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को चाहती है। चारुदत्त का पुत्र मिट्टी की गाडी से संतुष्ट नहीं है, वह सोने की गाडी चाहता है। इसमे कवि ने यह दिखाया है कि जो लोग अपनी परिस्थितियों से असंतुष्ट होकर एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, वे जीवन में अनेक कष्ट उठाते हैं। इस प्रकार इसके पात्रों का असंतोष सर्वव्यापी है जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को कष्ट उठाना पडता है। अतः इसका नाम सार्थक एवं मुख्य वृत्त का अंग है। "मृच्छकटिक' एक ऐसा प्रकरण है, जिसमें वसंतसेना के प्रेम का वर्णन किया होने से श्रृंगार अंगी है। इसमें हास्य और करुण रस की भी योजना की गई है। शूद्रक के हास्य वर्णन की अपनी विशेषता है जो संस्कृत साहित्य में विरल है। इस प्रकरण में हास्य, गंभीर, विचित्र, तथा व्यंग के रूप में मिलता है । कवि ने हास्यास्पद चरित्र एवं हास्यास्पद परिस्थितियों के अतिरिक्त विचित्र वार्तालापों एवं श्लेष पूर्ण वचनों से भी हास्य की सृष्टि की है। "मृच्छकटिक" में सात प्रकार की प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है, और इस दृष्टि से यह संस्कृत की अपूर्व नाट्य-कृति है। टीकाकार पृथ्वीधर के अनुसार प्रयुक्त प्राकृतों के नाम हैं- शौरसेनी, आवंतिका, प्राच्या, मागधी, शकारी, चांडाली तथा ढक्की। टीकाकार ने विभिन्न पात्रों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का भी निर्देश किया है। इस नाटक का वस्तुविधान, संस्कृत-साहित्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। संस्कृत का यह प्रथम यथार्थवादी नाटक है, जिसे दैवी कल्पनाओं एवं आभिजात्य वातावरण से मुक्त कर, कवि यथार्थ के कठोर धरातल पर अधिष्ठित करता है। शूद्रककालीन समाज (विशेषतः मध्यमवर्गीय) का जीवनयापन प्रकार इसमें यथार्थतया चित्रित है। वेश्याओं के ऐश्वर्य की झलक भी इसमें दीखती है, न्यायदान में भ्रष्टाचार भी इसमें दिखाई देता है तथा राजा से असंतुष्ट प्रजा, उसके विरोध में क्रांन्ति को सहायक होती है, यह भी प्रभावी रूप से चित्रित है। इसकी कथावस्तु भास के चारुदत्त से बहुत कुछ मिलती जुलती होने के कारण इसकी मौलिकता तथा भास और शूद्रक का पौर्वापर्य तथा दोनों नाटकों का लेखक एक ही व्यक्ति होने के विवाद निर्माण हो। अवन्तिसुन्दरी कथासार के अन्तर्गत शूद्रक के जीवन पर जो प्रकाश पडता है उससे यह अनुमान हो सकता है कि आर्यक राजा ही शूद्रक है तथा चारुदत्त है उसका बालमित्र बन्धुदत्त । मृच्छकटिक के टीकाकार- 1) गणपति, 2) पृथ्वीधर, 3) राममय शर्मा, 4) जल्ला दीक्षित, 5) श्रीनिवासाचार्य, 6) विद्यासागर, और 7) धरानन्द। मृडानीतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक- 380 | विषयसुवर्ण बनाने की प्रक्रिया का वर्णन और अन्य रसायन विधियां । मृतसंजीवनी - ले.- हलायुध । ई. 8 वीं शती। यह आद्या काली देवी का "त्रैलोक्य-विजय" नामक अद्भुत शक्तिशाली कवच है। श्लोक-6161 विषय- दीर्घजीवन का उपाय, विविध
