा में अनुवाद 1 किया गया। स्कन्दसद्भव- शिवप्रोक्त। श्लोक- 1300 । अध्याय- 18 । प्रमुख विषय- स्कन्द की उत्पत्ति की कथा । इसमें प्रथम अध्याय में शास्त्रसंग्रह हैं, द्वितीय में उत्पत्ति, तृतीय में तन्लोद्धार, चतुर्थ में पूजाविधि, पंचम में अग्निकार्य, षष्ठ में दीक्षाविधि, सप्तम में आचार आदि विषय वर्णित हैं। स्कन्दानुष्ठानसंग्रह इसके लेखक क्रियासंग्रहकार के पौत्र हैं। श्लोक- 4775 | विषय - स्कन्द की पूजा का सविस्तर वर्णन । स्तवकदम्ब - ले. रघुनन्दन गोस्वामी । ई. 18 वीं शती । स्तवचिन्तामणि- (वृत्तिसहित)- मूलकार- भट्टनारायण । वृत्तिकार क्षेमराज विषय- शैव तन्त्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तुतिकुसुमांजलि ले. जगदरभट्ट शैवाचार्य 38 स्तोत्रों का संग्रह । श्लोकसंख्या- 1425। - | - स्तुतिमालिका ले तिरुवेंकट तातादेशिक नेलोर निवासी। स्तुतिमुक्तावली ले. पं. तेजोभानु ई. 20 वीं शती । स्तुतिस्त्रटीका ले परमहंस पूर्णानन्द विषय ककारादि क्रम से पढे गये काली के सहस्र नामों के अर्थ । स्तोत्रकदम्ब ले. प्रा. कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री। स्तोत्रमाला ले. शितिकण्ठ । स्तोत्र रखम् (अपरनाम आलवंदारस्तोत्रम्) ले. आलवंदार ( यामुनाचार्य) यामुनाचार्य के ग्रंथों में यही सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। इस स्तोत्र में 70 पद्य हैं जिनमें भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण के सिद्धान्त का मनोरम वर्णन है। इस स्तोत्र के सरस पद्यों में कविहृदय की भक्ति भावना कूट-कूट कर भरी प्रतीत होती है। विनयपरक सुललित पद्यों के कारण, यह स्तोत्र, वैष्णव समाज में स्तोत्रम् के नाम से विख्यात है। - For Private and Personal Use Only - या 1 स्थललक्षणम्-ले विश्वकर्मा बंगाल में शांतिनिकेतन के विश्वभारती ग्रंथालय में सुरक्षित विषय शिल्पशास्त्र । स्थालीपाकप्रयोग- ले. कमलाकर। (2) ले. नारायण। स्वानविधिसूत्र परिशिष्टम् (अपरनाम स्त्रानसूत्र त्रिकाण्डिकासूत्र) ले. कात्यायन इस पर निम्ननिर्दिष्ट टीकाएँ लिखी है (1) स्नानसूत्रपद्धति कर्कद्वारा (2) खानसूत्रदीपिका, महादेव के पुत्र गोपनाथ द्वारा टीका की टीका- कृष्णनाथ द्वारा । ( 3 ) छाग- याज्ञिकचक्रचूडाचिन्तामणि द्वारा । (4) त्रिमल्लतनय (केशव) द्वारा (5) महादेव द्विवेदी द्वारा। (6) स्नानपद्धति या स्नानविधिपद्धति, याज्ञिक देव द्वारा। (7) खानसूत्रपद्धति हरिजीवन मिश्र द्वारा (लेखक का कथन है कि उसने इस ग्रंथ में अपने भाष्य का आधार लिया है) (8) स्नानव्याख्या एवं पद्धति, अग्निहोत्री हरिहर द्वारा । स्नुषा - विजयम् (एकांकी रूपक) ले सुन्दरराज (जन्म 1841 मृत्यु 1905 ई. में) कथावस्तु उत्पाद्य । समस्याप्रधान । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 419 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुशील पति-पत्नी, समझदार श्वशुर परन्तु दुष्ट सास व ननद की कथा । पात्रों के नाम गुणानुसार हैं यथा- सास दुराशा, ननद दुर्ललित, अशुर सुशील, पति सुगुण तथा बहू सच्चरित्र नायिका सच्चरित्र सदैव पर्दे की आड में उसकी मानसिक प्रतिक्रियाएं अन्य व्यक्तियों के संवादों द्वारा प्रतीत होती हैं । I स्त्रीधर्मकमलाकर- ले. कमलाकरभट्ट । स्त्रीधर्मपद्धति- ले. त्र्यंबक । स्त्रीपुनरुद्वाह-खण्डनमालिका- ले. राघवेन्द्र । स्त्रीमुक्ति- ले. शाकटायन पाल्यकीर्ति जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती । विषय स्त्रियों की मरणोत्तर मुक्ति संभव है या नहीं। स्त्रीवशीकरणम् श्लोक- लगभग 262| स्त्रीविलास ले. देवेश्वर उपाध्याय । स्पन्दकारिका (नामान्तर-स्पन्दसूत्र ) - ले. वसुगुप्त । उत्पल वैष्णव के मतानुसार वसुगुप्त से उपदेश प्राप्त कर कल्लट ने इसकी रचना की। स्पन्दकारिका - विवरणम् - ले. राजानक रामकण्ठ । स्पन्दनिर्णय ले क्षेमराज श्लोक 800 1 स्पन्दप्रदीप- ले. विद्योपासक भट्टारक स्वामी । स्पन्दप्रदीपिका ले. उत्पलदेव । - www.kobatirth.org स्पन्दशास्त्रम् - काश्मीर में प्रचलित शैवमत की एक शाखा । वसुगुप्त की स्पंदकारिका पर से इस शाखा का नाम स्पंदशास्त्र पडा । वसुगुप्त के शिष्य कल्लट इस शास्त्र के प्रथम आचार्य थे। उन्होंने उक्त ग्रंथ पर "स्पंदसर्वस्व" नामक टीका लिखी। यह एक अद्वैतवादी शास्त्र है जिसमें परमेश्वर पूर्ण स्वतंत्र तथा सर्वशक्तिमान् माना गया है जो अपनी इच्छाशक्ति से जगत् की उत्पत्ति करता है। आईने में जिस प्रकार प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, उसी प्रकार परमेश्वर में भी सृष्टि का आभास होता है और प्रतिबिम्ब की भांति ही परमेशवर सदा अस्पृष्ट होता है । स्पन्दसन्दोह ले क्षेमराज । स्पन्दसर्वस्वम् ले कल्लट । - । स्पन्दसूत्रम् (या शिवसूत्र) सटिप्पण- ले. वसुगुप्त । टिप्पण के निर्माता अज्ञात | - स्फोटवाद ले. नागेशभट्ट । व्याकरण का दर्शनशास्त्रीय विवरण | स्फोटसिद्धि - ले. मंडनमिश्र । ई. 7 वीं शती (उत्तरार्ध) । विषय- वैयाकरणों का दर्शनशास्त्र । - स्मरदीपिका- ले. रुद्र विषय कामशास्त्र । (2) ले.मीननाथ। ई. 10 वीं शती । स्मार्तसमुच्चय-ले. - नन्दपण्डित । देवशर्मा के पुत्र । इन्होंने दत्तक-मीमांसा को अपना ग्रन्थ कहा है। स्मार्तप्रायश्चित्तविनिर्णय- ले. वेंकटाचार्य । 420 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मार्तगंगाधरी- ले. गंगाधर । स्मार्तव्यवस्थार्णव- ले. रघुनाथ सार्वभौम । मधुरेश के पुत्र । 1661 62 ई. में राजा रत्नेश्वरराय के आदेश से प्रणीत तिथि, संक्रान्ति, आशौच, द्रव्यशुद्धि, अधिकारी, प्रायश्चित्त, उद्वाह एवं दाय नामक प्रकरणों में विभक्त । स्मार्तप्रायचित्तप्रयोग (या प्रायश्चित्तोद्धार) ले. दिवाकर काले। पिता- महादेव। यह कमलाकरभट्ट के बहन के पुत्र थे। समय- 17 वीं शती । - स्मार्तस्फुटपद्धति - ले. नारायण दीक्षित । स्मार्ताधानपद्धति- पीताम्बर । काश्यपाचार्य के पुत्र । ई. 17 वीं शती । स्मार्तमार्तण्ड प्रयोग- ले. मार्तण्ड सोमयाजी । स्मार्तप्रायश्चित्तोद्धार- ( अपरनाम - स्मार्त-प्रायश्चित्तप्रयोग या प्रायश्चित्तोद्धार । ले. दिवाकर। स्मार्तप्रयोग ले. बोपण्णभट्ट । स्मार्तप्रायश्चित्तम्- ले. तिप्याट्ट पिता रामभट्ट । स्मार्तप्रयोग (हिरण्यकेशीय)- टीका वैजयन्ती । स्मार्तपदार्थानुक्रमणिका- ले. द्वैपायनाचार्य स्मार्तानुष्ठानपद्धति- ले. अनन्तभट्ट । विश्वनाथ के पुत्र । इसे अन्तभट्टी भी कहा गया है। आश्वलायन के आधार पर लिखित । । स्मार्तोल्लास- ले.- शिवप्रसाद । श्रीनिवास के पुत्र | पुष्करपुरनिवासी मदनरल, टोडरानन्द का उल्लेख है। 1580 1680 ई. के बीच में रचित विषय आधानकाल, मुहूर्तविचार, अग्निहोत्री के कर्तव्यों एवं रजस्वला धर्म इत्यादि । स्मार्तसमुच्चय-ले. नंदपंडित । ई. 16-17 वीं शती । स्मृति- ले. शंकर मिश्र । ई. 15 वीं शती । स्मृतिकदम्ब ले केचे येल्लुभट्ट - स्मृतिकल्पद्रुम ले. ईश्वरनाथ शुक्ल टीका लेखकद्वारा । - - स्मृतिकोशदीपिका- ले. तिम्मण भट्ट। केवल आह्निक पर। स्मृतिकौमुदी - ले. रामकृष्ण भट्टाचार्य । - (2) ले. देवनाथ ठकुर विषय चातुर्वर्ण्य के आचार, आह्निक संस्कार, श्राद्ध, अशौच, दायभाग, व्रत, दान एवं उत्सर्ग। यह निबन्ध ग्रंथ है। - I (3) ले. - मदनपाल । इसे शूद्रधर्मोत्पलद्योतिनी भी कहते हैं। स्मृतिकौस्तुभ ले. अनंतदेव ई. 17 वीं शती पिता- आपदेव । 12 दीधितियों में विभक्त । (2) ले. वेंकटाद्रि । स्मृतिग्रन्थराज ले सार्वभौम । For Private and Personal Use Only स्मृतिचन्द्र- ले. भवदेव न्यायालंकार । हरिहर के पुत्र । 1720-22 ई. में प्रणीत 16 कलाओं में विभाजित यथा- तिथि, व्रत, संस्कार, आह्निक, श्राद्ध, आचार, प्रतिष्ठा, वृषोत्सर्ग, परीक्षा, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रायश्चित्त, व्यवहार, गृहयज्ञ, वेश्मभू, मलिम्लुच दान एवं शुद्धि । श्रीदत्त एवं संवत्सरप्रदीप का उल्लेख है । यह रघुनन्दन का अनुकरण है। स्मृति-चंद्रिका ले. देवण्णभट्ट (नामांतर देवनंद या देवगण) ई. 13 वीं शती । पिता- सौमयाजी केशवादित्य भट्ट । राज-धर्म संबंधी एक निबंध-ग्रंथ। यह ग्रंथ संस्कृत निबंध साहित्य में अत्यंत मूल्यवान निधि के रूप में स्वीकृत है। इसका विभाजन कांडों में हुआ है, जिसके 5 कांडों की ही जानकारी प्राप्त होती है। इन कांडों को संस्कार, आह्निक, व्यवहार, श्राद्ध व शौच कहा जाता है। इस ग्रंथ में राजनीति शास्त्र को धर्म-शास्त्र का अंग माना गया है। और उसे धर्म शास्त्र के ही अंतर्गत स्थान दिया गया है। धर्म शास्त्र द्वारा स्थापित मान्यताओं की पुष्टि के लिये, इस ग्रंथ में यत्र-तत्र धर्म - शास्त्र, रामायण व पुराण के उद्धरण भी अंकित किये गये है। इस ग्रंथ में, मामा की पुत्री से विवाह करने का विधान है। इस आधार पर डॉ. श्यामशास्त्री, प्रस्तुत ग्रंथ के प्रणेता को आंध्रप्रदेश का निवासी मानते है। मैसूर शासन द्वारा प्रकाशित । (2) ले. राजचूडामणि दीक्षित। ई. 17 वीं शती । (3) ले. वामदेव भट्टाचार्य । (4) ले. वैदिकसार्वभौम । (5) ले. शुकदेव मिश्र । विठ्ठल मिश्र के पुत्र । विषयतिथिनिर्णय, शुद्धि, अशौच, व्यवहार। स्मृतिचन्द्रोदय - ले. गणेशभट्ट । स्मृतितत्त्वनिर्णय ( या व्यवस्थार्णवः) ले रामभद्र पिताश्रीनाथ आचार्यचूडामणि । समय- 1500-1550 ई. स्मृतितत्त्वामृतम् ले. महामहोपाध्याय वर्धमान भवेश एवं गौरी के पुत्र । अन्तिम पद्यों में वर्धमान का कथन है कि उन्होंने आचार, श्राद्ध, शुद्धि एवं व्यवहार पर चार कुसुम लिखे है अतः स्युतितत्त्वविवेक एवं स्मृतितत्त्वामृत दोनों एक ही है। यह मिथिलानरेश भैरवेन्द्र के पुत्र राम के आदेश से लिखा गया है। स्मृतितत्त्वविवेक ले. महामहोपाध्याय वर्धमान भवेश एवं गौरी के पुत्र एवं मिथिला नरेश भैरवेन्द्र की राजसभा के न्यायमूर्ति थे। समय लगभग 1450-1500 ई. । विषय- आचार, श्राद्ध, शुद्धि एवं व्यवहार पर । I - स्मृतितत्त्वम्- ले. रघुनन्दन। इसमें 28 तत्त्व नामक प्रकरण है। स्मृतिनवनीतम्-ले. वृषभाद्रिनाथ पिता नरसिंह रामचन्द्र एवं श्रीनिवास के शिष्य । स्मृतिनिबन्ध ले नृसिंहभट्ट विषय- धर्मलक्षण, वर्णाश्रम धर्म, विवाहादिसंस्कार, सापिण्डय, आह्निक, अशीच श्रद्ध दायभाग तथा प्रायश्चित्त । धर्मशास्त्रका एक बृहत् निबन्ध । स्मृतिदीपिका- ले. वामदेव उपाध्याय । विषय श्राद्ध एवं अन्य कृत्यों के काल । स्मृतिदुर्गभंजनम्- ले.- चंद्रशेखर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृतिपरिभाषा - ले. वर्धमान महामहोपाध्याय । ई. 15 वीं शती । स्मृतिप्रकाश ले वासुदेव रथ विषय कालनिरूपण, संवत्सर, संक्रांति इ । माधवाचार्य एवं विद्याकर वाजपेयी का उल्लेख है। रचना - 1500 ई. के पश्चात् । स्मृतिप्रकाश ले. भास्करभट्ट या हरिभास्कर आप्पाजिभट्ट के पुत्र । स्मृतिप्रदीप- ले. चन्द्रशेखर महामहोपाध्याय । विषय- तिथि, अशीच, आद्ध, इ. - - स्मृतिभास्कर ले. नीलकण्ठ आरम्भिक श्लोकों से पता चलता है कि यह नीलकण्ठ का शान्तिमयूख ग्रंथ है। स्मृतिभूषणम्- ले. कोनेरिभट्ट । केशव के पुत्र । माध्व अनुयायियों के लिए आचार विषयक एक निबन्ध । स्मृतिमीमांसा ले जैमिनि अपरार्क द्वारा वर्णित जीमूतवाहन के कालविवेक, वेदाचार्य के स्मृतिरत्नाकर, हेमाद्रि के व्रतखण्ड एवं परिशेषखण्ड में तथा नृसिंहप्रसाद द्वारा वर्णित । स्मृतिमहाराज ( या शूत्रपद्धति) ले. कृष्णराज इसमें मदनरत्न का उल्लेख है। गोदान से आरम्भ होकर मूर्ति प्रतिष्ठापन में अन्त होता है। स्मृतिमंजरी ले. रत्नधर मिश्र (2) ले. गोविंदराज (3) ले. कालीचरण न्यायालंकार । स्मृतिमुक्ताफलम् ले. वैद्यनाथ दीक्षित सन्- 1600 में लिखित । दक्षिण भारत का एक अति प्रसिद्ध निबन्ध ग्रंथ । विषय वर्णाश्रमधर्म, आनिक अशौच, श्राद्ध द्रव्यशुद्धि, प्रायश्चित्त, व्यवहार, काल इ. । स्मृतिमुक्ताफलसंग्रह - ले. चिदम्बरेश्वर । स्मृतिमुक्तावली ले कृष्णाचार्य नृसिंहभट्ट के पुत्र 10 प्रकरणों में पूर्ण स्मृतिरत्नम् - ले. रघुनाथ भट्ट । ई. 17 वीं शती । स्मृतिरत्नप्रकाशिका - लेखिका कामाक्षी । धर्मशास्त्र विषयक रचना । - स्मृतिरत्त्रमहोदधि ( या स्मृतिमहोदधि) ले परमानन्दघन | चिदानन्दयेन्द्रसरस्वती के शिष्य षट्कर्मविचार, आचार, अशौच आदि पर विवेचन है । स्मृतिरत्नाकर - ले.- वेदाचार्य । 15 अध्याय । विषय- नित्यनैमित्तिकाचार, गर्भाधानादि संस्कार, तिथिनिरूपण, श्राद्ध, शान्ति, तीर्थयात्रा, भक्ष्याभक्ष्य, व्रत, प्रायश्चित्त, अशौच और अन्त्येष्टि । कामरूप राजा के आश्रय में प्रणीत । इसमें भवदेव (प्रायश्चित्त पर) जीमूतवाहन, स्मृतिमीमांसा, स्मृतिसमुच्चय, आचारसागर, दानसागर और महार्णव का उल्लेख किया है। (2) ले. For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 421 - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तातय्यार्य। (3) वेंकटनाथ। श्रीरंगनाथाचार्य के पुत्र । लेखक का उपनाम वैदिक-सार्वभौम है। आह्निक अंश लक्ष्मीवेंकटेश्वर प्रेस, कल्याण से प्रकाशित । विज्ञानेश्वर, स्मृतिचंद्रिका, अखण्डादर्श, माधवीय, स्मृतिसारसमुच्चय एवं इतिहाससमुच्चय का उल्लेख है। इसको सदाचारसंग्रह भी कहा गया है। (4) विदुरपुरवासी विष्णुभट्ट । केशव के पुत्र । विषय- आह्निक, 16 संस्कार, संक्रांति, ग्रहण, दान, तिथिनिर्णय, प्रायश्चित, अशौच, नित्यनैमित्तिक इ.। (5) ले.- ताम्रपणीचार्य। (6) ले.- विठ्ठल। पिता केशव। दिदूरपूर के निवासी। (7) स्मृतिरत्नाकर- ले.- भट्टोजि। विषय- प्रायश्चित्त एवं अशौच। स्मृतिरत्नावलि - मधुसूदन दीक्षित। महेश्वर के पुत्र। (2) ले.- रामनाथ विद्यावाचस्पति । सन् 1657 ई. में प्रणीत। (3) ले.- बेचूराम। स्मृतिसंग्रहरत्नव्याख्यानम् - ले.- रामचंद्र। नारायणभट्ट के पुत्र। यह चतुर्विंशतिमत पर एक टीका है। स्मृतिविवरणम् - ले.- आनन्दतीर्थ । यह सदाचारस्मृति ही है। स्मृतिविवेक - ले.- शूलपाणि। (2) ले.- मेधातिथि। स्मृतिव्यवस्था - ले.- चिन्तामणि न्यायवागीश भट्टाचार्य। विषयशुद्ध्यादिव्यवस्था। सन 1688-89 में रचित । स्मृतिशेखर (या कस्तूरीस्मृति) - ले.- कस्तूरी । नागय्या के पुत्र । स्मृतिसंग्रहरत्नव्याख्यानम् - ले.- रामचंद्र । नारायणभट्ट के पुत्र। यह चतुर्विंशतिमत पर एक टीका है। स्मृतिसंक्षेप - ले.- नरोत्तम। विषय- अशौच, सहमरण, षोडशदान इ.। स्मृतिसंक्षेपसार - ले.- रमाकांत चक्रवर्ती। मधुसूदन तर्कवागीश के पुत्र । विषय- उद्वाहकाल, गोत्र, प्रवर, सपिण्ड, समानोदक आदि। स्मृतिसंग्रह - ले.- वेंकटेश। वेंकटनाथकृत स्मृतिरत्नाकर से इस का अत्यधिक साम्य है। (2) ले.- वाचस्पति। (3) ले.- हरदत्त। (4) अपरनाम-विद्यारण्यसंग्रह ले.- विद्यारण्य । श्लोकसंख्या- 70001 (5) ले. छलारि नारायण। (लेखक के पुत्र द्वारा स्मृत्यर्थसारसागर में वर्णित) (6) ले.- दयाराम । (7) ले.- नीलकण्ठ। (8) ले.- नवद्वीप के रामभद्र न्यायालंकारभट्टाचार्य। अनध्याय, तिथि, प्रायश्चित्त, शुद्धि, उद्वाह, सापिण्ड्य पर। इसे व्यवस्थाविवेचन या व्यवस्थासंक्षेप भी कहते हैं। (9) ले.- सायण एवं माधव । स्मृतिसंग्रहरत्नव्याख्यानम् - ले.- रामचंद्र। नारायणभट्ट के पुत्र। यह चतुर्विशतिमत पर एक टीका है। स्मृतिसंग्रहसार - ले.- महेशपंचानन द्वारा। रघु. के स्मृतितत्त्व पर आधृत। स्मृतिसमुच्चय - ले.- विश्वेश्वर । स्मृतिसरोजकलिका - ले.- विष्णुशर्मा। 8 खण्डों में स्नान, पूजा, तिथि, श्राद्ध, सूतक, दान, यज्ञ, प्रायश्चित्त का विवेचन । इसमें 28 स्मृतिकारों के नाम आये हैं। स्मृतिसर्वस्वम् - ले.- नारायण। हुगली जिले के कृष्णनगर के निवासी। 1675 ई. के पूर्व इसने शक 1603-1681 ई. में आने वाले क्षयमास का उल्लेख किया है। स्मृतिसागर - ले.- कुल्लूभट्ट। ई. 12 वीं शती। शूलपाणि के दुर्गोत्सवविवेक, गोविन्दानन्द की शुद्धिकौमुदी एवं रघु के प्रायश्चित्त तत्त्व में इसका उल्लेख है। स्मृतिसार - ले. मुकुन्दलाल। (2) ले.- यादवेन्द्र। विषयकृष्णजन्माष्टमी, रामनवमी, दुर्गोत्सव, श्राद्ध, अशौच, प्रायश्चित्त जैसे उत्सव एवं कृत्य। (3) ले.- याज्ञिकदेव। दायभाग, श्राद्ध, यज्ञोपवीत, मलमास, आचार, स्नान, शुद्धि, सापिण्ड्य, अशौच पर विभिन्न स्मृतियों से एकत्र 311 श्लोक। ई. 16-17 वीं शती। (4) ले.- केशवशर्मा। विभिन्न तिथियों में किये जाने वाले कृत्यों पर 1359 श्लोक। (5) ले.- नारायण। (6) ले.- हरिनाथ । ग्रंथ का अपरनाम-स्मृतिसारसमुच्चय। (7) ले.- महेश । विषय- जन्म-मरण का अशौच। (8) ले.- श्रीकृष्ण । स्मृतिसारटीका - ले.- कृष्णनाथ । स्मृतिसारप्रदीप - ले. रघुनन्दन । स्मृतिसारव्याख्या - ले.- विद्यारत्न स्मार्तभट्टाचार्य। स्मृतिसारसंग्रह - ले.- वेंकटेश। (2) ले.- चंद्रशेखर वाचस्पति। (3) ले.- महेश। (4) ले.- याज्ञिक देव। (5) ले.विद्यानन्दनाथ। (6) ले.- विश्वनाथ। विज्ञानेश्वर, कल्पतरु, विद्याकर-पद्धति का उल्लेख है। (7) ले.- वैद्यनाथ। (8) ले.- कृष्णभट्ट। (9) ले.- पुरुषोत्तमानन्द जो परमहंस पूर्णानन्द के शिष्य थे। विषय- आह्निक, शौच, स्नान, त्रिपुण्ड, क्रमसंन्यास, श्राद्ध, विरजाहोम, स्त्रीसंन्यासविधि, क्षौरपर्वनिर्णय, यतिपार्वण श्राद्ध इ.। स्मृतिसारसमुच्चय - ले.-घरेलु व्रतों पर। शौच, ब्रह्मचारी-आचार, दान, द्रव्यशुद्धि, प्रायश्चित्त आदि विषयों पर 28 ऋषियों के उद्धरण हैं। स्मृतिसिद्धान्तसंग्रह - ले.- इन्द्रदत्त उपाध्याय । स्मृतिसिद्धान्तसुधा - ले.- रामचन्द्र बुध । स्मृतिसिन्धु - ले.- श्रीनिवास, कृष्ण के शिष्य। यह ग्रंथ वैष्णवों के लिए है। (2) ले.- नंदपंडित । ई. 16-17 वीं शती। स्मृतिसुधाकर - ले.- शंकरमिश्र । रचना-1600 ई. के लगभग । स्मृतिसुधाकर (या वर्षकृत्यनिबंध) - ले.- शंकर ओझा। सुधाकर के पुत्र । स्मृत्यर्थमुक्तावली - ले.- नागेशभट्ट। ई. 18 वीं शती। पितावेंकटेशभट्ट। 422 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृत्यर्थसागर - ले.- छल्लारि नृसिंहाचार्य। नारायण के पुत्र।। मध्वाचार्य की सदाचारस्मृति पर आधारित। इसका कथन है कि मध्वाचार्य का जन्म 1120 (शकसंवत्) में हुआ था। कमलाकर एवं स्मृतिकौस्तुभ का उल्लेख है। सन् 1675 ई. के उपरान्त लिखित। स्मृत्यर्थसार- ले.- नीलकण्ठाचार्य। (2) ले.- श्रीधर । दाक्षिणात्य। इस ग्रंथ में कलिवर्ण्य, संस्कारों की संख्या, उपनयन, ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य, अनध्याय के दिन, विवाह तथा उसके प्रकार, गोत्रप्रवर, शौच, दंतधावन, पंचयज्ञ, संध्या, पूजा आदि आह्निक कर्मों, संन्यासधर्म, पाप-दोष तथा प्रायश्चित्तों का विवेचन है। निर्माणकाल- ई.स. 1150 से 1200 के बीच। (3) ले.- मुकुन्दलाल। स्मृत्यर्थसारसमुच्चय - शौच, आचमन, दन्तधावन आदि पर 28 शास्त्रकारों के दृष्टिकोणों के सार दिये हुए हैं। पाण्डुलिपि की तिथि है संवत् 17431 28 ऋषि ये हैं- मनु, याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, अत्रि, कात्यायन, वसिष्ठ, व्यास, उशना, बोधायन, दक्ष, शंख, लिखित, आपस्तम्ब, अगस्त्य, हारीत, विष्णु, गोभिल, सुमन्तु, मनु स्वायंभुव, गुरु, नारद, पराशर, गर्ग, गौतम, यम शातातप, अंगिरा और संवर्त । स्यमन्तक (नाटक) - ले.- जगु श्री बकुलभूषण बंगलोरनिवासी। स्यमन्तकचम्पू - ले.-नारायणभट्टपाद । स्यमन्तकोद्धार - ले.- कालीपद (1888-1972) सन् 1933 में लिखित व्यायोग। अंकसदृश पांच दृश्यों में विभाजित। वनदेवी, ऋक्षराज, विष्णुशक्ति आदि मानवी पात्र के रूप में प्रदर्शित । प्रधान रस-वीर। अंगरस-शृंगार । गीतों की भरमार । गद्योचित प्रसंग भी पद्यों में ग्रंथित। सभी पात्र संस्कृत में बोलते हैं। सूक्तियों का बाहुल्य। श्रीकृष्ण के स्यमन्तक-विषयक प्रवाद से जाम्बवती के साथ विवाह तक का कथानक इसमें ग्रथित है। स्याद्वादरत्नाकर - ले.- देवसूरि। ई. 11-12 वीं शती। विषय- जैन दर्शन। स्रग्धरास्तोत्रम् (अन्य नाम- आर्यतारास्रग्धरास्तोत्र) - ले.सर्वज्ञमित्र । स्रग्धरा छंद में 37 श्लोक। परिष्कृत रचना तथा सुन्दर शैली। तारा जो अवलोकितेश्वर बुद्ध की स्त्री-प्रतिमूर्ति तथा मुक्तिदात्री देवी है, का स्तवन कर, कवि ने अपने साथ 100 व्यक्तियों को नरबलि होने से बचाया। बुद्धस्तोत्रसंग्रह के प्रथम भाग में सतीशचन्द्र विद्याभूषण द्वारा संपादित । स्वच्छन्दतन्त्रम् - १ पटलों में पूर्ण। यह काश्मीर संस्कृत सीरीज में 7 मार्गों में छप चुका है। श्लोक- 11001 स्वच्छन्दपद्धति - ले.- चिदानन्द। गुरु-विमलानन्द। श्लोक- 4001 श्रीविद्याराधन में बालकों के प्रवेश के निमित्त सिद्धसरणि की यह संक्षिप्त पद्धति चिदानन्द द्वारा रची गई है। स्वच्छन्दोद्योत (स्वच्छन्दनय की टीका) - ले.- राजानक क्षेमराज। गुरु-राजानक अभिनवगुप्त। श्लोक- 1194 | स्वतंत्रतंत्रम् - श्लोक- 332। स्वत्वरहस्य (या स्वत्वविचार) - ले.- अनन्तराम । स्वत्वव्यवस्थार्णवसेतुबन्ध - ले.- रघुनाथ सार्वभौम । विभागनिरूपण, स्त्रीधनाधिकारी, अपुत्रधनाधिकार पर 6 परिच्छेद । स्वप्नवासवदत्तम् (नाटक) - ले.- महाकवि भास। संक्षिप्त कथा- नाटक के प्रथम अंक में मंत्री यौगन्धरायण वासवदत्ता और स्वयं के जलने का प्रवाद फैला देता है और परिव्राजक वेष धारण कर वासवदत्ता को अपनी प्रोषितपतिका बहन (अवन्तिका) के रूप में मगधराज की बहन पद्मावती के संरक्षण में रख देता है। द्वितीय अंक में पद्मावती के साथ उदयन का विवाह निश्चित होता है। तृतीय अंक में अपने पति उदयन का पद्मावती से विवाह होने के कारण वासवदत्ता अन्तद्वंद्व में है। चतुर्थ अंक में विदूषक और राजा के संवाद से वासवदत्ता को ज्ञात होता है कि पद्मावती से विवाह होने पर भी राजा वासवदत्त पर बहुत प्रेम करते हैं। पंचम अंक में राजा के स्वप्रदर्शन का दृश्य है जहां स्वप्रावस्थित राजा और वासवदत्ता का मिलन होता है। षष्ठ अंक में महासेन द्वारा भेजे गये चित्रफलक से अवन्तिका का वास्तविक स्वरूप प्रकट होता है। यौगन्धरायण भी परिव्राजक वेष छोड कर अपनी योजना का रहस्योद्घाटन करता है। इस प्रकार राजा और वासवदत्ता के मिलन से नाटक का अंत सुखमय होता है। इस नाटक में कुल 6 अर्थोपक्षेपक हैं जिन में विष्कम्भक, 3 प्रवेशक, चूलिका और। अंकास्य है। संस्कृत नाट्यक्षेत्र के उत्कृष्ट नाटकों में इस नाटक की गणना होती है। वाराणसी के नारायणशास्त्री खिस्ते ने इस की टीका लिखी है। स्वप्नाध्याय - उत्तर तंत्र में उक्त। पार्वती-महादेव संवादरूप। विषय- स्वप्नों के फलाफल का वर्णन । स्वप्रकाशरहस्यविचार - हरिराम तर्कवागीश। स्वमतनिर्णय - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । लेखक ने अपने अनेक ग्रंथों में प्रतिपादित निजी सिद्धान्तों का स्पष्ट कथन किया है। स्मरदीपिका (रतिरत्नदीपिका)- ले.- मीननाथ । विषय- नायक नायिका भेद, नायक लक्षण, आभ्यन्तररति, स्वान्यदाराधिकार, वारनार्यधिकार आदि। स्वरप्रक्रिया-व्याख्या - ले.- रामचंद्र। सिद्धान्तकौमुदी के वैदिकी स्वरप्रक्रिया अंश की व्याख्या। स्वरमेलकलानिधि - ले.- रामामात्य। रचना सन् 1250 में। कर्नाटक पद्धति के रागों का विवरण। 5 अध्याय। 72 मेलकता में रागों का वर्गीकरण लेखक ने किया है। संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/423 For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वराज्य-विजयम् (काव्य) - ले.- द्विजेन्द्रनाथ मिश्र। रचना-काल, 1960 ई.। इसमें 18 सर्ग हैं जिनमें भारत की ई. । इसम 18 पूर्व समृद्धि का वर्णन, विदेशियों के आक्रमण, राष्ट्रीय काँग्रेस का जन्म, तिलक, सुभाष, गांधी, पटेल आदि महान राष्ट्रीय उन्नायकों के कर्तृत्व का वर्णन तथा क्रांतिकारियों व आतंकवादियों के पराक्रम का निर्देश किया गया है। स्वरूपसंबोधनम् - ले.- अकलंक देव। जैनाचार्य। स्वरूपाख्यानस्तवटीका - ले.- नन्दराम । स्वर्गलक्षणम् - श्लोक- 2501 स्वर्गवाद - विषय- स्वर्गवाद, प्रतिष्ठावाद, सपिण्डीकरणवाद इ.। स्वर्गसाधनम् - ले.- रघुनन्दन भट्टाचार्य। (प्रसिद्ध रघुनन्दन से भिन्त्र) विषय- श्राद्धाधिकारी,अन्त्येष्टिपद्धति, अशौचनिर्णय, वृषोत्सर्ग, षोडश श्राद्ध, पार्वणश्राद्ध आदि। स्वर्गारोहणचम्पू - ले.- नारायण भट्टपाद । स्वर्गीयप्रहसनम् - ले.-डॉ. सिद्धेश्वर चट्टोपाध्याय। (श. 20) संस्कृत साहित्य परिषद् द्वारा प्रकाशित । रवीन्द्रनाथ ठाकुर के स्वर्गीय प्रहसन का अनुकरण। नये दल-नायक तथा गणेशों द्वारा स्वर्ग में राजनीतिक उठापटक का दृश्य। देवराज बनने की इच्छा से बृहस्पति की कुटिल चालें दर्शित। अशोक और अकबर महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्रिपद की इच्छा रखते हैं। श्रमिक तथा किसानों के नेता नरक के प्रतिनिधि बन आते हैं। देवराज कौन बने, जनसंख्या कैसे कम हो, नरक और स्वर्ग का भेद कैसे मिटे आदि समस्याओं पर उन में चलने वाली बेतुकी चर्चा से हास्योत्पादकता इसकी विशेषता है। स्वर्णतन्त्रम् - श्लोक- 1000। स्वर्णपुर-कृषीवल - ले.- लीला राव-दयाल (श. 20)। तीन दृश्यों में विभाजित एकांकी रूपक। स्वर्णपुर के किसानों का भूमि-कर ने देने का सत्याग्रह और अंग्रेजी शासन द्वारा किये गये अत्याचारों का वर्णन। इस सत्याग्रह की अग्रणी हे रेखा नामक विधवा। रागबद्ध नौ गीत। कौटुंबिक कुचक्र में छत्रसाल के पिता की हत्या तथा छत्रसाल का दक्षिण की ओर प्रस्थान वर्णित । प्राकत का अभाव। स्वातंत्र्य-यज्ञाहुति (रूपक) - ले.- नारायणशास्त्री कांकर । संस्कृतरत्नाकर दिल्ली से सन् 1956 में प्रकाशित । विषयसन् 1942 के स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान की कथा । स्वातंत्र्यलक्ष्मी - ले.- श्रीराम वेलणकर। रेडियो नाटक । दिसम्बर 1963 को आकाशवाणी, दिल्ली से प्रसारित । अंकसंख्यातीन। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का चरित्र।। स्वातंत्र्य-सन्धिक्षण - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) संस्कृत साहित्य परिषद् की पत्रिका में सन् 1957 में प्रकाशित एकांकी प्रहसन। विभाजित भारत की राजनीतिक दशा का चित्रण। अंग्रेजों की कुटिलता का निदर्शन। स्वाधीनभारत-विजयम् - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) सन 1964 में कलकत्ता से प्रकाशित। स्वानुभूतित्रिवेणी - ले.- मेलकोटे (कर्नाटक) निवासी श्री अरैयर, जो नित्य पदयात्रा के कारण 'पदयात्री अरैयर" नाम से प्रसिद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता हैं। आपके स्वानुभूतित्रिवेणी नामक काव्य में आधारयमुना, विचारगंगा और भक्तिसरस्वती नामक तीन सगों के अंत में ताम्रपर्णीप्रसाद नामक चतुर्थ सर्ग है। आधारयमुना नामक प्रथम सर्ग में आहारशुद्धि, आचारशुद्धि, आतपस्नान, शीतलोदकसान, हिताशन, जैसे विविध सर्वोदयी विषयों का 264 श्लोकों में परामर्श लिया है। विचारगंगा नामक द्वितीय सर्ग में 489 श्लोकों में, मौन,अर्थशुद्धि, यज्ञचक्र, विश्वनीड, प्रवृत्तिशुद्धि इत्यादि विषयों का परामर्श लिया है। भक्तिसरस्वती-सर्ग में 374 श्लोकों में आधुनिक दृष्टि से भक्ति का प्रतिपादन किया है। ताम्रपर्णीप्रसाद नामक 260 श्लोकों के अंतिम सर्ग में भक्ति-प्रधान अवांतर विषयों का अन्तर्भाव हुआ है।प्रकाशक- अमदाबाद जिला सर्वोदय मंडल। यह समग्र काव्यरचना श्री अरैयरजी ने अपनी पदयात्रा में की है। अपने काव्य में प्रतिपादित सर्वोदयी सिद्धान्तों के अनुसार लेखक का व्रतस्थ तपस्वी जीवन है। स्वानुभूतिनाटक - ले.- अनंत पंडित। ई. 17 वीं शती। वाराणसी-निवासी। अंकसंख्या - पांच। विषय- शंकराचार्य के केवलाद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन। शांकर मत का प्रतिपादन करते हुए नाटक में उपनिषदों, भगवद्गीता ब्रह्मसूत्रभाष्य, योगवासिष्ठ, अष्टावक्तगीता, नैष्कर्म्यसिद्धि संक्षेपशारीरक, आदि ग्रंथों से वचन उद्धृत किये है। स्वानुभूत्यभिधा - ले.- अनन्तराम। स्वायंभुव आगम - श्रीकण्ठ मत से यह दश (10) रुद्रागमों में अन्यतम है। इस पर सेटपाल विरचित व्याख्या है। स्वायंभुवरामायणम् - रूढ परंपरानुसार रचनाकाल मन्वंतर का HdHHEEFTHE स्वर्णाकर्षणभैरवी - श्लोक- 1001 स्वर्णाकर्षण भैरवतन्त्रम् - श्लोक- 3821 स्वरूपाख्यस्तोत्रटीका (आनन्दोद्दीपिनी) - लें.- ब्रह्मानन्द सरस्वती। यह फेत्कारिणी तंत्र में उक्त प्रकृतिस्वरूप के निरूपक स्तोत्र का व्याख्यान है। स्वस्तिवाचनपद्धति - ले.- जीवराम। स्वातंत्र्यचिन्ता - ले.- श्रीराम वेलणकर । 'सुरभारती', (भोपाल) द्वारा 1969 में प्रकाशित। एकांकी रूपक। कुल पात्र-पांच। आकाशवाणी के हेतु लिखित। 11 रागमय पद्य। राणा प्रताप तथा मानसिंह की कमल मीर से मिलने की कथा। स्वातंत्र्य-मणि - ले.- श्रीराम वेलणकर (श. 20) रेडियो-नाटक। 424/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 32 वां त्रेता माना जाता है। इसमें 18 हजार श्लोक हैं। इस रामायण में प्रमुखतया गिरिजापूजा, विवाहवर्णन, सुमंत विलाप, गंगापूजन, सीताहरण, कौसल्याहरण, दिलीप, रघु, अज, दशरथ आदि की परीक्षा का विवेचन है। स्वायम्भुववृत्ति स्वाराज्यसिद्धि ले. नारायणकण्ठ । यह शैव तंत्र है। ले गंगाधरेन्द्र सरस्वती । - स्वास्थ्य-तत्त्वम् ले. गोविन्द राय । ई. 19 वीं शती । शरीरशास्त्र तथा स्वास्थ्य विषयक ग्रंथ । स्वास्थ्यवृत्तम् ले. म्हसकर और वाटवे । स्वास्थ्य तथा दीर्घायुत्व का विवेचन । - - www.kobatirth.org 1 स्वोदयकाव्यम् ले कोरड रामचन्द्र आंधनिवासी विषयलेखक का आत्मचरित्र | हकारादि- हयग्रीव - सहस्र - नामावली (सव्याख्या) ले. - बेल्लमकोण्ड रामराय। ई. 19 वीं शती । आन्ध्रनिवासी । हठयोगप्रदीपिका (नामान्तर हठ प्रदीपिका) ले. - स्वात्माराम । इस ग्रंथ में हठयोग का विस्तृत विवेचन किया जाता है जो सर्वत्र प्रमाणभूत माना जाता है। इसके चार उपदेश (अध्याय) हैं जिनमें कुल 379 श्लोक हैं । ग्रन्थ के अन्त में कर्ता के रूप में श्री स्वात्माराम योगींद्र का नामोल्लेख है। कुछ विद्वान् इसका निर्माण काल इ.स. 14 वीं शताब्दी मानते हैं इसमें यमनियम, आसन, आहार-विहार, प्राणायाम, षट्कर्म, योगमुद्रा, बंध नादानुसंधान, समाधि आदि 156 विषयों की चर्चा की गई है। ब्रह्मानंद ने इस ग्रंथ पर 'ज्योत्स्ना' नामक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त (1) उमापति, (2) महादेव (3) रामानंदतीर्थ और (4) व्रजभूषण की टीकाएं उल्लेखनीय हैं। हत्यापल्लवदीपिका ले. श्रीकृष्ण विद्यावागीश भट्टाचार्य । श्लोक- 9921 विषय उन्मत्त भैरवी, फेल्कारिणी, डामरमालिनी, कालोत्तर, सिद्धयोगीश्वरी, योगिनी आदि तंत्रों से शान्ति, पौष्टिक, मारण, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन आदि षट्कर्म । हनुमत्कल्प ले. जनार्दन मोहन । श्लोक- 200। हनुमत्कवचादि श्लोक- 218 विषय पंचमुखी हनुमत्कवच तथा पंचमुखी हनुमन्महामंत्र । हनुमद्विजयम् (काव्य) - ले. शिवराम । ई. 19-20 वीं शती । हनुमज्जयम्ले प्रधान वेंकप्प। श्रीरामपुर के निवासी । हनुमन्नक्षत्रमाला ( काव्य ) ले. श्रीशैल दीक्षित । हनुमद्दीपदानम् सुदर्शन संहिता के अन्तर्गत श्लोक- 701 हनुमद्दीपपद्धति - ले. - हरि आचार्य । 1 हनुमद्दूतम् - ले. नित्यानन्द शास्त्री । जोधपुर निवासी । हनुमद्वादशाक्षर मंत्रपुरश्चरण विधि श्लोक- 240 हनुमन्नाटकम् - संकलनकर्ता- 1. दामोदर मिश्र । 2. मधुसूदन । - - रामकथा पर आधारित यह काव्यरूप नाटक है। इसकी रचना किसी एक व्यक्ति ने नहीं की अपि तु समय समय पर अलग अलग कवियों के रामचरितपरक काव्यों से इसे बढाया गया है । इ.स. 9 वीं शताब्दी से 14 वी शताब्दी तक इसका विस्तार होता रहा। इसी लिये कर्ता के रूप में "रामभक्त हनुमान्" का उल्लेख किया गया है। इसकी रचना के विषय में इसी ग्रंथ में अद्भुत कथा बताई गई है। रामभक्त हनुमान् ने अपने नाखूनों से शिला पर इसे लिखा और रामायण के कर्ता वाल्मीकी को दिखाया। वाल्मीकी इतनी सुंदर रचना देखकर दंग रह गये किन्तु इस आशंका से कि कहीं यह रचना उनके रामायण से अधिक लोकप्रिय न हो जाय, उन्होंने इसे समुद्र में डुबा देने का आदेश दिया। हनुमानजी के अवतार भोज ने उसे समुद्र से बाहर निकाला और दामोदर मिश्र ने इसका संकलन किया। इस नाटक में न तो सूत्रधार है न इसकी प्रस्तावना । इसमें कुल 576 श्लोक हैं जो रामायण के विभिन्न प्रसंगों पर हैं। इसकी एक प्रति बंगाल में है श्री सुशीलकुमार डे के अनुसार इसका संकलन 12 वीं शताब्दी में हुआ। मधुसूदन द्वारा संकलित इस बंगाल प्रति में कुल 720 श्लोक हैं जो 9 अंकों में विभक्त हैं। इसमें कहा गया है कि हनुमानजी से स्वप्न में आदेश मिलने पर राजा विक्रम ने यह नाटक समुद्र से बाहर निकाला। इस नाटक को "छायानाटक" भी कहा जाता है। इस नाटक में 14 अंक हैं; अतः इसे महानाटक भी कहा गया है। इसमें सीता विवाह से लेकर रावणवधोपरान्त राम का अयोध्या में लौटकर राज्याभिषेक, सीतानिष्कासन तथा परमधाम में प्रत्यावर्तन तक की घटनाओं का वर्णन है। हनुमन्नाटक में नाटकीय नियमों का पालन नहीं किया गया है। इसमें प्रस्तावना तथा अर्थोपक्षेपक नहीं हैं। द्वितीय अंक में राम-सीता की श्रृंगार लीलाओं का विस्तृत वर्णन है जो कि नाटकीय मर्यादा के विरुद्ध है। रंगमंचीय निर्देशों तथा नाटकीय नियमों के अभाव के कारण इसे सफल नाटक नहीं माना जा सकता । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 हनुमत्पंचमचपटलम् सुदर्शन संहितान्तर्गत श्लोक 220 हनुमत्-पद्धति श्लोक- 2501 हनुमद्- भरतम् - ले. आंजनेय । हनुमन्मालामन्त्र - श्लोक - 4401 हनुमद्विलासम्ले. सुन्दरदास रामानुज पुत्र 20 वीं शती । हनुमत्शतकम् - ले. पारिथीयूर कृष्ण । ई. 19 वीं शती । हनुमत्स्तोत्रम् - ले. - बाणेश्वर विद्यालंकार । ई. 17-18 वीं शती । हम्मीरमहाकाव्यम् - ले. नयनचन्द्रसूरि ई. 14-15 वीं शती । 14 सर्ग तथा 1576 पद्यों का यह एक वीर श्रृंगार प्रधान ऐतिहासिक महाकाव्य है। इस का अब तक दो बार प्रकाशन हुआ है। 1) एन्युकेशन सोसायटी प्रेस मुंबई से ई. स. संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 425 For Private and Personal Use Only - Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1879 में श्री नीलकण्ठ जनार्दन कीर्तने ने संपादित कर इसका प्रथम प्रकाशन किया। 2) राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, राजस्थान से ई. स. 1968 में संपादक श्रीफतहसिंह तथा श्री मुनि जिनविजयजी ने प्रकाशित किया। हयग्रीव-पंचविंशति - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय । हयग्रीवसहस्रनाम - हर-पार्वती संवादरूप । महादेव रहस्यान्तर्गत । हयग्रीवस्तुति - ले.-जग्गु श्रीबकुलभूषण। बंगलोरनिवासी। हयवदनविजययचम्पू - ले.-वेंकटराघव। हयवदनशतक - ले.-बेल्लमकोण्ड रामराय। हयशीर्षपंचरात्र - मूर्ति-स्थापन एवं मन्दिर-निर्माण संबंधी एक वैष्णव ग्रंथ। इसमें 74 पटल और श्लोक-12000 हैं। यह मन्दिर और मूर्ति की प्रतिष्ठा से संबंध रखता है। ग्रंथ दो काण्डों में विभक्त है। 1) देवप्रतिष्ठा-पंचक काण्ड तथा 2) संकर्षणकाण्ड । लिंगकाण्ड, संकर्षणकाण्ड का ही एक अंश है। हयशीर्ष-संहिता - पांचरात्र-साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं से एक प्रमुख संहिता। इसके 144 अध्याय हैं। छोटे छोटे देवताओं की मूर्तियां और उनकी पूजा-अर्चा किस प्रकार की जाये, यह इस संहिता का विषय है। हयशीर्ष-संहिता - एका भक्तिपर संहिता। इसके कुल चार भाग हैं। प्रथम भाग प्रतिष्ठाकाण्ड के 42 अध्याय, दूसरे भाग संकर्षण-काण्ड के 37 अध्याय, तीसरे लिंगकाण्ड के 20 अध्याय और चौथे सौर काण्ड के 45 अध्याय हैं। इन संहिताओं में देवताओं की मूर्तियों का तथा उनकी प्रतिष्ठा आदि विधियों का वर्णन है। हरतीर्थेश्वरस्तुति (काव्य) - ले.-सुब्रह्मण्य सूरि । हरनामामृतकाव्यम् - ले.-विद्याधर शास्त्री। बीकानेर निवासी। विषय- लेखक के पितामह का चरित्र । हरविजयम् - ले.-काश्मीरक रत्नाकरकवि। एक पौराणिक महाकाव्य। इसमें 50 सर्ग व 4321 पद्य हैं। कल्हण की "राजतरंगिणी" में इस महाकाव्य को अवंतिवर्मा के राज्यकाल में प्रसिद्धि प्राप्त होने का उल्लेख है। रत्नाकर ने माघ की ख्याति को दबाने की ईषा से ही "हरिविजय" का प्रणयन किया था। इसमें शंकर (हर) द्वारा अंधकासुर के वध की कथा कही गई है। कवि ने स्वल्प कथानक को अलंकृत, परिष्कृत एवं विस्तृत बनाने के लिये जल-क्रीडा, संध्या, चंद्रोदय आदि का वर्णन करने में 15 सर्ग व्यय किये हैं। रत्नाकर कवि गर्व से कहते हैं कि प्रस्तुत काव्य का अध्येता अकवि कवि बन जाता है, और कवि महाकवि हो जाता है। इसका प्रकाशन, काव्यमाला संस्कृत सीरीज, मुंबई से हो चुका है। हरहरीयम् - ले.-म.म.कृष्णशास्त्री घुले, नागपुर-निवासी । श्लेषगर्भ काव्य । लेखक की टीका है। सन 1953 में "संस्कृतभवितव्यम्" में क्रमशः प्रकाशित। हरिकेलिलीलावती - ले.-कविकेसरी । हरिचरितम् (काव्य) - ले.-चतुर्भुज। ई. 15 वीं शती। सर्गसंख्या तेरह। इसमें मात्रावृत्तों का प्रचुर प्रयोग है। हरितोषणम् - ले.-वेदान्तवागीश भट्टाचार्य । हरिदिनतिलकम् - ले.-वेदान्तदेशिक । हरिनामामृतम् - ले.-अमियनाथ चक्रवर्ती। ई. 20 वीं शती। "प्रणव-पारिजात" में प्रकाशित। पश्चिम वंग संस्कृत नाट्य परिषद् द्वारा अभिनीत । विषय- चैतन्य महाप्रभु के संसारत्याग तक की कथावस्तु। हरिनामामृत-व्याकरणम् - ले.-रूप गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। जीव गोस्वामी जी के वैष्णव व्याकरण का लघु संस्करण। हरिपूजापद्धति - ले.-आनन्दतीर्थ भार्गव। हरिप्रिया - ले.-तपेश्वरसिंह, वकील, गया निवासी। 108 श्लोकों का खण्डकाव्य। हरिभक्तिकल्पलतिका - ले.-कृष्णसरस्वती। 14 स्तबकों में विभक्त। हरिभक्तिकल्पलता - ले.-विष्णुपुरी। हरिभक्तिदीपिका • ले.-गणेश। हरिभक्तिभास्कर (सद्वैष्णव-सारसर्वस्व) - ले.-भुवनेश्वर । भीमानन्द के पुत्र । 12 प्रकाशों पूर्ण । संवत् 1884 में प्रणीत । हरिभक्तिरसायनम् - ले.-श्रीहरि। भागवत के दशम स्कंध के पूर्वार्ध पर लिखित पद्यात्मक टीका । रचना-काल- 1959 शक । इस टीका के 49 अध्याय हैं, और विविध छंदों में निबद्ध 5 हजार श्लोक इसमें हैं। टीकाकार का कथन है कि भगवान् का प्रसाद ग्रहण कर ही वे इस टीका के प्रणयन में प्रवत्त हुए। वस्तुतः यह साक्षात् टीका न होकर प्रभावशाली मौलिक ग्रंथ है जिसमें भागवती लीला का कोमल पदावली में ललित विन्यास है। "हरिभक्ति-रसायन" का प्रथम संस्करण काशी में प्रकाशित हुआ था जो अनेक वर्षों तक दुर्लभ था। किन्तु सं 1030 में प्रसिद्ध भागवती संन्यासी अखंडानंदजी के प्रयास से पुनः प्रकाशित हुआ है। हरिभक्तिविलास - ले.-श्री. सनातन गोस्वामी। चैतन्य-मतानुयायी मूर्धन्य आचार्य। इसमें मूर्ति-निर्माण, मूर्ति-प्रतिष्ठा तथा मूर्ति पूजा का विधान तथा वैष्णवों की जीवनचर्या का मनोरंजक वर्णन है। तुलनात्मक दृष्टि से भी इस ग्रन्थ-रत्न का अपना विशेष महत्त्व है। महाप्रभु चैतन्य के उपदेशों को सुनकर ही सनातनजी ने इस ग्रंथ का प्रणयन किया था। आगे चलकर षट् गोस्वामियों में से एक श्री गोपालभट्ट ने इसे उदाहरणों द्वारा परिपुष्ट करते हुए इस ग्रंथ को उपबृंहित किया। अतः इस ग्रंथ के प्रणयन का श्रेय सनातनजी तथा गोपालभट्ट दोनों गोस्वामियों को दिया जाता है। रचनाकाल- ई. 16 वीं शती। हरिलता - ले.-अनिरुद्ध। टीका-सन्दर्भसूतिका। ले.-अच्युत 426 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्रवर्ती। (हरिदास तर्काचार्य के पुत्र)। 2) ले.- बोपदेव।। हरिलीलामृततंत्रम् - श्लोक- 182।। हरिवंशम् - यह महाभारत का खिल पर्व है। यह ग्रंथ वैशंपायन ने जनमेजय को सुनाया। पुराण की तरह इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, ईश्वर के अवतारों, पुण्यश्लोक राजाओं तथा उनकी वीरगाथाओं का समावेश है। इसमें श्रीकृष्ण के बाल्यकाल और युवावस्था का चरित्र वर्णन है। इस ग्रंथ के हरिवंश-पर्व, विष्णुपर्व तथा भविष्यपर्व ये तीन भाग हैं। हरिवंश पर्व में 55, विष्णु पर्व में 128 और भविष्य पर्व में 135 अध्याय हैं। कुल 318 अध्यायों वाले इस ग्रंथ की श्लोकसंख्या बीस हजार से अधिक है। हरिवंश पर्व में पृथु का चरित्र, मनु मन्वन्तर व कालगणना, इक्ष्वाकु वंश, भगीरथ का जन्म, समुद्रमंथन आदि का विवरण है। विष्णु पर्व में वाराणसी क्षेत्र का पुनर्वसन, नहुषचरित्र, वृष्णिवंश, श्रीकृष्ण के जन्म से विवाह तक जीवन चरित्र का वर्णन है। भविष्य पर्व में चारों युगों के मानवों के आचार-विचार, कलियुग में लोग कैसा आचरण करेंगे आदि की जानकारी दी गई है। इसके साथ ही ब्रह्मदेव की उत्पत्ति, हिरण्यकशिपु का वध, समुद्रमंथन, वामनावतार, श्रीकृष्ण का कैलास गमन, विभिन्न व्रतों, मंत्रों तथा विधियों का विवरण भी इसी पर्व में है। डॉ. हाजरा के मतानुसार हरिवंश का रचनाकाल इ.स. 4 थी शती है। अनेक टीकाकार इसकी गणना पुराणों में करते हैं। हरिवंश-टीका- ले. नीलकण्ठ चतुर्धर । पिता- गोविंद। माताफुल्लांबिका। ई. 17 वीं शती। हरिवंशपुराणम् - ले.-जिनसेन (प्रथम) जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती। 36 सर्ग। हरिवंशपुराणम् - ले.- ब्रह्मजिनदास। जैनाचार्य। ई. 15-16 वीं शती। 14 सर्ग। हरिवंशविलास - ले.- नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। विषय- आह्निक, कालनिर्णय, दान, संस्कार आदि । हरिवासरनिर्णय - ले.-व्यंकटेश। हरिविलास - ले.- कविशेखर । पिता- यशोदाचंद्र। हरिश्चन्द्रचरितम् (नाटक) - ले.-कविराज रणेन्द्रनाथ गुप्त । रचनाकाल- सन 1911। अंकसंख्या- पांच। अंक विविध दृश्यों में विभाजित। भाषा- पात्रानुसार मृदु तथा ओजस्वी। पाश्चात्य रंगमंचीय विधान। इस पर उत्तर रामचरित का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। प्रधान रस करुण, बीच में हास्य का पुट। धर्म, विघ्नराट्, महाव्रत आदि प्रतीकात्मक पात्रों की योजना। हरिश्चन्द्र की पौराणिक कथा, कर्म पर धर्म की प्रभाव प्रतिपादित करने हेतु निबद्ध। हरिश्चन्द्र-चरितम् (काव्य) - ले.- म.म. विधुशेखर शास्त्री (जन्म- 1878)। हरिश्चन्द्रचरितचम्पू - ले.-गुरुराम। मूलन्द्र (उत्तर अर्काट जिले के निवासी। ई. 16 वीं शती । हरिश्चन्द्रविजयचम्पू - ले.-पंचपागेश शास्त्री कविरत्न । शांकरमठ, कुम्भकोणम् में अध्यापक। 19-20 वीं शती। हरिस्मृति-सुधाकर- ले.- रघुनन्दन। इसमें वैष्णव गीतों की राग-प्रणाली की जानकारी मिलती है। हरिहरपद्धति - ले.-हरिहर। पारस्करगृह्यसूत्र तथा उनके भाष्य से संबंधित। हरिहरभाष्यम् - ले.- हरिहर। पारस्करगृह्य सूत्र का भाष्य। हर्षचरितम् - ले.- बाणभट्ट। गद्य-आख्यायिका। इसके कुल आठ उच्छ्वास हैं, जिनमें श्रीकंठ जनपद के स्थानेश्वर में वर्धन राजवंश में जन्मे एक महान् सम्राट हर्षवर्धन की जीवनगाथा बाणभट्ट ने अत्यंत रोचक ढंग से काव्यबद्ध की है। हर्षवर्धन ने अपने पराक्रम से काश्मीर से असम तक और नेपाल से नर्मदा तक तथा उडीसा में महेंद्र पर्वत तक अपनी सार्वभौम सत्ता प्रस्थापित की थी। हर्षवर्धन ने स्वयं नागानंद, रत्नावली व प्रियदर्शिका नामक नाटक लिखे हैं। इनका कालखण्ड इ.स. 606से 647 तक है। बाणभट्ट के इस प्रबन्ध काव्य में 7 वीं शताब्दी के विंध्योत्तर भारत का चित्र प्रस्तुत किया गया है। प्रारंभ के तीन उच्छ्वासों में कवि का आत्मचरित्र, शेष 5 में हर्ष का चरित्र, हर्षवर्धन, राज्यवर्धन तथा राज्यश्री का जन्म। पिता-राजा प्रभाकरवर्धन का परिचय बाल्यकाल, राज्यश्री का विवाह, पिता का देहान्त, भगिनीपति का वध, तथा राज्यवर्धन का विश्वासघात से वध, राज्यश्री का कारावास, भगिनी का हर्ष द्वारा खोज निकालना इतना ही चरित्र भाग है। बाण की वैशिष्ट्यपूर्ण गद्यशैली, विस्तृत वर्णन, अलंकारों की शोभायात्रा इसमें है। संस्कृत साहित्य के तथा भारत के राजकीय इतिहास में इस ग्रंथ का विशेष महत्त्व माना जाता है। हर्षचरित के टीकाकार - 1) राजानक शंकरकंठ, 2) रंगनाथ, 3) रुचक (हर्षचरित-वर्तिका टीका) 4) शंकर। हर्षचरितसार - ले.-प्रा. व्ही. अनन्ताचार्य कोडंबकम्। 2) ले.- म.म. डॉ. पद्मभूषण वासुदेव विष्णु मिराशी। नागपुरनिवासी। लेखक की सुबोध टीका भी है। 3) ले.- आर.व्ही. कृष्णम्माचार्य। हर्ष-बाणभट्टीयम् (नाटक) - ले.-रंगाचार्य। श. 201 संस्कृत साहित्य-परिषत् पत्रिका में प्रकाशित। अंकसंख्या-चार । नायक-हर्षवर्धन। श्रीहर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु से हर्षवर्धन के राज्याभिषेक और बाणभट्ट से मिलने तक का कथाभाग इसमें वर्णित है। हर्षहृदयम् - ले.-गोपीनाथ । श्रीहर्षकृत नैषधीय काव्य की व्याख्या। हर्षहदयम् - ले.-गंगाधर कविराज। सन 1798-18851 चित्रकाव्य। हल्लीशमंजरी - ले.-प्रा. सुब्रह्मण्य सूरि । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 427 For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हस्तरत्नम् ले. भावविवेक 1 वस्तुओं का यथार्थ रूप सत्तारहित तथा आत्मा का अस्तित्व न होना इसमें सिद्ध किया गया है । केवल चीनी अनुवाद से ज्ञात । हस्तलाघवप्रकरणम् (मुष्टिप्रकरण) ले. - आर्यदेव | नागार्जुन के शिष्य । चंद्रकीर्ति नामक विद्वान् के मतानुसार सिंहल द्वीप के नृपति के पुत्र । समय 200 से 224 ई. से बीच है। इसका अनुवाद चीनी व तिब्बती भाषा में प्राप्त होता है, और उन्हीं के आधार पर इसका संस्कृत में अनुवाद प्रकाशित किया गया है । यह ग्रंथ 6 कारिकाओं का है जिनमें प्रथम 5 कारिकाएं जगत् के मायिक रूप का विवरण प्रस्तुत करती हैं। अंतिम (6 वीं) कारिका में परमार्थ का विवेचन है। इस पर दिङ्नाग ने टीका लिखी है। हस्तिगिरिचम्पू ले. वेंकटाध्वरी ई. 17 वीं शती । वरदाभ्युदयचम्पू नाम से भी प्रसिद्ध । विषय- कांचीवरम् के देवराज की महिमा । - हस्त्यायुर्वेद - ले. पराशर। ई. 8 वीं शती। आनंदाश्रम सीरीज, पुणे द्वारा प्रकाशित । - www.kobatirth.org - हंस - गीता - महाभारत के शांतिपर्व में अध्याय 299 में हंसस्वरूप प्रजापति व साध्य के बीच संवाद का अंश ही "हंसगीता" के नाम से विख्यात है। एक अन्य हंसगीता भी है जो भागवत के 11 वें स्कन्ध में 13 वें अध्याय के श्लोक क्रमांक 22 से 42 के बीच का अंश मानी जाती है। ब्रह्मदेव के मानस पुत्रों नें त्रिगुणात्मक विषय व चित्त का सम्बन्ध जोड़ने की जिज्ञासा प्रकट की, तब उन्होंने उनकी ज्ञानदृष्टि यज्ञीय धूम से धूसरित होने के कारण अपने मानसपुत्रों की जिज्ञासापूर्ति के लिये भगवान् विष्णु का स्मरण किया। विष्णु ने हंसरूप धारण कर ब्रह्मदेव तथा उनके पुत्रों को जो उपदेश किया वही हंसगीता कहलायी है। - हंसतम् ले. पूर्णसरस्वती ई. 14 वीं शती। केरल निवासी। कालिदास के मेघदूत की शैली पर रचा गया एक काव्यग्रंथ । यह भी मंदाक्रांता छंद में ही है और इसके 102 श्लोक हैं। इसमें कांची नगरी की एक रमणी द्वारा वृंदावनवासी श्रीकृष्ण को प्रेषित प्रेमसंदेश का वर्णन है। 2) ले रूप गोस्वामी सन 1492-1591। वृन्दावन से मथुरा, कृष्ण के पास हंसद्वारा संदेश इसमें वर्णित है। अत्यंत भक्तिपूर्ण काव्य । 3) ले.रघुनाथदास। ई. 17 वीं शती। श्रीनरसिंहदास ने इसका बंगाली में अनुवाद किया। हंसयामलतन्त्रम् - श्लोक - लगभग 925 1 हंसविलास ले. हंसभिक्षु इसमें टुटके हैं। श्लोक 56001 हंससंदेश ले. वेंकटनाथ (ई. 14 वीं शती) जिनका दूसरा नाम वेदांत देशिक भी है। "हंससंदेश" का आधार रामायण की कथा है। इस संदेश काव्य में हनुमान् द्वारा सीता की 428 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड खोज करने के बाद तथा रावण पर आक्रमण करने के पूर्व, राम का राजहंस के द्वारा सीता के पास संदेश भेजने का वर्णन है । यह काव्य दो आश्वासों में विभक्त है और दोनों में (60+51) 111 श्लोक हैं। इसमें कवि ने संक्षेप में रामायण की कथा प्रस्तुत की है और सर्वत्र मंदाक्रांता छंद का प्रयोग किया है। 2) ले रूपगोस्वामी । ई. 16 वीं शती । कृष्ण विषयक संदेश काव्य । 3) ले. धर्मसूरि । ई. 15 वीं शती । हारकातन्त्रम् - शंकर-पार्वती संवादरूप। विषय- पंचाग्निसाधन, धूम्रपानविधि, शीतसाधन विधि आदि तांत्रिक विधियां । हारावली ले. - पुरुषोत्तम । ई. 12 वीं शती । अप्रचलित शब्दों का कोश । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हारावलीतंत्रम् 15 पटलों में पूर्ण विषय- महामाया तथा मातृका की पूजा, होम और पूजाविधि का फल विशेष रूप से वर्णित । नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्म परस्पर पूर्व की अपेक्षा रखते हैं, अतएव मन्त्री को पहले नित्य, उसके सिद्ध होने पर नैमित्तिक, तदुपरान्त काम्य अर्चना करना चाहिये, यह भी कथन इसके प्रारम्भ में किया गया है। - हारिद्रवीय शाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) हरि के कुल जन्म, स्थान, आदि के विषय में कुछ ज्ञान नहीं है । सायणकृत ऋग्वेद भाष्य और निरूक्त इन दोनों ग्रंथों में हारिद्रवीय ब्राह्मणग्रंथ के उद्धरण मिलते हैं। कई ग्रंथों में पांच अवान्तर भेद कहे गये हैं। यथा हारिद्रव, आसुरि, गार्ग्य शार्कराक्ष और अप्रवसीय । हारीतधर्मसूत्रम् इ.स. 400 से 700 के बीच के कालखण्ड में हारीत नामक सूत्रकार ने इसकी रचना की है जिसमें धर्मशास्त्र विषयक जानकारी दी गई है। इसमें धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों, ब्रह्मचर्य, स्नातक, गृहस्थ, वानप्रस्थ के आचार, जननमरणाशौच, श्राद्ध, पंक्तिपावन, आचरण के सामान्य नियम, पंचयज्ञ, वेदाभ्यास और अनध्याय के दिन, राजा के कर्तव्य, राजनीति के नियम, न्यायालय की कार्यपद्धति, कानून के विभिन्न नाम, पति-पत्नी के कर्त्तव्य, पापों के फल, प्रायश्चित्त, पापविमोचनात्मक प्रार्थना तथा कुछ अर्वाचीन प्रतीत होता है। कुछ श्लोकों में नक्षत्रों की जानकारी है। For Private and Personal Use Only - हारीतशाखा (कृष्णयजुर्वेदीय) - हारीत शाखा केवल सूत्र शाखा के रूप में उपलब्ध हैं। हारीत के श्रौत, गृह्य और धर्मसूत्र के वचन अनेक ग्रंथों में मिलते हैं एक हारीत किसी आयुर्वेद संहिता के भी रचयिता थे। एक कुमार हारीत का नाम बृहदारण्यक उपनिषद् (4-6-3) में मिलता है। हारीतस्मृति ले. हारीत सूत्रकार इ.स. 400 से 700 के बीच कालखण्ड में रचित । इस स्मृति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के धर्म व आचार, यज्ञोपवीत धारण करने बाद ब्रह्मचर्य का पालन, विवाहोपरान्त गृहस्थ के आचार, वानप्रस्थ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व संन्यास धर्मविषयक जानकारी दी गई है। इसके अतिरिक्त नारीधर्म, नृपधर्म, जीव- परमेश्वर स्वरूप मोक्षसाधन, ऊर्ध्वपुण्ड पर चार अध्याय । व्यवहाराध्याय भी इसमें है। हास्यकौतूहलम् (प्रहसन ) - ले. विठ्ठल कृष्ण विद्यागी। ई. 18 वीं शती । हास्यसागर (प्रहसन ) ले. - रामानन्द । ई. 17 वीं शती । संवाद संस्कृत में, परंतु पांच पद्य हिन्दी में (छप्पय छन्द में)। इसमें हिन्दुओं की औरंगजेब-कालीन दुर्गति का चित्रण है । कथासार - ब्राह्मण वधू बिन्दुमती की कुट्टनी कलहप्रिया उसे मान्दुरिक नामक यवन के सम्पर्क में लाती है। विन्दुमती का भाई कुलकुठार राजा को इसकी जानकारी देता है। वहीं भण्डाफोड होता है। अन्य पात्र हैं मिथ्याशुक्ल और मण्डक चतुर्वेदी www.kobatirth.org हास्यार्णव (प्रहसन ) - ले. म.म. जगदीश्वर भट्टाचार्य । सन् 1701 में लिखित। अंकसंख्या दो। नायक- राजा अनयसिन्धु, मंत्री कुमतिवर्मा, आचार्य विश्वभण्ड और शिष्य कलहांकुर प्रमुख पुरुष पात्र हैं। सभी स्त्री-कामी चरित्रहीन । नायिकाएं बन्धुरा और मृगाइकलेखा भी चरित्रहीन धूर्तता के बल पर कार्यसिद्धि का वर्णन है। श्रीनाथ वेदान्तवागीश द्वारा संस्कृत टीका के साथ सन् 1896 में प्रकाशित। ताराकान्त काव्यतीर्थ द्वारा सन् 1912 में पुनश्च प्रकाशित । हा हन्त शारदे ( रूपक) ले. स्कन्द शंकर खोत । श. 20 | नागपुर से प्रकाशित । कथासार कीर्ति के गुड्डे के साथ मूर्ति की गुड्डियों की शादी होती है विवाहसमारोह के पश्चात् भोजन उन कागजों पर परोसा जाता है जिन पर गोविन्द (मूर्ति के पिता) ने अन्वेषण करके महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है। मूर्ति के भाई की दूसरे दिन परीक्षा है उसकी पुस्तक के पत्रे भी खेल में काम आते हैं। उद्विग्न पिता-पुत्र स्त्रीशिक्षा के पक्षपाती बनते हैं। - हुतात्मा दधीचि ले. श्रीराम वेलणकर । सन् 1963 में दिल्ली आकाशवाणी से प्रसारित संगीतिका । महाभारत के वनपर्व की कथा पर आधारित । विषय- महर्षि दधीचि के बलिदान की कथा । प्राकृत भाषा का अभाव । हृदयकौतुकम् ले. महाराजा हृदयनारायण गढानरेश I विषय- संगीत शास्त्र। ई. 17 वीं शती । - हृदयप्रकाश ले. महाराजा हृदयनारायण गढानरेश। ई. 17 वीं शती । विषय- संगीतशास्त्र । - हृदयहारिणी - ले. दण्डनाथ नारायण भट्ट । सरस्वतीकण्ठाभरणम् की व्याख्या । मूल भोज कृत व्याख्या का यह संक्षेप है । हृदयामृतम् - ले. जगन्नाथ विषय- तंत्रशास्त्र । हितकारिणी जबलपुर (म.प्र.) से सन् 1964 से यह पत्रिका प्रकाशित हुई । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हितोपदेश - ले. नारायण पंडित । नीतिकथा विषयक प्रख्यात ग्रंथ । इसके कर्ता नारायण पंडित बंगाल के राजा धवलचन्द्र के आश्रित थे । इ.स. 14 वीं शती में पंचतंत्र के आधार पर ही इस ग्रन्थ की रचना की गई है। लगभग आधी कथाएं पंचतंत्र से ली गई हैं । ग्रंथ के कुल चार परिच्छेद हैंमित्रलाभ, सुहृद्-भेद, विग्रह और सन्धि इसके श्लोक उपदेशात्मक और कथाएं बोधप्रद हैं। 1 हिरण्यकेशिसूत्रम् (या सत्यापाठ गृह्यसूत्रम् ) हिरण्यकेशी कल्पसूत्र के 19 वें व 20 वें प्रश्नों को लेकर इसकी रचना हुई। इसमें गृह्य-संस्कार के समय कहे जाने वाले मंत्र चार पटलों में दिये गये हैं। डॉ. किटें द्वारा विएन्ना में सन् 1889 में सम्पादित, एवं सैक्रेड बुक ऑफ दि ईस्ट, भाग 30 में अनूदित टीका (1) प्रयोगवैजयन्ती, महादेव द्वारा। (2) मातृदत्त द्वारा । हिरण्यकेशि-धर्मसूत्रम् - हिरण्यकेशि-कल्पसूत्र के 26 वें व 27 वें प्रश्नों पर इसकी रचना की गई है। रचनाकार स्वयं हिरण्यकेशी अथवा उनका कोई वंशज रहा होता। भारतरत्न डॉ. पां.बा. काणे के मतानुसार हिरण्यकेशी ग्रंथों की रचना 5 वीं शताब्दी के पूर्व की गई है। चरणव्यूह के भाष्य में महार्णव के उद्धरणों से इस बात का पता चलता है कि हिरण्यकेशी ब्राह्मण महाराष्ट्र के सह्याद्रि और महासागर के बीच स्थित क्षेत्र चिपळूण में पाये जाते हैं। ये कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं। हिरण्यकेशि- श्रौतसूत्रम् - हिरण्यकेशि-कल्पसूत्र के प्रथम 18 अध्याय तथा 21 से 25 अध्याय श्रौतसूत्र के रूप में जाने जाते हैं। इनमें दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, चातुर्मास सोमयाग वाजपेय, राजसूय, आदि यज्ञों का ब्योरेवार वर्णन है। इनमें से कुछ सूत्रों पर महादेवभट्ट ने "वैजयंती", गोपीनाथभट्ट ने "ज्योस्त्ला" तथा महादेव दंडवते ने "चंद्रिका" नामक टीकाएं लिखी हैं। हिन्दुजन संस्कारणी सन् 1912 में मद्रास से श्रीमन्नव सिंहाचलम् पन्तुलु के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन हुआ। हिंदुविश्वविद्यालय (महाकाव्य) ले. मधुसूदनशास्त्री। वाराणसी के निवासी । सन् 1936 से 68 तक हिंदु विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के प्रमुख प्रस्तुत महाकाव्य का प्रकाशन चौखम्बा पुस्तकालय द्वारा हुआ है। साहित्य शास्त्रवियक अनेक विषयों पर आपने विवरणात्मक लेखन किया है। काशी हिंदु विश्व विद्यालय नामक आपकी एकांकिका का वि.वि. के सुवर्णमहोत्सव में प्रयोग हुआ था। हिंदुहितवार्ता ले. शिवदत्त त्रिपाठी । हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर का अनुवाद- अनुवादकर्ताएल. व्ही. शास्त्री । वैदिक वाङ्मय विषयक प्रकरण का अनुवाद | मूल लेखक मेकटोनेल । For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 429 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हीरक-ज्युबिली-काव्यम् - ले.- गोलोकनाथ बंद्योपाध्याय। ई. 20 वीं शती। हेतिराजशतकम् - ले.-श्रीनिवासशास्त्री। हेतुचक्रडमरु (या हेतुचक्रनिर्णय तथा चक्रसमर्थनम्) - ले.- दिङ्नाग। ई. 5 वीं शती। तिब्बती अनुवाद के रूप में सुरक्षित। दुर्गाचरण चटर्जी द्वारा संस्कृत में पुनरनुवाद । तिब्बती अनुवाद जोहार निवासी बोधिसत्व आचार्य ने भिक्षु धर्माशोक के सहकार्य से किया। विषय- बौद्धदर्शन । हेतुबिन्दु - ले.- धर्मकीर्ति। बौद्धाचार्य। ई. 7 वीं शती। न्यायशास्त्र पर एक महत्त्वपूर्ण बृहत् रचना । हेतुरामायणम् - ले.- विठोबा अण्णा दप्तरदार । ई. 19 वीं शती। हेतुविद्यान्यायप्रवेशशास्त्रम् - ले.- शंकरस्वामी। न्यायशास्त्रीय रचना । व्हेनसांग द्वारा इसका चीनी अनुवाद सन् 647 में हुआ। हेमाद्रिकालनिर्णयसंक्षेप (या संग्रह) - ले.- भट्टोजि दीक्षित । लक्ष्मीधर के पुत्र। हेमाद्रिनिबंध - ले.- हेमाद्रि। ई. 13 वीं शती। पिता कामदेव । लेखक के चतुर्वर्ग चिंतामणि से अत्यधिक साम्य है। हेमाद्रिप्रयोग - ले.- विद्याधर । हेमाद्रिसर्वप्रायश्चित्तम् - ले.- बालसूरि । हेमाद्रिसंक्षेप - ले.- भजीभट्ट। हैदराबाद-विजयम् (नाटक) - ले.- नीजे भीमभट्ट। (जन्म सन् 1903) "अमृतवाणी" में सन 1954 में प्रकाशित । दृश्यसंख्या -दस। कथासार-सरदार पटेल को ज्ञात होता है कि हैदराबाद में रजाकारों का उत्पात शिखर पर है। इस विषय में गवर्नर जनरल राजगोपालाचार्य नेहरु से कहते हैं कि जुनागढ तथा हैदराबाद के नवाब ही समस्या के कारण कि जुनागड तथा हैं। पटेल बताते हैं कि कासिम रिजवी के कारण निजाम अपने राज्य को भारत में विलीन नहीं होने देता। नेहरु हैदराबाद __ पर आक्रमण करने की अनुमति देते हैं। परास्त होकर खलनायक कासिम रिजवी भाग जाता है। नेहरु, पटेल को बधाई देते हैं। हैमकौमुदी - ले.- मेघविजय। हैम धातुपाठ की व्याख्या। हैमलघुक्रिया - ले.- विनयविजय गणी। हैम धातुपाठ की व्याख्या। हैहय-विजयम् - ले.- हेमचन्द्र राय। जन्म 1882। पितायदुनंदन राय। ऐतिहासिक महत्त्व का महाकाव्य । होमकर्मपद्धति - ले.- हरिराम। श्लोक- 200 । होमनिर्णय - ले.- भानुभट्ट। पिता- नीलकण्ठ। समय1620-1680 ई.। होमपद्धति - ले.- लम्बोदर । (2) ले.- हरिराम । श्लोक- 2001 होमविधि - ले.- गौडवासी शंकराचार्य । श्लोक- 100। यह तारारहस्य वृत्ति के अन्तर्गत 14 वा अध्याय है। होलिकाचरित्रम् - ले.- वादिचन्द्र सूरि। गुजरात निवासी। ई. 16 वीं शती। होलिकाशतकम् - ले.- विश्वेश्वर पाण्डेय। पटिया (अलमोडा जिला) ग्राम के निवासी। ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध) होलिकोत्सवम् - ले.- श्रीमती लीला राव दयाल । तीन दृश्यों में विभाजित एकांकी रूपक । ग्रामीण श्रमिक परिवार का चित्रण । कथासार- गणु की पत्नी राधा अपना केयूर बंधक रखकर होलिकोत्सव हेतु बच्चे के कपड़े खरीदती है। होली निमित्त ताडीघर गया गणु अपनी पत्नी का गहना दूसरे के हाथ में देख उसे व्यभिचारिणी समझता है और मदिरा के नशे में उसे मारपीट कर घर से निकाल देता है। दूसरे दिन घर में बंधक - रखने की चिट्ठी पाकर पछताता है। हौत्रध्वान्तदिवाकर (गद्य निबंध) - ले.- कृष्णशास्त्री घुले। नागपुरनिवासी। ई. 19-20 वीं शती। विषय- अग्निहोत्र विषयक चर्चा | 430/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में अन्यान्य विषयों का परामर्श लेने वाले विविध ग्रंथों के कुछ ग्रंथकारों का नाम निर्देश तो हुआ है, परंतु उनके द्वारा लिखित एक भी ग्रंथ का नाम उपलब्ध नहीं होता । कुछ ग्रंथों के नाम मिलते हैं परंतु अभी तक वे ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सके। इसी प्रकार कुछ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं परंतु उनके लेखकों के नामों का पता न चलने के कारण, उनका उल्लेख करने वाले समीक्षकों ने यत्र तत्र 'लेखक अज्ञात' इस शब्द का प्रयोग प्रायः सर्व स्थानों पर किया है। प्रस्तुत कोश के मूल कलेवर में केवल तंत्रशास्त्र तथा धर्मशास्त्र विषयक अज्ञात लेखकों के 'ग्रंथों' का निर्देश किया है। इन दो शास्त्रों पर लिखित छोटे बड़े ग्रंथों की संख्या अत्यधिक होने के कारण केवल उन दो शास्त्रों के अज्ञातकर्तृक ग्रंथों का अन्तर्भाव मूल कोश में करना हमने उचित समझा। अन्य अज्ञातकर्तृक ग्रंथों की स्वतंत्र सूची इस परिशिष्ट में दी जा रही है। इस सूची में ग्रंथ नाम के अतिरिक्त जो अल्प स्वल्प जानकारी ग्रंथों के विषय में प्राप्त हुई, वह भी निर्दिष्ट की है। तंत्रशास्त्र और धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथों के नाम इस सूची में अंतर्भूत किए जाते तो यह परिशिष्ट बहुत ही बढ जाता। उस विस्तार को टालने के एकमात्र हेतु से यह संक्षिप्त परिशिष्ट दिया जा रहा है। अनंगतिलक विषय- कामशास्त्र । अनंगदीपिका विषय- कामशास्त्र । विषय- अभिनयकला । अनंगशेखर अंगहारलक्षणम् अभिनयलक्षणम् - विषय अभिनयकला । अभिनयादिविचार- विषय अभिनयकला । आलोक जगन्नाथचक्रवर्ती कृत तंत्रप्रदीप की टीका । आदिभरतप्रस्तार - विषय- संगीतशास्त्र । - - विषय- कामशास्त्र । - - www.kobatirth.org (परिशिष्ट) अज्ञातकर्तृक- ग्रंथ - इंग्लंडीय भाषाव्याकरणम् मूल अंग्रेजी व्याकरण ग्रंथ का अनुवाद। ई. 1847 में प्रकाशित। - इतिहासतमोमणि इ. 1813 में लिखित काव्य में अंग्रेजों के भारतविजय का क्रमशः वर्णन है। इतिहासदीपिका 5 प्रकरणों के इस ग्रन्थ में टीपू सुलतान और मराठों का युद्ध वर्णित है। ईश्वरप्रत्याभिज्ञाविमर्शिनी श्लोक 3500 इसे चतुःसाहस्त्री भी कहते हैं। विषय- काश्मीरी शैव दर्शन । ऋतुमतीविवाह-विधि - निषेधप्रमाणानि विषय- धर्मशास्त्र । ओष्ठशतकम् ओष्ठविषयक खंडकाव्य । ओष्ट्यकारिका - इस 6 कारिकाओं के धातुपाठ में "प" वर्गीय "ब" वर्णान्त धातुओं का संग्रह है। कम्पनीप्रतापमण्डनम् विषय सप्तम एडवर्ड का महत्त्व । करिकल्पलता विषय पशुविद्या केक्टेश्वर प्रेस, मुंबई से । प्रकाशित । कर्मशतकम् - आचार्य नंदीश्वरकृत अवदान शतक से इसकी समानता है। प्राचीन अवदान कृति । कर्मसम्बन्धी 100 कथाएं । मूल रचना अप्राप्य । तिब्बती अनुवाद से ज्ञात । कल्पद्रुमावदानमाला महायान सम्प्रदाय की रचना समयई. 6 वीं शती । अवदानशतक तथा अन्य स्रोतों से संग्रहीत अवदानों का काव्यमय वर्णन। समस्त अवदानमाला अशोक तथा गुरु उपगुप्त के संवाद रूप में है। अवदानशतक से भिन्न । कल्याणनैषधम् - कविचिन्तामणि कविकण्ठपाश विषय अक्षरों तथा उनके समूह का मंगल अर्थ तथा छन्दः शास्त्रीय रचना । - काकदूतम् - कारागृह से एक पापी ब्राह्मण का अपनी प्रेयसी मदिरा को कौए के द्वारा संदेश भेजता है जिस में नीतिपर वचन आते हैं। - काकशतकम् कामन्त्रम्- 14 अध्याय । कालिन्दीमुकुन्द-चम्पू Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only कालीपद्धति- श्लोक- 1500 काश्यपकृषिसंहिता अड्यार ग्रंथालय में सुरक्षित । काश्यपीयसंहिता इसमें जुबन्ध और मृत्संस्कार नाम के केवल दो ही पटल हैं। श्लोकसंख्या- 80 1 कुण्डकल्पद्रुमटीका यह माधव शुक्ल कृत कुण्डकल्पद्रुम पर टीका है। इसमें स्थान स्थान पर विविध तंत्रग्रंथों के नाम कुचिमारतन्त्रम्- कामशास्त्र के अन्तर्गत णलेपनादि औषधि प्रयोग तथा उनका उपयोग इसका विषय है। - कुमाराभ्युदयचम्पू कुमारोदयम्पू कृष्णानंदलहरी कृष्णलीलामृतम् - इस पर अच्युतराय मोडक की टीका है। - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 431 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृष्णवास्तुशास्त्रम्- श्री. व्ही. रामस्वामी शास्त्री एण्ड सन्स ने तेलगु अनुवाद सहित इसका प्रकाशन मद्रास में किया है। कृष्णवृत्तम् - विविध छंदों में भगवान् कृष्ण की स्तुति इस छंदःशास्त्रीय ग्रंथ का विषय है। कौबेररम्भाभिसारम् - महाभारत में उल्लिखित नाटक।। क्रमरत्नमालिका - नौ पटलों में पूर्ण। श्लोक- 2000। विषय- गोपालविषयक 59 महामन्त्र और उनके जप का क्रम । क्षपणकमहान्यास - क्षेमकुतूहलम्- विषय- पाकशास्त्र । प्राप्तिस्थान- ओरिएंटल बुक हाऊस, पुणे। ख्रिस्तसंगीतम् - सन 1842 में कलकत्ता में प्रकाशित । ख्रिस्तीय-धर्मपुस्तकान्तर्गतो हितोपदेश - बैप्टिस्ट मिशन मुद्रणालयद्वारा कलकत्ता में इ. 1877 में प्रकाशित । गणपतिदीक्षाकल्पसूत्रम् - 135 सूत्रों में पूर्ण। गणेशयोगमीमांसासूत्रम् - सूत्रसंख्या- 409 । गणेशसहस्रनाम - गणेशपुराण से उद्धृत । रुद्रयामल में संगृहीत। . गर्गशिल्पसंहिता- लंदन के ट्रिनिटी कालेज के ग्रंथालय में सुरक्षित। गर्गसंहिता - श्लोक- 3701 गल्पकुसुमांजलि - ऐतिहासिक विषय पर विविध लेखों का संकलन। गारुडसंहिता - विषय- मूर्ति के आकार प्रकार । गीतदोषविचार - चण्डिकास्तोत्रम् - चतुर्भुजी टीका सहित। अध्याय 13। श्लोक - 15001 चत्वारिंशत्सद्रागनिरूपणम् - चन्द्रहाससंहिता - शिव-चन्द्र संवादरूप । विषय- गूढ शरीर ज्ञान । चन्द्रावलीचान्द्ररामायणम् - हनुमान् तथा चन्द्र के संभाषण के माध्यम से रामायण-कथा का निरूपण है। इसमें 75000 श्लोक बताये जाते हैं। कहते हैं कि इसकी रचना रेवत मन्वन्तर के बत्तीसवें त्रेतायुग में हुई। चिकित्सा - काशिका की व्याख्या। आफ्रेक्ट की बृहत् सूची में दर्शित । चिदम्बररहस्यम् - छन्दःश्लोक - छन्दःसंख्याछन्दःसुधा - इस पर गणाष्टक नामक टीका है। छन्दोरत्नाकर - जप-पद्धति - श्लोक-9601 जपविधानम् - श्लोक - 4001 जैनाचार्यविजयचम्पू- मल्लीसेन आदि जैन साधुओं का चरित्र । डाकिनीकल्प - श्लोक- 2251 डामरतन्त्रसार- श्लोक- 1008 । ताननिघण्टु - विषय- संगीत। तालप्रस्तारम्- विषय- संगीत । तालमालिका - त्रिपुरदाह- (डिम) त्रिपुरसुंदरीमंत्रनामसहस्रम्तृतीयपुरुषार्थ-साधनसरणि- विषय- कामशास्त्र । दशभूमिसूत्रम् - दशभूमीश्वर सिद्धान्त का परिष्कृत एवं विकसित रूप इस में प्राप्त होता है इस संस्कृत रचना के चार चीनी अनुवाद 297-789 ई. के अन्तर्गत धर्मरक्ष, कुमारजीव, वररुचि तथा शीलभद्र द्वारा संपन्न हुए। इसके समान अन्य रचना दशभूमिलेशच्छेदिकासूत्र (ई. 70 में अनूदित) केवल अनुवाद से ही ज्ञात है। दशभूमीश्वरसूत्र (नामान्तर- दशभूमिक, दशभूमक)महायान सूत्रग्रंथ। कतिपय प्राप्त पाण्डुलिपियों की पुष्पिकाओं में इसे "दशभूमीश्वर-महायान-सूत्ररत्नराज" कहा है। अवतंसक सूत्र का होते हुए, स्वतन्त्ररूप में प्रसिद्ध है वर्ण्य विषय दशभूमियों का विवेचन है जिनके द्वारा सम्यक् बोधि प्राप्त की जा सकती है। यह व्याख्यान बोधिसत्व वज्रगर्भ द्वारा किया गया है जिसे शाक्यमुनि दशभूमियों की व्याख्या के लिये आमंत्रित करते हैं। रचना गद्य में है। प्रथम परिच्छेद में गाथाएं हैं। दिनेशचरितम् - विषय- सूर्यस्तुतिपरकाव्य । धनुश्चन्द्रोदय - विषय- धनुर्विद्या । धनुष्प्रदीप - विषय- धनुर्विद्या । धर्मकारिका - विभिन्न लेखकों की 508 कारिकाओं का संग्रह । धर्मप्रश्न - आपस्तम्बधर्मसूत्र का एक अंश। धर्मराजनाटकम् - प्रकाशक- कोल्हापुर के निवासी श्री गजानन बालकृष्ण दंडगे को कोल्हापुर जिले के अन्तर्गत अपने गांव में इसकी पाण्डुलिपि मिली तद्नुसार इसका लेखनकाल सन 1887 है। स्वातंत्र्य, जातिभेद, शिक्षा का महत्त्व आदि आधुनिक विचार समर्थ रामदास और उनके शिष्य श्री. शिवाजी महाराज के संवाद में इस नाटक में दिखाई देते हैं। धर्मशास्त्रसंग्रह- श्राद्धपरक स्मृति-वचनों का संग्रह। धर्मसारसमुच्चय - यह “चतुर्विंशतिस्मृतिधर्मसारसमुच्चय" ही है। धातुकल्प - विषय-खनिशास्त्र । भांडारकर प्राच्य विद्या संशोधन मंदिर में प्राप्य। धूर्तानन्दम - (नाटक) - विषय- विलासप्रिय नागर तरुण का अधःपात । 432 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ध्वजप्रतिष्ठा - श्लोक- 17301 नयदर्शनचम्पू नलहरिश्चन्द्रीयम् - नलभूमिपालरूपकम् नववर्षमहोत्सव - श्लोक नाटकपरिभाषा निर्मलदर्पण - प्रक्रियाकौमुदी की टीका । निसर्गमधुरम् - काव्य । 144 I नीलकण्ठस्तोत्रमन्त्र- श्लोक - 6551 नृसिंहरत्नमाला श्लोक- 21151 नृसिंहवृत्तम् - विविध छंदों में नृसिंह की स्तुति इस छंदः शास्त्रीय ग्रंथ का विषय है। नौका मन्त्रमहोदधि की टीका । पंचेन्द्रोपाख्यानचम्पू - परमार्थ संगीति एक बौद्धस्तोत्र । इसमें धार्मिक प्रार्थनाओं की संक्षिप्त रचना तथा देवीदेवों के अभिधान तथा संस्तुतिपूर्ण विशेषणों की गणना है। परिशेषखण्ड- चतुर्वर्गचिन्तामणि का एक अंश । पर्वनिर्णय- धर्मसिन्धु का एक अंश । I पल्लव राजनीति पर ग्रंथ राजनीतिरलाकर चण्डेश्वरकृत) में उल्लिखित । 1300 ई. के पूर्व रचित । www.kobatirth.org पलाण्डुराजशतकम् - हास्यरसपूर्ण रचना । पलाण्डुशतकम् - हास्यरसपूर्ण रचना । पाकचंद्रिका हिंदी-मराठी अनुवाद सहित प्रकाशित। विषय पाकशास्त्र । पाणिनीय लघुवृत्तिविवृत्ति पाणिनीय लघुवृत्ति की श्लोकबद्ध टीका। राजकीय पुस्तकालय त्रिवेन्द्रम में विद्यमान । पाणिनीयसूत्रविवरण - राजकीय पुस्तकालय मद्रास की बृहत् सूची में उल्लिखित । पाणिनीयसूत्रवृत्ति सूची में उल्लिखित | राजकीय पुस्तकालय मद्रास की बृहत् पाणिनीय सूत्रव्याख्यान उदाहरणश्लोक सहित राजकीय पुस्तकालय मद्रास की बृहत् सूची में उल्लिखित । - 28 - - - । पाणिनीयाष्टक वृत्ति सरस्वती भवन काशी में विद्यमान पाणिनीयसूत्रोदाहरणम्- भागवत कथा पर आधारित काव्य । पाणिनीय उदाहरण श्लोकों में गुम्फित । प्रक्रियारत्नम् वि.सं. 1300 से पूर्व रचित सायण की । धातुवृत्ति में तथा दैवम् की पुरुषकार व्याख्या (कृष्णलीलाशुककृत) में बहुधा उद्धृत है। बुधिष्ठिर मीमांसक को संदेह है कि कृष्णलीला शुक ही इसके लेखक हो। यह प्रक्रिया ग्रंथ है। प्रज्ञालहरीस्तोत्रम् - श्लोक- 220 । विषय- देवी की स्तुति । प्रणयचिन्ता विषय- कामशास्त्र । प्रतारकस्य सौभाग्यम् एच्. ए. मनोर के व्याख्यान पर आधारित एवं विदेशी शैली में विरचित रूपक । "मंजूषा” 1955 में प्रकाशित कथासार मित्र द्वारा ठगे जाने पर उदास बने राजेन्द्र से एक व्यक्ति कहता है, कि वह किसी धर्मशाला में ठहरा है, साबुन खरीदने बाहर निकलने पर धर्मशाला का मार्ग भूल जाने से वह चिन्तित है, क्योकिं उसकी धनराशि वहीं पढ़ी है। राजेन्द्र उसे रुपये देकर धर्मशाला की दिशा बताता है। बाद में विदित होता है कि वह भी एक धूर्त था जिसने राजेंद्र को मूर्ख बनाया है। प्रदीप व्याख्या व्याकरण शास्त्र में अनुपदकार ( महाभाष्य के अनन्तर रचित ग्रंथों के लेखक तथा पदशेषकार ( महाभाष्य की त्रुटि को पूर्ण करने वाले अनन्तर रचित ग्रंथों के रचचिता का प्रयोग मिलता है परन्तु इन लेखकों के नाम तथा ग्रंथ अप्राप्य हैं। प्रमाणमंजरी विषय- शिल्पशास्त्र । गुजरात में प्रकाशित । प्रयागकृत्यम् - विषय- धर्मशास्त्र । त्रिस्थली सेतु का एक अंश । प्रस्तारविचार - प्रासाददीपिका जटमल्लविलास द्वारा वर्णित 1500 ई. के पूर्व रचित । विषय- वास्तुशास्त्र । प्रासादमंडनम् - काश्मीर सीरीज आफ टेक्सट्स अॅण्ड स्टडीज द्वारा प्रकाशित । विषय- वास्तुशास्त्र । प्रासादपरापद्धति श्लोक- 20001 प्रासादमण्डलम् - विषय - शिल्पशास्त्र गुजरात में प्रकाशित। भागवत के आख्यान पर आधारित । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बकवधचम्पू बन्धोदय सुरतक्रीडा के विभिन्न आसनों के चित्र सालपत्र पर आलिखित तथा उनका वर्णन श्लोकों में। बादरायणस्मृति - प्रायश्चित्तमयूख एवं नीतिवाक्यामृत की टीका में उल्लिखित । For Private and Personal Use Only I बार्हस्पत्यसूत्रम् अपरनाम नीतिसर्वस्व पंजाब संस्कृत सीरीज में प्रकाशित । - - बिरुदावलि जहांगीर बादशाह का चरित्र वर्णन इस काव्य का विषय है। बृहशिल्पशास्त्रम् - विषय शिल्पशास्त्र गुजरात में प्रकाशित । भक्तिमार्गसंग्रह वल्लभ संप्रदाय के लिए। भागवतप्रमाणभास्कर - 1943 में मुंबई से सप्रकाशतत्त्वार्थ-निबंध के द्वितीय प्रकरण के परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित। भारतेतिहास ई. सन. 49 तक कलकत्ता के संस्कृत साहित्य पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित। विषय- भारत का संपूर्ण इतिहास । भिल्लकन्या-परिणय चंपू इस के प्रणेता कोई नृसिंह- भक्त ( अज्ञातनामा ) कवि हैं। यह चंपू अपूर्ण है। इसमें नृसिंह - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 433 - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवता व वनाटपति हेमांग की पुत्री कनकांगी का परिणय वर्णित है। भुवनदीपक - विषय- वास्तुशास्त्र । प्राप्तिस्थान - खेलाडीलाल संस्कृत बुकडेपो, कचौडी गल्ली, वाराणसी। मंगलापूजाविधि - श्लोक - 1805 । मंजुल-रामायणम्- श्रीरामदास गौड के अनुसार इसमें 1 लाख 20 हजार श्लोक हैं। परंपरा के अनुसार सुतीक्ष्ण नामक ऋषि ने स्वारोचिष मन्वन्तर के 14 वें त्रेता में इसकी रचना की। इसमें 7 सोपान हैं। भानुप्रताप-अरिमर्दन की कथा इसकी विशेषता है। मणिरत्न-रामायणम् - इसमें 36 हजार श्लोक हैं। परंपरा के अनुसार स्वारोचिष मन्वंतर के 14 वें त्रेता में इसकी रचना हुई। वसिष्ठ- अरुंधती संवाद के रूप में राम-कथा का गुंफन है। इसके 7 सोपान है। मधुमण्डनम् - काव्य। मनुष्यालयचंद्रिका - विद्याभिवर्धिनी प्रेस, क्विलोन (केरल) से प्रकाशित। विषय- वास्तुशास्त्र । मयमतम् - शिल्पशास्त्र विषयक ग्रंथ । महान्यास - इसके उद्धरण उज्ज्वलदत्त की उणादिवृत्ति में तथा सर्वानन्द की अमरटीका सर्वस्व में प्राप्त। रचना वि.सं. 1216 से पूर्व। महान्यास- जिनेन्द्रबुद्धि के न्यास पर आधारित व्याकरण ग्रंथ। बारहवीं शती से पूर्व लिखित। मातंगलीला - विषय- पशुविद्या। त्रिवेंद्रम संस्कृत सिरीज द्वारा प्रकाशित। मानवश्राद्धकल्प - हेमाद्रि द्वारा वर्णित । मासतत्त्वविवेचनम् - विषय- मासों एवं उनमें किये जाने वाले उपवास भोज एवं धार्मिक कृत्यों का विवेचन। मानसपूजनम् - श्रीशंकराचार्य विरचित मानसपूजास्तोत्र से मिलता जुलता है। श्लोक (या मन्त्र)- 52 । मानसार - शिल्पशास्त्रविषयक ग्रंथ । मुकुन्दमुक्तावली- श्रीकृष्ण विषयक काव्य । मुक्तिमहानन्दकथा - श्लोक- 878 । मृदंगलक्षणम् - विषय- संगीत । मेलाधिकारलक्षणम् - विषय-संगीतशास्त्र । यतिधर्मसंग्रह - आद्य शंकराचार्य के अनन्तर आचार्य परम्परा एवं मठाम्नाय का और यतिधर्म का वर्णन । युक्तिकल्पतरु - विषय- वास्तुशास्त्र एवं नौकाशास्त्र । कलकत्ता ओरिएण्टल सीरीज द्वारा प्रकाशित। योगरत्नाकर - विषय- आयुर्वेद। ई. 18 वीं शती। लंकावतारसूत्रम् - महायान सिद्धान्तों का ग्रंथ । रघुपतिरहस्यदीपिका - रंगराट्छन्दरत्नावदानमाला - रत्नों के समान बहुमूल्य अवदानों का संग्रह, महायान सम्प्रदाय की रचना ई. 6 वीं शती। रसरत्नसमुच्चय - विषय- खनिशास्त्र। इसमें सोना, चांदी, तांबा, लोहा, सीसा, कथिल, पितल और वृत्त नामक नौ धातु के प्रकार बताए हैं। खनिशास्त्र विषयक, रत्नपरीक्षा, लोहार्णव, धातुकल्प, लोहप्रदीप, महावज्र, भैरवतंत्र, पाषाणविचार और धातुकल्प नामक मूल ग्रंथों का निर्देश शिल्पसंसार मासिका पत्रिका के अप्रेल 1955 के अंक में श्री. गो.ग. जोशी ने किया है। रसवती - शतकम्। रत्नशतकम् - रागचन्द्रिका - विषय- संगीतशास्त्र । रागध्यानादिकथनाध्याय - विषय- संगीतशास्त्र । रागप्रदीप - विषय- संगीतशास्त्र। रागलक्षणम् - विषय- संगीतशास्त्र । रागवर्णनिरूपणम् - विषय- संगीतशास्त्र । रागसागरम् - पुराण पद्धति से नारद-दत्तिल संवादात्मक 3 अध्यायों की रचना । भिन्न राग, उनकी रचना तथा अंग वर्णित । अनन्तर काल के परिवर्तन तथा नवीन मत समाविष्ट हैं। यह 14 वीं शती के बाद की रचना है क्यों कि इसमें शाङ्गिदेव का नामनिर्देश है। रागारोहावरोहण-पट्टिका - राजनीतिकामधेनु - चण्डेश्वर के राजनीतिरत्नाकर द्वारा वर्णित। राजविजय- (नाटक) ऐतिहासिक रचना। प्रथम अभिनय राजनगर में यज्ञ के अवसर पर। 1947 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित। नायक राजवल्लभ (बंगाल निवासी)। (1707-1763) के धार्मिक अनुष्ठानों तथा ऐश्वर्य की चर्चा | यह रचना द्वितीय अंक के अंतिम भाग से खण्डित है। अम्बष्ठों को उपनयन तथा यज्ञ का अधिकार है, यह सिद्ध करना ही रचना का हेतु है। राजीसाधन - विषय- सुवर्ण बनाने की विधि । रामानुजीयम् - काव्य। रामानुजचरितम् - काव्य । रामानुजदिव्यचरितम् - रामायण-कालनिर्णयसूचिका - राम की जन्मतिथि तथा अन्य घटनाओं की तिथि इसमें निर्दिष्ट हैं। रामायणतात्पर्यदीपिका - रामायणसारदीपिका - रूपावतार-व्याख्या - विषय- व्याकरण । 434 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्मणाभरणीचम्पू - लक्ष्मीचरित्रम् - लक्ष्मी-केशव संवादरूप। श्लोक- 67। विषय- लक्ष्मीयुक्त और लक्ष्मीवियुक्त जीवों के लक्षण इ.। लघुमनोरमा - सिद्धान्तकौमुदी की टीका । लघुशंखस्मृति - आनन्दाश्रम पुणे द्वारा प्रकाशित । लघ्वाश्वलायनस्मृति - आनन्दाश्रम पुणे द्वारा प्रकाशित । लास्यपुष्पांजलि - विषय- नृत्यकला। लेखपंचाशिका - विषय- 50 प्रकार के विक्रयपत्र, प्रतिज्ञापत्र एवं लेख्यप्रमाण। सन 1232 ई. में लिखित । वर्धमान-व्याकरणम् - वसिष्ठ-धनुर्वेद - प्रकाशक- वेकटेश्वर प्रेस, मुंबई। वांछाकल्पलता - गणेश विषयक ग्रंथ। श्लोक 200। वास्तुविधानम् - विषय- शिल्पशास्त्र। गुजरात में प्रकाशित । विक्रमादित्य-वीरेश्वरीयम् - विषय- युद्धशास्त्र । विजयपुरीशकथा - विषय-बीजापुर के यवन राजाओं का चरित्र । वृत्ततरंगिणी - विषय- छंदःशास्त्र । वृत्तरामायणम् - विषय- अन्यान्य छंदों में रामकथा का निवेदन । वृत्तलक्षणम् - विषय-छंदःशास्त्र । वृत्तविनोद - विषय- छंदःशास्त्र । वृत्तिरत्नम् - काशिका वृत्ति की व्याख्या। वृन्दावनरहस्यम् - श्लोक- 211। वेदानध्याय - विषय- वैदिक अध्ययन में छुट्टियां । वेल्लापुरी विषयगद्यम् - विषय- वेलोर के प्रदेश तथा राजा केशवेश का चरित्र। वेश्यांगना-कल्पद्रुम - विषय- कामशास्त्र । वैखानसागम - विषय- वास्तुशास्त्र । वैष्णवधर्मखंडनम् - व्याघ्रालयेशाष्टमीमहोत्सवचम्पू - विषय- त्रावणकोर के व्यक्कोम मन्दिर की कथा। शंकरविजयविलासम् - यह काव्य चिविलासयति और विज्ञानकाण्ड तपोवन के संवादरूप में है। शब्दरसार्णव - सिद्धान्तकौमुदी की टीका। शब्दसागर - सिद्धान्तकौमुदी की टीका । शरभोजिमहाराजजातकम् - तंजौरनरेश शरभोजी भोसले का संपूर्ण चरित्र। शिल्परत्नम् - शिल्पशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। दो खंडों में प्रकाशित। शिल्परत्नाकर - विषय- शिल्पशास्त्र। गुजरात में प्रकाशित । शृंगारकन्दुकम् - अपरनाम- जारपंचाशत् । शृंगाररत्नाकर - श्रीकण्ठत्रिशती - श्रीकृष्णचम्पूश्रीविद्या - षट्त्रिंशन्यतम् - स्मृति चंद्रिका एवं पराशर माधव में उल्लिखत । सकलजननीस्तव - श्लोक- 324 । संगीतमणिदर्पण - संगीतशास्त्रम्संगीतशास्त्र-दुग्धवारिधि - संगीतसर्वस्वम् - संगीतसारसंग्रह - संगीतस्वरलक्षणम् - संगीतहस्तादि-लक्षणम् - सत्यनाथ-माहात्म्य-रत्नाकर- इस काव्य का विषयमाध्वसांप्रदायी द्वैतसिद्धान्ती श्रीसत्यनाथतीर्थ का चरित्र है। सन्तानगोपालप्रबन्धसंदर्भसूतिका- हारलता पर टीका । सप्तमठाम्नायिकम् - (देखिए मठाम्नायादिविचार) सप्तस्वरलक्षणम्- विषय- संगीतशास्त्र । समयडिंडिम - इसमें कवि ने समय की अस्थिरता का तथा काल की अगाधता का वर्णन किया है और कौमुदीकुसुमम् में कवि ने सिद्धान्तकौमुदी के प्रकरणों के क्रम एवं नामकरण की सार्थकता का विवेचन पद्यों में किया है। सन 1902 में उक्त दोनों रचनाओं का प्रकाशन एक पुस्तिका के रूप में किया गया। सर्वस्वलक्षणम् - विषय- संगीतशास्त्र । सारोद्धार - सुधांजनम् - सिद्धान्तकौमुदी की टीका । सुभद्राहरणचम्पू सुवर्चसरामायणम् - परंपरानुसार इसकी रचना वैवस्वत मन्वंतर के 18 वें त्रेतायुग में हुई। इसमें कुल 15 हजार श्लोक हैं। इसमें प्रमुखतया किष्किंधा पर लक्ष्मण का कोप, सुग्रीवमिलन, वाली-तारा संवाद, वाली-रामसंवाद, रावण-दरबार, रावण को मंदोदरी की सीख, सुलोचना-विलाप, लक्ष्मण शक्ति, पर्वतसहित हनुमान् का अयोध्या में आगमन, भरत-हनुमान् संवाद, धोबी-धोबीन संवाद, शांता को सीता का शाप, शांता को पक्षियोनि की प्राप्ति, सीतात्याग, लव-कुश जन्म, लव-कुश द्वारा अश्वबंधन तथा अश्व के रक्षकों से युद्ध आदि रामायण के विभिन्न प्रसंगों का विवरण है। सूर्यप्रज्ञप्ति - ई. पूर्व 2 री शताब्दी में जैनियों के इस ज्योतिष ग्रंथ का निर्माण हुआ। इसके ज्योतिषविषयक नियम संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /435 For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org वेदांगज्योतिष से मेल खाते हैं। सेतुराजविजयम् - माध्व सम्प्रदायी आचार्य का चरित्र । स्तौद शाखा- (अथर्ववेद की अज्ञात शाखा)- अथर्व परिशिष्ट 23-4 में इस शाखा का निर्देश है। इसके अतिरिक्त इस शाखा के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। स्वरचिन्तामणि - विषय- संगीतशास्त्र । स्वरतालादिलक्षणम् - हनुमदवदानचम्पू - हंसदूतम् - विषय- नीतितत्त्वोपदेश। हास्यचूडामणि - (प्रहसन)- इस प्रहसन में कपटकेली नामक वेश्या के घर में चोरी हो जाने से वेश्या का ज्ञानराशि नामक पाखण्डी ज्योतिषाचार्य के पास जाना तथा ज्ञानराशि का वेश्या की पुत्री पर कामासक्त हो जाने के वर्णन द्वारा ढोंगी आचार्यों के पाखंड पर व्यंग किया गया है। 