________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उपलब्ध हैं। मन्त्रों की कुल संख्या 1975। इस विषय में अन्यान्य मत मिलते है। माध्यन्दिनों का कोई श्रौत और गृह्य कभी था या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। माध्यन्दिन के नाम से दो शिक्षा ग्रन्थ छपे हैं, जिनका कालनिर्णय अनिश्चित है। माध्यन्दिनीयाचारसंग्रहदीपिका - ले.- पदानाभ । माध्यमिककारिका - ले.- बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन। यह भारतीय दार्शनिकों में मान्यताप्राप्त प्रधान कृति है। इस संस्कृत छन्दोबद्ध रचना को "माध्यमिक शास्त्र" भी कहते हैं। 27 प्रकरण, 400 कारिकाएं। इस पर भव्य, चन्द्रकीर्ति, बुद्धपालित, विवेक तथा स्वयं नागार्जुन ने टीका लिखी है। अपनी ही दार्शनिक रचना पर टीका लिखने की परम्परा इसी ने आरम्भ की। कुछ वृत्तियां तिब्बती अनुवाद में उपलब्ध हैं। महायान - पन्थ के शून्यवाद का विवेचन ग्रंथ का उद्देश्य है। माध्यमिककारिकाव्याख्या - ले.- भवविवेक। यह बौद्धों के शून्यवाद पर स्वतंत्र सा ग्रंथ है। चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से यह ज्ञात है। माध्यमिक-हस्तवाल-प्रकरणम् (अथवा मुष्टिप्रकरणम्) - ले.- बौद्धपंडित आर्यदेव। केवल 6 कारिकाओं की यह लघु कृति है। प्रथम पांच कारिकाओं में विश्व के मायिक रूप का विवेचन तथा छठवीं में परमार्थ निरूपण है। दिङ्नाग ने इस पर टीका लिखी है। टॉमस ने तिब्बती तथा चीनी अनुवाद पर से इसे संस्कृत रूप देने का प्रयास किया है। माध्यमिकावतार - ले.- चन्द्रकीर्ति। शून्यवाद के विस्तृत विवेचन की यह मौलिक रचना है। इसका केवल तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। डॉ. पोसिन द्वारा सम्पादित तथा अनुवादित । माध्वमुखालंकार - ले.- वनमाली मिश्र। माध्वसिद्धान्तसार - ले.- वेदगर्भ पद्मनाभाचार्य। मानमंदिरस्थ-यंत्र-वर्णनम् - ले.- नृसिंह (बापूदेव) ई. 19 वीं शती। विषय - ज्योतिषशास्त्र । मानवगृह्यसूत्रम् - इसके पुरुष नामक दो भाग हैं। भूमिका में यह उल्लेख मिलता है कि यह ग्रंथ लेखक ने लिखा तब किसी संवत् के 100 वर्ष बीत चुके थे। इस पर भट्ट अष्टावक्र की टीका है, जिस में याज्ञवल्क्य, गौतम, पराशर, बैजवाप, शबरस्वामी, भद्रकुमार एवं स्वयं भट्ट अष्टावक्र के उल्लेख है। गायकवाड ओरिएंटल सीरीज में प्रकाशित । मानवधर्मप्रकाश - सन् 1891 में प्रयाग से प्रकाशित संस्कृत-हिन्दी भाषा की इस पत्रिका का संपादन भीमसेन शर्मा करते थे। मानवधर्मशास्त्रम् - (देखिए "मनुस्मृति") मानवधर्मसार - ले.- डॉ. भगवानदास। वाराणसी निवासी। मानवप्रजापतीयम् - ले.- रवीन्द्रकुमार शर्मा। 160 श्लोकों का काव्य।
मानवशाखा (कृष्ण यजुर्वेदीय) - यह सौत्र शाखा है। अर्थात् इस शाखा की संहिता या ब्राह्मण नहीं। इस शाखा का श्रौत व गृह्य सूत्र छप चुका है। इनके- श्रौत-गृह्य के अनेक परिशिष्ट हैं। मानवीयज्ञान विषयक शास्त्रम् - मूल "एसे कन्सनिंग ह्यूमन
