________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यह कथा-बीज "आषाढ कृष्ण एकादशी (योगिनी) माहात्म्य (3) चरित्र्यवर्धन, (4) क्षेमहंसगणी, (5) कविरत्न, (6) कथा" से मिलता जुलता है। उसमें नव विवाहित यक्ष हेममाली कृष्णदास, (7) कृष्णदास, (8) जनार्दन, (9) जनैन्द्र, (10) अपनी नववधू विशालाक्षी से रममाण रहकर मानस सरोवर भरतसेन, (11) भगीरथ मिश्र, (12) कल्याणमल्ल, (13) से कुबेर के लिये कमल फूल न लाने की भूल करता है। महिमसिंहगणि, (14) राम उपाध्याय, (15) रामनाथ, (16) उसे कुबेर द्वारा दण्ड मिलता है- एक वर्ष तक प्रिया का वल्लभदेव, (17) वाचस्पति-हरगोविन्द, (18) विश्वनाथ, (19) विरह तथा श्वेतकुष्ठ। हिमालय में विचरण करते हुए उसे विश्वनाथ मिश्र, (20) शाश्वत, (21) सनातनशर्मा, (22) मार्कण्डेय ऋषि से उपदेश तथा शाप-निवारण मिलता है। इस सरस्वतीतीर्थ, (23) सुमतिविजय, (24) हरिदास सिद्धान्तवागीश, कथा में काव्य की उपयुक्तता से उचित हेर फेर महाकवि (25) मेघराज, (27) पूर्णसरस्वती, (28) मल्लीनाथ, (29) कालिदास ने किये हैं। प्रिया के वियोग में रोते-रोते काव्य- रामनाथ, (30) कमलाकर, (31) स्थिरदेव, (32) गुरुनाथ, नायक का शरीर कृश होने के कारण उसके हाथ का कंकण काव्यतीर्थ, (33) लाला मोहन, (34) हरिपाद चट्टोपाध्याय, गिर पडता है। आषाढ के प्रथम दिवस को रामगिरि की चोटी (35) जीवानन्द, (36) श्रीवत्स व्यास, (37) दिवाकर, पर मेघ को देख कर उसकी अंतर्वेदना उद्वेलित हो उठती है (38) असद, (39) रविकर, (40) मोतिजित्कवि, (41) और वह मेघ से संदेश भेजने को उद्यत हो जाता है। वह कनककीर्ति, (42) विजयसूरि, तथा कुछ अज्ञात टीकाकार । कुटज-पुष्प के द्वारा मेघ को अर्घ्य देकर उसका स्वागत करता इसके अनन्तर, काव्य में हंस, मानस, चेतस्, मनस्, चन्द्र, है, तथा उसकी प्रशंसा करते हुए उसे इन्द्र का "प्रकृति-पुरुष" कोकिल, तुलसी, पवन, मारुत, आदि संदेश वाहक बने। कहीं एवं "कामरूप" कहता है। इसी प्रसंग में कवि ने रामगिरि
केवल अनुकरण, कहीं कथावस्तु में वृद्धि, कहीं धार्मिक रूप से लेकर अलकापुरी तक के भूभाग का अत्यंत काव्यमय
देकर अपने गुरु को संदेश (विशेषतः जैन कवि) तो कहीं भौगोलिक चित्र उपस्थित किया है। इस अवसर पर कवि
बिडम्बनात्मक रचना, जैसे काकदूतम्, मुद्गरदूतम् आदि, पर मार्गवर्ती पर्वतों, सरिताओं एवं उज्ययिनी जैसी प्रसिद्ध नगरियों
इनमें से एक भी कालिदास के पास तक नहीं पहुंच पाया। का भी सरस वर्णन करता है। इसी वर्णन में पूर्व मेघ की मेघदूत (नाटक)- ले.