436/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "परिशिष्ट" स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य ग्रंथों का उल्लेख कोश (खंड 2) में हो चुका है। स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत वाङ्मय की प्रगति किस दिशा में हो रही है, इसकी कल्पना इस सूची से आ सकेगी। अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय विषयक शोधकार्य करने वाले छात्रों को इस सूची का लाभ हो सकेगा। सन 1985 अक्टूबर (दि. 10, 11, 12) में नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की ओर से स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य विषय पर अखिल भारतीय चर्चासत्र (सेमिनार) का आयोजन किया गया था। इस सत्र में अन्यान्य प्रदेश के विद्वानों ने अपने अपने प्रदेश में स्वातंत्र्योत्तर कालखंड में प्रकाशित संस्कृत साहित्य का संक्षेपतः पर्यालोचन करने वाले निबंधों का वाचन किया। उन निबंधों में उल्लिखित ग्रंथों की सूची प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में परिशिष्ट रूप में तैयार करने की सूचना हमने संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. के.रा. जोशी को दी और उन्होंने हमारी सूचना मान्य कर डॉ.श्रीमती कुसुम पटोरिया द्वारा यह सूची हमें प्रकाशनार्थ दी। इस सूची में 1) ग्रंथ नाम 2) ग्रंथकार का नाम 3) निवासस्थान और 4) प्रकाशन वर्ष, इतनी ही जानकारी दी है। लेखकों के संबंध में संपूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। इनमें से कुछ इस सूची में 600 से अधिक ग्रंथों का निर्देश हुआ है। इसमें अनुल्लिखित स्वातंत्र्योत्तरकालीन ग्रंथों की संख्या भी भरपूर है किन्तु जिन शोध-निबंधों से यह सूची तैयार की गई, उनमें उनका निर्देश न होने के कारण इस सूची में उनका उल्लेख नहीं हुआ। इस सूची में प्रदेशों के नाम अकरादि अनुक्रम से दिये गये हैं। संपादक, असम अविनाश- (उपन्यास) - डॉ. विश्वनारायण शास्त्री। (प्राच्यभारती"- गुवाहाटी में प्रकाशित) केतकी (मूल- असमी काव्य रघुनाथ चौधरी कृत) - अनुवादक- मनोरंजन चौधरी। गीतांजलि -(मूल- बंगाली काव्य-रवीन्द्रनाथकृत) अनुवादक- कामिनीकान्त अधिकारी। नवमल्लिका- (मूल- असमीकाव्य- रघुनाथ चौधरीकृत)अनुवादक- बिपिनचंद्र गोस्वामी। पताकाम्नाय - मनोरंजन शास्त्री। प्रक्रमकामरूपम् - मनोरंजन शास्त्री। प्रबोधचन्द्रोदय - डॉ. अपूर्वकुमार भरथकुरिया (विषयचार्वाकदर्शन) वृत्तमंजरी - धीरेश्वराचार्य। व्यंजनाप्रवचनम् (शोधप्रबन्ध) - डॉ. एम.एम.शर्मा । शाक्तदर्शनम् - चक्रेश्वर भट्टाचार्य। श्रीकृष्णलीलामृतम् - वैकुण्ठनाथ तर्कतीर्थ । कालिदासस्य भौगोलिक-विज्ञानम्- डॉ. श्रीरामचन्द्रडु। उस्मानिया वि.वि.। कृष्णतारा (उपन्यास) - श्रीनिवास शास्त्री। शिक्षामनोविज्ञानम् - व्ही.एस.वेंकटराघवाचार। केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ -तिरुपति द्वारा सन 1971 में प्रकाशित । शैक्षिकी सांख्यिकी - डॉ. पी.सुब्बारायन्। के.सं. विद्यापीठ तिरुपति द्वारा, सन 1982 में प्रकाशित । सर्वाभ्युदय (उपन्यास) - श्रीनिवास शास्त्री। साहितीजगती - कालूरी हनुमंतराव । उस्मानिया वि.वि. । विषयसाहित्यशास्त्र। उडीसा अपराजिता वधू (काव्य) - डॉ. पूर्वचन्द्र शास्त्री। अभिशप्तचन्द्रम् (गीतिनाट्य) - वैकुण्ठविहारी नन्द । अभिशापम् (काव्य) - डॉ. पूर्वचन्द्र शास्त्री। अमरभारती (नाटक) - सुदर्शन पाठी। अलंकारशास्त्रम् - अनन्त त्रिपाठी शर्मा । कपोतदूतम् - नारायण रथ (1972 में प्रकाशित) करुणापारिजातम् - सुदर्शन पाठी। आन्ध्र प्रदेश काकदूतम् - एन.आर.राजगोपाल अय्यंगार। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 437 For Private and Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलिंगभानु - हरेकृष्ण शतपथी। कवितामाला - श्रीसुदर्शनाचार्य । कविशतकम् - हरेकृष्ण शतपथी। 1978 में प्रकाशित । कांचीविजयम् - वैकुण्ठविहारी नन्द । किशोरचंद्राननचम्पू - (मूल लेखक बलदेव रथ) अनन्त त्रिपाठी शर्मा। कीचकवधम् (काव्य) - वैकुण्ठविहारी नन्द । घोटकनृत्यम् - वैकुण्ठविहारी नन्द । चन्द्रभागा - (मूल उडिया लेखक- राधानाथ रथ) 1) अनुवादक- गदाधर दाश। 2) अनुवादक- उमाकान्त पण्डा । चाणक्यविजयम् (रूपक) - हरेकृष्ण महताब। चेतना (रूपक)- पुण्डरीकाक्ष मिश्र । जगन्नाथरथोत्सव - गुणनिधि । जैनदर्शनम् - जगन्नाथ रथ। तारुण्यशतकम् - क्षीरोदचन्द्र दाश । तिलोत्तमा - क्षीरोदचन्द्र दाश । द्वादशी रात्री - (मूल शेक्सपीयर का नाटक), अनुवादकअनन्त त्रिपाठी शर्मा। धर्मपदम् (मूल उडिया ग्रंथ) - 1) वेणुधर परिडा । 2) हरेकृष्ण शतपथी। 1981 में प्रकाशित । 3) प्रबोधकुमार मिश्र। धर्मशास्त्रशब्दकोश - कुलमणि मिश्र । (दो भागों में प्रकाशित) धर्मशास्त्रे अन्तर्दृष्टि - व्रजकिशोर स्वाँई । नन्दशर्मकवितामाला (संकलन) - वैकुण्ठविहारी नन्द । नन्दशर्मग्रंथावली - वैकुण्ठविहारी नन्द । नवकलेवरविधानम् - वेणुधर पारिडा । (1977 में प्रकाशित) नवजन्म (रूपक) - सुदर्शनाचार्य। न्याय-वैशेषिकयोः प्रत्यक्ष लक्षण विकासः- कमलेश मिश्र । पदसिद्धान्तकौमुदी - चंद्रशेखर ब्रह्मा । परशुरामप्रतिज्ञा (रूपक) - दयानिधि मिश्र । पादुकाविजयम् (रूपक) - सुदर्शन पाठी। पितृस्मृतिशतकम् - सुदर्शनाचार्य। प्रतिवाद (गद्य उपन्यास) - ले.- केशवचंद्र दाश। लोकभाषा प्रचार समिति (जगन्नाथपुरी, उडीसा) द्वारा सन् 1984 में प्रकाशित। प्रतीक्षा - केशवचन्द्र दाश । प्रशासनशब्दावली - अनन्त त्रिपाठी शर्मा। प्रियदर्शिनी इन्दिरा- प्रबोधकुमार मिश्र । सन् 1984 में प्रकाशित। बन्दिनःस्वदेशचिन्ता - (मूल उडिया काव्य) प्रबोधकुमार मिश्र19841 बह्वारंभिणी लघुक्रिया- अनन्त त्रिपाठी शर्मा। सन् 1966 में प्रकाशित। (मूल लेखक- शेक्सपीयर) बाणहरणम् (रूपक) - पुण्डरीकाक्ष मिश्र। भक्तकवि-श्रीजयदेव-प्रशस्ति- गोविन्दचन्द्र मिश्र। सन् 1974 में प्रकाशित। भवते रोचते यथा- दिगम्बर महापात्र । भवभूतिचर्चा- अनन्त त्रिपाठी शर्मा । मंगलापूजनम् (काव्य) - वैकुण्ठविहारी नन्द । मधुयानम् - केशवचंद्र दाश। मलयदूतम् - प्रबोधकुमार मिश्र (1985) मातृभक्तिमुक्तावलि (चम्पू) - जयकृष्ण मिश्र । माधवविलासम् (नाटक) - यतिराजाचार्य । मुक्तावली - दयानिधि मिश्र । मेघशतकम् - गदाधर दाश। योगतत्त्ववारिधि - दामोदार शास्त्री। रंगरुचिरम् (काव्य) - दिगम्बर महापात्र । रत्नावली - डॉ. पूर्वचन्द्र शास्त्री। रसनिष्पत्तितत्त्वालोक - भागवतप्रसाद त्रिपाठी। रुचिराचरितम् - सुदर्शन त्रिपाठी। लावण्यवती - डा. अनन्त त्रिपाठी शर्मा- 1967 लिंगराजायतनम् (स्तोत्र)- गणेश्वर रथ। वन्देभारतम् (काव्य) - डा. प्रबोधकुमार मिश्र (1967) वाणीविलासम् - कुलमणि मिश्र (1982) विभुस्तोत्रावली - सुदर्शनाचार्य। वेणिस् सार्थवाह (मूल लेखक- शेक्सपीयर) - अनन्त त्रिपाठी शर्मा (1966)। वैदेहीशविलासम् (मूल- उडिया काव्य)- अनन्त त्रिपाठी शर्मा। व्यक्तिविवेकसमीक्षा - कमलेश मिश्र । व्यस्तरागम् (काव्य) - दिगम्बर महापात्र । शरणागतिस्तोत्रम् - वैकुण्ठविहारी नन्द । शीतलतृष्णा (उपन्यास) - केशवचन्द्र दाश (1983)। सन्तानवल्लरी (संकलन) - सदाशिव दाश । सर्पकेलि - वैकुण्ठविहारी नन्द । संस्कृतवर्णानां स्वरूपसमुत्पत्ति- लडुकेश्वर शतपथी । सांख्यतत्त्वदीपिका - दामोदर शास्त्री। सावित्रीपरिणयम् (नाटक) - वासुदेव महापात्र । श्रीजगन्नाथाष्टोत्तरशतकम् - सुदर्शनाचार्य । श्रीदुर्गाशतकम् - भरतचन्द्र नाथ। (1982) 438 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीरामवनवासम् (काव्य) - वैकुण्ठविहारी नन्द। सिंहलविजयम् (नाटक) - सुदर्शन पाठी। सीमान्तप्रहरी (रूपक) - सुदर्शनाचार्य। सुदामचरितम् (काव्य) - पुण्डरीकाक्ष मिश्र । सुधाहरणम् (नाटक) - पुण्डरीकाक्ष मिश्र । सुरेन्द्रचरितम् (काव्य) - दिगम्बर महापात्र । सूर्यदूतम् - दयानिधि मिश्र (1972) । स्वप्नदूतम् - प्रबोधकुमार मिश्र। (1970)। हनुमद्वस्त्राहरणम् - वैकुण्ठविहारी नन्द । हनुमत्सन्देशम् - मधुसूदन तर्कवाचस्पति । हेमलत (हम्लेट का अनुवाद) - अनन्त त्रिपाठी शर्मा। उत्तरप्रदेश-- दिल्ली अनुसन्धानपद्धति - डॉ. भगीरथप्रसाद त्रिपाठी। संपूर्णानन्द ग्रन्थमाला- वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा १९७० में प्रकाशित। अभिनवमनोविज्ञानम् - डॉ. प्रभुदयालु अग्निहोत्री। संपूर्णानन्द । ग्रन्थमाला- 19651 अभिनवमेघदूतम् - वसंत त्र्यंबक शेवडे । वाराणसी निवासी। अभिनव-हनुमन्नाटकम्- ले.- रमेशचन्द्र शुक्ल। मोतीनाथ संस्कृत महाविद्यालय (नई दिल्ली) में अध्यापक । तुलसीरामायण से प्रभावित नौ अंकों का नाटक। हनुमानजी इस नाटक के नायक हैं। सन् 1982 में देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित । अर्वाचीन मनोविज्ञानम् - भामराजदत्त कपिल। वाराणसेय सं.वि.वि. द्वारा प्रकाशित 19641 अर्वाचीन संस्कृत साहित्य परिचय- संपादक रमाकान्त शुक्ल । इसमें अर्वाचीन काल में रचित कतिपय उल्लेखनीय संस्कृत ग्रंथों में प्रतिपादित विषयों की समीक्षा करने वाले डॉ. (कु.) टंडन, डॉ. हरिनारायण दीक्षित, डॉ. कैलासनाथ द्विवेदी, डॉ. रमाकान्त शुक्ल, डॉ.सी.आर. स्वामिनाथन्, डॉ रमेशचन्द्र शुक्ल, विद्वानों के शोधनिबंध संकलित किए हैं। पृष्ठसंख्या- 114। सन- 1982 में देववाणी परिषद, दिल्ली द्वारा प्रकाशित। आभाणकमंजरी - ले.- टी.वी. परमेश्वर अय्यर । इसमें अंग्रेजी भाषा के ढाई सौ सूक्तियों का अनुष्टभ पंक्तियों में सुबोध अनुवाद किया है। 1981 में देववाणी परिषद, दिल्ली द्वारा प्रकाशित। उमोवाहमहाकाव्यम् - (सर्ग-16) हरिहर पाण्डेय। प्रकाशन19861 व्याहरणम् (22 सर्गात्मक) - अनन्तानंद। वाराणसीवासी। करपात्रपूजांजलि (गीतिकाव्य) - रमाशंकर मिश्र । प्रतापगढ-निवासी। 19871 कर्णाजुनीयम् (महाकाव्य- 22 सर्ग) - विन्ध्येश्वरीप्रसाद शास्त्री। 1967 में वाराणसी में प्रकाशित। कापिशायिनी (गीतिकाव्य) - डॉ. जगन्नाथ पाठक। गंगानाथ झा विद्यापीठ, प्रयाग। कालिदासशब्दानुक्रमकोश - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन)। वाराणसी। कालायसस्य प्रभवः - (भिलाई स्टील प्लान्ट) डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन) हिंदू वि.वि. । काव्यालंकारकारिका - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी। (सनातन) चौखम्बा प्रकाशन- 1978।। काँग्रेसपराभवम् (नाटक)- डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन) चौखम्बा प्रकाशन- 1978।। कूहा (खंडकाव्य) - ले.- उमाकान्त शुक्ल। जन्म सन् 1936। श्रीमती इन्दिरा गांधी की निर्मम हत्या से व्यथित लेखक ने राजीव गांधी को नायक करते हुए इस काव्य में इन्दिराजी का गुणवर्णन किया है। कूहा शब्द का अर्थ है कुज्झटिका अथवा कुया। श्लोकसंख्या 1201 हिन्दी और अंग्रेजी गद्यानुवाद सहित सन् 1984 में देववाणी परिषद्, दिल्ली द्वारा प्रकाशित। क्षत्रपतिचरितम् (महाकाव्य- 19 सर्ग) - डॉ. उमाशंकर त्रिपाठी। काशीविद्यापीठ प्रकाशन- 19741 विषय- शिवाजी महाराज का चरित्र। गीतकन्दलिका - डॉ. हरिदत्त शर्मा। गंगानाथ झा विद्यापीठ-प्रयाग- 19831 गीताली - डॉ. चन्द्रभानु त्रिपाठी। चैतन्यचन्द्रोदय - रामकुबेर मालवीय। जय भारतभूमे - ले. डॉ. रमाकान्त शुक्ल। जन्म सन् 19401 राजधानी कॉलेज (दिल्ली) में हिंदी के प्राध्यापक तथा देववाणी परिषद (दिल्ली) के महासचिव। लेखक द्वारा छात्रावस्था में लिखित भारत भक्तिपर काव्यों का संग्रह । लेखक के अर्वाचीन संस्कृत महाकाव्य विमर्श (3 खण्ड) अर्वाचीन संस्कृत साहित्य परिचय (2 खंड), तथा पुरश्चरण कमलम्, पण्डितराजीयम् और अभिशापम् नामक नाटक प्रकाशित हुए हैं। देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा सन् 1981 में प्रकाशित । तान्त्रिकविषये शाक्तदृष्टि- म.म. गोपीनाथ कविराज। तीर्थयात्रा-प्रहसनम् - रामकुबेर मालवीय । वाराणसी निवासी। दशरूपकतत्त्वदर्शनम् - डॉ. रामजी उपाध्याय। भारतीय संस्कृति संस्थान (इलाहाबाद) प्रकाशन । दुर्गास्तवमंजूषा - वसन्त त्र्यंबक शेवडे। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 439 For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवभारतपुराणम् - ले.- रमेशचन्द्र शुक्ल । इसमें 14 अध्यायों में आधुनिक भारत की महत्त्वपूर्ण बातों का निवेदन किया है जिस में स्वतंत्रतायुद्ध, समाजवाद, धर्मनिरूपण जैसे विषयों का अन्तर्भाव हुआ है। देववाणी परिषद्, (दिल्ली) द्वारा सन् 1985 में प्रकाशित। नर्मसप्तशती - डॉ. भगीरथप्रसाद त्रिपाठी (1984) पूर्णकुम्भ - ले.- विष्णुकान्त शुक्ल। विश्वसंस्कृतम्, स्वरमंगला, संवित् इत्यादि संस्कृत पत्रिकाओं में प्रकाशित दस ललित गद्य लेखों का संग्रह। सन् 1982 में देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित। बदरीश-तरंगिणी - ले.- सुंदरराज। पिता राघवाचार्य। लेखक रसायन शास्त्र में एम.एस.सी. तथा आई.ए.एस. उपाधिधारी एवं भारतसरकार के उच्च अधिकारी हैं। इस काव्य में कुल 110 श्लोकों में बदरीनाथ क्षेत्र का माहात्म्य वर्णन किया है। अंग्रजी अनुवाद सहित देववाणी परिषद् दिल्ली, द्वारा सन् 1983 में प्रकाशित । बदरीशसुप्रभभातम् (स्तोत्रकाव्य) - ले.- डॉ. शास्त्रपुरम् रामकृष्णस्वामिनाथन्। पचास श्लेकों में बदरीनारायण क्षेत्र की महिमा का वर्णन इसमें किया है। प्रत्येक श्लोक के अन्त में "श्रीनाथ ते बदरिकेश्वर सुप्रभातम्" यह पंक्ति आती है। डॉ. एन. रघुनाथ अय्यर द्वारा लिखित सुबोध व्याख्या के साथ सन् 1983 में देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा इसका प्रकाशन हुआ। बल्लवदूतम् - बटुकनाथ शर्मा। भक्तिरसविमर्श - डॉ. कपिलदेव ब्रह्मचारी । वाराणसी (1980) भाति मे भारतम् - ले. डॉ. रमाकांत शुक्ल। दिल्ली विश्वविद्यालय राजधानी कॉलेज में हिंदी विभाग के प्राध्यापक। स्रग्विणी वृत्त में देशभक्ति पर 108 पद्यों का संग्रह। सन् 1980 में देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा हिंदी तथा अंग्रेजी अनुवादों के साथ प्रकाशित। इस काव्य के प्रत्येक पद्य के अन्त में "भूतले भाति मेंऽनारतं भारतम्" -- यह पंक्ति है। भावांजलि - डा. श्रीमती नलिनी शुक्ला। कानपुर में प्रकाशित (1979)। मधुमयरहस्यम् (गीतिसंग्रह) - डॉ. परमहंस मिश्र । वाराणसी। मनोविज्ञानमीमांसा - विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि। (आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली- 1959)। महर्षिज्ञानानन्दचरितम् (महाकाव्य-23 सर्ग) - विन्ध्येश्वरी प्रसाद शास्त्री। शास्त्र प्रकाशन विभाग, भारतधर्म महामंडल (वाराणसी) द्वारा, सन् 1969 में प्रकाशित । मानसभारती (रामचरितमानस का अनुवाद) - डॉ. जनार्दन गंगाधर रहाटे। वाराणसी निवासी। भुवनवाणी ट्रस्ट लखनऊ द्वारा प्रकाशित। मारुतिचरितम् (गीतिकाव्य) - रमाशंकर मिश्र। प्रतापगढ़ निवासी। (1977)। मृवीका (गीतिकाव्य) - अभिराजेन्द्र मिश्र । वैजयन्त प्रकाशन, (इलाहाबाद) द्वारा प्रकाशित। मीमांसादर्शनम् - डॉ. मण्डन मिश्र। दिल्ली। मायाविषये भारतीयदृष्ट्या पर्यालोचनम्- डॉ. कु. शशिबाला। मृद्वीका - डा. जगन्नाथ पाठक। गंगानाथ झा विद्यापीठ। यूथिका (मूललेखक- शेक्सपीयर) नाटक - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन)। रघुनाथ-तार्किकशिरोमणि-चरितम् - वसंत त्र्यंबक शेवडे । रसदर्शनम् (साहित्यशास्त्रीय प्रबन्ध) - ले.- आचार्य रमेशचंद्र शुक्ल। देववाणी परिषद्, दिल्ली-6 वाणी विहार, नई दिल्ली59, द्वारा सन् 1984 में प्रकाशित । इस प्रबन्ध में 43 प्रकरणों में काव्यगत रस का सर्वकष विवेचन लेखक ने किया है। प्रबन्ध में सर्वत्र प्राचीन साहित्य शास्त्रीय ग्रंथों के वचन उद्धृत किये हैं। रामायणसोपानम् (8-सर्ग) - रामचंद्र शास्त्री। विन्सेंट स्कूल, राजघाट, वाराणसी- 1976। राष्ट्रगीतांजलि - डॉ. कपिलदेव द्विवेदी। विश्वभारती अनुसंधान परिषद्, वाराणसी द्वारा- 1978 में प्रकाशित। रुक्मिणीहरणम् (21 सर्गात्मक महाकाव्य) - श्री. काशीनाथ द्विवेदी। मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन- 1966 ई.। वाग्वधूटी (गीतिकाव्य) - डॉ. अभिराज राजेन्द्र मिश्र । वैजयन्त प्रकाशन, इलाहाबाद । विक्रमाङ्कदेवचरितम् - रामकुबेर मालवीय, वाराणसी-निवासी। विन्ध्यवासिनीविजय (महाकाव्य) - वसन्त त्र्यंबक शेवडे। चौखम्बा प्रकाशन- 1985। सन् 1985 में साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार प्राप्त। वृत्तमंजरी - वसन्त त्र्यंबक शेवडे। वेदार्थपारिजात - ले.- स्वामी करपात्रीजी महाराज। ई. 20 वीं शती। वैदिक संस्कृति का परंपरानुसार प्रतिपादन करने वाले तथा पाश्चात्य विचारधारा का खंडन करने वाले विविध ग्रंथ हिंदी भाषा में लिखने के बाद जीवन की अंतिम अवस्था में स्वामीजी ने वेदभाष्य का लेखन किया। प्रस्तुत ग्रंथ उसी वेदभाष्य की भूमिका है। इसके प्रथम खंड में प्रमाणविषयक मार्मिक विवेचन किया है। द्वितीय खंड में मॅक्यमूलर, मॅक्डोनेल प्रभृति पाश्चात्य, एवं दयानन्द सरस्वती सदृश भारतीय विद्वानों के वेदविषयक मतों का सप्रमाण खंडन किया है। दो हजार पृष्ठों के इस महान् ग्रंथ में सहस्रावधि प्रमाणवचन उद्धृत होने के कारण यह ग्रंथ कोशस्वरूप हुआ है। 20 वीं शती के श्रेष्ठ संस्कृत ग्रंथों में वेदार्थपारिजात की गणना होती है। प्राप्तिस्थान-धानुका प्रकाशन संस्थान, वृन्दावन विहारीभवन, 440 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्यादि शतककाव्य लिखे गये हैं। सन् 1982 में देववाणी परिषद् द्वारा स्फूर्तिसप्तशती का प्रकाशन हुआ। स्वप्नविज्ञानम् - पं. रामस्वरूप शास्त्री। अलीगढ विश्वविद्यालय प्रकाशन- 19601 हास्यविलास - डॉ. प्रशस्य मित्र शास्त्री। परिजात प्रकाशन, (कानपुर) द्वारा प्रकाशित । कर्नाटक मिश्रपोखरा वाराणसी। व्यंजनाविमर्श - डॉ. रविशंकर नागर । वन्दना प्रकाशन, दिल्ली19771 शक्तिजयम् - डॉ. भोलाशंकर व्यास। शतपत्रम् (खंडकाव्य) - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन) शरदिन्दुमुखी - डॉ. बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते । वाराणसी निवासी। शिशुकाव्यम् - वासुदेव द्विवेदी। सार्वभौम संस्कृत प्रचार कार्यालय (वाराणसी) द्वारा प्रकाशित। शुम्भवधम् (महाकाव्य) - ले. वसंत त्र्यंबक शेवडे। वाराणसी निवासी। दुर्गासप्तशती के आधार पर भवानी की वीरगाथा इस महाकाव्य का विषय है। उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार प्राप्त। श्रीमालवीयचरितम् - रामकुबेर मालवीय। श्रीमोतीबाबाजामदारचरितम् - वसंत त्र्यंबक शेवडे। श्रीराधाचरितम् (महाकाव्य) - कालिकाप्रसाद शुक्ल। सुधीप्रकाशन, वाराणसी (1965)। श्रीस्वामिविवेकानन्दचरितम् (अठारह सर्गात्मक) - श्री. त्र्यंबक शर्मा भाण्डारकर। भारतमनीषा संस्कत ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित- 1973। श्रीहरिसंभवमहाकाव्यम् - महाकवि- अचित्यानन्द वर्णित (अठारह सर्गात्मक महाकाव्य) स्वामी नारायण मंदिर मच्छोदरी, वाराणसी। सप्तर्षिकाँग्रेस (नाटक) - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी। साहित्यबिन्दु - पं. छज्जूराम शास्त्री। विद्यासागर प्रकाशन, मेहेरचन्द्र लक्ष्मणदास संस्कृत पुस्तकालय- दिल्ली (1961)। साहित्यविवेक - डॉ. विश्वनाथ भट्टाचार्य। वाराणसी। सीताचरितम् (महाकाव्य) - डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी (सनातन) (10 सर्ग)। मनीषा प्रकाशन वाराणसी (1975)। सुरश्मिकाश्मीरम् - ले.- सुंदरराज। जन्म- सन् 19361 108 श्लोकों में काश्मीर प्रदेश के निसर्ग सौदर्य का वर्णन। श्री सुंदरराज भारत शासन के उच्चाधिकारी हैं। इनके जगन्नाथविषयक विविध स्तोत्र-काव्य प्रकाशित हुए हैं। सन् 1983 में प्रस्तुत काव्य देववाणी परिषद् (दिल्ली) द्वारा अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ। सूर्यप्रभा - श्रीनिवास शास्त्री। राजस्थान व उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कार प्राप्त। वाणीवेश्म (कलकत्ता) द्वारा प्रकाशित (1968)। स्फूर्तिसप्तशती - ले.- डॉ. शिवदत्तशर्मा चतुर्वेद । पिता- म.म. गिरिधरशर्मा चतुर्वेद। वाराणसी निवासी। जन्म सन् 1934। इस ग्रंथ में विविध 96 विषयों पर लिखित कविताओं का संग्रह किया है। प्रस्तुत लेखक द्वारा गोस्वामितुलसीदासशतकम्, विद्योपार्जनशतकम्, काव्यप्रयोजनशतकम्, काव्यकारणशतकम् अद्वैतसुधासमीक्षा - विद्यामान्यतीर्थ । उडुपी मठ द्वारा प्रकाशित (1961) अलंकारशास्त्रे काव्यवैविध्यवादविमर्श - डॉ. के. कृष्णमूर्ति । नवीन रामानुजाचार्य संस्कृत पुरस्कार प्राप्त। मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा 1955 में प्रकाशित । आत्मना आत्मानम् (नाटक) - बालगणपति भट्ट । श्रीरंगपटनम् के निवासी। इति जीवनव्रतम् (नाटक) - बालगणपति भट्ट। श्रीरंगपटनम् के निवासी। इन्दिराविभवम् - विघ्नेश्वरशर्मा। गोकर्णनिवासी। उपनिषद्-रूपकाणि - प्रो. के. टी. पांडुरंगी । बंगलोर वि.वि. । उपाख्यानरत्नमंजूषा (गद्य) - श्री. जग्गु बकुलभूषण । बंगलोर निवासी। कबीरदासशतकम् - डॉ. परड्डी मल्लिकार्जुन । धारवाड निवासी। कबीर के उलटबांत्तीयों (गूढदोहों) का अनुवाद । काकदूतम् - श्री. सहस्रबुद्धे। काव्यतरंगिणी - अनुवादक- सी.जी. पुरुषोत्तम। (मूल कन्नड काव्यों का अनुवाद) दो भाग- 1959 तथा 1969 में मैसूर से प्रकाशित। काव्यमलिका - डॉ. परड्डी मल्लिकार्जुन। (1977) काव्यांजलि (कवितासंग्रह) - प्रो. के.टी. पांडुरगी। अखिल कर्नाटक संस्कृत परिषद् द्वारा 1984 में प्रकाशित । कृष्णावेणी-वैभवम् - पंढरीनाथचार्य गलगली । विषय- कृष्णानदी का माहात्म्य। चन्द्रमहीपति - श्रीनिवासशास्त्री। जयन्तिका (गद्य कथा) - जग्गु बकुलभूषण । बंगलोर निवासी। द्वादशदर्शनसमीक्षा - डॉ. पी. सीताराम हेबर। शालिग्राम (उडुपी तालुका) निवासी (1980) धर्माष्टकम् (कवितासंग्रह) - तडकोड वादिराज। नचिकेताकथामृतम् (पंचसर्गात्मक) - डॉ. परड्डि मल्लिकार्जुन। (1977) प्रमाणसंग्रह - श्री. वादिराजाचार्य अग्निहोत्री। 1980 में द्वितीय संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /441 For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्करण प्रकाशित। प्रतिज्ञाकौटिल्यम् (नाटक) - जग्गु बकुलभूषण। 1968 में बंगलूर से प्रकाशित। भारतीय-देशभक्तचरितम् (गद्य) - डॉ. के.एस.नागराजन् । बंगलूर निवासी। यदुवंशचरितम् (गद्य)- श्रीजग्गु बकुलभूषण । बंगलोर निवासी। शबरीविलासम् (6 सर्ग) - डॉ. के.एस. नागराजन । बंगलूर निवासी। स्कन्दपुराण की कथा पर आधारित। श्रीन्यायसुधामण्डनप्रकाश - श्री. के.एस. कट्टी। (1963)। श्रीगुरुगौरवम् (काव्य) - 15 सर्ग। जलिहल श्रीनिवासाचार्य। धारवाडनिवासी (1971)। श्रीमत्कुमारगीता - पुदुराजाकवि, मूरुसाविरमठ, हुबळी 19641 श्रीलवलीपरिणयम् (10 सर्ग) - डा. के.एस. नागराजन् बंगलूर निवासी (1975) श्रीशंभुलिंगेश्वरविजयचम्पू (द्वादशतरंगात्मक) - पंढरीनाथाचार्य गलगली। केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त। ब्राह्मणमठ, (बीजापूर) द्वारा 1982 में प्रकाशित। श्री.शैल जगद्गुरुचरितम् (19 सर्गात्मक) - नारायणशास्त्री। जे.एन. पुस्तक भण्डार, बंगलूर द्वारा प्रकाशित (1953)। सप्तरात्रोत्सवचम्पू - 14 उल्लास। श्रीपंचमुखी राघवेन्द्राचार्य। धारवाड निवासी (1977) सुदामचरितम् (10 सर्ग) - शालिग्राम चन्द्रराव। धारवाड-निवासी (1957)। केरलोदयम् (महाकाव्य) - डॉ.के.एन. एजुतच्चन। 1977 । केशवीयम् (अनूदित महाकाव्य) - के.पी. नारायण पिशरोटी। गीता प्रेस- त्रिचूर द्वारा प्रकाशित (1972) कौस्तुभम् (काव्य) - श्री रामवर्मा वरिणकोयिल ताम्पूरान् 19641 क्रिस्तुभागवतम् (महाकाव्य) - प्रो. पी.सी. देवसिया। त्रिवेन्द्रम निवासी। साहित्य अकादमी पुरस्कारप्राप्त। 1977 में प्रकाशित। गिरिगीता - के.पी. उरुमीस मास्टर। त्रिवेन्द्रम् निवासी। 'सरमन् ऑन द माऊंटन' का अनुवाद। गीतांजलि (मूल बंगाली) - अनुवादक- गोपाल पिल्ले। चिदात्मिकास्तव - डॉ. पी.के. नारायण पिल्ले। (1950)। ज्ञानपानम् - एन. डी. कृष्ण उनी । दर्शन विषयक अनूदित ग्रंथ। तीर्थपादपुराणम्- प्रा. ए. व्ही. शंकरन् । केरल शासन सांस्कृतिक विभाग द्वारा प्रकाशित। देवशतकम् - नारायण गुरु।। द्वादशी (स्तोत्रकाव्य) - एन. डी. कृष्णन् उन्नी। त्रिचूर में प्रकाशित (1984) धर्मशास्तृस्तव - डॉ. पी.के. नारायण पिल्ले। (1974) ध्वन्यालोकलोचन-व्याख्या (उज्जीवनी) - प्रा. एस. नीलकण्ठशास्त्री। केरल वि.वि. प्रकाशन (1981) नलिनी (उपन्यास) - म.म. रामन् पिल्ले । त्रिवेंद्रम से प्रकाशित । नलोदन्त (काव्य) - व्ही. एस. व्ही. गुरुस्वामी शास्त्रिगल। नयाग्राप्रपात (कविता) - श्री. एन.व्ही. कृष्ण वारियर, कोट्टायम निवासी (1976) नवभारतम् (महाकाव्य) - श्रीमथुकलम् श्रीधर (1978) नायकाभरणम् (महाकाव्य) - श्रीमुथुकूलम् श्रीधर (1978)। नायकोपाख्यानम् - गिरिमूलपुरम् (के. महेश्वरन् नायर, (1976) नारायणीयामृतम् (स्तोत्र) - सी.पी. कृष्णन् एलायुथ। त्रिचूर में प्रकाशित (1976) नैषधम् - श्रीमती श्रीदेवी कुट्टी ताम्पुराट्टि। पुराणत्रयीश-भुजंगप्रयातम् (स्तोत्र) - पी. नारायण नम्बूतीरी। प्रेमलहरी (स्तोत्र) - के. भास्कर पिल्ले। 1977 । प्रेमसंगीतम् (अनूदित काव्य) - गोपाल पिल्ले (1965) भामापरिणय - श्रीमती श्रीदेवी कुट्टि ताम्पुराट्टि। मणिकण्ठ्य म् (चम्पूकाव्य) - प्रो. ए.व्ही. शंकरन्। मधुरापुरीविजयम् - श्रीमती श्रीदेवी कुट्टी ताम्पुराट्टि । मयूरदूतम् (अनूदित) - डॉ. पी. के. नारायण पिल्ले। महाकविकृतयः (अनूदित काव्यसंग्रह) (मूल- मल्यालम केरल अयोमणि - ओट्टर उन्नी नम्बुतिरीपाद। केरल। आत्मोपदेशशतकम् (मूल-मलयालम् काव्य) - अनुवादकएन.डी. कृष्णन् उनी। एकभारतम् (नाटक) - भारत पिशरोटी। कामधेनु पब्लिकेशनत्रिचूर (1978) कनकचन्द्रिका (मूल-मलयालम् कविताएं) - अनुवादकएम्.पी. अय्यर । त्रिवेन्द्रम निवासी। कण्णकी-कोवलम् - अनुवादक सी नारायण नायर। (1955) (मूल- शिलप्पदिकारकम् तमिल महाकाव्य) कन्याकुमारी भजे (स्तोत्र) - डॉ. पी. के. नारायण पिल्ले (1957)। कात्यायनीव्रतम् (अनुवाद) - प्रा. एस. नीलकण्ठशास्त्री। त्रिवेन्द्रम- निवासी। (1967)। केरलभाषा- कविविवर्त- ई. व्ही. रामन् नम्बुतिरी। त्रिवेन्द्रम निवासी 19471 442 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिल्ले। (1974) श्रीशारदादेवीचरितसंग्रह- श्रीमती देवकी मेनन । श्रीरामकृष्णाश्रम (मद्रास) द्वारा प्रकाशित (1998) श्रीशोणाद्रीशस्तव - डॉ. पी. के. नारायण पिल्ले (1975) शबरीगिरितीर्थाटनम् - (स्तोत्र) डॉ. पी. के. नारायण पिल्ले। (1975) सारसंग्रह-प्रणति - श्रीमंक ताम्पुरान्। त्रिपुणिथुरै निवासी - (1967) साहित्यकौतुकम् (अष्टकसंग्रह) - ले.टी.वी. परमेश्वर अय्यर । देववाणीपरिषद्, दिल्ली, द्वारा सन् 1983 में प्रकाशित। इसमें विविध विषयों पर (जिनमें सैनिक, भोजन, गान्धी, दयानंद, चलचित्र, हंस, सिंह, गर्दभ, दान, धर्म, मोक्ष जैसे विषय आये हैं) 34 अष्टक कवि ने प्रदीर्घ वृत्त में लिखे हैं। इन अष्टकों का विभाजन 8 स्तबकों में किया है। काव्य) - ई. व्ही. रामन् नम्पुतिरी। त्रिवेंद्रम में प्रकाशित (1947)। महात्यागी (ख्रिस्तचरित्रविषयक काव्य)- ओ. एन. अय्यर। मातृपरिदेवनम् - अच्युत पोतुवल। त्रिपुणिथुरै में प्रकाशित (1961) मीमांसान्यायप्रकाश- कारिकावली (दर्शन) - श्री. व्ही. पी. नम्पुतीरी। त्रिवेंद्रम निवासी। (1962) मंगलम् - मंक तांपुरान् (1967) येसुचरितम् - के.पी. उरुमील मास्टर। एर्नाकुलम में प्रकाशित (1957)। राधाकृष्णरसायनम् - ले.- ओट्टर उण्णि नम्बूतिरीपाद । जन्मसन 1904। केरलनिवासी। कृष्णभक्तिपर विविध काव्यों का यह संग्रह सन 1982 में देववाणी परिषद् द्वारा प्रकाशित हुआ। वातालयेश-स्तवमंजरी - व्ही. रामकुमार । विवेकानन्दम् - ओडुर उन्नी नम्बुतीरीपाद । विशुद्धनबीचरितम् (काव्य)- के.एस. नीलकान्तन् उनी। (मोहम्मद नबी का चरित्र) विश्रुतचरितम् (काव्य)- व्ही.जी.नम्बूतिरी । त्रिवेंद्रम में प्रकाशित (1963) विश्वभानुः (महाकाव्य)- श्री. पी. के. नारायण पिल्ले। (1979) साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त। विषय- स्वामी विवेकानन्द का चरित्र। वेदान्तदर्शनम्- डॉ. आर. करुणाकरन् (1980) वेदान्तवेदनम् (वेदान्तप्रशंसा)- के.जी.केशव पणिक्कर । संस्कार केरलम् द्वारा प्रकाशित। शरणागति- श्रीमंक ताम्पूरान्। त्रिपुणिथुरैनिवासी। (1967)। श्रीगुरुगीता (लघुकाव्य)- पी.के.के.गुरुकुल । तेल्लिचेरी निवासी (1977) श्रीनारायणविजयम् (महाकाव्य) - प्रा. बलराम पणिक्कर । त्रिवेन्द्रम निवासी (1971)। श्रीपादसप्तति - ले.- नारायण भट्टपाद। ई. 16 वीं शती। तिरुनावाय (केरल) निवासी। अपरनाम मेप्पतूर-भट्टतिरी। इस लेखक का नाराणीयम् नामक सहस्रश्लोकी भागवत सुप्रसिद्ध है। कहते हैं कि नारायणीयम् की रचना समाप्त होने पर गरुवायर क्षेत्र के भगवान ने लेखक को मस्कथल नामक महिषासुरमर्दिनी के मंदिर में आराधना करने का आदेश दिया। तदनुसार आराधना निमित्त यह 70 श्लोकों का स्तोत्र रचा गया। डॉ. स्वामिनाथ कृत श्रीपादपरागव्याख्या के साथ देववाणी परिषद (दिल्ली) द्वारा सन् 1983 में प्रकाशित । श्रीरामकृष्णकर्णामृतम् - ओटूर उन्नी नम्बुतिरिपाद । श्रीवल्लभेश-सुप्रभातम् (स्तोत्र)- डॉ. पी. के. नारायण सीताविचारलहरी (अनूदितकाव्य) - श्री. गोपाल पिल्ले। केरलप्रतिभाद्वारा प्रकाशित (1965) सुप्रभातम् (स्तोत्र) - श्रीमंक ताम्पुरान् (1967) संगीतचन्द्रिका - ओट्टर कृष्ण पिशरोटी। सन्ध्या (अनूदित नाटक)- प्रा. एस. नीलकंठ शास्त्री। हरिनामकीर्तनम् (अनूदित काव्य)- एन. डी. कृष्णन् उन्नी। पंजाब कालिदासदर्शनम्- शिवप्रसाद भारद्वाज । जवाहर-वसन्तसाम्राज्यम्- जयरामशास्त्री (1951) जवाहरजीवनम्नेपालसाम्राज्योदयम्- पशुपति झा (1980) प्रस्तारतरंगिणी - चारुदेव शास्त्री। (1950)। भक्तसिंहचरितम् - श्यामप्रकाश शर्मा (1978) । संस्कृतसाहित्येतिहासः - डॉ. हंसराज अग्रवाल (1951) पश्चिमबंगाल चन्द्रमहीपति (उपन्यास)- श्रीनिवासशास्त्री । कलकत्ता निवासी । न्यायवैशेषिक-सम्मतज्ञानविमर्श - मधुसूदन आचार्य । प्राचीनभारतीय-मनोविज्ञानम् - दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य। नागेन्द्र प्राज्ञ मंदिर, कलकत्ता (1972) भूतनाथ (उपन्यास) - श्रीनिवासशास्त्री। कलकत्ता । यज्ञोपवीतत्त्वम् - भूतेशचन्द्र । वेदार्थविचार - म.म.सीताराम शास्त्री। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 443 For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याकरणकारिका- श्रीहरिपद दत्त । सारस्वतशतकम् - जीव न्यायतीर्थ । सुरवागविलापम् - दीपक घोष। स्मृतिसारसंग्रह - कैलाससचन्द्र स्मृतितीर्थ । स्मृतिरत्नहार (कालपरिच्छेदमात्र) - बृहस्पति रायमुकुट । श्रीरामविलाप (खंडकाव्य) - ले.- कृष्णप्रसादशर्मा घिमिरे । (नेपाली) "काव्यप्रासाद" (टंकालगिरी धारा, काठमांडू, (नेपाल) द्वारा सन् 1980 में प्रकाशित। इसके पूर्वार्ध में 81 और उत्तरार्ध में 89 श्लोक वसंततिलका वृत्त में है। विषय - पंपा पुष्करिणी को देख कर सीता का तीव्र स्मरण होने के कारण प्रभुरामचंद्र ने किया हुआ विलाप। मध्यप्रदेश अग्निशिखा - डॉ. पुष्पा दीक्षित। बिलासपुर । अजातशत्रु - डॉ. श्रीनाथ श्रीपाद हसूरकर । इन्दौर निवासी। अजाशती (खण्डकाव्य) - डॉ. भास्करचार्य त्रिपाठी । भोपाल। अष्टांगहृदयस्य सांस्कृतिकम् अध्ययनम् - व्ही. के. कान्हे। रायपुर- निवासी। अहल्याप्रशस्ति - श्री. शैलेन्द्रनाथ सिद्धनाथ पाठक। तराना-निवासी। आंग्लसाम्राज्यम्- डॉ. हरिहर त्रिवेदी। इन्दौर-निवासी। आहार-योजना - डॉ. रामनिहाल शर्मा। रायपुर निवासी। विषय- आहारविज्ञान। इन्दुमती (नाटिका) - पं. सुधाकर शुक्ल । दतिया-निवासी। उज्जयिनीमहिमा - श्री. रमेशकुमार पांडेय। गुना-निवासी। करकमलानि (काव्यसंकलन) - गजानन शास्त्री करमलकर। इन्दौर- निवासी। कंसवधम् (खडकाव्य) - डॉ. राजाराम तिवारी। जबलपुर-निवासी। कादम्बरीहर्षचरितयोःविकारसंग्रह - डॉ. रामनिहाल शर्मा । रायपुर-निवासी। विषय-आयुर्वेद । गणाभ्युदयम् (नाटक) - डॉ. हरिहर त्रिवेदी । इन्दौर-निवासी। गांधियुगागम - श्रीबद्रीनारायण पुरोहित । इन्दौर निवासी। गान्धि सौगन्धिकम् (20 सर्ग) - पं. सुधाकर शुक्ल। दतिया-निवासी। गायत्रीलहरी - डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी। मन्दसौर-निवासी। चन्द्रगुप्तमहाकाव्यम्- डॉ. हरिहर त्रिवेदी। इन्दौर-निवासी। चेन्नमा - डॉ. श्रीनाथ श्रीपाद हसूरकर । इन्दौर-निवासी। जगदीशशतकम् - रघुराजसिंह । जागरणम् - (गीतसंग्रह) डॉ. शिवशरण शर्मा। (ग्वालियर-निवासी)। जन्तुविज्ञानम् - डॉ. रामनिहाल शर्मा। रायपुर-निवासी। विषय-वस्त्रविज्ञान। दावानल (उपन्यास) - डॉ. श्रीनाथ श्रीपाद हसूरकर । देवदूतम् (खण्डकाव्य) - पं. सुधाकर शुक्ल । दतिया-नविासी। देवव्रतीयम् (महाकाव्य) - डॉ. बच्चूलाल अवस्थी। सागर-निवासी। देव्यहल्याश्रद्धांजलि . शैलेन्द्रनाथ सिद्धनाथ पाठक। तराना-निवासी। द्वा सुपर्णा (उपन्यास) - डॉ. रामजी उपाध्याय । सागर-निवासी। पंचवटी (हिन्दी काव्य का अनुवाद) - डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी। सागर-निवासी। पंचाशदेकांकि-नाटकनां मुक्तावली - लेखिका- डॉ. वनमाला भवालकर व डॉ. स्मृति जोगलेकर।। पत्रदूतम् - डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी। मन्दसौर-निवासी। पद्मपद्माकरम् - गजानन शास्त्री करमलकर। इन्दौर-निवासी। पाथेय (उपन्यास) - डॉ. रामजी उपाध्याय । सागर-निवासी। पाददण्ड (नाटक) - डॉ. श्रीमती वनमाला भवालकर । पादुकापंचकम् (अमरनाम-गुरुतत्त्वम्) - पंचवक्र शिवोक्तम्। इस पर कालीचरण की अमला नामक टीका है। श्रीकृष्णानंद बुधोलिया की हिंदी व्याख्या सहित पीताबंरा संस्कृत परिषद् (दतिया, मध्यप्रदेश) द्वारा सन् 1985 प्रकाशित । शक्तिसाधना में इस रहस्यमय स्तोत्र का विशिष्ट स्थान माना जाता है। प्रतिज्ञापूर्ति - श्रीनाथ श्रीपाद हसूरकर । इन्दौर-निवासी। प्रेमपीयूषम् (नाटक) - डॉ. राधाविल्लभ त्रिपाठी। सागर-निवासी। भारतवर्षम् - गजानन शास्त्री करमलकर। इन्दौर-निवासी। भारतस्य सांस्कृतिको निधिः - डॉ. रामजी उपाध्याय। सागर निवासी। भारतीस्वयंवरम् (12 सर्ग)- सुधाकर शुक्ल । दतिया-निवासी। महाकवि-कण्टक - (आख्यायिका) डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी। सागर-निवासी। महात्मगान्धिचरितम् (6 सर्ग) - राजवैद्य वरिन्द्र। इन्दौर-निवासी। माहिष्मतीवर्णनम् - श्री. राजाराम पवार । मैकबेथम् (मैकबेथ नाटक का अनुवाद) - मोहन गुप्त । भोपाल-निवासी। यंत्रशक्तिविज्ञानम् - डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी। मन्दसौर-निवासी। युगप्रतिवेदनम्- डॉ. कामताप्रसाद त्रिपाठी । राजनांदगाव-निवासी। राजयोगिनी (खण्डकाव्य) - डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर । जासहा 444 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दौर-निवासी। राधाष्टकसमस्यापूर्ति पंचटीका- डॉ. पद्मनाभशास्त्री चक्रवर्ती। ग्वालियर-निवासी। रामवनगमनम् (नाटक) - डॉ. श्रीमती वनमाला भवालकर। सागर वि.वि.। विज्ञानवादे प्रत्ययविधि - डॉ. ब्रतीन्द्रकुमार सेनगुप्त। रायपुर निवासी। श्री. तुकोजीरावषष्टयब्दिपूर्ति - गजानन शास्त्री करमलकर। इन्दौर-निवासी। संस्कृत-रामचरितमानसम् - डॉ. प्रेमनारायण द्विवेदी। सागर-निवासी। सारस्वतसमुन्मेष - डॉ. विन्ध्येश्वरीप्रसाद मिश्र । सागर निवासी। स्फुट काव्यों का संग्रह। सन् 1985 में देववाणी परिषद्, दिल्ली द्वारा प्रकाशित। सिन्धुकन्या - (उपन्यास) - डॉ. श्रीनाथ श्रीपाद हसूरकर (इन्दौर-निवासी)। सौन्दर्यसप्तशती (बिहारी कृत सतसई का अनुवाद) - डॉ. प्रेमनारायण द्विवेदी। सागर-निवासी। स्वामिचरितचिन्तामणि (महाकाव्य) - पं. सुधाकर शुक्ल। दतिया-निवासी। हृद्यपद्यशतकम् - श्री नाथूराम शर्मा शास्त्री दाधीच। वागली (देवास) निवासी। नासिक से प्रकाशित, 1952) । कुरुक्षेत्रम् - पाण्डुरंगशास्त्री डेग्वेकर। 1956 । कूपमण्डूकवृत्तम् - आत्माराम शास्त्री। भारतीय विद्याभवन प्रकाशन, 19511 क्रान्तियुद्धम् - वासुदेवशास्त्री बागेवाडीकर। सोलापुर निवासी । (1957) खेटग्रामस्य चक्रोद्भव - डॉ. ग.बा. पळसुले। शारदा प्रकाशन, पुणे। गांधिचरितम् - वासुदेवशास्त्री बागेवाडीकर। (1959) । गांधिसूक्तिमुक्तावली - (गांधीजी के वचनों का पद्यानुवाद) पद्मविभूषण - श्री. चिन्तामणराव देशमुख। (1954) गुरुदेवकथामृतम् - बी.टी.आपटे। छत्रपतिः श्रीशिवाजी (नाटक) - श्री. भि. वेलणकर। छन्दोदर्शनम् - श्रीदेवरात कवीश्वर। भारतीय विद्या भवन प्रकाशन, 1951। जन्म रामायणस्य (नाटक) - श्री. भि. वेलणकर । जवाहरतरंगिणी - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर (1958)। जवाहरचिन्तनम् - श्री. भि. वेलणकर, (1966)। ज्ञानेश्वरचरितम् - पण्डिता क्षमा राव (1953)। तत्त्वमसि - (नाटक) - श्री. भि. वेलणकर । तिलकचरितम् - वासुदेवशास्त्री बागेवाडीकर (1955)। श्रीतिलकयशोर्णव (तीन भागों में) - पद्मभूषण माधव श्रीहरि अणे, (1969-71) साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त। तुकारामचरितम्: - पण्डिता क्षमा राव। 1950 । तुलसीमानसनलिनम् - (तुलसीकृत रामचरितमानस का अनुवाद) डॉ. नलिनी साधले। उस्मानिया वि.वि.। शारदा प्रकाशन, पुणे। त्रिशकु - दि. द. बहुलीकर। (1980)। धन्येयं गायनी-कला - डॉ. गजानन बालकृष्ण पळसुले। शारदा प्रकाशन, पुणे। धन्योऽहम् धन्योहम् - डॉ. ग. बा. पळसुले। (वीर सावरकर के चरित्र पर आधारित नाटक) नारायणस्वामिचरितम् - आत्माराम जेरे। (1962) । नेहरु जवाहरलाल - वासुदेव शास्त्री बागेवाडीकर । (1960)। पृथिवीवल्लभम् (नाटक)- श्री. बी. के. लिमये। पौरच्छात्रीयम् - 'ग. गं. पेंढारकर। पुणे-निवासी (1967) । बालकानां जवाहर - विघ्नहरि देव । शारदा प्रकाशन (1964)। भर्तृहरीयम् (नाटक)- श्री. वा. डी. गांगल । मुंबई-निवासी। भारतस्वातंत्र्यम् - के. बी. चितले। (1969) । भासोऽहासः (नाटक) - डॉ. ग. बा. पळसुले। महाराष्ट्र अप्याशास्त्रिचरितम् - पं. औदुम्बरकर शास्त्री। शारदा-प्रकाशन, पुणे। (1973)। अमरनाथकथा- श्री. ना. रा. बोडस । शारदा प्रकाशन, पुणे। अरविंदचरितम् - प्रा. यज्ञेश्वरशास्त्री। शारदा-प्रकाशण, पुणे। उत्तरसत्याग्रहगीता - पण्डिता क्षमा राव। (1948)। उन्मत्तकीचकम् (नाटक) - डॉ. के. एस. नागराजन्। कण्टकांजलि - प्रा. अर्जुनवाडकर । अपरनाम कण्टकार्जुन, पुणे। कथं तुका वक्ति (संत तुकाराम के काव्यों का अनुवाद)डॉ. ग. बा. पळसुले, पुणे। शारदा-प्रकाशन, पुणे। कल्लोलिनि - दि. द. बहुलीकर। (1985)। कालिदासचरितम् (नाटक) - श्री. भि. वेलणकर। मुंबई-निवासी। (1961)। कालिन्दी (नाटक) - श्री. भि. वेलणकर। काव्यसरित् - अ.वि. काणे। पुणे-निवासी। (1965)। कुमुदिनीचन्द्र (उपन्यास) - आचार्य मेधाव्रत। (येवला संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /445 For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भूपो भिषक्त्वं गतः (लघुनाटिका) - लोण्ढे शास्त्री | शारदा प्रकाशन पुणे । मनोबोध (समर्थ रामदास कृत मनाचे श्लोक का अनुवाद) - श्री. रामदासानुदास । शारदा प्रकाशन पुणे । श्री. बालकृष्ण जोशी । शारदा मराठी संस्कृत शब्दकोष प्रकाशन, पुणे । महात्मचरितम् प. ना. पाठक सातारा निवासी शारदाप्रकाशन, पुणे (1948) मुक्तकमंजूषा दि. द. बहुलीकर मुक्तकांजलि दि. द. बहुलीकर मुक्ताजालम् व्ही. पी. जोशी । मेघदूतोत्तरम् (नाटक) श्री. मि. वेलणकर । मैक्समूलर - वैदुष्यम् (नाटक) भवानीशंकर त्रिवेदी, 1981 मोहनमंजरी जयराम पुल्लीवार। विषय-महात्मा गांधी | - - - www.kobatirth.org (1968) I यशोधरा महाकाव्यम् ओगेट परीक्षित शर्मा पुणे-निवासी । (1976) I - - वात्सल्यरसायनम् (कृष्णभक्ति काव्य) - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर । विद्याविलसितम् श्रीकान्त बहुलकर | विनायक वैजयन्ती ( स्वातंत्र्यवीर सावरकर स्तुतिशतक) डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर, नागपुर निवासी उषा प्रकाशन, किल्लापारडी, गुजरात (1956) विनायक- वीरगाथा डॉ. ग. बा. पळसुले (1966) । विवेकानन्दचरितम् डॉ. ग. बा. पळसुले शारदा प्रकाशन, पुणे । ( 1970-71)। विवेकानन्दचरितम् - त्र्यम्बक भांडारकर (1974)। विवेकानंदविजयम् (महानाटक) डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। विश्वमोहनम् (नाटक) एस. टी. तातडपत्रीकर । - रणक्षीरंग (नाटक) श्री. भि. वेलणकर | डॉ. राजेन्द्रप्रसादचरितम् शारदा प्रकाशन पुणे । राज्ञी दुर्गावती (नाटक) श्री. भि. वेलणकर । रामकृष्णपरमहंसीयम् (खंडकाव्य) डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर । शारदा प्रकाशन, पुणे (1964)। रामदास सूर्यनारायणशास्त्री । (1960)। रामदासचरितम् - पण्डिता क्षमा राव (1953)। लोकमान्यतिलकचरितम् के. व्ही. छत्रे 1956 1 शिवकैवल्यचरितम् - डॉ. व्यं. म. कैकिणी । मुंबई निवासी । (1950) I शिववैभवम् (शिवाजीचरित्रविषयक नाटक) 446 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - · श्री वासुदेव आत्माराम लाटकर। - व्ही. पी. बोकील । शिवराज्योदयम् (68 सर्गों का महाकाव्य) डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर (1972) साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त । शुनकदूतम् कृष्णमूर्ति पुणे-निवासी रमामाधवम् (नाटक) - व्ही. पी. बोकील । विषय- माधवराव पेशवा का चरित्र ) । श्रमगीता डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर, शारदा प्रकाशन, पुणे। 1975 I - श्रीकृष्णरुक्मिणीयम् (नाटक) व्ही. पी. बोकील । श्रीमान् विन्स्टन चर्चिल औदुम्बरकर शास्त्री । शारदा प्रकाशन । श्रीलोकमान्यस्मृति (नाटक) श्री. भि. वेलणकर। श्रीशरन्नवरात्रचम्पू कृष्ण जोयिस। बंगलोर निवासी । पुणे शारदा प्रकाशन, श्रीसुभाषचरितम् (महाकाव्य) कल्याणनिवासी (1963)। For Private and Personal Use Only - - समानमस्तु वो मनः (नाटक) डॉ. ग. बा. पळसुले। पुणे । संघात्मा गुरुजि: प्राचार्य हरि त्र्यम्बक देसाई शारदा, प्रकाशन । संस्कृतकविजीवितम् सूर्यनारायशास्त्री (1970) संस्कृतानुशीलनविवेक जी. एस. हुपरीकर शास्त्री । भारत बुक स्टॉल | कोल्हापुर, 1949 । आत्माराम शास्त्री । भारतीय विद्या भवन, सावित्रीचरितम् प्रकाशन (1951) | सुखचनसंदोह दे ख. खरवंडीकर (1967) स्मृतितरंगम् - डॉ. म. गो. माईणकर, मुंबई वि. वि. (1975) । स्वातंत्र्यचिन्तामणि (नाटक) श्री. भि. वेलणकर । स्तोत्रपंचदशी म. स. आपटीकर। शारदा प्रकाशन, पुणे । हरिपाठ (श्री. ज्ञानदेव के काव्य का अनुवाद)- अनुवादक, म. स. आपटीकर। शारदा प्रकाशन, पुणे । हुतात्मा दधीचि (नाटक) श्री. भि. वेलणकर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - राजस्थान - श्री. वि. के. छत्रे । अणुव्रतशतकम् - मुनि चम्पालाल । अनुभवशतकम् चन्दनमुनि । अनुभवशतकम् - श्री. विद्याधरशास्त्री। बीकानेर- निवासी । अभिनवकाव्यप्रकाश (प्रथमखण्ड) श्री. गिरिधरलाल व्यास । उदयपुर निवासी । द्वितीय संस्करण - 1966 1 अभिनव जयपुरवैभवम् श्री रामेश्वर प्रसाद शास्त्री जयपुर। अभिनिष्क्रमणम् - चन्दनमुनि । अमरेश्वरदर्शनम् - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुर निवासी । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमृतरत्नाकरम् (काव्य) - श्री. कन्हैयालाल व्यास । बूंदी-निवासी। अमृतसूक्ति पंचाशिका - अमृतवाग् भवाचार्य । जयपुर-निवासी। अमृतस्तोत्रसंग्रह - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुर-निवासी। अम्बिकासूक्तम् - श्री हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। विषयवैदिक छंदों में देवीस्तुति । अलंकारलीला - श्री हरिशास्त्री। जयपुरनिवासी। विषय-वैदिक छंदों में देवीस्तुति। अवधातव्यम् - इन्द्रलाल शास्त्री जैन। आत्मचरितम् श्री गिरिधरलाल व्यास। उदयपुर-निवासी। आत्मविलास - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुरनिवासी। विषय-दर्शन। आत्मारामपंचरंग- श्री नित्यानंद शास्त्री। जोधपुर-निवासी। आधुनिककाव्यमंजरी - नवलकिशोर कांकर। जयपुर-निवासी। आनन्दमन्दाकिनी - श्री विद्याधर शास्त्री। बीकानेर निवासी।। आमेटाजातीयेतिहास - श्री गिरिधरलाल व्यास। उदयपुर-निवासी। आम्रपाली (उपन्यास) - श्री हरिकृष्ण गोस्वामी। जयपुर-निवासी। आर्जुनमालाकारम् - चन्द्रमुनि। आर्यनक्षत्रमाला - नित्यानंद शास्त्री। जोधपुर-निवासी। आर्यविधानम् - जोधपुर-निवासी। आर्यामुक्तावली - जोधपुर-निवासी। ईशकाव्यम् - डॉ. सुभाष तनेजा। जयपुर-निवासी। ईश्वरविलासकाव्यम् - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री। जयपुर-निवासी। उत्तिष्ठत जाग्रत (निबंध) - मुनि बुधमल। उदरप्रशस्ति - श्री हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। उद्वेजिनी (उपन्यास) - श्री हरिकृष्ण गोस्वामी । जयपुर-निवासी। ऋतुविलास - श्री जगदीशचंद्र आचार्य। जयपुर-निवासी। एकाह्निकपंचशती - शतावधानी महेन्द्रमुनि । कर्तव्यषट्त्रिंशिका - आचार्य तुलसी। कलिकौतुकम् (नाटक) - श्री.विश्वनाथ मिश्र। बीकानेर निवासी। कविसम्मेलनम् (प्रहसन) - विश्वनाथ मिश्र । कादम्बिनी (गद्यकाव्य)- स्वामी श्री. हरिरामजी। जोधपुर-निवासी। कामायनी (हिंदी काव्य का पद्यानुवाद) - भगवानदत्त शास्त्री "राकेश" झुंझनू-निवासी। काव्यनिकुंजम् - श्री. रामेश्वरप्रसाद शास्त्री। जयपुर-निवासी। काव्यवाटिका - श्री विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। काव्यसत्त्वालोक - डॉ. ब्रह्मानन्दशास्त्री। अजमेर-निवासी। काशीलहरी - गोपीनाथ द्राविड। जयपुर-निवासी। काव्यविमर्श - नन्दकुमारशास्त्री। कृष्णशतकम् - मुनि छत्रमल। गंगावतरणम् (खण्डकाव्य) - स्वामी श्री हरिरामजी जोधपुर निवासी। गणपतिसम्भवम् (महाकाव्य)- श्री प्रभुदत्तशास्त्री, अलवर निवासी। गांधिगाथा - श्री मधुकर शास्त्री। जयपुर निवासी। गांधीयुगागम - श्री बदरीनारायण पुरोहित। चित्तौड-निवासी। गिरिधरसप्तशती (नीतिकाव्य) - गिरिधर शर्मा (नवरत्न) झालावाड निवासी। (1958)। गीतिसन्दोह - मुनि दुलीचन्द । गोविन्दगीतांजलि - श्री.जगदीशचंद्र आचार्य । जयपुर-निवासी। गोविन्दवैभवम् (भक्तिकाव्य) - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री। जयपुर-निवासी। चतुर्वेदिसंस्कृतरचनावलि (निबन्ध) - श्री.गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी। जयपुर निवासी। छन्दःशाकुन्तलम् (विषय-छन्दशास्त्र) - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी। जयपुर-निवासी। जयपुरवैभवम् - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री। जयपुर निवासी। जयोदयम् (महाकाव्य) - आचार्य ज्ञानसागर । जरासन्धमहाकाव्य - स्वामी हरिरायजी। जोधपुर । जवाहरविजयमहाकाव्य - श्री काशीनाथ शर्मा चन्द्रमौलि जयपुर निवासी। जीवनस्य पृष्ठद्वयम् (उपन्यास) - कलानाथ शास्त्री। जयपुर निवासी। जैनदर्शनसार - चैनसुखदास। जयपुर-निवासी। ज्योतिःस्फुलिंगम् - चन्द्रमुनि । झांसीश्वरी-शौर्यामृतम् - प्रभुदत्तशास्त्री। अलवर-निवासी। तत्त्वशतकम् (काव्य) - डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा । जयपुर-निवासी। तकों विश्वासश्च - श्री विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। तुलसी-महाकाव्यम् (आचार्य तुलसी के जीवन पर) रघुनन्दन शर्मा। तुलसीशतकम् - मुनि छत्रमल । तुलसीस्तोत्रम् - मुनि बुधमल। दयोदयचम्पू - आचार्य ज्ञानसागर । दुर्बलबलम् (नाटक)- श्री. विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /447 For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra देवगुरुद्वात्रिंशिका - मुनि छत्रमल । देशिकदर्शनम् अमृतसम्भवाचार्य जयपुर निवासी। धन्वन्तरिजन्यामृतम् प्रभुदत्तशास्त्री अलवर निवासी । धर्मराज्यम् इन्द्रलाल शास्त्री जैन । धृष्टदमनम् - स्वामी श्री. हरिरामजी । जोधपुर निवासी । नान्दीश्राद्धामृतम् - प्रभुदत्त शास्त्री । अलवर निवासी । निर्वाचनकोश डॉ. शिवसागर त्रिपाठी जयपुर निवासी। निर्वचनात्मकनिबन्धाः डॉ. शिवसागर त्रिपाठी । जयपुर । पंचतीर्थी (गीतिकाव्य) चन्दनमुनि पथिककाव्यम् मधुकर शास्त्री जयपुर निवासी। पद्यपंचतन्त्रम्पदाशास्त्री जयपुर निवासी। पद्यमुक्तावलि - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री जयपुर निवासी। परमशिवस्तोत्रम् अमृतवाग्भवाचार्य जयपुर निवासी। परशुराम देवाचार्य-चरितम् - रामचन्द्र गौड जयपुर-निवासी । पावनप्रकाश चैनसुखदा । - - - · - पुनर्जन्म ( काव्य ) हरिकृष्ण गोस्वामी जयपुर निवासी पुष्पचरितम् नित्यानन्द शास्त्री जोधपुर निवासी। पुष्पालोक- (शेख सादी के गुलिस्तां काव्य का अनुवाद) धर्मेन्द्रनाथ आचार्य। - श्री. गिरिधरलाल व्यास । पूर्णानन्दचरितम् - विद्याधर शास्त्री । बीकानेर- निवासी । प्रवीरप्रताप (नाटकम्) उदयपुर निवासी। प्रतापपरिणयमहाकाव्यम् - स्वामी हरिराय जी । जोधपुर निवासी । प्रबन्धगद्यमाधुरी नवलकिशोर कांकर। जयपुर निवासी। प्रबन्धमकरन्द नवलकिशोर कांकर। जयपुर निवासी । प्रबन्धामृतम् नवलकिशोर कांकर। जयपुर निवासी। प्रभवप्रबोधम् (काव्य) - चन्दनमुनि | प्राकृतकाश्मीरम् - रघुनन्दनशर्मा । - - - www.kobatirth.org प्राणाहुति (रूपक) डॉ. शिवसागर त्रिपाठी जयपुर निवासी। बांग्लादेशविजय पद्मशास्त्री जयपुर निवासी बांकेबिहारीवन्दनम् - श्री रामचन्द्र गौड । जयपुर निवासी । भक्तराजाम्बरीष (रूपक) काशीनाथ शर्मा चन्द्रमौलि जयपुर निवासी। भद्रोदयं (खंडकाव्य ) आचार्य ज्ञानसागर । भारतविजयम् प्रभुदत शास्त्री अलवर निवासी। भारतविभूतयः श्री रामेश्वरप्रसाद शास्त्री जयपुर निवासी कृष्णानन्द आचार्य । - भारतविजयाशंसनम् (खंडकाव्य) बूंदी निवासी। भावनाविवेक - चैनसुखदास। जयपुर निवासी । 448 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड भावभास्करकाव्यम् - मुनि धनराज । भाषालक्षणम् (वेदान्तग्रन्थ) स्वामी श्री हरिराय जी । जोधपुर निवासी । भाषाविज्ञानस्य रूपरेखा श्री गिरिधरलाल व्यास । उदयपुर निवासी। भिक्षु द्वात्रिंशिका मुनि छत्रमल । भिक्षुशतकम् मुनि बुद्धिमल्ल । मकरन्दिका श्री जगदीशचन्द्र आचार्य जोधपुर निवासी। मत्तलहरी श्रीविद्याधर शास्त्री। बीकानेर निवासी । -निवासी । जयपुर मदीया सोवियतयात्रा मनोऽनुशासनम् आचार्य तुलसी । मन्दाकिनी - माधुरी - श्री जगदीशचन्द्र आचार्य । जोधपुर निवासी । मन्दाक्रान्तास्तोत्रम् - अमृतवाग्भवाचार्य जयपुर निवासी । महाराज प्रतापचरितम् - डॉ. सुभाष तनेजा । जयपुर निवासी । महावीरशतकम् मुनि छत्रमल - - - - मातृलहरी मधुकरशास्त्री जयपुर निवासी। माधुर्यशतकम् - बदरीनारायण शर्मा। कोटा निवासी । मानवेश महाकाव्यम् श्री सूर्यनारायण शास्त्री जयपुर निवासी । मारुतिवन्दना श्रीरामचन्द्र गौड । जयपुर निवासी । मारुतिलहरी मधुकरशास्त्री जयपुर निवासी। मेदपाटेतिहास (मेवाड का पद्यात्मक इतिहास) - गिरिधरलाल व्यास उदयपुर निवासी। For Private and Personal Use Only - यात्राविलासम् नवलकिशोर कांकर जयपुर निवासी राजतरंगिण्यां भारतीयसंस्कृतिः तनेजा । जयपुर निवासी । राजस्थानस्य काव्यम् - लक्ष्मीनारायण पुरोहित । उदयपुर-नि र-निवासी। रामकृष्णस्वामिचरितम् रामचन्द्र गौड जयपुर-निवासी। रामचरिताभिध-रत्नमहाकाव्यम् श्री नित्यानंदशास्त्री । जोधपुर निवासी। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । रामविवाह श्री लक्ष्मणशास्त्री स्वामी । नागौर निवासी । राष्ट्रध्वजामृतम् प्रभुदत्तशास्त्री अलवर निवासी। राष्ट्रवाणी-तरंगिणी (गीतिकाव्य) जयपुर निवासी। मधुकरशास्त्री। - - · राष्ट्रवंदन श्री नवलकिशोर कांकर। जयपुरर-निवासी। राष्ट्रालोक अमृतवाग्भवाचार्य जयपुर निवासी। रौहिणेय (खण्डकाव्य) मुनि बुधमल । ललितकथा- कल्पलता जयपुर निवासी। ललितासहस्त्रमहाकाव्यम् श्री हरिशास्त्री जयपुर-निव्वासी (गद्यप्रबन्ध) डॉ. सुभाष - श्री हरिकृष्ण गोस्वामी। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लीलालहरी - विद्याधरशास्त्री। बीकानेर-निवासी। लेनिनामृतम् (काव्यम्) - पद्मशास्त्री। जयपुर-निवासी। लोकगति - विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। लोकतन्त्रविजय (व्यायोग) - पद्मशास्त्री। जयपुर-निवासी। वस्त्वलंकारदर्शनम् (साहित्यशास्त्र)- डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा । राजकीय महाविद्यालय, अजमेर (1969)। वामनविजयम् (नाटक) - विश्वनाथ मिश्र । बीकानेर-निवासी। विक्रमाभ्युदयचम्पू - श्री विद्याधरशास्त्री। बीकानेर-निवासी। विद्याधर-नीतिरत्नम् - विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। विनायकानामभिनन्दनम् (रूपक) - श्री नारायणशास्त्री कांकर। जयपुर-निवासी। विरहिणी - जगदीशचन्द्र आचार्य। जोधपुर-निवासी। विविधदेवस्तवसंग्रह - नित्यानन्दशास्त्री। जोधपुर- निवासी। विशंतिकारहस्यम् - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुर-निवासी। विश्वमानवीयम् (महाकाव्य) - विद्याधर शास्त्री। बीकानेर। विष्णुचरितामृतम् - (चित्रकाव्य) श्री लक्ष्मणशास्त्री स्वामी । विहारीदास त्यागिचरितम् - श्री रामचन्द्र गौड । जयपुर-निवासी। विहारिशतकम् - श्री रामचन्द गौड। जयपुर-निवासी। वीतरागस्तुति - चन्दनमुनि ।। वीरभूभि - गिरिधरलाल व्यास। उदयपुर-निवासी। वीरोदयम् (महाकाव्य) - आचार्य ज्ञानसागर । वृत्तमुक्तावलि - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री। जयपुर-निवासी। वेदनानिवेदनम् (लघुकाव्य) - श्री सत्यनारायण शास्त्री। बीकानेर-निवासी। वेदवाङ्मयविमर्श (गद्यरचना) - श्री रामनारायण चतुर्वेदी। जयपुर-निवासी। वैचित्र्यलहरी - श्री विद्याधरशास्त्री। बीकानेर-निवासी। शंकरदिग्विजयम्- काशीनाथ शर्मा । चन्द्रमौलि । जयपुर-निवासी। शक्तिगीतांजलि - हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। शक्तिजयम् (महाकाव्यम्) - डॉ. भोलाशंकर व्यास। शब्दार्थ-सम्बन्धविर्मश (साहित्यशास्त्र) - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी। जयपुर-निवासी। शरणोद्धरणम् (महाकाव्य) - स्वामी हरिरामजी । जोधपुर-निवासी। शास्त्रकाव्यधारा - विद्याधर शास्त्री। बीकानेर-निवासी। शास्त्रसर्वस्वम् - श्री नवलकिशोर कांकर। जयपुर-निवासी। शिक्षारत्नावलि - श्री हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। शिक्षाषण्णवतिः - आचार्य तुलसी। शिबिकाबन्ध (चित्रकाव्य) - मुनि नवरत्नमल। शिवस्तव - धरणीधरशास्त्री। जयपुर-निवासी। श्यामचरणदासाचार्य-चरितम् - रामचन्द्र गौड। जयपुर-निवासी। श्रमणशतकम् - (1) मुनि चम्पालाल। (2) मुनि विद्यासागर । श्रीकृष्णचरितम् - गिरिधरलाल व्यास। उदयपुर-निवासी। श्रीगान्धिगौरवम् (काव्य) - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी, जयपुर-निवासी। श्रीरामकीर्तिकौस्तुभम् - प्रभुदत्तशास्त्री। अलवर-निवासी। श्रीरामपादयुगलीस्तव - लक्ष्मणशास्त्री स्वामी । नागौर-निवासी। श्रीवासुदेवचरितम् - श्री जगदीशचन्द्र आचार्य । जोधपुर-निवासी। श्रीहरिद्वादशशरीरस्तोत्रम् - श्री लक्ष्मणशास्त्री स्वामी । नागौर-निवासी। षोडशकारणभावना - श्री चैनसुखदास। जयपुर-निवासी। सप्तपदीहृदयम् - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुर-निवासी। समाधानम् - कन्हैयालाल गोस्वामी। बीकानेर-निवासी साम्राज्यसिद्धिस्तव - श्री हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। सिद्धमहारहस्यम् (दर्शन) - अमृतवाग्भवाचार्य। सिनेमाशतकम् - पद्मशास्त्री। जयपुर-निवासी। सुदर्शनोदयम् (महाकाव्यम्) - आचार्य ज्ञानसागर । सुवर्णरश्मयः - मधुकरशास्त्री। जयपुर-निवासी। सोमनाथचम्पू - हरिकृष्ण गोस्वामी। जयपुर-निवासी । संगीतलहरी - श्री. जगदीशचन्द्र आचार्य। जोधपुर-निवासी । संजीवनीदर्शनम् - अमृतवाग्भवाचार्य। जयपुर-निवासी। संजीवनीसाम्राज्यम् - श्री हरिशास्त्री। जयपुर-निवासी। संस्कृतकथाकुंजम् - गणेशराम शर्मा। झालावाड। संस्कृतगीतांजलि - काशीनाथ शर्मा । चन्द्रमौलि। जोधपुर । संस्कृतनिबन्ध - श्री लक्ष्मीनारायण पुरोहित। जयपुर । संस्कृतनिबन्धपारिजात - डॉ. सुभाष तनेजा। जयपुर । संस्कृतवाक्सौन्दर्यम् - प्रभुदत्तशास्त्री। अलवर। संस्कृतशिशुगीतम् - डॉ. सुभाष तनेजा। जयपुर । संस्कृतसुधा - भट्ट मथुरानाथशास्त्री। जयपुर ।। संस्कृतिसुधा - डॉ. सुभाष तनेजा। जयपुर । स्वप्नकाव्यम् - मधुकर शास्त्री। स्वराज्यम् (खण्डकाव्य) - पद्मशास्त्री। जयपुर । हनुमदूम् - नित्यानंद शास्त्री। जोधपुर । हनुमल्लहरी - श्री हरिनारायण गोयल। हरनामामृतम् (महाकाव्य) - विद्याधरशास्त्री। बीकानेर । हरिदासस्वामिवन्दना - श्रीरामचन्द्र गौड। जयपुर । हंसदूतम् - श्री जगदीशचन्द्र आचार्य। जोधपुर- निवासी। हिमाद्रिमाहात्म्यम् - विद्याधरशास्त्री। बीकानेर-निवासी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/449 For Private and Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रदेशानुसार ग्रंथकार-ग्रंथ नामसूची अतिप्राचीन काल से संस्कृत भाषा में वाङ्मय निर्मिति समग्र भारतवर्ष में होती आ रही है। संस्कृत वाङ्मय अखिल भारत का निधि होने से उस में किसी प्रकार की प्रादेशिकता की संकुचित भावना नहीं दिखाई देती। फिर भी आधुनिक विद्वानों की जिज्ञासा में प्रादेशिकता हो सकती है। आधुनिक भारत में, स्वराज्य प्राप्ति के बाद जो भाषानिष्ठ प्रदेशरचना राज्यव्यवस्था की सुविधा के लिए हुई है तदनुसार, संस्कृत वाङ्मय के ग्रंथकारों का वर्गीकरण आगे के परिशिष्टों में किया । है। इन परिशिष्टों से किस प्रदेशों में कितना और किस प्रकार का वाङ्मय निर्माण हुआ, इस की कुछ कल्पना जिज्ञासुओं को आ सकेंगी। इन परिशिष्टों में सभी ग्रंथकारों का अन्तर्भाव नहीं हुआ और जिनका अन्तर्भाव हुआ है उनके कुछ प्रमुख ग्रंथों का ही निर्देश हुआ है। निर्दिष्ट ग्रंथकार एवं उनके ग्रंथों का परिचय कोश की प्रविष्टियों में यथास्थान मिलेगा। प्रदेशों का निर्देश अकारादि अनुक्रम से किया है। ग्रंथकारों के नामनिर्देश के साथ उनके आविर्भाव की शताब्दी का निर्देश कोष्टक में किया है। ग्रंथ के स्वरूप (काव्य, नाटक, चम्प. धर्मशास्त्र आदि) का निर्देश ग्रंथनाम के आगे कोष्टक में किया है। संपादक परिशिष्ट-(1) असम राज्य के ग्रंथकार और ग्रंथ आज के असम तथा समीपवर्ती मणिपुर, मेघालय, अरूणाचलप्रदेश इत्यादि सात राज्यों में अन्तर्भूत प्रदेश का निर्देश प्राचीन वाङ्मय में कामरूप, प्राग्जोतिष इत्यादि नामों से मिलता है। लौहित्या या ब्रह्मपुत्रा इस प्रदेशों की महानदी है। कई स्थानों पर 'असम' नाम का भी निर्देश मिलता है। इस प्रदेश में कोच वंशीय तथा अहोमवंशीय राजाओं द्वारा संस्कृत विद्या का संरक्षण दिया गया। ग्रंथकार ग्रंथ अज्ञात : कालिकापुराण अज्ञात : बृहद्गवाक्ष (तंत्रशास्त्र) अज्ञात : स्वल्पमत्स्थपुराण अज्ञात योगिनीतंत्र अज्ञात कामरूपीयनिबंधीय खण्डसाध्य (ज्योतिष) अनंगकविराज (18) : वैद्यकल्पतरु आद्यनाथ : जातकप्रदीप भट्टाचार्य (20) आनंदराम बरूआ (19): जानकी-रामभाष्य (भवभूतिकृत महावीरचरितम् पर) कविचन्द्रद्विज (18) : कामकुमारहरणम् (नाटक) कविभारती (14) : मखप्रदीप (धर्मशास्त्र) कामदेव वैद्यकल्पद्रुम कामिनीकुमार रवीन्द्रनाथ टैगोर कृत अधिकारी (20) गीतांजलि एवं ऊर्वशी के अनुवाद कृष्णदेव मिश्र (17) : संवत्सर-गणना (ज्योतिष) केयदेव : प्रयोगसागर (आयु.) गदसिंह : किरातार्जुनीय की टीका गोविन्ददेव : व्यवस्थासार समुच्चय शर्मा (19) : (धर्मशास्त्र) गौरीनाथ द्विज (१८) : विघ्नेशजन्मोदयम् (कविसूर्य) (नाटक) घनश्याम शर्मा (20) : ज्योतिषजातकगणनम् चक्रेश्वर भट्टाचार्य (20) : शक्तिदर्शनम् चन्द्रकान्त विद्यालंकार : शब्दमंजरी (शब्दप्रामाण्य (20) विषयक निबंध) जनमेजय सौंदर्यलहरीस्तोत्र की टीका जयकृष्ण शर्मा : प्रभा-प्रकाशिका (प्रयोगरत्नमाला-व्याकरण की टीका) जोगेश्वर शर्मा (20) : द्रव्यगुणतरंगिणी दामोदर : किरातार्जुनीय-टीका दामोदर मिश्र (14) : ज्योतिषसारसंग्रह स्मृतिसारसंग्रह दामोदर मिश्र (15) : सुव्यक्तपंजिका (हस्तामलकस्तोत्र टीका) गंगाजलम् (धर्मशास्त्र) 450 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीन द्विज (19) धर्मदेव गोस्वामी (19) धीरेश्वराचार्य (19-20) नागार्जुन (10-11) नारायण नीतिवम नीलाधर शर्मा नीलाम्बराचार्य (13) पालकाप्य (5) पीताम्बर सिद्धान्त वागीश (16-17) पुरुषोत्तम विद्यासागर (16) बिपिनचंद्र गोस्वामी महादेव शर्मा (17) (अनन्ताचार्य) महीराम भट्टाचार्य : : : डॉ. मुकुंद माधव शर्मा (20) : : : 10 : : : : (20) भवदत्त भावदेव भागवती (20) मथुरानाथ विद्यालंकार मनोरंजन शास्त्री ( 20 ) : : : : : स्मृतिसागर, स्मृतिसागरसार, दशकर्मदीपिका, तंत्रटीका शंखचूडवधम् (नाटक) धर्मोदयम् (नाटक) वृत्तमंजरी (स्वकृत उदाहरणों सहित) योगशतक (आयुर्वेद) राजवल्लभ (आयुर्वेद) कीचकवधम् (यमककाव्य) अंशप्रकाशिका (विष्णुपुराणटीका) www.kobatirth.org श्राद्धप्रकाश ( कात्यायन धर्मसूत्र- टीका, कालकौमुदी, चन्द्रप्रभा (धर्मशास्त्र) हत्यायुर्वेद (या गजचिकित्सा) ग्रहणकौमुदी (ज्यो.) संक्रान्तिकौमुदी (ज्यो) गूढार्थप्रकाशिका (लक्ष्मणाचार्यकृत शारदातिलक की व्याख्या, तंत्रविषयक) विवादकौमुदी कौमुदी, दशकर्मकौमुदी प्रेतकृत्यकौमुदी, श्राद्धकौमुदी शुद्धिकौमुदी (सभी धर्मशास्त्रविषयक) प्रयोगरत्नमाला - व्याकरणम् नवमल्लिका (भाषांतरित कथासंग्रह) शिशुपालवध टीका सती जयमती, श्लोकाला समयामृतम्, अद्भुतम् (दोनों ज्योतिष पर) प्रकामकामरूपम् (काव्य), पताकाम्नाय ( राष्ट्रध्वजविषयक) केतकीकाव्यम् (अनुवादित) अद्भुतसार, पुष्पप्रदीप प्रेतकृत्यकौमुदी, संस्कारकौमुदी और संबंधकौमुदी इन तीनों पर टीकाएं व्यंजनाप्रपंचसमीक्षा ऋतुसंहारसमीक्षा, कालिदासीय काव्येषु कर्मयोगस्य आदर्शः गर्भाचार्य रूपेश्वर स्मृतिरत्न (20) लक्ष्मीकान्त कविरत्न (20) लक्ष्मीपति शर्मा (17) वंशीवदन शर्मा (17) विद्यापंचानन वेदाचार्य (14) वैकुण्ठनाथ तर्कतीर्थ शौरिशर्मा श्रीकृष्ण मिश्र (19) श्रीधरभट्ट (15) सर्वानन्द भट्टाचार्य (18-19) सिद्धनाथ विद्यावागीश हलिराम शर्मा ( 19 ) ग्रंथकार अगस्त्यपण्डित (13-14) : : अनन्तशास्त्री (2) अन्नंभट्ट (16) : For Private and Personal Use Only : : : (20) व्रजनाथ शर्मा (19) वैद्यकसारोद्धार : व्रजेन्द्रनाथ आचार्य (20) : लेखागणितम् शुक्लध्वज : : : : : : किरातार्जुनीय टीका दशकर्मदर्पण (घ.शा.) श्राद्धपद्धतिसंग्रह : ज्योतिर्माला (ज्यो. शास्त्र) ज्योतिर्मुक्तावली (ज्यो. शास्त्र ) श्रीकृष्णप्रयाणम् स्मृतिरत्नाकर श्रीकृष्णलीलामृतम् : काव्यादर्श टीका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरस्वती (गीतगोविन्द की टीका) उद्वाहरत्नम् (धर्मशास्त्र) वर्षप्रदीप (धर्मशास्त्र) आंध्र के ग्रंथकार और ग्रन्थ परिशिष्ट 2 तात्पर्यदीपिका (प्रयोग रत्नमाला व्याकरण की टीका) गूढप्रकाशिका (प्रयोगरत्नमालाव्याकरण की टीका) कामरूपयात्रापद्धति ग्रंथ : बालभारतम् नलकीर्तिकौमुदी, कृष्णचरितम् इत्यादि कुल 72 ग्रंथ अम्माचार्य (15) अमृतानन्दयोगी (13) अम्बाले रामाचार्य (19) अरिभट्ट नारायणदास हरिकथामृतम् (19) शतभूषणी : तर्कसंग्रह, सुबोधिनी, पूर्वमीमांसा न्यायसुधा की व्याख्या : संकीर्तनलक्षणम् अलंकारसंग्रह : चम्पूभारतम् की व्याख्या संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 45 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवसराल पद्मराज : बालभागवतचम्प (पद्मराजचम्पू) अहोबल : विरूपाक्षवसन्तोत्सवचम्पू आणि विल्ल नारायण : साहित्यकल्पद्रुम शास्त्री (18) आणि विल्ल : अलंकारसिंधु, वेंकटशास्त्री (17) अप्पराययशश्चन्द्रोदय, रसप्रपंच (साहित्यशास्त्रपरक) आपस्तम्ब : कल्पसूत्र आलूरू नरसिंह कवि : नंजराजनयशोभूषणम् (18) (सा.शा.) आलूरू सूर्यनारायण : एकदिनप्रबन्ध कवि आलंच रामचन्द्र : चम्पूरामायण की टीका, बुधेन्द्र (17) भर्तृहरिकृत शतकत्रयी की टीका इरूगप दंडनाथ : नानार्थरत्नमाला (कोश) ऊरे देचय मंत्री (18) : शिवपंचस्तवीव्याख्या एलैश्वर पोद्दिभट्ट : सूक्तिवारिधि औबलाचार्य : अलंकारसर्वस्वम् कृष्णपंडित (13) (वाराणसीवासी) पारिजातपहरणचम्पू, उषापरिणय, मुक्ताचरित्र, मुरारिविजय, सत्यभामापरिणय कृष्णदेवराय (16) मदालसाचरित, सत्यावधूपरिणय, उषापरिणय, सकल कथा सारसंग्रह, जांघवती परिणय नाटक कृष्णपंडित (14) : सन्ध्यावन्दनभाष्यम् कोक्कोण्ड गीतमहानटनम् वेंकटरत्न कवि(19) अक्षरसांख्यशास्त्र, अक्षरसांख्यचर्यामार्गदायिनी कोटिकलपूडिनारायण : नाट्यसर्वस्वदीपिका कवि(12) कोराड रामचंद्रशास्त्री : घनवृत्तम् (मेघदूत से संबंधित)/कुल 22 ग्रंथों के रचयिता कोलानी रुद्रदेव राजरुद्रीय (श्लोक(14) (अपरनाम- वार्तिक की टीका), व्याकरणब्राह्मण) पाणिनीयप्रपंचवृत्ति कोल्लरू सोमशेखर कविः भागवतचम्पू कोल्लूरी राजशेखर साहित्यकल्पद्रुम, कवि(19) अलंकारमरंद गणपतिशास्त्री उमासहस्रम् आदि अनेक (काव्यकंठ)(19) ग्रंथ गणस्वामी जनाश्रयी छंदोविचिति की व्याख्या गंगादेवी (महारानी) : मथुराविजयकाव्यम् (14) गंगाधरकवि चंद्ररेखाविलासम्, (अपर-व्यास)(14) राघवाभ्युदयम् कंचे एल्लयात्री(15) : एल्लयात्रीयम् (धर्मशास्त्र) कपिस्थलम् : सिद्धान्तमार्तण्डोदयम् देशिकाचार्य(19) (विशिष्टाद्वैत) काकाति/प्रताप- : उषारागोद्यम्, ययाति रूद्रदेव (14) चरितम् (दोनों रूपक) काटयवेम कुमारगिरिराजीयम् (काटयवेमभूपाल) कालिदास के तीन नाटकों (14) की टीकाएं रघुवंश कुमारसंभव और मेघदूत की व्याख्याएं कुमारगिरि(14) : वसन्तराजीयम् (ना.शा.) अपरनाम-वसन्तराज कुमारताताचार्य : पारिजातनाटकम् कुमारस्वामी : रत्नापण (प्रतापरुद्रीय सोमपीथी (15) की टीका) कुरवीराम कवि दशकरूपकवर्त्म (17-18) (या दशरूपकपद्धति), विश्वगुणादर्शचम्पू की टीका, मकरंदनिझरी (कुवलयानन्द की टीका) चम्पूभारत की टीका कृष्णकवि : कंसवधनाटक, गुण्डय्या भट्ट(14) : खण्डनटण्डखाद्य की टीका गुणाढ्य बृहत्कथा (प्राकृत) गोपालराय कवि (17) : रामचन्द्रोदयम् (यमककाव्य), शृंगारमंजरी भाण गौरण (15) पदार्थदीपिका, प्रबन्धदीपिका (सा.शा.) लक्षणदीपिका चावलीरामशास्त्री कुवलयामोद, अलंकार(19) मुक्तावली चिन्तामणिकवि : रूक्मिणीपरिणयनाटकम् (वाराणसीवासी) 452/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : नरसिंह (रूपकेश) (14) (तेलगु का संस्कृत व्याकरण) ऋग्वेदभाष्यम् काकतीय चरितम्, मलयवती (गद्य) कादम्बरी कल्याणम् (नाटक) काव्यकण्टकोद्धार (सा.शा.) नरसिंहशास्त्री(14) चिलकमर्ति : रत्नशाण (प्रतापरुदीय तिरूमलाचार्य(17) की व्याख्या) चेरूकूरि यज्ञेश्वर पंडित : काव्यप्रकाश की व्याख्या (15) चेरूकूरि लक्ष्मीधर : अनर्घराघव की टीका, प्रसन्नराधव की टीका, गीतगोविंद की टीका, षड्भाषाचन्द्रिका (6 प्राकृतभाषाओं का व्याकरण) चेल वेंकटशास्त्री वेंकटाद्रिगुणरत्नावली नौका (19) (साहित्यरत्नाकर की टीका) जगन्नाथ पंडितराज रसगंगाधर (सा.शा.), (17) चित्रमीमांसाखंडन (सा.शा.) मनोरमाकुचमर्दनी (व्या.) शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजनम् (व्या.) भामितीविलास, गंगालहरी, लक्ष्मीलहरी इत्यादि जयसेनापति (12) : नृत्तरत्नावली डिडिम : सालुवाभ्युदयम् तल्लपाक अन्नमय्या : संकीर्तनलक्षणम् (16) तल्लपाक तिरूमल : काव्यप्रकाश की टीका दीक्षित (15) ताता सुब्बराय शास्त्री : चित्रप्रभा (व्याक्यार्थ (अपर-नागेशभट्ट) दीपिका की व्याख्या), गुरुप्रसाद-शब्देन्दुशेखर की व्याख्या । यह व्याख्या पेरी वेंकटेश्वर शास्त्री ने पूर्ण की) तिम्मरसु(16) मनोहरीयम् (बालभारत की टीका) तिरुमल बुक्कपट्टणम् : श्रीनिवासचम्पू श्रीनिवासाचार्य (प्रौढसरस्वती) (13) तिरूमल बुक्कपट्टणम् : अलंकारकौस्तुभ वेंकटाचार्य(18) तिरूमलबुक्कपट्टणम् : रसमंजरी श्रीनिवासाचार्य। तिरूमलाम्बा : वरदाम्बिकापरिणयचम्पू देवय्यार्य(14) : प्रसन्नरामायणम् नडिमिटि सर्वमंगलेश्वर : समासकुसुमांजलि, शास्त्री(16) विभक्तिविलास शब्दमंजरी नन्नय्या : आन्ध्रशब्दचिंतामणि (तेलगु का संस्कृत व्याकरण) नरसिंह (रूपकेश) : ऋग्वेदभाष्यम् काकतीय (14) चरितम्, मलयवती (गद्य) कादम्बरी कल्याणम् (नाटक) नरसिंहशास्त्री(14) : काव्यकण्टकोद्धार (सा.शा.) नरसिंहाचार्य न्यायरत्नमाला की टीका नरसिंह सरस्वतीतीर्थ बालचित्तानुरंजनी (काव्य(16) प्रकाश की टीका) - नागनाथ मदनविलासभाण नागार्जुन (5) कक्षपुटतंत्रम् (वैद्यक) नागेशभट्ट (16) उद्योत (काव्यप्रकाश की व्याख्या), लघुशब्देन्दुशेखर परिभाषेन्दुशेखर, बृहवैयाकरण सिद्धान्त मंजूषा, परम लघुमंजूषा. महाभाष्यप्रदीपोद्योत नान्देड्ल गोपमंत्री : प्रमोधचन्द्रोदय की टीका नारायणतीर्थ कृष्णलीलातरंगिणी (गीतिनाट्य) नित्यनाथसिद्ध(6) रसरत्नाकर (वैद्यक) नृसिंह नंजराजयशोभूषणम् नृसिंह : कादम्बरीकल्याण नाटक नेल्लूरू नारायण कवि : विशेषरामायण परवस्तु रंगाचार्य (19) : मंजुलनैषधम्, विश्वकोष (अप्रकाशित) पालकुरिकि सोमनाथ : वीरमाहेश्वर सारोद्धारम् (13-14) (अपरनाम-सोमनाथ भाष्यम्) रुद्रभाष्य नमक-चमकभाष्य) बसवोदाहरणम्, अन्तादिरचना पेदकोमाटि शृंगारदीपिका वेमभूपाल (सर्वज्ञ) (अमरूशतकव्याख्या), (14) भावदीपिका (सहस्रशती की व्याख्या), साहित्य चिन्तामणि, संगीतचिन्तामणि तिरूमलाम्बा : वरदाम्बिकापरिणयचम्पू देवय्यार्य(14) प्रसन्नरामायणम् नडिमिटि सर्वमंगलेश्वर : समासकुसुमांजलि, शास्त्री(16) विभक्तिविलास शब्दमंजरी नन्नय्या : आन्ध्रशब्दचिंतामणि संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /453 For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पेद्दिभट्ट परहितपंडित (15) पोटभट्ट प्रतापरुद्र (13-14 ) बसवराज (16) बुलुसु अप्पण शाखी (20) बेलं कोण्ड रामराय (19) (शताधिक ग्रंथों के कर्ता) बेल्लालसदाशिव शास्त्री (19) बोम्मनकंटि अप्पयार्य (14) बंडास लक्ष्मीनारायण (15) भट्टभास्कर (14) भोजी दीक्षित (17) (वाराणसी निवासी) भागवतुल हरिशास्त्री (16) भास्कर (13) भास्कराचार्य (12) भोगनाथ मधुरवाणी (14) मल्लादि लक्ष्मणसूरि (19) मल्लादिसूर्यनारायण शास्त्री (20) मल्लिनाथ सुरि (14) मादनायक माधवमंत्री : : : : : : : : : .... ...... : : : सूक्तित्वारिधि परहितसंहिता (वैद्यक) प्रसंगरत्नावली अमरूशतकटीका बसवरानीयम् (आयुर्वेद) शांकराशांकरतत्त्वबोधिनी (भगवद्गीता की व्याख्या) सुबोधिनी (सिद्धान्तमुक्तावली व्याख्या) शांकराशांकरभाष्यम् (ब्रह्मसूत्रभाष्य), शरद्रात्रि (सिद्धान्तकौमुदी की www.kobatirth.org व्याख्या) इ. अमासोमव्रत (धर्मशाख) नामलिंगानुशासनम् ( अमरकोश की व्याख्या) संगीतसूर्योदय नमक- चमकव्याख्या (कृष्णयजुर्वेदीय) सिद्धान्तकौमुदी वाक्यार्थचन्द्रिका (परिभाषेन्दुशेखर की व्याख्या) उन्मत्तराघवम् सिद्धान्तशिरोमणि, लीलावती (गणितशास्त्र) रामोल्लास रामायणसार मन्दरम् (साहित्यरत्नाकर की व्याख्या) संस्कृतसाहित्येतिहास पंचमहाकाव्य, मेघदूत, भट्टिकाव्य की व्याख्याएं। तरला (एकावली नामक अलंकारशास्त्रीय ग्रंथ की व्याख्या) वैश्यवंशसुधाकर (धर्मशास्त्र) : राघवीयम् (रामायण की टीका) : सूतसंहिता की व्याख्या उपनिषदों के भाष्य । 454, संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड माधवाचार्य मामिडि संगण मिध्ववर्मा जनाश्रय मेडेपल्लि वेंकटरणाचार्य (20) यज्ञनारायण रघुनाथभूपति (12) रविपति त्रिपुरांतक (14) रामकृष्णकवि (20) रामामात्य (16) रायस अहोबलमंत्री लोल लक्ष्मीधर (15) वल्लभाचार्य (15-16) वाराणसी धर्मसूरि (14-15) विठ्ठल सोमनाथ दीक्षित विद्यारण्य विद्यानाथ (13) विरूपाक्ष. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : जीवन्मुक्तिविवेक, For Private and Personal Use Only धातुवृत्ति, एकाक्षररत्नमाला : सोमसिद्धान्त की टीका (ज्योतिष) : जनाक्षयी छन्देविचिति । : गीर्वाण शठकोपसहस्रम् प्रेमामृतम् । मथुरामाहात्म्यम् । वामन भट्टबाण ( 15 ) : वेमभूपालचरितम् (गद्यकाव्य), नलाभ्युदयम् रघुनाथचरितम्, पार्वती परिणयम्, हंससंदेशम् बृहत्कथामंजरी, कलकलेखा (नाटिका) । (अनुवाद)। : प्रभामंडल (शास्त्र दीपिका की टीका, अलंकारराघव, अलंकारसूर्योदय। संगीतसुधा : प्रेमाभिरामम् (रूपक) भरतकोश : स्वरमेलकलानिधि | : कुवलयविलास नाटक : सौंदर्यलहरी की व्याख्या । : ब्रह्मसूत्रभाष्यम् : बालभागवतम्, कंसवधनाटकम्, हंससन्देशम्, नरकासुरविजयम् साहित्यरत्नाकर : शास्त्रदीपिका की टीका, मयूखमालिका (सोमनाथीयम्) : अनुभूतिप्रकाशिका, पंचदशी, संगीतसार। : प्रतापरुद्र- यशोभूषणम् (सा.शा.) : उन्मत्तराघवम् (नाटक) नारायणीविलासम् (नाटक) सौगन्धिकाहरणम् (नाटक) । विश्वनाथकवि ( 14 ) विश्वेश्वर कवि ( 14 ) : चमत्कारचन्द्रिका (सा.शा.) वीरमल्ल देडिक ( 14 ) वीरराघवाचार्य ( 14 ) : नाट्यशेखर वीराघवीय (भागवत की व्याख्या) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुन्दराचार्य (19) सेतुमाधवाचार्य सुधानिधि, अलंकार सुधानिधि इत्यादि। : सूत्रार्थमणिमंजरी (माध्वमतीय ब्रह्मसूत्रभाष्य)। व्यासभनिति-भावनिर्णय, तत्त्वकौस्तुभकुलिश (भट्टोजी के तत्त्व कौस्तुभ का खंडन)। : यशस्तिलरुचम्पू। : सप्तशती (प्राकृत) सोमदेव सूरि हाल सातवाहन परिशिष्ट (3) उडीसा के ग्रंथकार और ग्रंथ वेंकटेश : चित्रबंधरामायण वेमभूपाल : (वीरनारायण) (15) साहित्यचिन्तामणि, संगीत चिन्तामणि। वैखानस : श्रीनिवासचम्पू, श्रीनिवासाचार्य शाकुन्तलटीका। व्यासराय : तर्कताण्डव, न्यायामृत, सुधामंदारमंजरी। शाकल्य मल्लदेव : अव्ययसंग्रह-निघण्टु (12) उदारराघवम्, आख्यातचन्द्रिका। शातलूरि कृष्णसूरि : साहित्यकल्पलसिका। शिष्ट कृष्णमूर्तिशास्त्री : सर्वकामदापरिणय, कंकण(16) बन्धरामायणम्, यक्षोल्लास, नीलशैलनाथीयम्, हरिकारिका (तेलुगुका संस्कृत व्याकरण) नरसभूपालीयम् (अलंकार मुक्तावली), यक्षोत्तरम्, बल्लवीपल्लवोल्लासम्। शेष गोविन्दकवि : कवितानन्दव्यायोग, (वाराणसीवासी) गोपाललीलार्णवभाण शेष नारायणकवि : सूक्तिरत्नाकर शोठिमार भट्टारक : रससुधानिधि (सा.शा.) (17) श्रीधर पेरुभट्ट : औणादिक-पदार्णव, वसुमंगलम् (नाटक) श्रीनिवासाचार्य : शाकुन्तलव्याख्या। (अष्टभाषाचक्रवर्ती) (14) श्रीपति (13) : श्रीकरभाष्यम् (ब्रह्मसूत्रभाष्य)। संकर्षण कवि : सत्यनाथाभ्युदयम्। संगमेश्वरशास्त्री (16): संगमेश्वरीयम् (न्यायग्रंथ) सर्वज्ञ सिंगभूपाल : वीरनारायणचरितम् (14-15) (आत्मचरित्र) रत्नपांचालिका (नाटिका) रसार्णवसुधाकर। संगीतसुधाकर। सालुप गोप तिप्प : कामधेनु (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति की टीका) सायण माधव : सर्वदर्शतसंग्रह सायणाचार्य : वेदभाष्य, आयुर्वेद ग्रंथ [आज का उडीसा प्रांत प्राचीन काल में कलिंग और उत्कल नामक दो विभागों में विभाजित था। उत्तरभाग उत्कल और दक्षिण भाग कलिंग नाम से प्रसिद्ध था। प्रस्तुत परिशिष्ट संपूर्ण उडीसा प्रदेश के कतिपय प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथकारों तथा उनके प्रसिद्ध ग्रंथों की सूची है। यह सूची इंटरनॅशनल संस्कृत कॉन्फरन्त- 1972 में प्रकाशित डॉ. के. एस्. त्रिपाठी तथा प्रा. बी. रथ के निबंधों पर आधारित है।] ग्रंथकार अज्ञात : गोपगोविन्दम् अज्ञात शिवनारायण भंजसमहोदयम् (नाटक) अनन्तदास : साहित्यदर्पणकी टीका। अनादि (18) : मणिमाला नाटक कपिलेश्वर महाराज : परशुरामविजयम् (रुपक) (14) कमललोचन (18) : व्रजयुवविलासम् (गीतिकाव्य) कमललोचन : संगीतचिन्तामणि खड्गराय (18) कविडिण्डिम जीवदेव भक्तिभागवतम् कविराज भगवान ब्रह्म : मृगयाचम्पू कृष्णदास (16) गीतप्रकाश कृष्णमिश्र प्रबोधचन्द्रोदयम् । (लाक्षणिक नाटक) कृष्णानंद (14) सहयानन्दकाव्यम् गंगादास (16) छंदोमंजरी गंगाधर मिश्र (17) : कोसलानंदम् (महाकाव्य) गजपति नारायण देव : (या पुरुषोत्तम मिश्र) : संगीतनारायण (18) प्रबा संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/455 For Private and Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : प्रतापरुद्रदेव ब्रजसुंदर पटनाईक भट्टनारायण भुवनेश्वर बडपंडा (तीनों शुद्धप्रबन्ध) सरस्वतीविलास (धर्मशास्त्र) सुलोचना-माधवम् (काव्य) वेणीसंहारम् आनन्ददामोदरचम्पू, बमदराजवंशचम्पू, महानदीचम्पू, लक्ष्मणापरिणयम् (नाटक) गंगाधर नारायण भंजदेव : रसमुक्तावली (सा.शा.) गोपीनाथ कविभूषण : कविचिन्तामणि (सा.शा.) (18) गोवर्धनाचार्य : आर्यासप्तशती गोविन्द सामन्तराय समद्धमाधवनाटक. (17-18) सुरिसर्वस्वम्) चक्रधर पटनाईक (18): गुंडिकाचम्पू चन्द्रदत्त भक्तमाला चन्द्रशेखर (13) : पुष्पमाला (नाटिका) चन्द्रशेखर : विजयनरसिंहकाव्यम् चन्द्रशेखर मिश्र (20) : ब्रिटिशवंशचरितम्। चन्द्रशेखर रायगुरु (18): मधुरानिरुद्धनाटकम् चिन्तामणि मिश्र (16) : शंगाररस विवेक जगन्नाथ कविचन्द्र : स्यमंतकाहरण व्यायोग। जगन्नाथ महापात्र सामन्त : रसपरिच्छद (सा.शा.) जगन्नाथ मिश्र (18) : रसकल्पद्रुम यदुनाथ रायसिंगी : अभिनव दर्पणप्रकाश (सा.शा.) जयदेव : गीतगोविन्दम् जयदेव पीयूषलहरी (रुपक), वैष्णवामृतम् (रुपक) जोगी पटनाईक अघटघटम् (नाटक) व्रजराजनन्दनम् (नाटक) दिवाकर मिश्र (15) : भारतामृत महाकाव्यम्। दीनबन्धु मिश्र (17) : कृष्णस्तव नरहरि ब्रह्मप्रकाशिका (मेघदूत टीका जगन्नाथ रथयात्रापरक) नरहरि मिश्र : रसावली (सा.शा.) नारायण : संगीतसरणी नारायण दास : सर्वांगसुंदरी (13-14) (गीतगोविंदटीका) नारायण नन्द (15) : रामचन्द्रानन्दम् (रूपक) नारायण भंज (17-18) : रुक्मिणीपरिणयम् (गीतिकाव्य) नारायण मिश्र कृष्णविलासम् (गीतिकाव्य), बलभद्रविजयम् शंकरविहारम्, उषाविलासम् (तीनों शुद्धप्रबन्ध) नित्यानंद (18) शिवलीलामृतम् (गीति महाकाव्य) नीलकंठकवि (18) : भंजमहोदयम् (नाटक) पुरुषोत्तम देव : अभिनवगीतगोविंदम् (या दिवाकर मिश्र) पुरुषोत्तमदेव महाराज : अभिनव-वेणीसंहारम् (रुपक) पुरुषोत्तम भट्ट छंदोगोविंद, छन्दोमखान्त पुरुषोत्तममिश्र : रामचंद्रोदयम्, बालरामायणम् (17) रामाभ्युदयम् भूजीव देवाचार्य भक्तिवैभवम् (लाक्षणिक (15-16) नाटक) उत्सावती (रुपक) मधुसूदन तर्कवाचस्पति : ध्वन्यालोक और साहित्यदर्पण की की टीकाएँ। माधवीदासी पुरुषोत्तमदेवनाटकम् मार्कण्डेय मिश्र विलासवती सट्टकम् प्राकतसर्वेश्वर, दशग्रीववधम (महाकाव्य) मुरारि (8) : अनर्घराघवम् (नाटक) यतीन्द्र रघूत्तमतीर्थ (17) : मुकुन्दविलासम् (गीति-महाकाव्य) रघुनाथ रथ (17-18) : नाट्यमनोरमा। रामचन्द्र न्यायवागीश : काव्यचन्द्रिका (सा.शा.) रामनाथ नन्द जयपुर राजवंशावली (20) (यह जयपुर उडीसा में है) रामानन्द राय (15) : जगन्नाथवल्लभ नाटकम्, (रामानंद संगीत नाटक) गोविन्दवल्लभ, नाटकम्, टीकापंचकम् रायदुर्ग नृपति गीतभागवतम् वनमाली मिश्र अद्भुतराघवम् (नाटक) वासुदेव रथ (15) गंगवंशानुचरितम् विद्याधर एकावली (सा.