________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
धर्मविवेक
ले- चंद्रशेखर । विषय-मीमांसा दर्शन के न्यायों की व्याख्या । 2. विश्वकर्मा। पिता- दामोदर माता- हीरा । ई. 15-16 वीं शती । इसमें कालमाधव, मदनरत्न, हेमाद्रिसिद्धान्तसंग्रह आदि ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं।
-
धर्मविवेचनम् ले रामसुब्रह्मण्य शास्त्री । रामशंकर के पुत्र ।
-
-
धर्मविजयम् ले- भूपदेव शुक्ल । ई. 16 वीं शती । जन्मभूमि - गुजरात। यह हास्य प्रधान नाटक है परन्तु इसमें विदूषक नहीं। इसमें पाखण्ड का भण्डाफोड तथा सामाजिक विकृति का दर्शन करने वाली मौलिक कथावस्तु है । पात्र भावात्मक है, जैसे अधर्म, व्यभिचार, परीक्षा, परस्परप्रीति, अनाचार, पण्डितसंगति, कविता, व्यवहार, हिंसा, अहिंसा, दया, क्रोध, शौच, अशौच इ । प्रथम द्वितीय अंकों के मध्य के विष्कम्भक प्रदीर्घ है। एक स्थान पर रंगपीठ पर एक साथ ग्यारह पात्रों की उपस्थिति है। दिल्लीदयित वेतन-दानामात्य केशवदास के आदेशानुसार नाटक का अभिनय आयोजित होता है । कथावस्तु सत्ययुग में धर्म द्वारा अधर्म का घर्षण । त्रेता में ज्ञान एवं द्वापर में तप का विनाश होता है। व्यभिचार परस्परप्रीति से, बूढे धनपाल की युवती वनिता का कामाचार पूछता है । फिर अनाचार नामक ब्राह्मण को अपनी कामगाथा सुनाता है। परस्परप्रीति का देवर होने से अनाचार उसे सुरापान कराता है। द्वितीय अंक में पौराणिक और अधर्म का वार्तालाप । तृतीय अंक में विद्या के अभाव के कारण पंडितसङ्गति फांसी लगाने को उद्यत है। चतुर्थ अंक में व्यवहार महापातक न्याय करता है कि उसका वध होना चाहिये। प्रयाग में धर्म-अधर्म में युद्ध होता है, जिसमें धर्म की विजय होती है। फिर धर्म महाविद्या को देखने दशाश्वमेघ पर जाता है। अंतिम अंक में राजा, कविता और परिवार रंगपीठ पर आते हैं । कविता बताती है कि प्रजा में अब चारित्रिक दोष नहीं रहे। वहीं शिवजी पधारते है और राजा धर्म उनकी पूजा करते है।
www.kobatirth.org
--
धर्मविजयचम्पू ले-भूमिनाथ ( नल्ला) दीक्षित । उपाधिअभिनव भोजराज । ई. 18 वीं शती । विषय- तंजौर के व्यंकोजी पुत्र शाहजी का चरित्रवर्णन
धर्मवितानम् ले हरिलाल । पितामह मिश्र मूलचन्द्र । पिताभवानी दास । रचनाकाल ई. 1722 ।
धर्मशतकम् - ले-पं. जयराज पाण्डे मुंबई के व्यापारी । भाषा प्रासादिक । संसार से सब धर्म प्रवर्तकों के विचार इस में समाविष्ट है। श्लोक 1 से 66 वैदिक ऋषि, 67 से 70 कनफ्यूशियस, 71 से 78 बुद्ध, 79 से 86 अफलातून (प्लेटो) 87 से 91 येशू ख्रिस्त, 92 झरतुष्ट्र, 93 शोपेनहार, 94 से 96 महंमद इस प्रकार विचारों की व्यवस्था की है 1 धर्मशास्त्रनिबंध ले- फकीरचंद । धर्मशास्त्रव्याख्यानम् - व्याख्याता म.म. श्रीधर शास्त्री पाठक,
148 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड
धुळे (महाराष्ट्र) के निवासी। यह व्याख्यानों की संकलित रचना है। धर्मशास्वव्याख्यानम् ले बालशास्त्री पायगुंडे ।
धर्मशास्त्रसर्वस्वम् - ले- भट्टोजी ई. 17 वीं शती ।
।
धर्मशास्त्र - सुधानिधि ले दिवाकर 1686 ई. में प्रणीत । धर्मसंगीतम् ले राधाकृष्णजी।
धर्मसंग्रह ले नारायण शर्मा (2) ले हरिचन्द्र । धर्मसंप्रदायदीपिका ले आनन्द ।
धर्मसार - ले पुरुषोत्तम। (2) ले प्रभाकर । धर्मसिंधु ले काशीनाथ पाध्ये (उपाध्याय) (पंढरपुरवासी) धर्मशास्त्रविषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ । निर्णयसिंधु पुरुषार्थीचंतामणि कालमाधव, हेमाद्रि, कालतत्त्वविवेचन, कौस्तुभ स्मृत्यर्थसार आदि ग्रंथों का आधार लेकर ग्रंथकार ने व्यवहार में आवश्यक धर्मशास्त्रांतर्गत विषयों पर इसमें विचार किया है। कतिपय स्थानों पर उन्होंने स्वयं को उचित प्रतीत होने वाला अलग निर्णय भी दिया है। इस ग्रंथ के तीन परिच्छेदों में काल के भेद, संक्रांति का पर्वकाल, मलमास, वर्ज्यावर्ण्य कर्म, व्रत- परिभाषा, प्रतिपदादि तिथियों का निर्णय, इष्टिकाल आदि विषय समाविष्ट हैं । द्वितीय परिच्छेद में चैत्रादि बारह मासों में किये जाने वाले कृत्य, दशावतारों की ज्योतियां, कपिलाषष्ठी गजच्छाया चंद्रादि ग्रहों का संक्रांति का पुण्यकाल, ग्रहों के दान आदि विषयों पर विचार किया गया है। तृतीय परिच्छेद के (पूर्वार्ध व उत्तरार्ध शीर्षक वाले दो भाग हैं ।) पूर्वार्ध में गर्भाधान, पुंसवनादि संस्कार, दशदिशांति, पुनरुपनयन, गणविचार राशिकूट, नाडी, गोत्रप्रवर, उपासनादि होम, नित्यदान, शूद्रसंस्कारनिर्णय स्वप्ननिर्णय आदि विषयों का विवेचन है। उत्तरार्ध में श्राद्ध के अधिकारी, श्राद्धभेद, श्राद्ध के ब्राह्मण आदि श्राद्धविषयक विषयों के साथ ही अशौचनिर्णय, प्रेतसंस्कार, विधवा - धर्म, संन्यास, यतिधर्म, आदि विषयों का भी समावेश है। भारत में सर्वत्र इस ग्रंथ को मान्यता प्राप्त है। धर्मसिंधु का निर्णय भारत में सर्वत्र मान्य किया जाता है। इस ग्रंथ का लेखन पूर्ण होने पर पाध्येनी के भाई विठ्ठलपंत उसे सर्वप्रथम काशी ले गए। काशी के पंडितों ने ग्रंथ का परीक्षण करने के पश्चात् उसके अधिकृत एवं उत्तम होने का निर्णय दिया । प्रस्तुत ग्रंथ के गौरवार्थ काशी क्षेत्र में उसकी शोभायात्रा भी निकाली गई थी।
-
For Private and Personal Use Only
-
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--
-
धर्मसिंधु - 1. ले मणिराम। 2. ले कृष्णनाथ । धर्मसिंधुसार (धर्माव्थिसारः) ले काशीनाथ उपाध्याय । (बाबा पाध्ये) धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ में एक बृहद व महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। रचनाकाल 1790 ई. । यह ग्रंथ 3 परिच्छेदों में विभक्त है व तृतीय परिच्छेद के भी दो भाग किये गये हैं। इसकी रचना " निर्णयसागर " के आधार पर की गई है। धर्मसुबोधिनी ले- नारायण ।