________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सास जटिला राधा से मुरली छीन लेती है। पर सुबल की। कुवलयमाला का विवाह मृगांकवर्मन् से करना चाहती है। चतुराई से मुरली की पुनः प्राप्ति होती है। पंचम अंक में राजा ने एक दिन मृगांकवर्मन् को उसकी वास्तविक स्थिति वृन्दा और सुबल क्रमशः ललिता और राधा का वेष धारण (लडकी) में क्रीडा करते तथा प्रणय- लेख पढते हुए देखा, कर जटिला को धोखा देकर राधा और कृष्ण का मिलन और उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया। तीसरे अंक में राजा, कराते हैं। षष्ठ अंक में अभिमन्यु राधा को मथुरा ले जाने विदूषक के साथ मृगांकावली (मृगांकवर्मन् अपने प्राकृत स्त्रीवेश के लिए पौर्णमासी से आज्ञा मांगने आता है। किन्तु पौर्णमासी में) से मिला एवं उसके साथ प्रेमालाप करते हुए उस पर कंस का भय दिखा कर उसे रोक लेती है। सप्तम अंक में आसक्त हो गया। चतुर्थ अंक में महारानी ने मूंगाकवर्मन् को राधा गौरीतीर्थ पर जाती है। वहां मान करने पर कृष्ण स्त्री अपने प्रेम का प्रतिद्वंद्वी समझकर, उसे स्त्री-वेष में सुसज्जित वेष में उसे मनाते हैं। तभी राधा को ढूंढते हुए जटिला और कर उसका विवाह राजा के साथ करा दिया। महारानी को अभिमन्यु स्त्री वेषधारी कृष्ण को ही गौरी मानते हैं। कृष्ण
अपनी असफलता पर बहुत बड़ा आघात पहुंचता है, और भी चालाकी से अभिमन्यु को उसके अनिष्ट की बात बताकर, वह बाध्य होकर कुवलयमाला का विवाह राजा विद्याधर के निवारण का उपाय राधा द्वारा वृन्दावन में ही रहकर गौरी साथ करा देती है। विद्धशालभंजिका के टीकाकार (1) पूजन करना बताते हैं। अभिमन्यु के चले जाने पर पौर्णमासी नारायण, (2) घनश्याम तथा उसकी दो पत्नियां - कमला कृष्ण से सदा गोकुल में रहकर राधा से विहार करने की और सुन्दरी, (3) सत्यव्रत, (4) जे. विद्यासागर, (5) प्रार्थना करते हैं।
वासुदेव, (6) करुणाकरशिष्य। विदग्ध माधव में कुल सत्ताईस अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें एक विद्धशालमंजिका में कुल सोलह अर्थोपक्षेपक हैं। इनमें से विष्कम्भक है। अन्यविशेष प्रातिनायिका चन्द्रावली है। कुल ___एक विष्कम्भक तीन प्रवेशक तथा बारह चूलिकाएं हैं। पात्रसंख्या- 19। प्रथम प्रयोग केशितीर्थ में, खुले आकाश
विद्या - सन 1956 में बेलगाव से पण्डित वरखेडी नरसिंहाचार्य वाले रंगमंच पर। प्रथम प्रयोग के सूत्रधार स्वयं कवि थे।
तथा गलगली रामाचार्य के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का सात अंकों का नाटक, जिसमें विदग्ध राधा की स्त्रियों तथा
प्रकाशन प्रारंभ हुआ जो तीन वर्षों तक चला। यह सत्यध्यान विदूषकादि के संवादों का पद्यभाग संस्कृत में, और गद्य भाग
विद्यापीठ की मुखपत्रिका थी। इसमें स्तुतियां, अष्टक, प्राकृत में हैं।
मासावतरणिका, विमर्श, माध्वतत्त्व विषयक निबन्धों के अलावा द्विदग्ध-मुख-मण्डनम् - ले.- धर्मदास। 10 वीं शती। उद्बोधन, महात्माओं के चरित्र, पौराणिक कथाएं, ऐतिहासिक विदग्धमुखमण्डनवीटिका - ले.- गौरीकान्त सार्वभौम। घटनाएं आदि का प्रकाशन होता था। विदुरनीति - महाभारत के उद्योगपर्व के आठ अध्याय (2) वाराणसी से 1913 से प्रकाशित पत्रिका । (33-40) (मुंबई संस्करण में)। गुजराती प्रेस द्वारा मुद्रित। विद्याकल्पसूत्रम् - भगवत्परशुराम मुनि प्रोक्त । श्लोक- 1126 । विद्धशालभंजिका (नाटिका) - ले.- राजशेखर । विषय- श्रीविद्यादीक्षा पूजन आदि ।
इसमें 4 अंक हैं। इसकी रचना "मालविकाग्निमित्र" , विद्यागणेशपद्धति- ले.- प्रकाशानन्दनाथ। श्लोक- 400। "रत्नावली" व "स्वप्रवासवदत्तम्" के आधार पर हुई है। इसमें विद्याधरनीतिशतकम् - ले.- विद्याधरशास्त्री। राजकुमार विद्याधरमल्ल एवं मृगांकावली और कुवलयमाला
विद्यानन्द- महोदयम् - ले.- विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 नामक दो राजकुमारियों की प्रणय कथा का वर्णन है । प्रथम
वीं शती। अंक में लाट देश के राजा चंद्रवर्मा ने अपने विदषक को
विद्यापरिणयम् - ले.-वेद कवि। ई. 17-18 वीं शती। बताया कि अपनी पुत्री मृगांकावली को मृगांकवर्मन् नामक
सरफोजी प्रथम (1711-1728) के समय में भगवती आनन्दवल्ली विद्याधर पुत्र ने स्वप्न में देखा कि जब वह एक सुंदरी को
अम्बा के महोत्सव के अवसर पर अभिनीत। अंकसंख्यापकडना चाहता है तो वह मोतियों की माला वहा छोड कर
सात । प्रतीक नाटक। भावात्मक पात्र । प्राकृत को स्थान नहीं। भाग जाती है। विद्याधर का मंत्री इस बात को जानता था कि मृगांकवर्मन् लडकी है और ज्योतिषियों ने उसके बारे में कथासार- अविद्या तथा उसकी प्रवृत्ति, विषयवासना आदि भविष्यवाणी की है, कि जिसके साथ उसका विवाह होगा, सखियों से जीव प्रभावित है। जीव का सचिव है चित्तशर्मा । वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। इसी कारण उसने मृगांकवर्मन् को, वह विवेक के साथ जीव को अविद्या से मुक्त करने की राजा विद्याधर के निकट रखा। जिस समय मृगांकवर्मन् राजा योजना बनाता है। वह जीव को निवृत्ति से मिलाता है जो के पास आया,उसने देखा कि अपनी प्रेयसी विद्धशालभजिका अपना आवास आनन्दमय वेदारण्य बताती है। जीव उससे के गले में मोतियों की माला डाल रही है राजा को मृगांकवर्मन् प्रभावित होता है। इससे अविद्या संतप्त होती है और वह की स्थिति का पता नहीं था। द्वितीय अंक में कुंतलराजकुमारी, जीव को भक्ति, विरक्ति, निवृत्ति आदि के चक्कर से छुडाने के
334 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
For Private and Personal Use Only