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विशेष महत्त्व दिया है। "श्रियः पतिः श्रीमती शासितुं जगत्" यह शिशुपाल वध का प्रथम श्लोक है तथा उसके प्रत्येक सर्ग की समाप्ति" श्री शब्द से होती है अतः इसे "थ्रयंक" महाकाव्य कहते है। "नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते'यह इस महाकाव्य की अपूर्वता मानी जाती है। शिशुपालवधम् के टीकाकार- (1) मल्लिनाथ, (2) पेद्दाभट्ट, (3) चित्रवर्धन, (4) देवराज, (5) हरिदास, (6) श्रीरंगदेव, (7) श्रीकण्ठ, (8) भरतसेन, (9) चन्द्रशेखर, (10) कविवल्लभचक्रवर्ती, (11) लक्ष्मीनाथ, (12) भगवद्दत्त, (13) वल्लभदेव, (14) महेश्वरपंचानन, (15) भगीरथ, (16) जीवानन्द विद्यासागर, (17) गरुड, (18) आनन्ददेवयाजी, (19) दिवाकर, (20) बृहस्पति, (21) राजकुन्द, (22) जयसिंहाचार्य, (23) श्रीरंगदेव, और पद्मनाभदत्त, (24) वृषाकर, (25) रंगराज, (26) एकनाथ, (27) भरतमल्लिक, (28) गोपाल, और (29) अनामिक । शिशुबोधव्याकरणम् - ले.-प्रज्ञाचक्षु गुलबाराव महाराज। विदर्भनिवासी। शिष्यधीवृद्धिदतंत्रम्- ले.- लल्ल। प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ। लल्ल ने ग्रंथ-रचना का कारण देते हुए अपने इस ग्रंथ में बताया है कि आर्यभट्ट अथवा उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए ग्रंथों की दुरूहता के कारण, उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की है। "शिष्यधीवृद्धिदतंत्र" मूलतः ज्योतिष शास्त्र का ही ग्रंथ है। इसमें अंकगणित या बीजगणित को स्थान नहीं दिया गया। इसमें एक सहस्र श्लोक व 13 अध्याय हैं। सुधाकर द्विवेदी द्वारा संपादित इस ग्रंथ का प्रकाशन वाराणसी से 1886 ई. में हो चुका है। शिष्यलेखधर्मकाव्यम् - ले.- चन्द्रगोमिन् । विषय- बौद्धसिद्धान्तों का काव्यशैली में गुरु द्वारा शिष्यों को उपदेश। शिष्यों को गुरु के उपदेश के रूप में मिनायेफ, वेंफल आदि द्वारा प्रकाशित। शीखगुरुचरितामृतम् - ले.- श्रीपाद शास्त्री हसूरकर। इन्दौर निवासी। विषय- सिक्ख संप्रदाय के पूज्य गुरुओं का गद्यात्मक चरित्र। शीघ्रबोध - ले.- शिवप्रसाद । शीलदूतम् - ले.-चरित्रसुन्दरगणी। विषय- मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति द्वारा तत्त्वोपदेश। शुकपक्षीयम् - श्रीमद्भागवत की टीका । टीकाकार श्री. सुदर्शन सरि । ई. 14 वीं शती। यह टीका शुकदेवजी के विशिष्ट मत का प्रतिपादन करती है। टीका बहुत ही संक्षिप्त है। कहीं-कहीं दार्शनिक स्थलों पर विस्तृत भी है। इसमें विशिष्टाद्वैत के सिद्धान्तों की दृष्टि से भागवत तत्त्व का निरूपण है। अष्टटीकासंवलित भागवत के संस्करण में यह केवल दशम, एकादश एवं द्वादश स्कंधों पर ही उपल्बध है।
शुकसूक्तिसुधारसायनम् (काव्य) - ले.- सुब्रह्मण्य सूरि । शुक्रनीति - भारतीय राजनीतिशास्त्र का एक मान्यता प्राप्त ग्रंथ। इसके चार अध्याय हैं। शुक्र इसके कर्ता हैं। वे उशना, भार्गव, कवि, योगाचार्य तथा दैत्यगुरु नाम से भी परिचित हैं। शुक्रनीति में भारतीय समाज का जो चित्रण किया गया है, वह एक विकसित समाज का है। उस समय वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था में परिणत हो गई थी। यह समाज चंद्रगुप्तकाल का है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह गुप्तकाल में रचा गया है। सम्राट् हर्ष के पूर्व का यह काल (400 से 600 वर्ष के बीच में) होगा।
राजा के कर्तव्य, भूमिमापन, नगर बसाना, आवास निर्माण, युवराज व मंत्रियों के कार्य, गोलाबारूद निर्माण, कापट्यकरण आदि का उल्लेख है। शुक्र का यह मत है कि नीतिशास्त्र, शास्त्रों का शास्त्र है। त्रैलोक्य में उत्तम मार्गदर्शक है। नीति की प्रस्थापना के लिये उन्होंने राज्याविस्तार का सिद्धान्त रखा है। कौटिल्य के पश्चात् राज्यकार्य के बारे में सविस्तर जानकारी देने वाला यह प्रमुख ग्रंथ है। शुक्रनीतिसार- ओपर्ट द्वारा मद्रास में सन् 1892 ई.में, एवं जीवानन्द द्वारा 1892 में प्रकाशित तथा प्रा. विनयकुमार सरकार द्वारा "सेक्रेड बुक्स ऑफ दि हिन्दू-सीरीज' में अनूदित। चार अध्यायों में एवं 2500 श्लोकों में पूर्ण। इसमें राजधर्म, अस्त्रशस्त्रों एवं बारूद (आग्नेयचूर्ण) आदि का वर्णन है। शुक्लयजुःप्रतिशाख्यम् - ले.- कात्यायन । शुक्लयजुर्वेद - यजुर्वेद का एका भेद। शुक्ल यजुर्वेद की संहिता "वाजसनेयी संहिता" नाम से प्रसिद्ध है। इसके चालीम अध्याय हैं। अंतिम पंद्रह खिलरूप हैं। इस संहिता में दर्शपौर्णमासेष्टी, अग्निहोत्र, राजपय वाजपेय आदि यज्ञयाग के मंत्र दिये गये हैं। (देखिये वाजसनेयी संहिता ।) शुक्लयजुः सर्वानुक्रमसूत्रम्- इस ग्रंथ के रचयिता कात्यायन माने जाते हैं। पांच अध्याय। माध्यंदिन संहिता के देवता, ऋषि, छंद का विस्तत वर्णन है। महायाज्ञिक श्रीदेव ने इस पर भाष्य लिखा है। शुद्धकारिका- ले.- रामभद्र न्यायालंकार। रघु के शुद्धितत्त्व पर आधृत। 2) ले.- नारायण वंद्योपाध्याय। शुद्धविद्याम्बापूजापद्धति - श्लोक - 472 । शुद्धशक्तिमालास्तोत्रम्- श्लोक- 1201 शुद्धसत्त्वम् (नाटक) - ले.- मदहषी वेंकटाचार्य, ई. 19 वीं शती। विशिष्टाद्वैत मत के प्रचारार्थ लिखित । शुद्धाद्वैतमार्तण्ड- ले.- गोस्वामी गिरिधरलालजी। ई. 18 वीं शती। शुद्धिकारिकावलि - ले.- मोहनचंद्र वाचस्पति ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/371
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