- नित्यानन्द 20 वीं शती। प्रणव-पारिजात समाप्ति हो जाती है। पूर्वमेघ में महाकवि कालिदास ने भारत "में प्रकाशित इस गीतात्मकनाटक में नृत्य-गीतों का प्राचुर्य । की प्राकृतिक छटा का अभिराम वर्णन कर बाह्य प्रकृति के एकोक्तियों तथा छायातत्त्व का प्रयोग है। अंकसंख्या- पांच । सौंदर्य एवं कमनीयता का मनोरम वाङ्मय चित्र निर्माण किया अंक दृश्यों में विभाजित। विषय- "मेघदूत" की कथावस्तु । है। उत्तरमेघ में अलका नगरी का वर्णन, यक्ष के भवन एवं मेघदूत-समस्यालेखम् - कवि- जैन मुनि मेघविजयजी। समय उसकी विरह-व्याकुल प्रिया का चित्र खींचा गया है। तत्पश्चात् ई. 18 वीं शती। इस संदेश काव्य में कवि ने अपने गुरु कवि ने यक्ष के संदेश का विवेचन किया है जिसमें मानव-हृदय तपगणपति श्रीमान् विजयप्रभसूरि के पास मेघ द्वारा संदेश भेजा के कोमल भाव अत्यंत हृदयद्रावक एवं प्रेमिल संवेदना से है। कवि के गुरु नव्यरंगपुरी (औरंगाबाद) में चातुर्मास्य का पूर्ण हैं। 'मेघदूत" की प्रेरणा, कालिदास ने वाल्मीकि रामायण आरंभ कर रहे हैं, और कवि देवपत्तन, (गुजरात) में है। से ग्रहण की है। उन्हें वियोगी यक्ष की व्यथा में सीता-हरण वह गुरु की कुशल वार्ता के लिये मेघ द्वारा संदेश भेजता के दुःख से दुःखित राम की पीडा का स्मरण हो आया है। है और देवपत्तन से औरंगाबाद तक के मार्ग का रमणीय कवि ने स्वयं मेघ की तुलना हनुमान् से तथा यक्ष-पत्नी की वर्णन उपस्थित करता है। संदेश में गुरु-प्रताप, गुरु के वियोग समता सीता से की है (उत्तरमेघ 37)। कवि की प्रसन्न-मधुरा की व्याकुलता व अपनी असहायावस्था का वर्णन है। अंत वाणी "मंदाक्रांता" छंद में अभिव्यक्त हुई है जिसकी प्रशंसा में कवि ने इच्छा प्रकट की है कि वह कब गुरुदेव का आचार्य क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "सुवृत्ततिलक" में की है। साक्षात्कार कर उनकी वंदना करेगा। इस काव्य की रचना मल्लिनाथ की टीका के साथ "मेघदूत" का प्रकाशन 1849 "मेघदूत" के श्लोकों की अंतिम पंक्ति की समस्या-पूर्ति के ई. में बनारस से हुआ और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 1869 ___रूप में हुई है। इसमें कुल 131 श्लोक हैं और अंतिम ई. में कलकत्ता से स्वसंपादित संस्करण प्रकाशित किया। इसके श्लोक अनुष्टुप् छंद में है। आधुनिक टीकाकारों में चरित्रवर्धनाचार्य एवं हरिदास सिद्धांतवागीश मेघदूतोत्तरम् - ले.- श्रीराम वेलणकर। प्रकाशन सन 1968 अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इन टीकाओं के नाम हैं- “चारित्र्यवर्धिनी" में। 'सुरभारती' द्वारा जबलपुर, भोपाल, इन्दौर में अभिनीत । व “चंचला"। अनेक संस्करणों के कारण "मेघदूत" की गीति-नाट्य (ओपेरा) 38 राग तथा 8 तालों का प्रयोग। 30 श्लोक-संख्या में भी अंतर पड़ जाता है, और अब तक इसमें गद्य-वाक्यों द्वारा जोडे हुए 51 गीत। प्रधान पात्र यक्ष और लगभव 15 प्रक्षिप्त श्लोक प्राप्त होते हैं।
यक्षिणी। अंकसंख्या- तीन। इसमें प्राकृत का अभाव है। मेघदूत के टीकाकार- ले.- (1) कविचन्द्र, (2) लक्ष्मीनिवास, विषय- मेघदूत का पश्चात्वर्ती कथानक। शापमुक्ति के पश्चात्
278 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
For Private and Personal Use Only