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में मुद्रित। नृसिंहषट्चक्रोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंधित एक नव्य उपनिषद्। इसमें श्रीनृसिंह के अचक्र, सुचक्र, महाचक्र, सकललोकरक्षणचक्र, द्यूतचक्र व असुरांतचक्रनामक छह चक्रों का वर्णन है। पश्चात् इन चक्रों के अंतर्बाह्य वलयों की जानकारी देते हुए बताया गया है कि मानव शरीर में ये 6 चक्र किन स्थानों पर होते हैं। नृसिंहस्तोत्रम् - ले- प्रा. कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री। नृसिंहाराधनरत्नमाला - ले- मेङ्गनाथ। पिता- रामचंद्र। 9 पटलों में पूजाविधि वर्णित। नृसिंहार्चनपद्धति - ले- ब्रह्माण्डानन्दनाथ । नेत्रचिकित्सा - ले- डा. बालकृष्ण शिवराम मुंजे। नागपुर के निवासी। लेखक तीन खंडों में ग्रंथ लिखना चाहते थे, परन्तु उच्चस्तरीय राजनीति में अत्यधिक व्यस्त होने से एक ही खण्ड लिख पाए। आधुनिक नेत्रविज्ञान के विषय पर संस्कृत भाषा में यह एकमात्र सचित्र निबंध है। नेत्रविज्ञानविषयक नवीन पारिभाषिक शब्द स्वयं लेखक ने निर्माण किए हैं। लेखक की जन्मशताब्दी के अवसर पर बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन (नागपुर) द्वारा इसकी द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित हुई। . नेत्रज्ञानार्णव - उमा-महेश्वर संवादरूप। पटल-59 1 तांत्रिक ग्रंथ । नेत्रोद्योततंत्रम् - ले- राजानक क्षेमराज। श्लोक- 322। नेपालीय-देवता-कल्याण- पंचविंशतिका-ले-अमृतानंद । 25 स्रग्धरा छन्दों में निबद्ध । विषय- नेपाली हिंदु, बौद्ध देवताएं चैत्य, तीर्थस्थान आदि की स्तुति।। नेमिदूतम् - ले- विक्रम। पिता- संगम। मेघदूत की पंक्तियों की समस्या पूर्ति के रूप में यह काव्य रचा है। विषयराज्यैश्वर्य-त्यागी नेमिनाथ को पत्नी का पर्वत द्वारा संदेश । नैगेय शाखा (सामवेदीय) - इस शाखा का नाम चरणव्यूह में कौथुमों के अवान्तर-विभागों में मिलता है। 'नैगेय परिशिष्ट' नाम का एक ग्रंथ उपलब्ध है। उसमें दो प्रपाठक हैं। नैमित्तिकप्रयोगरत्नाकर - ले-प्रेमनिधि पन्त। नैषधपारिजातम् - ले- कृष्ण (अय्या) दीक्षित। व्यर्थी संधान-काव्य। विषय- राजा नल की और पारिजात-अपहरण की कथा का श्लेष अलंकार में वर्णन। नैषधानंदम् (नाटक) - ले- क्षेमीश्वर। कन्नौज-निवासी। ई. 10 वीं शती। इसमें 7 अंक हैं और 'महाभारत' की कथा के आधार पर नल-दमयंती की प्रणय-कथा को नाटकीय रूप प्रदान किया गया है। प्रस्तुत नाटक की भाषा सरल है परंतु साहित्यिक दृष्टि से उसका विशेष महत्त्व नहीं है। नैषधीयचरितम् (नामान्तर- नलीयचरितम्, भैमीचरितम्, वैरसेनिचरितम्) - इस महाकाव्य को संक्षेप में "नैषध" भी कहते हैं। इसके रचयिता हैं श्रीहर्ष । पिता- श्रीहरि। माता-