शा.) विश्वनाथ कविराज (13): साहित्य दर्पण, चंद्रकला नाटिका, प्रभावती नाटिका, राघव विलासकाव्यम्, नरसिंहविजयम् कुवलयाश्वचरितम् (प्राकृत) विश्वनाथदेव वर्म रुक्मिणीपरिणय महाकाव्यम् महाराज कालियनिग्रहचम्पू। विश्वनाथमहाराज (20): कांचीविजयम् (महाकाव्य) वीरराघवाचारियर नीलाद्रिचन्द्रोदयम् (नाटक)। शंकर मिश्र (16) : रसमंजरी (गीत गोविंद-टीका) शतंजीव मिश्र (17) मुदितमाधवम् (गीतिनाट्य) 456 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ट For Private and Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतानन्द आचार्य (11) : भास्वती (ज्योतिष) शितिकण्ठ (13-14) : गीतसीतावल्लभम्। सुंदरमिश्र (16) : अभिराममणि (नाटक)। सोमनाथ चंद्रशेखर सिद्धान्तदर्पण (ज्योतिष)। (19) हरिचन्दन : संगीतमुक्तावली। हलधर मिश्र (17) : संगीतकल्पतरु । परिशिष्ट (4) उत्तरप्रदेश के ग्रंथकार और ग्रंथ अंग्रेजी शासनकाल में संयुक्तप्रांत नाम से प्रसिद्ध प्रदेश को ही स्वराज्य प्राप्ति के बाद उत्तरप्रदेश नाम दिया गया। यह प्रदेश भारतीय संस्कृतिके विकास का केन्द्रसा रह । काशी, सारनाथ, प्रयाग, अयोध्या, कौशाम्बी, मथुरा, हरिद्वार, कान्यकुब्ज, ब्रह्मावर्त नैमिषारण्य, बदरी नारायण, इत्यादि संस्कृत विद्या के प्रसिद्ध केन्द्र इसी प्रदेश में है। भारत के विविध राज्यों में उत्तरप्रदेश राज्य का विस्तार सबसे अधिक है। ग्रंथकार ग्रंथ अखिलानंदशर्मा सनातन धर्मविजयम् पाठक (20) (महाकाव्य), शतपथब्राह्मणालोचनम्, अथर्ववेदालोचनम्, वेदत्रयीसमालोचनम्, वेदभाष्यालोचनम्, संस्कारविधिविमर्श, पिंगल छन्दःसूत्रभाष्य, काव्यालंकारसूत्रभाष्य, सत्यार्थप्रकाशालोचनम्, सनाढ्यगौरवादर्श, सनाढ्यविजयकाव्य, सनाढ्यविजयपताका, सनाढ्यविजयचम्पू, ब्राह्मणमहत्त्वादर्श। अखिलानंदशर्मा (20) : दयानन्द दिग्विजयमहाकाव्यम्। अश्वघोष (1) : बुद्धचरितम्, सौन्दरनन्द, शारीपुत्रप्रकरणम् ईशदत्त पाण्डेय (20) : प्रतापविजयम् । उमापति त्रिपाठी (18) : सरयूस्तोत्रम्। उमापति द्विवेदी (20) : पारिजातहरणम् (महाकाव्य) डॉ. उमाशंकर शर्मा : क्षत्रपतिविजयम् (महाकाव्य) त्रिपाठी कामराज दीक्षित : शृंगारकलिकात्रिशती, (16-17) काव्येन्दुप्रकाश काशीनाथ द्विवेदी (20) : रुक्मिणीहरणम् । कृष्णचंद्र गोस्वामी कर्णानन्द, आशास्तव, बृहद्राधाभक्तिमंजूषा राधानुनयविनोद। कृष्णमिश्र (11) प्रबोधचंद्रोदयम् (नाटक) क्षेमकरणदास (19) : अथर्ववेदभाष्यम्, गोपथ ब्राह्मण भाष्यम्। क्षेमीश्वर (9) नैषधानन्दम्, चण्डकौशिकम् (नाटक) डॉ. गंगानाथ झा : खद्योत (न्यायभाष्यटीका) गंगाप्रसाद उपाध्याय : आर्योदयम् (महाकाव्य) गोकुलनाथ (16) : अमृतोदयम् । मुदितमदालसा (दोनों नाटक) चन्द्रभूषण शर्मा (9) : वेदान्तमार्तण्डमरीधि त्रिविक्रम त्रिवेदी (17) : श्रीरामकीर्तिकुमुदमाला दशरथ द्विवेदी (19) : कातंत्रचंद्रिका, श्लोकबद्ध लघु सिद्धान्त कौमुदी, विधानमार्तड (धर्मशास्त्र) वियोगिनीवल्लभ, समस्यापूर्ति, भगवद्भक्ति रहस्यम्, संस्कारविधि पर्यालोचनम्) दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी (19) : श्रीरामकीर्तिकुमुदमाला की टीका, जातकशेखर (ज्योतिष) द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री संस्कृतसाहित्योतिहास (20) स्वराज्यविजयम् (महाकाव्य), भारतभारती नक्रच्छेदराम शास्त्री : सनातनधर्मोद्धार, नारायण(19) महाकाव्यम् निंबार्काचार्य (11) : सदाचारप्रकाश, वेदान्तपारिजातसौरभ वेदान्तकामधेनु, रहस्यषोडशी प्रपन्नकल्पवल्ली, गीताभाष्य, प्रपत्तिचिन्तामणि पत्रिकाएँ सद्धर्म, शारदा, संस्कृतम्, संगमनी, पुराणम्, सारस्वतीसुषमा, सूर्योदय, ज्योतिष्मती, संस्कृतरत्नाकर, सुप्रभातम्, अमरभारती, काशीविद्या-सुधानिधि, गाण्डीवम् पतंजलि व्याकरणमहाभाष्यम् योगसूत्राणि प्रबोधानंद संगीतमाधवम्, निकुंजविलासस्तव। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /457 For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रियादास भगवत्प्रकाश, भक्तिमीमांसा, राधाकृष्णविवाह, परकीयाभावखण्डनम्, राधाभक्तिमंजुषा सीतास्वयंवरम् (महाकाव्य) गोविन्दभाष्य बाणभट्ट (7) कादम्बरी, हर्षचरित, चण्डीशतकम् बटुकशर्मा बलदेव विद्याभूषण ब्रह्मदेव मिश्र (19) : ब्रह्मानन्द शुक्ल (20) : मधुरानाथ (19-20) : मथुराप्रसाद दीक्षित (19) मधुकरशास्त्री (20) मैत्रेयनाथ (3) (उपन्यास), पारेगंगम् सथानिकापंचकम्। रामचंद्र (16) रसिकरंजनम्,मावलीशतकम्, शृंगार-वैराग्यशतकम्। रामदत्तपंत लेखनीकृपाणम् दीपशतकम् (19) अपरपंचरात्रम्। रामनारायणदत्त शास्त्री : हरिवल्लभस्तोत्रम्। लक्ष्मीनारायण द्विवेदी : ऋतुविलसितम्, स्वर्णेष्टकीयम् (20) (नाटक) त्रिभाण्डपट्टकभाण, आगमविश्वदर्शनम्, तर्करत्नावली, वागीश्वरीस्तवराज। लोकरत्नपंत गुमानीशतकम्, (गुमानी कवि) उपदेशशतकम्। वत्सराज (12-13) कर्पूरचरितभाण, हास्यचूडामणिप्रहसनम्, त्रिपुरदाह-डिम, किरातार्जुनीय-व्यायोग, समुद्रमथन (समवकार), रुक्मिणीपरिणय (ईहामृग)। वसिष्ठ योगवासिष्ठ, वसिष्ठस्मृति, ऋग्वेदसप्तममंडल। वसुबन्धु (5) : परमार्थसप्तति। वाल्मीकि रामायणम्। विश्वेश्वर आचार्य मनोविज्ञानमीमांसा, नीति शास्त्रम्, खगोलप्रकाश। विश्वेश्वर पाण्डेय : अलंकारकौस्तुभ, आर्यासप्तशती, लक्ष्मीविलासम्, रोमावलीवर्णनम्, होलिकाशतकम् वक्षोजशतकम्, नवमालिका (नाटिका), रुक्मिणीपरिणय (नाटक), मंदारमंजरी (कथा), कवीन्द्रकर्णभरणम् (चित्रकाव्य), सुद्धान्तसुधानिधि, रसचन्द्रिका । विश्वेश्वरभट्ट (14) : मदनपारिजात, तिथिनिर्णयसार, स्मृतिकौमुदी, सुबोधिनी (चारों धर्मशास्त्रपरक) विश्वेश्वरभट्ट मीमांसा कुसुमांजलि, (गागाभट्ट काशीकर) राकागम (सुधा) (17) (चंद्रोलोक की टीका), भाट्टचिन्तामणि, दिनकरोद्योत (धर्मशास्त्र) निरूढशुबंधप्रयोग, मूर्तिपूजामण्डनम्, विधवोद्वाहनिषेधः, पतिव्रतादर्श, असवर्णविवाहनिषेध। नेहरुचरितम्, गांधिचरितम्। गोविन्दवैभवम् वीरप्रताप, पृथ्वीराजविजयम् भारतविजयम्, भक्तसुदर्शन (सभी नाटक) पाणिनिशिक्षायाः शिक्षान्तरैः सहसमीक्षा (शोधप्रबन्ध) अभिसमयालंकारकारिका मध्यन्त विभाग, बोधिसत्त्व भूमिका, (तीनों बौद्धमतविषयक) रामाभ्युदयम् (नाटक) पद्मावतीपरिणय-चम्पू, गोपीगीत श्रीवचनभूषणम्, प्रमेयशेखरम्, प्रपत्रपरिजाणम्, व्यामोहविद्रायणम्, अर्थपंधकम्, अर्चिरादिमार्ग, दुर्जनकरिपंचानन। लघुभक्तिहंस, राधाभक्तिहंस, राधाभक्तिलहरी। नाट्य पंचगव्य (एकांक नाटक समूह) आर्यान्योक्तिशतकम्, भारतदण्डक, वाग्वधूटी, नवाष्टमालिका, वामनावतरणम्। गीतजवाहर, किशोरकाव्यम्, अन्योक्तिशतकम्, बालचरितम्, अंगुष्ठदानम् (नाटक), विद्योत्तमा, अन्तर्दाह यशोवर्मा (7) रघुपतिशास्त्री रंगदेशिक स्वामी (रामानुजमतानुयायी) (19) रंगीलाल गोस्वामी राजेन्द्र मिश्र (20) : रामकिशोर मिश्र (20) 458 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खण्डनखण्डखाद्यम्। श्रीहर्षदेव (7) रत्नावली, प्रियदर्शिका, नागानन्दम् (तीनों रुपक) सनातन गोस्वामी बृहद्वैष्णवतोषिणी (भागवतव्याख्या) सामराज दीक्षित त्रिपुरसुन्दरीमानसस्तोत्रम्, (16) पूजारत्नम्, अक्षरगुम्फ, आर्यात्रिशती, शृंगारामृतलहरी। शुभट दूताङ्गदम् (रूपक) सूर्यनारायण शुक्ल (19): मयूख (न्यायसिद्धान्त मुक्तावली व्याख्या), वाक्यपदीयव्याख्या, पाणिनिवादरत्नम्। हरिदास (19) रामस्तवराजभाष्य (सनत्कुमार संहिता व्याख्यात्मक) हरिकृपालु द्विवेदी : रामेश्वरकीर्तिकौमुदी (19-20) हितहरिवंश गोस्वामी श्रीमद्राधासुधानिधि, यमुनाष्टकम् परिशिष्ट (5) कर्नाटक के ग्रंथकार और ग्रंथ कायस्थधर्मदीप, सुज्ञानदुर्योदय (धर्मशास्त्र), शिवार्कोदय, शिवराजाभिषेकप्रयोगविधि, समयनय, आपस्तंबपद्धति, आशौचदीपिका, तुलादानप्रयोग। विष्णुदत्त शुक्ल सौलोचनीयम्, गंगा (19) (दोनों काव्य)। व्रजनाथ तैलंग (18) : मनोदूतम्। व्रजराज दीक्षित : रसिकरंजनम्, (17) वल्लभ-नाटिका, शृंगारशतकम्, षड्तुवर्णनम्। व्रजलाल गोस्वामी, मनःप्रबोध, प्रेमचन्द्रोदयम् (नाटक) शंकरदत्त अलंकारशंकर, राधिकामुखवर्णनम् (महाकाव्य) हरिवंशहंसम् (नाटक)। शंखधर (12) लटकमेलनम् शालग्रामशास्त्री अलंकार कल्पद्रुम, (20) भारतीयकृषक, सुरभारतीसन्देश, आयुर्वेद महत्त्वम्। शिवकुमार मित्र लक्ष्मीश्वरप्रतापय् (19-20) (महाकाव्य), यतीन्द्रजीवनचरितम्। शिवबालक शुक्ल : जयदेव वैष्णव कीर्तिलता (महाकाव्य) शिवराम पाण्डेय हनुमत्काव्यम्, हनुमद्विजयम्, (19) रावणपुरवधम्, एडवर्ड राज्याभिषेक-दरबारम्, जार्जाभिषेकदरबारम्, दिल्लीप्रभातम्। श्यामवर्ण द्विवेदी विशालभारतम (महाकाव्य) (20) शिवाभ्युदयम् (नाटक) व्युत्पत्तिविनोदय। श्रीनिवासाचार्य पारिजातसौरभभाष्यम्, (11-20) ख्यातिनिर्णय, कठोपनिषद्भाष्यम्, वेदान्तकौस्तुभ (निम्बार्कमत) श्रीरामकुबेर मालवीय : मालवीयमहाकाव्यम्। श्रीरामप्रसाद (19) : पाणिनिसोपानम् (व्याकरण) श्रीहर्ष (12) : नैषधचरितम्, ग्रंथ विद्यमान कर्नाटक राज्य के प्रदेश पर प्राचीन कालमें सातवाहन, गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य, यादव, होयसल, नायक इत्यादि विविध राजवंशों के अधिपतियोंने राज किया था। उन अधिपतियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आश्रित विद्वानों द्वारा तथा, माध्व, रामानुज, वीरशैव, शांकर, जैन-संप्रदायों के विद्वान अनुयायिओं द्वारा संस्कृत वाङ्मय में उत्तमोत्तम ग्रंथों का निर्माण हुआ। ग्रंथकार अकलंकदेव : न्यायविनिश्चय, सिद्धिनिनिश्चय, तत्त्वार्थराजवार्तिक अष्टशती अखण्डानन्द ऋजुप्रकाशिका (भामतीभाष्य की व्याख्या) अनन्ताचार्य वादावली, विशुद्धामर, न्यायभास्कर (ब्रह्मानन्दी टीका का खंडन) अभिनव कालिदास : शांकरविजयम् (15) अमोघवर्ष शब्दानुशासन (नृपतुंग)(9) (अमोघावृत्तिसहित) (अपरनाम-शाकटायन व्याकरण, प्रश्नोत्तरमालिका) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड, 459 For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डिडिम असग(10) : वर्धमानपुराणम् आनन्दगिरि शारीरकभाष्यव्याख्या, भगवद्गीताशांकरभाष्य की व्याख्या आरोग्य हरि टिप्पणी (वैदिक टीका) इम्माडि देवराय : ब्रह्मसूत्रवृत्ति इरूगप्प(2)(15) नानार्थरत्नमाला कोश उमास्वाती तत्त्वार्थसूत्र एकाम्बर अमर (कोश) विवरणम् कविराज(12) राघवपाण्डवीयम् (सन्धानकाव्य) कस्तूरी रंगाचार भाट्टदीपिका-भाष्य शास्त्रालोकभाष्य (दोनों-मीमांसाविषयक) भावप्रकाशन, कार्याधिकरणत्वम् (वैशिष्टाद्वैती ग्रंथ) कुनिगल रामशास्त्री : कोटि (न्यायविषयक) कृष्ण : तर्कसंग्रहचन्द्रिका कृष्णदेवराय(15) मदालसाचरितम् जाम्बवतीकल्याणम् (नाटक) कृष्णावधूत : पदार्थसागर कौण्डिन्य : पाशुपतसूत्रभाष्य खंडगिरि भट्टोजिकुट्टनम् (व्याकरण) गंगादेवी (महारानी (15): मधुराविजयम् गजेन्द्रगडकर त्रिपथगा (परिभाषेन्दु शेखर की टीका), शब्दरत्न की टीका जगन्नाथ : सूक्तप्रतीक जटासिंह नंदी(7) : वरांगचरितम् जयकीर्ति (10) छन्दोनुशासनम्, छंदोमंजूषा जयतीर्थ (14) न्यायसुधा (अणुव्याख्यान की टीका) मध्व गीताभाष्य की टीका, माध्वऋग्भाष्य की व्याख्या जिनसेन(9) आदिपुराणम्, पार्वाभ्युदय (मेघदूत-समस्यापूर्ति) झळकीकर भीमाचार्य : न्यायकोश (19-20) सालुवाभ्युदयम् रामाभ्युदयम् अच्युतराया भ्युदयम् तिरूमलाम्बा वरदाम्बिका-परिणयचम्पू त्रिविक्रम उषाहरणम्, ब्रह्मसूत्र माधवभाष्य-टीका त्रिविक्रम (10) नलचम्पू, मदालसाचम्पू दण्डी (7) अवन्तिसुन्दरीकथा, दशकुमारचरितम् काव्यादर्श (साहित्य) दयापाल रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण) दुर्गसिंह कातंत्रसूत्रवृत्ति दुर्विनीत गंग(6) बृहत्कथा का संस्कृत रूपांतर देवनन्दी पूज्यपाद शब्दावतार-न्यास, (5) जिनेन्द्रव्याकरण विषयक) देवराज निघण्टुव्याख्या देशिकाचार्य : श्रीभाष्य की टीका धनंजय (10) : नाममाला धनंजय : राघवपाण्डवीयम् (विद्याधनंजय) नंजराज(18-19) : संगीतगंगाधर (या शिवाष्टपदी) नयसेन : द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार (धवला टीका सार) नरसिंहभारती कुल्या (रामशास्त्री कृत कोटि की टीका) नरसिंह कवि नंजराजयशोभूषणम् (18-19) नरहरि क्रमदीपिका, स्मृतिकौस्तुभ नारायण पंडित मध्वविजयम् (महाकाव्य), संग्रहरामायणम्, शुभोदयम् (लाक्षणिक काव्य) पारिजातहरणम् (यमककाव्य) गुणभद्र उत्तरपुराणम् (आदिपुराण का उत्तरार्ध) गुणाढ्य (1) बृहत्कथा (पैशाची भाषा में) गोपालाचार्य : शतकोटिदूषणपरिहार चलारि आह्निक पद्धति चलारिनरसिंहाचार्य : स्मृत्यर्थसागर (17) चलारि रामचंद्र भिक्षु : टिप्पणी (वैदिक) चलारि शेष सुशब्दप्रदीप शाब्दिककण्ठाभरणम् (दोनों व्याकरणपरक) चिंचोली वेंकण्णाचार : अष्टाध्यायी दर्पण चौडपाचार्य प्रयोगरत्नमाला जगदेकमल्ल (द्वितीय) : संगीतचूडामणि (चालुक्य नृपति) (12) 460 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंचीभट्ट मध्वाचार्य नारायण : धर्मप्रवृत्ति नीलकंठ : क्रियासार (वीरशैवमत) निर्वाणमंत्री : क्रियासारवार्तिक (वीरशैवमत) पडिमन्नूर : संग्रहार्थसंग्रह नारायणाचार्य (तर्कसंग्रहटीका) पद्मप्रभ कुंदकुंदाचार्य कृत-प्राकृत नियमसार की संस्कृत टीका परकालयति : मिताक्षरा (श्रीभाष्य की व्याख्या), विजयीन्द्र-पराजयम् पाण्डुरंगी केशव भट्टारक : विवृत्ति (वैदिक टीका) पार्श्वदेव (12) संगीतसमयसार पाल्कुरिकी सोमनाथ : सोमनाथभाष्यम् (बसवराजीयम्) रुद्रभाष्य, नमस्कारगद्य, अक्षरांकगद्य, बसवोदाहरणम्, चतुर्वेदतात्पर्यसंग्रह पुट्टिभट्ट संहितासूत्र पूज्यपाद सर्वार्थ सिद्धि (उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या), आप्तमीमांसा, रत्नकरण्डक पुरुषोत्तम : श्रीभाष्य-टीका प्रभाचंद्र : प्रमेयकमलमार्तंड प्रौढ देवराज (द्वितीय) : रतिरत्नप्रदीपिका (15) : सर्वसमाजशिक्षा अणुव्याख्यान, कर्मनिर्णय, तत्त्वोदय, सदाचारस्मृति, (टीकाकार विश्वनाथ व्यास), भागवततात्पर्यम्, द्वादशस्तोत्र, कृष्णामृत महार्णव, गीताभाष्य, गीतातात्पर्य, महाभारततात्पर्यनिर्णय, प्रमाण। लक्षण, तत्त्वसंख्यान, मायावादखंडन, तत्त्वोद्योत, विष्णुतत्त्वनिर्णय (कुलग्रंथ 37)। : तत्त्वानुसंधानम् : गणितसारसंग्रह : परोक्षमुखसूत्र : दत्तकसूत्रवृत्ति : सूतसंहिता व्याख्या ऋग्वेदभाष्य, पराशरस्मृतिव्याख्या, कालमाधवीयम्, जैमिनीयन्यायमालाविस्तार, सर्वदर्शनसंग्रह। : न्यायसुधा की टीका : कामाक्षीव्याख्या (न्याय) : गूढार्थदीपिका महादेव सरस्वती महावीराचार्य(9) माणिक्यनन्दी माधव गंग(2)(4) माधवमंत्री माधवाचार्य (13-14) यदुपति श्रीनिवास यल्लथुरू कृष्णाचार्य रंगनाथ ब्रह्मतंत्र परकालस्वामी रंगाचार्य रेड्डी बसवप्पा नायक (17-18) बालचंद्र बिल्हण रघूत्तम राघवेन्द्र शिवतत्त्वरत्नाकर, सुभाषितसुरद्रुम सारचतुष्टय टीका विक्रमांकदेवचरितम् चौरपंचाशिका (बिल्हणकाव्य)। पाशुपतसूत्र वैयासिकन्यायमाला किरातार्जुनीयम् गणकारिका-टीका (वीरशैवमत) व्याख्यानदीपिका, (महाविद्याविडम्बन की व्याख्या) उदाहरणमाला (साहित्य.), राजोल्लास, त्रिपुरविजय, शृंगारमंजरी, महागणपतिस्तव गौरीनाथशतकम्। मीमांसान्यायप्रकरणम्व्याख्या बृहदारण्यकभाष्य की टीका, तत्त्वप्रकाशिका टीका मंत्रार्थमंजरी, जयतीर्थ के ग्रंथों की टीकाएं भाट्टसंग्रह, ऋगर्थमंजरी मीमांसासूत्रदीधिति : शब्दार्थरत्नप्रभा : भद्रबाहुचरितम् : न्यायरत्नप्रकाशिका : तरंगिणी भट्टारक लकुलीश भारतीतीर्थ भारवि भासर्वज्ञ राघवेन्द्रतीर्थ राघवेन्द्र सरस्वती राघवेन्द्राचार्य राजनन्दी रामचन्द्र रामाचार्य भुवनसुंदर सूरि रामानुज भोगनाथ(14) श्रीभाष्य (ब्रह्मसूत्रभाष्य, वेदार्थसंग्रह, (उपनिषद अंशों का भाष्य) वेदान्तसार, वेदान्तदीप। : यशोधरचरित-टीका लक्ष्मण संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /461 For Private and Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्यानंद : विद्यारण्य (माधवाचार्य) अष्टसाहस्री (आप्तमीमांसा की व्याख्या), आप्तपरीक्षा। पंचदशी, जीवन्मुक्तिविवेक, अनुभूतिप्रकाश, विवरण-प्रमेयसंग्रह, पराशरमाधवीयम्, राजकालनिर्णय (विजयनगर इतिहास विषयक) चंद्रप्रभपुराणम् धवला और जयधवला (षट्खंडागम की व्याख्या) महाधवला नौका (रामशास्त्री कृत कोटि की टीका) संन्यासपद्धति वीरनन्दी (10) वीरसेन और जिनसेन (10) विरूपाक्षशास्त्री : नाफा : विष्णुतीर्थ (मध्वाचार्य का बंधु) वेंकटसूरि वैद्यनाथ शास्त्री व्यासतीर्थ (व्यासराज) लक्ष्मण पंडित तंत्रविलास लोल्ल लक्ष्मीधर : सौन्दर्यलहरीव्याख्या, दैवज्ञविलास। लक्ष्मणपुरम् गीताप्रबन्धमीमांसा, श्रीनिवासाचार दर्शनोदयम् मानमेयोदय श्लोकवार्तिक। लक्ष्मणभट्ट : कर्नाटकप्रिया (अमरकोश टीका) लक्ष्मीपुरै : मीमांसाभाष्यभूषणम् श्रीनिवासाचार लक्ष्मणाचार्य : श्रीभाष्य-टीका वरदाचार शास्त्रालोक (पूर्वमीमांसा) वादिराज(10) प्रमाणनिर्णय, (षटतर्कषण्मुख, एकीभावस्तोत्रम् सयद्वादविद्यापति) वादिराज यशोधरचरितम्, जैनाचार्य(11) पार्श्वनाथचरितम्, (अकलंककृत न्यायविनिश्चय की टीका। वादिराजतीर्थ तीर्थप्रबन्ध, लक्षालंकार (15-16) (महाभारत की टीका), युक्तिमल्लिका, रुक्मिणीश विजयम् (महाकाव्य), सरसभारतीविलासम्। वादीन्द्र महाविद्यविडम्बनम् वादीभसिंह (10) गद्यचिन्तामणि, (श्रीविजय, औडेयदेव) क्षत्रचूडामणि विजयतीर्थ (14) भागवतव्याख्या विजयीन्द्रतीर्थ(16) : सुभद्राधनंजयम् (नाटक) विजयध्वजतीर्थ(15) : पदार्थरत्नावली (बृहद्भागवतटीका) विजयीन्द्र(16) उपसंहारविजयम् (मीमांसा) (कुल 108 ग्रंथ) विज्ञानेश्वर मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका) विठ्ठलभट्ट न्यायसुधा टीका विद्याचक्रवर्ती(14) : संजीविनी (अलंकार सर्वस्व (सहजसर्वज्ञ) की टीका), संप्रदायप्रकाशिनी (काव्यप्रकाश टीका), विरूपाक्षपंचाशिका, रुक्मिणीकल्याणम् (नाटक) विद्यातीर्थ (14-15) : विष्णुसहस्तरनाम स्तोत्र टीका विद्याधीश वाक्यार्थचंद्रिका (पांडुरंगी केशवभट्ट द्वारा संपूर्ण)। शंकरानन्द : अधिकरणामृतम् : तर्कपाद की टीका (मीमांसा) तर्कताण्डव-चंद्रिका (जयतीर्थकृत तत्त्वप्रकाशिका की टीका), न्यायामृत (अद्वैतसिद्धि का खंडन)। : गीतातात्पर्यबोधिनी, उपनिषद्रत्नम्। : शाकटायन व्याकरणसूत्र, अमोघवृत्ति : भागवतव्याख्या : श्रीभाष्यटीका : आनन्दतारतम्यखण्डनम् : ऋगर्थविचार : आह्निक कौस्तुभ श्रीकरभाष्यम् (ब्रह्मसूत्रभाष्य) शाकटायन (जैनाचार्य) शुकतीर्थ (14) श्रीनिवास श्रीनिवास श्रीनिवास श्रीनिवास श्रीपतिपंडित (15) श्रीपुरुष गंग महाराज : गजशास्त्रम् श्रीवर्धदेव चूडामणि सकलचक्रवर्ती : गद्यकर्णामृतम् (13-14) सत्यनाथ प्रकाश : टीका (वैदिक) सत्यप्रियतीर्थ : महाभाष्यविवरणटीका (व्याकरण) समन्तभद्र गन्धहस्तिमहाभाष्य, आप्तमीमांसा। सर्वनन्दी लोकविभाग सागर रामाचार्य (17) : सन्नीति-रामायणम् सत्यधर्मतीर्थ (18-19) : रामायणव्याख्या 462 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सायणाचार्य(14) वेदार्थप्रकाश (सायणभाष्य = ऋक्संहिता, सामसंहिता, तैत्तिरीयसंहिता, काण्वसंहिता, अथर्वसंहिता तथा ब्राह्मणों पर) बोधायनसूत्रभाष्य, यज्ञतंत्रसुधानिधि, सुभाषितसुधानिधि, अलंकारसुधानिधि, पुरूषार्थसुधानिधि, माधवीयाधातुवृत्ति, कर्मविपाक। सुधीन्द्र तीर्थ अलंकारमंजरी, (16-17) अलंकारनिकष सुधीन्द्र साहित्यसाम्राज्यम् सब्रह्मण्य शर्मा (वाय.) : मुलाविद्यानिरास सुमतीन्द्र : मधुधारा (अलंकारमंजरी की टीका) सुमतीन्द्र तीर्थ (17-18): जयघोषणाप्रबन्ध सुरेश्वराचार्य बृहदारण्यकभाष्यम्, नैष्कर्म्यसिद्धि। सोमदेवसूरि(10) : यशस्तिलकचंपू, नीतिवाक्यामृतम्, षण्णवतिप्रकरणम्, महेन्द्रमालतीसंजल्प सोमनाथ कवि(16) : व्यासतीर्थचरितचम्पू सोमेश्वर(तृतीय) अमिलषितार्थचिन्तामणि (चालुक्य नृपति) (मासोल्लास या (12) जगदाचार्यपुस्तकम्)। हरदत्ताचार्य गणकारिका (वीरशैवमत) हरिषेण(10) : बृहत्कथाकोश हलायुध : कविरहस्यम् (धातुकाव्यम्), मृतसंजीविनी (छंदःसूत्र टीका) हाल(4-5) गाथासप्तशती (महाराष्ट्री प्राकृत) काश्मीर की संस्कृत वाङ्मय निर्मिति में अवरोध निर्माण हुआ। तथापि ई. 9 से 12 वीं शती तक की अवधि में काश्मीर ने जो योगदान दिया वह चिरस्थायी स्वरूप का है। (प्रस्तुत परिशिष्ट “इन्टरनॅशनल संस्कृत कॉन्फरस-1972" के प्रथम खंड में मुद्रित डॉ. नवजीवन रस्तोगी और श्री अनंतराम शास्त्री के लेखों पर मुख्यतः आधारित है।) ग्रंथ ग्रंथकार अज्ञात : विष्णुधर्मोत्तरपुराण अज्ञात नीलमतपुराण अद्योर शिवाचार्य (12) : अज्ञात अभिनवगुप्ताचार्य तंत्रालोक, लोचन (10-11) (धन्यालोकटीका), अभिनवभारती (भरतनाट्यशास्त्र की टीका), विमर्शिनी और बृहविमर्शिनी (उत्पलकृत कारिका की टीका), गीतार्थसंग्रह । कुल ग्रंथ संख्या-42 अर्चट (बौद्ध) हेतुबिन्दु टीका अल्लट काव्यप्रकाश (दशम उल्लास का उत्तरार्ध) आनंदवर्धनाचार्य ध्वन्यालोक, अर्जुनचरितम्, (9) विषमबाणलीला, देवीशतकम्, भगवद्गीता-टीका, विवृत्ति (प्रमाण विनिश्चयटीका)। आमर्दक अज्ञात ईश्वरशिव(9) रासमहोदधि, शंकरराशि। उत्पल : ईश्वरप्रभिज्ञाकारिका, सिद्धित्रयी, शिवदृष्टि की टीका। उत्पल देव (12) शिवस्तोत्रावली उत्पल वैष्णव (10) प्रदीपिका (स्पंदकारिका की टीका) उत्पलवैष्णव द्वारा उल्लिखित पांचरात्र संहिताएं जया, हंसपरमेश्वर, वैहायस, श्रीकालपरा, श्रीसात्वत, पौष्कर, अहिर्बुन्ध्य परिशिष्ट (6) काश्मीर के ग्रंथकार और ग्रंथ उद्भट (8) काव्यालंकारसारसंग्रह, भामहविवरणम् (टीकाग्रंथ) वेदभाष्य : काश्मीर का अपरनाम है शारदादेश। इस प्रदेश में अति प्राचीन काल से संस्कृत विद्या की उपासना होती आयी है। काश्मीरी पंडितों द्वारा साहित्यशास्त्र, इतिहास तथा त्रिक, शैव, वैष्णव, प्रत्यभिज्ञा, तंत्र, लकुलीश, पाशुपत, इत्यादि विविध दार्शनिक विषयों के क्षेत्र में वैशिष्ट्यपूर्ण योगदान हुआ। बाद में परकीय इस्लामी संस्कृति के अतिरिक्त प्रभाव के कारण उव्वट कल्याणवर्मा (11) कल्लट(9) शिवसूत्रटीका, स्पन्दकारिका (सटीक), (प्रस्तुत कारिकाएं वसुगुप्तकृत संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/463 For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्हण (12) भी मानी जाती है)। राजतरंगिणी। (इस ग्रंथ की पूर्ति यथाक्रम जोनराज (15) श्रीधर (15, और प्राज्यभट्ट (16) द्वारा की गयी), अर्धनारीश्वरस्तोत्र। : वक्रोक्तिजीवितम् कुन्तक(11) कुमारलब्ध (बौद्धाचार्य) कैयट(11) क्षेमराज(11) क्षेमेन्द्र(11) प्रदीप (पातंजलमहाभाष्य की टीका) शिवसूत्र टीका, स्वच्छंदतंत्रटीका, स्पंदकारिका टीका। रामायणमंजरी, भारतमंजरी, बृहत्कथामंजरी, दशावतारचरितम्, बोधिसत्त्वावदानकल्पकता, कलाविलास, चतुवर्गसंग्रह, चारुचर्या, नीतिकल्पतरु, सेव्यसेवकोपदेश, सुवृत्ततिलक, कविकण्ठाभरण, औचित्यविचारचर्चा, लोकप्रकाश। धर्मकीर्ति (बौद्ध) : - धर्ममित्र (बौद्ध) : - (4-5) धोत्तर (बौद्धाचार्य) : प्रमाणविनिश्चयटीका, (8) न्यायबिन्दुटीका। नागसेन (2) : मिलिन्द पन्हो नागार्जुन(बौद्ध) : - नारायणकंठ(11) : मृगेन्द्रतंत्रटीका, स्तवचिन्तामणि। पुण्यतर(बौद्धाचार्य) : प्रज्ञाकूट(बौद्धाचार्य) : - प्रतिहारेन्दुराज(10) : काव्यालंकारसारसंग्रह की टीका प्रवरसेन सेतुबन्ध (प्राकृत महाकाव्य) बिल्हण (11-12) विक्रमांकदेवचरितम् बृहस्पति शिवतनुशास्त्र भट्ट उत्पल(9) भासर्वज्ञ न्यायसार भास्कर(10) शिवसूत्र टीका, भगवद्गीता टीका भूतिरात्र(9-10) भोजदेव (11) तत्त्वप्रकाशिका मंखक(12) श्रीकंठचरितम् मम्मट (11) : काव्यप्रकाश महाप्रकाश (11) महिमभट्ट : व्यक्तिविवेक महेश्वरानन्द (13) : महार्थमंजरी मुक्ताकण(9) योगराज रत्नवज्र (10) युक्तिप्रयोग रत्नाकर(9) हरविजयमहाकाव्य रम्यदेव (11-12) रविगुप्त(8) : प्रमाणवार्तिकटीका (वृत्ति) रामकंठ(1) नादकारिका, (10-11) मृगेन्द्रतंत्रवृत्ति, स्पन्दकारिका टीका, सर्वतोभद्र (भगवद्गीता टीका) रामकण्ठ(2) (12) : नरेश्वरपरीक्षा की टीका रुद्रट(8) : काव्यालंकार रुय्यक(12) : अलंकारसर्वस्व लक्ष्मणगुप्त श्रीशास्त्र लासक : भगवद्गीता टीका वरदराज(11) शिवसूत्र टीका वसुगुप्त (9) शिवसूत्र, वासवी (भगवद्गीता टीका) : भावोपहारस्तोत्रम् गन्धमादन (7) चक्रपाणि चक्रभानु(11-12) जगद्धर(14-15) जयन्तभट्ट (19) जयरथ जिनमित्र (10) जोनराज(15) स्तुतिकुसुमांजलि न्यायमंजरी, न्यायकालिका, आगमडंबरनाटक (अपरनाम-षण्मतनाटक)। वामकेश्वरीमत-विवरणम् न्यायबिन्दुपिण्डार्थ श्रीकण्ठकाव्य और पृथ्वीराजविजय की टीका। कल्हण की राजतरंगिणी का कुछ उत्तरअंश जोनराज ने लिखा है। प्रमाणविनिश्चय-टीका ज्ञानश्री : पुस्तक पाठोपाय दानशील (बौद्ध) (10-11) दीपिकानाथ (10) देवबल(शिवद्वैती) 464/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की सूची है। यह परिशिष्ट इंटरनॅशनल संस्कृत कॉन्फरन्स-1972 के प्रथम खंड में प्रकाशित डॉ. जयमन्त मिश्र के निबन्ध पर मुख्यतः आधारित है। कोष्टक में लिखित अंक शताब्दी के द्योतक है। __ ग्रंथ वाक्पतिराज : गौडवहो (प्राकृतमहाकाव्य) वातुलनाथ : वातुलनाथसूत्र वामन(8-9) : काव्यालंकारसूत्र वामन और जयादित्य : काशिकावृत्ति) (8-9) (अष्टाध्यायी पर) विद्यापति (शिवाद्वैती) : - विश्वावर्त (12) शंकरानन्द(11) : प्रमाणवार्तिक टीका, प्रज्ञालंकार। शम्भुनाथ शाङ्गदेव (12) : संगीतरत्नाकर (महाराष्ट्र के निवासी) शितिकण्ठ(16) शिवस्वामी(9) : कफिणाभ्युदयम् शिवानन्द(1)(9) : शिवानन्द (2)(12) श्रीकण्ठ(11) : रत्नत्रयम् श्रीनाथ श्रीवत्स (13) संघभूति (बौद्धाचार्य (5): सद्योज्योतिः (9) : नरेश्वरपरीक्षा, (शैवाचार्य) भोगकारिका, मोक्षकारिका सहदेव(9) : काव्यालंकारसूत्र की टीका साहिब कौल(17) देवीनामविलास स्तोत्र सिद्धनाथ (9-10) : कर्मस्तोत्रम् सूत्रधारमंडन : प्रासादमंडन (शिल्पशास्त्रविषयक) सोमानन्द : परात्रिंशिका विवरणम्, शिवदृष्टि हेलाराज : वाक्यपदीय की टीका * [प्रस्तुत परिशिष्ट में कुछ ग्रंथकारों के ग्रंथ अज्ञात होने के कारण ग्रन्थों का नामोल्लेख नहीं है।] ग्रंथकार अग्निधर(19) : विजयतिलककाव्य अज्ञात : कालोत्तरतंत्र काशीनाथ मैथिल (17): यदुवंशमहाकाव्यम् कुमारमांधातासिंह : गीतकेशवम् महाराज (17) कुलचंद्र गौतम श्रीमद्भागवतमंजरी, हरिवरिवस्या, वंदनयुगुलम्, कृष्णकर्णाभरणम् कृष्णप्रसाद शर्मा श्रीकृष्ण चरितामृत, धिमिरे (20) नाचिकेतसम्, वृत्रवधम् और यायतिचरितम् (चार महाकाव्य), मनोयानम्, श्रीराम-बिलापम्, पूर्णाहुतिनाटक, महामोहनाटक, श्रीकृष्ण-गद्यसंग्रह, श्रीकृष्ण पद्यसंग्रह, सत्सूक्ति-कुसुमांजलि, संपातिसन्देशम् (कुल 12 ग्रंथ) केशव दीपक (20) : जयतु संस्कृतम् (पत्रिका) सपादक गेरवन युद्धविक्रम शाह : वाजिरहस्य-समुच्चय गोविन्दशील वैद्य (12) : योगसारसमुच्चय चक्रपाणि शर्मा (18) : चक्र-पाणिचर्चा चूडानाथ भट्टराय (20): परिणाम नाटक छबिलाल सूरि (19) : विरक्तितरंगिणी, सुंदरचरित नाटक, कुशलवोदयनाटक, वृत्तालंकार जगज्जोतिर्मल्ल स्वरोदयदीपिका महाराज (17) (नरपतिजयचर्यापर टीका) नागरसर्वस्व (कामशास्त्रविषयक), श्लोकसारसंग्रह, संगीतसारसंग्रह जयप्रतापमल्ल नृत्येश्वर दशक, महाराज(17) नरसिंह अवतार स्तोत्रम् (इनके अतिरिक्त इनके तीन शिलालेख नेपाल में विद्यमान है। जयराज (म) शर्मा : धर्मशतकम्, अर्थशतकम्, पाण्डेय (20) विवेकशतकम् परिशिष्ट (10) नेपाल के ग्रंथकार और ग्रंथ राजकीय दृष्टि से नेपाल भारत से पृथक् राज्य है किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से वह भारत का एक अंग ही है। नेपाल एक हिन्दुराज्य है। संस्कृत ही हिंदुसंस्कृति की एकात्मता रखनेवाली एकमात्र प्राचीन भाषा होने के कारण भारतवर्ष के अंगभूत अन्यान्य राज्यों के समान, नेपाल राज्य में भी संस्कृत की सेवा अतिप्राचीन काल से आज तक चल रही है। प्रस्तुत परिशिष्ट में नेपाल के प्रमुख ग्रंथकार एवं उनके द्वारा रचित संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/465 For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महिरावण वधोपाख्यान नाटक, हरिश्चन्द्रोपाख्यान नाटक जयसिंह वर्मा (कविकमलभास्कर (प्रधानमंत्री) (14) उपाधि) जीवनाथ झा(20) दधिराम शर्मा (20) वेदांतसारसंग्रह, नवरत्नयुगुलस्तोत्रम, दुर्गास्तोत्रम, गंगास्तोत्रम, भुजंगप्रयातस्तोत्रम भारतीयनररत्नसमुच्चय : : जयरत्नाकर नाटकम् : महेन्द्रप्रतापोदयम् : श्रीरामचरितामृतम्, गणेशवैभवम्, अपरोक्षानुभूति रामांकनाटिका, रामायणनाटकम्, रामाभिषेकनाटकम् श्रीशांतिचरितम् अन्योक्तिशतकम् विश्वेदेवा, सत्य हरिश्चन्द्र (महाकाव्य) : साम्राज्यलहरी (दुर्गास्तोत्र) : महेन्द्रोदयमहाकाव्यम् सोमेश्वर शर्मा व्यास (20) शक्तिवल्लभ आर्यल (18)(उपाधिपद्यकोटीश्वर) शुभराज (शूद्रकवि) (15) धर्मगुप्त (बालवागीश्वर) (14) नरहरिनाथ योगी (20) पूर्णप्रसाद ब्राह्मण (20) बुद्धिसागर परजुली (20) भरतराज शर्मा (20) सुन्दरनन्द भिक्षु(19) : रूपमंजरी परिणय नाटकम्, पाण्डव विजय नाटकम् : राजेन्द्रनियंत्रणम् (गद्यकाव्य) त्रिरत्नसौदर्यगाथा) : पृथ्वीमहेन्द्र (महाकाव्यम्) : आदर्शमहेन्द्रचम्पू हरिप्रसाद शर्मा (20) हेमंतरामभट्टराय (20) अज्ञात कर्तृक ग्रंथ : धर्मसमुच्चय भिक्षुपूजित श्रीज्ञान(12) माणिक(14) शिवधर्मशास्त्र (12), पिंगलमतम्(12), चतुष्पीठसाधनसमुच्चय (11), कालोत्तरतन्त्रम् परिशिष्ट (11) केरल के ग्रंथकार और ग्रंथ माधवप्रसाद देवकोटा (20) राघवसिंह(11) राजसोमनाथ शर्मा (20) रामचन्द्रशर्मा जोशी (20) रामभद्र (18) लक्ष्मण(18) ललितवल्लभ(18) राघवानन्दनाटकम् भैरवानन्दनाटकम, न्यायविकासिनी (मानव न्यायशास्त्र की टीका) : गणेशगौरवम्, भारतीवैभवम्, अश्रुनिर्झर : धर्मपुत्रिका (शैवमतविषयक) : आदर्शराघवम्, सिद्धान्तकौमुदी टीका पशुपतिस्तोत्रम्, गुह्यकालीस्तोत्रम् : प्रशस्तिरत्नम् : कवितानिकषोपलकाव्यम् : भक्तविजयम्, पृथ्वीन्द्रवर्णनोदयम् कृष्णचरितम्, संगीतभास्कर वागमतीस्तोत्र, प्रशस्तिरत्नावली, वाणीविलाससिद्धान्त, दुर्गाकृत्यकौमुदी, पुरश्वरण, प्रयोगरत्नदीपिका, अक्किट्टम नारायण : कठिन प्रकाशिका नम्पूतिरी (कैयटकृतप्रदीप की व्याख्या), दीपप्रभा (वररुचिकृत संग्रह की व्याख्या)। अच्युत पिशारोटी करणोत्तम (ज्योतिष), उपराग (16-17) क्रियाक्रम, होरासारोच्चय, प्रवेशक (व्या.) अज्ञात (17) : हस्तलक्षणदीपिका (नृत्यशास्त्र) अज्ञात : अघविवेचन (ध.शा.) अज्ञात : गुरुसम्मतपदार्थ (मीमांसा) अज्ञात : क्रियासार (तंत्र) अज्ञात : ईशानशिवगुरुदेवपद्धति (तंत्र) अतुल (12) : मूषकवंशम् अत्तूर कृष्ण पिशारोटी : संगीतचंद्रिका (सूत्रग्रंथ) (19-20) वाङ्मणि झा(17) वाणीविलास (18-19) 466/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्तकृष्णशास्त्री (एन.एस.) (20) शतभूषणी, शारीरक न्यायसंग्रहदीपिका (ब्रह्मसूत्रभाष्यटीका), शारीरकमीमांसाभाष्य-प्रदीप, प्रश्नोत्तरसाहस्री, मीमांसाशास्त्रसार । गोदवर्मयशोभूषणम् (सा.शा.), रघुवंश-टीका, कुमारसंभवटीका। भारतमुद्रा (पत्रिका) अरुणगिरिनाथ (16) : : सवृत्तरत्नावली। कृष्णसुधी (19) : काव्यकलानिधि । गारण्य शंकर : क्रियासंग्रह (तंत्र) गोदवर्ममहाराज : रससदनभाण, रामचरित्र, गोदवर्म एलाय : गरुडचयनप्रमाण, ताम्पूरान् (19) आशौचचिन्तामणि, (युवराजकवि) हेत्वाभासदशक (शिवस्तोत्र) गोदवर्मभट्टन ताम्पूरान् : स्मार्तप्रायश्चित्त विमर्शिनी (19-20) की टीका, दत्तकमीमांसा, सिद्धान्तमाला (न्या.शा.) गोविंदनाथ गौरीकल्याणम् (यमककाव्य)। गोविंद भट्टतिरी दशाध्यायी (बृहज्जातककी (13) व्याख्या)। चित्रभानु त्रिसर्गी (किरातार्जुनीय की टीका)। चिदानन्द (13) नीतितत्त्वाविर्भाव चैन्नास नारायण तंत्रसमुच्चय- (शेष-समुच्चय नम्पूतिरी (5) शिष्यद्वारालिखित), मानववास्तु लक्षण। जातवेद पूर्णपुरुषार्थ-चंद्रोदयम् (नाटक) तैकाटुनीलकण्ठ :: स्मार्तप्रायश्चित्त। योगियार तोलन्नूर नारायण अनुष्ठानसमुच्चय, (17) तंत्रप्रायश्चित्त। दामोदर प्रमेयपारायण (तर्कार्णव) (प्राभाकरमीमांसापरक) अशोकन् पुरनट्टकर (संपादक) इलत्तुररामस्वामी शास्त्री डॉ.ई.ईश्वरन् (संपादक) उदयमहाराज (14) उदय (नारायण यज्वा का पुत्र) उद्दण्डशास्त्री (15) : बोधानंदगीता। : कौमुदी (धन्यालोक लोचन टीका) मयूरसंदेशम् सुखदा-कौषीतक ब्राह्मण की टीका। नटांकुश (ना.शा.), स्वातीप्रशंसा, मल्लिकामारुतम् (प्रकरण), कोकिलसन्देशम्। एलुथसन : केरलोदयमहाकाव्यम्। (डॉ.के.एम.) (20) कलसेरी दामोदर भट्ट : वसुमतीमानविक्रमीयनाटक करुणाकरन पिशारोटी : कविचिन्तामणि (15) (केदारभट्टकृत वृत्तरत्नाकर की टीका) करुणाकरन् : अद्वैतदर्शनम् (प्रबंध) (डॉ.आर) कुमारगणक : रणदीपक (युद्धशास्त्रविषयक) कुलशेखर : मुकुन्दमालास्तोत्र कुलशेखर वर्मा सुभद्राधनंजय नाटक, तपतीसंवरण नाटक) कृष्ण :: भरतचरित्रम् कृष्णपाषाणविप्र : तांत्रिकक्रिया। कृष्णलीलाशुक्र क्रमदीपिका (तंत्र.), (14) पुरुषकार (व्याकरण विषयक दैव की व्याख्या), श्रीचिह्नकाव्य (प्राकृत व्याकरणपरक) दामोदरचाक्यार (14) : शिवविलास दुर्गाप्रसादयति (14) : अद्वैतप्रकाश देवासिया पी.सी. ख्रिस्तुभागवतम् नारायण (15) समुद्राहरणकाव्यम् (व्याकरणनिष्ठा) नारायण सीताहरणम् (यमककाव्य) नारायण (10) तंत्रसारसंग्रह (या विषनारायणीय) (वैद्यक) नारायण भगवदज्जुक प्रहसम की टीका नारायण : सुभगसन्देशम्। नारायणगुरु : दर्शनमाला। (गुरुस्वामी) (20) नारायण नम्पूतिरी प्रदीपप्रभा (16) सर्वानुक्रमणी की टीका। (2) दीपप्रभा (प्रेषार्थविवृत्ति) स्मार्तप्रायश्चित्तविमर्शिनी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 467 For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमेश्वर शिवद्दिज सुखबोध (आशौचचिन्तामणि की टीका) स्मार्तप्रायश्चित, करणपद्धति (ज्योर्तिगणित) पुतुमन कोमतिरी (नूतनगेह सोमयज्वा (17) पूर्णसरस्वती प्लान्तोल मुस्सातु प्रभाकर (मीमांसक) : नारायण नायर : अणुग्रहमीमांसा (वटक्के-पाटु) (19-20) (विषय-रोगजंतु) । नारायण पंडित आश्लेषाशतकम्। कुमारिलमतोपन्यास, मानमेयोदय (प्रमेयविभाग) नारायण पिल्लै विश्वभानुकाव्यम् (विषय(पी.के.) (20) विवेकानंदचरित्र) नारायणभट्ट : धातुकाव्यम् (मेलपुट्टर) नारायण : रासक्रीडा (महिषमंगलम्) नीलकण्ठ : क्रियालेशस्मृति (तंत्र) नीलकण्ठ तीर्थपाद (20): कैवल्यकंदली, प्रश्नोत्तरमंजरी नीलकण्ठून मुस्सतू : काव्योलास, मनुष्यालय(16) चन्द्रिका (वास्तुशास्त्र), मातंगलीला (हस्तिविद्या)। नीलकण्ठ योगियार : श्रौतप्रायश्चित्तसंग्रह। (16) नीलकण्ठ सोमयाजी : आर्यभटीयभाष्य, तंत्रसंग्रह, (15-16) सिद्धान्तदर्पण, गोलसार (सभी ज्योतिषविषयक) पद्मपादाचार्य पंचपादिका (ब्रह्मसूत्रभाष्यटीका) पनकुकाटु नम्पूतिरी : मुहूर्तरत्न, प्रश्रमार्ग (17) (ज्योतिष) परमेश्वर-1 (16) न्यायसम्मुच्चय (मीमांसा) जुषध्वंकरणी तथा स्वदितंकरणी। (न्यायकणिका की टीका) । अनुष्ठानपद्धति (तंत्र) आशौचदीपिका (मलमंगलम् आशौचम्) कमलिनीराजहंस-नाटकम्, मालतीमाधव और मेघदूत की टीकाएँ। कैरली (अष्टांगहृदय (उत्तरस्थान) की टीका)। बृहती (या निबंधन), लध्वी (या विवरण)शाबरभाष्य की टीकाएँ। रत्नकेतूदयनाटकम्, रामवर्मविलासनाटकम्। एकभारतम् (नाटक), कामधेनु (बाल व्याकरण)। कल्पसूत्र-टीका। कौषीतकी गृह्यसूत्रटीका, जैमिनीयगृह्यसूत्र । व्यवहारमाला (धर्मशास्त्र) बालकवि भरतपिशारोटी (20) भवत्रात : महिषमंगलम् (16) (नारायण नम्पूतिरी) मातृदत्त माधव अरुर मांधाता मानवेद मानवेद राजामेलपुटूर नारायण गृह्यसूत्रटीका, सत्याषाढ (हिरण्यकेशी) श्रौतसूत्र टीका। उत्तरनैषधम् : स्मार्तवैतानिक प्रायश्चित्त । : कृष्णगीति (नृत्यनाट्य) : पूर्वभारतचम्पू। : प्रक्रियासर्वस्व, अपाणिनीय -प्रमाणता। आश्वलयनक्रियाकल्प, सूक्तश्लोक । मेलपुट्टर : मान-मेयोदय। परमेश्वर-II भट्ट (17) परमेश्वर-III नारायण भट्ट और नारायण पंडित (मीमांसक) (17) परमेश्वर नम्पूतिरी (15) : तत्त्वविभावना (तत्त्वबिंदुकी टीका) : जैमिनीयसूत्रार्थसंग्रह (मीमांसासूत्र-भाष्य) दृग्गणित, गोलदीपिका, ग्रहणमंडन, जातकपद्धति। सूर्यसिद्धान्त, लीलावती, लघुभास्करीय, महाभास्करीय की टीकाएँ। (सभी ज्योतिषविषयक) : वाक्यप्रदीपिका (अष्टांगहृदय की टीका) मेलपुत्तूर नारायण भट्टात्रि मेलपुत्तूर मातृदत्त भट्ट (16) नारायणीयम्, निरनुनासिकचम्पू। सर्वमतसिद्धान्तसार। परमेश्वर नम्पूतिरी रवि : प्रयोगमंजरी (तंत्र) : चाणक्यकथा रविवाक्यार 468, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रविवर्ममहाराज (13) राघवानन्द (14) (कोक्कुम शवयोगी) राजराजवर्मा (20) रामपाणिवाद (18) राम पिशारोटी (20) रामवर्म महाराज (20) रामवमहाराज (18) रामवर्ष परीक्षित महाराज राम शालिद्विज (16) लक्ष्मीदास (14) लीलाशुक बिल्वमंगल वररुचि (4) वररुचि वारियर (पी.एस.) (19-20) वासुदेव (10) वासुदेव (15) वासुदेव पय्यूर वासुदेव वासुदेव वासुदेव वासुदेव एलयथ (पी.सी.) : : 10 : : : : : : : : : : 14 : प्रद्युम्नाभ्युदयम् (नाटक) सर्वमत सिद्धान्तसंग्रह, कृष्णपदी श्रीमद्भागवत की व्याख्या), ध्यानपद्धति । लघुपाणिनीयम् । सीताराघवम् (नाटक) : वृत्तवार्तिक, (छंदशास्त्र), रासक्रीडा, विष्णुविलास, तालप्रस्तार । बालप्रिया ध्वन्यालोकलोचन-टीका) वेदान्तपरिभाषासंग्रह चंद्रिकाकलापीडम् (नाटक) बालरामभरम् (नृत्यकला) । सुबोधिनी (भाषापरिच्छेद, मुक्तावली, दिनकरी और रामरुद्री के अंशॉपर टीका) पाणिनीय लघुविवृति, पाणिनीययविवृति (अष्टाध्यायी की टीकाएँ) । शुकसंदेशम्। कृष्णकर्णामृतम् । चंद्रवाक्य ( ज्यो.) । आशौचाष्टक | अष्टांगशारीरक (गूढार्थ बोधिनी टीका सहित) बृहत्शारीरक (दोनों आयुर्वेदविषयक) www.kobatirth.org शौरिकथोदयम्, त्रिपुरदहनम् युधिष्टिरविजयम् (यमककाव्य) पर्यायपदावली (व्याकरणविषयक) | गजेन्द्रमोक्ष (शास्त्रनिव्य) । कौमारिलयुक्तिमाला । भ्रमरसंदेशम् योगसारसंग्रह (आयुर्वेद) 10 वासुदेवविजयम् (व्याकरण निष्ठमहाकाव्य नारायण भट्ट का धातुकाव्य (३ सर्ग) इसी काव्य का अंतिम अंश है। तीर्थाटनम्, भक्तिलहरी, गोपिकानिर्वाणम् । वासुदेव पुरमन विष्णुत्रात वेदान्ताचार्य (16) वेल्लानश्शेरी वासुनी मुस्सू (19-20) वैक्क पाच्च मुत्तू (19) शंकर शंकर (12) शक्तिभद्र शंकरन् मुखातू शंकर महिषमंगलम् शंकरवर्ग ताम्पूरान् शंकर वारयार (16) शंकरार्थ शंकराचार्य (जगदगुरु) (7) शास्तृशर्मा श्रीकुमार (16) श्रीधरन् नम्पी श्रीराम महाराज षड्गुरुशिष्य (12) सदाशिव दीक्षित (18) For Private and Personal Use Only : : : : : .... .. .. .. .. : .... .. ............. : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोविंदचरितम्, संक्षेपभारतम्, संक्षेप रामायणम्, कल्याणनैषधम् वासुदेवविजयम् । कामसन्देशम् । उतेजिनी (काव्यप्रकाश की टीका) वृत्तरत्नमाला, विज्ञानचिन्तामणि पत्रिका । रामवर्ममहाराजचरितम् (व्याकरणनिष्ठ काव्य हृदयप्रिया (अष्टांगहृदयीका, सुखसाधक (आयुर्वेद) कृष्णविजयम् लघुधर्मप्रकाशिका (शांकरस्मृति) आर्यचूडामणि (नाटक) ललिता (अष्टांगहृदय की टीका) । रूपानयनपद्धति (व्याकरण) . सदूरत्नमाला (ज्यो.) नीवि (रूपावतार की व्याख्या) सर्वसिद्धान्तसंग्रह, सर्वप्रत्ययमाला ( व्या.) ब्रह्मसूत्रभाष्य (शारीरक भाष्य), दशोपनिषदों सहित प्रमुख उपनिषदों के भाष्य, योगसूत्रभाष्य, विविधस्तोत्र काव्य । न च रत्नमाला (टीकाग्रंथ), नूतनालोक । शिल्परत्न । नीलकंठसन्देश सुबालावज्रतुण्डम् (नाटक) वेदार्थदीपिका (सर्वानुक्रमणी की टीका), सुखप्रदा (ऐतरेयब्राह्मणटीका), मोक्षप्रदा (ऐतरेयारण्यक - टीका), अभ्युदयप्रदा (आश्वलायनश्रौतसूत्रटीका) । बालमवर्म यशोभूषणम् (शास्त्रनिष्ठकाव्य)। संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 469 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सर्वज्ञात्मयति (पुष्पांजलि स्वामियूर ) (10) सुकुमार स्वामी तिरुमल महाराज डॉ. स्वामिनाथन् हरिदत्त (7) ग्रंथकार अजित्यश अज्ञात (16) अनन्त ( 15 ) अनन्ताचार्य (10) अंबाप्रसाद (12) अभयदेवसूरि अमरचंद्र : : प्रमाणलक्षणम् । अमरचंद्र सूरि (सिंहशिशुक) (12-13) कृष्णणविलासम् । मुनाप्रासादिव्यवस्था (संगीत) : कर्णभूषणम्, ध्वस्तकुसुमम् । ग्रहचारणीबंधनम्, शकाब्दसंस्कार (दोनों ज्योतिष विषयक) : परिशिष्ट (12) गुजराथ के ग्रंथकार और ग्रंथ गुजराथ प्रदेश इस अभिधान का प्रारंभ सामान्यतः 16 वीं शती से माना जाता है। आज के गुजरात राज्य के भूभाग में प्राचीन काल में आनर्त, सुराष्ट्र, लाट, कच्छ, गुर्जरदेश इस नाम से विदित भूभागों का अन्तर्भाव होता है। प्रस्तुत परिशिष्ट में गुजराथ राज्य के प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथकारों एवं उनके प्रमुख ग्रंथों का चयन किया है। ग्रंथ : : : : : : संक्षेपशारीरक, पंचप्रक्रिया, : : : : विश्रान्तविद्याधर ( व्या.) वंशानुचरितकाव्य कामसमूह वेदार्थचन्द्रिका वेदार्थदीपिका (माध्यंदिनसंहिता की टीका), भगवन्नामकौमुदी (पितालक्ष्मीधरकृत) की टीका कल्पलता, स्वकृत टीकाएँ कल्पपल्लव और कल्पपल्लवशेषविवेक । तत्त्वबोधविधायिनी या वादमहार्णव सम्मतितर्क की टीका । www.kobatirth.org काव्यकल्पलतामंजरी, (काव्यकल्पलतापरिमलटीका सहित), अलंकारप्रबोध। स्वादिशब्दसमुच्चय, छंदोरलावली, एकाक्षरनाममालिका, सुकृत 470 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड अमृतराम नारायण शास्त्री (19-20 ) अरिसिंह (11) आशाधरभट्ट (18) उदयधर्म (15) उदयप्रभसूरि (13) उवट कल्याण (17) काकल कीकभट्ट कुमारपाल कुलमण्डनसूरि (4) कुलार्कपंडित (11) कृष्णानन्द सरस्वती केशवदैवज्ञ (केशवार्क) (15-16) गंग द्विवेदी (विद्दज्जनतिलक) (14) गंगाधर (15) गजेन्द्रलालशंकर पण्ड्या (20) गणपति रावल (17) गणेश दैवज्ञ (16) गदाधर ( 16 ) For Private and Personal Use Only : : कविरहस्यम् : त्रिवेणिका, कोविदानंद (सटीक) अद्वैतविवेक, अलंकारदीपिका, प्रभापटलम् आशाधरी (न्यायिक), रसिकानन्दम् (सा.शा.) कुवलयानन्दकारिका टीका, पुनरावृत्तिविवेचन | वाक्यप्रकाश औक्तिक । आरंभसिद्धि (ज्योतिष) शुक्लयजुर्वेदभाष्य, प्रातिशाख्यटीका । वाजसनेयी संहिताभाष्य, प्रातिशाख्यसूत्र | : : .... : : : : : संकीर्तनकाव्य कविशिक्षा (स्वोपज्ञ-काव्यकल्पलतासहित) सिद्धान्तार्णव । पंचांगसंशोधननिबन्ध | : : गुणदर्पण (व्या.) मुग्धावबोध अतिक (व्याकरण) दशश्लोकीमहाविद्यासूत्र विचारत्रयी। विवाहवृन्दावन (इसपर गणेश दैवज्ञ (16) की टीका है), करणकंठीरव । : मुख्यार्थ प्रकाशिका (बृहदारण्यक की टीका) । : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 : बालतंत्र मध्यमावृत्ति हेमशब्दानुशासनपर खण्डप्रशास्तिटीका । मुहूर्त गणपति, पर्वनिर्णय । जातकालंकार, मुहूर्तम्, विवान्दावन की टीका। : पारस्करगृह्यसूत्र की टीका । गंगादास प्रतापविलासनाटक, माण्डलिककाव्यम् । विषमपरिणयनम् (नाटक) Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणचंद्रसूरि हेमविभ्रम-टीका (व्याकरण) गुणभद्रसूरि (15) : तर्करहस्यदीपिका (हरिमद्रसूरिके षड्दर्शन समुच्चय की व्याख्या)। गुणरत्नगणि सारदीपिका (काव्यप्रकाश (17) की टीका)। गुणरत्नसूरि (15) : क्रियारत्नसमुच्चय। गोकुलोत्सव सौंदर्यनिजपद्यटीका, विवेक (18-19) धैर्याश्रयटीका, संन्यासनिर्णयटीका, शृंगार रसमंडन-टीका) गोपालराव जांभेकर : गणेशविजय-काव्यम् गोविंदराव बलंवतराव : काव्यशास्त्रीयम् (19-20) (गोविंदसप्तशती), व्यासोपदेश। गोविंदाचार्य (13) : रससार (आयुर्वेद) चंदु पंडित : नैषधचरितम् की टीका (चांडुपंडित) (13) जगदेव (12) : स्वप्नचिन्तामणि (ज्योतिष) जयन्तभट्ट (13) दीपिका या जयन्ती (काव्य प्रकाश की टीका) जयमंगल सूरि : कविशिक्षा (12) देवशंकर पुरोहित : अलंकारमंजूषा (18) (रघुनाथराव और माधवराव पेशवा) की स्तुति के उदाहरण देवेश्वर (17) स्त्रीविलास द्या (विद्या) द्विवेद(11): नीतिमंजरी (या वेदमंजरी) धर्मकीर्ति (4) : न्यायबिन्दु नमिसाधु (11) : काव्यालंकारटिप्पण नरचन्द्र श्रीधरकृत न्यायकंदली की टीका। नरचन्द्रसूरि (13) : ज्योतिःसार नरहरि (12) : नरपतिजयचर्यास्वरोदय । नरेन्द्रप्रभ सूरि(13) : अलंकार महोदधि (सटीक) नारायण वैद्य : कुसुमावली(श्रीकृष्णकृत (15) वृन्दमाधव की टीका) पारिख जे.टी. : छायाशकुंतला (रूपक) पितृभूति :: कात्यायन श्रौतसूत्रभाष्य पीतांबर त्रिपाठी(13) : रेणुकासत्कीर्तिचन्द्रोदय । पुरुषोत्तम तत्त्वदीपनिबंध, प्रहस्तवाद, (17-18) प्रस्थानरत्नाकर, उत्सवप्रतान, द्वव्यशुद्धि (धर्मशास्त्र) अणुभाष्यप्रकाश, सुवर्णसूत्र, आवरणभंग (वल्लभाचार्यकृततत्त्वदीपनिबंध की व्याख्या) दीपिका (नृसिहोत्तरतापिनी उपनिषद और माण्डूक्य. गौडकारिका की व्याख्या), अर्थसंग्रह (कैवल्य और ब्राह्म उपनिषदों की व्याख्या) अमृततरंगिणी (भगवद्गीता की व्याख्या। प्रह्लादनदेव (13) : पार्थपराक्रम व्यायोग बदरीनाथ काशीनाथ : रत्नावली, मालिनी, शास्त्री (20) राधाविनोद, मिथ्यावासुदेव (चारों रुपक) अवन्तिनाथ (मूल- गुजराती उपन्यास), वल्लभदिग्विजयम्। बुद्धिसागर (11) पंचग्रंथिव्याकरणम् (या बुद्धिसागरव्याकरण) छन्दःशास्त्रम्। ब्रह्मगुप्त ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त (भिल्लमल्लकाचार्य) (ज्यो.) ध्यानग्रह, (6-7) जयरत्नगणि दोषरत्नावली (ज्योतिष) (17) ज्वरपराजय (वैद्यक) जयराशिभट्ट (13) : तत्त्वोपप्लवसिंह (चार्वाकदर्शन) जयशंकर द्विवेदी (18) : नवनन्दनन्दनरति (नाटक) जयानन्द सूरि काव्यप्रकाशटीका ज्ञानमेरु कविमुखमण्डन (साहित्य.) झाला जी.सी.(20) सुषमा (काव्यस्ग्रह) त्रिकाण्डमण्डन आपस्तंबसूत्र ध्वनिसार्थकारिका दानविजयसूरि(18) : शब्दभूषण दुर्गसिंह (4) निरुक्तटीका दुर्गाचार्य : ऋजुविमलावृत्ति (1-2) (निरुक्त टीका) दुर्गेश्वर (18) : धर्मोद्धरण (रूपक) दुर्लभराज (12) सामुद्रिकतिलक (ज्योतिष) (पुत्र जगदेव ने ग्रंथ पूर्ण किया) देवदत्त (14) : रत्नमालिका (आयुर्वेद) देवयाज्ञिक(12) : कात्यायनश्रौतसूत्रभाष्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/471 For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra भगवदाचार्य स्वामी (20) भट्टि (7) भर्तृयज्ञ (या प्रभावदत्त) (8) भानुचन्द्र और सिद्धिचन्द्र (17) भास्करराय (17-18) भुवनसुन्दरसूरि (15) भूदेव शुक्ल ( 16 ) मणिशंकर उपाध्याय मदन सुभट (12) मलधारी हेमचंद्र (12) मलयगिरि (12) मल्लवादी (4-5) मल्लिषेण (13) महादेव महीधर (17) महीयमंत्री : : : : 1: : 10 : : : : : भारतपारिजात, पारिजातापहार, पारिजातसौरभ (तीनों का विषय है महात्मा गांधी का यथाक्रम चरित्र) यजुर्वेदभाष्य, ब्रह्मसूत्रभाष्य ) । रावणवधकाव्यम् (या भट्टिकाव्यम्) कात्यायन श्रौतसूत्र पारस्करगृह्यसूत्र, गौतमधर्मसूत्र की व्याख्याएँ । कादम्बरी की टीका । www.kobatirth.org सौभाग्य भास्कर, सेतुबंध, नीलाचलचपेटिका । महाविद्याविडम्बनव्याख्यान दीपिका । धर्मविजयम् (नाटक) रसविलास (साहित्य), आत्मतत्वप्रदीप, ईश्वरविलास दीपिका (टीका सहित), मंजरीमकरंद (न्यायसिद्धान्तमंजरी की टीका) ईश्वरस्वरूप, ब्रह्मसूत्रभाष्यालोचन । दूतांगदनाटक । आवश्यक टिप्पणक, कर्मग्रंथ विवरण, अनुयोगद्वार सूत्रवृत्ति, जीवसमासाविवरण, नन्दिसूत्र टिप्पणक, विशेषावश्यकसूत्र की बृहद्वृत्ति पुष्पमाला (या उपदेशमालासूत्र) शब्दानुशासनम् (सटीक) (अपरनाम मुष्टिव्याकरण) । द्वादशारन्यायचक्र (सटीक) । स्याद्वादमंजरी (अयोगव्यवच्छेद की टीका) कात्यायन श्रौतसूत्रभाष्यम् मंत्रमहोदधि । अनेकार्थतिलक 472 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड महेन्द्रसूरि माघ - महाकवि (6-7 ) माणिक्यचंद्र (13) माधव (17) माधव उपाध्याय (17) मीनराज (4) मूलशंकरमाणेकलाल याज्ञिक (19-20) मेघविजय (17) मोक्षादित्य (14) यक्ष यशः पाल (11-12 ) यशोधर (13) यशोविजय उपाध्याय (16-17) (19-20) रणकेसरी (15) रत्नकण्ठ (17) राजशेखर सूरि (14) राजारामशास्त्री टोपरे (19) रामचंद्र गुणचंद्र ( 12 ) रामचंद्रसूरि (12) 40 For Private and Personal Use Only : : : : : : : याज्ञिकनाथ देवज्ञ (16) : रंगअवधूत : : : : : : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : मोहराजपराजयम् (नाटक) मुदितकुमुदचंद्रम् (नाटक) रसप्रकाशसुधाकर (आयुर्वेद) नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश, नयामृततरंगिणी, स्याद्वादकल्पलता : : अनेकार्थ कैरवाकरकौमुदी (हेमचंद्रकृत अनेकार्थसंग्रह की टीका) । शिशुपालवधम् (महाकाव्य) संकेत (काव्यप्रकाश की टीका) योगसमुच्चय । आयुर्वेदप्रकाश बृहत्पाकावली यवनजातक छत्रपतिसाम्राज्यम् संयोगितास्वयंवरम् प्रतापविजयम्, इन तीनों नाटकों की टीका प्रदेशास्त्री ने लिखी है। मातृकाप्रसाद, तत्त्वगीता, ब्रह्मबोध चंद्रप्रभा (हेमकौमुदी की टीका), उदयदीपिका, वर्षप्रबोध (या मेघमहोदय) । भीमविक्रमव्यायोग | निमित्ताष्टांगबोधिनी परमरहस्यम्, मंगलवाद, विधिवाद, जैनतर्कभाषा, ज्ञान बिन्दु, काव्यप्रकाश टीका, छन्दोनुशासन की टीका, तियति। तिङन्त्रयोक्ति जातकचंद्रिका (ज्यो.) रंगहृदयम् (स्तोत्रसंग्रह) बोधमालिका । योगप्रदीपिका काव्यप्रकाश टीका । पंजिका (न्याय कंदाली की टीका) कष्टकयोद्धार, कष्टकत्रयोद्धारार्थदीपिका । नाट्यदर्पण द्रव्यालंकारटिप्पण, Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामदेवव्यास (15) रामनाथ भोलानाथ (19-20) सुभद्रापरिणयम् (छायानाटक), रामाभ्युदयम् (नाटक) पाण्डवाभुदयम् (नाटक) चंद्रिका (पंचलक्षणी टीका), सिद्धान्तरत्नमंजूषा (धर्मशास्त्र), न्यायभूषण (न्यायसूत्र की टीका), ब्रह्मसूत्रवृत्ति (केवलाद्वैतनिष्ठ), यदुवंशम् (महाकाव्य) जगदीशमनोरमा (जागदीशी की व्याख्या)। विश्वनाथ देव (18) विष्णुकवि(11) वेणीदत्त (17) वेदांगराय (18) शंकर(16) शंकरलाल महेश्वरशास्त्री(19-20) शकरलाल माणेकलाल शास्त्री : कुण्डुमंडपकौमुदी, (धर्मशास्त्र) : शांखायनसूत्रपद्धति, क्रतुरत्नमाला : रसतरंगिणी. : पारसिकप्रकाश, गिरिधरानन्दम् : सौभाग्यलहरीस्तव : रावजीराव कीर्तिविलासम् कुल ग्रंथ 28) कृष्णचन्द्राभ्युदयम् (नाटक), चंद्रप्रभाचरितम् (गद्यकाव्य) शिक्षासमुच्चय, बोधिचर्यावतार : न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, धनपालकृततिलकमंजरी की टीका. त्रिशती (आयुर्वेद) इसपर वल्लभदेव की टीका है। शांतिदेव (18) शांतिसूरि (वादिवेताल)(11) शागधर(17) रूद्रकवि(16) लक्ष्मीधर (11-12) लाटदेव (3-4) वर्धमान(14) वर्धमानसूरि (12) वरदत्त आनीय वाग्भट(12) वादी देवसूरि वादीन्द्र वासुदेवानन्द सरस्वती (टेम्बेस्वामी) (19-20) विजयपाल विनयचंद्र विनयविजय(17) विनयविजयगणि (17) : राष्ट्रोढवंशम् : भगवन्नामकौमुदी रोमकसिद्धान्त : कातंत्रविस्तार (व्या) : गणरत्नमहोदधि(सटीक), सिद्धराजवर्णनम् : शांखायनश्रौतसूत्रभाष्यम् : वाग्भटालंकार (प्रमाणनय तत्वालोकालंकार) स्याद्वादरत्नाकर नामक टीका सहित महाविद्याविडम्बनम्, लघुमहाविद्याविडम्बनम् महाविद्याविवरणटिप्पणम् : गुरुचरित्रम्, गुरुसंहिता, दत्तपुराणम्, द्विसाहस्री, दत्तचम्पू द्रौपदीस्वयंवरम् (नाटक) काव्यशिक्षा लोकप्रकाश आनंदालेख, श्रीकल्पसूत्र,सुबोधिका, श्रीविनयदेवसूरिविज्ञप्ति, हेमप्रकाश, नयकर्णिका, इन्दुदूतम्, षट्त्रिंशत्जल्पसंग्रह, अर्हनमस्कारस्तोत्रम आदि कुल 36 ग्रंथ : जातकशिरोमणि, यंत्रशिरोमणि पाराशरगृह्यसूत्रभाष्यम्, (लक्ष्मीधर ने पूर्ण किया) शिल्पिमल्ल(17-18) : कुण्डनिधानम् शिवकवि(17-18) : विवेकचन्द्रोदयम् रामचरितम् शिवप्रसादभट्ट(19) श्रौतोल्लास शिवरामशुक्ल (17) : शान्तिचिन्तामणि, कर्मप्रदीपवृत्ति, श्राद्धचिन्तामणि श्रीकण्ठ (16-17) : रसकौमुदी (संगीत) श्रीमान् कर्मविपाकसारसंग्रह समयसुन्दर उपाध्याय आर्यासंख्या उद्दिष्टनष्टवर्णन (17) विधि समयसुन्दरगणि(14) : वृत्तरत्नाकर की टीका सलक्षमन्त्री(15) : यवननाममाला सागरचन्द्र ज्योतिःसार की टीका सिद्धराज उपमितिभवप्रपंच कथा, चन्द्रकेवलीचरितम्, लघुवृत्ति (उपदेशमाला की टीका) सिद्धसेनदिवाकर सम्मतितर्क सिद्धिचन्द्र(17) काव्यप्रकाशखण्डन, तर्कभाषाटीका, बृहत्टीका, सप्तपदार्थी टीका अनेकार्थसर्गवृत्ति, धातुमंजरी, आख्यातवादटीका, लेखलिखनपद्धति - सिंहदेव गणि वाग्भटालंकार की टीका सिंहसूरि द्वादशारन्यायचक्र की टीका सोढल(11) उदयसुंदरीकथा, गदनिग्रह (आयुर्वेद), विश्राम(16-17) विश्वनाथ (16-17) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 473 For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सोमचंद्रगणि (13) सोमेश्वर (12) सोमेश्वरभट्ट (13) स्कन्दमहेश्वर (4) स्वामीशास्त्री (19) स्कन्दस्वामी (7) स्कन्दस्वामी (4-5) स्वपति गर्ग हनुमत् कवि हरकवि (17) हरिकवि (भाऊभट्ट) (17) हरिदास (17) हरिपाल महाराज (विचारचतुर्मुख) हरिभद्रसूरि (8) (कालिकालगौतम) हरिवैद्य (13-14) हरिस्वामी (4) हंस मिठ्ठ (18) हाथिभाई हरिशंकर शास्त्री (20) हेमचंद्र (कलिकालसर्वज्ञ) (11-12) : : : : : : : : : शतपथ ब्राह्मणटीका, : सिद्धान्तसार (ज्यो.), गुणसंग्रहनिघण्टु आयुर्वेदीयकोश। : वृत्तरत्नाकर की टीका कीर्तिकौमुदी, सुरथोत्सव, रामशतक, ............. उल्लाघराघवम् (नाटक) संकेत (काव्यप्रकाश की टीका) निरुक्तटीका सम्वेदभाष्य (जिसे नारायण और उद्गीथ ने पूर्ण कि खंडेरायकाव्य, (भारतीवृत्ति टीकासहित) ऋग्वेदभाष्यम् ऋग्वेदभाष्य (3 अष्टक तक) पारस्करगृह्यसूत्रपद्धति : प्रस्तारत्नाकर ( नीतिकाव्य) संगीतसुधाकर खण्डप्रशस्तिकाव्य फलदीपिका (ज्यो.) सूक्तितरंगिणी, हैहयेन्द्रचरितम् सम्भाजीचरितम् अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तांसमुच्चय तत्त्वप्रबोध रसरत्नमाला (आयुर्वेद) शतपथब्राह्मणका हंसविलासम् कृष्णचन्द्राभ्युदय नाटक की व्याख्या प्रमाणमीमांसा (जैनन्याय), अयोगव्यवच्छेद अन्ययोगव्यवच्छेद योगशास्त्र, वीतरागस्तोत्रम् (सटीक), वेदांकुश (द्विजवदनचपेटा) अभिधानचिन्तामणि, (तत्त्वाभिधायिनी टीकासहित) www.kobatirth.org 474 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - हेमहंसगण (15) : ग्रंथकार For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात अघोरशिवाचार्य (15) सिद्धमलिंगानुशासनम्, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला (या देशी शब्दसंग्रह), छन्दोनुशासनम्, शब्दानुशासनम्, काव्यानुशासनम् शब्दमहार्णवन्यास, परिशिष्ट (13) तमिळनाडु के ग्रंथकार और प्रेथ इस परिशिष्ट में तमिळनाडु के संस्कृत वाङ्मय का विभाजन तीन प्रकार से किया है। (1) शैव, (2) श्रीवैष्णव और (3) तंजौर राज्य तमिळनाडु के शैव संप्रदाय के अन्तर्गत सौम्य शैव, रौद्रशैव, पाशुपत, वाम, भैरव, महाव्रत और कालमुख नामक उपसंप्रदाय माने जाते है। श्रीवैष्णव (या रामानुज सम्प्रदाय) के अन्तर्गत टेंगले और वडगलै नामक दो उपसंप्रदाय विद्यमान है इन दो उपसंप्रदायों के आचारपद्धति एवं विचार में अठारह प्रकार के मतभेद माने गये है। उणादिगणविवरण, धातुपरायणविवरण, निघण्टुशेष (आयुर्वेदकोश) संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में बौद्ध ( हीनयान महायान), जैन (श्वेताम्बर - दिगम्बर) संप्रदायों का अपना अपना उल्लेखनीय योगदान हुआ है उसी प्रकार शैव और वैष्णव सम्प्रदायों का भी अपना अपना वैशिष्ट्यपूर्ण योगदान हुआ है। शैव वाड्मय में काश्मीर और तमिळनाडु प्रदेशों में ग्रंथ निर्मिति हुई है। वैष्णव वाङ्मय में माध्वमत का वाङ्मय प्रधानतया कर्नाटक में, वल्लभमत का उत्तरप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में, चैतन्यमत का बंगाल में और श्रीवैष्णव (या रामानुज मत का साम्प्रदायिक वाङ्मय तमिळनाडु में ही मुख्यतया निर्माण हुआ है । इस दृष्टि से प्रस्तुत तमिळनाडु विषयक परिशिष्ट के तीन भाग यहां किये गये है। : : सुधीशृंगार (आरंभसिद्धि की टीका) (न्या.) तमिळनाडु का शैव वाङ्मय ग्रंथ ब्रह्मसूत्रभाष्याधिकरणार्थं संग्रह अष्टप्रकरणव्याख्या (अष्टप्रकरण तत्त्वप्रकाशिका, तत्त्वसंग्रह, तत्त्वत्रयनिर्णय, भोगकारिका, नादकारिका, मोक्षकारिका, Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अप्पयदीक्षित (16) अरुणगिरिनाथ (15) (या कुमारडिंडिम) अरुणदेव उमापति शिवाचार्य (13-14) कच्छपाचार्य गणपतिभट्ट (16) गुरुमूर्ति ज्ञानशम्मु (4) ज्ञानशिवाचार्य त्रिलोचनशम्भु त्रिलोचन शिवाचार्य निगमज्ञानशम्भु नीलकण्ठ दीक्षित (17) नृसिंहराय मी (17) पंचाक्षर योगी (17) मरैज्ञानदेशिक (16) रत्नखेट दीक्षित (17) वेंकटकृष्णदीक्षित (17) शिवज्ञानस्वामी शिवाप्रयोगी (16) (या ज्ञानशिवाचार्य) : : : : प्रासादचन्द्रिका : पौष्करभाष्य, शतरत्नसंग्रह प्रासाददीपिका शैवकालविवेक की टीका, दीक्षामण्डलपद्धति, स्नपनपद्धति शिवतत्त्वसारसंग्रहचंद्रिका शिवपूजास्तव (देखिये-शिवाप्रयोगी) : : : : : : : : : 14 परमोक्षनिरासकारिका, और रत्नत्रय), मृगेन्द्रवृत्तिदीपिका (मृगेन्द्र-आगम की व्याख्या) ब्रह्मतर्कस्तव, शिवार्कमणिदीपिका, (श्रीकण्ठकृत सूत्रभाष्य की व्याख्या) शिवार्चनचंद्रिका, शिवतत्त्वविवेक वरदराजस्तव, रामायणतात्पर्यसंग्रह भारतसारसंग्रह इत्यादि कुल 104 ग्रंथ वीरभद्रविजय-डिम सिद्धान्तसारावली सिद्धान्तसारावलि www.kobatirth.org (टीका अनन्तशम्भुद्वारा ) शैवकालविवेक शिवोत्कर्षमंजरी, शिवतत्त्वरहस्य, शिवलालार्णव त्रिपुरविजयचम्पू भूषणम् आत्मार्थपूजापद्धति शितिकण्ठविजयम् नटेशविजयम् शिवपूजाष्टकटीका (शिवाष्टकटीका, क्रियाक्रमद्योतिका, क्रियादीपिका (या शिवापद्धति), शिवज्ञानबोध लघुटीका, शिवज्ञानबोध शिवाग्रलघुभाष्यम्, श्रीकण्ठ (11) सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती (17) सदाशिवयोगीन्द्र सदाशिव शिवाचार्य योगी सर्वात्मशम्भुदेव (15) अज्ञात 1:4 77 77 "" ARAR 27 17 17 ग्रंथकार For Private and Personal Use Only : : : : : : तमिळनाडु का श्रीवैष्णव वाङ्मय : : : : : : : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शैवपरिभाषा (शिवज्ञानबोध की टीका) संन्यासपद्धति ब्रह्मसूत्रभाष्य नवरत्नमाला, : : : स्वानुभूतिप्रकाशिका, शिवमानसपूजा शिवयोगप्रदीपिका सिद्धान्तसूत्रभाष्य शैवसिद्धान्तदीपिका ग्रंथ अर्चादर्पण, अर्चाखंडन, अयदीज्याप्रभाव श्रियः शरण्यत्वविचार, श्रीतत्त्वल, श्रीविचार श्रीयोपायत्त्वविचार तप्तचक्राद्यंकनप्रमाणानि शुद्धयाजिलक्षणम् शुद्धयाजिसंचिका प्रपत्रकर्तव्यविधि, प्रपन्नगतिदीपिका प्रपतिनिष्ठा, प्रपत्तिपरिशीलन पंचकालानुष्ठानक्रम शेषत्वशेषित्वलक्षणोपन्यास तुलसीमालाधारणनिर्णय, विलक्षण वैष्णवोत्कर्ष निरूपणम्, विलक्षणाधिकनिर्णय पंचसंस्कारकाल, पेचसंस्कारविधि, पंचसंस्कारविषयसंग्रह : सुदर्शनमीमांसा रहस्यत्रयचूडामणि सिद्धान्तसिद्धोजन अणुत्ववुलक, ईश्वरीशब्दनिर्वचन, लक्ष्मीविभुत्वखंडनम् लक्ष्मीविभुत्वसमर्थनम् श्रीब्रह्मत्वव्युदास, श्रीब्रह्मत्वसमर्थनम् संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड / 475 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमत्शब्दार्थविचार, भक्तिप्रपत्याधिकारविचार, प्रपत्युपायत्वविचार लक्ष्युपायत्वनिरास प्रकाशिका (तत्त्वमुक्ताकलाव्याख्या) सर्वार्थसिद्धि की टीका) ईश्वरानुमान विचार अद्वैतकालानल नारायणपारम्य, विष्णुपारम्यनिर्णय, नारायणपदनिरुक्ति, श्रुतितात्पर्यनिर्णय तत्त्वत्रयावली विशिष्टाद्वैतशब्दार्थविचार, विशिष्टाद्वैतसमर्थनम् : पांचरात्रप्रामाण्यम् पांचरात्रसारसंग्रह, पांचरात्रागमसंग्रह ब्रह्मसूत्रभाष्यसंग्रह विवरणम् तूलिका (श्रीभाष्य व्याख्या) श्रीपादतीर्थग्रहणम्, श्रीपादतीर्थवैभवम् (मूल तमिलग्रंथ), तत्त्वत्रयचूलक (अनुवाद), आहारनियम अनुवाद। कूरनारायण ईशावास्योपनिषद्भाष्यम्। कृष्णताताचार्य : न्यायसिद्धांजनव्याख्या। कृष्णताताचार्य : सन्यासदीपिका (न्यायपरिशुद्धि की टीका) कृष्णताताचार्य : णत्वचंद्रिका, (19) दुरर्थदूरीकरणम् कृष्णताताचार्य (20) : परमुखचपेटिका, प्रत्यक्त्वादि स्वयंप्रकाशवाद। केसरभूषण श्रीतत्त्वदर्पण गार्ग्य वेंकटाचार्य अर्थपंचकम् (मूल- पिल्ले (18) लोकाचार्य (13) कृत तामिळग्रंथ) गार्ग्य वेंकटाचार्य अर्थ पंचक निरूपणम् (मूल तमिल) गृध्रसरोमुनि नित्यक्रमसंग्रह गोपालदेशिक निक्षेपचिन्तामणि, वेदान्तदेशिककृत रहस्यत्रयसार की टीका। गोवर्धन रंगाचार्य शठकोपकृत तिरुवैमोली का (19) पद्यानुवाद। गोविन्द कुरुकेश गाथानुकरण (शठकोवकृत तिरुवैमोली का अनुवाद) जगन्नाथ बालबोधिनी (भगवद्गीता की टीका) चंपकेशाचार्य तप्तमुद्राधारण प्रमाणसंग्रह वेदान्तकण्टकोद्धार। तात देशिक पंचमतभंजनम् तिरुमलाचार्य (19) : णत्वोपपत्ति-भंगवाद । तिरुमलार्य श्रीनिवासकृपा (भगवद्गीता की टीका) दाशरथि उपदेशरत्नमाला (अनुवाद) देवनायक : परतत्त्वनिर्णय देवराज सिद्धान्तन्यायचंद्रिका (चंद्रिकाखण्डन) प्रमाणसंग्रह धर्मपुरीश शंकर हृदयावेदनम्, अखंडार्थभंग, रामानुजनव रत्नमालिका। नाथमुनि न्यायतत्त्वम्, योगरहस्यम् (रंगनाथमुनि) (19) (दोनों अप्राप्य) अनन्तार्य देशिकसिद्धान्तरहस्यम् अनन्तार्य : पुरुषसूक्तभाष्यम्, (प्रतिवादिभयंकर) श्रीसूक्तभाष्यम् अप्पगोंडाचार्य : तत्त्वनिर्णय । अप्पय्यदीक्षित (17) : नयमयूखमालिका (ब्रह्मसूत्रभाष्य) आचिरंगाचार्य प्रपन्नविजय (18-19) आत्रेय रामानुज न्यायकुलिश आत्रेय श्रीनिवासाचार्य : पराशरभट्टकृत श्रीगुणरत्नकोश की टीका। एलयवल्ली रामानुज : शिष्टभूषणम्। (19) कल्कि नरसिंहाचार्य : शठकोपाचार्यकृत तिरवैमोली (19) (तामिल) का पद्यानुवाद कुमारवरदाचार्य अधिकरणचिन्तामणि (अधिकरण सारावली की टीका) कुमारवरदाचार्य अविचारखंडन, वादित्रयखंडन, विरोधपरिहार 476 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारायणमुनि नारायणार्य नारायणाचार्य रंगरामानुज मुनि (16) नीलमेघाचार्य नृसिंह नृसिंहदेव विषयवाक्यदीपिका, भाष्यप्रकाशिका, न्यायसिद्धांजन व्याख्या, शारीरकसूत्रार्थदीपिका, मूलभावप्रकाशिका, (श्रीभाष्यकी व्याख्या), भावप्रकाशिका (श्रुतप्रकाशिका की टीका), उपनिषद्भाष्यम्। नृसिंहाचार्य : गीतार्थसंग्रहविभाग। : नीतिमाला : पाराशरभट्टकत गुणरत्नकोश की टीका। न्यासविद्याविचार तप्तमुद्राविलास। शतदूषणी-टीका । आनन्ददायिनी (तत्त्वमुक्ताकलाप व्याख्यासर्वार्थसिद्धि की टीका) वेदान्तदेशिककृत निक्षेपरक्षा की टीका। : सिद्धान्तचन्द्रिका न्यायरत्नावली महाभारततात्पर्यरक्षा। श्रीरंगराजस्तव, श्रीगुणरत्नकोश, अष्टश्लोकी तत्त्वरत्नाकर (अप्राप्य); नित्यम्। : चरमश्लोकरहस्यचन्द्रिका, तत्त्वभास्कर : रहस्यमंजरी : अभेदखण्डनम् परवस्तु वेंकटाचार्य परवस्तु वेदान्तचार्य पराशरभट्ट पेलाप्पुर दीक्षित प्रणतार्तिहराचार्य प्रतिवादिभयंकर अण्णन् मंगाचार्य महाचार्य (16-17) : अधिकरणसारार्थदीपिका : ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास, ब्रह्मविद्याविजय, पाराशर्यविजय, सद्विद्याविजय, अद्वैतविद्याविजय, परिकरविजय, गुरूपसदनविजय, उपनिषन्मंगलाभरणम्। चण्डमारुत (शतदूषणी की टीका) रंगरामानुजमहादेशिक : परपक्षनिराकृति, पूर्णत्वविचार (20) रघुनाथ (19) : श्रियौपायत्वसमर्थनम्, श्रीविभुत्वसमर्थनम्। रघुनाथ यति : श्रीवैष्णवसदाचारनिर्णय। (19-20) रघुनाथाचार्य : संगतिसारसंग्रह। राघवार्य (19) : सुचरितचषक। राघवाचार्य शारीरकार्थसंक्षेप। राममिश्र श्रीभाष्यविवरणम्। रामानुज श्रीवैष्णवाचारसंग्रह, (19-20) पराशरभट्टकृत रंगराजस्तव की टीका। रामानुजदास मूलमंत्रार्थकारिका। रामानुजमुनि प्रपन्नविजय (18-19) रामानुजयोगी : प्रपन्नसत्कर्मचन्द्रिका (18-19) रामानुजाचार्य : श्रीभाष्यम् (ब्रह्मसूत्रभाष्य), (11-12) वेदार्थसंग्रह, वेदान्तदीप, (ब्रह्मसूत्रभाष्य), गीतार्थसंग्रह,गद्यत्रय (शरणा गतिगद्य, श्रीवैकुण्ठगद्य, श्रीरंगगद्य) नित्यम् रामार्य त्र्यय्यन्तार्थ (अप्राप्य) लक्ष्मणाचार्य : तप्तमुद्राधारणप्रमाणादर्श । लक्ष्मणाचार्य : गुरुभावप्रकाशिका (सूत्रप्रदीपिका की टीका)। लक्ष्मीकुमारताताचार्य : वेदान्तदेशिककृत रहस्यत्रयसार की टीका। लोकाचार्य तत्त्वविवेक। वरदनायकसूरि चिदचिदीश्वरतत्त्वनिरुपणम् वरदनारायणभट्टारक : प्रज्ञापरित्राणम्, न्यायसुदर्शनम् (श्रीभाष्यव्याख्या) मेघनादारि मैत्रेय रामानुज यामुनाचार्य (10-11) नवद्युमणि, भाष्यभावबोधप्रबोधनम्, नवप्रकाशिका (श्रीभाष्य की व्याख्या)। नाथमुनिविजयचम्पू। आगमप्रामाण्यम्, सिद्धित्रय, गीतार्थसंग्रह, पुरुषनिर्णय, (अप्राप्य), चतुःश्लोकी, स्तोत्ररत्नम् : अष्टादशभेदविचार : न्यासरीति : अद्वैतबहिष्कार, तत्त्वसंग्रह रंगनाथसूरि (19) रंगनाथयति (16) रंगराज संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /477 For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वरदविष्णुमिश्र वरदाचार्य वरवरमुनि वरदार्य वंगिवशेश्वर वात्स्य वरदाचार्य (नाडादूर अम्मल) वादिकेसरी वादिकेसरी सौम्यजामातृमुनि वाधुल वरदराघव वाधुल वरदादेशिक वाधुल वरदाचार्य विग्रहं देशिकाचार्य (19) विष्णुचित्त (रामामुजगीताभाष्य की टीका), पांचरात्ररक्षा, शतदूषणी, मीमांसापादुका, सेश्वरमीमांसा (जैमिनिसूत्र व्याख्या), न्यायपरिशुद्धि, न्यायसिद्धांजन, तत्त्वमुक्ताकलाप (सर्वार्थसिद्धिटीकासहित), रामानुजकृतवेदार्थ संग्रह की टीका (अप्राप्य), चरमोपाय निर्णय, निक्षेपरक्षा, इत्यादि कुल 114 ग्रंथ। वेदान्तदेशिककृत रहस्यत्रयसार की टीका, प्रपन्नधर्मसार । पराशरभट्टकृत अष्टश्लोकी की टीका। ब्रह्मसूत्रार्थसंग्रह ब्रह्मलक्षणवाक्यार्थसंग्रह, भावप्रकाशिकादूषणोद्धार, ब्रह्मशब्दार्थविचार, ब्रह्मशब्दार्थनिष्कर्ष, उपादानत्त्वविचार, कार्पण्यदर्पण। वेदान्त रामानुज मुनि वैकुण्ठनाथ (18-19) : वैष्णवदास गोविंदराज : शठकोपमुनि : मानयाथात्म्यनिर्णय) : रहस्यत्रयकारिका, तत्त्वविवेक, पांचरात्रकण्टकोद्धार। बालबोधिनी (भगवद्गीता की टीका)। ब्रह्मसूत्रार्थ टिप्पणी। आह्निककारिका। : तत्त्वसार, तत्त्वनिर्णय, प्रमेयमाला, प्रपन्नपारिजात : गीतासार रहस्यत्रयविवरणम्, तत्त्वदीप, अध्यात्मचिन्ता । अणुत्वसमर्थनम्। कैवल्यनिरुपणम्। श्रीतत्त्वरत्नम्। : ब्रह्मसूत्रभाष्यटिप्पणी (श्रीभाष्य की व्याख्या)। संगतिमाला, तैत्तिरीय उपनिषद्भाष्यम्, प्रमेयसंग्रह (अप्राप्य) श्रीतत्त्वसुधा, लक्ष्मीमंगलदीपक, अर्चावतार प्रामाण्यम्, सच्चरित्र परित्राणम्। ब्रह्माज्ञाननिरास द्रविडाम्नायशतकम् (शठकोपकृत तिरुवैमोली का अनुवाद) ब्रह्मसूत्रभाष्यार्थ पूर्वप्रकाश संग्रहकारिका) अधिकरणसारावली (इसपर टीका अधिकरणचिन्तामणि वरदाचार्यद्वारा), अधिकरणदर्पण, सच्चरित्ररक्षा, द्रमिडो पनिषतूसार, द्रमिडोपनिषत्तात्पर्यरत्नावली, रहस्यत्रयसार, न्यासविंशति, ईशावास्योपनिषद्भाष्यम्, शतदूषणी, तत्त्वटीका (श्रीभाष्य की व्याख्या), चतुःश्लोकीटीका, स्तोत्ररत्नटीका, गीतार्थ संग्रहरक्षा, तात्पर्यचन्द्रिका वीरराघव (19) वेंकटकृष्णाचार्य वेंकटराम : पंचकालक्रियादीप वेंकटार्य शतक्रतु श्रीनिवासाचार्य शिंगरार्य (19) शुद्धसत्त्वं रामानुजाचार्य वेदान्तदेशिक (13-14) शिष्टाचारप्रमाण्यम् भाष्यम् (रहस्यत्रयमीमांसा की व्याख्या), अथर्वशिक्षाविलास, अथर्वशिक्षाउपनिषद् व्याख्या, गायत्र्यर्थशतदूषणी भरन्यासक्रम। षष्ठपरांकुश(16) (अहेबिलमठ) श्रीकृष्णताताचार्य (19) श्रीनिवास (16) श्रीनिवास (पात्राचार्यपुत्र) श्रीनिवासताताचार्यशिष्य श्रीनिवासदास : ब्रह्मपदशक्तिवाद, श्रीवैष्णलक्षणम् : न्यासविद्याविजयम् : रामानुजसिद्धान्तसंग्रह : लघुभावप्रकाशिका (श्रीभाष्य की व्याख्या) शरणावरणत्त्व, सिद्धोपाय 478 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाचार्यशिष्य सुदर्शन, न्यासविद्यापरिष्कृति, (16) सहस्रकिरणी (शतदूषणी की टीका) श्रीनिवासदास (19) : णत्वतत्त्वपरिमाण, सत्संप्रदाय निरूपणम्, सदनुष्ठानदर्पण, सद्दर्शनसुदर्शनम्, संप्रदायचन्द्रिका, संप्रदायविचार, सिद्धान्तचन्द्रिका। श्रीनिवास परकालयति : विजयीन्द्रपराजय, दुरूहशिक्षा। श्रीनिवास राघव : रामानुजसिद्धांतसंग्रह। श्रीनिवास निकष (न्याय परिशुद्धि शठकोपयति की दीका) श्रीनिवास शिष्य : परमवैदिक सिद्धान्तरत्नाकर । (19) श्रीनिवाससूरि श्रुतप्रकाशिकासंग्रह श्रीनिवासाचार्य ब्रह्माज्ञाननिरास, प्रमाणदर्पण, यतीन्द्रमतदीपिका, न्यायसार (न्याय परिशुद्धिटीका), न्यासविद्याविजय। श्रीशैलरामानुजमुनि : त्यागशब्दार्थ टिप्पणी श्रीशैललक्ष्मणमुनि मुक्तिविचार कैवल्यशतदूषणी। श्रीशैल श्रीनिवासाचार्य : ब्रह्मपदशक्तिवाद, वेदान्तन्यायमालिका समरपुंगव पंचाम्नायसारसुंदरराजाचार्य प्रकाशिका (अधिकरण सारावली टीका)। सुंदरवीरराघव आगमप्रदीप, परार्थयज्ञाधिकरणनिर्वाह सुंदरेश सूरि श्रुतप्रकाशिका (श्रीभाष्य की (13-14) व्याख्या)। सुदर्शन गुरु वेदान्तविजयमंगलदीपक, श्रुतप्रकाश, सुबालोपनिषद्भाष्य। सुदर्शनसूरि तात्पर्यदीपिका (रामानुजकृत वेदार्थसंग्रह की टीका) सूत्रप्रकाशिका सूत्रप्रदीपिका (दोनों श्रीभाष्य की टीकाएं)। सेवेश्वराचार्य न्यायकल्पसंग्रह सौम्योपयन्तुमुनि पराशरभट्टकृत अष्टश्लोकी की व्याख्या। परिशिष्ट (13-अ) श्रीनिवासाचार्य : णत्त्वदर्पण (18) श्रीनिवासाचार्य : श्रीभाष्यप्रदीपिका । (19) श्रीभाष्यं रामानुजाचार्य : उपनिषद्भाष्य श्रीभाष्यं श्रीनिवासाचार्य : वेदान्तदेशिककृत रहस्यत्रयसार की टीका। श्रीरंगाचार्य ब्रह्मसूत्रभाष्य सिद्धान्तसार। श्रीराम मिश्र रामानुजकृत वेदार्थसंग्रह की टीका (अप्राप्य) षडर्थसंक्षेप (अप्राप्य)। श्रीरामशर्मा त्रिंशच्छलोकी। श्रीरामाचार्य प्रपन्नगायत्री निरूपणम् श्रीवत्सांक रहस्यत्रय जीवातु नारायणमुनि जिज्ञासासूत्रभाष्य भाव (17) प्रकाशिका। श्रीवत्सांक नारायण मिश्र : पांचरात्ररक्षा, अभिगमनसार । श्रीवत्सांक मिश्र : अपूर्वभंग। श्रावत्साक श्रीनिवास : ब्रह्मसूत्रभाष्य सारार्थसंग्रह । श्रीशैल देशिक : पुरुषकारमीमांसा (19) सिद्धान्तसंग्रह। तमिळनाडु में तंजौर राज्य के नायक और भोसले वंशीय महाराजाओं के आश्रित पंडितों द्वारा निर्मित कतिमय महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की यह सूचि है। इस सूची में निर्दिष्ट ग्रंथों का कोशान्तर्गत प्रविष्टियों में परिचय मिलेगा। सभी ग्रंथों का परिचय मिलना असंभव है। अघोरशिवाचार्यपद्धति। अच्युताभ्युदयम्। अद्भुतदर्पणम्। अद्भुतपंजरम्। अद्दतकौस्तुभ। अदैतदीपिका (व्याख्यासहित)। अदैतप्रकाश। अद्वैतरत्नाकर (व्याख्या)। अद्दतसुधाबिन्दु। अनंगविजयभाण। अपरोक्षानुभूति। अभिनयदर्पण। संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड / 479 For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलंकारराघवम्। अलंकारसूर्योदयम्। अवैदिकदर्शनम्। अश्वधाटीकाव्यम्। अहमर्थप्रकाशिका। आख्याषष्टि। आचार्यनवनीतम्। आत्मपरीक्षा। आत्मबोध (व्याख्या)। आत्मविद्याविलास। आत्मानात्मविवेक। आदिकैलासमाहात्म्यम्। आनन्दवल्लीस्तोत्र आनन्दसुन्दरीसट्टक। आपस्तम्बश्रौतप्रयोग। आमोदरंजनी। आर्तिहरस्तोत्र। आश्वलायनगृह्यसूत्रवृत्ति । ईश्वरगीताभाष्यम्। उग्रजातिपद्धति। उणादिमणिदीपिका। उणादिमणिनिघण्टु। उत्तरचम्पू। उन्मत्तकविकलशम्। उन्मत्तराघवम्। उपासनाकाण्डम्। उमामहेश्वरकथा। उमासंहिता। उषाहरणम्। कमालिनीकलहंसम्। कल्पतरु। कलिविडम्बनम्। कान्तिमतीपरिणयम्। कामकलानिधि। काव्यशब्दार्थसंग्रह। किरातविलासम्। किरातार्जुनीयनिरूपणम्। कुमारविजयचम्पू। कुलीरशतकम्। कुशलवविजयनाटकम्। कृष्णलीलातरंगिणी। कृष्णलीलाविलासम्। कृष्णविलासनाटकम्। कृष्णालंकार। कैवल्यदीपिका। कैवल्यनवनीतम्। कोकिलसन्देशम्। कोसलभोसलीयम्। क्रममण्डनपद्धति। क्रियादीपिका। गंगाविश्वेश्वरपरिणयम्। गणेशउपनिषद्। गणेशज्ञानसारम्। गणेशतत्त्वसुधालहरी। गणेशयोगसारम्। गीतातात्पर्यन्यायदीपिका। गीताभाष्य प्रमेयदीपिका। गीतार्थसंग्रह। गुणपद्धति। गुरुरत्नमाला। गोवर्धनोद्धरण। चतुर्दण्डिप्रकाशिका। चन्द्रशेखरविलासनाटकम्। चित्तवृत्तिकल्याणम्। जनार्दनमहोदधि। जयघोषणा। जानकीपरिणयम्। जीवन्मुक्तिकल्याणम्। जीवन्मुक्तिविवेक। जीवानन्दनाटकम्। ज्ञानविलासम्। ज्ञानामृतम्। ज्ञानेश्वरीटिप्पण। ज्ञानेश्वरीटीका। डमरुकम्। तत्त्वनिर्णय। तन्त्रदर्पण। त्यागराजविलासम्। त्यागेशप्रबन्धन्। दक्षिणमण्डलपद्धति। दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्। दयाशतकम्। दहरविद्याप्रकाशिका। दीपाम्बलमाहात्म्यम्। दीपाम्बलस्तव। देवीमाहात्म्यशतकम्। 480 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दौत्यपंचकम् द्रौपदीकल्याणम्। धन्वन्तरिविलासम्। धन्वन्तरिसारनिधि। धर्मकूटम्। धर्मविजयचम्पू। धर्मामृतमहोदधि। धातुरत्नावलि। नगराजपद्धति। नटराजपद्धति। नटेशविजयचम्पू। नरकवर्णनम्। नलाभ्युदयनाटकम्। नवग्रहचरितम्। नवमाणिमाला। नवरत्नमाला। नामामृततरंग। नामामृतरसार्णव। नामामृतरसोदयम्। नामामृतसूर्योदयम्। नामामृतौपायनम्। नित्योत्सवनिबन्ध । नीलापरिणयचरितम्। न्यायदर्पण। न्यायभास्कर। न्यायशिखामणि। न्यायेन्दुशेखर। पक्षिशास्त्र। पदमणिमंजरी। परब्रह्मतत्त्वनिरुपण। परमामृतम्। परिभाषावृत्तिकाव्य। परिभाषार्थसंग्रह। पर्णालपर्वतग्रहणाख्यानम्। पवित्रधर्म। पंचकोशमंजरी। पंचपादिकाविवरणोज्जीविनी। पंचप्रकरण। पंचरत्नकारिका। पंचरत्नप्रकाश। पंचरत्नप्रबन्धम्। पंचीकरणम्। पंचीकरणतात्पर्यचन्द्रिका । पारिजातप्रकरणम्। पार्वती कल्याणनाटकम्। पार्वतीपरिणयम्। प्रकाशदीपिका। प्रकाशिका (वेदान्तपरिभाषा की टीका) प्रणवदीपिका। प्रणवार्थशुभोदय। प्रतापविजयम्। प्रतापसिंहविजयम्। प्रतिज्ञाराघवम्। प्रत्यक्त्व-प्रकाशवाद। प्रबोधचन्द्रोदयसंजीवनी। प्रमामण्डलम्। प्रयोगरत्नम्। प्रयोगविवेक। प्रश्नोत्तररत्नमाला। प्रह्लादचरितम्। प्रायश्चितकुतूहलम्। प्रायश्चितदीपिका। ब्रह्मसूत्रवृत्ति। ब्रह्मसूत्रार्थचिन्तामणि। ब्रह्मानन्दविलास। बालमनोरमा (टीका)। बोधायनभाष्यसार। बोधायनमहाग्निचयनप्रयोग। बोधायनश्रौतव्याख्या। बोधायनाग्निष्टोमप्रयोग। भक्तवत्सलविलासनाटक। भगवद्गीता-भावपरीक्षा। भादृचिन्तामणि। भाट्टदीपिका। भाष्यरत्नावली। भास्करविलास (भुनभोग)। भूलोकदेवेन्द्रविलासनाटकम्। भोजनकुतूहलम्। भोजरायपद्धति। भोसले-वंशावली। मणिदर्पण। मदनमहोत्सवभाण। मदनसंजीवनी। मध्यसिद्धान्तकौमुदी। मनोधर्मपरीक्षा। मलमासनिर्णय। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/481 For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाभारतसारसंग्रह। महावाक्यविवेक। महिषशतकम् (व्याख्यासहित)। महोत्सवविधि। मंजुलमंजरी। मंजूषा (दुर्गासप्तशतीटीका)। मंत्रशास्त्रसंग्रह। मातृभूस्तव। माधवसौभाग्यम्। मीनाक्षीकल्याणम्। मोहिनीमहेशपरिणयम्। मृगेन्द्रपद्धति। यमुनामाहात्म्यम्। योगसुधाकर। रतिकल्याणम्। रतिमन्मथनाटकम्। रत्नत्रयवृत्ति। रागलक्षणम्। राघवचरितम्। राघवाभ्युदयम्। राजधर्मसंग्रह। राजरंजनविलासनाटक। राधाकृष्णविलासनाटकम्। राधामाधवसंवादम्। राधामाधवविलासचम्पू। रामकृष्णविलासम्। रामकृष्णामृत। रामनाथपद्धति। रामपट्टाभिषेकम्। रामविलासभाण। रामामृततरंगिणी। रामायणसारसंग्रह। रुक्मांगदचरितम्। रुक्मिणीकल्याणम्। रुक्मिणीसत्यभामासंवादम्। रूपावतार। लक्षणशतकम्। लघुवाक्यवृत्तिप्रकाश। लीलावतीकल्याणम्। वरुणपद्धति। वसुमतीपरिणयम्। वाजपेयप्रयोग। वादावली। वार्तिकसार। वार्तिकाभरण। विक्रमसेनाचम्पू। विघ्नेश्वरकल्याणम् विद्यापरिणयनाटकम्। विवरणदीपिका। विवरणोपन्यास। विवेकविजयम्। विवेकाध्याय। विशिष्टाद्वैतभंजनम्। विश्वविलासनाटकम्। विश्वसारानुसंधानम्। वेदान्ततत्त्वनिर्णय। वेदान्तदीपिका। वेदान्तनामरत्नसहस्रव्याख्या, (स्वरुपानुसन्धानम्)। वेदान्तपरिभाषा। वेदान्तवादसंग्रह। वेदान्तवादार्थ । वेदान्तशिखामणि। वेदान्तसंग्रहव्याख्यापरीक्षा। वेदान्तसारटीका। वेदान्तसारव्याख्या। व्यासतात्पर्यनिर्णय। शकुन्तलासंजीवनम्। शंकराभ्युदयम्। शंकराचार्यचरितम्। शचीपुरन्दरनाटकम्। शब्दभेदनिरूपणम्। शब्दार्थसमन्वय। शम्भुपद्धति। शरभराजविलासम्। शहाजीपदम्। शहाजीपदव्याख्या। शहाजीराजविलासनाटकम्। शहाराजाष्टपदी। शाद्विकरक्षाव्याख्या। शास्त्रदीपिकाव्याख्या। शाहविलासगीतम्। शाहेन्द्रविलासम्। शितिकण्ठविजयम्। शिवकामसुन्दरीपरिणयनाटकम्। शिवगीतातात्पर्यप्रकाशिका । शिवज्ञानबोध। 482 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्नपनपद्धति। स्मृतिमुक्ताफल। स्वानुभूतिप्रकाश। हरिभक्तिसिद्धार्णव। हिरण्यकेशिश्रौतसूत्रव्याख्यान । हृदयामृतम्। परिशिष्ट (13-आ) तंजौरराज्य शिवतत्त्वरत्नतिलक। शिवतत्त्वविवेकदीपिका। शिवभक्तिकल्पलतिका। शिवभक्तिलक्षणम्। शिवमानसिकपूजा। शिवरहस्यम्। शिवार्कमणिदीपिका। शिवार्चनचन्द्रिका। शृंगारतरंगिणी। शृंगारतिलकभाण। शृंगारमंजरी। शृंगारमंजरीशाहराजीयम्। शृंगारसर्वस्वभाण। शेवंतिकापरिणयम्। शैवकलाविवेक। शैवसिद्धान्त। शैवसंन्यासपद्धति। श्राद्धचिन्तामणि। श्राद्धप्रयोग। श्रीभाष्यानुशासन । श्रीविद्यागुरुपरम्परा। श्रुतिगीता। श्रुतिरत्नप्रकाशटिप्पणी। श्लेषशतकम्। षड्दर्शनसिद्धान्त। सदाशिवब्रह्मेन्द्रचरितम्। सवैद्यविलासम्। सभापतिविलासनाटकम्। सरफोजीचरितम्। सरस्वतीकल्याणम्। सर्वसिद्धान्तचन्द्रिका। संगीतसंप्रदायप्रदर्शिनी। संगीतसारामृतम्। सामरुद्रसंहिताभाष्यम्। साहित्यकुतूहलम्। साहित्यरत्नाकर। सिद्धान्तरत्नावली। सिद्धान्तसिद्धांजन। सीताकल्याणम्। सुभद्रापरिणयनाटकम्। सूत्रदीपिका। सूत्रप्रस्थानम्। स्त्रीधर्म। स्त्रीधर्मकथा। संस्कृत विद्या को राजाओं का आश्रय सदा सर्वत्र मिलता रहा। इनमें कुछ मुसलमान भी अपवाद रूप में रहे। हिंदू राजाओं में तमिळनाडु में तंजौर के पांड्य, नायक और विशेष कर व्यंकोजी या एकोजी भोसले (छत्रपति शिवाजीमहाराज के सौतेले भाई) के राजवंशद्वारा संस्कृत विद्या को विशेष प्रोत्साहन मिला। उस तंजौर राज्य में अनेक संस्कृत पंडितोंने ग्रंथनिर्मिति की उन में से कुछ उल्लेखनीय विद्वानों के नामों की सूची इस परिशिष्ट में प्रस्तुत है :परिशिष्ट- (13-अ) और (13-आ) मुख्यतः बायोग्राफिकल स्केचेस ऑफ डेक्कन पोएटस्-सपादक- K.C. वेंकटस्वामी, और हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर- ले.एम. कृष्णम्माचारियर- इन दो ग्रंथों पर आधारित है। अच्युताप्पानायक। अध्यात्मप्रकाश। अक्कण्णा । अखण्डानन्द। अधोरशिव। अण्णाशास्त्री। अप्पैया दीक्षित। अप्पावरी। अंबाजी पंडित। अष्टावधान कवि। अरुणाचल कविरायर अय्यण्णाशास्त्री। अय्याअध्वरी। आत्मबोध। आनन्दरायमखी। आदिराजेन्द्रचोल। उमामहेश्वर दीक्षितर्। उमापति शैव। एकोजी (व्यंकोजी) भोसले महाराज। कद्दू वीणा भागवत। कविगिरि। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 483 For Private and Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कामेश्वरी (कामाक्षा ) । कृष्णानन्दाश्रमी । कृष्णानन्दसरस्वती । कृष्ण देवराय । कृष्ण पंडित । कुलोत्तुंग चोल । ( प्रथम द्वितीय एवं तृतीय) कैवल्यतीर्थ । गंगाधर मखी । गंगाधरेन्द्र सरस्वती । गंगाधर वाजपेयी । गणपति भट्ट । गिरिराज कवि । गीर्वाणेन्द्र सरस्वती । गोवर्धन | गोविन्द दीक्षितर् । गोविन्दानन्द | घनम् सिनैया 1 घनश्याम । चन्द्रशेखरेन्द्रसरस्वती । चिदम्बर दीक्षितर् (अण्णा शास्त्री) । चोकनार्थ दीक्षितर । जयराम पिण्ड्ये । जयतीर्थ । दुण्ढि व्यास । तंगस्वामी । ताण्डवरायस्वामी। तिप्पाध्वरी । तिम्माजी बालाजी । तिरुमलै अय्यर । तुकोजी महाराज भोसले त्यागराज । त्यागराज दीक्षितर् । त्रिवेदी नारायण दीक्षितर् त्र्यंबक चौडाजी । त्र्यंबकराय मरवी । दीपाम्बल महारानी ( भोसले) द्राविडराम सूरि धर्मराज अध्वरी । नन्दिकेश्वर । नंबीयांदर नम्बी । नरहरि अध्वरी । नरकंठीरव शास्त्री 484 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only नालासुधी । नागोजी भट्ट। नभोज नारायण तीर्थ । नारोजी पंडित निगमज्ञान । नीलकण्ठ दीक्षित नीलकण्ठमखी। नीलकण्ठ शास्त्री । निर्मलमणि देशीकर । नृसिंहराय मखी । नृसिंहाश्रमी । यज्ञनारायण दीक्षितर् । यज्ञेश्वर अध्वरी । परमशिवेन्द्र सरस्वती । पोरिया कवि (वैनतेय) । पेट्टा दीक्षितर् । प्रकाशात्मयति । प्रतापसिंह महाराज भोसले । बादरायण । बालकृष्ण । बालकृष्ण भगवत्पाद । बालयज्ञवेदेश्वर दीक्षितर । भगवन्तराय मखी। भास्कर दीक्षितर् । भास्कर नारायण मखी। बोधेन्द्र | महादेवी अण्णावी । महादेव वाजपेयी । मकरन्दभूप । मल्हारी । मनगम्मा ( महारानी ) । मार्गसहायदीक्षितर । मतुर्भूत कवि । मेलतूर वेंकटराम भागवतर् । मेलतूर वीरभद्रैया। मुददूपलनि । मूर्तम्बा | मुत्तुस्वामी दीक्षितर । रामस्वामी दीक्षितर । रामानंद सरस्वती । रंगनाथ दीक्षितर रंगप्पा नायक । रघुनाथ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदाशिव दीक्षितर् (पाशुपत) सदाशिवबोधेन्द्र। सदाशिवब्रह्मेन्द्र। समयाचार्य। समुद्रराज। सर्वज्ञ सदाशिवबोध । सुंदरनाथाचार्य। सुबराम दीक्षितर। सुमतीन्द्र तीर्थ। सोंठी वेंकटसुब्बय्या। सोमकवि। सोमशंभु। परिशिष्ट (14) पंजाब (विभाजनपूर्व) तथा दिल्ली के ग्रंथकार और ग्रंथ रत्नखेट श्रीनिवास दीक्षितर्। राघवेन्द्र (वेंकटनाथ) राजचूडामणि दीक्षितर्। राजराज। रामनाथ मखी। रामपंडित। रामभद्र मखी। रामभद्र यतीन्द्र। रामकृष्ण अध्वरी। रामकृष्ण कवि। रामचंद्र सरस्वती। रामसेतु शास्त्री। रामस्वामी दीक्षितर्। रामानंद सरस्वती। लोकम्मादेवी। वनजाक्षी। वैद्यनाथ दीक्षितर् वांचेश्वर (कुट्टीकवि) वादिवेल वाद्यर। वासुदेवेन्द्र सरस्वती। वासुदेव वाजपेयी। विजयरंगा चोक्कनाथ नायक। विक्रम चोल महाराज। विरूपाक्ष कवि। विश्वपति दीक्षितर्। वेदाज्ञा शिवाचार्य। वेदकवि। वेंकटाद्रि दीक्षितर् वेंकटेड दीक्षितर् (गोविंदपुरम्) वेंकटकृष्ण दीक्षितर् वेंकटेश अय्यावल (श्रीधर) वेंकटेश कवि वेंकटेश मखी। शरफोजी महाराज भोसले। (प्रथम एवं द्वितीय) शेष अय्यंगार। शहाजी महाराज भोसले। शिवाज्ञा मुनीश्वर। शिवराम अध्वरी। शिवरामकृष्ण। श्रीनिवास दीक्षित। श्रीनिवास आर्य। श्यामशास्त्री। इस परिशिष्ट में दिल्ली तथा उसके परवर्ती प्रदेश (जम्मू काश्मीर विरहित) के ग्रंथकारों एवं ग्रंथों की सूची है। इसमें प्राचीन वाङ्मय में उल्लिखित 'सप्तसिन्धुदेश' का समावेश किया गया है। इस प्रदेश पर प्राचीन काल से परकीय बर्बर लोगों के आक्रमण निरंतर होते रहे अतः यहां का वाङ्मय मुख्यतः प्राचीन तथा अर्वाचीन काल में निर्माण हुआ और उसका प्रमाण भी अन्य प्रदेशों की तुलना में अल्प है। इसमें मध्ययुमेस निर्मित संस्कृत वाङ्मय का प्रायः अभाव है। ग्रंथकार अमरचंदशास्त्री(20) अश्वघोष (1) ग्रंथ : काश्मीरेतिहास, गीतिकादम्बरी बुद्धचरितम्, सौंदरनन्दम्, सारिपुत्रप्रकरणम्, गण्डिस्तोत्रत्रगाथा योगाचारभूमि, अभिधर्मसमुच्चय, महायानसमुच्चय, कार्तिकासप्तति (टीका) : भारतेतिह्यम् असंग(4) : भावलहरी इन्द्र विद्यावाचस्पति (20) ओमप्रकाश शास्त्री (20) काशीनाथ शर्मा (20) कुमारलात : वेदभास्कर (वैशिषिकसूत्रटीका) कल्पनाममण्डतिका (दृष्टान्तपक्ति) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /485 For Private and Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तुतिमुक्तावली सनातन धर्मकोश : दीनानाथ शास्त्री सारस्वत (20) दुर्गादत्त शास्त्री नरसिंहदेव शास्त्री (20) प्रभुदत्तशास्त्री (२०) परमानंद पाण्डे (20) पाणिनि (ई.