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अमोघा - पाल्यकीर्तिकृत शाकटायन-व्याकरण की वृत्ति ।। पाल्यकीर्ति का अपर नाम था शाकटायन । अमृततरंग - ले. क्षेमेन्द्र । ई. 11 वीं शती। पिता प्रकाशेन्द्र। अमृततरंगिणी (अथवा कर्मयोगामृत-तरंगिणी) - ले.. क्षीरस्वामी। ई. 11-12 वीं शती। पिता-ईश्वरस्वामी। विषय - व्याकरण शास्त्र। अमृततरंगिणी - ले. पुरुषोत्तमजी। भगवद्गीता की पुष्टिमार्गीय टीका। अमृतभारती - कोचीन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका । प्रकाशन बंद है। अमृतमन्थनम् (नाटक) - ले. वेंकटाचार्य। ई. 12 वीं शती का उत्तरार्थ। अंकसंख्या- पांच। विषय-अमृत मन्थन की पौराणिक कथा। अमृतलहरी - ले. पण्डितराज जगन्नाथ। ई. 16-17 वीं शती। यमुना नदी का स्तोत्र। अमृतवाणी - (1) सन 1942 में बंगलोर से एम्.रामकृष्ण भट्ट के सम्पादकत्व में सेंट जोसेफ कॉलेज की संस्कृत सभा की ओर से इस वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह साहित्यिक पत्रिका लगभग 13 वर्षों तक प्रकाशित हुई, जिसमें अर्वाचीन संस्कृत साहित्य प्रकाशित हुआ। 100 पृष्ठों वाली यह वार्षिक पत्रिका दक्षिण भारत में विशेष लोकप्रिय रही। इसमें अनेकविध महत्त्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हुई।
(2) कोचीन से 1913 से प्रकाशित पत्रिका । अमृतशर्मिष्ठम् - ले. विश्वनाथ सत्यनारायण। ई. 20 वीं शती। अंकसंख्या- नौ। चटुल संवाद । एकोक्तियों की प्रचुरता। शर्मिष्ठा के महाभारतोक्त कथानक में पर्याप्त परिवर्तन लेखक ने किया है। कथासार - ययाति के प्रेम में शर्मिष्ठा मरणासन्न है। मंत्री वैशम्पायन रोगपरीक्षा करने आता है। उसे शर्मिष्ठा पूर्वजन्म का वृत्तान्त बताती है और आगामी पूर्णिमा को चन्द्रमा में मिल जाने की बात कहती है। वैशम्पायन चन्द्रवंशी राजा ययाति से उसे मिलाता है। अमृतसन्देश - सन 1938 से विजयवाडा से तिरुमलै श्रीनिवासी त्रिलिंग महाविद्यालय पीठ की ओर से सी.बी.रेड्डी के सम्पादन में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका में संस्कृत और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में लेख प्रकाशित होते थे। अमृतसिद्धि - प्रक्रियाकौमुदी की टीका। लेखक वारणवनेश। तंजौर में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है। अमृतेशतन्त्रम् - नामान्तर-मृत्युजिदमृतेशविधान। विषय- इसमें तन्त्रावताराधिकार, मन्त्रोद्धारविधि, यजनाधिकार, दीक्षाधिकार, अभिषेक-साधनधिकार, स्थूलाधिकार, सूक्ष्माधिकार, कालवंचन, सदाशिवाधिकार, दक्षिणचक्राधिकार, उत्तरतन्त्राधिकार, कुलाम्नायाधिकार, सर्वविद्याधिकार, सर्वाधिकार, व्याप्त्याधिकार,
पंचाधिकार, वश्याकर्षणाधिकार, राजरक्षाधिकार जीवाकर्षणाद्यधिकार, मन्त्रविचार, मन्त्रमाहात्य आदि विषय 24 पटलों में वर्णित हैं। यह अमृतेश और भैरव मृत्युजित् को एक ही देव के पर और अपर स्वरूप के रूप में प्रतिपादन करता है। समय-ई. 9 वीं शती।। अमृतोदय - यह पत्रिका बंगलोर में अल्पकाल तक प्रकाशित हुई। अमृतोदयम् - रचयिता- गोकुलनाथ मैथिल (17 वीं शती) प्रतीक नाटक। प्रधान रस- शान्त । कथासार - श्रुति की कन्या प्रमिति को सुगतागम के अनृत आदि सैनिक आहूत करते हैं। आन्वीक्षिकी तर्क के साथ श्रुति की रक्षा में कटिबद्ध है। प्रमिति की रक्षा के लिए उसे पुरुष के पास पहुंचाया जाता है। यहां परामर्श और पक्षता का विवाह होता है। उन दोनों की रक्षा के लिए उदयन चार्वाक के साथ युद्धरत है। चार्वाक और सोमसिद्धान्त मारे जाते हैं।
पुरुषोत्तम के वियोग में व्याकुल पुरुष का विलाप सुनकर पतंजलि उसे सिद्धि देते हैं। तब वह स्वयं को पुरुषोत्तम में विलीन करना चाहता है। जीवन्मुक्त की स्थिति में कर्म-मोह नष्ट होने पर अपवर्ग क्षेत्रज्ञ नगर का अधिपति बनता है।
बुद्धमत, जैनमत, पाशुपत, वैष्णवमत आदि सब विवाद में आन्वीक्षिकी से परास्त होते हैं और अपवर्ग का अभिनन्दन ब्रह्मविद्या, सांख्ययोग, मीमांसा आदि के द्वारा होता है। दार्शनिक विषय पर यह उत्तम ललित रचना है। अयननिर्णय - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता-रामेश्वरभट्ट। विषय- ज्योतिषशास्त्र । अयनसुन्दर - ले. पद्मसुन्दर। विषय- ज्योतिषशास्त्र । अयोध्याकाण्डम् - (एकांकिका) ले.- महालिंग शास्त्री (जन्म 1897)। पारिवारिक विषमता का प्रहसनात्मक चित्रण। नायक-चारुचन्द्र। नायिका- चारुमती। सास शतदा। ननंद-संदीपनी। ससुर- शर्वरीश। सास-ननद द्वारा सतायी गयी चारुमती फांसी लगाना चाहती है, परंतु पति तथा ससुर द्वारा बचायी जाती है। ससुर निर्णय देते हैं कि बहू अपने पति के साथ अलग गृहस्थी बसाये। अयोध्यामाहात्म्यम् - रुद्रायामलान्तर्गत हर-गौरी संवादरूप तांत्रिक ग्रंथ। इसमें 10 अध्यायों में अयोध्या नगरी का माहात्म्य प्रतिपादित है और मुख्य-मुख्य अनेक तीर्थों का अयोध्या में अन्तर्भाव बतलाया गया है। श्लोक-5001 अर्चनसंग्रह - ले.- प्राणपति उपाध्याय। श्लोक-1200। इसमें तांत्रिक पूजा के विभिन्न अंगों के प्रमाण और पद्धति निर्दिष्ट हैं। प्रारंभिक 4 विवेकों में से प्रथम में गुरु आदि पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय में दीक्षा के विविध विषय, तृतीय में
पुरश्चरण और पुरश्चरणसम्बन्धी विधि वर्णित हैं एवं चतुर्थ विवेक में स्नान, संध्या आदि के साथ सांगोपांग पूजाविधि प्रतिपादित है।
16/ संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथ खण्ड
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