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उद्देश्य से काम्यक्रिया को नियुक्त करती है।
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यहां जीव विद्या पर लुब्ध हो जाता है। वित्तशर्मा अविद्या को परामर्श देता है कि वह जीव का पिण्ड न छोडे । अविद्या सखियों के साथ जीव से मिलने वेदारण्य में पहुंचती है। वहां देखती है कि लोकायतिक, बौद्ध सिद्धान्त विवसन सोमसिद्धान्त, पांचरात्र, कलि, तान्त्रिक श्री आदि सभी जीव से हार कर भाग गये हैं। फिर वह अपनी सहायता के लिए षड्रिपुओं को बुला लेती है। जीव उनके वश में आने लगता है परंतु चित्तशर्मा उसे संभाल लेता है। वह अविद्या को परामर्श देता है कि वह कोपभवन में मान करती बैठे। जीव यह देखकर सोचता है कि जब अविद्या नहीं प्रसन्न होती तो वेदारण्य ही चलें । वहां चित्तशर्मा उसे अष्टांग योग की महिमा बताता है। विवेक और मोह में युद्ध होता है जिसमें मोह पक्ष हारता है । फिर पुण्डरीक भवन में विद्या के विवाह की तैयारी होती है। फिर साम्ब शिव की उपस्थिति में निदिध्यासन विद्या का कन्यादान कर जीव-विद्या का विवाह कराते हैं। यह देख अविद्या निकल जाती है। लेखक वेद कवि ने यह नाटक तंजौर के आनंदराय मखी को समर्पित किया है। अतः कुछ लोग आनंदराय को ही इसका लेखक मानते हैं।
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विद्यापीठम् गुरावाली के विषय में 3 परिच्छेदों का ग्रंथ विद्याप्रकाशचिकित्सा - ले. धन्वंतरि । विद्यामार्तण्ड सन 1888 में प्रयाग से ज्वालाप्रसाद शर्मा के सम्पादकत्व में इस पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसमें व्याकरण सम्बन्धी श्रेष्ठ संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद प्रकाशित हुआ करते थे।
विद्यारत्नसूत्रम् ले गौडपाद ।
विद्यारत्नसूत्रदीपिका - ले. विद्यारण्यं । श्लोक - 3801
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विद्यार्चनचन्द्रिका ले. नृसिंह ठक्कुर । श्लोक - 2000 1 विद्यार्णव ले. प्रगल्भाचार्य श्रीशंकराचार्यजी के चार शिष्यों में अन्यतम विष्णुशर्मा के शिष्य । देवभूपाल की प्रार्थना पर निर्मित। श्लोक 858 आश्वास (अध्याय) 11 विषयबहुत सी शक्ति देवियों की पूजाविधियां । विद्यार्णवतंत्रम् - ले. विद्यारण्यपति । दो भागों में विभाजित । विद्यार्थी 1878 में मासिक रूप में पटना में प्रारंभ। यह पत्र 1880 के बाद पाक्षिक के रूप में उदयपुर से प्रकाशित होने लगा। यह प्रथम संस्कृत में था । इसका उद्देश्य " अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख" था। कुछ समय पश्चात् यह पत्र श्रीनाथद्वारा में प्रकाशित किया जाने लगा और अन्ततोगत्वा हिन्दी की हरिचन्द्रचन्द्रिका और मोहनचन्द्रिका पत्रिकाओं में मिल कर प्रकाशित होने लगा। इसका प्रकाशन 1908 तक चला।
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इसके सम्पादक थे पण्डित दामोदर शास्त्री (1848-1909) 1 मुख्य रूप से इसमें विद्यार्थियों की आवश्यकतानुकूल सामग्री होती थी। कुछ अंकों में अर्वाचीन नाटक, गीतिकाव्य आदि भी प्रकाशित किये गये।
विद्यार्थिविद्योतनम् - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रवासी । विद्यावती सन 1906 में मद्रास से सी. दोरास्वामी के सम्पादकत्व में संस्कृत और तेलगु भाषा में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह 1914 तक प्रकाशित हुई। विद्या-वित्त-विवाद ले. म.म. हरिदास सिद्धान्त-वागीश (1876-1961) I
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विद्या-शतकम् ले रजनीकान्त साहित्याचार्य दश विद्याओं के माहात्म्य पर रचित स्फुट श्लोक । विद्यासुन्दरम् ले भारतचन्द्र राय । ई. 18 वीं शती । विद्युन्माला (रूपक) ले. को. ला. व्यासराज शास्त्री। सन 1955 में विद्यासागर प्रकाशनालय, राजा अण्णरानलैपुरम्, मद्रास से प्रकाशित। अनेक दृश्यों में विभाजित गीतों का बाहुल्य । नाट्योचित लघुमात्र संवाद । वैदर्भी रीति । श्रीवृत्त, विद्युन्माला, रुक्मवती आदि छन्दों का प्रयोग । कथासार - राम के राज्याभिषेक पर मंथरा के उकसाने पर भी कैकैयी शान्त रहती है। तब बृहस्पति विद्युाला नामक पिशाचिनी द्वारा कैकेयी को भड़काते हैं, क्योंकि राक्षसों के उच्छेद हेतु राम का राज्यकार्य में व्यस्त रहना उन्हें उचित नहीं लगता। अन्त में विद्युन्माला से प्रभावित कैकेयी राम को वनवास भिजवाती है।
विद्युल्लता ( मेघदूत पर टीका ) वीं शती (पूर्वार्ध)
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विद्योत्पत्ति - श्लोक- 138 विषय- कलिका, छिन्नमस्ता आदि विद्याओं की उत्पत्ति ।
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ले. - पूर्णसरस्वती । ई. 14
विद्योदयम् भरतपुर (राजस्थान) से प्रकाशित मासिक पत्रिका । प्रकाशन बंद । विद्योदय इस मासिक पत्रिका का शुभारंभ सन 1871 में लाहोर से हुआ। इसके सम्पादक हृषीकेश भट्टाचार्य. (1850-1913) थे। इस पत्रिका को पंजाब विश्वविद्यालय से अनुदान मिलता था किन्तु अनुदान बन्द होते ही इसकी आर्थिक स्थिति बिगड गई। अतः इसका प्रकाशन 1887 से कलकत्ता में होने लगा। इस पत्रिका में प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों, अनुवाद, टीकाओं, निबन्धों आदि का प्रकाशन होता था । भट्टाचार्य ने सामायिक विषयों पर निबन्ध लिखकर एक नूतन मौलिक प्रणाली को विकसित किया। इसमें व्यंग्यात्मक निबन्धों का प्राबल्य रहता था। 1883 के बाद यह पत्रिका हिन्दी में भी प्रकाशित होने लगी। इसमें प्रकाशित अर्वाचीन संस्कृत साहित्य में विनोद, विहारी का कादम्बरी नाटक (19-5), हामलेटचरितम् (1888), कोकिलदूतं (1887),
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 335