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किसी पर कलंक लगाना, व्यभिचार, देव-निंदा, भक्ति-हीन व्यक्ति से श्रीकृष्ण की कथा सुनना, चोरी और जिनका अन्न-जल वर्जित है उनका अन्न-जल ग्रहण करना। इन दोषों का त्याग कर भगवान् की शरण में जाने पर भगवत्-प्राप्ति होती है। उसी को भक्ति कहते हैं। भगवान् से रहित अन्यान्य पदार्थो में प्रीति का जो अभाव होता है, उसी का नाम वैराग्य है। वज्रच्छेदिका-प्रज्ञापारमिता टीका- ले.- वसुबन्धु । 386-534 ई. में चीनी भाषा में अनूदित। वज्रपंजर-उपनिषद् -एक नव्य शैव उपनिषद्। इसमें भस्म धारण का मंत्र व नवदुर्गा की प्रार्थना है। यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति वज्रपंजर नाम का उच्चार कर भस्म धारण करता है, वह सभी प्रकार के भयों से मुक्त होकर शिवमय बनता है। वज्रमुकुटविलासचम्पू - ले.- योगानन्द । (2) ले.- अलसिंग। वज्रसूची-उपनिषद् - ले.- नेपाल की परम्परागत मान्यतानुसार अश्वघोष (ई. 2 री शती) इसके रचयिता हैं, जब कि महाराष्ट्र में यह मान्यता है कि आद्यशंकराचार्य ने इस उपनिषद् की रचना की है। इसे सामवेद से सम्बध्द एक नव्य उपनिषद् मानते हैं। उस उपनिषद् में वज्रसूची जैसे अज्ञानभेदक तीष्ण ज्ञान का विवेचन है। ब्राह्मण शब्द की व्याख्या और उसका वास्तविक अर्थ भी इसमें बताया गया है। जन्म, जाति, वर्ण, उसका वास्तविक अर्थ है। श्रुतिस्मृति-पुराणों तथा इतिहास में वर्णित ब्राह्मण शब्द से यही अभिप्राय है कि जो व्यक्ति जातिगुणक्रियाहीन, षडूमि षड्भाव-सर्वदोषरहित, सत्यज्ञानानंदरूप आत्मा, मैं स्वयं हूं, यह जानता है और जिसे कामरागज दंभ-अहंकार, तृष्णा-आशा-मोह आदि नहीं छू पाते- वही वास्तविक अर्थ में ब्राह्मण है। जाति और वर्ण भेद के विरोध में युक्तिसंगत और बुद्धिनिष्ठ विवेचन प्रस्तुत करने वाला यह ग्रंथ जातिभेद सम्बन्धी तत्कालीन मतमतान्तरों पर प्रकाश डालता है। जाति-वर्ण की कल्पना को भ्रामक और असत्य बताकर यह प्रतिपादित किया गया है कि सभी मानवों की जाति एक है। वडवानलहनुमन्मालामन्त्र - श्लोक-401 वणिक्सुता- ले.- सुरेन्द्रमोहन बालाजित। एकांकी रूपक। हिन्दुधर्म की परम्पराओं का समर्थन करने वाली युवती विधवा की कहानी। “मंजूषा" पत्रिका में प्रकाशित । वत्स (या वात्स्य)- (यजुर्वेद की एक शाखा) स्मृतिचन्द्रिका के श्राद्ध-काण्ड में वत्स-सूत्र का निर्देश मिलता है। संस्कार काण्ड में भी वत्स-नामक धर्मसूत्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। कात्यायन श्रौतसूत्र के परिभाषा-अध्याय में वात्स्य नामक आचार्य का स्मरण किया गया है। वत्सला - ले.- दुर्गादत्त शास्त्री। कांगडा (हिमाचल प्रदेश) जिले में नलेटी नामक गांव के निवासी। यह एक सामाजिक छह अंकी नाटक है।
वत्सस्मृति- ले.- मस्करी। वनज्योत्स्ना - ले.- वेंकटकृष्ण तम्पी (श 20)। एकांकी रूपक। प्रातः सायं तथा नक्तम में यवनिकापात द्वारा विभाजित। इसमें प्रस्तावना, भरतवाक्य नहीं हैं। वनदुर्गा-उपनिषद् - ले.- एक गद्य-पद्य मिश्रित शाक्त उपनिषद् । इसका स्वरूप तांत्रिक है। इसमें सभी नक्षत्रों के नाम, रुद्र की प्रदीर्घ प्रार्थना, लक्ष्मी, सिद्धलक्ष्मी, गणपति के स्वरूप, कामदेव आदि के मंत्र दिये गये हैं। इसका प्रारंभ नवदुर्गामहामंत्र से होता है। बाद के सात श्लोकों में उसका वर्णन है। सर्वभूतों को वश में करने वाली मोहिनी महाविद्या के विवेचन के साथ ही रहस्य को बनाये रखने के लिये उलटे अक्षरक्रमों वाला एक मंत्र भी दिया गया है। अंत में ऐहिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति के लिये ब्रह्मविद्या की नित्य सेवा का उपदेश दिया गया है। इस तांत्रिक उपनिषद् में ज्वर को देवता मानकर उसकी निम्नलिखित मंत्र से स्तुति की गई हैभस्मायुधाय विद्महे। तीक्षणदंष्ट्राय धीमहि ।
तन्नो ज्वरः प्रचोदयात्।। वनदुर्गाकल्प - गुह - अगस्त्य संवादरूप। श्लोक- 1100। पटल -16। विषय- वनदुर्गा के यन्त्र, मन्त्र, मन्त्रोध्दार, पूजाविधि इ. का प्रतिपादन। वनदुर्गाप्रयोग- श्लोक- 797 । वनभोजनम् (प्रहसन) - ले.- जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) "प्रणव-पारिजात" पत्रिका में प्रकाशित। "ऋषि बंकिमचन्द्र महाविद्यालय" में अभिनीत । इसम दो मुखसन्धिया हैं। वनभोजन करने निकले छ: मित्रों की हास्योत्पादक गतिविधियों का चित्रण इसका विषय है। वनभोजनविधि - भारद्वाजसंहिता के अन्तर्गत। भारद्वाज संहिता का 35 वां अध्याय पूरा वनभोजन-विधि रूप ही है। इसमें विशेष तिथियों में स्त्री, बालक और वृद्धों के साथ गृहस्थ को आंवले, आम, बेल, पीपल, कदम्ब, वट आदि वृक्षों से परिवृत्त वन में प्रवेश कर पुण्याहवाचन पूर्वक आवंले के तले ब्राह्मणभोजन के अनंतर भोजन करने की विधि वर्णित है। वनवेणु - ले.- विश्वेश्वर विद्याभूषण। गीतों का संकलन। वयोनिर्णय - ले.- पी. गणपतिशास्त्री। विषय- विवाह की वयोमर्यादा। वरदगणेशपंचांगम् - रुद्रयामल के अन्तर्गत । श्लोक- लगभग 4001 वरदराजाष्टकम् - ले.- अप्पय दीक्षित । वरदातन्त्रम् - पार्वती- ईश्वर संवादरूप। पटल-8| विषय(1) काली-मन्त्र और दक्षिण विद्या के मन्त्रों का वर्णन, (2) शाक्तों की दैनिक चर्या, (3) कलियुग में कालीपुरश्चरण की प्रशंसा, 4) काली-पुरश्चरण का समय, (5) राज्यलाभ के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 319
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