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देवीपूजनभास्कर - ले. शम्भुनाथ सिद्धान्तवागीश। श्लोक20001 देवीपूजापद्धति - श्लोक - 11501 देवीभक्ति रसोल्लास- ले. जगन्नारायण। श्लोक 222। यह ग्रंथ 2 भागों में विभाजित है। देवीभागवतम् - एक उपपुराण। देवी भक्तों की मान्यतानुसार अठारह महापुराणों में परिगणित भागवत नामक महापुराण वस्तुतः यहीं है। किंतु यह मान्यता समर्थनीय सिद्ध नहीं होती। क्यों कि विभिन्न पुराणों में अंकित अठारह महापुराणों की सूचि में केवल "भागवत" का संदिग्ध नामोल्लेख होते हुए भी उसमें उस भागवत पुराण का जो वैशिष्ट्य बताया गया है, वह श्रीमद्भागवत को ही लागू पडता है। देवीभागवत, श्रीमद्भागवत की निर्मिति के पश्चात् ही रचा गया और उस पर श्रीमद्भागवत का काफी प्रभाव है। इन दोनों में ही बारह स्कंध तथा 18,000 श्लोक होना यही इन दो ग्रंथों का प्रमुख साम्य है। देवीभागवत का अष्टम स्कंध, श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध का अक्षरशः अनुकरण है। इससे सिद्ध होता है, कि देवी भागवत महापुराण न होकर उपपुराण ही है। शिवपुराण के उत्तर खंड में और देवीयामलादि शाक्त ग्रंथों में देवी भागवत को केवल सांप्रदायिक आग्रह के कारण ही "महापुराण' बताया गया है।
इस उपपुराण का प्रमुख विषय है- आदिशक्ति दुर्गा के माहात्य का वर्णन और उसकी उपासना के विधि-विधानों का सांगोपांग निरूपण। इस पुराण के अनुसार भगवती दुर्गा ही विश्व का परम तत्त्व है। मूलप्रकृति से लेकर मणिदीपस्थ भुवनेश्वरी तक अनेक देवी- रूपों के वर्णन इसमें हैं। गंगा, तुलसी, षष्ठी, तुष्टि, संपत्ति प्रभृति को भी दुर्गा के ही रूप माना है। इस चराचर जगत् में जो जो दृश्यमान शक्तियां हैं, उनके रूपों में दुर्गा ही विराजमान हैं। इस उपपुराण की भूमिका इसके तृतीय स्कंध के वर्णनानुसार ब्रह्मा-विष्णु-महेश, देवी के ही प्रभाव से प्रभावित होने से, विनीत भाव से देवी के व्यापक स्वरूप का स्तवन करते हैं। देवीभागवत के मुख्य विषय के संदर्भ में अनेक उपकथाएं हैं। इसके सप्तम स्कंध में "देवीगीता" भी है। यह गीता देवी -हिमालय संवादात्मक है। इस गीता के 9 अध्याय हैं और श्लोकसंख्या है 432 । इस पर भगवत्गीता का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है। भगवत्गीतातंर्गत श्रीकृष्ण के समान ही देवी ने भी अपना अवतार-प्रयोजन निम्न श्लोक में स्पष्ट किया है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भूधर।।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा वेषम् बिभर्म्यहम् ।। (दे.गी.8.23) देवीभागवत पर नीलकंठ (ईसा की 18 वीं शताब्दी) नामक महाराष्ट्रीय तंत्रशास्त्रज्ञ द्वारा लिखी गई टीका प्रकाशित हो चुकी है। नीलकंठ ने देवीभागवत के गौड और द्रविड
पाठों का भी उल्लेख किया है। देवीमहिम्नःस्तोत्रम् - ले. दुर्वासा। विषय- त्रिपुरा देवी की महिमा इस पर नित्यानन्द विरचित व्याख्या है। देवीमहोत्सव - ले. ब्रह्मेश्वर। गोदातीरवासी। तिरुमलभट्ट के अनुज। देवीमाहात्म्यम् (दुर्गासप्तशती) - देवी के उपासकों का एक प्रमुख ग्रंथ। यह ग्रंथ मार्कंडेय पुराणांतर्गत (अ.81-93) है। इसमें 567 श्लोक हैं जो तेरह अध्यायों में विभाजित किये गये हैं। इन 567 श्लोकों का विभाजन 700 मंत्रों में किया होने से, यह ग्रंथ "सप्तशती" अथवा "दुर्गासप्तशती" के नाम से पहचाना जाता है।
देवीमाहात्म्य में देवी के महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती इन विविध स्वरूपों के चरित्र ग्रथित हुए हैं। पहले अध्याय में महाकाली का चरित्र है, साथ ही 71 से 87 तक के सत्रह मंत्रों में ब्रह्मस्तुति है। यही ब्रह्मस्तुति “पौराणिक रात्रिसूक्त" है। दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायों में महालक्ष्मी का चरित्र है, और मुख्यतः वर्णित है महिषासुर के वध की कथा। चौथे अध्याय के प्रारंभिक 27 मंत्रों में देवी द्वारा की गई जगदंबा की स्तुति है। इन स्तुतिमंत्रों में देवी का विश्वव्यापक स्वरूप वर्णित है। पांचवें से सतरहवें (अर्थात अंतिम 9) अध्यायों मे महासरस्वती का चरित्र है। इस भाग में प्रमुखतः शुभ-निशुंभ के वध का वर्णन है। "देवीसूक्त" के नाम से प्रसिद्ध मंत्रसमूह भी इसी भाग में (5.8.22) है। इस ग्रंथ के ग्यारहवें अध्याय के प्रारंभिक 35 मंत्रों के समूह को, "नारायणी-स्तुति" कहते हैं।
देवी के त्रिविध स्वरूपों के ये चरित्र, सुमेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा समाधि वैश्य को कथन किये हैं। सप्तशती की सुरथ समाधिविषयक कथा आदि से अंत तक रचा गया एक रूपक है। तद्नुसार महालक्ष्मी एवं महासरस्वती ये त्रिविध रूप क्रमशः शरीर बल, संपत्ति बल तथा ज्ञान बल के प्रतीक हैं। इन तीनों की उपासना से ही व्यष्टि व समष्टि का जीवन सर्वांगीण समृद्ध हो सकेगा ऐसा सप्तशती का संदेश है। देवी के उपासना क्षेत्र में इस ग्रंथ की विशेष महिमा है। संत ज्ञानेश्वर ने भगवतगीता पर सप्तशती का जो रूपक किया है, उसमें इस ग्रंथ को “मंत्रभगवती' कहा है। इस ग्रंथ को संक्षेप मे "चण्डी" भी कहा जाता है। देवी की कृपा प्राप्त करने हेतु, देवी-भक्त इस ग्रंथ का पाठ करते हैं। देवीरहस्यम् (परादेवीरहस्य) - रुद्रयामलान्तर्गत 60 पटलों में यह कौल सम्प्रदाय से सम्बद्ध है। पूर्वार्ध में 25 पटलों से शाक्त मत के मुख्य तत्त्वों का विवेचन है। उत्तरार्ध के 35 पटलों में विभिन्न देवियों की पूजा विधियां प्रतिपादित हैं। देवीरहस्यतन्त्रम् - श्लोक- 400। अंतिम 26 से 30 तक के 5 पटल गणपतिपरक हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 143
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