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नामक ग्रंथों में, आचार, व्यवहार, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि विषयक उद्धरण देवल स्मृति के लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि देवल, बृहस्पति कात्यायन प्रभृति स्मृतिकारों के समकालीन होंगे। देवल के सर्वत्र दिखाई देने वाले धर्मशास्त्रविषयक तीनसौ श्लोकों को एकत्रित करते हुए, उनका एक संग्रह " धर्मप्रदीप" नामक ग्रंथ में दिया गया है। उस पर से मूल स्मृतिपेय के वैविध्य एवं विस्तार की कल्पना की जा सकती है। भारत के धार्मिक इतिहास में देवलस्मृति के वचनों के आधार पर सिंध प्रदेश में मुहंमद बिन कासिम के आक्रमण के कारण धर्मच्युत हुए हिंदुओं का शुद्धीकरण किया गया, यह उल्लेख होने के कारण देवलस्मृति का विशेष महत्त्व माना जाता है -
देववाणी सन 1960 में मुंगेर (बिहार) से रूपकान्त शास्त्री और कृपाशंकर अवस्थी के संपादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसमें कविता, नाटक और आधुनिक प्रणाली से प्रभावित रचनाओं का प्रकाशन किया जाता है। प्रकाशनस्थल देववाणी कार्यालय, अवस्थी निवास, मुंगेर। देववाणी सन 1934 में कलकत्ता से श्रीकृष्ण स्मृतितीर्थ के सम्पादकत्व में इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्राप्ति स्थान 38 नं. हरिमोहन लेन बेलेघाटा, कलिकाता । त्रैमासिक मूल्य 1 रु. /- 1 देवस्थानकौमुदी ले. शंकर बल्लाल घारे । बडौदा निवासी ।
स. 1464
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देवगण - स्तोत्रम् - ले. समन्तभद्र । जैनाचार्य । ई. प्रथम शती अन्तिम भाग । पिता- शान्तिवर्मा ।
देवानन्दाभ्युदयम् - ले. मेघविजय गणी । देवालयप्रतिष्ठाविधि ले. रमापति ।
देवी - उपनिषद् ( नामान्तर देवी - अथर्वशीर्ष) अथर्ववेद से संलग्न एक नव्य उपनिषद् | इस उपनिषद् का आरम्भ, देवताओं से सम्मुख देवी द्वारा अपने स्वरूप के वर्णन से हुआ। देवी से ही यह सारी सृष्टि निर्माण हुई देवी एवं देवी वाणी का ऐक्य है तथा उसके स्वरूप में शैव व वैष्णव इन उभय रूपों का समन्वय है, ऐसा कहा गया है। इसमें निम्न देवी- गायत्री मंत्र दिया है
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महालक्ष्मीश्च विद्महे सर्वसिद्धिश्च धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात् ।। (देवी उ.7)
142 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
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इस देवी मंत्र के भावार्थ, वाच्यार्थ सांप्रदयार्थ, कौलिकार्थ रहस्यार्थ व तत्त्वार्थ ये छह प्रकार के अर्थ नित्याषोडशिकार्णव नामक ग्रंथ मे दिये गये हैं। "ही" है देवीप्रणव और ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" वह है देवी का नवाक्षरिक मंत्र प्रस्तुत उपनिषद् में देवी का वर्णन और इसके पश्चात् "दुर्गे, तुम मेरे पापों का नाश करो"- ऐसी प्रार्थना की गई है। इस उपनिषद्
को देवी अथर्वशीर्ष भी कहते हैं। गाणपत्य संप्रदाय में जो गणपति अथर्वशीर्ष को महत्त्व है वही शाक्त संप्रदाय में देवी अथर्वशीर्ष का है।
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देवीकवचम् ले. हरिहर ब्रह्म श्लोक 75 विषय- जयादि देवियों का अंग-प्रत्यंग में विन्यास | देवीकवचस्तोत्रटीका ले. नारायणभट्ट । श्लोक 1601 देवीचरित्रम् - रुद्रयामलान्तर्गत श्लोक 1000 | अध्याय 13 | विषय- उमापूजाविधि, देवीप्रभाव, देवीरहस्य नवरात्रोत्सव पर दुर्गापूजा ६.
देवीदीक्षाविधानम् - ऊर्ध्वाम्नायमिश्र अनुत्तरपरमहस्य के अंतर्गत ईश्वर - स्कन्द संवादरूप । सात उल्लासों में पूर्ण । विषयबहिर्मातृका, अन्तर्मातृका भूशुद्धि, प्रोक्षण आदि । देवीनामविलास ले. साहिब कल पिता श्रीकृष्ण कौल। ग्रंथरचना सन 1667 ई. में । भवानी के सहस्रनामों में से प्रत्येक नाम का अर्थ श्लोक द्वारा उत्तम रीति से वर्णित किया है।
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देवीपुराणम् शाक्त लोगों में प्रसिद्ध 128 अध्यायों का उपपुराण । इसमें मुख्यतः देवी के माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त शाक्त मूर्तिकला, शाक्तव्रत व पूजाविधि, शैव-वैष्णव प्रथा, ब्राह्मणधर्म, युद्ध, नगर तथा दुर्ग की रचना वेद, उपवेद, वेदों की शाखाएं, वैद्यक, ग्रंथलेखन, दान, तीर्थ क्षेत्र आदि अनेक विषयों का वर्णन है। इस के प्रारंभ में कुछ ऋषि वसिष्ठ ऋषि से प्रश्न पूछते हैं और वे उनका समाधान करते हैं। इसके चार भाग किये गये हैं जिनके नाम हैं त्रैलोक्यविजय, त्रैलोकाभ्युदय, शुंभनिशुंभमंथन तथा देवासुरयुद्ध | सृष्टि के निर्माण के प्रारंभ में देवी का आविर्भाव किस प्रकार हुआ यह प्रथम भाग में कहा गया है। दूसरे भाग के विषय हैं- शक्र की कथा, दुंदुभि-वध और घोर का उदय तथा उसे विष्णु का वरदान, उसका मंत्र - सामर्थ्य, विंध्य पर्वत पर हुआ देवी का अवतरण, देवों ने देवी की कृपा से किया राक्षससंहार आदि। तीसरे भाग में शुंभ-निशुंभ के वध द्वारा तारकासुर के वध की कथा । इस समय जो देवीपुराण उपलब्ध है वह है प्राचीन देवीपुराण का संक्षिप्त रूप है। उसमें केवल दो ही भाग हैं। पुराणों की सूचि में समाविष्ट न होने पर भी यह पुराण अधिक अर्वाचीन नहीं। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के तथा उसके बाद के धर्मनिबंधकारों ने इस पुराण के उद्धरण अपनाये हैं। अनेक अभ्यासकों के मतानुसार इस पुराण की रचना ई. सातवीं शताब्दी में हुई होगी । इस पुराण में व्यक्त शक्त्युपासना का स्वरूप तांत्रिक है । वेद- प्रामाण्य मानते हुए भी इस पुराण में तंत्र मार्ग पर विशेष बल दिया गया है। तंत्रमार्ग में स्त्री और शूद्रों का विशेष स्थान होने के कारण इस पुराण में स्त्री और शूद्रों प्रति उदार भाव परिलक्षित होता है।