पू. 6) पिंगल (ई.पू. 6) भट एम्.आर. डॉ. कृष्णलाल : शिंजारव-काव्यम् गुरूदयालु शर्मा (20) : काव्यामृतधारा डॉ. चतुर्वेदी बी.एम्. : महामनाचरितम् (मदनमोहन मालवीय का चरित्र) चारुदेवशास्त्री (20) : श्रीगांधिचरितम् शब्दापशब्दविवेक, प्रस्तावतरंगिणी अनुवादकला (वाग्व्यवहारादर्श) व्याकरणचन्द्रोदय, उपसर्गचंद्रिका डॉ. चौधुरी एन्.एन्. : काव्यतत्त्वसमीक्षा छज्जूराम विद्यासागर साधना (लघुसिद्धान्त (200) कौमुदी की व्याख्या) विद्यासागरी (काव्यप्रकाश की टीका) विबुधरत्नावली (संस्कृत साहित्य का इतिहास), परशुरामदिग्विजयम् (महाकाव्य), मूलचन्द्रिका (न्याससिद्धान्तमुक्तावली की टीका), परीक्षा (व्याकरणमहाभाष्य 1-2 आहिक की टीका), सारबोधिनी (वेदान्तसार की व्याख्या), सारबोधिनी (निरूक्त 5 अध्यायों की टीका). दुर्गाभ्युदयम् (नाटक), सुलतानचरित्रम्, छज्जूरामायणम् (नाटक), कुरुक्षत्रमाहात्म्यम् साहित्यबिन्द (सा.शा.), कर्मकाण्डपद्धति, रसगंगाधरखंडनम् भिक्षारामशास्त्री मातृचेट(1) : तर्जनी, राष्ट्रपथ-प्रदर्शनम् : सौभाग्यवती (न्यायसिद्धान्त मुक्तावली की व्याख्या), तर्कसंग्रहव्याख्या : संस्कृतवागविजयम् (नाटक) गणशसम्भवम् (महाकाव्य) : जया प्रशस्ति दिल्ली दिग्दर्शनं च : अष्टाध्यायी पिंगलसूत्र (छंदःशास्त्र) शिवानन्दविलासम्, गुरुसपर्या, गमकृष्णसहस्रनाम, श्रीरामदासगीता, कांचीकामकोटीपीठमहिम्नः -- स्तोत्रम् नहरुवंशम्, राजेन्द्रकाव्यम्, पटेलचरितम्, गांधिचरितम्, रवीन्द्रचरितम् वर्णनार्हवर्णनस्तोत्रम् त्रिरत्नमंगलस्तोत्रम् सम्यक्संबुद्ध लक्षणस्तोत्रम् एकोनरिकस्तव, अध्यर्धशतकम्, त्रिरत्नस्तोत्रम्, आर्यतारास्तोत्रम्, मातृचेटगीति, कलियुगपरिकथा, सर्वार्थसिद्धिनामस्तोत्रराज, महाराजकनिष्कलेख : कथाशतकम्, कबीरचरितम्, परतत्त्वदिग्दर्शनम् मुकुन्दकोश (ज्योतिष), ज्योतिषकोश दयानन्ददिग्विजयम्, कुमुदिनीचन्द्र (उपन्यास), प्रकृतिसौंदर्यम् (नाटक), दयानन्दलहरी : : संवादमाला, कुसुमलक्ष्मी रसिकबोधिनी (पितारामप्रतापशास्त्री के कल्पलता की व्याख्या) माधवाचार्य(20) मुकुन्दशर्मा (20) मेधाव्रतशास्त्री जगदामशास्त्री (20) निरुक्त छत्रसालचरितम् (गद्यकाव्य), संस्कृतरामायणम् (गीतिकाव्य) नैषध टीका, निरुक्त टीका शंगार-वैराग्य-नीति-शतकम् विप्रपंचदशी, श्रीचंदचरितम्, यास्काचार्य (ई.पू.7) रत्नपारखी ए.आर्. डॉ. रसिकबिहारी जोशी : तेजोभानु (20) (अभिनव भर्तृहरि) 486 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वसुबन्धु(4) वसुबन्धु (द्वितीय) विश्वनाथशास्त्री व्याडि (ई.पू. 7) श्यामदेव पराशर आर्यदेवकृतषट्सागर की व्याख्या, मैत्रेयकृत मध्यन्तविभंग की टीका, दशभूमिकाशास्त्र, सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश, वज्रच्छेदिका-प्रज्ञापारमिता, बोधिचित्रोत्पादनशास्त्र : अभिधर्मकोश : वैशेषिकसूत्रटीका : संग्रह राजसिंहचरितम्, कादम्बिनी, अन्योक्तिशतकम्, काव्यदोष, ताजिकनीलकंठी-टीका : श्रीगुरूगोविंदसिंहचरितम् बोधिसत्त्वचरितम्, बृहत्तरभारतम् बोधायनभाष्यवृत्ति, आदर्शटीका (व्युत्पत्तिवाद और शक्तिवाद की टीका) अमरमाणिक्य : वैकुंठविजयनाटक अभिमियनाथ चक्रवर्ती : धर्मराज्यम् (नाटक) (20) अंबिकाचरण देवशर्मा : पिकदूतम् अरूणदत्त : सर्वांगसुंदरी (अष्टांगहृदय की टीका) आशुतोष सेनगुप्त पिकदूतम् इन्दुमित्र अनुन्यास (न्यास की टीका) इन्दुमति (अष्टाध्यायी की वृत्ति) ईशानचंद्र सेन राजसूयसत्कीर्तिरत्नावली ईश्वरचंद्र विद्यासागर : श्लोकमंजरी (सृक्तिसंग्रह) (19) ईश्वरपुरी : रुक्मिणीस्वयंवरम् उज्ज्वलदत्त : उणादिवृत्ति उमाचरण बन्धोपाध्याय : संपादक-संस्कृतभारती पत्रिका उमादेवी (19) आभाणकमाला उपेन्द्रनाथ सेन मकरंदिका, कुंदमाला, (19-20) पल्लिच्छवि (तीनों उपन्यास) कपिलदा तर्काचार्य आलोकतिमिरवैभवम्, (काश्यपकवि) आशुतोषवदानम्, गीतांजलि (अनुवाद), योगिभक्तचरितम्, शैशवसाधनम्, सत्यानुसभावम् डॉ. सत्यव्रत शास्त्री सुदर्शनाचार्य : दातकाचार्य परिशिष्ट (15) बंगाल में निर्मित संस्कृत वाङ्मय (1) प्रस्तुत परिशिष्ट में बंगाल (विभाजन पूर्व) में प्राचीन काल से आज तक निर्मित वाङ्मय के ग्रंथकार तथा उनके द्वारा लिखित अन्यान्य प्रकार के ग्रंथों का यथाशक्ति चयन किया गया है। ग्रंथकार के नाम के समीप जो संख्या लिखी है वह उनके आविर्भाव की शताब्दी का द्योतक है। ग्रंथ का स्वरूप (काव्य, नाटक, चम्प इ.) भी ग्रंथनाम के आगे कोष्टक में निर्दिष्ट किया है। परिशिष्ट- (15-अ) के अन्तर्गत बंगाल में निर्मित टीकात्मक वाङ्मय की सूची है। [प्रस्तुत परिशिष्ट, बेंगाल्स कॉन्ट्रिब्यूशन टू संस्कृत लिटरेचर-ले. कालीकुमार दत्त शास्त्री,- इस प्रबन्ध पर मुख्यतः आधारित है।] कर्णपूर : वर्णप्रकाश। । कविकर्णपूर कृष्णाह्निककौमुदी, (परमानंद) आनंदवृन्दावनचम्पू, चैतन्यचरितामृतम्, गौरांगेशोद्दीपिकवृत्तमाला, अलंकारकौस्तुभ। कविचन्द्र : चिकित्सारत्नावली। कविचन्द्र दत्त : काव्यचन्द्रिका (सा.शा.) कवितार्किक : कौतुकरत्नाकर (प्रहसन)। कविराम : दिग्विजयप्रकाश। कालीचरण वैद्य : चिकित्सासारसंग्रह। कालीचंद्र : काव्यदीपिका (सा.शा.) मुखोपाध्याय (१९-२०) कालिदास चक्रवर्ती : धातुप्रबोध कालीपद-तर्काचार्य काव्यचिन्ता (सा.शा.) (19-20) नलदमयंतीयम् (ना.), प्रशांतरत्नाकर (ना.), ग्रंथकार अजयपाल अजितनाथ न्यायरत्न अन्नदाचरण तर्कचूडामणि (20) ग्रंथ : नानार्थसंग्रह : बकदूत : रामाभ्युदयम्, महाप्रस्थानम्, सुमनोंजलि, ऋतुचक्रम्, तदतीतमेव, काव्यचंद्रिका (साहित्यशास्त्र) अमरमालाकोश अमरदत्त संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /487 For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गंगानाथ सेन (19-20) गंगादास गंगारामदास गंगाधर कविराज गिरीश विद्यारत्न गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य (10-20) माणवकगौरवम् (ना.), स्यमन्तकोद्धारव्यायोग। कुंजबिहारी : संपादक आर्यप्रभा पत्रिका । तर्कसिद्धान्त कृष्णकान्त कवि : सत्काव्यकल्पद्रुम (19) (सूक्तिसंग्रह) कृष्णकान्त गोपाललीलामृतम्, विद्यावागीश चैतन्यचंद्रामृतम्, कामिनीकामकौतुकम्, शब्दशक्ति प्रकाशिका-टीका। कृष्णदास कर्णानन्दम्। कृष्णदास कविराज : गोविंदलीलामृतम्, कृष्णलीलास्तव। कृष्णनाथ : वातदूतम् न्यायपंचानन कृष्णनाथ : वैजयन्ती, आनंदलतिकाचम्पू । (और पत्नी ) कृष्णमिश्र : प्रबोधचंद्रोदय (नाटक) कृष्णसार्वभौम : पादांकदूतम् केदारभट्ट : वृत्तरत्नाकर, वृत्तमाला। क्षितीशचंद्र चट्टोपाध्याय : षष्टितंत्रम् (कथासंग्रह), (19-20) प्रतिज्ञापूरणम् (मूल रवीन्द्रनाथ), निष्कृति (मूल शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय) गोपालचक्रवर्ती गोपालदास : गोपालसेन कविराज गोपीनाथ चक्रवर्ती गोपेन्द्रनाथ गोस्वामी गोलोकनाथ बंद्योपाध्याय गोवर्धन गोवर्धन गोविंददास स्वास्थ्यवृत्तम्, सिद्धान्तनिदानम् (आयुर्वेद) छंदोमंजरी, छंदोगोविंद, वृत्तमुक्तावली शरीरनिश्चयाधिकार दुर्गवधकाव्य, लोकालोकम्, पुरुषीयम्, हर्षदयम् शतकावली (सूक्तिसंग्रह) श्रीरासमहाकाव्यम् माथुरम्, नाभागचरितं (ना.), भामिनीविलास (ना.), मदालसा कुवलयाश्व (ना.) । अमरकोशटीका। परिजातहरणनाटक। छंदोमंजरी, चिकित्सामृतम्। योगामृतम् (वैद्यक) कौतुकसर्वस्वप्रहसनम्। पादपादुका। देव्यागमनकाव्यम्, होरकज्युबिलीकाव्यम्। आर्यासप्तशती गणसंग्रह सतकाव्यरत्नाकर, कर्णामृतम्, संगीतमाधवम् काव्यदीपिका, सारबोधिनी (काव्यप्रकाशटीका). काव्यपरीक्षा (सा.शा.) नाडीपरीक्षा। रामचरितम्। कादम्बरीकथासारकाव्यम्। काकदूतम्। चिकित्सासारसंग्रह आयुर्वेदीपिका (चरकटीका), भानुमती (सुश्रुत टीका), शब्दचंद्रिका (वैद्यकशब्दकोश), द्रव्य गुणसंग्रह। क्षेमीश्वर गोविंददास : चंडकौशिक (नाटक), नैषधानंद (नाटक)। : काव्यप्रकाश की टीका । गदाधरचक्रवर्ती भट्टाचार्य गंगादास : गोविंदराम कविराज गौड अभिनंद गौरगौपालशिरोमणि चक्रपाणिदत्त गंगाधर कविराज (19-20) अच्युतचरितम्, गोपालशतकम्, दिनेशशतकम्, छंदोमंजरी, कविशिक्षा (सा.शा.) तारावतीस्वयंवर (नाटिका), प्राच्यप्रभा (सा.शा.), धातुपाठ, गणपाठ, शब्दव्युत्पत्तिसंग्रह, अष्टाध्यायी की वृत्ति। जलकल्पतरु (चैरकटीका) आयुर्वेदसंग्रह, आयुर्वेदपरिभाषा, भैषज्यरसायन, मृत्युजयसंहिता (वैद्यक)। गंगाधर कविराज चतुर्भुज चारुचंद्रराय (19-20) चित्रसेन चिरंजीव भट्टाचार्य हरिचरितम् : एकवीरोपाख्यान (उपन्यास)। : चित्रचम्यू। : कल्पलता-शिवस्तोत्रम्, 488 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (रामदेव या वामदेव शृंगारतटिनी, विद्वन्मोदतभट्टाचार्य) रंगिणी, माधवचम्पू , वृत्तरत्नावली चिरंजीव शर्मा काव्यविलास (सा.शा.) चैतन्यदेव : गोपालचरितम्, प्रेमामृतम्, दानकेलिचिन्तामणि। चन्द्रकान्त तर्कालंकार : कातंत्रछंदःप्रक्रिया (19-20) (व्याख्या), अलंकारसूत्र, कौमुदी-सुधाकर (नाटक) सतीपरिणयम, चंद्रवंशकाव्यम्। चन्द्रकिशोर काव्य- : मूढमर्दनम् (नाटक), वाचस्पति (19-20) चन्द्रगोमी : चान्द्रव्याकरणम्. लोकानन्दम् (नाटक) चन्द्रमाणिक्य : उद्भटचंद्रिका (सूक्तिसंग्रह) (19) अन्यापदेशशतकम्। चन्द्रशेखर : सूर्जनचरितम्। चन्द्रशेखरभट्ट : वृत्तमौक्तिकम्। जगन्नाथदत्त (19-20) : चिकित्सारत्न जगन्नाथ मिश्र : छन्दःपीयूष जगदीश तर्कपंचानन : रहस्यप्रकाश (काव्यप्रकाश-टीका) जगदीश्वर तालंकार : हास्यार्णव (नाटक) जटाधर अभिधानतंत्रकोश जतीन्द्रनाथ भट्टाचार्य : काकली (काव्यसंग्रह) जतीन्द्रविमल महाप्रभुहरिदासम्, चौधरी (डॉ.) (20) भक्तिविष्णुप्रियम्, प्रीतिविष्णुप्रियम्, भारतहृदयारविन्दम्। विमलयतीन्द्र । शक्तिशारदम् इत्यादि (अनेक नाटकों के लेखक) जयराम न्यायपंचानन : रहस्यदीपिका (काव्यप्रकाशटीका) जयचंद्र भट्टाचार्य संपादक- संस्कृतचन्द्रिका (20) (पत्रिका) जिनेन्द्रबुद्धि काशिका विवरणपंजिका (न्यास) जीव गोस्वामी गोपालचम्पू, गोपालविरुदावली, हरिनामामृतव्याकरणम् (बृहत्), लोचनरोचनी (उज्जवलनीलमणिकी टीका), दुर्गसंगमनी (भक्तिरसामृतसिंधुकी टीका), नाटकचंद्रिका, रसामृतमाधवमहोत्सव। जीव न्यायतीर्थ सारस्वतशतकम्, (20) कृष्णकुतूहलम्, पुरुषरमणीयम्, विवाहविडम्बनम्, रागविरागम्, कुमारसम्भवम्, दरिद्रदुर्दैवम्, शंकराचार्यवैभवम्, पांडवविक्रमम्, रघुवंशनाटकम्, महाकविकालिदासम्, शतवार्षिकम्, समयसागरकल्लोलम्, कैलासनाथविजयम् क्षुत्क्षेमीयम्, चिपिटकचर्वणम्, विपर्ययम्, चंडताडवम् जीवानन्द (19) काव्यसंग्रह (सूक्तिसंग्रह)। ताराचन्द्र : कनकलता, रामचंद्रजन्मभाण, शृंगाररत्नाकर। तारानाथतर्कवाचस्पति : आशुबोध, शब्दार्थरत्न (दोनों व्याकरण ग्रंथ)। त्रिलोचनदास : कातंत्रवृत्ति, अमरकोशटीका । त्रिलोचनदास : तुलसीदूतम्। त्रैलोक्यमोहन गुह नियोगी: मेघदौत्यम्। दीननाथ न्यायरत्न (19) : काव्यसंग्रह (सूक्तिसंग्रह)। दुर्गाप्रसन्न तीन नाटक- मणिमद्वध, विद्याभूषण (20) प्रायोपवेशनम्, एकलव्यगुरुदक्षिणम्। देवनाथ तर्कपंचानन : काव्यकौमुदी (काव्यप्रकाश टीका), रसिकप्रकाश (सा.शा.)। : पाणिनिप्रभा। वंद्योपाध्याय (19) देवेन्द्रनाथसेन : आयुर्वेदसंग्रह। (19-20) धरणीदास अनेकार्थसार (धरणीकोश) धरणीधर व्याकरणसर्वस्व धर्मदास चान्द्रव्याकरण-टीका, विदग्धमुखमण्डन। धूर्जटी (20) भक्तिविजयनाटक धोयी पवनदूतम्, सत्यभामा-कृष्णसंवाद। ध्यानेश नारायण वार्तागृहनाटक, मुक्तधारा चक्रवर्ती (20) : (दोनों के मूल लेखक रवीन्द्रनाथ टैगौर) ध्रुवानंद मिश्र : महावंशावली देवेन्द्र संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 489 For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नंदकुमार शर्मा नरेन्द्रनाथ चौधरी (20) नन्दन न्यायवागीश न्यायवागीश भट्टाचार्य नारायणचन्द्र स्मृतितीर्थ नारायणपंडित नारायण बंद्योपाध्याय नारायण भट्टाचार्य नारायण विद्योविनोद नित्यानंद नित्यानंद भट्टाचार्य (19-20) नित्यानंद स्मृतितीर्थ (20) नीतिवर्मा नृत्यगोपाल काव्यरत्न (20) नृसिंह नृसिंह कविराज पद्मनाभ पद्मनाम मिश्र (प्रद्योतन भट्टाचार्य) पद्मश्रीजान परमानंद चक्रवर्ती परमानन्द सेन (कविकर्णपूर) पंचानन तर्करत्न पंचानन तर्करत्न (19-20) पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर पुरुषोत्तम पुरुषोत्तम : : 00 : : 43 : : : .... : धातुरलाकर कारिकावलि (व्याकरण) शब्दार्थसंदीपिका ( अमरकोशटीका)। : कृष्णानंदकाव्यम् । 50 कालिदासनाटक । : : : : : : : : राधामातरंगिणी काव्यतत्त्वसमीक्षा : (प्रबन्ध) । तंत्रीपोद्योतन (टीका) काव्यमंजरी (कुवलयानंद की टीका) भुवनेश्वर वैभव (प्रवासवृत्त) हितोपदेश । तपोवैभवम्, गुप्तधनम्, य्ववधानम् (तीनों नाटक ) कीचकवधम् (चित्रकाव्य) माधवसाधनम् (नाटक) मधुमती (वैद्यक) सुपद्मव्याकरण । शरदागम (चंद्रालोककी टीका) नागरसर्वस्व (कामशास्त्र) विस्तारिका (काव्यप्रकाशटीका) माला ( अमरकोश टीका) चैतन्यचन्द्रोदय (नाटक)। www.kobatirth.org पार्थाश्वमेधम्, सर्वमंगललोदयम् । अमरमंगलम् कलंकमोचनम् (दोनों नाटक) । कारककौमुदी तथा काव्य प्रकाश, काव्यादर्श, काव्यालंकार, भट्टिकाव्य और कलापव्याकरण की टीकाएँ। विष्णुभक्तिकल्पलता सूक्तिमुक्तावली । त्रिकांडशेष ( अमरकोश का परिशिष्ट), 490 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड पुरुषोत्तम पूर्णचन्द्र पूर्णचन्द्र डे (19) प्रबोधानंद सरस्वती प्रमथनाथ तर्कभूषण प्रभाकर भट्ट प्रियंवदा बलदेव विद्याभूषण बलराम बाणेश्वर विद्यालंकार बुधोदा (20) बेचाराम न्यायालंकार भट्टनारायण भट्टाचार्य भरतमल्लिक For Private and Personal Use Only : : प्राणपणा (लघुवृत्ति), : : : : 44 : : :: : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..... हारावली कोश, द्विरुप कोश, एकाक्षर कोश । भाष्यवृत्ति, परिभाषावृत्ति (ललितपरिभाषा) कारककारिका, दुर्घटवृत्ति, गणवृत्ति, धातुपारायण उद्भटसागर (सूक्तिसंग्रह) संगीतमाधवम्, वृन्दावनमहिमामृत, चैतन्यचंद्रामृतम् कोकिलदूतम। गरोदय विजयप्रकाश । रसप्रदीप, लाघुसप्तशतीस्तोत्रम् । श्यामरहस्यम् । व्याकरण कौमुदी छंद: कौस्तुभ साहित्यकौमुदी (काव्यप्रकाश की टीका), काव्यकौस्तुभ । पद्यावली, स्तनमाला टीका, उत्कलिको टीका प्रबोधप्रकाश (व्याकरण) चंद्राभिषेकनाटक, चित्र चम्पू, रहस्यामृतमहाकाव्य, शिवशतकम्। धरित्रीपति निर्वाचनम्, ननाविताडनम् अथ किम् (तीनों नाटक) आनंदतरंगिणी (प्रवासवृत्त), काव्यरत्नंकार (सा.शा.) वेणीसंहार नाटक | नाददीपक । एकवर्णार्थसंग्रह, द्विरुपध्वनिसंग्रह, लिंगादिसंग्रह, मुग्धबोधिनी ( अमरकोश टीका), उपसर्ग वृत्ति, कारकोल्लास, सुखलेखन द्रुतबोधव्याकरणम् Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्रुविसर्जनम् दशाननवधम् (महाकाव्य) : : चरकसंहिता टीका। भरतसेन चंद्रप्रभा, रत्नप्रभा, सवैद्यकुलतत्तवम् भवभूतिविद्याभूषण संपादक-विद्योदयपत्रिका। भवानन्द सिद्धान्त कारकाद्यर्थनिर्णय वागीश भूदेव मुखोपाध्याय : रसजलनिधि । (आयुर्वेद) भोलानाथ गंगटिकरी : पान्थदूतम् भोलानाथ : काव्यरत्नसंग्रह। मुखोपाध्याय महादेव : शब्दसिद्धि। महादेव शाण्डिल्य : संबंधतत्त्वार्णव योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि योगीन्द्रनाभ सेन (19-20) रजनीकान्त साहित्याचार्य (19-20) : दशमहाविद्याशतकम्, चत्तलविलाप (चित्रकाव्य) मंगलोत्सवम् (नाटक), विबुधविनोद (नाटिका), संस्कृतबोध व्याकरण। : हरिश्चन्द्रनाटकम्। रणेन्द्रनाथ गुप्त (19-20) रमा चौधुरी (डॉ.) (20) रत्नभूषण (20) रघुनाथ : कविकुलकोकिलम् (नाटक), पल्लिकमलम् (नाटक) : काव्यकौमुदी (साहित्यशास्त्र)। : त्रिकांडचिंतामणि (अमरकोश टीका) : छंदोरत्नाकर : हरिस्मृतिसुधाकर (संगीत) : कलापतत्त्वार्णव। रत्नाकर शांतिदेव रघुनंदन रघुनंदन आचार्यशिरोमणि रघुनंदन गोस्वामी रघुनाथदास महेशचंद्र तर्कचूडामणि : भूदेवचरितम्, दिनाजपुरराज, वंशचरितम्, काव्यपेटिका महेश मिक्ष निर्दोषकुलपंजिका महेश्वर न्यायालंकार : विज्ञप्रिया (साहित्यदर्पण-टीका), भावार्थचिन्तामणि (काव्यप्रकाश टीका)। मदन (बालसरस्वती) : पारिजातमंजरी (विजयश्री) (नाटक)। मधुसूदन कृष्णकुतूहल नाटक। मधुसूदन काव्यरत्न : पंडितचरितप्रहसनम् (19) मधुसूदन सरस्वती : आनंदमंदाकिनी मन्मथनाथ भट्टाचार्य : सावित्रीचरितम् (नाटक) (20) माथुरेश विद्यालंकार : शब्दार्थ-रत्नावली, सारसुंदरी (अमरकोश टीका) माधव : उद्धवदूतम्। मानांक वृन्दावनयमकम्। मीननाथ : स्मरदीपिका (कामशास्त्र) मुरारि : अनर्घराघवम् (नाटक) मुरारिगुप्त : श्रीकृष्णचैतन्य-चरितामृतम्। मेदिनीकर मेदिनीकोश। मैत्रेयरक्षित तंत्रप्रदीप (न्यास की टीका) धातुप्रदीप (पाणिनीय धातुपाठ की टीका), दुर्घटवृत्ति) यादवेन्द्र रॉय आरण्यकविलासम्, (20) मंगलोत्सवम्, स्वर्गीय प्रहसनम्। यादवेश्वर तर्करत्न : राज्याभिषेककाव्यम्, स्तवकदंब, कृष्णकेलिसुधाकर, उद्धवचरितम्, गौरांगचम्पू। हंसदूतम्, मुक्ताचरितचम्पू स्तवावली। : सवैद्यकुलपंजिका। : रसरत्नम्, कवितावली रमाकान्त दास राखालदास न्यायरत्न राघवेन्द्र कविशेखर : भवभूतिवार्ताचम्पू राजवल्लभ-राजविजय नाटकम्, द्रव्यगुण (वैद्यक)। : छंदःकौस्तुभ। : संगीततरंग, संगीतरत्न ।। राधादामोदर राधामोहन सेन रामकवि : शृंगाररसोदय रामकुमार न्यायभूषण : कलापसार (कातंत्र व्याकरण) रामकृष्ण भट्टाचार्य : नामलिंगाख्या कौमुदी रामगोपाल : कीरदूतम् रामचंद्र ऐन्दवानन्दम् (नाटक) रामचंद्र कविभारती : वृत्तरत्नाकरपंजिका, भक्तिशतकम् (बुद्धस्तुति) संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड/491 For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लंबोदर वैद्य : गोपीदूतम् रामचंद्र गुह : रसेन्द्र चिन्तामणि (वैद्यक) रामचंद्र चक्रवर्ती : कातंत्ररहस्य रामचंद्र तर्कवागीश : कालापदीपिका (अमरकोश टीका) उणादिकोश रामचंद्र न्यायवागीश : अलंकार (काव्य) चन्द्रिका रामचंद्र विद्याभूषण : परिभाषावृत्ति (मुग्धबोध व्याकरणविषयक) रामचंद्र शर्मा : अलंकारमंजूषा (अलंकारचंद्रिका टीका) रामचरण तर्कवागीश : विवृत्ति (साहित्यदर्पण टीका) चट्टोपाध्याय रामविलास रामजय तर्करत्न : कालविलासम् (नाटक) रामतारण शिरोमणि : प्रद्युम्नविजयम् (नाटक) रामदयाल तर्करत्न : अनिलदूतम् रामदेव विद्याभूषण : वैदिक कुलमंजरी रामनाथ तर्करत्न (19) प्रभातस्वप्रम् (सटीक) रामनाथ कारकरहस्यम्, त्रिकांडविवेक विद्यावाचस्पति (अमरकोष टीका) राममाणिक्य : कृतार्थमाधवम् (नाटक) रामानंद शर्मा कुलदीपिका रामराम शर्मा मनोदूतम् राम सेन रसामृतम् रायमुकुट पदचन्द्रिका (बृहस्पति मिश्र) (अमरकोश पंजिका) रुद्र न्यायपंचानन भाव (सिंह) विलास, वृन्दावनविनोद रुद्र न्यायवाचस्पति भ्रमरदूतम्, पिकदूतम् रूप गोस्वामी स्तवमाला, गोविंदबिरुदावली,, उत्कलिकावल्लरी, पद्यावली, हंसदूतम्, उद्धवसंदेश, दानकेलिकौमुदी (भाण), विदग्धमाधवम् (नाटक), ललितमाधवम् (महानाटक) उज्ज्वलनीलमणि (सा.शा.) हरिनामामृत व्याकरणम् (लघु) लक्ष्मण माणिक्य सत्काव्यरत्नाकर विख्यातविजयम् (नाटक), कुवलयाश्वचरितम् (नाटक) लक्ष्मीकान्त दास कामकुमारहरणम् (20) (हरिहरयुद्धम्) नाटकम् ललितमोहन भट्टाचार्य : खांडवदहनम् (महाकाव्य) लक्ष्मीधर : चक्रपाणिविजयम् वंगसेन चिकित्सासंग्रह वत्सलांछन भट्टाचार्य रामोदयम् (नाटक) वाचस्पति : भवदेव-कुलप्रशस्ति वासुदेव सार्वभौम छंदोरत्नाकर विजयरक्षित व्याख्यामधुकोष (माधवनिदान की टीका) विद्याकर कवीन्द्रवचन-समुच्चय विद्यानाथ द्विज तुलसीदूतम् विधुशेखर शास्त्री यौवनविलासम्, (19) उमापरिणयम्, हरिश्चन्द्रचरितम्, दुर्गासप्तशती, मित्रगोष्ठी (मासिक पत्रिका), चंद्रप्रभा (उपन्यास) भरतचरितम् विधुशेखर भट्टाचार्य : मिलिन्दपन्हो (प्राकृत) का अनुवाद विनोदविहारी : कादम्बरी नाटकम् काव्यविनोद (19-20) विमलकृष्ण मोतीलाल : रथरज्जूनाटक (मूल लेखक(20) रवीन्द्रनाथ टैगोर) विशाखदत्त मुद्राराक्षसम् (नाटक) विश्वनाथ चक्रवर्ती सारबोधिनी (अलंकार कौस्तुभ की टीका), श्रीकृष्णभावनामृतम् (महाकाव्य), निकुंजकेलिबिरुदावली, गौरांगलीलामृतम्, चमत्कारचन्द्रिका विश्वनाथ न्यायपंचानन : अलंकारपरिष्कार विश्वनाथ सिद्धान्त- : सूक्तिमुक्तावली पंचानन विश्वनाथ सेन पथ्यापथ्यविनिश्वयः विश्वेश्वर विद्याभूषण [बारह नाटकों के लेखक] - (20) उत्तरकुरूक्षेत्रम, विष्णुमाया, उमातपस्विनी, द्वारावती, वाल्मीकिसंवर्धनम्, चाणक्यविजयम्, प्रबुद्धहिमाचलम्, दस्युरत्नाकरम, 492 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीनिवास श्रीमान् उपाध्याय (मनसाराम) विश्वेश्वररविद्याभूषण मातृरंजनम्, अरूणाचलकेतनम्, ओंकारनाथमंगलम् : काव्यकुसुमांजलि, गंगासुरतरंगिणी, वनवेणु (गीतिकाव्य) मनोदूतम् । कविकुतूहलम् (सा.शा.) श्रीश्वर विद्यालंकार : गणित-चूडामणि, शुद्धदीपिका (ज्योतिष) न्यासोद्दीपन (न्यास की टीका) विजया (परिभाषावृत्ति-टीका) देवीशतकम्, विजयिनी (व्हिक्टोरिया) काव्यम्, दिल्लीमहोत्सवम्, विक्रमभारतम् कुण्डलिव्याख्यान (पातंजलमहाभाष्य-टीका) विष्णुदास श्रुतपाल विष्णुपद भट्टाचार्य : कांचन कंचुकीयम् (नाटक) (19-20) विष्णुपद भट्टाचार्य : कपालकुंडला (नाटक) [मूल-बकिमचंद्र का उपन्यास] बिहारी कृष्णदास पारसिकप्रकाश (कोश) वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य : कविकालिदासम् (नाटक), (20) शार्दूलशकटम् (ना.), सिद्धार्थचरितम् (ना.), वेष्टनव्यायोग, लक्षण व्यायोग, शरणार्थिसंवादम् (ना.), कलापिका (सनिटसंग्रह) वीरेश्वर पंडित रसरत्नावली (सा.शा.) वृन्दावनचंद्र अलंकारकौस्तुभदीधितितर्कालंकार प्रकाशिका वेणीदत्त तर्कवागीश : अलंकारचंद्रोदयम् (श्रीवर) वेदान्तवागीश भोजराज सच्चरित्रम् भट्टाचार्य (नाटक) वैद्यनाथ वाचस्पति चित्रयज्ञम् (नाटक) (19) शंकर सेन : नाडीप्रकाश शर्वदेव : परिभाषावृत्ति शारदारंजन राय मितभाषिणी (19-20) (सिद्धान्तकौमुदी टीका) शिवप्रसाद भट्टाचार्य : उत्तरखंडयात्रा शिवराम चक्रवर्ती : बाणविजयम् शुभंकर : संगीतदामोदर (नाट्यशास्त्र) श्यामकुमार टैगोर : जर्मनी काव्यम् श्रीकान्तदास वैद्यवल्लभ श्रीकृष्ण तर्कालंकार : चंद्रदूतम् श्रीकृष्ण सार्वभौम : कृष्णपदामृतम् श्रीधरदास : सदुक्तिकर्णामृतम् श्रीधर मिश्र वैद्यमहोत्सव षष्ठीदास विशारद धातुमाला सतीशचंद्र भट्टाचार्य नृपचंद्रोदयम् सनातन गोस्वामी भागवतामृतम् हरिभक्तिविलास सनातन तर्काचार्य तंत्रप्रदीपप्रभा (टीका) सन्ध्याकर नन्दी : रामचरितम् (द्विसन्धानकाव्य) सर्वानन्दवंद्यघटीय टीकासर्वस्व (अमरकोश टीका) सामन्त चूडामणि : श्यामलवर्मचरितम् सिद्धनाथ पद्मदूतम् सीताकान्त वाचस्पति : अलंकारदर्पण (सा.शा.) सीतारामदास संपादक-संस्कृतपारिजात ओंकारनाथ (पत्रिका) सीरदेव : परिभाषावृत्ति सुभूतिचंद्र : अमरकामधेनु (अमरकोश की टीका) सुरेश्वर(सुरपाल) : शब्दप्रदीप (वैद्यकशब्दकोश) लोहपद्धति, वृक्षायुर्वेद सृष्टिधर : भाष्यवृत्ति (टीका) हरणचंद्र चक्रवर्ती : सुश्रूत टीका (20) हरलाल गुप्त : आयुर्वेदचन्द्रिका (19-20) हरिचरण भट्टाचार्य : कर्णधार, रूपनिर्झर हरिचन्द्र भट्टाचार्य : (19-20) कपालकुण्डला (19-20) (मूल-बंकिमचंद्र का उपन्यास) हरिदास : कोकिलदूतम् हरिदास सिद्धान्त वागीश : काव्यकौमुदी (सा.शा.), (20) सरला (उपन्यास), विद्या-वित्तविवाद, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 493 For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुक्मिणीहरणम्, शंकरसंभवम्, वियोगवैभवम्, नाट्यग्रंथ = कंसवधम्, जानकीविक्रमम्, वंगीयप्रतापम्, मेवाड-प्रतापम्, शिवाजीविजयम् (शिवचरितम्), विराज सरोजिनी (गीतिनाटक) कुलपंजिका वृत्तमुक्तावली मकरसंक्रतीयम् सत्यभामापरिग्रहम्, सुभद्राहरणम्, हैहयविजयम्, रुक्मिणीहरणम्, परशुरामचरितम्, पांडवविजयम्, भारतीगीति हरि मिश्र हरिशंकर हेमंतकुमार तर्कतीर्थ : हेमचंद्र राय कविभूषण : अमरूशतकम् नारायण चक्रवती (17), नयनानंद शर्मा, रामतर्कवागीश, गोपाल चक्रवर्ती, भरत मल्लिक, मुकुन्द शर्मा, रामप्रकाश तर्कालंकार, रामेश्वर न्यायवागीश, रामेश्वर शर्मा [(18) विद्वहारावली], रामनाथ चक्रवर्ती, लोकनाथ चक्रवर्ती (पदमंजरी), रघुनाथ शर्मा, श्रीपति चक्रवर्ती, रत्नेश्वर चक्रवर्ती (रत्नमाला), नारायण विद्याविनोदाचार्य, नीलकण्ठ शर्मा, रामानन्द वाचस्पति रविचन्द्र (टिप्पणी) रामरुद्र न्यायवागीश, जर्नादन कलाधर सेन, गंगाधर कविराज विश्वनाथ चक्रवर्ती, वृन्दावन तर्कालंकार (दीधिति प्रकाशिका), लोकनाथ चक्रवर्ती, सार्वभौम हेमाद्रि (13) अरुणदत्त सर्वांगसुंदरी बेचाराम न्यायालंकार कृत) अज्ञातकर्तृक-टीका सिद्धान्ततरी जीव गोस्वामी (लोचनरोचनी), विश्वनाथ चक्रवर्ती (आनन्द चन्द्रिका), अज्ञातकर्तृक आगमचन्द्रिका और आत्मप्रबोधिका : बलदेव विद्याभूषण अलंकारकौस्तुभ (कविकर्णपूर कृत) (परिशिष्ट-(15-अ) वंगीय टीकात्मक वाङ्मय (1) संस्कृत का टीकात्मक वाङ्मय मौलिक वाङ्मय से कई गुना अधिक है। एक एक ग्रंथपर अनेक विद्वानों द्वारा उनके अपने अपने सिद्धान्त के या संप्रदाय के मतानुसार टीकात्मक ग्रंथ विवेचनार्थ या विवरणार्थ लिखे गये। वंगीय संस्कृत वाङ्मय की सूची में कुछ टीकात्मक ग्रंथों का उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत परिशिष्ट में प्रमुख टीकाकारों का उल्लेख करते हुए साथ में शताब्दी की संख्या का यथावसर टीका नाम का भी निर्देश किया है। अष्टांगहृदय (वाग्भट कृत) आनन्दतरंगिणी (प्रवासवृत्त) (रूप गोस्वामी कृत) ग्रंथनाम अमरकोश टीकाकार : सुभूतिचंद्र (11-12 कामधेन), सर्वानन्द वंद्यघटीय [(12) टीका सर्वस्व] रायमुकुट (15), परमानन्द (15), त्रिलोचनदास (13), गोविन्दानन्द कविकंकणाचार्य (15), मथुरेश (16), रामकृष्ण भट्टाचार्य (16), उत्कलिकावल्लरी (रूप गोस्वामी कृत) उत्तररामचरितम् ताराकुमार चक्रवर्ती, आनंदराम बरूआ, प्रेमचंद्र तर्कवागीश, नीवानन्द विद्यासागर, बुधभूषण गोस्वामी, 494 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कातंत्र व्याकरण गुरूनाथ विद्यानिधि श्रीपतिदत्त [(11) कातंत्र परिशिष्ट], त्रिलोचनदास (12), विजयानंद (12), गोपीनाथ तर्काचार्य [(15-16) परिशिष्ट प्रबोध], पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर [(15-16) कालतंत्रपरिशिष्ट टीका], रामचंद्र चक्रवर्ती, शिवराम चक्रवर्ती (परिशिष्ट सिद्धान्त), रत्नाकर, वंगसेन [(12) आख्यातवृत्ति], हरिराम चक्रवर्ती (व्याख्यासार), रामदास, गंगाधर कविराज (कौमार टीका), रामचंद्र (कलापतत्त्वबोधिनी), अज्ञात (कलापसंग्रह) काव्यादर्श काव्यालंकार (वामनकृत) जयराम न्यायपंचानन [(17) जयरामी], गदाधर चक्रवर्ती भट्टाचार्य (17), जगदीश तर्कपंचानन भट्टाचार्य [(17) रहस्यप्रकाश],रामनाथ विद्यावाचस्पति [(17) रहस्य प्रकाश], शिवनारायण दास [(17) दीपिका], महेश्वर न्यायालंकार [(17) आदर्श], बलदेव विद्याभूषण [(18) साहित्य कौमुदी], महेशचंद्र न्यायरत्न [(19) तात्पर्यविवरण] कृष्णकिंकर तर्कवागीश, पुण्डरीकाक्ष-विद्यासागर, प्रेमचंद्र तर्कवागीश, जीवानन्द विद्यासागर श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य [(15-16) साहित्य सर्वस्व], पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर बंकिमदास कविराज [(17) वैषम्योद्धारिणी], भरतमल्लिक [(17) सुबोधा] जीवानन्द विद्यासागर जनार्दन सेन, सर्वानन्द नाग : (भानुदत्त कृत 15) भरत मल्लिक रायमुकुट (व्याख्या बृहस्पति),, भरतमल्लिक (सुबोधा), हरिचरणदास, तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानंद विद्यासागर : न्यायवागीश भट्टाचार्य (काव्यमंजरी) कृष्णदास कविराज (सारंगरंगदा), गोपालभट्ट चैतन्यदास, कातंत्र धातुगण पाठ किरातार्जुनीयम् कातंत्र वृत्ति (दुर्गकृत) कीचकवधम् (नीतिवर्मा कृत) कुमारभार्गवीयम् : रामनाथ [(16) मनोरमा] रघुनंदन भट्टाचार्य शब्दशास्त्रविवृत्ति) त्रिविक्रम [(11) उद्योत], त्रिलोचनदास (उत्तरपरिशिष्ट) सुषेण कविराज, पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (कातंत्र प्रदीप), रघुनन्दन शिरोमणि, रामचंद्र (कातंत्रवृत्ति पंजिका), रामनाथ चक्रवर्ती (कातंत्रवृत्ति प्रबोध) : हरिदास सिद्धान्तवागीश जगबन्धु तर्कवागीश, रामचंद्र शर्मा (अलंकारमंजूषा) चण्डीदास [(13) दीपिका] परमानंद चक्रवर्ती [(14) विस्तारिका], श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य [(15) सारबोधिनी], कुमारसंभवम् कादम्बरी . काव्यचन्द्रिका (रामचंद्र न्यायवागीश कृत) काव्यप्रकाश कुवलयानन्दम् कृष्णकर्णामृतम् (बिल्वमंगलकृत) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 495 For Private and Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृन्दावनदास कालिदास सेन : कोकिलदूतम् (हरिमोहन प्रामाणिक कृत) गणपाठ गीतगोविन्दम् पुरूषोत्तम (गणवृत्ति) तारानाथ तर्कवाचस्पति [(19) लिंगानुशासनवृत्ति कृष्णदास वनमालीभट्ट, मानांक (12-13), भरतमल्लिक (सुबोधा), नारायणभट्ट (पदद्योतिनी), नारायणदास (सर्वांगसुन्दरी), चैतन्यदास पूजक (बालबोधिनी), गोपाल चक्रवर्ती (17), रामतारण (माधुरी), पुजारी गोस्वामी (भावार्थदीपिका) भरतमल्लिक, जीवानन्द विद्यासागर शिवदास (तत्त्वदीपिका), जिनदास, ईश्वर सेन, गंगाधर कविराज (जलकल्पतरू), योगीन्द्रनाथ सेन : प्रद्योतन भट्टाचार्य(16) जौमर व्याकरणोद्घाट : केशवदेव तर्कपंचानन, अभिराम विद्यालंकार, नारायण न्यायपंचानन, चंद्रशेखर विद्यालंकार, वंशीवदन, हरिराम, गोपाल चक्रवर्ती (17) तंत्रप्रदीप नन्दन न्यायवागीश (मैत्रेयरक्षित कृत (उद्योत), सनातन व्याकरण ग्रंथ) तर्काचार्य (प्रभा) दशकुमारचरितम् जीवानंद विद्यासागर, गुरुनाथ काव्यतीर्थ, हरिदास सिद्धान्तवागीश, हरिपद चट्टोपाध्याय, रेवतीकान्त भट्टाचार्य नलोदयम् भरतमल्लिक (प्रकाश), (कालिदासकृत) जीवानन्दविद्यासागर नैषधचरितम् वंशीवदन, गोपीनाथ (हर्षहृदय), परमानंद चक्रवर्ती, भरत मल्लिक (सुबोधा), प्रेमचंद तर्कवागीश (अन्वयबोधिका), हरिदास सिद्धान्तवागीश (जयन्ती) न्यास (काशिका इन्दुमित्र (अनुन्यास), विवरण पंजिका) मैत्रेयरक्षित (तंत्रप्रदीप), पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (15) घटकपरकाव्यम् चरकसंहिता चंद्रालोक (जयदेवकृत) चिकित्सासंग्रह (चक्रपाणिदत्तकृत) : श्रीमान् शर्मा (विजया) निश्चलकर (11-12), शिवदास (तत्त्वचन्द्रिका), हरानन्ददास (चिकित्सासारदीपिका) : लोकनाथ चक्रवर्ती परिभाषावृत्ति (सीरदेवकृत) पाणिनीय परिभाषा : छन्दोमंजरी (कविकर्पूरकृत) छन्दोमंजरी (गंगादास कविराज कृत) पातंजल व्याकरण महाभाष्य जगन्नाथ सेन, वंशीधर, बेचाराम सार्वभौम, चन्द्रशेखर, रघुनाथ गोस्वामी (18), हरिमोहन दासगुप्त, दाताराम न्यायवागीश, तारानाथ तर्कवागीश, रामतारण शिरोमणि : न्यायपंचानन (गणप्रकाश), शिवदास चक्रवर्ती (जौमर उणादिवृत्ति) पुरुषोत्तम (ललितवृत्ति और लघुवृत्ति) सीरदेव (12) परिभाषावृत्ति) इन्दुमित्र (10 इन्दुमती वृत्ति) मैत्रेयरक्षित [(11) व्याख्या] पुरुषोत्तम [(12) प्राणपणा], शंकर पंडित, राधामोहन विद्यावाचस्पति गंगाधर कविराज (विवृत्ति) जौमर (व्याकरण) गणपाठ पादांकदूतम् (श्रीकृष्ण सार्वभौमकृत) पिंगलछन्दःसूत्र हलायुध (मृतसंजीवनी), विश्वनाथ न्यायपंचानन [(17), 496/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृच्छकटिकम् प्रतिमानाटक प्रबोधचन्द्रोदयम् मुद्राराक्षस बालरामायण भट्टिकाव्यम् मेघदूतम् भक्तिस्सामृत (रूप गोस्वामी कृत) भाषावृत्ति (पुरुषोत्तमकृत) महावीरचरितम् पिंगलप्रकाशिका] गंगाधर कविराज (19) छन्दःपाठ), यादवेन्द्र दशावधान भट्टाचार्य (पिंगलतत्त्व प्रकाशिका)। सत्येन्द्रनाथ सेन। : रुद्रदेव तर्कवागीश (17), महेश्वर न्यायालंकार (गुणवती) जीवानंद विद्यासागर भरतमल्लिक (मुग्धबोधिनी) रामचंद्र शर्मा (व्याख्यानंद), चक्रवर्ती, विद्याविनोद (चंद्रिका), कामदेव (पदकौमुदी), पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (15कलापदीपिका), जीवानंद विद्यासागर। जीव गोस्वामी (दुर्ग-संगमनी) : सृष्टिधर आचार्य (17 अर्थविवृत्ति) : आनंदराम बरुआ, तारानाथ तर्कवाचस्पति। : सतीशचंद्र विद्याभूषण। मानांक (12-13) जीवानंद विद्यासागर, कुंजविहारी तर्कसिद्धान्त। तारानाथ तर्कवाचस्पति, हरिदास सिद्धांतवागीश। नन्दकिशोर भट्ट (14), काशीश्वर विद्यानिवास (15), दुर्गादास [(16) सुबोधा] रामतर्कवागीश [प्रमोदरंजनी] शिवनारायण शिरोमणि (19), रामचंद्र विद्याभूषण [(17) मुग्धबोधवृत्ति], गोविंदशर्मा शब्ददीपिका, श्रीवल्लभ (बालबोधिनी), भोलानाथ [संदर्भामृततोषिणी] देवीदास, रामानन्द, रामशर्मा, रामभद्र, मधुसूदन, गंगाधर कविराज इत्यादि। राममय शर्मा, जीवानंद विद्यासागर, हरिदास सिद्धान्तवागीश। तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानंद विद्यासागर, श्रीशचंद्र चक्रवर्ती, विधुभूषण गोस्वामी, हरिदास सिद्धान्तवागीश जनार्दन (13), सनातन गोस्वामी [तात्पर्यदीपिका] कल्याणमल्ल [(17) मालती], भरत मल्लिक [(17) सुबोधा], कविरत्न (17), कृष्णदास विद्यावागीश, रामनाथ तर्कालंकार (मुक्तावली), हरगोविंद वाचस्पति (संगता), हरिदास सिद्धान्त वागीश (चंचला), लालमोहन काव्यतीर्थ, जीवानंद विद्यासागर, गुरुनाथ काव्यतीर्थ, हरिषद चट्टोपाध्याय। जनार्दन (13), बृहस्पति मिश्र (रायमुकुट) [(15) व्याख्या बृहस्पति] भरत मल्लिक [(17) सुबोधा], जीवानंद विद्यासगार। कृष्णकान्त न्यायपंचानन, जीवानंद विद्यासागर, श्रीशचंद्र चक्रवर्ती, शारदानंदन रे, अशोक नाथ शास्त्री + महेश्वरदास। वेणीदत्त तर्कवागीश [(19) रसिक रंजनी] महिम्नःस्तोत्र मालतीमाधवम् रघुवंशम् मालविकाग्रिमित्रम् मुग्धबोध व्याकरण रत्नावली रसतरंगिणी (भानुदत्तकृत) राघवपाण्डवीयम् रामचंद्र न्यायालकार, प्रेमचंद्र तर्कवागीश, (कपाटविपाटिनी) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 497 For Private and Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (वृन्दमाधवकृत) रुक्मिणीहरण (हरिदास सिद्धान्तवागीशकृत) सुपा व्याकरणम् वाक्यपदीय [(13) कुसुमावली], गंगाधर कविराज [(१९) पंचनिदानव्याख्या] । श्रीधर चक्रवर्ती, रामनाथ विद्यावाचस्पति (17) धातुचिन्तामणि और वर्णविवेक) अरुणदत्त सर्वानंद (12), मुकुट (15), हरणचंद्र चक्रवर्ती। वंगेश्वर, जीवानंद विद्याभूषण। बलदेव विद्याभूषण। सुश्रुतसंहिता वासवदत्ता विक्रमोर्वशीयम् : विदग्धमुखमण्डनम् (धर्मदासकृत) स्तवावली (रघुनाथ दासकृत) स्तवमाला (रूपगोस्वामीकृत)। स्वप्नवासवदत्तम् हर्षचरित हितोपदेश हेमचंद्र तर्कवागीश। रुग्विनिश्चय (माधवकृतविजयरक्षित, आरोग्यशालीय [(13) व्याख्यामधुकोश, वाचस्पति (आतंकदर्पण) धर्मपाल (6) वार्तिक- गंगाधर कविराज (कात्यायन वार्तिक व्याख्या) सर्वरक्षित, काशीराम, जीवानंद विद्यासागर (20) अभयाचरण, राममय, तारानाथ तर्कवाचस्पति। : ताराचंद्र विद्वन्मनोहरा) गौरीकान्त, दुर्गादास। जीवानंद विद्यासागर, सत्यव्रत सामश्रमी। त्रिविक्रम (11), तारानाथ तर्कवाचस्पति (19)। जगन्मोहन तर्कालंकार, ताराकान्त तर्कवाचस्पति। कृष्णकान्त न्यायपंचानन, प्रेमचंद्र तर्कवागीश, जीवानंद विद्यासागर, विधुभूषण गोस्वामी, हरिदास सिद्धान्त वागीश, रमेन्द्रमोहन बसु। रायमुकुट (निर्णय बृहस्पति), भरत मल्लिक (सुबोधा), भागीरथ (अणीयती) जीवानन्द विद्यासागर। : राधाकान्त गोस्वामी। विद्धशालभंजिका : सत्येन्द्रनाथ सेन । : जीवानंद विद्यासागर : वरदाकान्त विद्यारत्न । वृत्तरत्नाकर (केदारभट्टकृत्त) वेणीसंहारम् परिशिष्ट (13) बिहारराज्य के ग्रंथकार और ग्रंथ शाकुन्तलम् ग्रंथ ग्रंथकार अनन्तारण्य मिश्र अनिरुद्ध अभिनव वाचस्पति शिशुपालवधम् श्रीकृष्ण भावनामृतम् (विश्वनाथ चक्रवर्ती कृत) श्रुतबोध (कालिदासकृत) अयोध्यानाथ मिश्र (20) : विजया तंत्रटीकानिबंधन की व्याख्या। : तात्पर्यविवरणपंजिका । श्राद्धचिंत्तामणि व्यवहारचिन्तमणि, प्रायश्चितचिन्तामणि, कृत्यमहार्णव, शुद्धिनिर्णय, द्वैतनिर्णय, दत्तकविधि, गयाश्राद्धपद्धति (सभी धर्मशास्त्रविषयक) प्रकाशिका (खण्डबलकुलदीपिका की टीका) : आर्यभटीयम्। : मीमांसारसपल्लव। : न्यायवार्तिक, न्यायपरिशिष्ट, किरणावली (पदार्थधर्मसंग्रह की व्याख्या), न्यायकुसुमांजलि, न्याय परिशुद्धि, आत्मतत्त्वविवेक : मनोहर शर्मा, सतीशचन्द्र विद्यारत्न, साहित्यदर्पण आर्यभट्ट (6) इन्द्रमणि ठाकुर उदयनाचार्य (10) जीवानन्द विद्यासागर। महेश्वर न्यायालंकार [(17) विज्ञप्रिया], रामचरण तर्कवागीश [(17) विवृति], हरिदास सिद्धान्तवागीश, जीवानन्द विद्यासागर : श्रीकण्ठदत्त सिद्धयोग 498 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योतकर उमापति उपाध्याय कणाद कपिल कविचूडामणि कात्यायन (वररूचि) कृष्ण झा (19) लक्षणमाला, लक्षणावली, तात्पर्यपरिशुद्धि (तात्पर्यटीका की व्याख्या) न्यायवार्तिक पारिजातहरणम् (नाटक) : वैशोषिकसूत्र सांख्यसूत्र महामोद वररुचिसंग्रह, पुष्पसूत्र, लिंगानुशासन, अष्टाध्यायी के वार्तिक : रघुवंशटीका, कुमारसंभवटीका पुरंजनचरितम्, कुवलयाश्वीयम् (दोनों नाटक) गीतगोपीपति, चण्डिकासुचरित, शशिलेखा। गंगाश्रीलहरी, अमरनाथशतकम्, त्र्यंबकपंचाशिका, कामाख्यास्तोत्र, वैष्णवीस्तोत्र, काशीवर्णना, खंडबलकुलदीपिका, बनैलीराज्यवर्णना, मिथिलावर्णनम् कृष्णदत्त कृष्णदत्त (17) कृष्णसिंह ठाकुर (20) शाण्डिल्यसूत्र, न्यायप्रकाश, वैशेषिकदर्शन आदि ग्रंथों की टीकाएँ। गंगेशोपाध्याय (12) : तत्त्वचिन्तामणि । गणेश्वर आह्निकोद्धार, गयापट्टलक, सुगतिसोपान (सभी धर्मशास्त्रपरक) गोकुलनाथ उपाध्याय : दिक्कालनिर्णय, चक्ररश्मि(17-18) दीधितिविद्योत, कुसुमांजलिटिप्पण, खंडनकुठार, लाघवगौरवरहस्यम्, मिथ्यात्वनिरुक्ति । न्यायसिद्धान्ततत्त्व, तिथिनिर्णय, मासमीमांसा, पदवाक्यरत्नाकर, शक्तिवाद, काव्यप्रकाशविवरण, रसमहार्णव, अमतोदयनाटक, शिवस्तुति, कादम्बरीकीर्तिश्लोक मुदितमदालसा नाटक गोवर्धनाचार्य (10) : आर्यासप्तशती (प्राकृत) गोविंददास झा(17) : नलचरितम् (नाटक) गोविंदठक्कुर काव्यप्रदीप (काव्यप्रकाश (15-16) की टीका)। आधिकरणन्यायमाला, पूजाप्रदीप गौतम धर्मसूत्रम्, न्यायसूत्र, गृह्यसूत्र, गौरीनाथ झा यतीन्द्रचरितप्रकाशिका चण्डेश्वर स्मृतिरत्नाकर (7 खंड), कृत्यचिन्तामणि, शिववाक्यावली (सभी धर्मशास्त्रविषयक) चंद्र झा (20) लक्ष्मीश्वरविलास चंद्रदत्त झा (19) कृष्णबिरुदावली, भक्तमाला, कर्णगीतमाला, भगवतीस्तोत्रम्, काशीशिवस्तोत्रम् चक्रधर झा (20) रघुदेवसरस्वती-बिरुदावली की टीका । विबुधराजिरंजिनी। चाणक्य अर्थशास्त्रम् चित्रधर उपाध्याय : शृंगारसारिणी, वीरसारिणी। (17) चित्रधर मिश्र मीमांसासारसंग्रह, (19) उपलक्षणसंग्रह। केदारनाथ झा (19) केशव मिश्र (16) क्षेमधारीसिंह (20) खगेश शर्मा (19) खुद्दी झा गंगाधर मिश्र द्वैतपरिशिष्टम्, अलंकारशेखर आदि 7 ग्रंथ । : सुरथचरितमहाकाव्य, (कुल 19 ग्रंथ) : काशीशिवस्तुति काश्यभिलाषाष्टकम्, : नागोक्तिप्रकाश (व्याकरण) न्यायपारायणम् (तंत्रवार्तिक की टीका)। कर्णभूषणम्, काव्यडाकिनी, शंगारवनमाला, भंगदूतम्, मंदारमंजरी। प्रसन्नराघव की टीका (अनेक महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद तथा न्यायदर्शन, मीमांसानुक्रमणी, गंगानंद कविराज (16) गंगानाथ झा (20) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 499 For Private and Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धीरमति नन्दकिशोर नरसिंह ठाकुर (16) नरहरि नरहरि मिश्र नीलाम्बर झा खण्डनखाद्यटिप्पण, सत्प्रतिपक्षटिप्पण, सुलोचनामाधवचम्पू, प्रस्तारविचार (छंदःशास्त्र), व्यत्पतिवादटीका, अद्वैत सिद्धिचान्द्रिका टिप्पण, सिद्धान्तलक्षणविवेचन, अवच्छेदत्वनिरुक्तिविवेचन दानवाक्यावली। लग्नविचारनन्द। नरसिंहमनीषा (काव्यप्रकाश टीका) द्वैतनिर्णय, अधिकरणकौमुदी (धर्मशास्त्र) ज्योतिषतंत्रम्। : गोलप्रकाश (ज्यो.) पक्षधर जयदेव आलोक आनंद लहरी, शिशुपालवधम् एवं गोपालचरितम् की टीकाएँ, सुपद्मव्याकरण अजिता या तंत्रटीकानिबन्धन (तंत्रवार्तिक की टीका) संस्कार-दशकर्मपद्धति, सदाचारदर्पण, महिषासुरवधनाटकम्, यक्षसमागम, मिथिलेशप्रशस्ति, ऋतुवर्णन इत्यादि कुल 30 ग्रंथ। आचारदीपक। न्यायरत्नमाला तंत्ररत्न कणिका, शास्त्रदीपिका, न्यायरत्नाकर, (श्लोकवार्तिक की टीका) पद्मनाभ मिश्र चेतनाथ (20) : रामेश्वरप्रसादिनी (भंगदूत की टीका)। जगद्धर मालतीमाधव, मेघदूत, वासवदत्ता, वेणीसंहार की टीकाएँ। जयदेव मिश्र प्रसन्नराघव-नाटक, (पीयूषवर्ष) (13) चन्द्रालोक, तत्त्वचिन्तामण्यालोक। जयदेव मिश्र (19) : बिनया (परिभाषेन्दुशेखर की टीका), शास्त्रार्थरत्नावली, जया (व्युत्पत्तिवाद की टीका), वास्तुपद्धति । जयमन्त मिश्र काव्यात्ममीमांसा। (20) काव्यस्वरूपमीमांसा, विबुधकुसुमांजलि। जीवन झा (20) : प्रभुचरितकाव्यम् । जीवनाथ झा (20) : कामेश्वर प्रतापोदयचम्पू । ज्योतिरीश्वर ठाकुर : धूर्तसमागमप्रहसनम्, पंचसायकम्। तरणिमिश्र : रत्नकोश (न्यायसूत्र की व्याख्या) दामोदर मिश्र (14) : वाणीभूषण (साहित्यशास्त्रपर) दिवाकर उपाध्याय कुसुमांजलिपरिमल दीनबंधु झा रामेश्वरप्रतापोदयम्, (20) रसिकमनोरंजिनी. लिंगवचनविचार दुर्गादत्त मिश्र (16) : वृत्तमुक्तावली । दुर्गादत्त (19) : वाताहह्वानम् (काव्य) देवकान्तठाकुर (20) : देवीचरितम् (या महिषासुरवधम्) देवीस्तुति। देवकीनन्दन जानकीपरिणयम् देवनाथ ठक्कुर अधिकरणकौमुदी, स्मृतिकौमुदी, काव्यकौमुदी (काव्यप्रदीप की टीका) देवानंद उषाहरणम् (नाटक) धनपति उपाध्याय श्राद्धदर्पण। धनानन्द दास (18) : मातंगीकुसुमांजलितंत्र, मंत्रकल्पद्रुम, वाक्चातुर्यम् धर्मदत्त (बच्चा) झा : व्याप्तिपंचकटीका, (19) न्यायभाष्यटीका, वाक्यपदीयटीका, शक्तिवादटिप्पण, सव्यभिचारटिप्पण, परितोष मिश्र परमेश्वर झा (20) पवनियासरस्वती पार्थसारथिमिश्र : चद्र पीयूषवर्ष जयदेव (13) प्रभाकर प्रभाकर उपाध्याय प्रज्ञाकर मिश्र (13) चंद्रालोक, प्रसन्नराधवम् (नाटक) रसप्रदीप। न्यायनिबन्ध की टीका। सुबोधिनी (नलोदय की टीका) राधापरिणय महाकाव्यम्, दीधिति (ध्वन्यालोक-टीका) चंद्रिका (रसगंगाधर की टीका), सुरभि (रसमंजरी की बदरीनाथ झा (20) 500/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मधुसूदन मयूर महेश ठक्कुर महाराज (16) मुकुंद झा बक्षी (20) बाणभट्ट (7) बालकृष्ण मिश्र (20) मुरारि मिश्र (12) बालबोध (20) बिल्वमंगल बुद्धिनाथ झा (20) दर्शनहृदयम्। : ज्योतिषप्रदीपांकुर, आलोककण्टकोद्धार। सूर्यशतकम् आलोकदर्पण (पक्षधरकृत तत्त्वचिन्तामण्यालोक की व्याख्या) श्रीमत्करमुहा सुकूल कीर्तिकौमुदी, श्रीमत्खंडबलाकुल प्रशस्ति, सुखबोधिनी (भृर्तृहरिनिर्वेदनाटक की व्याख्या) सरला (अमृतोदयनाटक की व्याख्या)। शुभकर्म निर्णय, त्रिपादीनीतिन्यान, न्यायरत्नाकर, अमृतबिन्दु। अनर्घराघव नाटकम्, (इस नाटकपर- हरिहर, रुचिपति, धर्मानंद, कृष्ण, लक्ष्मीधर, नरचंद्र, भवनाथ मिश्र धनेश्वर इत्यादि मैथिल पंडितोंने टीकाएँ लिखी है। राधानयनद्विशती (स्वकृत टीका सहित) : साहित्यदर्पण की व्याख्या। चिन्तामणिप्रभा लग्नविचार व्यंजनावाद याज्ञवल्क्यस्मृति, शतपथ ब्राह्मणम्, शुक्ल यजुर्वेद बिरुदावली : पदार्थरत्नमाला मुरारिमिश्र टीका), गणेश्वरचरितचम्पू, प्रमोदलहरी, राजस्थानप्रस्थानम्, अन्योक्तिसाहस्री, शोकश्लोकशतम्, काश्यपकुलप्रशस्ति, संस्कृतगीतरत्नावली, काव्यकल्लोलिनी, साहित्यमीमांसा कादम्बरी, हर्षचरितम्, चण्डीशतकम्। राधानयन-द्विशती, गौतमसूत्रवृत्ति, श्रीरामेश्वरकीर्तिलता, लक्ष्मीश्वरीचरितम्, (लक्ष्मीश्वरी = दरभंगा की महारानी)। रामलषणचरितम् गोविंद दामोदर स्तोत्रम् तारालहरी, प्रियालापकलाप, भ्रातृविलाप। प्रायश्चितभवदेव, दानकर्मक्रिया। न्यायविवेक (मीमांसासूत्रभाष्य) मुहूर्तसार (ज्यो.) रसमंजरी, रसतरंगिणी, रसपारिजात। भावप्रकाश (आयुर्वेद) गीतशंकरम्, कुमारसंभवटीका, वृत्तदर्पण। ज्योतिषरत्न। शतरंजप्रबंध न्यायरत्नम् भावनाविवेक, विधिविवेक, ब्रह्मसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि। जगद्गुरुवैभवम्, सदसद्वाद, व्योमवाद, अहोरात्रवाद, दशवादरहस्य, शारीरकविमर्श, वितानविद्युत् ब्रह्मविज्ञानम्, शुल्बसूत्रम्, ब्रह्मचतुष्पदी, इन्द्रविजयम्, प्रत्ययप्रस्थान मीमांसा, उपनिषद्हृदयम्, भवदेव मिश्र भवनाथ मिश्र भानुदत्त मिश्र (15-16) भावमिश्र (17) भीष्म उपाध्याय (17) मकल (मचल) उपाध्याय मणिकण्ठ मण्डनमिश्र मोहन मिश्र (18) मोहन ठक्कुर यज्ञपति उपाध्याय यदुनन्दन मिश्र यदुनाथ मिश्र (20) याज्ञवल्क्य रघुदेव मिश्र (17) रघुनाथ मधुसूदन झा (19) : रूक्मिणीहरणम् रमापति उपाध्याय (18) रवि ठाकुर (15-16) रविनाथ झा (20) रामचन्द्र झा (20) : मधुमती (काव्यप्रकाश की टीका) अर्धलंबोदर काव्यादर्श, रुद्रटालंकार, कुवलयानन्द की व्याख्याएं दशकर्मपद्धति, दानपद्धति रामदत्त संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 501 For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामदास झा रामावतार शर्मा (19-20) रुचिदत्त वाणीदत्त झा(17) वाणीश झा (20) वामदेव विद्यापति (14-15) तत्त्ववैशारदी (योगसूत्रव्यासभाष्य की टीका), न्यायतत्त्वालोक (न्यायसूत्रवृत्ति), न्यायरत्नप्रकाश, तत्त्वचिन्तामणिप्रकाश, खण्डनोद्धार : रसकौतुकम् : चकोरदूतम् : स्मृतिदीपक भूपरिक्रमा, पुरुषपरीक्षा, कीर्तिलता (नाटक), कीर्तिपताका (नाटक), मणिमंजरी (नाटक), गोरक्षविजयम् (नाटक) पंचतंत्रम् राघवकीर्तिशतकम्, गोपीवल्लभम् : रसकौस्तुभ केशवदेवचरितम् रुद्रधर उपाध्याय विष्णुशर्मा विष्णुदत्त झा(17) लक्ष्मीपति लछिमा देवी (15-16) लाल कवि लेखनाथ झा (20) वेणीदत्त वैद्यनाथ (17) : : आनंदविजयनाटकम् यूरोपीयदर्शनम् परमार्थदर्शनम्, मारुतिशतकम्, मुद्गरदूतम्, शब्दार्णव, संस्कृतनिबंधावली, भारतीयेतिवृत्तम् तत्त्वाचिन्तामणिप्रकाश, कुसुमांजलिप्रकाश-मकरन्द, द्रव्यप्रकाश-मकरन्द द्रव्यप्रकाश-विवृति, लीलावतीविलास, अनर्घराघव की टीका शुद्धिविवेक, श्राद्धविवेक, वर्षकृत्यम् : श्राद्धरत्नाकर पदार्थचंद्र (न्यायविषयक) गौरीस्वयंवरम् (रूपक) रसचन्द्रिका (सा.शा.) वर्षाहर्षकाव्यम्, मानसपूजाकाव्यम् : रागतरंगिणी : न्यायदर्पण स्मृतिपरिभाषा तत्त्वचिन्तामणि-प्रकाश, न्यायपरिशिष्टप्रकाश, न्यायकुसुमांजलिप्रकाश, किरणावलिप्रकाश, बौद्धाधिकारप्रकाश, अन्वीक्षानयतत्त्वबोध (न्यायसूत्र की व्याख्या) परिशुद्धिप्रकाश छंदोलता गीतादिगंबरम् मुदितमदालसा तत्त्वबिन्दुप्रकरण, न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, भामती (शारीरकभाष्य की टीका - भामती प्रस्थान), न्यायकणिका, तत्त्वसमीक्षा, ब्रह्मसिद्धि की व्याख्या, न्यायसूचीनिबंध, व्रजबिहारी चतुर्वेदी (19) लोचन कवि(17) वटेश्वर उपाध्याय वर्धमान वर्धमान उपाध्याय (द्वितीय वाचस्पति) शंकर मिश्र (15) शास्त्रतत्त्वेन्दुशेखर, शास्त्रतत्त्वरत्नाकर, आयुर्वेदतत्त्वरत्नाकर, त्रुटिविवेक, मनोविज्ञानम् आत्मतत्त्वकल्पलता, तत्त्वचिन्तामणिमयूख, त्रिसूत्रीनिबन्धव्याख्या, वैशेषिकसूत्रोपस्कर, प्रायाश्चितप्रदीप, श्राद्धप्रदीप, शांकरी (खंडनखंड टीका), भेदप्रकाश, कणादरहस्यम्, वादिविनोद, छंदोगाहिनक, श्रीकृष्णविनोदनाटक, मनोभवपराभवनाटकम्, गौरीदिगंबरम् (प्रहसन) सूत्रसमुच्चय, शिक्षासमुच्चय बोधिचर्यावतार, तंत्राविधि दीपशिक्षा (लघ्वीटीका), ऋजुविमला (बृहतीटीका), वसन्त मिश्र(19) वंशमणि झा (19) वाचस्पति मिश्र (8) शान्तिदेव बौद्धाचार्य (8) शालीकनाथ (मीमांसक) 502 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शिवनन्दन मिश्र (20) शिवादित्य शुभंकर शुभंकर ठाकुर शूलपाणि श्रीदत्त श्रीधर ठाकुर श्रीपदानंद झा (20) श्रीवल्लभ सचल मिश्र (18) सुचरित मिश्र सुधाकर सुश्रुत हीरालाल हरिशंकर शर्मा (15-16) हरिहरोपाध्याय हर्षनाथ झा (19-20) हृदयनाथ मिश्र (19) हेमांगद ठाकुर : ग्रंथकार : अज्ञात अज्ञात अज्ञात (ग्वालियर निवासी) : : : : : : : : : : श्लोकवार्तिक- काशिका स्मृतिसुधाकर : सुश्रुतसंहिता आचारदर्श काव्यप्रकाश टीका : : प्रकरणपंजिका गजाननचरितम् (नाटक) : सप्तपदार्थी हस्तमुक्तावली (नृत्य) तिथिनिर्णय प्रायश्चित्तविवेक, आचारविवेक छंदोगाह्निक, आचारादर्श काव्यप्रकाशविवेक ध्वनिसाहस्त्री न्यायलीलावती आर्यासप्तशतीटीका भर्तृहरिनिर्वेदम् (नाटक), प्रभावतीपरिणयम् (नाटक) उषाहरणम् (नाटक), गीतगोपीपति टीका, शब्देन्दुशेखरटीका, परिभाषार्थदीपक, शब्दरत्नार्थदीपक, परिशिष्ट (16) मध्यप्रदेश के ग्रंथकार और ग्रन्थ भावदीपक सूर्यस्तुति ग्रहणमाला आज का मध्यप्रदेश स्वराज्योत्तर नवनिर्मित राज्य है। इसमें पुराने ग्वालियर, इंदौर राज्य, मध्यभारत, विध्यप्रदेश, महाकोशल, छत्तिसगढ इत्यादि प्रदेशों का एवं प्राचीन काल में सुप्रसिद्ध उज्जयिनी, धारानगरी, दशपुर, माहिष्मती, विदिशा इत्यादि नगरों का अन्तर्भाव होता है। www.kobatirth.org ग्रंथ : राधावल्लभमतप्रवर्तक : तत्त्वमस्यार्थसिद्धान्तभाष्य : पद्मावतीपरिणयचम्पू अमितगति (11) उदन शास्त्री (20) उव्वट (11) कर्णदेव (बांधवनरेश) (12-13) कालिदास महाकवि (1) गजानन शास्त्री करमलकर (20) गणपति शंकर शुक्ल गोपालशास्त्री गोपीकृष्णनाथ शास्त्री (20) गोविंदभट्ट ( अकबरीय कालिदास) (16) गोविंद आपटे (19) गौरीशंकर पांडे (20) चक्रधरसिंह (रायगढनरेश) जगदीशप्रसाद मिश्र ( 20 ) जगदीशप्रसाद मुंगली (20) जानकीवल्लभ व्यास (19) दामोदर कवि (13) दामोदर शास्त्री दीनानाथ देवसेन (10) धनंजय (10) धनिक (10) For Private and Personal Use Only : : : : : : : रघुवंशम् कुमारसंभवम्, मेघदूतम्, शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम् और विक्रमोर्वशीयम् नाटक लोकमान्यालंकार ( अलंकारशास्त्र) रामदेवलीलामृतम् (लक्ष्मीदत्त डिंगल कृत काव्य का अनुवाद) भूदानयज्ञगाथा श्रीमन्नारायणव्यासचरितम् : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, श्रावकाचार एडवर्ड महाकाव्यम् : सुलतानां विनोदकाव्यम् वेदभाष्य सारावली (ज्योतिष) महेश्वरतर्कचूडामणेः विशिष्टाध्यायनम् (शोधप्रबन्ध) : आयुर्वेदशब्दकोश : : श्राद्धकल्पद्रुम जिनचरितम् वाणीभूषणम् (छंदःशास्त्र) : सारभूषणम् (वैयाकरणभूषणसार की टीका) रामचन्द्रयशः प्रबन्ध सर्वानन्दकरणम् सौंदर्यलहरीस्तोत्र की टीका रागसागर : : सर्वसंग्रह (ज्योतिष) दर्शनसार (जैनमत) दशरूपकम् (नाट्यशास्त्र) आलोक (दशरूपक की व्याख्या) संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 503 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्तध्रुव, सीताहरणम् (सभी रूपक) भाऊशास्त्री(20) भागीरथीप्रसाद त्रिपाठी (20) भानुकर (16) भानुदत्त (13) भोज (धारानरेश) (11) धनपाल(10) चतुर्विंशतिकास्तोत्र टीका तिलकमंजरी (कथा) नारायणदत्त त्रिपाठी आयुर्वेददर्शन, (20) मुमुक्षुसारसंग्रह, स्वरूपप्रकाश, चिदम्बररहस्यम् पत्रिकाएं- ऋतम्भरा (जबलपुर) मेधा (रायपुर), मालविका (भोपाल), दूर्वा (भोपाल) पद्मनाभ नवसाहसांकचरितम् (परिमलकालिदास) (महाकाव्य) (10) पद्मनाभ मिश्र वीरभद्रचम्पू, शरदागम भट्टाचार्य(16) (चंद्रालोक की टीका), राद्धान्तमक्तासर पन्नालाल जैन (20) : रत्नत्रयी परिमलकाची (20) मातृभूमिकथाशतकम् पीताम्बरपीठाधीश : पंचोपनिषद्भाष्यम् (20) डॉ. प्रभुदयालु : अभिनवमनोविज्ञानम् अग्निहोत्री प्रीतमलाल काची आराधनाशतकम् (20) शांतिशतकम्, उन्नतिशतकम्, ब्रह्मचर्यशतकम्, भक्तिशतकम् प्रेमनारायण द्विवेदी : सौंदर्यसप्तशती, (20) (बिहारी की सतसई का अनुवाद) श्लोकावली, सूक्तिरत्नाकर (दोनों अनुवाद) बदरी प्रपन्नाचार्य गीतार्थबिन्दु (20) बलभद्रसिंह : वृत्तिबोध (छंदःशास्त्र) बिल्हण (13) कर्णसुंदरी नाटक (देखिए कर्नाटक सूची) बिहारीलाल व्यास भानुकरकृत रसमंजरी की व्याख्या बिहारीलाल शास्त्री : लांगलिविलासम् ब्रह्मगुप्त (12) ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त डॉ. श्रीमती भवालकर : रामवनगमनम्, वनमाला पार्वतीपरमेश्वरीयम्, पाददण्ड, अन्नदेवता, अध्यात्मविद्या बीजवृक्ष (व्याकरण), कृषकाणां नागपाशः, मंगलमयूख (उपन्यास), कथासंवर्तिका भागवतचम्पू, रसमंजरी, रसतरंगिणी, शृंगारदीपिका, अलंकारतिलक, (चारों साहित्यशास्त्र विषयक) गीतगौरीपति सरस्वतीकण्ठभरणम्, शृंगारप्रकाश, चम्पूरामायण, शृंगारमंजरी, राजमृगांक, और राजमार्तण्ड (दोनों ज्योतिषविषयक), योगसूत्रटीका, तत्त्वप्रकाश (शैवमत) चारुचर्या (कुल 23 ग्रंथ) : माथुरीपंचलक्षणी मथुराप्रसाद शास्त्री (20) मदन(13) महासेन (10) माणिक्यचंद्र (11) मायुराज (मात्राराज अनंगहर्ष) माधव उरव्य (16) मित्रमिश्र (17) : पारिजातमंजरी (नाटक) : प्रद्युम्नचरितम् (नाटक) परीक्षामुख उदात्तराघवम् (नाटक), तापसवत्सराजम् वीरभानूदयम् (महाकाव्य) वीरमित्रोदय (धर्मशास्त्र) आनंदकंदचम्पू अनर्घराघवम् (नाटक) : शिंदेविजयचम्पू मुरारि (8) मुसलगावकर सदाशिव सीताराम (20) रघुपति शास्त्री(19) : कादम्बिनी (पत्रिका), विद्वत्कला (पत्रिका) (ग्वालियर से) : राजरंजनम् (आखेट विद्या) रघुनाथसिंह (रीवानरेश-19) रघुराजसिंह (रीवानरेश-19) सुधर्मविलासम् (महाकाव्य) शम्भुशतकम्, 504 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विज्जलदेव (19) वीरभानु महाराज (16) विरूपाक्षवादिमार स्वामी (20) विश्वनाथ महाराज (17) विश्वनाथ शास्त्री विश्वनाथ सिंह (रीवानरेश) (19) विज्जलवाटिका (व्याकरण) : कंदर्पचूडामणि (कामशास्त्र). दशकुमारकथासार : लिंगांगि धर्मप्रकाशन, शास्त्रबोध धर्मशास्त्रत्रिंशत्रश्लोकी विष्णुदत्त त्रिपाठी (20) वेलणकर, रघुनाथ : परिभाषेन्दुशेखरटीका धनुर्विद्या, रामचन्द्रहिनकम्, संगीतरघुनंदनम्, आनंदरघुनन्दनम् (नाटक) अनसूयाचरितम्, विद्योत्तमम् (दोनों नाटक) : व्युत्पत्तिमण्डनम्, उपदेश, मंजूषा, जगन्मोहन भाण विष्णु जगदीशशतकम्, नर्मदाशतकम्, रघुराजमंगलचंद्रावली राधावल्लभ त्रिपाठी : प्रेमपीयूषम् (नाटक) (20) वाल्मीकिविमर्श (निबंध), नाट्यमण्डपम् रामगोपालाचार्य : वासुदेवसूरिकृत (20) प्रमाणनयतत्त्वालोक की टीका रामचंद्र भट्ट राधाचरितकाव्यम् रामजी उपाध्याय द्वा सुपर्णा (उपन्यास), (20) भारतस्य सांस्कृतिको निधिः, सागरिका (त्रैमासिकी पत्रिका) रामजीवन मिश्र (20) : सारस्वतम् (नाटक) राजशेखर (10) : बालरामायणम्, प्रचण्डपांडवम्, विद्धशालभंजिका, (तीनों नाटक), कर्पूरमंजरी (प्राकृतसट्टक), काव्यमीमांसा रामसखेन्द्र द्वैतभूषणम् रुद्रदेव त्रिपाठी पत्रदूतम्, प्रेरणा, (20) विनोदिनी, डिडिम, कालिदासप्रेरितशिल्पसंग्रह, और अजंतादर्शन (दोनों अनुवाद), सत्याग्रह-नीतिकाव्यम्, गायत्रीलहरी, मालवमयूर (पत्रिका) रूपनाथ ओझा रामविजयम्, (18) गढेशनृपवर्णनम् डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी : सीताचरितम् (सटीक), सिंघभूपालकृत रसार्णवसुधाकर की टीका लक्ष्मीप्रसाद दीक्षित : गजेन्द्रमोक्ष काव्यम् (18) लक्ष्मीप्रसाद पाठक : ज्योतिर्विवेकरत्नाकर (20) लोकनाथ शास्त्री : कारिकावली टीका, (20) नर्मदातरंगिणी-अष्टाष्टकानि वत्सभट्टि (५) मंदसोर सूर्यमंदिर प्रशस्ति (शिलालेख) वररुचि : राक्षसकाव्यम्, नीतिरत्नम् वंशधर अग्निहोत्री (19) : शम्भुकल्पद्रुम् वेलणकर श्रीराम जवाहर चिन्तनम्, भिकाजी विरहलहरी, (देखिए-महाराष्ट्र) व्यास रामदेव (15) : रामाभ्युदयम्, पाण्डवाभ्युदयम्, सुभद्रापरिणयम्, (तीनों नाटक) शंकर दीक्षित (18) : प्रद्युम्नविजयम् (काव्य), गंगावतरणचम्पू, शंकरचेतोविलासचम्पू शिवशरण शर्मा (20) : जागरणम् शोभन (10) चतुर्विंशतिकास्तोत्रम श्रीनिवास शास्त्री श्रीनिवाससहस्रनाम चक्रवर्ती (19-20) श्रीपादशास्त्री मोक्षमंदिरस्य हसूरकर (20) दर्शनसोपानावली, भारतरत्नमाला (15 पुस्तकें) सूर्यनारायण व्यास : भव्यविभूतयः (20) सोमनाथ शास्त्री : वृत्तश्रीपालचरितम् (20) हनुमान् (11) : हनुमन्नाटक (छायानाटक) हलायुध (10) पिंगलकृत छन्दःसूत्र की व्याख्या, व्यवहारमयूख हिमांशुविजय (20) : जैनसप्तपदार्थी हृदयदास नर्तनसर्वस्व, तालतोयनिधि संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 505 For Private and Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हृदयनारायण (17) : आपटीकर म.स. हृदयकौतुक, हृदयप्रकाश (दोनों संगीत विषयक) हरिपाठ (अनुवाद) स्तोत्रपंचदशी ज्योतिर्गणितवार्तिक, सर्वानन्दकरणम् संस्कृत शब्दकोश (संस्कृत-अंग्रेजी, अंग्रेजी-संस्कृत) आपटे, गोविंद सदाशिव(19-20) आपटे, वामन शिवराम परिशिष्ट- (17) महाराष्ट्रके ग्रंथकार और ग्रंथ : गातार आज का विद्यमान 'महाराष्ट्र राज्य' स्वराज्यप्राप्ति के बाद भाषावार प्रांतरचना के कारण निर्माण हुआ है। रामायण में निर्दिष्ट दण्डकारण्य प्रदेश और महाभारत में निर्दिष्ट विदर्भ, अश्मक, मूलक, कुन्तल, गोपराष्ट्र, मल्लराष्ट्र, पाण्डुराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों का अन्तर्भाव विद्यमान महाराष्ट्र में होता है। पुलकेशी के शिलालेख में “अगमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्रकाणां नवनवतिस्रग्रामभाजां त्रयाणाम्।" इन पंक्तिया में महाराष्ट्र के तीन भाग तथा उनमें विद्यमान नवनवतिसहस्र (99000) ग्रामों का निर्देश महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में इस प्रदेश पर शालिवाहन (सातवाहन), वाकाटक, चालुक्य, राष्ट्र, कूट और यादव वंशीय हिंदु नृपतियों का अधिराज्य रहा। 14 वीं से 17 वीं शताब्दी तक यहां परकीय मुसलमानों का आधिपत्य रहा। शिवाजी महाराज ने मुसलमानी आधिपत्य के विरुद्ध प्रखर स्वातंत्र्ययुद्ध इस प्रदेश में सह्याद्रि के आश्रय से शुरू किया। करीब सव्वा सौ वर्षों तक यहां भोसले वंश का आधिपत्य रहा। सन् 1818 में अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापन हुआ। स्वराज्य स्थापना के बाद यह मराठी भाषी राज्य निर्माण हुआ, जिसके (1) मुंबई, (2) पुणे, (3) औरंगाबाद (मराठवाडा) और (4) नागपुर (या विदर्भ) नामक चार विभाग राजकीय सुविधा के लिये माने जाते है। प्रस्तुत परिशिष्ट में इन चारों प्रदेशों के ग्रंथकार और ग्रंथकारों का अन्तर्भाव है। आप्पाशास्त्री सूनृतवादिनी और राशिवडेकर संस्कृतचन्द्रिका (पत्रिकाएं), लावण्यमयी और आरब्यरजनी (अनुवाद) आर्डे, कृष्णभट्ट गादाधरी-कर्णिका (टीका) उत्तमकर, महादेव : व्याप्तिरहस्यटीका (18) ओक, महादेव : अभंगरसवाहिनी (अनुवाद), पांडुरंग : ज्ञानेश्वरी (9 अध्यायतक) अनुवाद ओगेटी परीक्षित् शर्मा : यशोधरामहाकाव्य, ललितगीतालहरी, प्रतापसिंहचरितम् औदुम्बरकर आप्पाशास्त्री वासुदेवशास्त्री राशिवडेकरचरित्र, विन्सटन चर्चिल चरित्र कमलाकर भट्ट(17) : दानकमलाकर, (काशीनिवासी) व्रतकमलाकर, शूद्रकमलाकर, शांतिरत्न, निर्णयसिंधु (श्लोकवार्तिक टीका), पूर्वकमलाकर, प्रायश्चित्तरत्न, विवादतांडव, गोत्रप्रवरनिर्णय, काव्यप्रकाशटीका डॉ. काशीकर चिं.ग. : आयुर्वेदीय पदार्थज्ञानम् काशीनाथ उपाध्याय : धर्मसिंधु, (18-19) प्रायश्चित्तेन्दुशेखर, बेदस्तुति की टीका, कुण्डादिकपाल, विठ्ठलऋमंत्रसारभाष्य ग्रंथकार ग्रंथ डॉ. अकलूजकर : आप्पाशास्त्री साहित्यअशोक समीक्षा अणे माधव श्रीहरि : तिलकयशोऽर्णव (3 खंड) (बापूजी) अद्वैतेन्द्रयति : धर्मनौका अनंतदेव(14) : बृहज्जातक की टीका अनन्त भट्ट : राजधर्मकौस्तुभ अभ्यंकर, काशीनाथ : व्याकरणकोश वासुदेव अभ्यंकर, वासुदेव सर्वदर्शनसंग्रहटीका, शास्त्री (19-20) अद्वैतामोद, कायशुद्धि, धर्मतत्त्वनिर्णय, सूत्रान्तरपरिग्रहविचार अर्जुनवाडकर : कण्टकांजलि : सुभाषितरत्नभांडागारम् काशीनाथ पांडुरंग परब 506 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुर्तकोटी शंकराचार्य : समत्वगीतम् (19-20) कुलकर्णी दि.म. : धारायशोधाराः कुळकर्णी स.ना. : व्यवहारकोश कृष्ण जोयसर : शरनवरात्रिचम्पू कृष्ण दैवज्ञ : करणकौस्तुभ (17) कृष्णनृसिंह शेष (17) : शूद्राचारशिरोमणि डॉ.केंघे चि.त्र्यं. : राजयोगभाष्यम केतकर व्यंकटेश ज्योतिर्गणितम्, बापूजी (19) सौरार्यब्रह्मपक्षीय तिथिगणितम्, केतकीवासनाभाष्यम्, केतकी ग्रहगणितम्, भूमण्डलीयसूर्यग्रह गणितम्। केवलानन्द सरस्वती : मीमांसाकोश (चार खंड) केशव पंडित : राजारामचरित्रम्। कोण्डभट्ट (17) वैयाकरणभूषणम्, वैयाकरणभूषणसार। क्षमादेवी राव सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता, शंकरजीवनाख्यानीयम्, ज्ञानेश्वरचरितम्, तुकारामचरितम्, रामदासचरितम्, मीराचरितम्, कथामुक्तावली कृष्णराव भगवंतराव : द्वैतमती (विष्णुसहस्रनामखटावकर (18) टीका) खरे ल.ज. (20) : आंग्ललघुकाव्यानुवादमाला। खांडेकर राघव पंडित : खेटकृति, पंचांगार्क, पद्धति चन्द्रिका। खानापुरकर, विनायक : वैनायकीयद्वादशाध्यायी पांडुरंग (ज्योतिष), युक्लीडीयम् (19-20) (भूमिति), सिद्धांतसार, कुंदसार। खासनीस, विष्णु : गीर्वाणज्ञानेश्वरी अनंत (19-20) (अनुवाद) खिरवंडीकर गुंजारव पत्रिका) खोत, स्कंद शंकर .: मालीभविष्यम्, लालावैद्यम् ध्रुवावतारम् (तीनों रुपक) गंगाधरशास्त्री संगीतराघवम्, रतिकुतूहलम्, मंगरुळकर (19) राधाविनोद, गुरुतत्त्वविचार, प्रसन्नमाधवम्, चित्रमंजूषा। गंगाराम जडी नौका (भानुदत्तकृत (18) रसतरंगिणी की टीका) गजेन्द्रगडकर __ महावाक्यार्थखंडनम्, नारायणाचार्य (19) ब्रह्मानंदखंडनम्, ब्रह्म विद्याभरणखंडनम्, श्वेताश्वतर उपनिषद्, व्याख्या, पुनर्विवाहखण्डनम्। गजेन्द्रगडकर त्रिपथगा (परिभाषेन्दुशेखरराघवाचार्य (18) टीका), विषमी (लघुशब्दे दुशेखरटीका), चन्द्रिका मनोरमाशब्दरत्नटीका), विष्णुसहस्रनामटीका, गीताभाष्यम्, नारायणोपनिषद् भाष्यम्। पिष्टपशुमीमांसा। गाक, ज.वि. गीर्वाणकोश (संस्कृत-मराठी) गाडगीळ, वसंत अनंत : शारदा (पत्रिका), शब्दकोश (मराठी-संस्कृत) गुंडेराव हरकारे : प्रत्ययकोश, कुरान का अनुवाद। गुलाबराव महाराज मानसायुर्वेद, मिषगिन्द्रशचि(19) -प्रभा, नारदभक्तिसूत्रभाष्य, काव्यसूत्रसंहिता, ईश्वरदर्शनम्, आगमदीपिका, पुराणमीमांसा, ऋग्वेदटिप्पणी, बालवासिष्ठम्, शास्त्रसमन्वय, श्रीधरोच्छिवपुष्टि, षड्दर्शनलेशसंग्रह, युक्तितत्त्वानुशासनम्, अन्तर्विज्ञानसंहिता। गोपालाचार्य प्रतापसिंहोदय, राघवचम्पू, कालगावकर (19) नीतिमंजरी, राधाविलास, रासार्या, विठ्ठलार्या। गोपीनाथ भट्ट संस्काररत्नमाला। ओक (18) गोविंद बाळकृष्ण मंजूषा, तरंगिणी, गरुड (18-19) कालप्रबोधोदय, एकादशी प्रकाश। गौरीप्रसाद झाला सुषमा (कवितासंग्रह)। घनश्याम चौडाजी पंत : कुमारविजयम्, मदनसंजीवनम्, नवग्रहचरितम्, चण्डराहूदयम् संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 507 For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (चारों नाटक) घाटे भटजीशास्त्री : उत्तररामचरित की टीका (19-20) घारपुरे, जगन्नाथ याज्ञवल्क्यस्मृतिटीका, रघुनाथ (19-20) द्वादशमयूखटीका। घुले, सदाशिवभट्ट सदाशिवभट्टी (लघुशब्देन्दुशेखर टी टीका)। घुले, सीताराम हरिराम : शेखरविवृतिसंग्रह। (19-20) घुले, कृष्णशास्त्री : पतितोद्धारमीमांसा, (20) हौत्रध्वान्तदिवाकर, सापिण्ड्यभास्कर, हरहरीयम् (स्तोत्र) चक्रदेव ल.म. संस्कृतस्य प्रगतिपथे (20) कस्तिष्ठति। चक्रपाणि व्यास : समुदायसूत्रपाठ। महानुभाव (16-17) चिंतामणि दीक्षित : गोलानन्द, सूर्यसिद्धान्तसारणी। जयराम पिण्डये : राधामाधवविलासचम्पू, (17) पर्णालपर्वतग्रहणाख्यानम्। झळकीकर भीमाचार्य : न्यायकोश झळकीकर : बालबोधिनी वामनाचार्य (काव्यप्रकाशटीका) डाऊ माधव नारायण : विनोदलहरी (19-20) (टीका-सुबोधिनी-गो.व्यं. डाऊकृत) डॉ. डांगे सदाशिव भावचषक (रुबायत् अंबादास का अनुवाद) डेग्वेकर, पांडुरंग कुरुक्षेत्रमहाकाव्यम्, शास्त्री (20) मनोबोध (मूल समर्थरामदास कृत मराठी) दुण्डिराज (16) सुधारसटीका, ग्रहलाघवोदाहरणम्, ग्रहफलोत्पत्ति, पंचांगफलम्, कुंडकल्पना, जातकाभरणम्। तपतीतीखासी मनोबोध (मूल-मराठी मनाचे श्लोक) ताडपत्रीकर, विश्वमोहन (गेटेकृत फाऊस्टनाटक का अनुवाद) गांधिगीता ताम्हन केशव गोपाल : कवितासंग्रह त्रिमल रघुनाथ हणमंते : अशौचनिर्णय। (18) त्र्यंबकभट्ट : प्रतिष्ठेन्दु दत्तात्रेय शास्त्री दाणी : शारदाप्रसाद दिनकर (18) ग्रहविज्ञानसारिणी, मासप्रवेशसारिणी, लग्नसारिणी, क्रांतिसारिणी, दृक्कर्मसारिणी, चंद्रोदयांक जालम्, ग्रहणांकजालम्, पातसारिणीटीका, यंत्रचितामणि टीका। देवकृष्ण शास्त्री : धर्मादर्श (बृहत्प्रबंध) देशमुख, चिन्तामणि : संस्कृत काव्यमालिका, द्वारकानाथ गांधिसूक्ति-मुक्तावली (अनुवाद) कवितामालिका। देसाई, ह.त्र्यं. संघात्मा गुरुजि, स्तोत्ररत्नमाला धुंडिराज काळे : भागवतव्यंजनम् (19) (टीकाकार डॉ. काळे) डॉ. धर्माधिकारी : ते वयं पारसीकाः। त्र्यं.ना. धारुरकर विठ्ठलशास्त्री : पंढरीमाहात्म्यम् (19-20) नागेशभट्ट (18) : व्यंजनानिर्णय, शब्देन्दुशेखर, (लघु और बृहत्), परिभाषेन्दुशेखर, लघुमंजूषा, स्फोटवाद, महाभाष्यप्रदीपोद्योत, विषमपदी (शब्दकौस्तुभटीका)। निगुडकर दत्तात्रेय : गंगागुणादर्शचम्पू वासुदेव निश्चलपुरी श्रीशिवाजी राज्याभिषेक (या अचलपुरी) कल्पतरु। (17) नीलकण्ठभट्ट (17) : भगवंतभास्कर, व्यवहारतत्त्व, कुण्डोद्योत। नीलकण्ठ चतुर्धर नीलकण्ठी (महाभारत (चौधरी) (17) टीका) सप्तशतीटीका। परमानंद गोविन्द : शिवभारतम् नेवासकर (कवीन्द्र परमानन्द) (17) (श्रीमती) डॉ. संशयरत्नमाला पराडकर नलिनी : (मूल मराठी), 508 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra डॉ. पळसुळे, गजानन बालकृष्ण पाटणकर, परशुराम नारायण (19-20 ) पाटणकर, नारायण रामचंद्र (19-20 ) पाठक श्रीधरशास्त्री (20) पाठक, पंढरीनाथ पायगुंडे बालंभट्ट (18-19) पायगुंडे बैद्यनाथ (18) पुणतामकर, महादेव पुरुषोत्तम कवि प्रधान, दाजी शिवाजी बडवे, प्रह्लाद शिवाजी (18) बहुलीकर दि.दा. बागेवाडीकर बापट, विष्णु वामन बापूदेवशास्त्री (18-19) : .... : : ईश-केन- कठ-मुडकउपनिषदोंकी टीचर 1. : : गीताप्रवचननि (मूल विनोबाजी के प्रवचन), धर्मशास्त्र] प्रवचनानि अष्टाध्यायी शब्दानुक्रमणिका, महाभाष्यशब्दानुक्रमणिका, महात्मचरितम् उपाकृतितत्त्वम् धर्मशास्त्रसंग्रह, बालंभट्टी (मिताक्षरा की टीका) जीवत् पितृकर्तव्य निर्णय चर्मास्यप्रयोग वेदान्त कल्पतरमंजरी, शस्त्रदीपिकाव्याख्या, प्रभा (शब्दकौस्तुभ की टीका), छाया महाभाष्यप्रदीपोत टीका) तर्कसंग्रह की टीका । शिवकाव्यम् । : रसमाधव । : अमृतानुभव (मूल मराठी) : तुलसी मानसनलिनम् (रामचरितमानस का अनुवाद) । सावरकरचरितम्, विवेकानन्द चरितम् अग्निजा और कमला (दोनों अनुवाद), समानस्तु वो मनः भासोऽहासः वीरविनायक गाथा, धन्येयं गायनीकल, खेटग्रामस्य चक्रोद्भवः । : वीरधर्मदर्पण (नाटक), धर्मसंगति (पत्रिका), तुन्तुदर्शनम्, व्याकरणकारिकाः । www.kobatirth.org मुक्तकमंजूषा । टिळकचरित्रम् वेदान्तशब्दकोश त्रिकोणमिति, रेखागणितम् अंकगणितम्, सायनवाद, प्राचीन ज्योतिषाचादशवर्णनम्, अष्टादश बोकिल सोपदेव भट्टोजी दीक्षित (17) भवभूति भातखंडे, विष्णु नारायण (चतुरपंडित) भानुदास भानु दीक्षित (रामाश्रम) भानु भट्ट (हरिकवि) (17) भास्करराय गम्भीरराय भारती (17) भास्कराचार्य (12) भिडे, नरहर नारायण भीष्माचार्य महानुभाव (4) महेश्वर रामचंद्र सुखटणकर (18-19) महेश्वरोपाध्याय For Private and Personal Use Only विचित्रप्रश्नसंग्रह, तत्त्वविवेकपरीक्षा, मानमंदिरस्य यंत्रवर्णनम् । : शिववैभवम् (नाटक) : कविकल्पद्रुम (सटीक), रामव्याकरणम्, शाङ्गधरसंहितागूढार्थदीपिका, सिद्धमंत्रकाश, धातुकोश, मुन्धयोधव्याकरणम्, पदार्थादर्श, हरिलीला, मुकुट । परमहंसप्रिया, सिद्धान्तकौमुदी, लिंगानुशासनवृत्ति, : : : .... : : : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : : वैयाकरण सिद्धान्तकारिका, शब्दकौस्तुभ, प्रौढमनोरमा । मालतीमाधवम् महावीरचरितम्, उत्तररामचरितम् । अभिनवरागमंजरी, अभिनवतालमंजरी, श्रीमल्लक्ष्यसंगीतम् । रसमंजरी रामाश्रमी ( अमरकोश की टीका), करणकुतूहल । कर्मतत्त्वम् धाराविंत्र (ब्रह्मोपनिषद् पर भाष्य), दिनकरप्रबन्ध, दत्तात्रेयप्रबन्ध | संतेषिणी (मराठी : : मंत्रभागवत की टीका ) शम्भुराजचरितम्, हैहयेन्द्रचरितम् (शम्भुविलासिका टीका सहित) । गुप्तवती (सप्तशतीटीका), ललितासहस्रनामभाष्य, रुद्राध्यायभाष्यम्, सौभाग्यभास्कर, सेतुबन्ध (नित्याषोडशीतंत्र की टीका) सिद्धान्तशिरोमण (वासनाभाष्यसहित) भानुशतकम् । : धर्माब्धि । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 509 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माधव चंद्रोबा : शब्दरत्नाकर डॉ. मिराशी, वासुदेव : हर्षचरितसार (सटीक) विष्णु मुद्गल जोशी : यदुवंशम् (अप्राप्य) (18-19) डॉ. मुंजे, बाळकृष्ण नेत्ररोगचिकित्सा शिवराम (प्रबंध) मोडक, अच्युतराव : पंचदशी टीका, साहित्यसार, (18-19) कृष्णलीला, भागीरथीचंपू मोडक, वामन उत्तरनैषधचरितम् आबाजी (19) (नाटक) मोरोपंत पराडकर(18) : मंत्ररामायण। यझेश्वरशास्त्री अरविन्दचरितम्। यज्ञेश्वर सदाशिव यंत्रराजवासना की रोडे (18) टीका, मणिकांति, गोलानंदानुक्रमणिका। रमाबाई (पंडिता) बायबलका अनुवाद। रघुनाथ नारायण : राज्यव्यवहारकोश। हणमंते (17) रघुनाथशास्त्री पर्वते : शंकरपदभूषणम् (भगवद्गीता भाष्य की टीका), नायरत्न, गदाधरी पंचवाद की टीका। राजशेखर (10) काव्यमीमांसा, बालरामायण (नाटक), विद्धशालभंजिका, भुवनकोश (अप्राव्य), कर्पूरमंजरीसट्टक। राजाराम ढुण्डिराजभट्ट : दंशोद्धार सप्तशती की टीका। राजेश्या वि. : साहित्यविनोदराज राधाकृष्ण तिवारी राधाप्रियशतकम् श्रीरामचरित्र, श्रीकृष्णचरित्र, दशावतारचरित्र, राजेन्द्रचरित्र। रामचंद्र शेष (15) : प्रक्रियाकौमुदी (प्रसाद-टीका विठ्ठलशेषद्दारा) रानडे, विश्वनाथ : शम्भुविलास, शृंगारनाटिका महादेव रामदासानुदास : मनोबोध (मूल रामदासस्वामीकृत) रावळे श्या.गो. : मनोबोध (मूळ रामदासस्वामीकृत) रुद्रदेव : संस्कारप्रतापनारायण। लक्ष्मण शास्त्री जोशी : धर्मकोश, (व्यवहारकांड(तर्कतीर्थ) 3 भाग, उपनिषतकाण्ड 4 भाग) शुद्धिसर्वस्व। लाटकर वासुदेव बालिदानम् (मूळ आत्माराम मराठी उपन्यास), शाहुचरितम्, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद चरितम् लोंढे, ग.पां. : भूपो भिषक्त्वं गतः लोलिंबराज : वैद्यकजीवनम्, हरिविलास (त्र्यंबकराज)(17) श्रीमद्भागवत की टीका)। वणेकर, श्रीधर भास्कर : शिवराज्योदयम् (महाकाव्य) जवाहरतरंगिणी, विनायकवैजयन्ती, रामकृष्ण परमहंसीयम्, वात्सल्यरसायनम्, कालिदासरहस्यम्, विवेकानन्दविजयम् (नाटक) शिवराजाभिषेकम् नाटक, श्रीरामसंगीतिका, श्रीकृष्णसंगीतिका, श्रमगीता, संघगीता, ग्रामगीतामृतम् (अनुवाद), तीर्थभारतम्, राग, लक्षणकारिका, तर्ककारिका, वेदान्तकारिका, रससिद्धान्तकारिका, संस्कृत वाङ्मय कोश। वाटवे शास्त्री वारे, श्रीधरशास्त्री वासुदेवानंद सरस्वती (19-20) : कलियुगाचार्यस्तोत्रम्, कलिवृत्तादर्शपुराणम्, कलियुगवर्णनम् : कुण्डार्कप्रभा, दत्तक निर्णयामृतम्। : श्रीगुरुचरित्रसाहस्री, सप्तशती-गुरुचरित्रम्, श्रीगुरुसहिता, दत्तलीला मृताब्धिसार, शिक्षात्रयम्। : मंण्डपकुण्डसिद्धि : बेकनीयसूत्रव्याख्यानम्। सुश्लोकलाघवम्, गजेन्द्रचम्पू, हेतुरामायणम्। शृंगारवाटिका (नाटक) : देशगौरवसुभाषचरितम् विठ्ठल दीक्षित (16) विठ्ठलशास्त्री विठोबा अण्णा दप्तरदार (18) विश्वनाथ भट्ट(17) विश्वनाथ केशव चम्पू, हतु 510 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छत्रे (20) विश्वेश्वर भट्ट (गागाभट्ट काशीकर) (17) शेवालकर शास्त्री शेषकृष्ण श्रीपतिभट्ट अभिनवमेघदूतम्, रघुनाथतार्किकशिरोमणिचरितम्, पूर्णानन्दचरितम् : प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या। : सिद्धांतशेखर, ज्योतिषरत्नमाला। : अहल्याचरितम्। वेलणकर, श्रीराम भिकाजी सखाराम शास्त्री भागवत (19) सदाशिव दशपुत्र सहस्रबुद्धे साकुरीकर (महाकाव्य), गोदालहरी, इत्यादि. शिवार्कोदय, दिनकरोद्योत, निरुढप्रतिबन्धप्रयोग, पिण्डपितृप्रयोग, कायस्थधर्मप्रदीप, सुज्ञानसूर्योदय, शिवराजाभिषेकप्रयोग, कुसुमांजलि, भाट्टचिन्तामणि संगीत सौभद्रम् (अनुवाद), छत्रपतिः शिवराजः, श्रीलोकमान्यस्मृतिः, कालिदासचरितम्, संगीत कालिन्दी, कैलासकम्पः, स्वातंत्र्यलक्ष्मी, राज्ञी दुर्गावती, मेघदूतोत्तरम्, आषाढस्य प्रयमदिवसे, कल्याणकोष, हुतात्मा दधीचि, तनयो राजाभवति कथं मे, नियतिलीला, स्वातंत्र्यमणि, बालगीतं रामचरितम्, तत्त्वमसि, अवनिदमनम्, दूषणनिरसमम्, (सभी रुपक), जीवनसागर, जयमंगला (अनुवाद) : आचारामृतसार। : काकदूतम् : गीर्वाणकेकावली (मूल- मोरोपंतकृत)। : गोज्ञानकोश। सातवळेकर श्रीपाद दामोदर सोवनी व्यं.वा. (19-20) हरि दीक्षित : शिवावतारप्रबन्ध । हरिरामशास्त्री शुक्ल : लघुशब्दरत्न और बृहत्शब्दरत्न (प्रौढमनोरमाटीका)। : सुषमा (सांख्यतत्त्वकौमुदी की व्याख्या)। धर्मसंग्रह। : शारीरं तत्त्वदर्शनम् (वातादिदोशविज्ञानम्) समीश्रा-टीकासहित। : संस्कृतानुशीलनविवेक। हरिश्चन्द्र (19) हिर्लेकर पुरुषोत्तम सखाराम शंकर नीलकंठ हुपरीकर, गणेश श्रीपाद हेमाद्रि (हेमाडपंत) (13) : शंकरभट्ट (16-17) शंकरशास्त्री मारुलकर : कुण्डार्क (टीका वासुदेवशास्त्री द्वारा)। द्वैतनिर्णय, धर्मप्रकाश, शास्रदीपिका टीका। शांकरी (वैयाकरणभूषण की टीका) बुधभूषणम्। आयुर्वेदसायन (अष्टांगहृदय की टीका), कैवल्यदीपिका (बोपदेव कृत मुक्ताफल की टीका), चतुर्वर्गचिन्तामणि। : शंभुराज(17) (संभाजी महाराज) शाङ्गिधर (13) शिवदीक्षित (18) शिवरामशास्त्री शिंत्रे शेवडे, वसंत त्र्यंबक परिशिष्ट (18) राजस्थान के ग्रंथकार और ग्रंथ : संगीतरत्नाकर धर्मतत्त्वप्रकाश। वेदांगनिघण्टु। श्रीभारतीशतकम्। वृत्तमंजरी, विन्ध्यवासिनीविजयम्, शुंभवधमहाकाव्यम्, श्रीकृष्णचरितम्, स्तवमंजूषा, वर्तमान 'राजस्थान' राज्य की निर्मिति स्वराज्य निर्मिति के बाद हुई है। प्राचीन काल में इस प्रदेश के अन्तर्गत कुरू, जांगल, सपादलक्ष, मत्स्य, शिबि, वार्गट, मरू, वल्ल, गुर्जरत्रा, अर्बुद, इन नामों से उल्लिखित राज्यों का अन्तर्भाव होता था। मध्ययुग में जयपुर, बीकानेर, जोधपूर, बूंदी,कोटा, जैसलमीर, मेवाड, उदयपुर, अलवर, डूंगरपुर, इत्यादि छोटे छोटे राज्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 511 For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra थे। इनमें जयपुर राज्य का संस्कृत वाङमय में योगदान अधिक मात्रा में रहा। विद्यमान जयपुरनगरी के संस्थापक इतिहास प्रसिद्ध कछवाह वंशीय महाराज सवाई जयसिंह (द्वितीय) स्वयं विख्यात ज्योतिःशास्त्रज्ञ थे। उन्होंने अनेक यज्ञों के निमित्त विद्वानों के परिवार अपने राज्य में बसाए और जयपुर की कीर्ति वाराणसी से तुल्य गुण की । "वाराणसी वा जयपत्तनं वा" यह सूक्ति प्रचलित होने का श्रेय महाराजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) को ही है। उनके पश्चात् सवाई ईश्वरीसिंह (1743-50 ई.) सवाई माधवसिंह (1750-67), सवाई पृथ्वीसिंह (1767-78 सवाई प्रतापसिंह (1778-1803) सवाई जगतसिंह (1803-1818 ई.) सवाई जयसिंह (तृतीय) (1818-1834 ई.) इन विद्याप्रेमी नृपतियों द्वारा जयपुरराज्य में संस्कृत की स्पृहणीय श्रीवृद्धि निरंतर हुई। इन प्रशासकों के काल में ख्यातिप्राप्त विद्वानों के नामों की सूची इस परिशिष्ट में प्रस्तुत है : काशीराम केवलराम ज्योतिषराय गंगाराम पाँडरीक गंगारामभट्ट पर्वतीकर चक्रपाणि गोस्वामी जगन्नाथ दीक्षित सम्राट् जनार्दन गोस्वामी जयचन्द छाबडा दीनानाथ सम्राट् द्वारकानाथ भट्ट (देवर्षि) नयनसुख उपाध्याय भट्ट राना सदाशिव भोलानाथ शुक्ल मथुरामल माथुर चतुर्वेदी महीधर मायाराम गौड पाठक रत्नाकर पौण्डरीक रामचन्द्र भट्ट पर्वतीकर रामेश्वर पौण्डरीक विश्वेश्वर महाशब्दे व्रजनाथ भट्ट दीक्षित शिवानन्द गोस्वामी www.kobatirth.org श्यामसुन्दर दीक्षित श्रीकृष्णभट्ट (कविकलानिधि) श्रीनिकेतन गोस्वामी सखाराम भट्ट पर्वतीकर सदाशिव शर्मा दशपुत्र सवाई जयसिंह (द्वितीय) महाराज 512 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड सीताराम भट्ट पर्वतीकर (30 ग्रंथों के लेखक ) सुधाकर महाशब्दे हरिलाल हरिहर भट्ट हरेकृष्ण मिश्र महाराना सवाई जयसिंह (द्वितीय) तथा उनके वंशजों द्वारा जयपुर में प्रवर्तित संस्कृत विद्या की उपासना तथा वाङ्मय निर्मिति की परंपरा आज तक, महाराजा संस्कृत कॉलेज, दिगंबर जैन संस्कृत कॉलेज, श्रीदाद महाविद्यालय, श्रीखण्डल महाविद्यालय सनातन धर्मसंस्कृत विद्यापीठ श्रीधर संस्कृत विद्यालय, जयपुर विश्वविद्यालय (संस्कृत विभाग), जैसे अध्यापन केंद्रों द्वारा तथा अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य संमेलन, राजसस्थान संस्कृत साहित्य सम्मेलन, संस्कृत वाग्वर्धिनी परिषद्, वैदिक संस्कृति प्रचारक संघ, वैदिक साहित्य संसद् जैसी सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रश्रय में चल रही है। संस्कृत रत्नाकर और भारती इन जयपुरीय मासिक पत्रिकाओं का योगदान भी संस्कृत पत्रिकाओं की परंपरा में उल्लेखनीय है। इन उत्तरकालीन माध्यमों द्वारा जयपुर में अनेक स्वनामधन्य एवं मूर्धन्य संस्कृत लेखकों की परम्परा निर्माण हुई जिनमें कुछ नाम चिरस्मरणीय है। जैसे सर्वश्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, मधुसूदनजी ओझा, आशुकवि हरिशास्त्री, पट्टभिरामशास्त्री, कलानाथशास्त्री, गोपीनाथ धर्माधिकारी, नारायण शास्त्री कांकर, परमानन्द शास्त्री, सुरजनदासस्वामी, प्रभाकर शास्त्री एवं मण्डन मिश्र आदि नाम उल्लेखनीय है । जयपुर राज्य में महाराजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) से सवाई जयसिंह (तृतीय) तक (सन 1700-1743) के शासनकाल में निर्मित संस्कृत वाङ्मय की विषयानुसार सूची काव्यग्रंथ अभिलाषशतक ईश्वरविलास महाकाव्य कुलप्रबन्ध गंगादीनाम् अष्टकानि (स्तोत्र ) गंगास्तुतिपद्धति (स्तोत्र ) गालवगीतम् जयवंशमहाकाव्य नलवंशमहाकाव्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नलविलासम् नीतिशतकम् (मुक्तक) नृपविलासम् पद्यतरंगिणी ( नीतिकाव्य) For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्यमुक्तावली (मुक्तक) बुधचर्यावर्णन (मुक्तक) माधवसिंहायशतक यवनपरिचय (प्रकीर्णक) राघवचरित्रम् राधाविलास काव्य रामगीतम् (गीतिकाव्य) रामविलासकाव्यम् लघुरघुकाव्यम् विद्याविलासम् वैराग्यशतकम् शम्मुविलासम् शृंगारविलासम् शृंगारलहरी शृंगारशतकम् श्रीकृष्णलीलामृतम् (गीति) सभेदार्यासप्तशती सरसरसास्वादसागर सुन्दरीस्तवराज नाटक ग्रन्थ अद्भुततरंग कर्णकुतूहलम् घृतकुल्यावली जानकीराज धूर्तसमागम ( प्रहसन ) पलाण्डुमण्डनम् (प्रहसन ) प्रभावनज्ञान (प्रहसन ) प्रभावती (नाटिका) प्रासंगिक प्रहसनम् विजयपारिजातम् शृंगारवापिका (नाटिका) सहदयानन्दम् व्याकरणग्रंथ आख्यातवाद चतुर्दशसूत्रीव्याख्या धातुमंजरी श्लोकबद्ध-सिद्धान्तकौमुदी स्वर सिद्धान्तकौमुदी ज्योतिषग्रंथ ऊकर www.kobatirth.org जातकपद्धति जातकालंकारटीका तिथिनिर्णय मुहूर्ततत्त्वटीका मुहूर्तसार यंत्रराजरचना रेखागणितम् लीलावतीटीका सम्राट्सिद्धान्त सिद्धान्तसारकौमुदी आयुर्वेदग्रंथ लंघनपश्यनिर्णय विविधौषधिसंग्रह वैद्यविनोदसंहिता दर्शनग्रंथ कर्मनिवृत्ति बृहदारण्यक टिप्पणी ब्रह्मसूत्रभाष्यवृत्ति भक्तरत्नावली भक्तिविवृत्ति महाराजकोश (पौराणिक) रामगीता वेदान्तपंचविंशति धर्मशास्त्र ग्रन्थ आचारस्मृतिचन्द्रिका आशोचस्पतिचन्द्रिका कामन्दकीयटीका (नीतिशास्त्र) चौलोपनयनप्रयोग जयसिंहकल्पद्रुम धर्मप्रदीप निर्णयकौतूहल पंचायतनप्रकाश (तंत्रशास्त्र) पर्वनिर्णयसार प्रतापार्क प्रतिष्ठाचन्द्रिका मंत्रचन्द्रिका मिताक्षरासार राजनीतिनिरूपणम् राजोपयोगिनीपद्धति ललिताचार्य प्रदीपिका For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 513 - Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ललितार्जुनकौमुदी (तंत्र) लिंगार्चनचन्द्रिका वैदिकवैष्णवसदाचार व्यवहारनिर्णय व्यवहारांगस्मृतिसर्वस्व समावर्तनप्रयोग सिंहसिद्धान्तसिन्धु (तंत्र) केवलराम ज्योतिषराय (17-18) चण्डीशतक, संगीतमीमांसा जयसिंहकल्पकता (ज्योतिष), निथिनिर्णय, अभिलाषशतकम्, गंगास्तुतिपद्धति सारणियां (ज्यो.) स्फुटश्लोकसंग्रह गंगारामभट्ट पर्वणीकर(19) गणेश दैवज्ञ(17) गदाधर त्रिपाठी गोपीनाथशास्त्री दाधीच साहित्यशास्त्र ग्रंथ काव्यतत्त्वप्रकाश काव्यप्रकाशसार कुमारसंभवटीका घटकर्परकाव्यटीका दूतीप्रकाश (कामशास्त्र) नायिकावर्णन रससिन्धु लक्षणचन्द्रिका वृत्तमुक्तावली साहित्यचिन्तामणि साहित्यतत्त्वम् साहित्यतरंगिणी साहित्यसारसंग्रह साहित्यसुधा साहित्यार्णव : मुहूर्ततत्त्वटीका : वैद्यविनोदसंहिता की टीका तर्ककारिका, सन्तोषपंचशिका, वृत्तचिन्तामणि, रामसौभाग्यशतकम्, आनन्दनन्दनम्, शिवपदमाला, कृष्णार्यासप्तशती, भावतरंगप्रशस्ति, यशस्वत्प्रतापप्रशस्ति, ज्ञानस्वरूपतत्त्वनिर्णय : पंचायतनप्रकाश (तंत्रविषयक) विवाहपद्धति, नित्यकर्मपद्धति अजितोदयम्, अभयोदयम्, नाथचरितम्, विद्वनमनोरंजिनी (मुण्डकोपनिषत् टीका) चक्रपाणि गोस्वामी चतुर्थीलाल जगजीवनभट्ट संगीतशास्त्र नर्तननिर्णय रागचन्द्रोदय रागनारायण रागमंजरी रागमाला हस्तकररत्नावली ग्रंथ ग्रंथकार अज्ञात "(17) जनार्दन गोस्वामी नीतिशतकम् (17) वैराग्यशतकम्, शृंगारशतकम्, मंत्रचंद्रिका, ललितार्चाप्रदीपिका जयचंद छाबडा सर्वार्थसिद्धि, (19) प्रमेयरत्नमाला, देवागमस्तोत्र, पत्रपरीक्षा, चंद्रप्रभचरित इन जैन ग्रंथोंपर टीकाएं जानकीलाल चतुर्वेदी : शब्दताम्बूल (18) दलपतराज(17) : पत्रप्रशस्ति यवनपरिचय दलपतिराम (या राज) : राजनीतिनिरूपणशतकम् (17) (अरबी ग्रंथ का अनुवाद) : आनन्दविलास (वेदान्त) विद्याविलास : महाराजकोश (पौराणिक) लंघनपथ्यनिर्णय : विविधौषधसंग्रह : कुवलयमाला एकलिंगमाहात्यम् संगीतराज, संगीतरत्नाकर टीका, रसिकप्रिया (गीतगोविंद-टीका) "(17) "(18) उद्योतनसूरि कन्हकवि कुम्भकर्ण महाराणा (नव्यभरत) 514 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्गाप्रसाद द्विवेदी उत्पत्तीन्दुशेखर, जैमिनिपद्यामृत, लीलावतीभाष्य, बीजगणितभाष्य, क्षेत्रमिति, गोलक्षेत्रमिति, गोलत्रिकोणमिति, सूर्यसिद्धान्तसमीक्षा, अधिमासपरीक्षा, पंचांगतत्त्वम्, चातुर्वर्ण्यपरीक्षा, वेदविद्या, ब्रह्मविद्या, मनुयाज्ञावल्कीयम्, भारतीयसिद्धांतादेश, भारतशुद्धि, भारतालोक (काव्यमाला का संपादन) देवीप्रसाद शतचण्डीयज्ञविधानम् द्वारकानाथ भट्ट : गालवगीतम धनपाल तिलकमंजरी नथमल ब्रह्मचारी(18) : शुद्धचरितम् नयनसुखोपाध्याय (17) : ऊकर (ज्योतिष) परमसुखोपाध्याय कामरंगोदय, दण्डप्रजागर, रसार्णबोल्लदासमाला पुण्डरीक विट्ठल रागचन्द्रोदय, (17) रागनारायण, रागमाला, रागमंजरी, नर्तननिर्णय, दूतीप्रकाश बालकृष्ण दीक्षित अजितचरित्रम् भीष्मभट्ट : विवेकमार्तण्ड टीका भोलानाथ शुक्ल कर्णकुतूहलम् (नाटक), (18) कृष्णलीलामृतम् मण्डन(17-18) प्रसादमण्डन, देवतामूर्तिप्रकरणम्, रूपमण्डनम्, रागवल्लभमण्डनम, वास्तुसारमण्डनम् (सभी शिल्पशास्त्र) मथुरानाथ शास्त्री साहित्यवैभवम्, (20) जयपुरवैभवम्, गोविन्दवैभवम् मथुरामल माथुर : समरभास्कर चतुर्वेदी महीधर(17) : रामगीता मानसिंहमहाराज(17) : राजोपयोगिनीपद्धति मायाराम गौड : व्यवहारागमस्मृतिसर्वस्वम्, पाठक (17) व्यवहारनिर्णय, व्यवहारसार, मिताक्षरासार (सभी धर्मशास्त्रपरक) रत्नाकर पौण्डरीक : जयसिंहकल्पद्रुम (ध.