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शताब्दी का अंतिम चरण। उनके अलंकार शास्त्र विषयक अन्य दो ग्रंथ हैं- त्रिवेणिका व अलंकारदीपिका। प्रस्तुत "कोविदानंद" अभी तक अप्रकाशित हैं किंतु इसका विवरण "त्रिवेणिका में प्राप्त होता है। इसमें शब्द-वृत्तियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। डॉ. भांडारकर ने प्रस्तुत "कोविदानंद" के एक हस्तलेख की सूचना दी है जिसमें निम्न श्लोक है
"प्राचां वाचा विचारेण शब्दव्यापारनिर्णयम्।
करोमि कोविदानंदं लक्ष्यलक्षासंयुतम्।। शब्दवृत्ति के अपने इस प्रौढ ग्रंथ पर स्वयं ग्रंथकार आशाधर भट्ट ने ही "कादंबिनी" नामक टीका लिखी है। कोसलभोसलीयम् - ले. शेषाचलपति। (आन्ध्रपाणिनि उपाधि) अपूर्व भाषापाण्डित्य। यह द्वयर्थी काव्यरचना है। कोसल वंशीय राम की कथा तथा एकोजी पुत्र शाहजी भोसले के चरित्र का श्लेष अलंकारद्वारा वर्णन इसका विषय है। शाहजीद्वारा कवि का कनकाभिषेक से सत्कार हुआ था। कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्- प्रणेता-कौटिल्य, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के मंत्री एवं गुरु। इन्होंने अपने बुद्धिबल व अद्भुत प्रतिभा के द्वारा नंद-वंश का अंत कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। प्रस्तुत ग्रंथ में भी इस तथ्य का संकेत है कि कौटिल्य ने सम्राट चंद्रगुप्त के लिये अनेक शास्त्रों का मनन व लोक-प्रचलित शासनों के अनेकानेक प्रयोगों के आधार पर इस ग्रंथ की रचना की थी
"सर्वशास्त्रण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च।
कौटिल्येन नरेंद्रार्थे शासनस्य विधिः कृतः ।।" कौटिल्य के नाम की ख्याति कई नामों से है। चणक के पुत्र होने के कारण "चाणक्य' व कुटिल राजनीतिज्ञ होने के कारण ये "कौटिल्य" के नाम से विख्यात हैं। यो दोनों ही नाम वंशज नाम या उपधिनाम हैं, पितृदत्त नाम नहीं। कामंदक के "नीतिशास्त्र" से ज्ञात होता है कि इनका वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था।
"नीतिशास्त्रमृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदयः।
य उद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे । 16 ।। यह ग्रंथ सन 1905 में उपलब्ध हुआ तब आधुनिक युग के कतिपय पाश्चात्य व भारतीय विद्वानों ने यह मत प्रतिपादन किया "अर्थशास्त्र" कौटिल्य विरचित नहीं है। जोली, कीथ व विंटरनित्स ने अर्थशास्त्र को मौर्य मंत्री की रचना नहीं मानी है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति मौर्य जैसे सुविशाल साम्राज्य की स्थापना में जुटा रहा, उसे इतना समय कहा था जो इस प्रकार के बृहत् ग्रंथ की रचना कर सके। किन्तु यह कथन अयोग्य माना जाता है क्यों कि सायणाचार्य जैसे व्यस्त जीवन व्यतीत करने वाले महामंत्री ने वेद-भाष्यों की रचना की थी। अतः यह कथन असिद्ध माना जाता है। जोली, कीथ और विंटरनित्स ने "अर्थशास्त्र" को तृतीय शताब्दी की
रचना माना है किन्तु आर.जी. भांडारकर ने अनुसार इसका रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी है। इस ग्रंथ में कौटिल्य ने “अर्थशास्त्र" की व्याख्या इस भांति की है- तस्याः पृथिव्याः लाभपालनोपायः शास्त्रम् अर्थशास्त्रम् (कौ.अ.15-1) अर्थःपृथ्वी पर जो सम्पत्ति है, उसका लाभ उठाकर उस (पृथ्वी) का पालन करने का उपाय जिसमें है, वही यह अर्थशास्त्र है।
"अर्थ एवं प्रधानः इति कौटिल्यः।
अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति (को.अ. 7) अर्थ- अर्थ ही प्रधान है। धर्म और काम अर्थमूलक हैं। अपने पूर्व के 28 अर्थशास्त्रज्ञों का उल्लेख कौटिल्य ने किया है। इसका अर्थ यही है कि नन्द के काल तक अर्थशास्त्र स्वतंत्र विद्या के रूप में मान्य हो चुका था। कौटिल्य के प्रस्तुत अर्थशास्त्र में पंद्रह अधिकरण है। उनके विषय :1) विनयाधिकार - अमात्योत्पत्ति, मंत्री, पुरोहित की नियुक्ति मंत्रियों की सत्त्वपरीक्षा, गुप्त विचार, राजकुमारों की रक्षा और कर्तव्य, अन्तःपुर का प्रबंध, आत्मरक्षण, दूतकर्म आदि। 2) अध्यक्षप्रचार - शासन संस्था के प्रमुख याने अध्यक्ष के कर्त्तव्य , उनके विभाग, दुर्ग = किलों का निर्माण, करग्रहण, रत्नपरीक्षा, खनिज पदार्थों के उद्योगों का संचालन, वजन, ताप, सेनापति के कार्य, गुप्तचरों की योजना आदि। 3) धर्मस्थानीय - विवादों का निर्णय, विवाहविषयक नियम, दायविभाग, गृहवास्तु, श्रम एवं संपत्ति का विनियोग, लावारिस धन की व्यवस्था आदि । 4) कंटकशोधन - कारीगरों एवं व्यापारियों की सुरक्षा, दैवी संकट पर उपाय, गुंडे तथा अत्याचारी लोगों का दण्डन । 5) योगवृत्त - राजा के प्रति सेवकों का कर्तव्य, विश्वासघातकों का प्रतिकार, कोशसंग्रह। 6) मंडलयोनिः - शत्रुओं को वश करने का उपाय, उद्योग,
शांति।
7) षाड्गुण्य - राजनीति के षड्गुणों का उद्देश्य, उनके स्थान, वृद्धि-क्षय, युद्धविचार, संधि, विग्रह, विक्रम, प्रबलशत्रु से व्यवहार की नीति। 8) व्यसनाधिकारिक - राज्य पर जो संकट आते हैं, उनके मूल कारणों की खोज करना एवं शांति के उपाय। 9) अभियास्यत्कर्म - युद्ध प्रस्थान की तैयारी, बाह्य-आभ्यंतर आपत्ति, अर्थानर्थसंशय, उनका विवेचन और उपाय। 10) सांग्रामिक - सेना का प्रयाण, पडाव, कूटयुद्ध, युद्धभूमि, व्यूह, प्रतिव्यूह आदि। 11) संघवृत्त- संघराज्य में फूट डालने का विचार, उसके नियम। 12) अबलीयस् - दुर्बल राजा प्रबल राजा का प्रतिकार कैसे करे, मंत्रयुद्ध शस्त्र, अग्नि और रस का प्रयोग। 13) दुर्गलंभोपाय - शत्रु के किलों पर अधिकार करने के
84 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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