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केलिकल्लोलिनी- (काव्य) - ले. अनादि मिश्रा। ई. 18 वीं शती। केलिरहस्यम् - ले. विद्याधर कविराज। केवलज्ञानहोरा - ले. ज्योतिषशास्त्र के एक जैन आचार्य चंद्रसेन। कर्नाटक प्रान्त के निवासी। इन्होंने अपने इस ग्रंथ में कहीं कहीं कन्नड भाषा का भी प्रयोग किया है। अपने विषय का यह एक विशालकाय ग्रंथ है जिसमें लगभग 4 हजार श्लोक हैं। विषय- हेम, धान्य, शिला, मृत्तिका, वृक्ष, कार्पास,गुल्म- वल्कल- तृणरोम-चर्मपट, संख्या, नष्टद्रव्य, स्वप्न निर्वाह, अपत्य, लाभालाभ, वास्तु-विद्या, भोजन, देहलोक-दीक्षा अंजन-विद्या व विश्वविद्या नामक प्रकरणों में विभाजित है। इस विषय-सूचि के अनुसार यह ग्रंथ होरा विषयक न होकर संहिता विषयक सिद्ध होता है। ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार ने स्वयं अपनी प्रशंसा की है। केवलिमुक्ती (अमोघवृत्तिसंहिता) - ले. शाकटायन पाल्यकीर्ति जैनाचार्य। ई. 9 वीं शती। केशववैजयंती - ले. नंदपंडित। ई. 16-17 वीं शती। कैतवकला (भाण) - ले.नारायण स्वामी। ई. 18 वीं शती। श्रीरंगपत्तन में अभिनीत।। कैयटव्याख्या - ले. नीलकण्ठ दीक्षित। ई. 17 वीं शती। विषय- व्याकरण। कैलासकम्प (नाटक) - ले. श्रीराम भिकाजी वेलणकर । मार्च 1963 में दिल्ली से प्रसारित। अंकसंख्या तीन। आद्यन्त गेय पद। सुपरिचित छन्दों के साथ उमानाथ, सम्पात, नयन
और शस्त्र-सन्धि इन नये स्वरचित छन्दों का प्रयोग। दृश्यस्थली कैलास। प्राकृत भाषा का अभाव। कथासार - चीन भारत पर आक्रमण करता है। भयग्रस्त जनता शिव से रक्षा चाहती है। शशांक, स्वर्गंगा, गणेश भी भयभीत हैं और कैलास पर्वत जड से आतंकित। अन्त में युद्ध समाप्त होता है और शिव की कृपा से कैलास पर शान्ति स्थापित होती है। कैलासनाथविजय (व्यायोग) - ले. जीव न्यायतीर्थ । जन्म 1894। बंगाल के राज्यपाल कैलासनाथ काटजू के आगमन पर अभिनीत। कैलासवर्णन-चम्यू- ले.नारायण भट्टपाद । कैवल्यकलिकातन्त्र-टीका - श्लोक- 468। यह कैवल्यकलिकातन्त्र के द्वितीय पटल की टीका है। ले. विश्वनाथ। पिता- वामदेव भट्टाचार्य। पितामह-वैदिक पंडित नारायण भट्टाचार्य। कैवल्यतन्त्रम् - श्लोक- 1681 5 पटलों में पूर्ण। इसमें तांत्रिकों में प्रसिद्ध पंच तत्त्व -मत्स्य, मांस, मद्य आदि का उपयोग वर्णित है। कैवल्य-दीपिका- 1) ले. पुसदेकर शाङ्गधर । ई. 16 वीं शती।
2) ले. हेमाद्रि। ई. 13 वीं शती। पिता- कामदेव । कैवल्यावली-परिणयम् (रूपक) - ले. इल्लूर रामस्वामी शास्त्री। ई. 19 वीं शती। कैवल्योपनिषद् - शांतिपाठ के अनुसार यह उपनिषद् कृष्णयजुर्वेदीय प्रतीत होता है, किन्तु इसके अंत में “अथर्ववेदीया कैवल्योपनिषत् समाप्त" लिखा होने के कारण यह अथर्ववेदीय होना चाहिये। इसके दो खंड हैं। प्रथम खण्ड में 23 श्लोक हैं जब कि दूसरे खण्ड में केवल फलश्रुति है। इसमें ब्रह्मदेव द्वारा आश्वलायन को ब्रह्मविद्या बतायी गयी है। श्रद्धा, भक्ति व ध्यान, तीनों के योग से ब्रह्मविद्या प्राप्त हो सकती है, तथा त्याग से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। इस लिये संन्यासाश्रम स्वीकार कर इन्द्रियसंयम पूर्वक परम तत्त्व नीलकण्ठ शिव का ध्यान करना चाहिये, यही उक्त उपनिषद का सार तत्त्व है। अद्वैतपरक इस उपनिषद् का झुकाव शैव सम्प्रदाय की ओर है। कोकिलदूतम् - 1) ले. म.म. प्रमथनाथ तर्कभूषण। 2) ले. हरिदास। ई. 18 वीं शती। कोकसंदेश - ले. विष्णुत्रात। समय ई. 16 वीं शती। इस संदेश काव्य में नायक राजकुमार अपनी प्रिया से एक यंत्रशक्ति के द्वारा वियुक्त हो जाता है, और श्रीविद्यापुर से प्रिया को संदेश भेजता है। इसके पूर्व भाग में 120 व उत्तर भाग में 186 श्लोक रचे गये हैं। संपूर्ण काव्य मंदाक्रांता वृत्त में लिखा गया है। इसमें वस्तु-वर्णन का आधिक्य है और प्रेयसी के गृह वर्णन में 50 श्लोक है। कोकिलसंदेश - 2) ले. उद्दण्ड कवि। समय ई. 16 वीं शती का प्रारंभ। कालीकत के राजा जमूरिन के सभाकवि । पिता रंगनाथ। माता- रंगाबा। इसमें पूर्व व उत्तर दो भाग हैं
और सर्वत्र मंदाक्रांता वृत्त का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत काव्य की कथा काल्पनिक है। कोई प्रेमी जो प्रासाद में अपनी प्रिया के साथ प्रेमालाप करते हुए सोया हुआ था, प्रातःकाल अप्सराओं द्वारा कंपा नदी पर स्थित कांची नगरी के भवानी मंदिर में स्वयं को पाता है। उसी समय आकाशवाणी होती है कि यदि वह 5 मास तक यहां रहे तो पुनः उसे अपनी प्रिया का वियोग नहीं होगा। वहां रहते हुए जब 3 मास व्यतीत हो जाते हैं तो उसे प्रिया की याद आती है और वह कोकिल के द्वारा उसके पास संदेश भेजता है। वसंत ऋतु में कोकिल का कल-कूजन सुनकर ही उसे अपनी प्रिया की स्मृति हो आती है। अतः कोकिल द्वारा ही वह अपना संदेश भिजवाता है। इसमें कांची नगरी से लेकर जयंतमंगल (चेन्न मंगल) तक के मार्ग का मनोरम चित्र अंकित किया गया है।
3) ले. वेंकटाचार्य। ई. 17 वीं शती। कोमलाम्बाकुचशतकम् - ले. सुन्दराचार्य । पिता- रामानुजाचार्य। कोविदानंदम् - ले. आशाधर भट्ट (द्वितीय)। ई. 17 वीं
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /83
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