अंडरस्टैंडिंग" (लाक लिखित)। वाराणसी के किसी अप्रसिद्ध विद्वान् ने इसका अनुवाद किया है। मानवेदचम्पूभारतम् - ले.- कालिकतनरेश मानवेद (एरलपट्टी) मानसतत्त्वम् - ले.- डॉ. श्यामशास्त्री। विषय - पाश्चात्य मनोविज्ञान। 1929 में प्रकाशित । मानसपूजनम्- ले.- विजयरामाचार्य। गुरु-चतुर्भुजाचार्य । श्लोक-4501 विषय - जयदुर्गास्तोत्र । मानसरंजनी - ले.- वल्लभ। सिद्धान्तकौमुदी की टीका। मानसागरी पद्धति - ले.- मानसिंह । मानसायुर्वेद - ले.- प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज । विदर्भनिवासी। मानसार - यह वास्तुशास्त्र पर दक्षिण भारतीय पद्धति का अधिकृत ग्रंथ माना जाता है। रचयिता की निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। किसी वास्तुविशारद अगस्त्य का नाम "मान" था, अतः यह ग्रंथ उन्होंने रचा होगा। "मानसार" में वास्तु विषयक सभी शिल्पों का समावेश है तथा तत्सम्बन्धी जानकारी विस्तृत रूप से दी गई है। इसके कुल 50 अध्याय हैं। इसका रचनाकाल श्री. भट्टाचार्य के मतानुसार ई. स. 11 वीं शती माना गया है। डॉ. प्रसन्नकुमार आचार्य के मतानुसार शिल्पशास्त्र विषयक यह प्राचीनतम ग्रंथ है। इस के 13 अध्यायों में वास्तुओं का वर्गीकरण, भूमिपरीक्षण, शंकुस्थापन, पदविन्यास, बलिकर्म विधान, नगर एवं दुर्गस्थापना गर्भविन्यास-विधान, अधिष्ठानविधान, स्तम्भलक्षण, प्रस्तरविधान, संधिकर्म विधान, विमानलक्षण, सोपानलक्षण, एकतल-द्वादशतल भवन, प्राकार-विधान, मंदिर और पारिवारिक देवायतन, गोपुर-विधान, मण्डपविधान, मंझिलनिर्माण, गृहमानस्थान, गृहप्रवेश, द्वारस्थान, द्वारमान राजहर्म्य, रथलक्षण, शयनागार, तोरणद्वार, मध्यरंग, काचवृक्ष (शोभावृक्ष) मौलिलक्षण, उपस्कर, शक्तिदेवता, जैन-बौद्ध प्रतिमाए, सप्तर्षि, छ: प्रकार के यक्ष विद्याधर, चार प्रकार के भक्त, हंस, गरुड, नन्दी, सिंह, इत्यादि प्रतिमाएं, निर्माण में दोष, मधूच्छिष्ट-विधान, नयनोन्मीलन विधान इत्यादि शिल्पशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण विषयों का परिचय सविस्तर उपलब्ध होता है। भारतीय शिल्पशास्त्रविषयक वाङ्मय में मानसार एक ज्ञानकोश सा ग्रंथ है। डॉ. प्रसन्नकुमार आचार्य ने मानसार सीरीज के 72 खण्डों में इस ग्रंथ का सांगोपांग परिचय प्रकाशित किया है। 1927 में "डिक्शनरी ऑफ हिन्दु आर्किटेक्चर" में मानसार तथा अन्य शिल्पशास्त्रविषयक ग्रंथों में उपलब्ध शिल्पशास्त्रविषयक पारिभाषिक शब्दावली डॉ.
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 267
For Private and Personal Use Only