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त्रिभंगचरित्रम् - कृष्णयामलान्तर्गत-बलराम-कृष्ण संवादरूप। इसमें त्रिभंगरूप कृष्ण का वर्णन है। श्लोक 112। त्रिमतसम्मतम् - ले. बेल्लमकोण्ड रामराय। आंध्रवासी। त्रिलक्षणकदर्थनम् - ले. पात्रकेसरी। जैनाचार्य। ई. 6-7 वीं । शती। त्रिलोकसार - ले. नेमिचन्द्र। जैनाचार्य। ई. 10 वीं शती। उत्तरार्ध । त्रिवेणिका - ले. आशाधर भट्ट। (द्वितीय)। ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध। आशाधर के अलंकार शास्त्र-विषयक 3 ग्रंथों में से एक ग्रंथ। इसमें अभिधा को गंगा, लक्षणा को यमुना और व्यंजना को सरस्वती माना गया है। यह ग्रंथ 3 परिच्छेदों में विभक्त है तथा प्रत्येक में 1-1 शब्द शक्ति का विवेचन है। इस ग्रंथ में अर्थ के 3 विभाग किये गए हैं। 1. चारु, 2. चारुतर व 3. चारुतम। अभिधा से उत्पन्न अर्थ चारु, लक्षणा से चारुतर तथा व्यंजनाजनित अर्थ चारुतम होता है। इस ग्रंथ का प्रकाशन सरस्वती भवन ग्रंथमाला काशी से हो चुका है। त्रिशती - इसमें ललिता देवी के 300 नाम हैं। उन पर श्रीशंकराचार्य की "त्रिशतीनामार्थ प्रकाशिका" नामक व्याख्या है। त्रिंशच्छलोकी (विष्णुतत्त्वनिर्णयः)ले. वेङ्कटेश। सटीक।। विषय- न्यायेन्दुशेखर का खण्डन। त्रिंशिकाभाष्यम् - ले. स्थिरमति। ई. 4 थी शती। मूल । संस्कृत का नेपाल में पता लगाकर सिल्वां लेवी द्वारा फ्रेंच अनुवाद सहित प्रकाशित । यह वसुबन्धुकृत त्रिशिका का भाष्य है। त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् - शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। इसमें कुल 164 श्लोक हैं। इसका श्रोता है त्रिशिखी नामक ब्राह्मण जिसे आदित्य ने शरीर, प्राण, मूलकारण, आत्मा आदि विषयों का ज्ञान कथन किया है। इस उपनिषद् में पंचीकरण एवं अष्टांग योग की चर्चा विशेष रूप से की गई है। इसमें स्वस्तिकासनादि सत्रह योगासनों एवं उनके अभ्यास से शरीरक्रिया पर होने वाले परिणामों की विस्तृत जानकारी के साथ ही कुंडलिनी को जागृत करते हुए मनोजय साध्य करने की विधि भी स्पष्ट की गई है। इस उपनिषद् के मतानुसार, सगुण ब्रह्म की उपासना करने से भी मुक्ति प्राप्त होना संभव है। योगाभ्यास करनेवालों की दृष्टि से यह उपनिषद् अत्यंत उपयुक्त है। त्रिष्टविनियोगक्रम - श्लोक 400। त्रिष्टुप् छंद को सकल . सुखप्रदान में कामधेनुरूप, शत्रुओं तथा पापों को निश्शेष करने में प्रलयानलतुल्य और सकलनिगमसारविद्या रूप कहते हुए उसका गुप्ततम विनियोग क्रम प्रतिपादित किया है। त्रिस्थलविधि - ले. हेमाद्रि । ई. 13 वीं शती । पिता-कामदेव । त्रिस्थलीसेतु - ले. नारायणभट्ट। ई. 16 वीं शती। पिता
रामेश्वरभट्ट। त्रैलोक्यमोहनकवचम् - श्लोक- 7001 तकारादि तारासहस्रनाम-सहित। ऋक्-प्रातिशाख्यम् - ले. शौनक। (यह विष्णुमित्र का कथन है)। एक प्राचीन ग्रन्थ। पार्षद या पारिषदसूत्र कहा गया है। शिक्षा नामक वेदांग विषयक विवेचन के कारण इसे शिक्षाशास्त्र भी कहा गया है। इसमें अठारह पटल हैं। त्वरितरुद्रविधि - ले. गंगासुत। इसमें त्वरित रुद्र की पूजा के प्रमाण और प्रयोगविधि प्रदर्शित है। त्वरितास्तोत्रम् - त्वरिता, काली का एक ऐसा रूपभेद है जिसकी तन्त्रसार में दक्षिणाचारान्तर्गत पूजा दी है। यह स्तोत्र उससे संबंध रखता है। तुकारामचरितम् - लेखिका- क्षमादेवी राव। विषय- महाराष्ट्र के सन्त-शिरोमणि तुकाराम' का चरित्र । लेखिका के अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित। तुकारामचरितम्- ले. लीला राव दयाल। क्षमादेवी राव की कन्या। अंकसंख्या -ग्यारह । क्षमा राव लिखित "तुकारामचरित' पर आधारित नाटक। आद्यन्त सारे संवाद पद्यात्मक हैं। तुलसी-उपनिषद् - एक नव्य उपनिषद् । इसके ऋषि हैं नारद, छंद अथर्वांगिरस्, देवता-अमृता तुलसी, शक्ति-वसुधा और कीलक है नारायण। प्रस्तुत उपनिषद् का सारांश इस प्रकार है : तुलसी श्यामवर्णा, ऋग्यजुःस्वरूप, अमृतोद्भव, विष्णुवल्लभा तथा जन्ममृत्यु का अंत करने वाली है। इसके दर्शन से पाप का एव सेवन से राग का नाश होता है। तुलसी की परिक्रमा करने से दारिद्रय दूर होता है। इसके मूल में समस्त तीर्थक्षेत्रों, मध्य में ब्रह्माजी और अग्रभाग में वेदशास्त्रों का वास होता है। विष्णु भगवान् इसके मूल में एवं लक्ष्मीजी इसकी छाया में वास करते है। तुलसी-दल के अभाव में यज्ञ, दान, जप, भगवान् की पूजा, श्राद्ध कर्म आदि निष्फल सिद्ध होते हैं। इस उपनिषद् में समाविष्ट तुलसी का गायत्री मंत्र निम्नांकित है।
श्रीतुलस्यै विद्महे । विष्णुप्रियायै धीमहि ।
तन्नो अमृता प्रचोदयात्।। इस उपनिषद् की प्रस्तावना गद्य में है और आगे का भाग है श्लोकबद्ध ।
तुलसीदूतम् - 1) ले. त्रिलोचनदास। ई. 18 वीं शती। 2) ले. वैद्यनाथ द्विज । रचनाकाल सन 1734। इस संदेश काव्य में दूत के रूप में तुलसी का पौधा है। तुलसीमानस-नलिनम् - रामचरितमानस (तुलसीरामायण) के बालकाण्ड का यह भावानुवाद हैं। शारदापत्रिका में इसका क्रमशः मुद्रण होकर बाद में शारदा गौरव ग्रंथमाला में 51 वें ग्रंथ के रूप में पं. वसंत अनंत गाडगील ने इसका सन 1972 में प्रकाशन किया। शृंगेरी तथा द्वारकापीठ के शंकराचार्यजी
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 129
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