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शता।
आचार्य ने प्रकाशित की है। मानसिंह • ले.- भारतचन्द्र गय। ई. 18 वीं शती। मानसोल्लास - ले.- सोमेश्वर (या भूलोक मल्ल) श्लोक - 2500| विषय - संगीत, वाद्य तथा संगीत की नवीन रचना
और उसका विवरण। मानसोल्लास - (मानसोल्लास-वृत्तान्ताख्य टीका सहित) यह श्री श्रीशंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्ति की स्तुति पर व्याख्यान है। दूसरा मानसोल्लासवृत्तान्त पूर्व व्याख्यान की व्याख्या है। पूर्व व्याख्याकार हैं शंकराचार्य के शिष्य विश्वरूपाचार्य और द्वितीय व्याख्याकार हैं रामतीर्थ । मायाजालम् (आख्यायिका) - लेखिका - क्षमा राव। मुंबई निवासी। मायाजालम् - ले.- लीला-राव दयाल । क्षमा राव की कन्या । माता की लिखित कथा पर आधारित रूपक। इसमें नाट्य तथा कार्य (एक्शन) का अभाव है। धूतों के चंगुल में फंसी चार कन्याओं-मुग्धा, मन्दा, मोहिनी तथा दया की करुण गाथा इसमें अंकित की है। मायातन्त्रम् - हर-पार्वती संवादरूप। पटल - 17। विषय - भावादिनिरूपण, भुवनेश्वरी कवच, चण्डीपाठविधि, चण्डीपाठ-फल इ.। दिव्य, पशु और वीर इन तीन भावों का निरूपण तथा कलियुग में ज्ञानोपाय का निरूपण। मायाबीजकल्प - ले.- शक्तिदास । मायावादखंडनम् - ले.- मध्वाचार्य। ई. 12-13 वीं शती। इस निबंध के नाम से ही उसके स्वरूप का परिचय मिलता है। तत्त्वसंख्यान और तत्वविवेक में द्वैतमत के अनुसार पदार्थो की गणना एवं वर्गीकरण है। इसमें अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त का निरूपण कर उसका प्रखर खंडन किया गया है। विश्वास किया जाता है कि अपने समय के मान्य अद्वैती विद्वान् पुंडरीकपुरी एवं पक्षतीर्थ के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित करने के अवसर पर मध्वाचार्य ने इन्ही तर्कों का प्रयोग किया था। अतः इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। मध्वाचार्य द्वारा लिखित 'दशप्रकरणम्' (दस निबंधों का संग्रह) में से यह एक महत्त्वपूर्ण निबंध है। मारीचवधम् - ले.- कवीन्द्र परमानन्द शर्मा। लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल निवासी। 19-20 शताब्दी। लेखनकने संपूर्ण काव्यमय रामचरित्र की रचना की, उसके भागों में से यह एक है। (शेष भाग अन्यत्र उल्लिखित हैं)। मारुतिविजयचंपू - ले.- रघुनाथ कवि (या कुप्पाभट्ट रघुनाथ) समय- ई. 17 वीं शती के आस-पास। इसमें कवि ने 7 स्तबकों में वाल्मीकि रामायण के सुंदर-कांड की कथा का वर्णन किया है। कवि का मुख्य उद्देश्य हनुमानजी के कार्यो की महत्ता प्रदर्शित करना है। इसके श्लोकों का संख्या 436
है। ग्रंथ के आरम्भ में गणेश तथा हनुमान् की वंदना की गई है। मारुतिशतकम् - ले.- म. म. रामावतार शर्मा। काशी में प्रकाशित। मार्कण्डेयपुराणम् - पौराणिक क्रम से 7 वां पुराण। मार्कण्डेय ऋषि के नाम से अभिहित होने के कारण इसे "मार्कण्डेय पुराण" कहा जाता है। इस पुराण में महामुनि मार्कण्डेय वक्ता हैं। इस पुराण में सहस्र श्लोक व 138 अध्याय हैं। "नारद पुराण" की विषय-सूची के अनुसार इसके 31 वें अध्याय के बाद इक्ष्वाकु-चरित, तुलसी-चरित, राम-कथा, कुश-वंश, सोम-वंश, पुरुरवा, नहुष तथा ययाति का वृत्तांत, श्रीकृष्ण की लीलाएं, द्वारिका चरित, व मार्कण्डेय का चरित, वर्णित हैं। इस पुराण में अग्नि, सूर्य तथा प्रसिद्ध वैदिक देवताओं की अनेक स्थानों पर स्तुति की गई है, और उनके संबंध में अनेक आख्यान प्रस्तुत किये गये हैं। इसके कतिपथ अंशों का "महाभारत" के साथ अत्यंत निकट का संबंध है। इसका प्रारंभ "महाभारत" कथा विषयक 4 प्रश्नों से ही होता है, जिनके उत्तर "महाभारत" में भी नहीं हैं। प्रथम प्रश्न द्रौपदी के पंचपतित्व से संबंद्ध है, व अंतिम (चौथे) प्रश्न में उसके पुत्रों का युवावस्था में मर जाने का कारण पूछा गया है। इन प्रश्नों के उत्तर मार्कण्डेय ने स्वयं न देकर, 4 पक्षियों द्वारा दिलवाये हैं। इस पुराण में अनेक आख्यानों के अतिरिक्त गृहस्थ-धर्म, श्राद्ध, दैनिकचर्या, नित्यक्रम, व्रत एवं उत्त्सव के संबंध में भी विचार प्रकट किये गए हैं तथा 36 वें से 43 वें तक के 8 अध्यायों में योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है। "मार्कण्डेय पुराण" के अंतर्गत, "दुर्गासप्तशती" नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ है, जिसके 3 विभाग हैं। इसके पूर्व में मधुकैटभ-वध, मध्यमचरित में महिषासुर-वध व उत्तर चरित में शुभ-निशुंभ तथा उनके चंड-मुंड व रक्तबीज नामक सेनापतियों के वध का वर्णन है। इस सप्तशती में दुर्गा या देवी को, विश्व की मूलभूत शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है तथा देवी को ही विश्व की मूल चितिशक्ति माना गया है। आधुनिक विद्वानों ने इसे गुप्तकाल की रचना माना है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार इस पुराण में तयुगीन जीवन की अवस्था, भावनाएं, कर्म, धर्म, आचारविचार आदि तरंगित दिखाई देते हैं। इसमें बतलाया गया है कि मानव में वह शक्ति है, जो देवताओं में भी दुर्लभ है। कर्म-बल के आधिक्य के कारण ही देवता भी मनुष्य का शरीर धारण कर पृथ्वी पर आने की इच्छा करते हैं। इस पुराण में विष्णु को कर्मशील देवता तथा भारत देश को कर्मशील देश माना गया है। मार्कण्ड-विजयम् - ले.- इ. सु. सुन्दरार्य। श. 20 । कांचीकामकोटि पीठाधिपति शंकराचार्य के आदेश से रचित नाटक। संस्कृत साहित्य परिषद् के वार्षिक उत्सव में अभिनीत । प्रधान रस-भक्ति। शिवभक्त मार्कण्डेय की कथा इसका विषय
268/ संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड
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