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जाते हैं। अतः कुछ सासार इसके शेष
याही
श्लेष को समझने की उसे शक्ति प्रदान करते हैं, तब भैमी उसने अधर्म, अनीति व पाखंड का पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए (दमयंती) वास्तविक नल को गले में मधूकपुष्पों की वरमाला उसके विरुद्ध स्वयं ही अकाट्य उत्तरपक्ष खडा किया है। डाल देती है। पंद्रहवें सर्ग में विवाह की तैयारी व पाणिग्रहण शास्त्रीय अथ च रूखा विषय होते हुए भी श्रीहर्ष ने बडी तथा सोलहवें सर्ग में नल का विवाह और उनका अपनी तन्मयता तथा काव्यात्मक पद्धति से उसे प्रस्तुत किया है। राजधानी लौटना वर्णित है। सत्रहवें सर्ग में देवताओं का प्रस्तुत महाकाव्य की पूर्णता के प्रश्न को लेकर विद्वानों में विमान द्वारा प्रस्थान व मार्ग में कलि-सेना का आगमन वर्णित मतभेद है। इसमें कवि ने 22 सर्गो में नल के जीवन का है। सेना में चार्वाक, बौद्ध आदि के द्वारा वेद का खंडन . एक ही पक्ष प्रस्तुत किया है। वह केवल दोनों के विवाह
और उनके अभिमत-सिद्धांतो का वर्णन है। कलि, देवताओं व प्रणय-क्रीडा का ही चित्रण करता है। शेष अंश अवर्णित द्वारा नलदमयंती के परिणय की बात सुनकर, नलको राज्यच्युत . ही रह जाते हैं। अतः कुछ विद्वानों के अनुसार यह 22 सों करने की प्रतिज्ञा करता है और नल की राजधानी में पहुंचता का काव्य अधूरा है। उनके मतानुसार इसके शेष सर्ग या तो है। वह उपवन में जाकर विभीतक-वृक्ष का आश्रय लेता है लुप्त हो गए हैं या कवि ने अपना महाकाव्य पूरा किया ही
और नल को पराजित करने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में नहीं है। वर्तमान ( उपलब्ध) 'नैषधीयचरित' को पूर्ण मानने रहता है। अठारहवें सर्ग में नल-दमयंती का विहार व पारस्परिक , वाले विद्वानों में कीथ, व्यासराज शास्त्री व विद्याधर ('हर्षचरित' अनुराग वर्णित है। उन्नीसवें सर्ग में प्रभात में वैतालिक द्वारा के टीकाकार) हैं। इस मत के विरोधी पक्ष का युक्तिवाद है नल का प्रबोधन, सूर्योदय व चंद्रास्त का वर्णन है। बीसवें कि यदि यह काव्य "नल-दमयंती-विवाह" या सर्ग में नल-दमयंती का परस्पर प्रेमालाप तथा इक्कीसवें सर्ग "नल-दमयंती-स्वयंवर" रखना चाहिये था। नैषध-काव्य के में नलद्वारा विष्णु, शिव, वामन, राम, कृष्ण प्रभृति देवताओं की अंतर्गत कई ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनकी संगति वर्तमान प्रार्थना का वर्णन है। बाईसवें सर्ग में संध्या व रात्रि का वर्णन, (उपलब्ध) काव्य से नहीं होती यथा कलिद्वारा भविष्य मे वैशेषिक मत के अनुसार अंधकार का स्वरूप-चित्रण तथा चंद्रोदय नल का पराभव किये जाने की घटना। नल-दमयंती को व दमयंती के सौंदर्य का वर्णन कर प्रस्तुत महाकाव्य की
देवताओं द्वारा दिये गए वरदान भी भावी घटनाओं के सूचक समाप्ति की गई है।
हैं। इंद्र ने कहा कि वाराणसी के पास अस्सी के तट पर श्रीहर्ष के नैषधीयचरित में शब्दालंकार व विविध अर्थालंकार,
