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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ने इसकी प्रशंसा की है। लेखिका श्रीमती नलिनी साधले ( पराडकर) उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) में संस्कृत प्राध्यापिका हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के अवशिष्ट कांड अप्रकाशित हैं। तुलाचलाधिरोहणम् - ले. लीला राव दयाल । रचना 1971 में "विश्वसंस्कृतम्" में 1972 में प्रकाशित "तुलाचल" घाटी की मनुष्यवाणी में बोलना छायातत्वानुसारी है। विषय- नेपालस्थित तुलाचल घाटी पर घटित वायुयान दुर्घटना का चित्रण | तुलादानप्रयोग ले. गागाभट्ट काशीकर। ई. 17 वीं शती । पिता दिनकर भट्ट | तुलापुरुषदानप्रयोग - ले. नारायण भट्ट । ई. 16वीं शती । तुलापुरुषदानप्रयोग ले. नारायणभट्ट । ई. 16 वीं शती । तुरीयातीतोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् आदिनारायण ने यह उपनिषद् ब्रह्मदेव को सुनाया। इसमें सर्वसंगपरित्यागी अवधूत का वर्णन किया गया है। तद्नुसार अवधूत अवस्था दुर्लभ तथा परमहंस से भी उच्च श्रेणी की है। तुरीयातीत अर्थात् अवधूत पुरुष का वर्णनः अवधूत पुरुष दंड, कमंडलू, उपवीत आदि बाह्योपधियों का त्याग करता है। वह दिगंबर रूप में संसार में विचरण करता है। मुंडन, अभ्यंगस्नान, ऊर्ध्वपुड़ आदि बातों का उसे कोई विधि - निषेध नहीं होता। वह सभी बंधनों से परे होता है। वासना पर विजय प्राप्त करते हुए, उसने षड्रिपुओं का संहार किया होता है। अपने शरीर को वह प्रेतवत् मानाता है। पागल जैसा दिखाई देने पर भी वह परमज्ञानी होता है । तुरीयोपनिषद् - लगभग पच्चीस वाक्यों का यह एक छोटा सा नव्य उपनिषद् है । इसका प्रतिपाद्य विषय है प्रणव की श्रेष्ठता तथा स्वरूप। इसमें प्रणव के विराट् रूप की कल्पना की गई है और उसकी मात्राएं बताई गई हैं सोलह । प्रणव के बिराट रूप के चौंसठ भेद माने गए हैं। यह प्रणव, सगुण व निर्गुण अर्थात् उभयविध है । तृचकल्पपद्धति वैद्यनाथ रोगों की समूल निवृत्ति पूर्वक शीघ्र आरोग्य लाभ के लिए तृचकल्प में उक्त रीति के अनुसार तूच का व्यासपूर्वक मण्डल लेखन, पीठपूजन, प्रधान मूर्तिपूजा इ. विषय वर्णित है। T - - - - तृचभास्कर ले. भास्करराय भारती। विषय- यज्ञ कर्मों में उपयोग में आने वाली मुद्रओं के लक्षण । तृणजातकम् (नाटक) ले. दुर्गादत्त शास्त्री विद्यालंकार । 1983 में हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित बंधुआ मजदूरी, जातिभेद, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक दोषों का दर्शन इस नाटक में किया गया है। तेजोबिन्दूपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद् | इसके 6 अध्याय और 462 श्लोक हैं। समस्त नव्य उपनिषदों में प्रदीर्घ यह उपनिषद्, काव्यमय भाषा में www.kobatirth.org - 130 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड - लिखा गया है। पहले अध्याय में तेजोबिन्दु के ध्यान के बारे में विस्तृत विवेचन है। इस उपनिषद् में योग के (आठ के बदले) पंद्रह अंग बताये गये हैं। दूसरे अध्याय में परब्रह्म के चिन्मयस्वरूप का वर्णन है। तीसरे अध्याय में आत्मानुभूति के विवेचन के साथ की यह कहा गया है, की "अहं ब्रह्मास्मि" मंत्र का 7 कोटि बार जाप करने पर तुरंत मोक्ष प्राप्ति होती है। चौथे अध्याय में जीवनमुक्त व विदेहमुक्त का वर्णन है। पांचवें अध्याय में आत्मा और अनात्मा का भेद स्पष्ट किया गया है और छटवें अध्याय में कहा गया है कि चिदात्मा का सत्स्वरूप है ओंकार। इस संपूर्ण वर्णन को इस उपनिषद् में शांकरीय महाशास्त्र बताया गया है। तैत्तिरीय आरण्यक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का आरण्यक है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के ही एक भाग को तैत्तिरीय आरण्यक कहा जाता है। इसके दश प्रपाठक हैं और प्रत्येक प्रपाठक का कुछ अनुवाकों में विभाजन किया गया है। अनुवाकों की कुल संख्या है 170। इसके 7 से 9 तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीयोपनिषद् कहा जाता है। तैत्तिरीय आरण्यक में काशी, पांचाल, मत्स्य, कुरुक्षेत्र, खांडव, अहल्या आदि का वर्णन है। एक स्थान पर नरक का वर्णन है। इस ग्रंथ में तपस्वी पुरुष को श्रमण कहा गया है। (2.7.1 ) । बौद्धों ने यह शब्द यहीं से लिया प्रतीत होता है। यज्ञोपवीत का उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रंथ में हुआ है। (तै. आ.2.1) इसके अतिरिक्त यज्ञसंबंधी अनेक विषयों का समावेश इस ग्रंथ में है। इस आरण्यक में वेद की बहुतसी ऋचाओं के उदाहरण दिये गये हैं। प्रथम प्रपाठक में आरुण केतुक संज्ञक अग्नि की उपासना का वर्णन है, तथा द्वितीय प्रपाठक में स्वाध्याय व पंचमहायज्ञ वर्णित हैं। इस प्रपाठक में गंगा-यमुना के मध्यप्रदेश की पवित्रता स्वीकार कर मुनियों का निवासस्थान बतलाया गया है। तृतीय प्रपाठक में चतुर्होत्र चिति के मंत्र वर्णित हैं व चतुर्थ में प्रवर्ग्य के उपयोग में आने वाले मंत्रों का चयन है। इसमें शत्रु का विनाश करने के लिये अभिचार मंत्रों का भी वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीयसंकेत व षष्ठ प्रपाठक में पितृमेध विषयक मंत्र हैं। "व्यास" का निर्देश, उनके उपयुक्त निर्वचनों का संग्रह, यज्ञोपवीत शब्द की उपपत्ति इत्यादि अन्यान्य सामग्री इस आरण्यक में मिलती है। संपादनतैत्तिरीयारण्यकम् सायणभाष्यसहितम्, सम्पादक राजेन्द्रलाल मित्र, एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, कलकत्ता, सन 1872 सन 1898 में पुणे आनंदाश्रम सीरीज द्वारा हरि नारायण आपटे (जो मराठी के अग्रगण्य उपन्यासकार थे) ने किया। - For Private and Personal Use Only तैत्तिरीय उपनिषद्- यह उपनिषद "कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का अंश है। तैत्तिरीय आरण्यक में 10 प्रपाठक या अध्याय हैं और इसके 7 वें, 8 वें, व 9 वें अध्याय को ही तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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