शा.) (17) रामचन्द्रभट्ट : स्वरसिद्धान्तकौमुदी पर्वणीकर(18) (व्याकरण) रामसिंह महाराज(1) : धातुमंजरी (व्याकरण) (17) रामेश्वर पौण्डरीक : रससिंधु (साहित्य) (18) लक्ष्मीनाथ शास्त्री : भारतेतिवृत्तसार द्रविड लक्ष्मीनारायण भट्ट : शब्दशास्त्रपशस्ति, पर्वणीकर पद्यपंचाशिका, परिभाषाप्रतिच्छवि, ज्योतिषशास्त्रार्थसंग्रह, आपस्तंबाहिनक पद्धति, प्रयोगरत्नाकर, औ@दैहिकपद्धति, अंत्येष्टिपद्धति, तुलादानपद्धति, सपिण्डकल्पकतावृत्ति, तर्ककन्दुक, श्लोकरत्नमंजूषा विद्याधरशास्त्री हरनामामृतम् विश्वनाथभट्ट शृंगारवापिका, रानडे (17) शंभुविलासम्, राधाविलासम् विश्वरूप गोरक्षसहस्रनामटीका, मेघमाला विश्वेश्वर महाशब्दे : निर्णयकौतुकम, प्रतापार्क (19) (दोनों धर्मशास्त्रविषयक) वैकुण्ठ व्यास : अमरसिंहाभिषेककाव्यम् व्रजलाल भट्ट दीक्षित : ब्रह्मसूत्र-अणुभाष्यवृत्ति, (17) पद्यतरंगिणी शंकरभट्ट (17) : वैद्यविनोदसंहिता शम्भुदत्त : नाथचन्द्रोदय, जालंधरस्तोत्रम्, राजकुमारप्रबोध शिवानन्दद गोस्वामी : सिंहसिद्धान्त सिन्धु, (17) ललितार्चन कौमुदी (दोनों तंत्रशास्त्र) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 515 For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्यामसुंदर दीक्षित (18) सम्राट् जगन्नाथ श्रीकृष्णदत्त श्रीकृष्ण भट्ट (17-18) सरयूप्रसाद (18) श्रीकृष्णरामभट्ट माधवसिंह-आर्याशतकम्, पर्वनिर्णयसार, समावर्तनप्रयोग, चौलोपनयनप्रयोग प्रासादपंचविंशति वृत्तमुक्तावली, पद्यमुक्तावली, सुंदरीस्तवराज, ईश्वरविलास, वेदान्तपंचविंशति, रामचन्द्रोदय, व्रतचंद्रिका, रामगीतम्, सरसरसास्वादसागर आर्यालंकारशतकम्, काव्यमालाप्रशस्ति, काशीनाथस्तव, गोपालगीतम्, कच्छवंशमहाकाव्यम्, जयपुरविलासम्, जयपुरमेलककुतुकम्, माधवपाणिग्राहोत्सव, छंदोगणित, मुक्तमुक्तावली, शारशतकम्, पलाण्डुराजशतकम्, सिद्धभेषजमणिमाला, मुण्डकोपनिषद् टीका दशविद्यामहिम्नः स्तोत्रम्, तत्त्वप्रकाश, व्याससूत्रार्थचन्द्रिका, अनर्घराघव टीका : सभेदार्यासप्तशती : आख्यातवाद (व्याकरण) सवाई जयसिंह महाराज (17) सिद्धर्षि सिद्धसेन दिवाकर (7-8) सीतारामभट्ट पर्वणीकर (19) दुर्गाशतकम् सिद्धान्तकौस्तुभ, सम्रासिद्धान्त (दोनों ज्योतिष.), रेखागणित (अरबी से अनुवाद) संग्रहशिरोमणि, आगमरहस्यम्, परशुरामसूत्रवृत्ति, सप्तशतीसर्वस्वम्, सर्वार्थकामद्रुम, वर्णबीजप्रकाशनम् यंत्रराज रचना, स्मृतिबोध : उपमितिभवप्रपंचकथा न्यायावतार, कल्याणमंदिरस्तोत्रम् नृपविलास (सटीक), नलविलासम्, जयवंशम्, राघवचरितम, लघुकाव्यम, लक्षणचंद्रिका (साहित्य), काव्यप्रकाशसार, नायिकावर्णनम्, साहित्यतत्त्वम्, साहित्यार्णव, साहित्यतरंगिणी शृंगारलहरी, काव्यतत्त्वप्रकाश, बुधचर्यावर्णनम्, कुमारसंभवटीका, घटकपरटीका, श्लोकबद्धसिद्धान्तकौमुदी, चतुर्दशसूत्रीव्याख्या, जातकपद्धति (सटीक), मुहूर्तसार, गंगादीनाम् अष्टकाः इत्यादि धर्मप्रदीप : साहित्यसारसंग्रह श्रीकृष्ण शर्मा श्रीधरानन्द श्रीनिकेतन गोस्वामी सखारामभट्ट पर्वणीकर सदानन्द त्रिपाठी सदानन्द स्वामी सदाशिव नागर सदाशिव शर्मा दशपुत्र (18) सदाशिव शास्त्री अवधूतगीता टीका, सिद्धतोषिणी (भगवद्गीता टीका), जलंधराष्टक टीका शैवसुधाकर राजरत्नाकर आचारस्मृतिचन्द्रिका, लिंगार्चनचंद्रिका वसन्तशतकम्, गोपालशतकम्, सुन्दरमिश्र (17) सुधाकर महाशब्दे (17) सूर्यनारायणाचार्य हरिजीवन मिश्र (17) : मानववंशम् (महाकाव्य) अद्भुततरंग, घृतकुल्यावली, 516 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिहर भट्ट हरिलाल (17) हरिवल्लभ भट्ट पलाण्डुमण्डनप्रहसनम्, प्रासंगिक प्रहसनम्, विबुधमोहनप्रहसनम्, सहदयानंदप्रहसनम्, विजयपराजित नाटकम्, प्रभावली नाटिका गोपालगीता, दुर्गाप्रशस्ति, धन्वखलाष्टकम्, आनन्दविलासकाव्यम् : कुलप्रबन्ध प्रतिष्ठाचंद्रिका लोचनोल्लास, जयपुरनगरपंचरंग, दशकुमारदशा, गौर्यलंकार : धर्मसंग्रह : वैदिकवैष्णव सदाचार हरिद्विज हरिश्चन्द्र (18) हरेकृष्ण मिश्र (17) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/517 For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (19) देशभक्तिनिष्ठसाहित्य भारतीय समाज के अन्तःकरण में भूमाता, गोमाता, देववाणी, सनातन धर्मपरंपरा, मानवोद्धारक ऋषिमुनि, साधुसंत एवं साधुओं का परित्राण तथा दुर्जनों का विनाश करने में अपना और्य चरितार्थ करनेवाले वीरों के प्रति अपार भक्तिभावना एवं परम आदरभाव वेदकाल से अखण्ड रहा। इस भावना का आविष्कार वैदिक सूक्तों-मंत्रों में, पुराणों के अनेक आख्यानों में, रामायण (महाभारतादि महनीय उपजीव्य ग्रंथों के ऊर्जस्वल संवादों में, तीर्थक्षेत्रों के महात्म्यवर्णनों में यथास्थान प्रकट हुआ है। पुण्य श्लोक शिवाजी महाराज को स्वातंत्र्यार्थ प्रखर रणसंग्राम करने की जाज्वल्यमान प्रेरणा रामायण महाभारत के हितोपदेश द्वारा ही उनकी माता जिजाबाई ने उद्दीपित की थी इस विषय में इतिहासकारों में एकमत है। ___ अंग्रेजी साम्राज्य का निर्मूलन करने की प्रेरणा जनता में उद्दीपित करने के लिए सभी देशभक्तों ने वेदवचनों के साथ पुराण-इतिहास वाङ्मय के आख्यानों-उपाख्यानों का सतत उपयोग किया था। प्राचीन वाङ्मय में विद्यमान, स्वदेश, स्वधर्म एवं स्वसंस्कृति के भक्तिभावना और श्रद्धा का आवेशपूर्ण आविष्कार भारत की हिन्दी, बंगाली, मराठी प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में 1857 के स्वातंत्र्ययुद्ध के बाद भूरि मात्रा में अभिव्यक्त हुई। उसी कालावधि से लेकर आज तक संस्कृत साहित्य के अखिल प्रदेशवासी साहित्यिकों की खण्डकाव्य, महाकाव्य, नाटक, गीतिकाव्य आदि रचनाओं में स्वदेशभक्ति, स्वधर्माभिमान, राष्ट्रीय संस्कृति के अंगोपांगों के प्रति अभिमान इतनी अधिक मात्रा में व्यक्त होने लगा कि, संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में एक नवयुग सा अवतीर्ण हुआ। इन रचनाओं की विचारधारा एवं भावकल्लेल, कालिदास-भवभूति बाण-दण्डी प्रभृति स्वनामधन्य प्राचीन एवं मध्ययुगीन साहित्यिकों के साहित्य में नहीं दिखाई देते। आधुनिक युग के संस्कृत साहित्य के स्वरतरंगों में रणवाद्यों के ध्वनितरंग तथा वीरगर्जना का भैरव निनाद सुनाई देता है जिसका पूर्वकालीन साहित्य में अभाव था। ये नए ध्वनितरंग एवं भैरव निनाद संस्कृत साहित्य की सजीवता के इतने बलवत्तर प्रमाण है कि, जिनके द्वारा "मृतभाषावादी" लोगों के मृषा और मिथ्या आरोप का निर्मूलन हो जाता है। प्रस्तुत परिशिष्ट में देशभक्तिनिष्ठा साहित्य तथा उसके निर्माताओं की प्रदीर्घ सूची दी है। इसी सूची के द्वारा आधुनिक संस्कृत साहित्यिकों का नामतः परिचय हो सकेगा। कोश के मुख्यांग में इन साहित्यिकों में से अनेकों का तथा उनके अनेक ग्रंथों का यथोचित मात्रा में परिचय उपलब्ध होगा। [संपादक] ग्रंथ ग्रंथकार अजेयभारतम्(रूपक): शिवप्रसाद भारद्वाज अध्यात्मशिवायनम् : डॉ. श्री.भा. वर्णेकर अन्तरिक्षनादः : द्वारकाप्रसाद त्रिपाठी अन्वर्थको : वि.के. छत्रे लालबहादुरोऽभूत् अपूर्वः : वि.के. छत्रे शान्तिसंग्राम (रूपक) अब्दुलमर्दनम् : सहस्रबुद्धे शास्त्री (रूपक) अमरमंगलम् : पंचानन तर्करत्न आर्योदयम् : गंगाप्रसाद उपाध्याय इन्दिराकीर्तिशतकम् : श्रीकृष्ण सेमवाल इन्दिरा-यशास्तिलकम् : डॉ. रमेशचन्द्र शुक्ल इन्दिराविजयम् : वेंकटरत्न ऊर्वीस्वनः : डॉ. कृष्णलाल (नादान) कटुविपाक :(रूपक): लीलाराव दयाल कल्याण कोष श्री.भि.वेलणकर काश्मीरसंधान- : नीजे भीमभट्ट समुद्यमः (नाटक) कृषकाणां नागपाशः : डॉ. भगीरथप्रसाद त्रिपाठी कनकवंशम् : बालकृष्ण भट्ट क्षत्रपतिचरितम् : डॉ. उमाशंकर त्रिपाठी (महाकाव्य) केरलोदयम् : के.एन. एलुतच्छन् (महाकाव्य) केसरिचंक्रमणम् : शिवप्रसाद भारद्वाज (रूपक) (लाला लाजपतराय चरित्र) क्रान्तियुद्धम् : वासुदेवशास्त्री बागोवाडीकर 518 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गणाभ्युदम् गांधि गीता गान्धिगौरवम् गान्धिगौरवम् गान्धिचरितम् गान्धिचरितम् गान्धिचरितामृतम् गान्धिनस्त्रयो गुरवः शिष्याश्व गान्धिबान्धवम् गान्धिविजयम् गान्धिविजयनाटकम् गुरूगोविंदसिंह भगवत्पाद जीवनेतिवृत्तम् गैर्वाणीविजयम् (रूपक) गोरक्षाभ्युदयम् (नाटक) ग्रामगीतामृतम् चारुवरितचर्चा चित्तौडदुर्गम् छत्रपति शिवराजः (नाटक) छत्रपति शिवाजीमहाराज चरितम् जवाहरज्योतिः (महाकाव्य) छत्रपतिसाम्राज्यम् (नाटक) जय भारतभूमे जयन्तु कुमाउनीयाः जवाहरचिन्तनम् जवाहरतरंगिणी जवाहरलाल नेहरुविजयम् जवाहर वसंत साम्राज्यम् जवाहरस्वर्गाहोरणम् (रूपक) तद् भारतवैभवम् तिलकयशोर्णवः तिलकायनम् (रूपक) : : : : : : : : : : : : 10 : : 1:0 : : : : : : : : : डॉ. हरिहर त्रिवेदी श्रीनिवास ताडपत्रीकर : डॉ. रमेशचंद्र शुक्ल शिवगोविंद त्रिपाठी : ब्रह्मानन्द शुक्ल सुधाशरण मिश्र विद्यानिभिशास्त्री द्वारकाप्रसाद त्रिपाठी 40 मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक डॉ. रमाकान्त शुक्ल जयरामशास्त्री लोकनाथ शास्त्री मथुराप्रसाद दीक्षित (मूल अंग्रेजी लखकहरबन्ससिंह) लीलाराव दयाल श्री.भि. वेलणकर डॉ. श्री. भा. वर्णेकर रमाकान्त मिश्र जयराम शास्त्री वि.के. छत्रे मेधावतशास्त्री : माधव श्रीहरी अणे : श्री.भि. वेलणकर अनुवादक श्रुतिकान्तशर्मा राजराजवर्मा म.म. शंकरलाल डॉ. श्री. भा. वर्णेकर डॉ. रमेशचंद्रशुक्ल मेधावतशास्त्री श्री.भि. वेलणकर श्रीपादशास्त्री हसूरकर रघुनाथप्रसाद चतुर्वेदी www.kobatirth.org तीर्थभारतम् (गीतिमहाकाव्य) दयानन्ददिग्विजयम् दयानन्ददिग्विजयम् दुर्बलम् (नाटक) देशदीपम् (नाटक) देशबन्धुप्रियम् (नाटक) देशस्वातत्र्यसमरकाले राष्ट्रधर्मः धन्योऽहं धन्योऽहम् नवभारतम् नारीजागरणम् (नाटक) निवेदितनिवेदितम् नेहरूचरितम् (महाकाव्य ) नेहरूयश: सौरभम परिवर्तनम् (नाटक) पर्णालिपर्वत ग्रहणाख्यानम् पाणिनीय नाटकम् पाददण्डम् पारिजातापहार पारिजातसौरभम् पुनरुन्धेष पूर्वभारतम् (महाकाव्य) पृथ्वीराज चव्हाण चरितम् पौरखदिग्विजयम् (रूपक) प्रतापचम्पू प्रतापविजयनाटकम् प्रतापशाक्तकम् (रूपक) प्रतीकारम् (रूपक) प्रयुद्धभारतम् (रूपक) प्रबुद्धहिमालयम् (नाटक) बंगला देश For Private and Personal Use Only : : : : : : : : : : : : : : : : : 0:0 : : : डॉ. श्री. भा. वर्णेकर : कपिलदेव द्विवेदी जयराम पिण्डये Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखिलानंद शर्मा मेथाव्रत शास्त्री विद्याधर शास्त्री डॉ. रमा चौधुरी डॉ. यतीन्द्र बिमल चौधुरी : के. आ. वैशम्पायन डॉ. ग. बा. पळसुले मुत्तुकुलम् श्रीधर गोपालशास्त्री दर्शनकेसरी डॉ. रमा चौधुरी ब्रह्मानंद शुक्ल बलभद्रप्रसादशास्त्री : दिलीपदत्त शर्मा : मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक वि. के. छत्रे गोपालशास्त्री दर्शनकेसरी डॉ. वनमाला भवालकर भगवदाचार्य (गांधिचरित्र) भगवदाचार्य (गांधिचरित्र) डॉ. वेंकटराम राघवन् प्रभुदत शास्त्री श्रीपाद शास्त्री हसूरकर एस. के. रामचंद्रराव : विश्वेश्वर • सहस्रबुद्धे शास्त्री रामकैलाश पांडेय डॉ. रमेशचंद्र शुक्ल संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 519 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुवादक: वेंकटराघवाचार्य : शठकोप विद्यालंकार भारतीय वृत्तम् (मूल अंग्रेजी ले. मॅक्डोनेल) भारतीविजयम् (रूपक) भारतीस्तवः भास्करोदयम् महात्मनिर्वाणम् महात्मविजयम् महारानी झांसी लक्ष्मीबाई महाराणा प्रतापसिंह चरितम् : कपाली शास्त्री : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी : बी. नारायण नायर : के.बी.एल. शास्त्री : पी. गोपाल कृष्णभट्ट : श्रीपाद शास्त्री हसूरकर बंगलादेश विजयम् : पद्मशास्त्री बांग्लादेशोदयम् : रामकृष्ण शर्मा (नाटक) प्राणाहुति (रूपक) : शिवसागर त्रिपाठी प्राणाहुति (रूपक) : श्री.भि. वेलणकर भक्तसिंहचरितम् प्रकाश शर्मा भगतसिंहचरितामृतम् : चुनीलाल सूदन भव्यभारतम् गैरिकपाटी लक्ष्मीकान्त भाति मे भारतम् : डॉ. रमाकान्त शुक्ल भारतम् : रामकैलाश पाण्डेय भारतगणराज्यस्य : द्वारकाप्रसाद त्रिपाठी प्रधानमंत्रिगणः भारतगीतिका : गंगाप्रसाद उपाध्याय भारतजनकम्(नाटक) : डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी भारततातम्(नाटक) : डॉ. रमा चौधरी भारतपथिकम् : डॉ. रमा चौधुरी (नाटक) भारतपारिजातम् : भगवदाचार्य भारतभजनम् : हरदेव उपाध्याय (रूपक) भारतमातमाला : श्रीनारायणपति त्रिपाठी भारतराजेन्द्रम् : डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी भारतराष्ट्ररत्नम् : यज्ञेश्वरशास्त्री भारतलक्ष्मी : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी भारतविजयनाटकम् : मथुराप्रसाद दीक्षित भारतविवेकम् : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी (नाटक) भारतवीरम् (नाटक) : डॉ. रमा चौधुरी भारतवैभवम् : डॉ. के.एस्. नागराजन् भारतशतकम् : महादेव पांडेय भारतसन्देशम् : शिवप्रसाद भारद्वाज भारतस्य सांस्कृतिको मूल हिन्दी ले. दिग्विजयः (प्रबंध) हरदत्त वेदालंकार अनुवादक-कालिका प्रसाद शुक्ल) भारतस्वातंत्र्यम् : कृ.वा. चितळे भारतस्वातंत्र्य- : डॉ. रमेशचंद्र शुक्ल संग्रामेतिहास भारतहृदयारविन्दम् : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी (नाटक) भारतीगीता : बी.आर. लक्ष्मीअम्मल भारतीमनोरथम् : एम.के. ताताचार्य भारतीयम् इतिवृत्तम् : गंगाप्रसाद उपाध्याय भारतीयरनचरितम् : रूद्रदत्त पाठक महाराष्ट्रवीररत्नमंजूषा : श्रीपाद शास्त्री हसूरकर महिममयभारतम् : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी मातृभूलहरी : श्री.भा. वर्णेकर मातृभूशतकम् : श्रीधर वेंकटेश मालवीयकाव्यम् : रामकुबेर मालवीय मेलन तीर्थम् : डॉ. यतीन्द्र विमल चौधुरी (नाटक) मेवाडप्रतापम् : हरिदास सिद्धान्त वागीश (नाटक) रणश्रीरंग : श्री.भि. वेलणकर राजस्थान सती- : श्रीपाद शास्त्री हसूरकर नवरत्नहार राजेन्द्रप्रसादाभ्युदयम् : श्रीपाद कृष्णमूर्ति शास्त्री रामदासचरितम् : क्षमादेवी राव रामदासस्वामि-चरितम् : श्रीपादशास्त्री हसूरकर राष्ट्रगीतांजलि : डॉ. कपिलदेव द्विवेदी राष्ट्रपतिगौरवम् : लक्ष्मीनारायण शानभाग राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद : वासुदेव आत्माराम लाटकर चरितम् : रामनाथ पाठक : पं. रामराय : डॉ. रमेशचंद्र शुक्ल : पद्मशास्त्री : कृ.वा. चितळे राष्ट्रवाणी राष्ट्रस्मृति लालबहादुरचरितम् लोकतंत्रविजयम् लोकमान्यतिलक चरितम् लोकमान्यस्मृति (रूपक) लोकमान्यालंकारः वंगीयप्रतापम् (नाटक) : श्री.भि. वेलणकर : करमरकर शास्त्री : हरिदास सिद्धान्तवागीश 520 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : : : डॉ. राजेन्द्र मिश्र डॉ. ग.बा. पळसुले डॉ. श्री.भा. वर्णेकर वाग्वधूटी विनायक वीरगाथा विनायक वैजयन्ती (स्वातंत्र्यवीर-शतकम्) विवेकानन्दचरितम् (रूपक) विवेकानन्दचरितम् विवेकानन्दविजयम् (महानाटक) : जीवन्यायतीर्थ : : डॉ. ग.बा. पळसुले डॉ. श्री.भा. वर्णेकर विवेकानन्दसंघः : जीव न्यायतीर्थ विशालभारतम् : श्यामवर्ण द्विवेदी (महाकाव्य) वीरतरंगिणी .: शशिधर शर्मा वीरपृथ्वीराज- : मथुराप्रसाद दीक्षित विजयम् (नाटक) वीरप्रतापनाटकम् : मथुराप्रसाद दीक़ित वीरभा (रूपक) : लीलाराव दयाल वीरोत्साहवर्धनम् : सुरेशचंद्र त्रिपाठी शरणार्थिसंवाद : डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य (रूपक) शान्तिदूतम् : ज्वालापतिलिंग शास्त्री शार्दूलशकटम् : डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य (नाटक) शिंजारव : डॉ. कृष्णलाल शिवराजविजय : अंबिकादत्त व्यास शिवराजाभिषेकम् : डॉ. श्री.भा. वर्णेकर (नाटक) शिवराज्योदयम् : डॉ. श्री.भा. वर्णेकर (महाकाव्य) शिववैभवम् (रूपक) : विनायक बोकिल शिवाजीचरितम् हरिदास सिद्धान्त वागीश शिवाजीविजयम् श्रीरंगाचार्य श्रमगीता डॉ. श्री.भा. वर्णेकर सत्याग्रह गीता : क्षमादेवी राव सत्याग्रहोदयम् बोम्मकट्टिराम लिंग (रूपक) शास्त्री समानमस्तु वो मनः : डॉ. ग.बा. पळसुले (रूपक) संघगीता : डॉ.श्री.भा. वर्णेकर संस्कृतवाग्विजयम् : प्रभुदत्त शास्त्री (नाटक) साम्यतीर्थम् : जीवन्यायतीर्थ सिक्खगुरूचरितामृतम्: श्रीपाद शास्त्री हसूरकर सुभाषचरितम् : वि.के. छत्रे सुभाष-सुभाषम् : डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी (नाटकम्) सुतुप्तिवृत्तम चिट्टिगुडुर वरदाचारियर स्वर्णपुरकृषीवला : लीलाराव दयाल (रूपक) सुसंहतभारतम् : पुल्लेल रामचंद्र रेड्डी (नाटक) स्वतंत्रभारतम् : बालकृष्ण भट्ट स्वराज्यविजयम् : द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री स्वराज्यविजयम् : क्षमादेवी राव स्वातंत्र्यचिंतामणि : श्री.भि. वेलणकर (रूपक) स्वातंत्र्ययज्ञाहुति : नारायण शास्त्री कांकर स्वातंत्र्यज्योतिः श्रीरामकृष्ण भट्ट स्वातंत्र्यवीरशतकम् : डॉ. श्री.भा. वर्णेकर स्वातंत्र्यसन्धिक्षण जीवन्यायतीर्थ स्वाधीनभारतम् : रामनिरीक्षण सिंह स्वाधीनभारतविजयम् : जीवन्यायतीर्थ स्वामीविवेकानन्द : त्र्यंबकशर्मा भांडारकर चरितम्(महाकाव्य) हिमाद्रि पुत्राभिनन्दम् : श्रीकृष्ण सेमवाल हिंदुसम्राट् स्वातंत्र्यवीर : डॉ. ग.बा. पळसुले हैदराबादविजय- : नीजे भीमभट्ट नाटकम् [प्रस्तुत परिशिष्ट मुख्यतः डॉ. हरिनारायण दीक्षित कृत संस्कृत साहित्य में राष्ट्रीय भावना (वाणीबिहार नयी दिलली-56) द्वारा प्रकाशित) इस प्रबन्ध पर आधारित है।] संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 521 For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (20) आत्मारामविरचितः वाङ्मयकोशः संस्कृत साहित्य में पद्यात्मक शब्दार्थकोश की रचना करने की परम्परा बहुत प्राचीन है। किन्तु इस प्रकार का वाङ्मयकोश या अन्य किसी विषय का कोश करने का प्रयास कहीं दिखाई नहीं देता। विदर्भ में इस पद्धति से वाङ्मयकोश निर्माण करने का प्रयास एक पण्डित द्वारा इसी शताब्दी में हुआ था। प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश की निर्मिति का पता चलनेपर इस 215 पद्यात्मक वाङ्मयकोश की पाण्डुलिपि हमारे पास सौंपी गयी। यह 'आत्माराम-विरचित वाङमयकोश' संपूर्ण नहीं है। फिर भी पद्यात्मक वाङमयकोशों की प्राचीन परम्परा में यह एक वैशिष्ट्यपूर्ण आधुनिक रचना होने के कारण इस का अन्तर्भाव प्रस्तुत संस्कृत कोश के 'परिशिष्ट' के रूप में किया गया है। संपूर्ण कोश अनुष्टभ् छंद में है बीच में रचना की सुविधा के लिए आर्या छंद का प्रयोग हुआ है। (संपादक) वेद-वाङ्मयम् चत्वार ऋग्यजुःसामाथर्ववेदाः सुविश्रुताः । अष्टोरशतं ख्याता सर्वोपनिषदो, यथा ।।1।। ऋग्वेदो दशभिः शुक्लयजुर्वेदस्तथा पुनः । युक्तश्चैकोनविंशत्या कृष्णो द्वात्रिंशता तथा। षोडशेन हि सामैकत्रिंशताऽथर्वसंहिता ।।2।। ऋग्वेदे तिरेयस्य कौषीतक्यास्तथैव च। केन-छान्दोग्ययोः साम्नि प्रामाण्यं परमं मतम् ।।3।। मैत्रायणी-तैत्तिरीय- श्वेताश्वतर-काठकाः । महानारायणाख्या च कृष्णे यजुषि संमताः ।।4।। बृहदारण्यकेशाख्ये शुक्ले यजुषि सम्मते । माण्डूक्य-मुण्डक-प्रश्ना अथर्वणि च सम्मताः ।।5।। - न्यायदर्शनम् । गौतमो ह्यक्षपादाख्यो न्यायसूत्रस्य लेखकः । वात्स्यायनो न्यायसूत्रभाष्यकार इति श्रुतः ।।1।। न्यायवार्तिक कर्ता च स उद्योतकरस्तथा। न्यायवार्तिक टीका सा ख्याता तात्पर्यसंज्ञया ।।2।। न्यायसूचिनिबन्धश्च मिश्रवाचस्पतेः कृतिः। चार्वाक-बौद्ध-मीमांसाद्वयखण्डन-विश्रुता ।।3।। जयन्तभट्टरचिता बिख्याता न्यायमंजरी। न्यायसारप्रणेताऽसौ भासर्वज्ञो महामतिः ।।4।। कृतो ह्युदयनाचार्यैः बौद्धधिक्कारसंज्ञकः आत्मतत्त्वविवेकोन्योऽसौ न्यायकुसुमांजलिः ।। तात्पर्यपरिशुद्धिश्च तात्पर्यपरिशुद्धये ।।5।। तत्त्वचिन्तामणेः कर्ता नव्यन्यायप्रवर्तकः । उपाध्यायः स गंगेशो न्यायसागरपारगः ।।6।। तत्त्वचिन्तामणेयेन आलोकः प्रकटीकृतः । जयदेवः स विख्यातः श्रीमत्पक्षधराख्यया ।।7।। पक्षधरान्तेवासी ख्यातो रुचिदत्तमिश्र इति नाम्ना । कुसुमांजलिमकरन्दं विदधौ चिन्तामणिप्रकाशं च ।।8।। वासुदेवः सार्वभौमो वङ्गवासी गुरुर्महान्। षोडशे शतके येन न्यायशास्त्रं प्रवर्तितम् ।।9।। तत्त्वचिन्तामणेर्यस्मात् दीधितिः सम्प्रकाशितः । स तर्कपण्डितः ख्यातो रघुनाथशिरोमणिः ।।10।। दीधिति-चिन्तामण्यालोकानां यो रहस्यमाह बुधः । रघुनाथान्तेवासी मथुरानाथः स तर्कवागीशः ।।11।। दीधितेर्या बृहट्टीका जगदीशेन निर्मिता। नैयायिकसमाजे सा जागदीशीति विश्रुता ।12।। दीधितेरपरा टीका गदाधरविनिर्मिता। गादाधरीति लोकेऽस्मिन् सा हि सर्वत्र विश्रुता ।।13।। आत्मतत्त्व विवेकस्य तत्त्वचिन्तामणेस्तथा। मूलगादाधरी टीका गदाधरविनिर्मिता ।।14।। द्विपंचाशन्महाग्रन्था गदाधरविनिर्मिताः । तेषु व्युत्पत्तिवादश्च शक्तिवादश्च विश्रुतः ।।15।। वैशेषिकदर्शनम् वैशोषिकसूत्रकृतं कणादमौलूकमाद्यदार्शनिकम्। वन्दे पदार्थधर्मसंग्रहकारं प्रशस्तपादाख्यम् ।।1।। श्रीमद्व्योमशिवाचार्यैष्टीका व्योमवती कृता । प्रशस्तपादभाष्यस्य तथाऽन्यैरपि पण्डितैः ।।2।। रचितोदयनाचार्यैष्टीका सा किरणावली। श्रीधराचार्यरचिता विख्याता न्यायकन्दली। 522 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रशस्तपादभाष्यस्य सैव टीका प्रशष्यते ।।3।। श्रीमद्वरदराजेन वर्धमानेन वै तथा। वादीन्द्र-पद्मनाभाभ्यां व्याख्याता किरणावली ।।4।। कन्दलीसारकर्ताऽसौ पद्मनाभः सुविश्रुतः । कन्दलीपंजिकाकर्ता स जैनो राजशेखरः ।।5।। वल्लभाचार्यविहिता बहुभाष्यसमन्विता। न्यायलीलावतीटीका श्रीवत्स-रचिताऽपरा ।।6।। भाष्याम्बुधौ विरचितः सेतुः श्रीपद्मनाभमिश्रेण । तत् काणादरहस्य शंकरमिश्रेण सम्प्रोक्तम् ।।7।। स भाष्यनिकषः ख्यातो मल्लीनाथस्य धीमतः । सूक्तिः श्रीजगदीशस्य भाष्यटीकासु विश्रुता ।।8।। ख्याता सप्तपदार्थी सा शिवादित्यकृता यथा । तथा लक्षणमाला च पण्डितेषु प्रशस्यते ।।9।। आमोदोपस्कारौ कल्पलताऽनन्दवर्धनौ च तथा। वादिविनोद-मयूखौ कण्ठाभरणं च विख्याताः |10|| श्रीकाणादरहस्यं प्रथितः भेद (रत्न) प्रकाशश्च । शंकरमिश्रविरचिता ग्रन्था नव विश्रुता ह्येते ।।11।। न्यायपंचाननः ख्यातो विश्वनाथो महामतिः। कृतो भाष्यपरिच्छेदो येन टीकासन्वितः ।।12।। मुक्तावलिप्रकाशाख्या भारद्वाजविनिर्मिता। व्याख्या दिनकरी नाम रामरुद्रीसमन्विता ।।13।। न्यायसूत्रवृत्तिरुक्ता विश्वनाथेन धीमता। ब्रह्मसूत्र न्यायसुधा ह्यष्टाध्यायी तथैव च ।।13।। सिद्धांजनं प्रदीपश्च व्याख्याता येन धीमता। अन्नम्भट्टः स विख्यातस्तर्कसंग्रहलेखकः ।।14।। सांख्यदर्शनम् आदिविद्वानिति ख्यातः कपिलः स महामुनिः । सांख्यसूत्राण्यथो तत्त्वसमासं यो विनिर्ममौ ।11।। टीकास्तत्त्वसमास्य भूयस्यः सन्ति यासु हि। शिवानन्देन रचितं सांख्यतत्त्वविवेचनम् ।।2।। भावागणेशरचितं सांख्य (तत्त्व) याथार्थ्यदीपनम्। सर्वोपकारिणी टीकाऽनिरुद्धवृत्तिरेव च।। इत्येता प्रमुखा टीकाः सर्वपण्डितसम्मताः ।।3।। षष्टितन्त्रप्रणेता चाऽसुरिशिष्यः स विश्रुतः । नाना पंचशिखो लोके शान्तिपर्वणि वर्णितः ।।4।। भार्गवोलूक-वाल्मीकि-मूक-कौण्डिन्य-देवलाः । कैरातो बाष्कलिश्चैव वार्षगण्यः पतंजलिः ।।5।। वृषभेश्वरहारीत-पौष्टिका गर्ग-गौतमौ। पंचादिकरणः पद्मपादाचार्यः सुविश्रुतः ।।6।। विन्ध्यवासी रुद्रिलोऽसौ व्याघ्रभूतिः सुविश्रुतः। पूर्वमीश्वरकृष्णात् तु ख्यातास्ते सांख्यपण्डिताः ।।7।। कृतिरीश्वरकृष्णस्य विख्याता सांख्यकारिका । हिरण्यसप्ततिरिति या चीनेषु सुविश्रुता ।।8।। याः सांख्यकारिकाटीकाः पण्डितेषु सुविश्रुताः । अज्ञातकर्तृकातासु विदिता युक्तिदीपिका 119।। मिश्रवाचस्पतिप्रोक्ता प्रथिता तत्त्वकौमुदी। शंकरार्येण रचिता टीका सा जयमंगला । श्रीनारायणतीर्थेन चन्द्रिका सुप्रकाशिता ।।10।। माठररचिता माठरवृत्तिस्तद् गौडपादभाष्यं च। नरसिंहस्वामिकृतः सांख्यतरुवसन्त इति विदितः ।।11।। कालाग्निभक्षितं सांख्यं येन संजीवितं पुनः । कृतानि पंचभाष्याणि तेन विज्ञानभिक्षुणा ।।12।। वैयासिकभाष्यकृते रचितं तद् योगवार्तिकं येन । सांख्यप्रवचनभाष्यं निवेदितं सांख्यसूत्राणाम् ।।13।। कथितश्च योगसारः स सांख्यसार स्तथैव येन पुनः । विज्ञानामृतभाष्यं तेनोक्तं ब्रह्मसूत्राणाम् ।।14।। योगदर्शनम् हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः । पतंजले: योगसूत्रं व्यासभाष्यसमन्वितम् ।।1।। मिश्रवाचस्पतिप्रोक्ता व्यासभाष्यविवेचिका। तत्त्ववैशारदी नाम टीका सर्वत्र विश्रुता ।।2।। तत्त्ववैशारदी-व्यासभाष्ययोरुपबृंहणम्। तद् योगवार्तिक नाम कृतं विज्ञानभिक्षुणा ।।3।। पातंजलरहस्यं यद् राघवानन्दभाषितम्। तत्त्ववैशारदीभाष्यं तत् सर्वत्र सुविश्रुतम् ।। ।। योगसंग्रहसारश्च विख्यतो भिक्षुभाषितः । भाष्यटीका हरिहरानन्दप्रोक्ता च भास्वती ।।5।। टीकासु योगसूत्राणां ह्येताः सर्वत्र विश्रुताः । भोजवृत्तिभोजकृता राजमार्तण्डसंज्ञका ।।6।। भावागणेशरचिता टीका वृत्तिरिति श्रुता। रामानन्देन यतिना कृता टीका मणिप्रभा ।।7।। अनन्तपण्डितकृता टीका सा योगचन्द्रिका । कृतः सदाशिवेन्द्रेण ग्रन्थो योगसुधाकरः।। नागोजिभट्टरचिता लघ्वी च बृहती तथा ।।8।। पूर्वमीमांसा आत्रेयाश्मरथौ काष्र्णाजिनि-बर्बादरिरेव च। ऐतिशायननामाऽन्यः कामुकायन एव च ।।1।। लाबुकायनसंज्ञोऽसौ तथाऽऽलेखन संज्ञकः । काशकृस्त्रिरिति ह्येते मीमांसापूर्वसूरयः ।।2।। मीमांसासूत्रकर्ताऽसौ जैमिनिः सर्वविश्रुतः । भवदासोपवर्षों हि सूत्रवृत्तिकरावुभौ ।।3।। विख्यातः शबरस्वामी मीमांसाभाष्यलेखकः । भर्तृमित्रकृता वृत्तिस्तत्त्वशुद्धिरिति श्रुता ।।4।। भाष्यवृत्तित्रये ज्ञेयं कुमारिलविनिर्मिते। श्लोकवार्तिकमाद्यं च द्वितीयं तन्त्रवार्तिकम् ।।5।। टुपटीकेति तृतीया च नवाऽन्त्याध्यायटिप्पणी। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 523 For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बृहट्टीका मध्यटीका कुमाररिलकृता श्रुता ।।6।। भट्टकुमारिलशिष्यैः मण्डनमिश्रः कृताइमे ग्रन्थाः । आद्यःस विधिविवेको ह्यपरोऽसौ भावनाविवेकश्च ।। मीमांसानुक्रमणी तथैव विभ्रमविवेकोऽपि ।।7।। तत्त्वबिन्दुरिति ग्रन्थः सा न्यायकणिकाऽमिधा। टीका विधिविवेकस्य वाचस्पतिविनिर्मिता ।।8।। सा भावनाविवेकस्य टीका ह्युम्बेकनिर्मिता। तात्पर्यटीका च श्लोकवार्तिकोदबोधनक्षमा ।।9।। (तात्पर्यटीका चाऽपूर्णा जयमिश्रेण पूरिता।) पार्थसारथिमिश्रेण रचिता शास्त्रदीपिका । टुप्टीकायां तर्करत्नं, श्लोकवार्तिकपुस्तके ।।10।। न्यायरत्नाकरो न्यायरत्नमाला तथैव च। टीका नायकरत्नाख्या रामानुजविनिर्मिता ।।11।। रामकृष्णकृता टीका युक्तिस्नेहप्रपूरणी। मयूखमालिका चान्या सोमनाथविनिर्मिता ।। आभ्यां प्रकाशिता पार्थसारथेः शास्त्रदीपिका ।।12।। कृता सुचरितेनैव काशिका श्लोकवार्तिके। सा तन्त्रवार्तिके न्यायसुधा सोमेश्वरेण च ।।13।। ख्याता सेश्वरमीमांसा माधवाचार्यनिर्मिता। न्यायमालाविस्तरश्च माधवाचार्यनिर्मितः ।। मीमांसापादुकाटीका कृता वेदान्तदेशिकैः ।।14।। भाट्टमते नव्यमतप्रवर्तकःखण्डदेवमिश्रोऽसौ। यो भाट्टकौस्तुभाख्यां टीकां विदधे हि सूत्राणाम् ।।15।। भादृचिन्तामणिर्भाट्टचन्द्रिका च प्रभावलिः । इति टीकात्रययुता विज्ञेया भाट्टदीपिका ।।16।। एका वांछेश्वरेणोक्ता द्वितीया भास्करेण च । तृतीया शम्भुभट्टेन व्याख्याता भाट्टदीपिका ।।17।। गागाभट्टसहायेन खण्डदेवेन धीमता कृतं भाट्टरहस्याख्यं सूत्रभाष्यं सुविश्रुतम् ।।18।। अप्पय्य-दीक्षितैष्टीतिकायुतं विधिरसायनम्। चित्रकूटं तथा वादनक्षत्रावालिरुत्तमा ।। तथैव ग्रथितो ग्रन्थ उपक्रमपराक्रमः ।।19।। सा मीमांसान्यायप्रकाशसंज्ञाऽऽपदेवसंग्रथिता। आपोदेवी प्रथिता भाट्टालंकारटीकया सहिता ।। भाट्टालंकाराख्या टीका रचिता ह्यनन्तदेवेन ।।20।। मानमेयोदयो भट्टनारायणकृतस्तथा। लौगाक्षिभास्करप्रोक्तो विख्यातो ह्यर्थसंग्रहः ।।21 ।। तैनैव विधिरसायनदूषणमपि भट्टशंकरेणोक्तम्। यो मीमांसाबालप्रकाशसंज्ञं चकार सद्ग्रन्थम् ।।22 || तन्त्रवार्तिकटीका सा सुविख्याता सुबोधिनी। राणकोज्जीविनी न्यायसुधाटीका तथैव च। अन्नंभट्टेन रचितं टीकाद्वयमिदं श्रुतम् ।।23।। मीमांसा-परिभाषा सा रचिता कृष्णयज्वना । रामेश्वरेण व्याख्याता याऽसौ द्वादशलक्षणी। सुबोधिनीति सा ख्याता टीका ह्यन्वर्थसंज्ञका ।।24।। कुमारिलान्तेवासी च गुरुमार्गप्रवर्तकः । स प्रभाकरमिश्रो हि मीमांसादर्शने श्रुतः ।।25 ।। कृतं शाबरभाष्यस्य तेन टीकाद्वयं महत्। निबन्धनाख्या बृहती, लघ्वी विवरणाऽभिघा ।।26 ।। रचितं शालिकनाथाचार्यैस्तत् पंचिकात्रयं प्रथितम्। ऋजुविमला-दीपशिखा- प्रकरणमिति यत् सुविख्यातम्।। (दीपशिखा हि विवरणे ऋजुविमला सा निबन्धने टीका) ।।27।। ख्यातो नयविवेकोऽसौ भवनाथप्रवर्तितः। आनन्दबोधरचिता शाब्दनिर्णयदीपिका ।।28 ।। भाष्यं नयविवेकस्य रन्तिदेवेन धीमता। विवेकतत्त्वं सम्प्रोक्तं पंजिका शंकरेण च ।।29 ।। कृता वरदराजेन तट्टीका दीपिकाऽभिधा । अलंकाराभिधा टीका कृता दामोदरेण च ।।30।। नन्दीश्वरः प्रभाकरविजयाख्यं रचितवान् महाग्रन्थम् । रामानुज आचार्यस्तन्त्ररहस्यं च सर्वजनमान्यम् ।।31 ।। कृतं मुरारिमिश्रेण त्रिपादीनयनं यथा । तद्वदेकादशाध्यायीकरणं च सुविश्रुतम् ।।32 ।। वेदान्तदर्शनम् काष्णाजिनिः काशकृत्स्राऽऽत्रेयौ जैमिनिबादरी। आश्मरथ्यश्चौडुलोमिः वेदान्तज्ञाः सनातनाः ।।1।। भर्तृप्रपंचोपवर्षों भर्तृमित्रश्च भारुचिः। बोधायनो भर्तृहरिः द्रविडाचार्य एव च ।।2।। टंकः सुन्दरपाण्डयश्च ब्रह्मनन्दी च काश्यपः । ब्रह्मदत्त इति ज्ञेयाः वेदान्तज्ञाः पुरातनाः ।।3।। कष्णद्वैपायनो व्यासः बादरायणसंज्ञकः।। ब्रह्मसूत्रमिति ख्यातं भिक्षुसूत्रं चकार सः ।।4।। भाष्याणि ब्रह्मसूत्राणां विख्यातानि दशैव हि। शारीरकं शंकरस्य, भास्कर भास्करस्य च ।।5।। रामानुजस्य श्रीभाष्यं, श्रीपतेः श्रीकर तथा। वल्लभस्याणुभाष्यं च शैवं श्रीकण्ठभाषितम् ।।6।। वेदान्तपारिजाताख्यं निंबार्कग्रथितं तथा अनन्ततीर्थरचित पूर्णप्रज्ञमिति श्रुतम् ।।7।। विज्ञानभिक्षोर्विज्ञानामृतभाष्यमिति श्रुतम्। गोविन्दं बलदेवस्य दशभाष्याण्यमूनि च ।।8।। ब्रह्मसूत्र-भाष्यकाराः शंकर-भास्कर-वल्लभःराजानुज-मध्व-बलदेवाः। निम्बार्क-श्रीकण्ठ-श्रीपति-विज्ञानभिक्षवो दश ते ।।9।। ब्रह्मसूत्रभाष्याणिः श्री-शारीरक-भास्कर-पूर्णप्रज्ञाऽणु-शैव-गोविद-श्रीकर-विज्ञानामृतसहितं वेदान्तपारिजातं च ।।10।। भाष्योक्तनि वेदान्तमतानिः निर्विशेषाद्वैतमतं शंकरो, भास्करः पुनः । 524 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीरशैवशष्टाद्वैताख्यं भक्त रामानुजेवणा । 1121 भेदाभेदमतं प्राह, मध्वो द्वैतमतं तथा ।।11।। द्वैताद्वैतं च निम्बार्कः शुद्धादैतं तु वल्लभः । अविभागाद्वैतमतं प्रोक्तं विज्ञानभिक्षुणा ।।12।। तद् विशिष्टाद्वैतमतं प्रोक्तं रामानुजेन च। शैवं विशिष्टाद्वैताख्यं श्रीकण्ठः, श्रीपतिः पुनः । वीरशैवमृतं प्राह ब्रह्मसूत्रविमर्शतः ।।13।। श्रीगौडपादरचिताः ख्याता माण्डूक्यकारिकाः । ब्रह्मसूत्रस्य गीतायाः दशोपनिषदां तथा। माण्डूक्यकारिकाणां च चक्रे भाष्याणि शंकरः ।।14।। सहस्रनामव्याख्यानं सुजातीयं च विश्रुतम्। तथोपदेशसाहस्री ख्याता शंकरनिर्मिता ।।15।। कृता मण्डनमिश्रेण ब्रह्मसिद्धिः सुविश्रु। स्फोटसिद्धिरपि ख्याता तनैव च विनिर्मिता ।।16।। ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा च वाचस्पतिविनिर्मिता। रचिता चित्सुखेनाऽपि ह्यभिप्रायप्रकाशिका ।।17।। भावशुद्धिरपि श्रेया विद्यासागरभाषिता। ब्रह्मसिद्धेरिमा व्याख्याः विज्ञेयाः सर्वविश्रुताः । शंखपाणिकृता टीका ब्रह्मसिद्धेः सुविश्रुता ।।१८।। ख्यातो वार्तिककारोऽसावाचार्यः श्रीसुरेश्वरः । चकार दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिकमेव च ।।19।। सभाष्यं तैत्तिरीयं च बृहदारण्यकं तथा। नैष्कर्म्यसिद्धिरुक्तं च पंचीकरणवार्तिकम् ।।20।। प्रपंचसारटीका च विज्ञानामृतदीपिका। प्रपंचपादिका-टीका या प्रस्थानमिति श्रुता।। प्रकाशात्मयतिप्रोक्ता गुर्वी विवरणाभिधा ।।21 ।। विवरणभाष्यमखण्डानन्दकृतं तत्त्वदीपनं नाम । विद्यारण्यविरचितो विवरण (प्रपंच)संग्रह इति श्रुतो लोके ।।22 ।। सर्वज्ञात्मा स संक्षेपशारीरकमथोऽकरोत् । नृसिंहाश्रम ऊचेऽसौ तट्टीका तत्त्वबोधिनीम् ।।23।। सारसंग्रहटीकायाः कर्ताऽसौ मधुसूदनः । वाचस्पतिप्रणीताऽसौ भाष्यटीका हि भामती।। ब्रह्मतत्त्वसमीक्षाापि वाचस्पतिविनिर्मिता ।।24।। प्रथितं हर्षविरचितं यत् खण्डनखण्डखाद्यमिह लोके। शंकरमिश्रविरचिता तट्टीका चाऽपि विबुधगणमान्या ।।25।। ब्रह्मविद्याभरणमित्यद्वैतानन्दभाषितम्। स न्यायमकरन्दश्चानन्दबोधेन निर्मितः ।।26 ।। चित्सुखी चित्सुखाचार्यरचिता तत्त्वदीपिका। शारीरके च तट्टीका ख्याता भावप्रकाशिका ।। ब्रह्मसिद्धेस्तथा टीका साऽभिप्रायप्रकाशिका ।।27।। भामतीभाष्य-टीका या ह्यमलानन्दनिर्मिता। ख्याता कल्पतरु म तत्कृतः शास्त्रदर्पणः ।।28 ।। श्रीमबृहदारण्यकवार्तिक मथ सा तथैव पंचदशी। जीवन्मुक्तिविवेकस्तथाऽनुभूतिप्रकाश्च ।।29 ।। ख्यातस्तथा विवरणप्रमेयसंग्रह इति श्रुतो ग्रन्थः । विद्यारण्यविरचिता ग्रन्था एते सुविख्याताः ।।30 ।। गीतासु शंकरानन्दी शंकरानन्दभाषिता। वैयासिकन्यायमाला भारतीतीर्थनिर्मिता ।।31 ।। स न्यायनिर्णयो भाष्ये आनन्दगिरिणा कृतः। तदखण्डानन्दकृतंप्रथितं तत्त्वदीपनम् ।।32।। सेयं वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावल्यतिविश्रुता। प्रकाशानन्दयतिना तत्त्वज्ञेन विनिर्मिता ।।33 ।। वेदान्तकल्पलतिकाऽद्वयसिद्धिस्तथैव च। सिद्धान्तबिन्दुः सा गीताटीका च मधुसूदनी।। इत्येतान् विश्रुतान् ग्रन्थान् कृतवान् मधुसूदनः ।।34 ।। अद्वैतसिद्धेाख्या सा ब्रह्मानन्दविनिर्मिता । अद्वैतचन्द्रिका गौडब्रह्माननन्दीति विश्रुता ।।35 ।। स हि वेदान्तविवेको विवरणटीका च भेदधिक्कारः । ग्रन्थाश्च नृसिंहाश्रमरचिता अद्वैतदीपिकाऽपि तथा ।।36।। सिद्धान्तलेशसंग्रहकर्ता ह्यप्पय्यदीक्षितो येन। कल्पतरुपरिमलोऽपि च शिवार्कमणिदीपिका प्रोक्ता ।।37 ।। तत्त्वचिन्तामणेष्टीका दशटीकाविभंजनी। वेदान्तपरिभाषा च धर्मराजाध्वरीन्द्रतः ।।38 ।। रामकृष्णेन रचितः स वेदान्तशिखामणिः । वेदान्तसार सम्प्रेक्तः शिवानन्देन धीमता ।।39 ।। रत्नप्रभाभाष्यटीका गोविन्दानन्दनिर्मिता। सिद्धान्तबिन्दु ग्रन्थस्य टीकाद्वयमिदंप्रथा ।।40 ।। श्रीनारायण-तीर्थस्य लघुव्याख्या तथा पुनः । ब्रह्मानन्दकृता न्यायरत्नावलिरिति श्रुता ।। अद्वैतब्रह्मसिद्धिश्च सदानन्दयतेः कृतिः ।।41 ।। पांचरात्रदर्शनम् अहिर्बुध्न्येश्वरादित्य-विष्णु-वासिष्ठ-काश्यपाः । जपाख्या वासुदेव-श्रीप्रश्न-सात्वतसंहिता ।।1।। विश्वामित्र-पराशर-कपिजलमहासनत्कुमाराख्याः । विष्णुरहस्य लक्ष्मीतन्त्र तद् विष्णुतिलकमपि विदितम् ।।2।। विष्णरहस्याख्या सा लक्ष्मीतन्त्राऽभिधा तथा चान्या। सा पाद्मतंत्रसंज्ञा ह्यपराऽपि च नारदीयसंज्ञाऽसौ। इत्यादिका संहिता सुप्रथिताःखलु पांचरात्रतत्त्वविदे ।।3।। जैनदर्शनम् उमास्वामी स तत्त्वार्थसूत्रकर्ता सुविश्रुतः । देवार्थसिद्धिस्तट्टीका रचिता देवनन्दिना ।।1।। पंचास्तिकायसारः प्रवचनसारश्च समयसारोऽपि । सेयं हि कुन्दकुन्दाचार्यकृता नाटकत्रयीख्याता ।।2।। कुन्दकुन्दाचार्यकृता विख्याता नाटकत्रयी। तथा नियमसारोऽपि कुन्दकुन्देन निर्मितः ।।3।। कृता समन्तभद्रेणाप्तमीमांसा तथा पुनः । स्वयंभूस्तोत्रमन्यच्च जिनस्तुतिशतं श्रुतम् ।।4।। युत्तयनुशासनं तद् रत्नकरण्डमपि विश्रुतम्। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 525 For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवसिद्धिस्तथा तत्त्वानुसन्धानं च विश्रुतम् ।।5।। कर्ता सन्मतितर्कस्य सिद्धसेनदिवाकरः। कल्याणमन्दिरस्तोत्रं चक्रे लोकमनोहरम्। न्यायावतारतत्त्वार्थटीकां चापि सुविश्रुताम् ।।6।। रचितो हरिभद्रेण षड्दर्शनसमुच्चयः। तथा चानेकान्तजयपताकाऽपि सुविश्रुता ।।7।। तामाप्तमीमांसाटीका ख्यातामष्टशतीं तथा । प्रमाणसंग्रहं चायऽ लघीयस्त्रयमेव च ।।8।। भट्टाकलंकोऽसौ चक्रे राजवार्तिकमेव च। भट्टाकलंकचरितः ख्यातो न्यायविनिश्चयः ।।9।। टीका चाष्टसहस्रीति विद्यानन्दविनिर्मिता। तत्त्वार्थसूत्रभाष्यं च श्लोकवार्तिकसंज्ञकम् ।।1010 वादिराजकृतो न्यायविनिश्चय(वि)निर्णयः । टीका स्याद्वादरत्नाकराख्या देवसूरिणा। प्रमाणतत्त्वालोकालंकाराख्यस्वकृतेः कृता ।।11।। कृता प्रमाणमीमांसा हेमचंद्रेण सूरिणा। अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशी च सुविश्रुता ।।12।। तट्टीका मल्लिषेणेन कृता स्याद्वादमंजरी। व्याख्यातो गुणरत्नेन षड्दर्शनसमुच्चयः ।। सा जैनतर्कभाषा च यशोविजयनिर्मिता ।13।। धर्मशास्त्रम् धर्मसूत्रकारः गौतमापस्तम्ब-विष्णु-च्यवनात्रेयकाश्यपाः । हिरण्यकेशिकौटिल्यौ वैखानस-बृहस्पती ।।1।। गार्ग्य-कण्व-भारद्वाजाः सुमन्तुरुशना बुधः । शातातपो जातुकर्ण्यः श्रीशंखलिखितो मनुः ।।2।। वसिष्ठहरितौ बौधायनः पैठीनसिस्तथा। धर्मसूत्रप्रवक्तारः चतुर्विंशतिरेव ते ।।3।। 18-पुराणानि ब्रह्माण्डं ब्रह्म गरुडं ब्रह्मवैवर्तमग्नि च। वराहं वामनं स्कन्दं मत्स्यं कूर्म च नारदम् ।।4।। मार्कण्डेयं भागवतं भविष्यं लिंगमेव च। वायु-विष्णु पुराणानि ख्यातान्पटादशात्र हि ।।5।। 18-उपपुराणानि सनत्कुमारं ब्रह्माण्डं कापिलं कल्कि वामनम्। माहेश्वरं नारसिंह सौर साम्बं च नारदम् ।।6।। पाराशरं वारुणं च मारीचं स्कान्द-भार्गवम्। शिवधर्म चौंशनसम् आश्चर्यमपि विश्रुतुम् ।।7।। एतान्युपपुराणानि ख्यातान्यष्टादशैव हि ।।8।। स्मृतिकर्तारः मनुर्दक्षो याज्ञवल्क्यो संवर्तव्यास-हारिताः । यमो मरीचिलौंगाक्षिः विश्वामित्रोङ्गिरास्तथा।।८।। ऋष्यशृंगश्च पौलस्त्यः प्रचेताश्च प्रजापतिः । काजिनिींदश्च पितामहपराशरौ ।।10।। कात्यायनो गौतमश्चोशनाः पैठीनसिस्तथा। वृद्धकात्यायनश्चापि दक्षलदेवलनारदाः ।।11।। शातातपो वसिष्ठ श्च तथापस्तम्बगौतमौ। देवलः शंख-लिखितौ भरद्वाजश्च शौनकः ।।१२।। मनुस्मृति-टीकाकाराः कल्लूकभट्ट-नन्दन-मेधातिथि-विश्वरूप-भारुचयः । रूचिदत्त-सोमदेव-श्रीधर-धरणीधराश्च विख्याताः ।।13।। गोविन्दराजमाधव-नारायण-रामचन्द्रसहितो:ऽसौ। श्रीराघवानन्द इति मनुस्मृतेर्भाष्यलेखकाः प्रथिताः ।।14।। विश्वरूपःशूलपाणिः विज्ञानेश्वरपण्डितः। अपरार्कस्तथा याज्ञवल्क्यस्मृति-विवेचकाः ।।15।। याज्ञवल्क्यस्मृतेष्टीकाः बालक्रीडा मिताक्षरा । धर्मशास्त्रनिबन्धश्च सा दीपकलिका तथा ।।16।। विज्ञानेश्वररचिता मिताक्षरा सा हि दीपकलिका च। श्रीशूलपाणिरचिता, बालक्रीडा च विश्वरूपेण ।।17।। रचितो धर्म(शास्त्र) निबन्धस्तथापरार्केण याज्ञवल्कीयः । श्रीयाज्ञवल्क्यरचितस्मृतेरिमा विश्रुताष्टीकाः ।।18।। कृतानि चासहायेन-नारदस्य मनोस्तथा। गौतमस्य स्मृतीनां च भाष्याणि प्रथितानि हि ।।19 ।। कात्यायन-पारस्कर गौतमसूत्राणि भर्तृयज्ञेन । व्याख्यातानि तथैव च भारुचिणा धर्मसूत्राणि ।।20।। चक्रे कालविवेकं तद्वद् व्यवहारमातृकं चापि । प्रथितं च दायभागं योऽसौ जीमूतवाहनः ख्यातः ।।21 ।। व्यवहारतिलककर्ता कर्मानुष्ठानपद्धतिं चापि । प्रायश्चित्तनिरूपणमपि चक्रे भट्टभवदेवः ।।22 ।। कृता गोविन्दराजेन टीका सा स्मृतिमंजरी। स्मृत्यर्थसारः सम्प्रोक्तः श्रीधरेणं सुधीमता। लक्ष्मीधरेण रचितो ग्रन्थः कल्पतरुस्तथा ।।23 ।। देवस्वामी भोजदेवो बालरूपो जितेन्द्रियः । श्रीकरो बालकश्चापि शूलपाणिर्हलायुधः । रघुनन्दनोऽपरार्कश्च धर्मशास्त्रप्रबोधकाः ।।24।। अनिरूद्धकृता कर्मोपदेशिनी पद्धतिश्च हारलता। पारस्करसूत्राणां टीका श्रीहरिहरेणोक्ता ।।25।। आचारसागरो दानसागरोऽदूभुतसागरः । बल्लालसेनरचितः प्रतिष्ठासागरस्तथा ।।26 ।। देवन्नभट्टरचिता विख्याता स्मृतिचन्द्रिका । आश्वलायनसूत्राणां टीका प्रोक्ता ह्यनविला ।।27।। उज्ज्वला धर्मसूत्राणां धर्मसूत्रेवनाकुला तथा गौतमसूत्रणां टीका ख्याता मिताक्षरा ।।28।। आपस्तम्बो मंत्रपाठः हरदत्तेन निर्मितः । हेमाद्रिणा चतुर्वर्गचिन्तामणिरसौ कृतः ।।29।। 526/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुल्लूकभट्ट-रचिता मनुटीका सुविश्रुता । तथा स्मृतिविवेकक्ष धर्मपण्डितसम्मतः 1130 1 1 समयप्रदीप-छन्दोगाहिकाऽऽचारादर्शकर्ता श्रीदत्तोपाध्यायः पितृभक्तिश्राद्धकल्पकर्ता च 1137 11 स्मृतिरत्नाकरो राजनीतिराकरस्तथा । कृत्यचिन्तामणिर्दानवाक्यावलिरसी पुनः 1132 ।। हरिनाथः स्मृतिसारं तं मदनसिंहो हि मदनरत्वं च । कृतवान् विवाहचंद्र स मिसरूमिश्रस्तथा प्रथितम् । टीका सुबोधिनी सा विश्वेश्वरभडविरचिता ख्याता 1133 ।। स्मृतिदुर्गोत्सवः श्राद्धविवेकः शूलपाणिना । श्राद्धशुद्धिविवेकी च कृतौ रुद्रधरेण हि ।। व्रतपद्धतिस्तथा वर्षकृत्यं रुद्रधरोदितम् 1134 ।। स्मृतिकौमुदी स्मृतिमहार्णवस्तथा । मदनपारिजातोऽपि । तिथिनिर्णयसारोऽसौ रचितः श्रीमदनपालेन 1135 ।। माधवाचार्यवर्येण रचितः कालनिर्णयः । पराशरस्मृतेष्टीका माधवीयेति विश्रुता ।।36 ।। आचाराह्निक-शुद्धिश्राद्ध-व्यवहारकृत्यतीर्थाख्याः । ते द्वैतनीति-शूद्राचार विवादाभिधाः सुविख्याताः 1137।। वाचस्पतिमिश्रेण हि चिन्तामणयः प्रवर्तिता दश ते । तिथि -शुद्धि - द्वैत- महादान- विवाहादिनिर्णयाः पंच । 138 11 वाचस्पतिमिश्रकृता पितृभक्तितरंगिणी प्रथिता । तोडरमल्लविरचितः प्रथितोऽसौ तोडरानन्दः 113911 स्मृतितत्त्वाऽभिधा टीका रघुनन्दन भाषिता । श्रीनृसिंहप्रसादेन कृतः सारस्तथैव च ।14011 वक्रपादान-शुद्धि-श्राद्धसंज्ञ सुविश्रुतम्। गोविन्दानन्दसम्प्रोक्तं कौमुदीनां चतुष्टयम् 114111 सरस्वतीविलासश्च (प्रताप) रुद्रदेवविनिर्मितः । तथा प्रतापमार्तण्डः पण्डितेषु प्रशस्यते ।। 42 ।। पराशरस्मृतेष्टीका ख्याता विद्वन्मनोहरा । तथा मिताक्षरायाश्च विख्याता प्रमिताक्षरा 1143।। वैजयन्ती विष्णुधर्मसूत्रटीका सुविश्रुता। तत्त्वमुक्तावलिर्भाष्यान्विता सा शुद्धिचन्द्रिका | 144 ।। हरिवंशविलासश्च श्राद्धकल्पलता तथा । ख्याता दत्तकमीमांसा नन्दपण्डितनिर्मिता । 145 ।। विवादताण्डवं शुद्रकमलाकरसंज्ञकः । शान्तिरनं तथा पुत्रकमलाकरसंज्ञकः ।। ख्यातो निर्णयसिन्धु कमलाकरनिर्मितः 1146 ।। श्रीनीलकण्ठरचितो विख्यातः स्मृतिभास्करः । व्यवहारतत्त्वमेवं पण्डितेषु प्रशस्यते ।।47 ।। मित्रमिश्रकृतो ग्रन्थः वीरमित्रोदयः श्रुतः । कृतश्चानन्तदेवेन हाष्टांगः स्मृतिकौस्तुभः । 148 ।। ख्यातोऽब्ददीधितिस्तस्य तथा दत्तकदीधितिः । तीर्थाचार-तिथिश्राद्ध प्रायश्चित्तेन्दुशेखराः । 149 ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अशौचनिर्णयक्षाऽपि तथा सापियदीपिका सपिण्डीमंजरी चैव नागोजी भट्टनिर्मिता । 150 11 टीका मिताक्षराया सा लक्ष्मीव्याख्यानसंज्ञका । कृतोपाकृतितत्त्वं च बालंभट्टेन धीमता । धर्मशास्त्रसंग्रहोऽपि तत्कृत सुविश्रुतः । 157 स हि धर्मसिन्धुसार काशीनाथोऽब्रवीदुपाध्यायः । चक्रे विवादभंगार्णवं जगन्नाथ - तर्कपंचास्यः 1 152 11 साहित्यशास्त्रम् कश्यप - वररुचि-चित्रांगद शेषोतथ्यकामदेवाख्याः । धिषणोपमन्यु पाराशरौपकायनसहस्त्राक्षाः ।। कुबुमार नन्दिकेश्वर पुलस्यनामोतिगर्भसंज्ञाक्ष ख्याताः सुवर्णानाभ प्रचेतायन कुबेरसंज्ञाश्च ।। साहित्यशास्त्रविज्ञा लोके नामैकशेषास्ते । 12 ।। कोहलस्वाति वाल्याच तण्डुशाण्डिल्य दत्तिलाः । विशाखिलः पुष्करश्च धूर्तिलो नारदस्तथा । । नाट्यशास्त्रप्रणेतारः र: भरतात् प्राक्ताना इमे ।।3।। श्रीभरत-दण्डि भामह भट्टोदूमट-भट्टनायकाचार्याः । रुद्रट वामन वाभट वाग्भट-मम्मट जगन्नाथाः ।।4।। विद्याभूषण- विश्वेश्वरपण्डित-महिमभट्ट मुकुलास्ते । आनन्दवर्धन- श्रीकेशवमिश्राख्य- हेमचन्द्राश्च 115 ।। अप्पय्य दीक्षिताच्युतराव श्रीविश्वनाथनामानः । श्रीभोजराज रुय्यक-कुन्तक शौद्धोदनप्रमुखाः 11611 पीयूषवर्ष विद्यानाथी गोविन्द ठकुरश्च तथा । भट्टिह्याभिनवगुप्तः धनंजयो भट्टतोतच 117 ।। जयदेवराजशेखर- विद्याधर- भानुदत्तसंज्ञाश्च । क्षेमेन्द्र धर्मकीर्ति मेधावी चापि रूपगोस्वामी ।। प्रथितः प्रतिहारेन्दुराजः साहित्य - शास्त्रविज्ञेषु ।।8।। भरतोक्तं व्यशास्त्र काव्यादर्शश्च दण्डिनः ।। काव्यालंकारकर्ता च भामहो रुद्रटस्तथा ।। 9 ।। चकार काव्यालंकारसारसंग्रहमुद्भटः । काव्यालंकारसूत्राणां कर्ता श्रीवामनस्तथा 111011 आनन्दवर्धनकृतो ध्वन्यालोकः सुविश्रुतः । भट्टाभिनवगुप्तोक्ता तट्टीका लोचनाऽभिधा ।।1।। भट्टतौतेन रचितं प्रथितं काव्यकौतुकम् प्रसिद्धा काव्यमीमांसा राजशेखरनिर्मिता ।।12।। कृता मुकुलभट्टेन ग्राभिधावत्तिमातृका । श्री भट्टनायककृतः ख्यातो हृदयदर्पणः ।।13।। वक्रोक्तिजीवितं ख्यातं कुन्तकेन विनिर्मितम् । धनंजयेन रचितं प्रथितं दशरूपकम् तट्टीका ह्यवलोकाख्या धनिकेन विनिर्मिता ।।14।। ख्यातो व्यक्तिविवेकः राजानकमहमभट्टसन्धोक्तः । क्षेमेन्द्रविरचितं कविकण्ठाभरणमपि तत् सुविख्यातम् ।।15।। भोजः सरस्वतीकण्ठाभरणं स विनिर्ममौ । संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 527 For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स शृंगारप्रकाशोऽपि भोजनैव विनिर्मितः 111611 चक्रे क्षेमेन्द्र औचित्यविचार चर्चयान्वितम्। काव्यप्रकाशनिर्माता विख्यातो भट्टमम्मटः 111711 हेमचन्द्रेण रचितं ख्यातं काव्यानुशासनम् । 528 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदलंकारसर्वस्वं चक्रे रूय्यकपण्डित | 118 ।। स चकार वाग्भटालंकार श्रीवाग्भटः सुविख्यातः । चन्द्रालोकरचयिता श्रीजयदेवोऽपि विख्यातः ।।19 ।। For Private and Personal Use Only (कुल पद्य संख्या : 215) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (परिशिष्ट - 21) संस्कृतविद्या के आश्रयदाता और उनके आश्रित ग्रंथकार संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में अनेक विद्वान और विद्यारसिक राजाओं के नाम यत्र तत्र दिखाई देते है। इन राजाओं में हर्षवर्धन भोज, जैसे स्वयं ग्रंथकार राजा थे और उनकी प्रेरणा से विविध शास्त्रों पर ग्रंथरचना करनेवाले आश्रित ग्रंथकार भी पर्याप्त संख्या में दिखाई देते है। वास्तव में यह एक शोधप्रबंध का अच्छा विषय है। प्रस्तुत परिशिष्ट में कुछ उल्लेखनीय आश्रयदाता नरेश और उनके आश्रित पंडितों के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का संक्षेपतः परिचय दिया है। इस परिशिष्ट में आश्रयदाता का नामोल्लेख, बाद में कोष्टक में उनका समय सूचित करनेवाली शताब्दी की संख्या। उनके द्वारा लिखित रचना और साथ ही उनके आश्रित विद्वानों के नाम तथा उनके कुछ प्रमुख ग्रंथ का निर्देश किया है। यह परिशिष्ट सर्वंकष नहीं है फिर भी इस में विद्यारसिक प्रमुख नरेशों की नामावली प्राप्त हो सकती है। अकबर बादशाह : आश्रित (1)पुण्डरीकविठ्ठल। रचना-रागमाला, नृत्यनिर्णय-रागमंजरी। (2) नीलकण्ठ मुहूर्तचिन्तामणिकार रामदैवज्ञ के बडे भाई। (3)गोविंदभट्ट : रचना-रामचंद्रप्रबंध। (अकबरी कालिदास) (4)महेश ठक्कुर : सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह (या अकबरनामा) (5) राजमल्ल : रचना-जम्बूस्वामिचरित। अमोघवर्ष राष्ट्रकूट : आश्रित-जिनसेन । रचना- आदिपुराण, पार्वाभ्युदय । अल्लाउद्दीन : आश्रित-जिन-प्रभसूरि। खिलजी रचना-विविध तीर्थकल्प अनूपसिंह (17-18) : बीकानेरनरेश । रचना- श्राद्धप्रयोग चिन्तामणि। आश्रित : रचना-अनूपाराम (शिवताण्डव की (1)नीलकंठ टीका) (2) भावभट्ट : रचना-अनूपसंगीतविलास, (15) अनूपसंगीतरत्नाकार। इम्माडी देवराय : यादववंशीय, विजयनगराधीश । आश्रित : चतुर कल्लीनाथ । रचना- कलानिधि (संगीतरत्नाकर की टीका), रागकदंत्व की टीका। कनिष्क : आश्रित-अश्वघोष। रचना-बुद्धचरित महाकाव्य कर्णदेव [बांधव : रचना-सारावली (ज्योतिष) (या बादा)-नरेश], (12-13) कल्याणमल्ल तोमरवंशीय, ग्वालियर नरेश। रचना-अनंगरंग, सुलेमच्चरित। कंदर्पनारायण :आश्रित-विद्यापति । रचना-विभागसार (विषय-धर्मशास्त्र। कुमारमाधातसिंह : रचना-गीतकेशवम् (10)(नेपाल नरेश) कंपण : (घुक्कराय के पुत्र)-विजयनगराधिपति । गंगादेवी (धर्मपत्नी)-रचनाकंपरायचरित (मधुराजविजय महाकाव्य) कामदेव : कादंव्यवंशीय जयंतीपुराधीश । आश्रित-माधत्वभट्ट (या कविराजसूरि) रचना-राघवपाण्डवीयम् (सधानकाव्य) कृष्णानन्द : उत्कल के सांधिविग्रहिक। रचना-सहृदयानंदकाव्य। कामेश्वरसिंह (20) : आश्रित-ऋद्धिनाथ झा। (मिथिला नरेश) रचना-शशिकलापरिणय नाटक। कीकराज (17) : रचना-संगीतसारोद्धार । (शारदानंदन) कीर्तिसिंह : आश्रित-भास्कर मिश्र। रचना-मंत्र रत्नावली कुमारपाल : आश्रित-हेमचंद्र। (चालुक्यवंशीय) रचना-कुमारपालचरित। कुम्भकर्ण : रचना-संगीतराज (या संगीतमीमांसा, (कुम्भराणा) रसिकप्रिया (गीतगोविंद की टीका), संगीत रत्नाकर की टीका, चण्डीशतक । कुलशेखर : सुभद्राधनंजय और तपतीसंवरण नाटक (केरलनरेश) कुलशेखर : रचना-मुकुंदमालास्तोत्र। (त्रवांकुरनरेश) संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 529 For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : रचना-रामप्रकाश, (विषय-धर्मशास्त्र)। कृपाराम (गौडक्षत्रकुलोत्पन्न कृष्णदेवराय(16) (विजयनगरनरेश) : रचना-जाम्बवतीकल्याण नाटक। आक्षित-लक्ष्मीनारायण । रचना-संगीत सूर्योदय। : रचना-व्याघ्रालयेशशतक, विशाखराज महाकाव्य, शृंगारमंजरी (भाण), व्हिक्टोरियाचरितसंग्रह। केरलवर्मा (त्रिवांकुरनरेश) गजपति : रचना-मुक्तिचिंतामणि (धर्मशास्त्र) पुरुषोत्तमदेव गजपति : रचना-संगीतनारायण। वीरनारायण देव (उत्कलनरेश) (17) खड्गवाहू (15) : आश्रित-गणेशदेव । रचना-सुबोधिनी (संगीतकल्पतरु की टीका) गणपति वीरकेसरी : आश्रित-चयनीचंद्रशेखर । देव (उत्कलनरेश) रचना-मधुरानिरुद्ध नाटक) (18) गंगादेवी : रचना-वीरकंपरायचरित विजयनगरमहारानी गोविंद दीक्षित : रचना-साहित्य सुधा। (तंजौर नरेश रघुनाथनायक के मंत्री) गंगादास भूवल्लभ : आश्रित-कविगंगाधर । प्रतापदेव रचना- गंगादास प्रतापविलास नाटक। (चंपकपुरनरेश) गोपेन्द्र तिम्मभूपाल : विजयनगरनरेश । रचना- तालदीपिका। (15) गेटवन युद्धविक्रम : रचना- वाजिरहस्य समुच्चय)। शाह (नेपालनरेश गोदवर्ममहाराज : रचना-रससदनभाण, रामचरितम्। (केरलनरेश) गोदवर्म एलाय् : रचना-गरुड चयनप्रमाण, अशौचचिन्तामणि, ताम्पूरान् हेत्वाभास-दशक (शिवस्तोत्र) (युवराजकवि) गोदवर्मभट्टन : रचना- दत्तकमीमांसा, सिद्धान्तमाला ताम्पूरान्(20) (न्याय.), स्मार्तप्रायश्चित्त की टीका)। चिप्पट जयापीड : काश्मीर नरेश । आश्रित- रत्नाकर । रचना-हरिवजय महाकाव्य। घोटराय : आश्रित- कृष्णशर्मा । रचना- शुद्धिप्रकाश (धर्मशास्त्र) चक्रधरसिंह रचना- रागासागर । (रायगढनरेश) चंद्र (17) :नवद्वीप नरेश। आश्रित-नदकुमार शमा रचना-राधामानतरंगिणी चेतसिंह(18) : आश्रित-शंकरदीक्षित। (काशीनरेश) रचना- शंकरचेतोविलासचम्पू। चिन्नबोम्मभूपाल : रचना-संगीतराघव। छत्रसिंह :आश्रित-रत्नपाणिशर्मा गंगोली। (मिथिलनरेश) रचना- मिथिलेशाह्निकम्। जगज्ज्योतिर्मल्ल : नेपालनरेश । आश्रित-(1) अभिलाष । रचना-संगीतचंद्र (2)वंगमणि रचना-संगीतभास्कर (संगीतचंद्र की टीका) जगदेकमल्ल रचना-संगीत चूडामणि (प्रतापचक्रवर्ती) जयचंद्र : आश्रित-श्रीहर्ष । रचना-नैषधमहाकाव्य (कान्यकुन्ज नरेश खंडनखंडखाद्य । जयचंद्र नरेन्द्र : आश्रिरत-वनमाली । रचना-रहस्यार्णव (त्रिगर्त [लाहोर] (तंत्रशास्त्र) के अधिपति जामसत्यजी(16) : आश्रित-श्रीकंठ । रचना-रमकौमुदी। (शत्रुशल्य) जगज्ज्योतिर्मल्ल : नेपालनरेश । रचना-संगीतसारसंग्रह। (17) हरगौरीविवाह नाटक। जगज्ज्योतिर्मल्ल : (भटगावनरेश) (17)।- रचना कुवलयाश्वनाटक जयरणमल्ल (नेपालनरेश) । (रचना- सभापर्व अथवा पांडवविजयनाटक जयप्रतापमल्ल : (17) (नेपालरनेश)-रचना- नृत्येश्वरदशक महाराज नरसिंहअवतार स्तोत्र जगज्योतिर्मल्ल : (20) (नेपालरनरेश)। रचना-स्वरोदय दीपिका (नरपति जयचर्चा टीका) श्लोकसारसंग्रह और नागरसर्वस्व (कामशास्त्र) जयसिंह वर्मा (नेपाल प्रधानमंत्री)(कविमल्ल भास्कर) रचना-महिरावण वधोपाख्यान, और हरिश्चन्द्रोपाख्यान नाटक जठरभूपति : (18) आश्रित-क्षेमकर्ण । रचना-रागमाला जयसिंह : आश्रित-मयाराम मिश्र गौड । रचना व्यवहारांग स्मृति सर्वस्व, व्यवहारनिर्णय । जयसिंह : (अनहिलवाडरनेश) आश्रित- वाग्भट (प्रथम) रचना- वाग्भटालंकार। जयसिंह : (18) (जयपुरनरेश)- आश्रित-सदाशिव दशपुत्र । रचना- आशौचचंद्रिका, लिंगार्चन चंद्रिका। 530 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयसिंह जहांगिर जयापीड तिरुमलराय तुलाजी भोसले जयादित्य तिरुमलनायक दुर्गसिंह देवनारायण देवभूपाल (काश्मीर नरेश) - आश्रित-मंखक। रचना- श्रीकण्ठचरित। : आश्रित- मेघविजयगणी। रचना देवानंदकाव्य । : (8-9) - (काश्मीरनरेश)। आश्रित उद्भट । रचना- भामहविवरण : (16) विजयनगरनरेश । आश्रित लक्ष्मीधर । रचना- रागदीपिका : (तुलजराज) (18) - तंजौरनरेश । रचना- राजधर्मसारसंग्रह, मंत्रशास्त्रसंग्रह, संगीतसारामृत : (काश्मीर नरेश) । आश्रित- दामोदरगुप्त रचना- कुट्टनीमत। : (मदुरैनरेश) । आश्रित-नीलकंठ दीक्षित रचना- शिवलीलार्णव : (14) गुर्जरनरेश । आश्रित-कान्हरदेव। रचना- सारग्राहविधि (धर्मशास्त्र) : (18) त्रावणकोर अम्मलपुरनरेश। आश्रित-(1) रामपाणिवाद । रचनालीलावती (वीथी) (2) श्रीधर- रचनालक्ष्मीदेवनारायणीय (नाटक) : (8) आश्रित- प्रगल्भाचार्य । रचना विद्यार्णव : आश्रित- शम्मुनाथ सिद्धान्तवागीश । रचना वर्षभास्कर। : (14) बंगालनरेश । आश्रित- नारायणपंडित रचना-हितोपदेश। : खोपालवंशज- मिथिलेश । आश्रित रामदत्त मंत्री । रचना- षोडशमहादानपद्धति : (18) दरभंगानरेश । आश्रित- रमापति उपाध्याय । रचना-रुक्मिणीपरिणय (नाटक) : (पल्लववंशीय) (7-8)- कांचीनरेश । आश्रित- दण्डी । रचना- दशकुमारचरित । : (12) तिरहुत (मिथिला) नरेश । रचना सरस्वती हृदयभूषणम् (या सरस्वतीहृदयालंकार) : (18) (खंडपारा (उत्कल) नरेश) आश्रित-अनादिमिश्र । रचना- मणिमाला (नाटिका) : (15) विजयनगरनरेश। आश्रित कल्लिनाथ. रचना- संगीतरत्नाकरटीका .: (18) केरलनरेश । आश्रित- रघुनाथ रथ रचना- नाट्य-मनोरमा। पुण्यपालदेव रचना- शारदातिलक । प्रकाश (लक्ष्मण देशिककृत शारदातिलक की टीका) पुरुषोत्तम देव : (उत्कनरेश) । रचना- अभिनव महाराज वेणी-संहारम् प्रतापरुद्र : (13) वरंगळ-नरेश। आश्रित-विद्यानाथ रचना-प्रतापरुद्रकल्याण नाटक प्रतापरुद्रदेव : (16) कटकनरेश । रचना- सरस्वती विलास (धर्मशास्त्र)। बख्तसिंह : (18) (भावनगरनरेश)- आश्रित जगन्नाथ । रचना- सौभाग्यमहोदय बलभद्रभंजदेव : (18) केओझर- (उडीसा) नरेश । आश्रित-नीलकंठ । रचना- भंजमहोदय (नाटक) बल्लालसेन : (मिथिला युवराज) । रचना- अद्भुतसागर (ज्यो .) बसवप्प नायक : (वासव भूपाल) (17-18)- केलाडी (कर्नाटक) नरेश । रचना-शिवतत्त्वरत्नाकर (धर्मकोश) आश्रित- चोक्कनाथ रचना-सेवन्तिकापरिणय (नाटक) बाजबहादुरचंद्र : (17)- आश्रित- अनंतदेव । रचना राजधर्मकौस्तुभ। बुरहानखानराजा : (16)- आश्रित- पण्डरीकविठ्ठल। रचना-सद्रागचंद्रोदय, रागमंजरी। भगवंतदेव : (17) बुंदेलानरेश। आश्रित- नीलकंठ भट्ट । रचना- भगवंतभास्कर (धर्मशास्त्र) भीमदेव : (18) रचना- श्रुतिभास्कर । भीमनरेन्द्र :: रचना-संगीतसुधा, संगीतराज, संगीतकलिका भीष्माचलेश्वर :असमनरेश । आश्रित- गौरीकान्त द्विज । उमानंद रचना- विघ्नेशजन्मोदय (रूपक) भैरवेन्द्र : (रूपनारायण या हरिनारायण)मिथिलानरेश । आश्रित- वाचस्पतिमिश्र । रचना- भामतीप्रस्थान, सांख्यतत्त्वकौमुदी, तत्त्ववैशारदी (योगसूत्रभाष्य) आदि अनेक भाष्य ग्रंथ। भोज : धारानरेश।- रचना- सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण), सरस्वतीकंठाभरण (साहित्य), समरांगणसूत्रधार, सिद्धान्तसारपद्धति, राममार्तण्ड (धर्मशास्त्र) कुल 23 ग्रंथ। भोजराज : रचना- वन्दावनीरस । भोजराजसच्चरित (सूरजानपुत्र) नाटक भोज : परमारवंशीय ।रचना- रामायणचंपू। आश्रित- लक्ष्मणसूरि । रचना- रामायण धर्मदेव धवलचंद्र नृसिंहदेव नरसिंहदेव नरसिंहवर्मा नान्यदेव नारायणमंगपार निम्मिडी (या इम्मिडी) देवराय नीलकंठ संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड/531 For Private and Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मदनपाल महाजनकदेव महादेव और रामचंद्र महादेव महेशठक्कुर मातृगुप्त मानविक्रम मानवेद मानसिंह मुहंमद तुगलग मानसिंह महाराज यशवन्त देव युवराज प्रह्लाद यशवन्तसिंह यशोवर्मा रघुनाथसिंह रघुदेव रघुनाथ रघुनाथ नायक चम्पू का युद्धकाण्ड | : (16) रचना - आनंदसंजीवन (संगीत शास्त्र) आश्रित- विश्वेश्वर भट्ट । रचनामदन- पारिजात । आश्रित बैद्यनाथ रचना श्रीकृष्णलीला (नाटिका) : (13) यादववंशीय देवगिरि (महाराष्ट्र) नरेश आश्रित हेमाद्रि (हेमाडपंत) रचना चतुर्वर्ग चिंतामणि (धर्मशास्त्र) : रचना- रतिसार (कामशास्त्र) । : (खंडवाल वंशी) मिथिलानरेश । रचनातत्त्वचिन्तामण्यालोकदर्पण, मलमासनिर्णय आश्रित रत्नपाणिशर्मा। रचनाव्रतसार (धर्मशास्त्र ) । - : www.kobatirth.org I काश्मीरनरेश आश्रित भर्तृमेण्ठ । रचनाहयग्रीववध | : (केरल के जमोरिन) - आश्रित अनन्त नारायण । रचना - शृंगारसर्वस्वभाण । : ( एरलपट्टी - कालिकतनरेश । रचनामानवेद-चम्पूभारतम् । आश्रित विठ्ठल पुण्डरीक रचना-रागमंजरी : : दिल्लीनरेश। आश्रित जिनप्रभसूरि । रचनाविविधतीर्थकल्प । : (जयपूरनरेश (17) । रचना - राजोपयोगिनी पद्धति । 1 : ( 17 ) - बुंदेलखंड नरेश । आश्रितहरिभास्कर । रचना- यशवन्तभास्कर । : (13) रचना - पार्थपराक्रम नाटक : (18) ढाकाराज्य के मंत्री। आश्रित(1) चिरंजीव शर्मा रचना-वृत्तरत्नावली। (2) रामदेव रचना वृत्तरत्नावली। : (कान्यकुब्जनरेश) आश्रित वाक्पतिराज रचना - गडवो (गौडवध ) । भवभूतिमालतीमाधव, महावीरचरित, उत्तररामचरित : ( रीवा नरेश) रचना- राजरंजनम् (आखेटविद्या) गौडराजकुमार आश्रित यादवेन्द्र शर्मा रचना शूद्राहिकाचार। : (17) आश्रित- अच्युत दीक्षित रचनासंगीतसुधा : तंजौर नरेश। रचना संगीतसुधा । रामायणसारसंग्रह, रुक्मिणीकृष्णविवाह । आश्रित मधुरवाणी । रचना- रामायणकाव्यम् 532 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - रघुराजसिंह स्वेश्वरराय (3) कृष्णकवि- रघुनाथभूपालीयम् : वपेलखंड नरेश रचना सुधर्माविलासमहाकाव्य, रघुराजमंगलचंद्रावली। शुभशक्त । नर्मदाशतक, जगदीशशतक, (17) आश्रित रघुनाथ सार्वभौम रचना - स्मार्तव्यवस्थार्णव 1 : ( 16 ) कोचीननरेश आश्रित नारायण रचना- महिशषमंगलभाण राजवर्मकुलशेखर (19) त्रिवांकुरनरेश । रचना - भक्तिमंजरी । राजेन्द्रविक्रमशाह रचना राजकल्पद्रुम (धर्मशास्त्र) रामचंद्र 1 : (15) मिथिलानरेश आश्रित- गदाधर रचना- शारदातिलक । रामचंद्र (13) यादववंशीय देवगिरि (महाराष्ट्र) नरेश आश्रित हेमाद्रि (हेमाडपंत) रचना - चतुर्वर्गचिंतामणि । : (16) विजयनगरनरेश आश्रित रामामात्य रचना- स्वरमेलकलानिधि : (12) बंगाल नरेश आश्रित सन्ध्याकर नंदी । रचना - रामचरितम् (संधानकाव्य ) : (तंजौर महारानी) रघुनाथ नायक की की धर्मपत्नी । रचना- रघुनाथाभ्युदय राजराज रामराजा रामपाल रामभद्राम्बा रामवर्मा रामवर्ममहाराज रामवर्म परीक्षित महाराज रामवर्मा रामवर्मा रामवर्मा महाराज रामसिंह रायराघव रुद्रसिंह लक्ष्मणमाणिक्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only (2) यज्ञनारायण दीक्षित- रघुनाथभूप विजय । महाकाव्य । : (16) कोचिन नरेश। आश्रित बालकवि । रचना- रामकेतूदयम् (ऐतिहासिक नाटक) रामचर्मविलसनाटक : (केरलनरेश) (20) । रचना - वेदान्त परिभाषासंग्रह, चंद्रिकाकलापीडनाटक । : (केरलनरेश)। रचना सुबोधिनी) (भाषापरिच्छेद, मुक्तावली, दिनकरी और रामरुद्री के अंशोंपर टीका) : शृंगवेरपुरनरेश। रचना - वाल्मीकीरामायण और अध्यात्मरामायण की टीका । : क्रांगनोर (केरल) नरेश । रचना - रामचरितम् आश्रित- रामपाणिवाद : त्रिवांकुरनरेश रचना वृत्तरत्नाकर। : (17) आमेर नरेश । रचना धातुमंजरी (व्याकरण) आश्रित- विश्वनाथभट्ट रानडे रचना - शृंगारवापिका (नाटिका) : आश्रित रघुनन्दन। रचना - व्यवस्थार्णव मिथिलानरेश आश्रित रत्नपाणि शर्मा 10 ' रचना- सुबोधिनी (धर्मशास्त्र) । : भुलुयानरेश । रचना - कुवलयाश्व नाटक । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लक्ष्मणचंद्र लक्ष्मणसेन वस्तुपाल विक्रमादित्य यंत्री मार्तण्ड विश्वनाथसिंह विक्रमांकदेव लक्ष्मीश्वरसिंह : (19) मिथिलानरेश। आश्रित अंबिका दत्त व्यास । रचना- सामवतम् (रूपक) । विजयराघव नायक : (17) तंजौरनरेश । आश्रित वेंकटमखी । रचना- चतुर्दण्डीप्रकाशिका (संगीतशास्त्र) (11) गुजराधनरेश आश्रित जिनभद्र रचना- प्रबन्धावली । (1) आश्रित कविकुलगुरू कालिदास रचना-रघुवंश, शाकुन्तल इत्यादि प्रख्यात 7 ग्रंथ । : (केरलनरेश) आश्रित- रामपाणिवाद । रचना सोनाराघवम् (नाटक) : (18) रीवानरेश। रचना - रामचंद्रचम्पू । : चालुक्यवंशीय आश्रित- बिल्हण । रचनाविक्रमांकदेवचरित | : बघेलखंड नरेश रचना संगीत रघुनंदन । - : (15) मिथिलानरेश पद्मसिंह की रानी । आश्रित विद्यापति । रचना - शैवसर्वस्वसार । (11) (बंगालनरेश) आश्रित जीमूतवाहन । रचना - कालविवेक, दायभाग न्यायमातृका इत्यादि । वीरभानुमहाराज : ( 16 ) रचना - कंदर्पचूडामणि (कामशास्त्र) दशकुमारकथासार विश्वनाथसिंह : (रीवानरेश) (19) । रचना - संगीत रघुनन्दनम्, (नाटक) रामचन्द्राहिनकम् । वीरधवल : (चालुक्यवंशीय) । आश्रित - वस्तुपाल । रचना - नरनारायणानंद । वीरनारायण (वेमभूपाल) वीरभद्रदेव वीरभानु वीरमदेव तोमर विश्वनाथसिंह विश्वासदेवी विष्वक्सेन वीरसिंह वीरसिंह तोमर www.kobatirth.org : (16) आश्रित- रामकृष्ण दीक्षित । रचनामाधवीय सारोद्धार । : वंगनरेश आश्रित जयदेव । रचना| गीतगोविंद । (2) गोवर्धन । रचनाआर्यासप्तशती : (15) आश्रित वामन (अभिनव बाणभट्ट) रचना - वीरनारायणचरितम् । संगीत चिन्तामणि, नलाभ्युदय : रीवा नरेश। आश्रित पद्मनाभ मिश्र । रचनावीरभद्रसेन चम्पू । : (बघेलखंड नरेश) आश्रित माधव। रचना - वीरभानूदयकाव्य । : (15) ग्वालियरनरेश। आश्रित नयचन्द्रसूरि । रचना - हम्मीर - महाकाव्य । : ओरछानरेश। आश्रित- मित्रमिश्र । रचनावीरमित्रोदय (धर्मशास्त्र) : ग्वालियर नरेश । रचना - वीरसिंहावलोक वीरसिंह वेंकण्यानायक व्याघ्रजित् : (17) मैसूरनरेश। रचना - शिवाष्टपदी । : (20) मोरवीनरेश। आश्रित शंकरलाल । रचना- श्रीकृष्णचंद्राभ्युदय (नाटक) शंकरवर्मताम्पूरान् (केरलनरेश) रचना- सलमाला (ज्यो.) श्रीराममहाराज : (केरलनरेश) । रचना - सुबालावज्रतुण्डम् (नाटक) : (18-19 ) तंजौनेश । रचना व्यवहार प्रकाश, व्यवहारार्थ स्मृतिसारद- समुच्चय मुद्राराक्षस टीका अश्रित बालशास्त्री कागलकर । रचना - सर्वप्रायश्चित प्रयोग । (2) कावलवंशी जगन्नाथ-रचनाशरभराज विलास काव्य । : तंजौरनरेश। रचना - शृंगारमंजरी । : आश्रित पंडितराज जगन्नाथ। रचनारसगंगाधर, गंगालहरी, भामिकीविलास आदि । आश्रित गुणाढ्य । रचना - बृहत्कथा (बटुकहा) : ( 17 ) आश्रित - जयरामपिण्ड्ये । रचनाराधामाधवविलासचम्पू, पर्णालपर्वत ग्रहणाख्यान | (2) वेदपण्डित। रचना संगीतमकरंद (सिंहभूपाल) (3) पेरिअप्पाकवि रचना शृंगारमंजरी शाहराजनाटक रचना संगीतसुधाकर (संगीतरत्नाकर की टीका) रसार्णवसुधाकर (नाट्यशास्त्र) शरभोजी (सफजी) भोसले शाहजी शाहजहां शालिवाहन शाहजी भोसले शिंगभूपाल ( सिंहभूपाल ) शूद्रक शिवनारायण भंजदेव शिवाजी महाराज (छत्रपति) शोभनाद्रि आप्पाराव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only (विजय - आयुर्वेद) । : (गुजराथनरेश) आश्रित - बिल्हण । रचनाबिल्हणकाव्य : रचना - मृच्छकटिक प्रकरण । : कवोंझर (उडिसा) नरेश । आश्रित - नरसिंह मिश्र । रचना - शिवनारायणभेजमहोदयम् (नाटक) : (17) आश्रित (1) गागाभट्ट काशीकर रचना- शिवराजभिषेक प्रयोग इ. (2) कवीन्द्रपरमानन्द नेवासेकर । रचनाशिवभारतम् । (3) निश्चलपुरी रचनाराज्यभिषेक कल्पतरु (तांत्रिक) (4) रघुनाथपंत हणमंते - राज्यव्यवहार कोश । : ( 19 ) । रचना - राजलक्ष्मी- परिणयम् (प्रतीकनाटक) संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 533 - Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपुरुषगंग महाराज श्यामशाह संग्रामसाह संग्रामसिंह सिंहविष्णु सवाई जयसिंह महाराज सिंघणदेव सिद्धिवरसिंह सिंहभूपाल सुमतिजितामित्र स्वामी तिरुमल : (कर्नाटकनरेश) । रचना - गजशास्त्र : पिता- माननरेंद्र ) । आश्रित - शंकर । रचना वास्तुशिरोमणि । : ( 16 ) । आश्रित - दामोदर । रचनाविवेकदीपक । : (18)। आश्रित अनन्तभट्ट। रचनासदाचाररहस्य | : ( 6 ) - ( पल्लववंशीय) कांचीनरेश । आश्रित भारवि रचना किरातार्जुनीय - 534 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - - : (17) - रचना - यंत्ररचना, स्मृतिबोध : (13) यादववंशीय देवगिरिनरेश आश्रित शाङ्गदेव । रचना - संगीतरत्नाकर । (2) अनंतदेव- रचना - बृहज्जातक टीका : (नेपालनरेश) (17) । रचना - हरिश्चन्द्र नृत्य । : (14) रेचल्लवंशीय आन्ध्रनरेश । रचनासंगीत सुधाकर (संगीतरत्नाकर की टीका) रसार्णव सुधाकर, कुवलयावली (या रत्नपांचालिका नाटिका) कंदर्पसंभव : (भट्टग्रामनरेश) । रचना- अश्वमेघ नाटक (विषय- युधिष्ठिर का अश्वमेघ) : रचना - मुहनाप्रासादि व्यवस्था । www.kobatirth.org महाराज सुरभूपति सूर्जनराज सोमदेव हम्मीर हम्मीर हरिनारायण हरिपालदेव हर्षदेव हर्षवर्धन हाल हृदयनारायण For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (संगीतशास्त्र) : (16) (कांचीनरेश ? ) आश्रितश्रीनिवास दीक्षित। रचना - भावनापुरुषोत्तम (प्रतीकनाटक) : आश्रित चंद्रशेखर और गौडमित्र । रचना(दोनोंकी) राजसूर्जनचरित - महाकाव्य । : (12) चालुक्यवंशीय आश्रित विद्या माधव । रचना - पार्वतीरुक्मिणीयम् । : (14) मेवाडनरेश । रचना संगीत शृंगारहार | : ( चौहानवंशीय)। आश्रित नयनचंद्रसूरि रचना- हम्मीर महाकाव्य । : मिथिलानरेश। आश्रित ? रचनाशूद्राचार चिंतामणि । : यादववंशीय, देवगिरिनरेश । रचनासंगीतसुधाकर : काश्मीरनरेश। आश्रित शंभुकवि । रचना - अन्योक्तिमुक्कामाला । : (7) रचना- रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानन्दम् (तीनों रूपक) सुप्रभातस्तोत्र (बुद्धस्तोत्र) आश्रित- बाणभट्ट । रचना - कादंबरी, हर्षचरितम् । : प्रतिष्ठानपुरनरेश । रचना - गाथासप्तशती । (17) गढानरेश रचना- हृदयकौतुक और हृदयप्रकाश (संगीतशास्त्र ) । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अलंकार साहित्य श्रृंगार दर्पणम् - पद्मसुन्दर अलंकार प्रदीप अलंकार मंजूषा अलंकारमणिहार अलंकार चिन्तामणि (जैन) - व्याख्या अलंकारमुक्तावली अलंकाररखाकर अलंकारशेखर अलंकारसंग्रह अलंकारसर्वस्वम् -संजीवनी -विमर्शिनी अलंकारसूत्रम् -वृत्ति अलंकृति मणिमाला उज्ज्वलनीलमणि -व्याख्या -व्याख्या एकावलि -व्याख्या कर्णभूषणम् औचित्यविचारचर्चा -प्रभा कविकण्ठाभरणम् सुवृत्त तिलकम् कविकल्पलता -व्याख्या कविरहस्यम् -टिप्पणी काव्यकल्पलतावृत्ति काव्यकौमुदी -व्याख्या काव्यकौस्तुभ काव्यडाकिनी काव्यदर्पणम् काव्यदीपिका -व्याख्या काव्य परीक्षा - विश्वेश्वर पाण्डेय -देयशंकर पुरोहित - श्रीकृष्ण परकालस्वामी तंत्र - अजितसेन - विश्वेश्वर पाण्डेय - शोभाकर मिश्र - केशव मिश्र - अनन्तानंद योगी - राजानक रुय्यक - मंखक - जयरथ परिशिष्ट (ढ) - सं. जी. बी. देवस्थवी - रूप गोस्वामी - जीव गोस्वामी - विश्वनाथ चक्रवर्ती - मल्लिनाथ - गङ्गानन्द कविराज - क्षेमेन्द्र - देवेश्वर - हलायुध - अमरचन्द्रयति - श्रीधरानन्द - हरिदास सिद्धान्तवागीश - बलदेव - गंगानंद www.kobatirth.org - राजचूडामणि दीक्षित -कान्तिचन्द्र भट्टाचार्य - जीवानन्द - श्रीवत्सलाज्छन - साहित्यशास्त्र -स्वोपज्ञ वृति काव्यप्रकाश -सम्प्रदाय प्रकाशिनी -साहित्यचूडामणि -विमर्शिनी -सुधासागरी -संकेत -नागेश्वरी -काव्यादर्श -बालबोधिनी - काव्यप्रदीप - आदर्श - मधुमती - बालचित्तानुरन्जिनी -सारबोधिनी -काव्यप्रकाश दर्पण - मधुसूदनी -विवरणम् -व्याख्या काव्यप्रकाश खण्डनम् काव्यमीमांसा मधुसूदनी -चन्द्रिका -विमला - गोविन्द ठक्कर - महेश्वर भट्टाचार्य - रवि भट्टाचार्य - नरसिंह सरस्वती तीर्थ - श्रीवत्सलाञ्छन भट्टाचार्य - विश्वनाथ कविराज - मधुसूदन शास्त्री - गोकुलनाथोपाध्याय - वैद्यनाथ - काव्यप्रकाशविस्तारिका परमानन्द चक्रवर्ती काव्यलक्षणम् -रत्नसश्री काव्यविलास काव्यादर्श - विवृति -मालिन्यप्रोंछिनी -कुसुमप्रतिमा -प्रभा -प्रकाश -व्याख्या काव्यानुशासनम् -व्याख्या काव्यालंकार काव्यालंकारकारिका (अभिनव काव्यशास्त्रम्) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मम्मट भट्ट - विद्याचक्रवर्ती - भट्ट गोपाल -" - भीमसेन दीक्षित - माणिक्यचन्द्र - नागेश - भट्ट सोमेश्वर - वामनाचार्य झलकीकर खुशफहसिद्धिचन्द्र गणि - राजशेखर - मधुसूदन शास्त्री - म.म. नारायण शास्त्री खिस्ते - रत्नश्री ज्ञान - चिरंजीव भट्टाचार्य - महाकवि दण्डी - जीवानन्द प्रेमचन्द्र तर्कवागीश - - नृसिंहदेव - रामचन्द्र मिश्र - रंगाचार्य रेड्डी - वाग्भट - हेमचन्द्र - भामह - रेवाप्रसाद द्विवेदी संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 535 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra काव्यालंकारसंग्रह काव्यालंकार विवृति काव्यालंकार सूत्राणि - कामधेनु काव्यालंकारसूत्रवृत्ति - व्याख्या विमर्शिनी काव्यालंकार सूत्राणि -प्रतिमंगला वृत्ति काव्येन्दुप्रकाश कुवलयानन्द (चन्द्रालोक व्याख्यास्वरुप ) - अलंकारचन्द्रिका कुबलमानन्दकारिका -व्याख्या कुवलयानन्दचन्द्रिकाचकोर चन्द्रालोक - रमा -शरदागम -पौर्णमासी -राकागम चित्रमीमांसा -सुधा कोविदानन्द -कादम्बिनी चमत्कार- चन्द्रिका त्रिवेणिका दशरूपकम् - अवलोक -लघुटीका ध्वन्यालोक लोचन -कौमुदी -चालप्रिया -दिव्यांजना -उपलोचन दीधिति -राजयशोभूषणम् नाटक लक्षण रत्नकोश प्रतापरुद्रयशोभूषणम् - व्याख्या भक्तिरसामृतशेष भवानी विलास 536 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - उदयभट्ट - प्रतिहारेन्दुराज - - वामन -गोपेन्द्रपुरहर भूपाल - वामनाचार्य - मालती देवी यास्क -कामराज दीक्षित • अप्पय्य दीक्षित - बैद्यनाथ - अम्शाघर भट्ट - जग्गू वेंकटाचार्य -जयदेव पीयूषवर्षकवि - वैद्यनाथ - पद्मनाभ - नन्दकिशोर - गागाभट्ट - अप्पय्य दीक्षित - धर्मानन्द - आशाधर भट्ट - डा. ब्रह्ममित्र शास्त्री -डा. पी. एस. मोहन - आशाधर भट्ट - धनंजय - धनिक - भट्टसिंह -आनन्दवर्धन अभिनवगुप्त www.kobatirth.org - राम - महादेवशास्त्री कवितार्किक चक्रवर्ती - वदरीनाथ इजा - अभिनव कालिदास - सागरानन्दी - विद्यानाथ - कुमारस्वामी - जीवगोस्वामी - देवकवि भावप्रकाशनम् भावविलास यशवन्त यशोभूषणम् रस कौस्तुभ रसगंगाधर - गुरुमर्मप्रकाशिका - सरला -रसचन्द्रिका -मधुसूदनी चन्द्रिका रसचन्द्रिका रसदीर्घिका रसप्रदीप रसमंजरी -प्रकाश -व्यंग्यार्थं कौमुदी -सुरभिसमा रसतरंगिणी रसरत्नप्रदीपिका रसविलास रसार्णवसुधाकर रसिकजीवनम् रसतरंगिणी रसप्रकाश सुधाकर रसमंजरी रससदन रसिकजीवनम् रसिकरंजनम् रूपक परिशुद्धि वक्रोक्तिजीवित -व्याख्या वस्त्वलंकारदर्शनम् वाग्भटालङ्कार -व्याख्या विदग्धमुखमण्डनम् वृत्तिदीपिका वृत्तिवार्तिकम् वीरतरागिणी For Private and Personal Use Only वृत्तिसमुच्चय व्यक्तिविवेक -व्याख्या -वृत्ति श्रृंगारप्रकाश शृंगारतिलक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - शारदातनय - देवरूवि - वेणीदत्त - पण्डितराज जगन्नाथ - नागेश भट्ट -केदारनाथ ओझा - मधुसूदनशास्त्री - बदरीनाथ झा - विश्वेश्वर पाण्डेय - कवि विद्याराम - प्रभाकर भट्ट - भानुदत्त - नागेश भट्ट - अनन्त पण्डित - बदरीनाथ शर्मा - रामानन्द ठक्कुर - अल्लराज - भूदेव शुक्ल - शिंग भूपाल - रामानन्द यति - भानुदत्त मिश्र - यशोधर - शंकर मिश्र - युवराज - गदाधर भट्ट - रामचन्द्रकवि - डी.टी. ताताचार्य - राजानक कुन्तक - डॉ. ब्रह्मानन्द शर्मा - सिंहदेवगणि - प्रेमनिधि - धर्मदास सूर - श्रीकृष्ण भट्ट - अप्पय्य दीक्षित - चित्रहार मिश्र - ब्रह्ममित्र अवस्थी - राजानक महिमभट्ट - रुय्यक - मधुसूदन - भोजदेव - रुद्रट Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -रुय्यक -कामराज दीक्षित - हरिहर - रामचरण तर्कवागीश -कृष्णमोहन ठक्कुर - श्रीपाद शास्त्री - रामचन्द्र बुधेन्द्र -कवि चिन्तामणि -अच्युतराय -सर्वेश्वर कवि - सीतारामशास्त्री - धर्मसूरि -टिप्पणी श्रृंगारकालिकात्रिशती शृंगारदीपिका (शृंगारप्रदीपिका) श्रृङ्गार मंजरी (अकबर शाह के ग्रन्थ का अनुवाद) शब्दव्यापारविचार श्रृङगारभूषणम् श्रृङगारशतकम् श्रृङगारामृतलहरी समस्या- समज्या श्रृङगारार्णवचन्द्रिका सरस्वती कण्ठाभरणम् -रत्नदर्पण -व्याख्या -हृदयहारिणी साहित्यकौमुदी -कृष्णानन्दिनी साहित्यदर्पणम् -व्याख्या -रुचिरा -विज्ञप्रिया - मम्मट भट्ट -वामन भट्ट बाण - नरहरि -कामराज दीक्षित - रामशास्त्री भागवताचार्य - किजमवर्णी - भोजदेव - रत्नेश्वर मिश्र -अगद्धर - रामस्वामी शास्त्री - विद्याभूषण -विवृति -लक्ष्मी साहित्यमंजरी साहित्यमंजूषा साहित्यमीमांसा साहित्यसारम् -सरस्वामोद साहित्यसार (नाट्यलक्षणात्मक) साहित्योद्देश्य साहित्यरत्नाकर -नौका -मन्दर साहित्यसुधासिन्धु पुराणानां काव्यरूपतया विवेचनम् संस्कृत काव्यशास्त्रे भक्तिरसविवेचनम् ऋग्वेदे अलङ्काराः दशरूपक तत्त्वदर्शनम् ध्वनि-कल्लोलिनी अभिधाविमर्श भक्तिरस विमर्श शब्दशक्ति - विश्वनाथ देव - रामप्रतापशास्त्री - कृष्णबिहारी मिश्र - विश्वनाथ - जीवानन्द -शिवदत्त कविरत्न - महेश्वर भट्टाचार्य -प्रह्लादकुमार - रामजी उपाध्याय - आनन्द झा - योगेश्वरदत्त शर्मा - कपिलदेव ब्रह्मचारी - डा. पुरुषोत्तमदास संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/537 For Private and Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (ण) - ललित वाङ्मय (महाकाव्य- खण्डकाव्य- दूतकाव्य, चम्पू, गद्यकाव्य, कथा, और स्तोत्र) - राजनाथ दिण्डिम - श्रीकृष्णसूरि -वल्लभ (विठ्ठलरामात्मज) - श्रीनिवासाचार्य - अमरुककवि - अर्जुनदेव - रविचन्द्र - शंकरलाल - गंगाधरशास्त्री तैलंग - मल्लिनाथ -सीताराम - अरुणगिरिनाथ - लीलाशुक - पापयल्लय सूरि - लीलाशुक - शंकरलाल - विष्णुत्रात - चक्रवर्ती राजगोपाल - नीलकण्ठ दीक्षित - गंगाधर भट्ट -लक्ष्मीधर - अप्पय्य दीक्षित - जयदेव - नारायण पण्डित - मधुसूदन ओझा - श्रीकृष्ण भट्ट - भानुकवि - श्रीनाथशास्त्री वेताल -मल्लाचार्य अच्युतरायाभ्युदयम् -लघुपंजिका अनिरुद्धविजयम् अमृतमथनम् (गीतिकाव्य) अमरुशतकम् -रसिक संजीवनी -व्याख्या अरुंधतीविजयम् अलिविलास संलाप अवन्तिसुन्दरीकथासार अब्दुलचरितम् आर्याशतकम् -व्याख्या आश्लेषाशतकम् इन्द्रविजय (वैदिकी कथा) ईश्वरविलास-महाकाव्यम् उदयवर्मचरितम् उदयान्वयवर्णनम् उदारराघव -टीप्पणी उद्भटसागर -टिप्पणी उषाहरणम् -रसिकरंजिनी उमादर्श ऋतुसंहारम् काव्यसमुदय -हरिश्चन्द्रचरित्रम् -नाभानेदिष्ठम् -विश्वामित्रोदन्तम् -उमादर्शकाव्यम् किंकिणीमाला किसतार्जुनीयम् -घण्टापथ -शब्दार्थदीपिका कीचकवधम् -तत्त्वप्रकाशिका कुमारसम्भवम् -मल्लिनाथी -संजीवनी -प्रकाशिका कृष्णकर्णामृतम् -सुवर्णचषका कृष्णार्जुनीयम् कैलासयात्रा कोकसन्देश गंगातरंगम् गंगावतरणम् गाथासप्तशती ___-भावलेश प्रकाशिका गीतगोविन्दम् टीका-रसिकप्रिया टीका-रसिकमंजरी गीतगौरीपति -टिप्पणी गीतसुन्दरम् गीर्वाणकेकावलि (मराठीका अनुवाद) गुरुवंशम् गौरांगविजय घटखर्परकाव्यम् -विवृति -व्याख्या (विमला) चक्रपाणिविजयम् चन्द्रप्रभचरितम् ___-(विमला) चन्द्रावलीचरितम् चिमनीचरितम् जगडूचरितम् जयन्तविजयम् चौरपंचाशिका जाजदेव चरितम् जानकीहरणम जामविजय त्रिपुरदहनम् दशकण्ठवधम् -सदाशिव दीक्षित - डी.