________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
मान्यता है कि सब प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण श्रुति का तात्पर्य अद्वैत में नहीं है, प्रत्युत विष्णु के सर्वोत्तम होने में ही सब आगमों का तात्पर्य है । इस निबंध में प्रधानतया यही सिद्ध किया गया है कि सिद्धांतरूपेण भेद श्रुतिपुराणों द्वारा ही गम्य है। इसमें श्रुति प्रतिपादित कर्मकांड के अंतर्गत "कर्म" के स्वरूप का गंभीर विवेचन किया गया है। मध्वाचार्य के मतानुसार श्रुति का कर्मकाण्ड भाग भी भगवान् की ही स्तुति करता है। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये श्रुति-मंत्रों तथा ब्राह्मण वचनों का इस निबंध में आध्यात्मिक दृष्टि से गंभीर अर्थ प्रतिपादित किया गया है। लेखक के ऋग्भाष्य में भी इसी विषय का प्रतिपादन है। विष्णुतत्त्वप्रकाश ले. वनमाली माध्य अनुयायियों के लिए स्मार्त कृत्यों पर एक निबंध । विष्णुतत्त्वविनिर्णय ले आनन्दतीर्थ
|
विष्णुतत्त्व संहिता पांचरात्र साहित्य के अंतर्गत निर्मित 215 संहिताओं में से एक प्रमुख संहिता इसमें मूर्तिपूजा, भोग, वैष्णव-मुद्राओं का अंकन, पवित्रीकरण आदि विषयों का विवरण है। इस संहिता पर सांख्यदर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। विष्णुतीर्थीयव्याख्यानम् - ले. सुरोत्तमाचार्य । विष्णुधर्मपुराणम् - यह एक उपपुराण हे, किन्तु इसका स्वरूप धर्म शास्त्र जैसा है। इसमें वैष्णव संप्रदाय के धार्मिक आचार व कर्त्तव्य बताये गये हैं- इसकी रचना भारत के वायव्य प्रदेश में हुई होगी क्योंकि इसमें इसी प्रदेश के पुण्यक्षेत्रों का विशेष रूप से वर्णन है। इसका रचनाकाल इ. स. 200-300 वर्ष में हुआ होगा, क्योंकि उस समय बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हो रहा था और इसमें बौद्धों को पाखंडी, दुराचारी कहा गया है। वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठापना तथा विस्तार हेतु ही इसकी रचना की गई। इसमें क्रियायोग से कैवल्यपद की प्राप्ति, विष्णु के अनेक स्तोत्र, आत्मा-परमात्मा का मिलन, ज्ञानयोग की महत्ता, वर्णाश्रमधर्म पालन का महत्त्व, द्वैताद्वैत तत्त्व आदि का विवेचन है "ओम् नमो वासुदेवाय" मंत्र की महत्ता भी प्रतिपादित की गई है।
विष्णुधर्ममीमांसा - ले. नृसिंह भट्ट । सोमभट्ट के पुत्र । विष्णुधर्मसूत्रम् इस धर्मसूत्र के कुल 100 प्रकरण हैं। कुछ प्रकरण केवल एक सूत्र या एक श्लोक वाले हैं। प्रथम और अंतिम दो प्रकरण पद्यमय हैं तथा शेष प्रकरण गद्यापद्यात्मक हैं। इन सूत्रों का यजुर्वेद की काठक शाखा से निकट सम्बन्ध है। इसमें वर्णाश्रम धर्म, राजधर्म, व्यवहार, दिव्य, 12 प्रकार के पुत्र, युग मन्वंतर, अशौच, शुद्ध, विवाह, स्त्री - धर्म, प्रायश्चित्त, श्राध्द, दान, इष्टापूर्त के कर्म आदि विषयों का विवेचन है। इसकी रचना विभिन्न कालखण्डों में, सन पूर्व 300 से 100 वर्ष के बीच तथा इ. स. तीसरी शताब्दी के बाद होने का अनुमान है। इसमें काठक शाखा के मंत्र और काठक गृह्य
