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तो कृष्ण ही उन्हें जल-दान दें। वे अपनी विरह व्यथा का वर्णन करते करते मूर्च्छित हो जाती हैं। शीतलोपचार से स्वस्थ होने पर उद्धव उन्हें कृष्ण का संदेश सुनाते हैं और शीघ्र ही कृष्ण मिलन की आशा बंधाते हैं। राधा की प्रेमविह्वलता देखकर उद्धव उनके चरणों पर अपना मस्तक रख देते हैं
और कृष्ण का उत्तरीय उन्हें भेट में समर्पित करते है। श्रीकृष्ण के प्रेम का ध्यान कर राधा आनंदित हो जाती है और यहीं पर काव्य समाप्त हो जाता है। उद्धवसंदेश (अथवा उद्धवदूतम्) - इस संदेश काव्य के रचयिता प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रूप गोस्वामी (ई. 16 वीं शती) है। यह काव्य "भागवत पुराण" के दशम स्कंध की एतद्विषयक कथा ,पर आधारित है। इसमें श्रीकृष्ण अपना संदेश उद्धव द्वारा गोपियों के पास भेजते हैं। इस काव्य की रचना "मेघदूत" के अनुकरण पर की गई है। इसमें कुल 131 श्लोक हैं। कृष्ण की विरहावस्था का वर्णन, दूतत्व करने के लिये उनकी उद्धव से प्रार्थना, मथुरा से गोकुल तक के मार्ग का वर्णन, यमुना-सरस्वती-संगम, अंबिका-कानन, अंकुर-तीर्थ, कोटिकाख्य प्रदेश, कालियहद आदि का वर्णन तथा राधा की विरह-विवशता एवं कृष्ण के पुनर्मिलन का आश्वासन आदि विषय इस काव्य में विशेष रूप से वर्णित हैं। संपूर्ण मंदाक्रान्ता वृत्त में रचित है और कहीं-कहीं "मेघदूत" के श्लोकों की छाप दिखाई पड़ती है। विप्रलंभ-श्रृंगार के अनुरूप "मधुर कोमल कांत पदावली" का सनिवेश इस काव्य की अपनी विशेषता है। उद्धारकोश - ले. दक्षिणामूर्ति। विषय- तंत्रशास्त्र। 7 कल्पों में पूर्ण। उक्त कल्पों के विषय हैं : दशविद्या मन्त्रोद्धारकोशगुणाख्यान, षट्देवी- मन्त्रोद्धारकोश, सप्तविद्या और सप्तकुमारी के कोशों का आख्यान, नवग्रह मन्त्रोद्धारकोशाख्यान, सब वर्गों के कोशाख्यान, सर्वागम मन्त्र सागर में सप्तम कल्प की समाप्ति । उद्धारचन्द्रिका - ले.- काशीचन्द्र । विषय-समुद्रपर्यटन के कारण परधर्म में प्रवेशित हिन्दुओं को स्वधर्म में वापिस लेना योग्य है यह प्रतिपादन। उद्भटालंकार - ले.- उद्भट। ई. 9 वीं शती। विषयअलंकारशास्त्र। उद्यानपत्रिका - सन 1926 में आंध्र प्रदेश के तिरुपति से मीमांसा शिरोमणि डी.टी. ताताचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका प्रकाशन स्थल तिरुपति था। इस पत्रिका की "साधारण संचिका" में लघु काव्य, नाटक, कथा, पुस्तक-समालोचना, हास-परिहास आदि विषयों से संबंधित जानकारी प्रकाशित होती थी और "शास्त्रानुबन्ध-संचिका" में कुल दस-बारह पृष्ठ होते थे जिनमें एक शास्त्रीय ग्रंथ का अंश प्रकाशित किया जाता था। ज्योत - लाहौर से सन 1928 में पंजाब संस्कृत साहित्य
परिषद् के तत्त्वावधान में एवं नृसिंहदेव शास्त्री के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके प्रकाशक पं.जगदीश शास्त्री थे। हर माह की संक्रान्ति को इसका प्रकाशन होता था। इसका वार्षिक मूल्य डेढ रु. था। इसमें राजनीति छोडकर शेष सभी विषयों के निबन्ध प्रकाशित किये जाते थे। । उन्मत्तकविकलश - ले.- वेङ्कटेश्वर। ई. 18 वीं शती। इस प्रहसन की कथावस्तु उत्पाद्य है। कलश नामक नायक की एक दिन की चर्या का अङ्कन हास्य रस और नग्न शृंगार रस में किया है। कथासार - ऋण लेकर उपजीविका चलाने वाले कलश से ऋण वसूल करने के लिए कई व्यक्ति उसकी टोह में हैं। वह छुपकर भागता रहा है। कलश अपने शिष्यों के साथ चलते समय पौराणिक, माध्वसंन्यासी तथा मठाधीशों की लम्पटता के विषय में बोलते रहता है जिससे उनके शिष्य कलश से झगड पडते हैं। आगे चलकर कोई भागवत मिलता है जो देवालय के प्राङ्गण में किसी विधवा के साथ रत होता है। आगे प्रौढ तथा बाल कवि मिलते हैं जो कलश की निन्दागर्भ स्तुति करते है। फिर एक व्यभिचारी ब्राह्मण और एक रोता हुआ ब्राह्मण, जिसकी कुलटा पत्नी किसी विदेशी के साथ भाग गयी थी, कलश से बातें करते है। __ अन्त में कलश उस प्रापणिक के पास पहुंचती है, जिससे ऋण लेना है। कलश से बचने हेतु वह उन पठानों को सूचना देता है जिनका ऋण उसने लौटाया नहीं है। पठान कलश की दुर्गति करते हैं। उन्मत्त-भैरव-पंचांगम् - श्लोक 480। यह परमेश्वर तंत्रार्गत वाराणसीपटल में गुरु-रूद्र संवादरूप है। इसमें पद्धति और पटल दोनों अंश नहीं हैं। विषय - (1) उन्मत्तभैरव द्वादशनाम स्तोत्र, (2) उन्मत्तभैरवहृदय, (3) उन्मत्तभैरवकवच, (4) उन्मत्तभैरवस्तवराज, (5) उन्मत्तभैरवाष्टकस्तोत्र, (6) उन्मत्तभैरवसहस्रनाम स्तोत्र, उन्मत्तभैरवमन्त्रोद्धार, उन्मत्त-भैरवकीलक, उन्मत्त भैरव के सात्विक, राजस और तामस ध्यान इत्यादि। उम्पत्तराघवम् - इस एकांकी उपरूपक में सीतापहरण से शोकव्याकुल एवं उन्मत्त अवस्था वाले राम की अवस्था का वर्णन है और लक्ष्मण, सुग्रीव की सहायता से लंका पहुंचकर रावणादि का वध कर सीता को लेकर पुनः राम के पास पंचवटी मे आते हैं। उन्मत्ताख्याक्रमपद्धतिः - ले.- कमलाकान्त भट्टाचार्य। श्लोक 3001 विषय- तंत्रशास्त्र उपदेशदीक्षाविधिः - (नामान्तर-पूर्णाभिषेक-पद्धतिः)। ले.परमहंस परिव्राजकाचार्य चैतन्यगिरि अवधूत । तान्त्रिक दीक्षाविधि का प्रतिपादक ग्रंथ । इसमें दीक्षामाहात्म्य, बीजमन्त्रप्रदान, पूजाविधि, वास्तुपूजाविधि, पात्रस्थापनाविधि, आदि विषय वर्णित हैं। '
संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रेथ खण्ड / 39
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