टी. साकुरीकर -काशी लक्ष्मणशास्त्री त्रिविक्रम पण्डिताचार्य - वेंकटरमणाचार्य - महाकवि कालिदास - वेंकटरमणाचार्य -घटखपर - अभिनवगुप्त - यतीन्द्रविमल चौधरी - भट्ट लक्ष्मीधर - वीरनन्दी - आनन्द झा - नीलकण्ठ कवि - सर्वानन्दसूरि - अभयदेव - बिल्हण - जी.वी. पद्मनाभशास्त्री - महालिंगशास्त्री - महाकवि भारवि - मल्लिनाथ -चित्रभानु - नीतिवर्म - जनार्दन सेन - महाकवि कालिदास -कुमारदास - वाणीनाथ - युवराज रामवर्मा -दुर्गाप्रसाद द्विवेद 538 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अमरचन्द्र सूरि -साधुशुद्धि दशग्रीववधम् दशावतारचरितम् देलरामाकथासार देवीविजयम् द्वयाश्रयकाव्यम् -व्याख्या धर्मशर्माभ्युदयम् धर्माकूतम् नटेशविजयम् नरनारायणीयम् -दिग्दर्शिनी नलाभ्युदय नलोदय नारायणशतकम् -व्याख्या नीतिनवरत्नमाला नैषधीयचरितम् -जीवातु -नारायणी पंचलक्ष्मीविलास - मार्कण्डेय मिश्र -क्षेमेन्द्र - भट्टालादकवि - प्रा. रामचंद्र - आचार्य हेमचन्द्र - अभयतिलक गणि - हरिश्चन्द्र - त्रयम्बकराय मखी -वेंकटकृष्ण दीक्षित - सदाशिव कवि - अश्वघोष -क्षेमेन्द्र - त्रिलोचन ज्योतिर्षिद -महेशचन्द्र तर्कचूडामणि - महाकवि भट्टि -वामनभट्ट बाण - कालिदास - विद्याधर पुरोहित - पीताम्बर मिश्र - विजयराघवाचार्य - श्रीहर्ष - मल्लिनाथ - कमलाशंकर - मल्लिनाथ - विजयराघवाचार्य 6. भाषातंत्रम्, 7. सरस्वत्यष्टकम्, 8. अभिनवभारतम्, 9. प्राचीन कविविषयक पद्यानि बालभारतम् -मनोहर व्याख्या बुद्धचरितम् बृहत्कथामंजरी भक्ति-प्रबन्धकाव्यम् भगवच्छतकम् -विवृति • भट्टीकाव्यम् -जयमंगला -मुग्धबोधिनी -व्याख्या -मल्लिनाथी -चन्द्रकला भरतचरितम् भर्तृहरिशतकत्रयम् -व्याख्या भामिनीविलास -प्रणयप्रकाश भारतमंजरी भारतमातृमाला भारतशतकम् भारतीवैभवम् भूदेवचरितम् भोसलवंशावली भुंगसन्देश भंगसन्देश भोगावतीभाग्योदयम् मातृकाविलास माथुरम् माधवमहोत्सवम् माधवानल कामकन्दली मीरालहरी मुक्ताजालम् मूकपंचाशती मेघप्रार्थना यात्राप्रबन्ध यादवाभ्युदय् -व्याख्या युधिष्ठिरविजयम् - रामभद्र दीक्षित - स्वास्तितिरुताल रामवर्म - श्रीकृष्ण भट्ट कवि - वात्स्य राजगोपाल चक्रवर्ती - परमानन्द कवि - शंकरलाल - स्वामी भगवदाचार्य पतंजलिचरितम् पद्मनाभशतकम् पद्यमुक्तावली पद्महर्षचरितम् परमानन्दकाव्यम् पांचालीचरितम् पारिजातसौरभम् (गांधिचरितकाव्यम्) पारिजातहरणम् पारिजातापहार (गान्धिचरितकाव्यम्) पुष्पबाणविलास -व्याख्या पृथ्वीराजविजय -व्याख्या प्रसन्नलोपामुद्रम् प्रकीर्ण प्रबन्धाः 1. भारतगीतिका, 2. मुद्गरदूतम्, 3.धीरनैषधीयम, 4. साहित्यरत्नावली, 5. कलाकौमुदी, - उमापति द्विवेदी - स्वामी भगवदाचार्य - श्रीकृष्ण कवि - भर्तृहरि - कृष्णशास्त्री -पण्डितराज जगन्नाथ -अच्युतराय -क्षेमेन्द्र - नारायणपति त्रिपाठी - महादेवशास्त्री - माधवप्रसाद देवकोटा - महेशचन्द्र तर्कचूडामणि -वेकटेश्वर - वासुदेव कवि - महालिंग शास्त्री - शंकरलाल -वंशीधर (संगृहीत) - गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य -जीव गोस्वामी - गणपति कवि - श्रीमती क्षमा राव -चिं. द्वा. देशमुख - मूककवि - शंकरलाल - समरपुंगव दीक्षित -वेंकटनाथ वेदाताचार्य - अप्पय्य दीक्षित - वासुदेव - कालिदास -वेंकट सार्वभौम -जिनराज -शंकरलाल - रामावतार पाण्डेय संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /539 For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -राजानक रत्नकण्ठ -रामभद्राम्बा -कालिदास - मल्लिनाथ सूरि - मल्लिनाथ - भानुदत मिश्र -देवकीनन्दन - कालिदास - हरदत्त सूरि -कल्हण -व्याख्या रघुनाथाभ्युदय रघुवंश -संजीवनी रघुवीरचरितम् रसपारिजात रसब्धिमहाकाव्यम् राक्षसकाव्यम् -व्याख्या राघवनैषधकाव्यम् -स्वोपज्ञ व्याख्या राजतरंगिणी राजविनोद-महाकाव्यम् राज्ञीचरितप्रकाश राधापरिणयम् रामचरितम् रामविजय महाकाव्यम् रामायणमंजरी रावणार्जुनीयम् राष्ट्रौढवंशम् -टिप्पणी रुक्मिणीकल्याणम् ___-मौक्तिकमालिका रुक्मिणी परिणयम् राधाप्रिया रुक्मिणीहरणम् लक्ष्मीश्वरोपायनम् लक्ष्मीसहस्रम् बालबोधिनी लघुकाव्यानि ललितरामचरितकाव्यम् स्वोपज्ञ व्याख्या वनलता बल्लालचरितम् वसन्तविलास विक्रमांकदेवचरितम् -व्याख्या विजय प्रकाश वियोगिविलापम् विष्णुभक्तिकल्पलता विष्णुविलासः वैदिकसिद्धान्तवर्णनम् शक्तिसाधनम् शंकरजीवनाख्यानम् - उदयराज - चन्द्रशेखर शर्मा - बदरीनाथ शर्मा झा - अभिनन्द -रामनाथोपाध्याय -क्षेमेन्द्र - भट्टभीम - रुद्रकवि - सी.डी. दयाल - राजचूडामणि दीक्षित -कालयज्ञ वेदेश्वर -विश्वनाथदेव वर्मा शंकरदिग्विजयः - आनन्दगिरि शंकरदिग्विजय अद्वैतराजलक्ष्मी - विद्यारण्यस्वामी -डिंडमव्याख्या शंकरविजयः - व्यासाचल कवि शतरंजकौतूहलम् - चिन्ताहरण चक्रवर्ती शम्भुचोपदेश - य.महालिंगशास्त्री शाहेन्द्रविलासः - श्रीधर वेंकटेश शिवतत्त्वरत्नाकरः - बसवराज शिवपरिणयः - श्रीकृष्णराजानक -छाया व्याख्या शिवलीलार्णवः - नीलकण्ठ दीक्षित -लघुटिप्पणी - गणपतिशास्त्री शिवशतकम् - रामपाणिवाद शिशुपालवधम् - महाकवि माघ (सर्वंकषा) - मल्लिनाथ -सन्देहविषौषधिः - वल्लभदेव शूर्जनचरितम् - गौड चंद्रशेखर कृष्णावतारलीला - दीनानाथ श्रीचन्द्रदिग्विजयम् । - अखिलानन्द ज्ञानेश्वरचरितम् - श्रीमती क्षमा राव रामकृष्ण-विलोम काव्यम् - दैवज्ञ सूर्यकवि -व्याख्या -दैवज्ञ सूर्यकवि रामचरितम् - गोदवर्मा युवराज रामपंचशती -राम पारशव -व्याख्या शारदोपायनम् - रघुवीर मिश्र शागकोपाख्यानम् - श्रीनिवासार्च श्रृंगारकल्लोल - श्री रामभट्ट श्रृंगारतिलकम् -कालिदास रसिकतिलकम् श्रृंगारहारावली - श्रीहर्ष श्रृंगारादिन-वरस-निरुरूणम् - यंककाव्यम् (सिखपंथीय -कृष्णकौर मिश्र पूर्वेतिहास -गौरवाख्यम् - षष्टिशतक-प्रकरणम् - नेमिचन्द्र संगीतमाधवम् - प्रबोधानन्द सरस्वती -सरलार्थप्रकाशिका सतीपरिणयम् -चन्द्रकान्त तर्कालंकार सत्याग्रह-गीता - श्रीमती क्षमा राव सन्तानवल्ली - सदाशिवदास शर्मा समयमातृका -क्षेमेन्द्र सम्राट्चरितम् - हरिनन्दन भट्ट सरथोत्सवः - सोमेश्वर देव सर्वमंगलोदयम् -पंचानन तर्करत्न - हरिदाससिद्धान्त वागीश - रघुवीर मिश्र - वेंकटाधारी - श्रीनिवास - नीलकण्ठदीक्षित -बालचन्द्र -बालचन्द्र - महालिंग शास्त्री - आनन्दभट्ट - बालचन्द्रसूरि - बिल्हण -प्रमथनाथ तर्कभूषण - चक्रवर्ती राजगोपाल - पुरुषोत्तम - रामपाणिवाद - अखिलानन्द - यतीन्द्रबिमल चौधरी - श्रीमती क्षमा राव 540 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जीवन्यायतीर्थ - यज्ञनारायण दीक्षित -भट्टमथुरानथ - चन्द्रशेखर - वरदाचार्य - मयूरकवि - त्रिभुवनपाल - अश्वघोष - श्रीनिवासाचार्य - पूर्णसरस्वती - अज्ञातनाम - राजानक जयरथ - राजानक रत्नाकार -व्याख्या सहदयादनन्द काव्यम् साहित्यवैभवम् सुर्जनचरितम् सुषुप्तिवृत्तम् सूर्यशतकम् -व्याख्या सौन्दरानन्द काव्यम् हंसविलासम् व्याख्या हंससन्देशः हंससन्देशः हरचरितचिन्तामणिः हरविजय महाकाव्यम् __-व्याख्या हरिचरितम् नवसाहंसाक चरितम् चारुचर्या चित्रकाव्यकौतुकम् सीतारामविरहकाव्यम् पद्यव्याकरणम सौमित्रिसुन्दरीचरितम् किशोरीविहारः श्रद्धाभरणम् झांसी लक्ष्मीबाई पाणिनीयप्रशस्तिः जयोदय महाकाव्यम् रुक्मिणीहरणम् - परमेश्वर भट्ट - परिमल पद्मगुप्त -क्षेमेन्द्र - रामरूप पाठक - लक्ष्मणाध्वरी -लालचन्द्र - भवानीदत्त शर्मा - गोपालकृष्ण भट्ट - चन्द्रधरशर्मा - गोपालकृष्ण भट्ट - गोपालशास्त्री दर्शनकेसरी -ब्र. भूरामल - काशीनाथ द्विवेदी नारायणविजयम् (महाकाव्यम्) (बौद्ध शाकंरसिद्धान्तयोजककेरलीय सत्पुरुष नारायणगुरुचरित्र) -के. बालराम पणिक्कर स्वोपज्ञ व्याख्या महर्षि ज्ञानानन्दचरितं महाकाव्यम्-विंध्येश्वरीप्रसाद शास्त्री हरिसंभव-महाकाव्यम् -चिन्त्यानन्द सुवृत्ततिलकम् -क्षेमेन्द्र __ -प्रभाव्याख्या सीताचरितम् - डा. रेवाप्रसाद द्विवेदी स्तुतिकुसुमांजलिः - जगध्दर भट्ट लघुपंजिका सत्यानुभावम् -कालीपद तर्काचार्य श्रीस्वामिविवेकान्दचरित- - त्र्यम्बक भाण्डारकर महाकाव्यम् युगलशतदलम् - सत्यव्रतशर्मा 'सुजान' संस्कृतगीतांजलिः सीतारामविहारकाव्यम् - ओर्गण्टिवंशवर्धन लक्ष्मणाध्वरी हरिचरितम् - चतुर्भुज कवि हरिचरितम् - परमेश्वर कवि यशोधरमहाकाव्यम् -वादिराज -व्याख्या - लक्ष्मण रघुवंशदर्पणम् - हेमाद्रि राघवपाण्डवीयम् - कविराज पण्डित -सुबोधिनी - दामोदर झा नानकचन्द्रोदय महाकाव्यम् - देवराज शर्मा तिलकयशोऽणर्वः - माधव श्रीहरि अणे गीतगिरीशम् -- नृपतिरायभट्ट कुट्टीनमतम् (शम्भलीमतकाव्यम्)- दामोदर गुप्त करुणाकटाक्षलहरी - डा. रसिकबिहारी जोशी अद्भुत-दूतम् - जगू बकुलभूषण दयानन्ददिग्विजयम् - मेधाव्रताचार्य व्याख्या विजयमंगला -महावीर दयासहस्रम् - निगमान्त महादेशिक नाचिकेतसं महाकाव्यम् - कृष्णप्रसाद घिमिरे पारिजातहरणम् - कवि कर्णपूर भारतकथा - गंगाधरशास्त्री तैलंग गान्धिचरितम् - ब्रह्मानन्दशुक्ल श्रीचिह्न-काव्यम् - कृष्ण लीलाशुक (गोविन्दाभिषेकं) राम-गीतगोविन्दम् - जयदेव विश्वकविः (रवीन्द्रनाथः) - गरिकपाटि लक्ष्मीकान्त विद्वन्मोदतरंगिणी - वामदेव भट्टाचार्य कण्टकांजलि: - कण्टकार्जुन अम्बिकालापः त्रिपुरदहनम् - वासुदेव कवि -व्याख्या - पंकजाक्ष कल्याणमंजरी हम्मीरमहाकाव्यम् - नयचंद्र बुद्धविजयकाव्यम् - शान्तिभिक्षु यशोधरामहाकाव्यम् - ओ.परीक्षित शर्मा जीवनसागरः - श्री.भी.वेलणकर भारतरत्नम् (जवाहरलालनेहरू) - गरिकपाटि लक्ष्मीकान्त श्रीकृष्णचरित महाकाव्यम् -कृष्णप्रसाद घिमिरे क्षत्रपति महाकाव्यम् - उमाशंकर शर्मा शिवराज्योदय महाकाव्यम् - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर नेहरु-चरितम् (महाकाव्य) - ब्रह्मानन्द शुक्ल पूर्वभारतम् (महाकाव्यम्) -प्रभुदत्त स्वामी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /541 For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विवेकानन्दचरितम् -डॉ.गजानन बालकृष्ण पळसुले -हरिपद्मनाभ शास्त्री -बाणभट्ट हरिचरितामृतम् चण्डीशतकम् भिक्षाटनकाव्यम् सीतास्वयंवरकाव्यम् षतुववर्णन काव्यम् चण्डीकुचपंचाशिका वक्रोक्तिपंचाशिका कवीन्द्रकर्णाभरणम् काव्यभूषणशतकम् सुन्दरीशतकम् ब्रह्मांजलि पवनदूतम् पिकदूतम् पद्मदूतम् भक्तिदूतम् भ्रमरदूतम् भ्रमरसंदेशम् भुंगसंदेशम् भुंगदूतम् मधुकरदूतम् मधुरोष्ठसंदेशम् मयूरसंदेशम् • वादिचंद्र - अंबिकाचरण देवशर्मा -अज्ञात - कालीप्रसाद -रुद्रवाचस्पति -वासुदेव - श्रीमती त्रिवेणी - शतावधानी श्रीकृष्ण - चक्रवर्ती राजगोपाल - अज्ञात - उदयन (ध्वन्यालोक लौचनकौमुदीकार) - कुन्हनराजा -व्रजनाथ -विष्णुदास - रंगाचार्य - श्रीनिवासाचार्य - विजिमूरि वीरराघव - महाकवि कालिदास - मल्लिनाथ - पूर्णानन्द सरस्वती - डॉ.डी.अर्क सोमथाजी व्याख्या मनोदूतम् दूतकाव्यानि उद्धवदूतम् उद्धवसंदेशम् - माधव -हंसयोगी काकदूतम् कीरदूतम् कीरसंदेशम् कृष्णदूतम् कोकदूतम् कोकिलदूतम् कोकसंदेशम् कोकिलसंदेशम् - सहस्रबुद्धे - रामगोपाल। - लक्ष्मीकान्तय्य । -नसिंह -रामगोपाल - प्रमथनाथ तर्कभूषण -विष्णुत्रात - नृसिंह - वरदाचार्य - गुणवर्धन -वेंकटाचार्य - उद्दण्ड - अण्णंगराचार्य - कोचा नरसिंहाचार्य - वीरेश्वर - वासुदेव मयूरसंदेशम् मयूरसंदेशम् मानसंदेशम् मेघदूतम् टीका विधुकला प्रदीप मेघदूतम् मारुतसंदेश वाङ्मण्डन गुणदूतम् विप्रसंदेशम् शुकसंदेशम् सुभगसंदेशम् सुभगसंदेशम् सुरभिसन्देशम् संदेशः रत्नांगादूतम् हंसदूतम् हंससंदेशम् - त्रैलोक्यमोहन - अज्ञात - वीरेश्वर - युवराज रामवर्मा -रंगनाथ ताताचार्य - लक्ष्मणसूरि - नारायणकवि -विजयराघवाचार्य - न्यायविजय मुनि - अज्ञात -रूपगोस्वामी - वेंकटेश - कवीद्राचार्य सरस्वती - अज्ञात - रंगनाथ ताताचार्य गरुडसंदेशम् चंद्रदूतम् चकोरसंदेशम् -वेंकट हनुमत्प्रसादसंदेशम् चातकसंदेशम् नेमिदूतम् पान्थदूतम् पिकसंदेशम् -पेरुसरि - अज्ञात -विक्रम - भोलानाथ - रंगाचार्य - कोचा नरसिंहाचार्य -धोयीकवि -चिंताहरणचक्रवर्ती चम्पूकाव्य अम्बिकापरिणयचम्पूः -तिरुमलाम्बा आनन्दकन्दचम्पूः - मित्रमिश्र आनन्दरंगचम्पूः - श्रीनिवास कवि आनन्दवृन्दावनचम्पूः - कर्णपूर - विश्वनाथ चक्रवर्ती पवनदूतम् टीका -सुखवर्तिनी 542 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मण्डिकल वरदाचार्य सावित्रीपरिणयचम्पू नरसिंहविजयचम्पूः -स्वोपज्ञव्याख्या - नरसिंहशास्त्री गद्यकाव्य - महाकवि दण्डी - श्रीनाथशास्त्री वेताल -सोढ्ढल - महाकवि बाणभट्ट -अभिनन्द - दिव्यानन्द मुनि - श्रीनिवासशास्त्री अवन्तिसुन्दरी कथा अशोकान्वयवर्णनम् उदयसुंदरीकथा कादम्बरी कादम्बरीकथासार कुमादिनीचन्द्रः चन्द्रमहीपतिः पार्वतीविवृतिः तिलकमंजरी दम्पतीसौहार्दम् दशकुमारचरितम् -पददीपिका -पदचन्द्रिका -भूषणा -धनपाल -मणिराम - दण्डी उत्तररामचरितचम्पू: -वेंकटाध्वरी कविमनोरंजकचम्पूः - सीतारामसूरि कुमारसम्भवचम्पू: - शरभोजी महाराज कुमारोदयचंपू: - प्रा. रामचंद्र गोपालचम्पूः - जीव गोस्वामी चम्पूभारतम् - अनन्तभट्ट -व्याख्या - रामचन्द्र बुधेन्द्र -व्याख्या - नारायणसूरि -व्याख्या - वाजिराय श्रीखण्ड चम्पूरामायणम् - भोजराज सार्वभौम -व्याख्या - रामचन्द्र बुधेन्द्र नलचम्पू: - त्रिविक्रमभट्ट ___-व्याख्या - चण्डवाल नीलकण्ठविजयचम्पूः - नीलकण्ठ दीक्षित -विबुधानन्दव्याख्या - भारद्वाज वेल्लल महादेवसूरि नृसिंहचम्पू: -सूर्यकवि नृगमोक्षप्रबन्धचम्पू: - नारायणभट्ट -विवरणम् पारिजातहरणचम्पू: - शैषश्रीकृष्ण बाणायुधचम्पूः - युवराज रामवर्मा भागवतचम्पू: - अभिनव कालिदास मन्दारमरन्दचम्पूः - श्रीकृष्णकवि -माधुर्यरंजिनी यशस्तिलकचम्पू: - सोमदेव सूरि -व्याख्या - श्रुतसागर सूरि पूर्वभारचम्पूः - मानवेद -टिप्पणी -कृष्ण रामानुजचम्पू: - रामानुजाचार्य जीवन्धरचम्पूः - हरिश्चन्द्र विद्वन्मोदतरंगिणी -चिरंजीव कवि विश्वगुणादर्शचम्पू -वेंकटाध्वरी -व्याख्या - धरणीधर वीरभद्रचम्पूः - पद्मनाभ मिश्र श्रीनिवासविलासचम्पू: - वेंकटाध्वरी -व्याख्या सुलोचना-माधवचम्पूः -बच्चा झा प्रबुध्दभारतचम्पू: - रामनारायण शास्त्री कुंवलयमाला - उद्योतन सूरि चोलचम्पू: -विरूपाक्षकवि पुरुदेवचम्पूः - अर्हद्दास विक्रमांकाभ्युदयम् -सोमेश्वर देव विरुपाक्ष-वसन्तोत्सवचम्पू: शाकिनीसहकारचम्पू: - गोपालकवि सप्तरात्रोत्सवचम्पूः - पंचमुखी राघवेन्द्राचार्य बलिदानम् (मराठी उपन्यास का - श्रीलाटकर संस्कृतानुवाद भातृसौदिम् - मणिराम मन्दारमंजरी - विश्वेश्वरपाण्डेय -कुसुमाव्याख्या - तारादत्तपन्त युगलांगुलीयम् रामकथा - वासुदेव वासवदत्ता -सुबन्धु -दर्पण - शिवराम वेमभूपालचरितम् -वामन भट्टबाण शिवराजविजयः -अम्बिकादत्त व्यास संसारचक्रम् - अनन्ताचार्य हर्षचरितम् - महाकवि बाण -संकेत - शंकर -जयश्री - नवलकिशोर हर्षचरितसारः - अनन्ताचार्य -डॉ. वा. वि. मिराशी सूक्तिमुक्तावली - गोकुलनाथोपाध्याय द्वा सुवर्णा -रामजी उपाध्याय कुसुमलक्ष्मी - रत्नपारखी चन्द्रापीडकथा - अनन्ताचार्य नवमालिका -विपिनचन्द्र गोस्वामी भारतकौमुदी - मधुकेश्वर संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 543 For Private and Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेकशुभोदया स्थविरावलीचरितम् भारतीयरत्नचरितम् हम्मीरप्रबन्ध - हलायुध मिश्र -हेमचन्द्र - रुद्रदत्त पाठक - अमृतकलश कथाग्रबन्धाः - नारायण बालकृष्ण गोडबोले कुसुममाला - वामनशिवराम आपटे पत्रकौमुदी - वरसचि लक्ष्मीश्वरीचरितम् - बालकृष्णमिश्र वैदिकवैभवम् अनूपसिंह-गुणावतारः - विठ्ठलकृष्ण अभिज्ञानशाकुन्तलाचर्चा अवदान-कल्पलता - क्षेमेन्द्र उत्कीर्णलेखपंचकम् उपन्याससंग्रहः - पंचमुखी राघवेन्द्राचार्य उपाख्यान मंजरी ऋजुलध्वी (मालती-माधवकथाकान्हडदेप्रबन्धः - पद्मनाभ कार्तवीर्य विजयप्रबन्धः - आश्विन श्रीरामवर्म कुमारपालचरितसंग्रहः -जिनविजयमुनि कृष्णचरितम् -अगस्त्यपण्डित गणिकावृत्तसंग्रहः -डॉ. स्टर्नबाक-संगृहीत गद्यचिन्तामणिः -वादीभसिंह छत्रपतिसाम्राज्यम् -शिवशंकर त्रिपाठी टालस्टायकथासप्तकम् - डॉ. भागीरथप्रसाद त्रिपाठी दरिद्राणांहदयम् - नारायणशास्त्री खिस्ते दिव्यसूरिप्रबन्धः (आलवार -बालधनी जग्गू वेंकटाचार्य चरितानि दशावतारचरितम् - क्षेमेन्द्र नलोपाख्यानसंग्रह - लक्ष्मणसूरि त्रिपुरदाहकथा -रामस्वरूपशास्त्री अमरभारती -सं. रामचन्द्रद्विवेदी, रविशंकरनागर पंचाख्यान बालावबोधः पुरातनप्रबन्धसंग्रहः प्रबन्धचिन्तामणिः - मेरुतुंगाचार्य बालरामायणम् - पी.एस.अनन्तनारायणशास्त्री भारतसंग्रहः -लक्ष्मणसूरि धूर्ताख्यानम् - संघतिलक भास-कथासार - महालिंगशास्त्री नाटककथासंग्रह -अनन्ताचार्य मत्स्यावतारप्रबन्ध - नारायण भट्ट मधुमालती कथा मुद्राराक्षसनाटक कथा - महादेव यतीन्द्रप्रवणप्रभावः - जग्गू वेंकटाचार्य वाल्मीकिविजय - परशुराम वैद्य वीणावासवदत्ता कथा शान्तिनाथचरितम् - अजितप्रभाचार्य श्रृंगारमंजरी कथा - भोजदेव रामावतार-प्रकीर्ण प्रबन्धः - रामावतार शर्मा इसबनीति कथा (मराठी से __ अनूदित) कथाकौतुकम् कथासरित्सागर चाणक्यकथा नलोपाख्यानम् पंचतंत्रकम् पुरुषपरीक्षा भोजप्रबन्धः वेतालपंचविंशतिः हितोपदेश शुकसप्ततिः बृहत्कथा श्रृंगारमंजरीकथा वेतालपंचविंशतिका कथारत्नाकर - श्रीधर -सोमदेव भट्ट - कविनर्तक -सतीशचन्द्र झा - विष्णुशर्मा - विद्यापति -बल्लाल सेन - जम्मलदत्त - नारायण पण्डित - भोजदेव - दामोदर झा - हेमविजय गणि गद्यप्रबन्धाः - चक्रवर्ती राजगोपाल ::::: शैवलिनी विलासकुमारी कुमुदिनी संगरम् तीर्थाटनम् कविकाव्यविचार अनसूयाभ्युदयः भगवतीभाग्योदयः चंद्रप्रभाचरितम् महेश्वरप्राणप्रिया श्रीकृष्णलीलायितम् - शंकरलाल Ad. - श्रीनिवासाचार्य स्तोत्रवाङ्मय अच्युतशतकम् अन्नपूर्णास्तोत्रम् अभिनवकौस्तुभ अम्वाष्टकम् अम्बास्तवः आचार्यायशतकम् 544 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजितास्तोत्रम् आदित्यहृदयम् __-व्याख्या आनन्दलहरी - पण्डितराजजगन्नाथ आर्याशतकम् आलवन्दारस्तोत्रम् आशीर्वादशतकम् इन्द्राक्षीशिवकवचम् ईश्वरप्रार्थना ककारादिकालिसहस्रनामस्तोत्रम् कर्पूरस्तोत्रम् -विमलानन्ददायिनी -व्याख्या - नारायणशास्त्री खिस्ते कर्पूरस्तवराजः -व्याख्या कालभैरवाष्टकम् काशीरत्नमाला कालीकवचम् केशवकृपालेशलहरी -शंकरलाल गङ्गालहरी - पण्डितराज जगन्नाथ गजेन्द्रमोक्ष -व्याख्या गणेशमहिम्नः-स्तोत्रम् - पुष्पदन्ताचार्य गणेशसहस्रनामस्तोत्रम् गरुपरम्परास्तोत्रम् गुरुविशेषणाष्टकम् गुर्वष्टोत्तरशतकनामस्तोत्रम् गायत्रीरामायणम् गोपालसहस्रनामस्तोत्रम् व्याख्या - दुर्गादास गोविन्द-दामोदरस्तोत्रम् गोविंदाष्टकम् चर्पटपंजरी - शंकराचार्य जगन्नथाष्टकम् तीर्थभारतम् - डा.श्री.भा.वर्णेकर दक्षिणामूर्तीस्तोत्रम् दकारादिदत्तत्रेयसहस्रनामावली (दत्तकरुणार्णय) लघुतत्वसुधादत्तान्त दथाशतकम् दशावतारस्तव -विजयराघवाचार्य दुर्गापुष्पांजली - शंकराचार्य दुर्गाकवचम् अर्गलास्तोत्रम् कीलकस्तोत्रम् देवदेवेश्वरशतकम् - युवराज रामवर्मा देवीसहस्रनामस्तोत्रम् देवीशतकम् देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् - शंकराचार्य देशीकेन्द्रस्तवालि द्वारकाधीशस्तोत्रावली दुर्गास्तोत्रसंग्रह धर्मेश्वरस्तोत्रम् नर्मदाष्टकम् नवग्रहस्तोत्रसंग्रह नवग्रहस्तोत्रम् - विजयराघवाचार्य नारायणशतकम् व्याख्या - पीतांबर कविचन्द्र नारायणीस्तोत्रम् निर्गुणान्तसहस्रनामस्तोत्रम् पंचायतनाष्टोत्तरशतनामावलि पंचरत्नरामरक्षास्तोत्रम् पादारविन्दशतकम् पादुकासाहस्रम् ___-परीक्षा व्याख्या - श्रीनिवासाचार्य बगलामुखीस्तोत्रम् पुरुषोत्तमसहस्र नामस्तोत्रम् बटुकभैरवस्तोत्रम् बृहत्स्तोत्ररत्नाकर बृहत्स्तोत्रमुक्ताहार बृहत्स्तोत्रसरित्सार ब्रह्मतर्कस्तव भारतीस्तव भुजंगस्तोत्रम् भुवनेश्वरी महास्तोत्रम् - पृथ्वीधराचार्य मङ्गलागौरीस्तोत्रम् मन्दस्मितशतकम् (शारदा) नवरत्नमालिकास्तोत्रम्मातृपदांजलि मातृभूलहरी -डॉ. श्री. भा. वर्णेकर मुररिपुस्तोत्रम् - गोदवर्मा मातृशतकम् (शिव) महिम्नः स्तोत्रम् - पुष्पदन्ताचार्य -मधुसूदनीव्याख्या - मधुसूदन सरस्वती -सुबोधिनी यमुनाष्टकम् योगसारशिवस्तोत्रम् राधासुधानिधिस्तोत्रम् संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 545 For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उत्पलदेवाचार्य -क्षेमराजाचार्य शिवस्तुति -व्याख्या शिवस्तोत्रावली -विवृति शिवकर्णामृतस्तोत्रम् शिवानन्दलहरी शिवोऽहंस्तोत्रम् श्यामलादण्डकम् शीतलाष्टकम् श्रीकृष्णमहिम्नस्तोत्रम् श्रीकृष्णलीलास्तव श्रीकृष्णशालिनी सच्चिदानन्द-गुरुपादुकास्तव सदाशिवेन्द्रस्तुति सरस्वती स्तोत्राणि सहस्रार्जुनस्तोत्रम् सन्तानगोपालस्तोत्रम् साम्ब- पंचाशिका -व्याख्या -व्याख्या - गो.कृपालाल रामपंचदशी रामरक्षास्तोत्रम् -बुधकौशिक रामसौन्दर्यलहरी -व्याख्या -चेन्न भट्ट रामस्तवराज लक्ष्मीसहस्रनामस्तोत्रम् लक्ष्मीनारायण हृदयस्तोत्रम् लक्ष्मीस्तुति -विजयराघवार्य ललितासहस्रनामस्तोत्रम् -भाष्य सौभाग्यभास्कर -भास्करराय मखी लघुस्तुति -वृत्ति -राघवानन्द ललितात्रिशतीस्तोत्रम् -भाष्य - शंकराचार्य -व्याख्या ललितास्तव-मणिमाला ललितास्तवरत्नम् वरपत्यष्टकम् -दीपिका वरदराजस्तव - अप्पय दीक्षित -स्वोपज्ञव्याख्या विश्वनाथस्तोत्रम् विश्वाराध्याष्टोत्तरशतनामावली - विष्णुपादादिकेशान्तस्तोत्रम् -भक्तिमन्दाकिनी - पूर्णसरस्वती विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् - (महाभारतान्तर्गतम्) -भाष्य - शंकराचार्य -विवृति वेदस्तुति (भागवतान्तर्गता) -श्रीधरी -श्रीधराचार्य -श्रुतिकल्पलता ___-व्याख्या - काशीनाथ वेंकटेशशतकम् शारदास्तोत्रम् शनिस्तोत्रम् - दशरथकृत शिवताण्डवस्तोत्रम् - रावणकृत -व्याख्या - ब्रह्मानन्द उदासीन शिवदण्डकम् शिवपंचाक्षर-नक्षत्रमालास्तोत्रम् - शिवपादादिकेशान्त-वर्णनस्तोत्रम्शिवकवचम् शिवसहस्रनामस्तोत्रम् शिवशान्ततिलकस्तोत्रम् - श्रीधरस्वामी सिद्धान्तरत्नाकर (उपासनाकाण्डम्) सिद्धसरस्वतीस्तोत्रम् लक्ष्मीनृसिंह करावलम्बनस्तोत्रम् - शंकराचार्य शिवस्तोत्रम् - उपमन्युकृत सुधानंदलहरी - गोदवर्मा सुब्रह्मण्यसहस्रनाम स्तोत्रम् । सूर्यशतकम् - मयूरकवि -व्याख्या -त्रिभुवनपाल सौन्दर्यलहरी - शंकराचार्य -सौभाग्यवार्धिनी -भाष्य - भास्करराय -डिण्डिम भाष्य - रामकवि -लक्ष्मीधराव्याख्या - लक्ष्मीधर -गोपालसुन्दरी - नरसिंहस्वामी -अरुणानंदिनी -आनन्दगिरीया - आनन्दगिरि -आनन्दलहरी -तात्पर्यदीपिनी -पदार्थचन्द्रिका सौभाग्यकाशीशस्तोत्रम् स्तवमाला -भाष्य -जीवदेव स्तवरत्नावलि 546/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तुतिकुसुमांजलि -जगद्धर भट्ट -व्याख्या - राजानक रत्नकण्ठ स्तुतिशतकम् स्तोत्रशतकम् स्तोत्रकल्पतरु स्तोत्रकुसुमांजलि स्तोत्रसंग्रह स्तोत्रभारती-कण्ठहार स्तोत्रसमुच्चय स्तोत्रार्णव स्तोत्रत्रयी स्तोत्रसुधा स्तोत्रसमाहार स्तोत्रवल्लरी - रघुनाथशर्मा हनुमत्सहस्रनामस्तोत्रम् संभृतस्तोत्रावलिविभाग हरिमीडेस्तोत्रम् -हरितत्त्वमुक्तावली हरिमन्दिरनीराजनम् -व्याख्या हरिहराद्वैतस्तोत्रम् सुभगोदयस्तुति रुक्मिणीमहालक्ष्मीस्तोत्रम् श्रीस्तवकल्पद्रुम प्रज्ञालहरीस्तोत्रम् विष्णुस्तोत्रम् - श्रीधरस्वामी कनकधारास्तोत्रम् - शंकराचार्य चण्डीशतकम् सकलजननीस्तव रुद्राष्टकम् (गणेशाद्येकादश देव-देवीस्तवनात्मकम् -अनन्तानन्द सरस्वती राजराजेश्वरी-विश्वनाथस्तोत्रम् - -हृदयविबोधिनी - धरणीधर सिद्ध तरणिस्तोत्रम् कबीरमहिम्नःस्तोत्रम् - ब्रह्मलीन मुनि श्रीकामदस्तोत्रम् अभिलाषाष्टकम् देवीमहिम्नःस्तोत्रम् नारायणहृदयम् तारकेश्वरीलहरीस्तोत्रम् - सोमेश्वरानन् शिवक्रीडास्तोत्रम् आणिमादित्यहृदयम् शंकरध्यानरत्नमाला -व्याख्या प्रभा -लक्ष्मीनारायण प्रमोदलहरी वेदान्तस्तोत्रसंग्रह अपामार्जनस्तोत्रम् त्यागराजस्तव वेंकटेशस्तोत्रम् - श्रीधरस्वामी वैद्यनाथशिवप्रशस्ति सीतास्तोत्रसुधाकर -अवधकिशोरदास दशनामापराधस्तोत्रम् मणिमालाष्टकम् हनुमच्छ@जयस्तोत्रम् विघ्नविनाशक स्तोत्रम् - श्रीधर स्वामी प्रातः-स्मरणम् सरस्वतीस्तोत्रम् श्रीकृष्णाष्टकस्तोत्रम् राममंत्रराजस्तोत्रम् विष्णुस्तोत्रम् विष्णुस्तोत्रम् देवीस्तोत्रम् दत्तस्तवराज दत्तप्रार्थना गुरुदत्तात्रेयाष्टकम् शिवकेशादिपादान्त वर्णनस्तोत्रम् दीनाक्रन्दन-स्तोत्रम् भक्तामरस्तोत्रम् कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् एकीभावस्तोत्रम् विषापहारस्तोत्रम् सिद्धिप्रियस्तोत्रम् महावीरस्वामिस्तोत्रम् पार्श्वनाथस्तव गोतमस्तव चतुर्विंशतिजिनस्तव श्रीबौद्धस्तव त्रिपुरसुन्दरी-मानसिक पूजोपचारस्तोत्रम् वर्णमालास्तोत्रम् पंचस्तवी सुधालहरी अमृतलहरी करुणालहरी आपदुद्धारबटुकभैरवस्तोत्रम् ऋषभपंचाशिका रामचापस्तव आनन्दसागरस्तव त्रिपुरमहिमस्तोत्रम् सप्तशतीस्तोत्रम् - मार्कण्डेय पुराणामान्तर्गत सिद्धिविनायकस्तोत्रम् संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /547 For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (थ) नाट्यवाङ्मय - महादेव कवि - मुरारि कवि अद्भुतदर्पणम् अनर्घराघवम् -प्रकाश अभिज्ञानशाकुन्तलम् टीका- अर्थद्योतिका -किशोरकेली -जीवानन्दी -व्याख्या -व्याख्या -लक्ष्मी -अभिनवराजलक्ष्मी अनन्द्रचन्द्रिका अभिषेक-नाटकम् -व्याख्या - महाकवि कालिदास -राघवभट्ट - नन्दकिशोर - जीवानन्द - शंकर - नरहरि - नारायणशास्त्री खिस्ते - गुरुप्रसादशास्त्री -जगन्नाथ - महाकवि भास - म.म. वेंकटरामशास्त्री - गणपति शास्त्री - पंचानन तर्करत्न - जीव न्यायतीर्थ - महाकवि शंकरलाल -संदरवीर राघव -जगन्नाथ - गोकुलनाथ उपाध्याय - मुकुन्दशर्मा बक्शी - रामचन्द्र मिश्र -भास - गणपतिशास्त्री - चूडामणि दीक्षित - शक्तिभद्र अपरमंगलम् -व्याख्या अमर-मार्कण्डेयम् अभिनवराघवम् अनंगविजयभाण अमृतोदयम् -व्याख्या -प्रकाश अविमारकम् -व्याख्या आनंदराघवम् आश्चर्यचूडामणि -व्याख्या आनन्दराघवम् अथ किम्? उत्तररामचरितम् -व्याख्या -चन्द्रकला -प्रियंवदा -व्याख्या इन्दिरापरिणयम् उद्गातृदशाननम् उन्मत्तराघवम् ऊरुभङ्गम् - भास -सरला - नृसिंहदेव शास्त्री उल्लाघराघवम् - सोमेश्वर उषा-रागोदय - रुद्रचन्द्रदेव एकलव्य-गुरुदक्षिणम् - दुर्गाप्रसन्न विद्याभूषण कंसवधनाटकम् - शेषकृष्ण कपालकुण्डलारूपकम् - विष्णुपद भट्टाचार्य कस्याऽहम् - वरदराज शर्मा कमलाविजयम् कमालिनी-कलहंस - राजचूडामणि दीक्षित किरातार्जुनीयव्यायोग - युवराज रामवर्मा कर्णकुतूहलम् - भोलानाथ कलानन्दम् - रामचंद्रशेखर कर्णभारम् - भास कर्णसुन्दरी - बिल्हण कर्पूरमंजरी (सट्टक) -राजशेखर -व्याख्या -व्याख्या - वासुदेव कलिप्रादुर्भावम् - महालिंग कल्याणसौगन्धिकम् - नीलकण्ठ -व्याख्या - टी. वेंकटराम कन्तिमती-परिणयम् - कक्कोण कृष्णविजयनाटकम् - वेंकटवरद कुन्दमाला -दिङ्नागाचार्य -सौरभोल्लासिनी -सौभाग्यवती -संजीवनी -जयचन्द्र कुशकुमुद्वतीयम् - अतिराजयज्वा कामशुद्धि (एकांकिनाटकम्) - व्ही. राघवन् कृष्णाभ्युदयम् -शंकरलाल किरातार्जुनीय-व्यायोग - वत्सराज कुवलयाश्वीयम् - कृष्णदत्त कुवलयावली (रत्नपांचालिका)- शिङ्गभूपाल कुशलवविजयम् - वेंकटकृष्ण (चिदंबर) कृतार्थकौशिकम् - श्रीकृष्ण जोशी कृष्णनाटकम् - मानवेद कृषकाणां नागपाशः - भगीरथप्रसाद शास्त्री (वागीशशास्त्री) - राजचूडामणि दीक्षित - वुडोदा - भवभूति -वीरराघव भट्ट - शेषराजशर्मा रेग्मी - कपिलदेव द्विवेदी - श्रीशैल - महालिंग कवि - भास्कर कवि 548 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कृष्णकुतूहलम् कृष्णाभ्युदयम् कौतुकरवाकरम् कौमुदीमहोत्सव कौण्डिन्य-प्रहसनम् कुत्सितकुसीदम् गोमहिमाभिनय नाटकम् गोपीचंदचरितम् चण्डकौशिकम् -व्याख्या चन्द्रिकाकलापीडम् चन्द्रकला - नाटिका चित्रकूटनाटकम् चन्द्रलेखा-सट्टकम् चंद्रशेखरविलासम् चारुदत्त - व्याख्या चैत्रज्ञम् चैतन्यचन्द्रोदयम् चंद्रिका (बीधी) छत्रपतिसाम्राज्यम् -व्याख्या छत्रपति शिवराजः छायाशाकुन्तलम् जगन्नाथवल्लभ-नाटकम् जरासंधवध-व्यायोग जवाहरलाल नेहरु विजय नाटकम् जानकीपरिणयम् जाम्बवतीपरिणयम् जीवन्मुक्तिकल्याणम् जीवानन्दनम् तपतीसंवरणम् -विवरणम् त्रिपुरविजयव्यायोग तापसवत्सराजम् दमयन्तीपरिणयम् दिल्लीसाम्राज्यम् दामक प्रहसनम् दुर्गाभ्युदय-नाटकम् दूत घटोत्कचम् दूतवाक्यम् - मधुसूदन - नरेन्द्रशर्मा - कवितार्किक - शकुन्तलाराव शास्त्री -महालिंग शास्तरी - रंगनाथ ताताचार्य - गोपालशास्त्री दर्शनकेसरी - शास्त्रीय वेंकटाचलम् - आर्य क्षेमीश्वर - - रामवर्मा - विश्वनाथ कविराज - विजयराघवाचार्य - रुद्रदास - शहाजी राजा - भास - गणपति शास्त्री - विश्वनाथ बाचस्पति - कर्णपूर - रामपाणिवाद - मूलशंकर माणिक्यलाल याज्ञिक - श्रीधर शास्त्री - श्री.भि. वेलणकर -जीवनलाल पारिख - रामानन्द राय -पद्यनाम - रामभद्र दीक्षित - कृष्णदेव राय नल्लावरी - - आनन्दराय मखी - कुलशेखर वर्मा - शिवराम - पद्मनाम - अनंगहर्ष मातृराज - रलखेट दीक्षित - लक्ष्मणसूरि - वेंकटरामशास्त्री - छज्जूराम शास्त्री भास www.kobatirth.org -व्याख्या दूतांगदम् - चन्द्रिका धनंजयविजयम् -व्याख्या धरित्री पतिनिर्वाचनम् धर्मविजयनाटकम् धूर्तनर्तकम् नचिकेतचरितम् नटी - पूजा (रवी कृतेरनुवादः) नरकासुरविजयव्यामोग नलविलासम् नीलापरिणयम् नलचरितनाटकम् नलदमयन्तीयम् नवमालिका (नाटिका) नागानन्दम् भावार्थदीपिका -विमर्शिनी नाभागचरितम् नारीजागरणम् न्यायसभा पंचरात्रम् पद्मिनीपरिणयम् पाणिनीय नाटकम् पादुकापट्टाभिषेकम् पार्थपराक्रम पाण्डित्यताण्डवितम् पार्वतीपरिणयम् पार्वतीपरिणयम् पारिजात नाटकम् पारिजातहरणम् पुरंजनचरित नाटकम् पुरंजनविजयम् प्रचण्डपाण्डवम् प्रतापरुद्धविजय (विद्यानाथविडम्बनम्) प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् -प्रकाश प्रद्युम्नविजयम् पौलस्त्यवधम् For Private and Personal Use Only - गणपतिशास्त्री - सुभट - कांचनाचार्य - अभिनवगुप्त - बुडोरा - भूदेव शुक्ल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बाबूलाल शुक्ल - ब्रह्मचारिणी बेली देवी - डा. वी. राघवन् - धर्मसूरि - रामचन्द्र सूरि - वेंकटेश्वर - नीलकण्ठ दीक्षित कालीपद तचार्य - विश्वेश्वर - श्रीहर्षदेव - बलदेव उपाध्याय - शिवराम - गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य - गोपालासी दर्शनकेसरी - रंगनाथताताचार्य - भास - सुंदरराजाचार्य - गोपालशर्मा (दर्शन-केसरी) -रामपाणिवाद - परमार प्रह्लादन देव - बटुकनाथ शर्मा - बाणभट्ट - शंकरलाल - कुमारताताचार्य - उमापतिशर्मा श्रीकृष्णदत्त मैथिल (संपा. सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे) - - राजशेखर - 31. dì. राघवन् - भास - शंकर दीक्षित - लक्ष्मणसूरि संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 549 - Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -भास - गणपति शास्त्री - महालिङ्ग शास्त्री - श्रीकृष्ण मिश्र । - कपिलदेव गिरि - वेंकटराघवाचार्य - गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य - अनन्तदेव - वीर राघव -दण्डी - रंगनाथाचार्य -बी.के. थम्पी - हरिहर -कालीपद तर्काचार्य - जयदेव -जीवानन्द - कालीपद तर्काचार्य - भवभूति - वीरराघव - जीवानन्द - गंगानाथ - श्रीहर्ष - भवभूति - शेषराजशास्त्री -त्रिपुरारि - जगद्धर - रुचिपत्युपाध्याय - पूर्णसरस्वती -कालिदास - राधावल्लभ त्रिपाठी -भास - गणपति शास्त्री प्रतिमानाटकम् -विमला -व्याख्या प्रतिराजसूयम् प्रबोधचन्द्रोदयम् -चन्द्रिकाप्रकाश -नाटकाभरण प्रतिक्रिया प्रभावती-परिणयम् प्रशन्तरत्नाकरणम् प्रसन्नराघवम् -विभा -चन्द्रकला -व्याख्या प्रसन्नहनुमन्नाटकम् प्रियदर्शिका -प्रकाश -कल्याणी प्रेमपीयूषम् बालचरितम् -व्याख्या -प्रकाश बालमार्तण्डविजयम् बालरामायणनाटकम् भद्रायुर्विजयम् भक्तसुदर्शननाटकम् भक्तिविष्णुप्रियम् भामिनीविलासम् भर्तृहरिनिर्वेद -सुखबोधिनी भावनापुरुषोत्तम् भारतविजयम् भीमपराक्रमम् भीमविक्रम-व्यायोग धर्मोद्धरणम् भारतविजयम् भूकैलाशम् भोजराजांकम् मत्तविलास-प्रहसनम् मणिमंजूषा मदनकेतुचरितम् मदनानंद-भाण मध्यमव्यायोग -व्याख्या -देवराज कवि - राजशेखर - शंकरलाल - मथुराप्रसाद दीक्षित - डॉ. यतीन्द्रविमल चौधुरी - गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य - हरिहरोपाध्याय -कमला मन्पथविजयम् मदालसाकुवलयाश्वम् मनोनुरंजनम् कमलजा कल्याणम् मल्लिका-मारुतम् -व्याख्या महानाटकम् -व्याख्या -व्याख्या महावीरचरितम् -व्याख्या -व्याख्या -प्रकाश मालतीमाधवम् -चन्द्रकला -व्याख्या -व्याख्या -व्याख्या रसमंजरी मालविकाग्निमित्रम् -काटयवेम -सारार्थदीपिका मुक्तावली नाटिका मुकुन्दानन्द-भाण मुदितमदालसा-नाटकम् मुद्राराक्षसम् -व्याख्या -शशिकला -मर्मप्रकाशिका -विमला मुद्राराक्षससंकथानकम् मृगांकलेखा (नाटिका) मृच्छकटिकम् -व्याख्या -व्याख्या -प्रबोधिनी -व्याख्या मोह-पराजयम् यज्ञफलम् यतिराजविजयम् -रत्नदीपिका ययातितरुणानन्दम् ययातिचरितम् - भद्रादि रामस्वामी - काशीपति - गोकुलनाथ - विशाखदत्त - जीवानन्द - अनन्तशर्मा - विश्वनाथ देव -शूद्रक - पृथ्वीधर - जीवानन्द - रत्नखेट दीक्षित - मथुराप्रसाद दीक्षित - शतानन्द कवीन्द्र - व्यास मोक्षादित्य -दुर्गेश्वर पण्डित - मथुराप्रसाद दीक्षित - गोकर्ण साम्ब दीक्षित - सुंदरवीरराघव - महेन्द्रविक्रम वर्मा - रामनाथशास्त्री - राम पाणिवाद - पार्थसारथि - भास - गणपति शास्त्री - श्रीनिवास - यशपाल -भास - वात्स्य वरदाचार्य - ले. वल्लीसहाय - रुद्रदेव 550/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूथिका -रेवाप्रसाद द्विवेदी (रोमियो जूलियट का अनुबाद) रघुनाथविजयम् - यज्ञनारायण दीक्षित रतिमन्मथम् -जगन्नाथ रतिविजयम् - रामस्वामी रत्नावली (नाटिका) - श्रीहर्षवर्धन -प्रभा - नारायण शर्मा -सुधा -व्याख्या -व्याख्या रसिकरंजनम् - सुंदरराजाचार्य रत्नेश्वरप्रसादनम् - गुरुराय कवि रससदन-भाण - युवराज कवि राघवाभ्युदयम् - भगवन्त राजविजयम् - रमेशचन्द्र मजूमदार राघवानंदम -वेंकटेश्वर रासलीला (प्रेक्षणकम्) - डा.वी. राववन् रामराज्याभिषकम् -वीरराघव रुक्मिणीपरिणयम् - रामवर्म वंचि -विश्वेश्वर रूपकषट्कम् . - वत्सराज विक्रान्तकौरवम् - हस्तिमल्ल विक्रान्त-भारतम् - व्ही.आर.शास्त्री वार्धिकन्यापरिणयम् -रामानुजकवि वामनविजयम् -शंकरलाल विटराज-भाण -युवराज रामवर्मा विदग्धमाधवम् -रूपगोस्वामी विध्दशालभंजिका - राजशेखर -व्याख्या - जीवानन्द -चमत्कारतरंगिणी - यतीन्द्रविमल चौधुरी -प्राणप्रतिष्ठा -व्याख्या - नारायण दीक्षित वनज्योत्स्रा - बी. के. थम्पी विद्यापरिणयम् - आनन्दराय मखी विवेकानन्दविजयम् - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर विश्वमोहनम् - श्री. ना. ताडपत्रीकार विवेकचन्द्रोदयम् -शिवकवि वीरप्रतापम् - मथुराप्रसाद दीक्षित वीरराघव-कंकणवल्लीविवाहम् - रामानुजकवि वृषभानुजा - मथुराप्रसाद दीक्षित वेंकटभाण - पेरुसूरि वेणीसंहारम् - भट्टनारायण -टिप्पणी - जगद्घर -प्रबोधिनी - अनन्तरामशास्त्री वेताल -व्याख्या बालबोधिनी-के.एन.द्राविड वैदर्भीवासुदेवम् - सुंदरराजाचार्य वेष्टनव्यायोगः - डॉ. वीरन्द्रकुमार भट्टाचार्य शंकरविजयम् -मथुराप्रसाद दीक्षित शंखपराभव-व्यायोगः - हरिहर शार्दूलशकटम् - डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य शिवराजाभिषेकम् - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर श्रृंगारमंजरी-सट्टकम् -विश्वेश्वर पाण्डेय श्रीपालनाटकम् - धर्मवीर श्रीकृष्णसंगीतिका - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर श्रृंगारतिलक-भाणः - रामभद्रदीक्षित श्रृंगारनारदीयम् (प्रहसनम्) - य. महलिंगशास्त्री श्रृंगारभूषणम् - वामनभट्ट बाण श्रृंगारवाटिका - विश्वनाथ श्रृंगारसुधाकर-भाणः - अश्वती तिरुमलराम वर्मा श्रृङ्गारहारः (चतुर्भाणी) श्रीरामसंगीतिका - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर संयोगिता-स्वयंवरम् - मूलशंकर याज्ञिक -सर्वांगविद्योतिनी - श्रीधर संकल्पसूर्योदय -प्रभा. विलासवती - वेंकटनाथ रम्भारावणीयम् - सुंदरवीरराघव रोचनानन्दम् -वल्लीसहाय लटकमेलक-प्रहसनम् - शंखधर ललितमाधवम् -रूपगोस्वामी -व्याख्या - नारायण लीलावती-वीथी - राम पाणिवाद लोकमान्यस्मृतिः - श्री. भि. वेलणकर लीलाविलास-प्रहसनम् -के. एल. बी. शास्त्री वसंततिलकभाणः - वरदाचार्य वंगीयप्रतापम् -हरिदास भट्टाचार्य वसुमतीपरिणयम् - जगन्नाथ वसुमती-चित्रसेनीयम् - अप्पय्य दीक्षित वसुमतीकल्याणम् - रामानुजकवि वसुलक्ष्मीकल्याणम् - वेंकट सुब्रह्मण्याध्वरि वाल्मीकिप्रतिभा (रवीन्द्रकृति - डॉ. वी. राघवन् का अनुवाद) वासन्तिकापरिणयम् - शठकोपाचार्य विक्रमोर्वशीयम् - कालिदास -प्रकाशिका - रंगनाथ -तोटकविवेक - कोणेश्वर -व्याख्या - काटयवेम भूप वसुमंगलम् - पेरुसूरि संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 551 For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रामचन्द्र - सदाशिव दीक्षित - वेंकटेश्वर -अम्बिकादत्त व्यास सत्यहरिश्चन्द्रम् सरस्वती (एकांकी) सभापतिविजयम् सामवतम् -वैजयन्ती सान्द्रकुतूहलम सिंहलविजयम् सुधाभोजनम् सुभद्रा-परिणयम् सुभद्रा-हरणम् सुबाला-वक्रतुण्डम् सेवंतिकापरिणम् सौगन्धिकाहरणम् सौम्यसोमम् स्नुषा-विजयम् -टिप्पणी स्वप्नवासवदत्तम् -व्याख्या -प्रबोधिनी -व्याख्या हनुमन्नाटकम् -दीपिका हनुमद्विजयम् हम्मीर-मदमर्दनम् -कृष्णदत्त -सुदर्शनपति -अशोककुमार कालिया - रामदेवव्यास - माधवभट्ट - श्रीराम कवि - चोक्कनाथ -विश्वनाथ - श्रीनिवासशास्त्री - सुन्दरराज कवि हास्यार्णव प्रहसनम् होलामहोत्सवभाणः चण्डताण्डवम् विद्योतमा अकिंचन-कांचनम् गांधिविजयम् गौरीदिगम्बर-प्रहसनम् दरिद्र-दुर्दैवम् (प्रहसनम्) धूर्तनर्तकम् धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः न्यायपंचगव्यम् श्रृंगारशेखर-भाणः हास्य-चूडामणि-प्रहसनम् कर्णभूषणम् कलि-विडम्बनम् कौमुदी-महोत्सवः श्रृंगारसर्वस्व-भाणः श्रृंगारकोश-भाणः शृंगारतरंगिणी-भाणः शृंगारसुधार्णव-भाणः हा हन्त शारदे लालावैद्यम् लंबोदर-प्रहसनम् लीलादर्पण-भाणः - जगदीश्वर भट्टाचार्य - कृष्णाराम व्यास वैद्य - श्रीजीव भट्टाचार्य - विष्णुदत्त त्रिपाठी - अभिराज राजेन्द्र मिश्र - मथुराप्रसाद दीक्षित -शंकर मिश्र -जीव न्यायतीर्थ -सामराज दीक्षित - जी.के.थम्पी - अभिराज राजेन्द्र मिश्र - अभिनव कालिदास - अमात्य वत्सराज - सी. आर. स्वामिनाथन् - नीलकण्ठ दीक्षित -बिज्जिका - नल्ला दीक्षित -रामभद्र -श्रीनिवासाचार्य - प्रा. रामचंद्र - स्कंद शंकर खोत -भास - पुरुषोत्तमशर्मा - अनंतराम शास्त्री वेताल -जयपाल - हनुमन्त - मोहन मिश्र - सुंदरराजाचार्य - जयसिंह सूरि - वेंकटेश्वर - पद्मनाभ 552 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (थ) - सुभाषित ग्रन्थाः अन्योक्तितरंगिणी - मथुराप्रसाद दीक्षित -स्वोपज्ञव्याख्या अन्योक्तिमुक्तावली (काव्यमाला) अन्योक्तिशतकम् सूक्तिमुक्तावली आर्यान्योक्तिशतकम् - अभिराज राजेंद्र मिश्र कर्णामृत-प्रपा - भट्ट सोमेश्वर महासुभाषितसंग्रह - (लुडविक स्टर्नबाख आंग्लअनु. वैद्यकीय सुभाषितसाहित्यम् - डॉ. भास्कर गोविंद घाणेकर (साहित्यिक सुभाषित वैद्यकम्) व्याजोक्तिरत्नावली . - महालिंग शास्त्री व्याससुभाषित संग्रह - संपा. लुडविक स्टेर्नबाक संस्कृतसूक्तिरत्नाकर -संपा. रामजी उपाध्याय संस्कृतसूक्तिसागरः - संपा. नारायणस्वामी समयोचित पद्यमालिका - हनुमान प्रसाद पाण्डेय सुभाषितनीवी - वेदान्तदेशिक सभाषितरत्नभाण्डागारम् - नारायणराम आचार्य सुभाषितसंग्रह सुभाषितसप्तशती -संपा. डॉ. मंगलदेव शास्त्री सुभाषितावली -संपा. वल्लभदेव सुभाषितावली -संपा. रामचन्द्र मालवीय सूक्तिमंजरी - संपा. बलदेव उपाध्याय सूक्तिमुक्तावली - भीमराजु सत्यनारायण सूक्तिमुक्तावली - गोकुलनाथोपाध्याय - हरिहर सूक्तिरत्नावली सूक्तिशतकम् -संग्रा. हरिहर झा सूक्तिसंग्रह -राक्षस कवि -प्राज्ञ विनोदिनी व्याख्या - सूक्तिमुक्तावली -जल्हाण सूक्तिरत्नहारः -कलिंगराय उक्तिविशेष -संग्रा. अमरेन्द्र गाडगीळ सूक्तिसुन्दर - सुन्दरदेव अन्योक्तिसाहस्री - संग्रा. बद्रीनाथ झा कवीन्द्रवचनसमुच्चयः पद्यवेणी - संग्रा. वेणीदत पद्यामृततरंगिणी - संग्रा. हरिभास्कर प्रतापकण्ठाभरणम् - संग्रा. प्रतापसिंह बुधभूषणम् - शम्भुनृप (संभाजीराजा) -टिप्पणी - दामोदरसूनु हरि बृहच्छागधर पद्धतिः रसिकजीवनम् - गदाधर भट्ट लोकोक्तिरत्नमाला - संग्रा. गौरीशंकर शास्त्री वाक्यमुक्तावली - संग्रा. चारुदेव शास्त्री विद्याकरसहस्रकम् -विद्याकर मिश्र व्याजोक्तिरत्नावली - य. महालिंग शास्त्री सदुक्तिकर्णामृतम् - श्रीधरदास सभ्यालंकरणम् - गोविन्दजित् समयोचित-पद्यमालिका -संग्रा. गंगाधरकृष्ण द्रविड सुभाषितकौस्तुभः -वेंकटचार्य यज्वा सुभाषितरत्नकोषः - संग्रा. विद्याकर मिश्र सुभाषितरत्नसन्दोहः - अमितगणि सुभाषितरत्नाकर - संग्रा. कृष्णशास्त्री भाटवडेकर सुभाषितसुधारत्न भाण्डागार - संग्रा. शिवदत्त कविरत्न सूक्तिमुक्तावली सूक्तिरत्नहारः - संग्रा. के. साम्बशिवशास्त्री सूक्तिसागरः . - संग्रा. रमाशंकर गुप्त सूक्तिसुधाकरः स्त्रीप्रशंसा (बृहत्संहितान्तर्गता) - भट्टोत्पल अन्योक्तिमुक्तावली -रामशास्त्री भागवताचार्य व्यास-प्रशस्तयः -संग्रा. वी. राघवन् श्रीनिवास सूक्तित्रिशती - श्रीनिवासशास्त्री हितोक्तिः -काशिराज प्रभुनारायणसिंह प्रताप-कण्ठाभरणम् - प्रतापसिंह परतत्त्व -दिग्दर्शनम् -माधवाचार्य शास्त्री सूक्तिमुक्तावली -जल्हण। प्रस्तावरत्नाकरः - हरिदास। सुभाषितहारावली - हरि कवि। पद्यावली -रूपगोस्वामी। पद्यावली - मुकुन्द कवि। पद्यावली - विद्याभूषण। पद्यमुक्तावली - घाशीराम। पद्यमुक्तावली - गोविन्दभट्ट सुभाषित-मुक्तावली - पुरुषोत्तम। सुभाषित-मुक्तावली -मथुरानाथ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 553 For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सभाषितरत्नाकरः सुभाषितरत्नाकरः सुभाषितानि सुभाषितरंगसारः सभ्यभूषणमंजरी पद्यतरंगिणी सुभाषितरत्नभाण्डागारम् सुश्लोकलाघवम् प्रस्तावचिन्तामणिः प्रस्तावतरंगिणी प्रस्ताव-मुक्तावली प्रस्तावसारसंग्रहः प्रस्तावसारः पद्यामृततरंगिणी पद्यामृतसरोवरः पद्यसंग्रहः सुभाषितकौस्तुभ सुभाषितावली सुभाषितरत्नकोषः सुभाषितरत्नावली सारसंग्रहः सारसंग्रहसुधार्णवः सुभाषितरत्नकोशः सुभाषितनीविः सुभाषितपदावली सुभाषितमंजरी सुभाषितसर्वस्वम् सुभाषितसुधानिधिः सूक्तिवारिधिः सूक्तिमुक्तावलिः सूक्तावलिः सुभाषितसुरद्रुमः सुभाषितरत्नाकरः -चंद्रचूड। - श्रीपाल। - केशवभट्ट - रामशर्मा। - लौहित्यसेन - हरिभास्कर। -अज्ञात । - कविभट्ट। . -वेंकटाध्वरि। - सकलकीर्ति। - भट्टकृष्ण। - उमामहेश्वर भट्ट। - शम्भुदास। - भट्ट गोविन्दजित्। - भट्टश्रीकृष्ण। -वेंकटनाथ। - श्रीनिवासाचार्य - चक्री वेंकटाचार्य -गोपीनाथ - सायणाचार्य। - पेदुभट्ट। -विश्वनाथ। -लक्ष्मण। -खण्डेराय बसवंयतीन्द्र - मुनिवेदाचार्य। काव्यकुसुमगुच्छः मन्दोर्मिमाला व्याजोक्तिरत्नावली श्रमगीता संघगीता समत्वगीतम्सूक्तिरत्नावलिः गान्धीसूक्तिमुक्तावलिः अभंगरसवाहिनी -कृष्ण। - उमापतिः - हरिहर। - जगन्नाथ। - गौतम। -व्रजनाथ। - संपादक काशीनाथ पांडुरंगपरब । (वासुदेव लक्ष्मण पणशीकर द्वारा सुधारित) - कवि विठोबा अण्णा (विठ्ठलपन्त) दप्तरदार। - ले. ग. गो.जोशी। -डॉ. श्री. भा. वर्णेकर - महालिंगशास्त्री - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर - डॉ. श्री. भा. वर्णेकर। -डॉ. कुर्तकोटि शंकराचार्य - प्रभाकर दामोधर पण्डित। -चिं. द्वा. देशमुख। - अनुवाद कर्ता म.पा.ओक, सन्त तुकाराम के अभंगों का संस्कृत अनुवाद। __ - अनुवादकर्ता महालिंग शास्त्री। द्राविडार्यासुभाषितसप्ततिः 554 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट (द) कोषग्रंथ - अमरसिंह - क्षीरस्वामी -(भानुजी) रामाश्रम - सर्वानन्द - गोपेन्द्रतिप्प भूपाल - राममुकुट -लिंगय्यसूरि -मल्लीनाथ -बोम्मगण्टी अप्पय्याचार्य शाश्वतकोष अमरकोष -व्याख्या -अमर कोषोद्घाटन -रामाश्रमी -त्रिकाण्डचिन्तामणि -टीकासर्वस्व -कामधेनु -पदचन्द्रिका -नामचन्द्रिका -अमरपदविवृति -अमरपद पारिजात -विवरण -माहेश्वरी -व्याख्या त्रिकाण्डशेष -शास्त्रार्थचन्द्रिका अनेकार्थतिलक अनेकार्थध्वनिमंजरी । अनेकार्थमंजरी द्विरूपकोश द्विरूपकोश एकाक्षर कोप अनेकार्थसंग्रह अभिधान-चिन्तामणि -स्वोपज्ञ व्याख्या एकार्थनाममाला एकाक्षर-नामकोशसंग्रह एकाक्षर-नाममाला एकाक्षरी नाममालिका एकाक्षरी नाममाला (एकाक्षरीकोष) कोषकल्पतरु काश्मीर शब्दामृत कल्पद्रुम कोष नानार्थार्णवसंक्षेप -कृष्णमित्र -पुरुषोत्तम - शीलस्कन्द महानायक - महीप - महाक्षपणक कवि - पाणिनि कोशावतंम -गधव कवि नानार्थसंग्रह -अजय पाल नानार्थमंजरी - राघव नानार्थरत्नमाला -दण्डाधिनाथ नाममालिका - भोज नाममाला -धनंजय -भाष्य - अमरकीर्ति मेदिनीकोष - मेदिनीकर वैजयन्तीकोश - यादव प्रकाशाचार्य विश्वप्रकाश - महेश्वर विशेषामृतम् - त्र्यम्बक मिश्र शब्दभेदप्रकाश • महेश्वर शब्दरत्नप्रदीप -संपा. हरिदत्त शास्त्री शब्दरत्नसमन्वय -शाहजी शब्दरत्नाकर - वामन भट्टबाण शब्दरत्नाकर - साधु सुन्दरगणि शब्दसंग्रह शारदीया नाममाला - हर्षकीर्ति शब्दरत्नावली - मथरेश शिवकोष -शिवदत्त वाङ्मयार्णव - रामावतार शर्मा संस्कृत-पारसिक पदप्रकाश -कर्णपूर सिद्धशब्दार्णव - सहजकीर्ति शब्दार्थ-चिन्तामणि - सूखनन्द नाथ हारावली - पुरुषोत्तम देव हलायुध कोश - हलायुद्ध भट्ट रघुकोश - रघुनाथ दत्तबन्धु मंखकोश -मंख । संपा. थियोडोर जकारिया पारसिक प्रकाशः - बिहारी कृष्णदास पाठ्यरत्नकोश - मेदपाटेश्वर कुम्भकर्ण पर्यायशब्दरत्न सुन्दर प्रकाशशब्दार्णव - पद्मसुंदर अभिधर्मकोष - वसुबन्धु -भाष्य अभिधानमंजरी -भिषगार्य -हर्ष - पुरुषोत्तम देव -हेमचन्द्र -सौभरि - सम्पा. मुनिरमणीक विजय - सुधाकलश - विश्वशंभु - अमर -विश्वनाथ - ईश्वरकोन्धि - केशव -केशवस्वामी संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 555 For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभिधानरत्रमाला वाचस्पत्यम् शब्दस्तोम महानिधि सिद्धहेमशब्दानुशासन शब्दकल्पद्रुम नृत्यरत्नकोष बीजकोष राशिकोष संख्याकोष वस्तुरनकोष आख्यातचन्द्रिका (क्रियाकोश) अव्ययकोव उद्धारकोष कल्पद्रुम नामसंग्रहमाला संस्कृतपारसिकप्रकाशः संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी संस्कृत अँड इंग्लिश डिक्शनरी प्रैक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी सरस्वतीकोश स्टुडन्टस् इंग्लिश-संस्कृत डिक्शनरी - हलायुध - तारानाथ वाचस्पति - तारानाथ तर्कवागीश - हेमचन्द्र डिक्शनरी आफ् बेंगाली एण्ड ग्रेब्ज हाग्रून, संस्कृत - लंदन 1893 संस्कृत-हिन्दी कोश प्रैक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी 556 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - संपा. राधाकान्तदेव - मेदटेश्वर कुम्भकर्ण - संपा. प्रियाबाला शाह - भट्टमल्ल - श्रीवत्सांकाचार्य - दक्षिणामूर्ति - केशव दैवज्ञ, 17 वीं शती । - अप्पय्य दीक्षित, 17 वीं शती - कर्णपुर। अन्यभाषीय पर्याय देनेवाला प्रथम शब्दकोश । - बेनफे, लंदन, 1866 1 रामजसन, लंदन, 1870 - • आनन्दराम बरुआ www.kobatirth.org कलकत्ता, 1877 - केपलर, ट्रान्सबर्ग, 1891 -मोनिअर विल्यम्स, ऑक्सफोर्ड, 1899 | सुधारित आवृत्ति 1956 में दिल्ली में तथा 1957 में लखनऊ में प्रकाशित - जीवराम उपाध्याय, मुरादाबाद 1912 | वामन शिवराम आपटे, मुंबई 1924 सुधारित आवृत्ति का काम 1959 में प्रसाद प्रकाशन पुणे द्वारा पूर्ण । - विश्वम्भरनाथ शर्मा, मुरादाबाद, 19241 - मैक्डोनेल, लंदन 1924 1 पद्मचन्द्रकोश - गणेश दत्त शास्त्री, लाहोर 1925 I संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी - विद्याधर वामन भिडे पुणे, 1926 सार्थवेदाङ्गनिघण्टु (वैदिक पं. शिवराम शास्त्री मराठी कोश) शिन्त्र, मुंबई। आधुनिक संस्कृत-हिन्दी कोश - ऋषीश्वर भट्ट, आगरा, संस्कृतशब्दार्थकौस्तुभ आदर्श हिन्दी-संस्कृत कोश संस्कृत मराठी कोश शब्दरत्नाकर - संस्कृत मराठी संस्कृत-मराठी कोश संस्कृत-मराठी शब्दकोश (लघु संस्करण) गीर्वाणलघुकोश व्यवहारकोश अर्थशास्र शब्दकोश आङ्ग्लभारतीय पक्षिनामावली Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 1955 I द्वारिकाप्रसाद शर्मा और तारिणीश झा, प्रयाग, 1957 ! -रामस्वरूप शास्त्री, वाराणसी, 1936 - अनन्तशास्त्री तळेकर, 1853। इसमे अमरकोश के शब्द, वर्णानुक्रम से संग्रहीत है। - माधव चन्द्रोबा, 1870 में प्रकाशित। पृ.सं. 700, वनस्पति, वैद्यक तथा अन्य जानकारी है। -नारो अप्पाजी गोडबोले और गोपाळ जिवाजी केळकर इसमें प्राचीन मराठी शब्दों के पर्याय भी सम्मविष्ट है। ले. वासुदेव गोविन्द आपटे । - जनार्दन विनायक ओक, पूर्व प्रयत्नों के दोष निराकरण का प्रयास, प्रथम आवृत्ति 1818, दूसरी 1955 में और तीसरी 1960 में। - सदाशिव नारायण कुळकर्णी, नागपुर, समाज के नित्य उपयोग के शब्दों का वर्गीकरण, प्रथम भाग में हिन्दी-संस्कृत-मराठी-अंग्रेजी पर्याय शब्द संकलित, दूसरे भाग में अंग्रेजी शब्दों के संस्कृत पर्याय, अपरिचित धातुओं से नवीन शब्दरचना इसमें की है। - डॉ. रघुवीर । डॉ. रघुवीर Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra -डॉ. रघुवीर आङ्ग्लभारतीय प्रशासन शब्दकोश खनिज अभिज्ञान -डॉ. रघुवीर तर्कशास्खपारिभाषिक शब्दावली डॉ. रघुवीर - डॉ. रघुवीर वाणिज्यशब्दकोश सांख्यिकीशब्दकोश -डॉ. रघुवीर धातुरूपचन्द्रिका - व्ही. व्ही. उपाध्याय । अज्ञात । धातुरत्नाकर (आठ भागों में) अष्टाध्यायी शब्दानुक्रमणिका म.म. श्रीधरशास्त्री पाठक । - म.म. श्रीधरशास्त्री पाठक - कृ. भा. वीरकर । - कृ. भा. वीरकर - अज्ञात - सं. भीमाचार्य झळकीकर । - चार भाग, ले. केवलानन्द सरस्वती । - पं. मधुसूदन विद्यावाचस्पति । - पं. श्री. दा. सातवलेकर महाभाष्यशब्दानुक्रमणिका संस्कृतधातुरूपकोशः संस्कृतशब्दरूपकोश: तिङ्न्तार्णवतरणिकाकोशः न्यायकोशः मीमांसाकोशः निघण्टुमणिमाला (वैदिक कोशः ) गोज्ञानकोश: ( गोविषयक वैदिक मन्त्रों का कोश) ऐतरेय ब्राह्मण आरण्यककोश कौषीतकी ब्राह्मणआरण्यककोश वैदिककोश सामवेदपदनाम धर्मकोश धर्मकोश स्मृतितत्त्वसंग्रह स्मृतीनां समुच्चयः बृहत् स्तोत्ररत्नाकर जैनस्तोत्ररत्नाकर पुराणविषयानुक्रमणिका www.kobatirth.org - सं. केवलानन्द सरस्वती । - ब्राह्मणवाक्यों का संग्रह, ले. हंसराज । - अकारादिवर्णानुक्रमणिका सं. स्वामी विश्वेश्वरानन्द तथा स्वामी नित्यानंद | ( व्यवहारकाण्डस्) 3 भाग, सं. तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी (उपनिषत्काण्डम्) 4 भाग, सं तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी - 28 स्मृतियों का संग्रह, सं. रघुनन्दन भट्टाचार्य । - 27 स्मृतियों का संग्रह ले. अज्ञात । - 500 स्तोत्रों का संग्रह, लेखक- अज्ञात । - अज्ञात । यशपाल टण्डन ! पुगणशब्दानुक्रमणिका महाभारतानुक्रमणिका गणितीयकोश भरतकोष भारतीय राजनीतिकोश वैदिकपदानुक्रमकांश सर्वतन्दासिद्धान्तपदार्थलक्षणसंग्रह वैदिकशब्दार्थपारिजात कौटिलीय अर्थशास्त्रपदसूची कहावतरत्नाकर पुरातन - जैनवाक्यसूची बृहत शब्दकोश ग्रंथसंग्रहसूची ( प्रथम ) ग्रन्थ सूची इंडियन इन्स्टिट्यूट (आक्सफोर्ड) संग्रह सूची हस्तलिखित सूची Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - 3 भाग, डी. आर. दीक्षित । - ले. अज्ञात ! - डा. ब्रजमोहन । (नाट्यसंगीत पारिभाषिकशब्दकोश ले अज्ञात । - (कालिदास खण्ड) वेंकटेशशास्त्री जोशी - सात भाग, ले- विश्वबन्धु शास्त्री। - अज्ञात। - अज्ञात । - 3 भाग, ले- अज्ञात । - संस्कृत- हिन्दी- अंग्रेजी कहावते, ले. अज्ञात । चन्द्रसेन गुप्त, 9 खण्ड | बाडलियन ग्रन्थालय संग्रह सूची - विंटरनिट्झ तथा डॉ. कीथ ई. 1905 1 - डॉ. कीथ, डॉ. स्टीन के इन्स्टिट्यू का संग्रह, आक्सफोर्ड क्लैरेन्डन प्रेस में मुद्रित ई. 1903 । - बर्लिन के राजकीय ग्रन्थालय संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 557 - अज्ञात । - निर्मितिकार्य 1942 से डेक्कन कालेज पुणे में प्रारंभ, डा. सु.मं. कत्रे का मार्गदर्शन 20 भाग । प्रत्येक की पृ.सं. 1200 ई.पू. 14 वीं शती से ई. 18 वीं शती तक के लगभग दो हजार ग्रन्थों के 5 लाख से अधिक शब्द समाविष्ट होंगे। प्रत्येक शब्दका व्युत्पत्ति, अर्थ, बदल आदि पूरा विवरण, कोश में होगा। -सं. सर विलियम तथा लेडी जोन्स, ई. 1807 इस में प्रकाशित - ई. 1817 से 1845, कोलब्रुक की अध्यक्षता में पं. हरिप्रसाद शास्त्री, चिन्ताहरण चक्रवर्ती तथा Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थासूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची में सुरक्षित हस्तलिखितों की सूची । डा. वेबर (ई. 1825 से 1901) एवं डॉ. बूलहर द्वारा बर्लिन पुस्तकालय में प्राप्त 500 जैन हस्तलिखित ग्रंथों का अभ्यास तथा जैन साहित्यपर प्रकाशा ग्रन्थसूचि -ट्रिनिटी कॉलेज केम्ब्रिज के संग्रह की सूचि। सं. आफ्रेक्ट, इ. 18691 कोलम्बो में प्रकाशित -सं. जेम्स डी. अलीज, भारतीय संस्कृत ग्रन्थ सूची 1870 ई.। इण्डिया आफिस संग्रह सूची - लंदन के इण्डिया आफिस की संग्रह सूची, संपादन व प्रकाशन एन.सी. बर्नेल द्वारा सन- 18701 ग्रन्थसूची -लंदन में प्रकाशि इ. 18871 सं. ज्यूलियस एगलिंग। ग्रन्थसूची - लंदन में प्रकाशित, 18961 सं. ज्युलियस एगलिंग। ग्रन्थसूची -संपा. कीथ और थॉमस, ई. 1935 1 लंदन। ग्रन्थसूची - संपा. आल्डेनबर्ग, लंदन, ई. 19421 ग्रन्थसूची - केम्ब्रिज वि.वि. ग्रन्थसूचि। संस्कृत और पाली ग्रन्थ। ई. 1883 में प्रकाशित, सं. जोसिल बेन्डाल और राइस डेव्हिडस्। ग्रन्थसूची - मध्यभारत की ग्रन्थसूचिसं. एफ्. कीलहॉर्न, ई. 18741 ग्रन्थसूची प्रकाशित। - महाराजा अल्वर के संग्रह की सूचि, इ. 1892, सं. पीटरसन। -डा. रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर, ओरिएण्टल लाइब्रेरी, पुणे का संग्रह, इ. 1916 से 1939 तक हस्तलिखितों के सात सूची खंड प्रकाशित। - रॉयल एशियाटिक सोसायटी मुम्बई शाखा के संग्रह की सूची, सं.ह.दा. वेलणकर, इ. 1926, 28 तथा 30 में प्रकाशित। - सरस्वती महल, तंजौर के हस्तलिखितों की सूची। 19 खण्डों में प्रकाशित। सं.पी.पी.एस. शास्त्री। - दक्षिण भारत के वैयक्तिक संग्रह । संकलक गुस्ताव ओपर्ट, 2 खण्ड प्रकाशित, इ. 1880 और 18851 - मैसूर तथा कुर्ग का संग्रह। सं. लेबीज राइस। इ. 1884 में बंगलोर से प्रकाशित। - मद्रास शासन की ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिट लाइब्रेरी का संग्रह । सं. शेषगिरि शास्त्री, शंकरन् आदि । इ. 1893 में प्रथम सूची प्रकाशित । 29 खण्ड आजतक। -थियासोफिकल सोसायटी (जागतिक केन्द्र अड्यार) का बृहत् संग्रह-ए कॅटलॉग आफै संस्कृत मैन्यूस्क्रिट्स का प्रथम खण्ड 1926 में प्रकाशित । 1928 में दुसरा खंड-सं.डॉ.सी. कुन्हन राजा एवं के. माध्व कृष्ण शर्मा द्वारा 1942 में वैदिक भाग तथा पं. व्ही. कृष्णम्माचार्य द्वारा व्याकरण ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची - शासन ने खरीदे हस्तलिखितों की सूचि, इ. 1877-78, सं. कीलहॉर्न। - काशीनाथ कुन्टे, मुम्बई राज्य के हस्तलिखितों की प्रचण्ड सूची, कीलहान द्वारा प्रकाशित सन 18811 -सं. पीटरसन, इ. 1883 से 1898 तक 6 खण्ड ग्रन्थसूची 558 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची भाग की सूचि 1947 में तैयार । मार्गदर्शक डॉ.सी. कुन्हन राजा। - सं. हल्डन, दक्षिण भारत के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची प्रकाशित, इ. 1896 और 1905 । संपा. हल्डज। - संस्कृत लाइब्रेरी, कलकत्ता के लिखित ग्रंथ सं.पं. हशीकेश शास्त्री तथा शिवचन्द्र गई। इ. 1895 से 19061 -कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित । इ. 1930 में असामीज् मैन्युस्क्रिएस् दो खण्ड इस में संस्कृत ग्रंथों का अधिक उल्लेख है। - मध्यप्रदेश तथा बरार के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची- संपा. रायबहादुर हीरालाल शास्त्री। 1926 में नागपुर में प्रकाशित। - सरस्वती भवन पुस्तकालय वाराणसी। लगभग सव्वा लाख ग्रंथों का संग्रह, 1600 ग्रन्थों की सूची आठ खण्डों में 1953 से 58 तक प्रकाशित। - रघुनाथ मन्दिर ग्रन्थालय (जम्मू काश्मीर) हस्त लिखित ग्रंथ सूचीसंपा. डॉ. स्टीन, 1844 में मुम्बई में प्रकाशित। राजतरंगिणी की प्राचीनतम प्रति की खोज में डॉ. स्टीन द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थों का संग्रह हुआ, वह इण्डियन इन्स्टिट्यूट ऑक्सफोर्ड में सरक्षित है। - जम्मू काश्मीर नरेश का ग्रन्थ संग्रह । सूचिकार पं. हरभट्ट शास्त्री और पं. रामचन्द्र काक। 1927 में पुणे में प्रकाशित। -मध्यभारत तथा राजस्थान के ग्रन्थों की सूचि । सं.श्री. रा. भाण्डारकर, मुम्बई में प्रकाशित 19071 -सिन्धिया भवन आरा का संग्रह 1919 में प्रकाशित। - सेन्ट्रल लाइब्रेरी बडौदा का संग्रह, सं.जी.के. गोडे और के.एस्. रामस्वामी शास्त्री। गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज में प्रकाशित 19251 -मिथिला के हस्तलिखितसंग्रह, संपा. डा. काशीप्रसाद जायस्वाल तथा ए. बैनर्जी। चार खण्ड, 1927 से 1940 | बिहार ओरिसा रिसर्च सोसायटी से प्रकाशित। - ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिए लाइब्रेरी से 1936 और 41 में दो सूचियां प्रकाशित। - पाटन के जैन ताडपत्रों की सूची । संपा. सी.डी. दलाल और एल.बी. गान्धी, 1937 में बडोदा से प्रकाशित। - ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट बडौदा से एक सूचि 1942 में प्रकाशित । - बीकानेर संस्कृत लाइब्रेरी की संग्रहसूचि 1947 में प्रकाशित। - जेसलमेर संस्थान के संग्रह की सूचि- गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज में प्रकाशित। -त्रिवेन्द्रम के शासकीय पुस्तकालय की सूची। आठ भागों में प्रकाशित। -संपादक डा. आफेक्ट, भिन्न भिन्न सूचियों का व्यवस्थित एकीकरण । यह ग्रन्थसूची ताडपत्रसूची - ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची ग्रन्थसूची कैटेलागस् कैटेलागोरस् संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 559 For Private and Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बृहत् सूची सर्वंकष बनाने हेतु अथक परिश्रम हो रहे है। तीन खण्ड, प्रकाशित 1891, 1896, 19031 -आफ्रेक्ट की बृहत् सूचि की सुधारित आवृत्ति। मद्रास वि.वि. के संस्कृत सिरीज द्वारा संचालित, 1935 से प्रारंभ, 1949 में प्रथम खण्ड प्रकाशित (केवल अकारादि नामों के हस्तलिखितों का समावेश) न्यू कैटेलागस कैटेलागोरस् 560 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी प्रास्ताविक संस्कृत वाङ्मय कोश के अन्तर्गत प्रविष्टियों में विविध प्रकार की जानकारी ग्रथित हुई है। इस जानकारी का भारतीय संस्कृति विषयक सामान्य ज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। संस्कृत के अध्येताओं को इस प्रकार की जानकारी होना वस्तुतः अपेक्षित है। किन्तु संस्कृत के आधुनिक अध्येता केवल उपाधिनिष्ठ होते है। अपनी परीक्षा के अध्ययनक्रम से बाहर का संस्कृत वाङ्मय विषयक ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र जिज्ञासा उनमें नहीं होती। अतः संस्कृत वाङ्मयविषयक सर्वकष जानकारी वे नहीं रखते। अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथकारों, ग्रंथों के संबंध में बहिरंग परिचय भी उन्हें नहीं होता। संस्कृत वाङ्मय के इतिहास का परामर्श लेनेवाले प्रायः सभी ग्रंथों में ग्रंथकार का समय, स्थान, इत्यादि की प्रदीर्घ चर्चा और रोचक अवतरणों का विवेचन अत्याधिक होने से आवश्यक जानकारी का चयन करना जिज्ञासु के लिए कठिन हो जाता है। इन सब बातों को ध्यान में लेते हुए समग्र संस्कृत वाङ्मय विषयक (केवल काव्य नाटक विषयक ही नहीं) सामान्य ज्ञान जिज्ञासुओं में सहजता से प्रसृत हो इस दृष्टि से प्रस्तुत "प्रश्नोत्तरी" का चयन हमने किया है। इस प्रश्नोत्तरी में 1200 से अधिक प्रविष्टियों का चयन हुआ है। आजकल प्रश्रोत्तरी की स्पर्धात्मक क्रीडा दूरदर्शन द्वारा छात्रों के सामान्य ज्ञान की अभिवृद्धि के लिए होती है। दूरदर्शन की प्रश्नोत्तरी क्रीडा छात्रवर्ग में पर्याप्त मात्रा में प्रिय दिखाई देती है। प्रस्तुत प्रश्नोत्तरी भी उसी प्रकार संस्कृत वाङ्मय के जिज्ञासु वर्ग में प्रचलित और लोकप्रिय होने की संभावना है। प्रश्न वाक्य में (?) (प्रश्नार्थक) चिह्न रखा है। इस चिह्न के स्थान पर उत्तर वाक्य का निश्चित अंश प्रविष्ट करने पर एक पूरा वाक्य बन जाता है जो संस्कृत वाङ्मय विषयक कुछ विशेष जानकारी जिज्ञासु को देता है। जैसे - (1) प्रश्नवाक्य - पंचतंत्र (?) शास्त्र विषयक ग्रंथ है। उत्तरवाक्य- तंत्र/मंत्र/योग/नीति उत्तर वाक्य के चार उत्तरों में से निश्चित उत्तर मोटे अक्षरों में दिया है। प्रश्रोत्तरी स्पर्धा का संचालक (अपने समय के अनुसार) 20-25 प्रश्नोत्तर छात्रों को पढकर सुनाये और बाद में 5 मिनट के बाद स्पर्धा का प्रारंभ करें। दूरदर्शन की स्पर्धा के समान छात्रों के दो गुट रहे और उन्हें उत्तरों के अनुसार गुण दिये जाय। इस प्रकार की प्रश्नोत्तरी क्रीडा या स्पर्धा विद्यालयों, महाविद्यालयों, सांस्कृतिक संस्थाओं, संस्कृत प्रचारक संस्थाओं द्वारा किंबहुना सुविद्य परिवारों में भी चलाई जा सकती है। आज संस्कृत वाङ्मय तथा भारतीय संस्कृति के संबंध में सर्वत्र सामान्य ज्ञान का अभाव नवशिक्षित समाज में फैला हुआ दिखाई देता है। इस शोचनीय अज्ञान को हटाना सभी संस्कृतिनिष्ठ एवं संस्कृत प्रेमी चाहते है। हमें दृढ आशा है कि प्रस्तुत "संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोत्तरी"- की क्रीडा या स्पर्धा से संस्कृत-संस्कृति विषयक जानकारी का प्रचार बढ सकेगा। आवश्यकता है संयोजकों की। * विशेषता * दूरदर्शन की प्रश्नोत्तरी से हमारी इस प्रश्नोत्तरी में कुछ विशेषता है। उनकी प्रश्रोत्तरी स्पर्धा में केवल प्रश्न पूछे जाते है किन्तु उनके संभाव्य उत्तर नहीं दिए जाते। अगर हम उसी प्रकार संस्कृत वाङ्मय विषयक केवल प्रश्नों का ही चयन करते, तो उनके उत्तर संस्कृत के विद्यमान प्राध्यापकों से भी मिलना असंभव है। यह हमारा सप्रयोग अनुभव भी है। अतः इस प्रश्नोत्तरी में प्रत्येक प्रश्न के साथ साथ उसके संभाव्य उत्तर भी दिए है; जिनकी संख्या सर्वत्र चार है। इन चार उत्तरों से बाहर का उत्तर यहां अपेक्षित नही है। सूचना : प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश हिन्दी भाषा में होने के कारण ये प्रश्नोत्तरी हिन्दी भाषा में दी गयी है। इस का प्रमुख उद्देश्य संस्कृत वाङ्मय विषयक सामान्य ज्ञान का प्रचार यही होने से, आवश्यकता के अनुसार प्रश्रोत्तरी क्रीडा या स्पर्धा के संयोजक अपनी अपनी भाषा में अनुवाद करते हुए प्रश्न पूछे और संभाव्य उत्तर बताये। श्री. भा. वर्णेकर लेखक संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी । । For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टिप्पणी गवदगीता के वका - अर्जुन, श्रीकृष्ण, संजय, धृतराष्ट्र। 1) प्रस्तुत "संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी" में जिन ग्रंथकारों एवं 7 भगवदगीता महाभारत के - वन, भीष्म, द्रोण, ग्रंथों के संबंध में प्रश्न पूछे गये है वे सभी संस्कृत वाङ्मय (?) पर्व में हैं। अनुशासन। के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। उनमें से कुछ विशेष ख्यातिप्राप्त 8 दशोपनिपटों में (?) - बृहदारण्यक, श्वेताश्वतर, नहीं है तथापि उनकी श्रेष्ठता चिरस्मरणीय है। नहीं है। छांदोग्य, माण्डव्य । 2) ग्रंथ और ग्रंथकार के संबंध में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों 9 चार वटों में (?) नहीं है - यजुर्वेद आयुर्वेद/सामवेद। में जिन चारों का उल्लेख हुआ है उनमें एक (स्थूलाक्षरों में ऋग्वद। निर्दिष्ट) तो निश्चित उत्तर है किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य नाम 10 18 पुराणों में (?) - गड/ वराह कर्म/नीलमत । नहीं है। उसी क्षेत्र से संबंधित है। 11 पाणिनिकत श्रेष्ठ ग्रंथ. अष्टाध्यायी/सिद्धान्तकौमुदी 3) प्रश्नानरी में कुछ ऐसे प्रश्न है जिन से अन्य दो तीन का नाम (?) है। प्रक्रियाकौमुदी/संग्रह। प्रश्नों का निर्माण किया जा सकता है। प्रश्नोतरी क्रीडा के 12 कुमारिलभट्ट (?) शाम्ब - मीमांसा/राजनीति/तंत्र विशेषज्ञ चालक से प्रश्न स्वयं करें। के विद्वान थे। 4) प्रश्नोत्तरी स्पर्धा के चालक ने प्रश्न पूछने पर, साथ में 13 व्याकरण के त्रिमुनि . कात्यायन/शाकटायन/ निर्दिष्ट चार संभाव्य उत्तरों की पुनरावृत्ति मुद्रित क्रम से ही में (?) नहीं है। पाणिनि/पतंजलि। नहीं करनी चाहिए। चार उत्तरों का क्रम यथेच्छ बदल कर 14 मृच्छकटिकम् (?) है। - नाटक प्रकरण/समवकार) उनका निर्देश करने पर स्पर्धालओं के ऊह या तर्क को संदेह ईहामग। के कारण चालना मिल सकती है एवं वे महत्त्वपर्ण नाम 15 संगीतरत्नाकर के लेखक - रत्नाकर/विठ्ठल-पण्डरीक/ उनकी स्मृति में स्थिर हो सकते है। शाईगदेव/भग्नाचार्य। 5) प्रस्तुत प्रश्नोत्तरी में, किसी भी प्रकार की क्रम संगति नहीं 16 मृच्छकटिकम् की नायिका- प्रियवंदा/वसन्तसेना/ मालती/मालविका। रखी है। जहां क्रम संगति अधिक मात्रा में दिखेगी वहां स्पर्धा 17 चाणक्य का प्रसिद्ध ग्रंथ - अर्थशास्त्र/कामंदकीय/ के समय प्रश्नों का क्रम बदलना ठीक रहेगा। (?) है नीतिशतक/चाणक्यसूत्र । 6) कछ प्रश्नों के निर्दिष्ट उत्तरों के संबंध में मतभेद हान18 पाण्डवों का अज्ञातवास . वन विराट/उद्योग/मोसल की संभावना है। तथापि उस प्रश्न-उत्तर द्वारा छात्रों की जानकारी (?) पर्व में वर्णित है में वृद्धि अवश्य होगी। 19 कालिदास का दूतकाव्य - मेघदूत/हंसदूत/हनुमददूत/ 7) इस प्रश्नोत्तरी में बहुतांश प्रश्न वाङ्मय के बहिरंग के गरुडदूत। संबंध में ही है। अन्तरंग विषयक प्रश्नों का प्रमाण अल्पमात्र है। 20 जर्मन कवि ने (?) - उत्तररामचरित/वेणीसंहार नाटक मस्तकपर उठाया। शाकुन्तल/मच्छकटिक। 21 पंचतंत्र (?) शास्त्र - तंत्र/मंत्र/योग/नीति । संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी विषयक ग्रंथ है 22 वेणीसंहार का प्रमुख रस - श्रृंगार/वीर/भयानक/ 1 अमरसिंह कृत कोश का - द्विरूप कोश, एकाक्षर कोश, बीभत्स। नाम (?) है। नामलिंगानुशासन, 23 उत्तररामचरित का प्रमुख - भक्ति/शान्त/करुण/ हारावली कोश। रस (?) है श्रृंगार। 2 ऋग्वेद का विभाजन - 18 पौं/7 काण्डों/ 24 रामायण के राम (?) - धीरोदत्त/धीरोद्धत/ (?) में हुआ है। 10 मण्डलों/100 सूक्तों । नायक है धीरललित/धीरशान्त। 3 संम्कत का आदिकाव्य - रघुवंश, महाभारत, रामायण भागवत। धीरललित/धीरशान्त । 4 शिव-महिम्नः स्तोत्र के - शंकराचार्य, पुष्पदंत, 26 भीमसेन का चरित्र . धीरोदात्त धीरोद्धत/ रचयिता (?) है। बुधकौशिक, शुकाचार्य। धीरललित/धीरशान्त। 5 विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र - रामायण, भागवत, 27 अज्ञातवास में द्रौपदी का - सैरन्ध्री/पुरन्ध्री/त्रिजटा/ (?) के अंतर्गत है। विष्णपराण, महाभारत । नाम (?) था कामंदकी। 2 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 28 जैनागमों की भाषा ( ? ) है 29 वैदिक में (?) अंतर्भूत नहीं है 30 पंचदशी के लेखक (?) है 31 नासदीयमुक्त (?) वेद के अन्तर्गत है 32 (?) वैदिक छंद नहीं है 33 युधांशिक कृत स्तोत्र (7) 34 (2) शंकराचार्य का प्रसिद्ध ग्रन्थ है 35 चर्पटपंजरी स्तोत्र के रचयिता ( ? ) है 36 संगीतशास्त्र में ( ? ) श्रुतियां मानी है 37 गांधर्ववेद (?) वेद का उपवेद है 38 गायत्री मंत्र के द्रष्टा (?) थे 39 मीमांसा के गुरुमत के (2) 40 जैन लेखों में लेखक (?) है 41 वैशेषिक दर्शन का श्रेष्ठ ग्रंथ (?) है 42 निरुक्त (?) का एक अंग है 43 भक्ति को (?) ने स्वतंत्र रस माना है। 44 सूत्र का गोविन्दभाष्य (2) मतानुसारी है 45 संगीत लेखक बालराम शर्मा (2) के अधिपति थे 46 अद्भुतसागर (?) शास्त्र विषयक विशालकाय ग्रंथ है 47 बाणभट्ट के आश्रयदाता (?) थे 48 शिवाजी चरित्र विषयक - - = संस्कृत/पाली/अर्धमागधी महाराष्ट्री श्रौतसूत्र / गृह्यसूत्र / धर्मसूत्र / कामसूत्र । विद्यारण्य / पद्मपादाचार्य/ सुरेराचार्य/तोटकाचार्य ऋग्वेद यजर्वेद सामवेद/ अथ गायत्री / अनुष्टुप / जगती/ इन्द्रवज्रा । रामरक्षा / भक्तामर / कल्याणमंदिर / सौंदर्यलहरी । शारीरक भाष्य / श्री भाष्य / अणुभाष्य / भामतीभाष्य । रामानुज / शंकर / बल्लभ / उत्पलदेवाचार्य 12/22/7/8 ऋक् /यजुम/साम / 'अर्थव विश्वामित्र / वसिष्ठ / भारद्वाज / गृत्समद । प्रभाकर मिश्र/कुमारिल भट्ट/ मंडन मिश्र / जैमिनि । अघोष हेमचन्द्र सूरि/ पंचशिख / श्रीहर्ष । पदार्थसंग्रह / प्रशस्त शिख/ पादभाष्य / सप्तपदार्थी/ तर्कसंग्रह । वेद / व्याकरण/ मीमांसा/ धर्मशास्त्र | मम्मट / आनन्दवर्धन / रूप गोस्वामी/ भामह अद्वैत द्वैत वैष्णव शैव । मैसूर कोचीन त्रिवेन्द्रम्/ कूर्ग । ज्योतिष / धर्मशास्त्र/ वेग/ साहित्य | www.kobatirth.org चन्द्रगुप्त / हर्षवर्धन / जयचन्द / प्रतापादित्य छत्रपतिसाम्राज्यम्/ महाकाव्य ( ? ) है 49 (?) ऋषि भगवान् व्यास के पिता थे 50 भास्कराचार्य (?) शास्त्र के विशेषज्ञ थे 51 अजितसिंहचरित महाकाव्य के नायक (?) के अधिपति थे 52 ऋषि वेदमंत्रों के (?) माने जाते हैं। 53 कृष्णकर्णामृत के रचयिता ( ? ) थे 54 विक्रमांकदेव चरित के लेखक (?) थेबुद्धचरितम् के चरियता (?) थे 56 शान्त रस को सर्वश्रेष्ठ (?) मानते है 57 अभिनवगुप्ताचार्य ( ? ) के निवासी थे 58 अभिनवभारती (?) की टीका है 59 रसशास्त्र में साधारणी करण सिद्धान्त के (2) प्रतिपादक थे 60 शब्द का मुख्य अर्थ (?) होता है 61 व्यक्तिविवेक ग्रंथ का विषय (?) शास्त्र है 62 भट्टनारायण की श्रेष्ठ रचना (?) है 63 भट्टनारायण (?) के निवासी थे 64 वेदों के श्रेष्ठ भाष्यकार (?) माने जाते हैं 65 वेद पाठ में (?) स्वर नहीं माना जाता 66 राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ आधुनिक संस्कृत कवि (2) है 67 भट्लोल्लट रसविषयक For Private and Personal Use Only - - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिववैभवम् शिवाय / शिवराज्योदयम् । वसिष्ठ / पराशर / पुलस्त्य / कश्यप । मीमांसा / न्याय / तंत्र ज्योतिष । मारवाड / मालवा / महाराष्ट्र / सौराष्ट्र | कर्ता/ प्रवक्ता / द्रष्टा / उद्गाता चैतन्य / रूपगोस्वामी/ वल्लभाचार्य/ लीलाशुक। कल्हण / बिल्हण / डल्हण / रुद्रट | बुद्धघोष / बुद्धदेव/ अघोष पालित भरत / भवभूति/ भट्टतोत/ अभिनवगुप्त केरल / काश्मीर/ गुजरात / बंगाल । ध्वन्यालोक / काव्यप्रकाश/ नाट्यशास्त्र / रसगंगाधर । भट्टनायक/ भट्टतौत/ धनंजय / अभिनवगुप्त । वाच्यार्थ लक्ष्यार्थ/ व्यंग्यार्थ / तात्पर्यार्थ । व्याकरण / न्याय / साहित्य/ मीमांसा । रूपावतार / वेणीसंहार / दशकुमारचरित / पाण्डवचरित उत्कल / बिहार/ आन्ध्र / बंगाल | कपालीशास्त्री / सायणाचार्य भट्ट भास्कराचार्य/ उद्गीथाचार्य उदात्त / अनुदात्त / प्रगृह्य / स्वरित । भट्ट मथुरानाथ / मधुसूदनजी ओझा/ नारायण शास्त्री कांकर / चन्द्रशेखर शास्त्री । उत्पत्तिवाद अनुमितिवाद संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 3 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (?) वाद के प्रवर्तक थै भुक्तिवाद/ व्यक्तिवाद । 68 संस्कृत में शास्त्रपरक - भट्टि/ कृष्णमिश्र/ धनंजय/ काव्यलेखन के प्रवर्तक जगन्नाथ पंडित। (?) थे69 भट्टिकाव्य का अपर - रावणवध/ शिशुपाल वध/ नाम (?) है कंसवध/ दुर्योधनवध। 70 प्रौढमनोरमा (?) की - अष्टाध्यायी/सिद्धान्तकौमुदी टीका है चांद्रव्याकरण/ऋक्प्रातिशाख्य 71 (?) सिद्धान्त कौमुदी - प्रौढमनोरमा/ बालमनोरमा/ की टीका नहीं है शब्दकौस्तुभ/ तत्त्वबोधिनी। 72 प्रौढमनोरमा-कुचमर्दिनी - ज्ञानेन्द्रसरस्वती/ जगन्नाथ टीका के लेखक (?) है पंडित/ हरिदीक्षित/ बोपदेव/ 73 भट्टोत्पल (?) शास्त्र - साहित्य/ व्याकरण/ज्योतिष/ के लेखक थे तंत्र। 74 भारतीय ललित कलाओं - भरतमुनि/ अभिनवगुप्तपाद के आद्य आचार्य (?) है कोहलाचार्य/ मतंग। 75 शतपथ ब्राह्मण (?) वेद - ऋग्वेद/शुक्लयजुर्वेद/ से संबंधित है - कृष्णयजुर्वेद, सामवेद । 76 गोपनि परक गोसून - ऋग्वेद/ शुक्लयजुर्वेद/ बंद के अंतर्गत है सामवेद/ आयुर्वेद । 27 शंकगाय के पूर्ववर्ती . रामानुज/ भर्तृप्रपंच बंटानाचार्य थे वल्लभ/ मधुसूदन सरस्वती। 8 राजतर्गपणा . बंगाल/ गुजराथ/ केरल/ डेर का इतिहास वर्णित काश्मीर । 87 पदवाक्यप्रमाणज्ञ - शंकराचार्य/ भवभूति/ उपाधिधारी (?) थे- विशाखदत्त/ भागुरि । 88 भवभूति का मूलनाम - श्रीकण्ठ/ नीलकण्ठ/ (?) था शितिकण्ठ/ उंबेक। 89 षण्मत-प्रतिष्ठापनाचार्य - बल्लभाचार्य/ शंकराचार्य। (?) की उपाधि है- वाचस्पति मिश्र/ नागेशभट्ट । 90 चतुरपण्डित नाम से (?) - कल्लीनाथ/ भातखंडे/ प्रसिद्ध थे शाङ्गधर/पुण्डरीक विठ्ठल । 91 साहित्य क्षेत्र में अलंकार - भामह/ भरत/ दण्डी/ संप्रदाय के प्रवर्तक? थे राजशेखर । 92 साहित्य शास्त्र में रीति - वामन/ दण्डी/ रुद्रट/ संप्रदाय के प्रतिपादक मम्मट। 93 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' - भानुमित्र/ जगन्नाथ/ यह व्याख्या (?) ने की विश्वनाथ/ मल्लिनाथ । 94 पाणिनि का व्याकरण - माहेश्वर सूत्र/ ब्रह्मसूत्र/ (?) सूत्रों पर आधारित श्रौत सूत्र/ शुब्ब सूत्र । . - जनकत्री का - भक्ति/ नीति/ श्रृंगार/ 1.? नहीं है.. वैराग्य। Soदीय के लेखक - वास्पतिराज/ भर्तृहरि/ कुमारिलभट्ट/वाग्भट । हावट कहते है - मंत्र-ब्राह्मण/ ब्राह्मण आरण्यक/ आरण्यकउपनिषद्/ मंडल-सूक्त। 95 किरातार्जुनीय के कवि - भट्टि/ भारवि/ भोज/ (?) थे भवभूति। 96 पंच काव्यों में (?) नहीं - राजतरंगिणी/ कुमारसंभव गिना जाता रघुवंश/ किरातार्जुनीय । 97 बाणभट्ट की कादम्बरी - कथा/ आख्यायिका/ चम्पू/ संघानकाव्य। 98 हर्षचरित के लेखक (?) - श्रीहर्ष/ हर्षवर्धन/बाण/ दण्डी। 99 अनूपसंगीतरत्नाकर के - अनूपसिंह/ शाङ्गधर/ लेखक (?) है भावभट्ट/ भातखंडे। 100 अग्निमित्र (?) की - भास/ सौमिल्लक/कविपुत्र/ उपाधि है विशाखदत्त 101 भासनाटकचक्र की - डॉ. राघवन्/टी.गणपति पांडुलिपि प्रथम? को शास्त्री/ डॉ. कत्रे/ प्राप्त हुई। डॉ. भांडारकर। 102 रामटेक को मेघदूत का - डॉ.पुसालकर/ डॉ.मिराशी/ रामगिरि (?) ने सिद्ध डॉ. बलदेव उपाध्याय/ किया है- डॉ. रघुवीर। 103 परंपरा के अनुसार ? को - विक्रमांकदेव/ विक्रमादित्य कालिदास के आश्रयदाता रुद्रदामा/ समुद्रगुप्त । मानते है104 भास-नाटकचक्र का मूल - ब्राह्मी/ खरोष्ट्री/ देवनागरी/ हस्तलिखित (?) लिपि मलयालम्। में था105 भास-नाटकचक्र में - 12/13/14/151 82 तनिरीय संहिता (?) - शुक्ल यजुर्वेद/ को कहते है कृष्ण यजुर्वेद/ ऋग्वेद/ अथर्ववेद। 83 वाजसनेयीसंहिता (?) - शुक्ल यजुर्वेद/ कृष्ण को कहते है यजुर्वेद/ धनुर्वेद/ आयुर्वेद । 84 भवभूति (?) प्रदेश के - विदेह/ विदर्भ/ निषध/ निवासी थे मालव। 85 महावीरचरित नाटक में - हनुमान/ तीर्थंकर महावीर/ (?) की कथा है- प्रभु रामचंद्र/ अर्जुन । 86 अध्यायसमाप्ति सूचक - पुष्पिका/ पुष्पिताग्रा/ वाक्य को (?) कहते है- गुष्पगण्डिका/ फक्किका। 4 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाटकों की कुल संख्या ज्योतिष 106 अग्निपरीक्षा में (?) - शाकुन्तल/ स्वप्नवासवदत्त/ नाटक नहीं दग्ध हुआ। मच्छकटिक/वेणीसंहार । 107 भास के नाटकों में - रामायण/ महाभारत/ अधिकतम नाटक (?) उदयन/कल्पित । कथा पर आधारित है108 कालिदास ने अपने - शूद्रक/ भास/ पाणिनि/ नाटक में (?) का अश्वघोष । नामनिर्देश किया है 109 सौभाग्यभास्कर (?) - विष्णु/ शिव/ सहस्रनाम की व्याख्या है ललिता/ गणेश । 110 सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रंथ - वेदान्त/ न्याय/ का विषय (?) है ज्योतिर्गणित/ बीजगणित 111 आश्चर्यचूडामणि नाटक के- शीलभद्र/ महेन्द्रविक्रम/ रचयिता (?) थे भास/ कविपुत्र । 112 मधुसूदन सरस्वती का - अद्वैतसिद्धि/ भक्तिरसायन/ सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ (?) माना आनन्द-मंदाकिनी/ जाता है सिद्धान्तबिन्दु। 113 भक्तिरसायन के लेखक - रूपगोस्वामी/ जीवगोस्वामी/ (?) थे मधुसूदन सरस्वती/ चैतन्य महाप्रभु 114 मध्वाचार्य का अपरनाम - पूर्णप्रज्ञ/ अच्युतप्रेक्ष/ (?) था त्रिविक्रम/ नारायण पंडिताचार्य। 115 (?) के ग्रंथों को - आनंदतीर्थ/ शंकराचार्य 'सर्वमूल' कहते मधुसूदनजी ओझा/ गुलाबराव महाराज 123 जगत् को शाश्वत (?) - बौद्ध/ जैन/ मीमांसक। मानते है वेदान्ती 124 मीमांसक मतानुसार मुक्ति - ज्ञान/भक्ति/राजयोग/कर्म ? से मिलती है 125 मत्स्येन्द्रनाथ गोरखनाथ - शिष्य/गुरुभाई/ गुरु/ के (?) थे विरोधक। 126 अणुभाष्य के लेखक - कणाद/ वल्लभाचार्य (?) थे पतंजलि/ प्रशस्तपादाचार्य। 127 रघुनाथ-शिरोमणि (?) - न्याय/ वैशेषिक/ वेदान्त शास्त्र के प्रसिद्ध ज्योतिष। विद्वान थे 128 गांधिविजय नाटक के - मथुराप्रसाद दीक्षित/ लेखक (?) है स्वामी भगवदाचार्य/क्षमादेवी राव/ ताडपत्रीकर 129 मदनविनोद ग्रंथ का - आयुर्वेद/ कामशास्त्र/ विषय (?) है साहित्य/वनस्पतिशास्त्र। 130 निर्णयसागर ग्रंथमाला का- दिल्ली/ मद्रास/ कलकत्ता प्रकाशन (?) नगर में मुंबई। हआ 131 चौखम्बा संस्कृत - प्रयाग/वाराणसी/ ग्रंथमाला का प्रमुख दिल्ली/ पटना। केन्द्र (?) नगर में है 132 मधुच्छंदा (?) ऋषि के वसिष्ठ/ विश्वामित्र/ पुत्र थे च्यवन/ काश्यप। 133 तेलुगु रामायण का - रघुनाथ नायक/मधरवाणी/ संस्कृत अनुवाद (?) ने शिलाभट्टारिका/ विजयांका। किया 134 मधुसूदनजी ओझा (?) बिहार/ उत्तरप्रदेश/ प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ राजस्थान/ मध्यप्रदेश लेखक थे 135 विश्व के सर्वश्रेष्ठ - वराहमिहिर/ भास्कराचार्य। गणितशास्त्रज्ञ (?) थे- ब्रह्मगुप्त/ केशवदैवज्ञ । 136 भिक्षु आंगरिस (?) थे - वैदिक ऋषि/ बौद्ध/ जैन/ शैव। 137 भिषग् आथर्वण (?) थे - आयुर्वेदाचार्य/ मांत्रिक/ वैदिक ऋषि/ बौद्धपंडित । 138 उत्तरपुराण (?) संप्रदाय - जैन/ शैव/ वैष्णव, बौद्ध । का ग्रंथ है 139 वेदों के अनुसार अग्नि - अत्रि/भृगु/च्यवन/ अंगिरा का प्रथम आविष्कार (?) ने किया 140 सरस्वती-कण्ठाभरण - मधुसूदन सरस्वती/ (?) का प्रसिद्ध ग्रंथ है वासुदेवानन्द सरस्वती/ भोजराज/ आनन्दवर्धन। 116 मध्वाचार्य के दीक्षागुरु - अच्युतप्रेक्ष/ व्यासराय/ का नाम (?) था- आनंदतीर्थ/ गोविंद भगवत्पाद। 117 वज्र (?) देवता का शस्त्र- इन्द्र/ विष्णु/रुद्र/ त्वष्टा । 118 राजानक उपाधि (?) - मम्मट/ जगन्नाथ/ विश्वनाथ/ की थी राजशेखर। 119 वाग्देवतावतावर उपाधि - बाणभट्ट/ मम्मट/ (?) की थी त्रिविक्रमभट्ट/ कालिदास 120 साहित्यशास्त्र का प्रसिद्ध - ध्वन्यालोक/ काव्यप्रकाश/ आकरग्रंथ (?) है काव्यमीमांसा/ रसगंगाधर । 121 शिल्पशास्त्रविधान के - मय/ भोज/जकण/ लेखक ? थे- शिलादित्य। 122 सूर्यशतक के प्रणेता - बाणभट्ट/ मयूर/ भर्तृहरि/ (?) थे तेजोभानु। संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 5 For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 141 समरांगण-सूत्रधार का - दण्डनीति/ वास्तुशास्त्र/ विषय (?) है धनुर्वेद, वैद्यकशास्त्र । 142 राजमार्तण्ड (?) की . योगसूत्र/ सांख्यसूत्र/ टीका है न्यायसूत्र/ कामसूत्र। 143 भोजप्रबन्ध के लेखक - भोजराज/ बल्लाल सेन/ (?) थे भरतमल्लिक/ भर्तृमेण्ठ। 144 भारती (?) की पत्नी का - कुमारिलभट्ट/ मंडन मिश्र/ जैमिनि/ शंकराचार्य। 145 मंडनमिश्र का संन्यास - पद्मपादाचार्य/ सुरेश्वराचार्य आश्रम में (?) नाम था- तोटकाचार्य/ विद्यारण्य । 160 सर्वदेशवृतान्तसंग्रह के - महेश ठक्कर/रघुनन्दन दास लेखक (?) है- महीधर/ मदनपाल । 161 महाकाव्यों की बृहत्त्रयी - शिशुपालवध/ रघुवंश/ में (?) काव्य अंतर्भूत किरातार्जुनीयम्/ नैषधचरित। नहीं है 162 माघ (?) प्रदेश के - विदर्भ/ सौराष्ट/ निवासी महाकवि थे राजस्थान/ मालव। 