नल के रहने के लिये उनके नाम से अभिहित नगर (नलपुर) रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि काव्यजीवित तथा वैद्यक, कामशास्त्र,
होगा। देवगण व सरस्वती ने दमयंती को यह वर दिया था राज्यशास्त्र, धर्म, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण, वेदांत, आदि समस्त
कि जो तुम्हारे पातिव्रत को नष्ट करने का प्रयास करेगा वह परंपरागत शास्त्रीय ज्ञान का मालमसाला इतना लूंसकर भरा
भस्म हो जावेगा (नैषध चरित 14-72) भविष्य में नल द्वारा हुआ है कि इस काव्य को “शास्त्र-काव्य" कहने की प्रथा
परित्यक्ता दमयंती जब एक व्याध द्वारा सर्प से बचाई जाती है। इसी प्रकार प्रस्तुत काव्य के अभ्यासक को हर प्रकार का
है तब वह उसके रूप को देख कर मोहित हो जाता है और शास्त्रीय ज्ञान, शब्द-व्युत्पत्ति, व्यवहार व सांस्कृतिक विशेषताओं
उसका पातिव्रत भंग करना ही चाहता है कि उसकी मृत्यु हो का काव्यगुणों के मधुर अनुपातसहित सेवन प्राप्त होने के
जाती है। किन्तु नैषध-काव्य में इस वरदान की संगति नहीं कारण तथा उसकी पहले की दुर्बल मनःप्रकृति स्वस्थ व सुदृढ
होती। अतः विद्वानों की राय है कि इस महाकाव्य की रचना बनने के कारण नैषधीय को- "नैषधं विद्वदौषधम्" (अर्थात्
निश्चित रूप से 22 से अधिक सर्गों में हुई होगी। 17 वें विद्वानों की बलवर्धक औषधि) कहा जाता है। यह काव्य-रसायन,
सर्ग में कलि का पदापर्ण व उसकी यह प्रतिज्ञा [कि वह दुर्बल पचनशक्ति वाले व्यक्ति को लाभप्रद नहीं होता। इसीलिये
नल को राज्य व दमयंती से पृथक् कराएगा (17-137)] नैषध के सशक्त अभ्यासक को संस्कृत क्षेत्र में विशेष मान
से ज्ञात होता है कि कवि ने नल की संपूर्ण कथा का वर्णन है. महाभारत के नल से, श्रीहर्ष ने अपने काव्यनायक को,
किया था क्योंकि इस प्रतिज्ञा की पूर्ति वर्तमान काव्य से नहीं रूप-गुण की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ चित्रित किया है। दमयंती
होती। मुनि जिनविजय ने हस्तलेखों की प्राचीन सूची में श्रीहर्ष का चित्रण भी एक आदर्श राजर्षि की सुयोग्य धर्मपत्नी के
के पौत्र कमलाकर द्वारा रचित एक विस्तृत भाष्य का विवरण अनुरूप रहा है। श्रीहर्ष की श्रद्धा है कि राजा नल की कथा
दिया है जिसमें 60 हजार श्लोक थे। "काव्य-प्रकाश" के के संकीर्तन से अपनी वाणी पवित्र होगी। श्रीहर्ष के सैकड़ों
टीकाकार अच्युताचार्य ने अपनी टीका में बतलाया है कि श्लोक प्रासादिक हैं, परंतु कुछ श्लोक वास्तव में ही क्लिष्ट
नैषध-काव्य में 100 सर्ग थे। इन तर्कों के आधार पर वर्तमान हैं। कवि की श्लेषप्रियता भी इस क्लिष्टता की कारणीभूत हुई
"नैषध-काव्य' अधूरा लगता है। है। इस महाकाव्य में संयम व सुबद्धता का अभाव सर्वत्र नैषधीयचरितम् के प्रमुख टीकाकार - 1) आनन्द राजानक, दृष्टिगोचर होता है। कवि की वृत्ति है वैदिक धर्माभिमानी। 2) ईशानदेव, 3) उदयनाचार्य, 4) गोपीनाथ, 5) जिनराज,
परंपरागा कि इस कार्य काव्य के अभ्यास सांस्कृतिक कि
170/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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