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लिए कालिका के त्र्यक्षर मंत्र का साधन, (6) योनिमुद्रा, (7) गुरु-पूजादि विधि, (8) कालिकामन्त्र का काल और मन्त्रगुण। वरदांबिका-परिणयचम्पू- लेखिका- तिरुमलांबा जो विजयनगर के महाराज अच्युतराय की राजमहिषी थीं। रचना-काल 1540 ई. के आसपास है। इस काव्य की कथा विजयनगर के राज-परिवार से संबद्ध है, और अच्युतराय के पुत्र चिन वेंकटाद्रि के युवराज-पद पर अधिष्ठित होने तक है। कवयित्री ने इतिहास व कल्पना का समन्वय करते हुए प्रस्तुत काव्य की रचना की है। इसकी कथा प्रेम-प्रधान है। भाषा पर कवयित्री का प्रगाढ प्रभुत्व परिलक्षित होता है। इसमें संस्कृत गद्य है समास-बहुल व दीर्घ समासों की पदावली प्रयुक्त हुई है। गद्य-भाग की अपेक्षा इसका पद्य भाग अधिक सरस व कमनीय है और उसमें कवयित्री का कल्पना वैभव प्रदर्शित होता है। भावानुरूप भाषाप्रयोग स्तुत्य है। डॉ. लक्ष्मणस्वरूप द्वारा संपादित होकर यह चंपू-काव्य लाहौर से प्रकाशित हुआ है। इसका मूल हस्तलेख तंजौर-पुस्तकालय में है। वरदाभ्युदय- (हस्तगिरि) चंपू- ले.- वेंकटाध्वरी । रचना-काल 1627 ई.। इस प्रसिद्ध व लोकप्रिय चंपूकाव्य का प्रकाशन संस्कृत सीराज मैसूर से 1908 ई. में हुआ है। प्रस्तुत चंपू में लक्ष्मी व नारायण के विवाह का वर्णन है जो 5 विलासों मे विभक्त है। काव्य-कृति के अंत में कवि ने अपना परिचय दिया है। वेंकटाध्वरी रामानुज के मतानुयायी तथा लक्ष्मी के भक्त थे। वररुचि- ले.- आर. कृष्णम्माचार्य। पिता- रंगाचार्य । वरांगचरितम् (महाकाव्य)- ले.- वर्धमान। जैनाचार्य। ई. 14 वीं शती। सर्गसंख्या- 13 ।
है। पांचवे अध्याय में हठयोग व अष्टांगयोग का विवरण दिया गया है। वराहचम्पू - ले.- कवि- श्रीनिवास । श्रीमुष्णग्रामवासी वरदवल्ली वंशीय वरद पण्डित के पुत्र। वराहपुराणम् - पारंपारिक क्रमानुसार यह 12 वां पुराण है। इस पुराण में भगवान् विष्णु के वराह अवतार का वर्णन है। विष्णु द्वारा वराह का रूप धारण कर पाताल लोक से पृथ्वी का उद्धार करने पर इस पुराण का प्रवचन किया था। यह वैष्णव पुराण है। नारदपुराण व मत्स्यपुराण के अनुसार इसकी श्लोक संध्या- 24 सहस्र है, किंतु कलकत्ता की एशियाटिक सोयाइटी द्वारा प्रकाशित संस्करण में केवल 10,700 श्लोक हैं। इसके अध्यायों की संख्या 217 है तथा गौडीय और दाक्षिणात्य नामक दो पाठ-भेद उपलब्ध होते हैं जिनके अध्यायों की संख्या में भी अंतर दिखाई देता है। एक ही विषय के वर्णन में श्लोकों में भी अंतर आ गया है। इस पुराण में सृष्टि व राज-वंशावलियों की संक्षिप्त चर्चा है, पर पुराणोक्त विषयों की पूर्ण संगति नहीं दीख पाती। ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुराण, विष्णु-भक्तों के निमित्त प्रणीत स्तोत्रों एवं पूजा-विधियों का संग्रह है। यद्यपि यह वैष्णव पुराण है तथापि इसमें शिव व दुर्गा से संबद्ध कई कथाओं का वर्णन विभिन्न अध्यायों में है। इसमें मातृ-पूजा एवं देवियों की पूजा का भी वर्णन 90 से 95 अध्याय तक किया गया है, तथा गणेशजन्म की कथा व गणेश-स्तोत्र भी इसमें दिया गया है। इस पुराण में श्राद्ध, प्रायश्चित्त, देवप्रतिमा की निर्माण-विधि आदि का भी कई अध्यायों में वर्णन है, तथा कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा के माहात्म्य का वर्णन 152 से 168 तक के 17 अध्यायों में है। मथुरामाहात्म्य में मथुरा का भूगोल दिया गया है तथा उसकी उपादेयता इसी दृष्टि से है। इसमें नचिकेता का उपाख्यान भी विस्तारपूर्वक वर्णित है जिसमें स्वर्ग और नरक का वर्णन है। विष्णु-संबंधी विविध व्रतों के वर्णन पर इसमें विशेष बल दिया गया है, तथा द्वादशी-व्रत का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए विभिन्न मासों में होने वाली द्वादशियों का कथन किया गया है। प्रस्तुत पुराण के अनेक अध्याय पूर्णतया गद्य में निबद्ध हैं (81 से 83, 86-87, 74) तथा कतिपय अध्यायों में गद्य व पद्य दोनों का मिश्रण है। "भविष्यपुराण" के दो वचनों को उद्धृत किये जाने के कारण यह पुराण उससे अर्वाचीन सिद्ध होता है। (177-51)। इस पुराण में रामानुजाचार्य के मत का विशद रूप से वर्णन है। इन्हीं आधारों पर विद्वानों ने इसका रचनाकाल नवम-दशम शती के बीच निश्चित किया है। वराहशतकम् - ले.-वरदादेशिक। पिता- श्रीनिवास। ई. 17 वीं शती। वरिवस्यातिरहस्यम् (सटीक) - ले.- सुरा (भासुरा) नन्दनाथ । श्लोक- लगभग 12601
वराह-उपनिषद्- कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद्। इसमें कुल 5 अध्याय हैं जिनमें कुछ श्लोकबद्ध तथा कुछ गद्यात्मक हैं। वेदान्त विषयक चर्चा में वराहरूपी विष्णु द्वारा भूमि को बताई गई ब्रह्मविद्या का निरूपण है। प्रथम अध्याय में 96 तत्त्वों का विवेचन, दूसरे में ब्रह्मविद्या के विविध साधनों की जानकारी और समाधि के लक्षण बताये गये हैं। इस सम्बद्ध में यह श्लोक देखिये
सलिले सैन्धवं यत् सात्म्यं भजति योगतः । तथात्ममनसोक्यं समाधिरिति कथ्यते ।। अर्थात्- पानी में नमक मिलाने पर दोनों पदार्थ एकजीव हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा व मन जब एक रूप हो जाते हैं तब उसे समाधि की अवस्था कहते हैं। तीसरे अध्याय में "सत्यं ज्ञानमनमन्तं ब्रह्म" का स्पष्टीकरण किया गया है। चौथे अध्याय में जीवनमुक्ति के लक्षण बताये गये है।
मुक्ति के दो मार्ग- (विहंगम व पिपीलिका) बताये गये
320/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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