163 अष्टाध्यायी की - जिनेन्द्रबुद्धि/सोमदेव/ काशिकावृत्ति पर न्यास माघ/ दत्तक। की रचना (?) ने की है 164 परीक्षामुख (?) न्याय- - जैन/ बौद्ध/नव्य/प्राचीन । शास्त्र का आद्य सूत्रग्रंथ है 165 प्रभाचन्द्र का प्रमेय . सूत्र/ कारिका/टीका/ कमलमार्तण्ड (?) रूप काव्य । ग्रंथ है 166 शाकुन्तल के श्रेष्ठ - मल्लिनाथ/ राघवभट्ट/ टीकाकार (?) है- महेश्वर न्यायालंकार/ राणा कुंभ। 167 स्तोत्र काव्य के प्रवर्तक - मातृचेट/ शंकराचार्य/ (?) माने जाते है- हेमचन्द्र सूरि/ पुष्पदत्त । 168 अध्यर्धशतक (?) परक- बुद्ध/महाबीर/ कृष्ण स्तोत्र है 169 रोगविनिश्चय (?) का - चरक/ सुश्रुत/ माधव/ प्रसिद्ध ग्रंथ है लोलिंवराज। 170 माधवभट्ट के काव्य - राघवपाण्डवीय/ पाण्डवका (?) नाम है- राघवीय/राघव-पाण्डव नैषधीय/ द्विसन्धानकाव्य। 171 माध्यन्दिनि वैयाकरण/ मीमांसक पाणिनिपूर्वकालीन (?) वेदाचार्य/जैनाचार्य । शलाई 146 वाचस्पतिमिश्र की पत्नी - क्षमादेवी/ मधुरवाणी/ का (?) नाम था भामती/लीलावती। 147 'नाभूलं लिख्यते किंचिद् - मल्लिनाथ/ जगन्नाथ/ नामपेक्षितमुच्यते' यह विश्वनाथ/ विद्यानाथ । प्रतिज्ञा (?) की है 148 सुप्रसिद्ध टीकाकार - अरुणाचलप्रदेश/उत्तरप्रदेश/ मल्लिनाथ (?) प्रदेश मध्यप्रदेश/ आन्ध्रप्रदेश । के निवासी थे 149 रामानुज का (?) मत है - विशिष्टाद्वैत/ मधुराद्वैत/ शुद्धाद्वैत/ द्वैताद्वैत। 150 सुप्रसिद्ध संस्कृत लेखक - हैद्राबाद/ मद्रास/ महालिंग शास्त्री (?) मैसूर/ कोचीन । नगर में वकील थे 151 गणितसार-संग्रह के - महावीराचार्य/भास्कराचार्य/ लेखक (?) थे मलयगिरि/ मधुसूदन ओझा। 152 ध्वनिसिद्धान्त का (?) - महिमभट्ट/ रुय्यक/कुंतक ने प्रथम खंडन किया है जगन्नाथ पंडित । 153 व्यक्तिविवेक (?) का - रुय्यक/रुद्रट/ ग्रंथ है महिमभट्ट/ भामह। 154 ज्योतिष-रत्नाकर का - फलित-ज्योतिष/ ग्रहगणित मुख्य विषय (?) है ज्योतिर्गणित/ वेदांग-ज्योतिष 155 माध्यंदिन संहिता (?) - शुक्ल यजुस/ कृष्ण यजुस् वेद की है साम/ अथर्व। 156 महिमभट्ट ने ध्वनि का - लक्षणा/ अनुमान/ अन्तर्भाव (?) में तात्पर्यार्थ/वक्रोक्ति। किया है 157 वेददीपभाष्य के रचयिता - उब्वट/ सायण/महीधर/ (?) थे कपालीशास्त्री। 158 यंत्रराज ग्रंथ का विषय - ग्रहगणित/बीजगणित/ (?) है पाटीगणित/ शिल्पशास्त्र। 159 महेश ठक्कुर (?) के - अकबर/ जहांगीर/ आश्रित थे रघुनन्दन दास/ फिरोजशाह तुगलक। शिव 172 मदनमहार्णव का - कामशास्त्र/ कर्मविपाक। विषय (?) है- श्रृंगाररस/ शब्दकोश। 173 सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र - मानतुंग/ विश्वभूषण/ की रचना (?) ने की है मेरुतुंग/ रायमल्ल । 174 भक्तामरस्तोत्र (?) - महावीर/ बुद्ध/राम/ परक है वेंकटेश्वर। 175 मित्रमिश्र का प्रसिद्ध ग्रंथ - वीरमित्रोदय/संकल्प सर्योदय/प्रबोधचंद्रोदय/ आनंदकंदचम्प। 176 नेत्रचिकित्सा के लेखक - गणनाथ सेन/ डॉ. मुंजे/ बैद्य हिलेकर/ डॉ. म्हसकर। 177 मुकुलभट्ट (?) नामक - अभिधा/ लक्षण/ व्यंजना/ शब्दशक्ति को ही तात्पर्य मानते है 6। संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 178 शब्दव्यापारविचार ग्रंथ (?) ग्रंथ पर आधारित 179 एक सौ से अधिक ग्रंथों के प्रणेता (2) है 180 मुहम्मद तुगलक द्वारा (?) सम्मानित थे 181 वल्लभाचार्य के संप्रदाय का (?) नाम है 182 अनर्धराघव (?) की नाटकरचना है 183 संत तुलसीदास के ( ? ) स्नेही थे 184 नय- विवेक ग्रंथ के (?) प्रणेता थे 185 मैकडोनेल का जन्म (?) नगर में हुआ था 186 सप्तसन्धान काव्य की रचना (2) ने की है 187 सप्तसन्धान काव्य में (?) की कथा नहीं है। 188 शेक्सपीयर की नाट्यकथाओं के (?) अनुवादक है 189 दयानन्दलहरी के (2) रचयिता थे 191 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट' ग्रंथमाला में (?) खंड प्रकाशित है - 192 बौद्ध विज्ञानवाद के - 190 मेक्समूलर द्वारा प्रकाशितऋग्वेद का संस्करण ( ? ) खंडों में है - 194 छत्रपति साम्राज्यम् नाटक के लेखक (?) संस्थापक (?) थे193 मैत्रेयी (?) की पत्नी थी अभिधावृत्तिमातृका काव्यप्रकाश / काव्यालंकारसारसंग्रह / काव्यसूत्रवृत्ति । मथुराप्रसाद दीक्षित / मुटुंबी वेंकटराम नरसिंहाचार्य/ माधवाचार्य / मेधाव्रतशास्त्री । मुरारि/ मुनीश्वर / मुनिभद्रसूरि मधुसूदन सरस्वती । पुष्टिमार्ग/ भक्तिमार्ग/ विष्णुभक्तिमार्ग/ नीतिमार्ग | मंख / मुरारि / राजशेखर / रत्नाकर । मधुसूदन सरस्वती/ वासुदेवानन्द सरस्वती दयानन्द सरस्वती / बालस्रस्वती । मुरारि मिश्र / भवनाथ / गंगेश उपाध्याय / बर्धमान उपाध्याय आक्सफोर्ड लिपझिंग / मुजफ्फरनगर / गोटिंग्टन | कमलविजय / सिद्धिविजय/ कृपाविजय / मेघविजय । बुद्ध / महावीर / राम / कृष्ण । मेडपल्ली वेंकटरमणाचार्य महालिंगशास्त्री / क्षमादेवी/ वरेन्द्र चट्टोपाध्याय । द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री / मेघाव्रत शास्त्री । स्वामी श्रद्धानन्द । सत्यव्रत शास्त्री । 3/4/5/61 40/44/ 48/ 50 1 मैत्रेय रक्षित मैत्रेयनाथ आर्य असंग / बुद्धघोष याज्ञवल्क्य / मैत्रेय / वसिष्ठ / अगस्त्य । श्री. भि. वेलणकर / श्री. भा. www.kobatirth.org मूलशंकर 195 सुप्रसिद्ध आलदार स्तोत्र के (?) रचयिता थे 196 निरुक्त नामक वेदांग के (?) प्रसिद्ध आचार्य है197 कालिदास का प्रख्यात नाटक ( ? ) है 198 कालिदास की सुप्रसिद्ध उपाधि (?) है 199 शंकराचार्य (?) थे 200 मृच्छकटिक के लेखक (?) - 201 नाट्यशास्त्र के अनुसार रसों की संख्या (?) है202 हरविजयकार रत्नाकार (?) के निवासी थे203 जवाहरलाल नेहरू विजय नाटक के प्रणेता (2) है 205 'रत्नखेट' उपाधि के धनी (?) थे 206 कालिदास की सुप्रसिद्ध "दीपशिखा" की उपमा (?) काव्य में है। 207 रासपंचाध्यायी (?) के अंतर्गत है । 208 महाभारत के मूल संस्करण का (?) नाम था। 209 प्रसिद्ध साहित्यिक राजवर्म कुलशेखर (?) के नरेश थे। 210 राजशेखर की विदुषी पत्नी का नाम (?) था। 211 काव्यमीमांसा की रचना - For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - याज्ञिक / ग. बा. पळसुले । नाथमुनि यामुनाचार्य/ राममित्र/ पुण्डरीकाक्ष यास्क / गालव / दुर्गाचार्य/ वररुचि । मालविकाग्निमित्र/ 204 रविकीर्ति के शिलालेख में हर्षवर्धन / सत्याश्रय (?) का वर्णन है पुलकेशी / शालिवाहन / चंद्रगुप्त श्रीनिवास दीक्षित/ नीलकंठ दीक्षित/ विक्रमोर्वशीय / शाकुन्तल/ प्रियदर्शिका | कवितार्किक / कविकुलगुरु कविरत्न / कविराज । सूत्रकार/ भाष्यकार / वार्तिककार / टीकाकार । भास शूद्रक/ भवभूति विशाखदत्त । छह / आठ/नौ/ दस। काशी/ कांची/ काश्मीर / कामरूप । रमाकान्त मिश्र / श्रीधर वर्णेकर/ श्रीराम वेलणकर/ सत्यव्रत शास्त्री । राजचूडामणि दीक्षित/ राघवेन्द्र कवि । रघुवंश / कुमारसंभव/ मेघदूत / ऋतुसंहार । विष्णुपुराण भागवत पुराण मत्स्य पुराण / पद्मपुराण । जय / भारत / शतसाहस्री/ संहिता / पाण्डवचरित । तंजौर मैसूर/ त्रिवांकुर / वाराणसी। अवंतिसुंदरी / त्रिपुरसुंदरी / मलयसुंदरी /कर्पूरमंजरी। कुलशेखर / राजशेखर / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 7 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवंतिसुंदरी/ भट्ट मथुरानाथ। 212 भारती मासिकी पत्रिका - नागपुर जयपुर/मैसूर/ (?) से प्रकाशित होती अहमदनगर। 213 नागपुर से (?) का - देववाणी/ शारदा/ संस्कृत प्रकाशन होता है। भवितव्यम्/ गुंजारव । 214 संसार के अग्रगण्य - शाकल्य/व्याडि/पाणिनि/ वैयाकरण (?) है। शाकटायन। 215 शंकराचार्य का जन्मस्थान - काशी/ कालडी/ कांची (?) था। कन्याकुमारी। 216 शंकराचार्य के चार पीठों - जगन्नाथपुरी/ द्वारका/ के अन्तर्गत (?) पीठ बदरीनारायण/कांची। नहीं है। 217 श्रीकंठचरित के लेखक - मंखक/ रुय्यक/ (?) थे। सौमिल्लक/ रघुनाथ नायक/ 218 राजानक रुय्यक का - नाटकमीमांसा/ अलंकार(?) ग्रंथ अनुपलब्ध सर्वस्व/ काव्यप्रकाशसंकेत/ अलंकारमंजरी। 219 रुय्यक के परवर्ती शोभाकर मित्र/ रुद्रट/ साहित्याचार्य (?) महिमभट्ट/ उद्भट/ महाकाव्य की कवयित्री त्रावणकोर । (?) की महारानी थी। 228 केरल के अधिपतियों - मार्तण्डवर्मा/ रामवर्मा/ में सर्वश्रेष्ठ रविवर्मा ताम्पुरान्/ साहित्यिक (?) थे। देवनारायण। 229 केरलीय नरेश रामवर्मा - रुक्मिणी-परिणय/ की सर्वश्रेष्ठ संस्कृत श्रृंगारसुधाकर/ कार्तवीर्यकृति (?) है। विजय/ दशावतारदण्डक। 230 प्रसिद्ध तमिल काव्य - महालिंग शास्त्री/ नालथिरम् के संस्कृत कुरुकापुरवासी रामानुज अनुवादक (?) है। डा. राघवन् । मुंडुवी नरसिंहाचार्य। 231 रामानुजाचार्य की - 100/110/120/125 आयु अंतकाल में (?) वर्षों की थी। 232 दसों प्रकार के रूपकों - व्ही. रामानुजाचार्य/ की रचना (?) ने की है। श्री.भी. वेलणकर/ वीरेन्द्र भट्टाचार्य/व्ही. राघवन् । 233 स्वरमेलकालनिधि के - शाङ्गधर/कल्लीनाथ, लेखक (?) थे। रामामात्य /चतुरपंडित । 234 परमार्थदर्शन के प्रणेता - मधुसूदनजी ओझा/गुलाबराव (?) है। महाराज/ रामावतार शर्मा वेल्लंकोण्ड रामराय। 220 शब्दकल्पद्रुम कोश के - राधाकान्त देव/ हलायुध/ रचयिता (?) है। आपटे/ काशीनाथशास्त्री अभ्यंकर। 221 राधावल्लभ (?) ग्रंथ - ब्रह्मसूत्र/भागवत/ का भाष्य है। भगवद्गीता/ हरिवंश। 222 भागवत को श्रीधरी - भावार्थ दीपिका/ गढार्थ टीका का (?) नाम है। दीपिका/ संजीवनी/ दीपिकादीपन। 223 साहित्य अकादमी की - संस्कृतप्रतिभा संस्कृत पत्रिका (?) दिव्यज्योति/ भारती सर्वगन्धा। 224 रासपंचाध्यायी की रामनारायण मिश्र/ टीका भाव-भाव- कृष्णचैतन्य/ रूपगोस्वामी/ विभाविका के लेखक / सनातन गोस्वामी। 235 रामाश्रम कृत सिद्धान्त - सारस्वत । कातन्त्र । चन्द्रिका (?) व्याकरण पाणिनीय । माहेश्वर । से संबंधित है236 संस्कृतचन्द्रिका के प्रथम - आप्पाशास्त्री राशिवडेकर । संपादक (?) थे। जयचन्द्र सिद्धान्तभूषण। हृशीकेश भट्टाचार्य/ पंढरी नाथाचार्य गलगली। 237 सूनृतवादिनी पत्रिका का - लाहोर । कलकत्ता। प्रकाशन (?) से होता कोल्हापूर । मद्रास । था। 238 आप्पाशास्त्री राशिवडेकर - 38/40/42/45 का देहान्त (?) वें वर्ष में हुआ। 239 रुद्रकवि के राष्ट्रोढवंश - राष्ट्रकूट । बागुल ।भोसल । महाकाव्य में (?) वंशीय होयसल। राजाओं के चरित्र है। 240 काव्यालंकार के लेखक - रुद्रभट्ट । रुद्रट । रुद्रधर (?) थे। उपाध्याय। भामह। 241 रूपगोस्वामी का साहित्य-- विदग्धमाधव । शास्त्रीय ग्रंथ (?) है। ललितमाधव । उज्ज्वल 225 महाकवि रामपाणिवाद - त्रावणकोर/मैसूर/रामनाडा/ (?) नरेश के आश्रित तंजौर । थे। 226 पतंजलिचरित की रचना - रामभद्र सिद्धान्त-वागीश/ (?) ने की। रामभद्र दीक्षित/ रामभद्र सार्वभौम/पं. तेजोभानु। 227 रघुनाथाभ्युदयम् - मैसूर/ तंजौर/ काश्मीर/ 8 संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 256 मंदसौर-शिलालेख का - भट्टि । वत्सभट्टि । बंधुवर्मा। काव्य (?) द्वारा रचित रविकीर्ति । 257 किरातार्जुनीय-व्यायोग - राजा। मंत्री । सेनापति । के लेखक वत्सराज पु रोहित । (?) थे। 258 वेदान्तसिद्धान्तसंग्रह - शांकर । वाल्लभ । माध्व । के लेखक वनमाली रामानुज मिश्र (?) संप्रदायी थे। 259 अष्टाध्यायी पर लिखे - पांच/छह/सात/आठ वार्तिकों की संख्या (?) हजार से अधिक है। 260 वररुचि के प्राकृतप्रकाश - पैशाची/शौरसेनी । मागधी। में (?) प्राकृत भाषा पाली। का विवरण नहीं है। 261 विक्रमादित्य के नवरत्नों - क्षपणक । अमरसिंह। में उल्लिखित ज्योतिषी वराहमिहिर । का (?) नाम है। वेतालभट्ट। नीलमणि । उत्कलिका। मंजरी। 242 विख्यातविजय नाटक के - नोआखली । तंजौर । रचयिता लक्ष्मणमाणिक्य जयपुर । काश्मीर । (?) के नरेश थे। 243 जार्ज-शतक के लेखक - लक्ष्मणशास्त्री । लक्ष्मण (?) थे। सूरि । लक्ष्मण भट्ट। रामकृष्ण कादम्ब। 244 संतानगोपाल काव्य की . मलबार । आन्ध्र । बंगाल। लेखिका लक्ष्मी (?) विदर्भ। की निवासी थीं। 245 वेदांग ज्योतिष के निर्माता - लगधाचार्य। भास्कराचार्य । (?) थे। ब्रह्मगुप्त । वराहमिहिर। 246 अल्लाउद्दीन खिलजी . सकलकीर्ति । द्वारा सम्मानित जैन ललितकीर्ति । अनन्तवीर्य। पंडित (?) थे। समन्तभद्र। 247 खाण्डवहन महाकाव्य के - जतीन्द्रविमल चौधरी। (?) रचयिता है। ललितमोहन भट्टाचार्य लोकनाथ भट्ट । रेवाप्रसाद द्विवेदी। 248 विश्वगुणादर्शचम्पू के - त्रिविक्रम भट्ट । सोमेश्वर लेखक (?) है। सूरि । वेंकटाध्वरी। लोलिंबराज। 249 वैद्यजीवन के लेखक - आन्ध्र । कर्णाटक । सौराष्ट्र । लोलिबंराज (?) के महाराष्ट्र। निवासी थे। 250 लौगाक्षी भास्कर के - अर्थशास्त्र । मीमांसा । अर्थसंग्रह का विषय वैशेषिक । न्याय । (?) है। 251 वंगेश्वर ने माहिषशतक में - व्यंकोजी। शहाजी। (?) राजा का भैसे से तुकोजी । शरफोजी । साम्य वर्णन किया है। 252 भागवत की भावार्थ - श्रीधरी । वंशीधरी। दीपिका- प्रकाश-टीका भास्करी। शांकरी। का अपरनाम (?) है। 253 श्रीमद्भागवत की - 15/18/20/25 श्लोकसंख्या (?) हजार 262 बृहत्संहिता का विषय - तंत्रशास्त्र/ज्योतिष/ (?) है। आयुर्वेद/संगीत/ 263 पंचसिद्धान्तिका ग्रंथ के - पितामह/ वसिष्ठ/ लेखक (?) थे। वराहमिहिर/ पुलिश/ 264 बृहज्जातक का विषय - बुद्धकथा । भविष्यकथन । वेदांग-ज्योतिष । ज्योतिर्गणित। 265 पुष्टिमार्गी वैष्णव (?) - अद्वैत । शुद्धाद्वैत । वाद को मानते है। द्वैत । त्रैत। 266 सिंकदर लोदी ने दिल्ली - वल्लभ । मध्व । रामानुज । दरबार में (?) आचार्य सायण। का चित्र स्थापित किया था। 267 वल्लभाचार्य का - कृष्णदेवराय। "कनकाभिषेक" (?) रधुनाथ नायक । मार्तण्डवर्मा । की राजसभा में हुआ था। शिवाजी महाराज। 268 वल्लभाचार्य ने (?) - मथुरा । काशी। करवीर । क्षेत्र में जलसमाधि ली। हरिद्वार । 269 वल्लभाचार्य के आज - 84/51/40/31 उपलब्ध ग्रंथों की संख्या - 25/30/35/45 254 श्रीमद्भागवत की अध्यायसंख्या तीनसौ (?) है। 255 ऋग्वेद में उल्लिखित तिरिंदर (?) देश का राजा माना जाता है। - पर्श (ईरान)/ गांधार) सिंधु/ पंचनद । 270 बसवराजीय ग्रंथ का - ज्योतिःशास्त्र । आयुर्वेद । विषय (?) है। मंत्रशास्त्र । वीरशैवदर्शन। 271 ऋग्वेद के सप्तम मण्डल - विश्वामित्र वसिष्ठ । के द्रष्टा (?) है। वामदेव । गृत्समद। संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोनरी For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुए। 272 पुराणों के अनुसार (?) - वत्री आत्रेय । वश-अश्व । वसिष्ठ के भाई थे। अगस्त्य । शक्ति । 273 "द्वितीय बुद्ध" संज्ञा - असंग । वसुबन्धु । (?) को प्राप्त हुई थी। कुमारजीव । बुद्धघोष । 274 वसुबन्धु का - योगाचार । माध्यमिक। अभिधर्मकोश (?) वैभाषिक । शून्यवाद। मत का प्रमाण ग्रंथ है। 275 सांख्य-सप्तति के प्रणेता - ईश्वरकृष्ण । आसुरि। (?) है। विन्ध्यवासी । हरेरामशास्त्री शुक्ल। 276 "लघुभोजराज' उपाधि - वस्तुपाल । बालचंद्र। के धनी (?) थे। वीरधवल । नरेन्द्रप्रिय सूरि। 277 नरनारायणानन्द के - सोमेश्वर । वस्तुपाल। रचयिता महाकवि (?) हरिहर । यशोवीर । थे। 278 अष्टांगसंग्रह के - सौराष्ट्र । सिंधु । मालव । रचयिता वाग्भट का जन्म आन्ध्र । (?) देश में हुआ। 279 आयुर्वेद के ग्रंथों में - चरकसंहिता । अष्टांगसंग्रह सर्वाधिक टीका (?) अष्टांगसंग्रह। ग्रंथ पर है। शागधरपद्धति। 280 आयुर्वेद को विदेश में - वाग्भट । धन्वन्तरि । प्रतिष्ठा देने का कार्य शाईगधर । जीवक। (?) ने किया। 281 काव्यानुशासन एवं - वाग्भट । हेमचन्द्र। छन्दोनुशासन के लेखक विश्वनाभ । विद्याधरशास्त्री। (?) थे282 नेमिनाथ (?) थे। - तीर्थंकर । नाथपंथी। बौद्धपंडित । वीरवैष्णवा 283 वाचस्पति मिश्र ने (?) - न्याय । वैशेषिक। दर्शन छोड़कर अन्य सभी योग । सांख्य। दर्शनों पर टीकाएं लिखी है। 284 भामतीप्रस्थान के रचयिता - वाचस्पति मिश्र। (?) थे। मण्डनमिश्र। शोभाकर मिश्र उदयनाचार्य। 285 तात्पर्याचार्य एवं - वाचस्पति मिश्र । नागेशभट्ट षड्दर्शनीवल्लभ विश्वेश्वर भट्ट । हेमचंद्र सुरि उपाधियों के धनी (?) थे। 286 अभिनव-वाचस्पति मिश्र - विवादचिंतामणि। आचारका प्रमुख ग्रंथ (?) है। चिंतामणि । नीतिचिंतामणि । द्वैतचिंतामणि। 287 कामसूत्रकार वात्स्यायन - ब्रह्मचारी । गृहस्थ। (?) थे। संन्यासी । बौद्धभिक्षु 288 वात्स्यायन का कामसूत्र - 5/7/10/12 (?) अधिकरणों में विभक्त है। 289 वात्स्यायनभाष्य (?) - कामसूत्र । अर्थशास्त्र । पर लिखा है। न्यायशास्त्र । चाणक्यसूत्र 290 ज्ञानसूर्योदय वादिचंद्र का - दूतकाव्य । नाटक। जैनपुराणग्रंथ । महाकाव्य। 291 वादिराजतीर्थ का . तीर्थप्रबंध। सुप्रसिद्ध ग्रंथ (?) है। तत्त्वप्रकाशिका। सरसभारती-विलास। प्रमेय-संग्रह। 292 “स्याद्वादविद्यापति" - अकलंकदेव। उपाधि से (?) वादिराजसूरि। विभूषित थे। मतिसागरमुनि । वादीभसिंह। 293 वादिराजसूरि (?) के - एकीभावस्तोत्र । पठन से कुष्ठरोग से मुक्त भक्ताभरस्तोत्र । पार्श्वनाथचरित। अध्यात्माष्टक। 294 न्यायविनिश्चय के वादीभसिंह। लेखक (?) है। अकलंकदेव। वादिराजसूरि। धर्मकीर्ति। 295 काव्यालंकार सूत्र के - मंत्री । राजदूत । सेनापति । रचयिता वामन काश्मीर पुरोहित नरेश जयापीड के(?) थे 296 रीति संप्रदाय के प्रवर्तक - उद्भट । वामन । (?) थे भामह । मम्मट 297 काशिकावृत्ति की रचना - जयादित्य । उद्भट । वामन ने (?) के जयापीड । मम्मट। सहयोग से की 298 (?) वेमभूपाल के - भट्टात्रि । वामनभट्ट । राजकवि थे वासुदेव । विद्यानाथ। 299 वेमभूपालचरित (?) - गद्य । पद्य । चम्पू। ग्रंथ है खंडकाव्य। 300 यशोधरचरित विषयक - वासवसेन । प्रभंजन। प्राचीनतम ग्रंथ के पुष्पदन्त । गन्धर्वकवि। (?) लेखक है 301 वासुदेव दीक्षित की - सिद्धान्तकौमुदी। बालमनोरमा टीका (?) मध्यकौमुदी। लघुकौमुदी प्रक्रियाकौमुदी। 302 साहित्य के संगीतशास्त्र - कविचिन्तामणि । की चर्चा (?) ग्रंथ गीतगोविन्द । लक्ष्यसंगीत । 10 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मीमांसा/व्याकरण। भाषा-परिच्छेद (?) दर्शन का लोकप्रिय ग्रंथ में की है चतुर्दण्डिप्रकाशिका। 303 नवद्वीप में न्यायशास्त्र का - पक्षधर मिश्र । वासुदेव विद्यापीठ (?) ने प्रथम सार्वभौम । रघुनाथ स्थापित किया- शिरोमणि । रघुनंदन। 304 दत्तसम्प्रदायी संस्कृत - वासुदेवानंद सरस्वती। ग्रंथों के (?) लेखक थे गुलाबराव महाराज । नरसिंह सरस्वती । श्रीपाद वल्लभ। 305 (?) के पति अशिक्षित - विजका । विकटनितंबा। थे मोरिका । गार्गी। 306 माध्वमत के मुख्य - आनंदतीर्थ । विजयतीर्थ । व्याख्याकार (?) थे- महेन्द्रतीर्थ विजयध्वजतीर्थ 307 (?) विज्ञानभिक्षु की - सांख्य-प्रवचनभाष्य। रचना नहीं है सांख्य तत्त्वकौमुदी। योगवार्तिक । विज्ञानामृत भाष्य 308 मिताक्षरा (?) स्मृति की - मनु । याज्ञवल्क्य । टीका है पराशर । वसिष्ठ 309 गुजराथ में पुष्टि संप्रदाय - वल्लभाचार्य/ गोपीनाथ/ का प्रचार करने का श्रेय पुरुषोत्तमाचार्य । विठ्ठलनाथ (?) को है310 पंचदशीकार विधारण्य - सायणाचार्य । माधवाचार्य । स्वामी का मूलनाम विद्यानाथ । विद्यावागीश। (?) था311 विद्यारण्य (?) पीठ के - शृंगेरी । पुरी । द्वारका । आचार्य थे ज्योतिर्मठ 312 जिनसहस्रनाम की रचना - विनयविजयगणि। (?) ने की है- विनयचन्द्र। सिद्धसेन। विद्यानन्दी। 319 संस्कृत सुभाषित-कोशों - सुभाषितसंग्रह/ में (?) सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है- सुभाषितरत्नभाण्डागार/ सुभाषित-रत्नाकर/ सुभाषितरत्नकोश। 320 वैदिक ऋषियों में (?) - च्यवन/ विश्वामित्र/ का चरित्र वैविध्यपूर्ण है विव्री काश्यप/ वसिष्ठ । 321 शंकरस्वामी कृत हेतु - जापानी/चीनी/ विद्यान्यायप्रेवश नामक सिंहली/भोट । बौद्ध न्यायग्रंथ का (?) भाषा में हुआ है322 गुजराथ के साहित्यिक - द्वारका/मोरवी/जामनगर मूळशंकर याज्ञिक (?) वडोदरा के महाविद्यालय में प्राचार्य थे 323 विश्वमित्र ने (?) को - शुनःशेप/शुनःपुच्छ/ अपना पुत्र माना- हरिश्चद्र/ सुदास। 324 विश्वामित्र ऋषिका - विश्वरथ/ विश्ववादी/ मूलनाम (?) था- कौशिक/गाधिज 325 विश्वामित्र ने (?) से - शक्ति/ पराशर/ वसिष्ठ/ सतत विरोध किया- हरिश्चन्द्र। 313 चोलविलासचम्पू में - आंध्र/कर्णाटक/ वर्णित चोल राजवंश तामिलनाडु/ केरल (?) प्रदेश का था314 ज्योतिःशास्त्र-विषयक - विश्वनाथ/ गणेशदैवज्ञ/ 18 टीकाग्रंथों के केशवदैवज्ञ/ नृसिंह बापूदेव। लेखक (?) थे315 कोशकल्पतरु के - मेवाड/ जयपुर/ इन्दौर/ रचयिता विश्वनाथ (?) वडोदरा । के निवासी थे316 साहित्यदर्पणकार - अलंकार/ रीति/ रस/ विश्वनाथ (?) वादी थे- ध्वनि। 317 विश्वनाथ चक्रवर्ती की - रामायण/ भागवत/ सारार्थदर्शिनी (?) की अलंकारकौस्तुभ/ उज्ज्वल प्रसिद्ध टीका है- नीलमणि। 318 विश्वनाथ पंचानन का - न्याय/वैशेषिक/ 326 पंच महापातकों में (?) - ब्रह्महत्या/ सुरापान/ नहीं गिना जाता- असत्यभाषण/ चोरी 327 (?) ने शांकरमत को - विश्वासभिक्षु/ विज्ञानभिक्षु पाखंड कहा है- भिक्षुकाश्यप/ धर्मकीर्ति। 328 रणवीरज्ञानकोश के - विश्वेश्वर पंडित/रामावतार रचयिता (?) थे- शर्मा/ यादवप्रकाश/ दक्षिणामूर्ति। 329 सर्वज्ञसूक्त के रचयिता - आनंदबोध/ विष्णुस्वामी/ (?) थे उद्गीथाचार्य/ षड्गुरुशिष्य । 330 रुद्रसंप्रदाय के प्रवर्तक - विष्णुस्वामी/ शिवस्वामी/ (?) थे वल्लभाचार्य/ श्रीधरस्वामी। 331 चंद्रप्रभचरित के नायक - 5/6/7/8 (?) वे तीर्थंकर थे 332 भागवतचंद्र-चन्द्रिका - विशिष्टाद्वैत/ अद्वैत/ (?) मत की अंतिम माध्व/ वल्लभ। भागवतटीका है333 ऋगर्थदीपिका (वेदभाष्य)- वेंकटमाधव/ सायण माधव के लेखक (?) थे- द्या द्विवेद/शौनक । 334 उत्तररामचरितचम्पू के - भवभूति/वेंकटाध्वरी/ रचियता (?) थे- शरभोजी महाराज/भोजराज। संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 11 For Private and Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 352 शंकराचार्य के स्तोत्रो में - दक्षिणामूर्ति-स्तोत्र/ (?) तांत्रिक है- आनंदलहरी/ सौंदर्यलहरी/ चर्पटपंजरी 353 शास्त्रोक्त भेदप्रकारों में - स्वगत/ सजातीय/ विजातीय (?) भेद नहीं माना जाता प्रांतीय 354 गौडपादाचार्य, शंकराचार्य - गुरु/ दादागुरु/ शिष्य/ के (?) थे विरोधक। 355 "जीवो ब्रह्मैव नापरः" - भाष्यकार/ भामतीकार/ यह वचन (?) का है- पंचदशीकार/ तत्त्वचिन्तामणिकार। 356 विद्यारण्य के गुरु भाट्टदीपिका-टीकाकार। शंकरानंद (?) थे-- अपोहसिद्धिकार/ आत्मपुराणकार/ सुन्दरी महोदयकार। 357 फिद्सूत्रों के कर्ता - शंकुक/ शंतनु/ शंकु/ जैनेन्द्र। 358 ब्राह्मणसर्वस्व के लेखक - उवटाचार्य/ गुणविष्ण/ (?) थे हलायुध/ शत्रुघ्नमिश्र। 335 वेंकटेश कवि के - 20/25/30/40 रामचंद्रोदय काव्य की सर्गसंख्या (?) है336 प्रधान वेंक्प्या का (?) - कुशलव-विजयचम्पृ/ काव्य व्याकरणनिष्ठ है - जगन्नाथविजय/ आंजनेयशतक/ सूर्यशतक। 337 जय ग्रंथ को "भारत" - पैल/ वैशम्पायन/ ग्रंथ का रूप देने का श्रेय जैमिनि/ सुमन्तु (?) को है338 कृष्ण यजुर्वेद की शाखा - शाकल/ मैत्रायणी/ (?) नहीं है- कठ/ कपिष्ठल। 339 ख्रिस्तधर्मकौमुदी- - वृन्दावनचंद्र-तर्कालंकार/ समालोचना के लेखक ब्रजलाल मुखोपाध्याय/ दयानंद सरस्वती/वेणीदत्त तर्कवागीश। 340 व्यासतीर्थकृत द्वैतवाद - तर्कताण्डव/न्यायामृत/ का प्रतिपादक सर्वश्रेष्ठ तात्पर्यचन्द्रिका/मन्दारमंजरी । ग्रंथ (?) है341 द्वैतवादी मुनियत्र में - मध्व/ जयतीर्थ/व्यासराय/ (?) नहीं माने जाते- कृष्णावधूत । 342 कृष्णदेवराय के गुरू - श्रीपादराज/ व्यासराय/ (?) थे जयतीर्थ/ आनंदतीर्थ। 343 "नव्यवेदान्त" के प्रवर्तक- रामानुज/ वल्लभ/ (?) थे विद्यारण्य/ व्यासतीर्थ । 344 व्यासराय के श्रेष्ठ सूरदास/ पुरंदरदास/ शिष्य (?) थे- रामदास/ तुलसीदास 345 महाभारत की रचना का - बदरीक्षेत्र/ हरिद्वार/ स्थान (?) माना जाता है काशी/ कुरुक्षेत्र 346 शंकराचार्य ने (?) वे - 16/18/20/22 वर्ष की आयु में भाष्यग्रंथ लिखे347 कुमारिलभट्ट ने अपने - विषभक्षण/ तुषाग्निदहन/ गुरुद्रोह का प्रायश्चित- जलसमाधि/ अनशन (?) द्वारा लिया348 शंकराचार्य के चार शिष्यों - सनन्दन/ मंडनमिश्र/ में (?) नहीं थे- पृथ्वीधर/ धर्मपाल 349 (?) पीठ चार शांकर - कामकोटी/ शारदा/ पीठों में नहीं है- गोवर्धन/ शृंगेरी। 350 सौंदर्यलहरीस्तोत्र के - पद्मपादाचार्य/ सुरेश्वराचार्य/ रचयिता (?) थे- हस्तामलकाचार्य/ शंकराचार्य 351 शंकराचार्य के प्रकरण - उपदेशसाहस्री/ विवेकग्रंथों में (?) लोकप्रिय है चूडामणि/ अद्वैतपंचरत्न/ धन्याष्टक। 359 मीमांसासूत्रों के पहले - आपदेव/ शबर/ खंडदेव भाष्यकार (?) थे- कुमारिलभट्ट । 360 दुर्घटवृत्ति शरणदेव ने - पाणिनि/ जैमिनि/ चाणक्य/ (?) के सूत्रों पर लिखी व्यास 361 कातंत्र व्याकरण के कर्ता - गुजराथ/ महाराष्ट्र/ बिहार/ शर्ववमा (?) प्रदेश के बंगाल । निवासी थे। 362 महायान संप्रदाय के - सौराष्ट/ काश्मीर/ नालंदा/ दार्शनिक शांतिदेव का तिब्बत। जन्म (?) के राजपरिवार में हुआ था। 363 (?)शांतिदेव की रचना - शिक्षासमुच्चय/सूत्रसमुच्चय/ नहीं है। बोधिचर्यावतार/ तत्त्वसंग्रह। 364 तिब्बत में बौद्धधर्म का - शांतिदेव/शांतिरक्षित। प्रचार (?) ने किया। शांतिसूरि/शरणदेव । 365 "वादिवेताल' उपाधि - शांतिसागर/ शांतिसूरि। के पात्र (?) थे। वेतालभट्ट/ धनपाल। 366 "आदिशाब्दिक" उपाधि - शाकल्य/शाकटायन/ (?) को दी गई है। भागुरि/ व्याडि। 367 प्रत्येक संस्कृत शब्द - पाणिनि/शाकटायन। "धातूज' माननेवाले यास्क/ कात्यायन । प्रथम विद्वान (?) थे। 368 स्थीतर शाकपूणि (?) - भाष्यकार/ निरुक्तकार/ 12. संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दर्शन का समन्वय दशपदार्थी/सर्वसंग्रह। शिवादित्य के (?) ग्रंथ में है। 384 भक्तियोग और वेदान्त - अध्यात्म-रामायण/ का उत्कृष्ट समन्वय (?) भागवत/योगवसिष्ठ/ में दिखाई देता है। हरिवंश पुराण। 385 शुकदेवकृत सिद्धान्त - द्वैताद्वैत/शुद्धाद्वैत/ प्रदीप नामक भागवत विशिष्टाद्वैत/द्वैत । व्याख्या (?) वादी। 386 संगीतदामोदर के कर्ता - मणिपुर/बंगाल/उत्कल शुभंकर (?) के निवासी असम । थे। 387 मृच्छकटिककार शूद्रक - युद्ध/विषभक्षण/ की मृत्यु (?) कारण अग्निप्रवेश/हस्तिप्रहार । थे। नहीं थे। निघण्टुकार/ सूत्रकार। 369 ऋग्वेद के पदपाठ कार - शाकल्य/ यास्क/ उद्गीथ/ (?) थे। स्कन्दस्वामी। 370 शारदातनय का धर्मशास्त्र/ नाट्यशास्त्र भावप्रकाशन (?) संगीत/ भक्तियोग। विषयका ग्रंथ है। 371 निःशंक शाङ्गदेव का - काश्मीर/कर्नाटक/महाराष्ट्र/ निवास (?) में था। असम 372 निःशक शागधर का - संगीतरत्नाकर/ रागविबोध का ग्रंथ (?) है। सुभाषितशाङ्गधर शागधरसंहिता 373 धातुओं के भस्मीकरण - चरकसंहिता/ की प्रक्रिया प्रथम (?) शागधरसंहिता/ ग्रंथ में लिखी गई। माधवनिदान/ धातुरत्नमाला 374 जातिभेद को न माननेवाले- शालिकनाथ मिश्र/ श्रेष्ठ मीमांसक (?) पार्थसारथि मिश्र/ वाचस्पति मिश्र/प्रभाकर मिश्र 375 अ.भा. संस्कृत कवि - शालिग्राम शास्त्री/ सम्मेलन में पद्यात्मक भट्ट मथुरानाथ/ गुलाबराव अध्यक्षीय भाषण (?) महाराज/ चिंतामणराव ने दिया था। देशमुख 376 शालिहोत्र ग्रंथ का - 12वीं/13वीं/14वीं/15वीं अनुवाद अरबी भाषा (?) शती में हुआ। 377 शालिहोत्र ग्रंथ का विषय - अश्वायुर्वेद/गजायुर्वेद स्त्रीरोग/नाडीपरीक्षा 378 पंचभाषाविलास - शिवाजी/व्यंकोजी/ नामक यक्षगान के संभाजी/शरफोजी रचयिता शहाजी के पुत्र (?) थे। 379 शिंगभूपाल कृत संगीत - संगीतरत्नाकर सुधाकर (?) का टीका चतुर्दण्डिप्रकाशिका/ ग्रंथ है। रागाविबोध/गीतगोविन्द। 380 शिंगभूपाल (?) के - कर्णाटक/ आन्ध्र/कोंकण/ अधिपति थे। केरल 381 एडवर्ड-राजाभिषेक - शिवराम पांडे/ दरबारम् और उर्वीदत्त शास्त्री/ महालिंग जार्जराज्याभिषेक दरबारम् /शास्त्री/ के रचियिता (?) थे शिवरामशास्त्री। 382 शिवस्वामीकृत अवदान कथा/जातक कफिणाभ्युदय कथा/नीतिकथा/ महाकाव्य (?) पर अठ्ठकथा। आधारित है। 383 वैशेषिक और न्याय - तर्कसंग्रह/सप्तपदार्थी/ 388 "साहसे श्रीः प्रतिवसति" - मुद्राराक्षस/मृच्छकटिक/ यह सुभाषित (?) महावीरचरित/ नाटक में है। विवेकानन्दविजय। 389 कोसलभोसलीय की - शेषकृष्ण/शेषाचलपति/ रचना के प्रीत्यर्थ, एकोजी शेषगिरि/शेषनारायण ने (?) किया था। 390 “आन्ध्रपाणिनि' उपाधि - शेषविष्णु शेषाचलपति/ से (?) प्रसिद्ध थे। शेषाचार्य/शेषकृष्ण। 391 शोभाकर मित्र ने 39 - अलंकार-मणिहार/ नए अलंकारों का विवेचन कुवलयानंद/ (?) ग्रंथ में किया अलंकाररत्नाकर अलंकार-मुक्तावली। 392 (?) ग्रंथ शौनक कृत - बृहद्देवता/ चरणव्यूह/ नहीं है। ऋप्रातिशाख्य/ ऋगर्थदीपिका। 393 "श्रद्धासूक्त" ऋग्वेद - 7/8/9/10 के (?) मण्डल में है। 394 श्रद्धासूक्त (?) - नामकरण/मेधाजनन/ विधि में कहा जाता है विवाह/ श्राद्ध। 395 दूतकाव्यों की अधिकतम - कलिंग/वंग/आन्ध्र/केरल। रचनाए (?) प्रदेश 396 दूतकाव्य की पद्धति के - दण्डी/भामह/अप्पय्य प्रति (?) ने अरुचि दीक्षित/ विश्वनाथ । व्यक्त की है। 397 सदुक्तिकर्णामृत के - असम/वंग/उत्कल/महाराष्ट्र रचयिता श्रीधरदास (?) के निवासी थे। 398 श्रीश्वर विद्यालंकार ने - सप्तमएडवर्ड/ संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 13 For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 412 स्वयंभूस्तोत्र के रचयिता (?) थे। - समंतभद्र/सकलकीर्ति उत्पलदेव/बुधकौशिक। (?) विषयक काव्य व्हिक्टोरिया/ लिखा है। पंचमजार्ज/महात्मा गांधी। 399 नानार्थकोष की परंपरा - विश्वलोचन/ हलायुध/ में श्रीधर सेनकृत (?) मेदिनी/अमर । अग्रगण्य कोश है। 400 भागवत-व्याख्याकार- - श्रीकृष्ण/श्रीराम/नृसिंह/ श्रीधर स्वामी (?) के हयग्रीव । उपासक थे। 401 गणितसार के लेखक - बंगाल/कर्णाटक/महाराष्ट्र! श्रीधराचार्य (?) के काशी। निवासी थे 402 आनंदरंग-विजयचंपू- - डुप्ले/क्लाईव्ह/हेस्टिंग्ज/ कार श्रीनिवास कवि मेकॉले। (?) के भाषण-सहायक 403 "रत्नखेट" और - श्रीनिवास भट्ट "षड्भाषाचतुर" श्रीनिवास दीक्षित उपाधियों से(?) श्रीनिवास दास/ श्रीनिवास विभूषित थे। शास्त्री। 404 योगि-भोगि-संवाद - श्रीनिवास सूरि/श्रीनिवास शतक के लेखक (?) रंगार्य/श्रीनिवास शास्त्री/ थे। श्रीनिवास दीक्षित 405 आमरण संस्कृत पद्यभाषी - मदुरै/कुम्भकोणं/ श्रीनिवासार्य (?) में मैसूर/ त्रिपुणिथुरै संस्कृत के प्राध्यापक 413 सरफोजी भोसले द्वारा - तीर्थयात्राचंपू/ रचित (?) चम्पू है। कुमारसंभवचम्पू/ आनंदकंदचंप/नीलकंठ विजयचम्पू 414 सरफोजी भोसले द्वारा - सरस्वती महाल/ स्थापित ग्रंथालय का शारदापीठ/भारतीभवन/ (?) नाम है। तंजूर। 415 चायगीता की रचना - क्षमा राव/रमा चौधुरी/ (?) ने की है। सहस्त्रबुद्धे करमरकरशास्त्री। 416 चैतन्य संप्रदाय के - रूपगोस्वामी/सनातन/ कर्मकाण्ड की पद्धति चैतन्यप्रभु/ स्वामी (?) ने प्रवर्तित की। नारायण। 417 सागरनन्दी के नाटक- - नेपाल/काश्मीर/श्रीलंका/ लक्षण-रत्नकोश की तिब्बत । पाण्डुलिपि सिल्वा लेवी को (?) में प्राप्त हुई। 418 चारों वेदों की दैवत - दयानंद सरस्वती/ संहिताओं का संपादन वेदमूर्ति सातवलेकर। (?) ने किया। सत्यव्रत सामश्रमी/आचार्य विश्वबन्धु 419 महाराष्ट्रीय विवाहविधि में - मंदाक्रान्ता/ मंगलाष्टक (?) वृत्त में शार्दूलविक्रीडित/ गाया जाता है। भुजंगप्रयात/वसंततिलका 420 (?) सायणाचार्य का - यंत्रसुधानिधि/पुरुषार्थग्रंथ नहीं है सुधानिधि/आयुर्वेदसुधानिधि/ सुभाषितरत्नाकर। 421 सायणाचार्य (?) के मंत्री- कंपण/संगम/बुक्कराय/ नहीं थे कृष्णदेवराय। 422 सायणाचार्य ने अंतिम . तैत्तिरीयब्राह्मण/ भाष्य (?) पर ऐतरेयब्राह्मण/ लिखा। शतपथब्राह्मण/कृष्ण यजुर्वेद। 423 उत्तरभारत की अधिकतम - सिंधुक्षित्/सव्य आंगिरस/ नदियों का वर्णन हिरण्यस्तूप/ संवर्त आंगिरस । ऋग्वेद में (?) ऋषि के सूक्तों में है। 424 जैन न्यायशास्त्र के प्रणेता - सिद्धसेन दिवाकर/ (?) माने जाते है। बृद्धवादिसूरि/सकलकीर्ति कुंदकुंदाचार्य। थे। 406 ज्योतिषशास्त्र की प्रत्येक - आन्ध्र/महाराष्ट्र/सौराष्ट्र। शाखा पर ग्रंथ लेखन- राजस्थान । करनेवाले श्रीपति भट्ट (?) के निवासी थे। 407 टेकलै और वडकलै मठ - वल्लभ/रामानुज/निंबार्क/ (?) संप्रदाय के है। माध्व। 408 हरिभक्तिरसायन-टीका - दशम-पूर्वार्ध/दशम भागवत के (?) स्कन्ध उत्तरार्ध/ एकादश/ पर है। द्वादश। 409 (?) काव्य को - माघ/नैषध/कप्फिणाभ्युदय/ "शास्त्रकाव्य" कहते है। कादंबरी। 410 षड्गुरुशिष्य की - वेदार्थदीपिका/सुखप्रदा/ सर्वानुक्रमणी-वृत्ति का मोक्षप्रदा/वेददीप। (?) नाम है। 411 सनातन गोस्वामी की - हरिभक्तिविलास/ रचना (?) नहीं है। भागवतव्यंजन/ हरिभक्ति-रसामृतसिन्धु/ भागवतामृत। 14 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 431 425 सुप्रसिद्ध कल्याणमंदिर - सिद्धसेन दिवाकर/ स्तोत्र के रचयिता जगद्धरभट्ट/शंकराचार्य (?) थे। समरपुंगव दीक्षित। 426 (?) नाटक उत्कल की - सिंहलविजय/पादुकाविजय/ ऐतिहासिक घटना पर है। सत्यचरित/सभापतिविजय 427 रामानुजाचार्य के दार्शनिक- सुदर्शन सूरि/वरदाचार्य ग्रंथों के व्याख्याकार यामुनाचार्य/ (?) थे। वेदान्ताचार्य। 428 शुक्ल यजुर्वेद का अंतिम - ईश/केन/कठ/प्रश्न । अध्याय (?) उपनिषद है। 429 गदनिग्रह के रचयिता - गुजराथ/काश्मीर/ सोडल (?) के पंजाब/कर्नाटक निवासी थे। 430 कालिदास का काव्य - वैदर्भी/गौडी/लाटी/ (?) रीति में लिखा पांचाली। गया है। सोमदेव का - बृहत्कथा/अवतिसुंदरीकथा कथासरितसागर गुणाढ्य जातककथा/श्रृंगारमंजरीकथा की (?) कथा पर आधारित है 432 सोमदेव कृत ग्रंथ (?) है- यशस्तिलकचम्पू/ जीवंधर चम्पू/ गद्यचिन्तामणि/ पद्यपुराण। 433 कल्याण-मंदिर-स्तोत्र - बौद्ध/जैन/ (?) संप्रदाय में चैतन्य/माध्व। लोकप्रिय है434 बसवपुराण के लेखक - सोमनाथ/ सोमदेव/ सोमशेखर/सोमकीर्ति । 435 माधवराव पेशवा ने - सोमशेखर/ सोमेश्वर/ भागवतचम्पूकार (?) सोमसेन/सोमानंद । कवि का सम्मान किया436 प्रत्यभिज्ञादर्शन का - शिवसूत्र/ शिवदृष्टि/ आधारभूत ग्रंथ है स्पन्दकारिका/ ईश्वरप्रत्यभिज्ञा सोमानंदकृत (?)437 प्रत्यभिज्ञादर्शन का उदय - केरल/काश्मीर/ कामरूप/ (?) में हुआ- कर्णाटक 438 भारत ग्रंथ का महाभारत - लोमहर्षण/सौती/ (?) ने किया- जनमेजय/शुकाचार्य 439 ऋग्वेद के प्राचीनतम - सायण/ स्कन्दस्वामी/ भाष्यकार (?) है- देवराज/ आत्मानन्द । 440 ऋग्भाष्यकार स्कन्दमहेश्वर - महाराष्ट्र/ सौराष्ट्र (?) के निवासी थे काश्मीर/ तमिलनाडु। 441 माध्यमिककारिका के - नागार्जुन/ स्थविरबुद्धपालित लेखक (2) है- शांतरक्षित/ वसुबन्धु । 442 स्वामिनारायण संप्रदाय - शिक्षापत्री/ केशवीशिक्षा/ का प्रमुख ग्रंथ (?) है- नारदीय शिक्षा/माण्डव्यशिक्षा 443 बसुबंधु के प्रमुख शिष्य - तक्षशिला/ नालंदा/ स्थिरमति (?) विद्यापीठ उज्जयिनी/ वलभी। के आचार्य थे444 काश्मीर के सर्वश्रेष्ठ . गम्मट/ अभिनवगुप्त/ संस्कृत लेखक (?) है- उत्पलाचार्य/ कल्हण । 445 भाषाशुद्धि का प्रथम - शिवाजी महाराज/ प्रयास राज्यव्यवहार कोश डॉ. रघुवीर/ वीर सावरकर/ द्वारा (?) ने किया- सरफोजी। 446 कल्पसूत्रों में (?) सूत्र - श्रौत/ गृह्य/ धर्म/ काम । अन्तर्भूत नहीं है447 'पद्मभूषण' उपाधि से - हरिदाससिद्धांत वागीश/ (?) संस्कृत पंडित डॉ. व्ही. राघवन/ भूषित नहीं थे डॉ.वा.वि.मिराशी/ मधुसूदनजी ओझा। 448 'भारतरत्न' उपाधि से - डॉ. रा. ना. दांडेकर/ विभूषित संस्कृत पंडित डॉ.पा.वा.काणे/ हरिंशास्त्री (?) थे दाधीच/ डॉ. रघुवीर। 449 षड्दर्शन-समुच्चयकार - श्वेतांबर/ दिगंबर/ हरिभद्रसूरि (?) संप्रदाय महायान/ हीनयान । के आचार्य थे450 दशकुमारचरित को - हरिवल्लभ शर्मा पद्यबद्ध (?) ने किया- हरिशास्त्री दाधीच/ हरिश्चंद्र भट्ट मथुरानाथ। 451 शतपथ ब्राह्मण के - स्कन्दस्वामी/हरिस्वामी/ भाष्यकार (?) थे- स्वामिनारायण/ हलायुध । 452(?) हर्षवर्धन कृत नाटक- रत्नावली/प्रियदर्शिका/ नहीं है नागानन्द/मुकुन्दानंद। 453 भारत-नररत्नमाला के - ग्वालियर/इन्दौर। लेखक श्रीपादशास्त्री उज्जयिनी/ बडौदा। हसूरकर (?) के निवासी थे454 सृष्टि की उत्पत्ति विषयक - 2/6/8/101 'प्राजापत्य सूक्त' ऋग्वेद के (?) मंडल में है 455 योगवासिष्ठ की श्लोक - 18/24/32/50 संध्या (?) हजार है 456 योगवासिष्ठ का सार - गौड अभिनंद। शांतानंद। लघुयोगवासिष्ठ (?) ने भट्ट शिवराम । वामन पंडित। लिखा है457 वेदांत मतानुसार संसार - ईश्वर । काल । ब्रह्म । प्रकृति । का आदिकारण (?) है। संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोत्तरी / 15 For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org 458 अथर्ववेद का नाम (?) - अथर्ववेद । भृग्वंरािवेद । नहीं है ब्रह्मवेद । तुरीय वेद । 459 आकार में द्वितीय क्रम का- ऋग्वेद । यजुर्वेद । सामवेद । वेद (?) है अथर्ववेद। 460 अथर्ववेद के कांडों की - 15/20/25/301 संख्या (?) है461 संपूर्ण अथर्ववेद का - डॉ. रघुवीर । व्हिटने । अंग्रेजी में अनुवाद (?) रौथ । सूर्यकान्त शास्त्री। ने किया है। 462 अथर्ववेद की पिप्पलाद - डॉ. रघुवीर । पं.सातवलेकर शाखा का संशोधित आचार्य विश्वबंधु । व्हिटने। संस्करण (?) ने प्रकाशित किया है463 बौध्द वैभाषिक दर्शन का - अभिधर्मकोश। सर्वाधिक प्रमाणग्रंथ अभिधर्मन्यायानुसार। अभिधर्मसमय-दीपिका। धम्मपद। 464 भारतीय नृत्यकला का - अभिनयदर्पण । साहित्य उत्कृष्ट ग्रंथ है दर्पण । भावप्रकाशन । नंदिकेश्वरकृत (?) नाटकलक्षणरत्नकोश। 465 (?) ग्रंथ विश्व का प्रथम- अभिलषितार्थचिंतामणि । ज्ञानकोश माना गया है- अभिधानचिंतामणि । विश्वप्रकाश । वस्तुरत्नकोश। 466 अभिलषितार्थ-चिन्तामणि - कल्पद्रुम । मानसोल्लास । का अपरनाम (?) है- विशेषामृत । वाङ्मयार्णव । 467 उमरखय्याम की रुबाइयों - डॉ. सदाशिव डांगे। का प्रथम संस्कृत अनुवाद पं. गिरिधर शर्मा । भट्ट (?) ने किया। मथुरानाथ । क्षमादेवी राव। 468 अमरुशतक के प्रथम - वेमभूपाल । चतुर्भुज मिश्र । टीकाकार (?) थे- अर्जुनवर्मदेव । रामरुद्र । 469 काव्यप्रकाश में - 51/61/71/811 मम्मटाचार्यने कुल (?) अलंकारोंका विवेचन किया है470 छह वेदांगों में (?) - शिक्षा । कल्प । व्याकरण। अन्तर्भूत नहीं है। योगशास्त्र। 471 छह वेदांगो में (?) - निरुक्त । छंद । ज्योतिष। अन्तर्भूत नहीं है- मीमांसा। 472 परंपरा के अनुसार - राम के भ्राता । शकुन्तलाके हिंदुस्थान का भारत नाम पुत्र । ऋषभदेव के पुत्र । (?) के कारण हुआ- नाट्यशास्त्र के निर्माता । 473 भारत का प्राचीनतम - आर्यावर्त । अजनाभवर्ष । नाम (?) था- ब्रह्मावर्त । कर्मभूमि । 474 भाषाविज्ञान की दृष्टि से - डॉ. रघुवीर । भोलाशंकर संस्कृत का अध्ययन व्यास । सुनीतिकुमार चॅटर्जी करनेवाले (?) श्रेष्ठ राहुल-सांकृत्यायन । आधुनिक विद्वान है475 भारतकी कल बोलिया - 1650/1750/ (?) से अधिक मानी - 1850/19501 गई है। 476 भारत के द्राविड भाषा - 160/170/180/1901 कुल में (?) से अधिक भाषाएँ है। 477 अर्थालंकारों का विभाजन - 3/4/5/61 सर्वप्रथम रुय्यक ने (?) वर्गों में किया है। 478 राजानकरुय्यक के ग्रंथ - अलंकारशेखर । अलंकारका नाम (?) था- संग्रह । अलंकारसर्वस्व। अलंकारसूत्र। 479 रुय्यक-कत अर्थालंकार - जयरथ । राजानक अलक। सर्वस्व के टीकाकार विद्याधर चक्रवर्ती । केशव (?) नहीं है मिश्र। 480 रुय्यककृत अर्थालंकार के- सादृश्य वर्ग । विरोध वर्ग। वर्गों में (?) वर्ग न्यायमूलवर्ग । नानार्थवर्ग। नहीं है। 481 दक्षिणभारत में विशेष - सायणाचार्यकृत अलंकार प्रचलित साहित्यशास्त्रीय सुधानिधि । सुधीन्द्र कृत ग्रंथ (?) है। अलंकारसार । अमृतानंद योगीकृत अलंकारसंग्रह। यज्ञनारायण दीक्षित कृत अलंकार-रत्नाकर। 482 क्षेमेन्द्र की अवदान - श्रीलंका । नेपाल । तिब्बत । कल्पलता (?) में विशेष जापान । प्रचलित है। 483 (?) की रचना पुत्र ने - बाणकृत कादम्बरी । क्षेमेन्द्र पूर्ण नहीं की कृत अवदानकल्पलता। कालिदास-कृत-कुमारसंभव । वल्लभाचार्यकृत अणुभाष्य। 484 हीनयान पंथ का दिव्यावदान । कल्पद्रुमावदान प्राचीनतम अवदान ग्रंथ अवदानशतक। (?) है। विचित्रकर्णिकावदान। 485 अवदानशतक का प्रथम - सिंहली । चीनी । जापानी। अनुवाद (?) भाषा में भोट । हुआ। 486 अवधूतगीता (?) - लिंगायत । नाथ । दत। संप्रदाय में प्रमाण मानी दिगम्बर । जाती है नहीं है 16 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 487 भासकृत अविमारक (?) कथापर आधारित - रामायण । भारत । कृष्णचरित्र कल्पित । 488 जैमिनि-अश्वमेध ग्रंथ का - यज्ञशास्त्र/ भारतकथा/ विषय (?) है- मीमांसाशास्त्र/ देशवर्णन। 489 अष्ट-महाश्रीचैत्यस्तोत्र - हर्षवर्धन । अशोक। के रचयिता (?) थे। कनिष्क । नागार्जुन । 490 अष्टमहाचैत्यस्तोत्र तिब्बती- सिल्वाँ लेवी । पार्जिटर । प्रतिलेख के आधारपर ह्रिस डेविडस् ।पी.व्ही.बापट । (?) द्वारा-संस्कृत में अनूदित हुआ। 491 वाग्भट के अष्टांगहृदय - 6/8/34/1201 ग्रंथ की अध्याय संख्या 492 वर्णसमाम्नाय के प्रत्याहार - 10/12/14/16। सूत्रों की संख्या (?) है493 पाणिनिकृत अष्टाध्यायी - 1/2/3/4। की सूत्रसंख्या 3980 से (?) अधिक है। 494 अष्टाध्यायी के प्रत्येक - 2/3/4/6। अध्याय में (?) पाद है। 495 अष्टाध्यायी के अन्य नामों- शब्दानुशासन । वृत्तिसूत्र । में (?) नाम उल्लिखित अष्टक । सर्ववेदपरिषदनहीं है शास्त्र। 496 अष्टाध्यायी का (?) पाठ- प्राच्य । पाश्चात्य । दक्षिणात्य । औदीच्य। 497 उत्कलके राजा कामदेव - गीतगोविंद । गीतराघव । (?) काव्य का श्रवण गीतगंगाधर । सप्तशतीस्तोत्र । किए बिना अन्नग्रहण नहीं करते थे ग्रंथों के (?) प्रवर्तक थे सिद्धान्त कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित । वाक्यपदीयकारभर्तृहरि । प्रक्रियाकौमुदीकार रामचंद्र। 502 संधानकाव्य के प्रवर्तक - नैघंटुक धनंजय (?) थे (राघवपाण्डवीयकार)/ दैवज्ञ सूर्यकवि (रामकृष्ण विलोमकाव्यकार) हरदत्तसूरि (राघवनैषधीयकार)। चिदम्बर कवि (पंचकल्याण चम्पूकार)। 503 पाकशास्त्र विषयक - पुणे/ तंजौर/ मैसूर/ नागपुर भोजनकुतूहल नामक एकमात्र संस्कृत ग्रंथ के लेखक नवहस्त रघुनाथ गणेश (?) के निवासी थे504 कन्नडभाषा का संस्कृत - 11/12/13/14। व्याकरण (कर्नाटकभाषाभूषण)के लेखक नागवर्म द्वितीय (?) शती में हुए:505 नागार्जुन के बहुसंख्य - चीनी । तिब्बती। सिंहली। ग्रंथ (?) अनुवाद रूपमें कवि । मिलते है506 सभी शास्त्रोंपर लेखन - 25/30/35/401 करने वाले नागोजी भट्ट के ग्रंथों की कुल संख्या 498 "तर्कपुंगव" उपाधिके - दिङ्नागाचार्य । समरपुंगव धनी (?) थे- दीक्षित । भावसेन विद्य। वाचस्पति मिश्र। 499 अकबर को जैन धर्म का - देवविमलगणि। उपदेश (?) ने किया। देवविजयगणि । जयशेखर सूरि । हरिभद्र सूरि। 500 (?) ने स्वोपज्ञ टीका - रसमंजरीकार भानुदत्त । नहीं लिखी प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारलेखक देवसूरि। गोपालचंपूकार जीवराज। कौस्तुभ चिन्तामणिकार गजपति प्रतापरुद्रदेव।। 501 प्रक्रियानुसारी व्याकरण - रूपावतारकार-धर्मकीर्ति । 507 मधुराद्वैत संप्रदाय के - 30/50/75/1301 प्रवर्तक प्रज्ञाचक्षु गुलाब राव महाराज के संस्कृत ग्रंथों की संख्या (?) है 508 बालसरस्वती - 10/21/91/122 | नारायणशास्त्री के नाटकों की कुल संख्या (?) है509 निंबार्काचार्य-विष्णु- - शाङ्ग/ सुदर्शन/ भगवान् के (?) शस्त्र के कौमोदकी । नंदक। अवतार माने जाते है510 राज्याभिषेककल्पतरू के - गागाभट्ट काशीकर । लेखक (?) थे- निश्चलपुरी । नागोजी भट्ट कृष्णशास्त्री घुले। 511 कवि की समकालीन - काश्मीरसंधानसमुद्यम। घटना पर आधारित हैदराबादविजय । बांगलादेश संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 17 For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (?) नाटक नहीं है- विजय । शिवराजाभिषेक। 512 143 ग्रंथों के लेखक - आंध्र । कर्णाटक । केरल । वेल्लंकोण्ड रामराय (?) तमिलनाडु । के निवासी थे513 किंवदन्ती के अनुसार - नीलकण्ठ दीक्षित । भट्टोजी (?) मरणोत्तर ब्रह्मराक्षस दीक्षित । भट्टनारायण । भट्टात्रि। 514 114 ग्रंथों के लेखक - 20/19/18/11 मुटुंबी वेंकटराम नरसिंहाचार्य (?) शतीके विद्वान है515 राघवाचार्य कृत वैकुण्ठ- . पौराणिक कथा/ ऐतिहासिक विजयचम्पूका विषय घटना/ तीर्थमंदिरवर्णन । (?) है भक्तचरित्र। 516 वाचस्पति मिश्र की पत्नी - लीलावती । भामती। का नाम (?) था- सरस्वती। अवंतिसुंदर । 517 भास्कराचार्य की विदुषी - सरस्वती । लीलावती। कन्या (?) थी- रामभद्राम्बा । विजयांका। 518 अकलंकदेव की अष्टशती- सप्तशती । अष्टसाहस्त्री। पर विद्यानन्दी कृत टीका दशशती । पंचदशी। का नाम (?) है। 519 क्रियागोपन-रामायण- - 12/14/16/181 चम्पू की रचना शेषकृष्णने __(?) वीं शताब्दी में की520 हेमचंद्रसूरि (?) उपाधि - कलिकालसर्वज्ञ ।सर्वज्ञभूप से विभूषित थे- कवितार्किककण्ठीरव। घटिकाशतसुदर्शन। 521 अष्टाध्यायी की पूर्ति के - धातुपाठ । गणपाठ। लिए पाणिनि ने (?) नहीं फिटसूत्र । उणादिसूत्र । लिखा। 522 अष्टाध्यायी की पूर्ति के - 2/3/4/5। लिए कात्यायन द्वारा रचित वार्तिकों की संख्या (?) सहस्त्र है523 महारानी अहल्यादेवी के - करमरकर शास्त्री। जीवनपर महाकाव्य (?) सखारामशास्त्री भागवत । ने लिखा है श्रीपादशास्त्री हसूरकर। डॉ. प्र. न. कवठेकर। 524 पांचरात्र साहित्य के - अहिर्बुध्न्य । शाकल। अन्तर्गत निर्मित 215 तैत्तिरीय । कौथुम संहिताओं में प्रमुखतम (?) संहिता है525 अहिर्बुध्न्य संहिता की - काश्मीर । पंचनद । विदेह । रचना (?) में हुई- सिन्धुदेश। 526 वैष्णवों के पांचरात्र - आगमप्रामाण्य । आगम सिध्दान्त का अवैदिकत्व तत्त्वविलास ।आगमचन्द्रिका । यामुनाचार्यने (?) आगमकल्पवल्ली। ग्रंथद्वारा खंडित किया527 वैदिक और तांत्रिक मार्गों - आगमोत्पत्ति-निर्णय । के विभेद की चर्चा कालीभक्ति-रसायन । काशीनाथ भट्ट ने अपने पुरश्चरणदीपिका । पदार्थादर्श । (?) ग्रंथ में की है528 सुप्रसिद्ध तांत्रिक लेखक - काश्मीर । वाराणसी। काशीनाथ भट्ट (?) प्रतिष्ठान । करवीर। के निवासी थे529 तैत्तिरीय संहिता के - आत्रेय । गौतम। पदपाठकार (?) ऋषि गोविन्दस्वामी । आपस्तम्ब । माने जाते है530 (?) उपपुराण है- - ब्रह्माण्ड । विष्णुधर्मोत्तर। ब्रह्मवैवर्त । गरुड। 531 विष्णुधर्मोत्तर पुराण (?) - 805/806/807/ 808 । अध्यायों में विभक्त है532 उपपुराणोंका विशिष्ट - डॉ. हाजरा । डॉ. प्रियबाला अध्ययन (?) ने नहीं - शाह । डॉ. स्टेला क्रामरिश्च । किया मैक्समूलर। 533 वाल्मीकि को विष्णु का - गणेश । नरसिंह। अवतार (?) उपपुराण विष्णुधर्मोत्तर । सौर। में माना है534 पुराण के पंचलक्षणां में - सर्ग । प्रतिसर्ग । गाथा । (?) नहीं माना जाता- मन्वन्तर । 535 पुराणों में (?) दशलक्षणी- श्रीमद्भागवत । पद्म । पुराण माना गया है- अग्नि । स्कन्द । 536 महापुराणों एवं उपपुराणों - कूर्मपुराण । भविष्यपुराण। में (?) अन्तभूर्त नहीं है- महाभारत । कालिकापुराण । 537 महापुराणों में (?) पुराण - अग्नि । वायु । पद्म । मत्स्य । प्राचीनतम माना जाता है538 कृष्णप्रिया राधा का - श्रीमद्भागवत । विष्णुधर्मोत्तर उल्लेख (?) पुराण ब्रह्मवैवर्त लिंग। में ही है539 विष्णुधर्मोत्तर पुराण - 2/3/4/51 (?) खंडों में विभाजित 540 श्रीमद्भागवत पुराण (?) संवादद्वारा निवेदित है541 हंसगीता (?) के अंतर्गत है - शुक-परीक्षित । कृष्ण उध्दव । मैत्रेय-विदुर। नारद-वसुदेव। अध्यात्मरामायण। योगवासिष्ठ । विष्णुधर्मोत्तर पुराण । श्रीमद्भागवत। 18 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुंथुनाथ। 559 विष्णु के 24 नामों में - प्रद्युम्न । अनिरुद्ध । (?) अन्तर्भूत नहीं है- पुण्डरीकाक्ष । अधोक्षज। 560 साहित्यशास्त्रोक्त - प्रसाद । माधुर्य ।अर्थगौरव। काव्यगुणों में (?) नहीं ओज माना जाता561 कामसूत्रकार वात्स्यायन - मल्लनाग । दत्तकाचार्य। का निजी नाम (?) था- कुचुमार । घोटकमुख। 562 छेक, वृत्ति, श्रुति और - यमक । अनुप्रास । उपमा । अन्त्य (?) अलंकार के श्लेष प्रकार है563 चम्पूकाव्यों में सबसे बडा - आनन्दवृन्दावनचंपू। (?) है विश्वगुणादर्श । आनन्दलतिका-चम्पू। आनन्दरंग विजयचम्पू। 564 आनन्दवृन्दावनचम्पू के - बेंकटाध्वरि । कविकर्णपूर । लेखक (?) है- त्रिविक्रमभट्ट । श्रीनिवासकवि 565 आनन्दवृन्दावनचम्पू - 1/2/3/41 नामक ग्रन्थों की संख्या 542 विश्वामित्र ने रामलक्ष्मण - अपराजिता/ संजीवनी/ को (?) विद्या दी- बलातिबल। मधुविद्या। 543 कच ने शुक्राचार्य से - परा । अपरा । संजीवनी। (?) विद्या प्राप्त की- भूमविद्या। 544 चंद्र एक नक्षत्र से दुसरे - 55/60/65/701 नक्षत्र में (?) घटिकाओं में प्रवेश करता है545 सूर्य एक नक्षत्र से दूसरे - 10/11/12/13 | नक्षत्र में (?) दिनों में प्रवेश करता है546 राशिचक्र में (?) नक्षत्रों - 25/26/27/28 | का अन्तर्भाव होता है547 संपूर्ण चन्द्र की कलाएँ - 12/14/15/16/ (?) मानी जाती है548 श्रीमद्भागवत में 24 - 10 (पूर्वार्ध)/10 (उत्तरार्ध गुरुओं का वर्णन (?) 11/12। स्कन्ध में है549 कौटिल्य के मतानुसार - कृषि । पशुपालन । वाणिज्य । (?) वैश्यकर्म नहीं है- कुसीद (साहुकारी) 550 धर्मशास्त्र में (?) प्रकार - सवर्ण । अनुलोम । प्रतिलोम के विवाह का विचार विधर्मीय। नहीं है551 धर्मशास्त्र के अनुसार - ब्राह्मण । क्षत्रिय । वैश्य । राजाप्रासाद के परिसर में शूद्र। (?) वर्ण के लोग अल्पसंख्या में हो552 श्रीकृष्ण का रुक्मिणी से - ब्राह्म। गांधर्व । प्राजापत्य । विवाह (?) विधि से राक्षस । हुआ था। 553 (?) का विवाह स्वयंवर - नल-दमयंती। सत्यवान्पद्धति से नही हुआ था- सावित्री । राम-सीता। अज-इन्दुमती। 554 पौराणिक वैष्णव - पांचरात्र । सात्वत । एकान्ती। संप्रदायों में (?) अंतर्भूत कारुणिक। नहीं है555 चित्रकला एवं पाककला - विष्णु/विष्णुधर्मोत्तर/ विषयक विवरण केवल शिवधर्मोत्तर/ युगपुराण । (?) पुराण में है556 चौबीस जैन पुराणों में - आदिपुराण । हरिवंशपुराण (?) सर्वाधिक प्रसिद्ध है पद्मपुराण । उत्तरपुराण । 557 आदिपुराण के रचयिता - जिनसेन । गुणभद्र । रविषेण (?) है- पुष्पदन्त । 558 जैन आदिपुराण में (?) - ऋषभदेव ।शान्तनाथ । तीर्थंकर की कथा वर्णित वर्धमान । मल्लिनाथ । 566 आनन्दलहरीस्तोत्र पर - 15/20/25/35। (?)से अधिक टीकाएँ है 567 आपस्तंब-कल्पसूत्र के - 24 वे/ 27 वे/ 28-29 वे/ (?) प्रश्नभाग को शुल्ब 30 वे। सूत्र कहते है568 आपस्तंब कल्पसूत्र के - 21-22 1 23-24 1 26-27। (?) दो प्रश्न भाग 28-291 धर्मसूत्र कहलाते है569 आपस्तंब कल्पसूत्र के - 1 से 24/25-26/27/ कुल 30 प्रश्नों में (?) 28-291 प्रश्नभाग श्रौतसूत्र कहलाता है570 आपस्तंब कल्पसूत्र - वाजसनेयी । तैत्तिरीय। (?) वेदशाखा से शाकल । बाष्कल। संबंधित है571 यज्ञविधि के लिए - 2/4/6/81 (?) ऋत्विजों की आवश्यकता होती है572 ऋग्वेद से संबंधित - होता। अध्वर्यु । उद्गाता। ऋत्विक् को (?) कहते है- ब्रह्मा। 573 वैदिक ब्राह्मण ग्रंथों में - निरुक्त । आरण्यक । (?) का अन्तर्भाव नहीं - उपनिषद् । संहिता। होता574 'सर्वज्ञानमयो हि सः'- - मनु । सायण । दयानंद । संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी । 10 For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह वेद की प्रशंसा याज्ञवल्क्य। (?) ने की है575 अरेबियन् नाइटस् का - जगबंधु । विश्वबंधु । संस्कृत अनुवाद (आरज्य कृष्णशास्त्री चिपळणकर। यामिनी) (?) ने गुंडेराव हरकारे। किया है576 ज्योतिषशास्त्र के विश्व- - आर्यभट्टप्रकाश। विख्यात ग्रंथ आर्यभटीय आर्यसिद्धान्त। का अपरनाम (?) था आर्यसद्भाव । ग्रहलाघव । 577 हालकविकृत प्राकृत - गोवर्धनाचार्य । विश्वेश्वर 'सत्तसई' काव्य का प्रथम पाण्डेय । राम वारियर । संस्कृत रूपांतर (आर्या अनन्तशर्मा । सप्तशती) (?) ने किया 578 आर्षेय ब्राह्मण (?) - ऋकू । यजुस्। साम। वेद से संबंधित है- अथर्वांगिरस्। 579 ऋग्वेद की (?) शाखा - आश्वलायन । शाखायन । की संहिता उपलब्ध है- माण्डूकेय । शाकल। 580 इन्दुदूत काव्य में (?) - शृंगारिक । नैतिक ।प्राकृतिक विषय की प्रधानता है- तात्त्विक। बताया है589 उज्ज्वलनीलकमणिकार - पुत्र । भातृपुत्र । शिष्य। रूप गोस्वामी के जीव मित्र । गोस्वामी (?) थे590 नाट्यशास्त्र के - दक्षिण । शठ। अनुकूल। अनुसार (?) नायक का खल। प्रकार नहीं है591 नाट्यशास्त्र के अनुसार - स्वीया । परकीया। (?) नायिका का प्रकार साधारणी। खण्डिता। नहीं है 581 इन्दुमतीपरिणय नामक - कोल्हापूर । सातारा । तंजौर । यक्षगानात्मक नाटक के रायगड । रचयिता शिवाजी (?) के नरेश थे582 इन्दुमतीपरिणय के - 16/17/18/19। लेखक शिवाजी महाराज (?) शती में हुए 583 आस्तिक दर्शनों के प्रणेता - गौतम । कणाद । कपिल। ओं मे (?) माने नहीं शंकराचार्य। जाते 584 आस्तिक दर्शनों के - पाणिनि । ईश्वरकृष्ण । प्रणेताओं में (?) माने जैमिनि । आत्माराम । जाते है585 शुक्ल यजुर्वेद की - ईश तैत्तिरीय/छान्दोग्य/ वाजसनेयी संहिता का ऐतरेय । 40 वा अध्याय (?) उपनिषद् है586 ईशावास्योपनिषद् की - 16/18/20/24। कुल मंत्रसंख्या (?) है587 काश्मीरी शैव संप्रदाय का- ईश्वरसंहिता । ईश्वरस्वरूपम्। सुप्रसिद्ध ग्रन्थ (?) है- ईश्वरप्रत्यभिज्ञा ।ईश्वरदर्शनम् 588 शैवागम के अनुसार 60 - उग्ररथ । भीमरथ । दशरथ । वर्षों की आयु पूर्ण होने सुरथ । पर (?) शान्तिविधि 592 सर्पसत्र करनेवाले - अभिमन्यु । उत्तर । परीक्षित जनमेजय महाराज (?) आस्तिक। के पुत्र थे593 जैन मान्यता के अनुसार - महायोगी। महाराजा। प्रत्येक तीर्थंकर पूर्वजन्म महापंडित । महावीर । में (?) थे594 जैन मतानुसार श्रीकृष्ण - मित्र । बन्धु । शिष्य । को, तीर्थंकर नेमिनाथ प्रतिस्पर्धी । का (?) माना जाता है595 जैन संप्रदाय के 24 - जिनसेन । गुणभद्र । पुराणों में ज्ञानकोष माना सकलकीर्ति । रविषेण गया उत्तर पुराण (?) द्वारा लिखा गया596 समुद्रपर्यटन के कारण - उध्दारकोश । उध्दारचन्द्रिका परधर्म में प्रवेशित हिंदुओं देवलस्मृति । सत्यव्रतस्मृति का स्वधर्म में प्रवेश (?) ग्रंथ में प्रतिपादित है597 उद्धारचन्द्रिका के लेखक - काशीचन्द्र । दक्षिणामूर्ति । देवल । शंख। 598 सामवेद की कौथुम - यास्क । पाणिनि । शाखा के, ऋक्तंत्र शाकटायन । शाकल्य नामक प्रातिशाख्य के लेखक (?) है599 ऋग्वेद के आठ अष्टकों - 48/56/64/72 । में कुल अध्यायों की संख्या (?) है600 अष्टक व्यवस्था के - 5/6/7/8/ अनुसार ऋग्वेद के 64 अध्यायों में, कुल वर्गसंख्या दो सहस्रसे (?) अधिक है601 ऋग्वेद के नौवे मण्डल - उषा । सोम । वरुण । अग्नि । के सारे सूक्तोंमें (?) 20 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकमात्र देवता की स्तुति 602 मण्डल व्यवस्था के - 14/15/16/17। अनुसार ऋग्वेद में 1 सहस्र से (?) अधिक सूक्त है603 ऋग्वेद की कुल शब्द - 25/26/26/28 | संख्या 1 लक्ष, 53 हजार, आठसौ से (?) अधिक 615 कठोपनिषद (?) वेद से - ऋक् । शुक्लयजुस्। संबंधित है कृष्णयजुस्।अथर्वागिरस्। 616 कठोपनिषद् कृष्णयजुर्वेद - आपस्तम्ब । हिरण्यकेशी। की (?) शाखा से काठक। कपिष्ठल-कठ। संबंधित है617 कठोपनिषद् के रथरूपक - घोडे । रथ । सारथि । रथी। में बुद्धि (?) है618 कथासरित्सागर के - काश्मीर । कामरूप। लेखक सोमदेव (?) के कर्णाटक । केरल। निवासी थे619 कथासरित्सागर में (?)- 114/124/134/1441 तरंग है 604 ऋग्वेद की कुल - 30/31/32/33 | अक्षरसंख्या 4 लक्ष से (?) अधिक हजार है605 ऋग्वेद के सूक्त, ऋचाएँ, - कात्यायन । सायण । शब्दों एवं अक्षरों की वेदव्यास । पैल। गणना (?) ने की606 ऋग्वेद के दार्शनिक सूक्तों - नासदीय । पुरुष । हिरण्यगर्भ में (?) सूक्त का - उषा। अन्तर्भाव नहीं होता607 नागार्जुनकृत एकालोक - तिब्बती । चीनी । जापानी। शास्त्र (?) अनुवाद से सिंहिली। संस्कृत में पुनः अनुवादित हुआ608 ऐतरेय आरण्यक के - महिदास । आश्वलायन । संकलकों में (?) नहीं है शौनक । शाकल। 609 ऐतरेय आरण्यक का - मैक्समूलर । कीथ । अंग्रेजी अनुवाद (?) मेक्डोनेल । राजेन्द्रलाल द्वारा आक्सफोर्ड में मित्र। प्रकाशित हुआ610 ऐतरेय आरण्यक (?) - ऋक् । यजुस्। साम । अथर्व . वेद से संबधित है611 'प्रज्ञानं ब्रह्म' (?) - मुण्ड । माण्डुक्य । तैतिरीय । उपनिषद् का महावाक्य है ऐतरेय ।। 612 चारलु भाष्यकार कृत - 5/7/64/128। कंकणबन्धरामायण के एक मात्र श्लोक से (?) अर्थ निकलते है613 कंकालमालिनीतंत्र का - पूर्व । पश्चिम । दक्षिण। तंत्रशास्त्र के (?) उत्तर। आम्नाय में अन्तर्भाव होता 620 ऋग्वेद के कथासूक्तों में - मत्स्य । कूर्म । वामन। (?) विष्णु-अवतार की नरसिंह । कथा आयी है621 कपिलगीता के वक्ता - पिता । माता । पुत्र । मित्र । कपिल ने (?) को उपदेश दिया622 कपिलगीता (?) ग्रंथ के- रामायण । भागवत । अन्तर्गत है महाभारत । हरिवंश। 623 स्वातंत्र्यवीर सावरकर के - ग.बा.पळसुले। सुप्रसिद्ध कमलाकाव्य श्री.भि.वेलणकर । श्री.भा. का अनुवाद (?) वर्णेकर । व.त्र्यं.शेवडे। किया है624 तिलकयशोर्णव के - पंजाब । बिहार । मध्यप्रदेश लेखक लोकनायकबापूजी उत्तरप्रदेश। अणे (?) प्रांत के राज्यपाल थे625 गाधी सूक्तिमुक्तावली के - शिक्षा । गृह । अर्थ । संरक्षण लेखक श्री. चिंतामणराव देशमुख केन्द्रशासन में (?) विभाग के मंत्री थे626 चिन्तामणराव देशमुख ने - संस्कृत । अंग्रेजी। हिंदी। अमरकोश की व्याख्या मराठी। (?) भाषा में लिखी है627 संस्कृत भाषा के संघटित - बापूजी अणे । काकासाहेब प्रचार का प्रयास गाडगीळ । कन्हैयालाल करनेवाले राज्यपाल (?) मुनशी। थे पट्टाभिसीतारामय्या। 628 अंग्रेजी शासन कालमें - आर्यसमाज । रामकृष्ण संस्कृत प्रचार का आश्रम । राष्ट्रीय स्वयंसेवक सर्वाधिक कार्य (?) संघ । अरविंद आश्रम। संस्थाने किया629 अमरकोश के अनुसार - 12/16/18/20 । 614 यमराज द्वारा नचिकेत - ईश/केन/ कठ/ प्रश्न । को ब्रह्मविद्या का निरूपण (?) उपनिषद में है संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 21 For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हरिशब्द के (?) अर्थ होते है 630 अमरकोश के अनुसार 'योग' शब्द के (?) अर्थ होते है 631 अमरकोश के अनुसार गोशब्द (?) अर्थो में प्रयुक्त होता है 632 पंचाग पुस्तकों में संवत्सरफल जिस 'कल्पलता' ग्रंथ से उद्धृत किया जाता है, उसके रचयिता (?) है633 कृष्ण यजुर्वेद की काठक संहिता का प्रथम प्रकाशन (?) ने किया 635 कातंत्र व्याकरण के लेखक (2) माते है - 640 कविचन्द्र कृत कुमारहरण (?) प्रकार का नाटक है 641 जयशंकर प्रसादकृत सुप्रसिद्ध कामायनी महाकाव्य के अनुवादक (?) 642 तंत्रशास्त्र के लेखक (?) नहीं है 634 चालकसंहिता में कुलमंत्र - 15/17/18/19 ! संख्या (?) हजार है 643 कालीकुलार्णवतंत्र में भैरव को (?) कहा है 22 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी - 2/4/5/71 636 गुप्तकालीन बौध्द समाज - कातंत्र । पाणिनीय। चान्द्र । सारस्वत । में (?) व्याकरण का अधिक प्रचार था 637 कात्यायन श्रौतसूत्र (?) वेद से संबंधित है638 श्रीशंकराचार्यका तत्त्वज्ञान (?) वाद पर अधिष्ठित है - 10/11/12/13 1 - शंकर मिश्र । सोमदैवज्ञ । रामदेव । नृसिंहशास्त्री । पं. सातवळेकर। श्रोडर । मैक्समूलर एफ. डब्ल्यू. थॉमस 639 हरिदास सिध्दान्तवागीशने 15 16 17 18 | कंसवध नाटक लिखा तब उनकी आयु (?) वर्ष थी 1/2/3/41 www.kobatirth.org ऋक् । शुक्ल यजुस् । कृष्ण यजुस् । साम । परिणामवाद । विवर्तवाद । विकारवाद | आरंभवाद । कूडियट्टम् । आंकियानाट। कीर्तनिया । आटभागवतम् भगवद्दत्त। रेवाप्रसाद द्विवेदी पांडुरंगराव रसिकबिहारी जोशी । अभिनवगुप्तपाद विमलबोधपाद । प्रेमनिधि पन्त । गागाभट्ट काशीकर । विश्वनाथ | वीरनाथ 1 क्षेत्रपाल । कालरुद्र | 644 तंत्रशास्त्र में निर्दिष्ट (?) भाव नहीं है 645 भगवद्गीता के (2) अध्याय को एकाध्यायी गीता कहते है 646 समस्यापूर्तिकाही प्रकाशन करनेवाली मासिकपत्रिका काव्यकादम्बिनी (?) से प्रकाशित होती थी647 भङ्गतीत अभिनव गुप्ताचार्य के (?) थे648 भट्टतौत (?) रस को सर्वश्रेष्ठ मानते थे649 औचित्यविचार चर्चा के लेखक (?) थे 650 वामनाचार्य झळकीकर ने अपनी काव्यप्रकाशटीका बालबोधिनी में (?) टीकाकारों के सन्दर्भ उत किए है 651 काव्यप्रकाशपर (2) से अधिक टीकाएँ लिखी गयी 652 काव्यप्रकाशकी सर्वप्रथम टीका संकेत के लेखक (?) थे 657 मीमांसा शास्त्र के 'अधिकरण' में (?) अंग होते है658 काव्यमीमांसा ग्रंथ के लेखक राजशेखर (?) के निवासी थे659 काव्यमीमांसा ग्रंथ के (?) अध्याय आज उपलब्ध है 660 विद्यास्थानों के अन्तर्गत (?) की गणना नहीं होती For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वीरभाव। दिव्यभाव । पशुभाव । व्यभिचारीभाव 2/12/15/18 1 बडोदा । इन्दौर। ग्वालियर । जोधपुर। शिष्य गुरु श्वशुर। मामा। 1 भक्ति। शांत करुण । अद्भुत । हेमचन्द्र । क्षेमेन्द्र | माणिक्यचंद्र । देवनाथ तर्कपंचानन । 45/46/47/ 48 1 75/80/ 85/100! माणिक्यचंद्र सोमेश्वर । सरस्वतीतीर्थ । श्रीवत्सलांछन 3/4/5/61 वत्सगुल्म / प्रतिष्ठान । अचलपुर। कुष्ठिनपुर। 15/18/20/25 1 661 चार विद्याओं में (?) की आन्वीक्षिकी। वार्ता । गणना नहीं होती 662 यज्ञ के पंच अग्नि में (?) नहीं माना जाता 4 वेद। 7 वेदांग 18 पुराण 2 मीमांसा / दण्डनीति | साहित्यविद्या । दक्षिणाग्नि । गार्हपत्य । आहवनीय। वडवाग्नि । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभाजन (?) पदों में होता है676 व्याकरणशास्त्र में - वामन । जयादित्य। 'न्यासकार' उपाधि से जिनेन्द्रबुद्धि । कात्यायन । (?) प्रसिद्ध है677 भारतीय शिल्पशास्त्र की - 16/18/20/22 । (?) संहिताएँ विदित है678 काश्यपशिल्पम् नामक - आनंदाश्रम संस्कृत प्रथम शिल्पसंहिता का ग्रंथावली। निर्णयसागर प्रकाशन (?) ने किया- प्रकाशन । भाण्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान। हिंदुधर्मसंस्कृतिमंदिर। 679 आगमशास्त्र के अन्तर्गत - 14/16/18/20 रुद्रागमों की संख्या (?) 663 शास्त्रोक्त तीन ऋणों में - देवऋण । ऋषिऋण। (?) ऋण नही माना पितृऋण । समाजऋण। जाता664 राजशेखर ने कवि का - शास्त्रकवि । काव्यकवि । (?) नामक प्रकार नहीं उभयकवि । महाकवि माना 665 राजशेखर की काव्य- - रेवाप्रसाद द्विवेदी। मीमांसा पर आधुनिक नारायणशास्त्री खिस्ते। कालमें (?) ने टीका रामचन्द्र आठवले। लिखी है बदरीनाथ शुक्ल। 666 दण्डीके काव्यादर्शका - बोथलिंक । वेबर । जर्मन अनुवाद (?) ने याकोबी । विंटरनिटझ् किया667 वाग्भटकत काव्यान - 161141201301 शासन में (?) प्रकार के काव्यदोष वर्णित है668 काव्यशास्त्र का स्वतंत्ररूप- रुद्रट । भामह ।दण्डी। से विचार करनेवाला वाग्भट । प्रथम ग्रंथकार (?) है669 काव्यालंकार के लेखक - महाकाव्य । महाकथा। रुद्रट के अनुसार प्रबंध- आख्यायिका । चम्पू। काव्य के अन्तर्गत (?) नहीं आता670 काव्यालंकारसारसंग्रहकार- ललितापीड । जयापीड । उद्भट (?) काश्मीर- अवंतिवर्मा । प्रवरसेन नरेश के आश्रित थे671 साहित्यशास्त्र का सूत्रबद्ध - काव्यसूत्रसंहिता । काव्येन्दु प्रथम ग्रंथ है वामनकृत प्रकाश । काव्यालंकार (?) सूत्रवृत्ति । काव्यालंकार संग्रह। 672 साहित्यशास्त्रमें रीति - वैदर्भी। गौडी । लाटी। संप्रदाय के प्रवर्तक वामन पांचाली। ने (?) रीति नहीं मानी673 अर्वाचीन पद्धतिसे काव्य - ब्रह्मानंद शर्मकृत काव्यतत्त्वा शास्त्र की आलोचना(?) लोक । रेवाप्रसाद द्विवेदीकृत ग्रंथ में नहीं है काव्यालंकारकारिका। गुलाबराव महाराजकृत काव्यसूत्र संहिता। मानवल्ली गंगाधरशास्त्रिकृत काव्यात्मसंशोधन। 674 संस्कृत व्याकरण में - 3/7/9/10। धातुओं का विभाजन (?) गणों में हुआ है675 संस्कृत धातुओं का - 2/3/4/5। 680 उदयनाचार्य कृत - वैशेषिक । न्याय । मीमांसा । किरणावली (?) शास्त्र वेदान्त । का प्रसिद्ध ग्रंथ है681 किरातार्जुनीय महाकाव्य 81181 19168 की सर्गसंख्या (?) है682 "लक्ष्मीपदांक" (?) रघुवंश । किरातार्जुनीय। महाकाव्य को कहते है- शिशुपालवध । नैषधचरित 683 मल्लिनाथ ने (?) - कालिदास । भारवि । महाकवि की वाणी को माघ । श्रीहर्ष नारिकेलफल की उपमा दी है 684 किरातार्जुनीयम् पर लिखी - 35/40/45/50 गई टीकाओं की संख्या (?) से अधिक है685 कुट्टनीमत के लेखक - प्रधानमंत्री । सेनापति । दामोदर गुप्त काश्मीर पुरोहित । मित्र नरेश जयापीड के (?) 686 कुमारसंभव के 17 सर्गो - 7/8/10/12/ में कालिदास रचित सों की संख्या (?) मानी जाती है687 कुमारसंभव के 36 - मल्लिनाथ । कल्लिनाथ। टीकाकारों में (?) नहीं है भरत मल्लिक। अरुणगिरिनाथ। 688 शिवपार्वती के विवाह का - 5/6/7/8 सुंदर वर्णन कुमारसंभव के (?) सर्ग में है संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 23 For Private and Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 689 भारत के (?) प्रादेशिक - मलयालम् । मराठी। भाषा के काव्य का प्रथम तमिळ । अवधी। संस्कृत अनुवाद हुआ690 अप्पय्य दीक्षित के - 120/123/125/127 कुवलयानंद में कुल (?) अलंकारों का विवेचन है691 जयदेवकृत चंद्रालोक से - कुवलयानंद । रसगंगाधर । प्रभावित अलंकारशास्त्र काव्यदर्पण। अलंकारसंग्रह का (?) ग्रंथ है692 लक्ष्यसंगीत के अनुसार - बिलावल । काफी । भैरव । सब से अधिक राग (?) कल्याण । मेल में है693 वेलावली मेल के अंतर्गत- 15/32/18/43 (?) राग है694 मल्लार राग के (?) - 8/10/5/7 प्रकार है695 भातखंडेजी के मतानुसार - 10/12/15/72 कुल मेल (ठाठ) 703 कूर्मपुराण की प्रसिद्ध 4 - ब्राह्मी । भागवती । सौरी। संहिताओं में से (?) वैष्णवी। संहिता उपलब्ध है704 व्यासगीता (?) पुराण के- अग्नि । नारद । पद्म । अंतर्गत है कूर्म। 705 कृत्यकल्पतरू के लेखक - राजा। सचिव । लक्ष्मीधर कन्नौज राज्य न्यायाधीश । पुरोहित में (?) थे706 चौदह काण्डों के कृत्य- - 71 121 14121 । कल्पतरू में राजधर्मकाण्ड की अध्यायसंख्या 696 संगीत शब्द के अन्तर्गत - गीत । वाद्य । अभिनय । (?) कला का अंतर्भाव नृत्य। नहीं माना गया है697 हिंदुस्थानी पद्धति के - वादी । विवादी। संवादी। राग में (?) प्रकार के प्रतिवादी। स्वर नहीं होते698 शुध्द स्वरों के सप्तक को - तार । मध्यम । मंद्र। (?) सप्तक कहते है- बिलावल। 699 संगीत के सप्तक में - 5/7/8/12 रागोपयोगी स्वरों की कुल संख्या (?) मानी है700 राग की मुख्य जाति - 3/9/72/484 (?) प्रकार की होती है701 उत्तरी संगीत में सबसे - षाडव-षाडव/ औडुव अधिक राग (?) षाडव/ औडुव-औडुव/ जाति के होते है- संपूर्ण-औडुव 707 राजनीति शास्त्र के 3/6/7/8 अनुसार राज्य के (?) अंग होते है708 राजा की तीन शक्तियों में - प्रभु. । मन्त्र. । उत्साह. । (?) शक्ति नहीं मानी यन्त्र. । 709 कृषिपराशर ग्रंथ (?) - 6/7/8/9 शताब्दी का माना गया है 710 संगीतरत्नाकर में गायक - 22 1 23 1 24 125 1 के दोष (?) बताए है711 अभिनव रागमंजरीकार ने - 72, 100, 125/2001 (?) रागों का परिचय दिया है712 प्राचीन श्रुति-स्वर व्यवस्था- छन्दोवती ।रक्तिका । क्रोधी/ के अनुसार षड्जस्वर मार्जनी। (?) श्रुति पर स्थित होताहै 713 आधुनिक श्रुतिस्वर - उग्रा/ मदती/ क्षिति/ व्यवस्था के अनुसार वज्रिका पंचमस्वर (?) श्रुतिपर स्थित होता है714 संगीतरत्नाकर में - 25/28/30/ 32 | वाग्गेयकार के (?) गुण बताए है715 कृष्ण यजुर्वेद के प्रथम - पैल/ सुमन्तु/जैमिनि/ आचार्य (?) है- वैशम्पायन । 716 पांतजल महाभाष्य के - 86/96/100/101 । अनुसार यजुर्वेदकी (?) शाखाएँ थी717 कृष्ण यजुर्वेद की लुप्त - श्वेताश्वतर/ कौण्डिण्य/ शाखाओंमें (?) शाखा काठक/ अग्निवेश। नहीं है718 नारायणतीर्थकृत कृष्ण- - 12/24/36/48 । लीला तरंगिणी में (?) 701 कल्याणरक्षित के ईश्वर - कुसुमांजलि।किरणावली। भंगकारिका का खंडन न्यायमंजरी। उदयनाचार्य ने (?) ग्रंथ तात्पर्यपरिशुद्धि । द्वारा किया702 कूर्मपुराण की विद्यमान - 17/18/617 संहिता में? श्लोकसंख्या (?) सहस्र है 24 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाक्षिणात्य रागों का निर्देश है719 उमा हैमवती का आख्यान- ईश । केन। कठ। मुण्ड। (?) उपनिषद् में आता है 720 कोकिलसंदेश के रचयिता- काश्मीरनरेश जयापीड/ उद्दण्डकवि (?) के कालिकतनरेश जामोरीन सभापंडित थे- तंजौरनरेश सरफोजी/ छत्रपति शिवाजी महाराज। 721 कोसलभोसलीयम् संधान - एकोजी/शाहजी/ शिवाजी/ काव्य में रामचरित्र के सरफोजी। साथ भोसलवंशीय (?) राजा का चरित्र वर्णित है 722 कौटिलीय अर्थशास्त्र - 17/18/19/20/ शताब्दी के प्रारंभ में प्राप्त हुआ723 कौटिल्यने अपने पूर्व- - 17/18/19/20। कालीन आचार्यों का उल्लेख किया है724 कौटिलीय अर्थशास्त्र - 14/15/16/171 (?) अधिकरणों में विभक्त है725 कौटिलीय अर्थशास्त्र - 100/125/150/1751 (?) अध्यायोंमें विभाजित है726 चाणक्यसूत्रों की कुल - 180/660/571/ संख्या (?) है- 60001 727 'भिक्षुगीता' - 7वे/9वे/11 वे/12 वे। श्रीमद्भागवत के (?) स्कन्ध में है728 सामवेद की शाखा - कौथुम/राणायनीय/ (?) नहीं है जैमिनीय/ तैत्तिरीय/ 729 सामवेद की कौथुम - केरल/ महाराष्ट्र! शाखा का प्रचार गुजराथ/ कर्णाटक। (?) में है730 (?) उपनिषद् सामवेद - छांदोग्य/ केन/ से संबधित नहीं है- तलवकार/ श्वेताश्वतर 731 आगमों की कुल संख्या - 16/32/48/64/ ग्रंथों की संख्या (?) मानी जाती है735 गरुडपुराण में पूर्व-उत्तर - 229/35/200/ 2641 खण्डों की कुल अध्याय संख्या (?) है736 हाल कविकृत गाथा - भट्टमथुरानाथ शास्त्री। सप्तशती का संस्कृत वरकर कृष्णमेनन । अनुवाद (?) किया? शिवदत्त चतुर्वेदी डॉ. रामचंद्रडु 737 त्रैलोक्यमोहन गुह के - राजपूतों की शौर्यगाथा । गीतभारतम् का विषय मराठासाम्राज्य का विस्तार । आंग्लसाम्राज्य/ देशभक्तों का यशोगान । 738 तमिळभाषीय रमणगीता - कपाली शास्त्री । वासिष्ठ के संस्कृत अनुवादक गणपति मुनि । महालिंग (?) थे शास्त्र । डॉ. राघवन्। 739 भगवद्गीता का (?) - 8/10/12/14! अध्याय 'विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध है - 740 भगवद्गीता के (?) - 2/3/4/5/ अध्याय का नाम कर्मयोग है741 भगवद्गीता के 15 वे - विश्वरूपदर्शन/ भक्तियोग/ अध्याय का नाम (?) है गुणत्रयविभागयोग/ पुरुषोत्तमयोग। 742 बौद्धोंके वज्रयान गुह्यकातंत्र/ गुह्यसमाजतंत्र/ संप्रदाय का प्रमाणभूत गुरुतंत्र/ गुह्यार्थादर्श । तांत्रिक ग्रंथ (?) है743 गूढावतार ग्रंथ में भगवान् - चैतन्यप्रभु/ शंकरदेव/ विष्णु का (?) रूपमें ज्ञानेश्वर/ नानकदेव। अवतरण वर्णित है744 अथर्ववेद का एक मात्र - ऐतरेय/ गोपथ/ शतपथ/ विद्यमान ब्राह्मणग्रंथ षड्विंश । 732 शब्दानुशासन के 4 अंगों - धातुपाठ/ गणपाठ/ उणादि में (?) अन्तर्भूत नहीं है- पाठ/ फिट्सूत्र 733 (?) पाठ व्याकरणशास्त्र - जटा/माला/ शिखा/ खिल से संबंधित है734 भगवद्गीता के अनुसार - 15/16/17/18 । लिखित, प्राचीन गीता 745 गोपथ ब्राह्मण का अधिक- कर्णाटक/ महाराष्ट्र/ गुजराथ मात्रा में प्रचार (?) है- राजस्थान । 746 मदन कवि के कृष्णलीला- मेघदूत/ घटकर्पर/ नेमिदूत/ काव्य में (?) काव्य की कृष्णदूत । पंक्तियों की समस्यापूर्ति है 747 भासकृत प्रतिमा नाटक - रामायण, महाभारत/ (?) कथा पर आश्रित है भागवत/ लौकिक । 748 वाल्मीकीय रामायण और - वाराणसी/ शृंगवेरपुर। अध्यात्मरामायण के त्रिवेंद्रम/ मैसूर । टीकाकार रामवर्मा (?) संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 25 For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra के राजा थे749 वाल्मीकिरामायण की सर्वाधिक लोकप्रिय टीका (?) है 750 संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में (?) शतक पाण्डित्य का युग माना जाता है साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः ।।' यह (?) वचन है 752 यूरोप में रामकथा का प्रचार (?) शताब्दी से 751 'साहित्यसंगीतकलाविहीनः । शंकराचार्य / भर्तृहरि / कालिदास / भवभूति ॥ हुआ753 परंपरा के अनुसार भारताख्यान की रचना वेदव्यास ने (?) वर्षो में की 754 महाभारत में उल्लिखित विष्णु के दस अवतारो में (?) की गणना नही होती. रामकथा (?) अध्यायों की है 760 हरिवंश (?) का परिशिष्ट ग्रंथ है761 हरिवंश के तीन पर्वों में - (?) पर्व की गणना नहीं होती 26 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी - मनोहरा / धर्माकृतम् / रामायणतिलक / वाल्मीकि - हृदय । 4-5/7-8/10-11/ 12-14 - 15/16/17/18 I 755 चंद्रगुप्त की राजसभा आये हुए विदेशी राजदूत का नाम (?) था 756 महाभारत के अंतिम पर्व का नाम (?) है757 भीष्मपितामह द्वारा युधिष्ठिर को मोक्षधर्म एवं राजधर्म का उपदेश (2) पर्व में वर्णित है 758 सुप्रसिद्ध शकुन्तलोपाख्यान आदि / वन / स्त्री/ अश्वमेव महाभारत के (?) पर्व में वर्णित है759 वनपर्व में वर्णित 3/5/8/10 1 हंस / नृसिंह / वामन / बुध्द मेगास्थेनिस युवानच्वांग / फाहैन/ सेल्यूकस निकतर / www.kobatirth.org स्वर्गारोहण / महाप्रस्थानिक / मौसल / अनुशासन | भीष्म शान्ति / अनुशासन/ वन । 15/18 20/25 | रामायण / महाभारत / भागवत / विष्णुपुराण । हरिवंश / खिल/ विष्णु / भविष्य । 762 महाभारत की सर्वमान्य टीका का नाम (?) है 763 महाभारत की सर्वमान्य टीका के लेखक (?) थे 764 न पाणिलाभादपरो लाभः कश्चन विद्यते" यह महत्त्वपूर्ण वचन महाभारत के (?) पर्व में है 765 वेदाः प्रतिष्ठिताः सर्वे पुराणे नात्र संशयः "यह वचन (?) उपपुराण का है रमन्ते तत्र देवताः " यह श्रेष्ठ वचन (?) स्मृति में है 766 'श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोक:'- इस वचनद्वारा कालिदास ने (?) का निर्देश किया है767 भारवि को (?) वंशीय राजा का आश्रय प्राप्त था 768 परम्परा के अनुसार कालिदास को (?) महाराजा का आश्रय प्राप्त था 769 "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते 771 व्याकरणशास्त्रकार पाणिनि (?) नगर के निवासी थे 772 रघुवंश महाकाव्य में (?) सर्गो में रामचरित्र का वर्णन है - 773 रघुवंश के अंतिम 19 वे सर्ग में (?) का चरित्र चित्रण किया है - 770 रुद्रदामन् का गिरनार शिलालेख (2) शताब्दी में स्थापित हुआ For Private and Personal Use Only - - - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतभावदीप / भारतोपायप्रकाश / दुर्घटार्थप्रकाशिनी / भारतार्थप्रकाश । चतुर्भुज मिश्र / नीलकण्ठ चतुर्धर देवस्वामी/ नारायणसर्वज्ञ । अश्वमेध / शान्ति / उद्योग/ अनुशासन । नारदीय/ कापिल/ माहेश्वर / पाराशर । वसिष्ठ / वाल्मीकि / राम / अज । चोल / पाण्ड्य / पल्लव/ काकतीय। भोज/ शकारि विक्रमादित्य समुद्रगुप्त कुन्तलेश्वर मनु / याज्ञवल्क्य / पराशर / अत्रि । 1/2/3/41 पुरुषपुर / शालातुर / उज्जयिनी / वलभी। 2/4/6/81 अग्निमित्र / अग्निवर्ण/ पुरुरवा / दुष्यन्त । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 774 (?) ग्रंथ अश्वघोषकृत - वज्रसूची उपनिषद्/ मानने में सन्देह है- बुद्धचरित/ सौन्दरनन्द। शारिपुत्रप्रकरण। 775 बुध्दचरित की सर्गसंख्या - 14/20/25/28/ चीनी तथा तिब्बती अनुवादों के अनुसार (?) है 776 आर्यशूर की जातकमाला - 24/34/44/54 में भगवान बुद्ध के (?) जातकों (पूर्वजन्मों) वर्णन है777 किरातार्जुनीयम् का (?) - 15 वा/16 वा/17 वा/ सर्गचित्रकाव्यमय है- 18 वा।। 778 क्षेमेन्द्र ने (?) वृत्त - उपजाति/ वंशस्थ/ राजनीतिक विषयों के भुजंगप्रयात/ वियोगिनी। वर्णन के लिये अधिक उपयुक्त माना है779 भारवि के कवित्व में - उपमा/ अर्थगौरव/ (?) गुण प्रशंसा के पदलालित्य/ उदारत्व । योग्य माना गया है780 शास्त्रकवियों में (?) - भट्टि/ भट्ट भीम/ धनंजय/ अग्रगण्य कवि है- राजचूडामणि दीक्षित। 781 जानकीहरण के कर्ता - श्रीलंका/तिब्बत/ केरल/ कुमारदास (?) के बंगाल। निवासी थे782 किंवदन्ती के अनुसार - अंध/ बधिर/ पंगु/ मूक। कवि कुमारदास जन्मतः (?) थे783 कालिदास का - काश्मीर/ श्रीलंका/ बंगाल/ समाधिस्थान (?) विदर्भ दिखाया जाता है784 सिंहली परम्परा के - मित्र/ शत्रु/शिष्य/ अनुसार कुमारदास आश्रयदाता। कालिदास के (?) माने जाते है785 प्रवरसेन का सेतुबन्ध - शौरसेनी/महाराष्ट्री/ महाकाव्य (?) प्राकृत पैशाची/मागधी भाषा में रचित है786 शिशुपालवध महाकाव्य - 18/19/20/21। की सर्गसंख्या (?) है787 भोजप्रबन्ध की कथा के - भूतदया/ औदार्य/सत्यनिष्ठा अनुसार माघ कवि (?) वीरता गुण के लिए प्रसिद्ध थे 788 माघकाव्य के प्रथम - मल्लिनाथ/ वल्लभदेव/ टीकाकार (?) थे- एकनाथ/ भरतमल्लिक । 789 सोढ्ढल ने अपनी - वागीश्वर/ अर्थेश्वर/ अवन्तिसुन्दरी कथा में रसेश्वर/ सर्वेश्वर रामचरितकार अभिनन्द की स्तुति (?) उपाधि से की है790 सोढ्ढल की अवन्ति - बाण/ कालिदास/ सुन्दरी कथा में सर्वेश्वर वाक्पतिराज/गौडाभिनन्द उपाधि से (?) को गौरवान्वित किया है791 योगवासिष्ठसार तथा ___ - शक्तिस्वामी/ कल्याणस्वामी/ कादम्बरीकथासार के जयन्तभट्ट/अभिनन्द/ लेखक (?) थे: 792 क्षेमेन्द्र के मतानुसार - वाल्मीकि/ अमरचन्द्रसरि/ अनुष्टुप् छन्द के सर्वोत्तम शातानन्दि अभिनन्द/ रचयिता (?) थे- मंखक 793 शातानन्दि अभिनन्द के - अयोध्या/ अरण्य/ 36 सर्गात्मक रामचरित किष्किन्धा/ सुन्दर । का प्रारंभ (?) काण्ड से होता है794 बालभारत के रचयिता - श्वेताम्बर जैन/ दिगम्बर जैन अमरचन्द्रसूरि (?) थे- वीरशैव/ वीरवैष्णव । 795 बालभारतकार अमरचंद्र - चौलुक्य वीसलदेव। सूरि (?) के सभाकवि वाकाटक विध्यशक्ति/ थे काश्मीराधिपति ललितादित्य पालवंशीय हारवर्ष । 796 माघ तथा अमरचंद्र ने - हरिणी/मालिनी/ रथोध्दता एकादश सर्गमें प्रभात दोधक। वर्णन (?) वृत्त में किया है 797 हयग्रीववध काव्य के - मातृगुप्त/भर्तृमेण्ठ/कल्हण/ रचयिता (?) थे- विल्हण। 798 भर्तमेण्ठ के आश्रयदाता - काश्मीर/ उज्जयिनी/ मातृगुप्त (?) के नेपाल/कलिंग। अल्पकाल तक अधिपति - भर्तृमेण्ठ/ भवभूति/ राजशेखर/मुरारि । 799 वाल्मीकि के अवतार माने गये कवियों में (?) की गणना नहीं होती 800 हरविजयकार रत्नाकर के आश्रयदाता चिप्पट जयापीड (?) के - काश्मीर/ राजस्थान/ विदर्भ/ कामरूप। संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 27 For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अधिपति थे 801 चिप्पटजयापीड (?) उपाधि से सम्मानित थे 802 (?) रत्नाकर कवि की रचना नहीं है 803 दीपशिखा, छत्र, घण्टा इन उपमा के कारण (?) कवि को उपाधि प्राप्त नहीं हुई 804 "कांस्यताल" की उपमा के कारण (?) कवि को उपाधि प्राप्त हुई805 रत्नाकर के हरविजय की - चार सहस्र से (?) अधिक है - - 808 प्रत्यभिज्ञादर्शन (?) प्रदेश की देन है809 पचास सर्गो के हरविजय में (?) सर्ग साहित्य शास्त्रोक्त विषयों के वर्णनों में भरे है 810 फणाभ्युदय कार शिवस्वामी (?) मत के अनुयायी थे 811 कफिणाभ्युदयकाव्य को (?) कहते है 812 शारदादेश (?) प्रदेश का अन्यनाम है813 क्षेमेन्द्र की सर्गसंख्या (?) है 806 हरविजय महाकाव्य का विषय शिवजी द्वारा ( ? ) असुर का वध है 807 हरविजय की श्लोकसंख्य- 121/ 221/ 321/421 - वाग्देवतावतार/ बालबृहस्पति सरस्वती कण्ठाभरण/ वाग्गेयकार बोधिसत्वावदान कल्पलता बौद्धों के (?) पंथ में आदत है 814 भगवान बुध्द की पूर्वजन्ममें प्राप्त पारमिताओं की कथाएँ (?) ग्रंथ में वर्णित है 28 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी हरविजय / वक्रोक्तिपंचाशिका ध्वनिगाथापंजिका/ अर्धनारीश्वरस्तोत्र । कालिदास / भारवि / माघ / रत्नाकर मुक्ताकण/ शिवस्वामी/ आनंदवर्धन / रत्नाकर । 20/36/44/ 50/ अंधक / तारक / त्रिपुर/ सिन्धुर केरल / कामरूप / काश्मीर / नेपाल 5/10/15/201 www.kobatirth.org शैव / माध्यमिक/ शाक्त/ योगाचार | यंक/ शिवांक / वीरांक/ लक्ष्मीपदांक । सौराष्ट्र / कलिंग / काश्मीर / वंग महायान / हीनयान / योगाचार / सहजिय । बुध्दचरित/ जातकमाला / बोधिसत्त्वावदानकल्पलता वरुनयशतक 815 क्षेमेन्द्रविरचित काव्यों में (?) नहीं है 816 संस्कृत साहित्य में हास्य के सर्वश्रेष्ठ लेखक (?) माने जाते है 817 मंखक के श्रीकण्ठचरित का विषय शंकर द्वारा (?) का संहार 818 मंखक के गुरू (?) थे 819 मंखक के आश्रयदाता काश्मीर नरेश (?) थे 820 25 सर्गों के श्रीकण्ठ चरित में (2) सर्ग वर्णनपरक है 821 श्रीहर्ष के खण्डनखण्ड खाद्य के खण्डन का विषय (?) नहीं है 822 श्रीहर्ष के आश्रयदाता जयचंद्र (?) के अधिपति थे 823 नैषधीयचरित के बाईस सर्गों की श्लोकसंख्या अठ्ठाइस सौ से (?) अधिक है 824 खण्डनखण्डकार श्रीहर्ष (?) वादी दार्शनिक थे825 नैषधीय चरित में - 827 नरनारायणानन्द काव्य का विषय (?) है 828 नरनारायणानन्दकार वस्तुपाल (?) संप्रदायी थे 829 नरनारायणानन्दकार - - For Private and Personal Use Only दमयन्ती स्वयंवर का वर्णन (?) सर्गो में किया है - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रामायणमंजरी/ भारतमंजरी/ भागवतव्यंजन/ यूहकधामंजरी। भास / शूद्रक / क्षेमेन्द्र/ दामोदरगुप्त / त्रिपुरासुर / दक्ष यज्ञ तारकासुर / अंधकासुर रुय्यक / रुद्रट/ अल्लट मम्मट जयसिंह / जयादित्य / ललितादित्य / अवान्तिवर्मा 9/10/11/12 826 नरनारायणानन्द महाकाव्य- जामात/ मन्त्री/ सेनापति/ श्वशुर । के रचयिता वस्तुपाल चौलुक्यवंशी राजा वीरधवल के (?) थे न्यायकुसुमांजलि/ तात्पर्यपरिशुद्धि / बौध्दधिकार तन्त्रालोक कान्यकुब्ध/ स्थाण्वीश्वर / पाटलीपुत्र / जयपुर 20/25/30/40 1 द्वैत/ अद्वैत/ द्वैताद्वैत/ भेदाभेद । 