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सुप्रभा से शत्रुघ्न । उधर राजा जनक की रानी विदेहा को सीता नामक एक कन्या और भामंडल नामक एक पुत्र हुआ। किन्तु जनक के एक शत्रु ने भामंडल का प्रसूतिगृह से अपहरण किया। इसके पास से भामंडल एक विद्याधर को प्राप्त हुआ। उसे ने भामंडल का पालनपोषण किया।
एक दिन नारद ने भामंडल को कुछ चित्र दिखाए। उनमें सीता का भी चित्र था। उस चित्र में सीता के रूपलावण्य को देख भामंडल सीता पर अनुरूक्त हो उठा। सीता उसकी बहन है यह बात उसे विदित नहीं थी। अतः उसने अपने पालक विद्याधर से कहा कि उसका विवाह सीता के साथ हो। विद्याधर कपट द्वारा जनक को अपने लोक में ले आया
और बोला तुम अपनी कन्या सीता का विवाह मेरे पुत्र भामंडल से कराओ। जनक ने विद्याधर के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए बताया- " मै सीता का विवाह दशरथ-पुत्र राम से करने के लिये वचनबद्ध हूं।" तब विद्याधर ने कहा- “ तुम अपनी सीता के विवाह के लिये वज्रावर्त नामक धनुष्य पर प्रत्यंचा चढाने की शर्त रखो। यदि राम शर्त पूरी करे तो सीता उसे प्राप्त हो सकेगी। अन्यथा हम सीता का बलपूर्वक हरण करेंगे। तब अन्य कोई उपाय न देख, जनक ने उक्त शर्त के साथ सीता स्वयंवर का आयोजन किया। राम ने शर्त
जीती और उनका विवाह सीता से हुआ। पश्चात् भरत व . लक्ष्मण के विवाह भी उसी मंडप में संपन्न हुए।
बारात के अयोध्या आने पर, दशरथ अपना राज्य राम को सौंपने के लिये सिद्ध हुए। किन्तु ठीक उसी समय कैकयी आडे आई। उसने अपने सुरक्षित वर द्वारा भरत को राजगद्दी दिये जाने की इच्छा व्यक्त की। उसकी इच्छा पूरी करने के लिये दशरथ बाध्य थे। अतः राम, लक्ष्मण और सीता वनवास
हेतु दक्षिण दिशा की ओर चल पडे। किंतु बाद में कैकयी • को अपनी करनी पर पश्चात्ताप हुआ और भरत को साथ
लेकर वह राम से मिलने वन में गई। उसने राम से बडा आग्रह किया कि वे अयोध्या लौट चले किन्तु राम ने भरत का ही राज्याभिषेक करते हुए उन्हें अयोध्या लौटाया।
वनवास की अवधि में राम-लक्ष्मण ने अनेक युद्ध किये। एक स्थान पर उन्होंने सिंहोदर चन्द्र से वज्रकर्ण की रक्षा की। दूसरे स्थान पर उन्होंने वालखिल्य को म्लेच्छ राजा के कारागृह से मुक्त किया। बीच की कालावधि में अमितवीर्य नामक राजा ने भरत पर आक्रमण किया। राजा को इसकी सूचना मिलते ही उन्होंने गुप्त रूप से वहां पहुंचकर भरत की रक्षा की। वनवास की अवधि मे, लक्ष्मण और सीता, दंडकारण्य पहुंचे तथा कर्णरवा नदी के तट पर रहने लगे। वहां पर सीता ने राम को जैन मुनियों के दर्शन कराए और उन्हें भोजन परोसा। चन्द्रनखा का पुत्र शंबूक सूर्यहास खड्ग की सिद्धि के हेतु वेणुवन मे विगत बारह वर्षों से तपस्या में रत था।
एक दिन वह खङ्ग उसके सम्मुख प्रकट हुआ। संयोगवश उसी समय लक्ष्मण वहां पहुचे और उन्होंने शंबुक के पहले उस खङ्ग को हस्तगत कर लिया। फिर उस खड्ग की परीक्षा लेने हेतु लक्ष्मण ने उसे वेणुवन पर चलाया। उससे वन के सभी वेणु (बांस) कट गये और उनके साथ शंबूक भी मारा गया। चन्द्रनखा जब उसका भोजन देने के लिये वहां पहुंची तो उसे अपने पुत्र का शव दिखाई दिया। उसे उस दुर्घटना का सारा हाल भी विदित हुआ। वह बडी दुखी हुई। उसने राम और लक्ष्मण से बदला लेने की ठानी। अतः मायावी कन्या का रूप धारण कर वह उनके पास पहुंची और उनसे प्रेम की याचना की। किंतु राम और लक्ष्मण ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब उसने अपने पति खरदूषण को पुत्र निधन की वार्ता जा सुनाई। खरदूषण ने क्रुद्ध होकर रावण के साथ राम व लक्ष्मण पर आक्रमण किया। युद्ध में खरदूषण मारा गया परंतु रावण को सीता का हरण करने में सफलता, प्राप्त हुई। लंका पहुंच कर रावण ने सीता को देवारण्य नामक उद्यान में रखा और वह नित्यप्रति उससे प्रेम याचना करने लगा।
खरदूषण को मार कर जब राम अपने आश्रम (पर्णकुटी) में लौटे तो वहां सीता को न पाकर बड़े दुखी हुए। फिर सीता की खोज करते हुए राम और लक्ष्मण दक्षिण की ओर बढने लगे। किष्किंधा पहुंचने पर उनकी भेंट सुग्रीव से हुई। राम ने सुग्रीव से मित्रता की। उसी समय साहसगति नामक एक विद्याधर सुग्रीव का मायावी रूप धारण कर उसके राज्य व उसकी पत्नी पर अपना अधिकार जताने लगा। अतः राम ने उसका वध किया। तब सुग्रीव राम का भक्त बना। साथ ही अपनी तेरह कन्याएं देकर उसने राम को अपना जामाता (दामाद) भी बना लिया।
फिर सुग्रीव के आदेश पर उसके विद्याधर सैनिक सीताजी की खोज करने के लिये चल पडे। उनमें से रत्नजटी नामक विद्याधर इस कार्य में सफल हुआ किन्तु सीता का हरण रावण ने किया है यह विदित होने पर, सभी विद्याधर सहम उठे क्यों कि रावण था उस समय का एक महाबली सत्ताधीश। अतः प्रश्न उठा कि उसका वध कौन कर सकेगा। तभी सुग्रीव आदि को एक बात का स्मरण हो आया। पहले एक बार अनंतवीर्य नामक केवली (साधु) ने बताया था की जो व्यक्ति कोटि शिला को उठा सकेगा वही रावण का वध कर सकता है। तब वे सभी कोटि शिला के समीप गये। लक्ष्मण ने उस शिला को उठा दिया। रावण का वधकर्ता अपने बीच में है यह जानकर सभी को आनंद हुआ।
फिर राम का संदेश लेकर हनुमान् लंका गए और सीताजी से मिले। उन्होंने राम की मुद्रिका भी सीता को दी। सीता की प्रतिज्ञा थी, कि जब तक राम का समाचार नहीं मिलता,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 181
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