मन्त, औषध आदि का प्रतिपादन। मृत्युजयतन्त्रम् - शिव-पार्वती संवादरूप महातन्त्रों में अन्यतम । श्लोक 3001 अध्याय- 4। विषय- देहोत्पत्ति का क्रम, देह की ब्रह्मांड-रूपता, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, समाधि इन छह योगांगों के लक्षण इत्यादि । मृत्युंजयपंचांगम् - देवीरहस्यान्तर्गत शिव-पार्वती संवादरूप । इसमें मृत्युंजय संबंधी पांच अंग वर्णित हैं। 1) मृत्युंजयपटल, 2) मृत्युंजयपद्धति, 3) मृत्युंजयसहस्रनाम,, 4) मृत्युंजयकवच
और 5) मृत्युंजय स्त्रोत्र । श्लोक 5601 मृत्युंजयसंहिता - ले. गंगाधर कविराज। ई. 1798-1885 1 मृत्युंजिदमृतेशविधान (या मृत्युजिदमृतेशतन्त्रम्)पार्वती-परमेश्वर संवादरूप। (अध्याय 24)। विषय - मन्त्रावतार, मन्त्रोद्धार, यजमानाधिकार, दीक्षाधिकार, अभिषेकसाधन, स्थूलाधिकार, सूक्ष्माधिकार, कालबन्धन, सदाशिव, दक्षिणचक्र, उत्तरतन्त्र, कुलाम्नाय, सर्वविद्याधिकार, सर्वाधिकार, व्याप्ति-अधिकार, पंचाधिकार, वश्यकर्षणाधिकार, राजरक्षाधिकार, इष्टपाताद्यधिकार, जीवाकर्षणाधिकार, मन्त्रविचार, मन्त्रमाहात्म्य इ. मृत्युमहिषीदानविधि - विषय- किसी की मृत्यु के समय भैंस का दान। मेकाधीशशब्दार्थकल्पतरु - ले.- चारलु भाष्यकार शास्त्री (कंकणबन्धरामायणकार)। मेघदतम - महाकवि कालिदास कत विश्व-विश्रत खंडकाव्य । इस संदेश-काव्य में एक विरही यक्ष द्वारा अपनी प्रिया के पास मेघ (बादल) से संदेश प्रेषित किया गया है। वियोग-विधुरा कांता के पास मेघद्वारा प्रेम-संदेश भेजना, कवि की मौलिक कल्पना का परिचायक है। यह काव्य, पूर्व एवं उत्तर मेघ के रूप में दो भागों में विभाजित है। श्लोकों की संख्या 63 + 52 = 115 है। इसमें गीति काव्य व खंडकाव्य दोनों के ही तत्त्व हैं। अतः विद्वानों ने इसे गीति-प्रधान खंडकाव्य कहते है। इसमें विरही यक्ष की व्यक्तिगत सुख-दुःख की भावनाओं का प्राधान्य है, एवं खंडकाव्य के लिये अपेक्षित कथावस्तु की अल्पता दिखाई पड़ती है। "मेघदूत" की कथावस्तु इस प्रकार है :- धनपति कुबेर ने अपने एक यक्ष सेवक को, कर्तव्य-च्युत होने के कारण एक वर्ष के लिये अपनी अलकापुरी से निर्वासित कर दिया है। कुबेर द्वारा अभिशप्त होकर वह अपनी नवपरिणीता वधू से दूर हो जाता है, और भारत के मध्य विभाग में अवस्थित रामगिरि नामक पर्वत के पास जाकर निवास बनाता है। वह स्थान जनकतनया के स्नान से पावन तथा वृक्षछाया से स्निग्ध है। वहां वह निर्वासनकाल के दुर्दिनों को वेदना-जर्जरित होकर गिनने लगता है। आठ मास व्यतीत हो जाने पर वर्षाऋतु के आगमन से उसके प्रेमकातर हृदय में उसकी प्राण-प्रिया की स्मृति हरी हो उठती है, और वह मेघ के द्वारा अपनी कांता के पास प्रणय-संदेश भिजवाता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 277
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