2/3/4/5 अर्जुन सुभद्राविवाह/ कृष्ण-अर्जुन मैत्री भारतकथा / भागवत कथा वैष्णव व जैन बौद्ध बागदेवतासुत/ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (?) वे तीर्थंकर थे। . 844 वाग्भट (प्रथम) विरचित- पितृव्य/ पितृश्वसा/ नेमिनिर्वाण काव्य के मातुल/ मातृश्वसा। नायक नेमिकुमार, भगवान् कृष्ण के (?) के पुत्र थे845 अमरचन्द्रकृत पद्यानंद - प्रथम/ द्वितीय/ तृतीय/ महाकाव्य के नायक चतुर्थ । ऋषभदेव (?) तीर्थंकर थे846 जिनप्रभसूरि के श्रेणिक - शाकटायन/ जिनेन्द्र/ चरित में (?) व्याकरण कातंत्र/ माहेश्वर । के प्रयोग प्रदर्शित है वस्तुपाल की उपाधि वाग्देवतावतार/ सरस्वती(?) नहीं है कण्ठाभरण/ वसन्तपाल 830 वेदान्तदेशिक उपाधि - श्रीभाष्यकार रामानुजाचार्य/ के धनी (?) थे- यादवाभ्युदयकार वेंकटनाथ/ पंचदशीकार विद्यारण्य/ नैषधकार श्रीहर्ष 831 जैन विद्वानों में अग्रगण्य - समन्तभद्र/ वीरनन्दी/ संस्कृत कवि (?) माने जटासिंहनन्दी/ जिनसेन जाते है832 चरित्रात्मक काव्य लेखन - 2/5/7/9 की परंपरा जैन संस्कृत साहित्य क्षेत्र में (?) शताब्दी से प्रारंभ हुई833 जैन महाकाव्यों के आधार - आदिपुराण/ उत्तरपुराण/ ग्रंथों में (?) नहीं है- हरिवंश/ भागवत । 834 जैनों के त्रिषष्टिशलाका - बलभद्र/ वासुदेव/ पुरुषों में बारह (?) है- प्रतिवासुदेव/चक्रवर्ती/ 835 31 सर्गी वरांगचरित के - मगध/ कर्णाटक/ लेखक जटासिंहनन्दी सौराष्ट्र/ विदर्भ । (?) प्रदेश के निवासी थे 836 जैनधर्म के शलाकापुरुषों - 12/24/26/63 । की कुल संख्या (?) है837 शान्तिनाथचरित एवं - वादिराज/ असंग/ वीरनंदी/ वर्धमानचरित की रचना जटिल। (?) की है838 अठराह सर्गों के वर्धमान - 4/8/12/16। चरित में (?) सर्गों में उनके पूर्वजन्मों की कथाएँ है839 जैन संप्रदाय के 23 वे - नेमिनाथ/ शान्तिनाथ/ तीर्थकर (?) थे- पार्श्वनाथ/ मल्लिनाथ । 840 पार्श्वनाथ का चरित्र - षट्तर्कषण्मुख/ स्याद्वाद संस्कृत में प्रथम ग्रथित विद्यापति/जगदेक मल्लवादी करनेवाले वादिराज की वादीभसिंह । (?) उपाधि नहीं841 त्रिषष्टिशलाकापुरुष - देवचन्द्र/हेमचन्द्र) चरित की रचना (?) ने माणिक्यचन्द्र/महासेनकवि। की है842 16 वे तीर्थंकर शान्तिनाथ - हेमचन्द्र/ असंग/ का प्रथम संस्कृतचरित्र - मुनि देवसूरि/मुनि भद्रसूरि । (?) ने लिखा843 जीवन्धरचम्पूकार - 12/13/14/15। हरिश्चन्द्रके धर्मशर्माभ्युदय काव्य के नायक धर्मनाथ 847 'दुर्गवृत्तिव्याश्रय'- - जम्बूस्वामिचरित/ नामसे (?) जैन काव्य अभयकुमारचरित/ प्रसिद्ध है श्रेणिकचरित/ जगडूचरित 848 हेमविजयगणि कृत विजय- अकबर/ जहांगिर/ प्रशस्तिकाव्य के नायक शहाजहां/ औरंगजेब । हीरविजयसूरिने (?) बादशाह को जैनधर्म का उपदेश किया था849 सर्वानन्द कवि ने - त्रिवर्षीय दुर्भिक्ष्य/ जगडूचरित काव्यद्वारा सर्वसाधकमणि का लाभ/ (?) ऐतिहासिक तथ्य विदेशों से व्यापार/ का वर्णन किया- विशाल दुर्ग का निर्माण। 850 वादीभसिंह उपाधिसे - क्षत्रचूडामणिकार (?) प्रसिद्ध थे- ओडयदेव/सुदर्शनचरित्रकार सकलकीर्ति/ जैन-कुमारसंभवकार जयशेखरसूरि शत्रुजयमाहात्म्यकार धनेश्वर सूरि/ 851 अमितगतिकृत सुभाषित - 21/32/43/54 । रत्नसन्दोह में (?) नैतिक विषयोंपर श्लोकरचना है852 संस्कृत का प्रथम पद्मगुप्तकृत नवसाहसांक ऐतिहासिक महाकाव्य चरित/ बिल्हणकृत विक्रमांकदेवचरित/ कल्हणकृत राजतरंगिणी/ जयानककृत पृथ्वीराजविजय 853 नवसाहसांकचरित के - राजा मुंज/ नायक (?) थे- मुंज के अनुज सिंधुराज/ मुंज के शत्रु द्वितीय तैलप/ संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 29 For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृत्तान्त वर्णित है सिंधुराज का शत्रु चामुण्डराय सोलंकी। 854 "परिमल' उपाधि के - पद्मगुप्त/ विल्हण/ धनी (?) थे कल्हण/ जयचन्द्रसूरि। 855 (?) बिल्हण की रचना - विक्रमाकदेवचरित/ नहीं है कर्णसुन्दरी (नाटिका) चौरपंचाशिका (गीतिकाव्य) वेतालपंचविंशति। 856 बिल्हणकृत महाकाव्य के- काश्मीर/ चोलदेश/ चालुक्यवंशी नायक कर्नाटक/ गुर्जर । (?) के अधिपति थे857 कल्हण की राजतरंगिणी - 4/5/6/7 में काश्मीर का (?) सदियों का इतिहास वर्णित है858 राजतरंगिणी में प्रथम - 9/10/11/12 वर्णित ऐतिहासिक घटना (?) शताब्दी की है859 राजतरंगिणी का प्रमुख - वीर/ शृंगार/ शान्त/ रस (?) है करुण। 860 कल्हण की राजतरंगिणी - जोनराज/ श्रीधर/ प्राज्यभट्ट। के अग्रिम संस्करणकर्ता- मंखक । ओं में (?) नहीं है861 राजतरंगिणी का प्रथम - अकबर/जैन उल् आबिदीन फारशी अनुवाद (?) ने जहांगीर/ अल् बदाऊनी। करवाया862 हेमचन्द्रसूरिकृत - हैमनाममाला/ अनेकार्थसंग्रह कोशग्रन्थों में (?) निघण्टुकोश/ भुवनकोश । कोश नहीं है863 'कलिकालसर्वज्ञ' - 5/7/9/101 हेमचंद्रसूरि को (?) वे वर्ष की आयु में जैनदीक्षा दी गई864 हेमचंद्रकृत कुमारपालचरित- भट्टिकाव्य/ राजतरंगिणी/ प्रधानतया (?) के विक्रमांकदेवचरित/ समकक्ष माना जाता है- हम्मीरमहाकाव्य । 865 कुमारपालचरित में - सोलंकी/चौलुक्य/ गुजरात के (?) वंशीय परमार/ वाघेला । राजाओं का इतिहास वर्णित है866 नयचन्द्र सूरिकृत - 30/35/38/401 हम्मीर महाकाव्य में चौहान वंश की (?) पीढियों का ऐतिहासिक 867 हम्मीरमहाकाव्य के नायक- प्रबल शत्रुसेना/विश्वासघात का अल्लाउद्दीन खिलजी अन्न का अभाव/ सेनापति द्वारा पराभव (?) कारण का वध। हुआ868 (?) राजस्थान के - सुरजनचरित/हम्मीरमहाकाव्य इतिहास से संबंधित नवसाहसांकचरित/ महाकाव्य नहीं है- पृथ्वीराजविजय। 869 गउडवहो (गौडवध) - प्रवरसेन/ वाक्पतिराज/ नामक प्राकृत महाकाव्य हाल/गुणाढ्य । के रचयिता (?) थे870 वाक्पतिराज के - कन्नौज/ काश्मीर/ मगध/ आश्रयदाता यशोवर्मा मन्दसोर। (?) के अधिपति थे871 विख्यात कवयित्री - मम्मट/ मुकुलभट्ट/ धनिक/ विज्जका के श्लोक का जगन्नाथ/ उदाहरण (?) ने नहीं दिया872 जिनके लगभग डेढ़सौ - 80/70/50/401 पद्य उपलब्ध हए है, ऐसी प्राचीन संस्कृत कवयित्रियों की संख्या लगभग (?) है873 (?) दक्षिणभारत की - रामभद्रांबा/ तिरुमलांबा/ कवयित्री नहीं है- विजया/ शीलाभट्टारिका 874 (?) उत्तरभारत की . बिकटनितंबा/ देवकुमारिका/ कवयित्री नहीं है- मधुरवाणी/नलिनी शुक्ला । 875 रामभद्रांबा के रघुनाथा- - तंजौर/ वरंगळ/ भ्युदय महाकाव्य के विजयनगर/ मदुरै। नायक (?) के अधिपति 876 विदेशीय महापुरुषों में - लेनिन/ ईसा मसीह/ (?) संस्कृत काव्य का मॅक्समूलर/ महंमद पैगंबर विषय नहीं हुए877 कवयित्री (?) - रामभद्राम्बा/ तिरुमलांबा/ विजयनगर साम्राज्य गंगादेवी/देवकुमारिका । की महारानी थी 878 गंगादेवी कृत वीर- - 5/8/12/131 कम्परायचरित्र के (?) सर्ग उपलब्ध है879 जैन काव्यों का प्रमुख - रसोद्दीपन/ तत्त्वबोध/ अंग (?) था प्रकृतिचित्रण/ व्यक्तिदर्शन । 880 डॉ. लुडविक स्टर्नबाख ने - नीतिकाव्य/ अन्योक्तिकाव्य 30 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मुखतः (?) विषय का अनुशीलन किया 881 चाणक्य राजनीतिशास्त्र का संपूर्ण अनुवाद सर्वप्रथम (?) भाषा में एकसहस्त्र से अधिक (?) है 883 कुहनीमतकार दामोदर गुप्त काश्मीर नरेश जयादित्य के (?) थे 884 संस्कृत काव्य जगत् में वैशिष्ट्यपूर्ण काव्यप्रवृत्ति के प्रवर्तक मानने योग्य योग्य (?) कवि है885 समाजजीवन की सदोषता ही अपने कवित्व का विषय करनेवाले अग्रगण्य कवि (?) है886 क्षेमेन्द्र के आठ काव्यों में सबसे बडा (?) काव्य है हुआ 1882 दामोदरगुप्त के कुट्टनीमत 49/59/69/79/ में आर्याओं की संख्या 887 कलिविडम्बन काव्य के रचयिता ( ? ) थे888 वेश्याविषयक काव्यों की रचना (?) कवियों ने अधिक मात्रा में की है889 शान्तिशतक के रचयिता (?) थे890 अन्योक्तिमुक्तमाला के रचयिता शम्भुकवि (?) के सभाकवि थे 891 पाणिनीय धातुपाठ में धातुओं की कुलसंख्या उन्नीस सौ से (?) अधिक है 892 (?) की शास्त्रकाव्य में गणना नहीं होती - 893 रावणार्जुनीय काव्य के रचयिता (?) है - - - - शास्त्रकाव्य / ऐतिहासिक काव्य तिब्बती मंगोल/ सिंहली/ बर्मी । - कलाविलास / चारुचर्या / देशोपदेश / चतुर्वर्गसंग्रह । - प्रधान अमात्य / सेनापति / नर्मसचिव गुरु क्षेमेन्द्र दामोदरगुप्त / गुमानि / गोवर्धनाचार्य | भर्तृहरि नीलकंठ दीक्षित/ क्षेमेन्द्र / जल्हण । www.kobatirth.org अप्पय्य दीक्षित/ नीलकण्ठ दीक्षित / कुसुमदेव/ शिल्हण वंगीय / काश्मीरीय/ केरलीय/ कामरूपीय/ शिल्हण / बिल्हण / जल्हण / कल्हण जयपूर नरेश भावसिंह / काश्मीरनरेश हर्षदेव / तंजौरनरेश रघुनाथ नायक / वरंगलनरेश प्रतापरुद्र । 24/34/44/ 541 रावणार्जुनीय / राघवपाण्डवीय वासुदेव विजय कुमारपालचरित/ भट्टि भङ्गभीम / नारायण कवि / हेमचंद्र । 894 शिवलीलार्णवकार नीलकण्ठदीक्षित के आश्रयदाता तिरुमल नायक (?) के अधिपति थे 895 शिवलीलार्णव के 22 सर्गो में वर्णित 64 शिवलीलाएँ (?) पुराण के अन्तर्गत है 896 नीलकण्ठ दीक्षित की रचनाओं में (?) नहीं है 897 उत्प्रेक्षावल्लभ उपाधि से (?) प्रसिद्ध थे 898 नीलकंठ दीक्षित की छह रचनाओं में (?) रचनाएँ शिवविषय है 899 मल्लिनाथकृत रघुवीर चरित का प्रकाशन (?) द्वारा हुआ 900 कृष्णानन्दकृत सहृदयानंद काव्य का विषय (?) है 901 सहृदयानन्दकार कृष्णानन्द (?) राज्य में सान्धिविग्रहिक थे 904 वासुदेवकृत युधिष्ठिर विजय (?) में अन्तर्भूत 秉 905 युधिष्ठिरविजयकार 906 रामचरित नामक - दिसन्धान काव्य के प्रणेता (?) थे 1 For Private and Personal Use Only - - 902 नलाभ्युदयकार वामनभट्ट- 14/15/16/17 | के आश्रयदाता वेमभूपाल (?) शताब्दी में तैलंग देश के अधिपति - 903 सोमेश्वरकृत सुरथोलाव का कथानक (?) पर आधारित है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तंजौर / मदुरे कल्याणी/ मैसूर । लिंग / स्कंन्द / ब्रह्म / ब्रह्माण्ड भिक्षाटन कालिविडम्बन सभारंजन / अन्यापदेशशतक । भिक्षाटनकार गोकुलनाथ नीलकण्ठविजयचम्पूकार नीलकंठ दीक्षित/ हरचरितचिन्तामणिकार जयद्रथ / हरिविलासकार लोलम्बिराज । 5/4/3/2 अनन्तशयन ग्रंथावली/ अड्यार लाइब्रेरी / काव्यमाला / गायकवाड संस्कृतसीरीज । नलकथा / पाण्डवचरित/ रामकथा / कृष्णलीला | उत्कल / आन्ध्र / बिहार/ वंग वासुदेव (?) निवासी थे काव्यकुब्ज । दुर्गासप्तशती / देवीभागवत कालिकापुराण / महाभारत । यमककाव्य / रूपकसाहित्य चम्पूकाव्य / महाकाव्य । काश्मीर / केरल / कर्णाटक/ पिनाकनन्दी / प्रजापतिनन्दी संध्याकरनन्दी/ रामपाल संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 31 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (?) द्वारा हुआ है 907 रामचरित काव्य में (?) - बंगाल/ बिहार/ उत्कल/ का इतिहास वर्णित है- नेपाल । 908 राघवपाण्डवीय काव्य के - लक्ष्मी/ शिव/ धनंजय/ वीर - प्रत्येक सर्ग के अन्त में (?) का नाम अङ्कित 921 संस्कृत साहित्य का प्राचीनतम सूक्तिसंग्रह 922 सुभाषितरत्नकोष का अपरनाम (?) है हार्वर्ड प्राच्य ग्रंथमाला/ वाणी विलास/ भारतीय विद्याभवन - सुभाषितरत्नकोष/ सदुक्तिकर्णामृत/ सुक्तिमुक्तावली/ शाङ्गधरपद्धति। - सूक्तिमुक्तावली/ सुभाषित रत्नसन्दोह/ सूक्तिरत्नाकर/ कवीन्द्रवचनसमुच्चय। - सुभाषितसुधानिधि/ सुभाषित-रत्नभांडागार। सुभाषित-रत्नसन्दोह/ पद्यामृततरंगिणी। 923 सुभाषितों का महत्तम संग्रहग्रंथ (?) है 909 राघवपाण्डवीयकार - पाल/ कादम्ब/नायक/ कविराजसूरि के काकतीय। आश्रयदाता कामदेव (?) वंशीय नृपति थे910 प्रसिद्ध टीकालेखक - आन्ध्र/ तमिळनाडू/ केरल/ कोलाचल मल्लिनाथ कर्णाटक (?) प्रदेश के (?) निवासी थे911 पार्वती-रुक्मिणीयम् के - आहवमल्ल/सोमदेव/ लेखक विद्यामाधव विक्रमांकदेव/ जयसिंह । चालुक्यवंशीय (?) राजा के सभापंडित थे912 चालुक्यवंशीय सोमदेव - 10/11/12/13 । का समय (?) वीं शताब्दी था913 चिदम्बरकवि के - शिव/ विष्णु/ सुब्रह्मण्य/ पंचकल्याण चम्पू में नल/ (?) विवाह की कथा गुंफित नहीं है914 रामकृष्ण विलोमकाव्य - वेंकटाधरी/ दैवज्ञसूर्य। के लेखक (?) थे- चिदम्बरकवि/ हरदत्तसूरि। 915 सप्तसन्धान महाकाव्य के - मेघविजय/ चिदंबर/ लेखक (?) थे- हरदत्तसूरि/ कविराजसूरि । 924 सुभाषितरत्नभाण्डागार की - 10/6/4/31 श्लोकसंध्या (?) हजार से अधिक है925 सूक्तिमुक्तावली के - करिवाहिनीपति/ संपादक भानुकवि के अश्ववाहिनीपति/ आश्रयदाता जल्हण, सांधिविग्रहिक देवगिरी के यादवंशी प्रधानामात्य कृष्णराज के (?) थे926 मेघदूत और माघकाव्य - काश्मीर/सौराष्ट्र। के टीकाकार वल्लभदेव महाराष्ट्र/ बंगाल। (?) के निवासी थे927 शागधरपद्धति का - डॉ. पीटरसन्। प्रकाशन (?) ने किया- डॉ. लुडविक स्टर्नबाख/ एडगर्टन/ डॉ. टॉनी/ 928 सायणाचार्य के पुरुषार्थ - वाल्मीकि/ वेदव्यास/ सुधानिधि में (?) पंचमहाकाव्य/ वेदत्रयी/ के सुभाषितों का संकलन 916 मेघविजय कविने अपने - माघ/ किरात/ नैषध/ देवानन्द काव्य में (?) मेघदूत । काव्य के श्लोकों की अंतिम पंक्ति की समस्या पूर्ति की है917 मेघविजयगणी (?) - अकबर/ जहांगिर/ यवनराज द्वारा सम्मानित आदिलशाह/ अल्लाउद्दीन 929 नारोजी पंडितकृत - 38/48/58/68 सूक्तिमालिका में केवल दशावतार विषयक सुभाषित दो सौ से (?) अधिक है थे 918 शृंगारशतक के लेखकों - भर्तृहरि/ नरहरि/ जनार्दनभट्ट में (?) नहीं है- उत्प्रेक्षावल्लभ । 919 बिल्हणकाव्य की नायिका - राजस्थान/गुजरात/ चन्द्रलेखा के पिता काश्मीर/ मालवा । वीरसिंह (?) के राजा थे 920 खड्गशतक का प्रकाशन - काव्यमाला/ 929 केवल शृंगार विषयक - राम याज्ञिककृत एक सहस्र से अधिक शृंगारालाप/ रुद्रभट्टकृत सुभाषितों का संग्रह शृंगारतिलक/ सामराज दीक्षितकृत शृंगारामृतलहरी कामराजदीक्षितकृत शृंगारकलिका। 32 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 946 संस्कृत साहित्य के - भास/ कालिदास/ शूद्रक/ इतिहास में (?) का बाणभट्ट/ . समय निर्विवाद है947 सुप्रसिद्ध मुकुंदमालास्तोत्र - मैसूर/ तंजौर/ विजयनगर/ के रचयिता कुलशेखर त्रिवांकुर/ (?) के राजा माने जाते 930 संस्कृत काव्यसृष्टि में - महाकाव्य/गीतिकाव्य/ भावाभिव्यक्ति की दृष्टिसे गद्यकाव्य/चम्पूकाव्य। सर्वोत्तम काव्यप्रकार (?) है931 मेघदूत की समस्यापूर्ति - पार्वाभ्युदय/ नेमिदूत/ (?) काव्य में नहीं है- शीलदूत/ हंसदूत 932 (?) जैनतेर दूत काव्य है- चन्द्रदूत/ चेतोदूत/ सिध्ददूत/ पवनदूत । 933 मेघदूतसमस्यापूर्तिपरक - पार्वाभ्युदय/ नेमिदूत/ काव्यों में (?) अग्रगण्य शीलदूत/ मेघदूत समस्यालेख 934 पाश्र्वाभ्युदय के लेखक - राष्टकूटवंशी अमोघवर्ष/ जिनसेन (द्वितीय) यादवशी राजा कृष्ण/ चौहान (?) राजा के समकालीन वंशी हम्मीर/ कादम्बवंशी कामदेव 935 मुक्तक काव्यों के लेखकों - भर्तृहरि/अमरुक। में (?) की प्रशंसा भल्लट/ गोवर्धनाचार्य । आनन्दवर्धनाचार्य ने की है937 अमरुकशतक का विषय - नीति/ वैराग्य/शृंगार/ भक्ति। 938 भल्लटशतक के उदाहरण- मम्मट/ क्षेमेन्द्र/ (?) ने उध्दृत किए है- आनंदवर्धन/ अभिनवगुप्त । 939 साहित्यशास्त्र के आकार - काव्यादर्श/ ध्वन्यालोक/ ग्रंथों में (?) की गणना काव्यप्रकाश/रसंगगाधर नहीं होती940 प्राकृतभाषीय कवियों का - अनुष्टुप/ गाथा/ प्रिय छंद (?) है- उपजाति/ मणिबन्ध/ 941 गाथासप्रशती के संग्राहक- प्रतिष्ठानपुर/ करवीर/ हाल (?) के अधिपति नान्दीकट/ गोमंतक 948 वैष्णव स्तोत्रों में (?) - यामुनाचार्यकृत 'स्त्रोत्ररत्न' उपाधि से आलवंदार स्तोत्र/ प्रसिद्ध है लीलाशुककृत कृष्णकर्णामृत सोमेश्वरकृत रामशतक/ मधुसूदन सरस्वतीकृत आनंद-मंदाकिनी। 949 वेदान्तदेशिककृत (?) - अच्युतशतक/ वरदराजस्तोत्र प्राकृत गाथात्मक है पंचाशत्/ पादुकासहस्र/ यतिराजसप्तति। 950 स्तोत्रकाव्य के रचयिताओं- दक्षिणभारत/ पूर्वांचल/ में बहुसंख्य कवि (?) उत्तरप्रदेश/ महाराष्ट्र । 942 आर्यासप्तशतीकार - वंगनरेश लक्ष्मणसेन) गोवर्धनाचार्य और उत्कलनरेश गजपति/ गीतगोविंदकार जयदेव कामरूपनरेश भाग्यचंद्र/ (?) के आश्रित थे- मैसूर नरेश चिक्क देवराय । 943 पुष्पदन्तकृत शिव महिम्नः - मंदाक्रान्ता/शिखारिणी/ स्तोत्र (?) वृत्त में है- वसन्ततिलका/स्रग्धरा । 944 मयूरभट्ट का सूर्यशतक - शार्दूलविक्रीडित/ और बाणभट्ट का स्त्रग्धरा/ अश्वधाटी/ चण्डीशतक (?) वृत्त में हरिणीप्लुता। रचित है945 (?) श्री शंकराचार्य के - बाणभट्ट/ हर्षवर्धन/ समकालीन साहित्यिक हेमचंद्र/भट्टिस्वामी/ नहीं माने जाते है 951 (?) स्तोत्र के गायन से - सूर्यशतक/ चण्डीशतक/ नारायण भट्टात्रि वातरोग गंगालहरी/ नारायणीयम् से मुक्त हुए952 दक्षिण भारत का - नारायणीयम्/रामाष्टप्रास/ सर्वाधिक लोकप्रिय स्तोत्र लक्ष्मीसहस्र/ पादुकासहस्र। (?) माना जाता है953 सहस्र श्लोकात्मक - पद्मनाम/गुरुवायूर/ नारायणीयम् स्तोत्र का अय्यप्पन/ कालडी। गायन कविने केरल के (?) मंदिर में किया954 नारायणीय-स्तोत्रकार के - धातुकाव्य/प्रक्रियासर्वस्व, द्वारा रचित 18 ग्रंथों में मानमेयोदय/ पुष्पोद्भेद। व्याकरण शास्त्र विषयक (?) ग्रंथ है955 संस्कृत साहित्यमें अहंकार- बाणभट्ट/ भवभूति/ पूर्ण गर्वोक्तियों के लिए जगन्नाथ पंडित/ जयदेव। (?) प्रसद्धि है956 शौनककृत बृहद्देवता में - वाक्/ श्रध्दा/ मेधा/ गार्गी। उल्लिखित 27 ऋषिकाओं में (?) की गणना नहीं होती957 बृहदेवता में निर्दिष्ट - लोपामुद्रा/ अरुंधती/ ऋषिकाओं की नामावली अनसूया/ मैत्रेयी। में (?) का नामनिर्देश है 958 श्रीतंत्र में निर्दिष्ट पांच - राजचक्र/देवचक्र। दश है संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 33 For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मदुरै। चक्रों में (?) अन्तभूत वीरचक्र/धर्मचक्र/ नहीं है959 दक्षिणभारत में संगीत - वेंकटमखीकृत चतुर्दण्डि विषयक अत्यंत प्रसिद्ध प्रकाशिका/ अप्पातुलसी ग्रंथ (?) है कृत रागकल्पद्रुम/ सोमनाथकृत रागविबोध/अहोबल कृत संगीतपारिजात। 960 चतुर्भाणी ग्रंथ में - उभयाभिसारिका/पद्मप्राभूतक (?) का अन्तर्भाव नहीं धूर्तविटसंवाद/मुकुन्दानन्द होता961 मातृचेटकृत चतुःशतकम् - टामसन्/ कीथ/ नामक बौध्दस्तोत्र का मैक्समूलर/ डॉ. राधाकृष्णन् अंग्रेजी अनुवाद (?) ने किया है962 शौनककृत चरणव्यूह में - वेद/ उपवेद/पुराण/ (?) के विषय में भरपूर उपपुराण । सामान्य जानकारी दी है963 चान्द्रव्याकरण में (?) - कृदन्त/ तध्दित/ समास/ __का विवेचन नहीं है- वैदिकी स्वरप्रक्रिया। 964 -चित्सुखाचार्य के (?) - तत्त्वप्रदीपिका/ ग्रंथ कों 'चित्सुखी' कहते भावप्रकाशिका/ अभिप्राय प्रकाशिका/ भावतत्त्व प्रकाशिका 965 बिल्हण की चोरपंचाशिका - गणपतिशर्मा/ रामोपाध्याय/ पर (?) की टीका नहीं बसवेश्वर/ मल्लिनाथ। नाटक के रचयिता कृष्णदेव राय (?) के अधिपति थे972 पंचमजार्ज विषयक - लालमणिशर्मा/ काव्यों के लेखकों में महालिंगशास्त्री/ शिवराम (?) नहीं है पांडे/ जग्गू बकुलभूषण। 973 प्रतीक नाटकों में (?) - जीवन्मुक्तिकल्याणम्/ प्रथम विरचित है- प्रबोधचन्द्रोदय/संकल्प सूर्योदय/ अनुमिति-परिणय। 974 महालिंगशास्त्रीकृत - हैमलेट/ मैकबेथ/ जीवयात्रा, शेक्सपीयर के मर्चट आफ व्हेनिस/ (?) नाटक का अनुवाद है- किंग लियर । 975 आनंदारायमखी के - भक्तियोग/ अद्वैत वेदान्त/ जीवानन्दनम्-नामक आयुर्वेद/ तर्कशास्त्र । प्रतीक नाटक का विषय 976 सामवेदीय जैमिनिशाखा - तमिळनाडु/ सौराष्ट्र। का विशेषप्रचार (?) है- कर्णाटक/ विदर्भ। 976 जौमरव्याकरण का विशेष - पश्चिमबंगाल/ दक्षिणआन्ध्र प्रचार (?) प्रदेश में है- पूर्वी उत्तरप्रदेश/ उत्तरभारत । से हुआ 966 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'- यह - छान्दोग्य/ ऐतरेय/ महावाक्य (?) उपनिषद् - बृहदारण्यक/माण्डूक्य । में है967 सत्यकाम जाबालि की - द्वितीय/तृतीय/ चतुर्थ/ सुप्रसिद्ध कथा छान्दोग्य पंचम। उपनिषद् के (?) अध्याय में है968 अमृतलहरी काव्य में - गंगा/ यमुना/ लक्ष्मी/ पंडितराज जगन्नाथ ने विष्णु। (?) की स्तुति की है969 संस्कृत का प्रथम दैनिक - लाहोर/ कलकत्ता/ मैसूर पत्र जयन्ती (?) से त्रिवेन्द्रम। प्रकाशित होता था970 तांत्रिकों के पांचरात्र - 115/215/315/4151 साहित्य के अन्तर्गत संहिताओं की संख्या 977 व्याकरणशास्त्र में - पाल्यकीर्तिकृत जैन प्रक्रियानुसारी ग्रंथों की शाकटायन व्याकरण/ रचना का सूत्रपात (?) देवनन्दीकृत जैनेन्द्र व्याकरण/ बोपदेवकृत मुग्धबोध/ अनुभूतिस्वरूपाचार्यकृत सारस्वत व्याकरण। 978 नागपुर में प्रकाशित - डॉ. मिराशी/ डॉ. रघुवीर/ जैमिनीय ब्राह्मण का डॉ. करंबेळकर/ सरस्वती संपादन (?) ने किया- प्रसाद चतुर्वेदी/ 979 विद्यानन्दनाथ देवकृत . वामकेश्वर/ संमोहन/ भैरव/ ज्ञानदीपविमर्शिनी (?) योगार्णव/ तंत्रपर आधारित है980 विविध तांत्रिक संहिता के - 20/60/64/100/ अनुसार तंत्रों की संख्या 981 सम्मोहनतंत्र के अनुसार - 32/75/50/30/ वैष्णवतंत्रों की संख्या 982 संमोहन तंत्र में प्रतिपादित - शैव/ वैष्णव/गाणपत्य/ चार तंत्रप्रकारों में (?) बौध्द/ नहीं है983 महाभारत वनपर्वमें - 62/72/82/92 । यक्षप्रश्नों की संख्या (?) हैं। 971 जाम्बवतीकल्याणम् - वरंगळ/ मैसूर/ विजयनगर For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 997 योगशास्त्र में कथित - भ्रू/ कंठ/ हृदय/ नाभि/ आज्ञाचक्र शरीर के (?) स्थान में है998 षड्दर्शनों के प्रणेताओं में - पाणिनि/ शंकराचार्य/ (?) की गणना होती है- पतंजलि/ अभिनवगुप्ताचार्य 999 संगीतरत्नाकर के - वसंत/ भैरव/ मेघमल्हार/ अनुसार छह पुरुष रागों में मारुव/ (?) की गणना नहीं होती 1000 छह नास्तिक दर्शनों में - वैशेषिक/ सौत्रांतिक/ (?) नहीं माना जाता- वैभाषिक/ माध्यमिक। 984 वात्स्यायन कामसूत्रमें - समस्यापूर्ति/ अनेकभाषाज्ञान/ कथित 64 कलाओं के गूढकाव्यज्ञान/ अभिनय/ अन्तर्गत दस वाङ्मय कलाओं में (?) नहीं मानी जाती985 एकाक्षर कोश के अनुसार- 16/26/36/46। प्राचीन शब्दकोषों की संख्या (?) है986 तैत्तिरीय ब्राह्मण के - मृग/ आर्द्रा/ पुनर्वसु/स्वाती अनुसार नौ पर्जन्य नक्षत्रों में (?) की गणना नहीं होती987 तैत्तिरीय ब्राह्मण के - अश्विनी/ भरणी/ कृत्तिका/ अनुसार 14 देवनक्षत्रों मूल में (?) गणना नहीं होती988 शंकराचार्यकृत मनुष्यत्व/ कवित्व/ विवेकचूडामणि मे मुमुक्षुत्व/ महापुरूषसंश्रय कथित तीन दुर्लभ विषयों में (?) अन्तर्भूत नहीं है989 वीरशैवप्रदीपिका में - गुरुयात्रा/ देवयात्रा/ कथित तीन यात्राओंमें तीर्थयात्रा/ अन्त्ययात्रा/ (?) नहीं मानी गयी990 चार वादों में (?) वाद - आरंभवाद/ परिणामवाद/ सांख्य दर्शन में - विवर्तवाद/ सत्कार्यवाद/ प्रतिपादित है991 राघवपाण्डवीय ग्रंथ में - सुबंधु/ बाणभट्ट/ कविराज/ कथित वक्रोक्तिमार्ग- कुंतक। निपुण कवियों में (?) की गणना नहीं होती992 आयुर्वेदिक त्रिदोषोंमें - कफ/ वात/ पित्त/ रक्त/ (?) अन्तर्भाव नहीं होता 993 नाट्यशास्त्रोक्त चतुर्वीरोंमें - युद्धवीर/ दानवीर/ दयावीर/ (?) की गणना नहीं होती विद्यावीर। 994 'चतुःश्लोकी भागवत' - 7/8/9/10 श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के (?) अध्याय में है995 शंकरसंहिता के अनुसार - गोदान/ भूदान/ चार श्रेष्ठ दानों में (?) संपत्तिदान/ विद्यादान । नहीं माना गया996 तैत्तिरीय उपनिषद्में - अग्नि/ सूर्य/ चंद्र/ कथित देवतापंचक में आकाश/ (?) की गणना नहीं होती 1001 जैनसिद्धान्त सर्व प्रथम - उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र/ (?) ग्रंथद्वारा सूत्रबद्ध अमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वार्थसार हरिभद्रसूरिकृत लोकतत्त्वनिर्णय/ वादीभसिंहकृत स्याद्वादसिध्दि। 1002 तंत्रोंकी वेदमूकलता का - काशीनाथभट्ट कृत प्रतिपादन (?) में किया तंत्रभूषा/ काशीश्वरकृत तंत्रमणि/ श्रीकृष्ण वागीशकृत तंत्ररत्न/ श्रीरामेश्वरकृत तंत्रप्रमोद - 3 संपूर्ण तांत्रिक वाङ्मय में - तंत्रालोक/ तंत्राधिकार/ (?) अत्यंत महत्त्वपूर्ण तंत्रसिध्दान्तकौमुदी/ माना गया है तांत्रिकमुक्तावली। 4 तंत्रालोक के लेखक - मध्वाचार्य/ भट्टोजी दीक्षित/ अभिनवगुप्त/ प्रेमनिधिपंत 5 माध्वसंप्रदाय के 14 वे गौतम-कणादमत/शांकरमत गुरु व्यासराय ने अपने बौध्दमत/ जैनमत । तर्कताण्डव में (?) खंडन किया6 परमार्थद्वारा (?) न्याय - वसुबंधुकृत तर्कशास्त्र/ ग्रंथ का चीनी भाषा में अन्नंभट्टकृत तर्कसंग्रह/ अनुवाद हुआ है- केशवमिश्रकृत तर्कभाषा/ जगदीशभट्टाचार्यकृत तर्कामृत। 7 वसुबन्धु के बौध्द न्याय - पंचावयव वाक्य/ जाति/ विषयक ग्रंथ में (?) का निग्रहस्थान/ हेत्वाभास । विवरण नहीं है8 जैमिनीय (तलवकार) - ए.बी.कीथ/ए.सी.बर्नेल/ ब्राह्मण का प्रथम संपादन सर विल्यम जोन्स/ (?) ने किया डॉ. भांडारकर 9 ताण्ड्य महाब्राह्मण का - डॉ.कैलेण्ड/ ह.दा.वेलणकर अंग्रेजी अनुवाद (?) ने डॉ. भाण्डारकर/ डॉ. रघुवीर मंस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 35 For Private and Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किया1010 नव्य उपनिषदों में - तुरीयातीतोपनिषद्/ प्रदीर्घतम उपनिषद् (?) तेजोबिंदूपनिषद्/ तुलसी उपनिषद्/ त्रिशिखब्राह्यणोपषिद् 11 यज्ञोपवीत का निर्देश - छान्दोग्य उपनिषद्/ तैतिरीय सर्वप्रथम (?) ग्रंथ में आरण्यक/ शतपथ ब्राह्मण हुआ बृहदारण्यक। 12 सत्यं वद । धर्म चर।"- - ऐतेरय/ तैत्तिरीय/ कठ/ यह आदेश (?) छान्दोग्य। उपनिषद् में है13 गंगाधर भट्टकृत दुर्जन - ब्रह्माण्ड/ ब्रह्मवैवर्त/ मुखचपेटिका ग्रंथ में श्रीमद्भागवत/ (?) पुराण की देवीभागवत महापुराणता स्थापित करने का प्रयास हुआ है14 देवताध्याय ब्राह्मण - ऋग्वेद/शुक्ल यजुर्वेद/ (?) वेद से संबंधित है- कृष्ण यजुर्वेद/सामवेद। 15 देवताध्याय ब्राह्मण का - बर्नेल/ जीवानन्द विद्यासागर सर्वप्रथम संपादन (?) तिरुपति केन्द्रीय संस्कृत ने किया विद्यापीठ/ गंगानाथ झा शोध संस्थान। 16 शाक्त सम्प्रदाय में मान्यता- 5/6/7/81 प्राप्त विद्यमान देवीपुराण की रचना (?) वीं शती में मानी जाती है17 देवीपुराण के वक्ता (?) - वसिष्ठ/ विश्वामित्र/ ऋषि है जमदग्नि/ काश्यप/ 18 'देवीगीता'- देवीभागवत - 7/8/9/10 के (?) वें स्कन्द में अन्तर्भूत है19 देवीगीता की अध्याय - 7/8/9/10 संख्या (?) है1020 देवी उपासकों का प्रमुख - देवीभागवत/मार्कण्डेय/ ग्रंथ दुर्गासप्तशती स्कन्द/ अग्नि। (?) पुराण के अन्तर्गत सुरथराजा/सुमेधा ऋषि । 24 जगमोहनकृत - 36/46/56/66। देशावलिविवृत्ति ग्रंथ में 17 वीं शती के (?) राजाओंका वर्णन है 25 विद्यानिवासकृत - वाराणसी/जगन्नाथपुरी/ द्वादशयात्राप्रयोग में द्वारका/बदरीनारायण । (?) की 12 यात्राओं का निर्देश है26 धनुर्वेद विषयक वसिष्ठ - जयदेवशर्मा विद्यालंकार/ और औशनस संहिताओं विश्वेश्वरानन्द/ करपात्री स्वामी का प्रकाशन (?) ने डॉ. रघुवीर । किया है27 धर्मसिंधु नामक प्रख्यात - पुणे/ पंढरपुर/ कोल्हापूर ग्रंथ के लेखक काशीनाथ अमरावती उपाध्याय (पाध्ये) (?) के निवासी थे28 काशीनाथ पाध्येकृत - पंढरपुर/ करवीर/ प्रयाग/ धर्मसिंधु की शोभायात्रा काशी/ (?) क्षेत्र में निकाली थी 29 धातुपाठविषयक सायणा-- धातुवृत्तिसुधानिधि/ चार्य कृत ग्रंथ का नाम धातुविवरण/ धातुमाला/ धातुप्रदीप। 1030 ध्वन्यालोक का जर्मन - डॉ. कृष्णमूर्ति/ जेकोबी/ अनुवाद (?) ने किया है शोपेनाहोर/ विंटरनिट्झ 31 "हरिचरणसरोजांक"- - नलचम्पू/ रामायणचम्पू/ नाम से (?) काव्य भारतचम्पू/ गोपालचम्पू । प्रसिद्ध है32 नलचम्पू के लेखक - सोमदेवसूरि/ भोजराज/ (?) थे अनन्तभट्ट/ त्रिविक्रमभट्ट 33 (?) देवता के मंत्रों को - त्रिपुरसुन्दरी/गुह्यकाली/ 'नाभिविद्या' कहते है- उच्छिष्टचाण्डाली/मातंगी 34 सुप्रसिद्ध नासदीय सूक्त - 7/8/9/10/ ऋग्वेद के (?) मंडल में है35 यास्काचार्य कृत निघण्टु - सुंदरकाण्ड/ घण्टुक काण्ड के तीन काण्डों में (?) नैगमकाण्ड/ दैवतकाण्ड । नहीं गिना जाता36 यास्काचार्यने अपने - पृथ्वी/ अंतरिक्ष/ स्वर्ग/ निरुक्त में (?) स्थानीय पाताल देवता नहीं माने है37 निरुक्त की टीकाओं में - महेश्वर/ देवराजयज्वा/ सर्वश्रेष्ठ टीका (?) दुर्गाचार्य/ स्कन्दस्वामी । की है 21 दुर्गासप्तशती की -467/567/667/7001 श्लोकसंख्या (?) है22 दुर्गासप्तशती के - देवीमहिम्नःस्तोत्र/ अन्तर्गत (?) नहीं है- पौराणिक रात्रिसूक्त/ देवीसूक्त नारायणीस्तुति। 23 दुर्गासप्तशती के प्रवक्ता - दुर्वासा/समाधिवैश्य/ 36 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 38 कमलाकरभट्ट कृत धर्मशास्त्रविषयक निर्णय सिन्धु की रचना (?) शताब्दी में हुई38 वेदमंजरी (नीतिमंजरी ) वे लेखक द्या (विद्या) द्विवेद (?) के निवासी थे 39 धर्मशास्त्रविषयक ज्ञानकोश के सदृश नृसिंहप्रसाद मंथ के लेखक दलपतिराज (?) के निवासी थे 1040 न्यायकुल में उदयनाचार्यने बौध्दमत के (?) ग्रंथ का खंडन किया है 41 ईश्वरभंगकारिका के लेखक (?) है42 भासर्वज्ञ ने अपने 47 व्याकरणशास्त्र के पांच पाठों के अन्तर्गत (?) प्रमुख है - 45 नव्यवेदान्त का उदय (?) ग्रंथ के कारण हुआ 48 तंत्रशास्त्रोक्त चक्रों में (?) नहीं माना जाता49 पंचतंत्र में कुल मिलाकर (?) कथाएँ है - 1050 विष्णुशर्मा के पंचतंत्र का विषय (?) है51 पंचतंत्र का सर्वप्रथम न्यायसार में (?) प्रमाण नहीं माना 43 अक्षपादगौतम कृत न्याय सूत्र के (?) अध्याय है 44 न्यायसूत्र में (?) पदार्थों 7/10/16/ 251 के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति मानी है संपादन (?) ने किया 52 विद्यारण्य और भारतीतीर्थ - - - 15/16/17/18 - गुजरात / राजस्थान / मालवप्रदेश/ वाराणसी । सौराष्ट्र / महाराष्ट्र कर्नाटक / राजस्थान । ईश्वरभंगकारिका / वज्रसूची उपनिषद् / अपोहसिद्धि / ज्ञातप्रस्थानशास्त्र शान्तरक्षित/ कल्याणरक्षित वसुबन्धु / रत्नकीर्ति । प्रत्यक्ष / अनुमान / उपमान / आगम/ 5/6/7/81 www.kobatirth.org व्यासरायकृत न्यायामृत/ सिद्धसेन दिवाकरकृत न्यायावतार / जयतीर्थकृत न्यायसुधा/ मध्वाचार्यकृत न्यायविवरण । सूत्रपाठ / धातुपाठ / गणपाठ उणादिपाठ । राजचक्र / देवचक्र/ वीरचक्र / धर्मचक्र 97/87/ 77/ 67 1 तंत्रशास्त्र अर्थशास्त्र/ राजनीति / धर्मशास्त्र । हटेल/ मैक्समूलर/ स्टर्नचाख/ नार्मन ब्राऊन । शुद्धाद्वैत विशिष्टाद्वैत / द्वारा रचित सुप्रसिद्ध पंचदशी का विषय (?) है 53 आधुनिक चिकित्सा शास्त्रविषयक गंगाधर कविराज के ग्रंथ का नाम (?) है54 पदार्थ धर्मसंग्रह की रचना (?) ने की है 55 वैशोषिकदर्शन के 58 द्वादशविद्यापति उपाधि के धनी (?) जैनाचार्य थे - प्रशस्तपाद भाष्य पर (?) भाष्य नहीं है 56 पांचरात्र तत्त्वज्ञान विषयक 115 / 130/315/415 कुल संहिताओं की संख् (?) है 59 छन्दः शास्त्र में आठ गणों की पद्धति (?) ने प्रवर्तित की 1060 बीस काण्डों की पिप्पलाद संहिता (?) वेद से संबंधित है 61 व्हेन त्सांग द्वारा चीनी 57 नागेशभट्ट के परिभाषेन्दु- 120/130/140/1501 शेखर में (?) परिभाषाओं की चर्चा हुई 魚 58 तांत्रिकों के रुद्रागमों की संख्या (2) है 63 संस्कृत साहित्य में लाक्षणिक नाटकोंकी परंपरा (?) नाटक से प्रारंभ हुई64 दिङ्नागकृत प्रमाण भाषा में अनुवादित प्रकरण आर्यवाचा नामक बौध्द ग्रंथ के मूल लेखक (?) थे 62 महायान संप्रदाय का सर्वाधिक प्राचीन सूत्रग्रंथ (?) है For Private and Personal Use Only द्वैताद्वैत/ द्वैत । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचनिदानम् / पंचस्कन्धप्रकरणम्/ पंचपादिका / पंचग्रंथी प्रशस्तपादाचार्य/ व्योमशिखाचार्य/ उदयनाचार्य श्रीधराचार्य व्योमवती/ भामती/ किरणावली न्यायकन्दली/ 18/ 28/38/ 48 1 खादिराजसूरि/ शुभचन्द्र पद्मसुंदर / सकलकीर्ति । भरत/ जनाश्रय / पिंगल / कालिदास शुक्लयजुस् / कृष्णयजुस् / साम / अथर्व / आर्य असंग / नागार्जुन/ वसुबंधु / धर्मकीर्ति । प्रज्ञापारमितासूत्र / प्रतीत्यसमुत्पादगाथासूत्र / गण्डव्यूहसूत्र / अर्थविनिश्चयसूत्र । संकल्पसूर्योदय/ प्रबोधचन्द्रोदय अनुमितिपरिणय परंजनचरित चीनी/ तिब्बती/ सिंहली / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 37 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुच्चय का अनुवाद कवि। (?) भाषा में उपलब्ध है 65 अशोकस्तम्भों के पाली - डॉ.पी.व्ही.बापट/ डॉ.वा.वि. लेखोंका संस्कृत संस्करण मिराशी/ रामावतार शर्मा/ (प्रियदर्शिप्रशस्तयः (?) राहुल सांकृत्यायन । ने किया है66 गुणाढ्य के पैशाची - बृहकथाश्लोकसंग्रह/ भाषीय बड्डकहा के तीन बृहत्कथामंजरी/ संस्कृत रूपांतरों में (?) बृहत्कथासरित्सागर/ नहीं है बृहत्कथाकोश/ 67 हरिषेणाचार्य के बृहत्कथा - 157/257/357/457 कोश में (?) कथाएँ है 79 ब्रह्माण्डपुराण की अध्याय- 107/108/109/1101 संख्या (?) है1080 ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रतिपाद्य - 8/10/12/14। विषय (?) है81 सम्प्रति उपलब्ध ब्राह्मण - 8/18/28/381 ग्रंथों की संख्या (?) है82 संप्रति उपलब्ध वेदसंहिता- 10/11/12/13 | -ओं की संख्या (?) है83 काश्मीरी लेखकों में - अभिनवगुप्त/ बिल्हण/ (?) सर्वश्रेष्ठ माने जाते मम्मट/क्षेमेन्द्र। तैत्तिरीय। 68 गुणाढ्य (?) राजा के - शालिवाहन/ विक्रमादित्य/ आश्रित कवि थे यशोधर्मा/ समुद्रगुप्त 69 फलितज्योतिष का - बृहत्संहिता/ बृहत्पाराशर. सर्वमान्य ग्रंथ (?) है होरा/ बृहज्जातक/ फलितमार्तण्ड। 1070 सभी उपनिषदों में बडा छांदोग्य/बृहदारण्यक/कठ (?) उपनिषद् है71 बृहदारण्यक उपनिषद् में - मधुकाण्ड/ मुनिकाण्ड/ (?) नहीं है सुन्दरकाण्ड/खिलकाण्ड 72 अहं ब्रह्मास्मि और - छांदोग्य/ ऐतरेय/ तैत्तिरीय/ अयमात्मा ब्रह्म ये बृहदारण्यक/ महावाक्य (?) उपनिषद् के है73 बृहदारण्यक उपनिषद् में - याज्ञवल्क्य/ गार्गी/ मैत्रेयी/ प्रधान तत्त्वज्ञ (?) है- जनक/ 74 संस्कृत वाङ्मय की - डॉ. राघवन्/ डॉ. दाण्डेकर/ बृहत्सूची के संपादक ऑफ्रेख्ट/ राजेन्द्रलाल मिश्र 84 पांचरात्र आगम का उदय - काश्मीर/ कर्नाटक/ गुजराथ (?) हुआ बंगाल 85 भगवद्गीता के काश्मीरी - 715/725/735/745। पाठकी श्लोकसंख्या (?) है86 काव्यप्रकाश में कुल - 122/132/142/152 । (?) कारिकाएँ है- . 87 रामचंद्र कविभारतीकृत - राम/कृष्ण/बुध्द/ शंकर । भक्तिशतकम् का विषय (?) की भक्ति है88 भट्टिकाव्यपर कुल (?) - 12/13/14/15 टीकाएँ लिखी गयी है.89 भविष्यपुराण (?) - 3/4/516 पर्यों में विभाजित है1090 केशव काश्मीरी की - वेदस्तुति/ भ्रमरगीत/ भागवत टीका (?) पर रासपंचाध्यायी/एकादशस्कंध ही है91 वर्तमान श्रीमद्भागवत के - 315/ 325/335/345 अध्यायों की संख्या 92 श्रीमद्भागवत पर (?) - वल्लभाचार्य/ मध्वाचार्य/ की व्याख्या नहीं है- रामानुजाचार्य वीरराघवाचार्य 75 भारत में संस्कृत वाङ्मय - गायकवाड ओरिएंटल सीरीज का प्रकाशन (?) द्वारा चौखंभा पुस्तकालय/ अधिक प्रमाण में हुआ- आनंदाश्रम/काशी संस्कृत सीरीज। 76 छह वेदांगों के अतिरिक्त - बृहदेवता/बृहत्सर्वा वेदविषयक जानकारी नुक्रमणी/ चरणव्यूह/ देनेवाला श्रेष्ठ ग्रंथ आर्षानुक्रमणी 77 श्रीरामचंद्र की रासलीला - आनंदरामायण/ . का वर्णन (?) में है- भुशुंडीरामायण/ अद्भुत रामायण/ अग्निवेशरामायण 78 विष्णुपुराण के अनुसार - ब्रह्म/ ब्रह्मवैवर्त/ ब्रह्माण्ड/ (?) पुराण अंतिम है गरुड। 91 रामोपासक रसिक - मैंन्दरामायण/ मंजुल रामायण सम्प्रदाय का (?) भुशुण्डिरामायण/ उपजीव्य ग्रंथ है- सौर्यरामायण 92 भुशुण्डिरामायण का - वाल्मीकिरामायण/ अध्यात्मआदर्श उपजीव्य ग्रंथ रामायण/श्रीमद्भागवत/ सौहार्दरामायण। 93 भुशुण्डि रामायण की - 6/16/26/36/ श्लोकसंख्या (?) हजार 38 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 94 वामन पुराण के मतानुसार मत्स्य/ कूर्म / वराह/ भागवत (?) पुराण सर्वश्रेष्ठ है 95 महानारायणीयोपनिषद् (?) आरण्यक के अन्तर्गत है 96 पातंजल महाभाष्य के कुल अड़िकों की संख्या (?) है 97 पाणिनिकृत अष्टाध्यायी सूत्रों की संख्या 39 सौ से (?) अधिक है98 पातंजल महाभाष्य में 16 सौ से अधिक (2) सूत्रोंपर भाष्य लिखा हुआ है 99 व्याकरण महाभाष्य की खंडित अध्ययन परंपरा पुनरुज्जीवित करने का कार्य सर्वप्रथम (?) ने किया 1100 शुक्ल यजुर्वेद की मध्यंदिन शाखा के मंत्रों की कुल संख्या 19 सौ से अधिक (2) है 101 शून्यवाद विषयक - 104 जैमिनिकृत मीमांसा सूत्रोंकी कुल संख्या 26 सौ से अधिक (?) है105 द्वादशलक्षणी नामसे (?) ग्रंथ के प्रारंभिक 12 अध्याय प्रसिद्ध है106 मुग्धबोध व्याकरण के लेखक (?) है107 मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद - तैत्तिरीय बृहद ऐतरेय शांखायन । - 65/75/ 85/95 61/71/81/95 69/ 79/89/99 माध्यमिक कारिका के लेखक (?) है 102 माध्यमिककारिका ग्रंथ में 300/350/400/450/ कारिकाओं की संख्या (?) है 103 दश शिवागम / अष्टादश रुद्रागम और चतुःषष्टि (64) भैरवागों के सारभूत शास्त्र को (?) कहते है चंद्रगोमी क्षीरस्वामी/ दयानन्द सरस्वती / भर्तृहरि । 65/75/ 85/95 चन्द्रकीर्ति/ बुद्धपालित/ भावविवेक नागार्जुन/ तंत्रशास्त्र / मंत्रशास्त्र / त्रिक शास्त्र / छंदः शास्त्र 24/34/44/ 54 ब्रह्मसूत्र / मीमांसासूत्र / कामसूत्र योगसूत्र / बोपदेव / भर्तृहरि / देवनंदी/ शर्ववर्मा/ पैप्पलाद शौनकीय/ www.kobatirth.org की (?) शाखा से संबंधित है 108 अथर्ववेद की कुल शाखाएँ (?) है 109 सुवर्ण बनाने की प्रक्रिया का वर्णन (?) तंत्र में है1110 पातंजल महाभाष्य के अनुसार यजुर्वेद की (?) शाखाएँ कही गयी है 111 यजुर्वेद संबंधित ऋत्विज को (?) कहते 112 शुक्ल यजुर्वेद में (?) अध्याय है 113 शुक्ल यजुर्वेद का 40 वा अध्याय ही (?) उपनिषद है 114 द्वादशविद्याधिपति उपाधि सेभूषित (?) थे 116 याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रथम व्याख्याकार ( ? ) है 117 योगवासिष्ठ के अपर 118 योगवासिष्ठ की श्लोक (?) हजार - 121 रघुवंश महाकाव्य में (?) राजाओं के आख्यान वर्णित है122 रसगंगाधर में काव्य के - 119 लघुयोगवासिष्ठ के लेखक गौड अभिनन्द का समय (?) शती है120 तंजौरनरेश रघुनाथनायक विषयक रघुनाथाभ्युदय महाकाव्य (?) ने लिखा है For Private and Personal Use Only प्रकार (?) माने है 123 रसगंगाधरकार ने (?) अलंकारोंकी चर्चा की है - देवदर्श/ चारणवैद्य / 7/8/9/10 आर्षरामायण / वसिष्ठ नामों में (?) नाम नहीं है महारामायण / मोक्षोपायसंहिता रामाश्वमेघ । 12/22/32/42 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृडानीतंत्र / मृत्युजयतंत्र/ मेरुतंत्र / कुलार्णवतंत्र | 86/ 100/ 107/ 109 होता/ अध्वर्यु/ ब्रह्मा/ छन्दोग / 40/50/60/70/ ईश / केन / कठ / प्रश्न वादिराजसूरि/ श्रुतसागरसूरि सोमदेवसूरि/ सकलकीर्ति/ विज्ञानेश्वर / विश्वरूप/ धर्मेश्वर / अपरार्क/ 8/9/10/11 यज्ञनारायण / राजचूडामणि/ रामभद्राम्बा / कृष्णकवि । 21/31/41/51 2/3/4/5 51/61/71/ 81 संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 39 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 124 कुवलयानंदकार अप्पय्य - 114/124/134/144 दीक्षित ने (?) अलंकारों की चर्चा की है125 भारतीय रसायनशास्त्र का - रसचंद्रिका/रसजलनिधि/ विवेचन (?) ग्रंथ में है- रसप्रदीप/ रसमंजरी। 126 रसजलनिधिके लेखक - विश्वेश्वर पांडेय/ (?) थे भूदेव मुखोपाध्याय प्रभाकरभट्ट/ भानुदत्त। 127 आयुर्वेदीय रसविद्या का - रसरत्नाकर प्राचीनतम ग्रंथ (?) है- (या रसेन्द्रमंमल) रसजलनिधि/रसरत्नसमुच्चय रसमंजरी 128 नागार्जुन के रसविद्या . रसेन्द्रमंगल/ रसजलनिधि/ विषयक ग्रंथ का नाम रसरत्नसमुच्चय/रसमंजरी/ काव्य लिखने की परम्परा बाणभट्ट/ विशाखदत्त । के प्रवर्तक (?) है139 भट्टिकाव्य का वास्तव - रावणवधम/रामोदयम्/ नाम (?) है रामायणकाव्यम्/ रावणार्जुनीयम् 1140 भट्टिकाव्य के 22 सर्गो में - 24/25/34/35 कुल श्लोकसंख्या 36 सौ से (?) अधिक है141 रुद्राध्याय के 'नमक' और- 10/11/12/13 | 'चमक' नाम के दो भागों में प्रत्येकशः (?) अनुवाक है142 लंकावतारसूत्र में - रावण/ बिभीषण/ इन्द्रजित्/ विज्ञानवाद का सिद्धान्त कुम्भकर्ण/ भगवान् तथागत ने (?) को बताया है143 लिंगपुराण में अध्यायोंकी- 2/3/4/5 संख्या 160 से (?) अधिक है144 लिंगपुराण में भगवान्, - 8/10/24/28 शिव के (?) अवतार वर्णित है145 भास्कराचार्यकृत सिद्धान्त - अंकगणित/ बीजगणित/ शिरोमणि के लीलावती ग्रहगणित/ भूमिति/ नामक खंड का विषय 129 शिंगभूपाल विरचित - रसार्णवसुधाकर/दशरूपक नाट्यशास्त्र विषयक साहित्यदर्पण/ भावप्रकाशन श्रेष्ठ ग्रंथ का नाम (?) है 1130 राघव-पाण्डवीय के - कामदेव/ जयचन्द्र/भंजदेव रचयिता कविराज (?) रघुराजसिंह के आश्रित थे131 सुप्रसिद्ध राजतरंगिणी में - गोविंद/दुर्लभवर्धन/ वर्णित प्रथम राजा का अनंगपीड/ उच्छल । नाम (?) है132 रामचरितमानसम् का - तिरुवेंकटाचार्य/ रमा संस्कृत रूपांतर (?) ने चौधुरी/ नलिनी पराडकर/ किया है विश्वनाथसिंह महाराज/ 133 श्रीरामरक्षास्तोत्र की कुल - 30/35/40/45 श्लोकसंख्या (?) है134 “चतुर्विंशातिसाहस्त्री - वाल्मीकि-रामायण/ संहिता"- इस नामसे अद्भुतरामायण/आनंद(?) ग्रंथ पहचाना जाता रामायण/ अध्यात्मरामायण 146) सुप्रसिद्ध लीलावती - 10/15/20/ ग्रंथपर (?) टीकाएँ लिखी गई है147 लीलावती का फारसी - अबुल फैजी/ अबुल अनुवाद (?) ने किया फजल/ हारूं अलरशीद/ अल्बेरूनी। 148 लोकेश्वरशतकम् स्तोत्र में - शिव/ विष्णु/बुद्ध/ (?) स्तुति है- महावीर 149 कुन्तककृत वक्रोक्ति- - 160/165/170/1751 जीवित में कारिकाओं की कुलसंख्या (?) है1150 कुन्तक के मतानुसार - 4/6/8/10 वक्रोक्ति के मुख्य भेद 135 सप्तकाण्डात्मक वाल्मीकी- 445/545/645/745 रामायण की कुल सर्ग संख्या (?) है136 वालिवध का आख्यान - अरण्य/किष्किंधा/ सुंदर/ रामायण के (?) काण्ड युद्ध में है137 सम्प्रति उलपब्ध वाल्मीकि- काश्मीर/ बंगाल/ उत्तरी रामायण के तीन संस्करणों भारत/ दक्षिण भारत/ में (?) का संस्करण नहीं माना जाता138 संस्कृत साहित्य में शास्त्र - भटि/ त्रिविक्रम भट्ट/ - 3/4/5/61 151 वेदान्तवादावली ले लेखक जयतीर्थ, माध्वगुरु परंपरा में (?) वे गुरू थे 40 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी For Private and Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 152 वेदान्तवादावली (या . द्वैत/ अद्वैत/ बौद्ध/ जैन/ वादावली) में (?) मत का खंडन प्रमुखता से किया है153 डॉ. रोलाण्ड ने (?) का - वाराह गृह्यसूत्र/ पारस्कर फ्रेंच भाषा में अनुवाद गृह्यसूत्र/ शांखायन गृह्यसूत्र/ किया है बोधायन गृह्यसूत्र । 154 सिंहासन द्वात्रिंशिका का - क्षेमंकर/ हरिभद्र/ जैन संस्करण (?) ने गुणरत्न/ यशोविजय। किया है155 सिंहासन-द्वात्रिंशिका में - भोज/ विक्रमादित्य/ (?) की कथाएँ वर्णित है भर्तृहरि/ उदयन । 156 विक्रमांकदेवचरित - बूल्हर/ एडगर्टन/ महाकाव्य का सर्वप्रथम हर्टल/ याकोबी। प्रकाशन (?) द्वारा हुआ 157 विक्रमांकदेवचरित में - चालुक्य/ चोल/ पाण्ड्य/ (?) वंशीय विक्रमादित्य काकतीय । षष्ठ का पराक्रम वर्णित है 158 विक्रमांकदेवचरितम् के - काश्मीरी/ कर्नाटकी/ महाकवि बिल्हण (?) महाराष्ट्रीय/ राजस्थानी/ थे 159 कालिदासकृत - नाटक/ त्रोटक/ प्रकरण/ विक्रमोर्वशीयम् (?) है- प्रहसन । 1160 विदग्धमाधव नाटक के - चैतन्यमहाप्रभु/रूपगोस्वामी रचयिता (?) थे- सनातन गोस्वामी/ गोस्वामी विठ्ठलदास/ 161 विश्वगुणादर्शचम्पू में - विश्वावसु/कृशानु/ हाहा/ समाज के केवल दोषों का हूहू/ वर्णन (?) गंधर्व ने किया है162 रामानुज संप्रदाय में (?) - विष्णुधर्मोत्तर/ पुराण को परमश्रेष्ठ माना विष्णु/ श्रीमद्भागवत देवीभागवत। 163 विष्णुपुराण का अंग्रेजी - एच.एच.विल्सन/ अनुवाद (?) ने किया है वासुदेवशरण अग्रवाल/ पार्जिटर/ डॉ. हाजरा। 164 वीरमित्रोदय (?) - महाकाव्य/ नाटक/ विषयका ग्रंथ है- धर्मशास्त्र/साहित्यशास्त्र। 165 वीरमित्रोदयकार मित्रमिश्र - मिथिला/ओरछा/ जयपुर/ (?) नरेश के आश्रित थे बघेलखंड। 166 दशकुमारचरित के (?) - चतुर्थ/ पंचम/ षष्ठ/ सप्तम/ उच्छवास की रचना निरोष्ठ्यवर्णात्मक है167 वेदान्तदीप नामक ब्रह्मसूत्र- धर्मराजाध्वरीन्द्र/ की विस्तृत व्याख्या के रामानुजाचार्य/ निंबार्काचार्य लेखक (?) है- यामुनाचार्य 168 निंबार्काचार्यकृत - वेदान्तरत्नमंजूषा/ दशश्लोकी पर पुरुषोत्तम वेदान्तपारिजात सौरभ/ कृत बृहद्भाष्य का नाम वेदान्तकल्पलतिका/ (?) है वेदान्तकौस्तुभ। 169 कणादकृत वैशेषिक - 50/60/70/801 सूत्रोंकी संख्या दो सौ से (?) अधिक है1170 कणाद के वैशेषिक सूत्रों - 8/10/12/14। - का विभाजन (?) अध्यायों में है171 वैशेषिकसूत्राणि- ग्रंथ के - तृतीय/चतुर्थ/ पंचम/ (?) अध्यायम षष्ठ/ परमाणुवाद का प्रतिपादन है172 जीवगोस्वामी कृत - 9/10/11/12 वैष्णवतोषिणी व्याख्या . भागवत के (?) वे स्कंध मात्र पर है173 श्रीमद्भागवत की (?) - वैष्णवानन्दिनी/ वैष्णव व्याख्या में मायावाद का तोषिणी/बृहत्तोषिणी/ खंडन आवेशपूर्वक भावार्थदीपिका/ किया है174 वैष्णवानन्दिनी (भागवत - श्रीधर/जीवगोस्वामी/ व्याख्या) के लेखक सनातन गोस्वामी/बलदेव (?) थे विद्याभूषण/ 175 आनन्दवर्धन के ध्वनितत्त्व- महिमभट्ट/ वामन/ भामह/ का अन्तर्भाव (?) ने रुद्रट अनुमान में किया है176 बृहदारण्यक (?) ब्राह्मण- शतपथ/ कौषीतकी/ ग्रंथ का अंतिम काण्ड है- तैत्तिरीय/ ऐतरेय/ 177 उपलब्ध ब्राह्मण ग्रंथों में - ऐतरेय/ तैत्तिरीय/ (?) प्राचीनतम है- शतपथ/ कौषीतकी/ 178 चक्रपाणिदत्तकृत शब्द - व्याकरण/वैद्यक/न्याय/ चन्द्रिका (?) शास्त्रीय मीमांसा। शब्दकोश है179 व्याकरण विषयक - पंढरीनाथाचार्य गलगली/ प्रबन्धपर साहित्य व्ही. सुब्रह्मण्यम्। अकादमी का पुरस्कार डॉ. श्री. भा. वर्णेकर/ (?) को मिला- वसंत त्र्यंबक शेवडे 1180 सुरेश्वरकृत आयुर्वेदिय - शब्दप्रदीप/ शब्दप्रकाश/ वनस्पतिकोश का नाम शब्दतरंगिणी/ शब्दकौस्तुभ/ संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोत्तरी / 41 For Private and Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 181 शब्दानुशासन के रचयिता - जैन/ बौध्द / शैव / वैष्णव । चन्द्रगोमी (?) वैयाकरण - 182 प्रभाचन्द्रकृत जैनेन्द्र व्याकरण का नाम (?) 183 ऋग्वेद में सर्वाधिक मंत्र (2) देवताविषयक है 184 ऋग्वेद का सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद (?) ने किया 185 अश्वघोष कृत शारीपुत्र प्रकरण का प्रथम प्रकाशन ल्यूडर्स द्वारा (2) में हुआ 186 संस्कृत साहित्य का प्रथम प्रतीकनाटक (?) है 187 शान्तिदेवकृत शिक्षा 187 सुप्रसिद्ध शिवमहिस्रः समुच्चय में (?) पंथ का आचारधर्म प्रतिपादित है स्तोत्र का मूल नाम (?) है 188 (?) महाकाव्य को 'क' उपाधि दी गयी है - - 1190 शुक्लयजुर्वेद का अपरनाम (?) संहिता है 191 सबसे बडा एवं प्राचीन शुल्बसूत्र (?) है192 शुल्बसूत्र (?) सूत्र मे अन्तर्भूत है 193 कल्पसूत्रों में (7) सूत्र का अन्तर्भाव नहीं होता194 बोधायन शुल्बसूत्र में पांचसौ से अधिक (?) सूत्र है 195 शून्यतासप्तति के 42 / संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी - 189 मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति द्वारा तत्त्वोपदेश (?) काव्य में किया है - - शब्दाम्भोजभास्कर / शब्दार्णव / शब्दार्थचिन्तामणि www.kobatirth.org शब्दावतारन्यास | इन्द्र / अग्नि / वरुण / रुद्र । व्हिटने मैक्समूलर मैक्डोनल/ कोलबुक पॅरीस / बर्लिन / ऑक्सफोर्ड / अॅम्सटरडॅम । शारीपुत्रप्रकरण / प्रबोधचंद्रोदय/ संकल्पसूर्योदय/ अनुमितिपरिणय/ महायान / हीनयान / दिगंबर / लंबर/ धूर्जटिस्तोत्र/ शिवभक्तानन्दम्/ शिव पुष्पांजलि/शिवभक्तिरसावनम् नैषधीयचरित/ शिशुपालवध किरातार्जुनीय कुमारसम्भव शीलदूत/ हंसदूत/ विप्रसंदेश / मानससंदेश । वाजसनेयी/ पिप्पलाद / तैत्तिरीय/ जैमिनीय । बोधायन / आपस्तंब / सत्याषाढ / कात्यायन । न्याय / काम / कल्प/ ब्रह्म । धर्म / श्रौत / गृह्य / काम / 20/25/30/35 नागार्जुन/ ईश्वरकृष्ण / रचयिता ( ? ) थे 196 अथर्ववेद की शौनक संहिता में (?) कोड है 197 (?) वेद से संबंधित उपनिषदों की संख्या सर्वाधिक है 198 श्रीकण्ठचरित के 199 सुप्रसिद्ध श्रीसूक्त में ऋचाएँ (?) है 201 जीव गोस्वामी कृत काश्मीर / पंजाब/ महाकवि मंखक (?) के हरियाणा / राजस्थान निवासी थे। 202 रुद्रयामल की श्लोकसंख्या (?) लक्ष से अधिक है203 सध्दर्मपुण्डरीक - बौद्धों के (?) मत का प्रमुख ग्रंथ है 205 दशनामी संन्यासियों की उपाधियों में (?) उपाधि नहीं है - षट्संदर्भ में ( ? ) विषयक छह निबंधों का समुच्चय है - दो सौ से अधिक (?) रागों का उल्लेख है209 तीर्थस्वामी द्वारा संकलित सहस्रनामों की संख्या (2) 8 1210 संगीत विषयक अग्रगण्य ग्रंथ (?) है 1200 कृष्णयजुर्वेद के श्वेताश्वतर - 3/6/9/12 उपनिषद में (?) अध्याय है 211 संगीत रत्नाकर के रचयिता (2) है212 संस्कृतचंद्रिका (पत्रिका) · For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वसुबन्धु / कल्याणरक्षित । 10/15/20/ 251 - ऋग्वेद यजुर्वेद / सामवेद / अथर्ववेद / 20/25/ 30/35 उपनिषद् / रामायण / भागवत / महाभारत । पाऊन / एक/ सव्वा/ डेढ 206 सप्तसन्धान महाकाव्य के मेघविजयगणी / हरिभद्रसूरि लेखक (?) थेवादसिंह सोमेश्वर 207 भोजकृत समरांगण सूत्रधार ग्रंथ का विषय (?) है 208 संगीत रत्नाकर ग्रंथ में महायान / हीनयान / योगाचार/ सहजयान तीर्थ / अरण्य / सरस्वती/ आनन्द / युद्धशास्त्र / नाट्यशास्त्र / वास्तुशास्त्र / राजनीति / 50/55/60/ 65 1 10/ 20/30/40/ संगीतरत्नाकर/ संगीतमकरन्द/ संगीतपारिजात/ संगीतचूडामणि शाईगदेव / जगदेकमल्त/ अहोबिल / नंजराज । आप्पाशास्त्री राशिवडेकर / Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थे 227 के प्रथम संपादक (?) जयचंद्र भट्टाचार्य/ अन्नदाचरण तर्कचूडामणि/ कालीपद तर्काचार्य। 213 ऋग्वेद के संवादसूक्तों - 10/15/20/25 । की संख्या (?) है214 संहितोनिषद् ब्राह्मण (?) - ऋग्वेद/ यजुर्वेद/सामवेद/ वेद से संबंधित है- अथर्ववेद 215 संहितोपनिषद् ब्राह्मण का - बर्नेल/ श्रोडर/विंटरनिट्झ/ प्रथम संपादन (?) ने हर्टल। किया216 सांख्यकारिका की सर्वश्रेष्ठ- सांख्यतत्त्वकौमुदी/ व्याख्या (?) मानी जयमंगला माठरवृत्ति/ जाती है गौडपादभाष्य। 217 सामवेद की कौथुमी - 4/6/8/10 शाखा के ब्राह्मण ग्रंथ (?) बौध्द ग्रंथ की गण्डव्यूहसूत्र/ अर्थविनिश्चयप्रतिष्ठापना के लिये सूत्र/ सध्दर्मपुण्डरीकसूत्र सुवर्णमंदिर बनवाया महायान संप्रदाय के - 4/5/6/71 सुवर्णप्रभासूत्र का प्रथम चीनी अनुवाद (?) शताब्दी में हुआ228 नागार्जुन के सुहल्लेख - तिब्बती/चीनी/ जापानी/ नामक लोकप्रिय नीति- सिंहली काव्य का केवल अनुवाद (?) भाषा में उपलब्ध है 229 सुप्रसिद्ध सूर्योदय - गोविंद वैजापुरकर/ मासिका पत्रिका के विन्ध्येश्वरीप्रसाद शास्त्री/ सम्पादक (?) नहीं थे- शशिभूषण भट्टाचार्य/ राजेश्वरशास्त्री द्रविड। 1230 शंकराचार्यकृत सौंदर्य - आनन्दलहरी/पीयूषलहरी/ लहरी स्तोत्र का अपरनाम लक्ष्मीलहरी/ मातृभूलहरी। 218 सामवेद की जैमिनीय - तलवलकार/ आर्षेय/ शाखा का ब्राह्मण (?) सामविधान/ छांदोग्य । नाम से प्रसिद्ध है219 प्राकृतभाषा के सर्वप्रथम - सिद्धहेमशब्दानुशासन/ व्याकरण का नाम (?) कातंत्र व्याकरण/सुपद्म व्याकरण/ शाकटायन व्याकरण 1220 19 वीं शती में निंबार्क - शुकदेव/ केशव काश्मीरी/ मतानुसार, श्रीमद्भागवत श्रीधर/ मुरलीधर । की सिद्धान्तप्रदीप व्याख्या (?) ने लिखी 221 सम्राट हर्षवर्धनकृत - सुप्रभातस्तोत्रम्/ बुद्धस्तोत्र/ 24 श्लोकों के बुद्धस्तोत्र तथागतस्तुति/ सुगतस्तव। का नाम (?) है222 भरत मल्लिककृत सात - सुबोधा/सुबोधिनी/ प्रदीप/ टीकाओंका एकमात्र नाम प्रदीपिका/ 231 अठारहपुराणों में आकार - मत्स्य/ कूर्म/ वराह/ स्कन्द/ में सबसे बडा (?) पुराण है232 स्कन्धपुराण (?) खण्डों - 7/8/9/10। में विभाजित है233 स्कन्धपुराण की उत्पत्ति - काशी/रेवा/ तापी/प्रभास एवं परम्परा की जानकारी (?) खंड में दी है234 यामुनाचार्य (एक - स्तोत्ररत्न/ सिद्धित्रय/ आलवार संत) के चार आगमप्रामाण्य/ गीतार्थसंग्रह ग्रंथों में (?) अत्यंत लोकप्रिय है235 काश्मीरीय स्पंदशास्त्र - शैव/वैष्णव/ बौद्ध/ शाक्त/ (?) मत का प्रतिपादन करता है236 स्वात्माराम कृत हठयोग - 136/146/156/1661 प्रदीपिका में योगविषयक (?) विषयों की चर्चा हुई 223 वल्लभाचार्यकृत भागवत - सुबोधिनी/ मुक्ताफल/ की टीका का नाम (?) हरिलीलामृत/ अन्वितार्थप्रकाशिका। 224 श्रीमद्भागवत को - वल्लभाचार्य/ रामानुजाचार्य "चतुर्थ प्रस्थान" (?) ने मध्वाचार्य/ निंबार्काचार्य। ___ माना है225 सुप्रसिद्ध सुभाषित - 8/10/12/141 रत्नभाण्डागारम् की (?) आवृत्तियाँ अभी तक प्रसिद्ध हो चुकी है226 जापान के अधिपतिने - सुवर्णप्रभासूत्र/ 237 महाभारत के खिलपर्व का- हरिवंश/ हरिवंशपुराण/ अपर नाम (?) है- हरिवंशविलास हरिभक्तिविलास। 238 हरिवंश के 318 अध्यायों - 20/22/23/25 । की श्लोकसंख्या (?) हजार से अधिक मानी जाती है संस्कृत वाङ्मय प्रश्नोत्तरी / 43 For Private and Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 241 हितोपदेश के रचयिता - बंगालनरेश धवलचंद्र/ नारायणपंडित (?) के काश्मीरनरेश-अवंतिवर्मा/ आश्रित थे मालवनरेश भोज/ तंजौरनरेश शहाजी। 239 हंसगीता महाभारत के - भीष्म/ शांति/ आश्रमवासी/ (?) पर्व का अंश है- खिल/ 1240 भागवतोक्त हंसगीता - 11/12/13/14/ एकादशस्कन्ध के (?) अध्यायका अंश है .44 । संस्कृत वाङ्मय प्रश्रोनरी For Private and Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बंगाल कलकत्ता 33 जैसोर कलकत्ता "3 " "1 " धुलजोडा (फरीदपुर) कलकत्ता "" " उत्कल : गंजाम राउरकेला जगन्नाथपुरी आंध्र : विजयापटनम् तिरुपति " हैदराबाद गुण्टुरु हैदराबाद राजमहेंद्री चित्तूर तमिलनाडू पट्टाम्बि नांदुकावेरी मद्रास "" www.kobatirth.org पत्र-पत्रिकाएं आर्यविद्यासुधानिधि श्रुतप्रकाशिका द्वैभाषिका उषा अरुणोदय मानवधर्मप्रकाश आर्यावर्त तत्त्ववारिधि चिकित्सासोपान आर्यप्रभा संस्कृत साहित्य परिषत्पत्रिका संस्कृत पद्यगोष्ठी देववाणी संस्कृतपद्यवाणी मंजूषा संस्कृतसाप्ताहिक पत्रिका प्रणवपारिजात सनातनधर्मशास्त्रम् संस्कृतसमाजः मनोरमा उत्कलोदय दिग्दर्शिनी स्मरणिका सकलविद्याभिवर्धिनी उद्यानपत्रिका नृसिंहप्रिया कौमुदी भाषा आराधना रंगिणी संस्कृतवाणी गैर्वाणी विज्ञानचिन्तामणि अविद्या लोकानंददीपिका सहदया For Private and Personal Use Only प्रारंभ वर्ष 1878 1876 1887 1889 1890 1891 1895 1898 1909 1918 1926 1934 1934 1935 1934 1958 1965 1967 1949 1892 1926 1942 1944 1955 1956 1958 1958 1962 1883 1885 1887 1895 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संदर्भ ग्रन्थ सूची / 45 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांची मद्रास चिदम्बरम् 1896 1899 1901 1901 1902 1902 1902 पेरुटुम्बूर कोटिलिंगपुर श्रीरंगम् त्रिचनापल्ली मद्रास श्रीवेंकटेश्वर-पत्रिका शास्त्रमुक्तावली ग्रंथप्रदर्शिनी भारतधर्म ब्रह्मविद्या विचक्षणा रसिकरंजिनी विशिष्टाद्वैतिनी सहृदया विश्वजित वीरशैव प्रभाकर विद्यावली मनोरंजिनी विद्वन्मनोरंजिनी षङ्दर्शिनी हिंदुजनहितकारिणी व्याकरणग्रंथावली कामधेनु ब्रह्मविद्या आनंदकल्पतरु कांचीवरम् श्रीरंगम् मद्रास तंजौर मद्रास 1905 1906 1906 1906 1906 1907 1907 1907 1912 1914 1924 1936 1956 कोइम्बतूर केरल: कट्टर मलबार त्रिवेंद्रम कोचीन त्रिवेंद्रम त्रिपुणिथुरै कर्नाटक : धारवाड बेंगलोर विद्यार्थचिन्तामणि केरलग्रंथमाला जयन्ती अमरभारती श्रीचित्रा श्रीरविवर्म ग्रन्थावली 1900 1906 1907 1910 1942 1953 नरगुंद 1893 1893 1897 1910 1916 1923 मैसूर काव्यनाटकादर्श काव्याम्बुधि काव्यकल्पद्रुम पुरुषार्थ जिनमतपत्रिका आनंदचंद्रिका द्वैतदुंदुभि श्रीमन्महाराज कालेज पत्रिका मधुरवाणी शंकरगुरुकुलम् अमृतवाणी वैजयन्ती 1923 1925 बेंगलोर विजापुर मैसूर बेलगाव श्रीरंगम् बेंगलोर बागलकोट बेलगांव उडुपि गदग 1935 विद्या गीता 1936 1941 1953 1956 1958 1958 1970 मधुरवाणी मैसूर सुधर्मा 46 / संदर्भ ग्रन्थ सूची For Private and Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेंगलोर प्रज्ञालोकः 1976 महाराष्ट्र पुणे पुणे मुंबई कोल्हापूर 1875 1878 1899 1893 1893 1895 मुंबई मुंबई पुणे मुंबई 1895 कोल्हापूर षड्दर्शनचिन्तनिका काव्योतिहाससंग्रह ग्रन्थरत्नमाला संस्कृतचंद्रिका श्रीपुष्टिमार्गप्रकाश संस्कृतटीचर कवि काव्यमाला कथाकल्पद्रुम समस्यापूर्ति सूनृतवादिनी वीरशैवमतप्रकाश बहुश्रुत भारतसुधा गीर्वाणसुधा मीमांसाप्रकाश भारतीविद्या सुरभारती वर्धा पुणे मुंबई 1897 1899 1900 1906 1906 1914 1930 1980 1936 1937 1945 1976 1937 1949 1951 संविद् नागपुर पुणे भारतीविद्या बालसंस्कृतम् 'संस्कृतभवितव्यम् भारतवाणी शारदा गुंजारव संस्कृति 1958 1959 अहमदनगर 1966 1961 गुजरात अहमदाबाद 1906 1916 नाडियाद बडौदा भारतदिवाकर गीर्वाणभारती पीयूषपत्रिका सरस्वतीसौरभ सुरभारती अमृतलता ऋतम्भरम् सामंजस्यम् शारदापीठपत्रिका 1931 1960 1962 1964 1965 पारडी अहमदाबाद द्वारका राजस्थान: जयपुर भरतपुर जयपुर संस्कृतरत्नाकर विद्याविनोद भारती कल्याणी 1904 1906 1950 1964 संदर्भ ग्रन्थ सूची / 47 For Private and Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1970 उदयपुर अजमेर मधुमती वेदसविता संस्कृतकल्पतरु विद्योदय आर्य उद्योत उषा विश्वसंस्कृतम् 1871 1882 1928 1934 1963 दिव्यज्योतिः 1956 1933 वैष्णवी 1953 संस्कृतसंदेश जयतु संस्कृतम् 1960 1866 1867 1867 1875 1875 पंजाब लाहौर लाहौर लाहौर लाहौर होशियारपुर हिमाचलप्रदेश शिमला काश्मीर श्रीनगर जम्मू नेपाल :काठमाण्डू काठमाण्डू उत्तरप्रदेश :वाराणसी वाराणसी आगरा आगरा प्रयाग वाराणसी बरेली मथुरा इलाहाबाद प्रयाग फरुखाबाद प्रयाग मेरठ हरिद्वार वाराणसी वाराणसी वृन्दावन वाराणसी वाराणसी मथुरा वाराणसी वाराणसी वाराणसी दिल्ली हरिद्वार 1879 1883 1887 1887 1888 1890 1895 काशीविद्यासुधानिधि प्रत्यग्रनन्दिनी धर्मप्रकाश सद्धर्मामृतवर्षिणी प्रयागधर्मप्रकाश कामधेनु धर्मप्रदेश आयुर्वेदोध्दारक आर्यसिद्धान्त विद्यामार्तण्ड पीयूषवर्षिणी प्रयागपत्रिका भारतोपदेशक देवगोष्ठी श्रीकाशीपत्रिका सूक्तिसुधा वैष्णवसंदर्भ मित्रगोष्ठी विद्वद्गोष्ठी सद्धर्म साहित्यसरोवर विद्यारत्नाकर मिथिलामोद आयुर्वेदपत्रिका उषा 1897 1900 1901 1903 1903 1904 1905 1906 1910 1910 1905 1913 1913 48 / संदर्भ ग्रन्थ सूची For Private and Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इलाहाबाद अयोध्या वाराणसी अयोध्या वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी हरिद्वार आगरा वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी वाराणसी फतेहगढ दिल्ली मथुरा वाराणसी वाराणसी लखनऊ वाराणसी रामनगर (वाराणसी) हरिद्वार 1913 1920 1920 1920 1923 1924 1926 1926 1928 1934 1935 1936 1936 1938 1939 1940 1940 1941 1942 1943 1948 1950 शारदा संस्कृतसाकेत सरस्वतीभवन ग्रंथमाला संस्कृतम् सुप्रभातम् सुर्योदय सुरभारती सहस्रांश ब्राह्मणमहासंमेलनम् अमरभारती वल्लरी दिवाकर कालिन्दी शारदा ज्योतिष्मती संस्कृतसंदेश भारतश्री उच्छृखलम् सारस्वतीसुषमा अमरभारती वेदवाणी भारतीविद्या संस्कृतप्रचारकम् विद्यालयपत्रिका प्रतिभा पंडितपत्रिका ज्ञानवर्धिनी सुरभारती पुराणम् गुरुकुलपत्रिका संस्कृतप्रभा संगमनी गाण्डीवम संस्कृतस्त्रोतस्विनी ऋतम् शिक्षाज्योतिः प्राची विमर्शः परमार्थसुधा अजस्त्रा वेदान्तसन्देश पर्यालोचनम् संस्कृतप्रचारकम् सर्वगन्धा मेरठ 1950 1951 1951 1953 1959 1959 1959 1960 1960 1964 1964 1965 1966 1970 1970 1973 प्रयाग वाराणसी आगरा लखनऊ दिल्ली वाराणसी दिल्ली वाराणसी लखनऊ कानपुर इटावा दिल्ली लखानऊ 1977 संदर्भ ग्रन्थ सूची / 49 For Private and Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मध्यप्रदेश :ग्वालियर ग्वालियर ग्वालियर मंदसौर काव्यकादम्बिनी विद्कला ग्वालियरसंस्कृतग्रंथमाला मालवमयूर रायपुर मेधा 1896 1900 1937 1946 1961 1962 1962 1964 1964 1965 सागरिका मध्यभारती हितकारिणी ऋतम्भरा मालविका सागर जबलपुर जबलपुर जबलपुर भोपाल बिहार :पटना पटना पटना पटना मुंगेर दरभंगा विद्यार्थी धर्मनीतितत्व मित्रम् 1878 1880 1918 1940 1960 1963 1964 1964 1966 1967 संस्कृतसंजीवन देववाणी कामेश्वरसिंहसंस्कृत विद्यालय पत्रिका संस्कृतसंमेलनम् देववाणी पाटलश्री मागधम् पटना मुंगेर पटना आरा For Private and Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगीतशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ग्रंथकार विशेष 38 अध्याय उमापतिशिवार्य (11 वीं शती)। मदनपाल, कनौज के अधिपति (12 वीं शती)। जयसेनापति। पार्श्वदेव (जैन पंडित)। लक्ष्मणभास्कर। सुधाकलश (जैन पंडित)। अष्टावधानी सोमनाथ (14 वीं शती)। 13 वीं शती 3 अध्याय पौराणिक शैली में लिखित 9 अधिकरण 14वीं शती 14 वीं शती 7 अध्याय औमापतम् आनंदसंजीवन नृत्यरत्नावली रामसागर संगीतसमयसार मतगभरत संगीतोपनिषद स्वररागसुधारस (अपरनाम नाट्यचूडामणि) भरतसंग्रह संगीतनारायण संगीतसार संगीतराज (संगीतमीमांसा) संगीतसर्वस्व संगीतमुक्तावली स्वरमेलकलानिधि रागमाला 16 हजार श्लोक चिक्कदेवराय (मैसूर निवासी)। नारायणदेव। विद्यारण्यस्वामी। कुंभकर्ण (15 वीं शती)। (सती मीराबाई के पति)। जगद्धर (15 वीं शती)। देवणाचार्य (15 वीं शती)। रामामात्य (16 वीं शती)। क्षेमकर्ण। जीवराज। विट्ठल पुंडरीक। मालतीमाधव के प्रसिद्ध टीकाकार)। 5 अध्याय 16 वीं शती 16 वीं शती। नर्तननिर्णय रागमंजरी सद्ागचंद्रोदय रागनारायण संगीतदामोदर संगीतसूर्योदय रागतालपारिजातप्रकाश भरतशास्त्रग्रंथ रागविबोध संगीतदर्पण संगीतसंप्रदाय-प्रदर्शिनी चतुर्दण्डिप्रकाशिका संगीत सारसंग्रह संगीत पारिजात शुभंकर (16 वीं शती)। लक्ष्मीनारायण गोविंद। लक्ष्मीधर। सोमनाथ। चतुरदामोदर। वेंकटेश (अथवा वंकटमखी)। (16 वीं शती) (17 वीं शती) (लक्षणगीत संग्रह) 6 अध्याय जगज्योतिर्मल्ल (17 वीं शती)। अहोबिल (17 वीं शती)। फारसी भाषा में अनुवाद हुआ भवभट्ट (17 वीं शती)। बिकानेर के राजा अनपूपसिंह के आश्रित अनूपसंगीतविलास अनूपसंगीतरत्नाकर अनूपसंगीतांकुश संदर्भ ग्रन्थ सूची / 51 For Private and Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 वीं शती नृत्यविषयक ग्रंथ 18 वीं शती बलरामभरत बलरामवर्मा (त्रिवांकुर-नरेश)। संगीत सारामृत तुकोजी भोसले (तुलजाराज 18 वीं शती)। नाट्यवेदागम रागमालिका (अथवा कलांकुर निबंध) पुरुषोत्तम (कविरत्न) संगीतनारायण गजपति वीरश्री नारायण संगीतसागर प्रापसिंह देव, जयपुरनेश (18 वीं शती) मेलरागमालिका महाविद्यानाथ शिव लक्ष्यसंगीत विष्णु नारायण भातखंडे (19-20 वीं शती) अभिनव-रागमंजरी अभिनव-तालमंजरी रागकल्पद्रुम कृष्णानंद व्यास संगीत विषयक ज्ञानकोश 52 / संदर्भ ग्रन्थ सूची For Private and Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ग्रंथ कविशिक्षा वृत्तरत्नाकर अभिनववृत्तरत्नाकर श्रुतबोध छन्दोमंजरी प्रस्तारचिन्तामणि वृत्तदर्पण जगन्मोहन वृतशतक वृत्त वृत्तकल्पद्रुम वृत्त वृत्तकौमुदी वृत्त वृत्तदीपिका वृत्तप्रत्यय कृतप्रदीप वृत्तप्रदीप वृत्तमाला वृत्तवार्तिक वृत्तविनोद वृत्तविवेचन वृत्तसुधोदय वृत्तरामास्पद वृत्तसार वृतसिद्धांतमंजरी वृत्ताभिराम वृत्तरामायण कृष्णवृत्त नृसिंहवृत्त वृतकारिका वृत्तमणिमालिका कृतमनि कर्णानंद ग्रंथकार जयमंगलाचार्य (12 वीं शती) केदार भट ( 15 वीं शती) जगद्गुरु रामचरण भास्कर कालिदास गंगादास वैद्य (बंगाली) (15 वीं शती) चिन्तामणि ज्योतिर्विद (17 वीं शती) सीताराम वासुदेव ब्रह्मपंडित नृसिंह भागवत जयगोविंद विश्वनाथ कृष्ण शंकर दयालु जनार्दन बदरीनाथ विरूपाक्ष यज्वा उभापति विद्यानाथ फतेहगरि दुर्गासहाय छन्दः शास्त्रविषयक महत्त्वपूर्ण उत्तरकालीन ग्रंथों की सूची : मथुरानाथ शुक्ल वाणीविलास खेमकरण मिश्र भारद्वाज रघुनाथ रामचंद्र रामस्वामी शास्त्री नारायण पुरोहित www.kobatirth.org श्रीनिवास यशवन्त गंगाधर कृष्णदास अध्याय संख्या 6 इस ग्रंथपर अनेक निद्वानों ने टीकाएं लिखी हैं। टीकालेखक श्रीनिवास छन्दः शास्त्र विषयक लोकप्रिय ग्रंथ इस पर अनेक टीकाएं उपलब्ध हैं। छंदों के उदाहरण स्वलिखित श्लोकों में दिए हैं। अध्याय संख्या 3 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संदर्भ ग्रन्थ सूची / 53 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्णसंतोष काव्यजीवन समक्तसार वृत्तमणिकोश वाणीभूषण वृत्तमुक्तावली छन्दप्रकाश छन्दःसुधाकर छन्दःकल्पकता छन्दःकोश छन्दश्चूडामणि छन्दःपीयूष छन्दोमुक्तावली छन्दोनुशासन छन्दःसुन्दर छन्दोमाला छन्दःकौस्तुभ छन्दोव्याख्यासार वृत्तचिंतारत्न वृत्तदर्पण मुद्गल प्रीतिकर नीलकण्ठाचार्य श्रीनिवास दामोदर कृष्णाराम मल्लारि दुर्गादत्त गंगादास व्यासमित्र (16 वीं शती) शेषचिन्तामणि कृष्णराम मथुरानाथ रत्नशेखर हेमचंद्र जगन्नाथ शम्भुराम जिनेश्वर नरहरि शार्गंधर राधादामोदर कृष्णभट् शांताराम पण्डित भीष्मचन्द्र 54 / संदर्भ ग्रन्थ सूची For Private and Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नुशीलन संस्कृत वाङ्मय कोश- संदर्भग्रंथ सूची 1) अमरकोश का कोशशास्त्रीयः कैलाशचंद्र त्रिपाठी 25) जैन साहित्य का इतिहास : ले.नाथुराम प्रेमी तथा भाषा शास्त्रीय 26) जैन साहित्य का बृहद : पं. बेचरदास दोशी। अध्ययन इतिहास (भाग-1) (पार्श्वनाथ विद्याश्रम 2) अर्वाचीन संस्कृत साहित्य : डॉ. श्री. भा.वर्णेकर शोधसंस्थान, वाराणसी-5) (मराठी) 27) जैन साहित्य का बृहद डॉ. जगदीशचंद्र जैन व 3) अलंकार शास्त्र का इतिहास : कृष्णकुमार इतिहास (भाग-2) डॉ.मोहनलाल मेहता. 4) अष्टादश पुराण दर्पण :ले.पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र (पार्श्वनाथ विद्याश्रम 5) अष्टादश पुराण परिचय : डॉ.श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी शोधसंस्थान वाराणसी-5) 6) आचार्य पाणिनि के समय : पं.युधिष्ठिर मीमांसक 28) जैन साहित्य का बृहद् : डॉ. मोहनलाल मेहता. विद्यमान संस्कृत वाङ:मय इतिहास (भाग-3) पार्श्वनाथ विद्याश्रम 7) आधुनिक संस्कृत/नाटक : डॉ. रामजी उपाध्याय शोधसंस्थान वाराणसी-5 (2 भाग) 29) जैन साहित्य का बृहद : डॉ. मोहनलाल मेहता 8) आधुनिक संस्कृत साहित्य : डॉ. हीरालाल शुक्ल इतिहास (भाग-5) व प्रो. हिरालाल कापडिया रचना- प्रकाशन, इलाहाबाद (पार्श्वनाथ विद्याश्रम 9) आधुनिक संस्कृत साहित्या- : डॉ. रामजी उपाध्याय शोधसंस्थान वाराणसी-5) 30) जैन साहित्य का बृहद् : पं. अंबालाल शाह (पा.वि. 10) आयुर्वेद का इतिहास : कविराज वागीश्वर शुक्ल इतिहास (भाग-5) सं. वाराणसी-5) 11) आयुर्वेद का बृहद् इतिहास : अत्रिदेव विद्यालंकार 12) इतिहास पुराण का : डॉ. रामशंकर महाचार्य 31) जैन साहित्य का बृहद् : (भाग-6) अनुशीलन इतिहास 13) इतिहास पुराण साहित्य : डॉ. कुंवरलाल 32) जोधपूर राज्य का इतिहास : डॉ.मांगीलाल व्यास । का इतिहास (पंचशील प्रकाशन, 14) कालिदास साहित्य कोश : डॉ.हिरालाल शुक्ल, घोडारास्ता, जयपूर) भोपाल वि.वि. 33) तांत्रिक साहित्य : पं. गोपीनाथ कविराज। 15) गणित का इतिहास डॉ.व्रजमोहन 34) तिब्बत में बौद्ध धर्म : पं. राहुल सांकृत्यायन. 16) गणित का इतिहास : सुधाकर द्विवेदी 35) दर्शनदिग्दर्शन : राहुल सांकृत्यायन 17) गणितीय कोश : डॉ.व्रजमोहन 36) धर्मशास्त्र का इतिहास : भारतरत्न म.म. पांडुरंग वामन 18) चम्पू काव्य का : डॉ.छबिनाथ त्रिपाठी काणे। (अनु.अर्जुन चौबे आलोचनात्मक एवं काश्यप-6 भाग) ऐतिहासिक अध्ययन 19) बौद्ध धर्म का इतिहास : (चाऊ सिआंग कुआंग) 37) धर्मद्रुम : राजेंद्र प्रसाद पांडेय 20) जयपुर की संस्कृत साहित्य : डॉ.प्रभाकर शास्त्री (धर्मशास्त्र-परिचय-विवेचन की दोन (1835-1965) 38) 13 वीं शती में रचित : डॉ. इन्दु पचौरी 21) जिनरत्नकोश : जैन आत्मानंद सभा, गुजरात के ऐतिहासिक (इन्दौर वि.वि.) भावनगर संस्कृत काव्य 22) जैनदर्शनसार : विष्णुशास्त्री बापट 39) 13-14 वीं शती के जैन : डॉ. श्यामशंकर दीक्षित 23) जैन धर्मदर्शन : डॉ. मोहनलाल मेहता संस्कृत महाकाव्य पार्श्वनाथ विद्याश्रम 40) 13 वीं शती में रचित गुजरात के ऐतिहासिक शोधसंस्थान,वाराणसी-5 काव्य 24) जैन धर्माचा इतिहास : श्री.लठू 41) न्यायकोश : पं. भीमाचार्य झळकीकर (मराठी) 42) पाणिनि : वासुदेवशरण अग्रवाल संदर्भ ग्रन्थ सूची / 55 For Private and Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 43) पालिसाहित्य का इतिहास : भरतसिंह उपाध्याय । (हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग) 44) पुराणतत्त्व मीमांसा :श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी 45) पुराणविमर्श : पं. बलदेव उपाध्याय 46) पुराणविषयानुक्रमणिका : डॉ. राजबली पाण्डेय 47) पुराणविमर्श : पं. बलदेव उपाध्याय 48) पुराणपरिशीलन : पं. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी 49) पुराणपर्यालोचनम् : (2 भाग) डॉ. श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी 50) पौराणिक कोश : राजाप्रसाद शर्मा 51) प्राचीन हिंदी : ले.कृ.वि.वझे। भारत इतिहास शिल्पशास्त्रसार (मराठी) संशोधन मंडळ, पुणे 52) प्रतिशाख्यों में प्रयुक्त डॉ.इन्द्र पारिभाषिक शब्दों का आलोचनात्मक अध्ययन 53) प्रमुख स्मृतियोंका अध्ययन : डॉ. लक्ष्मीदत्त ठाकूर 54) बघेलखंडके संस्कृत काव्य : डॉ. राजीवलोचन अग्निहोत्री 55) बौद्धदर्शन मीमांसा :पं.बलदेव उपाध्याय (चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी) 56) बौद्धदर्शन तथा अन्य भरतसिंह उपाध्याय भारतीय दर्शन 57) बौद्धधर्म : गुलाबराय, (कलकत्ता 1943) 58) बौद्धधर्म के विकास का : गोविंदचंद्र पांडेय, इतिहास (वाराणसी, 1963) 59) बौद्धधर्मदर्शन : आचार्य नरेन्द्र देव, (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना, 1971) बौद्ध संस्कृत काव्य मीमांसा : ले. डॉ. रामायणप्रसाद द्विवेदी (काशी हिंदु वि.वि. संस्कृत ग्रंथमाला) 61) भारतवर्षीय चरित्र कोश -सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव, पुणे (3 खंड) 62) भारतीय दर्शन - वाचस्पति गेरौला 63) भारतीय दर्शन - पं. बलदेव उपाध्याय 64) भारतीय दर्शन -सर्वपल्ली राधाकृष्णन् 65) भारतीय दर्शन शास्त्र का - हरिदत्त शास्त्री इतिहास 66) भारतीय नाट्यसाहित्य - डॉ. नगेन्द्र। 67) भारतीय न्यायशास्त्र- -डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी एकअध्ययन 68) भारतीय ज्योतिष्य का - डॉ. गोरखप्रसाद इतिहास 69) भारतीय नीतिशास्त्र का - डॉ. भिखनलाल आत्रेय इतिहास 70) भारतीय पुरा इतिहास -अरुण कोश 71) भारतीय संगीत का - भ.श.शर्मा इतिहास 72) भारतीय संगीत का - डॉ. शरच्चंद्र श्रीधर परांजपे, इतिहास भोपाल 73) भारतीय संगीत का - उमेश जोशी इतिहास 74) भारतीय संस्कृति कोश -संपादक- महादेव शास्त्री (मराठी) 10 खंड जोशी, पुणे 75) भारतीय साहित्य की - डॉ. भोलाशंकर व्यास रूपरेखा 76) भारतीय साहित्य शास्त्र - पं. बलदेव उपाध्याय, प्रसाद (दो भाग) परिषद काशी। 77) भारतीय वास्तुकला -ले. गुप्त, नागरी प्रचारिणी सभा । वाराणसी। 78) महाभारत सार-प्रस्तावना - प्रकाशक-शंकरराव सरनाईक पुसद (महाराष्ट्र) 79) मीमांसादर्शन (मीमांसा - डॉ. मंडनमिश्र का इतिहास) 80) मध्यकालीन संस्कृतनाटक - डॉ. रामजी उपाध्याय 81) यशस्तिलक चंपूका - डॉ. गोकुलचंद्र जैन, सांस्कृतिक अध्ययन पार्श्वनाथ विद्याश्रम, शोधसंस्थान वाराणसी-5 82) राजस्थान के इतिहास के - डॉ. गोपीनाथ शर्मा । स्रोत राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर 83) राजस्थान साहित्यकार । - राजस्थान साहित्य अकादमी, परिचय कोश उदयपुर 84) विद्दजन चरितामृतम् - कलानाथ शास्त्री 85) विंशशताब्दिक - डॉ. रामजी उपाध्याय संस्कृतनाटकम् 86) वेदमीमांसा - लक्ष्मीदत्त दीक्षित 87) वेदान्तदर्शन का इतिहास - उदयवीर शास्त्री 88) वैदिक एवं वेदांग साहित्य - डॉ. रामेश्वरप्रसाद मिश्र की रूपरेखा 89) वैदिक साहित्य की - डॉ. जोशी-खण्डेलवाल रूपरेखा 90) वैदिक साहित्य और -वाचस्पति गरौला संस्कृति 56 / संदर्भ ग्रन्थ सूची For Private and Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 114) संस्कृत साहित्य कोश - डॉ. राजवंशसहाय हीरा। 115) सांख्य दर्शन का इतिहास - उदयवीर शास्त्री। 116) संगीत विषयक संस्कृत - चैतन्य देसाई ग्रंथ (मराठी) 91) वैदिक साहित्य और - पं. बलदेव उपाध्याय संस्कृति 92) वैदिक वाङ्मय का -पं. भगवद्दत्त इतिहास (2 भाग) 93) वैष्णव सम्प्रदायों का -पं. बलदेव उपाध्याय साहित्य और सिद्धांत 94) व्याकरण शास्त्र का -डॉ. रमाकान्त मिश्र संक्षिप्त इतिहास 95) व्याकरणशास्त्रेतिहास - डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठी 96) हिन्दू गणितशास्त्र का अनुकृपाशंकर शुक्ल। इतिहास (ले. विभूतिभूषण दत्त ।) 97) हिन्दू धर्मकोश - राजबली पाण्डेय 98) होळकर राजवंश विषयक - ओम प्रकाश जोशी, संस्कृत साहित्य (इन्दोर वि.वि.) 99) संकेत कोश (मराठी) -संपादक श्री हणमंते 100) संस्कृतकविदर्शन - डॉ. भोलाशंकर व्यास (चौखांच्या विद्याभवन, वाराणसी) 101) संस्कृत काव्यशास्त्र का - डॉ. पां. वा. काणे। इतिहास (2 भाग) अनु. इन्द्रचंद्र शास्त्री। 102) संस्कृत के संदेशकाव्य - डॉ. रामकुमार आचार्य 103) संस्कृत के ऐतिहासिक - डॉ. श्याम शर्मा नाटक 104) संस्कृत पत्रकारिता का - डॉ. रामगोपाल मिश्र इतिहास 105) संस्कृत भाण साहित्य की - डॉ. श्रीनिवास मिश्र समीक्षा 106) संस्कृत वाङ्मय का - सूर्यकान्तशास्त्री (ओरिएंटल इतिहास लाँगमन न. दिल्ली- 1972) 107) संस्कृत व्याकरण का - रमाकान्त मिश्र । संक्षिप्त इतिहास 108) संस्कृत व्याकरण में -प्रा. कपिलदेव गणपाठ की परंपरा और आचार्य पाणिनि 109) संस्कृत व्याकरण शास्त्र - पं. युधिष्ठिर मीमांसक का इतिहास 110) संस्कृत व्याकरण का -सत्यकाम वर्मा उद्भव और विकास 111) संस्कृत शास्त्रोंका इतिहास-पं. बलदेव उपाध्याय 112) संस्कृत साहित्य का - डॉ. रामजी उपाध्याय आलोचनात्मक इतिहास 113) संस्कृत साहित्य का -पं. बलदेव उपाध्याय, इतिहास (शारदा मंदिर बनारस 1956 117) Aspects of Buddhism - N.Dutta, and its relation to London-1930. Hinyana 118) Bengal's Contribution - S.K.De, to Sanskrit Litrature and Calcutta-1960 studies in Bengal Vaisnavism 119) Bibliography of plays in-C.C.Mehta, M.S. Indian Languages University Baroda and Bhartiya Natya Sanstha, New Delhi 120) Budhist Sanskrit works-Chintaharan of Bengal Chakravati, Indian Antiquery-1930 121) Bibliography of - by Pt.I.S.Sen, sanskrit works on New Delhi, 1966. Astronomy and Mathematics 122) Bengal's Contribution - Chintaharan to Sanskrit Literature Chakrawarti ABORI XIPt.3,1930, PP-225-258 123) Bengal's Contribution - Md Shahidulla to Sanskrit learning Orintal conference III-Madaras-1925 124) Buddhist India - Rhys Davids, Delhi-1970. 125) Buddhist studies -B.C.Law, Calcutta - 1931 126) Budhisatva Doctrine in - Han Dayal, Buddhist Sanskrit London-1932 Literature 127) BuddhistPhilosophy - A.B.Keith,Oxford 1923 128) Budhist India - Rhys Davids 129) Contribution of - J.B.Chaudhari Wemon to Sanskrit Prachhawani, literature Calcutta. 130) Contribution of -J.B.Chaudhari, Muslims to Sanskrit Prachyawani, literature Calcutta 131) Concepts of Buddhism - B.C.Law. 132) A Catalogue of chinese - B.Nanjio Oxford translation of the 1983 133) Buddhist Tripitaka Distionary of Sanskrit __-K.V.Abhyankar Grammer 134) Early History of the N. Datt spread of Buddhism and Buddhists Schools 135) Glossory of Smriti - Dr.S.C.Banerjee Literature संदर्भ ग्रन्थ सूची / 57 For Private and Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 136) History of Ancient - C.N.Shrinivasa Indian Mathematics Iyangar, World Press, Calcutta 137) History of Hindu - by 'Vibhutibhushan Mathematics Datta and Aras Sing, Lahor, 1938' 138) Hinayana and - R. Kimura Mahayana 139) History of Sanskrit - A.B.Kaith, Oxford Literature Uni press, London. 140) History of Buddhist - E.J.Thomas thought 141) A History of Sanskrit - (V.Vardachari) Literature Allahabad, 1952. 142) A History of Indian - Satish Chandra Logic Vidyabhushan Calcutta Uni-1921. 143) A History of Indian - 2 Vols Winternitz, Literature Calcutta uni, Publication-1927 144) History of Indian - S.N.Dasgupta, Philosophy London. 145) History of Classical - Dasgupta & De. Sanskrit Literature 146) History of Sanskrit - Macdonell. Literature 147) History of Anicient - Max Muller Sanskrit Literature 148) History of Indian - Weber. Literature 149) History of Sanskrit -M. Krishnammachari Literature 150) History of Fine Arts in - by V.A.Smith India and Ccylon 151) Intorduction to - (W.M.Mc. Govern, Mahayana Buddhism - London, 1922) 152) An Introduction to - Dutta and Indian Philosophy Chatterjee. Calcutta Uni-1939 153) India as described in - B.C.Law the early Text of Buddhism and Jainism 154) Indian Philosophy - S.Radha Krishnan, London, 1929 155) Indian Buddhism - H. Kern. 156) Indian Literature in - P.K. Mukerjee China and the Far-East 157) Indian Historical Quarterly 158) Journal of the American Oriental Society. 159) Journal of Bihar and Orisa Research Society. 160) Journal of the Royal Asiatic Society. 161) Literary History of G.K.Nariman, Sanskrit Buddhism Bombay-1920 162) Muslim Contribution to- M. Jatindravimal Sanskrit Literature Choudhari. 163) National Bibliography - Kesav and V.Y. of Indian Literature Kulkarni, 3 Vols. 164) More light on Sanskrit - D.C.Bhattacharya Literature of Bengal 1 HQ. Vol. XX, 1946. 165) Muslim Patranage to - by Chintaharan Sanskrit Learning Chakrawarti, B.C.Law Vol.ll. Calcutta, 1946 166) Muslim Patranage to .J.3.Choudhari Sanskrit Learning Calcutta-1942. 167) Moghal Patranage to by M.M.Patkar, Sanskrit Learning Poona, Orientalist Vol.IlI. 168) Modern Sanskrit - V.Raghavan 1, Sahitya Literature Akademi, N.Delhi 169) Modern Sanskrit - Dr. V. Raghavan Wrilings Brahmavidya 170) Outlines of Buddshism - Rhys Davids-1934 171) Outline of Religious - J.N.Faruhar. Literature of India 172) Paniniam Studies in - D.C.Bhattacharya Bengal Sir, Ashutosh Mukhargee Silver Jubilee Volilll. 173) Aecent Sanskrit - Gourinath Shastri Studies in Bengal Calcutta-1960 174) Sanskrit Literature of - Chintaharam Modern times Chakravarti Bulletin of the Ramknshna Mission Institute of Culture. 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