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कर देना चाहिये। इसी अध्याय में 8 प्रकार की नायिकाओं का विवेचन किया गया है (श्लोक संख्या 56-59) प्रस्तुत पुराण के 18 वें अध्याय में गीत, स्वर, ग्राम तथा मूर्छनाओं का वर्णन है, जो गद्य में प्रस्तुत किया गया है। 19 वां अध्याय भी गद्य में है, जिसमें 4 प्रकार के वाद्य, 20 मंडल एवं प्रत्येक के दो प्रकार से 10-10 भेद तथा 36 अंगहार वर्णित हैं। 20 वें अध्याय में अभिनय का वर्णन है। इस अध्याय में दूसरे के अनुकरण को नाट्य कहा गया है, जिसे नृत्य द्वारा शोभान्वित किया जाता है। __ अध्याय 21 वें से 23 वें तक शय्या, आसन व स्थानक का प्रतिपादन एवं 24 वें व 25 वें में आंगिक अभिनय वर्णित है। 26 वें अध्याय में 13 प्रकार के संकेत तथा 27 वें में आहार्य अभिनय का प्रतिपादन है। आहार्य अभिनय के 4 प्रकार माने गये हैं (प्रस्त, अलंकार, अंगरचना व संजीव)। 29 वें अध्याय में पात्रों की गति का वर्णन व 30 वें में, 28 श्लोकों में रस-निरूपण है। 31 वें अध्याय के 58 श्लोकों में 49 भावों का वर्णन तथा 32 वें में हस्त-मुद्राओं का विवेचन है। 33 वें अध्याय में नृत्य विषयक मुद्रायें 124 श्लोकों में वर्णित हैं, तथा 34 वें अध्याय में नृत्य का वर्णन है। 35 वें से 43 वें अध्यायों में चित्रकला, 44 वें से 85 वें अध्यायो में मूर्ति व स्थापत्य-कला का वर्णन है।
डॉ. काणे के अनुसार इसका रचना काल 5 वीं शती के पर्व का नहीं है। डॉ. हाजरा के मतानुसार यह पुराण ई.5 वीं शताब्दी में काश्मीर अथवा पंजाब के उत्तरी क्षेत्र में लिखा गया होगा। प्रस्तत पुराण के काव्यशास्त्रीय अंशों पर भरत मुनि के "नाट्य-शास्त्र" का प्रभाव है, किंतु रूपक व रसों के संबंध में कुछ अंतर भी है।
प्रस्तुत पुराण का प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से शके सं. 1834 में हुआ है, और चित्रकला वाले अंश का हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की सम्मेलन-पत्रिका के "कला-अंक" मे किया गया है। विष्णुपुराणम्- पारंपारिक क्रमानुसार तृतीय पुराण। इस पुराण में विष्णु की महिमा का आख्यान करते हुए, उन्हें एकमात्र सर्वोच्च देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पुराण 6 खंडों में विभक्त है, इस में कुल 126 अध्याय व 6 सहस्र श्लोक हैं। इसकी श्लोकसंख्या के बारे में "नारदीय पुराण" तथा "मत्स्यपुराण" में मतैक्य नहीं है। प्रथम के अनुसार इसकी श्लोकसंख्या 24 तथा द्वितीय के अनुसार 23 सहस्र मानी गई है। - इस महापुराण की रचना के सम्बन्ध में इसी पुराण में दी गई कथा इस प्रकार है- वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को विश्वामित्र की प्रेरणा से किसी राक्षस ने मार कर खा लिया। जब इस घटना की जानकारी शक्ति के पुत्र पराशर को मिली तो क्रोधित
होकर उसने समस्त राक्षसों के वध हेतु यज्ञ किया। इस यज्ञ में सैकडों राक्षस जलकर भस्म होने लगे। वसिष्ठ ने जब यह देखा तो दुःखित होकर उन्होंने अपने पोते से कहा- “पिता की हत्या के लिये सभी राक्षसों को दोषी ठहराना उनके प्रति अन्याय होगा और क्रोधवश किये गये इस कृत्य से, वह अत्यंत काष्ट और तप से अर्जित अपने पुण्य और यश को खो बैठेगा। अपने पितामह के उपदेशों को मानकर पराशर ने राक्षसों के वध का यज्ञ तुरन्त बंद कर दिया। इससे राक्षसों के पूर्वज महर्षि पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर पराशर को यह वरदान दिया कि वह एक पुराण संहिता की रचना करेगा। आगे चलकर मैत्रेय के प्रश्नों के समाधान में पराशर ने उन्हें विष्णुपुराण सुनाया और कहा
पुराणं वैष्णवं चैतत् सर्वकिल्बिषनाशनम्। विशिष्टं सर्वशास्त्रेभ्यः पुरुषार्थोपपादकम्।। अर्थात्- यह विष्णु पुराण सर्व पापों का नाश करने वाला तथा सर्व शास्त्रों में विशिष्ट एवं पुरुषार्थ सिद्ध करा देने वाला है।
एक कथा यह भी बताई जाती है की वेदव्यास ने अपने शिष्य लोमहर्षण को पुराणसंहिता सुनाई। इसके छह शिष्यों में से तीन शिष्यों ने अकृतव्रण, सावर्ण्य और शांशपायन ने अपने गुण से प्राप्त पुराण संहिता का अध्ययन किया। विष्णुपुराण उपर्युक्त चार संहिताओं का संग्रहरूप ही है।
वैष्णव पुराणों में भागवत के पश्चात् इसी पुराण की गणना की जाती है। परिमाण में यह पराण जितना स्वल्प है. तत्त्वोन्मीलन में उतना ही महान है। इसमें 6 अंश (अर्थात खंड) तथा 126 अध्याय हैं। इस प्रकार भागवत की अपेक्षा इसका परिमाण तृतीयांश होते हुए भी, रामानुज संप्रदाय में इसे भागवत से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक माना जाता है। अवांतर काल में विवेचित वैष्णव सिद्धांतों का मूलरूप, इस पुराण में उपलब्ध होता है। इसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन बडी ही सरलता से किया गया है। पंचम अंश (खंड) में श्रीकृष्ण की लीलाओं का विशेष वर्णन है, किंतु यह अंश श्रीमद्भागवत की अपेक्षा कवित्व की दृष्टि से न्यून है।
षष्ठ अंश के पंचम अध्याय में भी अध्यात्म तत्त्वों का बडा ही विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसके अनुशीलन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि "परं धाम" नाम से विख्यात परब्रह्म की ही अपर संज्ञा "भगवान्" है (6-5-68-69)। वही वासुदेव नाम से भी अभिहित किया जाता है। उसकी प्राप्ति का उपाय है- स्वाध्याय तथा योग। योग के साथ भगवान् के नाम का स्मरण तथा कीर्तन भी मुक्ति में सहाय्यक होता है। अतः इस पुराण की दृष्टि में, योग तथा भक्ति का समुच्चय, मुक्ति की साधना का प्रमुख उपाय है।
इस पुराण के प्रथम अंश में सृष्टि-वर्णन, ध्रुव व प्रह्लाद
344 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड
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