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्र के उद्धरण भी हैं। इस शाखा के लोग प्राचीन काल में पंजाब व काश्मीर में ही अधिकतर थे। अतः इसकी रचना भी संभवतः इसी क्षेत्र में हुई होगी। इस पर नन्द पंडित कृत वैजयन्ती नामक दीका है। विष्णुधर्मोत्तरपुराणम् - विष्णु धर्मपुराण का ही यह उत्तरार्ध है। इसके कुल तीन खण्ड हैं, प्रथम खण्ड में 269, दूसरे में 183 व तीसरे खंड में 355 अध्याय हैं। इसमें वैष्णवों का आचार- धर्म, विष्णुपूजा की पांचरात्र पद्धति तथा सम्प्रदाय के व्यूह - सिद्धान्त का विवेचन है। इसकी गणना 18 उपपुराणों में होती है। यह भारतीय कला का विश्वकोश है जिसमें वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला एवं अलंकार - शास्त्र का वर्णन किया गया है। इसमें नाट्य शास्त्र तथा काव्यालंकार विषयक 1 सहस्र श्लोक हैं। इसके अध्याय क्रमांक 18, 19, 32 व 36 गद्य में लिखे गए हैं जिनमें गीत, आतोय, हस्तमुद्रा व प्रत्यंग विभाग का वर्णन है। इसके जिस अंश में चित्रकला, मूर्तिकला, नाट्यकला एवं काव्यशास्त्र का वर्णन है, उसे चित्रसूत्र कहा जाता है। इस पुराण का प्रारंभ श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र से मार्कडेय के संवाद से होता है। मार्कंडेय के अनुसार "देवता की उसी मूर्ति में देवत्व रहता है, जिसकी रचना चित्रसूत्र के आदेशानुसार हुई हो और जो प्रसन्नमुख हो" । इसके द्वितीय अध्याय में यह भी विचार व्यक्त किया गया है कि चित्रसूत्र के ज्ञान बिना "प्रतिमा-लक्षण" या मूर्तिकला समझ में नहीं आ सकती, तथा बिना नृत्यशास्त्र के परिज्ञान के, चित्रसूत्र समझ में नहीं आ सकता। नृत्य, वाद्य के बिना संभव नहीं, तथा गीत के बिना वाद्य में भी पढ़ता नहीं आ सकती।
तृतीय अध्याय में छंद वर्णन तथा चतुर्थ अध्याय में वाक्य- परीक्षण की चर्चा की गई है। पंचम अध्याय के विषय हैं :- अनुमान के 5 अवयव, सूत्र की 6 व्याख्याएं, 3 प्रमाण (प्रत्यक्षानुमानातवाक्यानि एवं इनकी परिभाषाएं, स्मृति, उपमान व अर्थापत्ति। षष्ठ अध्याय में "तंत्रयुक्ति" का वर्णन है तथा सप्तम अध्याय में विभिन्न प्राकृतों का वर्णन 11 श्लोकों में किया गया है। अष्टम अध्याय में देवताओं के पर्यायवाची शब्द दिये गए हैं, तथा नवम व दशम अध्यायों में शब्दकोष है 11 वे 12 वे व 13 वे अध्यायों में लिंगानुशासन है, और प्रत्येक अध्याय में 15 श्लोक हैं। 14 वें अध्याय में 17 अलंकारों का वर्णन है। 15 वें अध्याय में काव्य का निरूपण है जिसमें काव्य व शास्त्र के साथ अंतर स्थापित किया गया है। इसमें काव्य में 9 रसों की स्थिति मान्य है । 16 वें अध्याय में केवल 15 श्लोक हैं, जिनमें 21 प्रहेलिकाओं का विवेचन है। 17 वें अध्याय में रूपक (नाट्य) वर्णन है। तथा उनकी संख्या 12 कही गई है। इसमें यह भी कहा गया है कि नायक की मृत्यु, राज्य का पतन, नगर का अवरोध एवं युद्ध का रंगमंच पर साक्षात् प्रदर्शन नहीं होना चाहिये- इन्हें प्रवेशक द्वारा वार्तालाप के ही रूप में प्रकट
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 343
For Private and Personal Use Only