मामल्लदेवी। सम्राट हर्षवर्धन से श्रीहर्ष का कोई संबंध नहीं। सम्राट हर्षवर्धन ईसा की 7 वीं शताब्दी में हुए जब कि प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष हुए 12 वीं शताब्दी में। महाकवि श्रीहर्ष थे राजा जयचंद राठोड के आश्रित। राजा जयचंद की ही प्रेरणा से श्रीहर्ष ने नैषधीयचरित की रचना की। परंपरा के अनुसार प्रस्तुत काव्य 60 या 120 सर्गों का था। विद्यमान 22 सगों के काव्य में नल-दमयंती की प्रणय-गाथा वर्णित है। प्रथम सर्ग में नल के प्रताप व सौंदर्य का वर्णन है। राजा भीम की पुत्री दमयंती, नल के यश-प्रताप का वर्णन सुन कर उसकी ओर आकृष्ट होती है। उद्यान में भ्रमण करते समय नल को एक हंस मिलता है और नल उसे पकड कर छोड देता है। द्वितीय सर्ग में नल के समक्ष हंस दमयंती के सौंदर्य का वर्णन करता है और नल का संदेश लेकर दमयंती के पास विदर्भस्थित कुंडिनपुर जाता है। तृतीय सर्ग में हंस एकांत में दमयंती को नल का संदेश सुनाता है, तब दमयंती उसके सम्मुख नल के प्रति अपना अनुराग प्रकट करती है। चतुर्थ सर्ग में दमयंती की पूर्वरागजन्य वियोगावस्था का चित्रण व उसकी सखियों द्वारा भीम से दमयंती के स्वयंवर के संबंध में वार्तालाप का वर्णन है। पंचम सर्ग में नारद द्वारा इन्द्र को दमयंती स्वयंवर की सूचना प्राप्त होती है और उससे विवाह करना चाहते हैं। वरुण, यम व अग्नि के साथ इंद्र राजा नल से दमयंती के पास संदेश भेजने के लिये दूतत्व करने की प्रार्थना करते हैं। नल को अदृश्यता शक्ति प्राप्त हो जाती है और वह अनिच्छुक होते हुए भी इंद्र के कार्य को स्वीकार कर लेता है। षष्ठ सर्ग में नल का अदृश्य रूप से दमयंती के पास जाने का वर्णन है। वह वहां इन्द्रादि देवताओं द्वारा प्रेषित दूतियों की बातें सुनता है। दमयंती स्पष्ट रूप से उन दूतियों को बतलाती है कि वह नल का वरण कर चुकी है। सप्तम सर्ग में नल द्वारा दमयंती के सौंदर्य का वर्णन है। अष्टम सर्ग में नल स्वयं को प्रकट कर देता है। वह दमयंती को इन्द्र, वरुण, यम प्रभृति का संदेश कहता है। नवम सर्ग में नल इन्द्रादि देवताओं में से किसी एक को दमयंती का वरण करने के लिये कहता है पर वह राजी नहीं होती। वह उसे भाग्य का खेल समझ कर देवताओं का दृढतापूर्वक सामना करने की बात कहता है। इसी अवसर पर हंस आकर उन्हें देवताओं से भयभीत न होने की बात कहता है। दमयंती स्वयंवर में नल से आने की प्रार्थना करती है। नल उसकी बात मान लेता है। दशम सर्ग में स्वयंवर का उपक्रम वर्णित है। एकादश व द्वादश सर्गों में सरस्वती द्वारा स्वयंवर में आए हुए राजाओं का वर्णन किया गया है। तेरहवें सर्ग में सरस्वती नलसहित चार देवताओं का परिचय श्लेष में देती है। सभी श्लोकों का अर्थ नल व देवताओं पर घटित होता है। चौदहवें सर्ग में दमयंती वास्तविक नल का वरण करने हेतु देवताओं की स्तुति करती है। इससे देवगण प्रसन्न होकर सरस्वती के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 169
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